ज्योतिषशास्त्र के आइने में कालसर्प दोष Kalsarp Dosh and Indian Astrology
ज्योतिषशास्त्र में अनेक योगों का वर्णन किया गया है. इन योगों में से कुछ योग शुभ फल देने वाले हैं तो कुछ अशुभ फलदायी. जन्मपत्री में शुभ योग की मौजूदगी की बात सुनकर जहां व्यक्ति प्रसन्न होता है वहीं अशुभ योगों का नाम सुनते ही उनके मन में भय पैदा होने लगता है. ऐसा ही एक अशुभ फलदायी योग है "कालसर्प दोष" (Kaal Saro Dosha). लोग इस दोष से काफी भय खाते हैं क्योंकि उनके मन में इसके प्रति काफी भय बैठा हुआ है. इस दोष के विषय में कई प्रकार की बातें और धारणाएं लोगों के मन में बैठी हुई हैं. काल सर्प दोष के विषय में आपके मन में बैठा भय और धारणा कितनी सही है यह आप तभी जान सकते है जब आप कालसर्प दोष को पूरी तरह समझ नहीं लेते.
काल सर्प दोष क्या है ( What is Kal sharp dosha)
जब आप यह सुनते हैं कि आपकी कुण्डली में काल सर्प दोष (Kaal Sarp Dosha) है तो आपके मन में सबसे पहले यही प्रश्न उठता है कि काल सर्प दोष क्या है. इस प्रश्न का जवाब यह है कि " कालसर्प दोष दो अशुभ ग्रह राहु और केतु की विशेष स्थिति से बनने वाला एक प्रकार का ज्योतिषीय योग है. चुंकि यह योग (Kaal Sarp Dosha) अशुभ फल देता है इसलिए इसे योग कि जगह दोष के नाम से जाना जाता है. माना जाता है कि पूर्व जन्म में सर्प की हत्या या उन्हें कष्ट देने के कारण वर्तमान जीवन में व्यक्ति की कुण्डली में यह दोष बनता है. इस दोष को कुछ ज्योतिषी पितृ दोष भी कहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह दोष पूर्व जन्म में पितरों का विधि पूर्वक कर्म नहीं करने के कारण कुण्डली में बनता है.अपनी कुंडली में कालसर्प दोष चैक कीजिये "Check Kalsarp Dosha in Your Kundli" एकदम फ्री
काल सर्प दोष (Kaal Sarp Dosha) को सागर मंथन की कथा से भी जोड़कर देखा जाता है. इस कथा के अनुसार सागर मंथन के पश्चात जब अमृत को लेकर देवों और असुरों के बीच संघर्ष होने लगा तब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण करके असुरों को भ्रमित कर दिया और देवताओं को अमृत पान कराने लगे. राहु नामक असुर विष्णु भगवान की चाल समझकर देवता का रूप धारण कर लिया और देवताओं के बीच बैठ गया. जब विष्णु राहु को अमृत पिला रहे थे उस समय चन्द्र देव ने राहु को पहचान लिया और विष्णु भगवान से बता दिया कि यह राहु नामक असुर है. राहु का भेद खुल जाने पर विष्णु ने तुरंत अपने चक्र से राहु का सिर धड़ से अलग कर दिया. उस समय से राहु का सिर और धड़ अन्तरिक्ष में ग्रह के रूप में स्थापित हो गया. राहु के धड़ को केतु के नाम से जाना गया.
सभी ग्रह अपने गोचर में जहां मार्गी और वक्री होते रहते हैं वहीं राहु और केतु सदैव वक्री होते हैं. ये दोनों ग्रह सदैव एक दूसरे से सातवें घर में रहते हैं. जब कभी इन दोनों के बीच शेष सातों ग्रह आ जाते हैं तब कालसर्प दोष बनता है. चुंकि सभी ग्रह इस सर्प रूपी ग्रह के बंधन में होते हैं अत: वे कुण्डली में मजबूत स्थिति में होते हुए भी अपना शुभ प्रभाव देने में अक्षम रहते हैं. यदि कुण्डली में इन दोनों ग्रहों के बंधन से एक या दो ग्रह बाहर निकाल आते हैं तब कालसर्प दोष नहीं बनता है. लेकिन, कुछ ज्योतिषी यह मानते हैं कि इन ग्रहों का अंश यदि राहु केतु से कम होता है तब इस स्थिति में कालसर्प दोष कहा जा सकता है.