जानिए पूर्वमध्यकाल में फलित ज्योतिष का इतिहास और विकास

पूर्वमध्यकाल अर्थात ई. 501 से 1000 तक का काल ज्योतिष के क्षेत्र में उन्नति और विकास का काल था. इस काल के ज्योतिषियों ने रेखागणित, अंकगणित और फलित ज्योतिष पर अध्ययन कर, अनेक शास्त्रों की रचना की. इस काल में फलित ज्योतिष पर लिखे गये साहित्य में राशि, होरा, द्रेष्कोण, नवांश, त्रिशांश, कालबल, चेष्ठाबल, दशा- अन्तर्दशा, अष्टकवर्ग, राजयोग, ग्रहों की चाल, उनका स्वभाव, अस्त, नक्षत्र, अंगविज्ञान, स्वप्नविज्ञान, शकुन व प्रश्न विज्ञान प्रमुख विषय थे.

ज्योतिष में फलित ज्योतिष का स्वरुप ही आदिकाल के बाद पूर्व मध्यकाल में दिखाई देता है. फलित जिसमें व्यक्ति के जीवन में उसके कर्मों और उसके भाग्य की बात की जाने लगी थी. इस समय पर ज्योतिष शास्त्र में अनेक आचार्यों ने अपनी ओर से बहुत से प्रयास किए थे. इस समय पर नए नियम भी आए और जो भी तर्क सामने रखे गए वह सत्य पर आधारित दिखई दिए.

ज्योतिष का इतिहास जितना पुराना है उतनी ही इसकी विश्वसनियता में भी मजबूती है. वेद के आगमन के साथ ही ज्योतिष का संबंध रहा है. ज्योतिश शास्त्र एक अत्यंत प्राचीन विद्या है जो मनुष्य के भूत भविष्य एवं वर्तमान की पहेलियों को सुलझाने में बहुत सहायक है. ज्योतिष का निर्माण करने वाले ऋषि-मुनि त्रिकालदृष्टा रहे हैं. ऎसे में उन्होंने जो भी काल गणना का उपयोग किया उसके द्वारा उन्होंने जीवन के रहस्यों को भी समझा.

ज्योतिषां सूर्यादिग्रहणां बोधक शास्त्र इसका अर्थ हुआ की सूर्य आदि ग्रहों और काल का बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है. ज्योतिष शास्त्र से लोगों को सूर्योदय, ग्रहण, ग्रहों की स्थिति ऋतुओं की जानकारी मौसम की जानकारी इत्यादि बातों का ज्ञान कराया गया. पंचांग का निर्माण इत्यदै बातों पर जोर दिया गया.

ज्योतिष के अंतर्गत ही गणित का भी उल्लेख मिलता है. ज्योतिष के तीन भेद बताए गए हैं जिनमें होरा सिद्धांत और संहिता मुख्य हैं.

होरा –

इसके अंतर्गत व्यक्ति के सुख-दुख, अच्छे-बुरे, भाग्योदय इत्यादि के बारे में पता चलता है. इसे जातक शास्त्र भी कहते हैं. जन्म के समय ग्रहों की स्थिति के अनुसार जातक को मिलने वाले फलों का निर्धारण किया जाता है. इसमें जन्म कुण्डली के 12 भावों के फलों का निर्धारण होता है. मानव जीवन में भाग्य की स्थिति को इसके द्वारा समझा जा सकता है.

सिद्धांत –

इसमें कल की गणना, सौर चंद्र मासों की गणना मुख्य है यह एक प्रकार से गणित का ही विषय होता है, इसे गणित सिद्धांत भी कहा जाता है. प्राचीन काल में इसकी परिभाषा केवल सिद्धांत गणित के रुप में मानी जाती थी.

संहिता –

इसके अंतर्गत भू शोधन, दिशाओं का शोधन, गृह प्रवेश, मूहुर्त विचार, मांगलिक कार्यों का कब होना, शगुन विचार इत्यादि बातें होती हैं. संहिता शास्त्र का का आगमन आदिकाल में हो गया था, इस समय इसका तेजी से विकास होता है.

501-1000 पूर्वमध्यकालिन रेखागणित

ज्योतिष के आरंभ का काल कब से माना जाए इस पर कोई एक निश्चित तथ्य सामने नही आ सकता है. ज्योतिष शास्त्र मनुष्य और सृ्ष्टि के रहस्य को समझने में हमारी मदद करता है. आदिकाल जिसे ज्योतिष का उदय काल जहा गया. इस समय में वेद, आरण्य काल और ब्राह्मण ग्रंथों में ज्योतिष के विषय में पता चलता है. इसी समय पर छ: वेदांग प्रकट होते हैं – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्ति, ज्योतिष और छंद.

इस काल में ज्योतिष साहित्य ग्रहों, नक्षत्रों की विद्या से आगे बढ़ता है और इसके अंतर्गत धार्मिक, समाजिक राजनैतिक विषय भी समाहित होते जाते हैं. इसी समय पर वेदांग ज्योतिष का आरंभ हुआ जिसके दो भाग थे ऋगवेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष.

गुणज निकालना, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घनमूल, घन, भिन्न समच्छेद, त्रैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, क्षेत्रव्यवहार. रेखागणित के अनेक सिद्धान्तों का प्रयोग इस काल में हुआ था. इस काल के ज्योतिषाचार्यों ने यूनान और ग्रीस के सम्पर्क से अन्य अनेक सिद्धान्त बनायें. इन नियमों में निम्न प्रमुख थे.

समकोण त्रिभुज में कर्ण का वर्ग दोनों भुजाओं के जोड के बराबर होता है.

दिये गये दो वर्गो का योग अथवा अन्तर के समान वर्ग बनते है.

आयत को वर्ग बनाना या फिर वर्ग को आयत बनाना.

शंकु का घनफल निकालना.

वृत परिधि नियम.

ये नियम एक प्रकार के स्टीक निर्णय पर पहुंचने के लिए बहुत ही उपयोगी भी सिद्ध होते हैं.

पूर्वमध्यकाल में ज्योतिष

इसके अतिरिक्त इस काल के ज्योतिषी आयुर्दायु, संहिता ज्योतिष में ग्रहों का स्वभाव, ग्रहों का उदय ओर अस्त होना, ग्रहो का मार्ग, सप्तर्षियों की चाल, नक्षत्र चाल, वायु, उल्का, भूकम्प, सभी प्रकार के शुभाशुभ योगों का विवेचन इस काल में हो चुका था. इस युग का फलित केवल पंचाग तक ही सीमित था.

इस काल में ब्रह्मागुप्त ने ब्रह्मास्फुट सिद्धान्त की रचना की. पूर्वमध्यकाल में भारतीय ज्योतिष में अक्षांश, देशान्तर, संस्कार, और सिद्धान्त व संहिता ज्योतिष के अंगों का विश्लेषण किया है.

इसी काल के 505 वर्ष में ज्योतिष के जाने माने शास्त्री वराहमिहिर का जन्म हुआ. वराहमिहिर का योगदान ज्योतिष के क्षेत्र में सराहनीय रहा है. इस काल में बृ्हज्जातक, लघुजातक, विवाह-पटल, योगयात्रा और समास-संहिता की रचना की. पूर्वमध्य काल के अन्य ज्योतिषियों में कल्याणवर्मा, ब्रह्मागुप्त, मुंजाल, महावीराचार्य, भट्टोत्पल व चन्द्रसेन प्रमुख थे.

पूर्व मध्यकाल में ज्योतिष शास्त्र उन्नती में था इस समय के दौरान वारहमिहिर जैसे ज्योतिष के जानकारों ने इसे बहुत आगे तक बढ़ाया. इस सम्य पर ज्योतिष के तीन अंग सिद्धांत, होरा और संहिता पर बहुत अधिक काम किया गया. साथ ही कई नए विषयों का आगमन भी होता है. फलित ज्योतिष में बहुत से प्रयोग हुए और साथ ही ज्योतिष का विस्तार बहुत बड़े स्तर पर हुआ. इस समय पर ग्रहों और गणित के क्षेत्र में सिद्धांत, तंत्र और करण इन तीन बातों का भी प्रचार हुआ. इस समय पर ग्रह गणित अपने चरम पर था. नव ग्रहों की स्थिति से जातक के जीवन के रहस्यों को समझा गया और साथ ही विश्व के कल्याण एवं धर्म की वैज्ञानिकता भी इस समय मजबूती के साथ सभी के सामने आती हैं.

इसी दौरान ही भारत का संपर्क जब अन्य लोगों के साथ हुआ तो बहुत सी नई जानकारियां इकट्ठी हुई और उनके द्वारा ज्योतिष और विज्ञान का संबंध भी मजभूत होता गया है.

Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , , | Leave a comment

उत्तराषाढा नक्षत्र विशेषताएं | Characteristics of Uttara Ashadha Nakshatra | Uttarashadha Nakshtra Career

उत्तराषाढा नक्षत्र 21 वां नक्षत्र है, तथा इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्तियों में कृ्तज्ञता की भावना विशेष रुप से पाई जाती है. इस नक्षत्र के व्यक्ति धार्मिक आस्था के होते है. इन्हें धर्म क्रियाओं में विशेष आस्था होती है. संतान पक्ष की ओर से इस नक्षत्र के व्यक्ति को सुख और सहयोग दोनों प्राप्त होते है.

उत्तराषाढा जन्म नक्षत्र व्यक्तित्व | Uttara Ashadha Nakshatra Characterstic

उत्तराषाढा जन्म नक्षत्र के व्यक्ति का जीवन साथी सुन्दर और सुयोग्य होता है. और इस नक्षत्र समय में जन्म लेने वाला व्यक्ति स्वयं भी आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी होता है. ऎसा व्यक्ति अपनी वेशभूषा को अत्यधिक महत्व देता है. बोलने में ये लोग मधुरता का प्रयोग करते है. तथा इनके घर से दूर विदेश या प्रवास स्थान में रहने की संभावनाएं अधिक बनती है. 

इसके साथ ही इन्हें घूमने और पर्यटन का शौक भी होता है. घूमने फिरने के लिए ये प्राकृतिक स्थानों में जाना पसन्द करते है. वन और पहाडी क्षेत्रों में घूमना इन्हें विशेष रुप से पसन्द होता है. अपने घूमने के शौक के कारण ये धार्मिक स्थलों की यात्राएं भी करते है.

उत्तरा आषाढा नक्षत्र कैरियर | Uttara Ashadha Nakshtra Career

इस नक्षत्र के व्यक्तियों को शिल्पकला अर्थात उद्योग आदि से संबन्धित कलाओं में कार्य करना रुचिकर लग सकता है. इसी वजह से ये लोग वास्तुकार, मिस्त्री, नक्शा बनाने वाले. इंजिनियर अथवा भवन निर्माता बन सकते है. उत्तराषाढा नक्षत्र में जन्में व्यक्ति का वैवाहिक जीवन सुखमय रहता है. इनके अनेक मित्र होते है. तथा मित्रों का सहयोग भी इन्हें प्राप्त होता है. धर्म से जुडे अन्य व्यक्तियों की सेवा करना भी इन्हें पसन्द होता है. इसके अलावा ये दान-पुन्य के कार्यो में भी रुचि लेते है.

उत्तरा आषाढा नक्षत्र पहचान | Uttara Ashadha Nakshatra Recognition

आकाश में उत्तरा आषाढा नक्षत्र उतर-दक्षिण दिशा में अप्रैल माह में दिखाई देता है. इस नक्षत्र मंच के समान आकार का होता है.

नक्षत्रों में उत्तराषाढा नक्षत्र का स्थान | Uttara Ashadha Nakshatra Position among other Nakshatras

उत्तराषाढा नक्षत्र का स्वामी सूर्य ग्रह है. यह नक्षत्र गुरु की धनु राशि के अन्तर्गत आता है. इसलिए इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति सूर्य ग्रह और गुरु दोनों ग्रहों के विशेषताओं से प्रभावित रहते है. उत्तराषाढा नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति की कुण्डली में अगर मंगल और सूर्य दोनों शुभ स्थिति में बैठे हों तो व्यक्ति अच्छा प्रशासक बनने के साथ साथ उतम नेता भी होता है.

इस नक्षत्र का स्वामी सूर्य ग्रह है, तथा सूर्य व्यक्ति की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है. सूर्य और गुरु दोनों ही कुण्डली में बली स्थिति में हो तो व्यक्ति को उच्च प्रशासनिक सेवाओं में स्थान प्राप्त होता है. ऎसे व्यक्ति में अहंम की भावना हो सकती है. तथा ऎसा व्यक्ति जीवन में सख्त नियमों का पालन करने वाला हो सकता है. उसे अनुशासन पसन्द जीवन व्यतीत करना अच्छा लग सकता है.

व्यक्ति की कुण्डली में गुरु अथवा सूर्य अगर मंगल के साथ स्थित हों तो व्यक्ति राजनिति के क्षेत्र में जाकर कार्य करने का प्रयास करता है. ये दोनों ग्रह बुध के साथ हो तो व्यक्ति लेखक बन सकता है. उसमें उत्तम वक्ता बनने के गुण भी होते है. साथ ही ऎसा व्यक्ति अगर वकालत के क्षेत्र में जायें तो उसे नाम के साथ साथ धन की प्राप्ति भी होती है. परन्तु इन योगों में ध्यान देने योग्य बात यह है, कि कुण्डली में सूर्य और गुरु दोनों शुभ होने चाहिए.

उत्तराषाढा नक्षत्र शुभ मुहूर्त | Uttara Ashadha Nakshatra Subh Muhurat

उत्तराषाढा नक्षत्र समय में अगर कोई व्यक्ति अपनी विद्या प्रारम्भ करता है, अथवा शिक्षा क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए देवी सरस्वती का पूजन करता है, तो उसकी शिक्षा उत्तम रहने के योग बनते है.

अगर आपना जन्म नक्षत्र और अपनी जन्म कुण्डली जानना चाहते है, तो आप astrobix.com की कुण्डली वैदिक रिपोर्ट प्राप्त कर सकते है. इसमें जन्म लग्न, जन्म नक्षत्र, जन्म कुण्डली और ग्रह अंशो सहित है : आपकी कुण्डली: वैदिक रिपोर्ट

Posted in jyotish, nakshatra, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

विष्टि करण किसे कहते है और इसका जीवन पर प्रभाव

पंचांग का एक महत्वपूर्ण विषय है करण. पंचांग के पांच अंगों में करण भी विशिष्ट अंग होता है. करण कुल 11 हैं और प्रत्येक तिथि दो करणों से मिलकर बनी होती है. इस प्रकार कुल 11 करण होते हैं. इनमें से बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि करण ये करण चर करण कहलाते है, और अन्य शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न स्थिर या ध्रुव करण कहलाते हैं.

पंचांग में करण का प्रभाव और इसका विस्तार पूर्वक विवेचन करना भी अत्यंत आवश्यक होता है. कुछ करण शुभ होते हैं तो कुछ अशुभ होते हैं. किसी भी योग के निर्माण में इन को भी ध्यान में रखा जाता है. योग की शुभता और अशुभता का प्रभाव जातक पर और मुहूर्त पर सभी पर पड़ता है. एक शुभ करण शुभता को बढाता है तो एक अशुभ करण शुभता में कमी लाकर अशुभ प्रभाव देता है.

विष्टि करण

करणों में विष्टि करण को अच्छा करण नहीं माना जाता है. इसके प्रभाव में शुभता में कमी आती है. विष्टि को भद्रा के नाम से भी जाना गया है. अपने नाम के अनुरुप ही ये फल भी देता है. करण तिथि का आधा भाग होता है. ये चर और स्थित करण में विभाजित हैं. विष्टि 7वें स्थान में आने वाला करण है. विष्टि करण में शुभ कार्य को नहीं किया जाता है. शुभ काम इस समय पर टाल देने की सलाह दी जाती है. ज्योतिष के अनुसार भद्रा तीनों लोकों में विचरण करती है. जब यह मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी में होती है, तब सभी शुभ कार्यों में बाधा पहुंचाने वाली अथवा उनकी शुभता को अनिष्ट में बदल देने का काम कर सकती है.

मुहुर्त निर्माण में विष्टि करण का महत्व

जब किसी शुभ मुहुर्त को बनाने की प्रक्रिया शुरु होती है तो, इस क्रम में सभी शुभ बातों का ध्यान रखा जाता है. जैसे की शुभ तिथि का होना, शुभ समय का होना, शुभ नक्षत्र होना, शुभ वार का होना और शुभ करण का होना. इन सभी की शुभ स्थिति के परिणाम स्वरुप ही हम एक शुभ मुहूर्त का निर्माण कर पाते हैं. ऎसे में जब किसी शुभ समय के निर्माण में विष्टि करक आ रहा हो तो इसका त्याग करना ही बेहतर होता है.

विष्टि करण में कौन से काम निषेध होते हैं

विष्टि करण में शुभ मांगलिक कार्यों को नही किया जाता है. इस में विवाह संस्कार, गृह प्रवेश, नौकरी ज्वाइनिंग जैसे शुभ कामों को नही किया जाता है. गृह निर्माण आरंभ, कोई शुभ यात्रा, कोई नया काम आरंभ करना, किसी से मित्रता करना और जो भी कोई अच्छा मांगलिक काम करते समय विष्टि करण को त्यागने की ही बात होती है. इस समय पर किए हुए कामों में किसी न किसी कारण से व्यवधान पड़ जाते हैं.

विष्टि करण में किए जाने वाले कार्य

भद्रा समय में कठोर कर्म को अनुकूल कहा जाता है. इसमें अनिष्टकारी काम ही बेहतर माने जाते हैं. युद्ध जैसे काम, किसी पर प्रहार करने के काम, कैद में रखना या किसी को सताना, जहर देने का काम या किसी पर मुकदमा करना या चलाना अपने विरोधी को प्रताडि़त करना इत्यादि काम इसमें कर सकते हैं.

विष्टिकरण प्रभाव और काम

विष्टि करण में जन्म लेने वाला व्यक्ति गलत कार्यो में शीघ्र शामिल हो सकता है. अनुचित कार्य करने के कारण उसे कई बार मान-हानि का सामना भी करना पडता है. धन के प्रति अत्यधिक महत्वकांक्षी होने के कारण संभवत: वह व्यक्ति यह कार्य करता है.

इस करण में जन्म लेने के कारण वह विपरीतलिंग विषयों में अधिक रुचि ले सकता है. इसके कारण उसका स्वयं का वैवाहिक जीवन प्रभावित हो सकता है. दवाईयों का निर्माण और दवाईयों से जुडा व्यापार कार्य करने से व्यक्ति को आजिविका प्राप्त होने के योग बनते है. इस योग का व्यक्ति प्रयास करने पर चिकित्सा जगत में उतम धन और मान कमा सकता है. जिस तिथि में विष्टि करण चल रहा हो, वह तिथि भद्रा तिथि कहलाती है. विष्टिकरण भद्रा तिथि कहलाता है. भद्रा तिथि में शुभ कार्य करने वर्जित है.

विष्टि करण में जन्मा जातक

इस करण में जन्मा जातक, कुछ कठोर भाषी और निड़र होता है. स्वास्थ्य के लिहाज से उसे परेशानियां अधिक रह सकती हैं. ज्योतिषशास्त्र में विष्टि करण शुभ नहीं माना जाता है. इस करण में जन्मा जातक इस करण के अशुभ प्रभाव से प्रभावित अवश्य होता है. व्यक्ति अपने कामों में गलत बातों की ओर जल्द ही आकर्षित होता है. उसके काम के कारण दूसरे लोग आशंकित अधिक रहते हैं. व्यर्थ के विवाद में फंसना अपने स्वभाव के कारण दूसरों के साथ द्वेष मोल लेना जातक के व्यवहार में दिखाई देता है. लोगों के साथ बहुत अधिक घुलना-मिलना व्यक्ति को पसंद नहीं आता है.

जातक का आचरण भी प्रभावित रहता है. दूसरों की वस्तु को पाने के लिए ललायित रहता है. अपने विरोधी से बदलना लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है.

Posted in jyotish, muhurat, panchang, vedic astrology | Tagged , , , | Leave a comment

राशि बल | Rashi Bala

जैमिनी स्थिर दशा में सबसे पहले राशि बल का आंकलन किया जाता है. राशि बल को निकालने के लिए तीन प्रकार के बलों को निकाला जाता है. फिर उन तीनों का कुल जोड़ राशि बल कहलाता है. यह तीन बल हैं :- चर बल, स्थिर बल तथा दृष्टि बल. सबसे पहले चर बल की गणना की जाएगी. 

(1) चर बल | Char Bala

जैमिनी ज्योतिष में राशियों के बल को मुख्य आधार माना जाता है. प्रत्येक राशि का अपना विशेष स्वभाव होता है. जैसा कि आपने पिछले अध्यायों में पढा़ है कि बारह राशियों को तीन वर्गों में बाँटा गया है. चर राशि, स्थिर राशि तथा द्वि-स्वभाव राशि. मेष, कर्क,तुला तथा मकर राशि चर राशियाँ हैं. वृष, सिंह,वृश्चिक तथा कुम्भ राशियाँ स्थिर राशियाँ हैं. मिथुन,कन्या,धनु तथा मीन राशियाँ द्वि-स्वभाव राशियाँ हैं. चर बल में राशियों को अंक प्राप्त होते हैं. 

जैमिनी ज्योतिष में तीनों वर्गों की राशियों के लिए कुछ अंक निर्धारित किए गए हैं. वह निम्नलिखित हैं :- 

* चर राशियाँ को 20 षष्टियाँश अंक मिलेगें. 

* स्थिर राशियों को 40 षष्टियाँश अंक मिलेगें. 

* द्वि-स्वभाव राशियों को 60 षष्टियाँश अंक मिलेगें.  

उपरोक्त अंकों के आधार पर द्वि-स्वभाव राशियों को सबसे अधिक अंक मिलते हैं. इस प्रकार यह राशियाँ सबसे अधिक बली हो जाती हैं. 

(2) स्थिर बल | Sthir Bala

राशि बल निकालने की दूसरी कडी़ स्थिर बल है. इस बल को निकालने के लिए राशियों में बैठे ग्रह को देखा जाता है. जिस राशि में कोई ग्रह स्थित है तो उस राशि को 10 अंक प्रप्त हो जाएंगें. यदि किसी राशि में दो ग्रह बैठे हैं तब उस राशि को 20 अंक प्राप्त हो जाएंगें. जिस राशि में कोई ग्रह नहीं है उस राशि को शून्य अंक प्राप्त होगा. जैसे चर दशा के पाठ दो की उदाहरण कुण्डली में कुम्भ राशि में पाँच ग्रह हैं तो कुम्भ राशि को 50 अंक प्राप्त होगें और जिन राशियों में कोई ग्रह नहीं है उन राशियों को शून्य अंक मिलेगें. 

(3) दृष्टि बल | Dristhi Bala

राशि बल में का अंतिम बल दृष्टि बल कहलाता है. आपने देखा कि अभी तक राशियों के आधार पर बल प्राप्त हो रहा था लेकिन दृष्टि बल में ग्रहों की दृष्टियों के आधार पर बल की गणना की जाती है. जैमिनी पद्धति से फलित करते समय एक बात का विशेष ध्यान रखें कि जैमिनी में राशियों की दृष्टि लेनी है. दृष्टि बल में जो राशि अपने स्वामी से दृष्ट होती है उसे 60 अंक मिलते हैं अथवा राशि स्वामी अपनी ही राशि में स्थित है तब भी उस राशि को 60 अंक मिलते हैं. चर दशा के पाठ दो में चन्द्रमा वृश्चिक राशि में स्थित है और वृश्चिक राशि की दृष्टि कर्क राशि पर पड़ रही है. कर्क राशि अपने स्वामी ग्रह चन्द्रमा से दृष्ट भी हो गई है. इसलिए कुण्डली में कर्क राशि को 60 अंक प्राप्त होगें. 

दृष्टि बल में ग्रहों की दृष्टि के अनुसार तथा ग्रहों की अपनी ही राशि में स्थिति के अनुसार अंक प्राप्त होते हैं. इसके अतिरिक्त जिन राशियों में बुध और गुरु ग्रह बैठे हैं उन राशियों को भी 60 अतिरिक्त अंक मिलते हैं. जिन राशियों पर बुध तथा गुरु ग्रह की दृष्टि पड़ती है उन राशियों को भी 60 अंक और मिलते हैं. 

उपरोक्त नियम को एक बार संक्षेप में फिर से समझते हैं. दृष्टि बल में जो ग्रह अपनी राशि में स्थित होता है अथवा जिस राशि का स्वामी अपनी राशि को देखता है उस राशि को 60 अंक प्राप्त होते हैं. इसके अतिरिक्त बुध तथा गुरु जिस राशि में स्थित होते हैं उन राशियों को 60-60 अंक मिलते हैं. बुध तथा गुरु जिन राशियों को देखते हैं उन राशियों को भी 60-60 अतिरिक्त अंक मिलते हैं. 

माना किसी कुण्डली में बुध मेष राशि में स्थित है और गुरु कन्या राशि में स्थित है. बुध मेष राशि में स्थित होकर अपनी  निकटवर्ती राशि वृष को दृष्टि नहीं देगा. बाकी अन्य तीन स्थिर राशियों सिंह, वृश्चिक तथा कुम्भ पर दृष्टि डालेगा. इस प्रकार इन तीनों स्थिर राशियों को भी 60 अंक मिलेगें. बुध मेष में स्थित है तो मेष राशि को भी 60 अंक मिलेगें. यही नियम गुरु ग्रह के लिए भी लागू होगा. माना गुरु ग्रह कन्या राशि में स्थित है तो कन्या राशि को तो 60 अंक मिलेगें ही साथ ही कन्या राशि की दृष्टि अन्य तीनों द्वि-स्वभाव राशियों(मिथुन,धनु तथा मीन राशि) पर होने से तीनों को 60-60 अतिरिक्त अंक प्राप्त होगें. 

चर बल, स्थिर बल तथा दृष्टि बल का कुल योग करेगें. 

फ्री कुंडली मिलान के लिए आप हमारी वेबसाइट पर जा सकते हैं, हमारी वेबसाइट का लिंक है : कुंडली मिलान

Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

देव गण में जन्मा जातक होता है भाग्यशाली

विवाह करने से पूर्व वर-वधू की कुण्डलियों का मिलान करते समय आठ प्रकार के मिलान किये जाते है. इस मिलान को अष्टकूट मिलान के नाम से जाना जाता है. इन्हीं अष्टकूट मिलान में से एक गण मिलान है. इस मिलान में वर वधु के व्यवहार और उनके जीवन जीने के नजरिये को समझा जाता है. ये मिलान बताता है की दो लोग किस प्रकार मेल जोले से अपना जीवन यापन कर सकेंगे या नही. दोनों के मध्य कैसा संबंध बनेगा इस गण मिलान से पता चलाया जा सकता है.

गण मिलान में नक्षत्रों का विचार होता है. इस मिलान में लड़के और लड़की के नक्षत्र गणना द्वारा ये मिलान संभव हो पाता है. गण मिलान करते समय सभी व्यक्तियों को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है. जिसमें देव, मनुष्य और राक्षस है. देव गण से अभिप्राय सत्वगुण संपन्न व्यक्ति से है. मनुष्य गण राजसिक प्रकृति के अन्तर्गत आते है. राक्षस गण तामसिक प्रकृति के व्यक्ति है. तीनों श्रेणियों में गणों का वर्गीकरणी वर-वधू के जन्म नक्षत्र के आधार पर किया जाता है. इस मिलान को कुल 6 अंक दिए जाते है.

देव गण नक्षत्र

जिन व्यक्तियों का जन्म अश्चिनी, मृगशिरा, रेवती, हस्त, पुष्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण, स्वाती नक्षत्र में हुआ हो, उस व्यक्ति को देवगण की श्रेणी में आता है. ये सभी नक्षत्र मृदु नक्षत्र, लघु नक्षत्र और चर नक्षत्र होते हैं. इन नक्षत्रों की सौम्यता और शुभता ही इन्हें देव गण का स्थान देती है.

देव गण नक्षत्र एक प्रकार के सकारात्मक स्थिति को दर्शाते हैं ये स्थिति को बेहतर और रचनात्मक रुप से दूसरों के समक्ष ला सकते हैं पर बहुत अधिक बदलाव की इच्छा नही रह पाती है. एक प्रकार से सीधे मार्ग का चुनाव यही देव गण हमें प्रदान करता है.

देव गण में मौजूद नक्षत्रों में किए जाने वाले काम

इन नक्षत्रों में जातक के कार्यों में एक प्रकार की गतिशीलता का प्रभाव रहता है. इन नक्षत्रों में किए गए काम भी समान्य रुप से चलते रहते हैं. देव गण के नक्षत्रों में व्यक्ति मैत्री भाव निभाने की योग्यता रखता है. इस नक्षत्र के प्रभाव से अनुकूलता से भरा वातावरण भी मिलना आसान होता है.

इन देव नक्षत्र में व्यक्ति अपने कार्य को आगे ले जाने के लिए बहुत ही सक्षम होता है. किसी भी काम काज को करने में एक सकारात्मक रवैया अपना सकता है. मेल जोल की संभावना इन में दिखाई देती है. इस नक्षत्र में औषधि बनाए जाने पर उस औषधि का प्रभाव भी बेहद लाभ दायक बन जाता है.

इस नक्षत्र में की जाने वाली देव पूजा भी कई गुना फल देने में सक्षम होती है. इस समय पर किए गए उपायों का भी प्रभावशालि रुप से असर देने में सक्षम होता है.

देव गण नक्षत्र में जन्मा जातक

किसी जातक का जन्म यदि देव गण नक्षत्र में हुआ हो तो जातक इस गण के प्रभाव से शुभता और सौम्यता को पाता है. इस गण के प्रभाव से जातक ज्ञान प्राप्ति करने के लिए लगातार प्रयास भी करना चाहता है. व्यक्ति अपने अनुभवों को दूसरों के साथ बाम्टने वाला भी होता है. काम काज में लोगों के साथ ताल मेल बिठाने अपनी योजनाओं में कामयाब भी रहता है. खेलना और मनोरंजन के कामों में अधिक रुचि ले सकता है. चित्रकारी, शिल्पकारी,आदि कार्य करना लाभकारी होता है

इसमें चर नक्षत्रों के काम भी किये जा सकते है. इन नक्षत्रों में जन्मा जातक स्वतंत्र विचारों वाला लेकिन नियमों पर चलने वाला होता है. काम काज में व्यक्ति का नजरिया काफी प्रभावशाली होता है. कई मामलों पर दूसरों पर निर्भर भी हो सकता है. कई बार व्यक्ति अपनी सोच के साथ जब चल नहीं पाता है तो दूसरों के अनुरुप खुद को ढालने की भी कोशिश करता है.

देवगण नक्षत्र फल

देवगण नक्षत्र में के फलों में एक सकारात्मकता का भाव अधिक होता है. इस गण के प्रभाव में जन्म लेने वाला व्यक्ति सुंदर, दानी, बुद्धिमान, सरल स्वभाव, अल्पहारी और महान विद्वान होता है. जब देव गण नक्षत्र के जातक को अपने ही समान गण के साथी की प्राप्ति होती है तो दोनों के मध्य के बेहतर गठजोड़ होने की संभावना बनती है. अपने रिश्ते में दोनों ही पक्ष कोशिश करेंगे की किसी प्रकार से शांत भाव से समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करेंगे. एक दूसरे के साथ समान गण के होने पर वैचारिक मतभेदों की संभावना में भी कमी आती है.

गण मिलान कैसे करें

गण मिलान करते समय वर-वधू का एक समान गण होना सर्वोत्तम शुभ माना जाता है. एक समान गण होने पर पति-पत्नी दोनों में स्नेह और समन्वय बना रहता है. अगर किसी व्यक्ति का गणकूट देव-गण है, तो उसका विवाह देव-गण की कन्या या वर के साथ किया जा सकता है.

इसके अलावा देव-गण वर- या वधू का विवाह मनुष्य गण वर-या वधू के साथ भी किया जा सकता है. यह मिलान सामान्य मिलान की श्रेणी में रखा जाता है. कुन्डली मिलान में इस पर भी वर वधु का सामान्य गण मिलान हो जाता है.

इसके बाद भी एक मिलान होता है, जो देवगण और राक्षस गण वर या वधू का हो सकता है. इस प्रकार का मिलान होने पर इस मिलान को कोई अंक नहीं दिया जाता है. इस स्थिति में गण दोष माना जाता है. यह स्थिति शून्य देती है जिसमें किसी भी प्रकार की शुभता नही आ पाती है. इस स्थिति का त्याग करना ही उचित होता है.

गण दोष उपाय क्या है

किसी भी प्रकार में गण दोष का परिहार भी दिया गया है. अगर लड़के और लड़की की कुण्डली में राशि के स्वामियों में मित्रता हो तो इस दोष का परिहार हो जाता है. अगर कुण्डली में नाडी़ दोष नहीं है तो ऎसे में भी गण दोष का परिहार मान्य होता है.

गण दोष के प्रभाव से बचाव के लिए स्त्रियां भगवान शंकर और माता पार्वती की उपासना करें. इसके अतिरिक्त नीचे दिए गए म्म्त्र जाप भी इस दोष की शांति में बहुत सहायक बनते हैं –

“हे गौरि! शंक्डरार्धाड्रि यथा त्वं शंकरप्रिया।
तथा मां कुरू कल्याणि! कान्त कान्तां सुदुर्लभाम्।।”

पुरुष जातक के लिए निम्न मंत्र का जाप करना उत्तम होता है. दिए गए मंत्र का जाप 45 दिन तक लगातार करने से सुखी दांपत्य जीवन की प्राप्ति होती है –

“पत्नीं मनोरमां देहि मनो वृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसार सागस्य कुलोद् भवाम “

Posted in jyotish, nakshatra, planets, vedic astrology | Tagged , , , , , , , | Leave a comment

कुण्डली में अगर बने हल-श्रंगाटक(श्रृंगाटक)-वापी योग तो बन सकते हैं धनवान

ज्योतिष में नभस योग का बहुत महत्व रहा है. इन योगों के सहयोग द्वारा जातक के जीवन में होने वाली घटनाओं ओर भाग्य का निर्धारण में भी बहुत अधिक सहायक बनते हैं. नभस योग कुण्डली में बनने वाले अन्य योगों से अलग होते हैं. यह माना जाता है, कि नभस योगों की संख्या कुल 3600 है. जिनमें से 1800 योगों को सिद्धान्तों के आधार पर 32 योगों में वर्गीकृत किया गया है. इन योगों को किसी ग्रह के स्वामीत्व या उसकी दशा अवधि के आधार पर नहीं देखा जाता है. इन योगों से मिलना वाला फल स्वतन्त्र रुप से देखा जाता है.

नभस योगों में शुभ और अशुभ दोनों ही तरह के योग आते हैं. यह योग जातक की कुण्डली और उसके भाग्य में होने वाली संभावनाओं को दर्शाते हैं जैसे की जातक अपने जीवन में किस प्रकार आगे बढ़ सकता है, उसे अपने संघर्ष से किस प्रकार सफलता मिल सकती है, इसके साथ ही आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक रुप से जातक कैसी स्थितियां झेल सकता है.

हल योग क्या होता है

हल योग होने पर व्यक्ति की कुण्डली में सभी ग्रह कुण्डली में लग्न से धन भाव और एक दूसरे से धन भावों में स्थित होते है. हल के आकार के रुप में यह जन्म कुण्डली में बनता है. यह योग नभस योगों में से है, अत: इसका नाम ग्रहों की स्थिति के अनुसार बनने वाली आकृति के अनुसार इस योग का नाम रखा गया है. हल योग का प्रभाव जातक को मेहनती बनाता है.

हल योग कैसे बनता है

जब त्रिकोण की आकृति में स्थित हों, अर्थात लग्न से 2, 6, 10 भाव अथवा 3, 7, 11 अथवा 4, 8, 12 भावों में हो, तो हल योग बनता है. अपने नाम के अनुरुप ही हल योग के प्रभाव से व्यक्ति को प्रोपर्टी से लाभ मिल सकता है. इस योग से युक्त व्यक्ति भूमि और भूमि से जुडे क्षेत्रों से आय प्राप्त करने में सफल रहता है. इसके साथ ही उसे कृषि क्षेत्रों से लाभ प्राप्त होते है.

इस योग वाले व्यक्ति को खनन के कार्यों से आजीविका की प्राप्ति हो सकती है. वह शारीरिक परिश्रम के कार्य करने में कुशल होता है. इस योग वाला व्यक्ति भूमि से जुडे कार्यो को कुशलता से कर सकता है. इसलिए ऎसे व्यक्तियों को भूमि के क्रय-विक्रय से संबन्धित कार्य करना लाभकारी रहता है.

इस योग में जातक मेहनती होता है. वह अपने प्रयास द्वारा जीवन की कठिनाईयों को दूर करने के लिए हमेशा प्रयत्नशील भी रहता है. जातक को अपने कार्यक्षेत्र में अपनी मेहनत से ही आगे बढ़ता है. वह अच्छा मित्र हो सकता है.

श्रंगाटक योग

श्रंगाटक योग कुण्डली के त्रिकोण भावों के सहयोग से बनने वाला योग है. ज्योतिष शास्त्र में त्रिकोण भावों को कुण्डली के सबसे शुभ भाव कहा गया है. इन भावों में अधिक से अधिक शुभ ग्रह होना, व्यक्ति के जीवन की घटनाओं में शुभता लाते है. इस योग का नाम श्रंगाटक योग इसलिए रखा गया है, क्योंकि जब ग्रह तीनों त्रिकोण भावों में होते है, तो वे कुण्डली के गले में पडे हार का आभास देते है. इन भावों से कुण्डली के सौन्दर्य में वृद्धि होती है.

इस योग के प्रभाव से जातक को अपने जीवन के बहुत से क्षेत्रों में सफलता पाने के अच्छे मौके मिलते हैं. काम के क्षेत्र में यात्राओं के भी मौके मिलते हैं. जातक देश-विदेश की यात्राओं पर जाने का मौका भी पाता है. व्यक्ति को कई उच्च वरिष्ठ लोगों के साथ मेल जोले के अवसर मिलते हैं.

इस योग के प्रभाव से व्यक्ति कला के क्षेत्र में भी नाम कमाने की योग्यता रखता है. जातक के लिए रचनात्मक क्षेत्र से जुड़ा हुआ काम भी सफलता दिलाने में सहायक बनता है. परिवार की ओर से सहयोग और सुख की प्राप्ति भी होती है और मित्रों का साथ भी मिलता है.

श्रंगाटक योग कैसे बनता है

जब कुण्डली में सभी ग्रह लग्न, पंचम व नवम भाव में हो तो यह योग बनता है. यह योग व्यक्ति को सरकारी क्षेत्रों से आय प्राप्त करता है. इस योग से युक्त व्यक्ति को सेना में कार्य करने के अवसर प्राप्त होता है. उस व्यक्ति में साहस और वीरता सामान्य से अधिक पाई जाती है. यह योग शुभ स्थानों में बनने के कारण ही इतना शुभ प्रभाव देने में सक्षम होता है. कुछ मामलों में यह योग में शुभता की कमी ग्रहों के बल से दिखाई देता है.

वापी योग – नभस योग

वापी योग में केन्द्र भाव ग्रहों से रिक्त होते है. केन्द्रों में किसी ग्रह के न होने के कारण व्यक्ति आन्तरिक रुप से कमजोर होता है. जीवन के उतार-चढाव की स्थिति उसे शीघ्र प्रभावित करती है. ऎसे व्यक्ति में संघर्ष करने की क्षमता कम ही पाई जाती है.

यह योग शुभता में कमी को दर्शाता है. केन्द्र स्थानों का खाली होना एक प्रकार की सकारात्मकता में कमी को देने वाला होता है. इस योग के प्रभाव से जातक को जीवन में संघर्ष अधिक करना पड़ सकता है. काम के क्षेत्र में लगातार किए जाने वाले प्र्यास ही सफलता दिला सकते हैं. रोग और शत्रुओं का प्रभाव भी जीवन में बहुत अधिक असर डालने वाला होता है.

वापी योग कैसे बनता है

जब कुण्डली में सभी ग्रह केन्द्र स्थानों के अलावा अन्य स्थानों अथवा पणफर 2, 5, 8, 11 और अपोक्लिम भावों 3, 6, 9, 12 भावों में हो तो वापी योग बनता है. वापी योग व्यक्ति को कला प्रिय बनाता है, व्यक्ति को धन संचय में रुचि होती है. तथा ऎसा व्यक्ति सदैव धन प्राप्ति के प्रयास के लिए तत्पर रहता है. इस योग से युक्त व्यक्ति अपने क्षेत्र में उच्च पद पर आसीन होता है. व्यक्ति को सभी सुख- सुविधाएं प्राप्त होने के योग बनते है.

इस योग से बंधन की स्थिति भी दिखाई देती है. परिवार की ओर से संघर्ष भी मिलता है, समय पर किसी का साथ नहीं मिल पाता है. परिवार की जिम्मेदारी भी जातक पर होती है. जीवन में अचानक से होने वाली घटनाओं का प्रभाव भी बहुत अधिक होता है. व्यक्ति कई बार अपनी शिक्षा या अपने आर्थिक क्षेत्र में व्यवधान के कारण आगे नहीं बढ़ पाता है. पैतृक संपत्ति का सुख भी नही मिल पाता है.

Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , , | Leave a comment

स्वाधिष्ठान चक्र | Second Chakra । Sacral Chakr । Swadhisthana Chakra | Second Chakra Location | Chakra

स्वाधिष्ठान, चक्र जननेन्द्रियों या अधिष्ठान त्रिकास्थि में स्थित होता है. स्वाधिष्ठान को द्वितीय चक्र स्वाधिष्टान, सकराल, यौन, द्वितीय चक्र नामों से भी संबोधित किया जाता है. यह मूलाधार के पश्चात द्वितीय स्थान पाता है जिस कारण इसे द्वितीय (दूसरा) चक्र कहा जाता है. इसके जाग्रत होने पर आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास, अहंकार इत्यादि दुर्गणों का नाश होता है.

सहज ज्ञान – स्वाधिष्ठान चक्र | Swadhisthana Chakra

स्वाधिष्ठान या दूसरा चक्र, उपस्थ में स्थित होता है. यह चक्र छ: पंखुड़ियों वाला कमल होता है तथा यह कमल छ: नाड़ियों का मिलन स्थान भी है. इस स्थान पर छ ध्वनियां- वं, भं, मं, यं, रं, लं प्रवाहित होती रहती हैं.  इस चक्र का प्रभाव प्रजनन से संबंधित है. (sematext.com) स्वाधिष्ठान चक्र का तत्व जल है और यदि इस तत्व में मूलाधार का पृथ्वी तत्व विलीन हो तो कुटुम्ब बनाने तथा संबंधों कि कल्पना की उत्पत्ति आरंभ होने लगती है. 

स्वाधिष्ठान चक्र के कारण चित में नवीन भावनाओं उदय होने लगता है और यह चक्र भी अपान वायु के अधीन होता है तथा इसका सम्बंध चन्द्रमा से होता है. इस अधिष्ठान चक्र स्थान से ही प्रजनन संबंधी क्रियाएं सम्पन्न होती हैं. मनुष्य के शरीर अधिकतर भाग जल से निर्मित है अत: चित मनुष्य की भावनाओं के वेग को प्रभावित करता है. स्त्रियों में मासिकधर्म आदि चन्द्रमा से संबंधित है तथा इन कार्यो का नियंत्रण स्वाधिष्ठान चक्र द्वारा संभव होता है यह समस्त क्रियाएं स्वाधिष्ठान चक्र के द्वारा ही पूर्ण होती हैं. 

द्वितीय चक्र व्यक्ति के आंतरिक और बाहरी संसार में समानता स्थापित करने की कोशिश करता है तथा मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास होता है. हमारी प्रत्येक प्रकार की भावनाएँ इस चक्र से जुड़ीं हुई होती हैं, स्वाधिष्ठान चक्र किडनी, लीवर का नियंत्रण करना, मस्तिष्क को सोचने के शक्ति देना जैसे कार्य करता है. स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान लगाने से हृदय शांत होता है तथा धारणा व ध्यान की शक्ति प्राप्त होती है और आत्म ज्ञान का अनुभव प्राप्त होता है. 

स्वाधिष्ठान को मूत्र तंत्र और अधिवृक्क से संबंधित भी माना है. इस चक्र का प्रतीक छह पंखुड़ियों वाला नारंगी रंग का एक कमल है. स्वाधिष्ठान का कार्य – संबंध, हिंसा, भावनात्मक आवश्यकताएं, व्यसन लत और सुख है. शारीरिक रूप से स्वाधिष्ठान- प्रजनन, मा‍नसिक रचनात्मकता, खुशी और उत्सुकता को नियंत्रित करता है.

दूसरे चक्र संबंधी समस्याएं । Second Chakra Imbalance

शारीरिक समस्याएँ | Physical Problems

स्वाधिष्ठान चक्र के निर्बल एवं खराब होने पर अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है जैसे खून की कमी, शुष्क त्वचा, सोने पर बिस्तर गीला कर देना, खून में अस्थिरता, शरीर से दुर्गंध आना, खसरा, मधुमेह, किडनी और लीवर से सम्बंधित रोग, हर्निया, दाद या खाज, नपुंसकता, कामुक्ता की कमी, गुर्दे की समस्याएं, मासिक धर्म से संबंधित समस्याएँ, गर्भाशय मे समस्याएँ, पैरों में सुजन, पेशाब ग्रन्थि कि सम्स्याएँ, योनि मे विकार, शीघ्रपतन इत्यादि परेशानियों को देखा जा सकता है. 

मानसिक समस्याएँ | Emotional Problems

इसी प्रकार इस चक्र के कमजोर होने पर मानसिक एवं भावनात्मक परेशानियां भी उत्पन्न हो जाती हैं, जैसे कि शराब की लत लगना, अकेलापन, भावनात्मक कष्ट तथा अस्थिरता का भाव जागृत होना, भय, लालसा, विश्वास जैसी भावना का समाप्त होना, सृजनता कि कमी, आलस्य, निष्क्रिय होना, कामुक्ता की कमी, अकेलापन जैसे भाव बली होने लगते हैं.

रत्न तथा क्रिस्टल । Second Chakra Stones and Crystal

स्वाधिष्टान को मजबूत बनाने के लिए तथा इससे संबंधित समस्याओं से मुक्त होने के लिए कुछ रत्नों को धारण किया जा सकता है जैसे – हीरा, मोती, मून स्टोन, जैस्पर इत्यादि.

सुगन्ध | Second Chakra Aromatherapy

स्वादिष्ठान चक्र से संबंधित सुगंधें इस प्रकार हैं – रोज़मेरी, गुलाब, शहद, रात की रानी की खुश्बू है. इनका  इस्तेमाल करना फ़ायदेमंद होता है . 

स्वाधिष्ठान यौन इंन्द्रियों मे स्थापित होता है. 

स्वाधिष्टान का तत्व  – जल है. 

स्वाधिष्ठान का रंग – नारंगी है. 

स्वाधिष्ठान राग – तोडी और यमन हैं 

स्वाधिष्ठान चक्र मंत्र –  वम् है 

स्वाधिष्ठान चक्र बीजक्षार –  बं, भ, मं, यं, रं, लं हैं. 

स्वाधिष्ठान के गुण – निर्मल विद्या एवं निर्मल इच्छा चित्त हैं 

शरीर में स्थान – मूलाधार के ऊपर और नाभि के निचे,किडनी, यकृत में है. 

द्वितीय चक्र महत्व । Second Chakra Significance

स्वाधिष्ठान चक्र का स्वामी बृहस्पति है तथा धनु व मीन राशि होती हैं बृहस्पति संतान कारक ग्रह होता है इसलिए संतान की उत्पत्ति में इस चक्र की अहम भूमिका रहती है. यदि मनुष्य में बृहस्पति या धनु−मीन राशि पीड़ित हों तो इस चक्र संबंधी समस्या उत्पन्न हो सकती हैं तथा संतान संबंधी कष्ट या बृहस्पति, धनु, मीन राशि जिस भाव से संबंध बनाती हैं उस भाव संबंधी अंग में रोग भी हो सकता है. 

इस चक्र का रक्त वर्ण है, इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी शाकिनी हैं, छह – ब, भ,म, य, र, ल वर्ण दल हैं. इस चक्र के स्वामी देवता विष्णु भगवान हैं अत: इसके निर्बल होने पर विष्णु भगवान का मनन एवं विष्णु सहस्र नाम का पाठ करना लाभकारी होता है तथा संतान प्राप्त हेतु गोपाल सहस्त्र नाम का पाठ किया जा सकता है. स्वाधिष्ठान चक्र जल के अंतर्गत आता है. 

इसके छ कमल दलों पर काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अंहकार छ विकसित भाव वाली शिक्तयां वास करती हैं, यह  जीवन को प्रभावित करते हैं और व्यक्ति को हिंसक, क्रूर, कामी भाव में धकेलते हैं. इन विकारों के शमन से मोक्ष एवं मुक्ति प्राप्त होती है अत: साधक  को नियमित रूप से प्राण शोधन क्रिया एवं बीज मंत्र से स्वाधिष्ठान की साधना करनी चाहिए ऐसा करने से मन निर्मल होकर सार्वभौमिक सत्ता की ओर अग्रसर होता है और यहीं से समत्व के भाव की प्राप्ति होती है और वाणी मधुर बनती है. 

अपने शुभ रत्नों के बारे में जानने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें Gemstones
Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

जानिए, दशमी तिथि का महत्व और इसमें किए जाने वाले कार्य

सूर्य अपने अंशों से जब 12 अंश आगे जाता है, तो एक तिथि का निर्माण होता है. इसके अतिरिक्त सूर्य से चन्द्र जब 109 अंशों से लेकर 120 अंश के मध्य होता है. उस समय चन्द्र मास अनुसार शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि चल रही है. इसी प्रकार 289 अंश से लेकर 300 अंश तक कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि होती है. दशमी तिथि पूर्णा तिथियों में से एक है. पूर्णा तिथि में किए गए सभी कार्य पूर्ण होते है.

दशमी तिथि वार योग

दशमी तिथि जब शनिवार के दिन होती है, तो अमृत तिथि योग बनता है. तथा यहीं तिथि गुरुवार के दिन पडने पर सिद्धिदा योग बनता है. अमृत सिद्ध योग अपने नाम के अनुसार शुभ फल देता है. सिद्धि योग में किए गये सभी कार्य सिद्ध होते है.

यह माना जाता है, कि दशमी तिथि के दिन यमराज की पूजा करने पर व्यक्ति को आरोग्य और दीर्घायु प्राप्त होती है. दशमी तिथि. जातक को अकाल मृत्य के भय से भी मुक्ति दिलाने वाली होती है. दशमी की दिशा उत्तर बताई गयी है. इसके साथ ही इस दिन इस दिशा की यात्रा करना भी अनुकूल होता है. इस तिथि के दिन यम देव के निमित्त दीपदान के बारे में भी बताया गया है.

दशमी तिथि में किए जाने वाले कार्य

दशमी तिथि एक शुभ तिथि है इस कारण कार्यों में शुभता की इच्छा रखने वालों के लिए इस तिथि के दिन अपने इच्छित काम करने पर शुभ फल प्राप्त होते हैं. इस तिथि के दिन किसी नई किताब का या ग्रंथ का विमोचन करना शुभ होता है, किसी भी प्रकार की पद प्राप्ति के लिए शपथ ग्रहण करने का कार्यक्रम इस समय पर करना उत्तम होता है. किसी भी नए काम का उदघाटन या आरंभ इत्यादि के काम इस तिथि के दिन करना अच्छे माने जाते हैं. वाहन वस्त्र इत्यादि नई वस्तुओं की खरीद भी इस तिथि के दिन की जा सकती है.

दशमी तिथि व्यक्ति विशेषताएं

दशमी तिथि में जन्म लेने वाला व्यक्ति धर्म – अधर्म का ज्ञानी होता है. क्या करना धर्म नीति के अनुसार है, और करना धर्म के विरुद्ध है, वह बेहतर जानता है. उसमें देशभक्ति का गुण भी पाया जाता है तथा उस व्यक्ति का धर्म गतिविधियों में अधिकतर समय व्यतीत होता है. इस व्यक्ति में तेज होता है. और वह सुखी भी होता है.

सूर्य से चन्द्र का अन्तर जब 109° से 120° तक होता है, तब शुक्ल पक्ष की दशमी और 289° से 300° तक कृष्ण दशमी रहती है. दशमी तिथि में जन्मे जातक में जोश और उत्साह रहता है. वह अपने और दूसरों सभी के बारे में सोच विचार रखता है. काम को करने वाला थोड़ा हठी हो सकता है लेकिन उदार भी होता है.

परिवार और मित्रों का साथ पसंद करने वाला. आर्थिक रुप से संपन्न होते हैं, दुसरों की भलाई के कारण अपने धन को दूसरों पर व्यय करने के लिए तैयार रहते हैं. जातक प्रतिभावान होता है. यदि इनकी प्रतिभा को पहचान लिया जाए तो एक बहुत बेहतर उदारहण के तौर पर जाने जा सकते हैं. इनका आध्यात्मिक पक्ष भी मजबूत होता है. दया भावना वाले और धर्मकार्य करने के प्रति भी जागरुक होते हैं. परिवार की भलाई करने वाले और अपनी ओर से घर को बिखरने नही देना चाहते हैं.

दशमी में जन्मे जातक की प्रतिभा में कलात्मकता का भी अच्छा भाव होता है. रंगमंच एवं इसके अतिरिक्त किसी न किसी प्रकार की कला के प्रति भी ये जागरुक होते हैं.

दशमी तिथि का धार्मिक स्वरुप

इस ‘पूर्णा’ संज्ञक तिथि के स्वामी यम हैं, जिसका विशेष नाम ‘धर्मिणी’ है. दशमी तिथि पंचांग में एक बहुत ही महत्वपूर्ण तिथि है. इस तिथि की शुभता को हम बहुत से त्यौहारों में भी देख सकते हैं जैसे दशहरा जिसे विजयदशमी के रुप में मनाया जाता है, गंगा दशहरा इत्यादि त्यौहार दशमी को ही संपन्न होते हैं.

दशमी तिथि त्योहारों एवं लोगों की आस्था के साथ बहुत गहराई के साथ जुड़ी हुई है. इस तिथि का संबंध यमराज से होने के कारण कठोर भी है तो कहीं शुभ भी है.

दशमी तिथि का महत्व एकादशी व्रत में भी होता है. एकादशी के व्रत का आरंभ दशमी के दिन से शुरु होने वाले नियमों के साथ आता है. दशमी तिथि को कुछ नियमों का पालन करने की आवश्यकता होती है. एकादशी रखने वालों को दशमी तिथि के दिन से ही गरिष्ठ भोजन या कहें तामसिक भोजन का त्याग कर देना चाहिए. इस दिन मांस, प्याज, मसूर की दाल आदि का सेवन नहीं करना चाहिए. दशमी की रात के समय जातक को सात्विक और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्रभु भक्ति में ही लीन रहना चाहिए. किसी भी प्रकार के भौतिक सुख से दूर रहना चाहिए.

गंगा दशहरा

ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को गंगा दशहरा मनाया जाता है. दशमी तिथि के दिन ही माँ गंगा का धरती पर आई हैं. गंगा नदी के अवतरण के दिन को ही गंगा दशहरा के नाम से मनाया जाता है. इस दिन गंगा नदी में स्नान दान और पूजा पाठ का विशेष महत्व रहा है.

दशहरा पर्व

दशमी तिथि को दशहरा का त्यौहार भी बनाया जाता है. इसे विजयादशमी भी कहा जाता है. दशहरा संपूर्ण भारत में उत्साह और जोश के साथ मनाया जाता है. दशमी का यह पर्व आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है. यह अधर्म को समाप्त करके धर्म की स्थापना का प्रतीक है. दशहरा का यह पर्व आश्विनी नवरात्रि के पश्चात दसवें दिन मनाया जाता है. यह तिथि एक अबूझ मुहूर्त के रुप में भी जानी जाती है. जिसमें नए व्यापार या काम की शुरुआत शुभ होती है इसके साथ ही इस दिन वाहन, सोना, चांदी, आभूषण नए कपड़े इत्यादि खरीदना शुभ माना जाता है.

विशेष: अपने नाम के अनुरुप ही ये तिथि फल भी देती है. इच्छाओं और कार्यों को पूर्ण करने में इस तिथि का महत्वपूर्ण योगदान रहता है.

Posted in hindu calendar, jyotish, panchang, vedic astrology | Tagged , , , , | Leave a comment

बृहस्पतिवार व्रत कथा | Guruvar Vrat Katha in Hindi | Thursday Fast Story in Hindi – Brihaspati Deva Katha

बृहस्पतिवार (गुरुवार व्रत) कथा | Thursday Story

प्राचीन समय की बात है– एक बड़ा प्रतापी तथा दानी राजा था, वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पून करता था. यह उसकी रानी को अच्छा न लगता. न वह व्रत करती और न ही किसी को एक पैसा दान में देती. राजा को भी ऐसा करने से मना किया करती. एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले गए. 

घर पर रानी और दासी थी. उस समय गुरु वृहस्पति साधु का रुप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए. साधु ने रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज. मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ. आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे यह सारा धन नष्ट हो जाये और मैं आराम से रह सकूं. 

साधु रुपी वृहस्पति देव ने कहा, हे देवी. तुम बड़ी विचित्र हो. संतान और धन से भी कोई दुखी होता है, अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें. परन्तु साधु की इन बातों से रानी खुश नहीं हुई. उसने कहा, मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं, जिसे मैं दान दूं तथा जिसको संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये.

साधु ने कहा, यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना. वृहस्पतिवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहाँ धुलने डालना. इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जायेगा. इतना कहकर साधु बने वृहस्पतिदेव अंतर्धान हो गये.

साधु के कहे अनुसार करते हुए रानी को केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई. भोजन के लिये परिवार तरसने लगा. एक दिन राजा रानी से बोला, हे रानी. तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहां पर मुझे सभी जानते है. इसलिये मैं कोई छोटा कार्य नही कर सकता. ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया. वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता. इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा.

इधर, राजा के बिना रानी और दासी दुखी रहने लगीं. एक समय जब रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा, हे दासी. पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है. वह बड़ी धनवान है तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जाए.  

दासी रानी की बहन के पास गई. उस दिन वृहस्पतिवार था. रानी का बहन उस समय वृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी. दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया. जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई. उसे क्रोध भी आया. दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी. सुनकर, रानी ने अपने भाग्य को कोसा.

उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी. कथा सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर गई और कहने लगी, हे बहन. मैं वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी. तुम्हारी दासी गई परन्तु जब तक कथा होती है, तब तक न उठते है और न बोलते है, इसीलिये मैं नहीं बोली. कहो, दासी क्यों गई थी.

रानी बोली, बहन. हमारे घर अनाज नहीं था. ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आई. उसने दासियों समेत भूखा रहने की बात भी अपनी बहन को बता दी. रानी की बहन बोली, बहन देखो. वृहस्पतिदेव भगवान सबकी मनोकामना पूर्ण करते है. देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो. यह सुनकर दासी घर के अन्दर गई तो वहाँ उसे एक घड़ा अनाज का भरा मिल गया. उसे बड़ी हैरानी हुई क्योंकि उसे एक एक बर्तन देख लिया था.

उसने बाहर आकर रानी को बताया. दासी रानी से कहने लगी, हे रानी. जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते है, इसलिये क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाये, हम भी व्रत किया करेंगे. दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से वृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा. उसकी बहन ने बताया, वृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलायें. पीला भोजन करें तथा कथा सुनें. इससे गुरु भगवान प्रसन्न होते है, मनोकामना पूर्ण करते है. व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट आई.

रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वृहस्पतिदेव भगवान का पूजन जरुर करेंगें. सात रोज बाद जब वृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा. घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाईं तथा उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया. अब पीला भोजन कहाँ से आए. दोनों बड़ी दुखी हुई. परन्तु उन्होंने व्रत किया था इसलिये वृहस्पतिदेव भगवान प्रसन्न थे. एक साधारण व्यक्ति के रुप में वे दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आए और दासी को देकर बोले, हे दासी. यह भोजन तुम्हारे लिये और तुम्हारी रानी के लिये है, इसे तुम दोनों ग्रहण करना. दासी भोजन पाकर बहुत प्रसन्न हुई. उसने रानी को सारी बात बतायी.

उसके बाद से वे प्रत्येक वृहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगी. वृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास धन हो गया. परन्तु रानी फिर पहले की तरह आलस्य करने लगी. तब दासी बोली, देखो रानी. तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया. अब गुरु भगवान की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है. 

बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिये हमें दान-पुण्य करना चाहिये. अब तुम भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राहमणों को दान दो, कुआं-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण कराओ, मन्दिर-पाठशाला बनवाकर ज्ञान दान दो, कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाओ अर्थात् धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पित्तर प्रसन्न हों. दासी की बात मानकर रानी शुभ कर्म करने लगी. उसका यश फैलने लगा. 

एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगें, उनकी कोई खोज खबर भी नहीं है. उन्होंने श्रद्घापूर्वक गुरु (वृहस्पति) भगवान से प्रार्थना की कि राजा जहाँ कहीं भी हो, शीघ्र वापस आ जाएं.

उधर, राजा परदेश में बहुत दुखी रहने लगा. वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीनकर लाता और उसे शहर में बेचकर अपने दुखी जीवन को बड़ी कठिनता से व्यतीत करता. एक दिन दुखी हो, अपनी पुरानी बातों को याद करके वह रोने लगा और उदास हो गया.

उसी समय राजा के पास वृहस्पतिदेव साधु के वेष में आकर बोले, हे लकड़हारे. तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंता में बैठे हो, मुझे बतलाओ. यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया. साधु की वंदना कर राजा ने अपनी संपूर्ण कहानी सुना दी. महात्मा दयालु होते है. वे राजा से बोले, हे राजा तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई. अब तुम चिन्ता मत करो भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगें.  देखो, तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिवार का व्रत प्रारम्भ कर दिया है. 

अब तुम भी वृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो. फिर कथा कहो या सुनो. भगवान तुम्हारी सब कामनाओं को पूर्ण करेंगें. साधु की बात सुनकर राजा बोला, हे प्रभो. लकड़ी बेचकर तो इतना पैसा भई नहीं बचता, जिससे भोजन के उपरांत कुछ बचा सकूं. मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है. मेरे पास कोई साधन नही, जिससे उसका समाचार जान सकूं. फिर मैं कौन सी कहानी कहूं, यह भी मुझको मालूम नहीं है.

साधु ने कहा, हे राजा. मन में वृहस्पति भगवान के पूजन-व्रत का निश्चय करो. वे स्वयं तुम्हारे लिये कोई राह बना देंगे. वृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर में जाना. तुम्हें रोज से दुगुना धन मिलेगा जिससे तुम भलीभांति भोजन कर लोगे तथा वृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा. जो तुमने वृहस्पतिवार की कहानी के बारे में पूछा है, वह इस प्रकार है – 

वृहस्पतिदेव की कहानी – Story of Brihaspati Deva 

प्राचीनकाल में एक बहुत ही निर्धन ब्राहमण था. उसके कोई संन्तान न थी. वह नित्य पूजा-पाठ करता, उसकी स्त्री न स्नान करती और न किसी देवता का पूजन करती. इस कारण ब्राहमण देवता बहुत दुखी रहते थे.

भगवान की कृपा से ब्राहमण के यहां एक कन्या उत्पन्न हुई. कन्या बड़ी होने लगी. प्रातः स्नान करके वह भगवान विष्णु का जप करती. वृहस्पतिवार का व्रत भी करने लगी. पूजा पाठ समाप्त कर पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती. लौटते समय वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो उनको बीनकर घर ले आती. एक दिन वह बालिका सूप में उन सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि तभी उसकी मां ने देख लिया और कहा, कि हे बेटी. सोने के जौ को फटकने के लिये सोने का सूप भी तो होना चाहिये.

दूसरे दिन गुरुवार था. कन्या ने व्रत रखा और वृहस्पतिदेव से सोने का सूप देने की प्रार्थना की. वृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली. रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई पाठशाला चली गई. पाठशाला से लौटकर जब वह जौ बीन रही थी तो वृहस्पतिदेव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला. उसे वह घर ले आई और उससे जौ साफ करने लगी. परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा.

एक दिन की बात है, कन्या सोने के सूप में जब जौ साफ कर रही थी, उस समय उस नगर का राजकुमार वहां से निकला. कन्या के रुप और कार्य को देखकर वह उस पर मोहित हो गया. राजमहल आकर वह भोजन तथा जल त्यागकर उदास होकर लेट गया.

राजा को जब राजकुमार द्घारा अन्न-जल त्यागने का समाचार ज्ञात हुआ तो अपने मंत्रियों के साथ वह अपने पुत्र के पास गया और कारण पूछा. राजकुमार ने राजा को उस लड़की के घर का पता भी बता दिया. मंत्री उस लड़की के घर गया. मंत्री ने ब्राहमण के समक्ष राजा की ओर से निवेदन किया. कुछ ही दिन बाद ब्राहमण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ सम्पन्न हो गाया.

कन्या के घर से जाते ही ब्राहमण के घर में पहले की भांति गरीबी का निवास हो गया. एक दिन दुखी होकर ब्राहमण अपनी पुत्री से मिलने गये. बेटी ने पिता की अवस्था को देखा और अपनी माँ का हाल पूछा ब्राहमण ने सभी हाल कह सुनाया. कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया. लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया. ब्राहमण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल कहातो पुत्री बोली, हे पिताजी. 

आप माताजी को यहाँ लिवा लाओ. मैं उन्हें वह विधि बता दूंगी, जिससे गरीबी दूर हो जाए. ब्राहमण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुंचे तो पुत्री अपनी मां को समझाने लगी, हे मां, तुम प्रातःकाल स्नानादि करके विष्णु भगवन का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी. परन्तु उसकी मां ने उसकी एक भी बात नहीं मानी. वह प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री की बची झूठन को खा लेती थी.

एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया, उसने अपनी माँ को एक कोठरी में बंद कर दिया. प्रातः उसे स्नानादि कराके पूजा-पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्घि ठीक हो गई.

इसके बाद वह नियम से पूजा पाठ करने लगी और प्रत्येक वृहस्पतिवार को व्रत करने लगी.. इस व्रत के प्रभाव से मृत्यु के बाद वह स्वर्ग को गई. वह ब्राहमण भी सुखपूर्वक इस लोक का सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुआ. इस तरह कहानी कहकर साधु बने देवता वहाँ से लोप हो गये.

धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वृहस्पतिवार का दिन आया. राजा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया उसे उस दिन और दिनों से अधिक धन मिला. राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर वृहस्पतिवार का व्रत किया. उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए. परन्तु जब अगले गुरुवार का दिन आया तो वह वृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया इस कारण वृहस्पति भगवान नाराज हो गए.

उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया था तथा अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि सभी मेरे यहां भोजन करने आवें. किसी के घर चूल्हा न जले. इस आज्ञा को जो न मानेगा उसको फांसी दे दी जाएगी.

राजा की आज्ञानुसार राज्य के सभी वासी राजा के भोज में सम्मिलित हुए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा, इसलिये राजा उसको अपने साथ महल में ले गए. जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी, जिस पर उसका हारलटका हुआ था. उसे हार खूंटी पर लटका दिखाई नहीं दिया. रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इस लकड़हारे ने चुरा लिया है. उसी समय सैनिक बुलवाकर उसको जेल में डलवा दिया.

लकड़हारा जेल में विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्वजन्म के कर्म से मुझे यह दुख प्राप्त हुआ है और जंगल में मिले साधु को याद करने लगा. तत्काल वृहस्पतिदेव साधु के रुप में प्रकट हो गए और कहने लगे, अरे मूर्ख,  तूने वृहस्पति देवता की कथा नहीं की, उसी कारण तुझे यह दुख प्राप्त हुआ हैं. अब चिन्ता मत कर, वृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर तुझे चार पैसे पड़े मिलेंगे, उनसे तू वृहस्पतिवार की पूजा करना तो तेर सभी कष्ट दूर हो जायेंगे.

अगले वृहस्पतिवार उसे जेल के द्घार पर चार पैसे मिले. राजा ने पूजा का सामान मंगवाकर कथा कही और प्रसाद बाँटा. उसी रात्रि में वृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा. तूने जिसे जेल में बंद किया है, उसे कल छोड़ देना. वह निर्दोष है, राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा राजा के योग्य सुन्दर वस्त्र-आभूषण भेंट कर उसे विदा किया.

गुरुदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया. राजा जब नगर के निकट पहुँचा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत-सी धर्मशालाएं, मंदिर आदि बने हुए थे. राजा ने पूछा कि यह किसका बाग और धर्मशाला है, तब नगर के सब लोग कहने लगे कि यह सब रानी और दासी द्घारा बनवाये गए है. राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया कि उसकी अनुपस्थिति में रानी के पास धन कहां से आया होगा.

जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे है तो उसने अपनी दासी से कहा, हे दासी, देख, राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गये थे. वह हमारी ऐसी हालत देखकर लौट न जाएं, इसलिये तू दरवाजे पर खड़ी हो जा. रानी की आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई और जब राजा आए तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा लाई, तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगा, बताओ, यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है. तब रानी ने सारी कथा कह सुनाई. (messinascatering.com)

राजा ने निश्चय किया कि मैं रोजाना दिन में तीन बार कहानी कहा करुंगा और रोज व्रत किया करुंगा. अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कथा कहता.

एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आऊं. इस तरह का निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां चल दिया. मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिये जा रहे है. उन्हें रोककर राजा कहने लगा, अरे भाइयो. मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन लो, वे बोले, लो, हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है, परन्तु कुछ आदमी बोले, अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगें. राजा ने दाल निकाली और कथा कहनी शुरु कर दी. जब कथा आधी हुई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो राम-राम करके वह मुर्दा खड़ा हो गया.

राजा आगे बढ़ा. उसे चलते-चलते शाम हो गई. आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला. राजा ने उससे कथा सुनने का आग्रह किया, लेकिन वह नहीं माना. राजा आगे चल पड़ा. राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट में बहुत जो दर्द होने लगा.

उसी समय किसान की मां रोटी लेकर आई. उसने जब देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा. बेटे ने सभी हाल बता दिया. बुढ़िया दौड़-दौड़ी उस घुड़सवार के पास पहुँची और उससे बोली, मैं तेरी कथा सुनूंगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर ही चलकर कहना. राजा ने लौटकर बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गये तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया.

राजा अपनी बहन के घर पहुंच गया. बहन ने भाई की खूब मेहमानी की. दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जागा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे है. राजा ने अपनी बहन से जब पूछा, ऐसा कोई मनुष्य है, जिसने भोजन नहीं किया हो. जो मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन ले. बहन बोली, हे भैया यह देश ऐसा ही है यहाँ लोग पहले भोजन करते है, बाद में कोई अन्य काम करते है. फिर वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था.

उसे मालूम हुआ कि उसके यहां तीन दिन से किसीने भोजन नहीं किया है. रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिये कुम्हार से कहा. वह तैयार हो गया. राजा ने जाकर वृहस्पतिवार की कथा कही, जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया, अब तो राजा को प्रशंसा होने लगी. एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, हे बहन. मैं अब अपने घर जाउंगा, तुम भी तैयार हो जाओ. राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भाई के साथ जाने की आज्ञा मांगी.

सास बोली हां चली जा मगर अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई के कोई संतान नहीं होती है. बहन ने अपने भाई से कहा, हे भइया. मैं तो चलूंगी मगर कोई बालक नहीं जायेगा. अपनी बहन को भी छोड़कर दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया. राजा ने अपनी रानी से सारी कथा बताई और बिना भोजन किये वह शय्या पर लेट गया. रानी बोली, हे प्रभो, वृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें संतान अवश्य देंगें.

उसी रात वृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा, उठ, सभी सोच त्याग दे. तेरी रानी गर्भवती है. राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई, नवें महीन रानी के गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ, तब राजा बोला, हे रानी. स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, परन्तु बिना कहे नहीं रह सकती, जब मेरी बहन आये तो तुम उससे कुछ मत कहना.

रानी ने हां कर दी, जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई, रानी ने तब उसे आने का उलाहना दिया, जब भाई अपने साथ ला रहे थे, तब टाल गई, उनके साथ न आई और आज अपने आप ही भागी-भागी बिना बुलाए आ गई, तो राजा की बहन बोली, भाई, मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हारे घर औलाद कैसे होती.

वृहस्पतिदेव सभी कामनाएं पूर्ण करते है, जो सदभावनापूर्वक वृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, वृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते है, उनकी सदैव रक्षा करते है.

जो संसार में सदभावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे हृदय से करते है, उनकी सभी मनकामनाएं वैसे ही पूर्ण होती है, जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने वृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी इच्छाएं वृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की. अनजाने में भी वृहस्पतिदेव की उपेक्षा न करें, ऐसा करने से सुख-शांति नष्ट हो जाती है इसलिये सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिये, हृदय से उनका मनन करते हुये जयकारा बोलना चाहिये.

।। इति श्री वृहस्पतिवार व्रत कथा ।।

Posted in jyotish, rituals, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

ऋषि अत्रि का ज्योतिष में योगदान

ज्योतिष के इतिहास से जुडे 18 ऋषियों में से एक थे ऋषि अत्रि. एक मान्यता के अनुसार ऋषि अत्रि का जन्म ब्रह्मा जी के द्वारा हुआ था. भगवान श्री कृष्ण ऋषि अत्रि के वंशज माने जाते है. कई पीढीयों के बाद ऋषि अत्रि के कुल में ही भगवान श्री कृ्ष्ण का जन्म हुआ था. यह भी कहा जाता है, कि ब्रह्मा जी के सात मानस पुत्र उत्पन्न हुए थे, उसमें ऋषि पुलस्त्य, ऋषि पुलह, ऋषि वशिष्ठ, ऋषि कौशिक, ऋषि मारिचि, ऋषि क्रतु, ऋषि नारद है. इन महाऋषियों के ज्योतिष के प्राद्रुभाव में महत्वपूर्ण योगदान रहा है.

ब्रह्मा के मानस पुत्र

हिंदू धर्म के प्रमुख ऋषियों में से एक ऋषि अत्री एक महान कवि और विद्वान थे. अत्री मुनि नौ प्रजापतियों में से एक तथा ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे. अत्री एक गोत्र भी है जिस कारण इस गोत्र में जन्में व्यक्ति अत्री ऋषि के वंशज माने गए. ऋषि अत्री का स्थान सप्तऋषियों में लिया जाता है उनकी महानता एवं विद्वता से प्राचीन ग्रंथ भरे पडे़ हैं. संपूर्ण ऋग्वेद दस मण्डलों में से एक ऋग्वेद के पंचम मण्डल के मंत्र द्रष्टा महर्षि अत्रि हैं जिस कारण इसे आत्रेय मण्डल कहा जाता है.

ब्रह्मा जी के यही सात पुत्र आकाश में सप्तर्षि के रुप में विद्यमान है. इस संबन्ध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है. तारामंडल का प्रयोग दिन, तिथि, कुण्डली निर्माण, त्यौहार और मुहूर्त आदि कार्यो के लिए किया जाता है. व इन सभी का उपयोग भारत की कृषि के क्षेत्र में प्राचीन काल से होता रहा है.

ज्योतिष के इतिहास के ऋषि अत्रि का नाम जुडा होने के साथ साथ, देवी अनुसूया और रायायण से भी ऋषि अत्रि जुडे हुए है. भगवान राम और सीता जब इनसे मिलने के लिए ऋषि अत्रि के आश्रम जाते हैं तो वहां उनका साक्षात्कार देवी अनुसूया से भी होता है. वहीं देवी अनुसूया सीता जी को पतिधर्म की शिक्षा देती हैं ओर उन्हें भेंट स्वरुप दिव्यवस्त्र भी प्रदान करती हैं. इसी के अलावा महाभार्त में भी ऋषि अत्रि के विषय में ओर उनके गोत्र से संबंधित विचार भी मिलता है.

ज्योतिष में ऋषि अत्रि का योगदान

ऋषि अत्रि ने ज्योतिष में चिकित्सा ज्योतिष पर कार्य किया, इनके द्वारा लिखे गये. सिद्धांत आज चिकित्सा ज्योतिष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है. इसके साथ ही अत्री संहिता की रचना हुई, महर्षि अत्रि को मंत्र की रचना करने वाले और उसके भेद को जानने वाला भी कहा गया है. अपनी त्रिकाल दृष्टा शक्ति से इन्हेंने धार्मिक ग्रंथों की रचना भी की और साथ ही इनकी कथाओं द्वारा चरित्र का सुन्दर वर्णन किया गया है. महर्षि अत्रि को बौद्धिक, मानसिक ज्ञान, कठोर तप, उचित धर्म आचरण युक्त व्यवहार, प्रभु भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के जानकार के रुप में सदैव पूजा जाता रहा है.

ऋषि अत्रि द्वारा ज्योतिष में शुभ मुहुर्त एवं पूजा अर्चना की विधियों का भी उल्लेख मिलता है. ऋग्वेद के आत्रेय मण्डल, कल्याण सूक्त स्वस्ति-सूक्त इन्ही द्वारा रचे बताए गए हैं. इन के अंतर्गत महर्षि अत्रि ने पूजा पाठ एवं उत्सव किस प्रकार मनाए जाएं इन विषयों का वर्णन किया है. इन्होंने जिन सूक्तों का वर्णन किया है उन्हें आज भी मांगलिक कार्यों एवं किसी न किसी शुभ संस्कारों और अनुष्ठानों में उपयोग किया जाता रहा है.

अत्रि ऋषि का विवाह देवी अनुसूया जी के साथ हुआ था. देवी अनुसूया को पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली श्रेष्ठ नारियों में स्थान प्राप्त है. ऋषि अत्रि और अनुसूया ने अपनी साधना और तपस्या के बल पर त्रिदेवों को संतान रुप में प्राप्त किया. इन्हें विष्णु के अंश रुप में दत्तात्रेय, भगवान शिव के अंश रुप में दुर्वासा और ब्रह्माजी के अंश रुप में सोम की प्राप्ति होती है.

आयुर्वेद में योगदान

आयुर्वेद और प्राचीन चिकित्सा क्षेत्र सदैव ऋषि का आभारी रहेगा. इन्हें आयुर्वेद में अनेक योगों का निर्माण किया. पुराणों के अनुसार ऋषि अत्रि का जन्म ब्रह्मा जी के नेत्रों से हुआ माना जाता है. ऋर्षि अत्रि को चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपुर्ण उपलब्धी प्राप्त रही है.

प्राचीन धर्म ग्रंथों के अनुसार देवताओं के चिकित्स्क अश्विनी कुमारों ने ऋषि अत्रि को वरदान प्रदान किया. ऋगवेद में भी इस विषय के बारे में विस्तार पूर्वक एक कथा का उल्लेख भी मिलता है. कथा अनुसार एक बार ऋषि अत्रि पर दैत्यों द्वारा हमला होता है पर जिस समय दैत्य उन्हें मारने का प्रयास कर रहे होते हैं तो उस समय ऋषि अत्रि साधना में लिप्त होते हैं. अपनी आधना की ध्यान अवस्था में उन्हें अपने ऊपर हुए इस जानलेवा हमले का बोध नही होता है. ऎसे में उस समय पर अश्विनी कुमार इस घटना के समय वहां उपस्थित होते हैं और ऋषि अत्रि को उन दैत्यों से बचा लेते हैं.

इसके अतिरिक्त भी एक अन्य कथा है की अश्विनी कुमारों ने ऋषि अत्रि को यौवन प्राप्ति का वरदान देते हैं और उन्हें नव यौवन प्राप्त कैसे किया जाए इस विधि का भी ज्ञान देते हैं.

ऋषि अत्रि और उनका जीवन दर्शन

अत्री संहिता में बहुत से ऎसे विषयों पर विचार किया गया है जो मनुष्य के सामाजिक एवं आत्मिक उत्थान की बात करते हैं. व्यक्ति के नैतिक कर्तव्यों एवं उसके अधिकारों का का वर्णन भी इसमें मिलता है. इस संहिता में व्यक्ति को सहृदय और करुणा से युक्त और दूसरों का उपकार करने वाला कहा गया है. अपने परिवार मित्र के साथ कैसा व्यवहार किया जाए इन बातों का उल्लेख भी हमे इससे प्राप्त होता है.

Posted in jyotish, saint and sages, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment