कजली तीज 2024 : जाने इसकी कथा और पूजा विधि

सौभाग्य और सुख की प्राप्ति में एक और व्रत है जिसे कजली तृतीया के रुप में मनाया जाता है. भाद्रपद माह में आने वाला यह व्रत सुख एवं सौभाग्य को देने वाला होता है. भाद्र माह के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को कज्जली तृतीया का पर्व मनाते हैं. कजली तृतीया को कजरी, सातुड़ी तीज जैसे अनेकों नामों से पुकारा जाता है. कज्जली तृतीया का त्यौहार भारत के अनेक क्षेत्रों में मनाया जाता है. देश के कई भागों में कज्जली तीज के दिन व्रत धारण किया जाता है इस दिन माता पार्वती का पूजन भी होता है.

कज्जली तृतीया व्रत शुभ मुहूर्त

इस वर्ष कज्जली तृतीया व्रत का पर्व 21 अगस्त 2024 को बुधवार के दिन किया जाएगा.

  • तृतीया तिथि आरंभ – 21 अगस्त 2024 पर 17:07.
  • तृतीया तिथि समाप्त – 22 अगस्त 2024 पर 13:47.

वैवाहिक संबंधों की शुभता, अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति और जीवन साथी के साथ रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए तीज का व्रत रखा जाता है. दूसरी तीज की तरह यह भी हर सुहागन के लिए महत्वपूर्ण है. इस दिन भी पत्नी अपने पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखती है व कुंआरी लड़कीयां अच्छा वर प्राप्ति के लिए यह व्रत अत्यंत ही शुभदायक होता है.

तृतीया तिथि की देवी पार्वती को बताया गया है, पुराण अनुसार यह व्रत महिलाओं को सौभाग्य, संतान एवं गृहस्थ जीवन का सुखदायक बनाने वाला होता है.

क्यों मनाया जाता है कज्जली तीज

  • कज्जली तीज का पर्व सुहागन स्त्रियां पति की लम्बी आयु के लिए करती हैं.
  • इस व्रत को करने से मनोवांछित वर की प्राप्ति होती है.
  • वैवाहिक जीवन में कलश कलेश दूर होते हैं और जीवन सुखमय बनता है.
  • संतान एवं परिवार की खुशहाली के लिए किया जाता है .
  • विवाह में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करता है यह व्रत.
  • पैराणिक मान्यताओं के अनुसार हिमालय की पुत्री पार्वती ने ही इस व्रत को सबसे पहले किया था. अत: इस दिन देवी पार्वती और भगवान शिव का पूजन किया जाता है.

कज्जली तृतीया पूजा विधि

कज्जली तीज के दिन प्रात:काल उठ कर पूजन आरंभ होता है. इस दिन पूर्व या उत्तर मुख होकर हाथ में जल, चावल, पुष्प और पैसे लेकर इस व्रत का संकल्प लेना चाहिए. शुद्ध एवं सात्विक आचरण करना चाहिए. इससे आन्तरिक शक्ति मजबूत होती है. व्रत करते हुए दिन में सोना नहीं चाहिए. पूजा में धूप, दीप, चन्दन, फूल-माला, चावल, शहद का प्रयोग करना चाहिए. पूजन के दौरान माता पार्वती को श्रृंगार की वस्तुएं और लाल रंग की चुनरी चढ़ानी चाहिए.

धर्म शास्त्रों के अनुसार इस दिन घर या मन्दिर को मण्डप बना कर सुंदर तरीके से सजाना चाहिए. पूजा के मण्डप के स्थान पर कलश स्थापना करनी चाहिए. शिव- गौरी की स्थापना करके मंत्रों से देवी पार्वती और शिव का पूजन करना चाहिए. पूजा के बाद गुड़ और आटे से बने मालपुओं का भोग भगवान को अर्पित करना चाहिए. देवी दुर्गा को इस व्रत में शहद अर्पित करने का भी विधान बताया गया है. अगले दिन सामर्थ्य और क्षमता अनुसार ब्राह्मण को दान दक्षिणा देनी चाहिए और भोजन कराने के पश्चात स्वयं व्रत का पारण करना चाहिए.

कज्जली तृतीया कथा

कज्जली तृतीया से अनेकों पौराणिक एवं लोक जनश्रुति के आधार पर कथाएं भी मिलती हैं. पौराणिक कथा में इसके अलावा एक और कथा इस तीज से जुडी है. यह कथा भगवान शिव के देवी पार्वती के साथ विवाह की है. माता पार्वती शिव से विवाह करना चाहती थीं लेकिन भगवान शिव वैरागी ही रहना चाहते थे. तब देवी पार्वती ने शिव को प्रसन्न करने और उन्हें पाने के लिए कठोर तप किया कई शस्त्रों वर्षों तक तपस्या की. अपनी तपस्या में उन्होंने आहार बिना तप किया जिस कारण भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें जीवन संगनी के रुप में स्वीकार करते हैं. भगवान शिव और देवी पार्वती के एक साथ होने के पर्व को ही कज्जली तीज के रुप में मनाया जाता है.

अखंड सौभाग्य और दांपत्य सुख के लिए किया जाता है कज्जली व्रत

मान्यता अनुसार इस दिन देवी पार्वती और भगवान शिव का पूजन करने से प्रेम ओर जीवन में सुख की प्राप्ति होती है. कुंवारी कन्याओं के लिए भी यह व्रत अत्यंत ही प्रभावशाली माना गया है. इस व्रत के करने से मनपसंद जीवन साथी की प्राप्ति होती है. जिस प्रकार माता का सुहाग अखंड है उसी प्रकार सुहागन स्त्रीयां इस दिन व्रत पूजा करके अपने सुहाग की लम्बी उम्र की कामना करती हैं और आशीर्वाद पाती हैं.

 

कहा जाता है कि शिव ने पार्वती से खुश होकर इसी तीज के दिन देवी पार्वती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारा किया था. इसलिए इसे कज्जली तीज कहा जाता है.

कज्जली तृतीया व्रत महात्म्य

कज्जली तृतीया की इतनी महत्ता को बताया गया है की इसकी प्रमाणिकता और प्रभावशालिता स्वयं धर्म ग्रंथों द्वारा लक्षित होती है. मान्यताओं अनुसार कज्जली तृतीया का व्रत को देवताओं के राजा इंद्र की पत्नी शचि ने भी किया था. अपने पति की रक्षा एवं उसके सुख की प्राप्ति के लिए यह व्रत किया. इसी व्रत के प्रभाव से शचि को संतान सुख प्राप्त होता है.

महाभारत में भी इस व्रत के विषय में कुछ तथ्य प्राप्त होते हैं. इस में युधिष्ठिर को भगवान श्रीकृष्ण ने इस व्रत की महिमा के बारे में बताया. श्री कृष्ण कहते हैं कि हे कुंति पुत्र, भाद्र मास की कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को देवी पार्वती की पूजा करने के लिए सात अनाजों से माता की मूर्ति बनाकर पूजा करनी चाहिए. इस दिन दुर्गा की भी पूजा होती है. कज्जली तृतीया व्रत नियम का पालन करने से वाजपेयी यज्ञ करने के समान फल प्राप्त होता है. व्रत के प्रभाव से कभी जीवनसाथी का वियोग नहीं मिलता है.

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ज्येष्ठ अमावस्या 2024 – जाने ज्येष्ठ अमावस्या व्रत पूजा विधि और महत्व

ज्येष्ठ माह में आने वाली 30वीं तिथि “ज्येष्ठ अमावस्या” कहलाती है. इस अमावस्या तिथि के दौरान पूजा पाठ और स्नान दान का विशेष आयोजन किया जाता है. हिन्दू पंचांग में अमावस्या तिथि को लेकर कई प्रकार के मत प्रचलित हैं ओर साथ ही इस तिथि में किए जाने वाले विशेष कार्यों को करने की बात भी की जाती है. ज्येष्ठ अमावस्या को जेठ अमावस्या, दर्श अमावस्या, भावुका अमावस्या इत्यादि नामों से पुकारा जाता है.

ज्येष्ठ अमावस्या पूजा मुहूर्त

इस वर्ष 07 जून 2024 को बृहस्पतिवार के दिन ज्येष्ठ अमावस्या मनाई जाएगी. ज्येष्ठ अमावस के दौरान चंद्रमा की शक्ति निर्बल होती है. अंधकार की स्थिति अधिक होती है. इस वातावरण में नकारात्मकता का प्रभाव भी अधिक होता है. इसलिए इस समय पर तंत्र से संबंधित कार्य भी किए जाते हैं. ऐसा कहा जाता है तांत्रिकों के लिए ये रात खास होती है, जब वे अपनी सिद्धियों से विभिन्न शक्तियों को जाग्रत करते हैं.

ज्येष्ठ अमावस्या पर स्नान का महत्व

किसी भी अमावस्या के दौरान पवित्र नदियों में स्नान करने की महत्ता अत्यंत ही प्राचीन काल से चली आ रही है. पूर्णिमा के समान ही अमावस्या पर भी पवित्र नदियों में स्नान का महत्व है. इस दिन स्नान करने पर शरीर में मौजूद नकारात्मक तत्व दूर होते है. मानसिक बल मिल मिलता है और विचारों में शुद्धता आती है. शरीर निरोगी बनता है वहीं बुरी शक्तियां भी दूर रहती हैं. स्नान करने से विशेष ग्रह नक्षत्रों का भी लाभ प्राप्त होता है.

  • ज्येष्ठ अमावस्या पर क्या नहीं करना चाहिए
  • व्यक्ति को मांस मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • धन उधार नहीं लेना चाहिए.
  • कोई नई वस्तु नहीं खरीदनी चाहिए.
  • ज्येष्ठ अमावस्या का प्रभाव माह के अनुसार और ग्रह नक्षत्रों के द्वारा विभिन्न राशियों के लोगों पर भी पड़ता है. इसलिए इस दिन गलत कार्यों से दूरी रखनी चाहिए और व्रत-उपासना इष्ट देव की आराधना करनी चाहिए.

ज्येष्ठ अमावस्या पर दान पुण्य का फल

निर्णय सिंधु जैसे ग्रथों में ज्येष्ठ अमावस्या के दिन दान की महत्ता के विषय में कहा गया है. इस दिन असमर्थ एवं गरीबों को दान करने. ब्राह्मणों को भोजन करवाने से सहस्त्र गोदान का पुण्य फल प्राप्त होता है. अमावस्या के दिन दूध से बनी वस्तुओं अथावा श्वेत वस्तुओं का दान करना चंद्र ग्रह के शुभ फल देने वाला होता है.

ज्येष्ठ अमावस्या उपाय

अमावस्या के अवसर पर सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है पितरों के निम्मित दान. इस समय पर पितृ शांति के कार्य किये जाते हैं. इस तिथि के समय पर प्रात:काल समय पितरों के लिए सभी कार्यों को किया जाना चाहिये. इस दान को करने से नवग्रह दोषों का नाश होता है. ग्रहों की शांति होती है, कष्ट दूर होते हैं.

ज्येष्ठ अमावस्य मे क्या करें

  • ज्येष्ठ अमावस्या पर गाय, कुते और कौओं को खाना खिलाना चाहिए.
  • ज्येष्ठ अमावस्या के दिन पीपल और बड़ के वृक्ष का पूजन करना चाहिए.
  • पितरों के लिए तर्पण के कार्य करने चाहिए.
  • पीपल पर सूत बांधना चाहिये, कच्चा दूध चढ़ाना चाहिये.
  • काले तिल का दान करना चाहिए.
  • दीपक भी जलाना चाहिये.

ज्येष्ठ अमावस्या लाभ

  • इस दिन उपासना से हर तरह के संकटों का नाश होता है.
  • संतान प्राप्ति और संतान सम्बन्धी समस्याओं का निवारण होता है.
  • अपयश और बदनामी के योग दूर होते हैं.
  • हर प्रकार के कार्यों की बाधा दूर होती है.
  • कर्ज सम्बन्धी परेशानियां दूर होती हैं.

ज्येष्ठ अमावस्या शनि जयन्ती

ज्येष्ठ अमावस्या के दिन ही शनि जयंती भी मनाई जाती है. मान्यता है कि इस दिन ही शनि देव का जन्म हुआ था. ऎसे में इस दिन शनि जयंती होने कारण शनि देव का पूजन होता है. इस दिन शनि के मंत्रों व स्तोत्रों को पढ़ा जाता है. ज्योतिष दृष्टि में नौ मुख्य ग्रहों में से एक शनि देव को न्यायकर्ता के रुप में स्थान प्राप्त है. मनुष्य के जीवन के सभी अच्छे ओर बुरे कर्मों का फल शनि देव ही करते हैं. इस दिन शनि पूजन करने पर पाप प्रभाव कम होते हैं और शनि से मिलने वाले कष्ट भी दूर होते हैं.

शनि जयंती पर उनकी पूजा-आराधना और अनुष्ठान करने से शनिदेव विशिष्ट फल प्रदान करते हैं. इस अमावस्या के अवसर पर शनिदेव के निमित्त विधि-विधान से पूजा पाठ, व्रत व दान पूण्य करने से शनि संबंधी सभी कष्ट दूर होते हैं ओर शुभ कर्मों की प्राप्ति होती है. शनिदेव पूजा के लिए प्रात:काल उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर शनिदेव के निमित्त सरसों या तिल के तेल का दीपक पीपल के वृक्ष के नीचे जलाना चाहिए. साथ ही शनि मंत्र “ॐ शनिश्चराय नम:” का जाप करना चाहिए. शनिदेव से संबंधित वस्तुओं तिल , उड़द, काला कंबल, लोहा,वस्त्र, तेल इत्यादि का दान करना चाहिए.

ज्येष्ठ अमावस्या के दिन होता है वट सावित्री व्रत

ज्येष्ठ अमावस्या के दिन “वट सावित्र” एक अन्य महत्वपूर्ण दिवस भी आता है. वट सावित्री व्रत स्त्रीयों द्वारा अखंड सौभाग्य एवं पति की लम्बी आयु के लिए रखा जाता है. इस दिन स्त्यवान और सावित्री की कथा सुनी जाती है और पीपल के वृक्ष का पूजन होता है. ज्येष्ठ अमावस्या पर विशेष तौर पर शिव-पार्वती के पूजन करने से भगवान की सदैव कृपा बनी रहती है. इस व्रत को करने से मनोकामनाएं शीघ्र पूर्ण होती हैं. कुंवारी कन्याएं इस दिन पूजा करके मनचाहा वर पाती हैं और सुहागन महिलाओं को सुखी दांपत्य जीवन और अपने पति की लंबी आयु का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

ज्येष्ठ अमावस्या के दिन शाम के समय नदी के किनारे या मंदिर में दीप दान करने का भी विधान है. इसी के साथ पीपल के वृक्ष का पूजन उस पर दीप जलाना ओर उसकी प्रदक्षिणा करना अत्यंत आवश्यक होता है और शुभ लाभ मिलता है. इस दिन प्रातः उठकर अपने इष्टदेव का ध्यान करना चाहिए. शास्त्रों में इस दिन पीपल लगाने और पूजा का विधान बताया गया है. जिसको संतान नहीं है, उसके लिए पीपल वृक्ष को लगाना और उसका पूजन करना अत्यंत चमत्कारिक होता है. पीपल में ब्रह्मा, विष्णु व शिव अर्थात त्रिदेवों का वास होता है. पुराणों में कहा गया है कि पीपल का वृक्ष लगाने से सैंकड़ों यज्ञ करने के समान फल मिलता है और पुण्य कर्मों की वृद्धि होती है. पीपल के दर्शन से पापों का नाश, छुने से धन-धान्य की प्राप्ति एवं उसकी परिक्रमा करने से आयु में वृद्धि होती है.

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छिन्नमस्तिका मेला 2024 – दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ मेला

देवी की शक्तियों में से एक मां छिन्नमस्तिका का स्वरुप अत्यंत ही प्रभावशाली है. छिन्नमस्तिका को चिन्तपूर्णि माता के नाम से भी जाना जाता है. देवी के सभी रुपों का संबंध विभिन्न शक्ति पीठों से रहा है. भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में देवी के शक्ति पीठ मौजूद हैं. चिंतपूर्णी धाम हिमाचल मे स्थित है यह स्थान हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है जहां प्रतिवर्ष धार्मिक मेलों का आयोजन होता है.

छिन्नमस्तिका धाम में गिरे थे सती के चरण

51 शक्ति पीठों मे से एक इस धाम कि मान्यता है की इस स्थान पर देवी सती के चरण गिर थे. इस स्थान पर जाने से भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं. देवी छिन्नमस्तिका॒ छठी महाविद्या॒ कहलाती हैं. नवरात्रि समय एवं छिन्नमस्तिका जयंती समय देवी के इस शक्तिपीठ पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है. जिसमें देश-विदेश से लाखों शृद्धालु देवी के दर्शन हेतु इस पवित्र स्थान पर आते हैं.

हिमाचल में मौजूद इस शक्तिपिठ पर छिन्नमस्तिका मेले का आयोजन होता है. इसमें भजन, जागरण, कीर्तन झांकियां मुख्य रुप से होती हैं. धूमधाम के साथ मनाए जाने वाले इस मेले में भक्त देवी की विशेष पूजा अर्चना करते हैं. छिन्नमस्तिका मेले में मंदिर को रंग-बिरंगी॒ रोशनियों और फूलों से सजाया जाता है. मंदिर में मंत्रोच्चारण के साथ पाठ का आयोजन किया जाता है. मेले में लाखों श्रद्धालु माथा टेकने आते हैं.

छिन्नमस्तिका क्यों कहलाती हैं माता चिंतपूर्णी

छिन्नमस्तिका देवी को मां चिंतपूर्णी स्वरुप बताया गया है अर्थात माता का चिंतन करने से भक्तों के सभी कष्ट दूर होते हैं चिंताओं का नाश होता है. मान्यता है की देवी का निवास जिस स्थान पर होता है वहीं पर भगवान शिव भी विराजमान होते हैं. इस मान्यता की पुष्टि मेले वाले स्थान पर भगवान शिव का भी स्थान होने से भी होती है. इस बात की सत्यता इस जगह से साबित हो जाती है. देवी के इस स्थान के चारों ओर भगवान शिव का स्थान भी है. यहां पर कालेश्वर महादेव व मुच्कुंड महादेव तथा शिववाड़ी जैसे शिव मंदिर स्थित हैं.

छिन्नमस्ता कथा

दैत्यों को परास्त करके देवों को विजय दिलवाई तो चारों ओर उनका जय घोष होने लगा. परंतु देवी की सहायक योगिनिय अजया और विजया की रक्त की प्यास शांत नही हो पाती हैं. वह देवी के समक्ष अपनी शांति हेतु प्रार्थना करती हैं. इस पर उनकी रक्त की प्यास को बुझाने के लिए माता अपना मस्तक काट देती हैं. तब माता के कटे हुए मस्तक से रक्त की धाराएं निकल पड़ती हैं. इन रकत से उनकी योगिनियों की प्यास शांत होती है. वह माता का रक्त पीने लगती हैं. ऎसे में माता छिन्नमस्तिका कहलाईं और अपने रक्त से उनकी रक्त प्यास बुझाई.

एक अन्य कथा स्वरुप इस प्रकार है – देवी भवानी अपनी दो सहचरियों के संग मन्दाकिनी नदी में स्नान रही थी. स्नान करने पर दोनों सहचरियों को बहुत तेज भूख लगी. भूख कि पीडा से उनका रंग काला हो गया. तब सहचरियों ने भोजन के लिये भवानी से कुछ मांगा. भवानी के कुछ देर प्रतिक्षा करने के लिये उनसे कहा, किन्तु वह बार-बार भोजन के लिए हठ करने लगी.

उनके वचन सुनते ही भवानी ने अपनी तलवार से सिर काट दिया. कटा हुआ सिर उनके बायें हाथ में आ गिरा और तीन रक्तधाराएं बह निकली. दो धाराओं को उन्होंने सहचरियों की और प्रवाहित कर दिया. जिन्हें पान कर दोनों की भूख शांत हो गई. तीसरी धारा जो ऊपर की ओर बह रही होती हैं जिसे माता छिन्नमस्तिका स्वयं पान करने लगती हैं.

छिन्नमस्तिका मेला महत्व

मेला छिन्नमस्तिका का एक अपना धार्मिक महत्व रहा है. यह सभी भक्तों के लिए अत्यंत ही उत्साह और साधना का दिन होता है. माता की शक्ति को पाने एवं उनके आशीर्वाद को पाने के लिए मेले के आरंभ होने से कुछ दिन पहले से ही जोर-शोर से तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं. माता के दरबार को बहुत ही सुंदर तरह से सजाया जाता है. इस मेले के दौरान माता के शक्ति पाठ का आयोजन भी होता है. दुर्गा सप्तशती के पाठ का आरंभ किया जाता है. इसमें साधु साधक एवं आम व्यक्ति सहित सभी भक्त भाग लेते हैं. इस मेले में श्रद्धालुओं को खाना लंगर रुप में परोसा जाता है इस भोग में माता की पसंद की अनेकों चीजें बनाई जाती हैं.

देवी छिन्नमस्तिका मेले में जो भी सच्चे मन से आता है उसकी हर मुराद पूरी होती है. मां का आशीर्वाद सभी पर इसी तरह बना रहे इसके लिए मां के दरबार में विश्व शांति व कल्याण के लिए मां की स्तुति का पाठ भी किया जाता है. मेले में मंदिर की ओर से श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए व्यापक प्रबंध किए जाते हैं. इस मौके पर हजारों श्रद्धालुओं मां की पावन पिंडी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करते हैं.

छिन्नमस्तिका स्वरुप

पौराणिक कथाओं में छिन्नमस्तिका से संबंधित अनेकों कथाएं प्राप्त होती हैं. जिसमें से एक कथा हयग्रीव उपाख्यान से ली गई है. इसमें बताया गया है की गणपति जी के वाहन मुषक यानि चूहे की कृपा से धनुष प्रत्यंचा को तोड़ दिया गया. इसकी आवाज और टूटने के कारण से सोते हुए विष्णु के सिर के कट जाने का वर्णन इस कथा में मिलता है. इस घटना को छिन्नमस्तिका से संबंधित माना गया है.

शक्ति का यह रुप एक हाथ में तलवार धारण किए और दूसरे हाथ में मस्तक धारण पकड़े हुए हैं. अपने कटे हुए सिर से निकलती रक्त की जो धाराएं निकलती हैं, उनमें से एक को स्वयं पीती हैं और अन्य दो धाराओं से वर्णिनी और शाकिनी नाम की दो सहेलियों को तृप्त कर रही होती हैं.

देवी को जिस भाव से याद किया जाए वह उसी रुप में प्राप्त होती हैं. साधक माता को शक्ति के उग्र रुप में भी पा सकता है और शांति रुप में भी प्राप्त कर सकता है.

देवी छिन्नमस्तिका साधना लाभ

इस मेले में देवी के अनेकों भक्ति शक्ति और साधना में लगे रहते हैं. नवरात्रि एवं छिन्नमस्तिका जयंती के दौरान इन मेलों में देवी की शक्ति का बहुत ही असरदायक प्रभाव देखने को मिलता है. इस मेलों में देवी की पूजा मन से करने, ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान इत्यादि कर देवी की प्रतिमा के समक्ष लाल फूलों की माला चढ़ानी चाहिए. माता के समक्ष साधना एवं पूजन कार्य करने चाहिए. मातअ को प्रसाद भेंट करना चाहिए. माता अपने हर भक्त की रक्षा के लिए सदैव उपस्थित हैं.

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आषाढ़ पूर्णिमा 2024 : आज के दिन पूरे होंगे सारे काम

आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि के दौरान श्री विष्णु भगवान का पूजन और गुरु का पूजन किया जाता है. वर्ष भर में आने वाली सभी प्रमुख पूर्णिमाओं में एक आषाढ़ पूर्णिमा भी है. इस दिन भी किसी विशेष कार्य का आयोजन होता है और विशेष पूजन भी होता है. इस दिन भी चंद्रमा अपनी समस्त कलाओं से युक्त होता है.

सत्यनारायण कथा का पाठ भी पूर्णिमा के दौरान संपन्न होता है. इस दिन मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए इस कथा को सुनना और पढ़ना आवश्यक होता है. पूर्णिमा तिथि धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होती है. इस दिन जीवन चंद्रमा की तरह उच्चवल और प्रकाशमान होता है. इस प्रकाश के सामने ईश्वर भी नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते.

आषाढ़ पूर्णिमा शुभ पूजा मुहूर्त समय

इस वर्ष आषाढ़ पूर्णिमा 21 जुलाई, 2024 के दिन मनाई जाएगी.

  • पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ – 20 जुलाई , 2024 को 18:00.
  • पूर्णिमा तिथि समाप्त – 21 जुलाई , 2024 को 15:47.

गोपद्म व्रत पूजा

आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गोपद्म व्रत करने का भी विधान होता है. इस दिन श्री विष्णु भगवान का पूजन होता है. इस दिन प्रात:काल व्रत का पालन आरंभ होता है. व्रती को प्रातः स्नान करने के पश्चात श्री विष्णु के नामों का स्मरण करना चाहिए और पूरे दिन श्री विष्णु का ध्यान करना चाहिए. विष्णु भगवान का धूप, दीप, गंध, फूल आदि वस्तुओं से पूजन करनी चाहिए. पूजा के पश्चात ब्राह्मणों को विभिन्न प्रकार के पकवान खिलाने चाहिए तथा वस्त्र, आभूषण आदि दान करना चाहिए.

गोपद्म व्रत में गाय का पूजन भी करना चाहिए. गाय को तिलक लगा कर पूजन करके आशीर्वाद लेना चाहिए.
गोपद्म व्रत को पूर्ण श्रद्धाभाव से करने पर व्यक्ति के पापों की शांति होती है. इस दिन भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं व्यक्ति को मनोवांछित फल प्राप्त होता है. इस व्रत की महिमा से व्रती संसार के सभी सुखों को प्राप्त कर विष्णु लोक को पाता है.

आषाढ़ पूर्णिमा नक्षत्र पूजन महत्व

पूर्णिमा तिथि हिन्दू पंचांग के अनुसार नक्षत्र के आधार पर भी तय होती है. इस समय आषाढ़ नक्षत्र का पूजन करना भी अत्यंत ही शुभ प्रभाव वाला होता है. यदि किसी जातक का नक्षत्र पूर्वाषाढ़ा या उत्तराषाढ़ा हो तो उसके लिए इस पूर्णिमा तिथि के दिन दान और तप करने का लाभ प्राप्त होता है.

प्रत्येक माह का नामकरण पूर्णिमा तिथि को चंद्रमा जिस नक्षत्र में विद्यमान होता है उसके अनुसार होता है.आषाढ़ माह की पूर्णिमा को चंद्रमा यदि पूर्वाषाढ़ा या उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में होता है तो यह सौभाग्यदायक बनती है.

आषाढ़ पूर्णिमा पर करें सरस्वती पूजा

इस दिन जो सरस्वती का पूजन करता है, उसकी शिक्षा उत्तम रहने के योग बनते हैं. इस पूर्णिमा तिथि के दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. ये दिन अपने ज्ञान को विस्तार देने का होता है. इस दिन गुरु पूजन के साथ देवी सरस्वती पूजन का भी महत्व होता है. सरस्वती पूजा में माता की प्रतिमा व तस्वीर को स्थापित करना चाहिए. सरस्वती के सामने जलसे भरा कलश स्थापित करके गणेश जी और नवग्रह की पूजा करनी चाहिए. माता को माला एवं पुष्प अर्पित करने चाहिए. माता को सिन्दूर, अन्य श्रृंगार की वस्तुएं भी अर्पित करनी चाहिए. सरस्वती माता को श्वेत वस्त्र धारण करती हैं. देवी को सरस्वती पूजन में पीले रंग का फल अर्पित करने चाहिए. इस दिन मालपुए और खीर का भी भोग भी लगाना चाहिए.

आषाढ़ मास की पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है और इसी के संदर्भ में यह समय अधिक प्रभावी भी लगता है. गुरू के ज्ञान एवं उनके स्नेह के प्रति आभार प्रकट करती है ये आषाढ़ पूर्णिमा. गुरू को ईश्वर से भी आगे का स्थान प्राप्त है. ऎसे में इस दिन के शुभ अवसर पर गुरु पूजा का विधान है.

जीवन में गुरु का स्वरुप किसी भी रुप में प्राप्त हो सकता है. यह शिक्षा देते शिक्षक हो सकता है, माता-पिता हो सकते हैं, या कोई भी जो हमें ज्ञान के पथ का प्रकाश देते हुए हमारे जीवन के अधंकार को दूर कर सकता है. गुरु के पास पहुंचकर ही व्यक्तो को शांति, भक्ति और शक्ति प्राप्त होती है.

वेद व्यास का ज्ञान

गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह दिन महाभारत के रचयिता वेद व्यास का जन्म दिवस भी होता है. वेद व्यास जी ने वेदों की भी रचना की थी. इस कारण उन्हें वेद व्यास के नाम से पुकारा जाने लगा. उनके इसी क्रम में वेदों का आगमन होना ही हमारे जीवन को प्रकाशित करने वाला होगा.

वेदों नें जो हमें मार्ग दिया उसके द्वारा ही जीवन जीने कि प्रेरणा और प्रक्रति के साथ सृष्टि के संबंध को उजागर कर पाया है. वेद व्यास जी के द्वारा किए गए यही कार्य हमें सही अर्थों को समझने की शिक्षा देते हैं. भारत में व्यास पूर्णिमा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है. पुरातन काल से चली आ रही यह परंपरा हमारे भीतर गुरू के महत्व को परिलक्षित करती है.

गुरु की भक्ति में कई श्लोक रचे गए हैं जो गुरू की सार्थकता को व्यक्त करने में सहायक होते हैं. गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव हो पाता है और गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं हो पाता. गुरु ही ईश्वर से मेल कराता है.

आषाढ़ पूर्णिमा महत्व

भारत में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है. प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा हमारे भीतर गुरू के महत्व को परिलक्षित करती है. पहले विद्यार्थी आश्रम में निवास करके गुरू से शिक्षा ग्रहण करते थे तथा गुरू के समक्ष अपना समस्त बलिदान करने की भावना भी रखते थे, तभी तो एकलव्य जैसे शिष्य का उदाहरण गुरू के प्रति आदर भाव एवं अगाध श्रद्धा का प्रतीक बना जिसने गुरू को अपना अंगुठा देने में क्षण भर की भी देर नहीं की, तभी गुरु की महिमा इस कथन से पूर्ण होती है –

“गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:।

गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।”

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रामानुजाचार्य जयंती 2024

भारत में चली आ रही संत एवं भक्ति परंपरा के मध्य एक नाम रामानुजाचार्य जी का भी आता है. यह दर्शन शास्त्र में अपनी भूमिका को दर्शाते हैं. रामानुजाचार्य जी ने अपनी ज्ञान एवं आध्यात्मिक ऊर्जा द्वारा देश भर में भक्ति का प्रचार किया. वैष्णव सन्त होने के साथ साथ भक्ति परंपरा पर भी इनका बहुत प्रभाव रहा है. इस वर्ष रामानुजाचार्य जयंती 12 मई 2024 को रविवार के दिन मनाई जाएगी.

रामानुजाचार्य जन्म समय

रामानुजाचार्य का समय 1017-1137 ई. तक का माना जाता है. इनका जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुदूर क्षेत्र में हुआ था. रामानुजाचार्य जी के शिष्यों में रामानंद जी का नाम अग्रीण रहा है और जिनके आगे कबीर, रैदास और सूरदास जैसी शिष्य परंपरा देखने को मिलती है.

रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद

आचार्य रामानुज का विशिष्टाद्वैत दर्शन का सिद्धांत बहुत सी पुरानी मान्यताओं को दर्शाता था. यह सिद्धांत प्राचीन चले आ रहे दर्शन के अलग-अलग मतों में से एक रहा है. रामानुजाचार्य द्वारा चलाया गया यह विचार प्रभावशाली विचारों में से एक था. दक्षिण भारत में मुख्य रूप से चल रहे भक्ति आंदोलन से प्रभावित होते हुए यह आगे बढ़ता है.

विशिष्टाद्वैत का अर्थ विशिष्ट अद्वैत के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है. आचार्य रामानुज ने 1037-1137 ईसवी के समय के मध्य इस मत का प्रचार किया. यह दार्शनिक मत है जिसके द्वारा बताया गया है कि सृष्टि और जीवात्मा दोनों ब्रह्म से भिन्न हैं लेकिन वह उसी ब्रह्म से ही उद्भूत अर्थात उत्पन्न हैं, यह संबंध बहुत घनिष्ट है. इस संबंध को ऎसे समझा जा सकता है जैसे शरीर में प्राण का होना. सूर्य के साथ किरणों का होना. ब्रह्म एक होने पर भी अनेक है.

रामानुज जी ने वेदों का चिंतन किया और उसके अनुरूप – उपनिषदों तथा वेदांत सूत्रों के ब्रह्म से एकात्मता को अपनी पद्धति का आधार बनाया. ईश्वर के रूप में ब्रह्म में जीव पूरी संपूर्णता के साथ संबंधित होता है, इन्हीं बातों पर रामानुज ने अपना विचार विस्तार से रखा.

विशिष्टाद्वैत दर्शन में बताया गया है कि शरीर विशिष्ट है, जीवात्मा अंश और परमात्मा अंशी है. संसार प्रारंभ होने से पूर्व “सूक्ष्म चित विशिष्ट ब्रह्म” की स्थिति होती है संसार एवं जगत की उत्पत्ति के उपरांत ‘स्थूल चित विशिष्ट ब्रह्म’ की स्थिति रहती है. ‘तयो एकं इति ब्रह्म’ जब प्राण शरीर से मुक्त होता है तो वह सीमाओं की परिधि से छूट कर ब्रह्म में विलीन हो जाता है और उसकी यही स्थिति मोक्ष है. जो आत्मा शरीर से मुक्त होती हैं व ईश्वर की भांति हो जाती हैं किंतु ईश्वर नहीं होती हैं.

आचार्य रामानुज और शंकराचार्य के मत में क्या अंतर रहा ?

आचार्य रामानुज ने जो सिद्धांत सभी के सामने रखा उसमें आदि शंकराचार्य द्वारा दिए गए माया वाद के सिद्धांत को कुछ नकारा भी है. शंकराचार्य ने सृष्टि जिसे जगत कहते हैं उसको माया का स्वरुप कहा है, और इसे मिथ्या अर्थ्ता भ्रम दर्शाया है. रामानुज इस से अलग अपने कथन में बताते हैं कि यह संसार ब्रह्म ने ही बनाया है और इस कारण यह मिथ्या अर्थात भ्रम माया कैसे हो सकता है.

रामानुजाचार्य गुरु-शिष्य परंपरा में अग्रीण स्थान रखते हैं

रामानुज आचार्य जी को यादव प्रकाश का शिष्य बताया जाता है, पर बाद में इन दोनों के मध्य विचारों में मतभेद भी दिखाई देते हैं. जिस कारण गुरु ओर शिष्य का मार्ग अलग-अलग हो जाता है.परंतु बाद में इनके गुरु श्री यादव प्रकाश को अपनी पूर्व करनी पर पश्चात्ताप होता है और वे भी संन्यास की दीक्षा लेकर श्रीरंगम श्रीरामानुजाचार्य की सेवा में रहने लगे और उनके शिष्य बनते हैं.

श्रीरामानुचार्य के विषय में कहा जाता है की पहले वह गृहस्थ थे. किंतु बाद में वह गृहस्थ जीवन को त्याग देते हैं और अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए निकल पड़ते हैं.

रामानुजाचार्य और यमुनाचार्य का संबंध

11 वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध वेदांत विद्वान यमुनाचार्य से भी इन्हें बहुत कुछ सिखने का अवसर प्राप्त होता है. पर कुछ विचारकों के अनुसार कहते हैं कि यमुनाचार्य से रामानुज मिल नहीं पाए क्योंकि यमुनाचार्य की की मृत्य हो जाती है, जिस कारण एक दूसरे इनकी मुलाकात नहीं हो पाती है.

कुछ किवदंतियों के अनुसार यह पता चलता है की यमुनाचार्य मृत्यु उपरांत रामानुजाचार्य जी को उनका स्थान प्राप्त होता है. वह श्री वैष्णव संप्रदाय के नए गुरु के रूप में स्थापित भी होते हैं.

श्रीरामानुजाचार्य कांचीपुरम में रहते थे और यमुनाचार्य जी श्रीरंगम के मठाधीश प्रसिद्ध आलवार संत थे. कहा जाता है कि जब श्री यामुनाचार्य जी को अपनी मृत्यु का आभास हुआ तो उन्होंने अपने शिष्यों द्वारा श्री रामानुजाचार्य को अपने पास बुलाने का संदेश भेजा. तब उनके शिष्य रामानुजाचार्य के पास संदेश लेकर पहुंचे. रामानुजाचार्य जी तुरंत यामुनाचार्य जी से मिलने के लिए निकल पड़ें , किंतु रामानुजाचार्य के यामुना जी से मिलने से पुर्व ही यामुनाचार्य जी की मृत्यु हो जाती है.

रामानुज जी ने जब यामुनाचार्य जी के पार्थिव शरीर को देखा तो पाया की उनके हाथ की तीन उंगलियां मुड़ी हुई थीं. सभी लोगों को जब इस का आभास हुआ तो उन्होंने इस रहस्य को जानने की इच्छा प्रकट की. रामानुजाचार्य जी ने इस रहस्य का भेद बताते हुए कहा कि – श्रीयामुनाचार्य कहना चाहते हैं कि “मै अज्ञान जनों को जो भोग विलास में हैं जीवन के सही अर्थ को नहीं समझ पाए हैं. उन लोगों को नारायण के चरणकमलों में लगाकर बिना किसी भेद भाव के उनकी रक्षा करता रहूंगा. उनके इतना कहते ही यामुनाचार्य जी की एक अंगुली खुलकर सीधी हो जाती है.

दूसरे वचन में रामानुज कहते हैं “मैं लोगों की रक्षा एवं उनके ज्ञान को बेहतर करने हेतु परम तत्वज्ञान से युक्त श्री भाष्य की रचना करुंगा. इस कथन के साथ ही यामुनाचार्य जी की दूसरी अंगुली भी खुलकर सीधी हो जाती है और अपने अंतिम तीसरे कथन में रामानुजाचार्य जी कहते हैं. पराशर मुनि जिस प्रकार लोगों के कल्याण हेतु और उनकी उन्नति का मार्ग बताते हुए विष्णु पुराण की रचना करते हैं, उनके ऋण को चुकाते हुए मैं यामुनाचार्य किसी योग्य शिष्य को उनका नाम दूंगा.

रामानुज आचार्य जी के यह कहते ही यामुनाचार्य तीसरी उंगली भी खुल कर सीधी हो जाती है. सभी शिष्य एवं वहां उपस्थित लोगों द्वारा इस बात को समझ कर बिना किसी संदेह और विवाद के सभी ने अपनी सहमति प्रकट करते हुए श्री रामानुजा ही अगले आलवन्दार का आसन प्रदान होता है.

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चंपा द्वादशी (चंपक द्वादशी) 2024

ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को चंपक द्वादशी का पर्व मनाया जाता है. इस वर्ष चम्पा द्वादशी 19 जून 2024 को मनाई जाएगी. इस तिथि में भगवन श्री विष्णु का पूजन होता है और भगवान की चंपा के फूलों से पूजा होती है. श्री कृष्णा को चंपा के फूल अति प्रिय हैं और इस दिन उनका श्रृंगार करने से वो प्रसन्न होते हैं और मनोवांछित फल प्राप्त होता है.

चम्पा द्वादशी के अन्य नाम

हर महीने दो द्वादशी तिथि आती है. जिनमें से एक द्वादशी को भगवान श्री विष्णु जी के पूजन से जोड़ा गया है. द्वादशी तिथि को विष्णु द्वादशी के नाम से जाना जाता है. इस दिन शास्त्रों में भगवान विष्णु के भिन्न-भिन्न रुपों की पूजा आराधना करने का महत्व बताया गया है. इसलिए श्रद्धालुओं को इस दिन भगवान श्री विष्णु के कृष्ण रुप की पूजा करने से सुख-संपत्ति, वैभव और एश्वर्य की प्राप्ति होती है.

चम्पा द्वादशी को राघव द्वादशी और रामलक्ष्मण द्वादशी के नाम से भी संबोधित किया गया है. इस दिन विष्णु के अवतार श्रीराम और श्री लक्ष्मण की मूर्तियों का पूजन भी होता है. राम और लक्ष्मण की पूजा करने के बाद एक घी से भरा हुआ घड़ा या कलश दान करने से सौभाग्य में वृद्धि होती है. पाप समाप्त होते हैं, मोक्ष पद की प्राप्ति होती है.

उदया तिथि के साथ व्रत का प्रारंभ होता है. सर्वप्रथम ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर पूजा के लिए आसन पर बैठना चाहिए. धरती पर कुछ अनाज रखकर उसके ऊपर एक कलश की स्थापना करें. कलश में पूजा के लिए एक भगवान विष्णुजी की प्रतिमा को डाल दें. अबीर, गुलाल, कुमकुम, सुगंधित फूल, चंदन से भगवान की पूजा करें. भगवान को खीर का भोग लगाना चाहिए. ब्राह्मण भोजन का आयोजन करना चाहिए. ब्राह्मणों वस्त्र, दक्षिणा आदि का दान करना चाहिए. मान्यता है कि त्रयोदशी तिथि को प्रतिमा को किसी योग्य ब्राह्मण को दान कर करना उत्तम होता है.

चंपक द्वादशी पूजा विधि

  • चंपक द्वादशी तिथि के दिन भगवान श्री कृष्ण का स्मरण करते हुए दिन का आरंभ करना चाहिए.
  • दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर, पूजा का संकल्प करना चाहिए.
  • श्री कृष्ण का पूजन करना चाहिए. भगवान श्री विष्णु के कृष्ण रुप की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए.
  • इस दिन श्री विष्णु के राम अवतार का भी पूजन करना चाहिए.
  • श्री रामदरबार को सजाना चाहिए.
  • चंदन, अक्षत, तुलसी दल व पुष्प को भगवान श्री विष्णु के कृष्ण नाम व श्री राम नाम को बोलते हुए भगवान को अर्पित करने चाहिए.
  • भगवान की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करवाना चाहिए. इसके पश्चात प्रतिमा को पोंछ कर सुन्दर वस्त्र पहनाने चाहिए.
  • भगवान को दीप, गंध , पुष्प अर्पित करना, धूप दिखानी चाहिए.
  • अगर चम्पा के फूल उपलब्ध ना हों तो पीले-सफेद फूलों का उपयोग कर सकते हैं. साथ ही चंदन को अर्पित करना चाहिए.
  • आरती करने के पश्चात भगवान को भोग लगाना चाहिए.
  • भगवान के भोग को प्रसाद रुप में को सभी में बांटना चाहिए. सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए व दान-दक्षिणा इत्यादि भेंट करनी चाहिए.

चंपक द्वादशी व्रत में एकादशी से ही व्रत का आरंभ करना श्रेयस्कर होता है. अगर संभव न हो सके तो द्वादशी को व्रत आरंभ करें. पूरे दिन उपवास रखने के बाद रात को जागरण कीर्तन करना चाहिए और दूसरे दिन स्नान करने के पश्चात ब्राह्मणों को फल और भोजन करवा कर उन्हें अपनी क्षमता अनुसार दान देना चाहिए. जो पूरे विधि-विधान से चम्पा द्वादशी का व्रत करता है वह बैकुंठ को पाता है. इस व्रत की महिमा से व्रती के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह सभी सांसारिक सुखों को भोग कर पाता है.

चंपा के फूलों का पूजा में महत्व

चंपा द्वादशी के दिन भगवान श्री कृष्ण के पूजन में चम्पा फूलों का मुख्य रुप से उपयोग होता है. एक अन्य मान्यता है कि चंपा के पुष्प का संबंध शिव भगवान से भी रहा है. लेकिन ज्येष्ठ मास की द्वादशी के दिन श्री विष्णु पूजन में इन पुष्पों का उपयोग विशेष आराधना और मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए होता है.

चंपा के फूलों के विषय में एक पौराणिक मान्यता भी बहुत प्रचलित है जिसके अनुसार चंपा के फूलों पर न ही कोई भंवरा और न ही तितली, मधुमक्खी बैठते हैं. एक कहावत है कि ’’चम्पा तुझमें तीन गुण-रंग रूप और वास, अवगुण तुझमें एक ही भँवर न आयें पास’’। रूप तेज तो राधिके, अरु भँवर कृष्ण को दास, इस मर्यादा के लिये भँवर न आयें पास।।

मान्यताओं अनुसार चम्पा को राधिका और कृष्ण को भंवरा और मधुमक्खियों को गोप और गोपिकाओं के रूप में माना गया है. राधिका कृष्ण की सखी होने के कारण मधुमक्खियां चम्पा पर कभी नहीं बैठती हैं.

वास्तुशास्त्र में भी इस पुष्प को अत्यंत शुभ माना गया है. यह सौभाग्य का प्रतीक माना गया है. इसे घर पर लगाने से धन संपदा का आगमन होता है.

इस फूल में परागण नहीं होता जिस कारण तितली अथवा भवरे इत्यादि इस पर नहीं आते हैं. इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि चंपा फूल वासना रहित माना होता है यह सभी गुणों से मुक्त होते हुए भी त्याग की भावना को दर्शाता है. इसलिए भगवान श्री विष्णु जी को इन फूलों की माला, कंगन, पैर के कड़े इत्यादि आभूषण बना कर शृंगार किया जाता है. इस दिन इन पुष्पों से भगवान को सजाने एवं उनका पूजन करने से वह शीघ्र प्रसन्न होते हैं.

चंपक/ चम्पा द्वादशी महत्व

ऐसी मान्यता है कि चम्पा द्वादशी के दिन चंपा के फूलों से विधिवत भगवान श्री कृष्ण की पूजा करने से व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है. चम्पा द्वादशी की कथा श्रीकृष्ण ने माहाराज युधिष्ठिर को बतलाई थी. श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा था कि, हे युधिष्ठिर ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को जो भक्त उपवास करके श्री कृ्ष्ण , राम नाम से मेरी आराधना करता है, उनको एक हजार गो के दान के बराबर फल प्राप्‍त होता है. चम्पा द्वादशी का व्रत कर विधि-विधान से पूजा करने पर मानव की सभी इच्छाएं इस लोक में पूरी होती है और विष्णु लोक की प्राप्ति होती है.

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आषाढ़ माह स्कंद षष्ठी 2024

इस वर्ष आषाढ़, शुक्ल षष्ठी को 12 जुलाई, 2024,  शुक्रवार के दिन स्कंद षष्ठी का त्यौहार मनाया जाएगा. स्कंद षष्ठी के दिन भगवान स्कंद की पूजा की जाती है. भगवान स्कंद सभी प्रकार के कष्टों को दूर करने वाले होते हैं.

स्कन्द षष्ठी पूजा मुहूर्त समय

  • स्कंद षष्ठी प्रारम्भ – 11 जुलाई को 10:05 को
  • स्कंद षष्ठी समाप्त – 12 जुलाई 12:33 को

    स्कंद षष्ठी तिथि को “कन्द षष्ठी” के नाम से भी पुकारा जाता है. भगवान कार्तिकेय का संबंध इस तिथि के साथ बहुत अधिक जुड़ा है. स्कंद भगवान के जन्म का समय षष्ठी तिथि से जोड़ा गया है. संपूर्ण भारत में ही स्कंद पूजा का बहुत महत्व रहा है पर दक्षिण भारत में स्कंद षष्ठी का पर्व और भी अधिक गहराई लिए होता है. मान्यता एवं कथाओं अनुसार भगवान का संबंध दक्षिण से बहुत गहरा रहा है, जिसके पिछे एक कथा अत्यंत ही प्रचलित रही है.

    स्कंद षष्ठी महात्म्य

    आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन स्कंद भगवान का पूजन व्रत इत्यादि रखने से त्रिदेवों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. इस व्रत के प्रभाव से संतान का सुख प्राप्त होता है. संतान को कोई कष्ट है तो इस दिन व्रत रखने और स्कंद भगवान का पूजन करने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं. स्कंद भगवान के पूजन के साथ ही भगवान शिव और माता पार्वती का पूजान भी किया जाना चाहिए.

    स्कंद षष्ठी पूजा द्वारा सफलता, सुख-समृद्धि प्राप्त होती है. हर दु:ख का निवारण हो जाता है, दरिद्रता मिट जाती है. इस व्रत को करने से क्रोध, लोभ, अहंकार, काम जैसी नकारात्मक चीजें जीवन से समाप्त होती हैं.

    भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र स्कंद को गणेश जी का बड़ा भाई माना गया है. जिस प्रकार चतुर्थी तिथि इनके भाई गणेश से संबंधित है उसी प्रकार षष्ठी स्कंद से जुड़ी है. इन दोनों की पूजा में 1 दिन का अंतर आता है जिसमें पंचमी तिथि आती है.

    स्कंद के लिए महीने की षष्ठी तिथि के लिए व्रत करने का भी विधान बताया गया है. स्कंद भगवान को कुमार भी कहा जाता है क्योंकि इनका यही स्वरुप सदैव बना रहता है. संपूर्ण भारत में ये त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. स्कंद भगवान का पूजन दिशाओं की शुभता है. वास्तु दोष भी समाप्त होते हैं. नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है.

    स्कंद भगवान कथा

    स्कंद षष्ठी के पर्व पर भगवान स्कंद की जन्म कथा को पढ़ा और सुना जाता है. इसके साथ ही भगवान की अन्य कथाओं को भी इस दिन पर सुना जाता है. प्राचीन ग्रंथों के अनुसार एक बार ऋषि नारद मुनि एक फल लेकर कैलाश गए दोनों गणेश और स्कंद मे फल को लेकर बहस हुई जिस कारण प्रतियोगिताा आरंभ होती है. कि जो पृथ्वी के तीन चक्कर सबसे पहले लगा लेगा उसे ही फल प्राप्त होगा. ऎसे में स्कंद अपने वाहन मोर पर बैठ कर यात्रा शुरू करते हैं वहीं दूसरी ओर गणेश जी ने अपने अपने माता-पिता देवी पार्वती और शिव के के चक्कर लगाकर फल को प्राप्त कर लेते हैं. जब स्कंद आते हैं तो उन्हें इस बात का पता चलता है कि ये सही निर्णय नहीं था. क्रोधित होकर वह उस स्थान से नाराज होकर दक्षिण की ओर चले जाते हैं.

    इसी कथा का एक दूसरा रुप इस प्रकार प्राप्त होता है की गणेश और स्कंद में से कौन श्रेष्ठ होगा और किसे भगवान शिव व माता पार्वती का सामीप्य प्राप्त होगा तो इसी प्रकार प्रतियोगिता आरंभ होती है और पृथ्वी के चक्कर लगाने के लिए स्कंद निकल पड़्ते हैं वहीं गणेश अपने वाहन मूषक के कारण इस प्रतियोगिता को जीत नहीं सकते थे क्योंकि मोर की उडा़न उनके मूषक की चाल से कई अधिक तीव्र होती है. ऎसे में वह अपनी बुद्धि का उपयोग करके भगवान शिव और पार्वती के ही चारों ओर चक्कर लगा लेते हैं. ऎसे में गणेश इस प्रतियोगिता में जीत जाते हैं. स्कंद इस बात को नही मानते तब गणेश कहते हैं की उनकी पृ्थ्वी एवं सृष्टि तो उनके माता-पिता ही हैं ऎसे में यदि उनके चक्कर लगा लिया जाए तो संपुर्ण पृथ्वी का चक्कर स्वयं ही पूर्ण हो जाता है. इस पर स्कंद असंतुष्ट एवं क्रोधित हो कर वहां से चले जाते हैं. इसी मान्यता के आधार पर कहा जाता है की दक्षिण भारत में स्कंद देव का पूजन बहुत ही बड़े स्तर पर होता है.

    स्कंद देव और तारकासुर संग्राम

    भगवान स्कंद का जन्म एक विशेष घटना को पूर्ण करने हेतु होता है. तारकासुर, एक अत्यंत ही शक्तिशालि दैत्य था. उसने देवों का राज्य प्राप्त करने उन पर विजय प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की और अपनी इस तपस्या के बल पर उसने ब्रह्मा जी से आशीर्वाद प्राप्त किया की वह किसी अन्य के हाथों न मारा जाए केवल शिव पुत्र ही उसका वध कर पाए.

    तारकासुर की शक्ति बहुत बढ़ जाती है और वह देवों को उन्के स्थान से निष्कासित कर देता है और उन पर अत्याचार करने लगता है. देव अपनी इस दशा से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मा जी की शरण जाते हैं पर ब्रह्मा उन्हें बताते हैं कि उसकी मृत्यु केवल भगवान शिव के पुत्र द्वारा ही संभव है इसलिए तुम सभी देवों को भगवान शिव से प्रार्थना करनी चाहिए. अत: में देवों के प्रयास द्वारा भगवन शिव का विवाह देवी पार्वती से होता है और स्कंद की उत्पत्ति होती है.

    स्कंद को देवताओं का सेनापति बनाया जाता है और एक बहुत ही बड़ा युद्ध देवताओं और असुरों के मध्य आरंभ होता है जिसमें स्कंद देव

    तारकासुर का वध करके देवताओं को उनका स्थान पुन: प्रदान करवाते हैं.

    स्कंद देव क्यों कहलाते हैं कुमार

    स्कंद भगवान को बाल रुप एवं युवा रूप में पुजा जाता है. कार्तिकेय को देवताओ से सदेव युवा रहने का वरदान प्राप्त हुआ था इसलिए वह कुमार भी कहलाते हैं. स्वामी कार्तिकेय सेनाधिपति भी हैं इसलिए किसी भी युद्ध एवं लड़ाई में विजय प्राप्ति के लिए भी इनकी पूजा करना शुभदायक होता है. सैन्यशक्ति की प्रतिष्ठा, विजय, व्यवस्था, अनुशासन इन्हीं से प्राप्त होते हैं.

    स्कंद षष्ठी पूजा और व्रत के नियम

    स्कंद षष्ठी पर स्कंद भगवान समेत उनके परिवार का भी पूजन होता है. भगवान शिव, पार्वती, गणेश समेत सभी को पूजा में स्थान देना चाहिए. मंदिर में स्कंद भगवान की स्थापना करनी चाहिए. स्कंद भगवान के समक्ष अखंड दीपक भी जलाए जाने चाहिए. स्कंद भगवान को स्नान करवाया जाता है. इस दिन स्कंद भगवान को केसर, दूध, मौसमी फल, मेवा इत्यादि अर्पित करना चाहिए. पूजा कथा के पश्चात प्रसाद का वितरण करना चाहिए.

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आषाढ़ गुप्त नवरात्रि 2024 – इसलिए मनाए जाते हैं गुप्त नवरात्रि

नवरात्रि का पर्व शक्ति की उपासना का पर्व रहा है. सृष्टि में मौजूद प्रकृति ही वह शक्ति है जो जीवन के संचालन में अपना योग्दान देती है. इसी प्रकृति का सानिध्य पाकर पुरुष का जीवन भी नए चरण एवं स्वरुप को पाता है और इसी क्रम में आने वाले नवरात्रि के 9 दिनों का अपना एक विशेष महत्व होता है. आषाढ़ मास में आने वाला यह गुप्त नवरात्रि पर्व सुखों और मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु एक वरदान होता है.

आषाढ़ गुप्त नवरात्रि शुभ मुहूर्त

इस वर्ष 06 जुलाई 2024 को शनिवार के दिन आषाढ़ गुप्त नवरात्रि का आरंभ होगा. प्रात:काल समय नवरात्रि का पूजन आरंभ होगा. इन गुप्त नवरात्रि के दिन दुर्गासप्तशती का पाठ करना चाहिए और दुर्गा के समस्त रुपों का स्मरण करना चाहिए. नवरात्रि के दिन प्रात:काल समय उठ कर माता का स्मरण करना चाहिए और माता के समक्ष घी का दीपक भी जलाना चाहिए एवं माता का पूजन आरंभ करना चाहिए.

नवरात्रि कितने होते हैं

नवरात्रि का त्यौहार माता दुर्गा को समर्पित है. इस समय के दौरान शक्ति के विभिन्न स्वरुपों का पूजन होता है. इस शक्ति उपासना में अनेकों नियमों का पालन होता है. इस में जप-तप नियमों का पालन करते हैं. नवरात्रि वर्ष में चार बार आते हैं, जिसमें से दो इस प्रकार से हैं जो बहुत विस्तार से मनाए जाते हैं. जिसे चैत्र मास के दौरान मनाया जाता है. दूसरा नवरात्रा शारदीय नवरात्रि के रुप में मनाया जाता है. यह दोनों बहुत ही व्यापक स्तर लोगों द्वारा मनाया जाते हैं.

दूसरे 2 नवरात्रि होते हैं गुप्त रुप से मनाया जाता है. सामान्य जन से अलग सिद्धि हेतु तंत्र हेतु मनाए जाते हैं. यह गुप्त नवरात्रि माघ के माह में और आषाढ़ मास में मनाया जाता है. ऎसे में ये दो समय में मनाए जाते हैं जिन्हें गुप्त नवरात्रि के रुप में मनाए जाते हैं. इन गुप्त नवरात्रि में सिद्धियों की प्राप्ति होती है.

शक्ति पूजा कथा

नवरात्रि समय शक्ति पूजन के बारे में अनेकों कथाएं प्राप्त होती हैं. इन कथाओं का आधार वेद-पुराण इत्यादि हैं. इस में एक कथा रामायण में भी प्राप्त होती है. जिसमें श्री राम द्वारा शक्ति का पूजन करना भी है. राम-रावण युद्ध में एक समय ऎसा आया जब श्री राम की सेना को हार का सामना देखना पड़ा तब उस स्थिति में श्री राम ने देवी का पूजन करके शक्ति को अपने लिए प्राप्त करने की पूजा आरंभ की.

राम ने जब शक्ति का आहवान किया तब उस पूजन में एक सौ आठ कमलों को देवी को अर्पित करते जाना था. ऎसे में राम अपनी पूजा में इन कमलों को एक-एक करके रखते जाते हैं. अंत समय पर जब एक कमल को देवी के समक्ष अर्पित करना होता है तो उस समय वह कमल नहीं होता है. इस पर श्री राम निराश हो उठते हैं परंतु उन्हें तभी इस बात का भी बोध होता है की उनकी माता उन्हें कमल नयन के नाम से पुकारा करती थीं. तो ऎसे में वह संकल्प को पूरा करने हेतु अपनी एक आंख को माता को अर्पित करने का विचार करते हैं.

वह अपने नेत्र को जैसे ही निकालने के लिए आगे बढ़ते हैं, उसी समय देवी प्रकट होकर दर्शन देती हैं और उनकी साधना के संकल्प से प्रसन्न होकर उन्हें ऎसा करने को मना करती हैं. श्री राम को विजय होने का आशीर्वाद प्रदान करती हैं. देवी के शक्ति पूजन द्वारा श्री राम जी को लंका विजय प्राप्त होती है और रावण का वध संभव हो पाता है.

महिषासुर मर्दिनी

वहीं एक अन्य कथा अनुसार महिषासुर नामक असुर का वध करने हेतु देवों ने देवी दुर्गा की रचना की. सभी देवों ने देवी के आगमन हेतु उन्हें अपनी-अपनी शक्ति प्रदान की एव्म इस प्रकार शक्ति का निर्माण हुआ, तब शक्ति के आगमन से महिषासुर संग्राम आरंभ होता है और महिषासुर का अंत संभव हो पाया. महिषासुर को मारने के उपरांत देवी को महिषासुर मर्दिनी के नाम से भी पुकारा गया.

गुप्त नवरात्रि में किया जाता है महाविद्याओं का पूजन

गुप्त नवरात्रि एक चरणबध प्रक्रिया होती है, जिसमें शक्ति का हर रंग प्रकट होता है. इस शक्ति पूजन में देवी काली, देवी तारा, देवी ललिता, देवी माँ भुवनेश्वरी, देवी त्रिपुर भैरवी, देवी छिन्नमस्तिका, देवी माँ धूमावती, देवी बगलामुखी, देवी मातंगी, देवी कमला. ये समस्त शक्तियां तंत्र साधना में प्रमुख रुप से पूजी जाती हैं.

गुप्त नवरात्र में दस महाविद्याओं के पूजन को प्रमुखता दी जाती है. यह शक्ति के दशरूप हैं. हर एक रुप अपने आप में संपूर्णता लिए होता है. जो सृष्टि के संचालन और उसमें मौजूद छुपे रहस्यों को समाए होता है. महाविद्या समस्त जीवों की पालन है. इनके द्वारा संकटों का नाश होता है. इन दस महाविद्याओं को तंत्र साधना में बहुत सामर्थ्यशील माना गया है.

आषाढ़ गुप्त नवरात्रि पर करें कैसे करें पूजा

देवी भागवत में इन गुप्त नवरात्रि के विषय में भी बताया गया है. इस समय पर तांत्रिक क्रियाएं एवं शक्ति साधना से संबंधित होते हैं इस समय के दौरान साधक को कठोर नियमों और आचरण का पालन किया जाता है. इस समय के शुद्धता एवं सात्विकता का पर बहुत ध्यान देना होता है. इस समय हुई कोई छोती सी गलती भी सारी साधना को विफल कर सकती है. ऎसे में जरुरी है की इस पूजा में सुचिता का पूरी तरह से ख्याल रखा जाए.

गुप्त नवरात्रि पूजा में सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए साधक को देह को शुद्ध करना होता है. मंत्रों के जाप के दौरान यह शुद्धिकरण संपन्न होता है. जिस स्थान पर पूजा आरंभ की जाती है उसी स्थान पर नियमित रुप से साधना करनी चाहिए. स्थान को बार-बार बदलना नहीं चाहिए. एक स्थान पर आसन पर बैठकर पूजा करनी चाहिये और जो आसन खुद के लिए उपयोग में लाएं उसे किसी ओर को उपयोग नहीं करना चाहिए. प्रत्येक दिन की सिद्धि में उसी स्वरुप को पूरी एकाग्रता और तन्मयता के साथ करना चाहिए.

आषाढ़ गुप्त नवरात्रि पर करें इस मंत्र का जाप

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी।

भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।

बगला सिद्ध विद्या च मातंगी कमलात्मिका

एता दशमहाविद्याः सिद्धविद्या प्रकीर्तिताः॥

देवी के प्रत्येक रुप का इस मंत्र में वर्णन किया गया है. यह मंत्र देवी को प्रसन्न करने का एक अत्यंत ही सहज और सरल माध्यम बनता है.

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श्रावण अमावस्या 2024 – सावन हरियाली अमावस्या इसलिए होती है खास

इस वर्ष 04 अगस्त 2024 को श्रावण अमावस्या मनाई जाएगी . सावन मास में मनाई जाने वाली अमावस्या “हरियाली अमावस्या” के नाम से भी पुकारी जाती है. इसके अलावा इसे चितलगी अमावस्‍या, चुक्कला अमावस्‍या, गटारी अमावस्‍या इत्यदि नामों से भी पुकारा जाता है.

सावन मास का समय एक ऎसा मौसम का बदलाव दिखाता है जिसमें प्रकृति की एक अलग ही छठा दिखाई देती है. इसी दौरान पर बरसात की भी अधिकता बहुत रहती है. ऎसे में इस समय के दौरान जो भी पर्व और व्रत इत्यादि आते हैं उनका इस समय के अनुरुप ही नाम और प्रभाव भी दिखाई देता है.

श्रावण अमावस्या तिथि शुभ मुहूर्त

  • अमावस्या तिथि – 04 जुलाई 2024, 
  • अमावस्या तिथि आरंभ – 03 अगस्त 2024 को 15:52 से
  • अमावस्या तिथि समाप्त – 04 अगस्त 2024 को 16:43 तक

श्रावण अमावस्या पर होती है प्रकृति पूजा

हरियाली अमावस्या त्यौहार को हरियाली के आगमन के रूप में मनाते हैं. इस दिन कृषक आने वाले वर्ष में कृषि कैसी रहेगी इस बात की आशंका जाते हैं. इस बात का पता उन्हें इस दिन से भी हो जाता है. पर यह एक अत्यंत ही पारंपरिक स्वरुप है जो लोक कहावतों के आधार पर चलता है. इस अमावस्या के दौरान प्रकृति में होने वाले शकुनों को भी देखा जाता है. इस अवसर पर पेड़ पौधों को लगाया जाता है.

वर्षो पुरानी परंपरा के अनुसार इस दिन हरियाली अमावस्या के दिन नए पौधे को लगाना भी शुभदायक होता है. हरियाली अमावस्या के दिन सभी वृक्ष पूजा करने की भी प्राचीन परंपरा चली आ रही है. इस दिन परंपरा अनुसार बड़ के वृक्ष, पीपल के वृक्ष और तुलसी के पौधे की पूजा की जाती है.

धार्मिक ग्रंथों में प्रकृति की हर वस्तु में ईश्वर का वास माना गया है, फिर चाहे नदी नदियों, पर्वतों, पेड़-पौधों में भी ईश्वर का वास बताया गया है. पीपल में त्रिदेवों का वास माना गया है, तुलसी का पूजन विष्णु का प्रतीक स्वरुप होगा. बड़ का वृक्ष भगवान शिव का स्वरुप बनता है. आंवले के वृक्ष में भगवान श्री लक्ष्मीनारायण का वास माना गया है.

सावन हरियाली अमावस्या पर मेलों का आयोजन

श्रावण हरियाली अमावस्या के अवसर देश भर में अनेक मेलों का आयोजन होता है. मुख्य रुप से धार्मिक स्थलों पर तो ये मेले विशेष रुप से लगाए जाते हैं. जिसमें सभी वर्ग के लोग शामिल होते हैं. एक-दूसरे को गुड़ इत्यादि को बांटा जाता है. इन मेल में धार्मिक पर्व का भी आयोजन होता है जैसे की हवन- अनुष्ठा, यज्ञों का आयोजन होता है. पवित्र नदियों पर स्नान की भी प्राचीन परंपरा भी धार्मिक मेलों में संपन्न होती है.

  • इस दिन अपने हल और कृषि यंत्रों का पूजन करने का रिवाज है.
  • सावन अमावस्या पर पितरों की आत्मा को शांति के लिए भी पूजा- हवन इत्यादि किया जाता है.
  • श्रावण अमावस्या के दिन पूजा पाठ करने व दान दक्षिणा देने का विशेष महत्व है.
  • पीपल तथा आंवले के वृक्ष की इस दिन पूजा की जाती है.

श्रावण अमावस्‍या का महत्‍व

अमावस्‍या या अमावस का हिन्‍दू मान्‍यताओं में धार्मिक और आध्‍यात्मिक महत्‍व सदैव ही रहा है. प्रत्येक मास की अमावस्‍या आती है, लेकिन श्रावण मास की अमावस्या भगवान शिव के प्रिय मास सावन में आती है. इस दिन विशेष रूप से पूजा-पाठ व दान-पुण्‍य किया जाता है. इस समय पर चारों ओर हरियाली होने की वजह से इसे हरियाली अमावस्‍या भी कहा जाता है. इस अमावस्‍या के दो दिन बाद हरियाली तीज आती है, जो सौभाग्य का कारक बनती है.

श्रावण अमावस्‍या की पूजन विधि

  • अमावस्‍या को पूर्वजों के लिए बेहद शुभ दिन माना जाता है. इस दिन प‍ितृ तर्पण कर अपने पूर्वजों की आत्‍मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है.
  • लोग अपने पूर्वजों के लिए पसंद का खाना बनाकर उसे ब्राह्मणों को खिलाते हैं. इस के अलाव इस भोजन को गाय, कौवा को भी खिलाया जाता है.
  • श्रावण अमावस्‍या के दिन लोग भगवान शिव की विशेष रूप से पूजा करते हैं.
  • इस अमावस्‍या के दिन शिव पूजन करने से घर में सुख, शांति और समृद्धि आती है.
  • श्रावण अमावस्‍या के दिन उपवास भी किया जाता है.
  • सुबह उठकर पवित्र नदियाों में स्‍नान कर स्‍वच्‍छ वस्‍त्र धारण करते हैं.
  • व्रत का संकल्‍प लेकर दिन पर निराहार रहते हैं.
  • संध्या समय सात्विक भोजन ग्रहण किया जाता है और उपवास खोला जाता है.
  • सच्‍चे और शुद्ध तन मन से व्रत करने पर धन-धान्य एवं वैभव की प्राप्ति होती है.
  • धर्म स्थलों एवं पवित्र नदियों में स्‍नान के पश्चात ब्राह्मणों, गरीबों और असमर्थ लोगों को यथाशक्ति दान-दक्षिणा दी जाती है.

सावन हरियाली अमावस्या उपाय

  • सावन की अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष के सामने तेल का दीपक जलाना चाहिए.
  • पीपल के वृक्षकी सात बार परिक्रमा करते हुए सूत लपेटना चाहिए.
  • पीपल के अलावा बरगद, केला, तुलसी, शमी आदि वृक्षों का पूजन करना चाहिए.
  • पीपल के पेड़ पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेवों का वास होता है. इसका पूजन करने से ग्रह शांति होती है.
  • आंवले के वृक्ष पर भगवान लक्ष्मीनारायण का वास होने से इस दिन पूजा करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है.
  • मालपुए का भोग बनाकर शिव्लिंग पर चढाने से सुख-समृद्धि प्राप्त होती है.
  • तुलसी के पास दीपक जलाने से वैवाहिक सुख की प्राप्ति होती है.
  • सावन की अमावस्या पर भगवान शिव को काले तिल चढ़ाने से दुख दूर होते हैं.
  • चीटियों को आटा और चीनी खिलाने से धन-धान्य की प्राप्ति होती है.
  • शिवलिंग पर चंदन का लेप लगाने से सौंदर्य मिलता है.
  • शिवलिंग अभिषेक से संतान सुख मिलता है.

सावन अमावस्या महत्व

सावन माह में आने वाली अमावस्या को नारद पुराण में बताया गया है की इस माह में शुरु हुई अमावस्या के दिन किया गया पूजा पाठ और वृक्ष रोपण करने से जीव की मुक्ति संभव हो पाती है. विवाह और संतान से संबंधित कष्ट दूर होते हैं. माता पार्वती का पूजन भगवान शिव के साथ संयुक्त रुप से करने से विवाह में आने वाली सभी बाधाएं दूर होती हैं. हर अमावस्या और पूर्णिमा का प्रभाव माह के अनुसार भी पड़ता है. ग्रह नक्षत्रों के हिसाब से विभिन्न राशियों के जातकों पर ही इसका प्रभाव देखने को मिलता है. ऎसे में जिन भी व्यक्तियों की कुंडली में काल सर्पदोष हो उनके लिए सावन माह की अमावस्या के दिन सर्प पूजन करना अत्यंत शुभदायक होता है.

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वरद चतुर्थी 2024 – सावन माह में ऎसे करें भगवान गणेश का पूजन

सावन माह में शुक्ल पक्ष के दौरान आने वाली चतुर्थी तिथि “वरद चतुर्थी” के नाम से मनाई जाती है. इस वर्ष 08 अगस्त 2024 को वरद चतुर्थी का व्रत संपन्न होगा. इस दिन भगवान श्री गणेश का पूजन होता है. वरद चतुर्थी का अर्थ हुआ भगवन श्री गणेश द्वारा आशीर्वाद देना. गणेश जी को अनेकों नामों से पुकारा जाता है. गणेश भगवान को विनायक, विध्नहर्ता जैसे नामों से भी पुकारा जाता है.

प्रत्येक माह की चतुर्थी तिथि भगवान गणेश से संबंधित है अत: हर माह के दौरान आने वाली चतुर्थी भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी जाती है. इस चतुर्थी को वरद विनायकी चतुर्थी के नाम से भी पुकारा जाता है. वरद चतुर्थी पर श्री गणेश का पूजन दोपहर समय पर एवं मध्याह्न समय पर करना अत्यंत ही शुभदायक होता है.

वरद चतुर्थी पूजा विधि

वरद चतुर्थी की पूजा मुख्य तौर पर दोपहर में की जाती है. इस समय पर पूजा का विशेष महत्व रहा है. वरद चतुर्थी पूजा स्थल पर भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. व्रत का संकल्प करना चाहिए. अक्षत, रोली, फूल माला, गंध, धूप आदि से गणेश जी को अर्पित करने चाहिए. गणेश जी दुर्वा अर्पित और लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए.

  • गणेश जी को दूर्वा अर्पित करते समय ऊँ गं गणपतयै नम: मंत्र का उच्चारण करना चाहिए.
  • कपूर, घी के दीपक से आरती करनी चाहिए.
  • भगवान को भोग लगाना चाहिए और उस प्रसाद को सभी में बांटना चाहिए.
  • व्रत में फलाहार का सेवन करते हुए संध्या समय गणेश जी की पुन: पूजा अर्चना करनी चाहिए. पूजा के पश्चात ब्राह्मण् को भोजन कराना चाहिए उसके बाद स्वयं भोजन ग्रहण करना चाहिए.

वरद चतुर्थी व्रत कथा

एक बार भगवान शिव और माता पार्वती जब हिमालय पर समय व्यतीत कर रहे होते हैं, तो माता पार्वती भगवान शिव से चौसर खेलने को कहती हैं. शिव भगवान माता को प्रसन्न करने हेतु चौसर खेलना आरंभ कर देते हैं. लेकिन दोनों के समक्ष हार और जीत का निर्णय हो पाना संभव नहीं था. क्योंकि उन दोनों के लिए हार जीत का फैसला कर पाने के लिए कोई तैयार नहीं होना चाहता था. ऎसे में भगवान ने एक सुझाव दिया और उन्होंने अपनी शक्ति द्वारा एक घास-फूस से बालक का निर्माण किया और उस बालक को चौसर में दोनों की हार चीज का निर्णय करने का फैसला करने का अधिकार दिया.

खेल में पाता पार्वती जीतती हैं पर बालक से पूछा गया तो वह बालक ने कहा की भगवान शिव जीते. इस प्रकार के वचन सुन माता पार्वती गुस्सा हो उठती हैं और उस पुतले रुपी बालक को सदैव कीचड़ में पड़े रहने का श्राप देती हैं. बालक के माफी मांगते हुए कहा की उसने ऎसा जानबुझ कर नही किया उसे क्षमा कर दिया जाए. बालक को रोता देखते माता पार्वती बहुत दुखी हुई और कहा की तुम्हारे श्राप की मुक्ति संभव है.

आज से एक साल बाद नाग कन्याएं चतुर्थी के दिन यहां पूजा के लिए आएंगी. उन नाग कन्याओं से तुम गणेश चतुर्थी का व्रत विधि पूछना और उस अनुरुप व्रत करने पर तुमारे कष्ट दूर हो जाएंगे. इस प्रकार एक वर्ष पश्चात वरद चतुर्थी के दिन नाग कन्याएं उस स्थान पर आती हैं और उस बालक को वरद चतुर्थी पूजा की विधि बताती है. बालक ने भी उस दिन वरद चतुर्थी का व्रत किया और उससे माता पार्वती के श्राप से मुक्ति प्राप्त होती है.

वरद चतुर्थी पर चंद्र पूजा करें लेकिन दर्शन नहीं

वरद चतुर्थी तिथि शुरू होने से लेकर खत्म होने तक चन्द्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए. मान्यता है की चतुर्थी तिथि के दिन चंद्र देव को नहीं देखना चाहिए. पौराणिक कथाओं के अनुसार चंद्रमा को भगवान श्री गणेश द्वारा श्राप दिया गया था की यदि कोई भी चतुर्थी तिथि के दिन चंद्रमा का दर्शन करेगा तो उसे कलंक लगेगा. ऎसे में इस कारण से चतुर्थी तिथि के दिन चंद्रमा के दर्शन को मना किया जाता है. कहा जाता है कि इस दोष का प्रभाव भगवान कृष्ण को भी झेलना पड़ा था. लेकिन इस में मुख्य रुप से भाद्रपद माह में जो चतुर्थी आती है उस तिथि को अधिक महत्व दिया जाता है.

भगवान कृष्ण पर स्यमन्तक नाम की मणि चोरी करने का झूठा आरोप लगा था. झूठे आरोप के कारण भगवान कृष्ण की स्थिति देख के, नारद ऋषि ने उन्हें बताया कि भगवान कृष्ण ने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्रमा को देखा था जिसकी वजह से उन्हें मिथ्या दोष का श्राप झेलना पड़ा है. नारद जी की सलाह द्वारा ही भगवान को चतुर्थी तिथि के दिन गणेश जी का पूजन करने की विधि प्राप्त होती है. तब भगवान कृष्ण ने मिथ्या दोष से मुक्ति के लिये वरद गणेश चतुर्थी के व्रत को किया और मिथ्या दोष से मुक्ति को प्राप्त होते हैं.

मिथ्या दोष निवारण मंत्र

चतुर्थी तिथि के प्रारम्भ और अन्त समय के आधार पर चन्द्र-दर्शन लगातार दो दिनों के लिये दर्शन वर्जित हो सकता है. धर्म ग्रंथ धर्मसिन्धु के नियमों के अनुसार इस चतुर्थी तिथि के दौरान चन्द्र दर्शन निषेध होता है. इसी नियम के अनुसार, चतुर्थी तिथि के चन्द्रास्त के पूर्व समाप्त होने के बाद भी, चतुर्थी तिथि में उदय हुए चन्द्रमा के दर्शन चन्द्र के अस्त होने तक इसे नहीं देखने की बात कही गयी है.

किसी कारण से चंद्र दर्शन हो जाते हैं तो इस दर्शन के कारण होने वाले मिथ्या दोष से मुक्ति पाने के लिए मंत्र का जाप भी बताया गया है जो श्री कृष्ण ने भी किया था. इस दिए गए मन्त्र का जाप करना उत्तम होता है-

“सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मारोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः॥”

इस दिन की चतुर्थी तिथि को कलंक चतुर्थी के नाम से जाना जाता है. लेकिन अन्य चतुर्थी पर इस का इतना प्रभाव नहीं पड़ता है. अगर किसी कारण से गणेश चतुर्थी के दिन चन्द्रमा के दर्शन हो जाएं तो मिथ्या दोष से बचाव के लिए उपाय भी बताए गए हैं जिसमें गणेश जी का पूजन व गणेश मंत्र जाप द्वारा इस दोष की शांति हो जाती है.

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