शाकंभरी जयंती 2024 – जाने क्यों लिया देवी ने शाकम्भरी अवतार

पौष माह की पूर्णिमा को शाकम्भरी जयंती मनाई जाती है. शक्ति के अनेक अवतारों में से एक अवतार शाकंभरी माता का भी है. देवी दुर्गा के भिन्न-भिन्न अवतारों में से एक शांकंभरी अवतार सृष्टि के कल्याण और सृजन हेतु होता है. माता शाकंभरी सभी प्राणियों की भूख को शांत करने वाली हैं. देवी शाकम्भरी के आशीर्वाद से जीवन में धन और धान्य की कभी कमी नहीं होती है. व्यक्ति का जीवन सभी सुखों से परिपूर्ण होता है.

शाकम्भरी देवी की पूजा में भंडारे ओर कीर्तनों का आयोजन होता है. देवी शाकम्भरी की पूजा में आसन और साधन का विशेष ख्याल रखा जाता है. शाकंभरी पूजा में मंत्रों और साधना का प्रयोग अवश्‍य करना चाहिए. देवी की साधना नहीं कर सकें तो कोई बात नहीं कम से कम शाकंभरी जयंती के दिन मंत्रों का जाप कर लेना भी बहुत ही उत्तम होता है.

शाकंभरी जयंती पूजा मुहूर्त समय

दुर्गा उपासना में शक्ति के शाकम्भरी रुप की उपासना का विधान है. इस वर्ष 06 जनवरी 2024 के दिन माँ शाकंभरी जयंती मनाई जाएगी.

कैसा है माता शाकंभरी स्वरुप

मां शाकंभरी का नीला वर्ण की हैं. उनके नेत्र भी कमल के समान सुंदर हैं. वह कमल पुष्प पर विराजमान हैं. देवी एक हाथ में कमल धारण किए हुए हैं और दूसरे हाथ में बाणों को धारण किए हुए हैं. अपने भक्तों की शाक-वनस्पति इत्यादि भोजन से रक्षा करने के कारण ही माता को शाकंभरी कहा गया है.

शाकंभरी पूजा और विधि-विधान

पौष मास की पूर्णिमा के दिन देवी का पूजन विशेष रुप से प्रारम्भ होता है. माता के पूजन का आरंभ कलश स्थापना के साथ होता है. कलश को देवी के प्रतीक रुप में स्थापित किया जाता है. इस कारण से पूजा में कलश की स्थापना की जाती है. कलश स्थापना के लिए भूमि को जिस स्थान पर पूजा करनी है उस स्थान को शुद्ध किया जाता है. गंगा-जल से भूमि को शुद्ध कर लेने के बाद. इस स्थान पर अक्षत डाले जाते हैं. कुमकुम का टिका लगाया जाता है कलश को अक्षत के ऊपर स्थापित किया जाता है.

शाकंभरी पूजा में माता का आहवान किया जाता है. माता की पूजा में पुष्प, गंध, दीप, अक्षत इत्यादि से पूजन होता है. इस मंत्र के साथ माता को सामग्री अर्पित किया जाता है “जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते”.

शाकंभरी मंत्र

शाकंभरी माता की पूजा में माता के मंत्र का जाप अत्यंत आवश्यक होता है. माता के इस मंत्र की को 108 बार पढ़ना चाहिए. इस मंत्र के द्वारा माता का ध्यान करना चाहिए. यह मंत्र सभी प्रकार के सुखों को देने में सहायक होता है –

शाकंभरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।

मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।।

शाकम्भरी अवतार कथा

देवी दुर्गा के मुख्य अवतारों में से एक माँ शाकंभरी की उपासना भी बड़े भक्ति भाव और उल्लास के साथ की जाती है. शांकम्भरी जयंती के अवसर पर देश भर में शक्ति स्थलों में पूजा अर्जना और जागरण इत्यादि धार्मिक कार्य किए जाते हैं. देवी दुर्गा के अवतारों में एक शाकम्भरी अवतार है. दुर्गा के सभी अवतारों का होना किसी न किसी उद्देश्य से ही हुआ है. माता के अनेक अवतार प्रसिद्ध हैं. इस कारण से माता की पूजा में इनकी कथा का पाठ अवश्‍य करना चाहिए.

शाकंभरी जयंती कथा

माँ शाकम्भरी जयंती से संबंधित कुछ पौराणिक कथाएं प्राप्त होती है. इन कथाओं से ज्ञात होता है की दुर्गा ने क्यों लिया शाकम्भरी का अवतार और किसी प्रकार किया माता शाकम्भरी ने लोगों का कल्याण. देवी शाकंभरी के बारे में दुर्गा सप्तशती में भी सुनने को मिलता है. दुर्गा सप्तशति में कथा अनुसार एक बार धरती पर अनेकों दैत्य ने चारों और आतंक मचा रखा था. उसके अतंक द्वारा ऋषि-मुनि अपने धार्मिक कार्य नहीं कर पाते थे. पृथ्वी पर सभी यज्ञ और धार्मिक कार्य दैत्यों के प्र्कोप से प्रभावित हो रहे थे. पृथ्वी पर सभी शुभ कार्य समाप्त हो गए. पृथ्वी पर वर्षा नहीं हुई. सौ वर्षों तक वर्षा ना होने के कारण चारों और हाहाकार मच जाता है. पृथ्वी पर जल का अभाव हो जाने से प्राणीयों का जीवन संकट में पड़ जाता है.

चारों ओर अकाल पड़ने लग जाते हैं. दुर्भिक्ष के चलते सभी प्राणी वनस्पतियां जीव जन्तु नष्ट होने लग जाते हैं. इस अकाल के कारण सभी के प्राण संकट में पड़ जाते हैं. चारों ओर मृत्यु का ताण्डव मच जाता है. ब्र्ह्मा जी सृष्टि के संतुलन के बिगड़ने से परेशान हो उठते हैं. पृथ्वी पर जीवन समाप्त होने लगता है. अन्न-जल के अभाव में प्रजा मरने लगती है. उस समय समस्त ऋषि मिलकर देवी भगवती की उपासना करते हैं. जिससे दुर्गा जी ने शाकम्भरी नाम से अवतार लिया और उनकी कृपा से वर्षा हुई. इस अवतार में देवी ने जलवृष्टि से पृथ्वी को शाक-सब्ज़ी से परिपूर्ण कर देती हैं. इससे पृथ्वी के सभी प्राणियों को जीवन मिलता है और पृथ्वी पुन: हरी-भरी हो जाती है.

शाकंभरी जयंती अन्य कथा

एक अन्य पौराणिक कथा अनुसार एक दुर्गम नामक दैत्य ने अपने आतंक द्वारा सभी को कष्ट दिए थे. दैत्य ने देवों को पराजित करने का विचार किया. उसने सोचा की वेदों और यज्ञों द्वारा जो शक्ति देवताओं को प्राप्त होती है उसे नष्ट कर दिया जाए. इसके लिए ब्रह्मा जी की साधना आरंभ की. उसकी तपस्या के प्रभाव से ब्रह्मा ने उसे दर्शन दिए.

ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया की उसे वेद की संपूर्ण शक्ति प्राप्त होगी. दैत्य को वरदान देने के बाद ब्रह्मा जी वहां से चले जाते हैं. वेदों का वरदान मिलन पर समस्त ज्ञान शून्य हो आता है. सृष्टि पर ज्ञान का प्रकाश समाप्त होने से अंधकार की शक्ति बढ़ने लगी. चारों ओर उत्पात मचने लग जाता है. तब सभी देव देवी शक्ति की उपसना करना आरंभ कर देते हैं. माता से प्राथना करते हैं की वह सृष्टि को बचाए.

मां जगदंबा देवों की प्रार्थना सुन कर प्रसन्न होती हैं ओर उन्हें विजय श्री का वरदान देती हैं. माता तब दुर्गम दैत्य से वेदों को मुक्त कराती हैं. माता ने मां शाकंभरी का रुप धरा और पृथ्वी पर वर्षा की जिससे अंधकार हट गया और पृथ्वी पर जल का प्रवाह होता है. शाकुंभरी देवी ने दुर्गम दैत्य का अंत करके सभी को उस दैत्य के आतंक से मुक्त करवाया. अत: माता का प्रकाट्य ही शाकंभरी जयंती के रुप में मनाया जाता है.

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रामदास नवमी : समर्थ रामदास जी का जीवन चरित्र

रामदास जी का संत परंपरा में एक विशेष स्थान रहा है. इनके द्वारा की गई रचनाओं और ज्ञान को पाकर लोगों का मार्गदर्शन हो पाया है. आज भी उनकी संत रुपी वाणी के वचनों को पढ़ कर और सुन कर लोग प्रकाशित होते हैं. संत रामदास का जन्म होना एक अत्यंत शुभ घटना थी. रामदास जी ने अपनी प्रतिभा, व्यक्तित्व और चिन्तन से संत परंपरा को आगे बढ़ाया है. रामदास जी ने अपनी प्रखर प्रतिभा, व्यक्तित्व और प्रौढ़ चिन्तन से संत परंपरा को आगे बढ़ाया है. कवि सुलभ सुहृदयता एवं मार्मिक व्यंजना शैली के बल पर संत विचारों और काव्य का प्रचार किया. रामदास जी के व्यक्तित्व में जो आकर्षण था उसने सभी के मध्य उन्हें विशेष स्थान दिलवाया.

अपने विरोधियों से संघर्ष और अपनी वाणी से सभी को परास्त किया. उन्होंने पंडितों और दूसरे विद्धानों के साथ शास्त्रार्थ किया. संत मत के मार्ग से बीच में आने वालि हर बाधा को उन्होंने अपने ज्ञान द्वारा दूर करने का प्रयत्न किया. भारतीय संत-परम्परा का इतिहास काफी प्राचीन है, यहां पर समय-समय पर संतों का प्रादुर्भाव होता आया है. इनमें रामदास का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा है.

इनका जन्म काल (1606 – 1682) का है. इस महान संत को महाराष्ट्र के महान संतों में से एक कहा गया है. इन्होंने अपने दीर्घ जीवन काल में अनेक लम्बी यात्राएँ करके भारत का भ्रमण किया. अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया, जिसके स्मारक अब भी अनेक स्थानों पर उपलब्ध हैं. कबीर, रैदास, नामदेव, दादू आदि संतो की श्रेणी में रामदास जी का नाम का बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है. इनकी गणना उच्च कोटि के संतों के रूप में की है. रामदास जी ने मराठी में रचित काव्य बड़ी संख्या में मिलते हैं.

क्यों मनाई जाती है दास नवमी

समर्थ गुरु रामदास जी के देहावसान काल समय को ही दास नवमी के रुप में मनाया जाता है. रामदास जी ने फाल्गुन कृष्ण नवमी को समाधि ली थी.इस दिन को उनके भक्तों द्वारा एक पर्व के रुप में मनाया जाता है. जो आज भी आज भी पूरे जोश और उत्साह के साथ में मनाया जाता है. इस समय पर उनके अनुयायी दास नवमी के उत्सव के रूप में सभाएं और भजन कीर्तन करते हैं. रामदास जी ने जीवन का अंतिम समय महाराष्ट्र में सातारा के पास परली के किले में व्यतीत किया था. अपने आरंभिक समय पर वह कहीं भी एक स्थान पर अधिक समय तक नही रहा करते थे. पर अपने अंतिम समय के दौरान उन्होंने परली के किले में ही बिताया. यहीं उनकी समाधि भी बनाई गई है.

रामदास जी का बचपन

रामदास जी का बचपन भी रोचक रहा है. कहा जाता है की वह बचपन नट्खट भी थे. कई तरह की शरारतें भी किया करते थे. उनकी शरारतों के बारे में आस-पड़ोस के लोग उनके माता-पिता से शिकायत भी किया करते थे. यहां कुछ घटनाओं का वर्णन इस प्रकार है – एक बार रामदास जी की माता ने उन्हें कहा की तुम कितनी शरारत करते हो ओर दूसरों को परेशान करते है. अपने भाई को देखो वह कितना काम करता है और सभी का ध्यान भी रखता है कितनी चिंता करता है. पर तुम ऎसा नहीं करते हो. माता की यह बात रामदास जी के मन में घर कर जाती है. वह अपनी शरारत को छोड़कर ध्यानमग्न हो जाते हैं.

एक दिन वह किसी एकांत में बैठ कर बहुत देर तक ध्यान में बैठे रह जाते हैं. दिनभर में जब माता-पिता को दिखाई नहीं देते हैं और वह अपने बड़े बेटे से पूछते हैं की रामदास कहां तो वह कहते हैं की उन्हें नहीं पता है. माता-पिता दोनों को चिंता होती है और वह रामदास की खोज में निकले पड़ते हैं. आखिर में काफी ढूंढ़ने के बाद रामदास जी घर पर ही एक कमरे में मिलते हैं. वह उस कमरे में ध्यान में लीन हुए बैठे होते हैं. तब उनसे पूछा जाता है कि वह इस स्थान पर ऎसे क्यों बैठे हुए थे, तो रामदास जी कहते हैं कि मैं यहां पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूं. इस घटना ने उनके जीवन का स्वरुप ही बदल जाता है.

रामदास द्वारा किए गए कार्य

रामदास जी ने अनेकों ऎसे कार्य किए जिनके द्वारा लोगों का कल्याण संभव हो पाया है. उनके जीवन की दिनचर्या भी बहुत रोचक और प्रभावशाली रही थी. रामदास जी ने अपने जीवन द्वारा समाज के युवा वर्ग को भी प्रभावित किया. पैदल ही यात्राएं भी की, उनकी यात्राओं में जन सैलाब सदैव ही रहा. भ्रमण काल के दौरान उन्होंने विभिन्न स्थानों पर हनुमानजी की प्रतिमाएं भी स्थापित की. कुछ मठों का भी निर्माण किया और राष्ट्र नव-चेतना के निर्माण में सहयोग दिया.

एक कथा उनके विवाह से संबंधित है. कहा जाता है की उनका विवाह जब हो रहा होता है तो उस समय विवाह मंडप से निकल जाते हैं. अपने विवाह को अधूरा छोड़कर चले आने पर वह खुद को भगवान राम की उपासना में लगा देते हैं. राम भक्ति और राम की कठोर साधना के कारण ही उन्हें रामदास नाम मिला.

रामदास जी का जीवन एक साधाराण था पर असाधारण रुप से सभी को आकर्षित कर लेता था. योगशास्त्र में उनकी पकड़ मजबूत थी. वह सदैव रामनाम का जाप करते थे. जो भी कहते थे वह सभी कसौटी पर खरा उतरता था. संगीत के उत्तम जानकार थे इसलिए उनके अनेक रागों में गायी जानेवाली रचनाएं भी प्राप्त होती हैं.

रामदास जी के रचना(लेखन) कार्य

रामदास जी का जीवन दुर्गम गुफाओं, पहाड़ों, जंगलों और नदियों के किनारे पर गुजरा था. यहीं पर उन्होंने अपनी कई रचनाओं का निर्माण किया. रामदास जी ने दासबोध, आत्माराम, मनोबोध आदि ग्रंथों की रचना की. उनका दासबोध ग्रंथ गुरुशिष्य संवाद रूप में है. रामदास जी द्वारा रची गयी आरतियाँ आज भी कई स्थानों पर गायी जाती हैं.

अपनी रचनाओं में राजनीती, व्यवस्थापन शास्त्र जैसे विषयों पर भी बहुत कुछ लिखा. मान्यताओं और अनेक कथाएं उनके जीवन से जुड़ी हुई हैं. कहा जाता है की उन्हें बचपन में ही भगवान राम के दर्शन होते हैं. इस लिए उनका नाम रामदास हो गया था. शिवाजी महाराज ने रामदास जी को अपना गुरु माना था. ऎसे महान संत का प्रकाश भारत के कोने कोने में फैला और आज भी उसकी ज्योति सभी ओर प्रकाशित रहती है.

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शीतला षष्ठी व्रत – जानें, क्या है शीतला षष्ठी की व्रत कथा

शीतला षष्ठी का व्रत षष्ठी तिथि के दिन किया जाता है. माता षष्ठी का पूजन संतान की कुशलता और दिर्घायु के लिए किया जाता है. इस व्रत का संपूर्ण भारत वर्ष में बहुत महत्व होता है. शीतला माता का पूजन करने से घर परिवार में सुख और शांति का वास होता है. देवी शीतल जीवन के ताप को नष्ट करती हैं और सुख शांति प्रदान करती हैं.

शीतला षष्ठी व्रत दिलाता है रोग से मुक्ति

शीतला षष्ठी का व्रत करने से विशेष रुप से रोगों से मुक्ति होती है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये व्रत शरीर के कष्ट दूर करने वाला होता है. इस व्रत का प्रभाव संतान का सुख देने वाला होता है. दैहिक और दैविक ताप से मुक्ति मिलती है. पौराणिक मान्यता के अनुसार यह व्रत पुत्र प्रदान करने वाला और सौभाग्य देने वाला होता है. कहते हैं कि जो महिलाएं पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखती हैं उनके लिए ये व्रत उत्तम कहा गया है. साथ ही इस व्रत को करने से मन शीतल रहता है। इसके अलावा चेचक से भी मुक्ति मिलती है.

शीतला षष्ठी व्रत नियम

शीतला माता के व्रत में नियम और विधान का विशेष रुप से पालन किए जाने कि सलाह दी जाती है. इनके व्रत में सात्विकता और शुचिता का ख्याल रखना चाहिए. इस व्रत के प्रभाव से दीर्घायु की प्राप्ति होती है. नि:संतानों को संतान की प्राप्ति होती है. वंश वृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त होता है. विवाहित ओर पुत्रवती स्त्रीयां विशेष रुप से इस व्रत को रखती हैं. शीतला षष्ठी माता अपने नाम के जैसी ही शीतल भी हैं.

शीतला षष्ठी में शीतला माता के निमित्त किए जाने वाले कार्यों में किसी भी प्रकार की गर्म वस्तु का उपयोग नहीं किया जाता है. चाहे उसमें खाना हो, नहाना हो या अन्य बातें. इस दिन चूल्हे का पूजन किया जाता है, इसलिए चूल्हे को जलाया नहीं जाता है. पूजा के लिए सभी प्रकार की सामग्री प्रसाद को एक दिन पहले ही बना लिया जाता है. इस दिन जो इस व्रत को रखता है उसे नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग नहीं करना चाहिए. किसी भी प्र्कार के गर्म भोजन को करने से भी बचना चाहिए. इस दिन ठंडा खाना खाए जाने का विधान बताया गया है.

इस दिन व्रती को खाना एक दिन पहले ही बना कर रख लेना चाहिए. व्रत वाले दिन उसी बासी भोजन का सेवन करना चाहिए. इस दिन पर चूल्हा भी नहीं जलाया जाता है. इस व्रत को उतरी भारत में विशेष रुप से मनाए जाने की परंपरा रही है. कुछ जगहों में इस व्रत को बसौड़ा, बासियौरा इत्यादि नामों से भी जाना जाता है. देश में सभी वर्ग के लोग इस उत्सव को बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं. चाहे इस दिन व्रत रखा जाए या न रखा जाए लेकिन हर कोई इस का धार्मिक कार्य हो, बहुत ही श्रद्धा से मनाता है.

शीतला षष्ठी व्रत कथा

शीतला षष्ठी है, का पर्व माघ मास के शुक्ल पक्ष के षष्ठी तिथि के दिन बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है. छठी तिथि के दिन महिलाएं व्रत रखती हैं और शीतला माता की पूजा की जाती है. यह व्रत करने के लिए देवी शीतला की प्र्तिमा और दीवार पर माता का चित्र भी अंकित किया जाता है. बच्चों की सुख- समृद्धि के लिए माताएं इस दिन शीतला माता को विधि विधान के साथ पूजती हैं.

इस दिन व्रत के साथ ही माता शीतला जी की कथा और आरती भी की जाती है. माता शीतला जी की कथा सुनने और पढ़ने से पाप नष्ट होते हैं. मानसिक शांति प्राप्त होती है. माता शीतला जी के साथ अनेक पौराणिक कथाएं और लोक कथाएं प्राप्त होती है. लोक जीवन से जुड़ा यह पर्व आज भी उसी उत्साह और विश्वास के साथ मनाया जाता है जिस विश्वास के साथ ये पहले मनाया जाता था.

शीतला षष्ठी कथा इस प्रकार है – एक बहुत पुराने समय की बात है. एक नगर में एक ब्राह्मण दंपति के सात बेटे हुआ करते थे. ब्राह्मण ने अपने सातों पुत्रों का विवाह बहुत धूम धाम से किया. कुछ समय बीत जाने के बाद भी बेटों के यहां कोई संतान पैदा नहीं हो पाई थी. एक दिन ब्राह्मण दंपति को किसी ने शीतला षष्ठी व्रत करने की सलाह दी. माता-पिता की आज्ञा से बेटों और बहुओं ने इस व्रत को किया. शीतला षष्ठी व्रत के प्रभाव से उन सभी को एक वर्ष के पश्चात संतान की प्राप्ति होती है.

इसके बाद, वह इस व्रत को प्रत्येक वर्ष करने लगने का प्रण लेते हैं. एक बार षष्ठी तिथि के व्रत में ब्राह्माणीसे व्रत के एक नियम की अनदेखी हो जाती है. ब्राह्मणी उस दिन गर्म जल से स्नान कर बैठती है. व्रत के दिन उसी रात को ब्राह्माणी सपने में देखती है की उसके परिवार को बहुत कष्ट हो रहा है. परिवार में जो संतानें पैदा हुई थीं वह मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं.

इस सपने के टूटने से अचानक ही उसकी नींद खुल जाती है. ब्राह्माणी ने देखा की उसके परिवार के सभी सदस्य मर चुके है, परिवार का ऎसा अंत देख ब्राह्मण स्त्री विलाप करने लगती है. आस-पास के लोग उसका विलाप सुन वहां आ जाते हैं. पड़ोसी उस स्त्री से कहते हैं यह अवश्य ही माता शीतला का प्रकोप है. तुम्हें माता शीतला से अपने पापों के लिए क्षमा मांगनी चाहिए. यह सारी बातें सुन उस ब्राह्मणी को अपनी गलती याद आती है. वह ब्राह्माणी रोती हुई जंगल की ओर चल पड़ती है. उस अंधकार से भरे जंगल में उसे एक वृद्ध स्त्री आग से झुलसी हुई दिखाई पड़ती है.

ब्राह्मणी उसके पास जाकर उसकी इस स्थिति का कारण पूछती है. वृद्ध स्त्री उसे कहती है कि ये तुम्हारे कारण हुआ है. तुम ने व्रत के दिन गर्म पानी से स्नान किया और गर्म भोजन किया था. इस कारण मुझे ये कष्ट झेलना पड़ रहा है. यह सुनकर ब्राह्माणी अपने किए पर पश्चाताप करती हुई क्षमा मांगती है. अपने परिवार को जीवन दान देने की प्रार्थना करती है. तब वृद्धा स्त्री उसे कहते हैं. कि इस आग की जलन को शांत करने के लिए उस पर दही का लेप करे जिससे उसको शांति मिल पाए.

तब ब्राह्मणी उस वृद्धा स्त्री के शरीर पर दही का लेप लगाती है. वृद्धा स्त्री अपने रुप में आती है और शीतला माता का रुप धर लेती है. माता शीतला ब्राह्मणी को क्षमा कर देती हैं. उसका परिवार भी जीवित हो जाता है. शीतला माता के व्रत को पूरी निष्ठा और भावना से किया जाने से संतान को सुख प्राप्त होता है और लम्बी आयु का आशीर्वाद मिलता है.

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श्रीराम विवाहोत्सव 2024, राम-सीता विवाह कथा

मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्री राम विवाह पंचमी के रुप में मनाई जाती है. मान्यता है की इसी दिन भगवान श्री राम जी का सीता जी से विवाह संपन्न हुआ था. राम विवाह का बहुत ही सुंदर वर्णन हमें “रामायण” में प्राप्त होता है. यह एक अलौकिक विवाह था. जिसमें प्रेम और शक्ति का संतुलन था. जिसने जनमानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ी थी.

श्री राम का विवाह त्रेतायुग की घटना है. जब श्री राम अपने भाई लक्ष्मण सहित गुरु विश्वामित्र की सहायता हेतु दैत्यों के संहार के लिए निकल पड़ते हैं. तब उनकी इस विजय यात्रा के समय एक पड़ाव मिथला में पड़ता है. मिथिला के राजा जनक की पुत्री जानकी सीता के साथ श्री राम का विवाह होता है.

आज भी अयोध्या और मिथिला के क्षेत्रों में इस पर्व के उत्साह की छटा हर ओर बिखरी दिखाई देती है. यह एक ऎसा पावन समय होता है जब सब और भक्ति और प्रेम का स्वरुप झलकता दिखाई देता है. श्री राम विवाह उत्सव की धूम संपूर्ण भारत वर्ष में देखी जा सकती है. इस अवसर पर मंदिरों में विशेष पूजा पाठ होता है.

श्री राम सीता जीवन चरित्र

प्राचीन समय से चली आ रही परंपराओं और लोक कथाओं में राम-सीता कथा का होना अत्यंत अनिवार्य है. इनके बिना हमारे पौराणिक कथानकों को शायद पूर्णता न मिल पाए. राम को मर्यादापुरुषोत्तम कहा जाता है और जगतजननी सीता को पतिव्रता और लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है. यदि दांपत्य जीवन का चित्रण किया जाता है तो उसमें श्री राम और सीता जी का वर्णन सदैव होता है. राम और सीता की जोड़ी को आदर्शतम जोड़ी माना गया है. आज भी जब विवाह कार्य संपन्न होते हैं तो नव युवा जोड़े को राम सीता संबंध बताया जाता है.

श्री राम और सीता का जन्म ही एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना होती है. दोनों का जन्म और संपूर्ण जीवन एक ऎसा आदर्श है जो सदियां बीत जाने पर भी आज भी उसी स्वरुप में मौजूद है. जहां राम का जन्म अयोध्या में दशरथ जी के घर पर होता है. वहीं सीता पृथ्वी से जन्मी और मिथिला के राजा जनक उनके पिता बने.

सीता स्वयंवर कथा

श्री राम और सीता के विवाह का वर्णन तुलसीदास द्वारा निर्मित रामायण में प्राप्त होता है. इस दोनों के विवाह का बहुत ही सुंदर और विशद वर्णन हमें रामायण में मिलता है. राम और सीता का मिलन सर्वप्रथम पुष्प वाटिका में होता है. जहां सीता जी राम जी को देखकर मन ही मन उन्हें पसंद कर बैठती हैं. देवी पार्वती के समक्ष उन्हें अपने पति के रुप में पाने का आशीर्वाद मांगती हैं. जब सीता का स्वयंवर होता है तो राजा जनक एक शर्त रखते हैं. वह सीता का विवाह उसी से करने की बात कहते हैं जो शिव धनुष को उठा सकता हो.

बचपन में जब सीता जी ने खेल-खेल में शिव धनुष को उठा लिया, तो सभी इस दृष्य को देख कर अचंभित रह जाते हैं. उस धनुष को कोई भी साधारण व्यक्ति हिला नही पाया था. सीता जैसी छोटी सी बालिका ने उसे आसानी से उठा लिया होता है. तब राजा जनक प्रण(वचन) करते हैं की वह अपनी पुत्री सीता का विवाह उसी से करेंगे जो इस धनुष को उठा सकने का सामर्थ्य रखता हो.

सीता के विवाह योग्य होने पर, राजा जनक ने सीता के स्वयंवर की घोषणा कर देते हैं. राजों को निमंत्रण भेजा जाता है. वहीं दूसरी और वन गमन करते समय ऋषि विश्वामित्र को राजा जनक द्वारा भेजा गया निमंत्रण प्राप्त होता है. ऋषि विश्वामित्र जी, राम-लक्ष्मण के साथ जनकपुरी में राजकुमारी सीता के स्वंयवर में भाग लेने के लिए पहुंचते हैं. राम सीता की प्रथम भेंट एक पुष्पवाटिका में होती है और पुन: स्वयंवर में राम का आना एक अदभुत घटना ही होती है. सीता स्वयंवर में रखी गई शर्त के अनुसार सभी राजा एक-एक करके अपने पराक्रम को दिखाने के लिए उस धनुष को उठाने के लिए आते हैं. परंतु शिव धनुष को कोई भी राजा नहीं उठा पाता है और न ही प्रत्यंचा चढा पाता है.

राजा जनक इस स्थिति को देख कर अत्यंत ही निराश हो जाते हैं. उनके मुख से कठोर वचन निकलते हैं. वह कहते हैं की इस सभा में कोई भी योग्य व्यक्ति नहीं है जो इस धनुष को उठा सके. राजा के वचन सुन कर श्री राम जी अपने गुरु की आज्ञा को पर धनुष को उठाने के लिए जाते हैं. भगवान राम को शिव जी के धनुष को उठा कर प्रत्यंचा चढ़ाने लगते हैं तो धनुष टूट जाता है.धनुष के टूटने के आथ ही राम सीता जी के साथ विवाह बंधन में बंधते हैं.

श्री राम सीता विवाह पूजन

विवाह पंचमी के दिन विधि विधान से राम सीता की पूजा की जाती है. इस समय पर कई जगहों पर झांकियां और कीर्तन इत्यादि का आयोजन भी होता है. राम कथा का श्रवण इस समय पर विशेष रुप से किया जाता है.पूजा में श्रीराम जी और माता सीता जी की प्रतिमा या चित्र स्थापित करना चाहिए. भगवान राम को पीले वस्त्र और माता सीता को लाल वस्त्र भेंट करने चाहिए.

श्री राम व सीता जी पूजन में रामायण का पाठ करना चाहिए. विवाह प्रसंग को सुनना और पढ़्ना अत्यंत ही शुभदायक होता है. भगवान को खीर और पूरी का भोग भी लगाना चाहिए. परिवार समेत प्रसाद ग्रहण करना चाहिए. परिवार के कुशल मंगल की कामना करनी चाहिए. राम और सीता का विवाह जीवन आदर्श है. जो प्रत्येक जनमानस के मन में आज भी समाहित है. राम सीता का विवाह जीवन आदर्श, समर्पण, प्रेम निष्ठा और नैतिक मूल्यों को दर्शाता है.

श्रीराम विवाहोत्सव महत्व

वैवाहिक जीवन मांगल्य सुख को प्रदान करता है. इस दिन श्री राम और सीता जी के विवाह उत्सव को मनाने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है. यदि किसी जातक की कुण्डली में विवाह के सुख का अभाव दिखाई देता है तो उसे श्री रामसीता विवाह पंचमी के दिन श्री राम और सीता जी के समक्ष घी का दीपक जला कर उनसे अपने दांपत्य जीवन के सुख की कामना करनी चाहिए. विवाह पंचमी के दिन यह उपाय करने से दांपत्य सुख में कमी या शादी में आने वाले व्यावधान दूर होते हैं.

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स्कंद षष्ठी 2024 – स्कंद षष्ठी पर ऎसे करें भगवान कार्तिकेय का पूजन

हिन्दू पंचांग अनुसार षष्ठी तिथि को स्कंद षष्ठी के रुप में मनाई जाती है. षष्ठी तिथि भगवान स्कन्द की जन्म तिथि होती है. भगवान स्कंद की षष्ठी तिथि को दक्षिण भारत में बहुत उल्लास के साथ मनाया जाता है. दक्षिण भारत में स्कंद भगवान का पूजन अत्यंत ही विशाल रुप से होता है. स्कंद भगवान अनेकों नाम से जाना जाता है. जहां उत्तर भारत में ये कार्तिकेय कहलाते हैं वहीं दक्षिण भारत में इन्हें स्कंद कहा जाता है.

स्कंद षष्ठी तिथि का उत्सव श्रृद्धा और विश्वास से मनाया जाता है. इस दिन कृतिकाओं का पूजन होता है. साथ ही पूजा में भगवान स्कंद का अभिषेक होता है. स्कंद जी के साथ ही शिव परिवार का पूजन भी होता है. भगवान स्कंद को कुछ स्थानों पर विवाहित तो कुछ स्थानों पर अविवाहित बताया गया है. उत्तर भारत में जहां भगवान कार्तिकेय के अविवाहित होने के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं. तो उसी स्थान में दक्षिण भारत में भगवान कार्तिकेय- मुरुगन स्वामी को अपनी दो पत्नियों के साथ दर्शाया गया है. इनकी दो पत्नियों में देवसेना और वल्ली का नाम आता है.

स्कंद भगवान के अन्य नाम

स्कंद षष्ठी के दिन भक्ति भाव से पूजन किया जाता है. इस दिन व्रत का नियम भी किया जाता है. व्रत में फलाहार का सेवन होता है. भगवान स्कंद देव का पूजन अर्चना करते हैं और व्रत एवं उपवास रखते हैं. स्कंद भगवान को अनेकों नामों जैसे कार्तिकेय, मुरुगन व सुब्रहमन्यम इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है. इस पर्व को विशेष रुप से मनाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है. इस उत्सव के समय पर मंदिरों में विशेष पूजा अर्चना की जाती है. स्कन्द देव को भगवान शिव और देवी पार्वती का पुत्र बताया गया है, यह गणेश के भाई हैं. इन्हें देवताओं का सेनापति बनाए गए.

स्कंद षष्ठी का व्रत कब और कैसे करें

स्कंद भगवान का पूजन कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि में किया जाता है. प्रत्येक मास में आने वाली षष्ठी तिथि का पूजन परिवार को सुख समृद्धि दिलाने वाला होता है. स्कंदपुराण में स्कंद षष्ठी का व्रत और इसकी महिमा का वर्णन मिलता है. दक्षिण भारत में इस व्रत का ज्यादा प्रचलन है. वहां कुछ स्थानों पर इस व्रत को कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को किया जाता है.

स्कंद षष्ठी व्रत का पालन कभी भी किया जा सकता है. इस व्रत व्रत रख कर षष्ठी को कार्तिकेय की पूजा की जाती है. साल के किसी भी मास की षष्ठी को यह व्रत आरंभ किया जा सकता है. खासकर चैत्र, आश्विन, मार्गशीर्ष और कार्तिक मास की षष्ठी को इस व्रत को आरंभ करने का प्रचलन अधिक है.

इस अवसर व्रत के आरंभ करने से पूर्व व्रत का संकल्प लिया जाता है. इस दिन षष्ठी तिथि के अवसर पर स्कंद भगवान जी के साथ ही शिव-पार्वती की पूजा की जाती है. पूरे वर्ष इस व्रत का पालन करने के उपरांत व्रत का उद्यापन करना चाहिए. मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. स्कंद षष्ठी की कथा के अनुसार स्कंद षष्ठी के व्रत से ही अनेकों लाभ प्राप्त होते हैं.

पौराणिक कथाओं में एक कथा च्यवन ऋषि की भी आती है जिनमें उनकी आंखों की रोशनी को पाने के लिए स्कंद भगवान का पूजन किया था. उन्हें आंखों की रोशनी इस व्रत के प्रभाव से मिलती है. स्कंद षष्ठी व्रत की महिमा से ही प्रियव्रत को संतान का सुख प्राप्त होता है. इस प्रकार षष्ठी व्रत के महत्व के उदाहरण मिलते हैं.

स्कंद षष्ठी पूजा नियम

  • स्कंद षष्ठी के दिन स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए.
  • भगवान स्कंद के नामों का स्मरण और जाप करना चाहिए.
  • पूजा स्थल पर स्कंद भगवान की प्रतिमा या चित्र स्थापित करना चाहिए. साथ में भगवान शिव, माता गौरी, भगवान गणेश की प्रतिमा या तस्वीर भी स्थापित करनी चाहिये.
  • भगवान कार्तिकेय को अक्षत, हल्दी, चंदन से तिलक लगाना चाहिए.
  • भगवान के समक्ष पानी का कलश भर के स्थापित करना चाहिए और एक नारियल भी उस कलश पर रखना चाहिए.
  • पंचामृत, फल, मेवे, पुष्प इत्यादि भगवान को अर्पित करने चाहिए. भगवान के समक्ष घी का दीपक जलाना चाहिए.
  • भगवान को इत्र और फूल माना चढ़ानी चाहिये. स्कंद षष्ठी महात्म्य का पाठ करना चाहिए.
  • स्कंद भगवान आरती करनी चाहिए और भोग लगाना चाहिए.
  • भगवान के भोग को प्रसाद सभी में बांटना चाहिए और खुद भी ग्रहण करना चाहिए. भगवान स्कंद का पूजन करने से कष्ट दूर होते हैं और परिवार में सुख समृद्धि का वास होता है.

स्कंदषष्ठी व्रत के प्रभाव से मिलता है संतान सुख

स्कन्द षष्ठी व्रत करने से नि:संतानों को संतान की प्राप्ति होती है, सफलता, सुख-समृद्धि प्राप्त होती है. स्कंद षष्ठी का व्रत संतान जन्म और उसके सुखद भविष्य के लिए किया जात है. जो दंपति संतान सुख से वंचित हैं या जिन्हें किसी कारण से संतान का सुख नही पा रहा हो उनके लिए ये व्रत अत्यंत ही प्रभावशाली होता है.

स्कंदषष्ठी व्रत महिमा

स्कंद षष्ठी पूजा दु:ख का निवारण करती है. इससे जीवन में मौजूद दरिद्रता समाप्त होती है. इस दिन व्रत का पालन करने से पापों की शांति होती है. विधि विधान से पूजा करने पर विजय की प्राप्ति होती है. कार्यों में सफलता मिलती है. रुके हुए काम बनते हैं. काम में आने वाली अड़चनें दूर होती हैं. रोग या कोई ऎसी व्याधी जो लम्बे समय से असर डाल रही हो वह भी समाप्त होती है. षष्ठी पूजा में एक अखंड दीपक जलाने से जीवन में मौजूद नकारात्मकता भी शांत होती है. स्कंद षष्ठी महात्म्य का पाठ करने से व्रत का फल प्राप्त होता है.

नव ग्रह की शांति में भी स्कंद षष्ठी व्रत का प्रभाव बहुत होता है. धर्म शास्त्रों में स्कंद षष्ठी तिथि के लिए मंगल शांति के पूजन के लिए अत्यंत उत्तम बताया गया है. इस दिन भगवान कार्तिकेय का पूजन करने से व्यक्ति में साहस और पराक्रम की वृद्धि होती है. ज्योतिष के अनुसार अगर किसी भी व्यक्ति की कुण्डली में मंगल ग्रह कमजोर हो या शुभ न हो. तो उस स्थिति में ग्रह की अशुभता से बचने के लिए कार्तिकेय भगवान का पूजन करना अत्यंत शुभ फल देने वाला होता है. व्यक्ति को स्कंद भगवान का पूजन करने से अकाल मृत्यु के भय से मुक्ति मिलती है.

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कार्तिक पूर्णिमा 2024 : कार्तिक पूर्णिमा इसलिए होती है इतनी खास

कार्तिक मास में आने वाली पूर्णिमा को “कार्तिक पूर्णिमा” के नाम से जाना जाता है. कार्तिक पूर्णिमा का पर्व संपूर्ण भारत वर्ष में उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस दिन के पावन अवसर पर देश के अनेक क्षेत्रों पर पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान कार्य किए जाते हैं. इस उपलक्ष्य पर प्रकाश का उत्सव भी होता है. सभी ओर प्रकाश किया जाता है. घर हो या भवन या ईमारतें सभी को रोशनी से भी सजाया जाता है.

पवित्र नदियों ओर धर्म स्थलों को को दीपों से सजया जाता है. इस अवसर पर धर्म कथाओं और धार्मिक यज्ञ-हवन जैसे काम होते हैं. स्नान और दान का भी इस दिन विशेष महत्व बताया गया है. इस दिन दान-पुण्य करना कभी भी व्यर्थ नहीं जाता. इस दिन पर जरुरतमंदों की मदद करना सबसे उत्तम कार्य माना जाता है. धर्म धार्मिक कार्यों और दान की महिमा का महत्व किसी विशेष त्योहार पर और भी बढ़ जाती हैिसी शृंखला में कार्तिक पूर्णिमा पर धार्मिक कार्य करने का कई गुना फल मिलता है. कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव का पूजन करने से जन्म जन्माम्तर के पाप नष्ट हो जते हैं.

कार्तिक पूर्णिमा व्रत मुहूर्त

कार्तिक पूर्णिमा इस वर्ष 15 नवम्बर 2024 को शुक्रवार के दिन मनाई जाएगी.

14 नवंबर, 2024 को 09:44 से पूर्णिमा आरम्भ.

15 नवंबर, 2024 को 26:59 पर पूर्णिमा समाप्त.

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष कि पूर्णिमा को कार्तिक पूर्णिमा के दिन त्रिपुरासुर नामक राक्षस का संहार करके भगवान शिव ने सभी देवों कों उसके कष्ट से मुक्त किया था, इसलिए इसे ‘त्रिपुरी पूर्णिमा’ के नाम से भी पुकारा जाता है. अगर इस पूर्णिमा का समय कृतिका नक्षत्र का संयोग भी बन रहा हो तो इसे महाकार्तिकी माना जाता है. यह बहुत ही पुण्यदायी हो जाती है. अगर इस समय पर भरणी नक्षत्र या रोहिणी नक्षत्र का योग बनता हो तो भी इसका महत्व और बढ़ जाता है.

कार्तिक पूर्णिमा के दिन मत्स्यावतार जयंती

ग्रंथों के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा के समय पर ही भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था. इस दिन को मत्स्य जयंती के रुप में भी मनाए जाने कि परंपरा रही है. भगवान विष्णु का पूजन और भागवद कथा का पाठ इस दिन किया जाता है. इस दिन गंगा स्नान के बाद दीप-दान का फल दस राजसूय यज्ञों के समान होता है.

महापुनीत पर्व

कार्तिक पूर्णिमा के दिन को महापुनीत पर्व के नाम से भी पुकारा जाता है. इसका अर्थ होता है कि इस दिन किया गया दान अत्यंत ही शुभ और अमोघ फलों को देने वाला होता है. यह महादान की श्रेणी में आता है. इस दान को किसी भी रुप में किया जा सकता है. दान के लिए अनाज, वस्त्र, भोजन, वस्तु, धन-संपदा में किसी भी वस्तुर का दन चाहे वह छोटा हो या बड़ा सभी का अत्यंत महत्व होता है.

कार्तिक पूर्णिमा की पूजन विधि

  • कार्तिक पूर्णिमा के दिन ब्रह्म मुहूर्त समय पर उठ कर स्नान करना चाहिए.
  • इस दिन पवित्र नदियों, जलाशयों, घाटों इत्यादि में स्नान करना चाहिए. इस दिन गंगा स्नान का पुण्य फल प्राप्त होता है.
  • यदि गंगा स्नान करने नहीं जा सकते हैं तो घर में ही नहाने के पानी में गंगाजल मिलाकर स्नान करना उत्तम होता है.
  • कार्तिक पूर्णिमा के दिन घी, दूध, केले, खजूर, चावल, तिल और आवंले का दान उत्तम माना जाता है.
  • भगवान शिव, भगवान श्री विष्णु का पूजन करना चाहिए.

पूजन के पश्चात संध्या समय घर के मुख्य द्वार पर, तुलसी पर दीपक जरुर जलाना चाहिए.

कार्तिक पूर्णिमा की पौराणिक कथा

पौराणिक कथा के मुताबिक तारकासुर नाम का एक राक्षस था. तारकासुर का वध कार्तिकेय ने किया था. तारकासुर के वध के पश्चात उसके तारकासुर के पुत्र अपने पिता कि मृत्यु का बदला लेने हेतु घोर तपस्या करते हैं. ब्रह्माजी से वरदान स्वरुप वह अमरता का वर मांगते हैं. ब्रह्माजी तीनों की तपस्या से प्रसन्न होते हैं पर उन्हें अमरता का वरदान के बदले कुछ ओर मांगने को कहते हैं.

तब तीनों ने ब्रह्मा से तीन अलग नगरों का निर्माण और ऎसे रथ की प्राप्ति कराएं जिसमें तीनों बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में भ्रमण कर सकें. उन तीनों की मृ्त्यु तभी हो पाए जब वह एक समय पर एक सीध पर हों और केवल एक बाण से उन्हें मारा जा सके. ब्रह्मा जी उन्हें इस इसी तरह का वरदान देते हैं.

वरदान पाकर तीनों अपना आतंक चारों ओर मचाने लग जाते हैं. मयदानव तीनों के लिए तीन नगर बना देते हैं. तीनों ने मिलकर अपनी शक्ति द्वारा तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया. इंद्रआदि सभी देवताओं को वे देव लोक से निकाल देते हैं. सभी देव भयभीत होकर भगवान ब्रह्मा की शरण में जाते हैं. ब्रह्मा जी ने देवों को शांत किया और उन्हें शिव की शरण जाकर सहायता मांगे, केवल शिव ही उन का संहार कर सकते हैं. राक्षसों से भयभीत हुए देव, भगवान शिव की शरण में जाते हैं.

शिव भगवान देवों को आश्वासन देते हैं और दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण होता है. इस दिव्य रथ का निर्माण देवताओं ने किया. रथ के पहिए चंद्रमा और सूर्य से निर्मित होते हैं. इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के घोड़े बनते हैं. हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बनते हैं. इस दिव्य रथ पर भगवान शिव विराजमान होते हैं. भगवानों और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध होता है. ब्रह्मा के वरदान अनुसार एक हज़ार वर्ष पश्चात जब तीनों एक सीध पर आते हैं तो मिलकर एक होत हैं ओर उसी क्षण तीनों रथ एक सीध में आए, भगवान शिव ने एक बाण से उनका नाश कर दिया.

स्नान दान की पूर्णिमा

कार्तिक मास में आने वाली पूर्णिमा वर्षभर की पवित्र पूर्णमासियों में से एक है. इस दिन किये जाने वाले दान-पुण्य के कार्य विशेष फलदायी होता है. इस दिन संध्याकाल समय में दीपदान करने से पुनर्जन्म के पाप भी शांत हो जाते हैं. इस दिन दीपदान करने का है बड़ा महत्व होता है.

कार्तिक पूर्णिमा पर सिर्फ गंगा स्नान ही नहीं बल्कि दीपदान का भी खास है. दीप दान करने से पूर्वजों की आत्मा को शांति और मुक्ति प्राप्त होती है. श्रद्धालु काशी, संगम हरिद्वार जैस पवित्र स्थलों पर जाकर दीपदान करते हैं. कार्तिक पूर्णिमा को देव दीपावली के नाम से भी जाना जाता है. मान्यता अनुसार देवता भी इस दिन दीये जलाते हैं.

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चंपा षष्ठी 2024 – इस दिन होता है मार्तण्ड शिव का पूजन

मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी “चंपा षष्ठी” नाम से भी मनाई जाती है. मान्यता है की चंपा षष्ठी का पर्व भगवान शिव के एक अवतार खंडोवा को समर्पित है. खंडोवा या खंडोबा को अन्य कई नामों से भी पुकारा जाता है. इसमें से खंडेराया, मल्हारी, मार्तण्ड आदि नाम बहुत प्रसिद्ध हैं.

चंपा षष्ठी और खंडोवा मान्यता और महत्व

भगवान शिव के एक अवतार खंडोवा देव को महाराष्ट्र और कर्नाटक की ओर रहने वाले लोगों के मध्य कुल देवता के रुप में पूजा जाता है. इनकी पूजा हर वर्ग के लोगों द्वारा की जाती है. इनके यहां न कोई गरीब है न ही कोई अमीर है. सभी लोग समान रुप से देव पूजा करते हैं. इस के अलावा कुछ लोगों द्वारा खंडोबा को स्कंद का अवतार भी समझा जाता है, तो कुछ के अनुसार यह शिव अथवा उनके भैरव रूप का अवतार माने जाते हैं. कुछ अन्य विचारकों के अनुसार खंडोबा के संबंध में यह भी कहा जाता है कि वह एक वीर यौद्धा थे और उन्हें देवता का रुप मान लिया गया था. ऎसे बहुत से विचार खंडोबा के बारे में मिलते हैं.

अलग-अलग विचार और मान्यताओं के इस संदर्भ में एक बात तो महत्वपूर्ण रुप से सिद्ध हो ही जाती है की खंडोबा का स्थान सभी लोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है. उन्ही के लिए इस तिथि के दिन भिन्न भिन्न रुप में उत्सवों का आयोजन होता है.

चंपा षष्ठी पूजन विधि

चंपा षष्ठी के पूजन का उत्सव देश के पूना और महाराष्ट्र क्षेत्रों में अधिक होता है. इस स्थान पर जेजुरी स्थान में खंडोबा मंदिर में चंपा षष्ठी का उत्सव बहुत धूमधाम के साथ मनाया जाता है. इस दिन हल्दी, फल सब्जियां इत्यादि खंडोबा देव को अर्पित की जाती हैं. यहां मेले का आयोजन भी होता है. मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को भगवान शिव का पूजन होता है. इस दिन भगवान शिव के मार्तण्ड रुप की पूजा होती है.

मार्तण्ड रुप एक अत्यंत उग्र रुप भी है जिसे भैरव नाम से भी पुकारा जाता है. इस दिन प्रात:काल समय भगवान शिव का अभिषेक होता है. भगवान के समक्ष दीपक, पुष्प, बेल पत्र, अक्षत, गंध इत्यादि से पूजा की जाती है. भगवान शिव के अवतार को किसानों से भी जोड़ा जाता है. इस लिए इस समय पर कृषक अपने साधनों का पूजन भी करते हैं. भगवान शिव के साथ ही कार्तिकेय का पूजन भी होता है. षष्ठी तिथि वैसे भी स्कंद(कार्तिकेय) भगवान को समर्पित है. इसलिए इस पर्व को षष्ठी पर्व भी कहा जाता है. इस दिन भगवान की पूजा और व्रत किया जाता है.

चंपा षष्ठी पौराणिक कथा

चंपा षष्ठी का दिन खंडोबा से जुड़ा हुआ है. यह कथा भगवान शिव से जुड़ी है. खंडोबा के सेवक के रूप में “बाध्या” और “मुरली” का उल्लेख मिलता है. बाध्या के बारे में कहा जाता है कि वह खंडोबा के कुत्ते का नाम था. मुरली जो खंडोबा की उपासिका और कोई देवदासी थी. दक्षिण में बाध्या और मुरली नाम के खंडोबा के उपासकों का दो वर्ग रहे हैं. इन लोगों को घुमंतु प्रजाती का कहा जाता है. यह अपना जीवन बंजारों की तरह व्यतीत करते हैं.

खंडोबा के विषय में कई मत प्रचलित रहे हैं. इस संबंध में पूजा और मतों में यह भी कहा जाता है कि खंडोबा की उपासना कर्णाटक से महाराष्ट्र में आई है. खंडोबा देव को महाराष्ट्र और कर्णाटक के बीच एक सांस्कृतिक संबंध के प्रतीक के रुप में भी देखा जाता है. कर्णाटक में खंडोबा को मल्लारी, मल्लारि मार्तंड, मैलार आदि नाम से पुकारा जाता है.

इस संदर्भ में वहां की कुछ कथाओं से ज्ञात होता है कि मणिचूल पर्वत पर ऋर्षि तपस्या में लीन होते हैं. उस स्थान पर मणि और मल्ल नामक दैत्यों ने बहुत उत्पात मचाया. उस स्थान को उन्होंने पूरी तरह से नष्ट कर दिया है. दैत्यों के उपद्रव से परेशान होकर ऋषियों की तपस्या भंग हो जाती है.

दैत्यों से परेशान ऋषिगण देवताओं से अपनी सहायता की मांग करते हैं. देवता भी उन दैत्यों को हरा नही पाते हैं क्योंकि ब्रह्मा जी के मिले वरदान से उन दैत्यों की रक्षा होती है. सभी ऋषि गण और देवता ब्रह्मा जी के पास जाते हैं. ब्र्ह्मा जी उन्हें बताते है कि मणि और मल्ल दोनों को अमरता का वरदान प्राप्त है. उस वरदान के प्रभाव के चलते कोई भी उन्हें मार नहीं सकता है.

तब देवता, दैत्यों के अंत के लिए सभी भगवान शिव के पास जाते हैं. भगवान शिव दैत्यों के नाश के लिए मार्तंड का रूप धारण करते हैं. कार्तिकेय को साथ लेकर वह भैरव रुप में मणि और मल्ल से युद्ध करते हैं. दैत्यों पर विजय प्राप्त करते हैं. मणि और मल्ल्हा भगवान के बड़े भक्त थे. इस लिए अत्मसमर्पण समय पर एक ने भगवान के पास घोड़े के रुप में रहने का वरदान मांगा और दूसरे ने अपने नाम से ही भगवान को पूजे जाने का वर मांगा था.

इस कथा में लौकिक और परा लौकिक शक्तियों का संगम रहा है. मार्तंड भैरव ने मणि को अपने साथ अश्व के रूप में रहने का वरदान दिया. मल्ल दैत्य के नाम पर अपने को मल्लारि नाम दिया. ऋषि भयमुक्त होकर रहने लगे. आज भी मल्लारि मैलार कथा इन स्थानों में प्रचलित है.

चंपा षष्ठी पर्व महत्व

चंपा षष्ठी का दिन अत्यंत ही शुभदायक होता है. मार्तण्ड भगवान सूर्य का भी एक नाम है अत: इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान किया जाता है. सूर्यदेव को नमस्कार किया जाता है और सूर्य पूजा भी की जाती है. शिव का ध्यान किया जाता है. शिवलिंग की पूजा की जाती है. शिवलिंग पर दूध और गंगाजल चढ़ाया जाता है. इस दिन भगवान को चंपा के फूल चढ़ाए जाते हैं. भूमि पर शयन किया जाता है. मान्यता है की इस दिन भगवान पूजा और व्रत करने से पाप नष्ट हो जाते हैं. परेशानियों का अंत होता है. जीवन में सुख-शांति प्राप्त होती है. चंपा षष्ठी का प्रारंभ कैसे हुआ और इसकी क्या मान्यताएं हैं इसके बारे में भिन्न भिन्न प्रकार के मत प्रचलित हैं.

इस दिन किया गया पूजा पाठ और दान, मोक्ष की भी प्राप्ति कराने में सहायक होता है. चंपा षष्ठी की कथाओं को स्कंद षष्ठी से जोड़ा जाता है और कहीं खंडोबा देव से तो कहीं षष्ठी तिथि से जोड़ा जाता है. भारत के अनेक स्थानों पर इस दिन को अलग-अलग नामों से पूजा जाता है.

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मार्गशीर्ष माह में क्यों की जाती है श्री पंचमी पूजा

मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि श्री पंचमी का पर्व मनाया जाता है. पंचमी तिथि के दिन लक्ष्मी जी को “श्री” रुप में पूजा जाता है. देवी लक्ष्मी को “श्री”का स्वरुप ही माना गया है. दोनों का स्वरुप एक ही है ऎसे में ये दिन लक्ष्मी के पूजन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. श्री पंचमी के दिन देवी लक्ष्मी का पूजन करने से सभी प्रकार का सुख और सौभाग्य प्राप्त होता है.

श्री पंचमी का पौराणिक महत्व

देवी लक्ष्मी को “श्री संपत्ति” का स्वरुप माना गया है. इस पर्व को लक्ष्मी के भिन्न भिन्न रुपों का पूजन होता है. यह बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है. श्री पंचमी पर्व सभी के समक्ष शुभ और संपन्न आदर्श की स्थापना करता है. सभी के लिए सदैव के लिए पूजनिय बनता है.

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, श्री पंचमी का संबंध सरस्वती से भी है और लक्ष्मी जी से भी है. पंचमी तिथि को “श्री” के पृथ्वी पर आने के समय से जोड़ा गया है. लक्ष्मी पंचमी के जन्म समय को समझने की भी आवश्यकता होती है. लक्ष्मी जन्म से संबंधित अनेक कथाएं मिलती हैं. वहीं जब हम लोक जीवन से जुड़ी कथाओं को देखें तो यहां भी हमें उनकी जन्म कथा के विभिन्न रुप दिखाई देते हैं. वहीं इस दिन को लक्ष्मी-विष्णु विवाह से भी जोड़ कर देखा जाता है.

श्री पंचमी पूजन कब और क्यों किया जाता है.

लक्ष्मी पंचमी पर्व को इनके श्री विष्णु विवाह से जोड़ा गया है. यह दिवस अत्यंत उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है. प्रत्येक वर्ष इस दिन देवी देवी लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है. इस उपलक्ष पर मंदिरों में भजन एवं कीर्तन होते हैं.

श्री पंचमी पूजा विधि

श्री पंचमी के दिन कैसे करें पूजन और किन चीजों को भोग के लिए उपयोग में लाएं, आईये जानते हैं इस दिन के व्रत एवं पूजन की विधि विस्तार से –

  • श्री पंचमी के दिन प्रात:काल समय स्नान आदि कार्यों से निवृत्त होकर लक्ष्मी जी के नाम का स्मरण करना चाहिए.
  • देवी लक्ष्मी के साथ श्री विष्णु जी का पूजन किया जाता है.
  • अक्षत(चावल), कुमकुम, धूपबत्ती, घी का दीपक जलाएं व अष्टगंध से पूजा करनी चाहिए.
  • देवी लक्ष्मी को लाल और सफेद रंग के पुष्प भेंट करने चाहिए.
  • लक्ष्मी जी की आरती करनी चाहिए “ऊँ महालक्ष्मयै नमः” मंत्र का जप करना चाहिए.
  • प्रसाद में मिष्ठान एवं खीर, नारियल, पंचामृत इत्यादि का भोग लगाना चाहिए.
  • श्री पंचमी पूजन के बाद भगवान के भोग को प्रसाद रुप में सभी को बांटना चाहिए व परिवार समेत ग्रहण करना चाहिए.

लाभ की वृद्धि करता है श्री पंचमी पूजन

श्री पंचमी पूजन करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है. आर्थिक सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है. सभी स्त्रियों के लिए एवं सुहागिन स्त्रियों के लिए यह दिन विशेष रुप से अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. श्री पंचमी का पूजन एवं व्रत करने से स्त्री को अच्छे वर की प्राप्ति होती है. सुहागिन स्त्रियों द्वारा इस दिन व्रत पूजन करने से उनके पति की आयु लंबी होती है और वह सदा सुहागिन होने का आशीर्वाद भी पाती हैं.

श्री पंचमी का पूजन करने से संतान सुख एवं दांपत्य जीवन के सुख की प्राप्ति होती है. आर्थिक जीवन में किसी भी प्रकार की परेशानियां आ रही हैं, तो इस दिन व्रत का संकल्प लेकर पूजा करने से सभी परेशानियां का अंत होता है. श्रीपंचमी का पूजन एवं व्रत जीवन के कष्टों को दूर करने में अत्यंत ही प्रभावशाली उपाय बनता है.

जानें श्री पंचमी व्रत की कथा

धन, वैभव और सुख-समृद्धि को देने वाली देवी का स्थान माता लक्ष्मी को प्राप्त है. लक्ष्मी जी विष्णुप्रिया हैं. वह श्री विष्णु को अत्यंत प्रिय हैं. मान्यता है कि मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है. इन्हें प्रसन्न करने के लिये इस दिन पूजा के साथ-साथ दिन भर व्रत भी रखा जाता है. इसी कारण इस पंचमी को लक्ष्मी पंचमी व श्री पंचमी कहा जाता है.

श्री पंचमी मां सरस्वती की उपासना के दिन बसंत पंचमी को भी कहा जाता है. लेकिन देवी लक्ष्मी का भी एक नाम श्री माना जाता है. इस कारण लक्ष्मी पंचमी को श्री पंचमी भी कहा गया है. परिवार में सुख-समृद्धि व धन प्राप्ति की कामना के लिये मां लक्ष्मी की उपासना का यह पर्व बहुत ही महत्वपूर्ण होता है.

पौराणिक ग्रंथों में जो कथा मिलती है उसके अनुसार मां लक्ष्मी किसी कारण से देवी लक्ष्मी देवताओं से अलग हो जाति है. देवों को मिले श्राप और उनके द्वारा किए गए व्यवहार से देव “श्री” हीन हो जाते हैं. नाराज हुई “श्री” को पाने के लिए सभी देव माता लक्ष्मी की उपासना में लीन हो जाते हैं. क्षीर सागर में जा कर देवी लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए देवताओं ने कठिन तप किया. लक्ष्मी को पुन: प्रसन्न करने के लिये कठोर तपस्या और विशेष विधि विधान से देवी के लिए अनुष्ठान किया.

मां लक्ष्मी की उपासना द्वारा देवी लक्ष्मी जी ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया. कई स्थानों पर इस कथा को अमृत मंथन कथा में भी दर्शाया गया है. जहां लक्ष्मी समुद्र से निकती हैं ओर श्री विष्णु के साथ उनका विवाह होता है. यही कारण था कि इस तिथि को श्री पंचमी के व्रत और त्यौहार के रूप में मनाया जाता रहा है.

श्री पंचमी पूजन महत्व

श्री पंचमी पूजन करने पर जीवन में सदैव सुख संपत्ति कि प्राप्ति होती है. देवी को प्रणाम करते हुए मंदिर में उनके समक्ष दीप प्रज्जवलित करना चाहिए. व्रत करने का संकल्प लेना चाहिए. पूजा में लाल रंग के वस्त्र एवं फूलों का उपयोग करना अधिक शुभ होता है. अगर लाल रंग नही हो तो जो भी आपके सामर्थ्य में है उस अनुरूप भी पूजा की जा सकती है. देवी को श्रृंगार का सामान अर्पित करना चाहिए. भक्ति और श्रद्धा से किया गया पूजन जीवन में भौतिक सुखों की कमी नहीं होने देता है.

विधि विधान के साथ श्री पंचमी का पूजन और व्रत करने वाले को जीवन में कभी भी धन की कमी परेशान नहीं करती है. उसके जीवन में कर्ज की स्थिति नहीं आती है. कन्या या स्त्री यदि इस व्रत को विधान पूर्वक करती है वह सौभाग्य, दांपत्य सुख, संतान और धन से सम्पन्न हो जाती है. धार्मिक शास्त्रों के अनुसार इस दिन मां की पूजा करने व व्रत रखने से व्रती को मनोवांछित फल प्राप्त होता है.

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यमाय दीपदान – दूर होता है अकाल मृत्यु का भय समाप्त

हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में यम को मृत्यु का देवता बताया गया है. यम जिन्हें यमराज व धर्मराज के नाम से भी पुकारा जाता है. वेद में भी यम वर्णन विस्तार रुप से प्राप्त होता है. यमराज, का वाहन महिष है अर्थात भैसा. भैंसे पर सवार दण्डधर सभी प्राणियों के लिए मृत्यके देव हैं. सभी जीवों के अच्छे और बुरे कर्मों का निर्धारण करते हैं. यमराज को दक्षिण दिशा के का स्वामी, दिकपाल बताया जाता है.

यम दीपदान पर करें इन नामों का स्मरण

यमाय दीपदान के समय पर यम देव के अनेक नामों का स्मरण करना अत्यंत ही शुभदायक माना जाता है. यमराज के मुख्य नाम इस प्रकार हैं – धर्मराज, मृत्यु, यम, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुभ्बर, दघ्न, नील, चित्रगुप्त, परमेष्ठी, चित्र और वृकोदर इन नामों से यमराज की पूजा होती है.

यमाय दीपदान पौराणिक कथा

यम दीपदान पर एक कथा अत्यंत प्रचलित है जो काफी प्रचीन काल से चली आ रही है. यह कथा हंसराज और हेमराज से जुड़ी हुई है. कथा इस प्रकार है – प्राचीन काल में एक राजा हुआ करता था. उस राजा का नाम हंसराज था. एक बार राज हंसराज अपने सैनिकों के साथ शिकार खेलने के लिए निकल पड़ते हैं. शिकार की तलाश में राजा बहुत आगे निकल जाता है और अपने सैनिकों से बिछड़ जाता है.

जंगल में भटकते हुए वह अंजाने मार्ग पर निकल पड़ता है. वह किसी दूसरे राज्य की सीमा में पहुंच जाता है. जिस राज्य में वह प्रवेश करता है उसका राजा हेमराज होता है. हेमराज के सैनिक उसे अपनी सीमा पर आता देख अपने राजा के पास ले जाते हैं. हेमराज, हंसराज का आदर भाव करता है. उस समय पर हेमराज को संतान रुप में पुत्र रत्न कि प्राप्ति होती है. इस शुभ समय पर राजा हंसराज को अपने राज्य में छठी महोत्सव तक रुकने का आग्रह करता है. हंसराज राजा कि बात मान कर उस महोत्सव में शामिल होता है.

बच्चे की छठी के दिन धार्मिक अनुष्ठा पूरे होते हैं. ज्योतिष के आचार्य बालक के भविष्य को देखते हुए कहते हैं कि यह बालक बहुत तेजस्वी होगा. पर उसके जीवन पर एक बार बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ेगा जो उसके जीवन को संकट में डाल देगा. बच्चे के विवाह होने के पश्चात विवाह के चौथे दिन बाद बालक की मृत्यु हो जायेगी. राजा हेमराज यह बात सुन अत्यंत दुखी हो जाता है.

तब हंसराज कहता है की आप परेशान न हों अपने बालका का लालन पालन करें. बालक को को एक भूमिगत महल बनवाकर, वही उसका पालन किया जाता है. समय बीतते-बीतते बालक बड़ा हो जाता है. युवराज जहां रहत अथा वहां एक बार राजा हेमराज की पुत्री उस स्थान पर आती है और उस स्थान पर राजकुमार को देख कर उस पर मोहित हो जाती है. वह दोनों गंधर्व विवाह कर लेते हैं. जब माता-पिता को इस बात का पता चलता है तो वह दोनों बच्चों को उस ज्योतिष भविष्यवाणी की बात बताते हैं जो राजकुमार के विवाह से जुड़ी हुई थी.

विवाह के चौथे दिन यमदूत वहां उस राजकुमार को लेने पहुंच जाते हैं. उस जोड़े को अलग करने का मन में दुख उन यमदूतों को भी होता है. विवाहिता बहुत विलाप करती है. वह उनसे प्रार्थना करती है की वह उसके सुहाग को न ले जाएं. पर वह दूत भी काल के अधीन होते हैं. वह उस राजकुमारी से कहते हैं यदि वह यम के निमित्त दीपदान करती हैं, तो उसके सुहाग की रक्षा हो सकती है. उस समय वह राजकुमार दक्षिण दिशा की ओर दीपक प्रज्जवलित करती है. अपने सुहाग की रक्षा हेतु प्रार्थना करती है.

दूत बिना उस राजकुमार के चले जाते हैं. यमराज दूतों से पुछते हैं की वह खाली हाथ क्यों आए हैं. दूत सारा वृ्तांत यमराज को सुना देते हैं. तब यमराज स्वयं वहां जाते हैं. राजकुमारी की निष्ठा और दीपदान को देख कर उनका मन भी द्रवित हो जाता है. नवविवाहित को सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देते हैं. राजकुमार के प्राणों को मुक्त कर देते हैं. तब से यम के निमित्त दीपदान करने से अकाल मृत्यु का भय समाप्त होता है और लम्बी आयु का आशीर्वाद मिलता है.

कुछ स्थानों पर इस कथा में भेद भी दिखाई देता है. जिसके अनुसार दूत उस राजकुमार के प्राण ले जाते हैं. जब वह यमराज के समक्ष उस नवविवाहिता राजकुमारी के दुख का वर्णन करते हैं. यमराज उस दशा को देख यमराज भी व्याकुल हो उठते हैं. वह कहते हैं की काल तो अपना कार्य अवश्य करेगा. पर अकाल मृत्यु से बचने के लिए यदि कोई व्यक्ति कार्तिक कृष्ण पक्ष की तेरस, चतुर्दशी और यमद्वीतिया को उपवास रखकर यमुना में स्नान करेगा. यम का पूजन करेगा और दीपदान करेगा उसे अकाल मृत्यु का भय कभी नहीं सताएगा.

यमाय दीपदान पूजा

स्कंदपुराण में वर्णित है -” यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति” अर्थात संध्या समय घर के बाहर यमदेव के लिए दीप रखने से अकाल मृत्यु का निवारण होता है. सूर्यपुत्र यम का दीपदान करने से अकाल मृत्यु से छुटकारा मिलता है. पूरे वर्षभर जब मृत्यु के देवता यमराज की पूजा सिर्फ दीपदान करके होती है. तो सभी कष्ट दूर हो जाते हैं. यम के निमित्त दीप प्रदोषकाल जलाना चाहिए.

यम को दीपदान के लिए आटे का एक बड़ा दीपक तैयार किया जाना चाहिए. इसके उपरांत रूई लेकर दो लंबी बत्तियां बना लेनी चाहिए. उन्हें दीपक में इस प्रकार रखें कि दीपक के बाहर बत्तियों के चार मुंह निकलें. इसमें सरसों या तिल के तेल से दीपक को भर देना चाहिए. इसके साथ ही दीपक में काले तिल भी डाल देने चाहिए.

प्रदोषकाल में दीपक का रोली, अक्षत एवं पुष्प से पूजन करना चाहिए. घर के मुख्य दरवाजे के बाहर थोड़ी सी खील या गेहूं की ढेरी बनाकर उसके ऊपर दीपक को रखना चाहिए. दीपक जलाकर दक्षिण दिशा की ओर रखने चाहिए. इसके बाद यमदेवाय: नम: कहते हुए दक्षिण दिशा में नमस्कार करना चाहिए.

यमाय दीपदान महत्व

यम दीपदान और पूजन अकाल मृत्यु से मुक्ति तथा स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए किया जाता है. एक पौराणिक मान्यता के अनुसार यम के निमित्त दीपक जलाने से प्राणियों को मुक्ति प्राप्त हो पाती है. यम की पूजा का विधान प्राचीन काल से है. पूजन करने से व्यक्ति को रुप सौंदर्य की प्राप्ति होती है. पूजा और व्रत के प्रभाव स्वरूप उनका शरीर स्वस्थ एवं सुंदर होता है. पूजन हेतु एक थाल को सजाकर उसमें एक चौमुख दिया जलाते हैं. सोलह छोटे दीप और जलाएं तत्पश्चात रोली खीर, गुड़, फूल इत्यादि से यम देव की पूजा करनी चाहिए. यमाय दीपदान के समय पर घर के या किसी भी निवास स्थान, भवन इत्यादि के मुख्य द्वार पर और अंदर भी दीप जलाने चाहिए.

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भाद्रपद अमावस्या 2024, जानें कैसे मिलेगी पितृ दोष से मुक्ति

ज्योतिष शास्त्र में पंचाग गणना अनुसार माह की 30वीं तिथि को अमावस्या कहा जाता है. इस समय के दौरान चंद्रमा और सूर्य एक समान अंशों पर मौजूद होते हैं. इस तिथि के दौरान चंद्रमा के प्रकाश का पूर्ण रुप से लोप हो जाता है अर्थात पृथ्वी पर उसकी रोशनी नहीं पड़ पाती है. इस समय के दौरान रात्रिकाल में अंधेरा अधिक गहराने लगता है.

भाद्रपद अमावस्या समय इस वर्ष 03 सितंबर, 2024 को मंगलवार के दिन मनाई जाएगी.

भाद्रपद अमावस्या पर करें ग्रह शांति

भाद्रपद अमावस्या के दिन ग्रह शांति पूजा भी की जाती है. शनि-मंगल-राहु-केतु ग्रहों की शांति के लिए ये समय अत्यंत अनुकूल होता है. शनि दशा, साढ़ेसाती या शनि की ढ़ैय्या जैसे समय के दौरान अगर भाद्रपद अमावस्या में पूजा और व्रत रखा जाए तो यह शनि शांति के लिए बहुत उपयोगी होता है. अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में शनि दोष कि स्थिति अथवा दशा का प्रभाव हो तो भाद्रपद अमावस्या का दिन शनि शांति उपाय के लिए होता है.

जन्मकुंडली में पितृ दोष है होने पर विवाह में बाधा अथवा संतान में बाधा होती है इसलिए यदि पितृ दोष के कारण संतान सुख में बाधा आ रही हो तो कुशग्रहणी व्रत, पूजा-पाठ, दान करने से बाधाएं दूर होती हैं.

राहु या केतु ग्रह परेशान कर रहे हैं, उन्हें कुशग्रहणी अमावस्या पर पितरों को भोग द्वारा खुश करना चाहिए. पीपल के वृक्ष की पूजा करनी चाहिए. इन सभी कार्यों को करने से मनोकामना पूरी होती है

 

भाद्रपद अमावस्या मे क्या करना चाहिए ?

भाद्रपद अमावस्या के दिन तीर्थस्नान, जप और व्रत आदि करना चाहिए.

भाद्रपद अमावस्या के दिन भगवान शिव, श्री विष्णु, गणेश और अपने इष्टदेव की पूजा करनी चाहिए.

भाद्रपद अमावस्या का दिन साधना और तपस्या करनी चाहिए.

जन्मकुंडली में पितृ दोष अथवा सर्प दोष शाम्ति के लिए भाद्रपद अमावस्या के दिन पूजा-पाठ-दान अवश्य करनी चाहिए.

भाद्रपद अमावस्या के अन्य नाम

कुशग्रहणी अमावस्या- भाद्रपद अमावस्या को कुशा(घास) ग्रहणी अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है. कुशा(कुश) से अर्थ होता है घास. पर यह कोई आम कुश नही होती है यह एक अत्यंत ही शुभ एवं महत्वपूर्ण कुशा होती है. इस दिन कुश को एकत्रित करने के कारण ही इसे कुशग्रहणी अमावस्या नाम प्राप्त हुआ है. पौराणिक ग्रंथों में इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा गया है. साल भर के धार्मिक कृत्यों के लिये इस दिन को कुश इकट्ठा करने के लिए चुना जाता है.

धर्म ग्रंथों में कई तरह की कुशा का उल्लेख मिलता है. इन सभी कुशा में भाद्रपद की अमावस्या के दिन जो कुशा का उपयोग होता है. उसके लिए कुश के बारे में वर्णन मिलता है. इसलिए इस दिन जो कुशा को लिया जाता है उसमें सात पत्ती हो, कोई भाग कटा न हो, पूर्ण हरा हो, तो वह कुशा देवताओं तथा पितृ दोनों कृत्यों के लिए उचित मानी जाती है. कुशा तोड़ते समय ‘हूं फट्’ मंत्र का उच्चारण करना चाहिए. जब कुश मिले तो पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके मंत्र को बोलते हुए दाहिने हाथ से कुश को निकाल लेना चाहिए.

पिठोरी अमावस्याभाद्रपद अमावस्या को पिठोरी, पिथौरा, पिठोर इत्यादि नाम से भी जाना जाता है. पिठोरी अमावस्या के दिन दुर्गा का पूजन करने का विधान भी रहा है. पिठोरी अमावस्या के दिन प्र्मुख रुप से स्त्रीयां संतान सुख के लिए इस व्रत को करती हैं. मान्यता है कि इस व्रत के महत्व माता पार्वती ने सभी के समक्ष रखा और इसके शुभ फलों के राज को सभी को बताया. इंद्र की पत्नी शचि ने इस व्रत को किया और संतान सुख एवं समृ्द्धि को पाया. इसी पौराणिक मान्यता के अनुसार इस भाद्रपद अमावस्या के दिन संतान के सुख एवं उसकी लम्बी आयु की कामना के लिए व्रत किया जाता है.

पोला पर्व भाद्रपद माह की अमावस्या तिथि को पोला पर्व मनाए जाने की परंपरा भी मिलती है. पोला को पिठोरा पर्व भी कहा जाता है. यह उत्सव विशेष रुप से महाराष्ट्र, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ के क्षेत्रों में मनाया जाता है. यह त्यौहार कृषक लोगों के साथ भी जुड़ा है. इस दिन बैलों का श्रृंगार कर उनकी पूजा की जाती है. बैल किसान के लिए एक महत्वपूर्ण हिसा होते हैं. उन्हीं के द्वारा वह अपनी खेती के कार्य को कर पाता है और इनके बिना किसान अपनी खेती का लाभ उठा नहीं पाता है.

पोला उत्सव में लोग मिट्टी के बैल भी बनाते हैं. कुछ स्थानों पर इस दिन बैलों की दौड़ का आयोजन भी किया जाता है. बैलों के विजेता को सम्मान प्राप्त होता है. इस दिन में बैलों की पूजा भी की जाती है.

भाद्रपद अमावस्या महत्व

भाद्रपद अमावस्या व्रत के पुण्य फल में वृद्धि होती है. किसी भी प्रकार के ऋण और पाप का नाश होता है. संतान सुख की प्राप्ति होती है, वंश वृद्धि होती है. रुके हुए कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होते हैं. मानसिक शांति मिलती है. पाप ग्रहों से मिलने वाले कष्ट से मुक्ति मिलती है.

वर्ष भर आने वाली अमावस्याओं के नाम

साल भर में आने वाली अमावस्या उस माह के नाम से संबंध रखती हैं. हिंदू पंचांग गणना में हर तीन साल में एक बार एक अतिरिक्त माह का आगमन होता है, जिसे अधिकमास, मल मास या पुरुषोत्तम मास के नाम से जाना जाता है. ऎसे में इस समय पर अमावस्या भी अधिक होती है, अमावस्या में संख्या बढ़ जाती है. प्रत्येक माह की अमावस्या का प्रभाव और महत्व में अंतर भी दिखाई देते है. माघ अमावस्या, फाल्गुन अमावस्या, चैत्र अमावस्या, वैशाख अमावस्या , ज्येष्ठ अमावस्या , आषाढ़ अमावस्या , श्रावण अमावस्या , भाद्रपद अमावस्या, अश्विन अमावस्या, अश्विन अमावस्या, कार्तिक अमावस्या, मार्गशीष अमावस्या.

इन सभी अमावस्या के दौरान पूजा पाठ स्नान दान और उपासना साधना इत्यादि कार्य करने से मानसिक, आत्मिक, भौतिक रुप से सुख और शांति प्रदान कराने में बहुत सहायक बनती हैं. अमावस्या के दिन किसी भी प्रकार की बुरी आदतों से दूर बचे रहने की हिदायत दी जाती है. इसी के साथ शुद्ध पवित्र आचरण का पालन करना चाहिए.

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