भीष्म द्वादशी 2025, जाने पूजा मुहूर्त और कथा

भीष्म द्वादशी का पर्व माघ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को किया जाता है. यह व्रत भीष्म पितामह के निमित्त किया जाता है. इस दिन महाभारत की कथा के भीष्म पर्व का पठन किया जाता है, साथ ही भगवान श्री कृष्ण का पूजन भी होता है. पौराणिक मान्यता अनुसार भीष्म अष्टमी के दिन ही भीष्म पितामह ने अपने शरीर का त्याग अष्टमी तिथि को किया था लेकिन उनके निमित्त जो भी धार्मिक कर्मकाण्ड किए गए उसके लिए द्वादशी तिथि का चयन किया गया था.अत: उनके निर्वाण दिवस के पूजन को इस दिन मनाया जाता है.

भीष्म द्वादशी पूजा मुहूर्त

  • इस वर्ष भीष्म द्वादशी 09 फरवरी 2025 को रविवार के दिन मनाई जाएगी.
  • द्वादशी तिथि आरंभ – 08 फरवरी 2025, 20:15 से.
  • द्वादशी समाप्त – 09 फरवरी 2025, 07:25.

भीष्म द्वादशी कथा

महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे होते हैं. पांडवों के लिए भीष्म को हरा पाना असंभव था. इसका मुख्य कन था की उन्हें इच्छा मृ्त्यु का वरदान प्राप्त था. वह केवल अपनी इच्छा से ही प्राण त्याग सकते थे. युद्ध में भीष्म पितामह के कौशल से कौरव हार ही नहीं सकते थे. उस युद्ध में पितामह को पराजित करने के लिए एक योजना बनाई गई. इस योजना का मुख्य केन्द्र शिखंडी था. पितामह ने प्रण लिया था की वह कभी किसी स्त्री के समक्ष शस्त्र नहीं उठाएंगे. इसलिए उनकी इस प्रतिज्ञा का भेद जब पांडवों को पता चलता है. तब एक चाल चली जाती है. युद्ध समय पर शिखंडी को युद्ध में उनके समक्ष खड़ा कर दिया जाता है. अपनी प्रतिज्ञा अनुसार पितामह शिखंडी पर शस्त्र नहीं उठाते हैं. शस्त्र न उठाने के कारण भीष्म पितामह युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र नहीं उठाते हैं. इस अवसर का लाभ उठा कर अर्जुन उन पर तीरों की बौछार शुरू कर देते हैं. पितामह बाणों की शैय्या पर लेट जाते हैं.

परंतु उस समय भीष्म पितामह अपने प्राणों का त्याग नहीं करते हैं. सूर्य दक्षिणायन होने के कारण भीष्म पितामह ने अपने प्राण नहीं त्यागे. सूर्य के उत्तरायण होने पर ही वे अपने शरीर का त्याग करते हैं. भीष्म पितामह ने अष्टमी को अपने प्राण त्याग दिए थे. पर उनके पूजन के लिए माघ मास की द्वादशी तिथि निश्चित की गई. इस कारण से माघ मास के शुक्ल पक्ष द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी कहा जाता है.

भीष्म द्वादशी पर की पूजा विधि

  • भीष्म द्वादशी के दिन नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान के पश्चात भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए.
  • सूर्य देव का पूजन करना चाहिए.
  • तिल, जल और कुशा से भीष्म पितामह के निमित्त तर्पण करना चाहिए.
  • तर्पण का कार्य अगर खुद न हो पाए तो किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा इसे कराया जा सकता है.
  • ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देनी चाहिए.
  • इस दिन अपने पूर्वजों का तर्पण करने का भी विधान बताया गया है.
  • इस दिन भीष्म कथा का श्रवण करना चाहिए. मान्यता है कि इस दिन विधि विधान के साथ पूजन इत्यादि करने से व्यक्ति के कष्ट दूर होते हैं.
  • पितृरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. इस पूजन से पितृ दोष से भी मुक्ति प्राप्त होती है.

भीष्म द्वादशी पर करें तिल का दान

भीष्म द्वादशी का दिन तिलों के दान की महत्ता भी दर्शाता है. इस दिन में तिलों से हवन करना. पानी में तिल दाल कर स्नान करना और तिल का दान करना ये सभी अत्यंत उत्तम कार्य बताए गए हैं. तिल दान करने से अपने जीवन में खुशियों का आगमन होता है. सफलता के दरवाजे खुलते हैं. हिंदू धर्म में इस दिन को लेकर अलग-अलग तरह की मान्यताएं हैं, लेकिन इस पर्व पर तिलों को बेहद ही महत्वपू्र्ण माना जाता.

भीष्म द्वादशी के दिन तिलों के दान से लेकर तिल खाने तक को शुभ बताया गया है. हिन्दू धर्म में तिल पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय माने जाते हैं. शुद्ध तिलों का संग्रह करके यथाशक्ति ब्राह्मणों को दक्षिणासहित तिल का दान करना चाहिए. तिल के दान का फल अग्निष्टोम यज्ञ के समान होता है. तिल दान देने वाले को गोदान करने का फल मिलता है.

क्यों मिला था भीष्म पितामह को “ इच्छा मृत्यु” का वरदान

महाभारत की कथा अनुसार ​हस्तिनापुर में शांतनु नामक राजा और उनकी पत्नी गंगा के पुत्र देवव्रत थे. देवव्रत के जन्म के बाद अपने वचन के मुताबिक गंगा, शांतनु को छोड़कर चली जाती हैं. शांतनु अकेले रह जाते हैं. एक बार राजा शांतनु, जब सत्यवती नाम की कन्या से भेंट होती है. सत्यवती के रूप पर मोहित हो जाते हैं. उनसे विवाह के लिए आग्रह करते हैं. राजा शांतनु सत्यवती के पिता के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा. उनके पिता शर्त के रुप में उनके सामने सत्यवती की संतान ही राज्य की उतराधिकारी बनाने की शर्त रखते हैं.

राता शांतनु इस शर्त को अस्वीकार कर देते हैं. परंतु के पुत्र देवव्रत को जब इस बात का पता चलता है, तो वह अविवाहित रहने का संकल्प लेते हैं और सत्यवती की संतानों को राज्य का उत्तराधिकारी होने का वचन देते हैं. इसके बाद सत्यवती का विवाह शांतनु से होता है. पुत्र की कठोर प्रतिज्ञा सुनकर, राजा शांतनु देवव्रत को इच्छा मृत्यु का वरदान देते हैं. इस प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत को भीष्म नाम प्राप्त होता है.

अष्टमी के दिन भीष्म ने प्राण त्यागे, द्वादशी को होती है पूजा

माघ मास में शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी का समय तर्पण और पूजा-पाठ के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है. इस दिन स्नान दान का भी अत्यंत ही शुभ फल मिलता है. इस दिन को तिल द्वादशी भी कहते हैं. इसलिए इस दिन तिलों का दान और सेवन दोनों ही कार्य उत्तम होते हैं. मान्यता है कि पांडवों ने इस दिन पितामह भीष्म का अंतिम संस्कार किया था. इसलिए इस दिन को पितरों के लिए तर्पण और श्राद्ध करना शांति प्रदान करने वाला होता है.

मान्यता है कि भीष्म द्वादशी के दिन उपवास रखने से व्यक्ति की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. जीवन में सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है. इस द्वादशी के दिन भगवान विष्णु का पूजन भी किया जाता है. ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं और सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देने से सुख की वृद्धि होती है. द्वादशी के दिन स्नान-दान करने से सुख-सौभाग्य, धन-संतान की प्राप्ति होती है. इस दिन गरीबों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन किया जाता है. इस व्रत से समस्त पापों का नाश होता है. इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. भीष्म द्वादशी का उपवास संतोष प्रदान करता है.

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श्री (सरस्वती) पंचमी 2025, हर परीक्षा में होंगे सफल

माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन श्री पंचमी का त्यौहार मनाया जाता है. इस पर्व को हर्ष और उत्साह के साथ मनाया जाता है. यह दिन भिन्न भिन्न रुपों में अलग अलग स्थानों पर मनाते हुए देखा जा सकता है. इस दिन मंदिरों में सरस्वती पूजा होती है. मान्यता है की इस दिन देवी सरस्वती की पूजा अर्चना करने से विधा और ज्ञान की प्राप्ति होती है इसीलिए इस दिन माँ सरस्वती की पूजा पीले फूलों, फलों व पीले व्यंजनों से की जाती है.

हिन्दू संस्कृति में इस दिन से कई धार्मिक और लोक परम्पराएं जुडी हुई हैं. इसी दिन देवी सरस्वती की पूजा करने के बाद छोटे बच्चों को विद्यारम्भ या फिर प्राथमिक शिक्षा की प्रक्रिया आरंभ की जाती है. श्री पंचमी के दिन को बच्चों की शिक्षा आरम्भ करने के लिए बहुत ही शुभ माना गया है.

श्री पंचमी के अलग-अलग रुप

“श्री” शब्द का अर्थ लक्ष्मी और सरस्वती के संदर्भ में लिया जाता रहा है. श्री को विजय, धन संपदा, बौद्धिकता और ज्ञान के साथ जोड़ा गया है. भारतीय परंपरा में देवी सरस्वती और देवी लक्ष्मी इन दोनों को ही श्री नाम से संबोधित किया जाता रहा है. इन दोनों का ही एक पर्व श्री पंचमी के नाम से मनाया जाता है. यह पर्व पंचांग गणना के अनुसार अलग-अलग महीनों में मनया जाता रहा है.

श्री पंचमी पूजा मुहूर्त

  • पंचमी तिथि प्रारम्भ – 02 फरवरी 2025 को 09:14 से.
  • पंचमी तिथि समाप्त -03 फरवरी 2025 को 06:52 तक.

श्री पंचमी प्रकृति के बदलाव की शुरुआत का समय होता है. इस समय पर पकृति का नया कलेवर दिखाई देता है. इस समय पर चारों एक अलग प्रकार का रंग दिखाई देता है. ये समय चारों ओर पीले फूलों की बहार होती है. इस पर्व का प्रकृतिक और धार्मिक रंग दोनों ही ऎसी छाप छोड़ते हैं जो सभी पर एक समान रुप से प्रभाव भी डालते हैं.

श्री पंचमी – क्यों माना जाता है शुभ मुहूर्त समय

श्री पंचमी के समय को बहुत ही शुभ माना जाता है. इस दिन पर कई प्रकार के मांगलिक कार्यों को किया जाता है. बहुत सी नई चीजों की शुरुआत करने के लिए इस दिन को विशेष महत्व बताया गया है. इस दिन को विवाह जैसे पवित्र बंधन में बंधने के लिए भी शुभ माना गया है. विवाह कार्य इस दिन जरुर होते हैं. माना जाता है की इस दिन विवाह होने पर वैवाहिक जीवन मजबूत होता है और उम्र भर एक दूसरे का साथ निभाते हैं.

श्री पंचमी के दिन से कई मान्यताएं जुडी हुई हैं. इस दिन को रीती-रिवाजों के लिए उत्तम माना गया है. मान्यता है कि ब्रम्हांड की रचना इसी दिन हुई थी. देवी सरस्वती का प्राकट्य हुआ था. इसीलिए देवी सरस्वती की पूजा का विधान है. इस दिन गुरु से ज्ञान लिया जाता है. शिक्षा ग्रहण करने का शुभारम्भ भी किया जाता है. पुस्तकों और वाद्य यंत्रों को पूजा की जाती है.

श्री पंचमी के दिन बच्चों को पहली बार कलम पकड़ाई जाती है. विद्वानों का मानना है की इस दिन बच्चों की जीभ पर शहद से ॐ बनाना चाहिए. इससे बच्चा बुद्धिमान बनता है. अन्नप्राशन की परंपरा के लिए श्री पंचमी का दिन बहुत शुभ होता है. इनके साथ-साथ गृह प्रवेश और नए कार्यों की शुरुआत के लिए भी इस दिन को श्रेष्ठ माना गया है.

श्री पंचमी – विभिन्न स्थानों ऎसे मनाई जाती है

श्री पंचमी का उत्सव भारत वर्ष के प्रत्येक स्थानों पर अलग-अलग रुपों में मनाया जाता है. हर स्थान में अपनी अलग-अलग परम्पराएं और मान्यताएं मौजूद हैं. यह सभी कुछ इस प्रकार से श्री पंचमी का पर्व मनाते हैं.

मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस दिन को शिक्षण संस्थानों को खास तौर पर मनाया जाता है. इस दिन पीले रंग का उपयोग सबसे अधिक होता है. पहनावा हो या फिर खान-पान सभी में इस रंग की मौजूदगी दिखाई देती है. विधि विधान के साथ देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. संस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. यह समय मेल-मिलाप और खुशियों को बांटने का समय होता है.

उत्तर भारत क्षेत्र में श्री पंचमी के दिन घरों को साफ सुथरा किया जाता है. सजाया जाता है, पीले वस्त्र धारण किए जाते हैं. केसर-हल्दी का टिका लगाया जाता है. धूमधाम से मनाया जाता है और इस दिन मिठाई के रूप में केसरिया खीर को घरों में भोग स्वरुप बनाया जाता है. बूंदी व बेसन के लड्डू, मालपुए का प्रसाद सभी को बांटा जाता है. देवी सरस्वती का पूजन होता है.

बंगाल में श्री पंचमी का पर्व सरस्वती पूजा के रुप में धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन भी दुर्गा पूजा की तरह ही पंडाल सजाकर देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. देवी सरस्वती को प्रसाद के रूप में लड्डू, खिचड़ी, राजभोग इत्यादि को बनाया जाता है. पंजाब और हरियाणा क्षेत्र में इस दिन को बसंत पंचमी के रुप में मानाया जाता है. इस दिन पर पतंगे भी उड़ाई जाती है. सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है.

श्री पंचमी पर कैसे करें पूजा

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पान के पत्ते पर हल्दी लगाकर पान के पत्ते को माता के पास रखना चाहिएदेवी सरस्वती को को पुष्प अर्पित करने चाहिए. पंचामृत अर्पित करना चाहिए, दीप जला कर धुप-अगरबत्ती से पूजा करनी चाहिए. माता सरस्वती के मंत्र जाप और आरती के बाद हाथ जोड़कर माता सरस्वती से उज्जवल भविष्य की कामना का आशीर्वाद मांगना चाहिए. घर में पढने वाले बच्चों की किताबों और पैन को भी पूजन स्थल पर रखा जा सकता है.

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वरद कुंद चतुर्थी 2025

माघ माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को “वरद कुंद चतुर्थी” के रुप में मनाया जाता है. वैसे यह चतुर्थी अन्य नामों से भी जानी जाती है. जिसमें इसे तिल, कुंद, विनायक आदि नाम भी दिए गए हैं. इस दिन भगवान श्री गणेश का पूजन होता है. वरद चतुर्थी जीवन में सभी सुखों का आशीर्वाद प्रदान करने वाली है. भगवन श्री गणेश द्वारा दिया गया आशीर्वाद ही “वरद” होता है.

भगवान श्री गणेश का एक नाम वरद भी है जो सदैव भक्तों को भय मुक्ति और सुख समृद्धि का आशीर्वाद होता है. चतुर्थी तिथि भगवान गणेश की पूजा के लिए विशेष महत्वपूर्ण बतायी गयी है. इसलिए प्रत्येक माह की चतुर्थी तिथि के गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जाता है. भगवान श्री गणेश चतुर्थी का उत्सव संपूर्ण भारत वर्ष में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. चतुर्थी को भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी जाती है. शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को वरद विनायकी चतुर्थी के नाम से भी पुकारा जाता है. चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी पर श्री गणेश का पूजन करना अत्यंत ही शुभदायक होता है.

वरद कुंद चतुर्थी मुहूर्त

इस वर्ष माघ मास के शुक्ल पक्ष के दौरान आने वाली कुंद चतुर्थी का पर्व 01 फरवरी 2025 को मनाया जाएगा.

  • चतुर्थी तिथि आरंभ – 01 फरवरी 2025 शनिवार
  • चतुर्थी तिथि समाप्त – 02 फरवरी 2025 रविवार.

कुंद चतुर्थी पूजन कैसे किया जाए

वरद कुंद चतुर्थी के दिन भगवान श्री गणेश जी का पूजन उल्लास और उत्साह के साथ होता है. चतुर्थी तिथि व्रत के नियमों का पालन चतुर्थी तिथि से पूर्व ही आरंभ कर देना चाहिए. पूजा वाले दिन प्रात:काल उठ कर श्री गणेश जी के नाम का स्मरण करना चाहिए. चतुर्थी के दिन सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर साफ-स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. चतुर्थी व्रत वाले दिन नाम स्मरण का विशेष महत्व रहा है. कुंद चतुर्थी पूजा स्थल पर भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. अक्षत, रोली, फूल माला, गंध, धूप आदि से गणेश जी को अर्पित करने चाहिए. गणेश जी दुर्वा अर्पित और लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए. पूजा की विधि इस प्रकार है –

  • जिस स्थान पर पूजा करनी है उस स्थान को गंगाजल से शुद्ध करना चाहिए. पूजा के लिए ईशान दिशा का होना शुभ माना गया है. गणेश जी की प्रतिमा और चित्र को स्थापित करना चाहिए.
  • भगवान श्री गणेश जी पूजा में दूर्वा का उपयोग अत्यंत आवश्यक होता है. इसका मुख्य कारण है की दुर्वा(घास) भगवान को अत्यंत प्रिय है.
    भगवान गणेश के सम्मुख ऊँ गं गणपतयै नम: का मंत्र बोलते हुए दुर्वा अर्पित करनी चाहिए.
  • इसके बाद आसन पर बैठकर भगवान श्रीगणेश का पूजन करना चाहिए.
  • कपूर, घी के दीपक से आरती करनी चाहिए.
  • भगवान को भोग लगाना चाहिए. तिल और गुड़ से बने लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए और उस प्रसाद को सभी में बांटना चाहिए.
  • व्रत में फलाहार का सेवन करते हुए संध्या समय गणेश जी की पुन: पूजा अर्चना करनी चाहिए. पूजा के पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए उसके बाद स्वयं भोजन ग्रहण करना चाहिए.
  • इस दिन दान का भी विशेष शुभ फल मिलता है. इसलिए इस दिन गर्म कपड़े, कंबल, गुड़, तिल इत्यादि वस्तुओं का दान करना चाहिए. इस प्रकार विधिवत भगवान श्रीगणेश का पूजन करने से घर-परिवार में सुख-समृद्धि में निरंतर वृद्धि होती है.

चतुर्थी व्रत कथा

चतुर्थी व्रत से सबंधित कथा भगवान श्री गणेश जी के जन्म से संबंधित है तो कुछ कथाएं भगगवान के भक्त पर की जाने वाली असीम कृपा को दर्शाती है. इसी में एक कथा इस प्रकार है. शिवपुराण में बताया गया है कि शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि पर गणेशजी का जन्म हुआ था. इस कारण चतुर्थी तिथि को जन्म तिथि के रुप में मनाया जाता है. इस दिन गणेशजी के लिए विशेष पूजा-पाठ का आयोजन होता है. मान्यता के अनुसार एक बार माता पार्वती स्नान के लिए जब जाने वाली होती हैं तो वह अपनी मैल से एक बच्चे का निर्माण करती हैं और उस बालक को द्वारा पर पहरा देने को कहती हैं.

उस समय भगवान शिव जब अंदर जाने लगते हैं तो द्वार पर खड़े बालक, शिवजी को पार्वती से मिलने से रोक देते है. बालक माता पार्वती की आज्ञा का पालन कर रहे होते हैं. जब शिवजी को बालक ने रोका तो शिवजी क्रोधित हो गए और अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर धड़ से अलग कर देते हैं. जब पार्वती को ये बात मालूम हुई तो वह बहुत क्रोधित होती हैं. वह शिवजी से बालक को पुन: जीवित करने के लिए कहती हैं. तब भगवान शिव ने उस बालक के धड़ पर हाथी का सिर लगा कर उसे जीवित कर देते हैं. उस समय बालक को गणेश नाम प्राप्त होता है. वह बालक माता पार्वती और भगवन शिव का पुत्र कहलाते हैं.

चंद्रमा का क्यों मिला श्राप

वरद चतुर्थी तिथि शुरू होने से लेकर खत्म होने तक चन्द्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए. मान्यता है की चतुर्थी तिथि के दिन चंद्र देव को नहीं देखना चाहिए. पौराणिक कथाओं के अनुसार चंद्रमा को भगवान श्री गणेश द्वारा श्राप दिया गया था की यदि कोई भी भाद्रपद माह चतुर्थी तिथि के दिन चंद्रमा का दर्शन करेगा तो उसे कलंक लगेगा. ऎसे में इस कारण से चतुर्थी तिथि के दिन चंद्रमा के दर्शन को मना किया जाता है. कहा जाता है कि इस दोष से मुक्ति के लिये वरद गणेश चतुर्थी के व्रत को किया और मिथ्या दोष से मुक्ति को प्राप्त होते हैं.

एक बार चंद्रमा, गणेशजी का ये स्वरूप देखकर उन पर हंस पड़ते हैं. जब गणेश जी ने चंद्र को ऎसा करते देखा तो उन्होंने कहा की “चंद्रदेव तुम्हें अपने रुप पर बहुत घमण्ड है अत: मै तुम्हें श्राप देता हूं की तुम्हारा रुप सदैव ऎसा नहीं रहेगा”. गणेश जी के चंद्र को दिए शाप के कारण ही वह सदैव धीरे-धीरे क्षीण होने लगते हैं और आकार में बदलाव रहता है.

श्राप को सुनकर चंद्रमा को अपने अपराध पर पश्चताप होता है और वे गणेश से क्षमा मांगते हैं. तब गणेश उन्हें कहते हैं कि श्राप निष्फल नहीं होगा. पर इस का असर कम हो सकता है. तुम चतुर्थी का व्रत करो तो इसके पुण्य से तुम फिर से बढ़ने लगोगे. चंद्रमा ने ये व्रत किया. इसी घटना के बाद से चंद्र कृष्ण पक्ष में घटता है और फिर शुक्ल पक्ष में बढ़ने लगता है. गणेशजी के वरदान से ही चतुर्थी तिथि पर चंद्र दर्शन करने का विशेष महत्व है. इस दिन व्रत करने वाले भक्त चंद्र पूजन के पश्चात ही भोजन ग्रहण करते हैं.

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शाकंभरी जयंती 2025 – जाने क्यों लिया देवी ने शाकम्भरी अवतार

पौष माह की पूर्णिमा को शाकम्भरी जयंती मनाई जाती है. शक्ति के अनेक अवतारों में से एक अवतार शाकंभरी माता का भी है. देवी दुर्गा के भिन्न-भिन्न अवतारों में से एक शांकंभरी अवतार सृष्टि के कल्याण और सृजन हेतु होता है. माता शाकंभरी सभी प्राणियों की भूख को शांत करने वाली हैं. देवी शाकम्भरी के आशीर्वाद से जीवन में धन और धान्य की कभी कमी नहीं होती है. व्यक्ति का जीवन सभी सुखों से परिपूर्ण होता है.

शाकम्भरी देवी की पूजा में भंडारे ओर कीर्तनों का आयोजन होता है. देवी शाकम्भरी की पूजा में आसन और साधन का विशेष ख्याल रखा जाता है. शाकंभरी पूजा में मंत्रों और साधना का प्रयोग अवश्‍य करना चाहिए. देवी की साधना नहीं कर सकें तो कोई बात नहीं कम से कम शाकंभरी जयंती के दिन मंत्रों का जाप कर लेना भी बहुत ही उत्तम होता है.

शाकंभरी जयंती पूजा मुहूर्त समय

दुर्गा उपासना में शक्ति के शाकम्भरी रुप की उपासना का विधान है. इस वर्ष 13 जनवरी 2025 के दिन माँ शाकंभरी जयंती मनाई जाएगी.

कैसा है माता शाकंभरी स्वरुप

मां शाकंभरी का नीला वर्ण की हैं. उनके नेत्र भी कमल के समान सुंदर हैं. वह कमल पुष्प पर विराजमान हैं. देवी एक हाथ में कमल धारण किए हुए हैं और दूसरे हाथ में बाणों को धारण किए हुए हैं. अपने भक्तों की शाक-वनस्पति इत्यादि भोजन से रक्षा करने के कारण ही माता को शाकंभरी कहा गया है.

शाकंभरी पूजा और विधि-विधान

पौष मास की पूर्णिमा के दिन देवी का पूजन विशेष रुप से प्रारम्भ होता है. माता के पूजन का आरंभ कलश स्थापना के साथ होता है. कलश को देवी के प्रतीक रुप में स्थापित किया जाता है. इस कारण से पूजा में कलश की स्थापना की जाती है. कलश स्थापना के लिए भूमि को जिस स्थान पर पूजा करनी है उस स्थान को शुद्ध किया जाता है. गंगा-जल से भूमि को शुद्ध कर लेने के बाद. इस स्थान पर अक्षत डाले जाते हैं. कुमकुम का टिका लगाया जाता है कलश को अक्षत के ऊपर स्थापित किया जाता है.

शाकंभरी पूजा में माता का आहवान किया जाता है. माता की पूजा में पुष्प, गंध, दीप, अक्षत इत्यादि से पूजन होता है. इस मंत्र के साथ माता को सामग्री अर्पित किया जाता है “जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते”.

शाकंभरी मंत्र

शाकंभरी माता की पूजा में माता के मंत्र का जाप अत्यंत आवश्यक होता है. माता के इस मंत्र की को 108 बार पढ़ना चाहिए. इस मंत्र के द्वारा माता का ध्यान करना चाहिए. यह मंत्र सभी प्रकार के सुखों को देने में सहायक होता है –

शाकंभरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।

मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।।

शाकम्भरी अवतार कथा

देवी दुर्गा के मुख्य अवतारों में से एक माँ शाकंभरी की उपासना भी बड़े भक्ति भाव और उल्लास के साथ की जाती है. शांकम्भरी जयंती के अवसर पर देश भर में शक्ति स्थलों में पूजा अर्जना और जागरण इत्यादि धार्मिक कार्य किए जाते हैं. देवी दुर्गा के अवतारों में एक शाकम्भरी अवतार है. दुर्गा के सभी अवतारों का होना किसी न किसी उद्देश्य से ही हुआ है. माता के अनेक अवतार प्रसिद्ध हैं. इस कारण से माता की पूजा में इनकी कथा का पाठ अवश्‍य करना चाहिए.

शाकंभरी जयंती कथा

माँ शाकम्भरी जयंती से संबंधित कुछ पौराणिक कथाएं प्राप्त होती है. इन कथाओं से ज्ञात होता है की दुर्गा ने क्यों लिया शाकम्भरी का अवतार और किसी प्रकार किया माता शाकम्भरी ने लोगों का कल्याण. देवी शाकंभरी के बारे में दुर्गा सप्तशती में भी सुनने को मिलता है. दुर्गा सप्तशति में कथा अनुसार एक बार धरती पर अनेकों दैत्य ने चारों और आतंक मचा रखा था. उसके अतंक द्वारा ऋषि-मुनि अपने धार्मिक कार्य नहीं कर पाते थे. पृथ्वी पर सभी यज्ञ और धार्मिक कार्य दैत्यों के प्र्कोप से प्रभावित हो रहे थे. पृथ्वी पर सभी शुभ कार्य समाप्त हो गए. पृथ्वी पर वर्षा नहीं हुई. सौ वर्षों तक वर्षा ना होने के कारण चारों और हाहाकार मच जाता है. पृथ्वी पर जल का अभाव हो जाने से प्राणीयों का जीवन संकट में पड़ जाता है.

चारों ओर अकाल पड़ने लग जाते हैं. दुर्भिक्ष के चलते सभी प्राणी वनस्पतियां जीव जन्तु नष्ट होने लग जाते हैं. इस अकाल के कारण सभी के प्राण संकट में पड़ जाते हैं. चारों ओर मृत्यु का ताण्डव मच जाता है. ब्र्ह्मा जी सृष्टि के संतुलन के बिगड़ने से परेशान हो उठते हैं. पृथ्वी पर जीवन समाप्त होने लगता है. अन्न-जल के अभाव में प्रजा मरने लगती है. उस समय समस्त ऋषि मिलकर देवी भगवती की उपासना करते हैं. जिससे दुर्गा जी ने शाकम्भरी नाम से अवतार लिया और उनकी कृपा से वर्षा हुई. इस अवतार में देवी ने जलवृष्टि से पृथ्वी को शाक-सब्ज़ी से परिपूर्ण कर देती हैं. इससे पृथ्वी के सभी प्राणियों को जीवन मिलता है और पृथ्वी पुन: हरी-भरी हो जाती है.

शाकंभरी जयंती अन्य कथा

एक अन्य पौराणिक कथा अनुसार एक दुर्गम नामक दैत्य ने अपने आतंक द्वारा सभी को कष्ट दिए थे. दैत्य ने देवों को पराजित करने का विचार किया. उसने सोचा की वेदों और यज्ञों द्वारा जो शक्ति देवताओं को प्राप्त होती है उसे नष्ट कर दिया जाए. इसके लिए ब्रह्मा जी की साधना आरंभ की. उसकी तपस्या के प्रभाव से ब्रह्मा ने उसे दर्शन दिए.

ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया की उसे वेद की संपूर्ण शक्ति प्राप्त होगी. दैत्य को वरदान देने के बाद ब्रह्मा जी वहां से चले जाते हैं. वेदों का वरदान मिलन पर समस्त ज्ञान शून्य हो आता है. सृष्टि पर ज्ञान का प्रकाश समाप्त होने से अंधकार की शक्ति बढ़ने लगी. चारों ओर उत्पात मचने लग जाता है. तब सभी देव देवी शक्ति की उपसना करना आरंभ कर देते हैं. माता से प्राथना करते हैं की वह सृष्टि को बचाए.

मां जगदंबा देवों की प्रार्थना सुन कर प्रसन्न होती हैं ओर उन्हें विजय श्री का वरदान देती हैं. माता तब दुर्गम दैत्य से वेदों को मुक्त कराती हैं. माता ने मां शाकंभरी का रुप धरा और पृथ्वी पर वर्षा की जिससे अंधकार हट गया और पृथ्वी पर जल का प्रवाह होता है. शाकुंभरी देवी ने दुर्गम दैत्य का अंत करके सभी को उस दैत्य के आतंक से मुक्त करवाया. अत: माता का प्रकाट्य ही शाकंभरी जयंती के रुप में मनाया जाता है.

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रामदास नवमी : समर्थ रामदास जी का जीवन चरित्र

रामदास जी का संत परंपरा में एक विशेष स्थान रहा है. इनके द्वारा की गई रचनाओं और ज्ञान को पाकर लोगों का मार्गदर्शन हो पाया है. आज भी उनकी संत रुपी वाणी के वचनों को पढ़ कर और सुन कर लोग प्रकाशित होते हैं. संत रामदास का जन्म होना एक अत्यंत शुभ घटना थी. रामदास जी ने अपनी प्रतिभा, व्यक्तित्व और चिन्तन से संत परंपरा को आगे बढ़ाया है. रामदास जी ने अपनी प्रखर प्रतिभा, व्यक्तित्व और प्रौढ़ चिन्तन से संत परंपरा को आगे बढ़ाया है. कवि सुलभ सुहृदयता एवं मार्मिक व्यंजना शैली के बल पर संत विचारों और काव्य का प्रचार किया. रामदास जी के व्यक्तित्व में जो आकर्षण था उसने सभी के मध्य उन्हें विशेष स्थान दिलवाया.

अपने विरोधियों से संघर्ष और अपनी वाणी से सभी को परास्त किया. उन्होंने पंडितों और दूसरे विद्धानों के साथ शास्त्रार्थ किया. संत मत के मार्ग से बीच में आने वालि हर बाधा को उन्होंने अपने ज्ञान द्वारा दूर करने का प्रयत्न किया. भारतीय संत-परम्परा का इतिहास काफी प्राचीन है, यहां पर समय-समय पर संतों का प्रादुर्भाव होता आया है. इनमें रामदास का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा है.

इनका जन्म काल (1606 – 1682) का है. इस महान संत को महाराष्ट्र के महान संतों में से एक कहा गया है. इन्होंने अपने दीर्घ जीवन काल में अनेक लम्बी यात्राएँ करके भारत का भ्रमण किया. अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया, जिसके स्मारक अब भी अनेक स्थानों पर उपलब्ध हैं. कबीर, रैदास, नामदेव, दादू आदि संतो की श्रेणी में रामदास जी का नाम का बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है. इनकी गणना उच्च कोटि के संतों के रूप में की है. रामदास जी ने मराठी में रचित काव्य बड़ी संख्या में मिलते हैं.

क्यों मनाई जाती है दास नवमी

समर्थ गुरु रामदास जी के देहावसान काल समय को ही दास नवमी के रुप में मनाया जाता है. रामदास जी ने फाल्गुन कृष्ण नवमी को समाधि ली थी.इस दिन को उनके भक्तों द्वारा एक पर्व के रुप में मनाया जाता है. जो आज भी आज भी पूरे जोश और उत्साह के साथ में मनाया जाता है. इस समय पर उनके अनुयायी दास नवमी के उत्सव के रूप में सभाएं और भजन कीर्तन करते हैं. रामदास जी ने जीवन का अंतिम समय महाराष्ट्र में सातारा के पास परली के किले में व्यतीत किया था. अपने आरंभिक समय पर वह कहीं भी एक स्थान पर अधिक समय तक नही रहा करते थे. पर अपने अंतिम समय के दौरान उन्होंने परली के किले में ही बिताया. यहीं उनकी समाधि भी बनाई गई है.

रामदास जी का बचपन

रामदास जी का बचपन भी रोचक रहा है. कहा जाता है की वह बचपन नट्खट भी थे. कई तरह की शरारतें भी किया करते थे. उनकी शरारतों के बारे में आस-पड़ोस के लोग उनके माता-पिता से शिकायत भी किया करते थे. यहां कुछ घटनाओं का वर्णन इस प्रकार है – एक बार रामदास जी की माता ने उन्हें कहा की तुम कितनी शरारत करते हो ओर दूसरों को परेशान करते है. अपने भाई को देखो वह कितना काम करता है और सभी का ध्यान भी रखता है कितनी चिंता करता है. पर तुम ऎसा नहीं करते हो. माता की यह बात रामदास जी के मन में घर कर जाती है. वह अपनी शरारत को छोड़कर ध्यानमग्न हो जाते हैं.

एक दिन वह किसी एकांत में बैठ कर बहुत देर तक ध्यान में बैठे रह जाते हैं. दिनभर में जब माता-पिता को दिखाई नहीं देते हैं और वह अपने बड़े बेटे से पूछते हैं की रामदास कहां तो वह कहते हैं की उन्हें नहीं पता है. माता-पिता दोनों को चिंता होती है और वह रामदास की खोज में निकले पड़ते हैं. आखिर में काफी ढूंढ़ने के बाद रामदास जी घर पर ही एक कमरे में मिलते हैं. वह उस कमरे में ध्यान में लीन हुए बैठे होते हैं. तब उनसे पूछा जाता है कि वह इस स्थान पर ऎसे क्यों बैठे हुए थे, तो रामदास जी कहते हैं कि मैं यहां पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूं. इस घटना ने उनके जीवन का स्वरुप ही बदल जाता है.

रामदास द्वारा किए गए कार्य

रामदास जी ने अनेकों ऎसे कार्य किए जिनके द्वारा लोगों का कल्याण संभव हो पाया है. उनके जीवन की दिनचर्या भी बहुत रोचक और प्रभावशाली रही थी. रामदास जी ने अपने जीवन द्वारा समाज के युवा वर्ग को भी प्रभावित किया. पैदल ही यात्राएं भी की, उनकी यात्राओं में जन सैलाब सदैव ही रहा. भ्रमण काल के दौरान उन्होंने विभिन्न स्थानों पर हनुमानजी की प्रतिमाएं भी स्थापित की. कुछ मठों का भी निर्माण किया और राष्ट्र नव-चेतना के निर्माण में सहयोग दिया.

एक कथा उनके विवाह से संबंधित है. कहा जाता है की उनका विवाह जब हो रहा होता है तो उस समय विवाह मंडप से निकल जाते हैं. अपने विवाह को अधूरा छोड़कर चले आने पर वह खुद को भगवान राम की उपासना में लगा देते हैं. राम भक्ति और राम की कठोर साधना के कारण ही उन्हें रामदास नाम मिला.

रामदास जी का जीवन एक साधाराण था पर असाधारण रुप से सभी को आकर्षित कर लेता था. योगशास्त्र में उनकी पकड़ मजबूत थी. वह सदैव रामनाम का जाप करते थे. जो भी कहते थे वह सभी कसौटी पर खरा उतरता था. संगीत के उत्तम जानकार थे इसलिए उनके अनेक रागों में गायी जानेवाली रचनाएं भी प्राप्त होती हैं.

रामदास जी के रचना(लेखन) कार्य

रामदास जी का जीवन दुर्गम गुफाओं, पहाड़ों, जंगलों और नदियों के किनारे पर गुजरा था. यहीं पर उन्होंने अपनी कई रचनाओं का निर्माण किया. रामदास जी ने दासबोध, आत्माराम, मनोबोध आदि ग्रंथों की रचना की. उनका दासबोध ग्रंथ गुरुशिष्य संवाद रूप में है. रामदास जी द्वारा रची गयी आरतियाँ आज भी कई स्थानों पर गायी जाती हैं.

अपनी रचनाओं में राजनीती, व्यवस्थापन शास्त्र जैसे विषयों पर भी बहुत कुछ लिखा. मान्यताओं और अनेक कथाएं उनके जीवन से जुड़ी हुई हैं. कहा जाता है की उन्हें बचपन में ही भगवान राम के दर्शन होते हैं. इस लिए उनका नाम रामदास हो गया था. शिवाजी महाराज ने रामदास जी को अपना गुरु माना था. ऎसे महान संत का प्रकाश भारत के कोने कोने में फैला और आज भी उसकी ज्योति सभी ओर प्रकाशित रहती है.

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शीतला षष्ठी व्रत – जानें, क्या है शीतला षष्ठी की व्रत कथा

शीतला षष्ठी का व्रत षष्ठी तिथि के दिन किया जाता है. माता षष्ठी का पूजन संतान की कुशलता और दिर्घायु के लिए किया जाता है. इस व्रत का संपूर्ण भारत वर्ष में बहुत महत्व होता है. शीतला माता का पूजन करने से घर परिवार में सुख और शांति का वास होता है. देवी शीतल जीवन के ताप को नष्ट करती हैं और सुख शांति प्रदान करती हैं.

शीतला षष्ठी व्रत दिलाता है रोग से मुक्ति

शीतला षष्ठी का व्रत करने से विशेष रुप से रोगों से मुक्ति होती है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये व्रत शरीर के कष्ट दूर करने वाला होता है. इस व्रत का प्रभाव संतान का सुख देने वाला होता है. दैहिक और दैविक ताप से मुक्ति मिलती है. पौराणिक मान्यता के अनुसार यह व्रत पुत्र प्रदान करने वाला और सौभाग्य देने वाला होता है. कहते हैं कि जो महिलाएं पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखती हैं उनके लिए ये व्रत उत्तम कहा गया है. साथ ही इस व्रत को करने से मन शीतल रहता है। इसके अलावा चेचक से भी मुक्ति मिलती है.

शीतला षष्ठी व्रत नियम

शीतला माता के व्रत में नियम और विधान का विशेष रुप से पालन किए जाने कि सलाह दी जाती है. इनके व्रत में सात्विकता और शुचिता का ख्याल रखना चाहिए. इस व्रत के प्रभाव से दीर्घायु की प्राप्ति होती है. नि:संतानों को संतान की प्राप्ति होती है. वंश वृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त होता है. विवाहित ओर पुत्रवती स्त्रीयां विशेष रुप से इस व्रत को रखती हैं. शीतला षष्ठी माता अपने नाम के जैसी ही शीतल भी हैं.

शीतला षष्ठी में शीतला माता के निमित्त किए जाने वाले कार्यों में किसी भी प्रकार की गर्म वस्तु का उपयोग नहीं किया जाता है. चाहे उसमें खाना हो, नहाना हो या अन्य बातें. इस दिन चूल्हे का पूजन किया जाता है, इसलिए चूल्हे को जलाया नहीं जाता है. पूजा के लिए सभी प्रकार की सामग्री प्रसाद को एक दिन पहले ही बना लिया जाता है. इस दिन जो इस व्रत को रखता है उसे नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग नहीं करना चाहिए. किसी भी प्र्कार के गर्म भोजन को करने से भी बचना चाहिए. इस दिन ठंडा खाना खाए जाने का विधान बताया गया है.

इस दिन व्रती को खाना एक दिन पहले ही बना कर रख लेना चाहिए. व्रत वाले दिन उसी बासी भोजन का सेवन करना चाहिए. इस दिन पर चूल्हा भी नहीं जलाया जाता है. इस व्रत को उतरी भारत में विशेष रुप से मनाए जाने की परंपरा रही है. कुछ जगहों में इस व्रत को बसौड़ा, बासियौरा इत्यादि नामों से भी जाना जाता है. देश में सभी वर्ग के लोग इस उत्सव को बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं. चाहे इस दिन व्रत रखा जाए या न रखा जाए लेकिन हर कोई इस का धार्मिक कार्य हो, बहुत ही श्रद्धा से मनाता है.

शीतला षष्ठी व्रत कथा

शीतला षष्ठी है, का पर्व माघ मास के शुक्ल पक्ष के षष्ठी तिथि के दिन बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है. छठी तिथि के दिन महिलाएं व्रत रखती हैं और शीतला माता की पूजा की जाती है. यह व्रत करने के लिए देवी शीतला की प्र्तिमा और दीवार पर माता का चित्र भी अंकित किया जाता है. बच्चों की सुख- समृद्धि के लिए माताएं इस दिन शीतला माता को विधि विधान के साथ पूजती हैं.

इस दिन व्रत के साथ ही माता शीतला जी की कथा और आरती भी की जाती है. माता शीतला जी की कथा सुनने और पढ़ने से पाप नष्ट होते हैं. मानसिक शांति प्राप्त होती है. माता शीतला जी के साथ अनेक पौराणिक कथाएं और लोक कथाएं प्राप्त होती है. लोक जीवन से जुड़ा यह पर्व आज भी उसी उत्साह और विश्वास के साथ मनाया जाता है जिस विश्वास के साथ ये पहले मनाया जाता था.

शीतला षष्ठी कथा इस प्रकार है – एक बहुत पुराने समय की बात है. एक नगर में एक ब्राह्मण दंपति के सात बेटे हुआ करते थे. ब्राह्मण ने अपने सातों पुत्रों का विवाह बहुत धूम धाम से किया. कुछ समय बीत जाने के बाद भी बेटों के यहां कोई संतान पैदा नहीं हो पाई थी. एक दिन ब्राह्मण दंपति को किसी ने शीतला षष्ठी व्रत करने की सलाह दी. माता-पिता की आज्ञा से बेटों और बहुओं ने इस व्रत को किया. शीतला षष्ठी व्रत के प्रभाव से उन सभी को एक वर्ष के पश्चात संतान की प्राप्ति होती है.

इसके बाद, वह इस व्रत को प्रत्येक वर्ष करने लगने का प्रण लेते हैं. एक बार षष्ठी तिथि के व्रत में ब्राह्माणीसे व्रत के एक नियम की अनदेखी हो जाती है. ब्राह्मणी उस दिन गर्म जल से स्नान कर बैठती है. व्रत के दिन उसी रात को ब्राह्माणी सपने में देखती है की उसके परिवार को बहुत कष्ट हो रहा है. परिवार में जो संतानें पैदा हुई थीं वह मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं.

इस सपने के टूटने से अचानक ही उसकी नींद खुल जाती है. ब्राह्माणी ने देखा की उसके परिवार के सभी सदस्य मर चुके है, परिवार का ऎसा अंत देख ब्राह्मण स्त्री विलाप करने लगती है. आस-पास के लोग उसका विलाप सुन वहां आ जाते हैं. पड़ोसी उस स्त्री से कहते हैं यह अवश्य ही माता शीतला का प्रकोप है. तुम्हें माता शीतला से अपने पापों के लिए क्षमा मांगनी चाहिए. यह सारी बातें सुन उस ब्राह्मणी को अपनी गलती याद आती है. वह ब्राह्माणी रोती हुई जंगल की ओर चल पड़ती है. उस अंधकार से भरे जंगल में उसे एक वृद्ध स्त्री आग से झुलसी हुई दिखाई पड़ती है.

ब्राह्मणी उसके पास जाकर उसकी इस स्थिति का कारण पूछती है. वृद्ध स्त्री उसे कहती है कि ये तुम्हारे कारण हुआ है. तुम ने व्रत के दिन गर्म पानी से स्नान किया और गर्म भोजन किया था. इस कारण मुझे ये कष्ट झेलना पड़ रहा है. यह सुनकर ब्राह्माणी अपने किए पर पश्चाताप करती हुई क्षमा मांगती है. अपने परिवार को जीवन दान देने की प्रार्थना करती है. तब वृद्धा स्त्री उसे कहते हैं. कि इस आग की जलन को शांत करने के लिए उस पर दही का लेप करे जिससे उसको शांति मिल पाए.

तब ब्राह्मणी उस वृद्धा स्त्री के शरीर पर दही का लेप लगाती है. वृद्धा स्त्री अपने रुप में आती है और शीतला माता का रुप धर लेती है. माता शीतला ब्राह्मणी को क्षमा कर देती हैं. उसका परिवार भी जीवित हो जाता है. शीतला माता के व्रत को पूरी निष्ठा और भावना से किया जाने से संतान को सुख प्राप्त होता है और लम्बी आयु का आशीर्वाद मिलता है.

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श्रीराम विवाहोत्सव 2025, राम-सीता विवाह कथा

मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्री राम विवाह पंचमी के रुप में मनाई जाती है. मान्यता है की इसी दिन भगवान श्री राम जी का सीता जी से विवाह संपन्न हुआ था. राम विवाह का बहुत ही सुंदर वर्णन हमें “रामायण” में प्राप्त होता है. यह एक अलौकिक विवाह था. जिसमें प्रेम और शक्ति का संतुलन था. जिसने जनमानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ी थी.

श्री राम का विवाह त्रेतायुग की घटना है. जब श्री राम अपने भाई लक्ष्मण सहित गुरु विश्वामित्र की सहायता हेतु दैत्यों के संहार के लिए निकल पड़ते हैं. तब उनकी इस विजय यात्रा के समय एक पड़ाव मिथला में पड़ता है. मिथिला के राजा जनक की पुत्री जानकी सीता के साथ श्री राम का विवाह होता है.

आज भी अयोध्या और मिथिला के क्षेत्रों में इस पर्व के उत्साह की छटा हर ओर बिखरी दिखाई देती है. यह एक ऎसा पावन समय होता है जब सब और भक्ति और प्रेम का स्वरुप झलकता दिखाई देता है. श्री राम विवाह उत्सव की धूम संपूर्ण भारत वर्ष में देखी जा सकती है. इस अवसर पर मंदिरों में विशेष पूजा पाठ होता है.

श्री राम सीता जीवन चरित्र

प्राचीन समय से चली आ रही परंपराओं और लोक कथाओं में राम-सीता कथा का होना अत्यंत अनिवार्य है. इनके बिना हमारे पौराणिक कथानकों को शायद पूर्णता न मिल पाए. राम को मर्यादापुरुषोत्तम कहा जाता है और जगतजननी सीता को पतिव्रता और लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है. यदि दांपत्य जीवन का चित्रण किया जाता है तो उसमें श्री राम और सीता जी का वर्णन सदैव होता है. राम और सीता की जोड़ी को आदर्शतम जोड़ी माना गया है. आज भी जब विवाह कार्य संपन्न होते हैं तो नव युवा जोड़े को राम सीता संबंध बताया जाता है.

श्री राम और सीता का जन्म ही एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना होती है. दोनों का जन्म और संपूर्ण जीवन एक ऎसा आदर्श है जो सदियां बीत जाने पर भी आज भी उसी स्वरुप में मौजूद है. जहां राम का जन्म अयोध्या में दशरथ जी के घर पर होता है. वहीं सीता पृथ्वी से जन्मी और मिथिला के राजा जनक उनके पिता बने.

सीता स्वयंवर कथा

श्री राम और सीता के विवाह का वर्णन तुलसीदास द्वारा निर्मित रामायण में प्राप्त होता है. इस दोनों के विवाह का बहुत ही सुंदर और विशद वर्णन हमें रामायण में मिलता है. राम और सीता का मिलन सर्वप्रथम पुष्प वाटिका में होता है. जहां सीता जी राम जी को देखकर मन ही मन उन्हें पसंद कर बैठती हैं. देवी पार्वती के समक्ष उन्हें अपने पति के रुप में पाने का आशीर्वाद मांगती हैं. जब सीता का स्वयंवर होता है तो राजा जनक एक शर्त रखते हैं. वह सीता का विवाह उसी से करने की बात कहते हैं जो शिव धनुष को उठा सकता हो.

बचपन में जब सीता जी ने खेल-खेल में शिव धनुष को उठा लिया, तो सभी इस दृष्य को देख कर अचंभित रह जाते हैं. उस धनुष को कोई भी साधारण व्यक्ति हिला नही पाया था. सीता जैसी छोटी सी बालिका ने उसे आसानी से उठा लिया होता है. तब राजा जनक प्रण(वचन) करते हैं की वह अपनी पुत्री सीता का विवाह उसी से करेंगे जो इस धनुष को उठा सकने का सामर्थ्य रखता हो.

सीता के विवाह योग्य होने पर, राजा जनक ने सीता के स्वयंवर की घोषणा कर देते हैं. राजों को निमंत्रण भेजा जाता है. वहीं दूसरी और वन गमन करते समय ऋषि विश्वामित्र को राजा जनक द्वारा भेजा गया निमंत्रण प्राप्त होता है. ऋषि विश्वामित्र जी, राम-लक्ष्मण के साथ जनकपुरी में राजकुमारी सीता के स्वंयवर में भाग लेने के लिए पहुंचते हैं. राम सीता की प्रथम भेंट एक पुष्पवाटिका में होती है और पुन: स्वयंवर में राम का आना एक अदभुत घटना ही होती है. सीता स्वयंवर में रखी गई शर्त के अनुसार सभी राजा एक-एक करके अपने पराक्रम को दिखाने के लिए उस धनुष को उठाने के लिए आते हैं. परंतु शिव धनुष को कोई भी राजा नहीं उठा पाता है और न ही प्रत्यंचा चढा पाता है.

राजा जनक इस स्थिति को देख कर अत्यंत ही निराश हो जाते हैं. उनके मुख से कठोर वचन निकलते हैं. वह कहते हैं की इस सभा में कोई भी योग्य व्यक्ति नहीं है जो इस धनुष को उठा सके. राजा के वचन सुन कर श्री राम जी अपने गुरु की आज्ञा को पर धनुष को उठाने के लिए जाते हैं. भगवान राम को शिव जी के धनुष को उठा कर प्रत्यंचा चढ़ाने लगते हैं तो धनुष टूट जाता है.धनुष के टूटने के आथ ही राम सीता जी के साथ विवाह बंधन में बंधते हैं.

श्री राम सीता विवाह पूजन

विवाह पंचमी के दिन विधि विधान से राम सीता की पूजा की जाती है. इस समय पर कई जगहों पर झांकियां और कीर्तन इत्यादि का आयोजन भी होता है. राम कथा का श्रवण इस समय पर विशेष रुप से किया जाता है.पूजा में श्रीराम जी और माता सीता जी की प्रतिमा या चित्र स्थापित करना चाहिए. भगवान राम को पीले वस्त्र और माता सीता को लाल वस्त्र भेंट करने चाहिए.

श्री राम व सीता जी पूजन में रामायण का पाठ करना चाहिए. विवाह प्रसंग को सुनना और पढ़्ना अत्यंत ही शुभदायक होता है. भगवान को खीर और पूरी का भोग भी लगाना चाहिए. परिवार समेत प्रसाद ग्रहण करना चाहिए. परिवार के कुशल मंगल की कामना करनी चाहिए. राम और सीता का विवाह जीवन आदर्श है. जो प्रत्येक जनमानस के मन में आज भी समाहित है. राम सीता का विवाह जीवन आदर्श, समर्पण, प्रेम निष्ठा और नैतिक मूल्यों को दर्शाता है.

श्रीराम विवाहोत्सव महत्व

वैवाहिक जीवन मांगल्य सुख को प्रदान करता है. इस दिन श्री राम और सीता जी के विवाह उत्सव को मनाने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है. यदि किसी जातक की कुण्डली में विवाह के सुख का अभाव दिखाई देता है तो उसे श्री रामसीता विवाह पंचमी के दिन श्री राम और सीता जी के समक्ष घी का दीपक जला कर उनसे अपने दांपत्य जीवन के सुख की कामना करनी चाहिए. विवाह पंचमी के दिन यह उपाय करने से दांपत्य सुख में कमी या शादी में आने वाले व्यावधान दूर होते हैं.

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स्कंद षष्ठी 2025 – स्कंद षष्ठी पर ऎसे करें भगवान कार्तिकेय का पूजन

हिन्दू पंचांग अनुसार षष्ठी तिथि को स्कंद षष्ठी के रुप में मनाई जाती है. षष्ठी तिथि भगवान स्कन्द की जन्म तिथि होती है. भगवान स्कंद की षष्ठी तिथि को दक्षिण भारत में बहुत उल्लास के साथ मनाया जाता है. दक्षिण भारत में स्कंद भगवान का पूजन अत्यंत ही विशाल रुप से होता है. स्कंद भगवान अनेकों नाम से जाना जाता है. जहां उत्तर भारत में ये कार्तिकेय कहलाते हैं वहीं दक्षिण भारत में इन्हें स्कंद कहा जाता है.

स्कंद षष्ठी तिथि का उत्सव श्रृद्धा और विश्वास से मनाया जाता है. इस दिन कृतिकाओं का पूजन होता है. साथ ही पूजा में भगवान स्कंद का अभिषेक होता है. स्कंद जी के साथ ही शिव परिवार का पूजन भी होता है. भगवान स्कंद को कुछ स्थानों पर विवाहित तो कुछ स्थानों पर अविवाहित बताया गया है. उत्तर भारत में जहां भगवान कार्तिकेय के अविवाहित होने के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं. तो उसी स्थान में दक्षिण भारत में भगवान कार्तिकेय- मुरुगन स्वामी को अपनी दो पत्नियों के साथ दर्शाया गया है. इनकी दो पत्नियों में देवसेना और वल्ली का नाम आता है.

स्कंद भगवान के अन्य नाम

स्कंद षष्ठी के दिन भक्ति भाव से पूजन किया जाता है. इस दिन व्रत का नियम भी किया जाता है. व्रत में फलाहार का सेवन होता है. भगवान स्कंद देव का पूजन अर्चना करते हैं और व्रत एवं उपवास रखते हैं. स्कंद भगवान को अनेकों नामों जैसे कार्तिकेय, मुरुगन व सुब्रहमन्यम इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है. इस पर्व को विशेष रुप से मनाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है. इस उत्सव के समय पर मंदिरों में विशेष पूजा अर्चना की जाती है. स्कन्द देव को भगवान शिव और देवी पार्वती का पुत्र बताया गया है, यह गणेश के भाई हैं. इन्हें देवताओं का सेनापति बनाए गए.

स्कंद षष्ठी का व्रत कब और कैसे करें

स्कंद भगवान का पूजन कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि में किया जाता है. प्रत्येक मास में आने वाली षष्ठी तिथि का पूजन परिवार को सुख समृद्धि दिलाने वाला होता है. स्कंदपुराण में स्कंद षष्ठी का व्रत और इसकी महिमा का वर्णन मिलता है. दक्षिण भारत में इस व्रत का ज्यादा प्रचलन है. वहां कुछ स्थानों पर इस व्रत को कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को किया जाता है.

स्कंद षष्ठी व्रत का पालन कभी भी किया जा सकता है. इस व्रत व्रत रख कर षष्ठी को कार्तिकेय की पूजा की जाती है. साल के किसी भी मास की षष्ठी को यह व्रत आरंभ किया जा सकता है. खासकर चैत्र, आश्विन, मार्गशीर्ष और कार्तिक मास की षष्ठी को इस व्रत को आरंभ करने का प्रचलन अधिक है.

इस अवसर व्रत के आरंभ करने से पूर्व व्रत का संकल्प लिया जाता है. इस दिन षष्ठी तिथि के अवसर पर स्कंद भगवान जी के साथ ही शिव-पार्वती की पूजा की जाती है. पूरे वर्ष इस व्रत का पालन करने के उपरांत व्रत का उद्यापन करना चाहिए. मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. स्कंद षष्ठी की कथा के अनुसार स्कंद षष्ठी के व्रत से ही अनेकों लाभ प्राप्त होते हैं.

पौराणिक कथाओं में एक कथा च्यवन ऋषि की भी आती है जिनमें उनकी आंखों की रोशनी को पाने के लिए स्कंद भगवान का पूजन किया था. उन्हें आंखों की रोशनी इस व्रत के प्रभाव से मिलती है. स्कंद षष्ठी व्रत की महिमा से ही प्रियव्रत को संतान का सुख प्राप्त होता है. इस प्रकार षष्ठी व्रत के महत्व के उदाहरण मिलते हैं.

स्कंद षष्ठी पूजा नियम

  • स्कंद षष्ठी के दिन स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए.
  • भगवान स्कंद के नामों का स्मरण और जाप करना चाहिए.
  • पूजा स्थल पर स्कंद भगवान की प्रतिमा या चित्र स्थापित करना चाहिए. साथ में भगवान शिव, माता गौरी, भगवान गणेश की प्रतिमा या तस्वीर भी स्थापित करनी चाहिये.
  • भगवान कार्तिकेय को अक्षत, हल्दी, चंदन से तिलक लगाना चाहिए.
  • भगवान के समक्ष पानी का कलश भर के स्थापित करना चाहिए और एक नारियल भी उस कलश पर रखना चाहिए.
  • पंचामृत, फल, मेवे, पुष्प इत्यादि भगवान को अर्पित करने चाहिए. भगवान के समक्ष घी का दीपक जलाना चाहिए.
  • भगवान को इत्र और फूल माना चढ़ानी चाहिये. स्कंद षष्ठी महात्म्य का पाठ करना चाहिए.
  • स्कंद भगवान आरती करनी चाहिए और भोग लगाना चाहिए.
  • भगवान के भोग को प्रसाद सभी में बांटना चाहिए और खुद भी ग्रहण करना चाहिए. भगवान स्कंद का पूजन करने से कष्ट दूर होते हैं और परिवार में सुख समृद्धि का वास होता है.

स्कंदषष्ठी व्रत के प्रभाव से मिलता है संतान सुख

स्कन्द षष्ठी व्रत करने से नि:संतानों को संतान की प्राप्ति होती है, सफलता, सुख-समृद्धि प्राप्त होती है. स्कंद षष्ठी का व्रत संतान जन्म और उसके सुखद भविष्य के लिए किया जात है. जो दंपति संतान सुख से वंचित हैं या जिन्हें किसी कारण से संतान का सुख नही पा रहा हो उनके लिए ये व्रत अत्यंत ही प्रभावशाली होता है.

स्कंदषष्ठी व्रत महिमा

स्कंद षष्ठी पूजा दु:ख का निवारण करती है. इससे जीवन में मौजूद दरिद्रता समाप्त होती है. इस दिन व्रत का पालन करने से पापों की शांति होती है. विधि विधान से पूजा करने पर विजय की प्राप्ति होती है. कार्यों में सफलता मिलती है. रुके हुए काम बनते हैं. काम में आने वाली अड़चनें दूर होती हैं. रोग या कोई ऎसी व्याधी जो लम्बे समय से असर डाल रही हो वह भी समाप्त होती है. षष्ठी पूजा में एक अखंड दीपक जलाने से जीवन में मौजूद नकारात्मकता भी शांत होती है. स्कंद षष्ठी महात्म्य का पाठ करने से व्रत का फल प्राप्त होता है.

नव ग्रह की शांति में भी स्कंद षष्ठी व्रत का प्रभाव बहुत होता है. धर्म शास्त्रों में स्कंद षष्ठी तिथि के लिए मंगल शांति के पूजन के लिए अत्यंत उत्तम बताया गया है. इस दिन भगवान कार्तिकेय का पूजन करने से व्यक्ति में साहस और पराक्रम की वृद्धि होती है. ज्योतिष के अनुसार अगर किसी भी व्यक्ति की कुण्डली में मंगल ग्रह कमजोर हो या शुभ न हो. तो उस स्थिति में ग्रह की अशुभता से बचने के लिए कार्तिकेय भगवान का पूजन करना अत्यंत शुभ फल देने वाला होता है. व्यक्ति को स्कंद भगवान का पूजन करने से अकाल मृत्यु के भय से मुक्ति मिलती है.

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कार्तिक पूर्णिमा 2025 : कार्तिक पूर्णिमा इसलिए होती है इतनी खास

कार्तिक मास में आने वाली पूर्णिमा को “कार्तिक पूर्णिमा” के नाम से जाना जाता है. कार्तिक पूर्णिमा का पर्व संपूर्ण भारत वर्ष में उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस दिन के पावन अवसर पर देश के अनेक क्षेत्रों पर पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान कार्य किए जाते हैं. इस उपलक्ष्य पर प्रकाश का उत्सव भी होता है. सभी ओर प्रकाश किया जाता है. घर हो या भवन या ईमारतें सभी को रोशनी से भी सजाया जाता है.

पवित्र नदियों ओर धर्म स्थलों को को दीपों से सजया जाता है. इस अवसर पर धर्म कथाओं और धार्मिक यज्ञ-हवन जैसे काम होते हैं. स्नान और दान का भी इस दिन विशेष महत्व बताया गया है. इस दिन दान-पुण्य करना कभी भी व्यर्थ नहीं जाता. इस दिन पर जरुरतमंदों की मदद करना सबसे उत्तम कार्य माना जाता है. धर्म धार्मिक कार्यों और दान की महिमा का महत्व किसी विशेष त्योहार पर और भी बढ़ जाती हैिसी शृंखला में कार्तिक पूर्णिमा पर धार्मिक कार्य करने का कई गुना फल मिलता है. कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव का पूजन करने से जन्म जन्माम्तर के पाप नष्ट हो जते हैं.

कार्तिक पूर्णिमा व्रत मुहूर्त

कार्तिक पूर्णिमा बुधवार, नवम्बर 5, 2025 को मनाई जाएगी
पूर्णिमा के दिन चन्द्रोदय – 05:11 पी एम
पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ – नवम्बर 04, 2025 को 10:36 पी एम बजे
पूर्णिमा तिथि समाप्त – नवम्बर 05, 2025 को 06:48 पी एम बजे

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष कि पूर्णिमा को कार्तिक पूर्णिमा के दिन त्रिपुरासुर नामक राक्षस का संहार करके भगवान शिव ने सभी देवों कों उसके कष्ट से मुक्त किया था, इसलिए इसे ‘त्रिपुरी पूर्णिमा’ के नाम से भी पुकारा जाता है. अगर इस पूर्णिमा का समय कृतिका नक्षत्र का संयोग भी बन रहा हो तो इसे महाकार्तिकी माना जाता है. यह बहुत ही पुण्यदायी हो जाती है. अगर इस समय पर भरणी नक्षत्र या रोहिणी नक्षत्र का योग बनता हो तो भी इसका महत्व और बढ़ जाता है.

कार्तिक पूर्णिमा के दिन मत्स्यावतार जयंती

ग्रंथों के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा के समय पर ही भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था. इस दिन को मत्स्य जयंती के रुप में भी मनाए जाने कि परंपरा रही है. भगवान विष्णु का पूजन और भागवद कथा का पाठ इस दिन किया जाता है. इस दिन गंगा स्नान के बाद दीप-दान का फल दस राजसूय यज्ञों के समान होता है.

महापुनीत पर्व

कार्तिक पूर्णिमा के दिन को महापुनीत पर्व के नाम से भी पुकारा जाता है. इसका अर्थ होता है कि इस दिन किया गया दान अत्यंत ही शुभ और अमोघ फलों को देने वाला होता है. यह महादान की श्रेणी में आता है. इस दान को किसी भी रुप में किया जा सकता है. दान के लिए अनाज, वस्त्र, भोजन, वस्तु, धन-संपदा में किसी भी वस्तुर का दन चाहे वह छोटा हो या बड़ा सभी का अत्यंत महत्व होता है.

कार्तिक पूर्णिमा की पूजन विधि

  • कार्तिक पूर्णिमा के दिन ब्रह्म मुहूर्त समय पर उठ कर स्नान करना चाहिए.
  • इस दिन पवित्र नदियों, जलाशयों, घाटों इत्यादि में स्नान करना चाहिए. इस दिन गंगा स्नान का पुण्य फल प्राप्त होता है.
  • यदि गंगा स्नान करने नहीं जा सकते हैं तो घर में ही नहाने के पानी में गंगाजल मिलाकर स्नान करना उत्तम होता है.
  • कार्तिक पूर्णिमा के दिन घी, दूध, केले, खजूर, चावल, तिल और आवंले का दान उत्तम माना जाता है.
  • भगवान शिव, भगवान श्री विष्णु का पूजन करना चाहिए.

पूजन के पश्चात संध्या समय घर के मुख्य द्वार पर, तुलसी पर दीपक जरुर जलाना चाहिए.

कार्तिक पूर्णिमा की पौराणिक कथा

पौराणिक कथा के मुताबिक तारकासुर नाम का एक राक्षस था. तारकासुर का वध कार्तिकेय ने किया था. तारकासुर के वध के पश्चात उसके तारकासुर के पुत्र अपने पिता कि मृत्यु का बदला लेने हेतु घोर तपस्या करते हैं. ब्रह्माजी से वरदान स्वरुप वह अमरता का वर मांगते हैं. ब्रह्माजी तीनों की तपस्या से प्रसन्न होते हैं पर उन्हें अमरता का वरदान के बदले कुछ ओर मांगने को कहते हैं.

तब तीनों ने ब्रह्मा से तीन अलग नगरों का निर्माण और ऎसे रथ की प्राप्ति कराएं जिसमें तीनों बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में भ्रमण कर सकें. उन तीनों की मृ्त्यु तभी हो पाए जब वह एक समय पर एक सीध पर हों और केवल एक बाण से उन्हें मारा जा सके. ब्रह्मा जी उन्हें इस इसी तरह का वरदान देते हैं.

वरदान पाकर तीनों अपना आतंक चारों ओर मचाने लग जाते हैं. मयदानव तीनों के लिए तीन नगर बना देते हैं. तीनों ने मिलकर अपनी शक्ति द्वारा तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया. इंद्रआदि सभी देवताओं को वे देव लोक से निकाल देते हैं. सभी देव भयभीत होकर भगवान ब्रह्मा की शरण में जाते हैं. ब्रह्मा जी ने देवों को शांत किया और उन्हें शिव की शरण जाकर सहायता मांगे, केवल शिव ही उन का संहार कर सकते हैं. राक्षसों से भयभीत हुए देव, भगवान शिव की शरण में जाते हैं.

शिव भगवान देवों को आश्वासन देते हैं और दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण होता है. इस दिव्य रथ का निर्माण देवताओं ने किया. रथ के पहिए चंद्रमा और सूर्य से निर्मित होते हैं. इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के घोड़े बनते हैं. हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बनते हैं. इस दिव्य रथ पर भगवान शिव विराजमान होते हैं. भगवानों और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध होता है. ब्रह्मा के वरदान अनुसार एक हज़ार वर्ष पश्चात जब तीनों एक सीध पर आते हैं तो मिलकर एक होत हैं ओर उसी क्षण तीनों रथ एक सीध में आए, भगवान शिव ने एक बाण से उनका नाश कर दिया.

स्नान दान की पूर्णिमा

कार्तिक मास में आने वाली पूर्णिमा वर्षभर की पवित्र पूर्णमासियों में से एक है. इस दिन किये जाने वाले दान-पुण्य के कार्य विशेष फलदायी होता है. इस दिन संध्याकाल समय में दीपदान करने से पुनर्जन्म के पाप भी शांत हो जाते हैं. इस दिन दीपदान करने का है बड़ा महत्व होता है.

कार्तिक पूर्णिमा पर सिर्फ गंगा स्नान ही नहीं बल्कि दीपदान का भी खास है. दीप दान करने से पूर्वजों की आत्मा को शांति और मुक्ति प्राप्त होती है. श्रद्धालु काशी, संगम हरिद्वार जैस पवित्र स्थलों पर जाकर दीपदान करते हैं. कार्तिक पूर्णिमा को देव दीपावली के नाम से भी जाना जाता है. मान्यता अनुसार देवता भी इस दिन दीये जलाते हैं.

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चंपा षष्ठी 2025 – इस दिन होता है मार्तण्ड शिव का पूजन

मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी “चंपा षष्ठी” नाम से भी मनाई जाती है. मान्यता है की चंपा षष्ठी का पर्व भगवान शिव के एक अवतार खंडोवा को समर्पित है. खंडोवा या खंडोबा को अन्य कई नामों से भी पुकारा जाता है. इसमें से खंडेराया, मल्हारी, मार्तण्ड आदि नाम बहुत प्रसिद्ध हैं.

चंपा षष्ठी और खंडोवा मान्यता और महत्व

भगवान शिव के एक अवतार खंडोवा देव को महाराष्ट्र और कर्नाटक की ओर रहने वाले लोगों के मध्य कुल देवता के रुप में पूजा जाता है. इनकी पूजा हर वर्ग के लोगों द्वारा की जाती है. इनके यहां न कोई गरीब है न ही कोई अमीर है. सभी लोग समान रुप से देव पूजा करते हैं. इस के अलावा कुछ लोगों द्वारा खंडोबा को स्कंद का अवतार भी समझा जाता है, तो कुछ के अनुसार यह शिव अथवा उनके भैरव रूप का अवतार माने जाते हैं. कुछ अन्य विचारकों के अनुसार खंडोबा के संबंध में यह भी कहा जाता है कि वह एक वीर यौद्धा थे और उन्हें देवता का रुप मान लिया गया था. ऎसे बहुत से विचार खंडोबा के बारे में मिलते हैं.

अलग-अलग विचार और मान्यताओं के इस संदर्भ में एक बात तो महत्वपूर्ण रुप से सिद्ध हो ही जाती है की खंडोबा का स्थान सभी लोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है. उन्ही के लिए इस तिथि के दिन भिन्न भिन्न रुप में उत्सवों का आयोजन होता है.

चंपा षष्ठी पूजन विधि

चंपा षष्ठी के पूजन का उत्सव देश के पूना और महाराष्ट्र क्षेत्रों में अधिक होता है. इस स्थान पर जेजुरी स्थान में खंडोबा मंदिर में चंपा षष्ठी का उत्सव बहुत धूमधाम के साथ मनाया जाता है. इस दिन हल्दी, फल सब्जियां इत्यादि खंडोबा देव को अर्पित की जाती हैं. यहां मेले का आयोजन भी होता है. मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को भगवान शिव का पूजन होता है. इस दिन भगवान शिव के मार्तण्ड रुप की पूजा होती है.

मार्तण्ड रुप एक अत्यंत उग्र रुप भी है जिसे भैरव नाम से भी पुकारा जाता है. इस दिन प्रात:काल समय भगवान शिव का अभिषेक होता है. भगवान के समक्ष दीपक, पुष्प, बेल पत्र, अक्षत, गंध इत्यादि से पूजा की जाती है. भगवान शिव के अवतार को किसानों से भी जोड़ा जाता है. इस लिए इस समय पर कृषक अपने साधनों का पूजन भी करते हैं. भगवान शिव के साथ ही कार्तिकेय का पूजन भी होता है. षष्ठी तिथि वैसे भी स्कंद(कार्तिकेय) भगवान को समर्पित है. इसलिए इस पर्व को षष्ठी पर्व भी कहा जाता है. इस दिन भगवान की पूजा और व्रत किया जाता है.

चंपा षष्ठी पौराणिक कथा

चंपा षष्ठी का दिन खंडोबा से जुड़ा हुआ है. यह कथा भगवान शिव से जुड़ी है. खंडोबा के सेवक के रूप में “बाध्या” और “मुरली” का उल्लेख मिलता है. बाध्या के बारे में कहा जाता है कि वह खंडोबा के कुत्ते का नाम था. मुरली जो खंडोबा की उपासिका और कोई देवदासी थी. दक्षिण में बाध्या और मुरली नाम के खंडोबा के उपासकों का दो वर्ग रहे हैं. इन लोगों को घुमंतु प्रजाती का कहा जाता है. यह अपना जीवन बंजारों की तरह व्यतीत करते हैं.

खंडोबा के विषय में कई मत प्रचलित रहे हैं. इस संबंध में पूजा और मतों में यह भी कहा जाता है कि खंडोबा की उपासना कर्णाटक से महाराष्ट्र में आई है. खंडोबा देव को महाराष्ट्र और कर्णाटक के बीच एक सांस्कृतिक संबंध के प्रतीक के रुप में भी देखा जाता है. कर्णाटक में खंडोबा को मल्लारी, मल्लारि मार्तंड, मैलार आदि नाम से पुकारा जाता है.

इस संदर्भ में वहां की कुछ कथाओं से ज्ञात होता है कि मणिचूल पर्वत पर ऋर्षि तपस्या में लीन होते हैं. उस स्थान पर मणि और मल्ल नामक दैत्यों ने बहुत उत्पात मचाया. उस स्थान को उन्होंने पूरी तरह से नष्ट कर दिया है. दैत्यों के उपद्रव से परेशान होकर ऋषियों की तपस्या भंग हो जाती है.

दैत्यों से परेशान ऋषिगण देवताओं से अपनी सहायता की मांग करते हैं. देवता भी उन दैत्यों को हरा नही पाते हैं क्योंकि ब्रह्मा जी के मिले वरदान से उन दैत्यों की रक्षा होती है. सभी ऋषि गण और देवता ब्रह्मा जी के पास जाते हैं. ब्र्ह्मा जी उन्हें बताते है कि मणि और मल्ल दोनों को अमरता का वरदान प्राप्त है. उस वरदान के प्रभाव के चलते कोई भी उन्हें मार नहीं सकता है.

तब देवता, दैत्यों के अंत के लिए सभी भगवान शिव के पास जाते हैं. भगवान शिव दैत्यों के नाश के लिए मार्तंड का रूप धारण करते हैं. कार्तिकेय को साथ लेकर वह भैरव रुप में मणि और मल्ल से युद्ध करते हैं. दैत्यों पर विजय प्राप्त करते हैं. मणि और मल्ल्हा भगवान के बड़े भक्त थे. इस लिए अत्मसमर्पण समय पर एक ने भगवान के पास घोड़े के रुप में रहने का वरदान मांगा और दूसरे ने अपने नाम से ही भगवान को पूजे जाने का वर मांगा था.

इस कथा में लौकिक और परा लौकिक शक्तियों का संगम रहा है. मार्तंड भैरव ने मणि को अपने साथ अश्व के रूप में रहने का वरदान दिया. मल्ल दैत्य के नाम पर अपने को मल्लारि नाम दिया. ऋषि भयमुक्त होकर रहने लगे. आज भी मल्लारि मैलार कथा इन स्थानों में प्रचलित है.

चंपा षष्ठी पर्व महत्व

चंपा षष्ठी का दिन अत्यंत ही शुभदायक होता है. मार्तण्ड भगवान सूर्य का भी एक नाम है अत: इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान किया जाता है. सूर्यदेव को नमस्कार किया जाता है और सूर्य पूजा भी की जाती है. शिव का ध्यान किया जाता है. शिवलिंग की पूजा की जाती है. शिवलिंग पर दूध और गंगाजल चढ़ाया जाता है. इस दिन भगवान को चंपा के फूल चढ़ाए जाते हैं. भूमि पर शयन किया जाता है. मान्यता है की इस दिन भगवान पूजा और व्रत करने से पाप नष्ट हो जाते हैं. परेशानियों का अंत होता है. जीवन में सुख-शांति प्राप्त होती है. चंपा षष्ठी का प्रारंभ कैसे हुआ और इसकी क्या मान्यताएं हैं इसके बारे में भिन्न भिन्न प्रकार के मत प्रचलित हैं.

इस दिन किया गया पूजा पाठ और दान, मोक्ष की भी प्राप्ति कराने में सहायक होता है. चंपा षष्ठी की कथाओं को स्कंद षष्ठी से जोड़ा जाता है और कहीं खंडोबा देव से तो कहीं षष्ठी तिथि से जोड़ा जाता है. भारत के अनेक स्थानों पर इस दिन को अलग-अलग नामों से पूजा जाता है.

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