देवशयनी एकादशी 2024 | Devshayani Ekadashi 2024

आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस वर्ष देवशनी एकादशी 17 जुलाई 2024 के दिन मनाई जानी है. इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ भी माना गया है. देवशयनी एकादशी को हरिशयनी एकादशी और पद्मनाभा के नाम से भी जाना जाता है सभी उपवासों में देवशयनी एकादशी व्रत श्रेष्ठतम कहा गया है. इस व्रत को करने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, तथा सभी पापों का नाश होता है. इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा अर्चना करने का महतव होता है क्योंकि इसी रात्रि से भगवान का शयन काल आरंभ हो जाता है जिसे चातुर्मास या चौमासा का प्रारंभ भी कहते हैं.

हरिशयनी एकादशी पौराणिक महत्व | Importance of Hari Shayani Ekadashi

देवशयनी या हरिशयनी एकादशी के विषय में पुराणों में विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है जिनके अनुसार इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक पाताल लोक में निवास करते है. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से श्री विष्णु उस लोक के लिये गमन करते है और इसके पश्चात चार माह के अतंराल बाद सूर्य के तुला राशि में प्रवेश करने पर विष्णु भगवान का शयन समाप्त होता है तथा इस दिन को देवोत्थानी एकादशी का दिन होता है. इन चार माहों में भगवान श्री विष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते है. इसलिये इन माह अवधियों में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है.

देवशयनी एकादशी पूजा विधि | Devshayani Ekadashi worship

देवशयनी एकादशी व्रत की शुरुआत दशमी तिथि की रात्रि से ही हो जाती है. दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए. अगले दिन प्रात: काल उठकर देनिका कार्यों से निवृत होकर व्रत का संकल्प करें भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोडशोपचार सहित पूजन करना चाहिए.  पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात भगवान की धूप, दीप, पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए.  भगवान को ताम्बूल, पुंगीफल अर्पित करने के बाद मन्त्र द्वारा स्तुति की जानी चाहिए. इसके अतिरिक्त शास्त्रों में व्रत के जो सामान्य नियम बताये गए है, उनका सख्ती से पालन करना चाहिए.

देवशयनी एकादशी व्रत कथा | Devshayani Ekadashi Fast story

प्रबोधनी एकादशी से संबन्धित एक पौराणिक कथा प्रचलित है. सूर्यवंशी मान्धाता नम का एक राजा था. वह सत्यवादी, महान, प्रतापी और चक्रवती था. वह अपनी प्रजा का पुत्र समान ध्यान रखता है. उसके राज्य में कभी भी अकाल नहीं पडता था. परंतु एक समय राजा के राज्य में अकाल पड गया अत्यन्त दु:खी प्रजा राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगी यह देख दु;खी होते हुए राजा इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन ढूंढने के उद्देश्य से सैनिकों के साथ जंगल की ओर चल दिए  घूमते-घूमते वे ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंच गयें. राजा ने उनके सम्मुख प्रणाम उन्हें अपनी समस्या बताते हैं. इस पर ऋषि उन्हें एकादशी व्रत करने को कहते हैं. ऋषि के कथन अनुसार राज एकादशी व्रत का पालन करते हैं ओर उन्हें अपने संकट से मुक्ति प्राप्त होती है.

इस व्रत को करने से समस्त रखते वाले व्यक्ति को अपने चित, इंद्रियों, आहार और व्यवहार पर संयम रखना होता है. एकादशी व्रत का उपवास व्यक्ति को अर्थ-काम से ऊपर उठकर मोक्ष और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है.

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ऋषि जमदग्नि | Saint Jamdagni | Maharshi Jamadagni

जमदग्नि ऋषि का जन्म भृगुवंशी ऋचीक के पुत्र के रुप में हुआ था. जमदग्नि जिनकी गणना ‘सप्तऋषियों’ में होती है इनकी पत्नी राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका थीं. भृगुवंशीय जमदग्नि ने अपनी तप्सया एवं साधना द्वारा उच्च स्थान को प्राप्त किय अथा उनके समक्ष सभी आदर भाव रखते थे. ऋषि जमदग्नि तपस्वी और तेजस्वी ऋषि थे. ऋषि जमदग्नि और रेणुका के पांच पुत्र रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्ववानस और परशुराम हुए.

पौराणिक कथाओं के अनुसार जब पृथ्वी पर हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का आतंक एवं अत्याचार बढ़ जाता है तब सभी लोग इन राजाओं द्वारा त्रस्त हो जाते हैं. ब्राह्मण एवं साधु असुरक्षित हो जाते हैं धर्म कर्म के कामों में यह राजा लोग व्यवधान उत्पन्न करने लगते हैं. ऐसे समय में भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ को करते हैं जिससे प्रसन्न होकर भगवान वरदान स्वरूप उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान देते हैं और उनकी पत्नी रेणुका से उन्हें पाँच पुत्र प्राप्त होते हैं जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम. इन सभी में परशुराम जी उन हैहयवंशी राजाओं का अंत करते हैं.

जमदग्नि और कार्तवीर्य अर्जुन | Jamdagni and Kartavirya Arjun

हैहयवंश का राजा कार्तवीर्य अर्जुन बहुत ही अत्याचारी राजा था. एक बार वह जमदग्नि ऋषि के आश्रम में जाता है. जहां पर वह कामधेनु गाय की विशेषता को देखकर उसे अपने साथ ले जाने का प्रयास करता है परंतु जमदग्नि कार्त्तवीर्य अर्जुन को कामधेनु गौ देने से मना कर देते हैं. इस पर वह राजा जमदग्नि ऋषि का वध कर देता है तथा कामधेनु गाय को अपने साथ ले जाता है.

अपने पिता की हत्या का बदला परशुराम कार्तवीर्य को मारकर लेते हैं और कामधेनु वापिस आश्रम में ले आते हैं. अपने पिता का अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न करने के उपरांत वह प्रण लेते हें कि पृथ्वी की क्षत्रियों से विहीन कर देंगे ओर इसके लिए वह समस्त पृथ्वी पर घूम-घूमकर इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार करते हैं.

जमदग्नि और रेणुका

ऋषि जमदग्नि जी की पत्नि रेणुका एक पतिव्रता एवं आज्ञाकारी स्त्री थी वह अपने पति के प्रती पूर्ण निष्ठावान थीं किंतु एक गलती के परिणाम स्वरुप दोनों के संबंधों में अलगाव की स्थिति उत्पन्न होगी जिस कारण ऋषि ने उन्हें मृत्यु का दण्ड दिया. प्राचीन कथा अनुसार एक बार रेणुका जल लेने गई लिए नदी पर जाती हैं. जहां पर गंधर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहे होते हैं उन्हें देख रेणुका उन पर आसक्त हो गई जाती हैं और जल लाने में विलंब हो जाने से यज्ञ का समय समाप्त हो जाता है. तब मुनि जमदग्नि ने अपनी योग शक्ति द्वारा पत्नी के मर्यादा विरोधी आचरण को देखकर अपने पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा देते हैं.

परंतु तीनों पुत्र मना कर देते हैं इस केवल परशुराम ऎसा करने को तैयार होते हैं तब जमदग्नि अपने तीनों पुत्रों को ने सबको संज्ञाहीन कर देते हैं और पिता की आज्ञा स्वरूप परशुराम माँ का वध कर देते हैं. परशुराम जी की पितृ भक्ति देख कर पिता जमदग्नि उसे वर माँगने को कहते हैं और परशुराम पिता से वरदान माँगते हैं कि वह उनकी माता को क्षमा कर उन्हें जीवित कर दें तथा सभी भाईयों को भी चेतना युक्त कर दें. इस प्रकार उनके वरदान स्वरूप उनकी माता एवं भाई दोबारा जीवन प्राप्त करते हैं.

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भौमवती अमावस्या 2024 | Bhaumvati Amavasya 2024 | Bhaumvati Amavasya

धर्म ग्रंथों के अनुसार मंगलवार को आने वाली अमावस्या को भौमवती अमावस्या कहा जाता है. भौमवती अमावस्या के समय पितृ तर्पण कार्यों को करने का विधान माना जाता है. अमावस्या को पितरों के निमित पिंडदान और तर्पण किया जाता है मान्यता है कि भौमवती अमावस्या के दिन पितरों के निमित पिंडदान और तर्पण करने से पितर देवताओं का आशीष मिलता है.



भौमवती अमावस्या के दिन स्नान, दान करने का विशेष महत्व कहा गया है. भौमवती अमावस्या के दिन दान करने का सर्वश्रेष्ठ फल कहा गया है. देव ऋषि व्यास के अनुसार इस तिथि में स्नान-ध्यान करने से सहस्त्र गौ दान के समान पुन्य फल प्राप्त होता है. इस के अतिरिक्त इस दिन पीपल की परिक्रमा कर, पीपल के पेड और श्री विष्णु का पूजन करने का नियम है.  दान-दक्षिणा देना शुभ होता है. भौमवती अमावस्या पर हजारों की संख्या में हरिद्वार, काशी जैसे तीर्थ स्थलों और पवित्र नदियों पर स्नान करने का विशेष महत्व होता है.


इस दिन कुरुक्षेत्र के ब्रह्मा सरोवर में डूबकी लगाने का भी बहुत अधिक पुण्य माना गया है. इस स्थान पर भौमवती अमावस्या के दिन स्नान और दान करने से अक्षय फलों की प्राप्ति होती है.  सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक की अवधि में पवित्र नदियों पर स्नान करने वालों का तांता सा लगा रहेगा. स्नान के साथ पवित्र श्लोकों की गुंज चारों ओर सुनाई देती है. यह सब कार्य करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है.



भौमवती अमावस्या का महत्व | Significance of Bhaumvati Amavasya

अमावस्या तिथि प्रत्येकचन्द्र मास मे आती है. चन्द्रमा के दो पक्ष होते है, जिसमें एक कृ्ष्ण पक्ष और एक शुक्ल पक्ष होता हे. कृ्ष्ण पक्ष समाप्त होने पर अमावस्या व शुक्ल पक्ष की समाप्ति पर पूर्णिमा आती है. यह पर्व तिथि है. इस दिन व्रत, स्नान, दान, जप, होम और पितरों के लिए भोजन, वस्त्र आदि देना उतम रहता है. ज्येष्ठ मास की अमावस्या का महत्व अन्य माह में आने वाली अमावस्याओं की तुलना में अधिक होता है. शास्त्रों के हिसाब से ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन प्रात:काल में स्नान करके संकल्प करें और पूजा करनी चाहिए.



भौमवती अमावस्या तिथि के दिन विशेष रुप से पितरों के लिये किए जाने वाले कार्य किये जाते है. इस दिन पितरों के लिये व्रत और अन्य कार्य करने से पितरों की आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है. शास्त्रों में में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है. इसलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण, दान-पुण्य का महत्व है. जब अमावस्या के दिन सोम, मंगलवार और गुरुवार के साथ जब अनुराधा, विशाखा और स्वाति नक्षत्र का योग बनता है, तो यह बहुत पवित्र योग माना गया है. इसी तरह शनिवार, और चतुर्दशी का योग भी विशेष फल देने वाला माना जाता है.



ऎसे योग होने पर अमावस्या के दिन तीर्थस्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण या कर्ज और पापों से मिली पीड़ाओं से छुटकारा मिलता है. इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. पुराणों में अमावस्या को कुछ विशेष व्रतों के विधान है जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है.

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जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा 2024 | Puri Rath Yatra 2024

आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा का शुभारंभ होता है. उड़ीसा में मनाया जायाने वाला यह सबसे भव्य पर्व होता है. पुरी के पवित्र शहर में इस जगन्नाथ यात्रा के इस भव्य समारोह में में भाग लेने के लिए प्रतिवर्ष दुनिया भर से लाखों श्रद्धालु यहां पर आते हैं. यह पर्व पूरे नौ दिन तक जोश एवं उत्साह के साथ चलता है.

भगवान जगन्नाथ का जी की मूर्ति को उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की छोटी मूर्तियाँ को रथ में ले जाया जाता है और धूम-धाम से इस रथ यात्रा का आरंभ होता है यह यात्रा पूरे भारत में विख्यात है. जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा का पर्व आषाढ मास में मनाया जाता है. इस पर्व पर तीन देवताओं की यात्रा निकाली जाती है. इस अवसर पर जगन्नाथ मंदिर से तीनों देवताओं के सजाये गये रथ खिंचते हुए दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित  गुंडिचा मंदिर तक ले जाते हैं और नवें दिन इन्हें वापस लाया जाता है.  इस अवसर पर सुभद्रा, बलराम और भगवान श्री कृ्ष्ण का पूजन नौं दिनों तक किया जाता है.

इन नौ दिनों में भगवान जगन्नाथ का गुणगान किया जाता है. एक प्राचीन मान्यता के अनुसार इस स्थान पर आदि शंकराचार्य जी ने गोवर्धन पीठ स्थापित किया था. प्राचीन काल से ही पुरी संतों और महात्मा के कारण अपना धार्मिक,  आध्यात्मिक महत्व रखता है. अनेक संत-महात्माओं के मठ यहां देखे जा सकते है. जगन्नाथ पुरी के विषय में यह मान्यता है, कि त्रेता युग में रामेश्वर धाम पावनकारी अर्थात कल्याणकारी रहें, द्वापर युग में द्वारिका और कलियुग में जगन्नाथपुरी धाम ही कल्याणकारी है. पुरी भारत के प्रमुख चार धामों में से एक धाम है.

जगन्नाथ रथ यात्रा वर्णन | Jagannath Yatra description

जगन्नाथ जी का यह रथ 45 फुट ऊंचा भगवान श्री जगन्नाथ जी का रथ होता है. भगवान जगन्नाथ का रथ सबसे अंत में होता है, और भगवान जगन्नाथ क्योकि भगवान श्री कृ्ष्ण के अवतार है, अतं: उन्हें पीतांबर अर्थात पीले रंगों से सजाया जाता है. पुरी यात्रा की ये मूर्तियां भारत के अन्य देवी-देवताओं कि तरह नहीं होती है.

रथ यात्रा में सबसे आगे भाई बलराम का रथ होता है, जिसकी उंचाई 44 फुट उंची रखी जाती है. यह रथ नीले रंग का प्रमुखता के साथ प्रयोग करते हुए सजाया जाता है. इसके बाद बहन सुभद्रा का रथ 43 फुट उंचा होता है. इस रथ को काले रंग का प्रयोग करते हुए सजाया जाता है. इस रथ को सुबह से ही सारे नगर के मुख्य मार्गों पर घुमा जाता है. और रथ मंद गति से आगे बढता है. सायंकाल में यह रथ मंदिर में पहुंचता है. और मूर्तियों को मंदिर में ले जाया जाता है.

यात्रा के दूसरे दिन तीनों मूर्तियों को सात दिन तक यही मंदिर में रखा जाता है, और सातों दिन इन मूर्तियों का दर्शन करने वाले श्रद्वालुओं का जमावडा इस मंदिर में लगा रहता है. कडी धूप में भी लाखों की संख्या में भक्त मंदिर में दर्शन के लिये आते रहते है. प्रतिदिन भगवान को भोग लगने के बाद प्रसाद के रुप में गोपाल भोग सभी भक्तों में वितरीत किया जाता है.

सात दिनों के बाद यात्रा की वापसी होती है. इस रथ यात्रा को बडी बडी रस्सियों से खींचते हुए ले जाया जाता है. यात्रा की वापसी  भगवान जगन्नाथ की अपनी जन्म भूमि से वापसी कहलाती है. इसे  बाहुडा कहा जाता है. इस रस्सी को खिंचने या हाथ लगाना अत्यंत शुभ माना जाता है.

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चातुर्मास । चातुर्मास्य | Chaturmas | Chaturmasya

चतुर्मास के चार महीने भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते है इसलिए ये समय भक्तों, साधु संतों सभी के लिए अमूल्य होता है. यह चार महीनों में होनेवाला एक वैदिक यज्ञ है जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है जिसे चौमासा भी कहा जाता है. कात्यायन श्रौतसूत्र में इसके महत्व के बारे में बताया गया है. फाल्गुन से इस का आरंभ होने की बात कही गई है इसका आरंभ फाल्गुन, चैत्र या वैशाख की पूर्णिमा से हो सकता है और अषाढ़ शुक्ल द्वादसी या पूर्णिमा पर इसका उद्यापन करने का विधान है. इस अवसर पर चार पर्व हैं वैश्वदेव, वरुणघास, शाकमेघ और सुनाशीरीय. पुराणों में इस व्रत के महत्व के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है.

वर्षाकाल के चार माह में सभी के लिए साधना पूजा पाठ करने के बारे में कहा गया है. सभी संत एवं ऋषि मुनि इस समय में इस चौमासा व्रत का पालन करते हुए देखे जा सकते हैं. इस दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तामसिक वस्तुओं का त्याग किया जाता है, चार माह जमीन पर सोते हैं और चातुर्मास के दौरान भगवान विष्णु की आराधना कि जाती है. इसके अलावा उपवास और विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ किया जाना शुभ फल प्रदान करने वाला होता है. चातुर्मास के चार महीनों को शुभ माना जाता है. इसके बाद चातुर्मास का समापन देव उठनी ग्यारस पर होता है और इसी के साथ चातुर्मास का माह भी समाप्त हो जाता है.

चातुर्मास व्रत एवं पूजा पाठ | Chaturmas rituals for fast and puja

इस समय के दौरान भोजन में किसी भी प्रकार का तामसिक प्रवृति का भोजन नहीं होना चाहिए. भोजन में नमक का प्रयोग करने से व्रत के शुभ फलों में कमी होती है, व्यक्ति को भूमि पर शयन करना चाहिए, जौ, मांस, गेहूं तथा मूंग की दान का सेवन करने से बचना चाहिए. इस अवधि के दौरान सत्य का आचरण करते हुए दूसरों को दु:ख देने वाले शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए.

इसके अतिरिक्त शास्त्रों में व्रत के जो सामान्य नियम बताये गए है, उनका सख्ती से पालन करना चाहिए.  सुबह जल्दी उठना चाहिए. नित्यक्रियाओं को करने के बाद, स्नान करना चाहिए. स्नान अगर किसी तीर्थ स्थान या पवित्र नदी में किया जाता है, तो वह विशेष रुप से शुभ रहता है. किसी कारण वश अगर यह संभव न हो, तो इस दिन घर में ही स्नान कर सकता है. स्नान करने के लिये भी मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए. यह विष्णु भगवान् का व्रत है अतः ‘नमो- नारायण’ या ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र’ के जप करने से सभी कष्टों से मुक्ति प्राप्त होती है.

स्नान कार्य करने के बाद भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए. पूजन करने के लिए धान्य के ऊपर कुम्भ रख कर, कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से बांधना चाहिए. इसके बाद कुम्भ की पूजा करनी चाहिए. जिसे कुम्भ स्थापना के नाम से जाना जाता है. कुम्भ के ऊपर भगवान की प्रतिमा या तस्वीर रख कर पूजा करनी चाहिए. ये सभी क्रियाएं करने के बाद धूप, दीप और पुष्प से पूजा करनी चाहीए. इस समय पूजा पाठ करने से भगवान श्री विष्णु प्रसन्न होते है. अत: मोक्ष की प्राप्ति होती है.

चातुर्मास महत्व | Significance of Chaturmas

पुराणों में ऎसा उल्लेख है, कि इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक पाताल लोक में निवास करते है. आषाढ मास से कार्तिक मास के मध्य के समय को चातुर्मास कहते है. इन चार माहों में भगवान श्री विष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते है. इसलिये इन माह अवधियों में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है. इस अवधि में कृषि और विवाहादि सभी शुभ कार्य नहीं होते. इन दिनों में तपस्वी एक स्थान पर रहकर ही तप करते है. धार्मिक यात्राओं में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है. ब्रज के विषय में यह मान्यता है, कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर तीर्थ ब्रज में निवास करते है.

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योगिनी एकादशी व्रत 2024 | Yogini Ekadashi Fast 2024

आषाढ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन योगिनी एकादशी व्रत का विधान है. इस वर्ष 02 जुलाई 2024 के दिन योगिनी एकादशी का व्रत किया जाना है. इस शुभ दिन के उपलक्ष्य पर विष्णु भगवान जी की पूजा उपासना की जाती है. इस एकादशी के दिन पीपल के पेड की पूजा करने का भी विशेष महत्व होता है.

योगिनी एकादशी व्रत पूजा विधि | Rituals for Yogini Ekadashi Fast Puja

इस एकादशी का महत्व तीनों लोकों में प्रसिद्ध है. इस व्रत को करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा मुक्ति प्राप्त होती है. योगिनी एकादशी व्रत करने से पहले की रात्रि में ही व्रत एक नियम शुरु हो जाते हैं. यह व्रत दशमी तिथि कि रात्रि से शुरु होकर द्वादशी तिथि के प्रात:काल में दान कार्यो के बाद समाप्त होता है.

एकादशी तिथि के दिन प्रात: स्नान आदि कार्यो के बाद, व्रत का संकल्प लिया जाता है. स्नान करने के लिये मिट्टी का प्रयोग करना शुभ रहता है. इसके अतिरिक्त स्नान के लिये तिल के लेप का प्रयोग भी किया जा सकता है. स्नान करने के बाद कुम्भ स्थापना की जाती है, कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी कि प्रतिमा रख कर पूजा की जाती है. और धूप, दीप से पूजन किया जाता है. व्रत की रात्रि में जागरण करना चाहिए. दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रती को तामसिक भोजन का त्याग कर देना चाहिए और इसके अतिरिक्त व्रत के दिन नमक युक्त भोजन भी नहीं किया जाता है. इसलिये दशमी तिथि की रात्रि में नमक का सेवन नहीं करना चाहिए.

योगिनी एकादशी व्रत कथा | Yogini Ekadashi Fast Katha

योगिनी एकादशी के संदर्भ में एक पौराणिक कथा जुडी़ हुई है जिसके अनुसार अलकापुरी नाम की नगरी में एक कुबेर नाम का राजा राज्य करता था. वह भगवान शिव का अनन्य भक्त था. वह भगवान शिव पर हमेशा ताजे फूल अर्पित किया करता था. जो माली उसके लिए पुष्प लाया करता था उसका नाम हेम था हेम माली अपनी पत्नि विशालाक्षी के साथ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था. एक दिन हेममाली पूजा कार्य में न लग कर, अपनी स्त्री के साथ रमण करने लगा. जब राजा कुबेर को उसकी राह देखते -देखते दोपहर हो गई. तो उसने क्रोधपूर्वक अपने सेवकों को हेममाली का पता लगाने की आज्ञा दी.

जब सेवकों ने उसका पता लगा लिया, तो वह कुबेर के पास जाकर कहने लगे, हे राजन, वह माली अभी तक अपनी स्त्री के साथ रमण कर रहा है. सेवकों की बात सुनकर कुबेर ने हेममाली को बुलाने की आज्ञा दी. जब हेममाली राजा कुबेर के सम्मुख पहुंचा तो कुबेर ने उसे श्राप दिया कि तू स्त्री का वियोग भोगेगा मृत्यु लोक में जाकर कोढी हो जायेगा. कुबेर के श्राप से वह उसी क्षण स्वर्ग से पृथ्वी लोक पर आ गिरा और कोढी हो गया. स्त्री से बिछुड कर मृ्त्युलोक में आकर उसने महा दु;ख भोगे.

परन्तु शिव जी की भक्ति के प्रभाव से उनकी बुद्धि मलीन न हुइ और पिछले जन्म के कर्मों का स्मरण करते हुए. वह हिमालय पर्वत की तरफ चल दिया. वहां पर चलते -चलते उसे एक ऋषि मिले. ऋषि के आश्रम में पहुंच गया. हेममाली ने उन्हें प्रणाम किया और विनय पूर्वक उनसे प्रार्थना की हेममाली की व्यथा सुनकर ऋषि ने कहा की मैं तुम्हारे उद्वार में तुम्हारी सहायता करूंगा. तुम आषाढ मास के कृ्ष्ण पक्ष की योगिनी नामक एकादशी का विधि-पूर्वक व्रत करो इस व्रत को करने से तुम्हारे सभी पाप नष्ट हो जाएंगे. मुनि के वचनों के अनुसार हेममाली ने योगिनी एकादशी का व्रत किया. व्रत के प्रभाव से वह फिर से अपने पुराने रुप में वापस आ गया और अपनी स्त्री के साथ प्रसन्न पूर्वक रहने लगा.

योगिनी एकादशी व्रत का महत्व | Significance of Yogini Ekadashi

योगिनी व्रत की कथा श्रवण का फल अट्ठासी सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन कराने के समान माना गया है. इस व्रत से समस्त पाप दूर होते है. भगवान नारायण की मूर्ति को स्नान कराकर पुष्प, धूप, दीप से आरती उतारनी चाहिए तथा भोग लगाना चाहिए. इस दिन गरीब ब्राह्माणों को दान देना कल्याणकारी माना जाता है.

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बहुला गणेश चतुर्थी 2024 | Bahula Ganesh Chaturthi 2024

प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को भगवान श्रीगणेश चतुर्थी व्रत किए जाने का विधान रहा है. भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को बहुला गणेश चतुर्थी के नाम से जाना जाता है. इस वर्ष बहुला चतुर्थी का त्यौहार 22 अगस्त 2024 को मनाया जाएगा. मान्यता है कि इसी तिथि का संबंध भगवान गणेश जी के जन्म से है तथा यह तिथि भगवान गणेश जी को अत्यंत प्रिय है. ज्योतिष में भी श्रीगणेश को चतुर्थी का स्वामी कहा गया है.

गणेश अवतरण कथा | Ganesh Birth Story

शिवपुराण अनुसार भगवान गणेश जी के जन्म लेने की कथा का वर्णन प्राप्त होता है जिसके अनुसार देवी पार्वती जब स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक का निर्माण करती हैं और उसे अपना द्वारपाल बनाती हैं वह उनसे कहती हैं ‘हे पुत्र तुम द्वार पर पहरा दो मैं भीतर जाकर स्नान कर रही हूँ अत: जब तक मैं स्नान न कर लूं, तब तक तुम किसी भी पुरुष को भीतर नहीं आने देना.

जब भगवान शिवजी आए तो गणेशजी ने उन्हें द्वार पर रोक लिया और उन्हें भितर न जाने दिया इससे शिवजी बहुत क्रोधित हुए और बालक गणेश का सिर धड़ से अलग कर देते हैं, इससे भगवती दुखी व क्रुद्ध हो उठीं अत: उनके दुख को दूर करने के लिए शिवजी के निर्देश अनुसार उनके गण उत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आते हैं और शिव भगवान ने गज के उस मस्तक को बालक के धड़ पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर देते हैं.

पार्वती जी हर्षातिरेक हो कर पुत्र गणेश को हृदय से लगा लेती हैं तथा उन्हें सभी देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद देती हैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्य होने का वरदान देते हैं. चतुर्थी को व्रत करने वाले के सभी विघ्न दूर हो जाते हैं सिद्धियां प्राप्त होती हैं,

गणेश चतुर्थी पूजन विधि | Ganesh Chaturthi Puja Vidhi

किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पूर्व सर्वप्रथम भगवान श्री गणेश जी की स्मरण किया जाता है जिस कारण इन्हें विघ्नेश्वर, विघ्न हर्ता कहा जाता है. भगवान गणेश समस्त देवी देवताओं में सबसे पहले पूजे जाने वाले देवता हैं. इनकी उपासना करने से सभी विघ्नों का नाश होता है तथा सुख-समृद्ध व ज्ञान की प्राप्ति होती है.

गणेश पूजा के दौरान गणेशजी की प्रतिमा पर चंदन मिश्रण, केसरिया मिश्रण, इत्र, हल्दी, कुमकुम, अबीर, गुलाल, फूलों की माला खासकर गेंदे के फूलों की माला और बेल पत्र को चढ़ाया जाता है, धूपबत्ती जलाये जाते है और नारियल, फल और तांबूल भी अर्पित किया जाता है. पूजा के अंत में भक्त भगवान गणेश, देवी लक्ष्मी और विष्णु भगवान की आरती की जाती है और प्रसाद को भगवान सभी लोगों में बांट कर स्वयं भी ग्रहण करना चाहिए.

गणेश भक्त बडी श्रद्धा के साथ चतुर्थी के दिन व्रत रखते हैं. चतुर्थी की रात्रि में चन्द्रमा को अ‌र्घ्यदेकर, गणेश-पूजन करने के बाद फलाहार ग्रहण किया जाता है.  इसके व्रत से सभी संकट-विघ्न दूर होते हैं.  चतुर्थी का संयोग गणेश जी की उपासना में अत्यन्त शुभ एवं सिद्धिदायक होता है. चतुर्थी का माहात्म्य यह है कि इस दिन विधिवत् व्रत करने से श्रीगणेश तत्काल प्रसन्न हो जाते हैं. चतुर्थी का व्रत विधिवत करने से व्रत का सम्पूर्ण पुण्य प्राप्त हो जाता है.

इस दिन विधि अनुसार व्रत करने से वर्ष पर्यन्त चतुर्थी व्रत करने का फल प्राप्त होता है. चतुर्थी के शुभ फलों द्वारा व्यक्ति के किसी भी कार्य में कोई विघ्न नहीं आता उसे संसार के समस्त सुख प्राप्त होते हैं भगवान गणेश उस पर सदैव कृपा करते है

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गंगा दशहरा 2024 | Ganga Dashahara

प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा दशहरा मनाया जाता है. इस वर्ष गंगा दशहरा 16 जून   2024, के दिन मनाया जाएगा. स्कंदपुराण के अनुसार गंगा दशहरे के दिन व्यक्ति को किसी भी पवित्र नदी पर जाकर स्नान, ध्यान तथा दान करना चाहिए. इससे वह अपने सभी पापों से मुक्ति पाता है. यदि कोई मनुष्य पवित्र नदी तक नहीं जा पाता तब वह अपने घर पास की किसी नदी पर स्नान करें.

ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को संवत्सर का मुख कहा गया है. इसलिए इस इस दिन दान और स्नान का ही अत्यधिक महत्व है. वराह पुराण के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, बुधवार के दिन, हस्त नक्षत्र में गंगा स्वर्ग से धरती पर आई थी. इस पवित्र नदी में स्नान करने से दस प्रकार के पाप नष्ट होते है.

गंगा दशहरे का महत्व | Importance of Ganga Dusshera

भगीरथी की तपस्या के बाद जब गंगा माता धरती पर आती हैं उस दिन ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की  दशमी थी. गंगा माता के धरती पर अवतरण के दिन को ही गंगा दशहरा के नाम से पूजा जाना जाने लगा. इस दिन गंगा नदी में खड़े होकर जो गंगा स्तोत्र पढ़ता है वह अपने सभी पापों से मुक्ति पाता है. स्कंद पुराण में दशहरा नाम का गंगा स्तोत्र दिया हुआ है.

गंगा दशहरे के दिन श्रद्धालु जन जिस भी वस्तु का दान करें उनकी संख्या दस होनी चाहिए और जिस वस्तु से भी पूजन करें उनकी संख्या भी दस ही होनी चाहिए. ऎसा करने से शुभ फलों में और अधिक वृद्धि होती है.

गंगा दशहरे का फल | Results of Ganga Dusshera

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा स्नान करने से व्यक्ति के दस प्रकार के पापों का नाश होता है. इन दस पापों में तीन पाप कायिक, चार पाप वाचिक और तीन पाप मानसिक होते हैं. इन सभी से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है.

पूजा विधि | Pooja Vidhi

इस दिन पवित्र नदी गंगा जी में स्नान किया जाता है. यदि कोई मनुष्य वहाँ तक जाने में असमर्थ है तब अपने घर के पास किसी नदी या तालाब में गंगा मैया का ध्यान करते हुए स्नान कर सकता है. गंगा जी का ध्यान करते हुए षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए. गंगा जी का पूजन करते हुए निम्न मंत्र पढ़ना चाहिए :-

“ऊँ नम: शिवायै नारायण्यै दशहरायै गंगायै नम:”

इस मंत्र के बाद “ऊँ नमो भगवते ऎं ह्रीं श्रीं हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहा” मंत्र का पाँच पुष्प अर्पित करते हुए गंगा को धरती पर लाने भगीरथी का नाम मंत्र से पूजन करना चाहिए. इसके साथ ही गंगा के उत्पत्ति स्थल को भी स्मरण करना चाहिए. गंगा जी की पूजा में सभी वस्तुएँ दस प्रकार की होनी चाहिए. जैसे दस प्रकार के फूल, दस गंध, दस दीपक, दस प्रकार का नैवेद्य, दस पान के पत्ते, दस प्रकार के फल होने चाहिए.

यदि कोई व्यक्ति पूजन के बाद दान करना चाहता है तब वह भी दस प्रकार की वस्तुओं का करता है तो अच्छा होता है लेकिन जौ और तिल का दान सोलह मुठ्ठी का होना चाहिए. दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों को देनी चाहिए. जब गंगा नदी में स्नान करें तब दस बार डुबकी लगानी चाहिए.

गंगा जी की कथा | Story of Goddess Ganga

इस दिन सुबह स्नान, दान तथा पूजन के उपरांत कथा भी सुनी जाती है जो इस प्रकार से है :-

प्राचीनकाल में अयोध्या के राजा सगर थे. महाराजा सगर के साठ हजार पुत्र थे. एक बार सगर महाराज ने अश्वमेघ यज्ञ करने की सोची और अश्वमेघ यज्ञ के घोडे. को छोड़ दिया. राजा इन्द्र यह यज्ञ असफल करना चाहते थे और उन्होंने अश्वमेघ का घोड़ा महर्षि कपिल के आश्रम में छिपा दिया. राजा सगर के साठ हजार पुत्र इस घोड़े को ढूंढते हुए आश्रम में पहुंचे और घोड़े को देखते ही चोर-चोर चिल्लाने लगे. इससे महर्षि कपिल की तपस्या भंग हो गई और जैसे ही उन्होंने अपने नेत्र खोले राजा सगर के साठ हजार पुत्रों में से एक भी जीवित नहीं बचा. सभी जलकर भस्म हो गये.

राजा सगर, उनके बाद अंशुमान और फिर महाराज दिलीप तीनों ने मृतात्माओं की मुक्ति के लिए घोर तपस्या की ताकि वह गंगा को धरती पर ला सकें किन्तु सफल नहीं हो पाए और अपने प्राण त्याग दिए. गंगा को इसलिए लाना पड़ रहा था क्योंकि पृथ्वी का सारा जल अगस्त्य ऋषि पी गये थे और पुर्वजों की शांति तथा तर्पण के लिए कोई नदी नहीं बची थी.

महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए उन्होंने गंगा को धरती पर लाने के लिए घोर तपस्या की और एक दिन ब्रह्मा जी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और भगीरथ को वर मांगने के लिए कहा तब भगीरथ ने गंगा जी को अपने साथ धरती पर ले जाने की बात कही जिससे वह अपने साठ हजार पूर्वजों की मुक्ति कर सकें. ब्रह्मा जी ने कहा कि मैं गंगा को तुम्हारे साथ भेज तो दूंगा लेकिन उसके अति तीव्र वेग को सहन करेगा? इसके लिए तुम्हें भगवान शिव की शरण लेनी चाहिए वही तुम्हारी मदद करेगें.

अब भगीरथ भगवान शिव की तपस्या एक टांग पर खड़े होकर करते हैं. भगवान शिव भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर गंगाजी को अपनी जटाओं में रोकने को तैयार हो जाते हैं. गंगा को अपनी जटाओं में रोककर एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड. देते हैं. इस प्रकार से गंगा के पानी से भगीरथ अपने पूर्वजों को मुक्ति दिलाने में सफल होता है.

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सावन मास में जलाभिषेक 2024 | Jalabhishek in Sawan (Month of Monsoon)

सावन के माह में शिव मंदिरों में शिवभक्तों का तांता सा लगा रहता है. पूरे ही माह शिव मंदिरों में मेला सा लगा रहता है. भक्तजन दूर स्थानों से काँवड़ में जल भरकर लाते हैं और उस जल से शिवजी का जलाभिषेक करते हैं. सावन का यह माह शिवभक्ति और आस्था का प्रतीक माना जाता है. भक्त नंगे पैर से काँवड़ में जल भरकर लाते हैं. उनकी आस्था के सामने सभी लोग नमन करते हैं. हरिद्वार जाने वाले सभी रास्तों में शिवभक्तों का तांता लगा रहता है. बम-बम की आवाज से सारा आकाश गूंजता रहता है.

वर्ष 2024 में सावन माह का आरम्भ 22 जुलाई से होगा. सावन का महीन आरंभ होने से पूर्व आषाढ़ माह से ही भक्तजन गंगा का पानी काँवड़ में भरकर लाना चाहते हैं. शिव को प्रसन्न करने के लिए भक्त गोमुख, केदारनाथ, अमरनाथ, हरिद्वार, नीलकंठ तथा गंगा के अन्य तीर्थों से गंगाजल से कलश भरकर लाते हैं. जल भरने की यह यात्रा आषाढ़ माह की पूर्णिमा से ही आरंभ हो जाती है और पूरे सावन माह तक भगवान शिव के लिंग पर जलाभिषेक किया जाता है.

यात्रा में शुभ दिन का विचार | Choosing the right date for the journey

सावन में जलाभिषेक के लिए जल लाने के लिए यात्रा का आरंभ शुभ दिन में किया जाना चाहिए. काँवड़ियों को यात्रा पर जाने से पहले शुभ दिन का विचार अवश्य कर लेना चाहिए. किसी व्यक्ति को जब यात्रा पर जाना हो तब जाने से पहले चंद्रमा का विचार अवश्य कर लेना चाहिए. जैसे जिस दिशा की ओर जाना हो उस राशि से संबंधित दिशा सम्मुख होनी चाहिए. उस राशि से दाईं ओर पड़ने वाली चंद्र राशि और उसकी दिशा भी शुभ मानी जाएगी. व्यक्ति को बाईं ओर पड़ने वाली चंद्र राशि और दिशा कष्टप्रद हो सकती है और बाधाओं का सामना व्यक्ति करना पड़ सकता है.

चंद्र राशि के आधार पर यात्रा का विचार | Choosing the right direction on the basis of Moon signs

बारह राशि दिशाएँ
मेष, सिंह, धनु पूर्व दिशा
मिथुन, तुला, कुंभ पश्चिम दिशा
कर्क, वृश्चिक, मीन उत्तर दिशा
वृष, कन्या, मकर दक्षिण दिशा
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श्री गणपति मंत्रोचारण एवं पूजन | Shri Ganpati Mantra ucharan and Pujan | Shri Ganesh 108 Names

श्री गणेश को सभी देवताओं में सबसे पहले प्रसन्न किया जाता है. श्री गणेश विध्न विनाशक है. श्री गणेश जी बुद्धि के देवता है, इनका उपवास रखने से मनोकामना की पूर्ति के साथ साथ बुद्धि का विकास व कार्यों में सिद्धि प्राप्त होती है. श्री गणेश को भोग में लडडू सबसे अधिक प्रिय है. विध्नहर्ता की पूजा- अर्चना और व्रत करने से व्यक्ति के समस्त संकट दूर होते है.

श्री गणपति ध्यान तथा प्रणाम | Shri Ganpati Dhyaan and Pranama

ऋग्वेद में लिखा है “न ऋते त्वम क्रियते किं चनारे” अर्थात गणेश भगवान बिना कोई भी कार्य प्रारंभ नहीं होता, आप ही वैदिक देवता हैं आप के उच्चारण से ही वेद पाठ प्रारंभ होता है, वैदिक ऋचाओं में इनका विशेष अस्तित्व रहा है पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव द्वारा इनकी पूजा किए जाने का तक उल्लेख प्राप्त होता है. इनके आहवान के लिए इन मंत्रों का जाप करना चाहिए.

विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय,

लम्बोदराय सकलाय जगत्‌ हिताय ।

नागाननाय श्रुतियज्ञभूषिताय,

गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः गणपते !

इहागच्छ इहातिष्ठ सुप्रतिष्ठो भव

मम पूजा गृहाण !

ॐ गणानान्त्वा गणपति (गुँ) हवामहे

प्रियाणान्त्वा प्रियपति (गुँ) हवामहे

निधिनान्त्वा निधिपति (गुँ) हवामहे

गणेशाष्टक | Ganeshashtak

जीवन में आने वाली किसी भी प्रकार की कठिनाईयों एवं समस्याओं से मुक्ति पाने हेतु और समस्त कामनाओं की सिद्धि के लिए गणेशाष्टक का पाठ करना उत्तम मान अगया है. यह पाठ मन को तृप्त एवं शांत करता है और सुख की अनुभूति प्रदान करने में सक्षम होता है.

गणेश अर्थ | Meaning of Ganesha

गणेश शब्द तीन शब्दों की युति अर्थात ग, ण एवं ईश से मिलकर बना है. ग शब्द ज्ञान को दर्शाता है, ण शब्द निर्वाण को दर्शाता है तथा ईश स्वामी के लिए संबोधित होता है. इस प्रकार इनका संपूर्ण मिलन ब्रह्मा, परमात्मा, आत्मा को परमत्त्व के रुप में अभिव्यक्त करता है.

श्रीगणेशाय नम: ।।

सर्वे ऊच्चु: । यतोऽनंतशक्तेरनंताश्च जीव यतो निर्गुणादप्रमेया गुणस्ते ।

यतो भाति सर्वं त्रिधा भेदभिन्नं सदा तं गणेश नमामो भजाम: ।।१।।

यतश्चाविरासीज्जगत्सर्वमेतत्तथाब्जासनो विश्वगो विश्वगोप्ता ।

तथेद्रादयो देवसंघा मनुष्या: सदा तं गणेश नमामो भजाम: ।।२।।

यतो वह्निभानू भवो भूर्जलं च यत: सागराश्चंद्रमा व्योम वायु: ।

यत: स्थावरा जंगमा वृक्षसंघा: सदा तं गणेश नमामो भजाम: ।।३।।

यतो दानवा: किन्नरा यक्षसंघा: यतश्चारणा वारणा: श्वापदाश्च ।

यत: पक्षिकीटा यतो वीरूधश्च सदा तं गणेशं नमामं भजाम: ।।४।।

यतो बुद्धिरज्ञाननाशो मुमुक्षोर्यत: संपदो भक्तसंतोषिका: स्यु: ।

यतो विघ्ननाशो यत: कार्यासिद्धि: सदा तं गणेशं नमामो भजाम: ।।५।।

यत: पुत्रसंपद्दतो वांछितार्थो यतोऽभक्तविघ्नस्तथाऽनेकरूपा: ।

यत: शोकमोहौ यत: काम एव सदा तं गणेश नमामो भजाम: ।।६।।

यतोऽनंतशक्ति: स शेषो वभूव धराधारणेऽनेकरूपे च शक्ता: ।

यतोऽनेकधा स्वर्गलोका हि नाना सदा तं गणेशं नमामो भजम: ।।७।।

यतो वेदवाचो विकुंठा मनोभि: सदा नेति नेतीति यत्तो गृणन्ति ।

परब्रह्मरूपं चिदानंदभूतं सदा तं गणेश नमामो भजाम: ।।८।।

श्री गणेश स्त्रोत | Shri Ganesha Stotra

यह गणेश स्त्रोत समस्त कार्यों की पूर्ति हेतु किया जाता है. यदि आपको जीवन का कोई कार्य पूर्ण नहीं हो पा रहा हौ या आपको अपने कार्य में परेशानियों एवं बाधाओं का सामना करना पड़ रहा हो तो इस सर्व सिद्धिकारक श्री गणेश स्त्रोत का श्रवण एवं मनन करने से समस्त अभिलाषों की पूर्ति होती है एवं सभी बाधाएं समाप्त हो जाती है.

श्रीगणेश उवाच ।।

पुनरूचे गणाधीश: स्तोत्रमेतत्पठेन्नर: ।

त्रिसन्ध्यं त्रिदिनं तस्य सर्वकार्यं भविष्यति ।।९।।

यो जपेदष्टदिवसं श्लोकाष्टकमिदं शुभम् ।

अष्टवारं चतुर्थ्यां तु सोऽष्टसिद्धिरवाप्नुयात् ।।१०।।

य: पठेन्मासमात्रं तु दशवारं दिने दिने ।

स मोचयेद्वन्धगतं राजवध्यं न संशय: ।। ।।११।।

विद्याकामो लभेद्विद्यां पुत्रार्थी पुत्रमान्मुयात् ।

वांछितांल्लभते सर्वानेकविंशतिवारत: ।।१२।।

यो जपेत्परया भक्त्या गजाननपरो नर: ।

एवमुक्त्वा ततो देवश्चांतर्धानं गत: प्रभु: ।।

कल्याण कारक गणेश भगवान | Kalyana Karaka Lord Ganesha

धर्म ग्रथों में भी इस बात का उल्लेख प्राप्त होता है कि श्री गणेश भगवान समस्त प्रकार की इच्छाओं एवं कामनाओं की पूर्ति करने वाले होते हैं. गणपति जी की पूजा भक्त को सभी संकटों से मुक्त करने के लिए एक वरदान है.

आरोग्यं भास्करादिच्छेय मिछ्येध्द्ताशनात !

ईश्वराज्ज्ञान नमन्विच्छेन्मोक्षमिच्छे ज्जनार्द्नात !!

दुर्गादिभिस्तथा रक्षां भैर्वाद्यैस्तु दुर्गमं !

विद्यासारं सरस्वत्या लक्ष्म्या चैश्वर्यवर्धनम !!

पार्वत्या चैव शौभाग्यं शच्या कल्याण संतति !

स्कंदात प्रजाभिवृद्धिं च सर्वं चैव गणाधिपात !!

मूर्तिभेदा महेशस्य त एते यन्मयोदिता !!

वसो मम ।

आहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम्‌ ॥

भगवान गणेश के नाम निम्न है  | Different names of Lord Ganesha

गणेशजी के अनेक नाम हैं लेकिन ये 12 नाम प्रमुख हैं-
सुमुख, एकदंत,कपिल, गजकर्णक, लंबोदर, विकट, विघ्न-नाश, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र, गजानन. पूजन के प्रथम मे इन नामो से गणपति के अराधना का विधान है.

भगवान गणेश के 108 नाम | 108 names of Lord Ganesha

ॐ गणनाथाय नमः, ॐ गणाधिपाय नमः, ॐ एकदंष्ट्राय नमः, ॐ लम्बोदराय नमः, ॐ गजवक्त्राय नमः, ॐ मदोदराय नमः, ॐ वक्रतुण्डाय नमः, ॐ दुर्मुखाय नमः, ॐ बुद्धाय नमः, ॐ विघ्नराजाय नमः, ॐ गजाननाय नमः, ॐ भीमाय नमः, ॐ प्रमोदाय नमः, ॐ आनन्दाय नमः, ॐ सुरानन्दाय नमः, ॐ मदोत्कटाय नमः, ॐ हेरम्बाय नमः, ॐ शम्बराय नमः, ॐ शम्भवे नमः, ॐ लम्बकर्णाय नमः, ॐ महाबलाय नमः, ॐ नन्दनाय नमः, ॐ अलम्पटाय नमः, ॐ भीमाय नमः, ॐ मेघनादाय नमः, ॐ गणञ्जयाय नमः, ॐ विनायकाय नमः, ॐ विरूपाक्षाय नमः, ॐ धीराय नमः, ॐ शूराय नमः, ॐ वरप्रदाय नमः, ॐ महागणपतये नमः, ॐ बुद्धिप्रियाय नमः, ॐ क्षिप्रप्रसादनाय नमः, ॐ रुद्रप्रियाय नमः, ॐ गणाध्यक्षाय नमः, ॐ उमापुत्राय नमः, ॐ कुमारगुरवे नमः, ॐ धूम्रवर्णाय नमः, ॐ विकटाय नम:, ॐ विघ्ननायकाय नमः, ॐ सुमुखाय नमः, ॐ ईशानपुत्राय नमः, ॐ मूषकवाहनाय नमः, ॐ सिद्धिप्रदाय नमः, ॐ सिद्धिपतये नमः, ॐ सिद्ध्यै नमः, ॐ सिद्धिविनायकाय नमः, ॐ विघ्नाय नमः, ॐ तुङ्गभुजाय नमः, ॐ सिंहवाहनाय नमः, ॐ मोहिनीप्रियाय नमः, ॐ कटिंकटाय नमः, ॐ राजपुत्राय नमः, ॐ शकलाय नमः, ॐ सम्मिताय नमः, ॐ अमिताय नमः, ॐ कूश्माण्डगणसम्भूताय नमः, ॐ दुर्जयाय नमः, ॐ धूर्जयाय नमः, ॐ अजयाय नमः, ॐ भूपतये नमः, ॐ भुवनेशाय नमः, ॐ भूतानां पतये नमः, ॐ अव्ययाय नमः, ॐ विश्वकर्त्रे नमः, ॐ विश्वमुखाय नमः, ॐ विश्वरूपाय नमः, ॐ निधये नमः, ॐ घृणये नमः, ॐ कवये नमः, ॐ कवीनामृषभाय नमः, ॐ ब्रह्मण्याय नमः, ॐ ब्रह्मणस्पतये नमः, ॐ ज्येष्ठराजाय नमः, ॐ निधिपतये नमः, ॐ सूर्यमण्डलमध्यगाय नमः, ॐ कराहतिध्वस्तसिन्धुसलिलाय नमः, ॐ निधिप्रियपतिप्रियाय नमः, ॐ हिरण्मयपुरान्तस्थाय नमः, ॐ पूषदन्तभृते नमः, ॐ उमाङ्गकेळिकुतुकिने नमः, ॐ मुक्तिदाय नमः, ॐ कुलपालकाय नमः, ॐ किरीटिने नमः, ॐ कुण्डलिने नमः, ॐ सद्योजाताय नमः, ॐ स्वर्णभुजाय नमः, ॐ मेखलिन नमः, ॐ दुर्निमित्तहृते नमः, ॐ दुस्स्वप्नहृते नमः, ॐ प्रहसनाय नमः, ॐ गुणिने नमः, ॐ हारिणे नमः, ॐ वनमालिने नमः, ॐ मनोमयाय नमः, ॐ वैमुख्यहतदृश्यश्रियै नमः, ॐ पादाहत्याजितक्षितये नमः , ॐ नादप्रतिष्ठिताय नमः, ॐ सुरूपाय नमः, ॐ सर्वनेत्राधिवासाय नमः, ॐ वीरासनाश्रयाय नमः, ॐ पीताम्बराय नमः, ॐ खड्गधराय नमः, ॐ खण्डेन्दुकृतशेखराय नमः, ॐ चित्राङ्कश्यामदशनाय नमः, ॐ फालचन्द्राय नमः, ॐ चतुर्भुजाय नमः

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