मार्गशीर्ष माह में क्यों की जाती है श्री पंचमी पूजा

मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि श्री पंचमी का पर्व मनाया जाता है. पंचमी तिथि के दिन लक्ष्मी जी को “श्री” रुप में पूजा जाता है. देवी लक्ष्मी को “श्री”का स्वरुप ही माना गया है. दोनों का स्वरुप एक ही है ऎसे में ये दिन लक्ष्मी के पूजन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. श्री पंचमी के दिन देवी लक्ष्मी का पूजन करने से सभी प्रकार का सुख और सौभाग्य प्राप्त होता है.

श्री पंचमी का पौराणिक महत्व

देवी लक्ष्मी को “श्री संपत्ति” का स्वरुप माना गया है. इस पर्व को लक्ष्मी के भिन्न भिन्न रुपों का पूजन होता है. यह बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है. श्री पंचमी पर्व सभी के समक्ष शुभ और संपन्न आदर्श की स्थापना करता है. सभी के लिए सदैव के लिए पूजनिय बनता है.

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, श्री पंचमी का संबंध सरस्वती से भी है और लक्ष्मी जी से भी है. पंचमी तिथि को “श्री” के पृथ्वी पर आने के समय से जोड़ा गया है. लक्ष्मी पंचमी के जन्म समय को समझने की भी आवश्यकता होती है. लक्ष्मी जन्म से संबंधित अनेक कथाएं मिलती हैं. वहीं जब हम लोक जीवन से जुड़ी कथाओं को देखें तो यहां भी हमें उनकी जन्म कथा के विभिन्न रुप दिखाई देते हैं. वहीं इस दिन को लक्ष्मी-विष्णु विवाह से भी जोड़ कर देखा जाता है.

श्री पंचमी पूजन कब और क्यों किया जाता है.

लक्ष्मी पंचमी पर्व को इनके श्री विष्णु विवाह से जोड़ा गया है. यह दिवस अत्यंत उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है. प्रत्येक वर्ष इस दिन देवी देवी लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है. इस उपलक्ष पर मंदिरों में भजन एवं कीर्तन होते हैं.

श्री पंचमी पूजा विधि

श्री पंचमी के दिन कैसे करें पूजन और किन चीजों को भोग के लिए उपयोग में लाएं, आईये जानते हैं इस दिन के व्रत एवं पूजन की विधि विस्तार से –

  • श्री पंचमी के दिन प्रात:काल समय स्नान आदि कार्यों से निवृत्त होकर लक्ष्मी जी के नाम का स्मरण करना चाहिए.
  • देवी लक्ष्मी के साथ श्री विष्णु जी का पूजन किया जाता है.
  • अक्षत(चावल), कुमकुम, धूपबत्ती, घी का दीपक जलाएं व अष्टगंध से पूजा करनी चाहिए.
  • देवी लक्ष्मी को लाल और सफेद रंग के पुष्प भेंट करने चाहिए.
  • लक्ष्मी जी की आरती करनी चाहिए “ऊँ महालक्ष्मयै नमः” मंत्र का जप करना चाहिए.
  • प्रसाद में मिष्ठान एवं खीर, नारियल, पंचामृत इत्यादि का भोग लगाना चाहिए.
  • श्री पंचमी पूजन के बाद भगवान के भोग को प्रसाद रुप में सभी को बांटना चाहिए व परिवार समेत ग्रहण करना चाहिए.

लाभ की वृद्धि करता है श्री पंचमी पूजन

श्री पंचमी पूजन करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है. आर्थिक सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है. सभी स्त्रियों के लिए एवं सुहागिन स्त्रियों के लिए यह दिन विशेष रुप से अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. श्री पंचमी का पूजन एवं व्रत करने से स्त्री को अच्छे वर की प्राप्ति होती है. सुहागिन स्त्रियों द्वारा इस दिन व्रत पूजन करने से उनके पति की आयु लंबी होती है और वह सदा सुहागिन होने का आशीर्वाद भी पाती हैं.

श्री पंचमी का पूजन करने से संतान सुख एवं दांपत्य जीवन के सुख की प्राप्ति होती है. आर्थिक जीवन में किसी भी प्रकार की परेशानियां आ रही हैं, तो इस दिन व्रत का संकल्प लेकर पूजा करने से सभी परेशानियां का अंत होता है. श्रीपंचमी का पूजन एवं व्रत जीवन के कष्टों को दूर करने में अत्यंत ही प्रभावशाली उपाय बनता है.

जानें श्री पंचमी व्रत की कथा

धन, वैभव और सुख-समृद्धि को देने वाली देवी का स्थान माता लक्ष्मी को प्राप्त है. लक्ष्मी जी विष्णुप्रिया हैं. वह श्री विष्णु को अत्यंत प्रिय हैं. मान्यता है कि मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है. इन्हें प्रसन्न करने के लिये इस दिन पूजा के साथ-साथ दिन भर व्रत भी रखा जाता है. इसी कारण इस पंचमी को लक्ष्मी पंचमी व श्री पंचमी कहा जाता है.

श्री पंचमी मां सरस्वती की उपासना के दिन बसंत पंचमी को भी कहा जाता है. लेकिन देवी लक्ष्मी का भी एक नाम श्री माना जाता है. इस कारण लक्ष्मी पंचमी को श्री पंचमी भी कहा गया है. परिवार में सुख-समृद्धि व धन प्राप्ति की कामना के लिये मां लक्ष्मी की उपासना का यह पर्व बहुत ही महत्वपूर्ण होता है.

पौराणिक ग्रंथों में जो कथा मिलती है उसके अनुसार मां लक्ष्मी किसी कारण से देवी लक्ष्मी देवताओं से अलग हो जाति है. देवों को मिले श्राप और उनके द्वारा किए गए व्यवहार से देव “श्री” हीन हो जाते हैं. नाराज हुई “श्री” को पाने के लिए सभी देव माता लक्ष्मी की उपासना में लीन हो जाते हैं. क्षीर सागर में जा कर देवी लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए देवताओं ने कठिन तप किया. लक्ष्मी को पुन: प्रसन्न करने के लिये कठोर तपस्या और विशेष विधि विधान से देवी के लिए अनुष्ठान किया.

मां लक्ष्मी की उपासना द्वारा देवी लक्ष्मी जी ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया. कई स्थानों पर इस कथा को अमृत मंथन कथा में भी दर्शाया गया है. जहां लक्ष्मी समुद्र से निकती हैं ओर श्री विष्णु के साथ उनका विवाह होता है. यही कारण था कि इस तिथि को श्री पंचमी के व्रत और त्यौहार के रूप में मनाया जाता रहा है.

श्री पंचमी पूजन महत्व

श्री पंचमी पूजन करने पर जीवन में सदैव सुख संपत्ति कि प्राप्ति होती है. देवी को प्रणाम करते हुए मंदिर में उनके समक्ष दीप प्रज्जवलित करना चाहिए. व्रत करने का संकल्प लेना चाहिए. पूजा में लाल रंग के वस्त्र एवं फूलों का उपयोग करना अधिक शुभ होता है. अगर लाल रंग नही हो तो जो भी आपके सामर्थ्य में है उस अनुरूप भी पूजा की जा सकती है. देवी को श्रृंगार का सामान अर्पित करना चाहिए. भक्ति और श्रद्धा से किया गया पूजन जीवन में भौतिक सुखों की कमी नहीं होने देता है.

विधि विधान के साथ श्री पंचमी का पूजन और व्रत करने वाले को जीवन में कभी भी धन की कमी परेशान नहीं करती है. उसके जीवन में कर्ज की स्थिति नहीं आती है. कन्या या स्त्री यदि इस व्रत को विधान पूर्वक करती है वह सौभाग्य, दांपत्य सुख, संतान और धन से सम्पन्न हो जाती है. धार्मिक शास्त्रों के अनुसार इस दिन मां की पूजा करने व व्रत रखने से व्रती को मनोवांछित फल प्राप्त होता है.

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यमाय दीपदान – दूर होता है अकाल मृत्यु का भय समाप्त

हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में यम को मृत्यु का देवता बताया गया है. यम जिन्हें यमराज व धर्मराज के नाम से भी पुकारा जाता है. वेद में भी यम वर्णन विस्तार रुप से प्राप्त होता है. यमराज, का वाहन महिष है अर्थात भैसा. भैंसे पर सवार दण्डधर सभी प्राणियों के लिए मृत्यके देव हैं. सभी जीवों के अच्छे और बुरे कर्मों का निर्धारण करते हैं. यमराज को दक्षिण दिशा के का स्वामी, दिकपाल बताया जाता है.

यम दीपदान पर करें इन नामों का स्मरण

यमाय दीपदान के समय पर यम देव के अनेक नामों का स्मरण करना अत्यंत ही शुभदायक माना जाता है. यमराज के मुख्य नाम इस प्रकार हैं – धर्मराज, मृत्यु, यम, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुभ्बर, दघ्न, नील, चित्रगुप्त, परमेष्ठी, चित्र और वृकोदर इन नामों से यमराज की पूजा होती है.

यमाय दीपदान पौराणिक कथा

यम दीपदान पर एक कथा अत्यंत प्रचलित है जो काफी प्रचीन काल से चली आ रही है. यह कथा हंसराज और हेमराज से जुड़ी हुई है. कथा इस प्रकार है – प्राचीन काल में एक राजा हुआ करता था. उस राजा का नाम हंसराज था. एक बार राज हंसराज अपने सैनिकों के साथ शिकार खेलने के लिए निकल पड़ते हैं. शिकार की तलाश में राजा बहुत आगे निकल जाता है और अपने सैनिकों से बिछड़ जाता है.

जंगल में भटकते हुए वह अंजाने मार्ग पर निकल पड़ता है. वह किसी दूसरे राज्य की सीमा में पहुंच जाता है. जिस राज्य में वह प्रवेश करता है उसका राजा हेमराज होता है. हेमराज के सैनिक उसे अपनी सीमा पर आता देख अपने राजा के पास ले जाते हैं. हेमराज, हंसराज का आदर भाव करता है. उस समय पर हेमराज को संतान रुप में पुत्र रत्न कि प्राप्ति होती है. इस शुभ समय पर राजा हंसराज को अपने राज्य में छठी महोत्सव तक रुकने का आग्रह करता है. हंसराज राजा कि बात मान कर उस महोत्सव में शामिल होता है.

बच्चे की छठी के दिन धार्मिक अनुष्ठा पूरे होते हैं. ज्योतिष के आचार्य बालक के भविष्य को देखते हुए कहते हैं कि यह बालक बहुत तेजस्वी होगा. पर उसके जीवन पर एक बार बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ेगा जो उसके जीवन को संकट में डाल देगा. बच्चे के विवाह होने के पश्चात विवाह के चौथे दिन बाद बालक की मृत्यु हो जायेगी. राजा हेमराज यह बात सुन अत्यंत दुखी हो जाता है.

तब हंसराज कहता है की आप परेशान न हों अपने बालका का लालन पालन करें. बालक को को एक भूमिगत महल बनवाकर, वही उसका पालन किया जाता है. समय बीतते-बीतते बालक बड़ा हो जाता है. युवराज जहां रहत अथा वहां एक बार राजा हेमराज की पुत्री उस स्थान पर आती है और उस स्थान पर राजकुमार को देख कर उस पर मोहित हो जाती है. वह दोनों गंधर्व विवाह कर लेते हैं. जब माता-पिता को इस बात का पता चलता है तो वह दोनों बच्चों को उस ज्योतिष भविष्यवाणी की बात बताते हैं जो राजकुमार के विवाह से जुड़ी हुई थी.

विवाह के चौथे दिन यमदूत वहां उस राजकुमार को लेने पहुंच जाते हैं. उस जोड़े को अलग करने का मन में दुख उन यमदूतों को भी होता है. विवाहिता बहुत विलाप करती है. वह उनसे प्रार्थना करती है की वह उसके सुहाग को न ले जाएं. पर वह दूत भी काल के अधीन होते हैं. वह उस राजकुमारी से कहते हैं यदि वह यम के निमित्त दीपदान करती हैं, तो उसके सुहाग की रक्षा हो सकती है. उस समय वह राजकुमार दक्षिण दिशा की ओर दीपक प्रज्जवलित करती है. अपने सुहाग की रक्षा हेतु प्रार्थना करती है.

दूत बिना उस राजकुमार के चले जाते हैं. यमराज दूतों से पुछते हैं की वह खाली हाथ क्यों आए हैं. दूत सारा वृ्तांत यमराज को सुना देते हैं. तब यमराज स्वयं वहां जाते हैं. राजकुमारी की निष्ठा और दीपदान को देख कर उनका मन भी द्रवित हो जाता है. नवविवाहित को सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देते हैं. राजकुमार के प्राणों को मुक्त कर देते हैं. तब से यम के निमित्त दीपदान करने से अकाल मृत्यु का भय समाप्त होता है और लम्बी आयु का आशीर्वाद मिलता है.

कुछ स्थानों पर इस कथा में भेद भी दिखाई देता है. जिसके अनुसार दूत उस राजकुमार के प्राण ले जाते हैं. जब वह यमराज के समक्ष उस नवविवाहिता राजकुमारी के दुख का वर्णन करते हैं. यमराज उस दशा को देख यमराज भी व्याकुल हो उठते हैं. वह कहते हैं की काल तो अपना कार्य अवश्य करेगा. पर अकाल मृत्यु से बचने के लिए यदि कोई व्यक्ति कार्तिक कृष्ण पक्ष की तेरस, चतुर्दशी और यमद्वीतिया को उपवास रखकर यमुना में स्नान करेगा. यम का पूजन करेगा और दीपदान करेगा उसे अकाल मृत्यु का भय कभी नहीं सताएगा.

यमाय दीपदान पूजा

स्कंदपुराण में वर्णित है -” यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति” अर्थात संध्या समय घर के बाहर यमदेव के लिए दीप रखने से अकाल मृत्यु का निवारण होता है. सूर्यपुत्र यम का दीपदान करने से अकाल मृत्यु से छुटकारा मिलता है. पूरे वर्षभर जब मृत्यु के देवता यमराज की पूजा सिर्फ दीपदान करके होती है. तो सभी कष्ट दूर हो जाते हैं. यम के निमित्त दीप प्रदोषकाल जलाना चाहिए.

यम को दीपदान के लिए आटे का एक बड़ा दीपक तैयार किया जाना चाहिए. इसके उपरांत रूई लेकर दो लंबी बत्तियां बना लेनी चाहिए. उन्हें दीपक में इस प्रकार रखें कि दीपक के बाहर बत्तियों के चार मुंह निकलें. इसमें सरसों या तिल के तेल से दीपक को भर देना चाहिए. इसके साथ ही दीपक में काले तिल भी डाल देने चाहिए.

प्रदोषकाल में दीपक का रोली, अक्षत एवं पुष्प से पूजन करना चाहिए. घर के मुख्य दरवाजे के बाहर थोड़ी सी खील या गेहूं की ढेरी बनाकर उसके ऊपर दीपक को रखना चाहिए. दीपक जलाकर दक्षिण दिशा की ओर रखने चाहिए. इसके बाद यमदेवाय: नम: कहते हुए दक्षिण दिशा में नमस्कार करना चाहिए.

यमाय दीपदान महत्व

यम दीपदान और पूजन अकाल मृत्यु से मुक्ति तथा स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए किया जाता है. एक पौराणिक मान्यता के अनुसार यम के निमित्त दीपक जलाने से प्राणियों को मुक्ति प्राप्त हो पाती है. यम की पूजा का विधान प्राचीन काल से है. पूजन करने से व्यक्ति को रुप सौंदर्य की प्राप्ति होती है. पूजा और व्रत के प्रभाव स्वरूप उनका शरीर स्वस्थ एवं सुंदर होता है. पूजन हेतु एक थाल को सजाकर उसमें एक चौमुख दिया जलाते हैं. सोलह छोटे दीप और जलाएं तत्पश्चात रोली खीर, गुड़, फूल इत्यादि से यम देव की पूजा करनी चाहिए. यमाय दीपदान के समय पर घर के या किसी भी निवास स्थान, भवन इत्यादि के मुख्य द्वार पर और अंदर भी दीप जलाने चाहिए.

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भाद्रपद अमावस्या 2025, जानें कैसे मिलेगी पितृ दोष से मुक्ति

ज्योतिष शास्त्र में पंचाग गणना अनुसार माह की 30वीं तिथि को अमावस्या कहा जाता है. इस समय के दौरान चंद्रमा और सूर्य एक समान अंशों पर मौजूद होते हैं. इस तिथि के दौरान चंद्रमा के प्रकाश का पूर्ण रुप से लोप हो जाता है अर्थात पृथ्वी पर उसकी रोशनी नहीं पड़ पाती है. इस समय के दौरान रात्रिकाल में अंधेरा अधिक गहराने लगता है.

भाद्रपद अमावस्या समय इस वर्ष 23 अगस्त , 2025 को शनिवार के दिन मनाई जाएगी.

भाद्रपद अमावस्या पर करें ग्रह शांति

भाद्रपद अमावस्या के दिन ग्रह शांति पूजा भी की जाती है. शनि-मंगल-राहु-केतु ग्रहों की शांति के लिए ये समय अत्यंत अनुकूल होता है. शनि दशा, साढ़ेसाती या शनि की ढ़ैय्या जैसे समय के दौरान अगर भाद्रपद अमावस्या में पूजा और व्रत रखा जाए तो यह शनि शांति के लिए बहुत उपयोगी होता है. अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में शनि दोष कि स्थिति अथवा दशा का प्रभाव हो तो भाद्रपद अमावस्या का दिन शनि शांति उपाय के लिए होता है.

जन्मकुंडली में पितृ दोष है होने पर विवाह में बाधा अथवा संतान में बाधा होती है इसलिए यदि पितृ दोष के कारण संतान सुख में बाधा आ रही हो तो कुशग्रहणी व्रत, पूजा-पाठ, दान करने से बाधाएं दूर होती हैं.

राहु या केतु ग्रह परेशान कर रहे हैं, उन्हें कुशग्रहणी अमावस्या पर पितरों को भोग द्वारा खुश करना चाहिए. पीपल के वृक्ष की पूजा करनी चाहिए. इन सभी कार्यों को करने से मनोकामना पूरी होती है

 

भाद्रपद अमावस्या मे क्या करना चाहिए ?

भाद्रपद अमावस्या के दिन तीर्थस्नान, जप और व्रत आदि करना चाहिए.

भाद्रपद अमावस्या के दिन भगवान शिव, श्री विष्णु, गणेश और अपने इष्टदेव की पूजा करनी चाहिए.

भाद्रपद अमावस्या का दिन साधना और तपस्या करनी चाहिए.

जन्मकुंडली में पितृ दोष अथवा सर्प दोष शाम्ति के लिए भाद्रपद अमावस्या के दिन पूजा-पाठ-दान अवश्य करनी चाहिए.

भाद्रपद अमावस्या के अन्य नाम

कुशग्रहणी अमावस्या- भाद्रपद अमावस्या को कुशा(घास) ग्रहणी अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है. कुशा(कुश) से अर्थ होता है घास. पर यह कोई आम कुश नही होती है यह एक अत्यंत ही शुभ एवं महत्वपूर्ण कुशा होती है. इस दिन कुश को एकत्रित करने के कारण ही इसे कुशग्रहणी अमावस्या नाम प्राप्त हुआ है. पौराणिक ग्रंथों में इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा गया है. साल भर के धार्मिक कृत्यों के लिये इस दिन को कुश इकट्ठा करने के लिए चुना जाता है.

धर्म ग्रंथों में कई तरह की कुशा का उल्लेख मिलता है. इन सभी कुशा में भाद्रपद की अमावस्या के दिन जो कुशा का उपयोग होता है. उसके लिए कुश के बारे में वर्णन मिलता है. इसलिए इस दिन जो कुशा को लिया जाता है उसमें सात पत्ती हो, कोई भाग कटा न हो, पूर्ण हरा हो, तो वह कुशा देवताओं तथा पितृ दोनों कृत्यों के लिए उचित मानी जाती है. कुशा तोड़ते समय ‘हूं फट्’ मंत्र का उच्चारण करना चाहिए. जब कुश मिले तो पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके मंत्र को बोलते हुए दाहिने हाथ से कुश को निकाल लेना चाहिए.

पिठोरी अमावस्याभाद्रपद अमावस्या को पिठोरी, पिथौरा, पिठोर इत्यादि नाम से भी जाना जाता है. पिठोरी अमावस्या के दिन दुर्गा का पूजन करने का विधान भी रहा है. पिठोरी अमावस्या के दिन प्र्मुख रुप से स्त्रीयां संतान सुख के लिए इस व्रत को करती हैं. मान्यता है कि इस व्रत के महत्व माता पार्वती ने सभी के समक्ष रखा और इसके शुभ फलों के राज को सभी को बताया. इंद्र की पत्नी शचि ने इस व्रत को किया और संतान सुख एवं समृ्द्धि को पाया. इसी पौराणिक मान्यता के अनुसार इस भाद्रपद अमावस्या के दिन संतान के सुख एवं उसकी लम्बी आयु की कामना के लिए व्रत किया जाता है.

पोला पर्व भाद्रपद माह की अमावस्या तिथि को पोला पर्व मनाए जाने की परंपरा भी मिलती है. पोला को पिठोरा पर्व भी कहा जाता है. यह उत्सव विशेष रुप से महाराष्ट्र, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ के क्षेत्रों में मनाया जाता है. यह त्यौहार कृषक लोगों के साथ भी जुड़ा है. इस दिन बैलों का श्रृंगार कर उनकी पूजा की जाती है. बैल किसान के लिए एक महत्वपूर्ण हिसा होते हैं. उन्हीं के द्वारा वह अपनी खेती के कार्य को कर पाता है और इनके बिना किसान अपनी खेती का लाभ उठा नहीं पाता है.

पोला उत्सव में लोग मिट्टी के बैल भी बनाते हैं. कुछ स्थानों पर इस दिन बैलों की दौड़ का आयोजन भी किया जाता है. बैलों के विजेता को सम्मान प्राप्त होता है. इस दिन में बैलों की पूजा भी की जाती है.

भाद्रपद अमावस्या महत्व

भाद्रपद अमावस्या व्रत के पुण्य फल में वृद्धि होती है. किसी भी प्रकार के ऋण और पाप का नाश होता है. संतान सुख की प्राप्ति होती है, वंश वृद्धि होती है. रुके हुए कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होते हैं. मानसिक शांति मिलती है. पाप ग्रहों से मिलने वाले कष्ट से मुक्ति मिलती है.

वर्ष भर आने वाली अमावस्याओं के नाम

साल भर में आने वाली अमावस्या उस माह के नाम से संबंध रखती हैं. हिंदू पंचांग गणना में हर तीन साल में एक बार एक अतिरिक्त माह का आगमन होता है, जिसे अधिकमास, मल मास या पुरुषोत्तम मास के नाम से जाना जाता है. ऎसे में इस समय पर अमावस्या भी अधिक होती है, अमावस्या में संख्या बढ़ जाती है. प्रत्येक माह की अमावस्या का प्रभाव और महत्व में अंतर भी दिखाई देते है. माघ अमावस्या, फाल्गुन अमावस्या, चैत्र अमावस्या, वैशाख अमावस्या , ज्येष्ठ अमावस्या , आषाढ़ अमावस्या , श्रावण अमावस्या , भाद्रपद अमावस्या, अश्विन अमावस्या, अश्विन अमावस्या, कार्तिक अमावस्या, मार्गशीष अमावस्या.

इन सभी अमावस्या के दौरान पूजा पाठ स्नान दान और उपासना साधना इत्यादि कार्य करने से मानसिक, आत्मिक, भौतिक रुप से सुख और शांति प्रदान कराने में बहुत सहायक बनती हैं. अमावस्या के दिन किसी भी प्रकार की बुरी आदतों से दूर बचे रहने की हिदायत दी जाती है. इसी के साथ शुद्ध पवित्र आचरण का पालन करना चाहिए.

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भैरव जयंती 2025: अकाल मृत्यु के भर से दिलाती है मुक्ति

मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भैरव जयंती का पर्व मनाया जाता है. इस वर्ष 12 नवंबर  2025 को भैरव जयंती का उत्सव मनाया जाएगा. भैरव को भगवान शिव का ही एक रुप माना जाता है और भैरव शिव के अंशावतार हैं.

भैरव का जन्म अष्टमी तिथि पर हुआ है. इस कारण भैरव की कृपा पाने के लिए अष्टमी तिथि के दिन इनका पूजन करना अत्यंत शुभदायक माना गया है. अष्टमी तिथि के दिन मध्यरात्रि के समय भैरव की पूजा आराधना करने से कष्ट दूर होते हैं. भैरव जयंती पर मध्य रात्रि के समय पर पूजा करना उत्तम फलदायक होता है. इस रात्रि के समय भैरव मंत्र साधना ओर अनुष्ठान करने चाहिए, भैरव जी की पूजा में रात्रि जागरण भी किया जाता है.

भैरव जयंती के समय पर उपवास भी किया जाता है. भैरव जी के निमित्त व्रत करने से व्यक्ति को भैरव का आशीर्वाद प्राप्त होता है. भैरव की उपासना को तंत्र से अधिक जोड़ा गया है. भैरव को रुद्र रुप कहा जाता है ऎसे में उनके लिए पूजा उपासना के नियम भी बहुत कठोर ही होते हैं. किन्तु सात्विक शुद्ध मन से की गई पूजा भैरव जी को प्रसन्न करने में सक्षम होती है. भैरव उपासक को अपनी पूजा और ध्यान साधना में शुचिता का पूरा ध्यान रखने की आवश्यकता होती है. भैरव की उपासना करने से हर तरह की ग्रह पीड़ा व कष्ट से मुक्ति मिलती है. शनि, राहू, केतु व मंगल जैसे पाप ग्रहों के बुरे प्रभाव से मुक्ति दिलाने में भैरव की साधना अत्यंत उत्तम मानी गई है.

भैरव जयंती पर कैसे करें पूजा

भैरव एक उग्र देवता है जो सदैव दुष्टों के संहार के लिए तत्पर रहते हैं. काली पूजा हो या फिर भैरव पूजा ये सभी पूजाएं एक निश्चित समय और गहन साधना की मांग करती हैं. इनका फल तभी मिलता है जब इनकी साधना में दिए गए निर्देशों को समझा जा सके. भैरव पूजा संपूर्ण भारत में होती है. भैरव को अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नामों से भी पूजा जाता है. ग्रामिण हों या शहरी रुप सभी स्थानों पर भैरव पूजा को अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना गया है. किसी खास कार्य हेतु भी इनकी पूजा की जाती है. जैसे ग्रह शांति के लिए, शत्रु पर विजय प्राप्त करने हेतु व शक्ति पाने के लिए भैरव साधना अत्यंत फलदायक बतायी जाती है.

खंडोबा के स्थान पर भैरव के एक रूप का बहुत पूजन होता है जिस खन्डोबा कहा जाता है. उन्हीं के नाम पर इस स्थान का नाम पड़ा. और खण्डोबा की पूजा-अर्चना सभी गांव के और शहरी लोगों में की जाती है. दक्षिण भारत में भैरव का नाम शास्ता है. भैरव को एक उग्र देवता के रूप में ही जाना जाता है. किंतु यदि गहरे अर्थ को समझा जाए तो भैरव ही वे देवता हैं जो सभी प्रकार के भय और क्लेशों सें मुक्ति दिला सकते हैं. इनकी साधना द्वारा ही जीवन के उचित रुप को समझा जा सकता है. विनाश और निर्माण के मध्य जो एक स्थान हैं भैरव देव वहीं उपस्थित हैं. भैरव की मान्यता सभी स्थानों पर है. भूत, प्रेत, पिशाच, टोना-टोका जैसी चीजों से बचाव के लिए भैरव की पूजा को विशेष बताया जाता है.

विविध रोगों और आपत्तियों विपत्तियों को दूर करने वाले देव भी भैरव ही हैं. प्रलय के देवता हैं, संहार करने वाले है. जो भी नीति-नियम के विरुद्ध है उसका नाश करने के लिए सदैव उपस्थित हैं. विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत और देवता उनके अधिन हैं. गणों के अधिपति या सेनानायक हैं महाभैरव ही कहे जाते हैं.

भैरव पौराणिक मान्यता

भैरव जयंती से जुड़ी अनेकों कथाएं जुड़ी हुई हैं जिनमें भैरव की उत्पत्ति, भैरव की शक्तियों एवं उनके चमत्कारों से भरी हुई हैं. मृत्यु तुल्य कष्ट से मुक्ति पाने के लिए भैरव की उपासना प्रसिद्ध है. मारकेश ग्रहों के कोप से पीड़ित होने पर भैरव साधना करना अत्यंत चमत्कारिक उपाय होता है. भैरव के जप, पाठ और हवन अनुष्ठान करने से जीवन में अचानक से आने वाले सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं.

अष्टमी के दिन प्रात:काल उठकर नित्य क्रिया से निवृत होकर स्नानादि कर स्वच्छ होना चाहिये. इस दिन पर पितरों का तर्पण और श्राद्ध कार्य भी किया जाता है. कालभैरव की पूजा के दिन व्रत और उपवास करते हैं. इस दिन पूरे दिन व्रत रखते हुए भैरव जी के नामों का स्मरण करना चाहिये. धूप, दीप, गंध, काले तिल, उड़द, सरसों के तेल से पूजा करनी चाहिए. आरती करनी चाहिये, भैरव के भजन करते हुए रात्रि जागरण किया जाता है. कुत्ते को भैरव की सवारी माना जाता है. कुत्ते को खाना खिलाना चाहिये. इस दिन कुत्ते को भोजन करवाने से भैरव बाबा जल्द प्रसन्न होते हैं.

भैरव उत्पति कथा

भैरव के अवतार के बारे में लिंग पुराण, शिवपुराण अनुसार बताया गया है कि भगवान शिव के अंश से भैरव उत्पत्ति हुई है. इनकी उत्पति को काल भैरवाष्टमी के नाम से पूजा जाता है. पौराणिक एक कथा अनुसार अंधकासुर नामक दैत्य का प्रकोप बढता ही जा रहा था. तब सब और देवों में भी अंधकासुर का भय व्याप्त हो जाता है. उस दैत्य का वध कर पाना किसी में संभव नही था. अनीति व अत्याचार की सीमाएं जब समाप्त हो जाती हैं. वह देवी पार्वती को पकड़ने चल पड़ता है और तब भगवान शिव के रक्त से भैरव की उत्पति होती है.

कुछ कथाओं के अनुसार शिव के अपमान की अग्नि से भैरव की उत्पत्ति होती है. यह कथा इस प्रकार है कि एक बाद ब्रह्मा जी भगवान शंकर को देख कर, कुछ ऎसे शब्द कहते हैं जो शिव जी के अपमान और तिरस्कार से युक्त होते हैं. भगवान शिव ने इस बात को गंभीर नहीं लिया, किंतु उनकी देह में क्रोध से विशाल दण्ड को पकड़े प्रचण्डकाय अग्नि उत्पन्न होती है और वह ब्रह्मा का संहार करने के लिये आगे बढ़ती है. ब्रह्मा जी के अहंकार का नाश कर देती है. भगवान शिव ने तुरंत उस अग्नि को शांत किया. वह अग्नि काया(व्यक्ति) रुप में उत्पन्न होती है. भगवान शिव के शरीर से उत्पन्न होने के कारण भैरव का नाम प्राप्त होता है.

भैरव को शिव पुरी, काशी का नगरपाल नियुक्त किया गया है. मान्यता अनुसार भगवान शंकर ने अष्टमी को अहंकार को नष्ट किया था, इसलिए यह दिन भैरव अष्टमी और भैरव जयंती के रुप में मनाए जाने कि परंपरा रही है.

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कार्तिक अमावस्या 2025 : कार्तिक अमावस्या कथा और महत्व

कार्तिक मास की 30वीं तिथि को “कार्तिक अमावस्या” के नाम से मनाया जाता है. हिन्दू धर्म में अमावस्या का विशेष महत्व रहता रहा है. प्रत्येक माह में आने वाली अमावस्या किसी न किसी रुप में कुछ खास लिए होती है. हर महीने में एक बार आने वाली अमावस्या के दौरान दान और स्नान का बहुत महत्व रहता है. इसी क्रम में कार्तिक मास में आने वाली अमावस्या का अपना खास महत्व होता है. इस दिन पितरों को याद करने के अलावा गंगा स्नान भी किया जाता है.

इस दिन पितरों के निमित्त तर्पण और पिंड दान तथा दान देने का भी खास मह‍त्व बताया गया है. इतना ही नहीं इस दिन जो भी व्यक्ति कर्ज, ऋण आदि से निरंतर परेशान रहते हैं, उन्हें इस दिन हनुमानजी की आराधना विशेष तौर पर करनी चाहिए. विष्णु पुराण के अनुसार कार्तिक अमावस्या का उपवास रखना चाहिए. व्रत से पितृगण के साथ-साथ सूर्य आदि नव ग्रह और अग्नि, वायु नामक पंच तत्वों, नक्षत्र तृप्त होते हैं.

कार्तिक अमावस्या मुहूर्त

20 अक्टूबर 2025 को 15: 44 से अमावस्या आरम्भ.

21 नवंबर 2025 को 17:54 पर अमावस्या समाप्त.

कार्तिक अमावस्या पर मनाते हैं दिवाली पर्व

कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली का पर्व मनाया जाता है. इस दिन संपूर्ण रात्रि में दीपों का प्रकाश किया जाता है. यह एक अत्यंत प्रभशाली माना गया है. दिवाली मनाने के साथ-साथ इस दिन पितरों का तर्पण और दान-पुण्य के कार्यों को भी किया जाता है. पौराणिक मान्यता के अनुसार महाभारत में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं कार्तिक अमावस्या के विषय में कई बातों का उल्लेख किया है.

कार्तिक अमावस्या होती है लक्ष्मी पूजा

कार्तिक अमावस्या के दिन लक्ष्मी पूजन होता है. अमावस्या की रात्रि समय पर लक्ष्मी जी का पूजन करने का बहुत ही विधान है. इस दिन कुबेर जी का पूजन भी होता है.

कार्तिक अमावस्या पर दीप जलाने का महत्व

अमावस्या के दिन स्नान सूर्योदय से पूर्व किया जाता है. स्नान कर पूजा-पाठ को खास अहमियत दी जाती है. पवित्र नदियों में स्नान का खास महत्व होता है. इस अमावस्या पर दीपदान का भी खास विधान होता है. यह दीपदान मंदिरों, नदियों के अलावा आकाश में भी किया जाता है. ब्राह्मण भोज, गाय दान, तुलसी दान, आंवला दान तथा अन्न दान का भी महत्व होता है. दीपदान का महत्व राम के अयोध्या लौटने की खुशी को व्यक्त करता है. साथ ही पितृों को मार्ग भी दिखलाता है. इन दोनों ही संदर्भ में कार्तिक मास में दीपक जलाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है.

कार्तिक अमावस्या पर तुलसी पूजा

कार्तिक अमावस्या के दिन में तुलसी की पूजा का खास महत्व है. मान्यता है कि तुलसी पूजा से भगवान विष्णु का आशिर्वाद प्राप्त होता है. तुलसी की पूजा कर भक्त भगवान विष्णु को भी प्रसन्न कर सकते हैं. इस महीने अमावस्या के दिन स्नान के बाद तुलसी और सूर्य को जल अर्पित किया जाता है. पूजा-अर्चना की जाती है. तुलसी के पौधे का कार्तिक अमावस्या में दान भी दिया जाता है. तुलसी पूजा न केवल घर के रोग, दुख दूर होते हैं बल्कि अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष की भी प्राप्ति होती है.

कार्तिक अमावस्या कथा

कार्तिक अमावस्या पर बहुत सी कथाएं और पौराणिक घटनाएं मौजूद हैं. इस दिन धार्मिक ग्रंथों और मंत्रों को पढ़ा जाता है. इस दिन पर मंत्र अनुष्ठान भी किए जाते हैं. कार्तिक अमावस्या के दिन एक कथा इस प्रकार है.

एक बार कार्तिक माह की अमावस्या तिथि के दिन देवी लक्ष्मी पृ्थ्वी पर विचरण कर रही होती हैं. परंतु अंधकार अधिक होने के कारण दिशा सही से पता नहीं चल पाती है. देवी लक्ष्मी मार्ग से भटक जाती हैं. पर रस्ते में चलते चलते उन्हें एक स्थान पर कुछ दीपक की रोशनी दिखाई देती है. देवी उस रोशनी के नजदीक जाती हैं तो देखती हैं की वह एक झोपड़ी होती है. वहां एक वृद्ध स्त्री अपने घर के बाहर दीपक जलाए हुए थी और दरवाजा खुला हुआ था. वह स्त्री आंगन में बैठ कर अपना काम कर रही होती है.

देवी लक्ष्मी उस वृद्ध महिला से रात भर वहां रुकने के लिए स्थान मांगती हैं. वह वृद्ध महिला देवी लक्ष्मी को विश्राम करने के लिए स्थान और बिस्तर आदि की व्यवस्था करती है. देवी लक्ष्मी वहां विश्राम करने के लिए रुक जाती हैं. वृद्ध महिला के सेवाभाव ओर समर्पण के भाव से प्रसन्न होती हैं. इस दौरान वह वृद्ध महिला अपने काम करते करते सो जाती है.

अगले दिन जब वृद्धा जागती है तो देखती है की उसकी साधारण सी झोपड़ी महल के समान सुंदर भवन में बदल गयी थी. उसके घर में धन-धान्य की भरमार हो जाती है. किसी चीज की कमी नहीं रहती है. माता लक्ष्मी वहां से कब चली गई थीं, उसे वृद्ध महिला को पता ही नहीं चल पाता है. तब माता उसे दर्शन देती है की कार्तिक अमावस्या के दिन उस अंधकार समय जो भी दीपक जलाता है ओर प्रकाश से मार्ग को उज्जवल करता है उसे मेरा आशीर्वाद सदैव प्राप्त होता है. उसके बाद से हर वर्ष कार्तिक अमावस्या को रात्रि में प्रकाश उत्सव मनाने और देवी लक्ष्मी पूजन की परंपरा चली आ रही है. इस दिन माता लक्ष्मी के आगमन के लिए पूजा पाठ, घरों के द्वार खोलकर रखने चाहिए ओर प्रकाश करना शुभ फलदायक होता है.

कार्तिक अमावस्या महत्व और विभिन्न पर्व रुप

कार्तिक अमावस्या का दिन एक ऎसा समय होता है जब बहुत से कारण मिलकर एक भावना को व्यक्त करते हैं. उसी तरह से कार्तिक अमावस्या के समय बहुत ऎसे बहुत सी पौराणिक मानताएं एवं कथाएं प्रचलित हैं जो इस दिन की महत्ता को विशेष रुप से कई गुना बढ़ा देती हैं. इस समय पर अनेकों प्रकार के अनुष्ठान किए जाते हैं. तंत्र हो या फिर मंत्र सभी अनुष्ठानों को महत्व विजय की पाप्ति को दर्शाता है.

इस समय के पास पर राम वनवास से अयोघ्या आगमन की खुशियां हैं, तो कृष्ण द्वारा नरकासुर का वध करके प्रजा को कष्ट से मुक्ति दिलाना, कहीं पर हनुमान जन्मोत्सव की धूम है तो कही पर लक्ष्मी जी के आगमन को लेकर दीपों का उत्सव है. इसी तरह से कुछ न कुछ ऎसी कथा कहानियां इस अमावस्या से जुड़ी हैं जो कार्तिक अमावस्या पर्व के महत्व को दर्शाती हैं.

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तुलसी विवाह 2025: तुलसी जन्म कथा और क्यों अधूरी है तुलसी बिना विष्णु पूजा

कार्तिक माह में तुलसी पूजा का महात्मय पुराणों में वर्णित किया गया है. इसी के द्वारा इस बात को समझ जा सकता है कि इस माह में तुलसी पूजन पवित्रता व शुद्धता का प्रमाण बनता है. शास्त्रों में कार्तिक मास को श्रेष्ठ मास माना गया है, स्कंद पुराण में इसकी महिमा का गायन किया गया है.

02 नवंबर 2025 के दिन तुलसी विवाह पूजा का पर्व मनाया जाएगा.

तुलसी आस्था एवं श्रद्धा की प्रतीक है यह औषधीय गुणों से युक्त है तुलसी में जल अर्पित करना एवं सायंकाल तुलसी के नीचे दीप जलाना अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है. तुलसी में साक्षात लक्ष्मी का निवास माना गया है अत: कार्तिक मास में तुलसी के समीप दीपक जलाने से व्यक्ति को लक्ष्मी की प्राप्ती होती है. 

तुलसी विवाह पूजा विधि महत्व

कार्तिक मास में तुलसी पूजा करने से पाप नष्ट होते हैं. मान्यता है कि इस मास में जो व्यक्ति तुलसी के समक्ष दीपक जलाता है उसे सर्व सुख प्राप्त होते हैं. तुलसी के पौधे में चमत्कारिक गुण मौजूद होते हैं. प्रत्येक आध्यात्मिक कार्य में तुलसी की उपस्थिति बनी रहती है. वैष्णव कार्यों, विधि-विधानों में तुलसी विवाह तथा तुलसी पूजन एक मुख्य त्यौहार माना गया है.

कार्तिक माह में सुबह स्नान आदि से निवृत होकर तांबे के बर्तन में जल भरकर तुलसी के पौधे को जल दिया जाता है. संध्या समय में तुलसी के चरणों में दीपक जलाया जाता है. कार्तिक के पूरे माह यह क्रम चलता है. इस माह की पूर्णिमा तिथि को दीपदान की पूर्णाहुति होती है.

कार्तिक महीने की देवउठनी एकादशी के शुभ अवसर पर तुलसी विवाह का आयोजन भी होता है. भगवान श्री विष्णु चार मास की चिर निंद्रा के बाद जब जागते हैं तो वह दिन देवउठनी एकादशी का होता है. इस अवसर को बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. इस शुभ अवसर समय देवी तुलसी का विवाह श्री विष्णु जी के साथ संपन्न किया जाता है. भगवान विष्णु को तुलसी अत्यंत प्रिय है. केवल तुलसी दल अर्पित करके ही श्रीहरि को प्रसन्न किया जा सकता है. तुलसी विवाह वैवाहिक सुख को बढ़ाता है और जीवन में सुख सौभाग्य का आगमन होता है.

तुलसी विवाह कथा

तुलसी जी के विवाह की कथा भी बहुत अलौकिक और पौराणिक है. पौराणिक आख्यानों के अनुसार तुलसी का पूर्व नाम वृंदा था. वृंदा को दिए आशीर्वाद के अनुसार, भगवान विष्णु ने शालिग्राम के अवतार में जन्म लिया और उनसे विवाह किया. इसलिए आज भी कार्तिक माह की एकादशी के दिन भगवान विष्णु के शालिग्राम रुप अवतार का तुलसी से विवाह किया जाता है.

तुलसी कथा इस प्रकार है – वृंदा नाम की एक कन्या थी. वृंदा का विवाह जलंधर नाम के महा पराक्रमी राक्षस से हुआ था. जलंधर को भगवान शिव के तेज से उत्पन्न बताया गया है. जलंधर इतना शक्तिशाली था की उसने दैत्यौं को चारों ओर विजय प्राप्त करवाई थी. उसने देवों का अधिकार छिन लिया और चारों ओर दैत्यों का साम्राज्य स्थापित किया.

जलंधर की शक्ति वृंदा से विवाह पश्चात और अधिक बढ़ जाती है. इसका कारण था कि वृंदा अत्यंत पतिव्रता स्त्री थी और भगवान विष्णु की भक्त भी थी. जिसके कारण उसका पति जलंधर और भी शक्तिशाली हो जाता है. उसकी शक्ति के समक्ष को भी रुक नहीं पाता था. जलंधर पर विजय प्राप्त करना असंभव था. कोई भी जलंधर को पराजित नहीं कर पा रहा था. ऎसे में सभी देवता जलंधर का नाश करने के लिए भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं ओर उनसे प्रार्थना करते हैं की वो जलंधर का किसी तरह से नाश करें.

वृंदा के सतीत्व को भंग करना किसी का इतना सामर्थ्य नही था. एक बार जलंधर युद्ध के लिए जब निकल पड़ता है तो उस समय भगवान श्री विष्णु ने जलंधर का रुप धारण किया. वह वृंदा के पास जाते हैं, अपने पति का रुप देख वृंदा श्री विष्णु को पहचान नहीं पाती है. ऎसे में वृंदा का सतीत्व भंग हो जाता है. पतिव्रता स्त्री वृंदा की पवित्रता नष्ट होते ही जलंधर की शक्ति भी समाप्त हो जाती है.

भगवान शिव उस समय युद्ध में जालंधर का वध कर देते हैं. इस प्रकार जलंधर का अंत होता है. वृंदा को जब अपने पति जलंधर की मृत्यु और श्री विष्णु की माया का पता चला तो वह बहुत अधिक क्रोधित हो जाती है. वह क्रोध में भगवान विष्णु को शिला हो जाने का श्राप दे देती हैं. उसी क्षण भगवान श्री विष्णु शालिग्राम रुप में पाषाण हो जाते हैं.

श्री विष्णु को पाषाण हुए देख सभी देवी देवता भय से आतंकित हो जाते हैं. उस समय श्री विष्णु का यह रुप देख देवी लक्ष्मी वृंदा से इस अपराध की क्षमा मांगती है. लक्ष्मी जी कि विनय सुन वृंदा भगवान को श्राप से मुक्त करती हैं ओर स्वयं उसी क्षण सती हो जाती हैं.

श्री विष्णु श्राप से मुक्त होने पर वृंदा को तुलसी नाम देते हैं. सती हुई वृंदा को तुलसी रुप प्राप्त होता है. तुलसी का पौधा उन्हीं वृंदा से उत्पन्न होता है. श्री विष्णु अपने पाषाण रुप को शालिग्राम रुप में तुलसी के साथ स्थान देते हैं. साथ ही ये वरदान देते है कि विष्णु पूजा तुलसी के बिना अधूरी मानी जाएगी. जब तक मुझे तुलसीदल भेंट नहीं किया जाएगा मैं पूजा स्वीकार नही करुंगा. मेरे रुप शालिग्राम का विवाह तुलसी के साथ किया जाएगा, इसलिए कार्तिक महीने में तुलसी जी का शालिग्राम के साथ विवाह भी किया जाता है.

तुलसी विवाह महत्व

कार्तिक माह की एकादशी के दिन ही तुलसी जी और शालिग्राम का उत्पन्न(प्रादुर्भाव) होता है. इस तिथि को इस कारण बहुत ही शुभदायक बताया गया है. इसलिए इस माह में तुलसी और शालिग्राम के पूजन का बडा़ ही महत्व होता है. तुलसी के जन्म के विषय में अनेक पौराणिक कथाएं मिलती हैं. पद्मपुराण में जालंधर तथा वृंदा की कथा दी गई है. बाद में वृंदा तुलसी रुप में जन्म लेती है.

तुलसी इतनी पवित्र हैं कि भगवान विष्णु भी उसकी वंदना करते हैं. कई मतानुसार आदिकाल में वृंदावन में तुलसी अर्थात वृंदा के वन थे. तुलसी के सभी नामों में वृंदा तथा विष्णुप्रिया नाम अधिक विशेष माने जाते हैं. शालिग्राम रुप में भगवान विष्णु तुलसी जी के चरणों में रहते हैं. उनके मस्तक पर तुलसीदल चढ़ता है.

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पिठोरी अमावस्या 2025, जानें पूजा का विशेष समय

भाद्रपद माह की अमावस्या पिठोरी अमावस्या कहा जाता है. इस वर्ष 23 अगस्त, 2025 को शनिवार के दिन मनाई जाएगी. पिठोरी अमावस्या के दिन स्नान-दान का महत्व होता है. इस दिन पवित्र नदियों ओर धर्म स्थलों के दर्शन किए जाते हैं. अमावस्या तिथि के दौरान चंद्रमा दिखाई नहीं देता है इस कारण पृथ्वी पर अंधकार अधिक गहरा हो जाता है.

पिठोरी अमावस्या को देश भर में किसी न किसी रुप में मनाया जाता रहा है. यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है. कुछ न कुछ कथा कहानियां इस दिन से संबंध बनाती हुई जीवन के किसी न किसी पहलू पर अपना प्रभाव अवश्य छोड़ती है. आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक एवं तमिलनाडु में पिठोरी अमावस्या को पोलाला अमावस्या कहते है. इस दिन दक्षिण भारत में देवी पोलेरम्मा की पूजा होती है. पोलेरम्मा को माता पार्वती का एक ही रूप माना जाता है. पिठोरी अमावस्या के दिन विवाहिता औरतें अपने बच्चों एवं पति के लिए ये व्रत रखती है. यह त्यौहार उत्तरी भारत में भाद्रपद अमावस्या या कुशाग्रहणी अमावस्या के नाम से मनाया जाता है.

पिठौरी देवी पार्वती पूजन

पिठौरी अमावस्या के दिन विशेष रुप से संतानवती स्त्रीयां अपनी संतान की रक्षा हेतु व्रत करती हैं. जो दंपति संतान की कामना रखती है वह भी इस दिन माता पार्वती का पूजन करती हैं. पार्वती पूजा में नये वस्त्र माता को भेंट किए जाते हैं. पूजा के स्थान को फूलों से सजाया जाता है. इस दिन व्रत का पालन करने पर संतान का सौभाग्य सदैव उज्जवल रहता है. घर के पूर्वजों को शांति और सुख की प्राप्ति होती है. पूजन के समय देवी को सुहाग व शृंगार की सभी वस्तुएं अर्पित की जाती हैं.

पिठोरी अमावस्या पर करें ग्रह शांति

पिठोरी अमावस्या व्रत के पुण्य फल में वृद्धि होती है. किसी भी प्रकार के ऋण और पाप का नाश होता है. संतान सुख की प्राप्ति होती है, वंश वृद्धि होती है. रुके हुए कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होते हैं. मानसिक शांति मिलती है. पाप ग्रहों से मिलने वाले कष्ट से मुक्ति मिलती है. जन्मकुंडली में पितृ दोष है होने पर विवाह में बाधा अथवा संतान में बाधा होती है.

  • पिठोरी अमावस्या के दिन व्रत के दिन ब्रह्म मुहुर्त समय पर उठकर, स्नान किया जाता है. सूर्य उदय के समय सूर्य को जल अर्पित किया जाता है.
  • इस दिन पितरों के निमित्त दान किया जाता है. पिंड दान एवं तर्पण किया जाता है.
  • इस दिन हलुआ-पूरी गरीबों को खिलाने के लिए बांटना चाहिए. परिवार की खुशहाली के लिए प्रार्थना करनी चाहिए.
  • योगिनी पूजा की जाती है. विधि-विधान से पूजा करने के बाद आरती करते है और पंडितों को खाना खिलाया जाता है.

पिठोर अमावस्या : योगनी एवं सप्तमातृका पूजन समय

देवी आदी शक्ति की विभिन्न शक्तियां ही योगिनी हैं. जो भिन्न भिन्न रुप में विराजमान है. तंत्र पूजन में इनका विशेष आहवान होता है. शाक्त संप्रदाय में शक्ति पूजा का विशेष महत्व होता है. अमावस्या और पूर्णिमा तिथि में इनका पूजन होता है. अष्ट या चौंसठ योगिनियों के द्वारा साधक शक्ति की प्राप्ति कर पाता है. ये सभी शक्तियां माता पर्वती की सखियां हैं. इन चौंसठ देवियों में से दस महाविद्याएं और सिद्ध विद्याओं की भी गणना की जाती है. पिठोरी अमावस्या के दिन शक्ति की प्राप्ति हेतु सभी साधक माता का पूजन अवश्य करते हैं.

इस दिन जो भी व्यक्ति तंत्र या योग विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है उसके लिए यह समय अत्यंत विशेष होता है. देवी पूजन आरंभ करने से पहले स्नान-ध्यान आदि से निवृत होकर अपने पितृगण, इष्टदेव तथा गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए. भगवान शिव की पूजा भी इस दिन की जाती है.

सप्तमातृका

इसके अलावा इस दिन पर सप्तमातृकाओं का पूजन भी किया जाता है. दक्षिण भारत में इस प्रथा का प्रचलन रहा है. ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारी, वाराही, चामुण्डा अथवा नारसिंही. इन्हें ‘मातृका’ कहा जाता है. किसी-किसी स्थानों पर मातृकाओं की संख्या सात तो कुछ स्थानों पर आठ बतायी गयी है.

पिठोर अमावस्या पर पोला उत्सव

पिठोरी माह की अमावस्या तिथि को पोला पर्व मनाए जाने की परंपरा भी मिलती है. यह पर्व विशेष रुप से छत्तीसगढ़ के क्षेत्रों में मनाया जाता है. पोला पर्व मूलत: कृषि से जुड़ा पर्व है. यह किसानों का पर्व भी है जो अपनी खेती और अपने काम को सम्मान देने हेतु मनाया जाता है. जब कृ्षि का काम समाप्त हो जाता है तो इस समय यह पर्व कृषी के हर क्षेत्र का पूजन होता है. कुछ मान्यताओं के अनुसार इसी दिन अन्नमाता गर्भ धारण करती है. धान के पौधों में इस दिन दूध भरता है, इसीलिए यह पर्व मनाया जाता है. इस दिन लोगों को खेत जाने की मनाही होती है.

पोला यह पर्व सभी वर्ग के लोगों पर अपना प्रभाव डालता है. इस दिन हर घरों में विशेष पकवान बनाये जाते हैं. मिट्टी के बैल मिट्टी के खिलौने बनाए जाते हैं. कृषी के मुख्य साधन बैलों को सजाया जाता है. पूजा की जाता. कुछ स्थानों पर बैलों की जोड़ियाँ सजाकर प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं.

पिठोरी अमावस्या महत्व

पिठोरी अमावस्या को पिठोरी, पिथौरा, पिठोर इत्यादि नाम से भी जाना जाता है. पिठोरी अमावस्या के दिन दुर्गा का पूजन करने का विधान भी रहा है. पिठोरी अमावस्या के दिन महिलाएं संतान सुख के लिए इस व्रत को करती हैं. मान्यता है कि इस व्रत के महत्व माता पार्वती ने सभी के समक्ष रखा और इसके शुभ प्रभाव एवं मिलने वाले सुखों का राज को सभी को बताया. इंद्र की पत्नी शचि ने इस व्रत को किया और संतान सुख एवं परिवार की समृद्धि को पाया. इसी पौराणिक मान्यता के अनुसार इस पिठोरी अमावस्या के दिन संतान के सुख एवं उसकी लम्बी आयु की कामना के लिए व्रत किया जाता है.

साल भर में आने वाली अमावस्या उस माह के नाम से संबंध रखती हैं. प्रत्येक माह की अमावस्या का प्रभाव और महत्व में अंतर भी दिखाई देते है. इन सभी अमावस्या के दौरान पूजा पाठ स्नान दान और उपासना साधना इत्यादि कार्य करने से मानसिक, आत्मिक, भौतिक रुप से सुख और शांति प्रदान कराने में बहुत सहायक बनती हैं. अमावस्या के दिन किसी भी प्रकार की बुरी आदतों से दूर बचे रहने की हिदायत दी जाती है. इसी के साथ शुद्ध पवित्र आचरण का पालन करना चाहिए.

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कौमुदी-महोत्सव 2025 – प्रेम और अनुराग का उत्सव

भारत जैसे विशाल भूभाग पर संस्कृतियों का अनोखा संगम देखने को मिलता है. इस संगम में अनेकों व्रत व त्यौहार, भिन्न भिन्न विचारधारें आकर मिलती हैं. इन सभी का रंग किसी न किसी रुप में सभी को प्रभावित भी करता है. इसी में आता है एक पर्व कौमुदी महोत्सव का .

06 अक्टूबर 2025 सोमवार के दिन कौमुदी महोत्सव का उत्सव मनाया जाएगा.

भारत में बहुत पुराने समय से चला आ रहा एक उत्सव है कौमुदी महोत्सव. यह पर्व भारत की पारंपरिक सांस्कृतिक चेतना का प्रमाण है. जो आज भी बहुत ही खूबसूरती के साथ मौजूद है. कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन होने वाला यह पर्व उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता रहा है.

प्रकृति का प्रेम कौमुदी महोत्सव

इसे उत्सव को प्रेम और हास विलास के रुप में देखा जाता है. इस उत्सव को कला, समृद्धि, शिक्षा, संसार विषयक कार्यों, सौंदर्य, रति क्रियाओं हेतु मनाया जाता है. इसी समय प्रकृति में शरद ऋतु का नवीन रुप दिखाई पड़ता है.मन को लुभाने आया कौमुदी महोत्सव का आरम्भ प्रतिवर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि के दिन मनाया जाता है. यह सर्वसमृद्ध, सुविख्यात, भारतीय कला, कौशल व प्रकृति के प्रेम का महापर्व होता है.

कौमुदी पर्व एक तरफ ऋतु परिवर्तन तो दूसरी तरफ बौद्धिक विकास और विभिन्न प्रकार की कलाओं में निपुणता प्राप्त करने के संकेत भी प्रस्तुत करता है. इसे मानव सुशिक्षित व नम्र हो जीवन जीने की भिन्न-भिन्न कलाओं में दक्षता प्राप्त करता है. जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त कर लेता है. इस पर्व को ऋतुराज के नाम से भी संबोधित किया जा सकता है. क्योंकि इस दौरान भी प्रक्रति का रंग अपने चरम को छूता दिखाई देता है. इस उत्सव के दौरान पेड़-पौधों में अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे फूल भी खिल उठते हैं. खेतों मे फसलों का अलग रंग दिखाई पड़ता है. मंद-मंद बहती ठंडी हवा ओर व खिली हुई चांदनी सभी का मन मोह लेती है.

इस समय प्रकृति का मनमोहक अंदाज दिखाई पड़ता है जो प्रत्येक व्यक्ति को मनमुग्ध कर देता है. प्रकृति के सौंदर्य को निखारने के कारण ही इसे ऋतुराज कहना भी गलत नहीं होगा. इस तिथि का धार्मिक व ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्व रहा है. धार्मिक दृष्टि से इस दिन ज्ञान, विद्या, कौशल, कला, संगीत, स्वास्थ्य सुख की प्राप्ति के लिए पूजा आराधना की जाती है. इस दिन भगवान कृष्ण, भगवान शिव, देवी लक्ष्मी, गणेश सभी का पूजन होता है. सम्पूर्ण विश्व में ज्ञानरूपी ज्योति को प्रकशित करते हुए यह दिवस व्यक्ति को अंधकार व अज्ञान के बंधनों से सहज ही मुक्त होने की कला भी सिखाता है.

कौमुदी महोत्सव पूजा महत्व

प्राचीन काल में कौमुदी महोत्सव के समय लोक जीवन पर इस पर्व का खास प्रभाव दिखाई देता था. इस पर्व के दौरान सभी ओर साज सजावट होती थी. गांव हों या नगर सभी ओर मार्गों को सजाया जाता था. घर पर सुंदर रंगोली इत्यादि से सजावट की जाती थी. सुगंधित द्रव्यों एवं पुष्पों से मंदिरों को भी सजाया जाता था.

इस उत्सव में युवा से लेकर बच्चे बुजुर्ग सभी उत्सहा से भाग लेते दिखाई देते थे. इस पर्व का वर्णन राजा हर्षवर्धन के शासन काल में भी मिलता है. प्रेमी युगल, दम्पती इस समय पर अपने प्र्म का इजहार अपने प्रेमी के समक्ष करते थे. इस दिन को प्रेम और अनुराग से भरपूर माना गया है. ऎसे में इस दिन किसी भी नए संबंध की शुरुआत करना भी बहुत शुभस्थ होता है. धार्मिक दृष्टिकोण से इस दिन विवाह का आरंभ करना भी उत्तम होता है.

कौमुदी महोत्सव के समय पर घूमना फिरना, पतंगबाजी करना, या किसी भी प्रकार के मन को आन्म्द देने वाली कार्य क्रम भी आयोजित किए जाते हैं. कौमुदी उत्सव के दिन चंद्रमा की पूजा की जाती है. चंद्रमा का पूजन करने से सभी प्रकार के दोष शांत होते हैं. मान्यता अनुसार चंद्रमा भगवान शिव-पार्वती पूजन करने से जीवन में सदैव प्रेम की प्राप्ति होती है. दांपत्य जीवन में सदैव ही प्रसन्नता बनी रहती है.

कौमुदी-महोत्सव के दिन अन्य पर्वों का महत्व

कौमुदी महोत्सव का पर्व एक ऎसे समय पर होता है जब बहुत से अन्य पर्व भी इसी दिन मनाए जाते हैं. जो इस प्रकार हैं –

कार्तिक पूर्णिमा –

इस दिन कार्तिक पूर्णिमा मनाई जाती है, चंद्रमा का पूजन होता है. इस दिन को शरद पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है.

मत्स्य जयंती –

स दिन मत्स्य अवतार पूजन होता है कह्ते हैं इसी दिन इसी दिन भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों रक्षा और सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था.

त्रिपुरोत्सव –

त्रिपुरोत्सव का पर्व होता है जिसमें भगवान शिव त्रिपुरान्तक स्वरुप का पुजन होता है. त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर को मारक देवों को मुक्त किया था. इस दिन ही भगवान शिव त्रिपुरारी के रूप में पूजे जाते हैं.

कृतिका पूजन – इस दिन नक्षत्रों का पूजन होता है. कृतिकाओं का पूजन करके जीवन में सुख का आगमन होता है. नक्षत्र शांति भी होती है. शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से कष्टों का नाश होता है.

श्री राधा कृष्ण पूजन –

इस दिन भगवान श्री कृष्ण व राधा जी का पूजन भी किया जाता है.

महारास पर्व –

इस दिन को रास पर्व के नाम से भी जाना जाता है. राधा उत्सव और रासमण्डल का आयोजन होता है.

गुरुनानक जयंती –

इस दिन गुरु नानक जयंती भी मनाई जाती है. सिख सम्प्रदाय में इस दिन को प्रकाशोत्सव के रूप में मनाते हैं. इस दिन गुरू नानक देव का जन्म हुआ था इसलिए सिख सम्प्रदाय के अनुयायीयों के लिए गुरु पर्व बहुत महत्व रखता है.

कौमुदी उत्सव महत्व

कौमुदी उत्सव का रुप इतना शुभ और व्यापक होता है की ये जन जीवन को प्रभावित करने कि क्षमता भी रखता है.
कौमुदी पर्व तु की मधुरम, सुहावनी और गुलाबी रंगत को देखकर काव्यों की रचनाओं में इसका वर्णन मिलाता है, रामायण में आदि कवि वाल्मीकि ने राम के द्वारा शरद के सौन्दर्य का वर्णन कराते हैं. चंद्रमा की रात्रि में हंस नदियों को कमल तालाबों को, पुष्पों से ढके वृक्षों ने जंगल को और मालती के फूलों ने वाटिकाओं को उज्जवल बना दिया होता है. इस समय पर खिलने वाले वाले फूल हारसिंगार, कमल आदि से सभी स्थानों की सुंदरता बढ़ जाती है. इसलिए संभवतः इस समय में सबसे अधिक पर्व, उत्सव, मेलों का आयोजन होता है. कौमुदी पर्व अपने साथ में उल्लास और उमंग भी ले कर आता है.

कौमुदी पर्व के दिन पारंपरिक रुप से पूजा और विविध प्रकार के सांस्कृति कार्यक्रम आयोजित होते हैं. इस समय पर किया गया भगवान का पूजन और अयोजन प्रेम और सोहार्द बढ़ाने के साथ ही जीवन को प्रकाशवान कर देते है.

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देव प्रबोधिनी एकादशी 2025, आज है एकादशी तो इसलिए मनाई जाती है देवउठनी एकादशी

देव प्रबोधिनी एकादशी, सभी एकादशियों में से ये एकादशी एक अत्यंत ही शुभ और अमोघ फलदायी एकादशी होती है. देव प्रबोधिनी एकादशी को देव उठनी एकादशी, देवुत्थान एकादशी इत्यादि नामों से जानी जाती है. वैष्णव संप्रदाय में एकदशी तिथि को बहुत ही शुभदायक समय माना गया है. मान्यताओं के अनुसार देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन से सारे धार्मिक कृत्य आरंभ हो जाते हैं.

1 नवंबर 2025 शनिवार  के दिन मनाई जाएगी देव प्रबोधिनी एकादशी.

देव प्रबोधिनी एकादशी अबूझ मुहुर्त समय

प्रबोधिनी एकादशी समय को अबुझ मुहूर्त का समय भी माना जाता है. अबूझ मुहूर्त से अर्थ होता है ऎसे समय का जिस पर आप कोई भी शुभ काम कर सकते हैं. इस दिन से ही सभी मांगलिक कार्यों का आरंभ होता है. सगाई-विवाह, गृह प्रवेश, दुकान आरंभ या किसी नए काम का आरंभ करना, पूजा पाठ जैसे अन्य सभी प्रकार के मांगलिक कार्य शुरु हो जाते हैं. मन्यता रही है कि भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को क्षीर सागर में शयन करते हैं ओर चार मासों के इस समय पर मांगलिक कार्य भी रुक जाते हैं. उसके बाद भगवान जब नींद से जागते हैं तो वह दिन देव उठनी एकादशी कहलाता है.

देव प्रबोधिनी एकादशी का महत्व

कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के महत्व के विषय में पौराणिक आख्यानों से प्राप्त होता है. देवोत्थनी एकादशी के दिन भगवान जागते हैं. इस दिन के साथ सभी ऎसे कार्य आरंभ होते हैं जिनको पूरे चार मासों तक नहीं के जाने का विधान होता है. एक पौराणिक कथा में उल्लेख मिलता है कि भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस से युद्ध किया. उस युद्ध के बाद शंखासुर का अंत होता है और भगवान को लम्बे युद्ध के बाद समाप्त होने पर अपनी थकान मिटाने के लिए सो जाते हैं. यह चार मास का समय होता जब भगवान श्री विष्णु सो रहे होते हैं. चार मास पश्चात फिर जब वे उठे तो वह दिन देवोत्थनी एकादशी कहलाता है. इस दिन भगवान विष्णु का विधि विधान से पूजन करना चाहिए. इस दिन उपवास करने का विशेष महत्व है जो जीवन में शुभता लाता है.

कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी देवोत्थान, तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप के नामों से भी मनाई जाती है. दीपावली के बाद आने वाली इस एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी भी कहते हैं. क्षीर सागर में सोए भगवान विष्णु जागने के लिए देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन मांगलिक आयोजन शुरू होते हैं. देवउठनी एकादशी के साथ ही गृहप्रवेश, नींव मुहूर्त, यज्ञोपवीत, देव प्रतिष्ठा आदि मांगलिक कार्य का शुभारंभ होता है. वैष्णव मंदिरों व घरों में भी आगामी चार दिनों तक तुलसी विवाह की धूम रहती है.

देवोत्थान एकादशी में होता तुलसी विवाह

देवोत्थान एकादशी को तुलसी विवाह का आयोजन भी होता है. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुलसी पूजन का पर्व संपूर्ण भारत में मनाया जाता है. इस दिन का विशेष प्रभाव होता है. कहा जाता है कि कार्तिक मास की एकादशी के दिन जो भी व्यक्ति तुलसी का विवाह करता है उसके जन्मों के सब पाप नष्ट हो जाते हैं.

देवोत्थान एकादशी के दिन प्रात:काल स्नान करने के पश्चात स्त्रियां कार्तिक शुक्ल एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती हैं. इस दिन तुलसी विवाह को विधि-विधान से गीत संगीत के साथ एक सुंदर मंडप बनाना चाहिए. उस स्थान पर विवाह कार्य संपन्न होता है. विवाह के समय स्त्रियां गीत तथा भजन गाती हैं.

देव प्रबोधिनी एकादशी पूजन विधि

देव प्रबोधिनी एकादशी श्री विष्णु को जगाने के समय होता है. पद्मपुराण में इस एकादशी के महत्व को को बताया गया है. श्री हरि-प्रबोधिनी एकादशी का व्रत करने और पूजा द्वारा व्यक्ति को एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सौ राजसूय यज्ञों का फल मिलता है. इस पुण्यदायी एकादशी के विधि-विधान द्वारा किए गए व्रत से सभी पापों का नाश होता है.

इस एकादशी के दिन भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप, स्नान-दान, होम किए जाते हैं उन सभी का अक्षय फल मिलता है. इस एकादशी के दिन उपासक को आध्यात्मिक कर्तव्य पूरे करने चाहिए.

श्री विष्णु का षोडशोपचार विधि से पूजन होता है. अनेक प्रकार के फल-फूल के साथ भगवान को भोग लगाते हैं. इस दिन व्यक्ति को चाहिए की संभव हो तो उपवास का पालन करे. अन्यथा केवल एक समय फलाहार ग्रहण करते हुए भगवान का नाम लेना चाहिए. इस एकादशी में रात्रि जागण किया जाता है. श्री हरि के नाम संकीर्तन करने से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न होते हैं. चातुर्मास जिसे चौमासा भी कहा जाता है. इसमें प्रभावी प्रतिबंध कामों का समापन देवोत्थान एकादशी के दिन होता है और मांगलिक काम आरंभ होते हैं.

देव प्रबोधिनी एकादशी कथा

देव प्रबोधिनी से संबंधित एक कथा इस प्रकार है. भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप और प्रेम पर जब अभिमान हुआ. तब उस समय उनके इस अभिमान का दूर करने के लिए भगवान एक लीला रचते हैं. एक दिन नारद जी उनके निवास स्थान आते हैं तो सत्यभामा उनसे कहती हैं कि वह आशीर्वाद स्वरुप उन्हें यही वर दीजिए कि अगले जन्म में भी भगवान श्रीकृष्ण ही मुझे पति रूप में प्राप्त हों. नारद इस बात पर उनसे कहते हैं कि अगर वह अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में उन्हें अवश्य प्राप्त कर सकती हैं.

आपको तो श्रीकृष्ण अत्यंत प्रिय हैं तो इसलिए आप मुझे श्रीकृष्ण को दान रूप में मुझे और वे अगले जन्म में आपको वह अवश्य प्राप्त होंगे. सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को नारदजी को दान रूप में दे देती हैं. जब नारद श्री कृष्ण जी को ले जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक. इस पर नारदजी बोलते हैं की श्रीकृष्ण के बराबर सोना व रत्न मुझे देते हैं तो वे उन्हें नहीं ले जाएंगे.

तब तराजू के एक पलड़े में श्रीकृष्ण बैठे तथा दूसरे पलड़े में सभी ने आभूषण चढ़ाए. पर पलड़ा नहीं हिला. तब रुक्मिणी जी ने तुलसी दल को पलड़े पर रख दिया जिससे वजन बराबर हो गया और नारद तुलसी लेकर स्वर्ग को चले गए. तुलसी के कारण ही रानियों के सौभाग्य की रक्षा हो पाई. तब इस एकादशी को तुलसी जी का व्रत व पूजन किया जाता है.

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भीष्म पंचक 2025, जानें कब से शुरु होंगे भीष्म पंचक

भीष्म पंचक का समय कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से आरंभ होता है और कर्तिक पूर्णिमा तक चलता है. पूरे पांच दिन चलने वाले इस पंचक कार्य में स्नान और दान का बहुत ही शुभ महत्व होता है. धार्मिक मान्यता अनुसार भीष्म पंचक के समय व्रत करने भी विधान बताया जाता है. भीष्म पंचक का यह व्रत अति मंगलकारी और पुण्यों की वृद्धि करने वाला होता है. जो कोई भी श्रद्धापूर्वक इन पांच दिनों का व्रत एवं पूजा पाठ दान कार्य करता है, वह व्यक्ति मोक्ष को पाने का अधिकारी बनता है.

2025 में भीष्म पंचक कब है

भीष्म पंचक आरंभ – 31 अक्टूबर 2025, दिन शुक्रवार से शुरु होगा

भीष्म पंचक समाप्त – 04 नवम्बर 2025, दिन मंगलवार पर होगा

भीष्म पंचक के पांच दिनों को हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व दिया गया है. पौराणिक मान्यताओं और आख्यानों के आधार पर, कार्तिक माह में आने वाले भीष्म पंचक व्रत का विशेष उल्लेख प्राप्त होता है. इस पर्व को पंच भीखू नाम से भी जाना जाता है. कार्तिक स्नान करने के पश्चात इस व्रत का आरंभ होता है. कार्तिक स्नान करने वाले सभी लोग इस व्रत को विधि विधान के साथ करते हैं.

भीष्म पंचक – पंच भीखू कथा

प्राचीन समय की बात है. एक बहुत ही सुंदर गांव था जहां एक साहूकार अपने बच्चों के साथ रहा करता था. साहुकार के एक बेटा था और उसकी बहू भी थे.  साहुकार की बहु बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की थी. वह नियम पूर्वक पूजा पाठ और सभी धार्मिक कार्य किया करती थी. जब कार्तिक मास आता था तो उस माह के भी पूरे नियम करती थी. वह स्त्री कार्तिक मास में रोज सुबह उठ कर गंगा स्नान के लिए जाया करती थी.

उसी गांव के राजा का बेटा भी गंगा स्नान किया करता था. एक बार राजा के बेटे ने देखा कि कोई व्यक्ति है जो उससे भी पहले उठ कर गंगा स्नान के लिए जाता है. उस लड़के के मन में ये बात जानने कि इच्छा हुई की वो कौन है जो उससे भी पहले गंगा स्नान करता है. राजा के बेटे को पता नहीं चल पाता की वह कौन व्यक्ति है जो गंगा स्नान कर लेता है. कार्तिक माह समाप्त होने में पांच दिन ही शेष रहे होते हैं.

साहूकार की बहू जब स्नान करके जा रही थी उसी समय राजा का बेटा गंगा स्नान के लिए आ रहा होता है. बहु आहट सुन कर जल्दी-जल्दी चलने लगती है. जल्दबाजी में उसकी माला मोजड़ी (पायल) वहीं मार्ग में छूट जाती है. राजा के बेटे को उसकी माला मोजड़ी(पायल) दिखती है और वह उसे उठा लेता है. वह मन ही मन सोचने लगता है की जिस स्त्री की यह माला मोजड़ी इतनी सुंदर है, वह स्त्री खुद कितनी सुंदर होगी. वह गांव में यह बात फैला देता है की जिसकी भी माला मोजड़ी उसे प्रात:काल में मिली थी वह स्त्री उसके सामने आए.

साहूकार के बेटे की बहू ने कहलवा दिया कि मैं ही वह स्त्री थी. मैं पूरे पांच दिन गंगा स्नान के लिए आउंगी. अगर तुम मुझे देख पाए तो मै तुम्हारे साथ रहने आ जाउंगी. राजा के बेटे ने उस स्त्री से मिलने के लिए एक तोते को पिंजरे में बंद कर गंगा किनारे रख दिया, ताकि जब वह स्त्री आए तो तोता उसे बता दे. साहुकार की बहू सुबह के समय गंगा स्नान के लिए पहुंच जाती है. वह भगवान से प्रार्थना करती है की वह उसके सतीत्व की लाज रखे. राजा का बेटा न उठ पाए और मै गंगा स्नान करके जा सकूं. भगवान उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हैं और राजा का बेटा सोता रह जाता है.

बहु नहा-धोकर जब चलने लगती है तो तोते से बोलती है की तू मेरी लाज रखना. तोता उसकी प्रार्थना सुन कर कहता है, ठीक है मैं तेरी लाज रखूंगा. राजा का बेटा उठता है और वहां किसी को न पाकर तोते से पूछता है की कोई स्त्री यहां आई थी. तोता उसे इंकार कर देता है. अगले दिन राजा के बेटे ने सोचा कि आज मैं किसी भी हाल में नहीं सोउंगा. वह अपनी उंगुली काट लेता है. दर्द से उसे नींद नहीं आती है. वह स्त्री आती है और भगवान से उसी तरह प्रार्थना करने लगी और राजकुमार को फिर नींद आ गई. वह स्नान कर के फिर से चली जाती है.

सुबह जब राजकुमार की नींद खुलती है तो वह तोते से फिर पूछता है. तोता इंकार कर देता है. अब राजकुमार ने सोचा की आज वह अपनी आंखों में मिर्च डाल देगा जिससे उसे नींद नहीं आएगी. वह अपनी आंखों में मिर्ची डालकर बैठ जाता है. स्त्री फिर आती है और प्रार्थना करती है जिससे राजकुमार को फिर से नींद आ जाती है. राजकुमार ने तोते से बहू के आने की बात पूछी उसने फिर मना कर दिया. राजकुमार अब फिर सोचने लगा कि आज मैं बिना बिस्तर के ही बैठूंगा जिससे नींद नहीं आएगी. वह बिना बिस्तर के बैठ जाता है और इंतजार करने लगता है. वह स्त्री आती है, गंगा स्नान करने से पूर्व भगवान से प्रार्थना करती है. राजकुमार को नींद आ जाती है. वह नहाकर चली जाती है. राजकुमार जब उठा तो वह जा चुकी होती है.

राजकुमार अगले दिन अंगीठी के पास बैठ जाता है जिससे उसे नीम्द नहीं आती है. साहूकार की बहू आती है और भगवान से प्रार्थना करते हुए कह्ती है “ भगवान आपके कारण मेरा चार दिन कार्तिक स्नान हो पाया है. अब आज आखिरी दिन भी मेरे स्नान को पूर्ण करवा दिजिए”. भगवान ने उसकी बात रख ली और राजकुमार को नींद आ गई. साहुकार की बहु जब वह नहाकर जाने लगी तो तोते से बोली कि इससे कहना मैने पांच दिन पूरे कर लिए हैं मेरी मोजडी़ मुझे भिजवा दे.

राजकुमार उठता है तो तोता उसे सारी बात बता देता है. राजा के पुत्र को समझ आया कि वह स्त्री कितनी श्रद्धालु है और वह मन में बहुत दुखी होता है. कुछ समय बाद ही राजा के पुत्र को कोढ़ हो जाता है. राजा को जब कोढ़ होने का कारण पता चलता है, तब वह इसके निवारण का उपाय ब्राह्मणों से पूछता है. ब्राह्मण कहते हैं कि यह साहूकार की पुत्रवधु को अपनी बहन बनाए और उसके नहाए हुए पानी से स्नान करे, तभी उसका कोढ़ ठीक हो सकता है. राजा की प्रार्थना को साहूकार की पुत्रवधु स्वीकार कर लेती है और राजा का पुत्र ठीक हो जाता है. इस प्रकार जो भी व्यक्ति श्रद्धा और सात्विक भाव के साथ इन पांच दिनों तक स्नान और पूजा पाठ करता है उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं.

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