भाद्रपद पूर्णिमा 2025 कब है: शुभ मुहूर्त, पूजा विधि और पूर्णिमा कथा

भाद्रपद मास की पूर्णिमा “भाद्रपद पूर्णिमा” के नाम से जानी जाती है. इस पूर्णिमा के दिन कुछ विशेष अनुष्ठान पूरे किए जाते हैं. इस पूर्णिमा के दिन सत्यनारायण की पूजा, शिव पार्वती पूजा, चंद्रमा पूजा कार्य संपन्न होते हैं. इस पूर्णिमा के दिन व्रत का अत्यंत महत्व भी बताया गया जो सभी प्रकार के सुख वैभव को देने में सहायक बनता है.

पूर्णिमा की तिथि धार्मिक कर्म एवं अनुष्ठान के कार्य करने में अत्यंत शुभ मानी जाती है. इस दिन को मुहूर्त शास्त्र में भी स्थान प्राप्त है. शुभ मुहूर्त का निर्धारण इस तिथि में होता है जिसमें बहुत से नवीन कार्य भी करने कि बात कहीं गई है.

भाद्रपद पूर्णिमा पूजा समय

भाद्रपद पूर्णिमा 07 सिंतबर 2025 को रविवार के दिन मनाई जाएगी.

  • पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ – सितम्बर 07, 2025 को 01:41 ए एम बजे
  • पूर्णिमा तिथि समाप्त – सितम्बर 07, 2025 को 11:38 पी एम बजे

भाद्रपद पूर्णिमा से आरंभ श्राद्ध कार्य

संपूर्ण वर्ष में आने वाली हर एक पूर्णिमा की तिथि कुछ न कुछ खास विशेषता लिए होती है. इसी में भाद्रपद माह कि पूर्णिमा को श्राद्ध पक्ष के आरंभ से जोड़ा जाता है, इसी पूर्णिमा से आरंभ होने वाले श्राद्ध कार्य आश्विन अमावस्या तक चलते है. इसलिए भाद्रपद पूर्णिमा को स्नान दान का भी विशेष महत्व माना जाता है.

भाद्रपद पूर्णिमा व्रत पूजा विधि

भाद्रपद पूर्णिमा के दिन विधि विधान के साथ पूजा और सत्यनारायण कथा करने से सभी दुखों का नाश होता है. जीवन में आने वाले कष्ट दूर हो जाते हैं. भाद्रपद पूर्णिमा के दिन पूजा करने में कुछ बातों का ध्यान रखने से व्रत का और पूजा का संपूर्ण लाभ भी मिलता है.

भाद्रपद पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल उठ कर किसी पवित्र नदी, सरोवर या कुंड में स्नान करना चाहिए. अगर ये सब संभव न हो सके तो अपने निवास स्थान अथवा घर पर ही स्नान कर लेना चाहिए.

  • इस दिन व्रत करना चाहते हैं तो व्रत का संकल्प भी करना चाहिए.
  • पूर्णिमा के दिन भगवान सत्यनारायण की पूजा और कथा करनी चाहिए.
  • भगवान शिव और माता पार्वती जी की प्रतिमा को स्थापित करके पूजा करनी चाहिए.
  • पूजा के बाद भगवान को प्रसाद और फल-फूल भेंट करने चाहिए.
  • पंचामृत और चूरमे का प्रसाद बना कर सभी लोगों को पूजा के बाद बांटना चाहिए.
  • पूजा कर लेने के बाद ब्राह्मण को भोजन करना चाहिए और जरुरतमंदों को दान इत्यादि करना चाहिए.
  • भाद्रपद पूर्णिमा व्रत स्त्रियों के लिए विशेष महत्व रखता है. इस व्रत के प्रभाव से संतान, सुखी दांपत्य की प्राप्ति होती है.

भाद्रपद पूर्णिमा का नक्षत्र संबंध

प्रत्येक मास की पूर्णिमा तिथि से ही चंद्र वर्ष के महीनों के नामों को रखे जानी की बात कही जाती है. हिन्दु पंचांग में सूर्य और चंद्रमा से ही महीनों के नाम रखे जाते हैं जिन्हें सौर मास और चंद्र मास के नाम से जाना जाता है. कुछ व्रत व त्यौहार सौर मास से मनाए जाते है, तो कुछ चंद्र मास के द्वारा.

इसलिए जब हम पूर्णिमा तिथि की बात करते हैं तो उसे चंद्र वर्ष से जोड़ा जाता है. चंद्रमा के साथ ही नक्षत्रों का भी इस के साथ संबंध होता है. मान्यता अनुसार जिस भी माह में पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस भी नक्षत्र में होता है उसी नक्षत्र के नाम अनुसार उस माह का नाम रखे जाने की बात कही गई है. इसलिए बारह महीनों के नाम नक्षत्रों पर आधारित होते हैं. इसी क्रम में भाद्रपद पूर्णिमा का नाम इसीलिये कहा गया क्योंकि इस दिन चंद्रमा उत्तराभाद्रपद या पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में गोचर कर रहा होता है.

जिन लोगों का जन्म उत्तराभाद्रपद या पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में होता है उन लोगों के लिए भी इस पूर्णिमा का दिन विशेष महत्व रखता है. पूर्णिमा के दिन इन लोगों को अपने नक्षत्र की पूजा करनी चाहिए. भगवान शिव, मां पार्वती, भगवान गणेश तथा अहिर्बुधन्य की पूजा करनी चाहिए. दूध, दहीं, घी, शहद, फूल और मिठाई इत्यादि को भगवान को पूजा में शामिल करना चाहिए. नक्षत्र के मंत्रों का उचारण करना चाहिए. इस पूजा के अतिरिक्त नवग्रहों से संबंधित वस्तुओं का दान भी करना चाहिए. दान की जाने वाली चीजों में गुड़, काले तिल, चावल, गुड़, चीनी, नमक, जौं तथा कंबल इत्यादि को दान स्वरुप देना चाहिए.

भाद्रपद पूर्णिमा कथा

भाद्रपद पूर्णिमा के दिन उमा महेश्वर व्रत करने का भी विधान बताया गया है. धर्म शास्त्रों में इस पूर्णिमा के दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है. इसके साथ ही रात्रि के समय जागरण करना चाहिए. नारद पुराण और मत्स्य पुराण में इस व्रत के बारे में भी बताया गया है. इस व्रत को करने से मांगलिक सुख मिलते हैं. दांपत्य सुख प्राप्त होता है.

उमा महेश्वर व्रत के साथ ही कथा भी सुननी चाहिए. इस कथा को सुनने से व्रत का संपूर्ण फल मिलता है. कथा इस प्रकार है –

ऋषि दुर्वासा जी एक बार भगवान शिव शंकर जी के दर्शन करने उनसे मिलने कैलाश जाते हैं . कैलाश पर भगवान शिव और माता पार्वती के दर्शन कर वह अत्यंत प्रसन्न होते हैं. भगवान शिव, ऋषि दुर्वासा को एक पुष्प माला भेंट करते हैं जिसे दुर्वासा प्रेम से स्वीकार कर लेते हैं.

भगवान से भेंट कर लेने के पश्चात दुर्वासा वहां से आगे निकल पड़ते हैं. मार्ग में वह भगवान श्री विष्णु जी के दर्शन के लिए भी उत्सुक होते हैं ओर उनसे मिलने के लिए विष्णु लोक जाने के लिए आगे निकल पड़ते हैं लेकिन तभी उनकी भेंट इंद्र से होती है तब दुर्वाजी भगवान शिव द्वारा उन्हें प्रदान कि हुई माला वह इंद्र को भेंट दे देते हैं.

इंद्र अपने अभिमान में उस माला को अपने वाहन ऎरावत हाथी को पहना देता है. ऋषि दुर्वासा यह सब देखकर क्रोधित हो उठते हैं उन्हें यह कार्य अच्छा नही लगता है और दुर्वासा क्रोधित स्वर में इंद्र को कहते हैं कि तुमने महादेव शिव शंकर जी का अपमान किया है. इससे तुम्हें लक्ष्मी जी छोड़कर चली जायेंगी और तुम्हें इंद्र लोक और अपने सिंहासन को भी त्यागना पड़ेगा.

यह सुनकर इंद्र जी ने ऋषि दुर्वासा जी के समक्ष हाथ जोड़कर क्षमा याचना करी और इस श्राप से मुक्त होने का उपाय पूछा. इंद्र की विनय सुन कर दुर्वासा जी कुछ शांत हुए और क्रोध शांत होने पर ऋषि दुर्वासा जी ने इंद्र को बताया कि उसे उमा महेश्वर व्रत करना चाहिए. तभी वह अपने स्थान को पुन: प्राप्त हो पाएगा. तब इंद्र ने इस व्रत को किया. उमा महेश्वर व्रत के प्रभाव से लक्ष्मी जी समेत सभी वस्तुएं जो उनसे छिन गई थीं सभी की प्राप्ति होती है.

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Muhurta, Puja and Rituals | Tagged , , , , | Leave a comment

भाद्रपद संक्रान्ति 2025 : कैसा होगा सूर्य का सिंह राशि में गोचर

भाद्रपद माह में सूर्य का सिंह राशि में प्रवेश करना भाद्रपद संक्रान्ति कहलाता है. हिन्दू पंचांग के अनुसार भाद्रपद माह की संक्रान्ति के समय भगवान सूर्य का पूजन और भगवान श्री कृष्ण का पूजन विशेष रुप से होता है. संक्रान्ति समय संधि काल का समय होता है, ऎसे में ये समय मौसम और प्रकृति के बदलाव को भी दिखाता है और इसका असर हर ओर दिखाई देता है. इस लिए इस समय के दौरान ऋषि-मुनियों ने कुछ समय को निश्चित किया जिस समय पर विशेष अनुष्ठान इत्यादि करना समस्त सृष्टि के कल्याण को दर्शाता है.

भाद्रपद संक्रान्ति मुहूर्त – पूजा पुण्यकाल समय

भाद्रपद संक्रांति, में सूर्य सिंह राशि में 17 अगस्त 2025 को प्रवेश करेंगे. भाद्रपद संक्रान्ति  02:00 ए एम मिनट पर आरंभ होगी.  इस संक्रान्ति का पुण्य काल सुबह से आरंभ होगा.

संक्रांति सूर्यास्त के जितने समय पहले हो उतना ही पहले तक का समय संक्रान्ति पुण्यकाल होता है. जिस संक्रांति का पुण्यकाल पहले हो अर्थात वह अगर सूर्योदय के समय हो तो उतनी घड़ी पुण्यकाल बाद में होता है. रात्रिकाल में संक्रांति होने पर रात्रि जनित पुण्य का निषेध कहा गया है. अगर आधी रात से पहले संक्रांति हो तो पहले रोज के दो प्रहर में पुण्यकाल होता है. अगर आधी रात्रि के मध्य में संक्रांति हो तो बाद वाले दिन के पहले दो प्रहर में पुण्य काल होता है.

सिंह संक्रांति – सूर्य का सिंह राशि में प्रवेश

भाद्रपद संक्रान्ति को सिंह संक्रान्ति के नाम से भी पुकारा जाता है. सूर्य इस समय के दौरान कर्क राशि से निकल कर सिंह राशि में प्रवेश करते हैं. सूर्य का सिंह राशि में प्रवेश अनुकूल माना गया है ज्योतिष की दृष्टि से यहां सूर्य की अनुकूल स्थिति होती है क्योंकि सूर्य सिंह राशि के स्वामी होते हैं. इस लिए सिंह राशि में होना उनका अपने घर में होने जैसा ही है.

सिंह राशि सूर्य की मूलत्रिकोण राशि होती है इस कारण वह इस राशि में बहुत बलशाली और मजबूत होता है. आप दूसरों से सच्चा प्रेम व अनुराग रखने वाले व्यक्ति होगें. आपको एक बार जिससे अनुराग हो गया तब आप उसे बहुत अच्छे से निभाते भी हैं. सिंह राशि अग्नितत्व होती है इसलिए इस संक्रान्ति समय सूर्य का प्रभाव ओर अधिक रुप में मिलता है.

भाद्रपद संक्रान्ति पूजा कैसे करें

भाद्रपद संक्रांति, के दिन गंगा स्नान को महापुण्यदायक माना गया है. इसी के साथ गंगा समेत अन्य पवित्र नदियों एवं धर्म स्थलों पर जाकर स्नान व पूजन कार्य होते हैं. मान्यता है किस संक्रान्ति के दिन पवित्र नदियों में स्नान करने पर व्यक्ति को ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है. संक्रान्ति समय स्नान से बीमारी दूर होती है और धन धान्य की प्राप्ति होती है. स्नान करने के पश्चात सूर्य देव को को जल अर्पित करना चाहिए.

जल अर्पित करने के लिए तांबे के पात्र का उपयोग अच्छा माना गया है. परंतु यदि तांबे का पात्र नहीं हो तो अन्य किसी साफ स्वच्छ लोटे में जल भर लेना चाहिए. जल में चावल, कुमकुम, लाल रंग के पूल डालकर सूर्य को अर्घ्य चढ़ाना चाहिए. जल चढ़ाते समय सूर्य मंत्र स्तुति करनी चाहिए.

देवी पुराण व मत्स्यपुराण के अनुसार में संक्रांति के दिन स्नान के साथ साथ व्रत का पालन भी उत्तम होता है. जो भी व्यक्ति भाद्रपद संक्रांति समय व्रत धारण करते हैं उन्हें श्री नारायण एवं सूर्य देव का पूजन एवं नाम स्मरण करना चाहिए. व्रत रखने पर सिर्फ एक बार भोजन करने का विधान बताया गया है. इस दिन दान करने को भी अत्यंत शुभ माना गया है. स्नान के बाद ब्राह्मण अथवा गरीबों को अनाज, फल इत्यादि का दान करना चाहिए.

संक्रांति के दिन तिल, गुड़ एवं कच्चे चावल बहते हुए जल में प्रवाहित करना शुभ माना गया है. इस दिन खिचड़ी, गुड़ और दूध को भगवान सुर्य देव को अर्पित करने से सूर्यदेव शीघ्र प्रसन्न होते हैं. संक्रांति के दिन पितरों के लिए तर्पण करने का विधान भी रहा है. इस दिन भगवान सूर्य को जल देने के पश्चात अपने पितरों का स्मरण करते हुए तिलयुक्त जल देने से पितर प्रसन्न होते हैं.

भाद्रपद संक्रान्ति में क्या करें

  • भाद्रपद संक्रान्ति में श्री कृष्ण को पंचामृत से स्नान कराना चाहिए.
  • इस संक्रान्ति समय श्रीमदभगवदगीता का पाठ करना चाहिए.
  • सूर्य का लाल पुष्पों से पूजा करनी चाहिए.
  • लड्डू गोपाल और शंख की स्थापना करना एवं इनका दान किसी योग्य ब्राह्मण को करना उत्तम होता है.
  • भाद्रपद संक्रान्ति ने में पूजा के दौरान तुलसी के पौधे पर जल चढ़ाएं और दीपक जलाना चाहिए.

भाद्रपद संक्रान्ति क्या होती है

संक्रांति का मतलब होता है सूर्य देव का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना. सूर्य ग्रह संचरण के इस समय को ही संक्रान्ति कहा जाता है. संक्रान्ति का सुर्य का राशि में प्रवेश-समय अत्य्म्त महत्वपूर्ण घटना होती है. सूर्य देव का प्रवेश जिस भी राशि में होता है उसे उसी राशि वाली संक्रांति का नाम दिया जाता है.

जिस प्रकार ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि से मिथुन राशि में प्रवेश कर रहे हैं तो यह संक्रांति मिथुन संक्रांति के नाम से प्रसिद्ध है. इस प्रकार कर्क राशि से सिंह राशि में सूर्य का जाना भाद्रपद संक्रान्ति कहलाता है. इस संक्रमण समय पर जप-तप और हवन इत्यादि अनुष्ठानों का विशेष महत्व शास्त्रों में बताया गया है.

भाद्रपद संक्रान्ति का महत्व

सूर्य संक्रांति का सम्बन्ध कृषि, प्रकृति और ऋतु परिवर्तन से रहा है. पूरे वर्ष में कुल 12 संक्रान्तियां आती हैं. इन बारह संक्रान्ति में से एक भाद्रपद संक्रान्ति है. सूर्य संक्रांति के दिन सूर्य पूजा करना अत्यंत ही आवश्यक होता है. वैदिक शास्त्रों में सूर्य देवता को आत्मा माना गया है. ऎसे में जब सूर्य पूरे वर्ष में जिस भी माह में रहता है और उसी रुप में उसका प्रभाव पृथ्वी पर पड़ता है. ऋतु परिवर्तन और जलवायु में जो भी बदलाव होते हैं उनमें से कुछ का असर सूर्य के द्वारा भी पड़ता है.

भाद्रपद संक्रांति के दिन पूजा-अर्चना करने के बाद भिन्न-भिन्न प्रकार के उत्तम भोज्य पदार्थ बना कर उनका सूर्य देव को भोग लगाया जाता है. संक्राति एक महत्वपूर्ण दिन होता है, इस दिन की भी बहुत मान्यता है. पर इसी के साथ संक्रान्ति के समय कुछ चीजों का निषेध भी माना गया है क्योंकि यह संक्रमण का समय होता है. इस कारण से कुछ विशेष मुहूर्तों में इसे उपयोग नहीं किया जाता है. इसीलिए इस दिन कुछ चीजों को ध्यान में रखते हुए पूजा-पाठ आदि करने को कहा जाता है.

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Muhurta, Puja and Rituals, Sankranti, Stotra | Tagged , , | Leave a comment

हल षष्ठी 2025 – संतान की दीर्घायु के लिए किया जाता है हल छठ

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को “हल षष्ठी” के रुप में मनाया जाता है. हल षष्ठी के दिन व्रत करने का विधान भी रहता है. इस अवसर पर षष्ठी देवी की पूजा, बलराम जी, कृष्ण जी की पूजा, सूर्य उपासना करना अत्यंत शुभदायक होता है. स्त्रियां इस मौके पर श्रद्धापूर्वक पूजा-अर्चना करती है. अपने परिवार के सुख समृद्धि के लिए इस व्रत को भी किया जाता है. अनुष्ठान किया जाता है, मंदिरों में हवन इत्यादि किए जाते हैं. धूम धाम के साथ हल षष्ठी व्रत मनाया जाता है. इस व्रत को पुत्रवती स्त्रियां मुख्य रुप से करती हैं. इसके साथ ही संतान प्राप्ति के लिए भी इस व्रत को करना अत्यंत ही शुभदायक होता है.

हल षष्ठी के अन्य नाम

हल षष्ठी उत्सव को अलग-अलग स्थानों में कई अन्य नामों से भी जाता है. इस पर्व को राजस्थान, उत्तर भारत के अनेक क्षेत्रों में उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस व्रत को बलराम जयन्ती, ललही छठ, बलदेव छठ, रंधन छठ, हलछठ, हरछठ व्रत, हल छठ, तिनछठी, तिन्नी छठ जैसे नामों से भी जाना जाता है.

बलराम जी श्री कृष्ण के बड़े भाई थे जो रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे. बलराम जी को नागराज अनंत का अंश भी कहा जाता है और इनके पराक्रम की अनेक कथाएं हमें शास्त्रों में प्राप्त होती हैं. बलराम जी गदायुद्ध में विशेष प्रवीण थे.

हल षष्ठी के दिन हुआ बलराम का जन्म

धर्म शास्त्रों में भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई थे बलराम जिन्हें बलभद्र नाम से भी पुकारा गया है. इन्हें शेषनाग के अवतार रुप में भी जाना गया है. बलराम का जन्म यदूकुल में हुआ था.

कंस ने जब अपनी बहन देवकी का विवाह यदुवंशी वासुदेव से कराया तब आकाशवाणी हुई कि उसकी बहन का आठवीं संतान ही कंस की मृत्यु का कारण होगी. यह सुन कंस ने अपनी बहन देवकी और वासुदेव को कारागार में डाल दिया और उसके छह पुत्रों को एक-एक करके जन्म समय ही मार दिया.

सातवें पुत्र के रूप में शेषनाग के अवतार बलराम जी होते हैं, जिसे योग माया द्वारा रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया जाता है और भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन इनका जन्म होता है.

हल षष्ठी कृषक दिवस

हल षष्ठी के दिन पृथ्वी का पूजन होता है. कृषक लोग भी इस दिन अपनी उन वस्तुओं का पूजन करते हैं जो उनके खेती कार्य के लिए उपयोग में लाई जाती हैं. कृषी के मुख्य साधन “हल” की पूजा भी इस दिन विशेष रुप से होती है. इस षष्ठी को हल षष्ठी के नाम से भी पुकारा जाता है. बलराम का अस्त्र हल था इस कारण यह इस पर्व को हल षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है.

हल षष्ठी पूजा विधि

हल षष्ठी के दिन प्रात:काल उठ कर स्नान करने के पश्चात सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. व्रत के लिए अनुष्ठान शुरू कर दिया जाता है. हवन इत्यादि भी किया जाता है. षष्ठी पूजन में सुहाग की सामग्री, वस्त्र, धूप दीप, फल फूल इत्यादि को उपयोग में लाया जाता है. बलभद्र और श्री कृष्ण का पूजन होता है. भगवान सूर्य की पूजा की जाती है. मान्यता है कि इस दिन को किया गया व्रत व पूजा द्वारा परिवार में समृद्धि और सुख का आगमन होता है.

हल षष्ठी से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें

इस दिन हल के पूजन का विशेष महत्व है. देश के पूर्वी अंचल में इसे ललई छठ के नाम से भी पुकारते हैं. इस दिन हल द्वारा जुते हए फल और अन्न का पूजन होता है. इस दिन भैंस का दूध-दही ही उपयोग में लाया जाता है. गाय का दूध उपयोग नहीं किया जाता है.

हल षष्ठी कथा

हल षष्ठी के दिन व्रत करने के साथ-साथ हल षष्ठी कथा को पढ़ने और सुनने से व्रत का शुभ फल प्राप्त होता है. हल षष्ठी कथा इस प्र्कार है – प्राचीन समय की बत है एक नगर में एक ग्वालन रहती थी वह घर-घर दूध-दही बेचकर अपना घर चलाती थी. ग्वालन अपने पति के सथ सुख पूर्वक रह रही होती है. अपने पति के साथ सांसारिक सुख भोगते हुए गर्भवती होती है और गर्भवती ग्वालिन के प्रसव का समय जब नजदीक आता है तो उसे पीड़ा होने लगी.

पर उस दिन घर पर पड़ा दूध और दही अभी बेचा नही किया था. ऎसे में वह दूध- दही बेचने के लिए बर्तन उठा कर निकल पड़ती है. पर पिड़ा इतनी बढ़ जाती है की उसे मार्ग में ही खेत में संतान को जन्म देती है. अपनी संतान को कपड़े में लपेट कर वह वहीं रख देती है और सामान बेचने के लिए आगे निकल पड़ती हैं.

उस दिन हल षष्ठी होती है. उस ग्वालन के पास गाय और भैंस का दूध होता है. जब उसके ग्राहक उससे कहते हैं की आज हल षष्ठी है और इसलिए गाय का दूध नहीं ले सकते हैं वह आज सिर्फ भैंस का ही दूध लेंगे, तो ग्वालन ने ग्राहकों को झूठ बोल कर की उसका दूध भैंस का ही है सभी को दूध बेच दिया.

सामान बेच कर ग्वालिन अपने बच्चे के पास खेत की ओर लौटने लगती है. पर जहां उसने बच्चे को रखा था उस स्थान पर किसान हल जोत रहा होता है. तभी हल की नोक बच्चे पर लगने से बच्चे की मृत्यु हो जाती है. ग्वालिन जब वहां पहुंच अपने मृत बच्चे को पाती है तो विलाप करने लगती है और कहती है कि आखिर उसने ऎसा कौन सा पाप किया जिसके कारण उसके साथ ऎसा हुआ.

तभी अचानक उसे याद आता है की उसने आज झूठ बोल कर गाय के दूध को भैंस का दूध बता कर लोगों को बेच दिया और उनके धर्म को खराब किया. उनके विश्वास के साथ खिलवाड़ किया. ग्वालिन तुरंत उठ कर उन सभी लोगों के पास जाती है जिनको उसने दूध बेचा होता है. वह सभी से माफी मांगती है और उन्हें सच बता देती है. इसके बाद वह खेत में पहुंची तो उसका बच्चा उसे जीवित मिलता है. भगवान का धन्यवाद करती है. तब से ग्वालिन भी प्रति वर्ष हल षष्ठी का व्रत करने का प्रण लेती है और अपने परिवार के साथ सुख पूर्वक रहती है.

Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Jayanti, Muhurta, Puja and Rituals, Remedies | Tagged , , , , , , | Leave a comment

आषाढ़ अमावस्या 2025 , विशेष संयोग होने पर रखें इन बातों का ख्याल

आषाढ़ मास को आने वाली अमावस्या तिथि “आषाढ़ अमावस्या” के नाम से जानी जाती है. इस वर्ष 25 जून 2025 को बुधवार के दिन आषाढ़ अमावस्या संपन्न होगी. आषाढ़ मास की अमावस्या के समय स्नान – दान और पितरों के लिए दान इत्यादि किया जाता है.

भारतीय पंचांग में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होकर जो 30वीं तिथि आती है उसे अमावस्या के नाम से जाना जाता है. पंचांग में हर महीना करीब 30 दिन का होता है जिसे दो भागों में बांटा गया है. जिसमें एक पक्ष शुक्ल पक्ष का होता है और दूसरा पक्ष होता है कृष्ण पक्ष का होता है. इन दोनों पक्षों में चंद्रमा की स्थिति में बदलाव होता है. कृष्ण पक्ष की स्थिति के आगमन पर चंद्रमा की स्थिति घटते जाने की होती है. कृष्ण पक्ष की आखिरी तिथि (30) अमावस्या कहा जाता है. अमावस्या तिथि पर सूर्य और चंद्र समान अंशों पर होते हैं और एक ही राशि में स्थित होते है.

आषाढ़ अमावस्या तिथि व मुहूर्त 2025

  • अमावस्या तिथि – शुक्रवार 25 जून 2025.
  • अमावस्या तिथि आरंभ – 18:59 बजे से 24 जून 2025.
  • अमावस्या तिथि समाप्त – 16:00 बजे तक 25 जून 2025.
  • धार्मिक मान्यता अनुसार कृष्ण पक्ष में दैत्य और शुक्ल पक्ष में देव सक्रिय होते हैं. वहीं अमावस्या तिथि को पितरों को दिन कहा जाता है. ऎसे में इस अमावस्या के दिन पितृों को संतुष्ट एवं प्रसन्न किया जाता है. अनुष्ठानों के साथ ही इस तिथि के दिन पवित्र नदियों, धार्मिक तीर्थ स्थलों पर स्नान का भी विशेष महत्व माना जाता है.

    आषाढ़ अमावस्या में दिन का महत्व

    आषाढ़ अमावस्या के दिन आने वाले समय कौन सा दिन पड़्ता है इसका भी बहुत महत्व होता है. अमावस्या किसी विशेष दिन के संदर्भ में कई प्रकार की होती है और सभी का प्रभाव भी भिन्न-भिन्न बताया गया है. अमावस्या के दिन अगर सोमवार, मंगलवार या शनिवार का दिन होने पर इस अमावस्या का महत्व कई गुना बढ जाता है. इन दिनों में आने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या, भौमवती अमावस्या, या शनि अमावस्या नामों से पुकारा जाता है.

    आषाढ़ सोमवती अमावस्या

    आषाढ़ माह में यदि अमावस्या का दिन सोमवार का हो तो इस दिन पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहा जाएगा. सोमवती अमावस्या के दिन व्रत एवं दान इत्यादि करने से चंद्रमा से उत्पन्न यदि कोई दोष परेशान करता है तो उस दोष की शांति होती है. यह चंद्र दोष को दूर करने के लिए एक अत्यंत ही उत्तम दिन बनता है. आषाढ़ सोमवती अमावस्या होने पर भगवान शिव पर जलाभिषेक करने का भी बहुत महत्व होता है. जीवन में मौजूद कष्ट एवं रोग समाप्त होते हैं.

    सोमवती अमावस्या का शुभ प्रभाव तिथि और दिन के मिलाप से अत्यंत ही प्रभावदायी माना गया है. इस दिन व्रत करने पर पितरों को तो शांति तो प्राप्त होती है साथ ही जीवन में सुख और सौभाग्य का भी आगमन होता है. संतान और दांपत्य सुख की प्राप्ति होती है.

    आषाढ़ भौमवती अमावस्या

    आषाढ़ अमावस्या के दिन मंगलवार पड़ने पर ये अमावस्या भौमवती अमावस्या के नाम से जानी जाती है. मंगल का एक अन्य नाम भौम भी है. इस कारण इसे भौमवती अमावस्या से जोड़ा जाता है. मंगलवार और अमावस्या तिथि का संबंध होने पर इस दिन कर्जों से मुक्ति प्राप्त होती है. इस दिन व्रत एवं पूजा दान इत्यादि करने से मंगल ग्रह की शांति भी होती है. यदि जन्म कुंडली में मंगल के शुभ प्रभाव नहीं मिल पा रहे हों तो इस अमावस्य के दिन व्रत करना मंगल की शांति देने वाला होता है. यह सभी मनोकामना पूर्ण करने वाली अमावस्या होती है.

    आषाढ़ शनि अमावस्या

    आषाढ़ मास के दिन शनिवार होने पर यह दिन शनि अमावस्या के नाम से जानी जाती है. शनिवार के दिन आने वाली ये अमावस्या के दिन शनि ग्रह की शांति के लिए भी बहुत अच्छा माना गया है. शनि अमावस्या के प्रभाव से व्यक्ति के आर्थिक संकट दूर होते हैं. शनि अमावस्या के दिन व्रत करने पर शनि की साढे़साती और शनि ढैय्या के बुरे प्रभाव समाप्त होते हैं.

    आषाढ़ अमावस्या पर करें ये काम

    आषाढ़ अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष का दर्शन करना एवं उसका पूजन करना भी बहुत शुभ माना गया है. पीपल पेड़ के सामने दीपक जलाना एवं मंत्र जाप करने से सभी कष्ट दूर होते हैं.

    इस अमावस पर नदियों, सरोवरों और धर्मस्थानों पर स्नान, दान और शांति-कर्म किए जैसे कार्यों को करना भी अत्यंत ही प्रभावशाली माना गया है.

    गरुण पुराण में अमावस्या के विषय में बताया गया है. जिसमें इस दिन किए जाने वाले पूजा एवं दान किस प्रकार से अत्यंत ही आवश्यक होते हैं ओर जिन्हें करने से दोषों की समाप्ति होती है.

    शिव पूजन, पीपल की पूजा करने के साथ शनि की शांति के लिए भी पूजा आदि काम किए जाते हैं.

    आषाढ़ अमावस्या पर नहीं करें ये काम

    अमावस्या के दिन चंद्रमा दिखाई नही देता है. ऎसे में अंधकार और भी अधिक गहरा होता है. इसलिए इस दिन को काली रात्रि के नाम से भी पुकारा जाता है. अमावस्या के समय पर तंत्र संबंधित अनुष्ठान का प्रभाव जल्द ही फल देने वाला होता है. इसी कारण से अमावस्या के दिन तांत्रिक कर्म अधिक होते हैं. इस तिथि के समय पर कुछ विशेष बातों का ख्याल अवश्य रखना चाहिये. इस दिन से जुड़ी कुछ खास बातें इस प्रकार हैं –

    • सिद्धियों से विभिन्न शक्ति को पाने के लिए इस दिन कार्य किए जाते हैं. तो ऎसे में इस दिन किसी भी प्रकार के बुरे प्रभाव से बचने के लिए भी प्रयास किए जाते हैं.
    • इस दिन ग्रह नक्षत्रों के अनुसार अलग-अलग राशियों के लोगों पर इसका प्रभाव देखने को मिलता है. इस लिए अमावस्या के दिन पवित्र नदियों में स्नान और भगवान व अपने ईष्ट देव का पूजन करना चाहिए.
    • अमावस्या के दिन व्यक्ति को तामसिक भोजन जैसे मांस व शराब जैसी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए.

    क्या है खास आषाढ़ अमावस्या में

    आषाढ़ अमावस्या एक ऎसे समय को भी दर्शाती है जब मौसम में एक प्रकार का बदलाव भी होता है. इस समय के दौरान गरम मौसम से अलग बरसात का आगमन होता है तो ऎसे समय में इस संक्रमण काल में जो भी कार्य किया जाता है उसका लम्बे समय तक असर भी होता है. इस कारण से इस दिन में सात्विकता और शुद्धता का बहुत ध्यान रखने की आवश्यकता होती है.

    Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Mantra, Muhurta, Puja and Rituals, Remedies | Tagged , , , | Leave a comment

    कजली तीज 2025 : जाने इसकी कथा और पूजा विधि

    सौभाग्य और सुख की प्राप्ति में एक और व्रत है जिसे कजली तृतीया के रुप में मनाया जाता है. भाद्रपद माह में आने वाला यह व्रत सुख एवं सौभाग्य को देने वाला होता है. भाद्र माह के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को कज्जली तृतीया का पर्व मनाते हैं. कजली तृतीया को कजरी, सातुड़ी तीज जैसे अनेकों नामों से पुकारा जाता है. कज्जली तृतीया का त्यौहार भारत के अनेक क्षेत्रों में मनाया जाता है. देश के कई भागों में कज्जली तीज के दिन व्रत धारण किया जाता है इस दिन माता पार्वती का पूजन भी होता है.

    कज्जली तृतीया व्रत शुभ मुहूर्त

    इस वर्ष कज्जली तृतीया व्रत का पर्व 12 अगस्त 2025 को मंगलवार के दिन किया जाएगा.

    • तृतीया तिथि प्रारम्भ – 11 अगस्त, 2025 को 10:33 ए एम बजे
    • तृतीया तिथि समाप्त – 12 अगस्त, 2025 को 08:40 ए एम बजे

    वैवाहिक संबंधों की शुभता, अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति और जीवन साथी के साथ रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए तीज का व्रत रखा जाता है. दूसरी तीज की तरह यह भी हर सुहागन के लिए महत्वपूर्ण है. इस दिन भी पत्नी अपने पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखती है व कुंआरी लड़कीयां अच्छा वर प्राप्ति के लिए यह व्रत अत्यंत ही शुभदायक होता है.

    तृतीया तिथि की देवी पार्वती को बताया गया है, पुराण अनुसार यह व्रत महिलाओं को सौभाग्य, संतान एवं गृहस्थ जीवन का सुखदायक बनाने वाला होता है.

    क्यों मनाया जाता है कज्जली तीज

    • कज्जली तीज का पर्व सुहागन स्त्रियां पति की लम्बी आयु के लिए करती हैं.
    • इस व्रत को करने से मनोवांछित वर की प्राप्ति होती है.
    • वैवाहिक जीवन में कलश कलेश दूर होते हैं और जीवन सुखमय बनता है.
    • संतान एवं परिवार की खुशहाली के लिए किया जाता है .
    • विवाह में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करता है यह व्रत.
    • पैराणिक मान्यताओं के अनुसार हिमालय की पुत्री पार्वती ने ही इस व्रत को सबसे पहले किया था. अत: इस दिन देवी पार्वती और भगवान शिव का पूजन किया जाता है.

    कज्जली तृतीया पूजा विधि

    कज्जली तीज के दिन प्रात:काल उठ कर पूजन आरंभ होता है. इस दिन पूर्व या उत्तर मुख होकर हाथ में जल, चावल, पुष्प और पैसे लेकर इस व्रत का संकल्प लेना चाहिए. शुद्ध एवं सात्विक आचरण करना चाहिए. इससे आन्तरिक शक्ति मजबूत होती है. व्रत करते हुए दिन में सोना नहीं चाहिए. पूजा में धूप, दीप, चन्दन, फूल-माला, चावल, शहद का प्रयोग करना चाहिए. पूजन के दौरान माता पार्वती को श्रृंगार की वस्तुएं और लाल रंग की चुनरी चढ़ानी चाहिए.

    धर्म शास्त्रों के अनुसार इस दिन घर या मन्दिर को मण्डप बना कर सुंदर तरीके से सजाना चाहिए. पूजा के मण्डप के स्थान पर कलश स्थापना करनी चाहिए. शिव- गौरी की स्थापना करके मंत्रों से देवी पार्वती और शिव का पूजन करना चाहिए. पूजा के बाद गुड़ और आटे से बने मालपुओं का भोग भगवान को अर्पित करना चाहिए. देवी दुर्गा को इस व्रत में शहद अर्पित करने का भी विधान बताया गया है. अगले दिन सामर्थ्य और क्षमता अनुसार ब्राह्मण को दान दक्षिणा देनी चाहिए और भोजन कराने के पश्चात स्वयं व्रत का पारण करना चाहिए.

    कज्जली तृतीया कथा

    कज्जली तृतीया से अनेकों पौराणिक एवं लोक जनश्रुति के आधार पर कथाएं भी मिलती हैं. पौराणिक कथा में इसके अलावा एक और कथा इस तीज से जुडी है. यह कथा भगवान शिव के देवी पार्वती के साथ विवाह की है. माता पार्वती शिव से विवाह करना चाहती थीं लेकिन भगवान शिव वैरागी ही रहना चाहते थे. तब देवी पार्वती ने शिव को प्रसन्न करने और उन्हें पाने के लिए कठोर तप किया कई शस्त्रों वर्षों तक तपस्या की. अपनी तपस्या में उन्होंने आहार बिना तप किया जिस कारण भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें जीवन संगनी के रुप में स्वीकार करते हैं. भगवान शिव और देवी पार्वती के एक साथ होने के पर्व को ही कज्जली तीज के रुप में मनाया जाता है.

    अखंड सौभाग्य और दांपत्य सुख के लिए किया जाता है कज्जली व्रत

    मान्यता अनुसार इस दिन देवी पार्वती और भगवान शिव का पूजन करने से प्रेम ओर जीवन में सुख की प्राप्ति होती है. कुंवारी कन्याओं के लिए भी यह व्रत अत्यंत ही प्रभावशाली माना गया है. इस व्रत के करने से मनपसंद जीवन साथी की प्राप्ति होती है. जिस प्रकार माता का सुहाग अखंड है उसी प्रकार सुहागन स्त्रीयां इस दिन व्रत पूजा करके अपने सुहाग की लम्बी उम्र की कामना करती हैं और आशीर्वाद पाती हैं.

     

    कहा जाता है कि शिव ने पार्वती से खुश होकर इसी तीज के दिन देवी पार्वती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारा किया था. इसलिए इसे कज्जली तीज कहा जाता है.

    कज्जली तृतीया व्रत महात्म्य

    कज्जली तृतीया की इतनी महत्ता को बताया गया है की इसकी प्रमाणिकता और प्रभावशालिता स्वयं धर्म ग्रंथों द्वारा लक्षित होती है. मान्यताओं अनुसार कज्जली तृतीया का व्रत को देवताओं के राजा इंद्र की पत्नी शचि ने भी किया था. अपने पति की रक्षा एवं उसके सुख की प्राप्ति के लिए यह व्रत किया. इसी व्रत के प्रभाव से शचि को संतान सुख प्राप्त होता है.

    महाभारत में भी इस व्रत के विषय में कुछ तथ्य प्राप्त होते हैं. इस में युधिष्ठिर को भगवान श्रीकृष्ण ने इस व्रत की महिमा के बारे में बताया. श्री कृष्ण कहते हैं कि हे कुंति पुत्र, भाद्र मास की कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को देवी पार्वती की पूजा करने के लिए सात अनाजों से माता की मूर्ति बनाकर पूजा करनी चाहिए. इस दिन दुर्गा की भी पूजा होती है. कज्जली तृतीया व्रत नियम का पालन करने से वाजपेयी यज्ञ करने के समान फल प्राप्त होता है. व्रत के प्रभाव से कभी जीवनसाथी का वियोग नहीं मिलता है.

    Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Muhurta, Remedies | Tagged , , , | Leave a comment

    ज्येष्ठ अमावस्या 2025 – जाने ज्येष्ठ अमावस्या व्रत पूजा विधि और महत्व

    ज्येष्ठ माह में आने वाली 30वीं तिथि “ज्येष्ठ अमावस्या” कहलाती है. इस अमावस्या तिथि के दौरान पूजा पाठ और स्नान दान का विशेष आयोजन किया जाता है. हिन्दू पंचांग में अमावस्या तिथि को लेकर कई प्रकार के मत प्रचलित हैं ओर साथ ही इस तिथि में किए जाने वाले विशेष कार्यों को करने की बात भी की जाती है. ज्येष्ठ अमावस्या को जेठ अमावस्या, दर्श अमावस्या, भावुका अमावस्या इत्यादि नामों से पुकारा जाता है.

    ज्येष्ठ अमावस्या पूजा मुहूर्त

    इस वर्ष 27 मई 2025 को मंगलवार के दिन ज्येष्ठ अमावस्या मनाई जाएगी. ज्येष्ठ अमावस के दौरान चंद्रमा की शक्ति निर्बल होती है. अंधकार की स्थिति अधिक होती है. इस वातावरण में नकारात्मकता का प्रभाव भी अधिक होता है. इसलिए इस समय पर तंत्र से संबंधित कार्य भी किए जाते हैं. ऐसा कहा जाता है तांत्रिकों के लिए ये रात खास होती है, जब वे अपनी सिद्धियों से विभिन्न शक्तियों को जाग्रत करते हैं.

    ज्येष्ठ अमावस्या पर स्नान का महत्व

    किसी भी अमावस्या के दौरान पवित्र नदियों में स्नान करने की महत्ता अत्यंत ही प्राचीन काल से चली आ रही है. पूर्णिमा के समान ही अमावस्या पर भी पवित्र नदियों में स्नान का महत्व है. इस दिन स्नान करने पर शरीर में मौजूद नकारात्मक तत्व दूर होते है. मानसिक बल मिल मिलता है और विचारों में शुद्धता आती है. शरीर निरोगी बनता है वहीं बुरी शक्तियां भी दूर रहती हैं. स्नान करने से विशेष ग्रह नक्षत्रों का भी लाभ प्राप्त होता है.

    • ज्येष्ठ अमावस्या पर क्या नहीं करना चाहिए
    • व्यक्ति को मांस मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए.
    • धन उधार नहीं लेना चाहिए.
    • कोई नई वस्तु नहीं खरीदनी चाहिए.
    • ज्येष्ठ अमावस्या का प्रभाव माह के अनुसार और ग्रह नक्षत्रों के द्वारा विभिन्न राशियों के लोगों पर भी पड़ता है. इसलिए इस दिन गलत कार्यों से दूरी रखनी चाहिए और व्रत-उपासना इष्ट देव की आराधना करनी चाहिए.

    ज्येष्ठ अमावस्या पर दान पुण्य का फल

    निर्णय सिंधु जैसे ग्रथों में ज्येष्ठ अमावस्या के दिन दान की महत्ता के विषय में कहा गया है. इस दिन असमर्थ एवं गरीबों को दान करने. ब्राह्मणों को भोजन करवाने से सहस्त्र गोदान का पुण्य फल प्राप्त होता है. अमावस्या के दिन दूध से बनी वस्तुओं अथावा श्वेत वस्तुओं का दान करना चंद्र ग्रह के शुभ फल देने वाला होता है.

    ज्येष्ठ अमावस्या उपाय

    अमावस्या के अवसर पर सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है पितरों के निम्मित दान. इस समय पर पितृ शांति के कार्य किये जाते हैं. इस तिथि के समय पर प्रात:काल समय पितरों के लिए सभी कार्यों को किया जाना चाहिये. इस दान को करने से नवग्रह दोषों का नाश होता है. ग्रहों की शांति होती है, कष्ट दूर होते हैं.

    ज्येष्ठ अमावस्य मे क्या करें

    • ज्येष्ठ अमावस्या पर गाय, कुते और कौओं को खाना खिलाना चाहिए.
    • ज्येष्ठ अमावस्या के दिन पीपल और बड़ के वृक्ष का पूजन करना चाहिए.
    • पितरों के लिए तर्पण के कार्य करने चाहिए.
    • पीपल पर सूत बांधना चाहिये, कच्चा दूध चढ़ाना चाहिये.
    • काले तिल का दान करना चाहिए.
    • दीपक भी जलाना चाहिये.

    ज्येष्ठ अमावस्या लाभ

    • इस दिन उपासना से हर तरह के संकटों का नाश होता है.
    • संतान प्राप्ति और संतान सम्बन्धी समस्याओं का निवारण होता है.
    • अपयश और बदनामी के योग दूर होते हैं.
    • हर प्रकार के कार्यों की बाधा दूर होती है.
    • कर्ज सम्बन्धी परेशानियां दूर होती हैं.

    ज्येष्ठ अमावस्या शनि जयन्ती

    ज्येष्ठ अमावस्या के दिन ही शनि जयंती भी मनाई जाती है. मान्यता है कि इस दिन ही शनि देव का जन्म हुआ था. ऎसे में इस दिन शनि जयंती होने कारण शनि देव का पूजन होता है. इस दिन शनि के मंत्रों व स्तोत्रों को पढ़ा जाता है. ज्योतिष दृष्टि में नौ मुख्य ग्रहों में से एक शनि देव को न्यायकर्ता के रुप में स्थान प्राप्त है. मनुष्य के जीवन के सभी अच्छे ओर बुरे कर्मों का फल शनि देव ही करते हैं. इस दिन शनि पूजन करने पर पाप प्रभाव कम होते हैं और शनि से मिलने वाले कष्ट भी दूर होते हैं.

    शनि जयंती पर उनकी पूजा-आराधना और अनुष्ठान करने से शनिदेव विशिष्ट फल प्रदान करते हैं. इस अमावस्या के अवसर पर शनिदेव के निमित्त विधि-विधान से पूजा पाठ, व्रत व दान पूण्य करने से शनि संबंधी सभी कष्ट दूर होते हैं ओर शुभ कर्मों की प्राप्ति होती है. शनिदेव पूजा के लिए प्रात:काल उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर शनिदेव के निमित्त सरसों या तिल के तेल का दीपक पीपल के वृक्ष के नीचे जलाना चाहिए. साथ ही शनि मंत्र “ॐ शनिश्चराय नम:” का जाप करना चाहिए. शनिदेव से संबंधित वस्तुओं तिल , उड़द, काला कंबल, लोहा,वस्त्र, तेल इत्यादि का दान करना चाहिए.

    ज्येष्ठ अमावस्या के दिन होता है वट सावित्री व्रत

    ज्येष्ठ अमावस्या के दिन “वट सावित्र” एक अन्य महत्वपूर्ण दिवस भी आता है. वट सावित्री व्रत स्त्रीयों द्वारा अखंड सौभाग्य एवं पति की लम्बी आयु के लिए रखा जाता है. इस दिन स्त्यवान और सावित्री की कथा सुनी जाती है और पीपल के वृक्ष का पूजन होता है. ज्येष्ठ अमावस्या पर विशेष तौर पर शिव-पार्वती के पूजन करने से भगवान की सदैव कृपा बनी रहती है. इस व्रत को करने से मनोकामनाएं शीघ्र पूर्ण होती हैं. कुंवारी कन्याएं इस दिन पूजा करके मनचाहा वर पाती हैं और सुहागन महिलाओं को सुखी दांपत्य जीवन और अपने पति की लंबी आयु का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

    ज्येष्ठ अमावस्या के दिन शाम के समय नदी के किनारे या मंदिर में दीप दान करने का भी विधान है. इसी के साथ पीपल के वृक्ष का पूजन उस पर दीप जलाना ओर उसकी प्रदक्षिणा करना अत्यंत आवश्यक होता है और शुभ लाभ मिलता है. इस दिन प्रातः उठकर अपने इष्टदेव का ध्यान करना चाहिए. शास्त्रों में इस दिन पीपल लगाने और पूजा का विधान बताया गया है. जिसको संतान नहीं है, उसके लिए पीपल वृक्ष को लगाना और उसका पूजन करना अत्यंत चमत्कारिक होता है. पीपल में ब्रह्मा, विष्णु व शिव अर्थात त्रिदेवों का वास होता है. पुराणों में कहा गया है कि पीपल का वृक्ष लगाने से सैंकड़ों यज्ञ करने के समान फल मिलता है और पुण्य कर्मों की वृद्धि होती है. पीपल के दर्शन से पापों का नाश, छुने से धन-धान्य की प्राप्ति एवं उसकी परिक्रमा करने से आयु में वृद्धि होती है.

    Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Jayanti, Mantra, Muhurta | Tagged , , , , | Leave a comment

    छिन्नमस्तिका मेला 2025 – दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ मेला

    देवी की शक्तियों में से एक मां छिन्नमस्तिका का स्वरुप अत्यंत ही प्रभावशाली है. छिन्नमस्तिका को चिन्तपूर्णि माता के नाम से भी जाना जाता है. देवी के सभी रुपों का संबंध विभिन्न शक्ति पीठों से रहा है. भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में देवी के शक्ति पीठ मौजूद हैं. चिंतपूर्णी धाम हिमाचल मे स्थित है यह स्थान हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है जहां प्रतिवर्ष धार्मिक मेलों का आयोजन होता है.

    छिन्नमस्तिका धाम में गिरे थे सती के चरण

    51 शक्ति पीठों मे से एक इस धाम कि मान्यता है की इस स्थान पर देवी सती के चरण गिर थे. इस स्थान पर जाने से भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं. देवी छिन्नमस्तिका॒ छठी महाविद्या॒ कहलाती हैं. नवरात्रि समय एवं छिन्नमस्तिका जयंती समय देवी के इस शक्तिपीठ पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है. जिसमें देश-विदेश से लाखों शृद्धालु देवी के दर्शन हेतु इस पवित्र स्थान पर आते हैं.

    हिमाचल में मौजूद इस शक्तिपिठ पर छिन्नमस्तिका मेले का आयोजन होता है. इसमें भजन, जागरण, कीर्तन झांकियां मुख्य रुप से होती हैं. धूमधाम के साथ मनाए जाने वाले इस मेले में भक्त देवी की विशेष पूजा अर्चना करते हैं. छिन्नमस्तिका मेले में मंदिर को रंग-बिरंगी॒ रोशनियों और फूलों से सजाया जाता है. मंदिर में मंत्रोच्चारण के साथ पाठ का आयोजन किया जाता है. मेले में लाखों श्रद्धालु माथा टेकने आते हैं.

    छिन्नमस्तिका क्यों कहलाती हैं माता चिंतपूर्णी

    छिन्नमस्तिका देवी को मां चिंतपूर्णी स्वरुप बताया गया है अर्थात माता का चिंतन करने से भक्तों के सभी कष्ट दूर होते हैं चिंताओं का नाश होता है. मान्यता है की देवी का निवास जिस स्थान पर होता है वहीं पर भगवान शिव भी विराजमान होते हैं. इस मान्यता की पुष्टि मेले वाले स्थान पर भगवान शिव का भी स्थान होने से भी होती है. इस बात की सत्यता इस जगह से साबित हो जाती है. देवी के इस स्थान के चारों ओर भगवान शिव का स्थान भी है. यहां पर कालेश्वर महादेव व मुच्कुंड महादेव तथा शिववाड़ी जैसे शिव मंदिर स्थित हैं.

    छिन्नमस्ता कथा

    दैत्यों को परास्त करके देवों को विजय दिलवाई तो चारों ओर उनका जय घोष होने लगा. परंतु देवी की सहायक योगिनिय अजया और विजया की रक्त की प्यास शांत नही हो पाती हैं. वह देवी के समक्ष अपनी शांति हेतु प्रार्थना करती हैं. इस पर उनकी रक्त की प्यास को बुझाने के लिए माता अपना मस्तक काट देती हैं. तब माता के कटे हुए मस्तक से रक्त की धाराएं निकल पड़ती हैं. इन रकत से उनकी योगिनियों की प्यास शांत होती है. वह माता का रक्त पीने लगती हैं. ऎसे में माता छिन्नमस्तिका कहलाईं और अपने रक्त से उनकी रक्त प्यास बुझाई.

    एक अन्य कथा स्वरुप इस प्रकार है – देवी भवानी अपनी दो सहचरियों के संग मन्दाकिनी नदी में स्नान रही थी. स्नान करने पर दोनों सहचरियों को बहुत तेज भूख लगी. भूख कि पीडा से उनका रंग काला हो गया. तब सहचरियों ने भोजन के लिये भवानी से कुछ मांगा. भवानी के कुछ देर प्रतिक्षा करने के लिये उनसे कहा, किन्तु वह बार-बार भोजन के लिए हठ करने लगी.

    उनके वचन सुनते ही भवानी ने अपनी तलवार से सिर काट दिया. कटा हुआ सिर उनके बायें हाथ में आ गिरा और तीन रक्तधाराएं बह निकली. दो धाराओं को उन्होंने सहचरियों की और प्रवाहित कर दिया. जिन्हें पान कर दोनों की भूख शांत हो गई. तीसरी धारा जो ऊपर की ओर बह रही होती हैं जिसे माता छिन्नमस्तिका स्वयं पान करने लगती हैं.

    छिन्नमस्तिका मेला महत्व

    मेला छिन्नमस्तिका का एक अपना धार्मिक महत्व रहा है. यह सभी भक्तों के लिए अत्यंत ही उत्साह और साधना का दिन होता है. माता की शक्ति को पाने एवं उनके आशीर्वाद को पाने के लिए मेले के आरंभ होने से कुछ दिन पहले से ही जोर-शोर से तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं. माता के दरबार को बहुत ही सुंदर तरह से सजाया जाता है. इस मेले के दौरान माता के शक्ति पाठ का आयोजन भी होता है. दुर्गा सप्तशती के पाठ का आरंभ किया जाता है. इसमें साधु साधक एवं आम व्यक्ति सहित सभी भक्त भाग लेते हैं. इस मेले में श्रद्धालुओं को खाना लंगर रुप में परोसा जाता है इस भोग में माता की पसंद की अनेकों चीजें बनाई जाती हैं.

    देवी छिन्नमस्तिका मेले में जो भी सच्चे मन से आता है उसकी हर मुराद पूरी होती है. मां का आशीर्वाद सभी पर इसी तरह बना रहे इसके लिए मां के दरबार में विश्व शांति व कल्याण के लिए मां की स्तुति का पाठ भी किया जाता है. मेले में मंदिर की ओर से श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए व्यापक प्रबंध किए जाते हैं. इस मौके पर हजारों श्रद्धालुओं मां की पावन पिंडी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करते हैं.

    छिन्नमस्तिका स्वरुप

    पौराणिक कथाओं में छिन्नमस्तिका से संबंधित अनेकों कथाएं प्राप्त होती हैं. जिसमें से एक कथा हयग्रीव उपाख्यान से ली गई है. इसमें बताया गया है की गणपति जी के वाहन मुषक यानि चूहे की कृपा से धनुष प्रत्यंचा को तोड़ दिया गया. इसकी आवाज और टूटने के कारण से सोते हुए विष्णु के सिर के कट जाने का वर्णन इस कथा में मिलता है. इस घटना को छिन्नमस्तिका से संबंधित माना गया है.

    शक्ति का यह रुप एक हाथ में तलवार धारण किए और दूसरे हाथ में मस्तक धारण पकड़े हुए हैं. अपने कटे हुए सिर से निकलती रक्त की जो धाराएं निकलती हैं, उनमें से एक को स्वयं पीती हैं और अन्य दो धाराओं से वर्णिनी और शाकिनी नाम की दो सहेलियों को तृप्त कर रही होती हैं.

    देवी को जिस भाव से याद किया जाए वह उसी रुप में प्राप्त होती हैं. साधक माता को शक्ति के उग्र रुप में भी पा सकता है और शांति रुप में भी प्राप्त कर सकता है.

    देवी छिन्नमस्तिका साधना लाभ

    इस मेले में देवी के अनेकों भक्ति शक्ति और साधना में लगे रहते हैं. नवरात्रि एवं छिन्नमस्तिका जयंती के दौरान इन मेलों में देवी की शक्ति का बहुत ही असरदायक प्रभाव देखने को मिलता है. इस मेलों में देवी की पूजा मन से करने, ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान इत्यादि कर देवी की प्रतिमा के समक्ष लाल फूलों की माला चढ़ानी चाहिए. माता के समक्ष साधना एवं पूजन कार्य करने चाहिए. मातअ को प्रसाद भेंट करना चाहिए. माता अपने हर भक्त की रक्षा के लिए सदैव उपस्थित हैं.

    Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Mantra, Muhurta, Puja and Rituals | Tagged , , , , , | Leave a comment

    आषाढ़ पूर्णिमा 2025 : आज के दिन पूरे होंगे सारे काम

    आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि के दौरान श्री विष्णु भगवान का पूजन और गुरु का पूजन किया जाता है. वर्ष भर में आने वाली सभी प्रमुख पूर्णिमाओं में एक आषाढ़ पूर्णिमा भी है. इस दिन भी किसी विशेष कार्य का आयोजन होता है और विशेष पूजन भी होता है. इस दिन भी चंद्रमा अपनी समस्त कलाओं से युक्त होता है.

    सत्यनारायण कथा का पाठ भी पूर्णिमा के दौरान संपन्न होता है. इस दिन मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए इस कथा को सुनना और पढ़ना आवश्यक होता है. पूर्णिमा तिथि धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होती है. इस दिन जीवन चंद्रमा की तरह उच्चवल और प्रकाशमान होता है. इस प्रकाश के सामने ईश्वर भी नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते.

    आषाढ़ पूर्णिमा शुभ पूजा मुहूर्त समय

    इस वर्ष आषाढ़ पूर्णिमा 10 जुलाई, 2025 के दिन मनाई जाएगी.

    • पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ – जुलाई 10, 2025 को 01:36 ए एम बजे
    • पूर्णिमा तिथि समाप्त – जुलाई 11, 2025 को 02:06 ए एम बजे

    गोपद्म व्रत पूजा

    आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गोपद्म व्रत करने का भी विधान होता है. इस दिन श्री विष्णु भगवान का पूजन होता है. इस दिन प्रात:काल व्रत का पालन आरंभ होता है. व्रती को प्रातः स्नान करने के पश्चात श्री विष्णु के नामों का स्मरण करना चाहिए और पूरे दिन श्री विष्णु का ध्यान करना चाहिए. विष्णु भगवान का धूप, दीप, गंध, फूल आदि वस्तुओं से पूजन करनी चाहिए. पूजा के पश्चात ब्राह्मणों को विभिन्न प्रकार के पकवान खिलाने चाहिए तथा वस्त्र, आभूषण आदि दान करना चाहिए.

    गोपद्म व्रत में गाय का पूजन भी करना चाहिए. गाय को तिलक लगा कर पूजन करके आशीर्वाद लेना चाहिए.
    गोपद्म व्रत को पूर्ण श्रद्धाभाव से करने पर व्यक्ति के पापों की शांति होती है. इस दिन भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं व्यक्ति को मनोवांछित फल प्राप्त होता है. इस व्रत की महिमा से व्रती संसार के सभी सुखों को प्राप्त कर विष्णु लोक को पाता है.

    आषाढ़ पूर्णिमा नक्षत्र पूजन महत्व

    पूर्णिमा तिथि हिन्दू पंचांग के अनुसार नक्षत्र के आधार पर भी तय होती है. इस समय आषाढ़ नक्षत्र का पूजन करना भी अत्यंत ही शुभ प्रभाव वाला होता है. यदि किसी जातक का नक्षत्र पूर्वाषाढ़ा या उत्तराषाढ़ा हो तो उसके लिए इस पूर्णिमा तिथि के दिन दान और तप करने का लाभ प्राप्त होता है.

    प्रत्येक माह का नामकरण पूर्णिमा तिथि को चंद्रमा जिस नक्षत्र में विद्यमान होता है उसके अनुसार होता है.आषाढ़ माह की पूर्णिमा को चंद्रमा यदि पूर्वाषाढ़ा या उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में होता है तो यह सौभाग्यदायक बनती है.

    आषाढ़ पूर्णिमा पर करें सरस्वती पूजा

    इस दिन जो सरस्वती का पूजन करता है, उसकी शिक्षा उत्तम रहने के योग बनते हैं. इस पूर्णिमा तिथि के दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. ये दिन अपने ज्ञान को विस्तार देने का होता है. इस दिन गुरु पूजन के साथ देवी सरस्वती पूजन का भी महत्व होता है. सरस्वती पूजा में माता की प्रतिमा व तस्वीर को स्थापित करना चाहिए. सरस्वती के सामने जलसे भरा कलश स्थापित करके गणेश जी और नवग्रह की पूजा करनी चाहिए. माता को माला एवं पुष्प अर्पित करने चाहिए. माता को सिन्दूर, अन्य श्रृंगार की वस्तुएं भी अर्पित करनी चाहिए. सरस्वती माता को श्वेत वस्त्र धारण करती हैं. देवी को सरस्वती पूजन में पीले रंग का फल अर्पित करने चाहिए. इस दिन मालपुए और खीर का भी भोग भी लगाना चाहिए.

    आषाढ़ मास की पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा

    आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है और इसी के संदर्भ में यह समय अधिक प्रभावी भी लगता है. गुरू के ज्ञान एवं उनके स्नेह के प्रति आभार प्रकट करती है ये आषाढ़ पूर्णिमा. गुरू को ईश्वर से भी आगे का स्थान प्राप्त है. ऎसे में इस दिन के शुभ अवसर पर गुरु पूजा का विधान है.

    जीवन में गुरु का स्वरुप किसी भी रुप में प्राप्त हो सकता है. यह शिक्षा देते शिक्षक हो सकता है, माता-पिता हो सकते हैं, या कोई भी जो हमें ज्ञान के पथ का प्रकाश देते हुए हमारे जीवन के अधंकार को दूर कर सकता है. गुरु के पास पहुंचकर ही व्यक्तो को शांति, भक्ति और शक्ति प्राप्त होती है.

    वेद व्यास का ज्ञान

    गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह दिन महाभारत के रचयिता वेद व्यास का जन्म दिवस भी होता है. वेद व्यास जी ने वेदों की भी रचना की थी. इस कारण उन्हें वेद व्यास के नाम से पुकारा जाने लगा. उनके इसी क्रम में वेदों का आगमन होना ही हमारे जीवन को प्रकाशित करने वाला होगा.

    वेदों नें जो हमें मार्ग दिया उसके द्वारा ही जीवन जीने कि प्रेरणा और प्रक्रति के साथ सृष्टि के संबंध को उजागर कर पाया है. वेद व्यास जी के द्वारा किए गए यही कार्य हमें सही अर्थों को समझने की शिक्षा देते हैं. भारत में व्यास पूर्णिमा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है. पुरातन काल से चली आ रही यह परंपरा हमारे भीतर गुरू के महत्व को परिलक्षित करती है.

    गुरु की भक्ति में कई श्लोक रचे गए हैं जो गुरू की सार्थकता को व्यक्त करने में सहायक होते हैं. गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव हो पाता है और गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं हो पाता. गुरु ही ईश्वर से मेल कराता है.

    आषाढ़ पूर्णिमा महत्व

    भारत में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है. प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा हमारे भीतर गुरू के महत्व को परिलक्षित करती है. पहले विद्यार्थी आश्रम में निवास करके गुरू से शिक्षा ग्रहण करते थे तथा गुरू के समक्ष अपना समस्त बलिदान करने की भावना भी रखते थे, तभी तो एकलव्य जैसे शिष्य का उदाहरण गुरू के प्रति आदर भाव एवं अगाध श्रद्धा का प्रतीक बना जिसने गुरू को अपना अंगुठा देने में क्षण भर की भी देर नहीं की, तभी गुरु की महिमा इस कथन से पूर्ण होती है –

    “गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:।

    गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।”

    Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Muhurta, Puja and Rituals, Saints And Sages | Tagged , , , , , , | Leave a comment

    रामानुजाचार्य जयंती 2025

    भारत में चली आ रही संत एवं भक्ति परंपरा के मध्य एक नाम रामानुजाचार्य जी का भी आता है. यह दर्शन शास्त्र में अपनी भूमिका को दर्शाते हैं. रामानुजाचार्य जी ने अपनी ज्ञान एवं आध्यात्मिक ऊर्जा द्वारा देश भर में भक्ति का प्रचार किया. वैष्णव सन्त होने के साथ साथ भक्ति परंपरा पर भी इनका बहुत प्रभाव रहा है. इस वर्ष रामानुजाचार्य जयंती 02 मई 2025 को शुक्रवार के दिन मनाई जाएगी.

    रामानुजाचार्य जन्म समय

    रामानुजाचार्य का समय 1017-1137 ई. तक का माना जाता है. इनका जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुदूर क्षेत्र में हुआ था. रामानुजाचार्य जी के शिष्यों में रामानंद जी का नाम अग्रीण रहा है और जिनके आगे कबीर, रैदास और सूरदास जैसी शिष्य परंपरा देखने को मिलती है.

    रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद

    आचार्य रामानुज का विशिष्टाद्वैत दर्शन का सिद्धांत बहुत सी पुरानी मान्यताओं को दर्शाता था. यह सिद्धांत प्राचीन चले आ रहे दर्शन के अलग-अलग मतों में से एक रहा है. रामानुजाचार्य द्वारा चलाया गया यह विचार प्रभावशाली विचारों में से एक था. दक्षिण भारत में मुख्य रूप से चल रहे भक्ति आंदोलन से प्रभावित होते हुए यह आगे बढ़ता है.

    विशिष्टाद्वैत का अर्थ विशिष्ट अद्वैत के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है. आचार्य रामानुज ने 1037-1137 ईसवी के समय के मध्य इस मत का प्रचार किया. यह दार्शनिक मत है जिसके द्वारा बताया गया है कि सृष्टि और जीवात्मा दोनों ब्रह्म से भिन्न हैं लेकिन वह उसी ब्रह्म से ही उद्भूत अर्थात उत्पन्न हैं, यह संबंध बहुत घनिष्ट है. इस संबंध को ऎसे समझा जा सकता है जैसे शरीर में प्राण का होना. सूर्य के साथ किरणों का होना. ब्रह्म एक होने पर भी अनेक है.

    रामानुज जी ने वेदों का चिंतन किया और उसके अनुरूप – उपनिषदों तथा वेदांत सूत्रों के ब्रह्म से एकात्मता को अपनी पद्धति का आधार बनाया. ईश्वर के रूप में ब्रह्म में जीव पूरी संपूर्णता के साथ संबंधित होता है, इन्हीं बातों पर रामानुज ने अपना विचार विस्तार से रखा.

    विशिष्टाद्वैत दर्शन में बताया गया है कि शरीर विशिष्ट है, जीवात्मा अंश और परमात्मा अंशी है. संसार प्रारंभ होने से पूर्व “सूक्ष्म चित विशिष्ट ब्रह्म” की स्थिति होती है संसार एवं जगत की उत्पत्ति के उपरांत ‘स्थूल चित विशिष्ट ब्रह्म’ की स्थिति रहती है. ‘तयो एकं इति ब्रह्म’ जब प्राण शरीर से मुक्त होता है तो वह सीमाओं की परिधि से छूट कर ब्रह्म में विलीन हो जाता है और उसकी यही स्थिति मोक्ष है. जो आत्मा शरीर से मुक्त होती हैं व ईश्वर की भांति हो जाती हैं किंतु ईश्वर नहीं होती हैं.

    आचार्य रामानुज और शंकराचार्य के मत में क्या अंतर रहा ?

    आचार्य रामानुज ने जो सिद्धांत सभी के सामने रखा उसमें आदि शंकराचार्य द्वारा दिए गए माया वाद के सिद्धांत को कुछ नकारा भी है. शंकराचार्य ने सृष्टि जिसे जगत कहते हैं उसको माया का स्वरुप कहा है, और इसे मिथ्या अर्थ्ता भ्रम दर्शाया है. रामानुज इस से अलग अपने कथन में बताते हैं कि यह संसार ब्रह्म ने ही बनाया है और इस कारण यह मिथ्या अर्थात भ्रम माया कैसे हो सकता है.

    रामानुजाचार्य गुरु-शिष्य परंपरा में अग्रीण स्थान रखते हैं

    रामानुज आचार्य जी को यादव प्रकाश का शिष्य बताया जाता है, पर बाद में इन दोनों के मध्य विचारों में मतभेद भी दिखाई देते हैं. जिस कारण गुरु ओर शिष्य का मार्ग अलग-अलग हो जाता है.परंतु बाद में इनके गुरु श्री यादव प्रकाश को अपनी पूर्व करनी पर पश्चात्ताप होता है और वे भी संन्यास की दीक्षा लेकर श्रीरंगम श्रीरामानुजाचार्य की सेवा में रहने लगे और उनके शिष्य बनते हैं.

    श्रीरामानुचार्य के विषय में कहा जाता है की पहले वह गृहस्थ थे. किंतु बाद में वह गृहस्थ जीवन को त्याग देते हैं और अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए निकल पड़ते हैं.

    रामानुजाचार्य और यमुनाचार्य का संबंध

    11 वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध वेदांत विद्वान यमुनाचार्य से भी इन्हें बहुत कुछ सिखने का अवसर प्राप्त होता है. पर कुछ विचारकों के अनुसार कहते हैं कि यमुनाचार्य से रामानुज मिल नहीं पाए क्योंकि यमुनाचार्य की की मृत्य हो जाती है, जिस कारण एक दूसरे इनकी मुलाकात नहीं हो पाती है.

    कुछ किवदंतियों के अनुसार यह पता चलता है की यमुनाचार्य मृत्यु उपरांत रामानुजाचार्य जी को उनका स्थान प्राप्त होता है. वह श्री वैष्णव संप्रदाय के नए गुरु के रूप में स्थापित भी होते हैं.

    श्रीरामानुजाचार्य कांचीपुरम में रहते थे और यमुनाचार्य जी श्रीरंगम के मठाधीश प्रसिद्ध आलवार संत थे. कहा जाता है कि जब श्री यामुनाचार्य जी को अपनी मृत्यु का आभास हुआ तो उन्होंने अपने शिष्यों द्वारा श्री रामानुजाचार्य को अपने पास बुलाने का संदेश भेजा. तब उनके शिष्य रामानुजाचार्य के पास संदेश लेकर पहुंचे. रामानुजाचार्य जी तुरंत यामुनाचार्य जी से मिलने के लिए निकल पड़ें , किंतु रामानुजाचार्य के यामुना जी से मिलने से पुर्व ही यामुनाचार्य जी की मृत्यु हो जाती है.

    रामानुज जी ने जब यामुनाचार्य जी के पार्थिव शरीर को देखा तो पाया की उनके हाथ की तीन उंगलियां मुड़ी हुई थीं. सभी लोगों को जब इस का आभास हुआ तो उन्होंने इस रहस्य को जानने की इच्छा प्रकट की. रामानुजाचार्य जी ने इस रहस्य का भेद बताते हुए कहा कि – श्रीयामुनाचार्य कहना चाहते हैं कि “मै अज्ञान जनों को जो भोग विलास में हैं जीवन के सही अर्थ को नहीं समझ पाए हैं. उन लोगों को नारायण के चरणकमलों में लगाकर बिना किसी भेद भाव के उनकी रक्षा करता रहूंगा. उनके इतना कहते ही यामुनाचार्य जी की एक अंगुली खुलकर सीधी हो जाती है.

    दूसरे वचन में रामानुज कहते हैं “मैं लोगों की रक्षा एवं उनके ज्ञान को बेहतर करने हेतु परम तत्वज्ञान से युक्त श्री भाष्य की रचना करुंगा. इस कथन के साथ ही यामुनाचार्य जी की दूसरी अंगुली भी खुलकर सीधी हो जाती है और अपने अंतिम तीसरे कथन में रामानुजाचार्य जी कहते हैं. पराशर मुनि जिस प्रकार लोगों के कल्याण हेतु और उनकी उन्नति का मार्ग बताते हुए विष्णु पुराण की रचना करते हैं, उनके ऋण को चुकाते हुए मैं यामुनाचार्य किसी योग्य शिष्य को उनका नाम दूंगा.

    रामानुज आचार्य जी के यह कहते ही यामुनाचार्य तीसरी उंगली भी खुल कर सीधी हो जाती है. सभी शिष्य एवं वहां उपस्थित लोगों द्वारा इस बात को समझ कर बिना किसी संदेह और विवाद के सभी ने अपनी सहमति प्रकट करते हुए श्री रामानुजा ही अगले आलवन्दार का आसन प्रदान होता है.

    Posted in Festivals, Hindu Rituals, Jayanti, Mantra, Puja and Rituals, Saints And Sages | Tagged , , , | Leave a comment

    चंपा द्वादशी (चंपक द्वादशी) 2025

    ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को चंपक द्वादशी का पर्व मनाया जाता है. इस वर्ष चम्पा द्वादशी 07 जून 2025 को मनाई जाएगी. इस तिथि में भगवन श्री विष्णु का पूजन होता है और भगवान की चंपा के फूलों से पूजा होती है. श्री कृष्णा को चंपा के फूल अति प्रिय हैं और इस दिन उनका श्रृंगार करने से वो प्रसन्न होते हैं और मनोवांछित फल प्राप्त होता है.

    चम्पा द्वादशी के अन्य नाम

    हर महीने दो द्वादशी तिथि आती है. जिनमें से एक द्वादशी को भगवान श्री विष्णु जी के पूजन से जोड़ा गया है. द्वादशी तिथि को विष्णु द्वादशी के नाम से जाना जाता है. इस दिन शास्त्रों में भगवान विष्णु के भिन्न-भिन्न रुपों की पूजा आराधना करने का महत्व बताया गया है. इसलिए श्रद्धालुओं को इस दिन भगवान श्री विष्णु के कृष्ण रुप की पूजा करने से सुख-संपत्ति, वैभव और एश्वर्य की प्राप्ति होती है.

    चम्पा द्वादशी को राघव द्वादशी और रामलक्ष्मण द्वादशी के नाम से भी संबोधित किया गया है. इस दिन विष्णु के अवतार श्रीराम और श्री लक्ष्मण की मूर्तियों का पूजन भी होता है. राम और लक्ष्मण की पूजा करने के बाद एक घी से भरा हुआ घड़ा या कलश दान करने से सौभाग्य में वृद्धि होती है. पाप समाप्त होते हैं, मोक्ष पद की प्राप्ति होती है.

    उदया तिथि के साथ व्रत का प्रारंभ होता है. सर्वप्रथम ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर पूजा के लिए आसन पर बैठना चाहिए. धरती पर कुछ अनाज रखकर उसके ऊपर एक कलश की स्थापना करें. कलश में पूजा के लिए एक भगवान विष्णुजी की प्रतिमा को डाल दें. अबीर, गुलाल, कुमकुम, सुगंधित फूल, चंदन से भगवान की पूजा करें. भगवान को खीर का भोग लगाना चाहिए. ब्राह्मण भोजन का आयोजन करना चाहिए. ब्राह्मणों वस्त्र, दक्षिणा आदि का दान करना चाहिए. मान्यता है कि त्रयोदशी तिथि को प्रतिमा को किसी योग्य ब्राह्मण को दान कर करना उत्तम होता है.

    चंपक द्वादशी पूजा विधि

    • चंपक द्वादशी तिथि के दिन भगवान श्री कृष्ण का स्मरण करते हुए दिन का आरंभ करना चाहिए.
    • दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर, पूजा का संकल्प करना चाहिए.
    • श्री कृष्ण का पूजन करना चाहिए. भगवान श्री विष्णु के कृष्ण रुप की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए.
    • इस दिन श्री विष्णु के राम अवतार का भी पूजन करना चाहिए.
    • श्री रामदरबार को सजाना चाहिए.
    • चंदन, अक्षत, तुलसी दल व पुष्प को भगवान श्री विष्णु के कृष्ण नाम व श्री राम नाम को बोलते हुए भगवान को अर्पित करने चाहिए.
    • भगवान की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करवाना चाहिए. इसके पश्चात प्रतिमा को पोंछ कर सुन्दर वस्त्र पहनाने चाहिए.
    • भगवान को दीप, गंध , पुष्प अर्पित करना, धूप दिखानी चाहिए.
    • अगर चम्पा के फूल उपलब्ध ना हों तो पीले-सफेद फूलों का उपयोग कर सकते हैं. साथ ही चंदन को अर्पित करना चाहिए.
    • आरती करने के पश्चात भगवान को भोग लगाना चाहिए.
    • भगवान के भोग को प्रसाद रुप में को सभी में बांटना चाहिए. सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए व दान-दक्षिणा इत्यादि भेंट करनी चाहिए.

    चंपक द्वादशी व्रत में एकादशी से ही व्रत का आरंभ करना श्रेयस्कर होता है. अगर संभव न हो सके तो द्वादशी को व्रत आरंभ करें. पूरे दिन उपवास रखने के बाद रात को जागरण कीर्तन करना चाहिए और दूसरे दिन स्नान करने के पश्चात ब्राह्मणों को फल और भोजन करवा कर उन्हें अपनी क्षमता अनुसार दान देना चाहिए. जो पूरे विधि-विधान से चम्पा द्वादशी का व्रत करता है वह बैकुंठ को पाता है. इस व्रत की महिमा से व्रती के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह सभी सांसारिक सुखों को भोग कर पाता है.

    चंपा के फूलों का पूजा में महत्व

    चंपा द्वादशी के दिन भगवान श्री कृष्ण के पूजन में चम्पा फूलों का मुख्य रुप से उपयोग होता है. एक अन्य मान्यता है कि चंपा के पुष्प का संबंध शिव भगवान से भी रहा है. लेकिन ज्येष्ठ मास की द्वादशी के दिन श्री विष्णु पूजन में इन पुष्पों का उपयोग विशेष आराधना और मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए होता है.

    चंपा के फूलों के विषय में एक पौराणिक मान्यता भी बहुत प्रचलित है जिसके अनुसार चंपा के फूलों पर न ही कोई भंवरा और न ही तितली, मधुमक्खी बैठते हैं. एक कहावत है कि ’’चम्पा तुझमें तीन गुण-रंग रूप और वास, अवगुण तुझमें एक ही भँवर न आयें पास’’। रूप तेज तो राधिके, अरु भँवर कृष्ण को दास, इस मर्यादा के लिये भँवर न आयें पास।।

    मान्यताओं अनुसार चम्पा को राधिका और कृष्ण को भंवरा और मधुमक्खियों को गोप और गोपिकाओं के रूप में माना गया है. राधिका कृष्ण की सखी होने के कारण मधुमक्खियां चम्पा पर कभी नहीं बैठती हैं.

    वास्तुशास्त्र में भी इस पुष्प को अत्यंत शुभ माना गया है. यह सौभाग्य का प्रतीक माना गया है. इसे घर पर लगाने से धन संपदा का आगमन होता है.

    इस फूल में परागण नहीं होता जिस कारण तितली अथवा भवरे इत्यादि इस पर नहीं आते हैं. इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि चंपा फूल वासना रहित माना होता है यह सभी गुणों से मुक्त होते हुए भी त्याग की भावना को दर्शाता है. इसलिए भगवान श्री विष्णु जी को इन फूलों की माला, कंगन, पैर के कड़े इत्यादि आभूषण बना कर शृंगार किया जाता है. इस दिन इन पुष्पों से भगवान को सजाने एवं उनका पूजन करने से वह शीघ्र प्रसन्न होते हैं.

    चंपक/ चम्पा द्वादशी महत्व

    ऐसी मान्यता है कि चम्पा द्वादशी के दिन चंपा के फूलों से विधिवत भगवान श्री कृष्ण की पूजा करने से व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है. चम्पा द्वादशी की कथा श्रीकृष्ण ने माहाराज युधिष्ठिर को बतलाई थी. श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा था कि, हे युधिष्ठिर ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को जो भक्त उपवास करके श्री कृ्ष्ण , राम नाम से मेरी आराधना करता है, उनको एक हजार गो के दान के बराबर फल प्राप्‍त होता है. चम्पा द्वादशी का व्रत कर विधि-विधान से पूजा करने पर मानव की सभी इच्छाएं इस लोक में पूरी होती है और विष्णु लोक की प्राप्ति होती है.

    Posted in Fast, Festivals, Hindu Gods, Hindu Maas, Hindu Rituals, Mantra, Muhurta, Puja and Rituals, Remedies | Tagged , , , | Leave a comment