कैसे बनता है कालसर्प दोष – How Kaalsarp Dosha forms?

विधाता हमारे सभी कर्मों को देखता है. हमारे कर्मों के अनुसार ही वह हमारे जीवन का लेख लिखता है. विधाता का लेख हम कुण्डली से जान पाते हैं. कुन्डली में शुभ योगों की मौजूदगी हमारे शुभ कर्मों का फल होता है और अशुभ योग बुरे कर्मों का फल. कालसर्प दोष (कालसर्प दोष) भी ऐसा ही योग है जो पूर्व जीवन में किये गये हमारे कर्मों से इस जन्म में हमारी कुण्डली में निर्मित होता है. इस योग में मूल रूप से दो ग्रह राहु केतु की भूमिका प्रमुख होती है. इन्हीं दोनों ग्रहों के प्रभाव से कालसर्प दोष बनता है.

नवग्रहों में राहु- केतु को छाया ग्रह कहा जाता है. इन दोनों ग्रहों के प्रभाव स्वरुप जातक के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव यह कहे तो छाया ग्रह जाते हैं, लेकिन इनकी छाया का बहुत गहरा प्रभाव जातक पर पड़ता है. जिस प्रकार चंद्रमा और सूर्य को ग्रहण की स्थिति राहु/केतु के द्वारा प्रभावित करती है. वही स्थिति जातक के भी मन और जीवन पर पड़ती है.

राहु केतु और काल सर्प दोष (Rahu, Ketu and Kalsarp Dosha)

राहु केतु अशुभ और पीड़ादायक ग्रह माने जाते हैं. धर्मशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र में कई स्थान पर यह उल्लेख आया है कि यह दोनों ग्रह भले दो हैं परंतु वास्तव में यह एक ही शरीर के दो भाग हैं. इनका शरीर सर्प के आकार का है राहु जिसका सिर है और केतु पूंछ. अंग्रेजी भाषा में राहु को ड्रैगन हेड और केतु को ड्रैगन टेल कहा गया है. ज्योतिषशास्त्र में जिन नौ ग्रहों की चर्चा की जाती है उनमें राहु और केतु ही मात्र ऐसे ग्रह हैं जो सदैव वक्री चाल चलते हैं शेष सभी ग्रह मार्गी और वक्री होते रहते हैं.

सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि ये सभी ग्रह जब गोचर में भ्रमण करते हुए राहु और केतु के बीच में आ जाते हैं, उस समय जिस व्यक्ति का जन्म होता है उसकी कुण्डली में कालसर्प योग बनता है. यह योग अशुभ फलदायक होने के कारण कालसर्प दोष कहलाता है. इस दोष की चर्चा जैमिनी, पराशर, वराहमिहिर, बादरायण, गर्ग एवं बादरायण ऋषियों ने भी किया है. राहु केतु के बीच में आ जाने के कारण शेष सातों ग्रहों की शक्ति कमज़ोर पड़ जाती है जिससे वह अपना पूर्ण शुभ फल नहीं दे पाते हैं.

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इस दोष के विषय में विद्वानों ने यह भी कहा है कि जब सातों ग्रहों में से कोई भी एक या दो ग्रह राहु और केतु के चक्र से बाहर निकल आते हैं तब कालसर्प योग नहीं बनता है. लेकिन, इसमें ध्यान रखने वाली बात यह है कि जो ग्रह राहु केतु के चक्र से बाहर हों उनका अंश राहु केतु से अधिक होना चाहिए। यदि, उन ग्रहों का अंश राहु केतु से कम है तो कुण्डली कालसर्प दोष से प्रभावित ही मानी जाएगी.

कालसर्प दोष के विषय में कुछ ज्योतिषशास्त्रियों का मानना है कि कालसर्प दोष की जांच करते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जन्मपत्री में यदि राहु केतु द्वितीय, षष्टम, अष्टम या एकादश में हो और सभी एक ही तरफ एक गोलार्द्ध में हों तब कालसर्प दोष मानना चाहिए. जबकि, सातों ग्रहों एक ही ओर इसके विपरीत दिशा में हों तब कालसर्प दोष की बजाय अर्धचन्द्र योग बनता है.

राहु-केतु का आकस्मिक प्रभाव

राहु - केतु का प्रभाव जातक के जीवन में अकस्मात होने वाला बदलाव दिखाता है. आपके जीवन में होने वाले ऎसे परिवर्तन जो आपको पूरी तरह से बदल कर भी रख सकते हैं. कई बार व्यक्ति को आर्थिक रुप से बहुत अधिक घाटा सहन करना पड़ता है. सभी कुछ सही होने के बावजूद भी स्थिति ऎसी बन पड़ी होती है जिसमें से निकल पाना बहुत ही कठीन होता है. ये दोनों ग्रह आकस्मिक रूप से फल प्रदान करने की क्षमता रखते हैं. जन्म कुण्डली में राहु-केतु जहां वह स्थित हो उस भाव में कौन सी राशि पड़ रही है, क्योंकि राहु- केतु की स्थिति को कुछ भावों व राशियों के लिए शुभ माना जाता है तो कुछ में अशुभ कहा गया है. इन दोनों ग्रहों से प्राप्त होने वाले फलों में शुभाशुभ की स्थिति कुण्डली में इनकी अवस्था पर निर्भर करती है.

भ्रम का आवरण

राहु-केतु के प्रभाव से जातक में एक प्रकार भ्रम की स्थिति बनी होती है. किसी निर्णय को लेकर आगे बढ़ पाना कठीन हो जाता है. कुछ मामलों में जातक के विचार एकाग्रता कमी को भी दर्शाते हैं. अपनी चीजों को लेकर ये काफी दुविधा में रहते हैं. राहु-केतु किस भाव में और किस राशि में स्थित हैं इस बात का प्रभाव भी व्यक्ति को अपने ढंग से प्रभावित करने वाला और भ्रम की स्थिति से बचाने वाला हो सकता है.

जन्म कुण्डली में राहु - केतु की स्थिति यह इसी के साथ यह बात भी ध्यान रखने योग्य होती है कि यह किन ग्रहों से युति और दृष्ट संबंध बना रहे हैं. इन सभी बातों का प्रभाव राहु- केतु द्वारा दिए जाने वाले फलों में घटित होता है. यदि राहु केतु राजयोग कारक हों या योग कारक ग्रहों से इनका संबंध स्थापित हो रहा हो तो ऎसी स्थिति में राहु/केतु सकारात्मक प्रभाव देने वाले होते हैं. इन दोनों ग्रहों के राशीश में अगर शुभता हो या राहु- केतु के राशीश यदि नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह होकर दोनों परस्पर केंद्र में स्थित हों, तो भी स्थिति अनुकूल हो स्कती है. इन ग्रहों की उच्च स्थिति भी इन्हें बेहतर बनाती है. अपनी उच्च, मूल त्रिकोण, स्वयं की या मित्र राशि में स्थित होने पर ये ग्रह अपनी दशा भुक्ति में शुभ फलों की प्राप्ति में सहायक होते हैं.

जातक के जीवन में आने वाले उतार चढाव बहुत ही गहरे होते हैं, ये जीवन में इस तरह से प्रतीत होते हैं जैसे जीवन पर व्यक्ति का कोई नियंत्रण ही नहीं रह पाता है. राहु - केतु का त्रिक भाव और भावेशों से प्रभावित होना, नीच या शत्रु राशि में बैठा हुआ होना ग्रहों के अशुभ फलों में वृद्धि करने वाला बनता है.

राहु - केतु अपने अंशों के अनुसार दूसरे ग्रहों से जितने अधिक निकट होते हैं उतना ही दूसरे के प्रभावों को अपनी दशा के दौरान प्रकट करते हैं. राहु-केतु की युति किन ग्रहों से है और उन ग्रहों को किन भावों का स्वामित्व प्राप्त है तथा उनके नैसर्गिक कारकत्व क्या है और राहु - केतु तथा उनसे युति रखने वाले ग्रहों के मान यदि एक समान या अधिक निकट हों तो ग्रहों का प्रभाव राहु-केतु में दिखाई देता है.

कालसर्प दोष निर्माण के विषय में आधुनिक मत

आधुनिक समय के कुछ ज्योतिषी इस योग के निर्माण के विषय में यह भी कहते हैं कि शुभ ग्रहों का कम अंशों पर होना, शुभ ग्रहों का नीच स्थिति में होना, पाप ग्रहों से दृष्ट होना, केन्द्र एवं त्रिकोण में स्थित ग्रहों का किसी भी भी तरह से अशुभ होना, शुभ ग्रहों का अशुभ ग्रहों से दृष्ट होना भी कालसर्प दोष के समान ही फल देता हे अत: इन्हें भी कालसर्प दोष के रूप में मानना चाहिए.

राहु-केतु के विषय में ज्योतिष में बहुत से विचार मिल जाते हैं. राहु-केतु से बनने वाले योगों में उसकी अन्य ग्रहों से युति का संबंध किस प्रकार के योग बनाता है वो ग्रहों के साथ इनके प्रभाव से पता चल जाता है. जैसे सूर्य के साथ राहु की स्थिति एक प्रकार से पितृ दोष का कारण बनती है. इसी प्रकार मंगल के साथ केतु की स्थिति अंगकारक योग का निर्माण करती है.

प्राचीन समय में कालसर्प के बारे में कोई विशेष जानकारी के बारे में नहीं लिखा गया है. पर आधुनिक समय में इस योग के बारे में बहुत कुछ सुनने को मिल जाता है. ऎसे में इस योग के विषय में मिले-जुले प्रभाव ही दिखाई देते हैं. इनके बारे में भी जो भी उल्लेख होता है वह आधुनिकता की तर्ज पर अधिक हो रहा है लेकिन प्राचीन शास्त्र इसके बारे में चुप्पी साधे हुए से लगते हैं.

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