त्रिपुरोत्सव 2024 : कार्तिक पूर्णिमा के दिन क्यों मनाया जाता है त्रिपुरोत्सव

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को त्रिपुरोत्सव का पर्व मनाया जाता है. प्रदोषव्यापिनी इस पर्व को विधि विधान से मनाने का कार्य प्राचीन समय से ही चला रहा है. पूर्णिमा के दिन पड़ने वाले इस पर्व को सभी लोग बहुत श्राद्ध और विश्वास के साथ मनाया करते हैं. इस दिन किया गया व्रत सभी के लिए अति शुभ फलदायी माना गया है.

मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस का अंत किया था, इस कारण इस दिन को त्रिपुरोत्सव के रुप में मनाया जाता है. इस पर्व को त्रिपुरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है.

त्रिपुरोत्सव – स्नान व दान का महत्व

त्रिपुरोत्सव के दिन गंगा स्नान करने से सभी बुरे कर्मों से मुक्ति मिलती है. स्नान द्वारा बुरी मानसिक भावनाओं का विनाश होता है. अच्छे विचारों का मन में वास होता है. मान्यता है कि त्रिपुरोत्सव के दिन गंगा स्नान करने से वर्ष भर के गंगा स्नान का फल भी मिलता है. इस दिन सिर्फ गंगा ही नहीं बल्कि अलग-अलग क्षेत्रों में पवित्र मानी जाने वाली और पूजी जाने वाली नदियों और सरोवरों में भी श्रद्धालु स्नान कर पुण्य अर्जित करते हैं.

संगम स्थल पर स्नान करने पर इस दिन मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग सुलभ होता है. मनयता है की इस दिन त्रिवेणी के संगम पर त्रिदेवों का भी वास होता है. इस पर्व के दौरान धर्म स्थलों और गंगा-यमुना समेत अन्य पवित्र नदियों एवं घाटों पर विशेष आयोजन व्यवस्था होती है. घाटों को सजाया जाता है. जहां श्रद्धालु भक्ति की डूबकी लगाते हैं. इस पर्व पर लाखों की संख्या में भक्त लोग धर्म स्थलों की यात्राओं पर जाते हैं. इस शुभ दिन स्नान करने के उपरांत दान करने का भी उत्तम फल प्राप्त होता है.

सभी वर्ग के लोग चाहे वह अमीर हो या गरीब सभी भक्त इस दिन अपने सामर्थ्य अनुसार दान अवश्य करते हैं. दान स्वरुप अन्न, फल, धन, आभुषण, वस्त्र इत्यादि वस्तुओं का दान करते हैं. इस दिन नौ ग्रहों के लिए भी वस्तुओं का दान करना चाहिए. सूर्य के लिए गेंहू और गुड़ का दान करना चाहिए. चंद्रमा के लिए दूध और चीनी का दान करना चाहिए. मंगल के लाल वस्त्र या लाल रंग की दाल का दान करना चाहिए. बुध ग्रह के हरी सब्जी या हरा वस्त्र दान करना चाहिए. गुरू(बृहस्पति) के हल्दी, केले का दान करना चाहिए. शुक्र के लिए सफेद वस्त्र, कपूर, सफेद तिल का दान करना चाहिए. शनि के लिए काले तिल, सरसों के तेल या लोहा इत्यादि दान करना चाहिए.

त्रिपुरोत्सव पूर्णिमा पर सत्यनारायण कथा

त्रिपुरी पूर्णिमा के दिन पवित्र नदियों में स्नान करके सत्यनारायण व्रत का पालन भी करते हैं. यदि धर्म स्थलों पर न जा पाएं तो जहां भी हैं उसी स्थान पर स्नान दान पवित्रता का पालन करना चाहिए. इस पूर्णिमा के दिन त्रिपुरोत्सव के उपलक्ष पर भगवान सत्यनारायण व्रत की कथा को बंधु बांधवों सही पढ़ना एवं सुनना चाहिए.

इस दिन व्रत का संकल्प लेकर भगवान सत्यनारायण की पूजा कथा करनी चाहिए. दिनभर उपवास करने के पश्चात रात के समय चंद्रोदय पर चंद्रमा को अर्घ्य देना चाहिए और चंद्र पूजन करना चाहिए. खीर का भोग लगाकर मीठा भोजन ग्रहण करना चाहिए.

त्रिपोरत्सव पौराणिक कथा

त्रिपुरोत्सव के साथ पौराणिक कथा जुड़ी हुई है. इस दिन इस कथा का श्रवण करना चाहिए. त्रिपुर नामक एक अत्यंत पराक्रमी दैत्य था. दैत्य ने, देवताओं पर विजय प्राप्ति के लिए कठोर तप किया. उसके तप के प्रभाव से तीनों लोक जलने लगे. उसके तप में इतना तेज था की कोई उसके सामने खड़ा नही हो सकता था. चारों ओर उसकी कठोर तपस्या की बातें होने लगी और देवताओं की शक्ति भी डगमगाने लगी. उसकी कठोर तपस्या को समाप्त करने के लिए देवों नें कई तरह के प्रयास किए. दैत्य को भटकाने के लिए और उसे माया में फंसाने के लिए देवताओं ने अप्सराओं को उसके पास भेजा. पर दैत्य के ऊपर किसी भी प्रकार की मोह माया का प्रभाव नहीं चढ़ पाया.

दैत्य की साधना व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए. ब्रह्मा जी ने दैत्य को वर मांगने को कहा. दैत्य ने ब्र्ह्मा से अमरता का वर पाना चाहा. ब्रह्मा जी ने दैत्य से कहा कि वह अमरता का वर नही दे सकते हैं, क्योंकि इस लोक में जो भी जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है. यह बात सुन दैत्य ने कहा की आप मुझे ऎसा वर दिजिए की मेरी मृत्यु न देवों से, न मनुष्य से न निशाचर ना स्त्री या किसी भी व्यक्ति से संभव न हो पाए. दैत्य को तथास्तु स्वरुप वर दे कर ब्रह्मा वहां से चले जाते हैं.

दैत्य त्रिपुर वर के अभिमान में चूर होकर सभी ओर अपना प्रभाव जमाने लगता है. वह देवताओं को स्वर्ग से निकाल कर देवलोक पर अपना अधिकार स्थापित कर देता है. त्रिपुर अपने शक्ति बल से देव और मनुष्यों पर अधिकार जमाने लगता है और सभी को प्रताडि़त करने में लग जाता है. त्रिपुर के कामों से चारों ओर अराजकता फैलने लगती है. चारो ओर निराशा फैल जाती है. ऎसे में सभी देव ब्रह्मा जी के पास पहुंचते हैं. उनसे अपने बचाव का उपाय पूछते हैं

ब्रह्मा जी देवों से कहते हैं की उसे न कोई देव न कोई मनुष्य मार सकता है. तब ब्रह्माजी ने कहा कि उसका संहार केवल भगवान शिव के द्वारा ही हो सकता है. उस समय सभी देव भगवान महादेव के पास पहुंचते हैं. उनसे त्रिपुर दैत्य के अत्याचारों का अंत करने के लिए प्रार्थना करते हैं. भगवान शिव ने त्रिपुर दैत्य का वध करके देवताओं ओर मनुष्यों का कल्याण किया.

दैत्य की मृत्यु के साथ ही चारों और शांति व्याप्त हो गयी और सभी को सुख प्राप्त हुआ. इस अवसर पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान शिव की विजय हेतु दीप जलाए. इसी विजय को मनाने के लिए आज भी त्रिपोरत्सव का पर्व मनाया जाता है.

त्रिपोरत्सव : भगवान शिव का पूजन

त्रिपोरत्सव के दिन भगवान शिव का विशेष रुप से पूजन किया जाता है. भगवान शिव ने जिस प्रकार एक ही बाण से दैत्य का वध कर देते हैं. सभी का कष्ट दूर करते हैं. उसी तरह भगवान का पूजन करने से सभी प्रकार के कष्ट, रोग और दुख दूर होते हैं. चंद्र उदय के समय दीपदान करके भगवान शिवजी की आराधना करने से सभी कलेशों का नाश होता है. जीवन प्रकाशमय हो जाता है.

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आश्विन पूर्णिमा 2024 – इस साल होगी अधिक मास आश्विन पूर्णिमा

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को आश्विन पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है. संपूर्ण वर्ष में आने वाली सभी पूर्णिमा तिथियों की भांति इस पूर्णिमा का भी अपना एक अलग प्रभाव होता है. आश्विन पूर्णिमा को संपूर्ण भारत वर्ष में अनेक नामों से पुकारा जाता है. इन सभी रुपों और नामों के अनुरुप ही इस आश्विनी पूर्णिमा का प्रभाव भी दिखाई देता है. विभिन्न रंगों और विशेषताओं को अपने में संजोए हुए यह पूर्णिमा तिथि प्रकृति एवं व्यक्ति दोनों पर ही समान रुप से प्रभाव भी डालती है.

आश्विन पूर्णिमा कब है

इस वर्ष आश्विन मास के समय अधिक मास पडने के कारण दो बार आश्विन पूर्णिमा होगी. अधिक मास के समय पड़ने वाली पूर्णिमा के समय श्री विष्णु का पूजन का विधान बताया गया है. इसका मुख्य कारण यह है की यह अधिक मास का समय भगवान श्री विष्णु के द्वारा ही संचालित होता है. इसलिए इस समय के दौरान श्री विष्णु पूजन को ही विशेष महत्व दिया गया है.

अश्विन पूर्णिमा

17 अक्टूबर, 2024, बृहस्पतिवार के दिन अधिक मास अश्विन पूर्णिमा मनाई जाएगी.

16 अक्टूबर 2024 को 20:41 से पूर्णिमा आरंभ .

17 अक्टूबर 2024 को 16:56 पर पूर्णिमा समाप्त .

आश्विन पूर्णिमा पर करें लक्ष्मी पूजन

आश्विन पूर्णिमा के दिन देवी लक्ष्मी के पूजन का विधान भी होता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आश्विन पूर्णिमा के दिन को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है. इसके कई कारण हैं. इस दिन कई उत्सव मनाए जाते हैं. इस दिन कोजागर व्रत होता है, शरद पूर्णिमा भी यही दिन है, चंद्रमा की किरणें आज के दिन अमृत की वर्षा करती हैं. भगवान श्री कृष्णु इस दिन रास लीला करते हैं. इसी दिन देवी लक्ष्मी पृथ्वी पर विचरण करती हैं. प्रकृति के उल्लास का उत्सव और प्रेम का रंग इसी पूर्णिमा के दिन पर बहुत ही व्यापक रुप से देखने को मिलता है.

इसलिए इस दिन लक्ष्मी पूजन का भी बहुत महत्व रहा है. आश्विन पूर्णिमा के मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी का आगमन होता है. इस लिए इस दिन रात्रि जागरण किया जाता है. दीपक जलाए जाते हैं. देवी लक्ष्मी का विभिन्न प्रकार से पूजन होता है. माता लक्ष्मी इस दिन धन धान्य का आशीर्वाद प्रदान करती हैं. मान्यता अनुसार इस दिन माता लक्ष्मी देखती हैं की कौन इस रात्रि पर जागता है और देवीलक्ष्मी का पूजन कर रहा होता है. जो भी इस रात्रि लक्ष्मी पूजन और जागरण करता है उसे देवी लक्ष्मी का साथ व आशीर्वाद मिलता है. व्यक्ति के जीवन में धन धान्य सदैव बना रहता है.

आश्विन पूर्णिमा कथा

आश्विनी पूर्णिमा से जुड़ी बहुत सी कथाएं प्रचलित हैं. इन कथाओं को पूर्णिमा के दिन पढ़ा और सुना जाता है. आश्विनी पूर्णिमा के दिन व्रत रखने वाले को इस दिन कथा भी अवश्य सुननी अथवा पढ़नी चाहिए. यहां एक कथा का वर्णन किया जा रहा है जो इस प्रकार है :-

प्राचीन समय की बात है एक नगर में साहुकार रहा करता था. साहुकार धर्म-कर्म के काम भी किया करता था. साहुकार के दो कन्याएं थी. वह दोनों कन्याएं भी अपने पिता की भांति ही धार्मिक कार्यों को करती थी.पर दोनों में से बडी़ बहन अधिक निपुणता से काम करती थी. छोटी बहन काम में अधूरापन रखती थी. दोनो लड़कियां पूर्णिमा के व्रत को भी किया करती थीं. बडी लड़की अपने इस धार्मिक कार्य को भी संपूर्णता के साथ करती थी. लेकिन छोटी लड़की अपनी लापरवाही के चलते पूर्णिमा का व्रत भी अधूरा ही करती थी.

साहुकार ने अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह किया और दोनों ससुराल चली गईं. वहां भी दोनों ने व्रत रखना जारी रखा. लेकिन जहां बडी़ ने पूर्णिमा का व्रत की पूरा व्रत करती, वहीं छोटी अभी भी लापरवाही करती थी. कुछ समय पश्चात दोनों को संतान सुख प्राप्त होता है. लेकिन अधूरा व्रत करने वाली लड़की को जो संतान हुई जन्म के बाद ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती जाती है. ऎसा कई बार होता है जब उस छोटी की संतानें पैदा होती ही मर जाती हैं.

छोटी लड़की ने ब्राह्मणों से इसका कारण पूछा, तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी. इस अधूरे व्रत को करने के कारण ही उसे संतान दुख प्राप्त हो रहा है. अगर वह आश्विन मास में आने वाली पूर्णिमा के दिन व्रत को संपूर्ण विधि विधान के साथ पूर्ण रुप से रखती है तो उसे दीर्घायु वाली संतान प्राप्त होगी.

लड़की ने ब्राह्मणों की बात मान कर आने वाली आश्विन पूर्णिमा का व्रत पूरे विधि विधान के साथ किया और पूर्ण रुप से किया. कुछ समय बाद उसे पुत्र की प्राप्ति होती है. परन्तु वह बच्चा भी जन्म के बाद ही मृत्यु को प्राप्त होता है. तब उस लड़की ने अपने पुत्र को कपड़े से ढक कर पीढे पर लिटा देती है. अपनी बडी बहन को बुलाती है. बड़ी बहन को बैठने के लिए वही पीढा दे देती है. बडी जब पीढे पर बैठने लगती है तो उसकी चुनरी बच्चे को छू जाती है और उसके छूते ही बच्चा रोने लगता है. बडी बहन कहती है कि तू बेटे के मरने का दोष मुझ पर लगाना चाहई थी, की मै बच्चे पर बैठ गई और वह मर गया. इस पर छोटी कहती है की यह तो पहले से मरा हुआ था. तेरे ही शुभ कर्मों से जीवित हुआ है. क्योंकि तूने पूर्णिमा के व्रतों को सदैव शुभ रुप से संपन्न किया था. तब से उस दिन से बड़ी के साथ साथ छोटी भी पूरे विधि विधान से पूर्णिमा के व्रत रखने लगी और उसका जीवन भी सुखमय बन गया.

आश्विन पूर्णिमा व्रत विधि

  • आश्विन पूर्णिमा के दिन सुबह उठ कर अपने इष्ट देव को याद करना चाहिए और उसके बाद भगवान श्री कृष्ण का पूजन करना चाहिए.
  • पूर्णिमा के दिन इन्द्र और महालक्ष्मी जी का पूजन करके घी के दीपक जलाकर, पूजा करनी चाहिए.
  • पूर्णिमा के दिन तुलसी पर दीपक जलाना चाहिए.
  • आश्विन पूर्णीमा के दिन लक्ष्मी प्राप्ति के लिए इस व्रत को विशेष रुप से किया जाता है. इस दिन जागरण करने वालों की धन-संपत्ति में वृद्धि होती है.
  • आश्विन पूर्णिमा के दिन व्रत का संकल्प लेना चाहिए. यदि व्रत न कर सकें तो पूजा अवश्य करनी चाहिए.
  • आश्विन पूर्णिमा के दिन में पूर्णिमा कथा एवं सत्यनारायण पूजा अवश्य करनी चाहिए.
  • आश्विन पूर्णिमा की रात के समय चन्द्रमा को अर्घ्य देने के बाद ही भोजन करना चाहिए.
  • मंदिर में खीर आदि दान करने का विधि-विधान है. ऐसा माना जाता है कि इस दिन चांद की चांदनी से अमृत बरसता है.
  • ब्राह्माणों को खीर का भोजन कराना चाहिए और उन्हें दान दक्षिणा प्रदान करनी चाहिए.
  • खीर का प्रसाद परिवार के साथ साथ स्वयं भी जरुर खाना चाहिए.
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धन्वन्तरि जयंती 2024 – क्यों मनाई जाती है धन्वन्तरि जयंती और कब है पूजा का शुभ मुहूर्त समय

धर्म ग्रंथों में धन्वंतरि को आयुर्वेद का जनक माना गया है. धर्म ग्रंथों में प्रत्येक देवता किसी न किसी शक्ति से पूर्ण होते हैं. किसी के पास अग्नि की शक्ति है तो कोई प्राण ऊर्जा का कारक है, कोई आकाश तो कोई हवा का संरक्षक बनता है. इसी श्रेणी में धन्वंतरि जी चिकित्सा क्षेत्र में स्थान रखते हैं. आरोग्य देने वाले हैं. किसी भी प्रकार के रोग से बचाने वाले हैं.

धन्वन्तरि जयंती पूजा मुहूर्त समय

इस वर्ष धन्वन्तरि जयंती 30 नवंबर 2024 को  बुधवार के दिन मनाई जाएगी. धन्वन्तरि जयंती का पूजा समय इस प्रकार रहेगा-

धन्वन्तरि पूजा प्रातःकाल मुहूर्त – 06:26 प्रात:काल से 10:42 प्रात:काल

धनवन्तरि जयंती के दिन भगवान धन्वंतरि जी का पूजन किया जाता है. इस दिन आयुर्वेद से संबंधित वैध शालाओं में भी पूजन होता है. इस दिन औषधियों का दान करना अत्यंत ही शुभदायक माना गया है. मान्यता है कि इस दिन यदि कोई दवा इत्यादि दान किया जाए तो व्यक्ति को रोग से मुक्ति प्राप्त होती है.

समुद्र मंथन से प्राप्त हुए धन्वंतरि

धनवंतरि जी की कथा में सबसे प्रमुख कथा अमृत मंथन की है. अमृत मंथन के समय पर ही भगवान धन्वंतरि का प्रादुर्भाव होता है. धन्वन्तरि हिन्दू धर्म में एक देवता हैं. मान्यताओं के अनुसार ये भगवान विष्णु के अवतार भी माने जाते हैं. समुद्र मंथन के समय यही अमृत कलश को लेकर उत्पन्न होते हैं. अमृत को पाकर ही देवता शक्ति पाते हैं ओर दैत्यों को हरा कर विजयी होते हैं.

मान्यता अनुसार समुद्र मंथन का समय एक लम्बा समय था जिसमें प्रत्येक दिन कुछ न कुछ प्राप्त होता है., त्रयोदशी को धन्वंतरी का आगमन होता है. इस लिए दीपावली के दो दिन पहले धनवंतरि जयंती मनाई जाती है जिसे धनतेरस के नाम से भी जाना जाता है.

धनवन्तरि का स्वरुप

धनवन्तरि को भगवान विष्णु का ही एक अंश रुप माना जाता रहा है. इनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें से ऊपर के दोनों हाथों में चक्र और शंख धारण किए होते हैं. अन्य दो हाथों में से औषधि और अमृत कलश स्थित है.

धन्वंतरि पूजा विधि

  • धन्वंतरि जयंती के दिन प्रात:काल उठ कर स्नान इत्यादि कार्यों से निवृत्त होकर पूजा का संकल्प लेना चाहिए.
  • पूजा स्थान को गंगा जल का छिड़काव करके पवित्र करना चाहिए.
  • इसके बाद एक थाली पर रोली के माध्यम से स्वास्तिक का चिन्ह बनाना चाहिए.
  • थाली पर ही मिट्टी के दीए को जलाना चाहिए. दीपक पर रोली का तिलक लगाना चाहिए.
  • भगवान धनवंतरी की पूजा घर में करें तथा आसन पर बैठकर धनवंतरी मंत्र “ऊँ धन धनवंतरी नमः”मंत्र का जप करना चाहिए.
  • धनवंतरी पूजा में पंचोपचार पूजा करनी चाहिए. धन्वंतरि देव के समक्ष दीपक जलाना चाहिए.
  • धन्वंतरि जी को फूल चढ़ाएं तथा मिठाईयों का भोग लगाना चाहिए.
  • देवता धनवंतरी की पूजा करें आरती करनी चाहिए. पूजा पश्चात परिवार के उत्तम स्वास्थ्य की कामना करनी चाहिए.

धनवन्तरि – आरोग्य के देवता हैं

भगवान धनवन्तरि को आयुर्वेद के प्रणेता कहा जाता है. कईऔषधियों की प्राप्ति इन्हीं के द्वारा ही प्राप्त हुई है. उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करने वाले देवता भी हैं. भगवान विष्णु ने धनवन्तरि को देवों का चिकित्सक भी कहा है. पृथ्वी पर उपस्थित समस्त वनस्पतियों और औषधियों के स्वामी भी धन्वंतरि को ही माना गया है. भगवान धनवन्तरि के आशीर्वाद से ही आरोग्य का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

धन्वंतरी जयंती महत्व

धन्वंतरि जयंती के विषय में भागवत, महाभारत, पुराणों इत्यादि में उल्लेख प्राप्त होता है. कुछ कथाओं में थोड़े बहुत अंतर अवश्य प्राप्त होते हैं. किंतु एक बात मुख्य होती है की धन्वंतरि को समस्थ स्थानों पर आरोग्य प्रदान करने वाला ही बताया गया है. धन्वंतरि संहिता द्वारा ही देव धन्वंतरि के कार्यों का पता चलता है. यह ग्रंथ आयुर्वेद का मूल ग्रंथ भी माना गया है. पौराणिक मान्यता अनुसार आयुर्वेद के आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वंतरिजी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था.

पौराणिक मान्यताओं और कथाओं के आधार पर कहा जाता है कि कार्तिक मास की त्रयोदशी तिथि के दिन ही धनवंतरि जी का प्रकाट्य हुआ था. इस दिन को औषधालयों पर पूजन होता है ओर महत्वपूर्ण वस्तुओं की खरीदारी भी इस दिन किया जाना अत्यंत ही शुभदायक माना जाता है.

धनवंतरि जयंती के दिन मनाया जाता है धन तेरस

धन्वंतरि जी के जन्म समय को धनतेरस पर्व के रुप में मनाया जाता है. धनतेरस की कथा इस प्रकार है : – भगवान विष्णु पृथ्वी पर विचरण करने के लिए आते हैं, तो देवी लक्ष्मी भी उनके साथ चलने का आग्रह करती हैं. इस पर भगवान श्री विष्णु देवी लक्ष्मी से एक वचन लेते हैं की जो वो कहेंगे लक्ष्मी जी उसे मानेंगी. लक्ष्मी जी ने विष्णु जी की बात को मान लिया और उनके साथ पृथ्वी भ्रमण के लिए निकल पड़ती हैं.कुछ समय घूमने के बाद श्री विष्णु जी ने लक्ष्मी जी को कहा की वो अभी यहीं रुक जाएं और जब तक विष्णु जी न आएं वह उस स्थान से हटें नहीं. भगवान श्री विष्णु दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े.

देवी लक्ष्मी अपनी जिज्ञासावश, उनका कहना नहीं मानती और विष्णु जी के पिछे चल पड़ती हैं. कुछ ही दूर पर उन्हें खेत दिखाई दिया वहां के फूलों की सुंदरता से इतना मोहित होती हैं की वह उस उन फूलों को तोड़ कर अपने पास रख लेती हैं. जब आगे निकलती हैं तो गन्ने का खेत देखती हैं ओर उस खेत से गन्ने तोड़ कर उनका रस पी लेती हैं.

भगवान श्री विष्णु जी जब वापस आने लगते हैं तो उसी मार्ग पर लक्ष्मी जी को देख कर क्रोधित हो उठते हैं. वह देवी लक्ष्मी से नाराज़ होकर उन्हें सजा देते हैं. खेत से जो भी वस्तें उन्होंने ली होती हैं उसके बदले खेत के मालिक के पास 12 वर्ष तक रहने को कहते हैं. ये कहने के बाद भगवान श्री विष्णु लक्ष्मी जी को वहीं छोड़कर चले जाते हैं.

लक्ष्मी जी उदास हो जाती है और उस किसान के घर जाकर उसके घर काम करने देने की आज्ञा मांगती हैं. किसान गरीब होता है लेकिन लक्ष्मी जी को अपने पास रहने कि अनुमति दे देता है. धीरे धीरे समय बीतने के साथ ही लक्ष्मी की कृपा से किसान अमीर हो जाता है उसके घर में धन धान्य कि कोई कमी नहीं रहती है. 12 वर्ष बीत जाते हैं और लक्ष्मीजी जाने के लिए तैयार होती हैं. विष्णुजी, सामान्य रुप धरकर लक्ष्मी जी को लेने आते हैं.

किसान और उसकी पत्नी, लक्ष्मीजी अपने यहां से जाने नहीं देना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है की वह उनके परिवार के लिए सौभाग्य लेकर ही आई थी. तब श्री विष्णु भगवान किसान को सचाई बताते हैं की लक्ष्मीजी का तुम्हारे पास किसी कारण से ही भेजा था अब उनकी सजा पूरी हो गयी है अब हमें जाने दो. किसान देवी का आंचल पकड़ लेता है और देवी लक्ष्मी को नही जाने देने की जिद्द करने लगता है. तब लक्ष्मीजी ने कहा-‘हे किसान अगर तुम मुझे सदैव अपने पास रखना चाहते हो तो तुम कल घर को अच्छे से साफ करके रात्रि में घी का दीपक जलाकर मेरा पूजन करना ऎसा करने पर मैं हमेशा के लिए तेरे घर पर निवास करूंगी”. इसी तरह प्रत्येक वर्ष इसी तरह तेरस के दिन मेरा पूजन करने पर मै कभी तुम्हारे घर से दूर नहीं होउंगी. किसान मान जाता है. लक्ष्मी जी के कहे अनुसार पूजन करता है और तेरस पूजन करने पर वह सदा के लिए माँ लक्ष्मी का आर्शीवाद पाता है.

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आंवला नवमी 2024 – जानें आंवला नवमी का कथा और पूजन विधि

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को आंवला नवमी के रूप में मनाया जाता है. आंवला नवमी को कुष्माण्ड नवमी और अक्षय नवमी पर्व के नाम से भी मनाया जाता है. आंवला नवमी के दिन स्नान, पूजन, तर्पण और अन्नदान करने का बहुत महत्व बताया गया है.

आंवला नवमी के दिन किया गया जप, तप, दान इत्यादि व्यक्ति को सभी पापों से मुक्त करता है. सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला होता है. मान्यता है कि सतयुग का आरंभ भी इसी दिन हुआ था. इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा करने का विधान है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आंवले के वृक्ष में सभी देवताओं का निवास होता है. आंवला भगवान विष्णु को भी अति प्रिय है इसलिए इस दिन भगवान विष्णु जी को आंवला अर्पित करने चाहिए.

आंवला नवमी कथा

प्राचीन समय की बात है, काशी नगरी में एक वैश्य रहता था. वह बहुत ही धर्म कर्म को मानने वाला धर्मात्मा पुरूष था. किंतु उसके कोई संतान न थी. इस कारण उसकी पत्नी बहुत दुखी रहती थी. एक बार किसी ने उसकी पत्नी को कहा कि यदि वह किसी बच्चे की बलि भैरव बाबा के नाम पर चढा़ए तो उसे अवश्य पुत्र की प्राप्ति होगी. स्त्री ने यह बात अपने पति से कही परंतु पति ने ऐसा कार्य करने से मना कर दिया. किंतु उसकी पत्नी के मन में यह बात घर कर गई तथा संतान प्राप्ति की इच्छा के लिए उसने किसी बच्चे की बली दे दी, परंतु इस पाप का परिणाम अच्छा कैसे हो सकता था अत: उस स्त्री के शरीर में कोढ़ उत्पन्न हो गया और मृत बच्चे की आत्मा उसे सताने लगी.

उस स्त्री ने यह बात अपने पति को बताई. पहले तो पति ने उसे खूब बुरा-भला सुनाया लेकिन फिर उसकी दशा पर उसे दया भी आई. वह अपनी पत्नी को गंगा स्नान एवं पूजन के लिए कहता है. तब उसकी पत्नी गंगा के किनारे जा कर गंगा जी की पूजा करने लगती है. एक दिन माता गंगा वृद्ध स्त्री का वेश धारण किए उस स्त्री के समक्ष आती है और उस सेठ की पत्नी को कहती है कि यदि वह मथुरा में जाकर कार्तिक नवमी का व्रत एवं पूजन करे तो उसके सभी पाप समाप्त हो जाएंगे. ऎसा सुनकर वैश्य की पत्नी मथुरा में जाकर विधि विधान के साथ नवमी का पूजन करती है और भगवान की कृपा से उसके सभी पाप क्षय हो जाते हैं. उसका शरीर पहले की भाँति स्वस्थ हो जाता है, उसे संतान रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है.

आंवला नवमी पूजन विधि

  • आंवला नवमी के दिन प्रात:काल स्नान कर आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है.
  • हाथ में जल, चावल, पुष्प आदि लेकर व्रत का संकल्प करना चाहिए.
  • आंवले के पेड़ की जड़ में दूध फर पानी का मिश्रण चढा़ना चाहिए.
  • धूप-दीप गंध से आंवला वृक्ष की आरती करनी चाहिए.
  • आंवला वृक्ष की परिक्रमा करनी चाहिए.
  • ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए. अगर संभव हो तो आंवला के वृक्ष के नीचे ब्राह्मणों को भोजन कराना और दान-दक्षिणा देनी चाहिए.
    आंवला नवमी कथा को सुनना चाहिए.
  • आंवला नवमी के दिन परिवार सहित आंवला पूजन करना चाहिए और आंवला के पेड़ के नीचे बैठ कर भोजन करना चाहिए.

आंवला नवमी पर गंगा स्नान का महत्व

आंवला नवमी केद इन गंगा स्नान करना भी अत्यंत ही शुभदायक माना गया है. गंगा स्नान के अतिरिक्त पवित्र नदियों एवं धर्म स्थलों के दर्शन करने का भी विधान है. आंवला नवमी के दिन श्री विष्णु भगवान की कृपा प्राप्त होती है. गंगा स्नान करने से पापों का नाश होता है. आंवला नवमी के दिन गंगा स्नान करने पर सभी कष्ट दूर होते हैं ओर मनोकामनाएं भी पूर्ण होती हैं.

आंवला नवमी पर करते हैं दीपदान

आंवला नवमी के दिन आंवला वृक्ष के नीचे दीपक जलाने कि प्रथा भी रही है. इसके अतिरिक्त घर पर, चोराहों पर नदियों एवं घाटों पर दीप जलाना अत्यंत ही शुभ होता है. आंवला नवमी के दिन किया गया दीपदान जीवन के पथ को प्रकाश से भर देता है. इस दीन दीपदान करने पर कार्यक्षेत्र में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं. सफलता की प्राप्ति होती है.

आंवला नवमी देती है रोग से मुक्ति

आंवला नवमी के दिन आंवला का पूजन और आंवला के वृक्ष के नीचे बैठ कर भोजन करने पर स्वास्थ्य को लाभ मिलता है. आंवला के पेड़ की छाया व्यक्ति पर पड़ने से शरीर को सुख मिलता है. आंवला का सेवन एक उत्तम औषधी के रुप में जाना जाता है. आयुर्वेद में भी आंवला के गुणों का बखान मिलता है. ऎसे में आंवला नवमी का दिन मुख्य रुप से आंवला के वृक्ष के प्र्ति हमारा धन्यवाद ही है, आंवला का उपयोग हमारे शरीर को रोगों से मुक्त कराने में अत्यंत ही लाभदायक होता है.

आंवला वृक्ष के नीचे भोजन का महत्व

आंवला नवमी के दिन एक बात बहूत महत्वपुर्ण और प्रभावशाली बताई गई है. मान्यता है की इस नवमी के दिन आंवला पेड़ के नीचे बैठकर खाना जरुर खाना चाहिए. आंवला के वृक्ष बैठ कर खाना खाने से अमृत की प्राप्ति जैसा सुख मिलता है. इस समय के दौरान भोजन के पौष्टिक गुण बढ़ जाते हैं.

आंवला को अक्षय फल देने वाला माना गया है. आंवला का उपयोग स्वास्थ्य के साथ-साथ बौद्धिकता के लिए भी अत्यंत ही शुभ माना गया है. भोजन बनाकर खाने का विशेष महत्व है अगर आंवला वृक्ष के नीचे भोजन करना संभव न हो पाए तो आंवला का दान अवश्य करना चाहिए.

आंवला नवमी महत्व

कार्तिक शुक्ल पक्ष की आंवला नवमी का धार्मिक महत्व बहुत माना गया है. आंवला नवमी की तिथि को पवित्र तिथि माना गया है. इस दिन किया गया गौ, स्वर्ण तथा वस्त्र का दान अमोघ फलदायक होता है. चरक संहिता में इसके महत्व को व्यक्त किया गया है. जिसके अनुसार कार्तिक शुक्ल नवमी के दिन ही महर्षि च्यवन को आंवला के सेवन से युवा होने का वरदान प्राप्त हुआ था.

आंवला नवमी का पूजन करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है. इस दिन संतान कि प्राप्ति के लिए व्रत भी किया जाता है. संतान सुख के साथ ही लक्ष्मी प्राप्ति का आशीर्वाद भी मिलता है. इस दिन मिलने वाले पुण्यों का प्रभाव कभी समाप्त नही होता है.

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आश्विन अमावस्या 2024 – सर्वपितृ अमावस्या

आश्विन मास की अमावस्या तिथि आश्विन अमावस्या के नाम से जानी जाती है. हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास कि अमावस्या के दिन श्राद्ध कार्यों का अंतिम दिन होता है. इसके साथ ही तर्पण के काम समाप्त होते हैं. कृष्ण पक्ष की आश्विन अमावस्या को सर्व पितृ अमावस्या, पितृ विसर्जनी अमावस्या या महालय अमावस्या आदि नामों से पुकारा जाता है. इस दिन श्राद्ध पक्ष का समापन होता है और पितृ लोक से आए हुए पितर संतुष्ट होकर अपने लोक लौट जाते हैं.

पूर्वजों के प्रति श्रद्धा से किया जाने वाला कार्य श्राद्ध होता है. श्राद्ध का स्वरुप पुरातन से नवीनतम तक आज भी बना हुआ है. श्राद्ध के विषय में आध्यात्मिक और वैज्ञानिक स्वरुप के ताल मेल को यदि समझा जाए तो हम सभी इसकी विशेषता को जान सकने में बहुत ही आगे रह सकते हैं.

आश्विन अमावस्या के समाप्त होने के साथ ही श्राद्ध कार्य खत्म हो जाते हैं और फिर शुरुआत होती है आश्विन नवरात्रों की. इस नवरात्रि को शारदीय नवरात्रि भी कहा जाता है. इस लिए इस दिन दुर्गा के उपासक और साधना करने वाले इस अमावस्या की रात्रि को विशिष्ट अनुष्ठान कार्य करते हैं.

अश्विन अमावस्या मुहूर्त

अश्विन अमावस्या इस वर्ष 02 अक्टूबर  2024 को मनाई जाएगी. पितृों के पूजन के लिए आश्विन अमावस्या का समय अत्यंत ही महत्वपूर्ण होता है. इस दिन जिन भी पूर्वजों को हम जानते हैं उनकी मृत्यु तिथि हमे पता है, या फिर जिन को नहीं जानते तिथि का भी ज्ञान नहीं है उन सभी के लिए इस दिन श्राद्ध का कार्य किया जा सकता है. इस दिन किए गए श्राद्ध का अनुष्ठान सभी पितरों को प्राप्त होता है. इसलिए इसे सर्व पितृ विसर्जनी अमावस्या या महालय अमावस्या कहा जाता है.

01 अक्टूबर 2024 को 21:40 से अमावस्या आरम्भ.

02 अक्टूबर 2024 को 24:19 पर अमावस्या समाप्त.

श्राद्ध वह कार्य है दर्शाता है की किसी व्यक्ति के प्रति हमारा स्नेह ओर लगाव किस प्रकार रहा है. किसी के साथ के छुट जाने पर भी यदि उसके प्रति प्रेम को प्रकट करना हो, तो शायद यह एक बहुत ही श्रेष्ठ रुप भी हो सकता है. यह एक पवित्र काम है जो मानव जीवन के क्रम और उसकी अनूभित को उसके बाद भी जोड़े रखता है.

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से आश्विन अमावस्या

हिन्दू पंचांग और ग्रंथों में आश्विन अमावस्या को अत्यंत ही महत्वपूर्ण होता है. आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होते हैं ओर अमावस्या तक चलने वाले इस लम्बे धार्मिक अनुष्ठान के कार्य श्राद्ध कहे जाते हैं. इस दौरान सभी व्यक्ति अपने मरे हुए बंधु बांधवों, माता-पिता एवं परिवार के उन सभी लोगों का तर्पण करते हैं, जो किसी कारण से मृत्यु को प्राप्त हुए.

श्राद्ध के विभिन्न रुप

गरुण पुराण एवं भविष्यपुराण में अंतर्गत बारह प्रकार के श्राद्धों के बारे में पता चलता है. यह कुछ इस प्रकार हैं, इसमें से एक नित्य श्राद्ध वो होते हैं जो रोज किए जाने वाले होते हैं इस लिए इन्हें नित्य श्राद्ध कहते हैं. दूसरे नैमित्तिक श्राद्ध जिसे वर्ष में आने वाली तिथि पर किए जाने वाले श्राद्ध कहा जाता है. नैमित्तिक श्राद्ध, में मरे हुए लोगो जिस तिथि पर मरते हैं उस तिथि के समय किया जाता है.

काम्य श्राद्ध,

यह कार्य किसी कामना के लिए किए जाने वाले श्राद्ध को कहा जाता है.

नान्दी श्राद्ध,

जो किसी मांगलिक कार्यों के समय पर किए जाने वाले श्राद्ध को नान्दी श्राद्ध के नाम से जाना जाता है.

पार्वण श्राद्ध,

पितृपक्ष, अमावस्या एवं तिथि आदि पर किए जाने वाले श्राद्ध को पार्वण श्राद्ध कहते हैं.

सपिण्डन श्राध,

त्रिवार्षिक श्राद्ध जिसमें प्रेतपिण्ड का पितृपिण्ड में जोड़ा जाता है.

गोष्ठी श्राद्ध,

पारिवारिक या जातीय समूह में किया जाने वाला श्राद्ध गोष्ठी श्राद्ध कहलाता है.

शुद्धयर्थ श्राद्ध,

यह कार्य शुद्धि के लिए किया जाता है. इसे करने से पापों से मुक्ति होती है मानसिक शारीरिक शुद्ध
प्राप्त होती है.

कर्मांग श्राद्ध,

यह सोलह संस्कारों के निमित्त में जो श्राद्ध किया जाता है उसे कर्मांग श्राद्ध के नाम से जाना जाता है.

दैविक श्राद्ध,

देवताओं के निमित्त से किए जाते हैं. देवों के प्रति श्रद्धा को दर्शाता है.

यात्रार्थ श्राद्ध,

तीर्थ स्थानों में जो श्राद्ध किया जाता है उसे यात्रार्थ श्राद्ध कहते हैं.

पुष्ट्यर्थ श्राद्ध,

स्वयं एवं परिवार के सुख के लिए किए जाते हैं. परिवार में किसी भी प्रकार की बाधा न आ पाए और समृद्धि, उन्नति के मौके जीवन में मिलते रहें. इस दिन ब्राह्मण भोजन और दान करने से से पितृजन संतोष को पाते हैं और जाते समय अपने पुत्र, पौत्रों और परिवार को आशीर्वाद देकर जाते हैं.

सर्वपितृ अमावस्या पर करें इन चीजों का दान

आश्विन अमावस्या के दिन श्राद्ध करने पर तिल दान करना बहुत जरूरी होता है. काले तिलों का दान करने से पितृ शांत होते हैं. श्राद्ध का संपूर्ण कार्य पितरों को मिलता है. संतुष्ट हुए पितर हमारे जीवन को खुशहाल बनाते हैं.

श्राद्ध के कामों में घी और दूध का दान भी बहुत उत्तम माना गया है. मुख्य रुप से गाय के दूध और घी का दान किसी योग्य ब्राह्मण या गरीबों को देने पर तृप्ति होती है पूर्वजों की.

श्राद्ध के दिन पर अनाज का दान करना भी शुभ होता है. इसमें कच्चा अनाज या पका हुआ अनाज जैसा भी हो देना चाहिए. ब्राह्मण और गरीब लोगों को खाना खिलाना भी एक महादान के रुप में जाना जाता है. यह कार्य भी पितरों को तृप्ति प्रदान करने में बहुत सहायक बनता है.
श्राद्ध के दिनों में वस्त्र यानी की कपड़ों का दान करने का भी विधान होता है. मान्यता है की पूर्वजों के निमित्त वस्त्र दान करने पर पितरों को संतोष मिलता है.

श्राद्ध समय फलों का दान भी उपयुक्त होता है. फलों को 16 दिनों तक मौसम के अनुरुप पितरों के लिए दान करना चाहिए . अगर हर दिन ये काम न हो सके तो अमावस्या अथवा जिस दिन पूर्वज की तिथि है उस दिन फलों का दान करना चाहिए.

आश्विन अमावस्या के दिन करें ये काम

आश्विन अमावस्या के दिन प्रात:काल समय किसी नदी, जलाशय या कुंड में स्नान करना चाहिए. यदि संभव न हो तो सामान्य रुप से घर पर ही स्नान करना चाहिए इसके बाद पितरों को अर्घ्य देना चाहिए.

आश्विन अमावस्या के दिन पितरों का पूजन करना चाहिए. इस पूजन को किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा कराना चाहिए. अगर ये संभव न हो सके तो स्वयं ही पूजन करना चाहिए.

आश्विन अमावस्या के दिन उन पितृों का भी श्राद्ध किया जा सकता है, जिनकी तिथि याद न हो तो. इसलिए इसे सर्वपितृ श्राद्ध कहा जाता है.

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ज्ञान पंचमी 2024 : क्यों मनाई जाती है ज्ञान पंचमी

जैन धर्म से संबंधित ज्ञान पंचमी सभी के लिए एक अत्यंत ही पूजनीय और महत्वपूर्ण दिवस है. कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ज्ञान पंचमी’ का पर्व मनाया जाता है”. मान्यताओं के अनुसर इसी शुभ समय पर भगवान महावीर के दर्शन को पहली बार लिखित ग्रंथ के रूप में सामने लाया गया था. अभी तक ज्ञान श्रुति परंपरा से आगे बढ़ रहा था. जिसमें भगवान महावीर केवल उपदेश देते थे और उनके प्रमुख शिष्य उन्हें सुनते और आत्मसात करते थे. वह इस ज्ञान को आगे लोगों तक पहुंचाते और सभी को समझाते थे.

भगवान महावीर की वाणी को इससे पूर्व लिखने की परंपरा सामने नहीं थी. उसे सुनकर ही स्मरण किया जाता था इसीलिए उसका नाम ‘श्रुत’ था. ज्ञान पंचमी जिसे श्रुत पंचमी भी कहा जाता है. यह दिन जैन शास्त्र की पूजा की जाती है और शास्त्रों का अध्य्यन एवं स्मरण होता है. पहले जैन ज्ञान मोखिक रूप में आचार्य परम्परा से चल आता था.

ज्ञान पंचमी कथा

ज्ञान पंचमी का पर्व दीपावली के पांचवें दिन मनाई जाती है. ज्ञान पंचमी के दिन ज्ञान का विस्तार होता है. ज्ञान कर्म का बंधन होता है. ज्ञान से ही हम अपने कर्मों को शुद्ध कर सकते हैं. ज्ञान की महिमा को समझना और उसके प्रति खुद को सजग बनाना ही ज्ञान पंचमी है. ज्ञान पंचमी के संदर्भ में बहुत सी कथाएं सुनने को मिलती हैं.

एक कथा इस प्रकार है – अजितसेन नामक एक राजा हुआ करता था, जिसके वरदत्त नामक एक पुत्र था. वरदत्त बुद्धिमान नही था उसके ज्ञान का विकास न हो पाने के कारण राज बहुत निराश रहता था. राजा ने अपने पुत्र के लिए अनेकों योग्य शिक्षक नियुक्त किए. परंतु वह सभी शिक्षक राजा के पुत्र के ज्ञान को विकसित नहीं कर पाए. राजा अपनी पुत्र की दशा से दुख में डूबा रहने लगा. राज्य का उत्तराधिकारी यदि योग्य न हो तो वह राज्य का भविष्य किस प्रकार सुरक्षित रह सकता है. केवल इसी बात की चिंता में राजा सदैव ही रहता था.

राजा अजितसेन ने एक घोषणा करता है कि जो भी व्यक्ति उसे मुर्ख पुत्र को एक योग्य ज्ञानवान व्यक्ति बना सके वह उसे ईनाम देगा. जीवन पर्यंत उस व्यक्ति को राज्य में सुरक्षित स्थान प्राप्त होगा. राजा को फिर भी कोई योग्य व्यक्ति नहीं मिल पाता है. शिक्षा तो थी ही नहीं दूसरी ओर पुत्र का स्वास्थ्य भी खराब होने लगा. वरदत्त को कोढ़ का रोग हो जाता है. वरदत्त को कोढ़ होने पर सभी उससे दूर होने लगते हैं. अपने पुत्र की यह दशा देख कर राजा चिंता से भर गया. अपने पुत्र के विवाह की चिंता भी राजा को सताने लगी. वह अपने पुत्र के विवाह के लिए कन्या की तलाश करने लगा. तभी उसे एक सेठ की कन्या के बारे में पता चलता है जिसे कोढ़ हो रखा होता है. वह कन्या बोल भी नहीं पाती थी.

एक बार राजा के राज्य में एक बहुत ही प्रसिद्ध धर्माचार्य आते हैं और उनके प्रवचनों से सभी मुग्ध हो जाते थे. उस धर्मात्मा के प्रवचन सुनने और अपने प्रश्नों की जिज्ञासा को शांत करने राजा और सेठ उसके पास पहुंचते हैं. उस स्थान पर कन्या का पिता अपनी बेटी के बारे में पूछता है. आचार्य महाराज सेठ को बताते हैं की यह उस कन्या के पूर्व जन्मों का फल है जिसे वह भोग रहे हैं.

पूर्व जन्म में जिनदेव नामक धनी सेठ था. उसकी पत्नी की पत्नी सुंदरी थी. वह दोनों अपने बच्चों के साथ रहा करते थे. किंतु धन के गर्व में रहने के कारण उस सुंदरी के लिए शिक्षा का कोई भी मूल्य नहीं था. अगर उसके बच्चों को शिक्षक सजा देते थे तो वह उन्हें बुरा भला कहती थी. इस बात पर उसकी अपने पति से भी लड़ाई होती थी. आपकी पुत्री वही सुंदरी है और ज्ञान के प्रति तिरस्कार अपमान के कारण ही वह गूंगी जन्मी है.

राजा अजितसेन ने भी अपने पुत्र वरदत्त के बारे में जानना चाहा की आखिर उसके पुत्र के साथ ऎसा क्यों हुआ. आचार्य राजा को कहते हैं कि उसके पुत्र ने भी ज्ञान का तिरस्कार किया था. वह कहते हैं कि वसु नाम का सेठ था उसके दो पुत्र थे वसुसार और वसुदेव. एक बार बच्चों को महान संतमुनि के दर्शन होते हैं और उनकी कृपा से वह शिक्षा पाते हैं. शुद्ध चारित्र से वसुदेव ने गुरु की बहुत सेवा की तो गुरु की मृत्यु के बाद उसे आचार्य का पद मिल जाता है. वहीं दूसरे भाई वसुसार लालच में पड़ जाता है. बिना कोई परिश्रम के ही सुखों का भोग करता है. दूसरी और मानसिक और शारीरिक मेहनत करते करते बहुत थक जाया करता था. वह जब अपने भाई को देखता था कि उसके भाई को बिना मेहनत के ही सुख मिल रहा है तो वह दुखी हो जाता था.

एक बार वसुदेव अपने काम से थक कर चूर हो जाता है और सोचता है कि वह अब इस काम को नहीं करेगा ओर किसी को भी ज्ञान नहीं बांटेगा. इस प्रकार थक कर उसने बोलना बंद कर दिया. उसने ज्ञान की आराधना बंद कर दी. इसी कारण वह इस जन्म में मूर्ख बन कर जन्मा. इसलिए दोनों बच्चों को यह कष्ट अब इस जन्म में प्राप्त हो रहा है.

इस लिए ज्ञान की पूजा सदैव करनी चाहिए. कार्तिक शुक्ला पंचमी का दिन ज्ञान के महत्व को दर्शाने वाला है. इस दिन विधिवत आराधना करने से और ज्ञान की भक्ति करने से सभी मानसिक दोष समाप्त होते हैं. जीवन में शुभता आती है.

ज्ञान पंचमी महत्व

जैन समाज में इस दिन को विशेष महत्वपूर्ण भी बताया गया है. इसी दिन पहली बार जैन धर्मग्रंथ लिखा गया था. भगवान महावीर के ज्ञान को अनेक आचार्यों ने संजोया जिसे एक ग्रंथ रचकर ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को प्रस्तुत किया था. धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत एवं भूतबलि की सहायता से षटखंडागम नामक शास्त्र की रचना की, इसमें जैन धर्म से जुड़े ज्ञान की जानकारियां प्राप्त होती हैं. इस दिन से श्रुत परंपरा को लिपिबद्ध परंपरा में प्रस्तुत किया गया है. इस शुभ दिन को श्रुत पंचमी के नाम से मनाया जाता है.

इस पर्व के दिन जैन धर्मावलंबी प्राचीन मूल शास्त्रों के प्रति अपना स्नेह और सम्मान प्रकट करते हैं. ग्रंथों की पूजा उपासना करते हैं. इसके साथ ही इस दिन शोभायात्राएं भी निकाली जाती हैं. ज्ञान सभी के लिए अमूल्य है. यह ऎसी निधि है जो बांटने पर विस्तार को पाती. जीवन के पथ को सदैव ही प्रकाशित करती है.

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महानवमी पर करें शक्ति पूजन

माँ दुर्गा की पूजा में प्रत्येक दिन का अपना विशेष महत्व होता है. इसमें अत्यंत ही महत्वपूर्ण समय नवरात्रि का होता है. नव रात्रि अर्थात देवी पूजा के वो नौ दिन, जब हर एक दिन एक अलग रुप में होता है. साधक के लिए यह सभी नौ दिन उसकी उपासना और साधना को हर पल एक नए आयाम देते जाते हैं. दुर्गा पूजा में नवीं रात्रि के दिन माता के सिद्धि दात्री रुप का पूजन होता है. यह माता की नवीं शक्ति के रुप में संसार का कल्याण करती है. शक्ति को अंतिम चरण में पहुंचाने का भी करती है.

मां दुर्गा जी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं. अपने नाम के अनुरुप देवी सिद्धियों को देने वाली है. दुर्गा पूजा के नौवें दिन की पूजा में विधि-विधान और पूर्ण शुचिता के साथ साधना करनी होती है. तभी भक्त को देवी के आशीर्वाद स्वरुप सिद्धियों की प्राप्ति हो सकती है. माता सिद्धिदात्री के उपासक के लिए कुछ भी अधुरा नही रहता है. साधक को ब्रह्मांड के अनसुलझे रहस्यों का ज्ञान हो पाता है. संकटों और रुकावटों से विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य उसमें आ जाती है.

मार्कण्डेय पुराण के अनुसार आठ सिद्धियों के बारे में बताया गया है. इन सिद्धियों में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व नाम की सिद्धियां को बताया गया है. इसके अलावा कुछ अन्य जगह पर जैसे की ब्रह्मवैवर्तपुराण में इन सिद्धियों की संख्या और अधिक भी बताई गई हैं.

सिद्धिदात्री मंत्र

माता सिद्धिदात्री के पजन में मंत्र का होना अत्यंत ही उपयोगी होता है. माता के मंत्र का प्रभाव साधक को उस शक्ति के ओर समीप ले जाता है जिसकी तलाश उसे इन नौ दिनों में होती है. माता की पूजा में मंत्र का जाप जितना संभव हो सके करना चाहिए. सिद्धिदात्री मंत्र इस प्रकार है :-

या देवी सर्वभू‍तेषु मां सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

सिद्धिदात्री कथा

मां सिद्धिदात्री का आगमन होने पर भक्त को चारों ओर से शुभता और सुख प्राप्त होता है. माँ की भक्ति साधक को सभी सिद्धियां देती है. अगर हम देवी पुराण के अनुसार समझें तो भगवान शिव ने भी देवी की कृपा से ही इन सभी सिद्धियों को पाया था. मां की शक्ति ही भगवान शिव के भीतर अर्द्धनारीश्वर के रुप में विध्यमान है. ऎसे में जो माता सिद्धिदात्री को प्रसन्न करता है वह प्रकृति के सभी रहस्यों को जान सकता है.

मां सिद्धिदात्री का रुप कैसा है

मां सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली सिंह पर सवार दुष्टों का संहार करती हैं. भक्तों को अभय का वरदान देती हैं. माता को कमल पुष्प अत्यंत प्रिय होते हैं. माँ इन्हीं कमल पर बैठी होती हैं. देवी के हाथों में कमलपुष्प होते हैं. अगर देवी कि पूजा में कमल के फूलों द्वारा अनुष्ठान किया जाए और निरंतर पुष्पों से पूजन हो तो मां सिद्धिदात्री की कृपा प्राप्त होती है. माँ सिद्धिदात्री का स्वरूप सौम्य है, माँ की चार भुजाएं हैं, जिन में माता ने चक्र, गदा, शंख और कमल पुष्प धारण किए हुए हैं. प्रसन्न होने पर माँ सिद्धिदात्री सम्पूर्ण जगत की रिद्धि सिद्धि अपने भक्तों को प्रदान करती हैं.
देवी सिद्धिदात्री की कृपा से दुख दूर होते हैं. व्यक्ति समस्त सारे सुखों को भोगने का सुख भी पाता है. सिद्धिदात्री मां की पूजा और मंत्र जाप से कामनाएं पूर्ण हो जाती है.

मां के आशीर्वाद को पाने के लिए निरंतर नियम और निष्ठ से उपासना करनी चाहिए. देवी सिद्धिदात्री का स्मरण, ध्यान, पूजन द्वारा परम शांति प्राप्त होती है. भक्त को चाहिए की वह अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुरुप जप, तप, पूजा-अर्चना करनी चाहिए. मन की शुद्ध एवं सात्विक भावना ही सिद्धि प्राप्त कराने में सहायक होती है.

महानवमी पूजन कैसे करें?

नवमी के दिन मां सिद्धिदात्री की पूजा में शुद्धि का अत्यंत ध्यान रखने की जरुरत होती है. इनकी पूजा और मंत्र के जाप से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है. नवमी के दिन पूजा का आरंभ प्रात:काल में स्नान आदि से निवृत्त होने के बाद करना चाहिए. साफ स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. मां सिद्धिदात्री की पूजा में कमल, गुलाब पुष्प, अक्षत्, सिंदूर, धूप-दीप, सुगंध, फल एवं मेवे इत्यादि रखने चाहिए.

माता को भोग भिन्न-भिन्न प्रकार के मिष्ठान समर्पित करने चाहिए. तिल का उपयोग भी माता के पूजन में किया जाता है. माता को तिल से बने लड्डू भोग स्वरुप अर्पित करने चाहिए. माता की पूजा में हवन कार्य भी करना चाहिए और 108 देवी मंत्र के जाप द्वारा हवन में आहुति देनी चाहिए.

सिद्धियों की प्राप्ति के लिए करें सिद्धिदात्री पूजन

सिद्धियों से अर्थ ऎसी साधना से है जो आध्यात्मिक स्तर में उच्च स्थिति को दर्शाती है. आत्मिक शक्तियों का भंडार होती है. यह सिद्धियां देवी के पूजन एवं अथक संघर्ष से भरी साधना द्वारा ही संभव हो पाती है. शास्त्रों में अनेक प्रकार की सिद्धियां वर्णित हैं जिन मे आठ सिद्धियां अधिक प्रसिद्ध हैं यह आठ सिद्धियां इस प्रकार हैं :-

अणिमा सिद्धि

अणिमा में शरीर को आकार में एकदम छोटा बनाया जा सकता है. वस्तु को एक अणु के जितना छोटा कर लेने की क्षमता इस सिद्धि में होती है इसलिए यह अणिमा कहलाती है.

महिमा सिद्धि –

देह अर्थात शरीर का बहुत बड़े आकार का बना लेना महिमा नाम की शक्ति से संभव हो पाता है. वस्तु का अत्यंत विशाल रुप में होना महिमा है.

गरिमा सिद्धि –

देह को अत्यन्त भारी-भरकम बना लेना ही गरिमा सिद्धि कहलाता है.

लघिमा –

लघिमा सिद्धि में शरीर इतना हल्का हो जाता है की उसमें कुछ भी भार का अनुभव नहीं होता है.

प्राप्ति सिद्धि –

इस सिद्ध में व्यक्ति के पास ऎसी शक्ति होती है कि वह किसी भी प्रकार की रुकावट के बिना कहीं भी जा सकता है.

प्राकाम्य सिद्धि –

इस सिद्धि की शक्ति से व्यक्ति की कोई भी इच्छा पूरी हो सकती है. जिस भी वस्तु की उसे चाहत हो वह उसे प्राप्त हो जाती है. प्राकाम्य सिद्धि से किसी व्यक्ति को अपने अनुसार नियंत्रित कर लेने कि क्षमता भी होती है.

इश्त्व सिद्धि –

यह सिद्धि ऎसी होती है जिसमें व्यक्ति किसी भी वस्तु को अपने नियंत्रण में कर सकता है.

वशित्व सिद्धि –

वशित्व सिद्धि से किसी भी व्यक्ति को अपना बनाकर रख सकने की क्षमता होती है. जिसे चाहे वश में किया जा सक्ता है और अपने अनुसार उससे काम करवा सकते हैं.

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सावन शिवरात्रि 2024 : जाने कब करें शिवरात्रि पर जलाभिषेक

सावन शिवरात्रि का पर्व भगवान शिव के साथ जुड़ा है. सावन शिवरात्रि का दिन अत्यंत ही शुभ और मनोकामनाओं की पूर्ति वाला होता है. शिवरात्रि को कई तरह से मनाया जाता है.

इस वर्ष 02 अगस्त 2024 को सावन/श्रावण शिवरात्रि का पर्व मनाया जाएगा. शिवरात्रि के पर्व समय यदि शुद्ध सच्चे मन से मात्र शिवलिंग पर जल चढ़ाने से ही भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न होते है. भक्तों के दुख दूर कर देते हैं, भक्त को शिव लोक में स्थान प्राप्त होता है. शिवरात्रि का दिन भगवान आदिदेव शिव को प्रसन्न करने का सबसे महत्वपूर्ण अवसर होता है. 

श्रावण शिवरात्रि जलाभिषेक समय

आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर संपूर्ण सावन मास के दौरान शिवलिंग पर गंगाजल से अभिषेक करने की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. पूरे सावन मास के दौरान शिवलिंग पर श्रद्धालुओं द्वारा जलाभिषेक किया जाता है. इस समय के दौरान कांवण यात्रा का भी आरंभ होता है. कांवण यात्रा में गंगा जल को लाकर भगवान शिव का अभिषेक करने से सभी कष्ट और रोगों का नाश होता है.

इस समय के दौरान शिव मंदिरों, ज्योर्तिलिंगों व समस्त शिव स्थानों पर अनुष्ठा और पूजा होती है. धर्म स्थलों पर मौजूद शिवलिंग पर श्रद्धा भाव से शिव भक्त गंगाजल से जलाभिषेक करते हैं. जलाभिषेक के शुभ मुहूर्त इस प्रकार रहेंगे जिसमें शिवलिंग पर गंगाजल से अभिषेक किया जा सकता है. प्रात:काल से दोपहर तक का समय जलाभिषेक के लिए अनुकूल एवं शुभ रहेगा. इस दिन आर्द्रा नक्षत्र व मिथुन लग्न समय शिव पूजा के लिए शुभ कहा गया है. इसके अतिरिक्त प्रदोष काल समय संपूर्ण रात्रि के समय भी जलाभिषेक के लिए उत्तम रहेगा.

  • प्रात: 05:40 से 08:25 तक
  • शाम 19:28 से 21:30 तक
  • शाम 21:30 से 23:33 तक (निशीथकाल समय)
  • रात्रि 23:33 से 24:10 तक (महानिशिथकाल समय)

शिवरात्रि कथा

शिव पुराण के अनुसार, चित्रभानु नामक शिकारी हुआ करता था वह शिकार करके अपना गुजर बसर करता था. एक बार वह शिकार खोजने के लिए जंगल की ओर चल पड़ता है. शिकार ढूंढते-ढूंढते उसे रात हो जाती है, लेकिन शिकार नहीं मिल पाता है. वह एक बेल के वृक्ष पर चढ़ जाता है. वह भूख प्यासा उस रात के समाप्त होने की प्रतीक्षा करता है. शिकारी जिस वृक्ष पर था उस वृक्ष के नीचे ही शिवलिंग स्थापित था. शिकारी अनजाने में वृक्ष के पत्तों को तोड़ रहा था और वह पत्ते शिवलिंग पर गिर रहे होते हैं. पूरी रात इसी मे निकल जाती है. संयोगवश उस दिन शिवरात्रि का दिन होता है और शिकारी वह भूखा प्यासा रहा, जिससे उसका व्रत हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र गिरने से उसकी शिव पूजा भी हो जाती है. अनजाने में शिवरात्रि का व्रत करने से शिकारी ​चित्रभानु को मोक्ष प्राप्त होता है.

श्रावण शिवरात्रि पूजन

  • सुबह के समय जल्दी उठ कर अपने स्नान के जल में दो बूंद गंगाजल डालकर स्नान करें.
  • स्नान के पश्चात साफ-स्वच्छ वस्त्र पहनने चाहिए.
  • पूजा की थाली में रोली मोली चावल धूप दीप सफेद चंदन सफेद जनेऊ कलावा रखना चाहिए.
  • पीला फल, सफेद मिष्ठान्न गंगा जल तथा पंचामृत आदि रखना चाहिए.
  • विधि विधान से शिव भगवान की पूजा-अर्चना करनी चाहिए.
  • गाय के घी का दीपक जलाना चाहिए.
  • आसन पर बैठकर शिव मंत्रों का जाप करना चाहिए.
  • शिव चालीसा का पाठ करें और शिवाष्टक के पाठ को भी पढ़ना चाहिए.

शिवरात्रि के अन्य रुप

कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को शिवरात्रि व्रत रखने का विधान रहा है. चतुर्दशी तिथि शिवरात्रि के रुप में मनाई जाती है. पौराणिक कथा अनुसार महा शिवरात्रि के दिन मध्य रात्रि में भगवान शिव लिङ्ग के रूप में प्रकट हुए थे. वहीं अन्य कथा अनुसार इस दिन भगवान शिव का पार्वती जी के साथ विवाह संपन्न होता है. ऎसे में शिवरात्रि के संदर्भ में अनेकों कथाओं का पौराणिक आधार प्राप्त होता है जो इस दिन की शुभता एवं पवित्रता को दर्शाता है.

मासिक शिवरात्रि –

हिन्दु पंचांग अनुसार हर माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को शिवरात्रि पर्व में मनाते हैं. ऎसे में इस शिवरात्रि को “मासिक शिवरात्रि”के रुप में जाना जाता है और मनाया भी जाता है.

महाशिवरात्रि –

फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की तिथि के दिन महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है. अमान्त अनुसार माघ माह की मासिक शिवरात्रि को महा शिवरात्रि कहते हैं और पूर्णिमान्त अनुसार फाल्गुन मास की मासिक शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहा जाता है. यह अंतर केवल चन्द्र मास के अनुसार अलग-अलग मतों द्वारा निर्धारित होता है.

मान्यता है की शिवरात्रि के दिन प्रथम दिवस पर श्री विष्णु जी और ब्रह्मा जी द्वारा शिवलिंग का पूजन किया गया था. इस दिन को शिवलिंग के उदभव से जोड़ा जाता है. शैव संप्रदाय के मानने वालों के लिए यह दिन एक अत्यंत ही महापर्व का रुप होता है . इसमें भगवान शिव एवं शिवलिंग का पूजन होता है.

शिवरात्रि उपाय

  • श्रावण शिवरात्रि के दिन शिव चालीसा का पाठ करने से नौकरी व्यापार की समस्या खत्म होती है.
  • शिव पुराण के 5 अध्याय का पाठ करना चाहिये. शिवपुराण पाठ को पढ़ने से रोग और दोषों का नाश होता है.
  • सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और साफ कपड़े पहने. अपना मुंह पूर्व दिशा में रखें और साफ आसन पर बैठे हैं. शिव पूजा में धूप दीप सफेद चंदन माला और सफेद आक के 5 फूल का उपयोग करते हुए शिव मंत्रों का 11 माला जाप करने से विरोधियों का नाश होता है.

सावन/श्रावण शिवरात्रि महत्व

सावन मास में आने वाली शिवरात्रि को श्रावण शिवरात्रि के रुप में मनाया जाता है. इस दिन महाशिवरात्रि पर्व में शिवलिंग का गंगाजल से अभिषेक किया जाता है. सावन माह में शिवरात्रि के दिन कावंडिए भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं. प्रत्येक बारह शिवरात्रि में से फाल्गुन और सावन माह की शिवरात्रि अत्यंत ही व्यापक रुप से मनाई जाती है और इन दोनों को महाशिवारात्रि के रुप में भी पुकारा जाता है. मान्यता है की सावन शिवरात्रि का व्रत करने से शांति, सुरक्षा, सौभाग्य की प्राप्ति होती है. रोग दूर होते हैं, आरोग्य की प्राप्ति होती है.

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गायत्री जयंती 2024:जाने कैसे हुई गायत्री की उत्पत्ति

गायत्री माता को हिन्दू भारतीय संस्कृति में अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. जीव और जगत के मध्य जो संबंध है वह माँ गायत्री के द्वारा ही संभव हो पाता है. गायत्री को ही चारों वेदों की उत्पति का आधार भी माना गया है. गीता में भगवान श्री कृष्ण स्वयं गायत्री की महिमा का वर्णन करते हैं.

गायत्री जयंती कब मनाई जाती है – भिन्न भिन्न मत

गायत्री जयंती की तिथि के लिए कुछ मत प्रचलित है. कुछ के अनुसार गायत्री जयंती को ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन मनाने की बात कही है, इसी समय गंगा दशहरा भी मनाया जाता है. ऎसे में गंगा दशहरा के समय पर मनाए जाने का विचार रहा है. वहीं अन्य मत अनुसार गायत्री जयंती ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन मनाए जाने की बात भी कही गई है. इसके अतिरिक्त श्रावण मास की पूर्णिमा को भी गायत्री जयंती के उत्सव को मनाने की मान्यता रही है.

गायत्री जयंती शुभ मुहूर्त – पूजा समय

इस वर्ष गायत्री जयंती 18 जून 2024 को मंगलवार के दिन मनाई जाएगी.

  • एकादशी तिथि प्रारम्भ – 17 जून, 2024 को 28:44
  • एकादशी तिथि समाप्त – 18 जून, 2024 को 06:25

  • गायत्री जयंती कथा

    गायत्री जयंती के बारे में पौराणिक कथाओं से अनेक विचार प्राप्त होते हैं जिनमें वेदों का सार गायत्री को ही बताया गया है. ब्रह्मा जी द्वारा गायत्री के उत्पत्ति की बात कही गई है. सृष्टि में ज्ञान व चैतन्य शक्ति गायत्री का स्वरुप है. सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने गायत्री को उत्पन्न किया था और जिसे गायत्री नाम से पुकारा गया.

    ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना से पहले 24 अक्षर वाले गायत्री मन्त्र की रचना की थी. इस एक गायत्री मंत्र का प्रत्येक अक्षर अपने आप में संपूर्ण ज्ञान को समाहित किए होता है. इसमें सभी सूक्ष्म तत्त्व समाहित हैं. इसके पश्चात ब्रह्मा एवं गायत्री के संयुक्त प्रभाव के बाद जो पनपा वह वेद था.

    गायत्री का वेदों से संबंध

    माँ गायत्री को वेदों की उत्पति का रुप माना गया है. इसलिये वेदों का सार भी गायत्री मंत्र को ही बताया गया है यानी की जो भी कुछ वेदों में दिया गया है उस का संपूर्ण विचार गायत्री से ही उत्पन्न हुए हैं. चारों वेदों का ज्ञान लेने के बाद जिस पुण्य की प्राप्ति होती है उसी की प्राप्ति सिर्फ गायत्री मंत्र के उच्चारण द्वारा संभव हो पाता है. चारों वेदों की माता गायत्री को कहा गया है, इसलिए गायत्री वेदमाता भी कही जाती हैं.

    गायत्री संबंधी कथाएं

    गायत्री कथा में हमें अनेकों अन्य कथाओं का आधार भी मिलता है. माना जाता है कि विश्वामित्र ने कठोर साधना कर मां गायत्री देवी को सभी के लिए सक्षम बनाया और उसे सभी तक पहुंचाया.

    गायत्री का विवाह कथा

    गायत्री से संबंधित एक कथा बहुत प्रचलित है. कहा जाता है कि एक बार ब्रह्मा जी एक यज्ञ का आयोजन करना चाहते थे. जिसके द्वारा सृष्टि का कल्याण संभव हो पाए. इसके लिए वह यज्ञ का आयोजन करते हैं. उस समय जब इस यज्ञ का आरंभ होना होता है तब ब्रह्मा जी की पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी. ऎसे में शुभ मुहूर्त समय निकल रहा होता है. देवी सावित्री का इंतजार करते-करते जब देर होने लगी तब उस समय ब्रह्माजी ने गायत्री का आहवान किया और उसे अपने समक्ष यज्ञ में स्थान दे दिया. लेकिन जब सावित्री वहां पहुंची तो उन्होंने बगल में गायत्री को बैठा देखा जो स्थान पत्नी का होता है, उस स्थान पर गायत्री बैठी हुई थीं. ऎसे में इस कथा अनुसार ब्रह्मा जी के साथ उनके विवाह की बात भी पौराणिक कथाओं में प्राप्त होती है.

    गायत्री उपासना लाभ

    गायत्री को दैवी शक्ति माना गया है. गायत्री की उपासना व्यक्ति के चहुमुखी विकास के लिए अत्यंत आवश्यक मानी गई है. गायत्री उपासना द्वारा जीवन में आने वाले सभी संकटों का नाश होता है और सत्य का बोध होता है.

    गायत्री उपासना को हिंदू धर्म शास्त्र में एक अत्यंत ही चमत्कारिक गुणों से भरपूर सिद्धि देने वाला माना गया है. सृष्टि में मौजूद जो भी शक्तियों स्थापित है उन सभी में गायत्री का स्थान अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण माना गया है. गायत्री की उपासना द्वारा वाक सिद्धि प्राप्त होती है. इसके साथ ही सद्बुद्धि की प्राप्ति होती है.

    त्रिपाद गायत्री महिमा

    आत्मिक, मानसिक और सांसारिक तीनों प्रकार के गुणों का आधार गायत्री को माना गया है. इन्हीं से मिलने वाले सुख-साधन की शक्ति गायत्री ही हैं. सत, रज, तम में बंटे हुए गुणों का आधार गायत्री हैं. इन तीनों पर विजय प्राप्त करने के लिए गायत्री की उपासना पर बल दिया जाता है. यह तीनों ही वर्ग गायत्री की आद्यशक्ति के एक- एक चरण में आते हैं. इस लिए गायत्री को ‘त्रिपदा’ भी कहा जाता है. यह तीन चरण पार कर लेने पर ही साधक का कल्याण संभव हो पाता है.

    गायत्री मंत्र शक्ति एवं लाभ

    “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् ।

    भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ||”

    गायत्री मंत्र का प्रभाव अत्यंत ही सूक्षम रुप में पड़ता हैं और इस मंत्र के जाप द्वारा सभी प्रकार के कलेशों दुखों का नाश भी होता है. गायत्री मंत्र में मौजूद अक्षर वो शक्ति हैं जो मंत्र के उच्चारण द्वारा भक्त के भीतर जागृत होती हैं.

    इस मंत्र के द्वारा जीवन में सफलता और सिद्धियों की प्राप्ति होती है. गायत्री मंत्र की साधना एक वैज्ञानिक सत्यता भी है. गायत्री परब्रह्म क्रिया भाग है. गायत्री उपासना ईश्वर उपासना का एक सरल और जल्द फल होने वाला मार्ग है. इस मार्ग पर चलने पर साधक का जीवन सफल होता है.

    श्रीमद्भगवद् गीता में गायत्री के संदर्भ में जो लिखा गया है वह इस प्रकार है – “छन्दों में मैं गायत्री हूं”हिन्दू धर्म में अनेक प्रचलित मतों के आधार द्वारा गायत्री की महिमा का बखान प्राप्त होता है. कुछ मतों में एक म्म्त्र को लेकर कई मतभेद दिखाई दे सकते हैं लेकिन जब गायत्री की बात आती है तो उस के लिए सभी सम्प्रदायों ने, सभी ऋषियों ने एक मत को ही स्वीकार किया है.

    गीता, अथर्ववेद में गायत्री की स्तुति की गयी है, जिसमें उसे आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है. विश्वामित्र द्वारा गायत्री के विषय में यह कथन प्राप्त होता है जिसमें वह कहते हैं कि ‘गायत्री के समान चारों वेदों में मन्त्र नहीं है” वहीं आदि मनु का कथन है- ‘ब्रह्मजी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मन्त्र दिया अत: गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई अन्य मन्त्र नहीं है.

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    कोजागर व्रत 2024 : कोजागरी पूर्णिमा व्रत बना देगा मालामाल

    आश्विन मास के शुक्‍ल पक्ष की पूर्णिमा को कोजागर व्रत किया जाता है. कोजागर व्रत माँ लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए होता है. इस दिन मुख्य रुप से लक्ष्मी पूजन करते हैं. लक्ष्मी मां के आशीर्वाद से जीवन में किसी भी प्रकार की आर्थिक तंगी नही आती है.

    कोजागर व्रत को कोजागर पूर्णिमा व्रत या कोजागिरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. मान्‍यता अनुसार ये समय देवी लक्ष्मी के आगमन का समय होता है. इस कोजागर व्रत की रात्री में देवी लक्ष्‍मी पृथ्वी लोक पर विचरण करती हैं. जो भी इस दिन पूजन एवं रात्री जागरण करता है उसे वैभवशाली जीवन का वरदान मिलता है. कोजागर व्रत को करने से दरिद्रता दूर होती है और घर में धन की वर्षा होती है.

    कोजागिरी व्रत पूजा मुहूर्त समय

    कोजागर व्रत 17 अक्टूबर 2024 को शनिवार वार के दिन मनाया जाएगा.

  • निशिता काल समय 23:44 से 24:33 तक
  • पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ – 16 अक्टूबर, 2024 को 20:41
  • पूर्णिमा तिथि समाप्त – 17 अक्टूबर, 2024 को 16:56
  • कोजागर व्रत पूजन विधि

    • कोजागिरी व्रत वाले दिन प्रात:काल सूर्योदय से पहले उठ कर स्नान कर लेना चाहिए. स्‍नान करने के बाद साफ स्‍वच्‍छ वस्‍त्र पहनने चाहिए. दिन भर व्रत का संकल्‍प लेन चाहिए.
    • मंदिर या पूजा स्‍थान पर लक्ष्‍मी जी की प्रतिमा को स्थापित करना चाहिए. माता पर लाल रंग का वस्त्र अर्पित करना चाहिए.
    • देवी लक्ष्मी के मंत्र बोलते हुए घी का दीपक जलाना चाहिए.
    • माता लक्ष्मी पर फूल-माला अर्पित करने चाहिए करें.
    • मां लक्ष्मी को पंचामृत अर्पित करना चाहिए.
    • मां को पुष्‍प, ऋतुफल और नैवेद्य अर्पित करें उनकी आरती करनी चाहिए.
    • संध्या उपासना में भी इसी क्रम से पूजा करनी चाहिए.
    • माता को इस दिन मुख्य रुप से दूध से बनी खीर का भोग अवश्य लगाना चाहिए.
    • रात्रि में चंद्रमा के उदय होने पर घी 11 दीपक जलाने चाहिए.
    • चंद्रमा को कच्चे दूध और जल के मिश्रण से अर्घ्य देना चाहिए.
    • देवी लक्ष्‍मी की आरती करनी चाहिए. लक्ष्मी का श्रीसुक्त व लक्ष्मी स्तोत्र द्वारा लक्ष्मी को प्रसन्न करते हैं.
    • देवी लक्ष्मी को प्रसाद चढ़ाना चाहिए और प्रसाद को सभी लोगों में बांटना चाहिए.
    • पूर्णिमा के दिन रात्रि जागरण करना चाहिए.

    कोजागर व्रत कथा

    कोजागर व्रत करने के साथ-साथ इस दिन व्रत की कथा भी सुननी चाहिए. व्रत की कथा पढ़ने और सुनने से शुभ फल की प्राप्ति होती है. व्रत बिना विध्न और बाधा के पूरा होता है. कोजागर व्रत कथा इस प्रकार है :-

    प्राचीन समय की बात है मगध नामक एक राज्य हुआ करता था. उस राज्य में एक बहुत ही परोपकारी और श्रेष्ठ गुणों से युक्त ब्राह्मण रहा करता था. वह संपूर्ण गुणों से युक्त था किंतु गरीब था. वह ब्राह्मण जितना धार्मिक और परोपकारी था उसकी स्त्री उतनी उसके विपरित आचारण वाली थी. स्त्री उसकी कोई बात नही मानती थी और दुष्ट कार्यों को किया करती थी.

    ब्राह्मण की पत्नी गरीबी के चलते ब्राह्मण को बहुत अपशब्द कहा करती थी. वह अपने पति को दूसरों के सामने सदैव ही बुरा भला कहा करती थी उसे चोरी करने या गलत काम करने के लिए कहती थी. अपनी पत्नी के तानों से तंग आकर ब्राह्मण दुखी मन से जंगल की ओर चला जाता है.

    उस स्थान पर उसकी भेंट नाग कन्याओं से होती है. नागकन्याओं ने ब्राह्मण का दुख पूछा और उसे आश्विन मास की पूर्णिमा को व्रत करने और रत में जागरण करने को कहा. लक्ष्मी को प्रसन्न करने वाला कोजागर व्रत बताने के बाद वह कन्याएं वहां से चली जाती हैं.

    ब्राह्मण घर लौट जाता है और आश्विन मास की कोजागर पूर्णिमा के दिन विधि-विधान के साथ देवी लक्ष्मी का पूजन करता है और रात्री जागरण भी करता है. व्रत के प्रभाव से ब्राह्मण के पास धन-सम्पत्ति आ जाती है और उसकी पत्नी की बुद्धि भी निर्मल हो जाती है. देवी लक्ष्मी के प्रभाव से वह दोनो सुख पूर्वक अपना जीवनयापन करने लगते हैं.

    कोजागर व्रत शरद पूर्णिमा का उत्सव

    कोजागर व्रत के दिन को अन्य बहुत से नामों से जाता है. वर्ष भर में आने वाली पूर्णिमा में से ये एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण पूर्णिमा होती है. इस दिन को शरद पूर्णिमा, आश्विन पूर्णिमा, रास पूर्णिमा, तो कुछ स्थानों पर कौमुदी उत्सव के रुप में जाना और मनाया जाता है. शरद का मौसम होने पर इस पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा का नाम मिला है. मान्यता है की इसी दिन श्री कृष्ण भगवान ने राधा जी के साथ महारास भी किया था जिसकी परंपरा आज भी जीवित है.

    कोजागर व्रत में क्यों किया जाता है चंद्रमा का पूजन

    हिन्दू पंचांग गणना के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा के दिन चंद्रमा का पूजन आरोग्य प्रदान करता है. इस दिन चंद्र देव का पूजन करने पर आर्थिक स्थिति उत्तम होती है. ज्‍योतिष के अनुसार, कोजगर रात्री के दिन ही चंद्रमा की किरणों में अमृत का वास होता है ओर इस दिन की संपूर्ण रात्रि में चंद्र की किरणों से अमृत की वर्षा होती है.

    मान्यता है की इस दिन अगर चंद्रमा की रोशनी में कुछ समय के लिए बैठा जाए, तो व्यक्ति को किसी भी प्रकार के असाध्य रोग नही हो पाते हैं. इस लिए कहा जाता है की इस दिन दूध से बनी खीर को चंद्रमा की रोशनी में कुछ समय के लिए रखना चाहिए. उसके बाद इस खीर का सेवन करना चाहिए. ऎसा करने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती है, इसके साथ ही नेत्र ज्योति भी उत्तम होती है.

    कौमुदी महोत्सव

    कोजागर व्रत के दिन ही कौमुदी महोत्सव मनाने की भी परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है. यह एक सांस्कृतिक झलक है, जो धार्मिक मान्यताओं के आथ जुड़ कर अनुराग और प्रेम को दर्शाती है. कौमुदी उत्सव लोक जीवन का उत्सव भी कहा जा सकता है. इस समय पर सुगंधित द्रव्यों एवं फूलों द्वारा घर एवं मंदिर इत्यादि स्थलों को सजाया जाता है. सभी लोग इस महोत्सव में प्रेम और सौंदर्य की अदभुत छवी को पाते हैं.

    कौमुदी उत्सव में भगवान शिव और माता पार्वती का पूजन होता है. सुखी दांपत्य और प्रेम कि इच्छा पूर्ति करने का दिन होता है कौमुदी उत्सव. इस दिन शिव-पार्वती का पूजन करने पर कभी संबंध विच्छेद नहीं होता. दांपत्य जीवन सदैव खुशहाल रहता है. प्रेम जीवन में सदैव ही प्राप्त होता है.

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