कार्तिक संक्रान्ति 2024 : जानें कब होगी और कैसे करें संक्रान्ति पूजा

कार्तिक संक्रान्ति हिन्दुओं के प्रमुख त्यौहारों मे से एक है. सूर्य जब तुला राशि में प्रवेश करते हैं, तो कार्तिक संक्रांति पर्व को मनाया जाता है. यह पर्व अक्टूबर माह के मध्य के समय पर आता है. कार्तिक संक्रान्ति का पर्व इस वर्ष 16 अक्टूबर 2024 को बुधवार के दिन मनाया जाएगा. इस संक्रांति में सूर्य प्रात:काल 07:42 पर तुला राशि में प्रवेश करेगा. 30 मुहूर्ति इस संक्रांति का पुण्य काल दोपहर से रहेगा.  

कार्तिक संक्रांति पूजा

कार्तिक संक्रांति के दिन सभी को सूर्योदय से पूर्व उठ कर स्नान करना चाहिए. मान्यता अनुसार जो व्यक्ति कार्तिक संक्रांति के दिन स्नान नहीं करता है वह रोगी व आलसी बना रहता है. कार्तिक संक्रांति पर तिल-स्नान को अत्यंत पुण्यदायक माना गया है. तिल-स्नान करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है. कार्तिक संक्रांति के दिन तीर्थ स्थलों, मन्दिर, एवं पवित्र नदियों में स्नान करने की परंपरा भी रही है.

कार्तिक सक्रांति के दिन सूर्यदेव की पूजा करनी चाहिए. मान्यता अनुसार सूर्यदेव का पूजन करने से व्यक्ति रूपवान होता है उसे किसी भी रोग का भय नहीं होता है. कार्तिक संक्रांति के दिन पितरों के लिए तर्पण करने का विधान भी है. इस दिन भगवान सूर्य को जल देने के पश्चात अपने पितरों का स्मरण करते हुए तिलयुक्त जल देने से पितर प्रसन्न होते हैं.

कार्तिक संक्रान्ति के अन्य रंग

कार्तिक संक्रान्ति के अवसर पर देश भर में बहुत से धार्मिक कार्य किए जाते हैं. इस दिन लोग उत्सव मनाते हैं. भारत के सभी प्रान्तों में अलग-अलग नाम व भांति-भांति के रीति-रिवाजों द्वारा इस पर्व को उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस संक्रान्ति के दिन किसान अपनी अच्छी फसल के लिये भगवान को धन्यवाद देकर अपनी अनुकम्पा का आशीर्वाद पाते हैं. कार्तिक संक्रान्ति के त्यौहार को फसलों एवं किसानों के त्यौहार के साथ भी जोड़ा जाता है.

कार्तिक संक्रान्ति विभिन्न वर्गों के समुदाय का सबसे प्रमुख त्यैाहार भी होता है. इस दिन तीर्थस्थल में स्नान करके दान धर्म से जुड़े कामों को किया जाता है. पवित्र नदियों के संगम पर लाखों की संख्या में लोग इस पावन पर्व के दिन नहाने के लिये जाते हैं. धार्मिक एवं तीर्थस्थलों में मेलों का आयोजन होता है.

कार्तिक संक्रान्ति को उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक बहुत उल्लास के साथ मनाया जाता है. घरों में आंगन को सजाया जाता है. रंगोली इत्यादि बनाई जाती है. सम्पूर्ण भारत में मनाया जाने वाला संक्रान्ति पर्व विभिन्न रूपों में सभी को जोड़े हुए भी है. विभिन्न प्रान्तों में इस पर्व को मनाने के जितने अधिक रूप प्रचलित हैं उतने किसी अन्य में नहीं मिलते हैं.

कार्तिक संक्रान्ति – दीपदान का समय

कार्तिक संक्रान्ति के दीप दान करने का बहुत महत्व रहा है. पौराणिक ग्रंथों में कार्तिक संक्रांति में दीपदान मनोकामनाओं को पूरा करने वाला कार्य होता है. वैसे तो कार्तिक मास के पूरे मास के समय दीपदान करा जाता है. लेकिन संक्रान्ति के दिन विशेष होता है. धर्म शास्त्रों के अनुसार इस पूरे कार्तिक संक्रांति में व्रत व तप का विशेष महत्व बताया गया है इसके साथ ही दीप जलाने की परंपरा भी प्राचीन काल से चली आ रही है. जो व्यक्ति कार्तिक मास में दीपदान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है. संक्रांति के दिन नदी, पोखर, तालाब, घर आदि स्थानों पर दीप दान करना बताया शुभ होता है. दीप दान करने से पुण्यों की वृद्धि होती है.

कार्तिक संक्रांति – तुलसी पूजन

कार्तिक संक्रांति के दिन तुलसी पूजा का भी विशेष कार्य माना गया है. कार्तिक संक्रांति के दिन तुलसी पूजन करने से दांपत्य सुख मिलता है. व्यक्ति को अपने कार्यक्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है. संक्रांति के दिन तुलसी पूजा और तुलसी के सामने दीपक अवश्य जलाना चाहिए.
कार्तिक संक्रांति के दिन तुलसी पूजा करने से परिवार में सुख बना रहता है. संतान का सुख मिलता है. वंश की वृद्धि होती है. मांगलय सुखों की वृद्धि होती है. इस संक्रांति के दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है, पशुओं का पूजन होता है. मिट्टी के बर्तन में खीर बनायी जाती है, जिसे सूर्य देव को नैवैद्य(भोग) के रुप में चढ़ाया जाता है और प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं.

कार्तिक संक्रांति दान-पुण्य का पर्व

शास्त्रों के अनुसार, कार्तिक संक्रांति के दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक कार्य किए जाते हैं. ऐसी मान्यता है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर फिर से मिलता है. इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है. कार्तिक संक्रांति के दिन गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियों एवं संगम स्थल पर मेलों का आयोजन होता है. जिसे कार्तिक मेले के नाम से भी जाना जाता है. संक्रान्ति के दिन स्नान के बाद दान देने की भी परंपरा रही है.

इस दिन गंगा स्नान करके तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों और अन्य लोगों को दान किया जाता है. इस पर्व पर क्षेत्र में गंगा के घाटों पर मेले लगते है. इस व्रत के दिन खिचड़ी बनाई जाती है खिचड़ी गरीबों में बांटने का भी अत्यधिक महत्व होता है. कार्तिक संक्रान्ति के दिन उड़द, चावल, तिल, गाय, स्वर्ण, ऊनी वस्त्र, कम्बल आदि दान करने का भी महत्त्व है. इस दिन एक दूसरे को तिल और गुड़ भी दिया जाता है.

सूर्य का कन्या राशि से तुला राशि में होने का प्रभाव

कार्तिक संक्रान्ति में सूर्य की स्थिति का में बदलाव आता है. इस समय के दौरान सूर्य कन्या राशि से निकल कर तुला राशि में जाता है. सूर्य का कन्या राशि से तुला राशि में संक्रमण का समय ही संक्रांति का दिन कहलाता है. तुला राशि में सूर्य नीच का होता है. तुला राशि में सूर्य के नीच होने इसकी स्थिति शुभ नहीं मानी जाती है. यहां सूर्य कुछ कमजोर माने जाते हैं. इसी सम्य के बाद से मौसम में बहुत बदलाव भी दिखाई देता है.
कार्तिक संक्रांति के बास से मौसम में ठंडक बढ़ने लगती है और सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर आने में भी धीमी होती है. सूर्य के तेज में बहुत अधिक कमी आने लगती है. इसलिए जिन लोगों का जन्म तुला राशि में हुआ है उन लोगों के लिए भी ये संक्रान्ति खास होती है. व्यक्ति को चाहिए कि इस दिन पूजा उपासना करे. मुख्य रुप से इस दिन सूर्य उपासना करनी चाहिए.

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मघा नक्षत्र श्राद्ध 2024 , पितरों को दिलाता है मुक्ति का मार्ग

ज्योतिष शास्त्र में मघा नक्षत्र दसवां नक्षत्र होता है. मघा नक्षत्र के अधिष्ठाता देवता पितर होते हैं. मघा नक्षत्र के स्वामी केतु को माना गया है. इसलिए इस नक्षत्र का होना श्राद्ध समय के दौरान अत्यंत ही शुभ प्रभाव वाला होता है. मघा नक्षत्र का संबंध पितर और केतु से आने के कारण ही इस नक्षत्र के समय पर किया जाने वाला श्राद्ध अत्यंत ही प्रभावशाली होता है.

इस समय पर किया गया पितृ के निमित किया गया तर्पण कार्य बिना किसी व्यवधान और विलम्ब के पितरों तक पहुंचता है. श्राद्ध कार्य कई प्रकार से किए जाते हैं. यह प्रमुख कर्म काण्ड में से एक होते हैं. अगर कुंडली में पितृदोष हो तो उसे दूर करने के लिए किया जाने वाला श्राद्ध अत्यंत महत्वपूर्ण होता है.

मघा नक्षत्र समय

इस वर्ष 2024 में मघा नक्षत्र का  सितम्बर 2024 को रविवार के दिन से होगा. मघा नक्षत्र के दौरान ही द्वादशी तिथि भी मौजूद होने के कारण इसे मघा द्वादशी के नाम से भी जाना जाएगा.

मघा नक्षत्र प्रारम्भ – सितम्बर 29, 2024 को 03:38

मघा नक्षत्र समाप्त – सितम्बर 30, 2024 को 06:19

श्राद्ध का कार्य पितरों के लिए किया जाता है. इसमें पूर्वजों के निमित्त पिंडदान किया जाता है. ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और दान इत्यादि कार्य किए जाते हैं. यह सभी कुछ श्राद्ध कार्य के अंतर्गत आता है. वैसे श्राद्ध के कार्य को अमावस्या, श्राद्ध पक्ष मे, संक्रांति, पूर्वजों की तिथि इत्यादि समय में इस काम को किया जाता है. सामान्य रुप से किए जाने वाले श्राद्ध कार्य अमावस्या तिथि के दौरान अथवा पितृ पक्ष में मुख्य रुप से किए ही जाते हैं.

पितृ पक्ष का समय आश्विन मास के दौरान आता है और ये समय पितृ कार्यों के लिए होता है. श्राद्ध कार्य करने से व्यक्ति के पितृ संतुष्ट होते हैं और आशीर्वाद प्राप्त होता है.

पितृऋण और पितृदोष से मुक्ति

पितृऋण का अर्थ पूर्वजों का ऋण. यह ऋण हमारे पूर्वजों का माना गया है. पितृऋण कई प्रकार का होता है जिसके न चुका पाने के कारण यह पितृदोष दोष का कारण भी बनता है. अगर किसी व्यक्ति कि कुण्डली में पितृदोष बनता है तो वंश वृद्धि रुक जाती है, आर्थिक उन्नती रुक जाती है, कलह जीवन में सदैव बने रहते हैं. मांगलिक कार्य होने पर अड़चनें बनी रहती हैं, नौकरी और व्यवसाय में उन्नती नहीं मिल पाती है.

पितृ बाधा दोष यह भी एक प्रकार का दोष ही होता है. इसमें ग्रह-नक्षत्र भी सही हैं, वास्तु दोष भी नही हो लेकिन आकस्मिक दुख या धन का अभाव होने पर यह पितृ बाधा कहलाती है.

इन दोषों से बचने के लिए मघा नक्षत्र एक अत्यंत ही समय होता है श्राद्ध के काम के लिए. इस नक्षत्र में किया जाने वाला पितृ कार्य पितरों की शांति देने वाला होता है. आश्विन कृष्ण पक्ष में चंद्र लोक पर पितरों का आधिपत्य रहता है और इस समय वह पृथ्वी का पर आते हैं.

आश्विन मास में जब सूर्य कन्या राशि में गोचर करता है, तो उस समय के दौरान श्राद्ध कार्य किए जाते हैं. इस प्रकार पितर पृथ्वी लोक पर आकर अपने वंश के लोगों के पास आते हैं और उनको संतुष्ट करने के लिए श्राद्ध कर्म किए जाते हैं. इन कार्यों से पितरों को शांति मिलती है. पितर जब खुश होते हैं तब वंश को सुख एवं समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं. अगर लोग अपने पितरों की मुक्ति एवं शांति हेतु यदि श्राद्ध कर्म एवं तर्पण न करे तो उसे पितृदोष भुगतना पड़ता है और उसके जीवन में अनेक कष्ट उत्पन्न होने लगते हैं.

मघा श्राद्ध कैसे करें

आश्विन मास में आने वाले मघा नक्षत्र में पितरों अर्थात पूर्वजों के लिए श्राध कार्य करना अत्यंत ही महत्वपूर्ण होता है. सामान्य रुप से पितरों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध का कार्य होता है. लेकिन इस पूरे श्राद्ध समय के दौरान अगर इन में किसी दिन मघा नक्षत्र आता है तो इस दिन विशेष होता है. इसके अनुसार तिल, कुशा, पुष्प, अक्षत, शुद्ध जल या गंगा जल सहित पूजन करना चाहिए.

पिण्डदान, तर्पण काम कर लेने के पश्चात ब्राह्माणों को भोजन कराना चाहिए. इसके साथ ही फल, वस्त्र, दक्षिणा एवं दान कार्य करने से पितृ दोष से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है. मघा श्राद्ध एक वैदिक कर्म है इसे पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति के साथ किया जाना चाहिए.

मघा श्राद्ध समय सभी कामों को पूरे विधि विधान से करने से पितरों को सुख एवं शांति प्राप्त होती है. किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो, तो उन लोगों के लिए भी मघा नक्षत्र में अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं. श्राद्ध समय दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से पितर दोष से मुक्ति मिल सकती है.

मघा नक्षत्र में कोई नवीन एवं मांगलिक कार्य नहीं किये जाते. जो व्यक्ति अपने पितरों का श्राद्ध नहीं करते वे पितृऋण से मुक्त नहीं हो पाते हैं, फलतः उन्हें पितृ-दोष का कष्ट झेलना पड़ता है. इसलिए कहा जाता है कि अपनी सामर्थ्यानुसार श्राद्ध अवश्य करना चाहिए.

श्राद्ध में ध्यान रखने योग्य बातें

  • श्राद्ध पक्ष में किसी व्यक्ति की मृत्यु तिथि के अनुसार ही श्राद्ध कार्य किया जाता है.
  • श्राद्ध कार्य में बहती नदी, में दूध, जौ, चावल, काले तिल इत्यादि प्रवाहित किए जाते हैं.
  • गंगाजल का उपयोग तर्पण करने के कार्य में उप्योग लाया जाता है.
  • पितरों के लिए किए जाने वाले पिंडदान को पके हुए चावल, दूध और काले तिल से बना कर पिंड रुप दिया जाता है. इस सामग्री से बनाए गए पिंड को शरीर का प्रतीक ही माना जाता है.
  • यदि किसी कारण से पिंडदान, श्राद्ध नहीं कर पाते हैं तो किसी ब्राह्मण या गरीब व्यक्ति को भोजन, धन अथवा अन्न का दान करना उत्तम माना गया है.
  • अगर किसी कारण या साधनों के अभाव में श्राद्ध नहीं कर पाते हैं तो किसी नदी में स्नान करने के उपरांत अपने पितरों का ध्यान करते हुए काले तिल जल में प्रवाहित करके भी तर्पण कार्य किया जा सकता है.
  • पितरों की स्मृति में गाय को खाना अवश्य खिलाना चाहिए.
  • पीपल पर जल चढ़ाना और तेल का दीपक प्रज्जवलित करना भी पितरों के लिए उत्तम माना गया है.
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जीवित्पुत्रिका व्रत 2024, संतान की दीर्घायु और सुख की कामना को करता है पूरा

संतान की लम्बी ऊम्र और उसके सुख की कामना के लिए किया जाता है जीवित्पुत्रिका व्रत. जीवित्पुत्रिका व्रत इस वर्ष 25 सितंबर, 2024 को बुधवार, के दिन मनाया जाएगा. इस दिन व्रत को माताएं अपने बच्चों के आरोग्य और उनके सुखी जीवन की प्राप्ति करने की इच्छा से करती हैं. जीवित्पुत्रिका व्रत एक अत्यंत ही प्रभावशाली ओर शुभदायक व्रत माना गया है.

जीवित्पुत्रिका व्रत को “जिउतिया” या “जितिया” नाम से भी जाना जाता है. इस व्रत को मुख्य रुप से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में मनाया जाता है. इस व्रत को निर्जला उपवास के रुप में रखने का विधान रहा है. महिलाएं इस व्रत को अपने बच्चों के अच्छे स्वास्थ्य एवं निरोगी काया के लिए रखती हैं.

जीवित्पुत्रिका की पूजाविधि

जीवित्पुत्रिका व्रत को प्रदोष काल व्यापिनी अष्टमी के दिन किया जाता है. इस दिन स्नान के पश्चात व्रत का संकल्प किया जाता है. व्रत करने वाले को प्रदोष काल में गाय के गोबर से पूजा स्थल को लीपकर साफ करना चाहिए. पुराने समय में इस कार्य द्वारा ही स्थान को शुद्ध किया जाता था. पर आज के समय में हल्दी गंगा जल द्वारा भी स्थान को पवित्र कर सकते हैं.

साथ ही एक छोटा-सा तालाब भी वहां बना लेते हैं . इस तालाब के पास पाकड़ के पेड़ कि डाल लाकर खडी़ कर देनी चाहिए. जीमूतवाहन की कुश से बनी मूर्ति को पानी में या फिर मिट्टी के पात्र में स्थापित कर देनी चाहिए. इस चित्र या मूर्ति को पीले और लाल रंग से सजाना चाहिए. अब इस प्रतिमा या चित्र का धूप-दीप, अक्षत, फूल माला से पूजन करना चाहिए. प्रसाद तैयार करके पूजा करनी चाहिए.

मिट्टी या गाय के गोबर से मादा चील और मादा सियार की मूर्ति भी बनानी चाहिए. दोनों प्रतिमाओं पर तिलक लगाना चाहिए. लाल सिन्दूर अर्पित करना चाहिए. इनका भी पूजन करना चाहिए. व्रत करते हुए जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा को भी सुनना चाहिए.

जीवित्पुत्रिका व्रत के बारे में अलग अलग मान्यताएं भी मिलती हैं. कुछ के अनुसार एक दिन का तो कुछ के अनुसार तीन दिन तक इस उत्सव को मनाया जाता है. पहले दिन व्रत में महिलाएं पूजा करती हैं और रात के समय सरपुतिया की सब्जी या नूनी का साग बनाकर खाया जाता है. दूसरे दिन को खर या खुर जितिया कहा जाता है. यह खुर जितिया इस दिन महिलाएं निर्जला व्रत रहती हैं. तीसरे और आखिरी दिन में पारण होता है. पारण के बाद ही खाना खाया जाता है. गले में लाल धागे के साथ माताएं जिउतिया भी पहनती हैं.

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

जीवित्पुत्रिका व्रत में कथा को सुनने से व्रत का फल कई गुना बढ़ जाता है. जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा जीमूतवाहन से संबंधित है. यह कथा इस प्रकार है –

जीमूतवाहन गन्धर्व राजकुमार था, वह बहुत ही अच्छे चरित्र का और सभी के कल्याण की भावना रखने वाला था. उसके कार्यों द्वारा सभी लोग उससे प्रसन्न रहते और उससे प्रेम करते थे. जीमूतवाहन के पिता गंधर्वों में बहुत उच्च स्थान पर आसीन थे. जीमूतवाहन के पिता ने बहुत समय राज्य करने के उपरांत वृद्धा अवस्था आने पर अपने राज्य को बेटे को सोंप देने की इच्छा व्यक्त की. पर बेटे जीमूतवाहन का मन इस ओर नहीं था. लेकिन पिता उसे फिर भी राज्य का शासन सौंप कर वहां से वन की ओर चल पड़ते हैं. कुछ समय राज्य करने के बाद जीमूतवाहन राज्य का भार अपने भाई को दे कर खुद भी अपने पिता की पास वन की ओर निकल पड़ता है. राजसिंहासन त्याग कर जीमूतवाहन अपने पिता कि सेवा में लग जाता है.

जीमूतवाहन एक दिन कही जा रहे होते हैं तो मार्ग में उन्हें एक वृद्धा स्त्री रोते हुए दिखाई देती है. वह उस स्त्री से उसके रोने का कारण पूछते हैं. वृद्धा स्त्री उसे बताती है कि वह नाग वंश में जन्मी स्त्री है और उसकी एक ही संतान है. पर उसके यहां एक प्रथा चली आ रही है कि गरुड राज के सामने नागों को नियमित रुप से एक नाग भेंट देना होता है. आज उस स्त्री के पुत्र की बारी होती है. वह स्त्री बहुत रोती है और जीमूतवाहन से पुत्र को बचा लेने की सहायता मांगती है.

वृद्धा के दुख को देख कर जीमूतवाहन उसे आश्वासन देते हैं कि वह उसके पुत्र की रक्षा अवश्य करेंगे. वृद्धा कहती है पर ये होगा कैसे, जीमूतवाहन कहता है की आज तुम्हारे पुत्र के बदले मै उस गरुड राज के सामने चला जाउंगा. और तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा होगी. मैं अपने आपको लाल कपडे में ढक कर शिला पर लेट जाउंगा. इतना कहकर जीमूतवाहन ने लाल वस्त्र लिया और वे उसे लपेटकर शिला पर जाकर लेट जाता है. गरुड आता है और जीमूतवाहन को पंजे में दबा कर सबसे ऊंज पर्वत के शिखर पर जाकर बैठ जाते हैं. गरुड ने देखा की वह नाग पुत्र नहीं है कोई और है.

गरुड ने जीमूतवाहन से उसका परिचय पूछा. जीमूतवाहन गरुड के समक्ष सारा वृतांत सुना देता है. गरुड जीमूतवाहन की परोपकारिता और निडरता से प्रसन्न होकर उससे वर मांगने को कहते हैं. जीमूतवाहन नाग बली नहीं लेने का उनसे वचन लेता है. गुरुण उससे प्रसन्न होकर जीमूतवाहन के प्राण नहीं लेता और उसे जीवन दान देकर सभी नागों को बली से मुक्त कर देता है. इस तरह से जीमूतवाहन के निस्वार्थ भाव और शौर्य से नाग-जाति की रक्षा हुई और तभी से पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा और संतान के आरोग्य व सुख कि कामना के लिए इस व्रत को किया जाता है.

जीवित्पुत्रिका व्रत महात्म्य

आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन प्रदोषकाल समय जीवितपुत्रिका पूजा की जाती है. पुत्रवती स्त्रियां इस दिन अपने बच्चों के सुखी जीवन की कामना करती हैं.

जीवित्पुत्रिका व्रत के विषय में भगवान शिव माता पार्वती को इसकी महिमा बताते हुए कहते हैं कि जो संतानवती स्त्रियां एवं जिन्हें संतान की प्राप्ति की लालसा है वह सभी लोग इस जीवित्पुत्रिका व्रत के दिन व्रत रखते हैं ओर जीमूतवाहन की पूजा क्था सुनते हैं उनके वंश का कभी नाश नही होता है.

जीमूतवाहन की पूजा उपासना करने के बाद ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए और दक्षिणा दे कर उनसे संतान सुख का आशीर्वाद लेना चाहिए. अगले दिन व्रत का पारण करना चाहिए. यह व्रत पुत्र-पौत्रों का सुख देता है और आरोग्य प्रदान करता है.

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चंद नवमी 2024

भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को श्री चंद्र नवमी के रुप में या जाता है. यह उत्सव उदासीन संप्रदाय के प्रवर्तक चंद्र जी के लिए समर्पित है. इस वर्ष 12 सितंबर 2024 को चंद्र नवमी मनाई जाएगी.

भारतवर्ष की तपोभूमि में समय-समय पर धार्मिक विचारों का जन सैलाब सदैव ही उमड़ता रहा है. यह किसी एक व्यक्ति की बात हो या फिर किसी जन समूह की. सभी ने धार्मिक विचारधारा में अपना-अपना विशेष योगदान भी दिया और जिसकी अमिट छाप किसी न किसी रुप में आज भी देखने को मिलती है.

इस धार्मिक वैचारिक मार्ग में एक नाम श्रीचंद जी का भी आता है. श्रीचंद जी ने अपने विचारों ओर कार्यों द्वारा जो भी सामाज कल्याण के कार्य किए वह सभी आज भी एक आर्दश के रुप में स्थापित हैं. श्री चंद्र जी द्वारा धर्म के क्षेत्र में जो भी अनुसंधान और नए विचार आए वह सभी आज भी सभी के पथ प्रदर्शक बने हुए हैं.

कौन थे बाबा श्री चंद जी

चन्द जी का समय काल 1494–1643 के मध्य का माना गया है. श्री चंद्र जी का जन्म सिखों के गुरु नानक देव जी के घर हुआ था. श्री चंद्र जी ने पिता की ही भांति अपने कार्यों द्वारा लोक कल्याण की भावना को सर्वोपरी दर्शाया.

श्री चंद्र बचपन से ही साधना और आध्यात्मिक यात्रा में निकल पड़े थे. जिस अवस्था में बच्चे खेलकूद में व्यस्त रहते हैं, उस समय बाबा श्रीचंद जी एकांत में उपासना और समाधि में लीन रहते थे. उन्हें वन में एकांत समय बहुत भाता था जहां वह अपनी चेतना और ज्ञान का विकास करने में लगे रहते थे.

युवा होने पर वह देश भ्रमण को निकल पड़े. इस समय उन्हेंने देश के अनेक क्षेत्रों की यात्राएं की साथ ही अनेक साधु-संतों से मिले और उनके साथ अपने ज्ञान को बांटा.

श्री चंद्र जी जहां भी गए अपनी शब्द वाणी और धार्मिक चेतना द्वारा सभी को आश्चर्य से भर दिया. अपने प्रयासों द्वारा दुखियों के कष्टों का निवारण भी किया. उनके कार्यों द्वारा उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैलती चली जाती है. उनसे मिलने के लिए सभी लोग बहुत व्याकुल से रहते थे. उनके दर्शनों की अभिलाषा करने में बहुत से हिन्दू राजाओं के साथ ही मुगल बादशाह भी शामिल रहे.

बाबा श्री चन्द से जुड़ी कथाएं

श्री चन्द जी से संबंधित कुछ कथाएं भी प्राप्त होती हैं जो उनके चमत्कारों ओर उनकी महत्ता को दर्शाती हैं. एक कथा अनुसार जब श्री चन्द जी देश भ्रमण के दौरान कश्मीर जाते हैं तो बाबा अपनी मस्ती में धूप में बैठे हुए थे. उसी समय एक जमींदार ने यह देखकर की ये कैसा बाबा खुद तो धूप के मजे ले रहा है. जब बाबा को अपनी ही फिक्र है तो वह दूसरों का क्या भला कर पाएगा और क्या छाया देगा.

श्री चंद जी उसके मन की बात को समझ गए और उसी समय उन्होंने कुंड से जलती हुई लकड़ी निकालकर धरती में गाड़ देते हैं. पल भर में वह लकड़ी विशाल चिनार के वृक्ष में बदल जाती है. यह चमत्कार देख कर जमींदार बाबा श्री चन्द जी के पैरों में गिर पड़ता है और अपने अज्ञान की माफी मांगता है. माना जाता है कि तब से वह वृक्ष चंद चिनार के नाम से आज भी है.

एक अन्य कथा अनुसार –

कहा जाता है कि रावी नदी के किनारे चम्बा शहर के राजा राज्य चलता था. उस राजा के आदेश बिना कोई भी नाविक किसी संत-महात्मा को नदी पार नहीं करा सकता था. एक बार बहां श्री चंद जी आते हैं और नाविक से नदी पार करने की इच्छा जताते हैं. लेकिन नाविक उन्हें राजा के आदेश की बात बताते हुए नाव पार कराने से मनअ कर देते हैं ओर राजा से आदेश लेकर आने को कहते हैं. इस पर श्री चंद जी ने वहां पड़ी एक बड़ी शिला को नदी में ढकेल कर उस पर बैठकर नदी पार कर लेते हैं.

नाविक यह दृश्य देख राजा के पास जा कर उन्हें बाबा श्री चंद जी के बारे में बताते हैं. राजा को पता लगा तो वह दौड़ कर और बाबा के चरणों में गिर जाता है और उनका सेवक बन जाता है. श्री-चंद ने उसे अपना कर उसे अहंकार का त्याग करने को कहा. राज को धर्म का उपदेश देकर उसके अज्ञान को दूर किया. बाबा के आशीर्वाद से राजअ को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है. कहा जाता है की जिस शिला को बबा चंद जी ने अपनी नाव के रुप में उपयोग किया था वह आज भी चम्बा में स्थापित है.

उदासीन(उदासी) संप्रदाय के संस्थापक

श्री चंद्र जी ने उदासीन संप्रदाय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. उदासीन संप्रदाय सिख-साधुओं का एक महत्वपूर्ण सम्प्रदाय भी रहा है. उनके इस संप्रदाय में बहुत सी शिक्षाएँ सिख पंथ से लीं गयी थीं.श्री चंद्र जी ने मानवता के विचार को सदैव ऊपर रखा. वह एक प्रकार की अहिंसात्मक प्रवृत्ति की ओर बहुत अधिक झुकाव भी रखते थे. श्री चंद्र जी की बातों में सदैव ही भोलापन ओर मासूमियत की एक अनोखी छटा थी. वह सभी के मध्य प्रेम और सदभाव की भावना को स्थान देने की बात करते रहे.

कुछ मामलों में उनके विचारों को जैन धर्म से प्रभावित भी मान लिया गया. उनके विचारों पर सभी लोगों की सहमति इस कारण भी नही बन पाई क्योंकि अहिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण उन्हें अकर्मण्य भी कहा गया. परंतु अनेक लोगों द्वारा उनके ज्ञान की उस गहराई को समझा गया जो सभी के जीवन को प्रकाशित और शुभ बनाने के समर्थन में था.

बाबा श्री चंद जी ने अपने विचारों में यह बात मुख्य रुप से कही की हमें हर सुख-दुख को समान भाव से ही देखना चाहिए. उसमें स्वयं को जोड़ना नहीं चाहिए. इस के प्रति उदासीन भाव रखने से मन को कष्ट नहीं होता है. श्री चंद जी ने सिखों के छठे गुरु श्री हरगोविंद जी के बड़े पुत्र बाबा गुरदित्ता जी को अपना उत्तराधिकारी बनाकर स्वयं को समाधी में लीन कर लिया था.

उदासीन संप्रदाय शिक्षाएं

उदासीन संप्रदाय के मत में अनेक बातें पता चलती हैं. इनके विचारों में कई बातों को अलग-अलग स्थानों में बांटा गया है. इनकी चार प्रधान शाखाएं निकलती हैं. इस संप्रदाय को मानने वाले लोग सनातन धर्म के प्रति आस्था रखते हैं. वैदिक काल से चली आ रही पांच तत्वों की महत्ता को भी ऊपर रखते हैं. जल, अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश का पूजन करते हैं.

इसकी एक शाखा फूल साहिब वाली बहादुरपुर की शाखा बनी है. इसकी दूसरी शाखा बाबा हसन की आनन्दपुर के निकटवर्ती चरनकौल की शाखा मानी गई है. इसकी तीसरी शाखा अलमस्त साहब की पुरी नामक नैनीताल की शाखा है. इसकी चौथी शाखा गोविंद साहब की शिकारपुर वाली शाखा हैं यह सभी शाखाएं या कहें विचारधाराएं एक-दूसरी से अलग भी दिखाई भी देती हैं. सभी शाखाएं मे एक दूसरे से स्वतंत्र भी जान पड़ती हैं.

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कल्कि अवतार

भगवान श्री विष्णु के मुख्य अवतारों में से एक अवतार कल्कि भी है. यह वह अवतार है जिसे अभी आना है क्योंकि पौराणिक ग्रंथों के आधार पर कलियुग के अंतिम चरण में कल्कि अवतार होगा. युग गणना के आधार पर अभी कलियुग का प्रथम चरण ही चल रहा है.

कल्कि जयंती कब मनाते हैं

कल्कि जयंती का पर्व श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है. शास्त्रों के अनुसार कलियुग के अंतिम दौर में भगवान विष्णु का दसवां अवतार कल्कि अवतार के नाम से विख्यात होग्गा. यह अवतार कलियुग और सतयुग के संधि काल में होगा, जो 64 कलाओं से युक्त होगा.

कल्कि अवतार समय

पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री विष्णु के कल्कि केअवतार का आगमन उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद ज़िले के संभल नामक स्थान पर होगा. यहां परर्हने वाल दंपति विष्णुयशा नाम के एक ब्राह्मण परिवार में होगा. न कल्कि भगवान का वाहन श्वेत रंग का घोड़ा होगा जिस पर सवार होकर वह सभी बुराईयों का अंत करेंगे. पापियों का नाश करके फिर से धर्म की रक्षा करेंगे.

श्रीमद्गागवत में 12वें स्कंद के 24वें श्लोक में कल्कि अवतार के बारे में बताया गया है. इसके अनुसार गुरु, सूर्य और चन्द्रमा जब एक साथ पुष्य नक्षत्र में होंगे तो उस समय श्री विष्णु भगवान कल्कि रुप में जन्म लेंगे.

“सम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।

भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति।।”

पौराणिक मान्यता के अनुसार इनके अवतार लेने के बाद ही सतयुग का आरम्भ होगा.

क्यों लेते हैं भगवान अवतार ?

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

गीता में दिए गए इस श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं, जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर जन्म लेता हूं. सज्जनों और साधुओं की रक्षा के लिए, गलत लोगों और पापियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में जन्म लेता हूं. यही भगवान के प्रत्येक अवतार का मुख्य सार रहा है. जिसके द्वारा भगवान श्री नारायण ने प्रत्येक युग में अवतार लिया और संसार के कष्टों को दूर करके शुभता की स्थापना की.

विष्णु के दस अवतार कौन से है ?

श्री विष्णु के दस अवतारों में भिन्न-भिन्न रुपों को रचा और अपने लीला रूप धर कर सदैव दुखों को दूर किया . भक्तों को बचाने एवं धर्म की रक्षा हेतु प्रभु ने हर काल में अवतार लिया. विष्णु भगवान के रूप को वेद-पुराणों में विस्तार रुप से दर्शाया गया है. भगवान विष्णु के 24 अवतार माने गए हैं, जिनमें से दस प्रमुख रुप से विशेष स्थान पाते हैं जो इस प्रकार हैं. इसमें से प्रमुख अवतार मत्स्य अवतार है.

भगवान विष्णु ने मछली का रूप धरा ओर पृथ्वी के जल मग्न होने पर सृष्टि की रक्षा करते हैं. कूर्म अवतार में विष्णु ने समुद्रमंथन के समय पर्वत को अपने कवच पर संभाला था उनकी सहायता से देवों एवं असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नों की प्राप्ति की. वाराह अवतार में भगवान विष्णु ने पृथ्वी कि रक्षा की थी, और हिरण्याक्ष नामक राक्षस का वध किया था. नरसिंहावतार में धरकर भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यप का वध करके भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी.

वामन अवतार में तीन पग से तीन लोक नाप कर राजा बलि से देवतओं की रक्षा की. त्रेता युग में राम रुप में आकर रावण का वध किया और सत्य की स्थापना करते हैं. द्वापर में कृष्णावतार रूप में कंस का अंत करके प्रजा की ओर धर्म की रक्षा करी.

परशुराम अवतार लेकर पापियों का नाश किया और अंत में कल्कि अवतार जो भविष्य में कलियुग के अंत में आयेंगे और पापियों का अंत करके लोगों के दुख दूर करेंगे. इस प्रकार भगवान विष्णु जी ने सभी युगों में धर्म की रक्षा की और लोगों को अत्याचारियों के हाथों से मुक्त किया.

कल्कि अवतार से संबंधित मतभेद

भगवान के अवतारों में सबसे विवादित और भ्रम से भरपूर यही अवतार ही रहा है. इस अवतार को लेकर इसकी संदेहास्पद स्थिति इस कारण भी है की कोई भी इसे पूरी तरह से एकमत राय नही बना पाया. कल्कि अवतार को कुछ स्थानों पर माना गया है की ये अवतार हो चुका है, और कुछ के अनुसार अभी अवतार नहीं हुआ है. यह कल्कि अवतार कलयुग के अंतिम चरण में होगा. कल्कि पुराण के अनुसार कलयुग में भगवान विष्णु कल्कि रूप में अवतार लेंगे. भगवान एक बार फिर से सतयुग का आरंभ होगा. स्कंद पुराण में भी कल्कि अवतार के बारे में वर्णन मिलता है.

कुछ धर्म ग्रंथों एवं गद्य में ऐसा उल्लेख व गुणगान मिलता है की कल्कि अवतार हो चुका है. वायु पुराण के अनुसार कल्कि अवतार कलयुग के चर्मोत्कर्ष पर जन्म ले चुका है. इसमें विष्णु की प्रशंसा करते हुए दत्तात्रेय, व्यास, कल्कि विष्णु के अवतार कहे गए हैं. मत्स्य पुराण के द्वापर और कलियुग के वर्णन में कल्कि के होने का वर्णन मिलता है. कवि जयदेवऔर चंडीदास के अनुसार कल्कि अवतार हो चुका है. बौध और जैन ग्रंथों में भी कल्कि विषय से मिलते जुलते साक्ष्य प्राप्त होते हैं. जैन पुराणों में कल्कि नाम के सम्राट के बारे में पता चलता है. इसके अनुसार कल्कि सम्राट का शासनकाल महावीर की मृत्यु के हजार साल बाद हुआ था.

इस तरह से भगवन के इस अवतार को लेकर बने हुए मतभेद होना सामान्य है. लेकिनास्था ओर तर्क की अवधारण पर सभी बातों को बिठा पाना संभव नहीं हो पाता है. ऎसे में रामायण की यह चौपाई इस स्थान पर बहुत ही सटीक बैठती है- जेहिके जही पर सत्य स्नेहु सो तेहि मिलेयी ना कछु सन्देहु”

कलयुग का आगमन कैसे हुआ

कलयुग का आरंभ राजा परीक्षित के समय के बाद से आरंभ होना माना गया है. इसके पीछे एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार राजा परिक्षित जब अपने राज्य से गुजर रहे होते हैं तो वह मार्ग में देखते हैं कि एक बहुत ही बलिष्ठ व्यक्ति गाय और बैल को मार रहा होता है. वह बैल अत्यन्त सुन्दर था, उसका श्वेत रंग था और केवल एक पैर था. गाय भी कामधेनु के समान सुन्दर थी.

उन दोनों पशुओं की ये दशा देख कर राजा परीक्षित ने उस दुष्ट को डांटते हुए कहा की वो उन कमजोर पशुओं को क्यों सता रहा है, मैं तुझे अभी इसका दण्ड देता हूं ऎसा कहते हुए राजा परिक्षित ने अपनी तलवार निकाल ली, राजा के कथन सुन वह दुष्ट व्यक्ति भय से कांपने लगा और राजा परीक्षित के चरणों में गिर कर क्षमा मंगने लगा. उसी समय वह बैल धर्म रुप में और गाय पृथ्वी रुप में राजा के समक्ष अपने रुप को धरते हैं और अपने दुख का कारण राजा को बताते हैं. सम्राट परीक्षित कलियुग के क्षमा याचना मांगने पर उसे प्राणदान देते हैं और उसे निकल जाने का आदेश देते हैं. ऎसे में कलियुग कहता है की राजा सारी पृथ्वी तो आप की ही है और इस समय मेरा पृथ्वी पर होना काल के अनुरूप है, क्योंकि द्वापर समाप्त हो चुका है और मेरा आगमन होना है.

इस पर राजा परिक्षित बहुत विचार करने के पश्चात हे कलियुग को द्यूत, मद्यपान, परस्त्रीगमन, हिंसा और स्वर्ण में रहने का स्थान देते हैं. उसी क्षण कलयुग इन स्थानों पर सदैव के लिए स्थापित हो जाता है और कलयुग का पृथ्वी पर आगमन होता है. इसी कल्युग के समापन हेतु कल्कि अवतार होगा.

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महालक्ष्मी व्रत 2024 समापन और महालक्ष्मी व्रत उद्यापन, पूजा विधि

महालक्ष्मी व्रत का प्रारम्भ भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होता है और आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर इसका समापन होता है. 16 दिनों तक चलने वाले इस व्रत में देवी लक्ष्मी की पूजा का विधान बताया गया है. महा लक्ष्मी व्रत के प्रभाव से जीवन में आर्थिक तंगी कभी नहीं सताती है. कर्जों से मुक्ति प्राप्त होती है और घर-परिवार का सुख प्राप्त होता है.

11 सितंबर 2024 से शुरु होगा महालक्ष्मी व्रत और 24 सितंबर 2024 को समाप्त होगा.

महालक्ष्‍मी व्रत के दिन प्रात:काल उठकर स्‍नान आदि से निवृत्त होकर, माता लक्ष्मी का स्मरण करना चाहिए. श्री लक्ष्मी जी के पूजन के लिए मंदिर के स्थान पर माता लक्ष्मी जी के चित्र अथवा मूर्ति की स्थापना करनी चाहिए. पूजन स्‍थल में मां लक्ष्‍मी के सामने हाथ में जल भरकर व्रत का संकलप लेना चाहिए यदि व्रत न कर सकें तो पूजा का संकल्‍प लेते हुए लक्ष्मी मंत्र का जाप करना चाहिए -: “महालक्ष्मी च विद्महे, विष्णुपत्नी च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात्।”

देवी लक्ष्मी जी कि पूजा में लाल रंग का उपयोग अवश्य करना चाहिए. माता को गुलाब के फूल अर्पित करने चाहिए. अथव अकमल का पुष्प भी अर्पित किया जा सकता है. इसके अलावा पूजा में लाल चंदन, सुपारी, इलायची, फूल माला, अक्षत, दूर्वा, लाल सूत, नारियल, पान इत्यादि रखना चाहिए. विभिन्न प्रकार के भोग एवं मिठाई लक्ष्मी जी को चढ़ानी चाहिए. लक्ष्मी पूजा में खीर का भोग भी अवश्य लगाना चाहिए. सुबह और शाम के दोनों प्रहर में माँ लक्ष्मी का पूजन करना चाहिए.

राधा अष्टमी का पूजन

इस दिन महा लक्ष्मी जी की पूजा के साथ ही राधा जी का पूजन भी करना चाहिए. क्योंकि इसी दिन राधा अष्टमी भी होती है. धार्मिक पौराणाकि मान्यताओं के अनुसार राधा जी लक्ष्मी का ही स्वरुप भी मानी गई हैं इसलिए इस दिन राधा जी का पूजन करना भी अत्यंत ही शुभ फलदायी होता है. ब्रज और बरसाना क्षेत्रों में इस दिन को विशेष रुप से उल्लास और उत्साह के साथ मनाए जाने की परंपरा लम्बे समय से ही चली आ रही है. इस दिन बरसाना की रानी राधा जी का जन्म होता है और इस शुभ दिन के समय पर झांकियां निकाली जाती हैं. राधा रानी मंदिरों इस दिन को उत्सव के रुप में मनाया जाता है.

महालक्ष्मी व्रत कथा

प्राचीन समय में पुरंदरपुर नामक सुदर नगर हुआ करता था और मंगलसेन नाम का राजा राज्य करता था. वह स्थान सभी सुखों, रत्नों से भरा हुआ था. वहां रत्न मणियां ऎसे ही पड़ी रहती थी. वहां के निवासी भी सब प्रकार से सुखों से युक्त थे. राजा मंगलसेन की दो रानियां थी एक चिल्ल और दूसरी चोल.

राजा मंगल अपनी रानी चोल के साथ महल पर बैठा हुआ था, जहां एक स्थान को देख अपनी पत्नी से उस स्थान पर एक अत्यंत सुंदर स्थल बनाने की बात कहता है. राजा ने उस स्थान पर एक अत्यंत मनोहर उद्यान का निर्माण करवा दिया. एक बार उस बाग में एक शूकर घुस आता है और वह उस बागान को खराब कर देता है. सैनिक राजा को ये समाचार सुनाते हैं. राजा सेना के साथ उस शुकर को मारने के लिए चल निकला. शूकर का पिछा करते-करते राजा एक वन में जा पहुंचा जहां शूकर को सामने देख वह उसे बाण से मार देता है. शूकर अपने शरीर को छोड़कर दिव्य गंधर्व रूप में आ गया जाता है.

गंधर्व राजा से कहता है की राजन मुझे शूकर योनि से छुड़ा कर आपने मुझ पर बहुत कृपा करी है. हे राजन ! मैं प्रसन्न हुआ, आप भविष्य में महालक्ष्मी व्रत करें इस व्रत को प्रभाव से चक्रवर्ती राजा बन कर वर्षों तक सुख पूर्वक राज कर पाओगे. महालक्ष्मी का पूजन तथा व्रत करके राजा अपने समस्त ऐश्वर्य का भागी बनता है और सुख पूर्वक रहने लगता है.

व्रत से संबंधित मान्यताएं

श्री महालक्ष्मी व्रत 16 दिनों का होता है. हर दिन माता का पूजन और कीर्तन होता है. किसी कारण से सोलह दिनों तक लगातार न कर पाने के कारण ही इस व्रत को 3 दिन भी करने का विधान बताया गया है. इसके साथ 1 दिन के व्रत का भी विधान है.

तीन दिनों में कुछ तिथियों को ध्यान में रखा है. इन तिथियों में पहली तिथि व्रत के आरंभ अर्थात अष्टमी तिथि, दूसरी तिथि में महा लक्ष्मी पूजन का आठवां दिन और पूजा का अंतिम अर्थात सोलहवां दिन. इन तीन दिनों में व्रत किया जा सकता है. इन तीन दिन व्रत करके महालक्ष्मी व्रत का संपूर्ण फल प्राप्त होता है.

इस व्रत का आरंभ करने पर प्रति दिन प्रातः काल उठकर सोलह बार कुल्ला करना चाहिए और मुंह धोना चाहिए. ब्रह्म मुहूर्त समय स्नान आदि नित्य कर्म कर लेने चाहिए. इसके बाद लक्ष्मी की प्रतिमा की स्थापना पूजा घर में करके पूजा आरंभ करनी चाहिए. पूजा में 16 सूत के धागे में 16 गांठ लगानी चाहिए. पूजा के पश्चात इस मंत्र से पूजा किए गए धागे को दाहिने हाथ में बांध लेना चाहिए. उसके पश्चात माता लक्ष्मी का विधि विधान से पूजन करना चाहिए.

पूजा स्थल में जल से भरा कलश रखें, गुलाब के फूल, माला, अक्षत, पान- सुपारी, लाल सूत, नारियल और भोग रखना चाहिए. हाथ में धागा बांधने के बाद सोलह हरी दूर्वा और सोलह अक्षत लेकर महालक्ष्मी व्रत की कथा सुननी चाहिए. इस प्रकार आश्विन कृष्ण अष्टमी को माता लक्ष्मी की प्रतिमा का षडोपचार पूजन करके विसर्जन करना चाहिए.

महालक्ष्मी व्रत उद्यापन

महालक्ष्मी व्रत के अंतिम दिन में व्रत का संकल्प पूरा किया जाता है. व्रत के संपूर्ण हो जाने के बाद एक सुंदर सा मंडप बनाया जाता है अगर मंडप का निर्माण न हो पाए तो एक चौकी पर लाल वस्त्र को डाल कर उस पर देवी लक्ष्मी की मूर्ति अथवा चित्र को स्थापित करना चाहिए. प्रतिमा को पंचामृत से स्‍नान करवाना चाहिए. देवी लक्ष्मी के लिए सोलह प्रकार के पकवान भी बनाने चाहिए. षडोपचार विधि से देवी का पूजन करना चाहिए. पूजन के बाद ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए. अगर हो सके तो 16 ब्राह्मणों को भोजन करना उत्तम होता है.

इसके अतिरिक्त संभव हो तो 16 सुहागन स्त्रियों, ब्राह्मणियों अथवा कन्याओं को भी भोजन करवा सकते हैं. ब्राह्मण भोजन के बाद दान-दक्षिणा भेंट करनी चाहिए. इस व्रत के बारे में महाभारत में भी वर्णन प्राप्त होता है जिसके अनुसार इस व्रत की महत्ता को भगवान स्वयं प्रकट करते हैं. इस व्रत को करने से सभी प्रकार के आर्थिक कलेशों का नाश होता है. चाहे इस व्रत को एक दिन, तीन दिन अथवा 16 दिन किया जाए, अगर विश्वास और पूर्ण शृद्धा के साथ करते हैं तो इस व्रत के उत्तम फलों को पाते हैं.

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भाद्रपद पूर्णिमा 2024 कब है: शुभ मुहूर्त, पूजा विधि और पूर्णिमा कथा

भाद्रपद मास की पूर्णिमा “भाद्रपद पूर्णिमा” के नाम से जानी जाती है. इस पूर्णिमा के दिन कुछ विशेष अनुष्ठान पूरे किए जाते हैं. इस पूर्णिमा के दिन सत्यनारायण की पूजा, शिव पार्वती पूजा, चंद्रमा पूजा कार्य संपन्न होते हैं. इस पूर्णिमा के दिन व्रत का अत्यंत महत्व भी बताया गया जो सभी प्रकार के सुख वैभव को देने में सहायक बनता है.

पूर्णिमा की तिथि धार्मिक कर्म एवं अनुष्ठान के कार्य करने में अत्यंत शुभ मानी जाती है. इस दिन को मुहूर्त शास्त्र में भी स्थान प्राप्त है. शुभ मुहूर्त का निर्धारण इस तिथि में होता है जिसमें बहुत से नवीन कार्य भी करने कि बात कहीं गई है.

भाद्रपद पूर्णिमा पूजा समय

भाद्रपद पूर्णिमा 18 सिंतबर 2024 को बुधवार के दिन मनाई जाएगी.

  • सितंबर 17, 2024 को 11:45 से पूर्णिमा आरम्भ होगी
  • सितंबर 18, 2024 को 08:05 पर पूर्णिमा समाप्त होगी

भाद्रपद पूर्णिमा से आरंभ श्राद्ध कार्य

संपूर्ण वर्ष में आने वाली हर एक पूर्णिमा की तिथि कुछ न कुछ खास विशेषता लिए होती है. इसी में भाद्रपद माह कि पूर्णिमा को श्राद्ध पक्ष के आरंभ से जोड़ा जाता है, इसी पूर्णिमा से आरंभ होने वाले श्राद्ध कार्य आश्विन अमावस्या तक चलते है. इसलिए भाद्रपद पूर्णिमा को स्नान दान का भी विशेष महत्व माना जाता है.

भाद्रपद पूर्णिमा व्रत पूजा विधि

भाद्रपद पूर्णिमा के दिन विधि विधान के साथ पूजा और सत्यनारायण कथा करने से सभी दुखों का नाश होता है. जीवन में आने वाले कष्ट दूर हो जाते हैं. भाद्रपद पूर्णिमा के दिन पूजा करने में कुछ बातों का ध्यान रखने से व्रत का और पूजा का संपूर्ण लाभ भी मिलता है.

भाद्रपद पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल उठ कर किसी पवित्र नदी, सरोवर या कुंड में स्नान करना चाहिए. अगर ये सब संभव न हो सके तो अपने निवास स्थान अथवा घर पर ही स्नान कर लेना चाहिए.

  • इस दिन व्रत करना चाहते हैं तो व्रत का संकल्प भी करना चाहिए.
  • पूर्णिमा के दिन भगवान सत्यनारायण की पूजा और कथा करनी चाहिए.
  • भगवान शिव और माता पार्वती जी की प्रतिमा को स्थापित करके पूजा करनी चाहिए.
  • पूजा के बाद भगवान को प्रसाद और फल-फूल भेंट करने चाहिए.
  • पंचामृत और चूरमे का प्रसाद बना कर सभी लोगों को पूजा के बाद बांटना चाहिए.
  • पूजा कर लेने के बाद ब्राह्मण को भोजन करना चाहिए और जरुरतमंदों को दान इत्यादि करना चाहिए.
  • भाद्रपद पूर्णिमा व्रत स्त्रियों के लिए विशेष महत्व रखता है. इस व्रत के प्रभाव से संतान, सुखी दांपत्य की प्राप्ति होती है.

भाद्रपद पूर्णिमा का नक्षत्र संबंध

प्रत्येक मास की पूर्णिमा तिथि से ही चंद्र वर्ष के महीनों के नामों को रखे जानी की बात कही जाती है. हिन्दु पंचांग में सूर्य और चंद्रमा से ही महीनों के नाम रखे जाते हैं जिन्हें सौर मास और चंद्र मास के नाम से जाना जाता है. कुछ व्रत व त्यौहार सौर मास से मनाए जाते है, तो कुछ चंद्र मास के द्वारा.

इसलिए जब हम पूर्णिमा तिथि की बात करते हैं तो उसे चंद्र वर्ष से जोड़ा जाता है. चंद्रमा के साथ ही नक्षत्रों का भी इस के साथ संबंध होता है. मान्यता अनुसार जिस भी माह में पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस भी नक्षत्र में होता है उसी नक्षत्र के नाम अनुसार उस माह का नाम रखे जाने की बात कही गई है. इसलिए बारह महीनों के नाम नक्षत्रों पर आधारित होते हैं. इसी क्रम में भाद्रपद पूर्णिमा का नाम इसीलिये कहा गया क्योंकि इस दिन चंद्रमा उत्तराभाद्रपद या पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में गोचर कर रहा होता है.

जिन लोगों का जन्म उत्तराभाद्रपद या पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में होता है उन लोगों के लिए भी इस पूर्णिमा का दिन विशेष महत्व रखता है. पूर्णिमा के दिन इन लोगों को अपने नक्षत्र की पूजा करनी चाहिए. भगवान शिव, मां पार्वती, भगवान गणेश तथा अहिर्बुधन्य की पूजा करनी चाहिए. दूध, दहीं, घी, शहद, फूल और मिठाई इत्यादि को भगवान को पूजा में शामिल करना चाहिए. नक्षत्र के मंत्रों का उचारण करना चाहिए. इस पूजा के अतिरिक्त नवग्रहों से संबंधित वस्तुओं का दान भी करना चाहिए. दान की जाने वाली चीजों में गुड़, काले तिल, चावल, गुड़, चीनी, नमक, जौं तथा कंबल इत्यादि को दान स्वरुप देना चाहिए.

भाद्रपद पूर्णिमा कथा

भाद्रपद पूर्णिमा के दिन उमा महेश्वर व्रत करने का भी विधान बताया गया है. धर्म शास्त्रों में इस पूर्णिमा के दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है. इसके साथ ही रात्रि के समय जागरण करना चाहिए. नारद पुराण और मत्स्य पुराण में इस व्रत के बारे में भी बताया गया है. इस व्रत को करने से मांगलिक सुख मिलते हैं. दांपत्य सुख प्राप्त होता है.

उमा महेश्वर व्रत के साथ ही कथा भी सुननी चाहिए. इस कथा को सुनने से व्रत का संपूर्ण फल मिलता है. कथा इस प्रकार है –

ऋषि दुर्वासा जी एक बार भगवान शिव शंकर जी के दर्शन करने उनसे मिलने कैलाश जाते हैं . कैलाश पर भगवान शिव और माता पार्वती के दर्शन कर वह अत्यंत प्रसन्न होते हैं. भगवान शिव, ऋषि दुर्वासा को एक पुष्प माला भेंट करते हैं जिसे दुर्वासा प्रेम से स्वीकार कर लेते हैं.

भगवान से भेंट कर लेने के पश्चात दुर्वासा वहां से आगे निकल पड़ते हैं. मार्ग में वह भगवान श्री विष्णु जी के दर्शन के लिए भी उत्सुक होते हैं ओर उनसे मिलने के लिए विष्णु लोक जाने के लिए आगे निकल पड़ते हैं लेकिन तभी उनकी भेंट इंद्र से होती है तब दुर्वाजी भगवान शिव द्वारा उन्हें प्रदान कि हुई माला वह इंद्र को भेंट दे देते हैं.

इंद्र अपने अभिमान में उस माला को अपने वाहन ऎरावत हाथी को पहना देता है. ऋषि दुर्वासा यह सब देखकर क्रोधित हो उठते हैं उन्हें यह कार्य अच्छा नही लगता है और दुर्वासा क्रोधित स्वर में इंद्र को कहते हैं कि तुमने महादेव शिव शंकर जी का अपमान किया है. इससे तुम्हें लक्ष्मी जी छोड़कर चली जायेंगी और तुम्हें इंद्र लोक और अपने सिंहासन को भी त्यागना पड़ेगा.

यह सुनकर इंद्र जी ने ऋषि दुर्वासा जी के समक्ष हाथ जोड़कर क्षमा याचना करी और इस श्राप से मुक्त होने का उपाय पूछा. इंद्र की विनय सुन कर दुर्वासा जी कुछ शांत हुए और क्रोध शांत होने पर ऋषि दुर्वासा जी ने इंद्र को बताया कि उसे उमा महेश्वर व्रत करना चाहिए. तभी वह अपने स्थान को पुन: प्राप्त हो पाएगा. तब इंद्र ने इस व्रत को किया. उमा महेश्वर व्रत के प्रभाव से लक्ष्मी जी समेत सभी वस्तुएं जो उनसे छिन गई थीं सभी की प्राप्ति होती है.

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भाद्रपद संक्रान्ति 2024 : कैसा होगा सूर्य का सिंह राशि में गोचर

भाद्रपद माह में सूर्य का सिंह राशि में प्रवेश करना भाद्रपद संक्रान्ति कहलाता है. हिन्दू पंचांग के अनुसार भाद्रपद माह की संक्रान्ति के समय भगवान सूर्य का पूजन और भगवान श्री कृष्ण का पूजन विशेष रुप से होता है. संक्रान्ति समय संधि काल का समय होता है, ऎसे में ये समय मौसम और प्रकृति के बदलाव को भी दिखाता है और इसका असर हर ओर दिखाई देता है. इस लिए इस समय के दौरान ऋषि-मुनियों ने कुछ समय को निश्चित किया जिस समय पर विशेष अनुष्ठान इत्यादि करना समस्त सृष्टि के कल्याण को दर्शाता है.

भाद्रपद संक्रान्ति मुहूर्त – पूजा पुण्यकाल समय

भाद्रपद संक्रांति, में सूर्य सिंह राशि में 16 अगस्त 2024 को प्रवेश करेंगे. भाद्रपद संक्रान्ति 19:44 मिनट पर आरंभ होगी. 30 मुहूर्ति इस संक्रान्ति का पुण्य काल मध्याह्न बाद होगा.

संक्रांति सूर्यास्त के जितने समय पहले हो उतना ही पहले तक का समय संक्रान्ति पुण्यकाल होता है. जिस संक्रांति का पुण्यकाल पहले हो अर्थात वह अगर सूर्योदय के समय हो तो उतनी घड़ी पुण्यकाल बाद में होता है. रात्रिकाल में संक्रांति होने पर रात्रि जनित पुण्य का निषेध कहा गया है. अगर आधी रात से पहले संक्रांति हो तो पहले रोज के दो प्रहर में पुण्यकाल होता है. अगर आधी रात्रि के मध्य में संक्रांति हो तो बाद वाले दिन के पहले दो प्रहर में पुण्य काल होता है.

सिंह संक्रांति – सूर्य का सिंह राशि में प्रवेश

भाद्रपद संक्रान्ति को सिंह संक्रान्ति के नाम से भी पुकारा जाता है. सूर्य इस समय के दौरान कर्क राशि से निकल कर सिंह राशि में प्रवेश करते हैं. सूर्य का सिंह राशि में प्रवेश अनुकूल माना गया है ज्योतिष की दृष्टि से यहां सूर्य की अनुकूल स्थिति होती है क्योंकि सूर्य सिंह राशि के स्वामी होते हैं. इस लिए सिंह राशि में होना उनका अपने घर में होने जैसा ही है.

सिंह राशि सूर्य की मूलत्रिकोण राशि होती है इस कारण वह इस राशि में बहुत बलशाली और मजबूत होता है. आप दूसरों से सच्चा प्रेम व अनुराग रखने वाले व्यक्ति होगें. आपको एक बार जिससे अनुराग हो गया तब आप उसे बहुत अच्छे से निभाते भी हैं. सिंह राशि अग्नितत्व होती है इसलिए इस संक्रान्ति समय सूर्य का प्रभाव ओर अधिक रुप में मिलता है.

भाद्रपद संक्रान्ति पूजा कैसे करें

भाद्रपद संक्रांति, के दिन गंगा स्नान को महापुण्यदायक माना गया है. इसी के साथ गंगा समेत अन्य पवित्र नदियों एवं धर्म स्थलों पर जाकर स्नान व पूजन कार्य होते हैं. मान्यता है किस संक्रान्ति के दिन पवित्र नदियों में स्नान करने पर व्यक्ति को ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है. संक्रान्ति समय स्नान से बीमारी दूर होती है और धन धान्य की प्राप्ति होती है. स्नान करने के पश्चात सूर्य देव को को जल अर्पित करना चाहिए.

जल अर्पित करने के लिए तांबे के पात्र का उपयोग अच्छा माना गया है. परंतु यदि तांबे का पात्र नहीं हो तो अन्य किसी साफ स्वच्छ लोटे में जल भर लेना चाहिए. जल में चावल, कुमकुम, लाल रंग के पूल डालकर सूर्य को अर्घ्य चढ़ाना चाहिए. जल चढ़ाते समय सूर्य मंत्र स्तुति करनी चाहिए.

देवी पुराण व मत्स्यपुराण के अनुसार में संक्रांति के दिन स्नान के साथ साथ व्रत का पालन भी उत्तम होता है. जो भी व्यक्ति भाद्रपद संक्रांति समय व्रत धारण करते हैं उन्हें श्री नारायण एवं सूर्य देव का पूजन एवं नाम स्मरण करना चाहिए. व्रत रखने पर सिर्फ एक बार भोजन करने का विधान बताया गया है. इस दिन दान करने को भी अत्यंत शुभ माना गया है. स्नान के बाद ब्राह्मण अथवा गरीबों को अनाज, फल इत्यादि का दान करना चाहिए.

संक्रांति के दिन तिल, गुड़ एवं कच्चे चावल बहते हुए जल में प्रवाहित करना शुभ माना गया है. इस दिन खिचड़ी, गुड़ और दूध को भगवान सुर्य देव को अर्पित करने से सूर्यदेव शीघ्र प्रसन्न होते हैं. संक्रांति के दिन पितरों के लिए तर्पण करने का विधान भी रहा है. इस दिन भगवान सूर्य को जल देने के पश्चात अपने पितरों का स्मरण करते हुए तिलयुक्त जल देने से पितर प्रसन्न होते हैं.

भाद्रपद संक्रान्ति में क्या करें

  • भाद्रपद संक्रान्ति में श्री कृष्ण को पंचामृत से स्नान कराना चाहिए.
  • इस संक्रान्ति समय श्रीमदभगवदगीता का पाठ करना चाहिए.
  • सूर्य का लाल पुष्पों से पूजा करनी चाहिए.
  • लड्डू गोपाल और शंख की स्थापना करना एवं इनका दान किसी योग्य ब्राह्मण को करना उत्तम होता है.
  • भाद्रपद संक्रान्ति ने में पूजा के दौरान तुलसी के पौधे पर जल चढ़ाएं और दीपक जलाना चाहिए.

भाद्रपद संक्रान्ति क्या होती है

संक्रांति का मतलब होता है सूर्य देव का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना. सूर्य ग्रह संचरण के इस समय को ही संक्रान्ति कहा जाता है. संक्रान्ति का सुर्य का राशि में प्रवेश-समय अत्य्म्त महत्वपूर्ण घटना होती है. सूर्य देव का प्रवेश जिस भी राशि में होता है उसे उसी राशि वाली संक्रांति का नाम दिया जाता है.

जिस प्रकार ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि से मिथुन राशि में प्रवेश कर रहे हैं तो यह संक्रांति मिथुन संक्रांति के नाम से प्रसिद्ध है. इस प्रकार कर्क राशि से सिंह राशि में सूर्य का जाना भाद्रपद संक्रान्ति कहलाता है. इस संक्रमण समय पर जप-तप और हवन इत्यादि अनुष्ठानों का विशेष महत्व शास्त्रों में बताया गया है.

भाद्रपद संक्रान्ति का महत्व

सूर्य संक्रांति का सम्बन्ध कृषि, प्रकृति और ऋतु परिवर्तन से रहा है. पूरे वर्ष में कुल 12 संक्रान्तियां आती हैं. इन बारह संक्रान्ति में से एक भाद्रपद संक्रान्ति है. सूर्य संक्रांति के दिन सूर्य पूजा करना अत्यंत ही आवश्यक होता है. वैदिक शास्त्रों में सूर्य देवता को आत्मा माना गया है. ऎसे में जब सूर्य पूरे वर्ष में जिस भी माह में रहता है और उसी रुप में उसका प्रभाव पृथ्वी पर पड़ता है. ऋतु परिवर्तन और जलवायु में जो भी बदलाव होते हैं उनमें से कुछ का असर सूर्य के द्वारा भी पड़ता है.

भाद्रपद संक्रांति के दिन पूजा-अर्चना करने के बाद भिन्न-भिन्न प्रकार के उत्तम भोज्य पदार्थ बना कर उनका सूर्य देव को भोग लगाया जाता है. संक्राति एक महत्वपूर्ण दिन होता है, इस दिन की भी बहुत मान्यता है. पर इसी के साथ संक्रान्ति के समय कुछ चीजों का निषेध भी माना गया है क्योंकि यह संक्रमण का समय होता है. इस कारण से कुछ विशेष मुहूर्तों में इसे उपयोग नहीं किया जाता है. इसीलिए इस दिन कुछ चीजों को ध्यान में रखते हुए पूजा-पाठ आदि करने को कहा जाता है.

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हल षष्ठी 2024 – संतान की दीर्घायु के लिए किया जाता है हल छठ

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को “हल षष्ठी” के रुप में मनाया जाता है. हल षष्ठी के दिन व्रत करने का विधान भी रहता है. इस अवसर पर षष्ठी देवी की पूजा, बलराम जी, कृष्ण जी की पूजा, सूर्य उपासना करना अत्यंत शुभदायक होता है. स्त्रियां इस मौके पर श्रद्धापूर्वक पूजा-अर्चना करती है. अपने परिवार के सुख समृद्धि के लिए इस व्रत को भी किया जाता है. अनुष्ठान किया जाता है, मंदिरों में हवन इत्यादि किए जाते हैं. धूम धाम के साथ हल षष्ठी व्रत मनाया जाता है. इस व्रत को पुत्रवती स्त्रियां मुख्य रुप से करती हैं. इसके साथ ही संतान प्राप्ति के लिए भी इस व्रत को करना अत्यंत ही शुभदायक होता है.

हल षष्ठी के अन्य नाम

हल षष्ठी उत्सव को अलग-अलग स्थानों में कई अन्य नामों से भी जाता है. इस पर्व को राजस्थान, उत्तर भारत के अनेक क्षेत्रों में उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस व्रत को बलराम जयन्ती, ललही छठ, बलदेव छठ, रंधन छठ, हलछठ, हरछठ व्रत, हल छठ, तिनछठी, तिन्नी छठ जैसे नामों से भी जाना जाता है.

बलराम जी श्री कृष्ण के बड़े भाई थे जो रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे. बलराम जी को नागराज अनंत का अंश भी कहा जाता है और इनके पराक्रम की अनेक कथाएं हमें शास्त्रों में प्राप्त होती हैं. बलराम जी गदायुद्ध में विशेष प्रवीण थे.

हल षष्ठी के दिन हुआ बलराम का जन्म

धर्म शास्त्रों में भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई थे बलराम जिन्हें बलभद्र नाम से भी पुकारा गया है. इन्हें शेषनाग के अवतार रुप में भी जाना गया है. बलराम का जन्म यदूकुल में हुआ था.

कंस ने जब अपनी बहन देवकी का विवाह यदुवंशी वासुदेव से कराया तब आकाशवाणी हुई कि उसकी बहन का आठवीं संतान ही कंस की मृत्यु का कारण होगी. यह सुन कंस ने अपनी बहन देवकी और वासुदेव को कारागार में डाल दिया और उसके छह पुत्रों को एक-एक करके जन्म समय ही मार दिया.

सातवें पुत्र के रूप में शेषनाग के अवतार बलराम जी होते हैं, जिसे योग माया द्वारा रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया जाता है और भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन इनका जन्म होता है.

हल षष्ठी कृषक दिवस

हल षष्ठी के दिन पृथ्वी का पूजन होता है. कृषक लोग भी इस दिन अपनी उन वस्तुओं का पूजन करते हैं जो उनके खेती कार्य के लिए उपयोग में लाई जाती हैं. कृषी के मुख्य साधन “हल” की पूजा भी इस दिन विशेष रुप से होती है. इस षष्ठी को हल षष्ठी के नाम से भी पुकारा जाता है. बलराम का अस्त्र हल था इस कारण यह इस पर्व को हल षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है.

हल षष्ठी पूजा विधि

हल षष्ठी के दिन प्रात:काल उठ कर स्नान करने के पश्चात सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. व्रत के लिए अनुष्ठान शुरू कर दिया जाता है. हवन इत्यादि भी किया जाता है. षष्ठी पूजन में सुहाग की सामग्री, वस्त्र, धूप दीप, फल फूल इत्यादि को उपयोग में लाया जाता है. बलभद्र और श्री कृष्ण का पूजन होता है. भगवान सूर्य की पूजा की जाती है. मान्यता है कि इस दिन को किया गया व्रत व पूजा द्वारा परिवार में समृद्धि और सुख का आगमन होता है.

हल षष्ठी से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें

इस दिन हल के पूजन का विशेष महत्व है. देश के पूर्वी अंचल में इसे ललई छठ के नाम से भी पुकारते हैं. इस दिन हल द्वारा जुते हए फल और अन्न का पूजन होता है. इस दिन भैंस का दूध-दही ही उपयोग में लाया जाता है. गाय का दूध उपयोग नहीं किया जाता है.

हल षष्ठी कथा

हल षष्ठी के दिन व्रत करने के साथ-साथ हल षष्ठी कथा को पढ़ने और सुनने से व्रत का शुभ फल प्राप्त होता है. हल षष्ठी कथा इस प्र्कार है – प्राचीन समय की बत है एक नगर में एक ग्वालन रहती थी वह घर-घर दूध-दही बेचकर अपना घर चलाती थी. ग्वालन अपने पति के सथ सुख पूर्वक रह रही होती है. अपने पति के साथ सांसारिक सुख भोगते हुए गर्भवती होती है और गर्भवती ग्वालिन के प्रसव का समय जब नजदीक आता है तो उसे पीड़ा होने लगी.

पर उस दिन घर पर पड़ा दूध और दही अभी बेचा नही किया था. ऎसे में वह दूध- दही बेचने के लिए बर्तन उठा कर निकल पड़ती है. पर पिड़ा इतनी बढ़ जाती है की उसे मार्ग में ही खेत में संतान को जन्म देती है. अपनी संतान को कपड़े में लपेट कर वह वहीं रख देती है और सामान बेचने के लिए आगे निकल पड़ती हैं.

उस दिन हल षष्ठी होती है. उस ग्वालन के पास गाय और भैंस का दूध होता है. जब उसके ग्राहक उससे कहते हैं की आज हल षष्ठी है और इसलिए गाय का दूध नहीं ले सकते हैं वह आज सिर्फ भैंस का ही दूध लेंगे, तो ग्वालन ने ग्राहकों को झूठ बोल कर की उसका दूध भैंस का ही है सभी को दूध बेच दिया.

सामान बेच कर ग्वालिन अपने बच्चे के पास खेत की ओर लौटने लगती है. पर जहां उसने बच्चे को रखा था उस स्थान पर किसान हल जोत रहा होता है. तभी हल की नोक बच्चे पर लगने से बच्चे की मृत्यु हो जाती है. ग्वालिन जब वहां पहुंच अपने मृत बच्चे को पाती है तो विलाप करने लगती है और कहती है कि आखिर उसने ऎसा कौन सा पाप किया जिसके कारण उसके साथ ऎसा हुआ.

तभी अचानक उसे याद आता है की उसने आज झूठ बोल कर गाय के दूध को भैंस का दूध बता कर लोगों को बेच दिया और उनके धर्म को खराब किया. उनके विश्वास के साथ खिलवाड़ किया. ग्वालिन तुरंत उठ कर उन सभी लोगों के पास जाती है जिनको उसने दूध बेचा होता है. वह सभी से माफी मांगती है और उन्हें सच बता देती है. इसके बाद वह खेत में पहुंची तो उसका बच्चा उसे जीवित मिलता है. भगवान का धन्यवाद करती है. तब से ग्वालिन भी प्रति वर्ष हल षष्ठी का व्रत करने का प्रण लेती है और अपने परिवार के साथ सुख पूर्वक रहती है.

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आषाढ़ अमावस्या 2024 , विशेष संयोग होने पर रखें इन बातों का ख्याल

आषाढ़ मास को आने वाली अमावस्या तिथि “आषाढ़ अमावस्या” के नाम से जानी जाती है. इस वर्ष 05 जुलाई 2024 को शुक्रवार के दिन आषाढ़ अमावस्या संपन्न होगी. आषाढ़ मास की अमावस्या के समय स्नान – दान और पितरों के लिए दान इत्यादि किया जाता है.

भारतीय पंचांग में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होकर जो 30वीं तिथि आती है उसे अमावस्या के नाम से जाना जाता है. पंचांग में हर महीना करीब 30 दिन का होता है जिसे दो भागों में बांटा गया है. जिसमें एक पक्ष शुक्ल पक्ष का होता है और दूसरा पक्ष होता है कृष्ण पक्ष का होता है. इन दोनों पक्षों में चंद्रमा की स्थिति में बदलाव होता है. कृष्ण पक्ष की स्थिति के आगमन पर चंद्रमा की स्थिति घटते जाने की होती है. कृष्ण पक्ष की आखिरी तिथि (30) अमावस्या कहा जाता है. अमावस्या तिथि पर सूर्य और चंद्र समान अंशों पर होते हैं और एक ही राशि में स्थित होते है.

आषाढ़ अमावस्या तिथि व मुहूर्त 2024

  • अमावस्या तिथि – शुक्रवार 05 जुलाई 2024.
  • अमावस्या तिथि आरंभ – 28:58 बजे से 04 जुलाई 2024.
  • अमावस्या तिथि समाप्त – 28:27 बजे तक 05 जुलाई 2024.
  • धार्मिक मान्यता अनुसार कृष्ण पक्ष में दैत्य और शुक्ल पक्ष में देव सक्रिय होते हैं. वहीं अमावस्या तिथि को पितरों को दिन कहा जाता है. ऎसे में इस अमावस्या के दिन पितृों को संतुष्ट एवं प्रसन्न किया जाता है. अनुष्ठानों के साथ ही इस तिथि के दिन पवित्र नदियों, धार्मिक तीर्थ स्थलों पर स्नान का भी विशेष महत्व माना जाता है.

    आषाढ़ अमावस्या में दिन का महत्व

    आषाढ़ अमावस्या के दिन आने वाले समय कौन सा दिन पड़्ता है इसका भी बहुत महत्व होता है. अमावस्या किसी विशेष दिन के संदर्भ में कई प्रकार की होती है और सभी का प्रभाव भी भिन्न-भिन्न बताया गया है. अमावस्या के दिन अगर सोमवार, मंगलवार या शनिवार का दिन होने पर इस अमावस्या का महत्व कई गुना बढ जाता है. इन दिनों में आने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या, भौमवती अमावस्या, या शनि अमावस्या नामों से पुकारा जाता है.

    आषाढ़ सोमवती अमावस्या

    आषाढ़ माह में यदि अमावस्या का दिन सोमवार का हो तो इस दिन पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहा जाएगा. सोमवती अमावस्या के दिन व्रत एवं दान इत्यादि करने से चंद्रमा से उत्पन्न यदि कोई दोष परेशान करता है तो उस दोष की शांति होती है. यह चंद्र दोष को दूर करने के लिए एक अत्यंत ही उत्तम दिन बनता है. आषाढ़ सोमवती अमावस्या होने पर भगवान शिव पर जलाभिषेक करने का भी बहुत महत्व होता है. जीवन में मौजूद कष्ट एवं रोग समाप्त होते हैं.

    सोमवती अमावस्या का शुभ प्रभाव तिथि और दिन के मिलाप से अत्यंत ही प्रभावदायी माना गया है. इस दिन व्रत करने पर पितरों को तो शांति तो प्राप्त होती है साथ ही जीवन में सुख और सौभाग्य का भी आगमन होता है. संतान और दांपत्य सुख की प्राप्ति होती है.

    आषाढ़ भौमवती अमावस्या

    आषाढ़ अमावस्या के दिन मंगलवार पड़ने पर ये अमावस्या भौमवती अमावस्या के नाम से जानी जाती है. मंगल का एक अन्य नाम भौम भी है. इस कारण इसे भौमवती अमावस्या से जोड़ा जाता है. मंगलवार और अमावस्या तिथि का संबंध होने पर इस दिन कर्जों से मुक्ति प्राप्त होती है. इस दिन व्रत एवं पूजा दान इत्यादि करने से मंगल ग्रह की शांति भी होती है. यदि जन्म कुंडली में मंगल के शुभ प्रभाव नहीं मिल पा रहे हों तो इस अमावस्य के दिन व्रत करना मंगल की शांति देने वाला होता है. यह सभी मनोकामना पूर्ण करने वाली अमावस्या होती है.

    आषाढ़ शनि अमावस्या

    आषाढ़ मास के दिन शनिवार होने पर यह दिन शनि अमावस्या के नाम से जानी जाती है. शनिवार के दिन आने वाली ये अमावस्या के दिन शनि ग्रह की शांति के लिए भी बहुत अच्छा माना गया है. शनि अमावस्या के प्रभाव से व्यक्ति के आर्थिक संकट दूर होते हैं. शनि अमावस्या के दिन व्रत करने पर शनि की साढे़साती और शनि ढैय्या के बुरे प्रभाव समाप्त होते हैं.

    आषाढ़ अमावस्या पर करें ये काम

    आषाढ़ अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष का दर्शन करना एवं उसका पूजन करना भी बहुत शुभ माना गया है. पीपल पेड़ के सामने दीपक जलाना एवं मंत्र जाप करने से सभी कष्ट दूर होते हैं.

    इस अमावस पर नदियों, सरोवरों और धर्मस्थानों पर स्नान, दान और शांति-कर्म किए जैसे कार्यों को करना भी अत्यंत ही प्रभावशाली माना गया है.

    गरुण पुराण में अमावस्या के विषय में बताया गया है. जिसमें इस दिन किए जाने वाले पूजा एवं दान किस प्रकार से अत्यंत ही आवश्यक होते हैं ओर जिन्हें करने से दोषों की समाप्ति होती है.

    शिव पूजन, पीपल की पूजा करने के साथ शनि की शांति के लिए भी पूजा आदि काम किए जाते हैं.

    आषाढ़ अमावस्या पर नहीं करें ये काम

    अमावस्या के दिन चंद्रमा दिखाई नही देता है. ऎसे में अंधकार और भी अधिक गहरा होता है. इसलिए इस दिन को काली रात्रि के नाम से भी पुकारा जाता है. अमावस्या के समय पर तंत्र संबंधित अनुष्ठान का प्रभाव जल्द ही फल देने वाला होता है. इसी कारण से अमावस्या के दिन तांत्रिक कर्म अधिक होते हैं. इस तिथि के समय पर कुछ विशेष बातों का ख्याल अवश्य रखना चाहिये. इस दिन से जुड़ी कुछ खास बातें इस प्रकार हैं –

    • सिद्धियों से विभिन्न शक्ति को पाने के लिए इस दिन कार्य किए जाते हैं. तो ऎसे में इस दिन किसी भी प्रकार के बुरे प्रभाव से बचने के लिए भी प्रयास किए जाते हैं.
    • इस दिन ग्रह नक्षत्रों के अनुसार अलग-अलग राशियों के लोगों पर इसका प्रभाव देखने को मिलता है. इस लिए अमावस्या के दिन पवित्र नदियों में स्नान और भगवान व अपने ईष्ट देव का पूजन करना चाहिए.
    • अमावस्या के दिन व्यक्ति को तामसिक भोजन जैसे मांस व शराब जैसी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए.

    क्या है खास आषाढ़ अमावस्या में

    आषाढ़ अमावस्या एक ऎसे समय को भी दर्शाती है जब मौसम में एक प्रकार का बदलाव भी होता है. इस समय के दौरान गरम मौसम से अलग बरसात का आगमन होता है तो ऎसे समय में इस संक्रमण काल में जो भी कार्य किया जाता है उसका लम्बे समय तक असर भी होता है. इस कारण से इस दिन में सात्विकता और शुद्धता का बहुत ध्यान रखने की आवश्यकता होती है.

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