गृहस्थी सुखमय हो तो घर में देवताओं का निवास होता है. गृहस्थी में अशांति, कलह और मतभेद बना रहे तो, लक्ष्मी भी रूठ जाती है. भारतीय दर्शन की परिकल्पना भी यही कहती है कि जिस घर में प्रेम का वास होता है वहीं तीनों लोक विराजमान होता है. यही कारण है हर व्यक्ति सुखमय वैवाहिक जीवन की कामना करता है. क्या आप जानना चाहते हैं कि आपका वैवाहिक जीवन


प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के विषय में कुछ न कुछ जानना चाहता है. " कल क्या होगा" इसकी जिज्ञासा सभी को रहती ही है. कुछ इसे जानने का प्रयास करते है तो कुछ सिर्फ सोच के रह जाते है. भविष्य में होने वाली घटनाओं को जानने के लिये ज्योतिष शास्त्र में अनेक विधियां प्रचलित है.


कृष्णमूर्ती पद्धति में नक्षत्रों के आधार पर ज्योतिषी आंकलन किया जाता है. नक्षत्रों पर आधारित होने पर इसमें सभी भाव के नक्षत्र और उपनक्षत्र के स्वामियों का अध्य्यन करने की आवश्यकता होती है. प्रत्येक भाव के नक्षत्र और उस उपनक्षत्र स्वामी का अध्ययन बारीकी से करने पर ज्योतिष की महत्वपूर्ण भविष्यवाणियां की जा सकती हैं. यहां सभी भावों की अपनी एक पहचान


भविष्य के गर्भ में झांकने का प्रयास सभी करते है, कुछ सफल होते है. तथा कुछ को असफलता ही हाथ लगती है. ज्योतिष शास्त्र में इससे संबन्धित अनेक विधियां प्रचलित है. कई बार तो घटनाओं का फलित करने के लिये कई विधियों का प्रयोग एक साथ किया जाता है. ऎसा करने का उद्देश्य मात्र फलित की त्रुटियों को दूर करना ही है. इन्हीं में से एक विधि केतु चक्र (Ketu Chakra)


भविष्य के विषय में फलित करने के लिये शुक्र चक्र (Venus Chakra) विधि का भी प्रयोग किया जाता है. इस विधि में शुक्र चक्र का निर्माण किया जाता है. जन्म कुण्डली में शुक्र जिस नक्षत्र में स्थित होता है. उस नक्षत्र को इस मानवाकृ्ति के चक्र में सबसे ऊपर सिर पर स्थापित किया जाता है.


शनि शुक्र की तुला राशि में उच्च का होता है. और मंगल की मेष राशि में इसे नीचता प्राप्त होती है. मकर व कुम्भ राशियां इसकी स्वयं कि राशियां है. शनि एक राशि में लगभग 2 1/2 वर्ष तक रहता है. मकर राशि में यह विशेष बली होता है. शनि के नक्षत्रों में पुष्य़, अनुराधा और उतराभाद्रपद नक्षत्र आते है. शनि को चतुष्पद, वन- पर्वत, एकान्त स्थान में घूमने वाला, भ्रमणप्रिय, तीक्ष्ण दृष्टि


शास्त्रों ने व्यक्ति को सदैव "कर्म: प्रधान बनने की प्रेरणा दी है. ज्योतिष भी भाग्य से अधिक कर्म पर विश्वास करता है. श्री कृ्ष्ण की गीता से लेकर सभी ग्रंथों ने व्यक्ति में कर्म प्रधान प्रवृ्ति को बढावा दिया है. और ज्योतिष शास्त्र में नौ ग्रहों में से शनि ग्रह को कर्म का कारक ग्रह कहा गया है. (Saturn is the Karak for Karma)


प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के विषय में कुछ न कुछ जानना चाहता है. " कल क्या होगा" इसकी जिज्ञासा सभी को रहती ही है. कुछ इसे जानने का प्रयास करते है तो कुछ सिर्फ सोच के रह जाते है. भविष्य में होने वाली घटनाओं को जानने के लिये ज्योतिष शास्त्र में अनेक विधियां प्रचलित है.


प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के विषय में कुछ न कुछ जानना चाहता है. " कल क्या होगा" इसकी जिज्ञासा सभी को रहती ही है. कुछ इसे जानने का प्रयास करते है तो कुछ सिर्फ सोच के रह जाते है. भविष्य में होने वाली घटनाओं को जानने के लिये ज्योतिष शास्त्र में अनेक विधियां प्रचलित है


विधाता हमारे सभी कर्मों को देखता है. हमारे कर्मों के अनुसार ही वह हमारे जीवन का लेख लिखता है. विधाता का लेख हम कुण्डली से जान पाते हैं. कुन्डली में शुभ योगों की मौजूदगी हमारे शुभ कर्मों का फल होता है और अशुभ योग बुरे कर्मों का फल. कालसर्प दोष (कालसर्प दोष) भी ऐसा ही योग है जो पूर्व जीवन में किये गये हमारे कर्मों से इस जन्म में हमारी कुण्डली में निर्मित


नवग्रहों में राहु केतु रहस्यमयी ग्रह होने के साथ ही साथ काफी प्रभावशाली ग्रह भी हैं. इन दोनों ग्रहों को किसी भी राशि का स्वामित्व प्राप्त नहीं है लेकिन, इनका प्रभाव ऐसा है कि यह जहां भी बैठ जाते हैं उस घर के मालिक बन जाते हैं. भारतीय धर्मशास्त्रों के मुताबिक राहु-केतु के कारण ही सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण होता है. ये दोनों ऐसे ग्रह हैं जिनके बीच में आकर सभी


गुरू को सत्वगुणी ग्रह (the planet who possess seven qualities) माना जाता है. यह ज्ञान व भाग्य का प्राकृति स्वामी ग्रह माना जाता है. ज्योतिषशास्त्र में इसे धन का कारक भी कहा गया है. आजीविका का सम्बन्ध धन व आय से होता है. इस लिहाज से गुरू का सम्बन्ध आजीविका स्थान यानी दसवें घर से होने पर शुभ फलदायी माना जाता है.


जन्म कुण्डली में दशम भाव से काम यानी कर्म क्षेत्र के बारे में पता चलता है. जीवन में कार्य क्षेत्र में आप किस प्रकार अपनी ओर से प्रयत्न करते हैं और कैसे आप इस स्थिति के सामने अपने जीवन को किस प्रकार बेहतर रुप में आगे ले कर चल पड़ते हैं. कुंडली के दसवें घर से जातक के काम काज और व्यवसाय में आने वाले उतार चढा़वों का पता चल पाता है. कार्य क्षेत्र से संबंधित


ज्योतिषशास्त्र में नवम भाव को भाग्य का घर कहा जाता है जबकि दसवें घर को को आजीविका स्थान के रूप में जाना जाता है. किसी भी व्यक्ति के जीवन में ये दोनों ही चीजें बहुत मायने रखते हैं. अगर आप जानना चाहते हैं कि कुण्डली के नवम भाव का आपके जीवन पर क्या प्रभाव है तथा दसवां घर आपको किस प्रकार का फल दे रहा है तो सबसे पहले आपको यह जानना चाहिए


अष्टम भाव मृत्यु स्थान के रुप में विशेष रुप से जाना जाता है. जन्म से लेकर तमाम उम्र जो चीज़ व्यक्ति को सबसे अधिक परेशान करती है, वह मृत्यु. मृ्त्यु से संबन्धित प्रश्न के लिये अष्टम भाव का विचार किया जाता है. अष्टम भाव से छुपी हुई या गुप्त बातें देखी जाती है. मृत्यु भाव होने के कारण इस भाव को शुभ नहीं समझा जाता है इसलिये जिस घटना से इस भाव का संबन्ध बनता है.


परम्परागत ज्योतिष (Traditional astrology) हो या कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurthy Paddhati) सभी में फलादेश के लिये आधारभूत नियमों को समझना बेहद जरूरी होता है. दोनों ही पद्धति में आधारभूत नियमों में समानता है. जब हम विवाह, वैवाहिक जीवन तथा साझेदारी व्यवसाय की बात करते हैं तो परम्परागत ज्योतिष हो या कृष्णमूर्ति पद्धति दोनों में ही सप्तम भाव


जन्म कुण्डली का छठा भाव एक प्रकार से दु:स्थान भी होता है. इस भाव की राशि, ग्रह प्रभाव इत्यादि के कारण जातक को जीवन में कई तरह के उतार-चढा़व बने ही रहती हैं. इस भाव का प्रभाव जातक को विरोधियों, बीमारी और कर्ज की स्थिति से रुबरु कराता है. कृष्णमूर्ति पद्धति में इस भाव और इसमें बैठे ग्रह नक्षत्र एवं राशि नक्षत्र के आधार पर सूक्ष्म विवेचन द्वारा जातक के


कुण्डली का पांचवा भाव (fifth house) संतान भाव होने के साथ-साथ चतुर्थ भाव से दूसरा भाव भी है. इसलिये भौतिक सुख -सुविधाओं में वृद्धि की संभावनाएं देता है. जबकि छठा घर शत्रु भाव होने के साथ-साथ कोर्ट-कचहरी का स्थान होता है. इन दोनों भावों के विषय में कृष्णमूर्ति पद्धति में और भी बहुत कुछ कहा गया है


चौथे घर को सुख (happiness) का घर कहते है. इस घर से भौतिक सुख-सुविधाएं देखी जाती है तथा माता से प्राप्त होने वाले स्नेह को जानने के लिये भी चौथे घर से विचार किया जाता है. व्यक्ति जब कभी घर से दूर जाता है तब माता से दूर रहने की संभावनाएं बनती है. जिसके फलस्वरुप व्यक्ति के सुख में कमी आती है. जिसका कारण चौथे घर पर अशुभ प्रभाव हो सकता है.


अगर आप शक्ति-सामर्थ्य, पराक्रम के विषय में जानना चाहते हैं तो आपको कुण्डली के तीसरे घर को देखना चाहिए. इसी प्रकार जब आप माता से स्नेह तथा सुख के विषय में जानाना चाहते हैं. भूमि एवं वाहन सुख आपको मिलेगा या नहीं मिलेगा अथवा कितना मिलेगा तो इस विषय में चौथे घर को देखा जाता है.


जन्म कुण्डली के दूसरे भाव को धन भाव भी कहा जाता है. शरीर के अंगों में कान को छोड़कर कंठ के ऊपर का पूरा चेहरा दूसरे भाव के अन्तर्गत माना जाता है. जीभ, आँखें, नाक, मुंह तथा होंठ ये सभी दूसरे भाव से देखे जाते हैं. धन भाव फल यह व्यक्ति के जीवन में आर्थिक संपन्नता की स्थिति कैसी होगी इस बारे में जानकारी देता है.


ज्योतिषशास्त्र में ग्रह, नक्षत्र तथा राशियों के समान ही कुण्डली में मौजूद विभिन्न भावों का अपना खास महत्व है. प्रथम भाव से लेकर द्वादश भाव तक सभी के अधीन बहुत से विषय होते हैं. इन विषयों से सम्बन्धित फल ग्रहों राशियों एवं इनसे सम्बन्धित नक्षत्रों के आधार पर शुभ-अशुभ तथा कम और ज्यादा मिलते हैं.


राहु सांप का मुंह व केतु को सांप की पूंछ कहते है. दोनों एक ही शरीर के दो भाग हैं. ज्योतिषशास्त्र के अनुसार दोनों एक दूसरे से विपरीत दिशा में रहते है. केतु मंगल के समान फल देता है. कुण्डली में मंगल के सुस्थिर होने पर केतु से प्राप्त होने वाले फल शुभ होते हैं. परन्तु, केतु को मंगल से भी अधिक कष्टकारी कहा गया है.


राहु ग्रह को विच्छेद कराने वाले ग्रह के रुप में जाना जाता है. वास्तविक रुप में राहु-केतु का कोई अस्तित्व नहीं है, ये बिन्दू मात्र है. ज्योतिषशास्त्र के अनुसार राहु-केतु का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर बहुत गहरा होने के कारण इन्हें ग्रह मान लिया गया है. राहु व्यक्ति को परम्परा व संस्कारों से हटाने की प्रवृति रखता है. इसलिये लग्न भाव पर राहु का प्रभाव पड़ने पर व्यक्ति गैर पारम्परिक


शनि देव को नवग्रहों में प्रमुख स्थान दिया गया है. इनकी मंद गति के कारण व्यक्ति पर इनका प्रभाव दीर्घकाल तक बना रहता है. भगवान शंकर ने शनि देव को दंडाधिकारी का पद दिया है. यही कारण है कि इनके हाथों में दण्ड होता है. अपने दण्ड से शनि देव जीवों को सद्कर्म तथा न्याय की राह पर चलने की प्रेरणा देते हैं. शनि अपने गुणों के कारण सदैव पूजनीय हैं. कृष्णमूर्ति


कृष्णमूर्ति पद्धति से फलादेश करने से पहले आपको सभी ग्रहों की विशेषताओं और गुणों को समझना चाहिए. ग्रहों के गुणों को जाने बिना फल कथन करना कठिन होता है. उदाहरण के तौर पर कुण्डली में शुक्र के फल (Results of Venus) को जानने के लिए उनके गुणों को समझना होगा क्योंकि, सभी ग्रह अपने गुण के अनुसार फल देते हैं. तो, आइये जाने कृष्णमूर्ति पद्धति के


ग्रहों में बुध को राजकुमार का स्थान दिया गया है. इसलिये चंचलता व जिद्द करने की प्रवृति इनका स्वभाव कहा गया है. बुध के स्वभाव बालकों जैसा होता है. बच्चों सी समझ, शैतानी, शरारत इनके व्यवहार में मौजूद होता है. बारह राशियों में से मिथुन व कन्या राशियों (Gemini and Virgo signs) को बुध के स्वामित्व में रखा गया है. बुध के नैसर्गिक गुणों (natural qualities of


ग्रहों में मंगल सेनापति माना जाता है. मंगल जोश और शक्ति से भरपूर ग्रह होता है. यह साहस व बल का कारक होता है. इसे उग्र, क्रोधी तथा उत्साही भी माना जाता है. मंगल से प्रभावित व्यक्तियों में पहल करने की क्षमता विशेष तौर पर पायी जाती है. कृष्णमूर्ति पद्धति में मंगल का प्रभाव एवं उसके गुण के अतिरिक्त भी यह समझने की आवश्यकता होती है की मंगल कौन से भाव


सभी ग्रहों में सूर्य को राजा कहा गया है तथा चन्द्र (Moon) को रानी. चन्द्र को स्नेह व कोमलता का प्रतीक माना जाता है. चन्द्र का स्थान व कुण्डली में माता का स्थान एक ही है क्योकि, दोनों प्रेम व सुख के कारक है. पानी तथा सभी तरल वस्तुओं का स्वामी चन्द्र माना जाता है. यही कारण है कि शरीर में खून का संचालन, पाचक रस आदि वस्तुएं चन्द्र के प्रभाव में रहती हैं. मन व


सूर्य को सभी ग्रहों (planets) में राजा का स्थान दिया गया है. सूर्य का स्वभाव कठोर तथा क्रूर भी कहा गया है. यह ग्रह सभी को प्रकाश देता है. सूर्य को अधिकार व सत्ता का मुख्य ग्रह माना जाता है. सत्ता व अधिकारों का प्रयोग करने वाले व्यक्तियों पर सूर्य का विशेष प्रभाव होता है. सूर्य को शरीर में आत्मा व चेतना का स्थान दिया गया है.


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