साल 2024 में इस तारीख को पड़ रही है सोमवती अमावस्या

सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या तिथि सोमवती अमावस्या कहलाती है. इस तिथि में सोमवार का दिन और अमावस्या तिथि का संयोग होने के कारण यह दिन एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण दिन बनता है. इस समय पर उपवास और पूजा नियम को करने से नकारात्मकता दूर होती है और जीवन में सकारात्मकता आती है.

08 अप्रैल, 2024, सोमवार
02 सितम्बर, 2024, सोमवार
30 दिसम्बर, 2024, सोमवार

सोमवती अमावस्या में करें ये काम

  • सोमवती अमावस्या के दिन भगवान शिव का पूजन अवश्य करना चाहिए.
  • शिवलिंग पर कच्चे दूध-गंगाजल से अभिषेक करना चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के दिन उगते सूर्य को जल से अर्घ्य प्रदान करना चाहिये.
  • सोमवती अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष की पूजा करनी चाहिए.
  • पीपल के वृक्ष पर कच्चा दूध चढ़ाना चाहिए और सफेद रंग का सूत लपेटना चाहिए.
  • पीपल पर दीपक जलाना चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये और सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा भी देनी चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के दिन किसी गरीब को खाने की वस्तुएं एवं वस्त्र इत्यादि देने चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के दिन तिलों का दान करना चाहिए.
  • शुद्ध एवं सात्विक रुप से दिन का पालन करना चाहिए.
  • ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए.

सोमवती अमावस्या में क्या नहीं करें

  • सोमवती अमावस्या के दिन नमक के सेवन से बचना चाहिए.
  • इस दिन शराब का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के अंडा- मांस का सेवन नही करना चाहिए.
  • इस दिन किसी भी प्रकार के अनैतिक कार्यों को नहीं करना चाहिये.
  • किसी की निंदा, झूठ बोलना चुगली करना इत्यादि नही करना चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के दिन रति संबंधों से दूर रहना चाहिए.

सोमवती अमावस्या पर शिव पूजा

सोमवार का दिन भगवान शिव के पूजन का विशेष समय होता है. इस दिन अमावस्या का दिन होने पर इस दिन शिवलिंग का अभिषेक होता है और शिव पुराण का पाठ होता है. प्रात:काल उठ कर शिवलिंग पर गंगाजल से अभिषेक किया जाता है. उसके पश्चात शिवलिंग पर पंचामृत एवं अन्य भिन्न भिन्न प्रकार की वस्तुओं को भगवान शिव पर अर्पित किया जाता है. शिवलिंग पूजन में श्वेत रंग के वस्त्र एवं सफेद रंग का सूत शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है. सोमवती अमावस्या पर शिव पूजन करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है और जीवन में शुभता का आगमन होता है.

सोमवती अमावस्या पर करें पितृओं को याद

सोमवती अमावस्या के दिन एक महत्वपूर्ण परंपरा है लोगों का अपने पितरों के प्रति धन्यवाद एवं उनके प्रति सम्मान प्रकट करने का. धार्मिक कथाओं के अनुसार जब यह शरीर से प्राण निकलते हैं तब एक अलग यात्रा का आरंभ होता है. प्राण को एक अलग संसार की ओर राह दिखाई देता है. एक स्तर से दूसरे स्तर की ओर मार्गदर्शन निश्चित होता जाता है.

अपने सगे संबंधियों की मृत्यु के बाद उन उस यात्रा को सफल करने एवं उन्हें एक निश्चित मार्ग को दिखाने का कार्य हमारे द्वारा किए गए ये धार्मिक कृत्य होते हैं जिसे श्राद्ध कार्य के नाम से पुकारा जाता है. आत्माओं के प्रति कृतज्ञता पूर्वक याद करते हैं और उनके निमित्त अनेक प्रकार के धार्मिक कृत्य एवं दान इत्यादि कार्य किए जाते हैं.

इस कार्य में ब्राह्मणों को खाना खिलाया जाता है और उनसे पितृों की शांति के लिए पूजा करवाई जाती है. इसके अतिरिक्त गाय या कौवे को खाने की चीजें खिलाई जाती हैं. ऎसे में जिसको याद करके जब हम कुछ करते है तो उसका फल हमें मिलता है.

पितृओं की याद में भूखे लोगों को भोजन कराने से आशीर्वाद प्राप्त होता है. यदि किसी कारण से आप खाना अथवा पूजा पाठ जैसी चीजों को न भी कर पाएं लेकिन इस दिन यदि अपने पितृओं को श्रद्धा से याद करते उनके प्रति नमस्कार एवं प्रेम प्रकट करते हैं , गरीबों के प्रति दया भाव रखते हैं. जितना भी सामर्थ्य हो उस प्रकार जो भी शुद्ध चित मन से कार्य किया जाए उससे पितृ अवश्य प्रसन्न होते हैं.

सोमवती अमावस्या पर तर्पण का महत्व

सोमवती अमावस्या पर अपने पूर्वजों के निमित किया गया जल-तिल अथवा भोजन का अर्पण करना ही तर्पण होता है. तर्पण में अपने पूर्वजों को अर्थात पुरखों को याद किया जाता है. सोमवती अमावस्या के दिन दिवंगत आत्माओं का स्मरण करते हैं व उनकी शांति के लिए प्रार्थना एवं कामना की जाती है. तर्पण को सामान्य रुप से व्यक्ति अपने पितरों को याद करते हुए उनके लिए किए गए तर्पण कार्य को इस प्रकार भी कर सकता है – व्यक्ति अपने हाथ में अथवा किसी पात्र में तिल, अक्षत और जल लेकर पितरों को याद करते हुए तीन बार “पूर्वजों आप तृप्त हो जाएं, इन शब्दों को कहते हुए तिल, अक्षत व जल को छोड़ देना चाहिए.

सोमवती अमावस्या कथा

 

सोमवती अमावस्या कथा इस प्रकार है – प्राचीन काल में एक नगर में एक गरीब ब्रह्मण परिवार रहा करता था, उन ब्राह्मण की एक पुत्री भी थी . ब्राह्मण की पुत्री एक योग्य एवं बेहद ही संस्कारी कन्या थी. जब वह कन्या बड़ी हुई तो उसके पिता को उसके विवाह की चिंता सताने लगी. गरीब होने के कारण अपनी पुत्री के विवाह योग्य वर को प्राप्त नहीं कर पाते हैं. एक दिन ब्रह्मण के घर एक साधू महाराज आते हैं. ब्राह्मण कन्या उन साधू की बहुत सेवा भाव करती है. साधु उस कन्या के व्यवहार एवं आदर भाव से प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद देते हैं. ब्राह्मण दंपत्ति अपनी कन्या के विवाह की बात साधु के सामने रखते हैं. साधु कन्या के हाथ को देखते हैं, किंतु उसके हाथ में विवाह रेखा ही नहीं होती है ऎसे में दंपति साधु से उसके लिए उपाय पुछते हैं.

साधु उन्हें बताते हैं की एक दूर गाँव में सोना नाम की एक स्त्री अपने बेटे-बहू के साथ रहती है, वह स्त्री बहुत ही पतिव्रता एवं धर्म परायण है. अगर आपकी लड़की उस स्त्री की सेवा करे और वह स्त्री यदि लड़की को सिंदूर दान करें तो लड़की का विवाह संभव हो सकता है. ब्राह्मण दंपति साधु के कहे अनुसार कन्या को उस धोबिन स्त्री के पास सेवा के लिए भेज देते हैं . ब्राह्मण कन्या, सोना धोबिन को साधु की बात बताती है और उसे उनके पास रहने देने को कहती है. स्त्री उस लड़की को अपने यहां रख लेती है. ब्राह्मण कन्या के सेवा भाव से प्रसन्न हो वह उसे सुहागन होने का आशिर्वाद देती हैं और सिंदूर भेंट करती है. इस प्रकार ब्राह्मण कन्या का विवाह संपन्न हो पाता है.

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सूर्य ग्रहण 2024 : कंकण सूर्यग्रहण ऎसा होगा ग्रहण का आप पर प्रभाव

2024 में 8 अप्रैल और 2/3 अक्टूबर को लगने वाला सूर्य ग्रहण कई तरह से अपना प्रभाव डालने वाला होगा. इस ग्रहण का प्रभाव दक्षिणी पूर्वी यूरोप, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका कुछ कुछ क्षेत्रों, प्रशांत और हिन्द महासागर एवं मध्य पूर्वी एशिया के कुछ क्षेत्रों में दिखाई देगा.

2/3 अक्टूबर 2024 ग्रहण काल समय

  • ग्रहण का आरंभ – 21:13
  • कंकण का आरंभ – 22:21
  • परमग्रास – 24:15
  • कंकण समाप्त – 26:09
  • ग्रहण समाप्त – 27:17

सूर्य ग्रहण का प्रभाव

यह सूर्य ग्रहण नक्षत्र में आरंभ होगा और राशि में होगा. ऎसे में इन नक्षत्र और राशि के जातकों पर इस ग्रहण का अधिक प्रभाव दिखाई देगा. इसलिए इन नक्षत्र और राशि के जातकों को ग्रहण समय के दौरान दान और मंत्र जाप करना चाहिये. आदित्यहृदय स्त्रोत का पाठ व सूर्य के नामों का जाप करना सभी राशि के लोगों के लिए उत्तम होगा.

सूर्य ग्रहण के दौरान क्या करें

सूर्य ग्रहण के समय कुछ खास बातों का ध्यान रखना चाहिये. क्योंकि इस समय के दौरान वातावरण प्रभावित होता है ऎसे में इसका प्रभाव सभी पर होता है. सूर्य ग्रहण के लगने से पहले ही भोजन की वस्तुओं में तुलसी अथवा दुर्वा को डाल देना चाहिये. खाने की चीजों में तुलसी अथवा दूर्वा को डाल देने से किसी भी प्रकार की खराबी भोजन में नहीं आती है.

  • सूर्य ग्रहण के दौरान महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना चाहिए.
  • सूर्य ग्रहण के समय किसी भी गुरु मंत्र अथवा अन्य मंत्रों का जाप करना अत्यंत शुभदायक होता है.
  • कालसर्प दोष की शांति अथवा राहु केतु के पाप प्रभावों से मुक्ति पाने के लिए ग्रहण समय भगवन शिव के पंचाक्षरी मंत्र का जाप करना चाहिये.
  • इस समय के दौरान मंत्र जाप करना अत्यंत प्रभावशाली उपाय होता है. इससे मंत्र सिद्धी भी प्राप्त होती है.
  • गर्भवती महिला को इस समय के दौराना किसी भी प्रकार के कार्य को करने से बचना चाहिये. काटना, सिलना जैसे काम नहीं करने चाहिये.
  • ग्रहण के दौरान स्नान करना चाहिये अथवा ग्रहण समाप्ति के बाद भी स्नान करना चाहिये.
  • गंगा जल का सेवन करना चाहिए.
  • दान इत्यादि करना चाहिये.

सूर्य ग्रहण के दौरान क्या ना करें

  • सूर्य ग्रहण के दौरान भोजन इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • यौन संबंधों एवं प्रेम इत्यादि से बचना चाहिए.
  • सूर्य ग्रहण के समय सोना नहीं चाहिए.
  • मंदिर अथवा देवताओं की मूर्ति का स्पर्श नहीं करना चाहिये.

सूर्य ग्रहण वैज्ञानिक आधार

सूर्य ग्रहण एक वैज्ञानिक खगोलीय घटना होती है. सूर्यग्रहण के समय चंद्रमा सूर्य और पृथवी एक ही सीध में आ जाते हैं. जब चंद्रमा ग्रह सूर्य और पृथ्वी के मध्य होता है तो इस कारण से सूर्य की रोशनी कुछ समय के लिए बाधित हो जाती है जिसे सूर्य ग्रहण कहा जाता है.

सूर्य ग्रहण पौराणिक कथा

सूर्य ग्रहण एक वैज्ञानिक आधार से अलग धार्मिक महत्व भी रखता है. इस संदर्भ से संबंधित एक अत्यंत ही पौराणिक कथा प्राप्त होती है जिसका वर्णन भागवत, विष्णु पुराण एवं महाभारत में भी प्राप्त होता है. इस कथा का आरंभ समुद्र मंथन से होता है.

कथा इस प्रकार है कि- श्री विष्णु के भक्त प्र्ह्लाद के वंश में एक अन्य विष्णु भक्त राजा बलि होता है. राजा बली के शासन में दैत्यों असरों की शक्ति अत्यंत ही बढ़ जाती है. दैत्य अपनी शक्ति के प्रभाव से समस्त लोकों पर अपना आधिपत्य स्थपैत करने की चेष्ठा रखते हैं.

वहीं दूसरी ओर ऋषि दुर्वासा श्राप के कारण देवता श्रीहीन और शक्ति से वंचित होने लगते हैं. ऎसे में राजा बलि का शासन संपूर्ण लोकों पर स्थापित होता है. इन्द्र व अन्य देवता अपनी शक्ति को पाने हेतु ब्रह्मा जी के पास जाते हैं जहां वह देवताओं को विष्णु की शरण में जाने को कहते हैं. तब इंद्र इत्यादि देव श्री विष्णु भगवान का आहवान करते हैं.

श्री विष्णु भगवान उस समय देवताओं को दैत्यों के साथ मित्रता करके समुद्र मंथन का सुझाव देते हैं ,जिसके द्वारा देवों को अमृत की प्राप्ति हो सकती है और वह पुन: अपना राज्य स्थापित कर सकते हैं. तब देवता राजा बली के पास जाकर मैत्री भाव दर्शाते हैं और समुद्र से अमृत प्राप्ति करने और अन्य रत्नों की प्राप्ति का लालच देते हैं. इस पर राजा बली देवताओं के साथ मिलकर समुद्र मंथन के लिए तैयार हो जाते हैं.

समुद्र मंथन के लिये मन्दराचल पर्वत को चुना जाता है और वासुकी नाग को रस्सी बनाया जाता है. श्री विष्णु भगवान पर्वत को स्थर करने हेतु कछुए का अवतार लेते हैं और तब कच्छप की पीठ पर मन्दराचल पर्वत को रख कर समुद्र मंथन होता है इस समुद्र मंथन के दौरान चौथह रत्न प्राप्त होते हैं. बारी बारी से सभी रत्नों को दैत्य ओर देवताओं के मध्य बांटा जाता है और अंत मे अमृत की प्राप्ति होती है.

धन्वन्तरि अमृत का कलश लेकर प्रकट होते हैं लेकिन दैत्य अपनी ताकत से उस अमृत के कलश को धन्वंतरी से ले लेते हैं. ऎसे में शक्तिहीन देवता इस घटना से निराश हो उठते हैं. तब श्री विष्णु भगवान पुन: देवताओं की सहायता के लिए मोहिनी अवतार लेते हैं. मोहिनी रूप को देखकर दैत्य उसके प्रति आकर्षित हो उठते हैं. दैत्यों की इस दशा का लाभ उठाकर मोहिनी उनसे अमृत कलश ले लेती है और और स्वयं उन्हें अमृत पान कराने की बात कहती है. ऎसे में सभी दैत्य इस बात से सहमत हो जाते हैं. तब देवताओं और दैत्य दोनों अलग-अलग बैठ जाते हैं.

मोहिनी के रुप से प्रभावित दैत्य अमृत पान भूल जाते हैं और मोहिनी देवताओं को ही अमृत पान कराने लगती है. ऎसे में देवताओं की इस छल को राहु नामक दैत्य जान जाता है और वह धोखे से देवता का रुप बना कर देवों की श्रेणी में बैठ जाता है. परंतु सूर्य और चंद्रमा उसे पहचान लेते हैं पर तब तक बहुत देर हो जाती है क्योंकि राहु के मुख में अमृत जा चुका होता है.

सूर्य और चंद्रमा के इतना कहते ही की वह देव नही दैत्य है भगवान श्री विष्णु सुदर्शन चक्र से उसका धड़ शरीर से अलग कर देते हें. किन्तु अमृत पान कर लेने के कारण राहु अमर हो जाता है और इसके प्रभाव से उसका सिर राहु और धड़ केतु कहलाया. इसी कारण राहु ने सूर्य और चंद्रमा को अपना सदैव ग्रहण लगाया, जिसे सूर्य ग्रहण और चंद्रमा ग्रहण कहा जाता है.

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विवस्वत सप्तमी 2024

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को विवस्वत सप्तमी के रुप में मनाई जाती है. इस वर्ष 2024 में विवस्वत सप्तमी तिथि 13 जुलाई को मनाई जाएगी.

इस दिन सूर्य देव की उपासना का विशेष महत्व बताया जाता है. सूर्य के अनेकों नाम हैं जिनमें से एक नाम विवस्वत भी कहलाता है. प्रत्येक वर्ष की सप्तमी में सुर्य के पूजन की तिथि के लिए भी अत्यंत शुभदायक मानी गई है. ऎसे में आषाढ़ मास की सप्तमी के दिन भी सूर्य पूजन का विधान रहा है.

विवस्वत सप्तमी कथा

वैवस्वत मनु के समय ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार होता है. इस पर कथा भी प्राप्त होती है. इस कथा को सुनने वाले परीक्षित थे. परीक्षित को शुकदेव जी ने सत्यव्रत की कथा सुनाते हैं – सत्यव्रत नाम के एक बड़े उदार राजा थे वह नित्य धर्म अनुरुप आचरण करते थे. एक बार अपनी तपस्या के दौरान वह जब कृतमाला नदी में खड़े होकर तर्पण का कार्य कर रहे होते हैं तभी उस समय के दौरान उनके हाथ में एक मछली आ जाती है. सत्यव्रत ने अपने हाथों में आई उस मछली को जैसे ही जल में छोड़ने का प्रयास किया उस मछली ने सत्यव्रत को ऎसा नहीं करने का आग्रह किया. मछली की वेदना सुन कर राजा सत्यव्रत ने उसके जीवन की रक्षा करने का प्रण किया. मछली को अपने कमण्डल पात्र के जल में रख दिया और उसे अपने साथ ले आए.

लेकिन एक दिन में ही वह मछली आकार में इतनी बढ़ जाती है कि उस कमण्डल पात्र में समा ही नहीं पाती है. ऎसे में मछली राजा से पुन: आग्रह करती है की वह उसे यहां से निकाल कर किसी ओर स्थान में रखें. राजा सत्यव्रत ने मछली को उस पात्र से निकालकर एक बड़े पानी से भरे घड़े में डाल दिया. पर राजा के देखते ही देखते वह मछली उस घड़े में भी नहीं समा पाई और आकार में अधिक बढ़ गई. वह राजा से फिर से अपने लिए किसी सुखद स्थान की मांग करती है. इसके बाद राज ने उस मछली को घड़े से निकाल कर सरोवर में डाल देते हैं. मछली का आकार वहां भी बढ़ जाता है और सरोवर में भी पूरी नहीं आ पाती है. ऎसे में राजा सत्यव्रत उसे अनेक बड़े-बड़े सरोवरों में डालते हैं लेकिन मछली का आकार किसी भी सरोवर में नहीं समा पाता है. अंत में राजा उस मछली को समुद्र में डाल देते हैं.

पर मछली समुद्र से भी विशाल हो जाती है. अंत में राजा को उस मछली को प्रणाम करते हुए कहते हैं की – “मैने आज तक ऎसा जीव नहीं देखा आप कोई सामान्य जीव नहीं हैं कृप्या करके आप मुझे अपना भेद बताएं और मुझे दर्शन दीजिये”. सत्यव्रत की निष्ठा को देख भगवान श्री विष्णु उसे दर्शन देते हैं ओर कहते हैं की आज से ठीक सात दिन बाद पृथ्वी पूर्ण रुप से जल मग्न हो जाएगी अर्थात जल में डूब जाएगी इसलिए मै तुम्हें यह कार्य सौंपने आया हूं की तुम ऋषियों मुनियों और सभी महत्वपूर्ण वस्तुओं जीवों वनस्पतियों को अपने साथ लेकर तैयार कर लीजिये. आज से सातवें दिन बाद तीनों लोक प्रलय के समुद्र में डूबने लगेंगे. तब तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी उस नौका में तुम समस्त प्राणियों, वस्तुओं और सप्तर्षियों के साथ लेकर उस नौका में चढ़ जाना.तब मैं इसी मछली रूप में वहा आ उपस्थित हो जाउंगा. तब तुम वासुकि नाग के द्वारा उस नाव को मेरे सींग में बांध देना. इतना कहकर श्री विष्णु अंतर्ध्यान हो जाते हैं.

प्रभु के कहे वचन अनुसार ही सत्यव्रत ने वही किया है. तब सातवें दिन प्रलय आती है और सत्यव्रत ऋषियों समेत नौका में बैठा जाते हैं और मछली स्वरुप जब विष्णु भगवान मछली का रुप लिए वहां आते हैं तो वह उनके सींग पर उस ना व को बांध देते हैं और नाव में ही बैठकर प्रलय का अंत होता है.

यही सत्यव्रत वर्तमान में महाकल्प में विवस्वान या वैवस्वत (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुए और वैवस्वत मनु के नाम से भी जाने गए. सूर्यपुत्र वैवस्वत मनु ही मनु स्‍मृति के रचयिता है. नव ग्रहों के राजा सूर्य देव की उपासना की परंपरा में विवस्वत सप्तमी का भी बहुत महत्व है. प्राचीन काल से ही इस दिन सूर्य के इस स्वरुप का पूजन होता आता रहा है.

विवस्वत सप्तमी पूजा

विवस्वत सप्तमी के दिन सूर्यदेव का पूजन करने से सभी सुख और परेशानियां समाप्त होती हैं. स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए इस दिन अवश्य ही सूर्य देव का पूजन बहुत ही सकारात्मक होता है. सरकार की ओर से यदि कोई परेशानी मिल रही है या फिर कोई प्रोपर्टी से संबंधित अगर कोई मामला हो तो वह भी इस स्थिति में दूर हो सकता है.

  • विवस्वत सप्तमी के दिन सूर्य उदय से पुर्व उठ्ना चाहिये .
  • स्नान करने के बाद सूर्य देव को जल अर्पित करना चाहिये.
  • सूर्य को ज्ल देते समय जल में रोली, अक्षत और चीनी व लाल फूल जल में डालकर अर्घ्य देना चाहिये.
  • ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नम:’ मंत्र का जाप करना चाहिये.
  • इस दिन सिफ मीठी वस्तुओं का सेवन करना चाहिए.
  • हलवा बनाकर सूर्य देव को भोग लगाना चाहिए.
  • आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ एवं सूर्याष्टक का पाठ करना चाहिए.

विवस्वत सप्तमी महत्व

विवस्वत के संदर्भ को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित होती हैं. वैदिक साहित्य में मनु को विवस्वत् का पुत्र माना गया है, एवं इसे ‘वैवस्वत’ नाम दिया गया है. सूर्य का संबंध इसके साथ जुड़ने कारण ही इस दिन सूर्य उपासना का भी बहत मह्त्व रहा है. इस दिन विवस्वत मनु का पूजन होता है. इस दिन मनु कथा का श्रवण किया जाता है. वैवस्वत मनु के नेतृत्व में सृष्टि का सूत्रपात होता है. इसी से श्रुति और स्मृति की परम्परा चल पड़ी. विवस्वत से ही सूर्य वंश का आरंभ होता है जिसमें श्री राम का जन्म हुआ जो विष्णु के अवतार स्वरुप पृथ्वी पर आते हैं.

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करवीर व्रत 2024 – सूर्य पूजा से होगा सभी दुखों का नाश

सूर्य की पूजा एवं साधना का पर्व है करवीर व्रत. प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास की शुक्ल प्रतिपदा के दिन करवीर व्रत संपन्न होता है और सूर्य की पूजा की जाती है. इस वर्ष 07 जून 2024 को करवीर व्रत किया जाएगा. हिन्दु धर्म में सूर्य देव को आत्मा का स्वरुप माना गया है. वह साक्षात प्रकृति के पालक माने जाते हैं. जिनकी अपार शक्ति, गति और ऊर्जा संसार का हर व्यक्ति को सकारात्मक फल देता है.

सूर्य देव वनस्पति की जीवन शक्ति हैं. धार्मिक मान्यताओं अनुसार सूर्य देव समस्त इच्छाओं की पूर्ति करने वाले हैं. सूर्य का पूजन करने व सूर्य को जल देने के लिए नदी, जलाशय में खड़े होकर हाथों की अंजली बना कर अथवा पात्र में भर कर जल से अर्घ्य दिया देना चाहिए. करवीर व्रत अत्यंत ही उत्तम व्रतों की श्रेणी में आता है.

सूर्य की शक्ति पाने का अवसर

करवीर व्रत एक प्रकार से जीवन में शक्ति और प्रकाश के साथ हमारे जीवन को जोड़ने का पर्व भी है. इस दिन सूर्य के देव के नामों का स्मरण करना चाहिये. कलश में गुड़ अथवा गेहूं भर कर दान करना अत्यंत शुभ प्रभावदायक होता है. सूर्य देव का पूजन करने से हमे सूर्य का आशीर्वाद प्राप्त होता है . करवीर व्रत का प्रभाव तुरंत फल देने वाला होता है. वेदों में सूर्य की उपासना के बारे में विस्तार पूर्वक वर्णन प्राप्त होता है. वेदो में सूर्य की स्तुति के अनेक सूक्त प्राप्त होते हैं. ऋगवेद में मौजूद इन स्तुति से सूर्य देव की महिमा का वर्णन स्पष्ट होता है –

“आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च ।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥

तिस्रो द्यावः सवितुर्द्वा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट् ।

आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत् ॥

सूर्य देव की पूजा को ऋगवेद में बताया गया है. सूर्य का एक नाम करवीर भी है. ऎसे में जीवन में कर्म का सिद्धांत भी इस दिन से मिलता है. सूर्य देव का पूजन अत्यंत ही सरल और प्रभावशाली भी होता है. सूर्य के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. सूर्य इस लोक में अपनी किरणों से जीव का संचार करता है. शारीरिक व मानसिक सभी कष्टों का निवारक भी बनता है. वनस्पतियों एवं जीवों के जीवन का मुख्य आधार होता है. ऐसे में शास्त्रों में सूर्य की उपासना का उल्लेख बहुत ही विस्तार रुप से प्राप्त होता है.

करवीर व्रत के दिन सूर्य की पूजा के लिए सबसे जरुरी बात यह है की सूर्योदय से पूर्व उठना चाहिये. उसके बाद स्नान नियमित कार्यों से उक्त होकर साफ स्वच्छ वस्त्र पहनने चाहिये. सूर्य नमस्कार करना चाहिये. सूर्य को तांबे के लोटे में जल से अर्घ्य देना चाहिये. जल देने से सूर्य की जो किरणें हमारे ऊपर पड़ती हैं वह हमारे शरीर के सभी रोगों को दूर करने में सहायक बनती हैं. सूर्य को जल चढ़ाने में लाल चंदन, चावल, लाल पुष्प डाल कर इस जल को अर्पित करना चाहिये.

इस दिन मीठी वस्तुओं का ही सेवन किया जाना उत्तम होता है. गुड़ एवं लाल रंग के वस्त्र का दान करना चाहिये.

करवीर व्रत से संबंधित अन्य पौराणिक मान्यताएं

करवीर व्रत के संदर्भ में कुछ अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं. इन में से कुछ का संबंध देवी शक्ति से जोड़ा गया है.यह कथा इस प्रकार है की कौलासुर नाम का एक दैत्य था. उसकी शक्ति बहुत अधिक बढ़ गयी थी उसने हर तरफ अत्याचार फैला रखा था.

अपनी शक्ति को और भी बढ़ाने के लिए उसने कठोर तपस्या की थी और उसे संपूर्ण विजय का आशीर्वाद प्राप्त होता है. लेकिन इसके साथ ही उसने वरदान प्राप्त किया कि वह केवल स्त्री द्वारा ही मारा जा सके. अपने वरदान के प्राप्ति के पश्चात उसने तीनों लोकों में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास आरंभ किया. ऎसे में देवों एवं समस्त लोकों की सुरक्षा हेतु विष्णु स्वयं महालक्ष्मी रूप में प्रकट होते हैं और सिंह पर आरूढ़ होकर उस राक्षस को युद्ध में परास्त किया. कोलासुर ने अपनी मृत्यु से पूर्व श्री शक्ति देवी से वर याचना की कि उस क्षेत्र को उसका नाम प्राप्त हो और देवी वहीं स्थित हों. ऎसे में देवी ने वर दिया और स्वयं भी वहीं पर स्थित हो जाती हैं. कोलासुर का वध करने के पश्चात देवी को कोलासुरा मर्दिनी के नाम से भी पुकारा जाता है.

करवीर पूजा में कनेर वृक्ष का पूजन

करवीर पूजन में कनेर के वृक्ष का पूजन करने का भी विधान बताया गया है. कनेर वृक्ष के पुष्प को भगवान शिव के पूजन में भी मुख्य रुप से उपयोग किया जाता है. कनेर वृक्ष का पूजन करने के लिए प्रातकाल स्नान इत्यादि से निवृत होकर कनेर वृक्ष का पूजन करना चाहिये.

कनेर के वृक्ष पर जल अर्पित करना चाहिये. वृक्ष को लाल रंग के धागे से बांधा जाता है. लाल रंग का वस्त्र अर्पित किया जाता है. कनेर के समीप घी का दीपक जलाना चाहिये और धूप, पुष्प इत्यादि से पूजा करनी चाहिये. कनेर वृक्ष के पुष्पों को भगवान शिव पर भी चढ़ाना चाहिये. यदि संभव हो सके तो आज के दिन कनेर वृक्ष को लगाने से सौभाग्य में वृद्धि होती है.

करवीर पूजा महात्म्य

करवीर नाम को सूर्य और श्री लक्ष्मी देवी शक्ति के साथ संबंधित माना गया है. पद्मपुराण, देवी पुराण इत्यादि में इस शब्द का संबंध देखने को मिलता है.इस दिन किया गया भक्ति साधना एवं दान इत्यादि का कार्य बहुत ही शुभफलदायक होता है. करवीर पूजा में वृक्ष पूजा का भी विशेष महत्व दिया गया है.

करवीर व्रत की महत्ता के विषय में बताया गया है की इस व्रत को देवी सावित्री, दमयंती और सत्यभामा ने भी किया था. इस व्रत के प्रभाव से उन्हें जीवन में संकटों की समाप्ति होती है और सौभाग्य में वृद्धि होती है.

करवीर व्रत के पूजा उपासनअ एवं व्रत का पालन किया जाता है. इस दिन सूर्य पूजन, कनेर वृक्ष पूजन एवं लक्ष्मी पूजन करने के उपरांत ब्राह्मणों को सामर्थ्य अनुसार भोजन एवं दक्षिणा प्रदान करनी चाहिये. इस व्रत को करने से सूर्य लोक की प्राप्ति होती है, संतान सुख प्राप्त होता है और जीवन में किसी भी प्रकार का रोग परेशान नहीं करता है, आरोग्य की प्राप्ति होती है.

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ज्येष्ठ पूर्णिमा 2024, जानें कब है ज्येष्ठ पूर्णिमा-शुभ मुहूर्त

शास्त्रों में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दौरान किये जाने वाले बहुत से यम-नियम आदि का उल्लेख मिलता है, ज्येष्ठ पूर्णिमा के दौरान दिये गए नियमों का पालन करना चाहिए और उन नियमों का पालन करने से जीवन में आती है शुभता और मनोकामनाएं होती हैं पूर्ण.

2024 में ज्येष्ठ पूर्णिमा व्रत

इस वर्ष ज्येष्ठ पूर्णिमा का पर्व 21 जून 2024 को मनाया जाएगा. शास्त्रों में ज्येष्ठ पूर्णिमा का बहुत महत्व होता है. इसी दिन कलश भर कर शहद का दान करने का विधान भी है. इस दिन ये कार्य करने से व्यक्ति के जीवन में खुशियां आती हैं और प्रेम भाव बना रहता है.

  • जून 21, 2024 को 07:31 से पूर्णिमा आरम्भ
  • जून 22, 2024 को 06:37 पर पूर्णिमा समाप्त

ज्येष्ठ पूर्णिमा पर करे सत्यनारायण कथा

ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन सत्यनारायण कथा एवं पूजा की जाती है. इस दिन भगवान नारायण का पूजन होता है. इस पूजा में श्री विष्णु भगवान के स्त्य स्वरुप का पूजन होता है. इस कथा के दिन व्रत का भी विधान बताया गया है. सत्यनारायण कथा और पूजन से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.

सत्यनारायण कथा ओर व्रत में सुबह या शाम के समय सत्यनारायण भगवान के समक्ष घी का दीपक जलाया जाता है. आटे का चूरमा बनाते हैं ओर तुलसी दल को अर्पित किया जाता है. सत्यनारायण भगवान को फल फूल इत्यादि वस्तुएं भोग स्वरुप भेंट की जाती है.

ज्येष्ठ पूर्णिमा वट सावित्री व्रत

ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन वट सावित्री व्रत को किया जाता है और वट सावित्री पूजन होता है. यह दिन इन दो शुभ योगों के बनने से यह दिन अत्यंत ही शुभ फलदायी बन जाता है. इस दिन व्रत और पूजा करना सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति कराने वाला होता है. स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन से संबंधित पूजा एवं वट सावित्री व्रत की महिमा को बताया गया है.

वट वृक्ष का पूजन – इस दिन वट वृक्ष का पूजन होता है. वट वृक्ष पूजन में वृक्ष की परिक्रमा की जाती है. इस ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन वट वृक्ष की पूजा करने से त्रिदेवों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. सुहागन स्त्रियों के अतिरिक्त कुंवारी कन्याएं भी इसका पूजन कर सकती हैं. इस दिन इस वट का पूजन करने से सुहागिनों को सदा सौभाग्यवती होने का सुख प्राप्त होता है और संतान के सुख की प्राप्ति होती है. आज के समय में भी ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन गांवों-शहरों में हर सभी लोग इस दिन को उत्साह के साथ मनाते हैं. जहां वट वृक्ष स्थापित होता है वहां स्त्रियां परंपरागत रुप से इस वृक्ष का पूजन करती हैं.

वट वृक्ष की पूजा में वृक्ष की परिक्रमा की जाती है. तीन, पांच या सात बार इसकी परिक्रमा करते हैं. इसके साथ ही परिक्रमा करते समय कच्चे सूत-धागे को पेड़ पर लपेटा जाता है. इसके साथ ही चंदन, अक्षत, रोली इत्यादि से तिलक किया जाता है. वट के पेड पर फूल, सुहाग की सामग्री, इत्यादि भी अर्पित की जाती है. साथ ही पूरी ओर अन्य प्रकार के पकवानों का भोग भी चढ़ाया जाता है. वृक्ष के समक्ष दीपक भी जलाया जाता है और इस वृक्ष पर जल अर्पित किया जाता है.

ज्येष्ठ पूर्णिमा और सत्यवान-सावित्री कथा

सावित्री एक अत्यंत ही पतिव्रता स्त्री थी. सावित्री अपने पति धर्म के लिए यमराज से भी नहीं डरती है और अपने पति के प्राणों की रक्षा करती है. पौराणिक कथा अनुसार सावित्री का विवाह सत्यवान से हुआ था. सावित्री का विवाह सत्यवान से होता है. सत्यवान की अपल्प आयु के बारे में जब सावित्री को पता चलता है तो वह अत्यंत दुखी होती है. देवऋषि नारद द्वारा जब सत्यवान की मृत्यु के समय का सावित्री को पता चलता है तो वह उसी दिन से व्रत एवं भगवान से प्रार्थना आरंभ कर देती है. नारद बताई गई तिथि के दिन वह अपने पति सत्यवान के साथ लकडी काटने के लिये चल पड़ती है.

सत्यवान जब लकडी काटने के लिये पेड़ पर चढ़ता है तो उसके सिर में पीडा होने लगती है और वह नीचे गिर जाता है. पति की मृत्यु का समय निकटा आता जान वह देखती है की यमराज उसके पति के समीप आ खड़े होते हैं और सत्यवान के प्राण लेकर आगे चल पड़ते हैं. सावित्री भी यमराज के पीछे पीछे चल पड़ती है. यमराज उसे समझाते हैं लेकिन वह उन्हीं के साथ चलती चली जाती है. ऎसे में वह उसके पतिधर्म और निष्ठा भाव को देख उसे वर मांगने को कहते हैं.

सावित्री अपने सास-ससुर नेत्रों की ज्योति मांगती है. यमराज उसे कहते हैं की तेरा मनोरथ पूर्ण होगा अब तुम घर चली जाओ . सावित्री मना कर देती है. धर्मराज यमराज उसे उसे पुन: वर मांगने को कहते हैं ऎसे में वह अपने सास ससुर के खोये हुए राज्य को फिर से देने को कहती है. यमराज उसका वरदान पूरा कर देते हैं और सावित्री को वापस चले जाने को कहते हैं.

सावित्री कहती है की पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है. यमराज कहते हैं पति के जीवन के बदले वह जो चाहेगी उसे मिल सकता है. सावित्री तब पुत्रवती होने का आशीर्वाद मांगती है और यमराज उसे आशीर्वाद दे देते हैं. ऎसे में सावित्री यमराज से कहती है की बिना पति के उसे पुत्र कैसे हो सकते हैं और तब यमराज उसके समक्ष हार जाते हैं ओर सत्यवान का जीन पुन: वापिस कर देते हैं इस प्रकार सावित्री और सत्यवान अपने घर जाकर सुख पूर्वक अपना जीवनयापन करते हैं.

ज्येष्ठ पूर्णिमा का महात्म्य

ज्येष्ठ पूर्णिमा के दौरान किये जाने वाले कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण कार्य तुलसीदल से श्री विष्णु पूजन किया जाता है. इससे जीवन में तरक्की के साथ ही अच्छा स्वास्थ्य भी प्राप्त होता है. घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहती है स्थापित होती है. तुलसी पूजा के साथ ही मंदिर में तुलसी का पौधा लगाना भी शुभ माना गया है.

ज्येष्ठ पूर्णिमा के दौरान जप, तप, हवन के अलावा स्नान और दान का भी विशेष महत्व होता है. इस दौरान भक्त शुद्ध चित से जप, तप, हवन, स्नान, दान आदि शुभकार्य करता है, उसका अक्षयफल प्राप्त होता है. ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करना चाहिए और भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए. स्नान करने से व्यक्ति को अश्वमेघ यज्ञ के समान फल मिलता है, ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन मिट्टी का घड़ा, पानी, पंखे इत्यादि दान करने का भी विधान है.

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रम्भा तृतीया व्रत 2024 – क्यों मनाई जाती है रम्भा तृतीया ?

ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को रंभा तृतीया के रुप में मनाया जाता है. इस वर्ष 08 जून   2024 के दिन रम्भा तृतीया का उत्सव मनाया जाएगा. इस दिन अप्सरा रम्भा की पूजा की जाती है. धर्म शास्त्रों में वेद पुराणों में अप्सराओं का वर्णन प्राप्त होता है. देवलोक में अप्सारों का वास होता है.

अप्सरा रम्भा समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से उत्पन्न हुई थी, ऎसे में इस दिन देवी रंभा की पूजा की जाती है. स्त्रियों द्वारा सौभाग्य एवं सुख की प्राप्ति के लिए इस दिन व्रत भी किया जाता है. इस व्रत को रखने से स्त्रियों का सुहाग बना रहता है, कन्याओं को योग्य वर की प्राप्ति होती है. अच्छे वर की कामना से इस व्रत को रखती हैं, रम्भा तृतीया का व्रत शीघ्र फलदायी माना जाता है.

अप्सराओं का पौराणिक संदर्भ

अप्सराओं का संबंध स्वर्ग एवं देवलोक से होता है. स्वर्ग में मौजूद पुण्य कर्म, दिव्य सुख, समृद्धि और भोगविलास प्राप्त होते हैं. इन्हीं में अप्सराओं का होना जो दर्शाता है रुपवान स्त्री को जो अपने सौंदर्य से किसी को भी मोहित कर लेने की क्षमता रखती हैं. अप्सराओं के पास दिव्य शक्तियां होती है जिनसे यह किसी को भी सम्मोहित कर लेनी की क्षमता रखती हैं.

अथर्वेद एवं यजुर्वेद में भी अप्सरा के संदर्भ में विचार प्रकट होते हैं. शतपथ ब्राह्मण में इन्हें चित्रित किया गया है. ऋग्वेद में उर्वशी प्रसिद्ध अप्सरा का वर्णन प्राप्त होता है. इसके अतिरिक्त पुराणों में भी तपस्या में लगे हुए ऋषि मुनियों की त्पस्या को भंग करने के लिए किस प्रकार इंद्र अप्सराओं का आहवान करते हैं . कुछ विशेष अप्सराओं में रंभा, उर्वशी, तिलोत्तमा, मेनका आदि के नाम सुनने को मिलते हैं.

ऊर्वशी श्राप से मुक्त हो गई और पुरुरवा, विश्वामित्र एवं मेनका की कथा, तिलोतमा एवं रंभा की कथाएं बहुत प्रचलित रही हैं. इन्हीं में रंभा का स्थान भी अग्रीण है. अप्सराएँ अपने सौंदर्य, प्रभाव एवं शक्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं.

समुद्र मंथन रम्भा उत्पति कथा

दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर स्थापित था. इन्द्र सहित देवतागण भी बलि से भयभीत हो उठे. ऎसे में देवों के स्थान को पुन: स्थापित करने के लिए ब्रह्मा जी देवों समेत श्री विष्णु जी के पास जाते हैं. भगवान श्री विष्णु के आग्रह पर समुद्र मंथन आरंभ होता है. जो दैत्यों और देवों के संयुक्त प्रयास से आगे बढ़ता है. क्षीर सागर को मथ कर उसमें से प्राप्त अमृत का सेवन करने से ही देव अपनी शक्ति पुन: प्राप्त कर सकते थे.

ऎसे में समुद्र मंथन के लिये मन्दराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को नेती बनाया जाता है. भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रख लेते हैं और उसे आधार देते हैं . इस प्रकार समुद्र मंथन के दौरान बहुत सी वस्तुएं प्राप्त होती हैं. इनमें रम्भा नामक अप्सरा और कल्पवृक्ष भी निकलता है. इन दोनों को देवलोक में स्थान प्राप्त होता है. इसी में अमृत का आगमन होता है और जिसको प्राप्त करके देवता अपनी शक्ति पुन: प्राप्त करते हैं और इन्द्र ने दैत्यराज बालि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक पुन: प्राप्त किया.

अमृत मंथन में निकले चौदह रत्नों में रंभा का आगमन समुद्र मंथन से होने के कारण यह अत्यंत ही पूजनिय हैं और समस्त लोकों में इनका गुणगान होता है. समुद्र मंथन के ये चौदह रत्नों का वर्णन इस प्रकार है –

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः।

गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः।

रम्भा तीज कथा

रंभा तीज के उपल्क्ष्य पर सुहागन स्त्रियां मुख्य रुप से इस दिन अपने पति की लम्बी आयु के लिए और अविवाहित कन्याएं सुयोग्य वर की प्राप्ति के लिए इस व्रत को करती हैं. रम्भा को श्री लक्ष्मी का रुप माना गया है और साथ ही शक्ति का स्वरुप भी ऎसे में इस दिन रम्भा का पूजन करके भक्त को यह सभी कुछ प्राप्त होता है.

रम्भा तृतीया पर कथा इस प्रकार है की प्राचीन समय मे एक ब्राह्मण दंपति सुख पूर्वक जीवन यापन कर रहे होते हैं. व्ह दोनों ही श्री लक्ष्मी जी का पूजन किया करते थे. पर एक दिन ब्राह्मण को किसी कारण से नगर से बाहर जाना पड़ता है वह अपनी स्त्री को समझा कर अपने कार्य के लिए नगर से बाहर निकल पड़ता है. इधर ब्राह्मणी बहुत दुखी रहने लगती है पति के बहुत दिनों तक नहीं लौट आने के कारण वह बहुत शोक और निराशा में घिर जाती है. एक रात्रि उसे स्वप्न आता है की उसके पति की दुर्घटना हो गयी है. वह स्वप्न से जाग कर विलाप करने लगती है. तभी उसका दुख सुन कर देवी लक्ष्मी एक वृद्ध स्त्री का भेष बना कर वहां आती हैं और उससे दुख का कारण पुछती है. ब्राह्मणी सारी बात उस वृद्ध स्त्री को बताती हैं.

तब वृद्ध स्त्री उसे ज्येष्ठ मास में आने वाली रम्भा तृतीया का व्रत करने को कहती है. ब्राह्मणी उस स्त्री के कहे अनुसार रम्भा तृतीया के दिन व्रत एवं पूजा करती है ओर व्रत के प्रभाव से उसका पति सकुशल पुन: घर लौट आता है. जिस प्रकार रम्भा तीज के प्रभाव से ब्राह्मणी के सौभाग्य की रक्षा होती है, उसी प्रकार सभी के सुहाग की रक्षा हो.

अप्सरा रम्भा से संबंधित कुछ कथाएं

रम्भा का वर्णन रामायण काल में भी प्राप्त होता है. रम्भा तीनों लोकों में प्रसिद्ध अप्सरा थी. कुबेर के पुत्र नलकुबेर की पत्नी के रूप में भी रम्भा का वर्णन प्राप्त होता है. रावण द्वारा रम्भा के साथ गलत व्यवहार के कारण रम्भा ने रावण को श्राप भी देती है.

एक कथा अनुसार विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने के लिए जब रम्भा आती हैं तो विश्वामित्र रम्भा को शिला रुप में बन जाने का श्राप देते हैं. फिर एक ब्राह्मण द्वारा रम्भा को शाप से मुक्त प्राप्त होती है.

रम्भा तृतीया पूजन महत्व

रम्भा तीज के दिन दिन विवाहित स्त्रियां गेहूं, अनाज और फूल के साथ चूड़ियों के जोड़े की भी पूजा करती हैं।.अविवाहित कन्याएं अपनी पसंद के वर की कामना की पूर्ति के लिए इस व्रत को रखती हैं. रम्भा तृतीया के दिन पूजा उपासना करने से आकर्षक सुन्दरतम वस्त्र, अलंकार और सौंदर्य प्रसाधनों की प्राप्ति होती है. काया निरोगी रहती है और यौवन बना रहता है.

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वैशाख अमावस 2024, इन उपायों से मिलेगी पितृदोष से मुक्ति

वैशाख अमावस्या का पर्व वैशाख माह की अमावस्या तिथि के दिन मनाया जाता है. वैशाख अमावस्या के दिन पवित्र नदियों में स्नान करने व धर्म स्थलों पर जाकर दान-जप-तप इत्यादि करने का भी विशेष महत्व माना गया है.

वैशाख अमावस्या पूजा मुहूर्त

इस वर्ष वैशाख अमावस्या 07/8 मई 2024 के दिन मनाई जाएगी. अमावस्या का आरंभ 07 मई को आरंभ होगी और 08 मई 2024 को अमावस्या तिथि की समाप्ति होगी.

वैशाख अमावस्या में पूजा एवं उपासना पद्धति

वैशाख अमावस्या के दौरान कई प्रकार के कृत्य किये जाते हैं. इन में से प्रमुख कार्य अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान एवं उनके निम्मित तर्पण का कार्य करना है. अमावस्यअ के दिन प्रातः सूर्योदय के पूर्व उठ जाना चाहिये. यदि आप ऎसे स्थान पर रहते हैं जहां कोई नदी या सरोवर है तो वहां जाकर स्नान करना चाहिये. यदि ऎसा संभव न हो सके तो घर पर ही स्नान करना चाहिए. स्नान करते समय पानी में गंगाजल, हल्दी व तिल डालकर – स्नान करना चहिए.

स्नान करने के उपरांत श्री हरि का स्मरण करना चाहिये व अपने ईष्ट देव को नमस्कार करना चाहिए. अपने घर के वरिष्ठ सदस्यों बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए. सूर्य को तांबे के लोटे में जल अर्पित करना चाहिए. सूर्य देव को नमस्कार करने व अर्घ्य देन के पश्चात अपने पितरों को याद करना चाहिये.

  • जल में तिलों को प्रवाहित करना चाहिए या फिर दान करना चाहिए.
  • पितरों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण एवं उपवास करना चाहिये.
  • गरीब व अस्मर्थ लोगों को खाने की वस्तुएं दान करनी चाहिए.
  • वैशाख अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष की जड़ पर दूध एवं जल चढ़ाना चाहिए.
  • संध्या के समय पीपल के वृक्ष के नीचे सरसों के तेल का चौमुखी दीपक जलाना चाहिए.
  • ब्राह्मणों को भोजन एवं सामर्थ्य अनुरुप वस्त्र एवं धन इत्यादि दक्षिणा स्वरुप प्रदान करना चाहिये.

क्यों आवश्यक है वैशाख अमावस्या में पितृ कार्य और क्या है इसका लाभ ?

अमावस्या के दिन पितरों के निमित्त तर्पण के विषय में कहा गया है की जो भी व्यक्ति अपने पितरों के समक्ष तर्पण का कार्य नहीं करता है उसके पितरों को कष्ट प्राप्त होता है. व्यक्ति को पितृदोष भी लगता है. गरुण पुराण के अनुसार जब तक पितरों का श्राद्ध न किया जाए तब तक उनकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती है. ऎसे में अमावस्या के दिन पितृ तर्पण के कार्य को प्रधानता दी जाती है क्योंकि अमावस्या पितरों का दिन होता है. इस संदर्भ में एक पौराणिक कथा अनुसार भगवान श्रीराम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध एव तर्पण कार्य किया था. राम के द्वारा किये गए इस कार्य द्वारा ही उनके पिता दशरथ को मुक्ति प्राप्ति हुई और वे स्वर्ग लोक की ओर प्रस्थान कर पाते हैं.

इसके अतिरिक्त यदि किसी व्यक्ति की कुण्डली में पितृदोष का निर्माण होता है, परिवार में सदैव कलेश रहता है, संतान का सुख नही मिल पा रहा है, जीवन में हमेशा सुख और सफलता कोसों दूर रहते हैं, तो उस स्थिति में यदि अमावस्या के दिन अगर पितृदोष के उपाय किये जाएं तो यह बहुत कारगर सिद्ध होते हैं ओर व्यक्ति को बहुत सी सकारात्मकता प्राप्त होती है.

वैशाख अमावस्या कथा

वैशाख अमावस्या के साथ बहुत सी कथाएं संबंधित हैं जिनमें से एक कथा इस प्रकार है -प्राचीन समय की बात है, एक नगर में धर्मवर्ण नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था. वह ब्राहमण शुद्ध एवं सात्विक प्रवृत्ति का था. निर्धन होते हुए भी वह मन-कर्म एवं वचन द्वारा सदैव शुभ कर्मों को करने में लगा रहता था. उसके पास जो भी व्यक्ति आता ह उसकी सदैव मदद करता था. साधु संतों एवं ऋषिओं के प्रति वह सदैव नतमस्तक होता था. वह सत्संग में भी शामिल हुआ करता था.

एक बार किसी सत्संग में उसने यह बात सुनी की कलियुग में श्री विष्णु के स्मरण मात्र से ही व्यक्ति के समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं और हरी सुमिरन करने से समस्त शुभ फलों की प्राप्ति होती है. धर्मवर्ण के मन को यह बात घर कर गयी. उसने श्री हरी के स्मरण को मन में सदैव के लिए बसा लिया और वानप्रस्थ को अपना कर सांसारिक जीवन से मुक्त हो कर, सन्यास धारण किया. अपने भ्रमण काल के दौरान वह पितृलोक को जा पहुंचा. जहां वह देखता है की उसके पितरों को बहुत कष्ट मिल रहा होता है.

धर्मवर्ण जब अपने पितरों से इस कष्ट का कारण पूछता है, तो पितर बताते हैं कि उसके सांसारिक जीवन को त्याग देने व गृहस्थ का पालन न करने से उसके वंश की वृद्धि नहीं हो पाई और इस कारण पितृ कष्ट भोग रहे हैं. यदि धर्मवर्ण की संतान नहीं होगी तो कौन उसके पितरों के लिए पिंडदान का कार्य करेगा. हम यहां भटकते रह जाएंगे हमारी सदगति नहीं होगी. इसलिए हमारी मुक्ति हेतु तुम गृहस्थ जीवन का पालन करो और हमारी मुक्ति का मार्ग खोलो और आने वाली वैशाख अमावस्या के दिन विधि-विधान से हमारा पिंडदान करो. धर्मवर्ण को जब इन बातों का बोध होता है तो वह अपने पितरों को वचन देता है. वह सन्यास को त्याग कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते हुए सांसारिक कार्यों को पूरा करने लगता है. उसकी संतानों की उत्पति और वैशाख माह में किये गए पिण्डदान द्वारा उसके पितृ मुक्ति प्राप्त करते हैं.

वैशाख अमावस्या के दिन व्रत के दौरान रखें अपने खान पान का पूरा ध्यान

इस दिन अमावस्या के दिन यदि व्रत नियम धारण कर रहे हैं तो इसके लिए जरुरी है की शुद्धता एवं सात्विकता को अपने भीतर जरुर लाएं. यह वह समय है जब देह के साथ साथ मन का पवित्र होना भी अत्यंत आवश्यक होता है. धर्म शास्त्रों एमं मन, वचन और कर्म की शुद्धता को सदैव ही प्रमुखता दी गई है. इस पवित्रता में भी सबसे महत्वपूर्ण स्थान मन की पवित्रता को दिया गया है. मानसिक रुप से किया गया शुद्ध तप हमारे अंत:करण को शुद्ध करता है और हमारी आत्मा को भी पवित्रता से भर देता है. यदि व्रत न रख पाएं तो इस दिन जितना सात्विक आहार लिया जाए उतना ही शरीर में मौजूद अपवित्रता में कमी आती है. यह स्थिति तन एवं मन दोनों की शुद्धता को प्रभावित करने वाली होती है.

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वैशाख संक्रान्ति 2024

भारत में संक्रांति का पर्व बड़े ही उल्लास के साथ मनाया जाता है. किसी भी माह की सूर्य संक्रांति के दिन किया गया दान अन्य शुभ दिनों की तुलना में दस गुना पुण्य देता है. इसी श्रृंखला में आती है वैशाख माह की संक्रांति. इस वर्ष वैशाख संक्रांति के समय सूर्य, 13 अप्रैल, 2024, 21:15 मिनिट पर मेष राशि में प्रवेश करेंगे.

वैशाख संक्रांति पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में तुला लग्न में प्रवेश करेगी. इस संक्रान्ति के स्नान, दान आदि का पुण्य़काल होगा. इस मास में प्रतिदिन श्री विष्णु सहस्त्रनाम एवं “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का पाठ करने का विशेष महत्व होता है.

वैशाख संक्रान्ति पुण्य काल मुहूर्त
वैशाख संक्रान्ति शनिवार, 13 अप्रैल, 2024 को
वैशाख संक्रान्ति पुण्य काल 12:22 से 18:46
वैशाख संक्रान्ति महा पुण्य काल – 16:38 से 18:46

वैशाख संक्रांति को सतुआ संक्रांति भी कहा जाता है. इस दिन लोग जल से भरा घड़ा, पंखा और सत्तू दान करते और खाते हैं. वैशाख मास में नित्यप्रति प्रात: काल सूर्योदय से पूर्व शुद्ध जल में स्नान करने, तीर्थाटन करने, यथाशक्ति अनाज, वस्त्रों, फलादि का दान करने का विधान व महत्व कहा गया है. यह विधान करने वाले व्यक्ति के जीवन से रोग-शोक दूर होते है. आरोग्य, धन, सम्पदा इत्यादि सुखों की प्राप्ति होती है. यह तन-मन और आत्मा को शक्ति प्रदान करता है. इस समय पवित्र नदियों में स्नान और दर्शन सभी पुण्यदायक फल प्रदान करने वाला माना गया है.

वैशाख संक्रांति पूजा

संक्रांति व्रत का विशेष महत्व होता है. वर्ष में क्रमानुसार आने वाली प्रत्येक संक्रांति को व्रत उपवास आदि का पालन करना चाहिए. संक्रांति समय स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान की मूर्ति स्थापित करके गणेश एवं अन्य देवताओं का पूजन करके सूर्य नारायण भगवान का षोडशोपचार पूजन, संकल्पादि कृत्यों के साथ पूजन करना चाहिए. यह पूजा विधि क्रम का नाश करने में सहायक है. सुख-संपत्ति, आरोग्य, ज्ञानादि की प्राप्ति होती है और शत्रुओं का मान-मर्दन होता है.

संक्रांतियों में उपवास तथा स्नान करने मात्र से व्रती प्राणी संपूर्ण पापों से छुटकारा पा लेता है. धर्म ग्रंथों के अनुसार स्वयं ब्रह्माजी ने कहा है कि वैशाख संक्रांति भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाली है. वैशाख संक्रांति में केवल जलदान करके ही कई गुना शुभ फल प्राप्त किए जा सकते हैं.

वैशाख संक्रांति महत्व

हिन्दु पंचाग के अनुसार वैशाख मास वर्ष का दूसरा माह होता है. मान्यता है कि इस समय भगवान की पूजा, ध्यान और पवित्र कर्म करना बहुत शुभ होता है. भगवान का स्मरण इस काल में बहुत पुण्य देता है. वैशाखी संक्रांति के दिन तिलों से युक्त जल से व्रती लोग स्नान करते हैं. अग्नि में तिलों की आहुति देते हैं, मधु तथा तिलों से भरा हुआ पात्र दान में भी दिया जाता है. इसी प्रकार के महत्वपूर्ण विधि-विधान का विस्तृत विवरण धर्म ग्रंथों में दिया गया है.

हिन्दू पंचांग अनुसार वैसाख संक्रांति धार्मिक और लोक मान्यताओं में बहुत ही शुभ है. वैशाख संक्रांति में काशी कल्पवास, नित्य क्षिप्रा, स्नान-दान, दर्शन, सत्संग, धर्म ग्रंथों का स्मरण, संयम, नियम, उपवास आदि के संकल्प के साथ तीर्थवास का महत्त्व होता है. वैशाख संक्रांति के उपलक्ष पर प्रति वर्ष हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु महादेव का आशीर्वाद प्राप्त कर पुण्य कमाते हैं.

वैशाख संक्रांति पर रखें इन नियमों का ध्यान

वैशाख संक्रान्ति के समय पर कई सारे धार्मिक कृत्य किए जाते हैं. इस मास के दौरान मौसम में गर्माहट अधिक होने लगती है. इस स्थिति में मौसम के इस रुप और बदलाव को लेकर धार्मिक स्वरुप में भी कई नियम बताए गए हैं जो न केवल धर्म ही नहीं अपितु वैज्ञानिक तर्क की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं.

इस महीने में गरमी की मात्रा लगातार तीव्र होती जाती है और कई प्रकार के संक्रमण और रोग भी बढ़ने लगते हैं. इस लिये इस संक्रान्ति समय पर किए गए खान पान एवं पूजा पाठ से इन सभी समस्याओं से बचाव होता है.

संक्रांति पर किया जाता है जल का दान इस समय पर स्थान स्थान पर लोगों के लिए पानी की व्यवस्था की जाती है. जिससे सभी का कल्याण एव विकास संभव हो सके. इस मौसम में मसाले एवं तामसिक भोजन का त्याग करना चाहिए. अधिक तेल और मसाले वाली चीजों को खाने से बचना चाहिये.

इस मौसम में जितना संभव हो सके रसदार फलों का सेवन करना चाहिये व पानी की अधिक मात्रा को ग्रहण करना चाहिये. इस मौसम में सत्तू के उपयोग पर भी अधिक बल दिया जाता है. अपनी दिनचर्या में शुद्धता एवं सरलता का असर डालना चाहिये. इस मौसम में अधिक समय तक सोने से भी बचना चाहिये. दिन में सोने की समय सीमा को कम करने की कोशिश करनी चाहिये.

वैशाख संक्रांति में पूजा पाठ और नियम

वैशाख संक्रांति के दिन प्रात:काल उठ कर अपने ईष्ट का ध्यान करना चाहिये. प्रयत्न करना चाहिये कि सदैव ही इस माह में सूर्योदय के पूर्व उठ कर ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कार्य संपन्न कर लिया जाए. जल में तिल डाल कर भी स्नान किया जा सकता है. भगवान श्री हरि का नाम स्मरण करना चाहिये. गंगा नदी, सरोवर या शुद्ध जल से स्नान करने के बाद शुद्ध साफ वस्त्र धारण करके भगवान का पूजन करना चाहिये. शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिये. इसके बाद संक्रांति के महात्मय का भी पाठ करना चाहिये.

संक्रान्ति के समय सूर्य उपासना का महत्व बहुत होता है. इस समय सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, इसलिए इस समय के दौरान सूर्य पूजन करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. यह सौर मास का आरंभ समय भी होता है. सूर्य को जल चढ़ाना चाहिये और सूर्य की पूजा करनी चाहिये. आदित्यहृदय स्त्रोत का पाठ करना चाहिये और सूर्य के नामों को स्मरण करना चाहिये.

धर्म ग्रंथों का पाठ अवश्य करना चाहिये. संक्रांति समय भागवत कथा का पाठ करना चाहिये. भगवान को मौसम अनुकूल फल-फूल अर्पित करने चाहिये. संक्रान्ति के पुण्यकल समय दान एवं पूजा का कार्य अवश्य करना चाहिये.

वैशाख संक्रांति महात्म्य

संक्रांति अर्थात एक संचरण होना . प्रकृति के एक बदलाव का रुप संक्रांति भी है. इस अवसर पर सूर्य का राशि परिवरत्न होना सौर वर्ष के लिहाज से अत्यंत ही महत्वपूर्ण होता है. इसी के साथ ये बदलाव मौसम पर भी अपना असर अवश्य छोडता है. ऎसे में वैशाख संक्रांति का दिन सृष्टि में मौजूद सभी जीवों पर अपना प्रभाव भी डालता है. इसलिए इस दिन सूर्य उपासना का महत्व बहुत होता है और इस संक्रांति के दिन किये गए दान पुण्य का फल अंजाने में किये गए पापों की शांति करता है और साथ ही शारीरिक मानसिक आध्यात्मिक मजबूती देता है. पुराणों में संक्रांति के दिन किए गए दान और स्नान द्वारा सहस्त्रों यज्ञों के करने के समान फल प्राप्त होता है.

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वैशाख पूर्णिमा 2024 – करें इन कामों को मिलेगा मोक्ष

वैशाख पूर्णिमा का उत्सव रोशनी से भरपूर और हर दिशाओं को प्रकाशित करने वाला त्यौहार है. पूर्णिमा का समय “ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय ॥” इन पंक्तियों को चरितार्थ करने जैसा है. यह वह समय होता है जब अंधकार का पूर्ण नाश होता है और प्रकृति एवं जीवन में चारों ओर प्रकाश ही प्रवाहित होता है. पूर्णिमा का समय आध्यतमिक और वैज्ञानिक दोनों ही विचारों में एक अत्यंत ही प्रभावशाली समय होता है.

जहां वैज्ञानिक इस समय को प्रकृति के होने वाले बदलावों ओर चंद्रमा की आकर्षण शक्ति से जोड़ते हैं, वहीं धार्मिक स्तर पर भी यह समय चंद्रमा-प्रकृति और मनुष्य के संबंध में होने वाले बदलावों को भी दर्शाता है. ऎसे में इस समय की उपयोगिता और प्रभाव को समझने के लिए हमें किसी प्रकार के विरोधाभास पर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है.

वैशाख पूर्णिमा में करें चंद्रमा का पूजन

पूर्णिमा पूजन में चंद्रमा के पूजन को महत्व दिया गया शास्त्रों में वर्णित है कि पूर्णिमा समय चंद्रमा अपनी समस्त कलाओं से पूर्ण होता है. संपूर्ण रुप में होने पर सृष्टि को आलोकित करता है. चंद्रमा जल तत्व है ऎसे में उसका पृथ्वी पर सभी जीवों, वनस्पति इत्यादि चीजों पर भी असर पड़ता है. ऎसे में इस समय के दौरान हम पृथ्वी पर मौजूद जल पर भी इसका खास प्रभाव देखते ही है. जैसे की समुद्रों का पानी किस प्रकार इस समय के दौरान ज्वार भाटे की स्थिति में दिखाई देता है. ऎसे में जब शरीर की बात की जाए तो शरीर में भी अधिकांश हिस्सा जल का मौजूद होने के कारण यह भी प्रभावित होता है.

इस समय के दौरान जब हम अपनी उर्जा को ध्यान और साधना द्वारा संतुलित करने का प्रयास करते हैं तो यह हआरे लिए अत्यंत ही शुभदायक हो जाता है. इस समय के दौरान जब हम चंद्रमा का पूजन करते हैं तो यह उसकी ऊर्जा से साथ खुद को जोड़ने की प्रक्रिया होती है.

चंद्रमा के पूजन में रात्रि समय चंद्रमा को अर्घ्य प्रदान करना चाहिए. उसके समक्ष दीपक जलाने चाहिये. चंद्रमा की रोशनी में खड़े होकर “ ऊँ अमृतंग अन्गाये विधमहे कलारुपाय धीमहि, तन्नो सोम प्रचोदयात ।” मंत्र का जाप करना चाहिये. चंद्रमा का संबंध मानसिक रुप से सदैव ही रहा है. ऎसे में जब चंद्रमा की रोशनी में कुछ समय के लिए वहां खड़े होकर जब इन मंत्रों का उच्चारण किया जाए या फिर शांत होकर वहां बैठा भी जाए तो यह क्रिया शारीरिक संचार को बेहतर बनाने में बहुत सहयोग देती है.जीवन में दरिद्रता अथवा अकाल मृत्यु का भय भी समाप्त होता है.

वैशाख पूर्णिमा समय अन्य पर्व

वैशाख पूर्णिमा भगवान बुद्ध जन्म समय

वैशाख पूर्णिमा पर भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था. इस कारण इस तिथि का दिन और भी अधिक महत्वपूर्ण बन जाता है. यह समय बुद्ध को ज्ञान मता है जिसका प्रचार संसार भर में हुआ और आज विश्व भर में इस दिन को भगवान गौतम बुद्ध के जन्मदिवस के रुप में भी मनाया जाता है. भगवान बुध को श्री विष्णु भगवान के मुख्य अवतारों में से एक भी माना गया है. इस कारण भारतवर्ष में इस दिन को बुद्ध पूर्णिमा के रुप में भी उत्साह के साथ मनाया जाता है.

वैशाख पूर्णिमा के दिन छिन्नमस्तिका जयंती

इस दिन देवी छिन्नमस्तिका का पूजन भी होता है. इसी दिन शक्ति के इस रुप की जयंती मनाई जाती है. माता छिन्नमस्तिका का पूजन करके भक्त अपने सभी संकटों से मुक्ति पाता है. छिन्नमस्तिका जयंती के दिन सधना एवं सिद्धी की प्राप्ति का एक अत्यंत ही उत्तम दिन माना जाता है. इस अवसर पर शक्ति पिठों पर विशेष पूजा अर्चना होती है. ऎसे में वैशाख पूर्णिमा का दिन अत्यंत ही शुभ फलदायी बनता है.

प्रकृति का संचरण ग्रहों की शक्ति, भगवान के आशीर्वाद एवं शक्ति की संस्थापना द्वारा ही हो पाता है. ऎसे में यह एक अवसर इन संपूर्ण का संगम बन कर त्रिवेनी रुप लेता है और इस पावन अवसर के दिन यदि भक्त अपनी सामर्थ्य अनुसार जो कुछ भी जप-तप-दान इत्यादि करता है. उस सभी का इस सृष्टि पर एवं स्वयं उस पर गहरा प्रभाव पड़ता है.

वैशाख पूर्णिमा का महात्म्य

धर्म शास्त्रों एवं पौराणिक आख्यानों में पूर्णिमा तिथि के विषय में बहुत सी कथाएं और रहस्यों का पता चलता है. यह तिथि अत्यंत शुद्धता, पवित्रा और शुभ फल देने वाली मानी गई है. वैशाख मास की पूर्णिमा पर पूरे मास में चले आ रहे धार्मिक कृत्यों को यहीं पर आकर ठहराव मिलता है. यह समय वैशाख माह के समय जो भी त्यौहार हुए, वर मनाए गए और स्नान-दान के कार्य किये गए उन सभी का अंतिम स्वरुप इस पूर्णिमा पर आकर संपूर्ण होता है.

पौराणिक ग्रंथों के आधार पर कहा जाता है कि यदि संपूर्ण वैशाख माह के नियमादि न कर पाएं तो वैशाख पूर्णिमा के दिन पूजा उपासना एवं दान कार्य कर लेने से ही सहस्त्र गायों के दान करने जितना फल प्राप्त होता है. एक महीने से चला आ रहा वैशाख स्नान एवं विशेष धार्मिक अनुष्ठानों का समापन इस पूर्णिमा के अवसर पर होता है. इस समय पर दान और तप की महत्ता को भी दर्शाया गया है. सभी स्थानों जो भी आध्यात्मिक स्थल हैं वहां पर इस अवसर बहुत बड़े स्तर पर पूजा अर्चना एवं यज्ञ-हवन किए जाते हैं और वैशाख माह की समाप्ति का समय पूर्ण होता है.

स्कंद पुराण, भविष्य पुराण, इत्यादि में वैशाख पूर्णिमा और इस तिथि के बारे में भी बताया गया है. इस दिन गंगा में स्नान करने की बहुत ही महत्वता बताई गयी है. इसके अलावा पवित्र धार्मिक स्थलों प्रयाग राज त्रिवेणी में इस स्नान करने की बात कहीं गयी है. नदी सरोवरों में स्नान करने के पश्चात सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है उस के बाद दीपक जलाए जाते हैं और दान इत्यादि का विशेष महत्व बताया गया है. धर्मराज के निमित्त आज के दिन प्रसाद बांटा जाता है. ऎसा करना गौदान के समान फल देने वाला कहा गया है.

वैशाखी पूर्णिमा के दिन पर यदि कलश भर कर गुड़ अथवा तिलों का दान किया जाए तो वह दान पूर्व जन्मों के पापों का नाश करता है. अनजान में हुए गलत कर्मों से मुक्ति दिलाने वाला बनता है.

वैशाख पूर्णिमा के अवसर पर श्री विष्णु की प्रतिमा के सामने घी का चौमुखी दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए. इस्के अलावा गाय के घी से भरा हुआ पात्र, नारियल, तिल को पूजा में रखने से कष्टों का निवारण होता है. मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है. इस दिन तिल के तेल का दीपक तुलसी के पौधे के सामने भी जलाना चाहिए.

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चैत्र अमावस्या 2024

हिन्दू पंचांग अनुसार चैत्र माह की अमावस्या इस वर्ष 08 अप्रैल 2024 को मनाई जाएगी. चैत्र में आने वाली कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को उपवास एवं पितरों की शांति हेतु पूजा पाठ एवं दान इत्यादि किया जाता है. चैत्र अमावस्या पर धर्म स्थलों एवं पवित्र नदी में स्नान करने का भी बहुत धार्मिक महत्व माना गया है.

चैत्र अमावस्या से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें

चैत्र माह की अमावस्या एक बहुत ही महत्वपूर्ण तिथि होती है. इस के साथ ही उन कार्यों का आरंभ हो जाता है जो शक्ति प्राप्ति, तंत्र, मंत्र एवं आद्यात्मिक विकास के लिए सहायक बनते हैं. इस अमावस्या के दौरान जो भी साधक अपनी शक्ति एवं ऊर्जा में वृद्धि करने का प्रयास करता है उसके लिए आगे के रास्ते खुलते जाते हैं.

चैत्र अमावस्या में पूजा पाठ के साथ में तपस्या का एवं रात्रि जागरण का भी महत्व होता है. पर ध्यान देने योग्य बात यह होती है की इस रात्रि

जागरण को वहीं लोग करते हैं जो शक्ति उपासना एवं गृहस्थ से अलग होकर अपनी साधना को करते हैं.

अमावस्या तिथि को तंत्र की पूजा एवं मंत्र सिद्धि के लिए उपयोगी माना गया है. ऎसे में चैत्र अमावस्या के दिन किया गया तंत्र अनुष्ठान प्रभावशाली असर डालने वाला भी होता है. अमावस्या की रात्रि किसी भी खास तरह की सिद्धि को जागृत करने के लिए बहुत विशेष मानी जाती है.

चैत्र अमावस्या में किए जाने वाले कार्य

  • चैत्र अमावस्या के दिन प्रात:काल उठ कर स्नान कार्यों से मुक्त होकर भगवान सूर्य को जल चढ़ाना चाहिए.
  • दक्षिणाभिमुख होकर दिवंगत पितरों के लिए पितृ तर्पण करना चाहिए.
  • श्री विष्णु भगवान का पूजन करें और शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिए.
  • पितृस्तोत्र या पितृसूक्त का पाठ करना चाहिए.
  • पीपल के पेड़ पर कच्ची लस्सी, गंगा जल चढ़ाना चाहिए.
  • पीपल पर काले तिल, चीनी, चावल, जल तथा फूल चढ़ाने चाहिये.
  • गाय को रोती अथवा हरा चारा खिलाना चाहिए.
  • तुलसी का पूजन करना चाहिए और तुलसी पर लाल धागा बांधना चाहिए.
  • इस दिन संध्या समय घर के ईशान स्थान पर गाय के घी का दीपक जलाना चाहिए.
  • एक दीपक घर के मुख्य द्वार पर भी जलाना चाहिए.
  • आचरण में शुद्धता और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए.

चैत्र अमावस्या पर नहीं करें ये काम

  • अमावस्या पर मांस मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • तामसिक भोजन एवं शराब इत्यादि के सेवन से बचना चाहिए.
  • प्रेम प्रसंग से दूर रहना चाहिए.
  • सुनसान स्थान पर जाने से बचना चाहिए.
  • किसी के द्वारा दी गई सफेद चीज का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • साफ सफाई का ध्यान रखना चाहिए.

चैत्र अमावस्या पर करने वाले उपाय

चैत्र कृष्ण पक्ष की अमावस्या को कुछ स्थानों में भूत अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है. इस अमावस्या के दिन सुबह आटे की गोलियां बनाएं ओर किसी नदी या जलाश्य जिसमें मछलियां हों वहां डाल देनी चाहिए इस उपाय को करने से आपके जीवन में जो भी नकारात्मक हो वह दूर होती जाती है.

  • अमावस्या के दिन पक्षियों को अनाज डालना चाहिए.
  • चींटियों को चीनी व आटा खिलाना चाहिए.
  • गरीबों को वस्त्र भोजन इत्यादि चीजों का दान करना चाहिए.
  • जिन जातकों पर काल सर्प का प्रभाव बना हुआ हो उन लोगों के लिए इस दिन पूजा विशेष रुप से करनी चाहिए.
  • कालसर्प दोष की शांति के लिए शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिए. नाग देव की पूजा करनी चाहिए.
  • चांदी से बने नाग-नागिन जोड़े का पूजन करके इन्हें बहते हुए जल में प्रवाहित कर देने से काल सर्प शांति होती है.

चैत्र अमावस्या के दिन पितरों के लिए कैसे करें पूजा

गरुड़ पुराण के अनुसार इस अमावस्या का दिन पितरों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है.
किसी भी प्रकार के पितृदोष होने पर अगर अमावस्या तिथि के दिन पितरों का पूजन किया जाए व उनके लिए व्रत इत्यादि अनुष्ठान किया जाता है. मान्यता है कि अमावस्या तिथि के दिन पितर पृथ्वी आते हैं और इस दिन उनके निमित्त किया गया भोजन व दान पाकर वह अपने को वंश वृद्धि और सुख शांति का आशीर्वाद देते हैं.

सुबह के समय सूर्यदेव को जल चढ़ाते समय ‘ॐ पितृभ्य: नम:’ मंत्र का जाप करना चहिए.

पितरों के लिए दक्षिणाभिमुख होकर पितृ तर्पण करना चाहिए.

पितरों के लिए व्रत भी किया जा सकता है.

पितृस्तोत्र या पितृसूक्त का पाठ करना चाहिए.

‘ॐ पितृभ्य: नम:’ मंत्र का जाप करना चाहिए.

चैत्र अमावस्या का ज्योतिषिय महत्व

ज्योतिष के नजरिये से अमावस्या के दिन चंद्रमा को कमजोर माना गया है. इस दिन समय जन्म लेने वाले जातक की कुंडली में चंद्रमा का बल कमजोर रहता है और चंद्रमा के प्रभाव से मानसिक रुप से व्यक्ति में निर्णय लेने की क्षमता उचित रुप से काम नहीं कर पाती है. वह भावनाओं में जल्द बहने वाला और दूसरों की बातों में आने वाला होता है.

इस कारण इस दिन चंद्रमा की पूजा करने से कुंडली में मौजूद कमजोर चंद्रमा का दोष कम होता है. इसी के साथ इस दिन शिवलिंग पूजन करने और गरीबों को दूध से बने खाद्य पदार्थ खिलाये जाएं तो चंद्रमा की शुभता प्राप्त होती है. इसी कारण से पवित्र नदियों में स्नान और पूजा पाठ इत्यादि कार्यों को इस दिन विशेष रुप से करने कि सलाह दी जाती है जिससे की नकारात्मक ऊर्जा समाप्त हो और हम सभी के भीतर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना रहे.

चैत्र अमावस्या तिथि महत्व

पौराणिक धार्मिक मान्यता अनुसार अमावस्या तिथि के दिन यदि गंगा इत्यादि पवित्र नदियों में स्नान कियअ जाए तो व्यक्ति को कष्टों से मुक्ति मिलती है और पुण्य प्राप्त होता है. पवित्र नदी में स्नान करके पितृ तर्पण करना, सूर्य को अर्घ्य देना व इसके बाद ब्राह्म्णों को सामर्थ्य अनुसार भोजन कराने से पितरों को शांति मिलती है और पापों का नाश होता है. अमावस्या के दिन तिल का दान करना बहुत उपयोगी होता है.इसके अतिरिक्त गरीबों में खीर बांटना भी बहुत अच्छा माना जाता है.

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