भैरव जयंती 2024: अकाल मृत्यु के भर से दिलाती है मुक्ति

मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भैरव जयंती का पर्व मनाया जाता है. इस वर्ष 23 नवंबर  2024 को भैरव जयंती का उत्सव मनाया जाएगा. भैरव को भगवान शिव का ही एक रुप माना जाता है और भैरव शिव के अंशावतार हैं.

भैरव का जन्म अष्टमी तिथि पर हुआ है. इस कारण भैरव की कृपा पाने के लिए अष्टमी तिथि के दिन इनका पूजन करना अत्यंत शुभदायक माना गया है. अष्टमी तिथि के दिन मध्यरात्रि के समय भैरव की पूजा आराधना करने से कष्ट दूर होते हैं. भैरव जयंती पर मध्य रात्रि के समय पर पूजा करना उत्तम फलदायक होता है. इस रात्रि के समय भैरव मंत्र साधना ओर अनुष्ठान करने चाहिए, भैरव जी की पूजा में रात्रि जागरण भी किया जाता है.

भैरव जयंती के समय पर उपवास भी किया जाता है. भैरव जी के निमित्त व्रत करने से व्यक्ति को भैरव का आशीर्वाद प्राप्त होता है. भैरव की उपासना को तंत्र से अधिक जोड़ा गया है. भैरव को रुद्र रुप कहा जाता है ऎसे में उनके लिए पूजा उपासना के नियम भी बहुत कठोर ही होते हैं. किन्तु सात्विक शुद्ध मन से की गई पूजा भैरव जी को प्रसन्न करने में सक्षम होती है. भैरव उपासक को अपनी पूजा और ध्यान साधना में शुचिता का पूरा ध्यान रखने की आवश्यकता होती है. भैरव की उपासना करने से हर तरह की ग्रह पीड़ा व कष्ट से मुक्ति मिलती है. शनि, राहू, केतु व मंगल जैसे पाप ग्रहों के बुरे प्रभाव से मुक्ति दिलाने में भैरव की साधना अत्यंत उत्तम मानी गई है.

भैरव जयंती पर कैसे करें पूजा

भैरव एक उग्र देवता है जो सदैव दुष्टों के संहार के लिए तत्पर रहते हैं. काली पूजा हो या फिर भैरव पूजा ये सभी पूजाएं एक निश्चित समय और गहन साधना की मांग करती हैं. इनका फल तभी मिलता है जब इनकी साधना में दिए गए निर्देशों को समझा जा सके. भैरव पूजा संपूर्ण भारत में होती है. भैरव को अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नामों से भी पूजा जाता है. ग्रामिण हों या शहरी रुप सभी स्थानों पर भैरव पूजा को अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना गया है. किसी खास कार्य हेतु भी इनकी पूजा की जाती है. जैसे ग्रह शांति के लिए, शत्रु पर विजय प्राप्त करने हेतु व शक्ति पाने के लिए भैरव साधना अत्यंत फलदायक बतायी जाती है.

खंडोबा के स्थान पर भैरव के एक रूप का बहुत पूजन होता है जिस खन्डोबा कहा जाता है. उन्हीं के नाम पर इस स्थान का नाम पड़ा. और खण्डोबा की पूजा-अर्चना सभी गांव के और शहरी लोगों में की जाती है. दक्षिण भारत में भैरव का नाम शास्ता है. भैरव को एक उग्र देवता के रूप में ही जाना जाता है. किंतु यदि गहरे अर्थ को समझा जाए तो भैरव ही वे देवता हैं जो सभी प्रकार के भय और क्लेशों सें मुक्ति दिला सकते हैं. इनकी साधना द्वारा ही जीवन के उचित रुप को समझा जा सकता है. विनाश और निर्माण के मध्य जो एक स्थान हैं भैरव देव वहीं उपस्थित हैं. भैरव की मान्यता सभी स्थानों पर है. भूत, प्रेत, पिशाच, टोना-टोका जैसी चीजों से बचाव के लिए भैरव की पूजा को विशेष बताया जाता है.

विविध रोगों और आपत्तियों विपत्तियों को दूर करने वाले देव भी भैरव ही हैं. प्रलय के देवता हैं, संहार करने वाले है. जो भी नीति-नियम के विरुद्ध है उसका नाश करने के लिए सदैव उपस्थित हैं. विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत और देवता उनके अधिन हैं. गणों के अधिपति या सेनानायक हैं महाभैरव ही कहे जाते हैं.

भैरव पौराणिक मान्यता

भैरव जयंती से जुड़ी अनेकों कथाएं जुड़ी हुई हैं जिनमें भैरव की उत्पत्ति, भैरव की शक्तियों एवं उनके चमत्कारों से भरी हुई हैं. मृत्यु तुल्य कष्ट से मुक्ति पाने के लिए भैरव की उपासना प्रसिद्ध है. मारकेश ग्रहों के कोप से पीड़ित होने पर भैरव साधना करना अत्यंत चमत्कारिक उपाय होता है. भैरव के जप, पाठ और हवन अनुष्ठान करने से जीवन में अचानक से आने वाले सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं.

अष्टमी के दिन प्रात:काल उठकर नित्य क्रिया से निवृत होकर स्नानादि कर स्वच्छ होना चाहिये. इस दिन पर पितरों का तर्पण और श्राद्ध कार्य भी किया जाता है. कालभैरव की पूजा के दिन व्रत और उपवास करते हैं. इस दिन पूरे दिन व्रत रखते हुए भैरव जी के नामों का स्मरण करना चाहिये. धूप, दीप, गंध, काले तिल, उड़द, सरसों के तेल से पूजा करनी चाहिए. आरती करनी चाहिये, भैरव के भजन करते हुए रात्रि जागरण किया जाता है. कुत्ते को भैरव की सवारी माना जाता है. कुत्ते को खाना खिलाना चाहिये. इस दिन कुत्ते को भोजन करवाने से भैरव बाबा जल्द प्रसन्न होते हैं.

भैरव उत्पति कथा

भैरव के अवतार के बारे में लिंग पुराण, शिवपुराण अनुसार बताया गया है कि भगवान शिव के अंश से भैरव उत्पत्ति हुई है. इनकी उत्पति को काल भैरवाष्टमी के नाम से पूजा जाता है. पौराणिक एक कथा अनुसार अंधकासुर नामक दैत्य का प्रकोप बढता ही जा रहा था. तब सब और देवों में भी अंधकासुर का भय व्याप्त हो जाता है. उस दैत्य का वध कर पाना किसी में संभव नही था. अनीति व अत्याचार की सीमाएं जब समाप्त हो जाती हैं. वह देवी पार्वती को पकड़ने चल पड़ता है और तब भगवान शिव के रक्त से भैरव की उत्पति होती है.

कुछ कथाओं के अनुसार शिव के अपमान की अग्नि से भैरव की उत्पत्ति होती है. यह कथा इस प्रकार है कि एक बाद ब्रह्मा जी भगवान शंकर को देख कर, कुछ ऎसे शब्द कहते हैं जो शिव जी के अपमान और तिरस्कार से युक्त होते हैं. भगवान शिव ने इस बात को गंभीर नहीं लिया, किंतु उनकी देह में क्रोध से विशाल दण्ड को पकड़े प्रचण्डकाय अग्नि उत्पन्न होती है और वह ब्रह्मा का संहार करने के लिये आगे बढ़ती है. ब्रह्मा जी के अहंकार का नाश कर देती है. भगवान शिव ने तुरंत उस अग्नि को शांत किया. वह अग्नि काया(व्यक्ति) रुप में उत्पन्न होती है. भगवान शिव के शरीर से उत्पन्न होने के कारण भैरव का नाम प्राप्त होता है.

भैरव को शिव पुरी, काशी का नगरपाल नियुक्त किया गया है. मान्यता अनुसार भगवान शंकर ने अष्टमी को अहंकार को नष्ट किया था, इसलिए यह दिन भैरव अष्टमी और भैरव जयंती के रुप में मनाए जाने कि परंपरा रही है.

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कार्तिक अमावस्या 2024 : कार्तिक अमावस्या कथा और महत्व

कार्तिक मास की 30वीं तिथि को “कार्तिक अमावस्या” के नाम से मनाया जाता है. हिन्दू धर्म में अमावस्या का विशेष महत्व रहता रहा है. प्रत्येक माह में आने वाली अमावस्या किसी न किसी रुप में कुछ खास लिए होती है. हर महीने में एक बार आने वाली अमावस्या के दौरान दान और स्नान का बहुत महत्व रहता है. इसी क्रम में कार्तिक मास में आने वाली अमावस्या का अपना खास महत्व होता है. इस दिन पितरों को याद करने के अलावा गंगा स्नान भी किया जाता है.

इस दिन पितरों के निमित्त तर्पण और पिंड दान तथा दान देने का भी खास मह‍त्व बताया गया है. इतना ही नहीं इस दिन जो भी व्यक्ति कर्ज, ऋण आदि से निरंतर परेशान रहते हैं, उन्हें इस दिन हनुमानजी की आराधना विशेष तौर पर करनी चाहिए. विष्णु पुराण के अनुसार कार्तिक अमावस्या का उपवास रखना चाहिए. व्रत से पितृगण के साथ-साथ सूर्य आदि नव ग्रह और अग्नि, वायु नामक पंच तत्वों, नक्षत्र तृप्त होते हैं.

कार्तिक अमावस्या मुहूर्त

31 अक्टूबर 2024 को 15: 53 से अमावस्या आरम्भ.

01 नवंबर 2024 को 18:17 पर अमावस्या समाप्त.

कार्तिक अमावस्या पर मनाते हैं दिवाली पर्व

कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली का पर्व मनाया जाता है. इस दिन संपूर्ण रात्रि में दीपों का प्रकाश किया जाता है. यह एक अत्यंत प्रभशाली माना गया है. दिवाली मनाने के साथ-साथ इस दिन पितरों का तर्पण और दान-पुण्य के कार्यों को भी किया जाता है. पौराणिक मान्यता के अनुसार महाभारत में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं कार्तिक अमावस्या के विषय में कई बातों का उल्लेख किया है.

कार्तिक अमावस्या होती है लक्ष्मी पूजा

कार्तिक अमावस्या के दिन लक्ष्मी पूजन होता है. अमावस्या की रात्रि समय पर लक्ष्मी जी का पूजन करने का बहुत ही विधान है. इस दिन कुबेर जी का पूजन भी होता है.

कार्तिक अमावस्या पर दीप जलाने का महत्व

अमावस्या के दिन स्नान सूर्योदय से पूर्व किया जाता है. स्नान कर पूजा-पाठ को खास अहमियत दी जाती है. पवित्र नदियों में स्नान का खास महत्व होता है. इस अमावस्या पर दीपदान का भी खास विधान होता है. यह दीपदान मंदिरों, नदियों के अलावा आकाश में भी किया जाता है. ब्राह्मण भोज, गाय दान, तुलसी दान, आंवला दान तथा अन्न दान का भी महत्व होता है. दीपदान का महत्व राम के अयोध्या लौटने की खुशी को व्यक्त करता है. साथ ही पितृों को मार्ग भी दिखलाता है. इन दोनों ही संदर्भ में कार्तिक मास में दीपक जलाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है.

कार्तिक अमावस्या पर तुलसी पूजा

कार्तिक अमावस्या के दिन में तुलसी की पूजा का खास महत्व है. मान्यता है कि तुलसी पूजा से भगवान विष्णु का आशिर्वाद प्राप्त होता है. तुलसी की पूजा कर भक्त भगवान विष्णु को भी प्रसन्न कर सकते हैं. इस महीने अमावस्या के दिन स्नान के बाद तुलसी और सूर्य को जल अर्पित किया जाता है. पूजा-अर्चना की जाती है. तुलसी के पौधे का कार्तिक अमावस्या में दान भी दिया जाता है. तुलसी पूजा न केवल घर के रोग, दुख दूर होते हैं बल्कि अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष की भी प्राप्ति होती है.

कार्तिक अमावस्या कथा

कार्तिक अमावस्या पर बहुत सी कथाएं और पौराणिक घटनाएं मौजूद हैं. इस दिन धार्मिक ग्रंथों और मंत्रों को पढ़ा जाता है. इस दिन पर मंत्र अनुष्ठान भी किए जाते हैं. कार्तिक अमावस्या के दिन एक कथा इस प्रकार है.

एक बार कार्तिक माह की अमावस्या तिथि के दिन देवी लक्ष्मी पृ्थ्वी पर विचरण कर रही होती हैं. परंतु अंधकार अधिक होने के कारण दिशा सही से पता नहीं चल पाती है. देवी लक्ष्मी मार्ग से भटक जाती हैं. पर रस्ते में चलते चलते उन्हें एक स्थान पर कुछ दीपक की रोशनी दिखाई देती है. देवी उस रोशनी के नजदीक जाती हैं तो देखती हैं की वह एक झोपड़ी होती है. वहां एक वृद्ध स्त्री अपने घर के बाहर दीपक जलाए हुए थी और दरवाजा खुला हुआ था. वह स्त्री आंगन में बैठ कर अपना काम कर रही होती है.

देवी लक्ष्मी उस वृद्ध महिला से रात भर वहां रुकने के लिए स्थान मांगती हैं. वह वृद्ध महिला देवी लक्ष्मी को विश्राम करने के लिए स्थान और बिस्तर आदि की व्यवस्था करती है. देवी लक्ष्मी वहां विश्राम करने के लिए रुक जाती हैं. वृद्ध महिला के सेवाभाव ओर समर्पण के भाव से प्रसन्न होती हैं. इस दौरान वह वृद्ध महिला अपने काम करते करते सो जाती है.

अगले दिन जब वृद्धा जागती है तो देखती है की उसकी साधारण सी झोपड़ी महल के समान सुंदर भवन में बदल गयी थी. उसके घर में धन-धान्य की भरमार हो जाती है. किसी चीज की कमी नहीं रहती है. माता लक्ष्मी वहां से कब चली गई थीं, उसे वृद्ध महिला को पता ही नहीं चल पाता है. तब माता उसे दर्शन देती है की कार्तिक अमावस्या के दिन उस अंधकार समय जो भी दीपक जलाता है ओर प्रकाश से मार्ग को उज्जवल करता है उसे मेरा आशीर्वाद सदैव प्राप्त होता है. उसके बाद से हर वर्ष कार्तिक अमावस्या को रात्रि में प्रकाश उत्सव मनाने और देवी लक्ष्मी पूजन की परंपरा चली आ रही है. इस दिन माता लक्ष्मी के आगमन के लिए पूजा पाठ, घरों के द्वार खोलकर रखने चाहिए ओर प्रकाश करना शुभ फलदायक होता है.

कार्तिक अमावस्या महत्व और विभिन्न पर्व रुप

कार्तिक अमावस्या का दिन एक ऎसा समय होता है जब बहुत से कारण मिलकर एक भावना को व्यक्त करते हैं. उसी तरह से कार्तिक अमावस्या के समय बहुत ऎसे बहुत सी पौराणिक मानताएं एवं कथाएं प्रचलित हैं जो इस दिन की महत्ता को विशेष रुप से कई गुना बढ़ा देती हैं. इस समय पर अनेकों प्रकार के अनुष्ठान किए जाते हैं. तंत्र हो या फिर मंत्र सभी अनुष्ठानों को महत्व विजय की पाप्ति को दर्शाता है.

इस समय के पास पर राम वनवास से अयोघ्या आगमन की खुशियां हैं, तो कृष्ण द्वारा नरकासुर का वध करके प्रजा को कष्ट से मुक्ति दिलाना, कहीं पर हनुमान जन्मोत्सव की धूम है तो कही पर लक्ष्मी जी के आगमन को लेकर दीपों का उत्सव है. इसी तरह से कुछ न कुछ ऎसी कथा कहानियां इस अमावस्या से जुड़ी हैं जो कार्तिक अमावस्या पर्व के महत्व को दर्शाती हैं.

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तुलसी विवाह 2024: तुलसी जन्म कथा और क्यों अधूरी है तुलसी बिना विष्णु पूजा

कार्तिक माह में तुलसी पूजा का महात्मय पुराणों में वर्णित किया गया है. इसी के द्वारा इस बात को समझ जा सकता है कि इस माह में तुलसी पूजन पवित्रता व शुद्धता का प्रमाण बनता है. शास्त्रों में कार्तिक मास को श्रेष्ठ मास माना गया है, स्कंद पुराण में इसकी महिमा का गायन किया गया है.

12 नवंबर 2024 के दिन तुलसी विवाह पूजा का पर्व मनाया जाएगा.

तुलसी आस्था एवं श्रद्धा की प्रतीक है यह औषधीय गुणों से युक्त है तुलसी में जल अर्पित करना एवं सायंकाल तुलसी के नीचे दीप जलाना अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है. तुलसी में साक्षात लक्ष्मी का निवास माना गया है अत: कार्तिक मास में तुलसी के समीप दीपक जलाने से व्यक्ति को लक्ष्मी की प्राप्ती होती है. 

तुलसी विवाह पूजा विधि महत्व

कार्तिक मास में तुलसी पूजा करने से पाप नष्ट होते हैं. मान्यता है कि इस मास में जो व्यक्ति तुलसी के समक्ष दीपक जलाता है उसे सर्व सुख प्राप्त होते हैं. तुलसी के पौधे में चमत्कारिक गुण मौजूद होते हैं. प्रत्येक आध्यात्मिक कार्य में तुलसी की उपस्थिति बनी रहती है. वैष्णव कार्यों, विधि-विधानों में तुलसी विवाह तथा तुलसी पूजन एक मुख्य त्यौहार माना गया है.

कार्तिक माह में सुबह स्नान आदि से निवृत होकर तांबे के बर्तन में जल भरकर तुलसी के पौधे को जल दिया जाता है. संध्या समय में तुलसी के चरणों में दीपक जलाया जाता है. कार्तिक के पूरे माह यह क्रम चलता है. इस माह की पूर्णिमा तिथि को दीपदान की पूर्णाहुति होती है.

कार्तिक महीने की देवउठनी एकादशी के शुभ अवसर पर तुलसी विवाह का आयोजन भी होता है. भगवान श्री विष्णु चार मास की चिर निंद्रा के बाद जब जागते हैं तो वह दिन देवउठनी एकादशी का होता है. इस अवसर को बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. इस शुभ अवसर समय देवी तुलसी का विवाह श्री विष्णु जी के साथ संपन्न किया जाता है. भगवान विष्णु को तुलसी अत्यंत प्रिय है. केवल तुलसी दल अर्पित करके ही श्रीहरि को प्रसन्न किया जा सकता है. तुलसी विवाह वैवाहिक सुख को बढ़ाता है और जीवन में सुख सौभाग्य का आगमन होता है.

तुलसी विवाह कथा

तुलसी जी के विवाह की कथा भी बहुत अलौकिक और पौराणिक है. पौराणिक आख्यानों के अनुसार तुलसी का पूर्व नाम वृंदा था. वृंदा को दिए आशीर्वाद के अनुसार, भगवान विष्णु ने शालिग्राम के अवतार में जन्म लिया और उनसे विवाह किया. इसलिए आज भी कार्तिक माह की एकादशी के दिन भगवान विष्णु के शालिग्राम रुप अवतार का तुलसी से विवाह किया जाता है.

तुलसी कथा इस प्रकार है – वृंदा नाम की एक कन्या थी. वृंदा का विवाह जलंधर नाम के महा पराक्रमी राक्षस से हुआ था. जलंधर को भगवान शिव के तेज से उत्पन्न बताया गया है. जलंधर इतना शक्तिशाली था की उसने दैत्यौं को चारों ओर विजय प्राप्त करवाई थी. उसने देवों का अधिकार छिन लिया और चारों ओर दैत्यों का साम्राज्य स्थापित किया.

जलंधर की शक्ति वृंदा से विवाह पश्चात और अधिक बढ़ जाती है. इसका कारण था कि वृंदा अत्यंत पतिव्रता स्त्री थी और भगवान विष्णु की भक्त भी थी. जिसके कारण उसका पति जलंधर और भी शक्तिशाली हो जाता है. उसकी शक्ति के समक्ष को भी रुक नहीं पाता था. जलंधर पर विजय प्राप्त करना असंभव था. कोई भी जलंधर को पराजित नहीं कर पा रहा था. ऎसे में सभी देवता जलंधर का नाश करने के लिए भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं ओर उनसे प्रार्थना करते हैं की वो जलंधर का किसी तरह से नाश करें.

वृंदा के सतीत्व को भंग करना किसी का इतना सामर्थ्य नही था. एक बार जलंधर युद्ध के लिए जब निकल पड़ता है तो उस समय भगवान श्री विष्णु ने जलंधर का रुप धारण किया. वह वृंदा के पास जाते हैं, अपने पति का रुप देख वृंदा श्री विष्णु को पहचान नहीं पाती है. ऎसे में वृंदा का सतीत्व भंग हो जाता है. पतिव्रता स्त्री वृंदा की पवित्रता नष्ट होते ही जलंधर की शक्ति भी समाप्त हो जाती है.

भगवान शिव उस समय युद्ध में जालंधर का वध कर देते हैं. इस प्रकार जलंधर का अंत होता है. वृंदा को जब अपने पति जलंधर की मृत्यु और श्री विष्णु की माया का पता चला तो वह बहुत अधिक क्रोधित हो जाती है. वह क्रोध में भगवान विष्णु को शिला हो जाने का श्राप दे देती हैं. उसी क्षण भगवान श्री विष्णु शालिग्राम रुप में पाषाण हो जाते हैं.

श्री विष्णु को पाषाण हुए देख सभी देवी देवता भय से आतंकित हो जाते हैं. उस समय श्री विष्णु का यह रुप देख देवी लक्ष्मी वृंदा से इस अपराध की क्षमा मांगती है. लक्ष्मी जी कि विनय सुन वृंदा भगवान को श्राप से मुक्त करती हैं ओर स्वयं उसी क्षण सती हो जाती हैं.

श्री विष्णु श्राप से मुक्त होने पर वृंदा को तुलसी नाम देते हैं. सती हुई वृंदा को तुलसी रुप प्राप्त होता है. तुलसी का पौधा उन्हीं वृंदा से उत्पन्न होता है. श्री विष्णु अपने पाषाण रुप को शालिग्राम रुप में तुलसी के साथ स्थान देते हैं. साथ ही ये वरदान देते है कि विष्णु पूजा तुलसी के बिना अधूरी मानी जाएगी. जब तक मुझे तुलसीदल भेंट नहीं किया जाएगा मैं पूजा स्वीकार नही करुंगा. मेरे रुप शालिग्राम का विवाह तुलसी के साथ किया जाएगा, इसलिए कार्तिक महीने में तुलसी जी का शालिग्राम के साथ विवाह भी किया जाता है.

तुलसी विवाह महत्व

कार्तिक माह की एकादशी के दिन ही तुलसी जी और शालिग्राम का उत्पन्न(प्रादुर्भाव) होता है. इस तिथि को इस कारण बहुत ही शुभदायक बताया गया है. इसलिए इस माह में तुलसी और शालिग्राम के पूजन का बडा़ ही महत्व होता है. तुलसी के जन्म के विषय में अनेक पौराणिक कथाएं मिलती हैं. पद्मपुराण में जालंधर तथा वृंदा की कथा दी गई है. बाद में वृंदा तुलसी रुप में जन्म लेती है.

तुलसी इतनी पवित्र हैं कि भगवान विष्णु भी उसकी वंदना करते हैं. कई मतानुसार आदिकाल में वृंदावन में तुलसी अर्थात वृंदा के वन थे. तुलसी के सभी नामों में वृंदा तथा विष्णुप्रिया नाम अधिक विशेष माने जाते हैं. शालिग्राम रुप में भगवान विष्णु तुलसी जी के चरणों में रहते हैं. उनके मस्तक पर तुलसीदल चढ़ता है.

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पिठोरी अमावस्या 2024, जानें पूजा का विशेष समय

भाद्रपद माह की अमावस्या पिठोरी अमावस्या कहा जाता है. इस वर्ष 03 सितंबर, 2024 को मंगलवार  के दिन मनाई जाएगी. पिठोरी अमावस्या के दिन स्नान-दान का महत्व होता है. इस दिन पवित्र नदियों ओर धर्म स्थलों के दर्शन किए जाते हैं. अमावस्या तिथि के दौरान चंद्रमा दिखाई नहीं देता है इस कारण पृथ्वी पर अंधकार अधिक गहरा हो जाता है.

पिठोरी अमावस्या को देश भर में किसी न किसी रुप में मनाया जाता रहा है. यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है. कुछ न कुछ कथा कहानियां इस दिन से संबंध बनाती हुई जीवन के किसी न किसी पहलू पर अपना प्रभाव अवश्य छोड़ती है. आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक एवं तमिलनाडु में पिठोरी अमावस्या को पोलाला अमावस्या कहते है. इस दिन दक्षिण भारत में देवी पोलेरम्मा की पूजा होती है. पोलेरम्मा को माता पार्वती का एक ही रूप माना जाता है. पिठोरी अमावस्या के दिन विवाहिता औरतें अपने बच्चों एवं पति के लिए ये व्रत रखती है. यह त्यौहार उत्तरी भारत में भाद्रपद अमावस्या या कुशाग्रहणी अमावस्या के नाम से मनाया जाता है.

पिठौरी देवी पार्वती पूजन

पिठौरी अमावस्या के दिन विशेष रुप से संतानवती स्त्रीयां अपनी संतान की रक्षा हेतु व्रत करती हैं. जो दंपति संतान की कामना रखती है वह भी इस दिन माता पार्वती का पूजन करती हैं. पार्वती पूजा में नये वस्त्र माता को भेंट किए जाते हैं. पूजा के स्थान को फूलों से सजाया जाता है. इस दिन व्रत का पालन करने पर संतान का सौभाग्य सदैव उज्जवल रहता है. घर के पूर्वजों को शांति और सुख की प्राप्ति होती है. पूजन के समय देवी को सुहाग व शृंगार की सभी वस्तुएं अर्पित की जाती हैं.

पिठोरी अमावस्या पर करें ग्रह शांति

पिठोरी अमावस्या व्रत के पुण्य फल में वृद्धि होती है. किसी भी प्रकार के ऋण और पाप का नाश होता है. संतान सुख की प्राप्ति होती है, वंश वृद्धि होती है. रुके हुए कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होते हैं. मानसिक शांति मिलती है. पाप ग्रहों से मिलने वाले कष्ट से मुक्ति मिलती है. जन्मकुंडली में पितृ दोष है होने पर विवाह में बाधा अथवा संतान में बाधा होती है.

  • पिठोरी अमावस्या के दिन व्रत के दिन ब्रह्म मुहुर्त समय पर उठकर, स्नान किया जाता है. सूर्य उदय के समय सूर्य को जल अर्पित किया जाता है.
  • इस दिन पितरों के निमित्त दान किया जाता है. पिंड दान एवं तर्पण किया जाता है.
  • इस दिन हलुआ-पूरी गरीबों को खिलाने के लिए बांटना चाहिए. परिवार की खुशहाली के लिए प्रार्थना करनी चाहिए.
  • योगिनी पूजा की जाती है. विधि-विधान से पूजा करने के बाद आरती करते है और पंडितों को खाना खिलाया जाता है.

पिठोर अमावस्या : योगनी एवं सप्तमातृका पूजन समय

देवी आदी शक्ति की विभिन्न शक्तियां ही योगिनी हैं. जो भिन्न भिन्न रुप में विराजमान है. तंत्र पूजन में इनका विशेष आहवान होता है. शाक्त संप्रदाय में शक्ति पूजा का विशेष महत्व होता है. अमावस्या और पूर्णिमा तिथि में इनका पूजन होता है. अष्ट या चौंसठ योगिनियों के द्वारा साधक शक्ति की प्राप्ति कर पाता है. ये सभी शक्तियां माता पर्वती की सखियां हैं. इन चौंसठ देवियों में से दस महाविद्याएं और सिद्ध विद्याओं की भी गणना की जाती है. पिठोरी अमावस्या के दिन शक्ति की प्राप्ति हेतु सभी साधक माता का पूजन अवश्य करते हैं.

इस दिन जो भी व्यक्ति तंत्र या योग विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है उसके लिए यह समय अत्यंत विशेष होता है. देवी पूजन आरंभ करने से पहले स्नान-ध्यान आदि से निवृत होकर अपने पितृगण, इष्टदेव तथा गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए. भगवान शिव की पूजा भी इस दिन की जाती है.

सप्तमातृका

इसके अलावा इस दिन पर सप्तमातृकाओं का पूजन भी किया जाता है. दक्षिण भारत में इस प्रथा का प्रचलन रहा है. ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारी, वाराही, चामुण्डा अथवा नारसिंही. इन्हें ‘मातृका’ कहा जाता है. किसी-किसी स्थानों पर मातृकाओं की संख्या सात तो कुछ स्थानों पर आठ बतायी गयी है.

पिठोर अमावस्या पर पोला उत्सव

पिठोरी माह की अमावस्या तिथि को पोला पर्व मनाए जाने की परंपरा भी मिलती है. यह पर्व विशेष रुप से छत्तीसगढ़ के क्षेत्रों में मनाया जाता है. पोला पर्व मूलत: कृषि से जुड़ा पर्व है. यह किसानों का पर्व भी है जो अपनी खेती और अपने काम को सम्मान देने हेतु मनाया जाता है. जब कृ्षि का काम समाप्त हो जाता है तो इस समय यह पर्व कृषी के हर क्षेत्र का पूजन होता है. कुछ मान्यताओं के अनुसार इसी दिन अन्नमाता गर्भ धारण करती है. धान के पौधों में इस दिन दूध भरता है, इसीलिए यह पर्व मनाया जाता है. इस दिन लोगों को खेत जाने की मनाही होती है.

पोला यह पर्व सभी वर्ग के लोगों पर अपना प्रभाव डालता है. इस दिन हर घरों में विशेष पकवान बनाये जाते हैं. मिट्टी के बैल मिट्टी के खिलौने बनाए जाते हैं. कृषी के मुख्य साधन बैलों को सजाया जाता है. पूजा की जाता. कुछ स्थानों पर बैलों की जोड़ियाँ सजाकर प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं.

पिठोरी अमावस्या महत्व

पिठोरी अमावस्या को पिठोरी, पिथौरा, पिठोर इत्यादि नाम से भी जाना जाता है. पिठोरी अमावस्या के दिन दुर्गा का पूजन करने का विधान भी रहा है. पिठोरी अमावस्या के दिन महिलाएं संतान सुख के लिए इस व्रत को करती हैं. मान्यता है कि इस व्रत के महत्व माता पार्वती ने सभी के समक्ष रखा और इसके शुभ प्रभाव एवं मिलने वाले सुखों का राज को सभी को बताया. इंद्र की पत्नी शचि ने इस व्रत को किया और संतान सुख एवं परिवार की समृद्धि को पाया. इसी पौराणिक मान्यता के अनुसार इस पिठोरी अमावस्या के दिन संतान के सुख एवं उसकी लम्बी आयु की कामना के लिए व्रत किया जाता है.

साल भर में आने वाली अमावस्या उस माह के नाम से संबंध रखती हैं. प्रत्येक माह की अमावस्या का प्रभाव और महत्व में अंतर भी दिखाई देते है. इन सभी अमावस्या के दौरान पूजा पाठ स्नान दान और उपासना साधना इत्यादि कार्य करने से मानसिक, आत्मिक, भौतिक रुप से सुख और शांति प्रदान कराने में बहुत सहायक बनती हैं. अमावस्या के दिन किसी भी प्रकार की बुरी आदतों से दूर बचे रहने की हिदायत दी जाती है. इसी के साथ शुद्ध पवित्र आचरण का पालन करना चाहिए.

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कौमुदी-महोत्सव 2024 – प्रेम और अनुराग का उत्सव

भारत जैसे विशाल भूभाग पर संस्कृतियों का अनोखा संगम देखने को मिलता है. इस संगम में अनेकों व्रत व त्यौहार, भिन्न भिन्न विचारधारें आकर मिलती हैं. इन सभी का रंग किसी न किसी रुप में सभी को प्रभावित भी करता है. इसी में आता है एक पर्व कौमुदी महोत्सव का .

15 नवंबर 2024 शुक्रवार के दिन कौमुदी महोत्सव का उत्सव मनाया जाएगा.

भारत में बहुत पुराने समय से चला आ रहा एक उत्सव है कौमुदी महोत्सव. यह पर्व भारत की पारंपरिक सांस्कृतिक चेतना का प्रमाण है. जो आज भी बहुत ही खूबसूरती के साथ मौजूद है. कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन होने वाला यह पर्व उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता रहा है.

प्रकृति का प्रेम कौमुदी महोत्सव

इसे उत्सव को प्रेम और हास विलास के रुप में देखा जाता है. इस उत्सव को कला, समृद्धि, शिक्षा, संसार विषयक कार्यों, सौंदर्य, रति क्रियाओं हेतु मनाया जाता है. इसी समय प्रकृति में शरद ऋतु का नवीन रुप दिखाई पड़ता है.मन को लुभाने आया कौमुदी महोत्सव का आरम्भ प्रतिवर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि के दिन मनाया जाता है. यह सर्वसमृद्ध, सुविख्यात, भारतीय कला, कौशल व प्रकृति के प्रेम का महापर्व होता है.

कौमुदी पर्व एक तरफ ऋतु परिवर्तन तो दूसरी तरफ बौद्धिक विकास और विभिन्न प्रकार की कलाओं में निपुणता प्राप्त करने के संकेत भी प्रस्तुत करता है. इसे मानव सुशिक्षित व नम्र हो जीवन जीने की भिन्न-भिन्न कलाओं में दक्षता प्राप्त करता है. जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त कर लेता है. इस पर्व को ऋतुराज के नाम से भी संबोधित किया जा सकता है. क्योंकि इस दौरान भी प्रक्रति का रंग अपने चरम को छूता दिखाई देता है. इस उत्सव के दौरान पेड़-पौधों में अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे फूल भी खिल उठते हैं. खेतों मे फसलों का अलग रंग दिखाई पड़ता है. मंद-मंद बहती ठंडी हवा ओर व खिली हुई चांदनी सभी का मन मोह लेती है.

इस समय प्रकृति का मनमोहक अंदाज दिखाई पड़ता है जो प्रत्येक व्यक्ति को मनमुग्ध कर देता है. प्रकृति के सौंदर्य को निखारने के कारण ही इसे ऋतुराज कहना भी गलत नहीं होगा. इस तिथि का धार्मिक व ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्व रहा है. धार्मिक दृष्टि से इस दिन ज्ञान, विद्या, कौशल, कला, संगीत, स्वास्थ्य सुख की प्राप्ति के लिए पूजा आराधना की जाती है. इस दिन भगवान कृष्ण, भगवान शिव, देवी लक्ष्मी, गणेश सभी का पूजन होता है. सम्पूर्ण विश्व में ज्ञानरूपी ज्योति को प्रकशित करते हुए यह दिवस व्यक्ति को अंधकार व अज्ञान के बंधनों से सहज ही मुक्त होने की कला भी सिखाता है.

कौमुदी महोत्सव पूजा महत्व

प्राचीन काल में कौमुदी महोत्सव के समय लोक जीवन पर इस पर्व का खास प्रभाव दिखाई देता था. इस पर्व के दौरान सभी ओर साज सजावट होती थी. गांव हों या नगर सभी ओर मार्गों को सजाया जाता था. घर पर सुंदर रंगोली इत्यादि से सजावट की जाती थी. सुगंधित द्रव्यों एवं पुष्पों से मंदिरों को भी सजाया जाता था.

इस उत्सव में युवा से लेकर बच्चे बुजुर्ग सभी उत्सहा से भाग लेते दिखाई देते थे. इस पर्व का वर्णन राजा हर्षवर्धन के शासन काल में भी मिलता है. प्रेमी युगल, दम्पती इस समय पर अपने प्र्म का इजहार अपने प्रेमी के समक्ष करते थे. इस दिन को प्रेम और अनुराग से भरपूर माना गया है. ऎसे में इस दिन किसी भी नए संबंध की शुरुआत करना भी बहुत शुभस्थ होता है. धार्मिक दृष्टिकोण से इस दिन विवाह का आरंभ करना भी उत्तम होता है.

कौमुदी महोत्सव के समय पर घूमना फिरना, पतंगबाजी करना, या किसी भी प्रकार के मन को आन्म्द देने वाली कार्य क्रम भी आयोजित किए जाते हैं. कौमुदी उत्सव के दिन चंद्रमा की पूजा की जाती है. चंद्रमा का पूजन करने से सभी प्रकार के दोष शांत होते हैं. मान्यता अनुसार चंद्रमा भगवान शिव-पार्वती पूजन करने से जीवन में सदैव प्रेम की प्राप्ति होती है. दांपत्य जीवन में सदैव ही प्रसन्नता बनी रहती है.

कौमुदी-महोत्सव के दिन अन्य पर्वों का महत्व

कौमुदी महोत्सव का पर्व एक ऎसे समय पर होता है जब बहुत से अन्य पर्व भी इसी दिन मनाए जाते हैं. जो इस प्रकार हैं –

कार्तिक पूर्णिमा –

इस दिन कार्तिक पूर्णिमा मनाई जाती है, चंद्रमा का पूजन होता है. इस दिन को शरद पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है.

मत्स्य जयंती –

स दिन मत्स्य अवतार पूजन होता है कह्ते हैं इसी दिन इसी दिन भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों रक्षा और सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था.

त्रिपुरोत्सव –

त्रिपुरोत्सव का पर्व होता है जिसमें भगवान शिव त्रिपुरान्तक स्वरुप का पुजन होता है. त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर को मारक देवों को मुक्त किया था. इस दिन ही भगवान शिव त्रिपुरारी के रूप में पूजे जाते हैं.

कृतिका पूजन – इस दिन नक्षत्रों का पूजन होता है. कृतिकाओं का पूजन करके जीवन में सुख का आगमन होता है. नक्षत्र शांति भी होती है. शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से कष्टों का नाश होता है.

श्री राधा कृष्ण पूजन –

इस दिन भगवान श्री कृष्ण व राधा जी का पूजन भी किया जाता है.

महारास पर्व –

इस दिन को रास पर्व के नाम से भी जाना जाता है. राधा उत्सव और रासमण्डल का आयोजन होता है.

गुरुनानक जयंती –

इस दिन गुरु नानक जयंती भी मनाई जाती है. सिख सम्प्रदाय में इस दिन को प्रकाशोत्सव के रूप में मनाते हैं. इस दिन गुरू नानक देव का जन्म हुआ था इसलिए सिख सम्प्रदाय के अनुयायीयों के लिए गुरु पर्व बहुत महत्व रखता है.

कौमुदी उत्सव महत्व

कौमुदी उत्सव का रुप इतना शुभ और व्यापक होता है की ये जन जीवन को प्रभावित करने कि क्षमता भी रखता है.
कौमुदी पर्व तु की मधुरम, सुहावनी और गुलाबी रंगत को देखकर काव्यों की रचनाओं में इसका वर्णन मिलाता है, रामायण में आदि कवि वाल्मीकि ने राम के द्वारा शरद के सौन्दर्य का वर्णन कराते हैं. चंद्रमा की रात्रि में हंस नदियों को कमल तालाबों को, पुष्पों से ढके वृक्षों ने जंगल को और मालती के फूलों ने वाटिकाओं को उज्जवल बना दिया होता है. इस समय पर खिलने वाले वाले फूल हारसिंगार, कमल आदि से सभी स्थानों की सुंदरता बढ़ जाती है. इसलिए संभवतः इस समय में सबसे अधिक पर्व, उत्सव, मेलों का आयोजन होता है. कौमुदी पर्व अपने साथ में उल्लास और उमंग भी ले कर आता है.

कौमुदी पर्व के दिन पारंपरिक रुप से पूजा और विविध प्रकार के सांस्कृति कार्यक्रम आयोजित होते हैं. इस समय पर किया गया भगवान का पूजन और अयोजन प्रेम और सोहार्द बढ़ाने के साथ ही जीवन को प्रकाशवान कर देते है.

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देव प्रबोधिनी एकादशी 2024, आज है एकादशी तो इसलिए मनाई जाती है देवउठनी एकादशी

देव प्रबोधिनी एकादशी, सभी एकादशियों में से ये एकादशी एक अत्यंत ही शुभ और अमोघ फलदायी एकादशी होती है. देव प्रबोधिनी एकादशी को देव उठनी एकादशी, देवुत्थान एकादशी इत्यादि नामों से जानी जाती है. वैष्णव संप्रदाय में एकदशी तिथि को बहुत ही शुभदायक समय माना गया है. मान्यताओं के अनुसार देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन से सारे धार्मिक कृत्य आरंभ हो जाते हैं.

12 नवंबर 2024 मंगलवार के दिन मनाई जाएगी देव प्रबोधिनी एकादशी.

देव प्रबोधिनी एकादशी अबूझ मुहुर्त समय

प्रबोधिनी एकादशी समय को अबुझ मुहूर्त का समय भी माना जाता है. अबूझ मुहूर्त से अर्थ होता है ऎसे समय का जिस पर आप कोई भी शुभ काम कर सकते हैं. इस दिन से ही सभी मांगलिक कार्यों का आरंभ होता है. सगाई-विवाह, गृह प्रवेश, दुकान आरंभ या किसी नए काम का आरंभ करना, पूजा पाठ जैसे अन्य सभी प्रकार के मांगलिक कार्य शुरु हो जाते हैं. मन्यता रही है कि भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को क्षीर सागर में शयन करते हैं ओर चार मासों के इस समय पर मांगलिक कार्य भी रुक जाते हैं. उसके बाद भगवान जब नींद से जागते हैं तो वह दिन देव उठनी एकादशी कहलाता है.

देव प्रबोधिनी एकादशी का महत्व

कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के महत्व के विषय में पौराणिक आख्यानों से प्राप्त होता है. देवोत्थनी एकादशी के दिन भगवान जागते हैं. इस दिन के साथ सभी ऎसे कार्य आरंभ होते हैं जिनको पूरे चार मासों तक नहीं के जाने का विधान होता है. एक पौराणिक कथा में उल्लेख मिलता है कि भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस से युद्ध किया. उस युद्ध के बाद शंखासुर का अंत होता है और भगवान को लम्बे युद्ध के बाद समाप्त होने पर अपनी थकान मिटाने के लिए सो जाते हैं. यह चार मास का समय होता जब भगवान श्री विष्णु सो रहे होते हैं. चार मास पश्चात फिर जब वे उठे तो वह दिन देवोत्थनी एकादशी कहलाता है. इस दिन भगवान विष्णु का विधि विधान से पूजन करना चाहिए. इस दिन उपवास करने का विशेष महत्व है जो जीवन में शुभता लाता है.

कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी देवोत्थान, तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप के नामों से भी मनाई जाती है. दीपावली के बाद आने वाली इस एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी भी कहते हैं. क्षीर सागर में सोए भगवान विष्णु जागने के लिए देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन मांगलिक आयोजन शुरू होते हैं. देवउठनी एकादशी के साथ ही गृहप्रवेश, नींव मुहूर्त, यज्ञोपवीत, देव प्रतिष्ठा आदि मांगलिक कार्य का शुभारंभ होता है. वैष्णव मंदिरों व घरों में भी आगामी चार दिनों तक तुलसी विवाह की धूम रहती है.

देवोत्थान एकादशी में होता तुलसी विवाह

देवोत्थान एकादशी को तुलसी विवाह का आयोजन भी होता है. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुलसी पूजन का पर्व संपूर्ण भारत में मनाया जाता है. इस दिन का विशेष प्रभाव होता है. कहा जाता है कि कार्तिक मास की एकादशी के दिन जो भी व्यक्ति तुलसी का विवाह करता है उसके जन्मों के सब पाप नष्ट हो जाते हैं.

देवोत्थान एकादशी के दिन प्रात:काल स्नान करने के पश्चात स्त्रियां कार्तिक शुक्ल एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती हैं. इस दिन तुलसी विवाह को विधि-विधान से गीत संगीत के साथ एक सुंदर मंडप बनाना चाहिए. उस स्थान पर विवाह कार्य संपन्न होता है. विवाह के समय स्त्रियां गीत तथा भजन गाती हैं.

देव प्रबोधिनी एकादशी पूजन विधि

देव प्रबोधिनी एकादशी श्री विष्णु को जगाने के समय होता है. पद्मपुराण में इस एकादशी के महत्व को को बताया गया है. श्री हरि-प्रबोधिनी एकादशी का व्रत करने और पूजा द्वारा व्यक्ति को एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सौ राजसूय यज्ञों का फल मिलता है. इस पुण्यदायी एकादशी के विधि-विधान द्वारा किए गए व्रत से सभी पापों का नाश होता है.

इस एकादशी के दिन भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप, स्नान-दान, होम किए जाते हैं उन सभी का अक्षय फल मिलता है. इस एकादशी के दिन उपासक को आध्यात्मिक कर्तव्य पूरे करने चाहिए.

श्री विष्णु का षोडशोपचार विधि से पूजन होता है. अनेक प्रकार के फल-फूल के साथ भगवान को भोग लगाते हैं. इस दिन व्यक्ति को चाहिए की संभव हो तो उपवास का पालन करे. अन्यथा केवल एक समय फलाहार ग्रहण करते हुए भगवान का नाम लेना चाहिए. इस एकादशी में रात्रि जागण किया जाता है. श्री हरि के नाम संकीर्तन करने से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न होते हैं. चातुर्मास जिसे चौमासा भी कहा जाता है. इसमें प्रभावी प्रतिबंध कामों का समापन देवोत्थान एकादशी के दिन होता है और मांगलिक काम आरंभ होते हैं.

देव प्रबोधिनी एकादशी कथा

देव प्रबोधिनी से संबंधित एक कथा इस प्रकार है. भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप और प्रेम पर जब अभिमान हुआ. तब उस समय उनके इस अभिमान का दूर करने के लिए भगवान एक लीला रचते हैं. एक दिन नारद जी उनके निवास स्थान आते हैं तो सत्यभामा उनसे कहती हैं कि वह आशीर्वाद स्वरुप उन्हें यही वर दीजिए कि अगले जन्म में भी भगवान श्रीकृष्ण ही मुझे पति रूप में प्राप्त हों. नारद इस बात पर उनसे कहते हैं कि अगर वह अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में उन्हें अवश्य प्राप्त कर सकती हैं.

आपको तो श्रीकृष्ण अत्यंत प्रिय हैं तो इसलिए आप मुझे श्रीकृष्ण को दान रूप में मुझे और वे अगले जन्म में आपको वह अवश्य प्राप्त होंगे. सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को नारदजी को दान रूप में दे देती हैं. जब नारद श्री कृष्ण जी को ले जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक. इस पर नारदजी बोलते हैं की श्रीकृष्ण के बराबर सोना व रत्न मुझे देते हैं तो वे उन्हें नहीं ले जाएंगे.

तब तराजू के एक पलड़े में श्रीकृष्ण बैठे तथा दूसरे पलड़े में सभी ने आभूषण चढ़ाए. पर पलड़ा नहीं हिला. तब रुक्मिणी जी ने तुलसी दल को पलड़े पर रख दिया जिससे वजन बराबर हो गया और नारद तुलसी लेकर स्वर्ग को चले गए. तुलसी के कारण ही रानियों के सौभाग्य की रक्षा हो पाई. तब इस एकादशी को तुलसी जी का व्रत व पूजन किया जाता है.

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भीष्म पंचक 2024, जानें कब से शुरु होंगे भीष्म पंचक

भीष्म पंचक का समय कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से आरंभ होता है और कर्तिक पूर्णिमा तक चलता है. पूरे पांच दिन चलने वाले इस पंचक कार्य में स्नान और दान का बहुत ही शुभ महत्व होता है. धार्मिक मान्यता अनुसार भीष्म पंचक के समय व्रत करने भी विधान बताया जाता है. भीष्म पंचक का यह व्रत अति मंगलकारी और पुण्यों की वृद्धि करने वाला होता है. जो कोई भी श्रद्धापूर्वक इन पांच दिनों का व्रत एवं पूजा पाठ दान कार्य करता है, वह व्यक्ति मोक्ष को पाने का अधिकारी बनता है.

2024 में भीष्म पंचक कब है

भीष्म पंचक आरंभ – 11 नवम्बर 2024, दिन सोमवार से शुरु होगा

भीष्म पंचक समाप्त – 15 नवम्बर 2024, दिन शुक्रवार पर होगा

भीष्म पंचक के पांच दिनों को हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व दिया गया है. पौराणिक मान्यताओं और आख्यानों के आधार पर, कार्तिक माह में आने वाले भीष्म पंचक व्रत का विशेष उल्लेख प्राप्त होता है. इस पर्व को पंच भीखू नाम से भी जाना जाता है. कार्तिक स्नान करने के पश्चात इस व्रत का आरंभ होता है. कार्तिक स्नान करने वाले सभी लोग इस व्रत को विधि विधान के साथ करते हैं.

भीष्म पंचक – पंच भीखू कथा

प्राचीन समय की बात है. एक बहुत ही सुंदर गांव था जहां एक साहूकार अपने बच्चों के साथ रहा करता था. साहुकार के एक बेटा था और उसकी बहू भी थे.  साहुकार की बहु बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की थी. वह नियम पूर्वक पूजा पाठ और सभी धार्मिक कार्य किया करती थी. जब कार्तिक मास आता था तो उस माह के भी पूरे नियम करती थी. वह स्त्री कार्तिक मास में रोज सुबह उठ कर गंगा स्नान के लिए जाया करती थी.

उसी गांव के राजा का बेटा भी गंगा स्नान किया करता था. एक बार राजा के बेटे ने देखा कि कोई व्यक्ति है जो उससे भी पहले उठ कर गंगा स्नान के लिए जाता है. उस लड़के के मन में ये बात जानने कि इच्छा हुई की वो कौन है जो उससे भी पहले गंगा स्नान करता है. राजा के बेटे को पता नहीं चल पाता की वह कौन व्यक्ति है जो गंगा स्नान कर लेता है. कार्तिक माह समाप्त होने में पांच दिन ही शेष रहे होते हैं.

साहूकार की बहू जब स्नान करके जा रही थी उसी समय राजा का बेटा गंगा स्नान के लिए आ रहा होता है. बहु आहट सुन कर जल्दी-जल्दी चलने लगती है. जल्दबाजी में उसकी माला मोजड़ी (पायल) वहीं मार्ग में छूट जाती है. राजा के बेटे को उसकी माला मोजड़ी(पायल) दिखती है और वह उसे उठा लेता है. वह मन ही मन सोचने लगता है की जिस स्त्री की यह माला मोजड़ी इतनी सुंदर है, वह स्त्री खुद कितनी सुंदर होगी. वह गांव में यह बात फैला देता है की जिसकी भी माला मोजड़ी उसे प्रात:काल में मिली थी वह स्त्री उसके सामने आए.

साहूकार के बेटे की बहू ने कहलवा दिया कि मैं ही वह स्त्री थी. मैं पूरे पांच दिन गंगा स्नान के लिए आउंगी. अगर तुम मुझे देख पाए तो मै तुम्हारे साथ रहने आ जाउंगी. राजा के बेटे ने उस स्त्री से मिलने के लिए एक तोते को पिंजरे में बंद कर गंगा किनारे रख दिया, ताकि जब वह स्त्री आए तो तोता उसे बता दे. साहुकार की बहू सुबह के समय गंगा स्नान के लिए पहुंच जाती है. वह भगवान से प्रार्थना करती है की वह उसके सतीत्व की लाज रखे. राजा का बेटा न उठ पाए और मै गंगा स्नान करके जा सकूं. भगवान उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हैं और राजा का बेटा सोता रह जाता है.

बहु नहा-धोकर जब चलने लगती है तो तोते से बोलती है की तू मेरी लाज रखना. तोता उसकी प्रार्थना सुन कर कहता है, ठीक है मैं तेरी लाज रखूंगा. राजा का बेटा उठता है और वहां किसी को न पाकर तोते से पूछता है की कोई स्त्री यहां आई थी. तोता उसे इंकार कर देता है. अगले दिन राजा के बेटे ने सोचा कि आज मैं किसी भी हाल में नहीं सोउंगा. वह अपनी उंगुली काट लेता है. दर्द से उसे नींद नहीं आती है. वह स्त्री आती है और भगवान से उसी तरह प्रार्थना करने लगी और राजकुमार को फिर नींद आ गई. वह स्नान कर के फिर से चली जाती है.

सुबह जब राजकुमार की नींद खुलती है तो वह तोते से फिर पूछता है. तोता इंकार कर देता है. अब राजकुमार ने सोचा की आज वह अपनी आंखों में मिर्च डाल देगा जिससे उसे नींद नहीं आएगी. वह अपनी आंखों में मिर्ची डालकर बैठ जाता है. स्त्री फिर आती है और प्रार्थना करती है जिससे राजकुमार को फिर से नींद आ जाती है. राजकुमार ने तोते से बहू के आने की बात पूछी उसने फिर मना कर दिया. राजकुमार अब फिर सोचने लगा कि आज मैं बिना बिस्तर के ही बैठूंगा जिससे नींद नहीं आएगी. वह बिना बिस्तर के बैठ जाता है और इंतजार करने लगता है. वह स्त्री आती है, गंगा स्नान करने से पूर्व भगवान से प्रार्थना करती है. राजकुमार को नींद आ जाती है. वह नहाकर चली जाती है. राजकुमार जब उठा तो वह जा चुकी होती है.

राजकुमार अगले दिन अंगीठी के पास बैठ जाता है जिससे उसे नीम्द नहीं आती है. साहूकार की बहू आती है और भगवान से प्रार्थना करते हुए कह्ती है “ भगवान आपके कारण मेरा चार दिन कार्तिक स्नान हो पाया है. अब आज आखिरी दिन भी मेरे स्नान को पूर्ण करवा दिजिए”. भगवान ने उसकी बात रख ली और राजकुमार को नींद आ गई. साहुकार की बहु जब वह नहाकर जाने लगी तो तोते से बोली कि इससे कहना मैने पांच दिन पूरे कर लिए हैं मेरी मोजडी़ मुझे भिजवा दे.

राजकुमार उठता है तो तोता उसे सारी बात बता देता है. राजा के पुत्र को समझ आया कि वह स्त्री कितनी श्रद्धालु है और वह मन में बहुत दुखी होता है. कुछ समय बाद ही राजा के पुत्र को कोढ़ हो जाता है. राजा को जब कोढ़ होने का कारण पता चलता है, तब वह इसके निवारण का उपाय ब्राह्मणों से पूछता है. ब्राह्मण कहते हैं कि यह साहूकार की पुत्रवधु को अपनी बहन बनाए और उसके नहाए हुए पानी से स्नान करे, तभी उसका कोढ़ ठीक हो सकता है. राजा की प्रार्थना को साहूकार की पुत्रवधु स्वीकार कर लेती है और राजा का पुत्र ठीक हो जाता है. इस प्रकार जो भी व्यक्ति श्रद्धा और सात्विक भाव के साथ इन पांच दिनों तक स्नान और पूजा पाठ करता है उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं.

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कुबेर पूजा 2024 : इस बार ऎसे करें कुबेर पूजा तो हो जाएंगे मालामाल

कुबेर देव का पूजन करना जीवन में शुभता और आर्थिक समृद्धि को प्रदान करने वाला होता है. कुबेर पूजा को विशेष रुप से दिपावली के समय पर किया जाता है. कुबेर जी को धनाध्यक्ष और अपार धन दौलत का स्वामी माना गया है. यह धन के देवता है और यक्षों के राजा भी हैं. कुबेर धन के देवता हैं इसलिए इनका पूजन करने से धन संपदा की प्राप्ति होती है. उत्तर दिशा के दिक्पाल हैं और लोकपाल भी हैं. इसलिए वास्तु शास्त्र में भी कुबेर का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण होता है.

कुबेर के संदर्भ में अनेकों कथाएं प्रचलित हैं. महर्षि पुलस्त्य के पुत्र महामुनि विश्रवा के पुत्र थे और रावण के सौतेले भाई थे. विश्रवा की पत्नी इलविला से कुबेर का जन्म माना गया था. कुछ के अनुसार ब्रह्मा जी ने इन्हें उत्पन्न किया था और धन-सम्पत्ति का स्वामी बनाया था. कुबेर ने बहुत तप और तपस्या करके ही दिशाओं का स्वामी और लोकपाल का पद प्राप्त किया.

कुबेर स्वरुप –

पौराणिक आख्यानों में कुबेर जी को श्वेतवर्ण का, बड़े से पेट वाला, अष्टदन्त और तीन चरणों वाला बताया गया है. यह गदाधारी हैं. कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव हैं. कहा जाता है की कुबेर ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर्वत पर तप आरंभ किया.

तप के बीच में उन्हें भगवान शिव और देवी पार्वती दिखायी पडते हैं. कुबेर ने जब पार्वती की ओर बायें नेत्र से देखते हैं. तो पार्वती जी के दिव्य तेज से उनका वह नेत्र नष्ट होकर पीला हो जाता है. कुबेर अपनी इस अवस्था के बाद भी अपनी तपस्या को जारी रखते हैं. कुबेर की घोर तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं. वह कुबेर को दर्शन देते हैं. कुबेर को वरदान प्रदान करते हैं. भगवान कुबेर के नेत्र नष्ट हो जाने पर उन्हें “एकाक्षीपिंगल” नाम देते हैं. उन्हें शक्तियां प्रदान करते हैं. शिव भगवान कुबेर को अपना प्रिय बनाते हैं.

मान्यता है की रावण ने कुबेर पर हमला करके उनसे पुष्पक विमान छीन लिया. कुबेर की लंका पुरी और संपत्ति छीन लेते हैं. कुबेर अपने पितामह ब्रह्मा जी के पास जाते हैं और उनकी प्रेरणा से कुबेर ने शिव पूजन किया. जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें धन का स्वामी बनाया और उन्हें धनेश की पदवी प्रदान की.

दिवाली पर होती है कुबेर पूजा

दिवाली पर भगवान गणेश और मां लक्ष्मी की पूजा के साथ ही विशेष रुप से कुबेर जी की पूजा भी की जाती है. दिवाली का दिन कुबेर पूजा के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण और शुभप्रभाव दायक माना जाता है. मान्यता है की कुबेर पूजा के बिना दिवाली की पूजा अधूरी मानी जाती है. इसलिए इस दिन कुबेर जी का आहवान किया जाता है. जीवन में धन संपति की प्राप्ति होती है. कुबेर का आशीर्वाद मिलता है.

भगवान कुबेर को मां लक्ष्मी का सेवक भी बताया जाता है. यह सभी धन संपदा का ख्याल और हिसाब रखते हैं. दिवाली के दिन मां लक्ष्मी की पूजा करने के साथ ही कुबेर जी की पूजा करनी चाहिए. अगर ऎसा नही करते तो आपको मां लक्ष्मी का आर्शीवाद प्राप्त नही हो सकता. नियमित रुप से की जाने वाली पूजा में भगवान गणेश और मां लक्ष्मी की पूजा के साथ कुबेर जी की पूजा करने पर जीवन भर कभी भी पैसों की कोई कमी नही रहती. कर्जों से मुक्ति प्राप्त होती है.

कुबेर पूजा कैसे करते हैं

  • कुबेर पूजा के द्वारा ही धन की प्राप्ति संभव हो सकती है. शुभ मूहुर्त समय पर की गई कुबेर पूजा से धन के देवता कुबेर जी की कृपा प्राप्त होती है. इसलिए कुबेर की पूजा को आप श्रद्धा भव के साथ करते हैं तो जीवन में धन का अभाव नहीं सताता है.
  • कुबेर पूजा के लिए मंदिर या जहां आपने पूजा करनी है उस स्थान पर एक साफ चौकी रखें. उस चौकी पर गंगाजल छिड़कें. शुद्ध करने के बाद चौकी पर एक लाल रंग का कपड़ा बिछाना चाहिए. भगवान कुबेर की पूजा में लक्ष्मी गणेश जी की भी स्थापना की जानी चाहिए.
  • इसके बाद उस चौकी पर अक्षत डालना चाहिए. प्रतिमा अथवा चित्र स्थापित करने के बाद, आभूषण, पैसे और कोई भी कीमती वस्तुओं को कुबेर देव के आगे रखनी चाहिए. इसके बाद किसी वस्तु पर जो कुबेर जी के सामने रखी है उस पर स्वास्तिक का चिन्ह बनाना चाहिए.
  • इसके बाद कुबेर देव, देवी लक्ष्मी और गणेश जी को का तिलक करना चाहिए. कुबेर जी के साथ- साथ सभी आभूषण और पैसों पर भी तिलक और अक्षत अर्पित करना चाहिए.
  • भगवान कुबेर को फूल-माला अर्पित करनी चाहिए. सभी देवी देवताओं को फूल माला चढ़ानी चाहिए. आभूषण और पैसों पर भी फूल अर्पित करने चाहिए.
  • इसके बाद कुबेर “ त्वं धनाधीश गृहे ते कमला स्थिता।तां देवीं प्रेषयाशु त्वं मद्गृहे ते नमो नम:।।” मंत्र का जाप करना चाहिए. भगवान कुबरे की धूप व दीप से पूजा करनी चाहिए. भगवान कुबेर को मिष्ठान का भोग लगाना चाहिए. अंत में भगवान कुबेर से प्रार्थना करनी चाहिए की जीवन में सदैव समृद्धि बनी रहे, और कुबेर जी का आशीर्वाद प्राप्त करें.

धनतेरस के दिन होती है कुबेर पूजा

धनतेरस या कहें धन त्रयोदशी की दिन भी भगवान कुबेर की पूजा करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है. कुबेर को देवी लक्ष्मी का प्रतिनिधि माना गया है. इसलिए बिना कुबेर जी की पूजा के आर्थिक सुख समृद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है. इस दिन कुबेर पूजा करने पर घर में धन की कमी नहीं आती है. अन्न धन से भण्डार हमेशा ही भरा रहते हैं. भगवान कुबेर को आभूषणों का देवता भी हैं और इस दिन का पूजन जीवन में स्वर्ण, चांदी, हीरे जवाहारात जैसे आभूषणों की प्राप्ति कराने वाला भी होता है. धन संबंधी परेशानियों से घिरे हुए लोगों के लिए तो इस दिन कुबेर जी का पूजन करके धन संबंधी परेशानियों को दूर हो जाती हैं.

कुबेर मंत्र

भगवान कुबेर की पूजा के साथ ही कुबेर मंत्र का जाप करना चाहिए. नियमित रुप से कुबेर मंत्र का जाप करने समृद्धि के द्वार खुल जाते हैं –

  • “ओम श्रीं, ओम ह्रीं श्रीं, ओम ह्रीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय: नम:।”
  • ” ॐ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय, धन धन्याधिपतये धन धान्य समृद्धि मे देहि दापय स्वाहा”
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विश्वकर्मा पूजा 2024 – आज के दिन करें विश्वकर्मा पूजा कारोबार में मिलेगी सफलता

कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन विश्वकर्मा पुजन होता है. इस उत्सव पर निर्माण और सृजन के देवता विश्वकर्मा का पूजन होता है. मान्यता अनुसार विश्वकर्मा पूजन के दिन सभी प्रकार की मशीनों, शस्त्रों इत्यादि मशीनों की भी पूजा की जाती है. विश्वकर्मा को पौराणिक कथाओं के अनुसार वास्तुकार कहा गया है. वह किसी भी प्रकार का निर्माण करने में कुशल हैं.

पुराणों में विश्वकर्मा को यंत्रों का अधिष्ठाता देवता बताया गया है इस लिए इस दिन यंत्रों का पूजन होता है. विश्वकर्मा जी द्वारा ही पृथ्वी पर मनुष्यों को अनेकों सुख-सुविधाएँ प्राप्त हुई हैं. उन्हीं के आशीर्वाद से अनेक यंत्रों व शक्ति संपन्न भौतिक साधनों के बारे में हमें पता चल पाया है. प्राचीन शास्त्रों में विमान विद्या, वास्तु शास्त्र का ज्ञान, यंत्र निर्माण विद्या आदि के बारे में जो भी जानकारी मिलती है वो विश्वकर्मा द्वारा प्राप्त होती है.

विश्वकर्मा जन्म कथा

विश्वकर्मा अपने नाम के अनुरुप ही हैं. ये विश्व का निर्माण करने वाले हैं, इसलिए इन्हें विश्व कर्मा कहा गया है. विश्वकर्मा से संबंधित अनेकों कथाएं मिलती हैं इन कथाओं का संबंध पौराणिक मान्यताओं से होता है. तो कुछ का संबंध लोक जीवन से होता है. कुछ कथाओं के अनुसार ब्रह्मा जी ने इनकी उत्पत्ति की थी. कथा के अनुसार सृष्टि के नारायण जब क्षीर सागर में होते हैं तो उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा जी उत्पन्न होते हैं. ब्रह्मा जी से पुत्र धर्म तथा धर्म के पुत्र वास्तुदेव होते हैं. यही वास्तुदेव शिल्पशास्त्र के जानकार बनते हैं. वास्तुदेव के पुत्र विश्वकर्मा होते हैं. विश्वकर्मा जी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बनते हैं.

विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए गए हैं. कुछ स्थानों पर दो बाहु, कहीं चार, कहीं दस भुजाओं का वर्णन मिलता है. कुछ स्थानों पर एक मुख, और कुछ स्थानों पर चार मुख अथवा पांच मुखों वाला भी बताया गया है. विश्वकर्मा के पांच पुत्र बताए गए हैं. मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ इनकी संताने हुई हैं. मान्यता है कि इनके पांचों पुत्र वास्तुशिल्प की अलग-अलग विधाओं के जानकार थे.

विश्वकर्मा जी के निर्माण कार्य

विश्वकर्मा जी को पौराणिक काल से ही अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण सदैव पूजनीय रहे हैं. देव, यक्ष,दैत्य, गंधर्वों, मनुष्यों सभी के लिए वंदनीय रहे हैं. भगवान विश्वकर्मा ने अनेकों आविष्कार प्रदान किए हैं. निर्माण कार्यों के में इन्होंने अनेकों सुंदर नगरों का निर्माण किया.स्वर्ग का निर्माण, इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेर की नगरी बनाई, लंका का निर्माण किया. पाण्डवों के लिए उनकी नगरी बसाई, काशी, सुदामापुरी और शिव पुरी के निर्माण का उल्लेख मिलता है.

पुष्पक विमान के विषय के बारे में जो पता चलता है. पुष्पक विमान का निर्माण इनकी एक बहुत महत्वपूर्ण रचना रही है. सभी देवों के भवन और उनके उपयोग में आने वाली अस्त्र शस्त्रों का निर्माण भी विश्वकर्मा जी द्वारा होगी. कर्ण का कवच या कुण्डल है. विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र हो या फिर भगवान शिव का त्रिशूल भी इन्हीं के निर्माण का प्रभाव है. यमराज का कालदण्ड हो या इंद्र के शस्त्र इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी विश्वकर्मा ने ही किया है.

विश्वकर्मा पुराण

विश्वकर्मा पुराण की बात करें तो इसमें इन्हें विश्व के सृजनकर्ता के रुप में बताया गया है. इस पुराण के अनुसार इन्हीं के द्वारा ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है. इसके बाद सृष्टि का निर्माण आरंभ होता है. सभी प्राणियों का सृजन करने का वरदान देते हैं. विश्वकर्मा के द्वारा ही विभिन्न योनियों को जन्म हुआ, विश्वकर्मा ने ही विष्णु भगवान की उत्पत्ति करके उन्होंने संसार के जीवों की की रक्षा और भरण-पोषण का काम सौंपा.

सभी कुछ ठीक से सुचारु रुप से होने के लिए उन्होंने विष्णु जी को सुदर्शन चक्र प्रदान किया. वहीं भगवान शिव को संहार का कार्य सौंपा. संसार के कार्यों के लिए डमरु, कमण्डल, त्रिशुल जैसे शस्त्र प्रदान किए. शिव को तीसरा नेत्र भी प्रदान किया उन्हे प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया. देवी दुर्गा को भी शक्तियां और शक्तिशाल अस्त्र प्रदान किए. देवी लक्ष्मी को कलश, सरस्वती को वीणा प्रदान की, माता गौरी को त्रिशूल जैसी शक्ति प्रदान की.

विश्वकर्मा पूजा विधि

विश्वकर्मा डे पर विभिन्न मशीनों ओर औजारों की पूजा की जाती है. इस दिन लोग भगवान विश्वकर्मा की मूर्ति स्थापित करते है. विधि विधान के साथ पूजा की जाती है. मान्यता अनुसार इस दिन औजारों या मशीनों का उपयोग नहीं किया जाता है. इनका आज के दिन सिर्फ पूजन होता है. विश्वकर्मा को दुनिया को सबसे पहला इंजीनियर और वास्तुकार कहा जाता है. ऎसे में इस दिन उद्योगों, फैक्ट्र‍ियों और हर तरह के मशीनों की पूजा की जाती है. कंप्यूटर के इस समय पर इसका भी पूजन होता है.

विश्वकर्मा डे के दिन आफिस, दुकान, वर्कशॉप, फैक्ट्री चाहे छोटे संस्थान हों या बड़े सभी की साफ सफाई करनी चाहिए. इस दिन सभी कर्मियों को भी अपने औजारों या सामान की पूजा करनी चाहिए. इसके पश्चात पूजा स्थान पर कलश स्थापना करनी चाहिए. भगवान विश्वकर्मा की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करनी चाहिए. इस दिन यज्ञ इत्यादि का भी आयोजन किया जाता है. पूजन में श्री विष्णु भगवान का ध्यान करना चाहिए. पुष्प, अक्षत लेकर मंत्र पढ़े और चारों ओर अक्षत छिड़कना चाहिए.

हाथ में रक्षासूत्र बांधना चाहिए और मशीनों पर भी यह सूत्र बांधना चाहिए. भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करते हुए दीप जलाना चाहिए और पुष्प एवं सुपारी अर्पित करने चाहिए. इस प्रकार पूजन के बाद विविध प्रकार के औजारों और यंत्रों आदि की पूजा कर हवन यज्ञ करना चाहिए.अब विधि विधान से इनकी पूजा करने पर पूजा के पश्चात भगवान विश्वकर्मा की आरती करनी चाहिए. भोग स्वरुप प्रसाद अर्पित करना चाहिए. जिस भी स्थान पर पूजा कर रहे हों उस पूरे परिसर में आरती को को घुमाना चाहिए. पूजा के पश्चात विश्वकर्मा जी से अपने कार्यों में सफलता की कामना करनी चाहिए.

व्यापारियों और बड़े उद्योगों के कर्मियों को इस दिन विश्वकर्मा का पूजन करने के बाद अपने कार्य और मशीनों के सही से काम करते रहने की कामना करनी चाहिए.

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अन्नकूट पर्व 2024 : जाने क्यों मनाया जाता है अन्नकूट

अन्नकूट पर्व अपने नाम के अर्थ को सिद्ध करता है. इस दिन अन्न का पूजन होता है और भगवान को ढेर सारे पकवानों का भोग लगाया जाता है. कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन अन्नकूट का त्यौहार मनाया जाता है. यह पर्व एक सांस्कृतिक धरोहर भी है. यह पर्व पौराणिक मान्यताओं से जुड़ा हुआ है. अन्नकूट पूजा के दिन भगवान श्री कृष्ण को 56 भोग लगाए जाने का भी विधान है. इस दिन बेसन से बनी कढ़ी, पत्ते वाली सब्जियों से बनी सब्जी को मुख्य रुप से बनाया जाता है.

अन्नकूट पूजा समय

अन्नकूट इस वर्ष  2 नवंबर 2024 को शनिवार के दिन मनाया जाएगा.

प्रतिपदा तिथि का प्रारम्भ = 01 नवंबर 2024 को 18:17 पर होगा.

प्रतिपदा तिथि समाप्त = 02 नवंबर 2024 को 20:22 तक.

अन्नकूट त्यौहार का कृष्ण के जन्म स्थान से जुड़ा है. मथुरा गोवरधन क्षेत्र पर इस त्यौहार को बहुत ही बड़े स्तर पर मनाया जाता है. द्वापर युग से संबंधित इस पर्व की महत्वता आज भी वैसे ही मौजूद है. कई जगह इस पर्व को गोवर्धन पर्व के नाम से भी जाना जाता है.

अन्नकूट – प्रकृति के प्रति सम्मान का दिन

आंचलिक परंपरा के साथ संबंधित इस पर्व में प्रकृति के साथ मनुष्य का एक अभिन्न सम्बन्ध दिखाई देता है. इस संबंध के द्वारा प्रकृति में मौजूद जो कुछ भी है, वह मनुष्य के लिए कितना आवश्यक है बस इसी की झलक हमें इस पर्व में दिखाई देती है.

इस पर्व की अपनी मान्यताएं हैं. लोक जन जीवन से संबंधित अनेकों कथाएं हैं . अन्नकूट पूजा में कृषि एवं अन्न का सम्मान होता है. अनाज को पूजनीय स्थान दिया गया है. अनाज ही प्राणों की रक्षा के लिए आवश्यक है. मानव के विकास में अन्न की महत्ता सर्वदा ही रही है.

इस दिन गायों की पूजा भी की जाती है. इसके साथ ही दूधारु पशुओं का पूजन होता है उनका सम्मान किया जाता है. लोक जीवन का आधार ही कृषी और पशु पक्षी हैं. इनके बिना लोक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. इन सभी के द्वारा भौतिक सुखों की प्राप्ति संभव हो पाती है. गौ अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं. बैल खेतों में अनाज उगाता है. इस तरह यह सभी कुछ पूजनीय और आदरणीय हैं. प्रकृति के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन अन्नकूट व गोर्वधन पूजा की जाती है.

अन्नकूट पौराणिक कथा

गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक अत्यंत प्राचीन कथा आज भी बहुत अधिक सुनी और सुनाई जाती है. यह कथा भगवान श्री कृष्ण के बचपन से संबंधित है. कथा इस प्रकार है.

कहते हैं की भगवान श्री कृष्ण नें जब देखा की देवराज इन्द्र को अपनी शक्तियों का बहुत अभिमान हो गया है. तब उस समय इन्द्र के अभिमान को समाप्त करने के लिए भगवान ने एक लीला रची. उस समय प्रत्येक वर्ष इंद्र देव का पूजन होता था. अपनी पूजा और जय जयकार को देख कर इंद्र अपने को सर्वप्रथम पूजनीय समझने लगते हैं और उन्हें लगता है की उनके बिना जीवन नहीं चल सकता है. भगवान श्री कृष्ण इंद्र की भावना को समझ जाते हैं.

ऎसे में एक दिन जब इंद्र का पूजन होता है, उस दिन ढेर सारे पकवान बन रहे होते हैं चारों ओर सजावट हो रही होती है. सभी गांव वाले इंद्र के पूजन के लिए विभिन्न प्रकार की तैयारियां कर रहे होते हैं. तब बाल स्वरुप भगवान कृष्ण अपनी माता से पुछते हैं, कि आज इतना सभी कुछ क्यों किया जा रहा है. तब माता यशोदा उन्हें बताती हैं की आज सभी बृजवासी जो भी उत्तम पकवान बना रहे हैं. पूजा की तैयारियां कर रहे हैं, वो सभी कुछ देवताओं के राजा इंद्र के लिए हो रही हैं.

कृष्ण माता की बात पर फिर उनसे कहते हैं की ये हम ऎसा क्यों कर रहे हैं. तो माता कह्ती हैं कि इंद्र से हमें वर्षा प्राप्त होती है और उससे ही अन्न उत्पन्न हो पाता है. इस अन्न से हमारी गायों को खाना मिलता है और जिससे हमें दूध मिलता है. इसलिए हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी करते हैं. इस पर भगवान श्री कृष्ण बोले की हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए. हमारी गाये तो उस पर्वत पर ही चरती हैं, तभी तो खाना खा कर हमें दूध और माखन देती हैं. इसलिए आज हम सभी गोर्वधन पर्वत का ही पूजन करेंगे. इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते हैं. लेकिन गोवर्धन तो सदैव हमारे साथ और पास में रहते हैं.

कृष्ण की बात सुन कर सभी गांव वाले इंद्र की पूजा के बदले गोवर्धन पर्वत की पूजा करने के लिए तैयार हो जाते हैं. देवराज इंद्र को जब इस बात का पता चलता है, कि गांव वाले उसकी पूजा न करके पर्वत का पूजन करने वाले हैं. तो वह इसे अपना अपमान समझते हैं. वह गांव वालों को सबक सिखाने के लिए उस दिन मूसलाधार वर्षा करना शुरू कर देते हैं. इतनी भयानक वर्षा होती है कि सभी ओर पानी ही पानी हो जाता है. गांव डूबने लगता है. प्रलय समान बारिश देखकर सभी बृजवासी भगवान कृष्ण को डांटने लगते हैं. तब श्री कृष्ण गोवरधन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा उठा लेते हैं.

वह सभी बृजवासियों को उस पर्वत के नीचे आने को कहते हैं. सभी लोग अपनी गायों और पशुओं को लेकर उस पर्वत के नीचे शरण ले लेते हैं. मुसलाधार वर्ष होती रहती है. इंद्र के अभिमान को तोड़ने के लिए कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से वर्षा की गति को नियत्रित किया और शेषनाग ने मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोक दिया.

लगातार सात दिनों तक बारीश होती रहती है. तब इंद्र को अपनी भूल का ज्ञान होता है. वह ब्रह्मा जी के पास जाते हैं. ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहते हैं कि आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं वह भगवान विष्णु के ही अवतार हैं. यह सुनकर देवराज इन्द्र को अपने अभिमान पर लज्जा आती है. वह बारीश रोक देते हैं और श्री कृष्ण से अपनी भूल के लिए क्षमा मांगते हैं. उस दिन से ही गांव वाले गोवरधन पर्वत का पूजन करने लगे ओर अन्नकूट का पर्व मनाने लगे.

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