महानवमी पर करें शक्ति पूजन

माँ दुर्गा की पूजा में प्रत्येक दिन का अपना विशेष महत्व होता है. इसमें अत्यंत ही महत्वपूर्ण समय नवरात्रि का होता है. नव रात्रि अर्थात देवी पूजा के वो नौ दिन, जब हर एक दिन एक अलग रुप में होता है. साधक के लिए यह सभी नौ दिन उसकी उपासना और साधना को हर पल एक नए आयाम देते जाते हैं. दुर्गा पूजा में नवीं रात्रि के दिन माता के सिद्धि दात्री रुप का पूजन होता है. यह माता की नवीं शक्ति के रुप में संसार का कल्याण करती है. शक्ति को अंतिम चरण में पहुंचाने का भी करती है.

मां दुर्गा जी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं. अपने नाम के अनुरुप देवी सिद्धियों को देने वाली है. दुर्गा पूजा के नौवें दिन की पूजा में विधि-विधान और पूर्ण शुचिता के साथ साधना करनी होती है. तभी भक्त को देवी के आशीर्वाद स्वरुप सिद्धियों की प्राप्ति हो सकती है. माता सिद्धिदात्री के उपासक के लिए कुछ भी अधुरा नही रहता है. साधक को ब्रह्मांड के अनसुलझे रहस्यों का ज्ञान हो पाता है. संकटों और रुकावटों से विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य उसमें आ जाती है.

मार्कण्डेय पुराण के अनुसार आठ सिद्धियों के बारे में बताया गया है. इन सिद्धियों में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व नाम की सिद्धियां को बताया गया है. इसके अलावा कुछ अन्य जगह पर जैसे की ब्रह्मवैवर्तपुराण में इन सिद्धियों की संख्या और अधिक भी बताई गई हैं.

सिद्धिदात्री मंत्र

माता सिद्धिदात्री के पजन में मंत्र का होना अत्यंत ही उपयोगी होता है. माता के मंत्र का प्रभाव साधक को उस शक्ति के ओर समीप ले जाता है जिसकी तलाश उसे इन नौ दिनों में होती है. माता की पूजा में मंत्र का जाप जितना संभव हो सके करना चाहिए. सिद्धिदात्री मंत्र इस प्रकार है :-

या देवी सर्वभू‍तेषु मां सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

सिद्धिदात्री कथा

मां सिद्धिदात्री का आगमन होने पर भक्त को चारों ओर से शुभता और सुख प्राप्त होता है. माँ की भक्ति साधक को सभी सिद्धियां देती है. अगर हम देवी पुराण के अनुसार समझें तो भगवान शिव ने भी देवी की कृपा से ही इन सभी सिद्धियों को पाया था. मां की शक्ति ही भगवान शिव के भीतर अर्द्धनारीश्वर के रुप में विध्यमान है. ऎसे में जो माता सिद्धिदात्री को प्रसन्न करता है वह प्रकृति के सभी रहस्यों को जान सकता है.

मां सिद्धिदात्री का रुप कैसा है

मां सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली सिंह पर सवार दुष्टों का संहार करती हैं. भक्तों को अभय का वरदान देती हैं. माता को कमल पुष्प अत्यंत प्रिय होते हैं. माँ इन्हीं कमल पर बैठी होती हैं. देवी के हाथों में कमलपुष्प होते हैं. अगर देवी कि पूजा में कमल के फूलों द्वारा अनुष्ठान किया जाए और निरंतर पुष्पों से पूजन हो तो मां सिद्धिदात्री की कृपा प्राप्त होती है. माँ सिद्धिदात्री का स्वरूप सौम्य है, माँ की चार भुजाएं हैं, जिन में माता ने चक्र, गदा, शंख और कमल पुष्प धारण किए हुए हैं. प्रसन्न होने पर माँ सिद्धिदात्री सम्पूर्ण जगत की रिद्धि सिद्धि अपने भक्तों को प्रदान करती हैं.
देवी सिद्धिदात्री की कृपा से दुख दूर होते हैं. व्यक्ति समस्त सारे सुखों को भोगने का सुख भी पाता है. सिद्धिदात्री मां की पूजा और मंत्र जाप से कामनाएं पूर्ण हो जाती है.

मां के आशीर्वाद को पाने के लिए निरंतर नियम और निष्ठ से उपासना करनी चाहिए. देवी सिद्धिदात्री का स्मरण, ध्यान, पूजन द्वारा परम शांति प्राप्त होती है. भक्त को चाहिए की वह अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुरुप जप, तप, पूजा-अर्चना करनी चाहिए. मन की शुद्ध एवं सात्विक भावना ही सिद्धि प्राप्त कराने में सहायक होती है.

महानवमी पूजन कैसे करें?

नवमी के दिन मां सिद्धिदात्री की पूजा में शुद्धि का अत्यंत ध्यान रखने की जरुरत होती है. इनकी पूजा और मंत्र के जाप से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है. नवमी के दिन पूजा का आरंभ प्रात:काल में स्नान आदि से निवृत्त होने के बाद करना चाहिए. साफ स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. मां सिद्धिदात्री की पूजा में कमल, गुलाब पुष्प, अक्षत्, सिंदूर, धूप-दीप, सुगंध, फल एवं मेवे इत्यादि रखने चाहिए.

माता को भोग भिन्न-भिन्न प्रकार के मिष्ठान समर्पित करने चाहिए. तिल का उपयोग भी माता के पूजन में किया जाता है. माता को तिल से बने लड्डू भोग स्वरुप अर्पित करने चाहिए. माता की पूजा में हवन कार्य भी करना चाहिए और 108 देवी मंत्र के जाप द्वारा हवन में आहुति देनी चाहिए.

सिद्धियों की प्राप्ति के लिए करें सिद्धिदात्री पूजन

सिद्धियों से अर्थ ऎसी साधना से है जो आध्यात्मिक स्तर में उच्च स्थिति को दर्शाती है. आत्मिक शक्तियों का भंडार होती है. यह सिद्धियां देवी के पूजन एवं अथक संघर्ष से भरी साधना द्वारा ही संभव हो पाती है. शास्त्रों में अनेक प्रकार की सिद्धियां वर्णित हैं जिन मे आठ सिद्धियां अधिक प्रसिद्ध हैं यह आठ सिद्धियां इस प्रकार हैं :-

अणिमा सिद्धि

अणिमा में शरीर को आकार में एकदम छोटा बनाया जा सकता है. वस्तु को एक अणु के जितना छोटा कर लेने की क्षमता इस सिद्धि में होती है इसलिए यह अणिमा कहलाती है.

महिमा सिद्धि –

देह अर्थात शरीर का बहुत बड़े आकार का बना लेना महिमा नाम की शक्ति से संभव हो पाता है. वस्तु का अत्यंत विशाल रुप में होना महिमा है.

गरिमा सिद्धि –

देह को अत्यन्त भारी-भरकम बना लेना ही गरिमा सिद्धि कहलाता है.

लघिमा –

लघिमा सिद्धि में शरीर इतना हल्का हो जाता है की उसमें कुछ भी भार का अनुभव नहीं होता है.

प्राप्ति सिद्धि –

इस सिद्ध में व्यक्ति के पास ऎसी शक्ति होती है कि वह किसी भी प्रकार की रुकावट के बिना कहीं भी जा सकता है.

प्राकाम्य सिद्धि –

इस सिद्धि की शक्ति से व्यक्ति की कोई भी इच्छा पूरी हो सकती है. जिस भी वस्तु की उसे चाहत हो वह उसे प्राप्त हो जाती है. प्राकाम्य सिद्धि से किसी व्यक्ति को अपने अनुसार नियंत्रित कर लेने कि क्षमता भी होती है.

इश्त्व सिद्धि –

यह सिद्धि ऎसी होती है जिसमें व्यक्ति किसी भी वस्तु को अपने नियंत्रण में कर सकता है.

वशित्व सिद्धि –

वशित्व सिद्धि से किसी भी व्यक्ति को अपना बनाकर रख सकने की क्षमता होती है. जिसे चाहे वश में किया जा सक्ता है और अपने अनुसार उससे काम करवा सकते हैं.

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सावन शिवरात्रि 2025 : जाने कब करें शिवरात्रि पर जलाभिषेक

सावन शिवरात्रि का पर्व भगवान शिव के साथ जुड़ा है. सावन शिवरात्रि का दिन अत्यंत ही शुभ और मनोकामनाओं की पूर्ति वाला होता है. शिवरात्रि को कई तरह से मनाया जाता है.

इस वर्ष 23 जुलाई 2025 को सावन/श्रावण शिवरात्रि का पर्व मनाया जाएगा. शिवरात्रि के पर्व समय यदि शुद्ध सच्चे मन से मात्र शिवलिंग पर जल चढ़ाने से ही भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न होते है. भक्तों के दुख दूर कर देते हैं, भक्त को शिव लोक में स्थान प्राप्त होता है. शिवरात्रि का दिन भगवान आदिदेव शिव को प्रसन्न करने का सबसे महत्वपूर्ण अवसर होता है. 

श्रावण शिवरात्रि जलाभिषेक समय

आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर संपूर्ण सावन मास के दौरान शिवलिंग पर गंगाजल से अभिषेक करने की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. पूरे सावन मास के दौरान शिवलिंग पर श्रद्धालुओं द्वारा जलाभिषेक किया जाता है. इस समय के दौरान कांवण यात्रा का भी आरंभ होता है. कांवण यात्रा में गंगा जल को लाकर भगवान शिव का अभिषेक करने से सभी कष्ट और रोगों का नाश होता है.

इस समय के दौरान शिव मंदिरों, ज्योर्तिलिंगों व समस्त शिव स्थानों पर अनुष्ठा और पूजा होती है. धर्म स्थलों पर मौजूद शिवलिंग पर श्रद्धा भाव से शिव भक्त गंगाजल से जलाभिषेक करते हैं. जलाभिषेक के शुभ मुहूर्त इस प्रकार रहेंगे जिसमें शिवलिंग पर गंगाजल से अभिषेक किया जा सकता है. प्रात:काल से दोपहर तक का समय जलाभिषेक के लिए अनुकूल एवं शुभ रहेगा. इस दिन आर्द्रा नक्षत्र व मिथुन लग्न समय शिव पूजा के लिए शुभ कहा गया है. इसके अतिरिक्त प्रदोष काल समय संपूर्ण रात्रि के समय भी जलाभिषेक के लिए उत्तम रहेगा.

  • प्रात: 05:40 से 08:25 तक
  • शाम 19:28 से 21:30 तक
  • शाम 21:30 से 23:33 तक (निशीथकाल समय)
  • रात्रि 23:33 से 24:10 तक (महानिशिथकाल समय)

शिवरात्रि कथा

शिव पुराण के अनुसार, चित्रभानु नामक शिकारी हुआ करता था वह शिकार करके अपना गुजर बसर करता था. एक बार वह शिकार खोजने के लिए जंगल की ओर चल पड़ता है. शिकार ढूंढते-ढूंढते उसे रात हो जाती है, लेकिन शिकार नहीं मिल पाता है. वह एक बेल के वृक्ष पर चढ़ जाता है. वह भूख प्यासा उस रात के समाप्त होने की प्रतीक्षा करता है. शिकारी जिस वृक्ष पर था उस वृक्ष के नीचे ही शिवलिंग स्थापित था. शिकारी अनजाने में वृक्ष के पत्तों को तोड़ रहा था और वह पत्ते शिवलिंग पर गिर रहे होते हैं. पूरी रात इसी मे निकल जाती है. संयोगवश उस दिन शिवरात्रि का दिन होता है और शिकारी वह भूखा प्यासा रहा, जिससे उसका व्रत हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र गिरने से उसकी शिव पूजा भी हो जाती है. अनजाने में शिवरात्रि का व्रत करने से शिकारी ​चित्रभानु को मोक्ष प्राप्त होता है.

श्रावण शिवरात्रि पूजन

  • सुबह के समय जल्दी उठ कर अपने स्नान के जल में दो बूंद गंगाजल डालकर स्नान करें.
  • स्नान के पश्चात साफ-स्वच्छ वस्त्र पहनने चाहिए.
  • पूजा की थाली में रोली मोली चावल धूप दीप सफेद चंदन सफेद जनेऊ कलावा रखना चाहिए.
  • पीला फल, सफेद मिष्ठान्न गंगा जल तथा पंचामृत आदि रखना चाहिए.
  • विधि विधान से शिव भगवान की पूजा-अर्चना करनी चाहिए.
  • गाय के घी का दीपक जलाना चाहिए.
  • आसन पर बैठकर शिव मंत्रों का जाप करना चाहिए.
  • शिव चालीसा का पाठ करें और शिवाष्टक के पाठ को भी पढ़ना चाहिए.

शिवरात्रि के अन्य रुप

कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को शिवरात्रि व्रत रखने का विधान रहा है. चतुर्दशी तिथि शिवरात्रि के रुप में मनाई जाती है. पौराणिक कथा अनुसार महा शिवरात्रि के दिन मध्य रात्रि में भगवान शिव लिङ्ग के रूप में प्रकट हुए थे. वहीं अन्य कथा अनुसार इस दिन भगवान शिव का पार्वती जी के साथ विवाह संपन्न होता है. ऎसे में शिवरात्रि के संदर्भ में अनेकों कथाओं का पौराणिक आधार प्राप्त होता है जो इस दिन की शुभता एवं पवित्रता को दर्शाता है.

मासिक शिवरात्रि –

हिन्दु पंचांग अनुसार हर माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को शिवरात्रि पर्व में मनाते हैं. ऎसे में इस शिवरात्रि को “मासिक शिवरात्रि”के रुप में जाना जाता है और मनाया भी जाता है.

महाशिवरात्रि –

फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की तिथि के दिन महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है. अमान्त अनुसार माघ माह की मासिक शिवरात्रि को महा शिवरात्रि कहते हैं और पूर्णिमान्त अनुसार फाल्गुन मास की मासिक शिवरात्रि को महाशिवरात्रि कहा जाता है. यह अंतर केवल चन्द्र मास के अनुसार अलग-अलग मतों द्वारा निर्धारित होता है.

मान्यता है की शिवरात्रि के दिन प्रथम दिवस पर श्री विष्णु जी और ब्रह्मा जी द्वारा शिवलिंग का पूजन किया गया था. इस दिन को शिवलिंग के उदभव से जोड़ा जाता है. शैव संप्रदाय के मानने वालों के लिए यह दिन एक अत्यंत ही महापर्व का रुप होता है . इसमें भगवान शिव एवं शिवलिंग का पूजन होता है.

शिवरात्रि उपाय

  • श्रावण शिवरात्रि के दिन शिव चालीसा का पाठ करने से नौकरी व्यापार की समस्या खत्म होती है.
  • शिव पुराण के 5 अध्याय का पाठ करना चाहिये. शिवपुराण पाठ को पढ़ने से रोग और दोषों का नाश होता है.
  • सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और साफ कपड़े पहने. अपना मुंह पूर्व दिशा में रखें और साफ आसन पर बैठे हैं. शिव पूजा में धूप दीप सफेद चंदन माला और सफेद आक के 5 फूल का उपयोग करते हुए शिव मंत्रों का 11 माला जाप करने से विरोधियों का नाश होता है.

सावन/श्रावण शिवरात्रि महत्व

सावन मास में आने वाली शिवरात्रि को श्रावण शिवरात्रि के रुप में मनाया जाता है. इस दिन महाशिवरात्रि पर्व में शिवलिंग का गंगाजल से अभिषेक किया जाता है. सावन माह में शिवरात्रि के दिन कावंडिए भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं. प्रत्येक बारह शिवरात्रि में से फाल्गुन और सावन माह की शिवरात्रि अत्यंत ही व्यापक रुप से मनाई जाती है और इन दोनों को महाशिवारात्रि के रुप में भी पुकारा जाता है. मान्यता है की सावन शिवरात्रि का व्रत करने से शांति, सुरक्षा, सौभाग्य की प्राप्ति होती है. रोग दूर होते हैं, आरोग्य की प्राप्ति होती है.

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गायत्री जयंती 2025:जाने कैसे हुई गायत्री की उत्पत्ति

गायत्री माता को हिन्दू भारतीय संस्कृति में अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. जीव और जगत के मध्य जो संबंध है वह माँ गायत्री के द्वारा ही संभव हो पाता है. गायत्री को ही चारों वेदों की उत्पति का आधार भी माना गया है. गीता में भगवान श्री कृष्ण स्वयं गायत्री की महिमा का वर्णन करते हैं.

ज्येष्ठ गायत्री जयन्ती शुक्रवार, 06 जून, 2025 को एकादशी तिथि प्रारम्भ – 06 जून , 2025 को 02:15 ए एम बजे एकादशी तिथि समाप्त – 07 जून, 2025 को 04:47 ए एम बजे

गायत्री जयंती कब मनाई जाती है – भिन्न भिन्न मत

गायत्री जयंती की तिथि के लिए कुछ मत प्रचलित है. कुछ के अनुसार गायत्री जयंती को ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन मनाने की बात कही है, इसी समय गंगा दशहरा भी मनाया जाता है. ऎसे में गंगा दशहरा के समय पर मनाए जाने का विचार रहा है. वहीं अन्य मत अनुसार गायत्री जयंती ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन मनाए जाने की बात भी कही गई है. इसके अतिरिक्त श्रावण मास की पूर्णिमा को भी गायत्री जयंती के उत्सव को मनाने की मान्यता रही है.

गायत्री जयंती कथा

गायत्री जयंती के बारे में पौराणिक कथाओं से अनेक विचार प्राप्त होते हैं जिनमें वेदों का सार गायत्री को ही बताया गया है. ब्रह्मा जी द्वारा गायत्री के उत्पत्ति की बात कही गई है. सृष्टि में ज्ञान व चैतन्य शक्ति गायत्री का स्वरुप है. सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने गायत्री को उत्पन्न किया था और जिसे गायत्री नाम से पुकारा गया.

ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना से पहले 24 अक्षर वाले गायत्री मन्त्र की रचना की थी. इस एक गायत्री मंत्र का प्रत्येक अक्षर अपने आप में संपूर्ण ज्ञान को समाहित किए होता है. इसमें सभी सूक्ष्म तत्त्व समाहित हैं. इसके पश्चात ब्रह्मा एवं गायत्री के संयुक्त प्रभाव के बाद जो पनपा वह वेद था.

गायत्री का वेदों से संबंध

माँ गायत्री को वेदों की उत्पति का रुप माना गया है. इसलिये वेदों का सार भी गायत्री मंत्र को ही बताया गया है यानी की जो भी कुछ वेदों में दिया गया है उस का संपूर्ण विचार गायत्री से ही उत्पन्न हुए हैं. चारों वेदों का ज्ञान लेने के बाद जिस पुण्य की प्राप्ति होती है उसी की प्राप्ति सिर्फ गायत्री मंत्र के उच्चारण द्वारा संभव हो पाता है. चारों वेदों की माता गायत्री को कहा गया है, इसलिए गायत्री वेदमाता भी कही जाती हैं.

गायत्री संबंधी कथाएं

गायत्री कथा में हमें अनेकों अन्य कथाओं का आधार भी मिलता है. माना जाता है कि विश्वामित्र ने कठोर साधना कर मां गायत्री देवी को सभी के लिए सक्षम बनाया और उसे सभी तक पहुंचाया.

गायत्री का विवाह कथा

गायत्री से संबंधित एक कथा बहुत प्रचलित है. कहा जाता है कि एक बार ब्रह्मा जी एक यज्ञ का आयोजन करना चाहते थे. जिसके द्वारा सृष्टि का कल्याण संभव हो पाए. इसके लिए वह यज्ञ का आयोजन करते हैं. उस समय जब इस यज्ञ का आरंभ होना होता है तब ब्रह्मा जी की पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी. ऎसे में शुभ मुहूर्त समय निकल रहा होता है. देवी सावित्री का इंतजार करते-करते जब देर होने लगी तब उस समय ब्रह्माजी ने गायत्री का आहवान किया और उसे अपने समक्ष यज्ञ में स्थान दे दिया. लेकिन जब सावित्री वहां पहुंची तो उन्होंने बगल में गायत्री को बैठा देखा जो स्थान पत्नी का होता है, उस स्थान पर गायत्री बैठी हुई थीं. ऎसे में इस कथा अनुसार ब्रह्मा जी के साथ उनके विवाह की बात भी पौराणिक कथाओं में प्राप्त होती है.

गायत्री उपासना लाभ

गायत्री को दैवी शक्ति माना गया है. गायत्री की उपासना व्यक्ति के चहुमुखी विकास के लिए अत्यंत आवश्यक मानी गई है. गायत्री उपासना द्वारा जीवन में आने वाले सभी संकटों का नाश होता है और सत्य का बोध होता है.

गायत्री उपासना को हिंदू धर्म शास्त्र में एक अत्यंत ही चमत्कारिक गुणों से भरपूर सिद्धि देने वाला माना गया है. सृष्टि में मौजूद जो भी शक्तियों स्थापित है उन सभी में गायत्री का स्थान अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण माना गया है. गायत्री की उपासना द्वारा वाक सिद्धि प्राप्त होती है. इसके साथ ही सद्बुद्धि की प्राप्ति होती है.

त्रिपाद गायत्री महिमा

आत्मिक, मानसिक और सांसारिक तीनों प्रकार के गुणों का आधार गायत्री को माना गया है. इन्हीं से मिलने वाले सुख-साधन की शक्ति गायत्री ही हैं. सत, रज, तम में बंटे हुए गुणों का आधार गायत्री हैं. इन तीनों पर विजय प्राप्त करने के लिए गायत्री की उपासना पर बल दिया जाता है. यह तीनों ही वर्ग गायत्री की आद्यशक्ति के एक- एक चरण में आते हैं. इस लिए गायत्री को ‘त्रिपदा’ भी कहा जाता है. यह तीन चरण पार कर लेने पर ही साधक का कल्याण संभव हो पाता है.

गायत्री मंत्र शक्ति एवं लाभ

“ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् ।

भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ||”

गायत्री मंत्र का प्रभाव अत्यंत ही सूक्षम रुप में पड़ता हैं और इस मंत्र के जाप द्वारा सभी प्रकार के कलेशों दुखों का नाश भी होता है. गायत्री मंत्र में मौजूद अक्षर वो शक्ति हैं जो मंत्र के उच्चारण द्वारा भक्त के भीतर जागृत होती हैं.

इस मंत्र के द्वारा जीवन में सफलता और सिद्धियों की प्राप्ति होती है. गायत्री मंत्र की साधना एक वैज्ञानिक सत्यता भी है. गायत्री परब्रह्म क्रिया भाग है. गायत्री उपासना ईश्वर उपासना का एक सरल और जल्द फल होने वाला मार्ग है. इस मार्ग पर चलने पर साधक का जीवन सफल होता है.

श्रीमद्भगवद् गीता में गायत्री के संदर्भ में जो लिखा गया है वह इस प्रकार है – “छन्दों में मैं गायत्री हूं”हिन्दू धर्म में अनेक प्रचलित मतों के आधार द्वारा गायत्री की महिमा का बखान प्राप्त होता है. कुछ मतों में एक म्म्त्र को लेकर कई मतभेद दिखाई दे सकते हैं लेकिन जब गायत्री की बात आती है तो उस के लिए सभी सम्प्रदायों ने, सभी ऋषियों ने एक मत को ही स्वीकार किया है.

गीता, अथर्ववेद में गायत्री की स्तुति की गयी है, जिसमें उसे आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है. विश्वामित्र द्वारा गायत्री के विषय में यह कथन प्राप्त होता है जिसमें वह कहते हैं कि ‘गायत्री के समान चारों वेदों में मन्त्र नहीं है” वहीं आदि मनु का कथन है- ‘ब्रह्मजी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मन्त्र दिया अत: गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई अन्य मन्त्र नहीं है.

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कोजागर व्रत 2025 : कोजागरी पूर्णिमा व्रत बना देगा मालामाल

आश्विन मास के शुक्‍ल पक्ष की पूर्णिमा को कोजागर व्रत किया जाता है. कोजागर व्रत माँ लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए होता है. इस दिन मुख्य रुप से लक्ष्मी पूजन करते हैं. लक्ष्मी मां के आशीर्वाद से जीवन में किसी भी प्रकार की आर्थिक तंगी नही आती है.

कोजागर व्रत को कोजागर पूर्णिमा व्रत या कोजागिरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. मान्‍यता अनुसार ये समय देवी लक्ष्मी के आगमन का समय होता है. इस कोजागर व्रत की रात्री में देवी लक्ष्‍मी पृथ्वी लोक पर विचरण करती हैं. जो भी इस दिन पूजन एवं रात्री जागरण करता है उसे वैभवशाली जीवन का वरदान मिलता है. कोजागर व्रत को करने से दरिद्रता दूर होती है और घर में धन की वर्षा होती है.

कोजागिरी व्रत पूजा मुहूर्त समय

कोजागर व्रत 07 अक्टूबर 2025 को मंगलवार के दिन मनाया जाएगा.

  • निशिता काल समय 23:44 से 24:33 तक
  • पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ – 06 अक्टूबर, 2025 को 12:23
  • पूर्णिमा तिथि समाप्त -07 अक्टूबर, 2025 को 09:16
  • कोजागर व्रत पूजन विधि

    • कोजागिरी व्रत वाले दिन प्रात:काल सूर्योदय से पहले उठ कर स्नान कर लेना चाहिए. स्‍नान करने के बाद साफ स्‍वच्‍छ वस्‍त्र पहनने चाहिए. दिन भर व्रत का संकल्‍प लेन चाहिए.
    • मंदिर या पूजा स्‍थान पर लक्ष्‍मी जी की प्रतिमा को स्थापित करना चाहिए. माता पर लाल रंग का वस्त्र अर्पित करना चाहिए.
    • देवी लक्ष्मी के मंत्र बोलते हुए घी का दीपक जलाना चाहिए.
    • माता लक्ष्मी पर फूल-माला अर्पित करने चाहिए करें.
    • मां लक्ष्मी को पंचामृत अर्पित करना चाहिए.
    • मां को पुष्‍प, ऋतुफल और नैवेद्य अर्पित करें उनकी आरती करनी चाहिए.
    • संध्या उपासना में भी इसी क्रम से पूजा करनी चाहिए.
    • माता को इस दिन मुख्य रुप से दूध से बनी खीर का भोग अवश्य लगाना चाहिए.
    • रात्रि में चंद्रमा के उदय होने पर घी 11 दीपक जलाने चाहिए.
    • चंद्रमा को कच्चे दूध और जल के मिश्रण से अर्घ्य देना चाहिए.
    • देवी लक्ष्‍मी की आरती करनी चाहिए. लक्ष्मी का श्रीसुक्त व लक्ष्मी स्तोत्र द्वारा लक्ष्मी को प्रसन्न करते हैं.
    • देवी लक्ष्मी को प्रसाद चढ़ाना चाहिए और प्रसाद को सभी लोगों में बांटना चाहिए.
    • पूर्णिमा के दिन रात्रि जागरण करना चाहिए.

    कोजागर व्रत कथा

    कोजागर व्रत करने के साथ-साथ इस दिन व्रत की कथा भी सुननी चाहिए. व्रत की कथा पढ़ने और सुनने से शुभ फल की प्राप्ति होती है. व्रत बिना विध्न और बाधा के पूरा होता है. कोजागर व्रत कथा इस प्रकार है :-

    प्राचीन समय की बात है मगध नामक एक राज्य हुआ करता था. उस राज्य में एक बहुत ही परोपकारी और श्रेष्ठ गुणों से युक्त ब्राह्मण रहा करता था. वह संपूर्ण गुणों से युक्त था किंतु गरीब था. वह ब्राह्मण जितना धार्मिक और परोपकारी था उसकी स्त्री उतनी उसके विपरित आचारण वाली थी. स्त्री उसकी कोई बात नही मानती थी और दुष्ट कार्यों को किया करती थी.

    ब्राह्मण की पत्नी गरीबी के चलते ब्राह्मण को बहुत अपशब्द कहा करती थी. वह अपने पति को दूसरों के सामने सदैव ही बुरा भला कहा करती थी उसे चोरी करने या गलत काम करने के लिए कहती थी. अपनी पत्नी के तानों से तंग आकर ब्राह्मण दुखी मन से जंगल की ओर चला जाता है.

    उस स्थान पर उसकी भेंट नाग कन्याओं से होती है. नागकन्याओं ने ब्राह्मण का दुख पूछा और उसे आश्विन मास की पूर्णिमा को व्रत करने और रत में जागरण करने को कहा. लक्ष्मी को प्रसन्न करने वाला कोजागर व्रत बताने के बाद वह कन्याएं वहां से चली जाती हैं.

    ब्राह्मण घर लौट जाता है और आश्विन मास की कोजागर पूर्णिमा के दिन विधि-विधान के साथ देवी लक्ष्मी का पूजन करता है और रात्री जागरण भी करता है. व्रत के प्रभाव से ब्राह्मण के पास धन-सम्पत्ति आ जाती है और उसकी पत्नी की बुद्धि भी निर्मल हो जाती है. देवी लक्ष्मी के प्रभाव से वह दोनो सुख पूर्वक अपना जीवनयापन करने लगते हैं.

    कोजागर व्रत शरद पूर्णिमा का उत्सव

    कोजागर व्रत के दिन को अन्य बहुत से नामों से जाता है. वर्ष भर में आने वाली पूर्णिमा में से ये एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण पूर्णिमा होती है. इस दिन को शरद पूर्णिमा, आश्विन पूर्णिमा, रास पूर्णिमा, तो कुछ स्थानों पर कौमुदी उत्सव के रुप में जाना और मनाया जाता है. शरद का मौसम होने पर इस पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा का नाम मिला है. मान्यता है की इसी दिन श्री कृष्ण भगवान ने राधा जी के साथ महारास भी किया था जिसकी परंपरा आज भी जीवित है.

    कोजागर व्रत में क्यों किया जाता है चंद्रमा का पूजन

    हिन्दू पंचांग गणना के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा के दिन चंद्रमा का पूजन आरोग्य प्रदान करता है. इस दिन चंद्र देव का पूजन करने पर आर्थिक स्थिति उत्तम होती है. ज्‍योतिष के अनुसार, कोजगर रात्री के दिन ही चंद्रमा की किरणों में अमृत का वास होता है ओर इस दिन की संपूर्ण रात्रि में चंद्र की किरणों से अमृत की वर्षा होती है.

    मान्यता है की इस दिन अगर चंद्रमा की रोशनी में कुछ समय के लिए बैठा जाए, तो व्यक्ति को किसी भी प्रकार के असाध्य रोग नही हो पाते हैं. इस लिए कहा जाता है की इस दिन दूध से बनी खीर को चंद्रमा की रोशनी में कुछ समय के लिए रखना चाहिए. उसके बाद इस खीर का सेवन करना चाहिए. ऎसा करने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती है, इसके साथ ही नेत्र ज्योति भी उत्तम होती है.

    कौमुदी महोत्सव

    कोजागर व्रत के दिन ही कौमुदी महोत्सव मनाने की भी परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है. यह एक सांस्कृतिक झलक है, जो धार्मिक मान्यताओं के आथ जुड़ कर अनुराग और प्रेम को दर्शाती है. कौमुदी उत्सव लोक जीवन का उत्सव भी कहा जा सकता है. इस समय पर सुगंधित द्रव्यों एवं फूलों द्वारा घर एवं मंदिर इत्यादि स्थलों को सजाया जाता है. सभी लोग इस महोत्सव में प्रेम और सौंदर्य की अदभुत छवी को पाते हैं.

    कौमुदी उत्सव में भगवान शिव और माता पार्वती का पूजन होता है. सुखी दांपत्य और प्रेम कि इच्छा पूर्ति करने का दिन होता है कौमुदी उत्सव. इस दिन शिव-पार्वती का पूजन करने पर कभी संबंध विच्छेद नहीं होता. दांपत्य जीवन सदैव खुशहाल रहता है. प्रेम जीवन में सदैव ही प्राप्त होता है.

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    कार्तिक संक्रान्ति 2025 : जानें कब होगी और कैसे करें संक्रान्ति पूजा

    कार्तिक संक्रान्ति हिन्दुओं के प्रमुख त्यौहारों मे से एक है. सूर्य जब तुला राशि में प्रवेश करते हैं, तो कार्तिक संक्रांति पर्व को मनाया जाता है. यह पर्व अक्टूबर माह के मध्य के समय पर आता है. कार्तिक संक्रान्ति का पर्व इस वर्ष 17 अक्टूबर 2025 को  शुक्रवार के दिन मनाया जाएगा. इस संक्रांति में सूर्य  दोपहर 01:54 पर तुला राशि में प्रवेश करेगा.  मुहूर्ति इस संक्रांति का पुण्य काल दोपहर से रहेगा.  

    कार्तिक संक्रांति पूजा

    कार्तिक संक्रांति के दिन सभी को सूर्योदय से पूर्व उठ कर स्नान करना चाहिए. मान्यता अनुसार जो व्यक्ति कार्तिक संक्रांति के दिन स्नान नहीं करता है वह रोगी व आलसी बना रहता है. कार्तिक संक्रांति पर तिल-स्नान को अत्यंत पुण्यदायक माना गया है. तिल-स्नान करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है. कार्तिक संक्रांति के दिन तीर्थ स्थलों, मन्दिर, एवं पवित्र नदियों में स्नान करने की परंपरा भी रही है.

    कार्तिक सक्रांति के दिन सूर्यदेव की पूजा करनी चाहिए. मान्यता अनुसार सूर्यदेव का पूजन करने से व्यक्ति रूपवान होता है उसे किसी भी रोग का भय नहीं होता है. कार्तिक संक्रांति के दिन पितरों के लिए तर्पण करने का विधान भी है. इस दिन भगवान सूर्य को जल देने के पश्चात अपने पितरों का स्मरण करते हुए तिलयुक्त जल देने से पितर प्रसन्न होते हैं.

    कार्तिक संक्रान्ति के अन्य रंग

    कार्तिक संक्रान्ति के अवसर पर देश भर में बहुत से धार्मिक कार्य किए जाते हैं. इस दिन लोग उत्सव मनाते हैं. भारत के सभी प्रान्तों में अलग-अलग नाम व भांति-भांति के रीति-रिवाजों द्वारा इस पर्व को उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस संक्रान्ति के दिन किसान अपनी अच्छी फसल के लिये भगवान को धन्यवाद देकर अपनी अनुकम्पा का आशीर्वाद पाते हैं. कार्तिक संक्रान्ति के त्यौहार को फसलों एवं किसानों के त्यौहार के साथ भी जोड़ा जाता है.

    कार्तिक संक्रान्ति विभिन्न वर्गों के समुदाय का सबसे प्रमुख त्यैाहार भी होता है. इस दिन तीर्थस्थल में स्नान करके दान धर्म से जुड़े कामों को किया जाता है. पवित्र नदियों के संगम पर लाखों की संख्या में लोग इस पावन पर्व के दिन नहाने के लिये जाते हैं. धार्मिक एवं तीर्थस्थलों में मेलों का आयोजन होता है.

    कार्तिक संक्रान्ति को उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक बहुत उल्लास के साथ मनाया जाता है. घरों में आंगन को सजाया जाता है. रंगोली इत्यादि बनाई जाती है. सम्पूर्ण भारत में मनाया जाने वाला संक्रान्ति पर्व विभिन्न रूपों में सभी को जोड़े हुए भी है. विभिन्न प्रान्तों में इस पर्व को मनाने के जितने अधिक रूप प्रचलित हैं उतने किसी अन्य में नहीं मिलते हैं.

    कार्तिक संक्रान्ति – दीपदान का समय

    कार्तिक संक्रान्ति के दीप दान करने का बहुत महत्व रहा है. पौराणिक ग्रंथों में कार्तिक संक्रांति में दीपदान मनोकामनाओं को पूरा करने वाला कार्य होता है. वैसे तो कार्तिक मास के पूरे मास के समय दीपदान करा जाता है. लेकिन संक्रान्ति के दिन विशेष होता है. धर्म शास्त्रों के अनुसार इस पूरे कार्तिक संक्रांति में व्रत व तप का विशेष महत्व बताया गया है इसके साथ ही दीप जलाने की परंपरा भी प्राचीन काल से चली आ रही है. जो व्यक्ति कार्तिक मास में दीपदान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है. संक्रांति के दिन नदी, पोखर, तालाब, घर आदि स्थानों पर दीप दान करना बताया शुभ होता है. दीप दान करने से पुण्यों की वृद्धि होती है.

    कार्तिक संक्रांति – तुलसी पूजन

    कार्तिक संक्रांति के दिन तुलसी पूजा का भी विशेष कार्य माना गया है. कार्तिक संक्रांति के दिन तुलसी पूजन करने से दांपत्य सुख मिलता है. व्यक्ति को अपने कार्यक्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है. संक्रांति के दिन तुलसी पूजा और तुलसी के सामने दीपक अवश्य जलाना चाहिए.
    कार्तिक संक्रांति के दिन तुलसी पूजा करने से परिवार में सुख बना रहता है. संतान का सुख मिलता है. वंश की वृद्धि होती है. मांगलय सुखों की वृद्धि होती है. इस संक्रांति के दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है, पशुओं का पूजन होता है. मिट्टी के बर्तन में खीर बनायी जाती है, जिसे सूर्य देव को नैवैद्य(भोग) के रुप में चढ़ाया जाता है और प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं.

    कार्तिक संक्रांति दान-पुण्य का पर्व

    शास्त्रों के अनुसार, कार्तिक संक्रांति के दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक कार्य किए जाते हैं. ऐसी मान्यता है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर फिर से मिलता है. इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है. कार्तिक संक्रांति के दिन गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियों एवं संगम स्थल पर मेलों का आयोजन होता है. जिसे कार्तिक मेले के नाम से भी जाना जाता है. संक्रान्ति के दिन स्नान के बाद दान देने की भी परंपरा रही है.

    इस दिन गंगा स्नान करके तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों और अन्य लोगों को दान किया जाता है. इस पर्व पर क्षेत्र में गंगा के घाटों पर मेले लगते है. इस व्रत के दिन खिचड़ी बनाई जाती है खिचड़ी गरीबों में बांटने का भी अत्यधिक महत्व होता है. कार्तिक संक्रान्ति के दिन उड़द, चावल, तिल, गाय, स्वर्ण, ऊनी वस्त्र, कम्बल आदि दान करने का भी महत्त्व है. इस दिन एक दूसरे को तिल और गुड़ भी दिया जाता है.

    सूर्य का कन्या राशि से तुला राशि में होने का प्रभाव

    कार्तिक संक्रान्ति में सूर्य की स्थिति का में बदलाव आता है. इस समय के दौरान सूर्य कन्या राशि से निकल कर तुला राशि में जाता है. सूर्य का कन्या राशि से तुला राशि में संक्रमण का समय ही संक्रांति का दिन कहलाता है. तुला राशि में सूर्य नीच का होता है. तुला राशि में सूर्य के नीच होने इसकी स्थिति शुभ नहीं मानी जाती है. यहां सूर्य कुछ कमजोर माने जाते हैं. इसी सम्य के बाद से मौसम में बहुत बदलाव भी दिखाई देता है.
    कार्तिक संक्रांति के बास से मौसम में ठंडक बढ़ने लगती है और सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर आने में भी धीमी होती है. सूर्य के तेज में बहुत अधिक कमी आने लगती है. इसलिए जिन लोगों का जन्म तुला राशि में हुआ है उन लोगों के लिए भी ये संक्रान्ति खास होती है. व्यक्ति को चाहिए कि इस दिन पूजा उपासना करे. मुख्य रुप से इस दिन सूर्य उपासना करनी चाहिए.

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    मघा नक्षत्र श्राद्ध 2025 , पितरों को दिलाता है मुक्ति का मार्ग

    ज्योतिष शास्त्र में मघा नक्षत्र दसवां नक्षत्र होता है. मघा नक्षत्र के अधिष्ठाता देवता पितर होते हैं. मघा नक्षत्र के स्वामी केतु को माना गया है. इसलिए इस नक्षत्र का होना श्राद्ध समय के दौरान अत्यंत ही शुभ प्रभाव वाला होता है. मघा नक्षत्र का संबंध पितर और केतु से आने के कारण ही इस नक्षत्र के समय पर किया जाने वाला श्राद्ध अत्यंत ही प्रभावशाली होता है.

    इस समय पर किया गया पितृ के निमित किया गया तर्पण कार्य बिना किसी व्यवधान और विलम्ब के पितरों तक पहुंचता है. श्राद्ध कार्य कई प्रकार से किए जाते हैं. यह प्रमुख कर्म काण्ड में से एक होते हैं. अगर कुंडली में पितृदोष हो तो उसे दूर करने के लिए किया जाने वाला श्राद्ध अत्यंत महत्वपूर्ण होता है.

    मघा नक्षत्र समय

    इस वर्ष 2025 में मघा नक्षत्र का 19  सितम्बर 2025 को शुक्रवार के दिन से होगा. मघा नक्षत्र के दौरान ही त्रयोदशी तिथि भी मौजूद होने के कारण इसे मघा त्रयोदशी के नाम से भी जाना जाएगा.

    मघा नक्षत्र प्रारम्भ – सितम्बर 19, 2025 को 07:05

    मघा नक्षत्र समाप्त – सितम्बर 20, 2025 को 08:05

    श्राद्ध का कार्य पितरों के लिए किया जाता है. इसमें पूर्वजों के निमित्त पिंडदान किया जाता है. ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और दान इत्यादि कार्य किए जाते हैं. यह सभी कुछ श्राद्ध कार्य के अंतर्गत आता है. वैसे श्राद्ध के कार्य को अमावस्या, श्राद्ध पक्ष मे, संक्रांति, पूर्वजों की तिथि इत्यादि समय में इस काम को किया जाता है. सामान्य रुप से किए जाने वाले श्राद्ध कार्य अमावस्या तिथि के दौरान अथवा पितृ पक्ष में मुख्य रुप से किए ही जाते हैं.

    पितृ पक्ष का समय आश्विन मास के दौरान आता है और ये समय पितृ कार्यों के लिए होता है. श्राद्ध कार्य करने से व्यक्ति के पितृ संतुष्ट होते हैं और आशीर्वाद प्राप्त होता है.

    पितृऋण और पितृदोष से मुक्ति

    पितृऋण का अर्थ पूर्वजों का ऋण. यह ऋण हमारे पूर्वजों का माना गया है. पितृऋण कई प्रकार का होता है जिसके न चुका पाने के कारण यह पितृदोष दोष का कारण भी बनता है. अगर किसी व्यक्ति कि कुण्डली में पितृदोष बनता है तो वंश वृद्धि रुक जाती है, आर्थिक उन्नती रुक जाती है, कलह जीवन में सदैव बने रहते हैं. मांगलिक कार्य होने पर अड़चनें बनी रहती हैं, नौकरी और व्यवसाय में उन्नती नहीं मिल पाती है.

    पितृ बाधा दोष यह भी एक प्रकार का दोष ही होता है. इसमें ग्रह-नक्षत्र भी सही हैं, वास्तु दोष भी नही हो लेकिन आकस्मिक दुख या धन का अभाव होने पर यह पितृ बाधा कहलाती है.

    इन दोषों से बचने के लिए मघा नक्षत्र एक अत्यंत ही समय होता है श्राद्ध के काम के लिए. इस नक्षत्र में किया जाने वाला पितृ कार्य पितरों की शांति देने वाला होता है. आश्विन कृष्ण पक्ष में चंद्र लोक पर पितरों का आधिपत्य रहता है और इस समय वह पृथ्वी का पर आते हैं.

    आश्विन मास में जब सूर्य कन्या राशि में गोचर करता है, तो उस समय के दौरान श्राद्ध कार्य किए जाते हैं. इस प्रकार पितर पृथ्वी लोक पर आकर अपने वंश के लोगों के पास आते हैं और उनको संतुष्ट करने के लिए श्राद्ध कर्म किए जाते हैं. इन कार्यों से पितरों को शांति मिलती है. पितर जब खुश होते हैं तब वंश को सुख एवं समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं. अगर लोग अपने पितरों की मुक्ति एवं शांति हेतु यदि श्राद्ध कर्म एवं तर्पण न करे तो उसे पितृदोष भुगतना पड़ता है और उसके जीवन में अनेक कष्ट उत्पन्न होने लगते हैं.

    मघा श्राद्ध कैसे करें

    आश्विन मास में आने वाले मघा नक्षत्र में पितरों अर्थात पूर्वजों के लिए श्राध कार्य करना अत्यंत ही महत्वपूर्ण होता है. सामान्य रुप से पितरों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध का कार्य होता है. लेकिन इस पूरे श्राद्ध समय के दौरान अगर इन में किसी दिन मघा नक्षत्र आता है तो इस दिन विशेष होता है. इसके अनुसार तिल, कुशा, पुष्प, अक्षत, शुद्ध जल या गंगा जल सहित पूजन करना चाहिए.

    पिण्डदान, तर्पण काम कर लेने के पश्चात ब्राह्माणों को भोजन कराना चाहिए. इसके साथ ही फल, वस्त्र, दक्षिणा एवं दान कार्य करने से पितृ दोष से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है. मघा श्राद्ध एक वैदिक कर्म है इसे पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति के साथ किया जाना चाहिए.

    मघा श्राद्ध समय सभी कामों को पूरे विधि विधान से करने से पितरों को सुख एवं शांति प्राप्त होती है. किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो, तो उन लोगों के लिए भी मघा नक्षत्र में अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं. श्राद्ध समय दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से पितर दोष से मुक्ति मिल सकती है.

    मघा नक्षत्र में कोई नवीन एवं मांगलिक कार्य नहीं किये जाते. जो व्यक्ति अपने पितरों का श्राद्ध नहीं करते वे पितृऋण से मुक्त नहीं हो पाते हैं, फलतः उन्हें पितृ-दोष का कष्ट झेलना पड़ता है. इसलिए कहा जाता है कि अपनी सामर्थ्यानुसार श्राद्ध अवश्य करना चाहिए.

    श्राद्ध में ध्यान रखने योग्य बातें

    • श्राद्ध पक्ष में किसी व्यक्ति की मृत्यु तिथि के अनुसार ही श्राद्ध कार्य किया जाता है.
    • श्राद्ध कार्य में बहती नदी, में दूध, जौ, चावल, काले तिल इत्यादि प्रवाहित किए जाते हैं.
    • गंगाजल का उपयोग तर्पण करने के कार्य में उप्योग लाया जाता है.
    • पितरों के लिए किए जाने वाले पिंडदान को पके हुए चावल, दूध और काले तिल से बना कर पिंड रुप दिया जाता है. इस सामग्री से बनाए गए पिंड को शरीर का प्रतीक ही माना जाता है.
    • यदि किसी कारण से पिंडदान, श्राद्ध नहीं कर पाते हैं तो किसी ब्राह्मण या गरीब व्यक्ति को भोजन, धन अथवा अन्न का दान करना उत्तम माना गया है.
    • अगर किसी कारण या साधनों के अभाव में श्राद्ध नहीं कर पाते हैं तो किसी नदी में स्नान करने के उपरांत अपने पितरों का ध्यान करते हुए काले तिल जल में प्रवाहित करके भी तर्पण कार्य किया जा सकता है.
    • पितरों की स्मृति में गाय को खाना अवश्य खिलाना चाहिए.
    • पीपल पर जल चढ़ाना और तेल का दीपक प्रज्जवलित करना भी पितरों के लिए उत्तम माना गया है.
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    जीवित्पुत्रिका व्रत 2025, संतान की दीर्घायु और सुख की कामना को करता है पूरा

    संतान की लम्बी ऊम्र और उसके सुख की कामना के लिए किया जाता है जीवित्पुत्रिका व्रत. जीवित्पुत्रिका व्रत इस वर्ष 14 सितंबर, 2025 को रविवार, के दिन मनाया जाएगा. इस दिन व्रत को माताएं अपने बच्चों के आरोग्य और उनके सुखी जीवन की प्राप्ति करने की इच्छा से करती हैं. जीवित्पुत्रिका व्रत एक अत्यंत ही प्रभावशाली ओर शुभदायक व्रत माना गया है.

    जीवित्पुत्रिका व्रत को “जिउतिया” या “जितिया” नाम से भी जाना जाता है. इस व्रत को मुख्य रुप से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में मनाया जाता है. इस व्रत को निर्जला उपवास के रुप में रखने का विधान रहा है. महिलाएं इस व्रत को अपने बच्चों के अच्छे स्वास्थ्य एवं निरोगी काया के लिए रखती हैं.

    जीवित्पुत्रिका की पूजाविधि

    जीवित्पुत्रिका व्रत को प्रदोष काल व्यापिनी अष्टमी के दिन किया जाता है. इस दिन स्नान के पश्चात व्रत का संकल्प किया जाता है. व्रत करने वाले को प्रदोष काल में गाय के गोबर से पूजा स्थल को लीपकर साफ करना चाहिए. पुराने समय में इस कार्य द्वारा ही स्थान को शुद्ध किया जाता था. पर आज के समय में हल्दी गंगा जल द्वारा भी स्थान को पवित्र कर सकते हैं.

    साथ ही एक छोटा-सा तालाब भी वहां बना लेते हैं . इस तालाब के पास पाकड़ के पेड़ कि डाल लाकर खडी़ कर देनी चाहिए. जीमूतवाहन की कुश से बनी मूर्ति को पानी में या फिर मिट्टी के पात्र में स्थापित कर देनी चाहिए. इस चित्र या मूर्ति को पीले और लाल रंग से सजाना चाहिए. अब इस प्रतिमा या चित्र का धूप-दीप, अक्षत, फूल माला से पूजन करना चाहिए. प्रसाद तैयार करके पूजा करनी चाहिए.

    मिट्टी या गाय के गोबर से मादा चील और मादा सियार की मूर्ति भी बनानी चाहिए. दोनों प्रतिमाओं पर तिलक लगाना चाहिए. लाल सिन्दूर अर्पित करना चाहिए. इनका भी पूजन करना चाहिए. व्रत करते हुए जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा को भी सुनना चाहिए.

    जीवित्पुत्रिका व्रत के बारे में अलग अलग मान्यताएं भी मिलती हैं. कुछ के अनुसार एक दिन का तो कुछ के अनुसार तीन दिन तक इस उत्सव को मनाया जाता है. पहले दिन व्रत में महिलाएं पूजा करती हैं और रात के समय सरपुतिया की सब्जी या नूनी का साग बनाकर खाया जाता है. दूसरे दिन को खर या खुर जितिया कहा जाता है. यह खुर जितिया इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत रहती हैं. तीसरे और आखिरी दिन में पारण होता है. पारण के बाद ही खाना खाया जाता है. गले में लाल धागे के साथ माताएं जिउतिया भी पहनती हैं.

    जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

    जीवित्पुत्रिका व्रत में कथा को सुनने से व्रत का फल कई गुना बढ़ जाता है. जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा जीमूतवाहन से संबंधित है. यह कथा इस प्रकार है –

    जीमूतवाहन गन्धर्व राजकुमार था, वह बहुत ही अच्छे चरित्र का और सभी के कल्याण की भावना रखने वाला था. उसके कार्यों द्वारा सभी लोग उससे प्रसन्न रहते और उससे प्रेम करते थे. जीमूतवाहन के पिता गंधर्वों में बहुत उच्च स्थान पर आसीन थे. जीमूतवाहन के पिता ने बहुत समय राज्य करने के उपरांत वृद्धा अवस्था आने पर अपने राज्य को बेटे को सोंप देने की इच्छा व्यक्त की. पर बेटे जीमूतवाहन का मन इस ओर नहीं था. लेकिन पिता उसे फिर भी राज्य का शासन सौंप कर वहां से वन की ओर चल पड़ते हैं. कुछ समय राज्य करने के बाद जीमूतवाहन राज्य का भार अपने भाई को दे कर खुद भी अपने पिता की पास वन की ओर निकल पड़ता है. राजसिंहासन त्याग कर जीमूतवाहन अपने पिता कि सेवा में लग जाता है.

    जीमूतवाहन एक दिन कही जा रहे होते हैं तो मार्ग में उन्हें एक वृद्धा स्त्री रोते हुए दिखाई देती है. वह उस स्त्री से उसके रोने का कारण पूछते हैं. वृद्धा स्त्री उसे बताती है कि वह नाग वंश में जन्मी स्त्री है और उसकी एक ही संतान है. पर उसके यहां एक प्रथा चली आ रही है कि गरुड राज के सामने नागों को नियमित रुप से एक नाग भेंट देना होता है. आज उस स्त्री के पुत्र की बारी होती है. वह स्त्री बहुत रोती है और जीमूतवाहन से पुत्र को बचा लेने की सहायता मांगती है.

    वृद्धा के दुख को देख कर जीमूतवाहन उसे आश्वासन देते हैं कि वह उसके पुत्र की रक्षा अवश्य करेंगे. वृद्धा कहती है पर ये होगा कैसे, जीमूतवाहन कहता है की आज तुम्हारे पुत्र के बदले मै उस गरुड राज के सामने चला जाउंगा. और तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा होगी. मैं अपने आपको लाल कपडे में ढक कर शिला पर लेट जाउंगा. इतना कहकर जीमूतवाहन ने लाल वस्त्र लिया और वे उसे लपेटकर शिला पर जाकर लेट जाता है. गरुड आता है और जीमूतवाहन को पंजे में दबा कर सबसे ऊंज पर्वत के शिखर पर जाकर बैठ जाते हैं. गरुड ने देखा की वह नाग पुत्र नहीं है कोई और है.

    गरुड ने जीमूतवाहन से उसका परिचय पूछा. जीमूतवाहन गरुड के समक्ष सारा वृतांत सुना देता है. गरुड जीमूतवाहन की परोपकारिता और निडरता से प्रसन्न होकर उससे वर मांगने को कहते हैं. जीमूतवाहन नाग बली नहीं लेने का उनसे वचन लेता है. गुरुण उससे प्रसन्न होकर जीमूतवाहन के प्राण नहीं लेता और उसे जीवन दान देकर सभी नागों को बली से मुक्त कर देता है. इस तरह से जीमूतवाहन के निस्वार्थ भाव और शौर्य से नाग-जाति की रक्षा हुई और तभी से पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा और संतान के आरोग्य व सुख कि कामना के लिए इस व्रत को किया जाता है.

    जीवित्पुत्रिका व्रत महात्म्य

    आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन प्रदोषकाल समय जीवितपुत्रिका पूजा की जाती है. पुत्रवती स्त्रियां इस दिन अपने बच्चों के सुखी जीवन की कामना करती हैं.

    जीवित्पुत्रिका व्रत के विषय में भगवान शिव माता पार्वती को इसकी महिमा बताते हुए कहते हैं कि जो संतानवती स्त्रियां एवं जिन्हें संतान की प्राप्ति की लालसा है वह सभी लोग इस जीवित्पुत्रिका व्रत के दिन व्रत रखते हैं ओर जीमूतवाहन की पूजा क्था सुनते हैं उनके वंश का कभी नाश नही होता है.

    जीमूतवाहन की पूजा उपासना करने के बाद ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए और दक्षिणा दे कर उनसे संतान सुख का आशीर्वाद लेना चाहिए. अगले दिन व्रत का पारण करना चाहिए. यह व्रत पुत्र-पौत्रों का सुख देता है और आरोग्य प्रदान करता है.

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    चंद नवमी 2025

    भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को श्री चंद्र नवमी के रुप में या जाता है. यह उत्सव उदासीन संप्रदाय के प्रवर्तक चंद्र जी के लिए समर्पित है. इस वर्ष 01 सितंबर 2025 को चंद्र नवमी मनाई जाएगी.

    भारतवर्ष की तपोभूमि में समय-समय पर धार्मिक विचारों का जन सैलाब सदैव ही उमड़ता रहा है. यह किसी एक व्यक्ति की बात हो या फिर किसी जन समूह की. सभी ने धार्मिक विचारधारा में अपना-अपना विशेष योगदान भी दिया और जिसकी अमिट छाप किसी न किसी रुप में आज भी देखने को मिलती है.

    इस धार्मिक वैचारिक मार्ग में एक नाम श्रीचंद जी का भी आता है. श्रीचंद जी ने अपने विचारों ओर कार्यों द्वारा जो भी सामाज कल्याण के कार्य किए वह सभी आज भी एक आर्दश के रुप में स्थापित हैं. श्री चंद्र जी द्वारा धर्म के क्षेत्र में जो भी अनुसंधान और नए विचार आए वह सभी आज भी सभी के पथ प्रदर्शक बने हुए हैं.

    कौन थे बाबा श्री चंद जी

    चन्द जी का समय काल 1494–1643 के मध्य का माना गया है. श्री चंद्र जी का जन्म सिखों के गुरु नानक देव जी के घर हुआ था. श्री चंद्र जी ने पिता की ही भांति अपने कार्यों द्वारा लोक कल्याण की भावना को सर्वोपरी दर्शाया.

    श्री चंद्र बचपन से ही साधना और आध्यात्मिक यात्रा में निकल पड़े थे. जिस अवस्था में बच्चे खेलकूद में व्यस्त रहते हैं, उस समय बाबा श्रीचंद जी एकांत में उपासना और समाधि में लीन रहते थे. उन्हें वन में एकांत समय बहुत भाता था जहां वह अपनी चेतना और ज्ञान का विकास करने में लगे रहते थे.

    युवा होने पर वह देश भ्रमण को निकल पड़े. इस समय उन्हेंने देश के अनेक क्षेत्रों की यात्राएं की साथ ही अनेक साधु-संतों से मिले और उनके साथ अपने ज्ञान को बांटा.

    श्री चंद्र जी जहां भी गए अपनी शब्द वाणी और धार्मिक चेतना द्वारा सभी को आश्चर्य से भर दिया. अपने प्रयासों द्वारा दुखियों के कष्टों का निवारण भी किया. उनके कार्यों द्वारा उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैलती चली जाती है. उनसे मिलने के लिए सभी लोग बहुत व्याकुल से रहते थे. उनके दर्शनों की अभिलाषा करने में बहुत से हिन्दू राजाओं के साथ ही मुगल बादशाह भी शामिल रहे.

    बाबा श्री चन्द से जुड़ी कथाएं

    श्री चन्द जी से संबंधित कुछ कथाएं भी प्राप्त होती हैं जो उनके चमत्कारों ओर उनकी महत्ता को दर्शाती हैं. एक कथा अनुसार जब श्री चन्द जी देश भ्रमण के दौरान कश्मीर जाते हैं तो बाबा अपनी मस्ती में धूप में बैठे हुए थे. उसी समय एक जमींदार ने यह देखकर की ये कैसा बाबा खुद तो धूप के मजे ले रहा है. जब बाबा को अपनी ही फिक्र है तो वह दूसरों का क्या भला कर पाएगा और क्या छाया देगा.

    श्री चंद जी उसके मन की बात को समझ गए और उसी समय उन्होंने कुंड से जलती हुई लकड़ी निकालकर धरती में गाड़ देते हैं. पल भर में वह लकड़ी विशाल चिनार के वृक्ष में बदल जाती है. यह चमत्कार देख कर जमींदार बाबा श्री चन्द जी के पैरों में गिर पड़ता है और अपने अज्ञान की माफी मांगता है. माना जाता है कि तब से वह वृक्ष चंद चिनार के नाम से आज भी है.

    एक अन्य कथा अनुसार –

    कहा जाता है कि रावी नदी के किनारे चम्बा शहर के राजा राज्य चलता था. उस राजा के आदेश बिना कोई भी नाविक किसी संत-महात्मा को नदी पार नहीं करा सकता था. एक बार बहां श्री चंद जी आते हैं और नाविक से नदी पार करने की इच्छा जताते हैं. लेकिन नाविक उन्हें राजा के आदेश की बात बताते हुए नाव पार कराने से मनअ कर देते हैं ओर राजा से आदेश लेकर आने को कहते हैं. इस पर श्री चंद जी ने वहां पड़ी एक बड़ी शिला को नदी में ढकेल कर उस पर बैठकर नदी पार कर लेते हैं.

    नाविक यह दृश्य देख राजा के पास जा कर उन्हें बाबा श्री चंद जी के बारे में बताते हैं. राजा को पता लगा तो वह दौड़ कर और बाबा के चरणों में गिर जाता है और उनका सेवक बन जाता है. श्री-चंद ने उसे अपना कर उसे अहंकार का त्याग करने को कहा. राज को धर्म का उपदेश देकर उसके अज्ञान को दूर किया. बाबा के आशीर्वाद से राजअ को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है. कहा जाता है की जिस शिला को बबा चंद जी ने अपनी नाव के रुप में उपयोग किया था वह आज भी चम्बा में स्थापित है.

    उदासीन(उदासी) संप्रदाय के संस्थापक

    श्री चंद्र जी ने उदासीन संप्रदाय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. उदासीन संप्रदाय सिख-साधुओं का एक महत्वपूर्ण सम्प्रदाय भी रहा है. उनके इस संप्रदाय में बहुत सी शिक्षाएँ सिख पंथ से लीं गयी थीं.श्री चंद्र जी ने मानवता के विचार को सदैव ऊपर रखा. वह एक प्रकार की अहिंसात्मक प्रवृत्ति की ओर बहुत अधिक झुकाव भी रखते थे. श्री चंद्र जी की बातों में सदैव ही भोलापन ओर मासूमियत की एक अनोखी छटा थी. वह सभी के मध्य प्रेम और सदभाव की भावना को स्थान देने की बात करते रहे.

    कुछ मामलों में उनके विचारों को जैन धर्म से प्रभावित भी मान लिया गया. उनके विचारों पर सभी लोगों की सहमति इस कारण भी नही बन पाई क्योंकि अहिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण उन्हें अकर्मण्य भी कहा गया. परंतु अनेक लोगों द्वारा उनके ज्ञान की उस गहराई को समझा गया जो सभी के जीवन को प्रकाशित और शुभ बनाने के समर्थन में था.

    बाबा श्री चंद जी ने अपने विचारों में यह बात मुख्य रुप से कही की हमें हर सुख-दुख को समान भाव से ही देखना चाहिए. उसमें स्वयं को जोड़ना नहीं चाहिए. इस के प्रति उदासीन भाव रखने से मन को कष्ट नहीं होता है. श्री चंद जी ने सिखों के छठे गुरु श्री हरगोविंद जी के बड़े पुत्र बाबा गुरदित्ता जी को अपना उत्तराधिकारी बनाकर स्वयं को समाधी में लीन कर लिया था.

    उदासीन संप्रदाय शिक्षाएं

    उदासीन संप्रदाय के मत में अनेक बातें पता चलती हैं. इनके विचारों में कई बातों को अलग-अलग स्थानों में बांटा गया है. इनकी चार प्रधान शाखाएं निकलती हैं. इस संप्रदाय को मानने वाले लोग सनातन धर्म के प्रति आस्था रखते हैं. वैदिक काल से चली आ रही पांच तत्वों की महत्ता को भी ऊपर रखते हैं. जल, अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश का पूजन करते हैं.

    इसकी एक शाखा फूल साहिब वाली बहादुरपुर की शाखा बनी है. इसकी दूसरी शाखा बाबा हसन की आनन्दपुर के निकटवर्ती चरनकौल की शाखा मानी गई है. इसकी तीसरी शाखा अलमस्त साहब की पुरी नामक नैनीताल की शाखा है. इसकी चौथी शाखा गोविंद साहब की शिकारपुर वाली शाखा हैं यह सभी शाखाएं या कहें विचारधाराएं एक-दूसरी से अलग भी दिखाई भी देती हैं. सभी शाखाएं मे एक दूसरे से स्वतंत्र भी जान पड़ती हैं.

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    कल्कि अवतार

    भगवान श्री विष्णु के मुख्य अवतारों में से एक अवतार कल्कि भी है. यह वह अवतार है जिसे अभी आना है क्योंकि पौराणिक ग्रंथों के आधार पर कलियुग के अंतिम चरण में कल्कि अवतार होगा. युग गणना के आधार पर अभी कलियुग का प्रथम चरण ही चल रहा है.

    कल्कि जयंती कब मनाते हैं

    कल्कि जयंती का पर्व श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है. शास्त्रों के अनुसार कलियुग के अंतिम दौर में भगवान विष्णु का दसवां अवतार कल्कि अवतार के नाम से विख्यात होग्गा. यह अवतार कलियुग और सतयुग के संधि काल में होगा, जो 64 कलाओं से युक्त होगा.

    कल्कि अवतार समय

    पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री विष्णु के कल्कि केअवतार का आगमन उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद ज़िले के संभल नामक स्थान पर होगा. यहां परर्हने वाल दंपति विष्णुयशा नाम के एक ब्राह्मण परिवार में होगा. न कल्कि भगवान का वाहन श्वेत रंग का घोड़ा होगा जिस पर सवार होकर वह सभी बुराईयों का अंत करेंगे. पापियों का नाश करके फिर से धर्म की रक्षा करेंगे.

    श्रीमद्गागवत में 12वें स्कंद के 24वें श्लोक में कल्कि अवतार के बारे में बताया गया है. इसके अनुसार गुरु, सूर्य और चन्द्रमा जब एक साथ पुष्य नक्षत्र में होंगे तो उस समय श्री विष्णु भगवान कल्कि रुप में जन्म लेंगे.

    “सम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।

    भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति।।”

    पौराणिक मान्यता के अनुसार इनके अवतार लेने के बाद ही सतयुग का आरम्भ होगा.

    क्यों लेते हैं भगवान अवतार ?

    यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

    परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

    धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

    गीता में दिए गए इस श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं, जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर जन्म लेता हूं. सज्जनों और साधुओं की रक्षा के लिए, गलत लोगों और पापियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में जन्म लेता हूं. यही भगवान के प्रत्येक अवतार का मुख्य सार रहा है. जिसके द्वारा भगवान श्री नारायण ने प्रत्येक युग में अवतार लिया और संसार के कष्टों को दूर करके शुभता की स्थापना की.

    विष्णु के दस अवतार कौन से है ?

    श्री विष्णु के दस अवतारों में भिन्न-भिन्न रुपों को रचा और अपने लीला रूप धर कर सदैव दुखों को दूर किया . भक्तों को बचाने एवं धर्म की रक्षा हेतु प्रभु ने हर काल में अवतार लिया. विष्णु भगवान के रूप को वेद-पुराणों में विस्तार रुप से दर्शाया गया है. भगवान विष्णु के 24 अवतार माने गए हैं, जिनमें से दस प्रमुख रुप से विशेष स्थान पाते हैं जो इस प्रकार हैं. इसमें से प्रमुख अवतार मत्स्य अवतार है.

    भगवान विष्णु ने मछली का रूप धरा ओर पृथ्वी के जल मग्न होने पर सृष्टि की रक्षा करते हैं. कूर्म अवतार में विष्णु ने समुद्रमंथन के समय पर्वत को अपने कवच पर संभाला था उनकी सहायता से देवों एवं असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नों की प्राप्ति की. वाराह अवतार में भगवान विष्णु ने पृथ्वी कि रक्षा की थी, और हिरण्याक्ष नामक राक्षस का वध किया था. नरसिंहावतार में धरकर भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यप का वध करके भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी.

    वामन अवतार में तीन पग से तीन लोक नाप कर राजा बलि से देवतओं की रक्षा की. त्रेता युग में राम रुप में आकर रावण का वध किया और सत्य की स्थापना करते हैं. द्वापर में कृष्णावतार रूप में कंस का अंत करके प्रजा की ओर धर्म की रक्षा करी.

    परशुराम अवतार लेकर पापियों का नाश किया और अंत में कल्कि अवतार जो भविष्य में कलियुग के अंत में आयेंगे और पापियों का अंत करके लोगों के दुख दूर करेंगे. इस प्रकार भगवान विष्णु जी ने सभी युगों में धर्म की रक्षा की और लोगों को अत्याचारियों के हाथों से मुक्त किया.

    कल्कि अवतार से संबंधित मतभेद

    भगवान के अवतारों में सबसे विवादित और भ्रम से भरपूर यही अवतार ही रहा है. इस अवतार को लेकर इसकी संदेहास्पद स्थिति इस कारण भी है की कोई भी इसे पूरी तरह से एकमत राय नही बना पाया. कल्कि अवतार को कुछ स्थानों पर माना गया है की ये अवतार हो चुका है, और कुछ के अनुसार अभी अवतार नहीं हुआ है. यह कल्कि अवतार कलयुग के अंतिम चरण में होगा. कल्कि पुराण के अनुसार कलयुग में भगवान विष्णु कल्कि रूप में अवतार लेंगे. भगवान एक बार फिर से सतयुग का आरंभ होगा. स्कंद पुराण में भी कल्कि अवतार के बारे में वर्णन मिलता है.

    कुछ धर्म ग्रंथों एवं गद्य में ऐसा उल्लेख व गुणगान मिलता है की कल्कि अवतार हो चुका है. वायु पुराण के अनुसार कल्कि अवतार कलयुग के चर्मोत्कर्ष पर जन्म ले चुका है. इसमें विष्णु की प्रशंसा करते हुए दत्तात्रेय, व्यास, कल्कि विष्णु के अवतार कहे गए हैं. मत्स्य पुराण के द्वापर और कलियुग के वर्णन में कल्कि के होने का वर्णन मिलता है. कवि जयदेवऔर चंडीदास के अनुसार कल्कि अवतार हो चुका है. बौध और जैन ग्रंथों में भी कल्कि विषय से मिलते जुलते साक्ष्य प्राप्त होते हैं. जैन पुराणों में कल्कि नाम के सम्राट के बारे में पता चलता है. इसके अनुसार कल्कि सम्राट का शासनकाल महावीर की मृत्यु के हजार साल बाद हुआ था.

    इस तरह से भगवन के इस अवतार को लेकर बने हुए मतभेद होना सामान्य है. लेकिनास्था ओर तर्क की अवधारण पर सभी बातों को बिठा पाना संभव नहीं हो पाता है. ऎसे में रामायण की यह चौपाई इस स्थान पर बहुत ही सटीक बैठती है- जेहिके जही पर सत्य स्नेहु सो तेहि मिलेयी ना कछु सन्देहु”

    कलयुग का आगमन कैसे हुआ

    कलयुग का आरंभ राजा परीक्षित के समय के बाद से आरंभ होना माना गया है. इसके पीछे एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार राजा परिक्षित जब अपने राज्य से गुजर रहे होते हैं तो वह मार्ग में देखते हैं कि एक बहुत ही बलिष्ठ व्यक्ति गाय और बैल को मार रहा होता है. वह बैल अत्यन्त सुन्दर था, उसका श्वेत रंग था और केवल एक पैर था. गाय भी कामधेनु के समान सुन्दर थी.

    उन दोनों पशुओं की ये दशा देख कर राजा परीक्षित ने उस दुष्ट को डांटते हुए कहा की वो उन कमजोर पशुओं को क्यों सता रहा है, मैं तुझे अभी इसका दण्ड देता हूं ऎसा कहते हुए राजा परिक्षित ने अपनी तलवार निकाल ली, राजा के कथन सुन वह दुष्ट व्यक्ति भय से कांपने लगा और राजा परीक्षित के चरणों में गिर कर क्षमा मंगने लगा. उसी समय वह बैल धर्म रुप में और गाय पृथ्वी रुप में राजा के समक्ष अपने रुप को धरते हैं और अपने दुख का कारण राजा को बताते हैं. सम्राट परीक्षित कलियुग के क्षमा याचना मांगने पर उसे प्राणदान देते हैं और उसे निकल जाने का आदेश देते हैं. ऎसे में कलियुग कहता है की राजा सारी पृथ्वी तो आप की ही है और इस समय मेरा पृथ्वी पर होना काल के अनुरूप है, क्योंकि द्वापर समाप्त हो चुका है और मेरा आगमन होना है.

    इस पर राजा परिक्षित बहुत विचार करने के पश्चात हे कलियुग को द्यूत, मद्यपान, परस्त्रीगमन, हिंसा और स्वर्ण में रहने का स्थान देते हैं. उसी क्षण कलयुग इन स्थानों पर सदैव के लिए स्थापित हो जाता है और कलयुग का पृथ्वी पर आगमन होता है. इसी कल्युग के समापन हेतु कल्कि अवतार होगा.

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    महालक्ष्मी व्रत 2025 समापन और महालक्ष्मी व्रत उद्यापन, पूजा विधि

    महालक्ष्मी व्रत का प्रारम्भ भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होता है और आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर इसका समापन होता है. 16 दिनों तक चलने वाले इस व्रत में देवी लक्ष्मी की पूजा का विधान बताया गया है. महा लक्ष्मी व्रत के प्रभाव से जीवन में आर्थिक तंगी कभी नहीं सताती है. कर्जों से मुक्ति प्राप्त होती है और घर-परिवार का सुख प्राप्त होता है.

    31 अगस्त 2025 से शुरु होगा महालक्ष्मी व्रत और 14 सितंबर 2025 को समाप्त होगा.

    महालक्ष्‍मी व्रत के दिन प्रात:काल उठकर स्‍नान आदि से निवृत्त होकर, माता लक्ष्मी का स्मरण करना चाहिए. श्री लक्ष्मी जी के पूजन के लिए मंदिर के स्थान पर माता लक्ष्मी जी के चित्र अथवा मूर्ति की स्थापना करनी चाहिए. पूजन स्‍थल में मां लक्ष्‍मी के सामने हाथ में जल भरकर व्रत का संकलप लेना चाहिए यदि व्रत न कर सकें तो पूजा का संकल्‍प लेते हुए लक्ष्मी मंत्र का जाप करना चाहिए -: “महालक्ष्मी च विद्महे, विष्णुपत्नी च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात्।”

    देवी लक्ष्मी जी कि पूजा में लाल रंग का उपयोग अवश्य करना चाहिए. माता को गुलाब के फूल अर्पित करने चाहिए. अथव अकमल का पुष्प भी अर्पित किया जा सकता है. इसके अलावा पूजा में लाल चंदन, सुपारी, इलायची, फूल माला, अक्षत, दूर्वा, लाल सूत, नारियल, पान इत्यादि रखना चाहिए. विभिन्न प्रकार के भोग एवं मिठाई लक्ष्मी जी को चढ़ानी चाहिए. लक्ष्मी पूजा में खीर का भोग भी अवश्य लगाना चाहिए. सुबह और शाम के दोनों प्रहर में माँ लक्ष्मी का पूजन करना चाहिए.

    राधा अष्टमी का पूजन

    इस दिन महा लक्ष्मी जी की पूजा के साथ ही राधा जी का पूजन भी करना चाहिए. क्योंकि इसी दिन राधा अष्टमी भी होती है. धार्मिक पौराणाकि मान्यताओं के अनुसार राधा जी लक्ष्मी का ही स्वरुप भी मानी गई हैं इसलिए इस दिन राधा जी का पूजन करना भी अत्यंत ही शुभ फलदायी होता है. ब्रज और बरसाना क्षेत्रों में इस दिन को विशेष रुप से उल्लास और उत्साह के साथ मनाए जाने की परंपरा लम्बे समय से ही चली आ रही है. इस दिन बरसाना की रानी राधा जी का जन्म होता है और इस शुभ दिन के समय पर झांकियां निकाली जाती हैं. राधा रानी मंदिरों इस दिन को उत्सव के रुप में मनाया जाता है.

    महालक्ष्मी व्रत कथा

    प्राचीन समय में पुरंदरपुर नामक सुदर नगर हुआ करता था और मंगलसेन नाम का राजा राज्य करता था. वह स्थान सभी सुखों, रत्नों से भरा हुआ था. वहां रत्न मणियां ऎसे ही पड़ी रहती थी. वहां के निवासी भी सब प्रकार से सुखों से युक्त थे. राजा मंगलसेन की दो रानियां थी एक चिल्ल और दूसरी चोल.

    राजा मंगल अपनी रानी चोल के साथ महल पर बैठा हुआ था, जहां एक स्थान को देख अपनी पत्नी से उस स्थान पर एक अत्यंत सुंदर स्थल बनाने की बात कहता है. राजा ने उस स्थान पर एक अत्यंत मनोहर उद्यान का निर्माण करवा दिया. एक बार उस बाग में एक शूकर घुस आता है और वह उस बागान को खराब कर देता है. सैनिक राजा को ये समाचार सुनाते हैं. राजा सेना के साथ उस शुकर को मारने के लिए चल निकला. शूकर का पिछा करते-करते राजा एक वन में जा पहुंचा जहां शूकर को सामने देख वह उसे बाण से मार देता है. शूकर अपने शरीर को छोड़कर दिव्य गंधर्व रूप में आ गया जाता है.

    गंधर्व राजा से कहता है की राजन मुझे शूकर योनि से छुड़ा कर आपने मुझ पर बहुत कृपा करी है. हे राजन ! मैं प्रसन्न हुआ, आप भविष्य में महालक्ष्मी व्रत करें इस व्रत को प्रभाव से चक्रवर्ती राजा बन कर वर्षों तक सुख पूर्वक राज कर पाओगे. महालक्ष्मी का पूजन तथा व्रत करके राजा अपने समस्त ऐश्वर्य का भागी बनता है और सुख पूर्वक रहने लगता है.

    व्रत से संबंधित मान्यताएं

    श्री महालक्ष्मी व्रत 16 दिनों का होता है. हर दिन माता का पूजन और कीर्तन होता है. किसी कारण से सोलह दिनों तक लगातार न कर पाने के कारण ही इस व्रत को 3 दिन भी करने का विधान बताया गया है. इसके साथ 1 दिन के व्रत का भी विधान है.

    तीन दिनों में कुछ तिथियों को ध्यान में रखा है. इन तिथियों में पहली तिथि व्रत के आरंभ अर्थात अष्टमी तिथि, दूसरी तिथि में महा लक्ष्मी पूजन का आठवां दिन और पूजा का अंतिम अर्थात सोलहवां दिन. इन तीन दिनों में व्रत किया जा सकता है. इन तीन दिन व्रत करके महालक्ष्मी व्रत का संपूर्ण फल प्राप्त होता है.

    इस व्रत का आरंभ करने पर प्रति दिन प्रातः काल उठकर सोलह बार कुल्ला करना चाहिए और मुंह धोना चाहिए. ब्रह्म मुहूर्त समय स्नान आदि नित्य कर्म कर लेने चाहिए. इसके बाद लक्ष्मी की प्रतिमा की स्थापना पूजा घर में करके पूजा आरंभ करनी चाहिए. पूजा में 16 सूत के धागे में 16 गांठ लगानी चाहिए. पूजा के पश्चात इस मंत्र से पूजा किए गए धागे को दाहिने हाथ में बांध लेना चाहिए. उसके पश्चात माता लक्ष्मी का विधि विधान से पूजन करना चाहिए.

    पूजा स्थल में जल से भरा कलश रखें, गुलाब के फूल, माला, अक्षत, पान- सुपारी, लाल सूत, नारियल और भोग रखना चाहिए. हाथ में धागा बांधने के बाद सोलह हरी दूर्वा और सोलह अक्षत लेकर महालक्ष्मी व्रत की कथा सुननी चाहिए. इस प्रकार आश्विन कृष्ण अष्टमी को माता लक्ष्मी की प्रतिमा का षडोपचार पूजन करके विसर्जन करना चाहिए.

    महालक्ष्मी व्रत उद्यापन

    महालक्ष्मी व्रत के अंतिम दिन में व्रत का संकल्प पूरा किया जाता है. व्रत के संपूर्ण हो जाने के बाद एक सुंदर सा मंडप बनाया जाता है अगर मंडप का निर्माण न हो पाए तो एक चौकी पर लाल वस्त्र को डाल कर उस पर देवी लक्ष्मी की मूर्ति अथवा चित्र को स्थापित करना चाहिए. प्रतिमा को पंचामृत से स्‍नान करवाना चाहिए. देवी लक्ष्मी के लिए सोलह प्रकार के पकवान भी बनाने चाहिए. षडोपचार विधि से देवी का पूजन करना चाहिए. पूजन के बाद ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए. अगर हो सके तो 16 ब्राह्मणों को भोजन करना उत्तम होता है.

    इसके अतिरिक्त संभव हो तो 16 सुहागन स्त्रियों, ब्राह्मणियों अथवा कन्याओं को भी भोजन करवा सकते हैं. ब्राह्मण भोजन के बाद दान-दक्षिणा भेंट करनी चाहिए. इस व्रत के बारे में महाभारत में भी वर्णन प्राप्त होता है जिसके अनुसार इस व्रत की महत्ता को भगवान स्वयं प्रकट करते हैं. इस व्रत को करने से सभी प्रकार के आर्थिक कलेशों का नाश होता है. चाहे इस व्रत को एक दिन, तीन दिन अथवा 16 दिन किया जाए, अगर विश्वास और पूर्ण शृद्धा के साथ करते हैं तो इस व्रत के उत्तम फलों को पाते हैं.

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