शनि जयंती 2024 | Shani Jayanti

06 जून , 2024 के दिन ज्येष्ठ अमावस्या को शनि जयंती मनाई जाएगी. इस दिन शनि देव की विशेष पूजा का विधान है. शनि देव को प्रसन्न करने के लिए अनेक मंत्रों व स्तोत्रों का गुणगान किया जाता है. शनि हिन्दू ज्योतिष में नौ मुख्य ग्रहों में से एक हैं. शनि अन्य ग्रहों की तुलना मे धीमे चलते हैं इसलिए इन्हें शनैश्चर भी कहा जाता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार शनि के जन्म के विषय में काफी कुछ बताया गया है और ज्योतिष में शनि के प्रभाव का साफ़ संकेत मिलता है. शनि ग्रह वायु तत्व और पश्चिम दिशा के स्वामी हैं. शास्त्रों के अनुसार शनि जयंती पर उनकी पूजा-आराधना और अनुष्ठान करने से शनिदेव विशिष्ट फल प्रदान करते हैं.

शनि जन्म कथा | Shani Janma Katha

शनि जन्म के संदर्भ में एक पौराणिक कथा बहुत मान्य है जिसके अनुसार शनि, सूर्य देव और उनकी पत्नी छाया के पुत्र हैं. सूर्य देव का विवाह संज्ञा से हुआ कुछ समय पश्चात उन्हें तीन संतानो के रूप में मनु, यम और यमुना की प्राप्ति हुई. इस प्रकार कुछ समय तो संज्ञा ने सूर्य के साथ निर्वाह किया परंतु संज्ञा सूर्य के तेज को अधिक समय तक सहन नहीं कर पाईं उनके लिए सूर्य का तेज सहन कर पाना मुश्किल होता जा रहा था . इसी वजह से संज्ञा ने अपनी छाया को पति सूर्य की सेवा में छोड़ कर वहां से चली चली गईं. कुछ समय बाद छाया के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ.

शनि जयंती पूजा | Shani Jayanti Puja

शनि जयंती के अवसर पर शनिदेव के निमित्त विधि-विधान से पूजा पाठ तथा व्रत किया जाता है. शनि जयंती के दिन किया गया दान पूण्य एवं पूजा पाठ शनि संबंधि सभी कष्टों दूर कर देने में सहायक होता है. शनिदेव के निमित्त पूजा करने हेतु भक्त को चाहिए कि वह शनि जयंती के दिन सुबह जल्दी स्नान आदि से निवृत्त होकर नवग्रहों को नमस्कार करते हुए शनिदेव की लोहे की मूर्ति स्थापित करें और उसे सरसों या तिल के तेल से स्नान कराएं तथा षोड्शोपचार पूजन करें साथ ही शनि मंत्र का उच्चारण करें :-ॐ शनिश्चराय नम:।।

इसके बाद पूजा सामग्री सहित शनिदेव से संबंधित वस्तुओं का दान करें. इस प्रकार पूजन के बाद दिन भर निराहार रहें व मंत्र का जप करें. शनि की कृपा एवं शांति प्राप्ति हेतु तिल , उड़द, कालीमिर्च, मूंगफली का तेल, आचार, लौंग, तेजपत्ता तथा काले नमक का उपयोग करना चाहिए, शनि देव को प्रसन्न करने के लिए हनुमान जी की पूजा करनी चाहिए. शनि के लिए दान में दी जाने वाली वस्तुओं में काले कपडे, जामुन, काली उडद, काले जूते, तिल, लोहा, तेल,  आदि वस्तुओं को शनि के निमित्त दान में दे सकते हैं.

शनि जयंती महत्व | Significance of Shani Jyanti

इस दिन प्रमुख शनि मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है. भारत में स्थित प्रमुख शनि मंदिरों में भक्त शनि देव से संबंधित पूजा पाठ करते हैं तथा शनि पीड़ा से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं. शनि देव को काला या कृष्ण वर्ण का बताया जाता है इसलिए इन्हें काला रंग अधिक प्रिय है. शनि देव काले वस्त्रों में सुशोभित हैं. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शनिदेव का जन्म ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि के दिन हुआ है. जन्म के समय से ही शनि देव श्याम वर्ण, लंबे शरीर, बड़ी आंखों वाले और बड़े केशों वाले थे. यह न्याय के देवता हैं,  योगी, तपस्या में लीन और हमेशा दूसरों की सहायता करने वाले होते हैं. शनि ग्रह को न्याय का देवता कहा जाता है यह जीवों को सभी कर्मों का फल प्रदान करते हैं.

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निर्जला एकादशी व्रत 2024 | Nirjala Ekadashi Vrat

एकादशी दो तरह की होती है. विद्धा एकादशी और शुद्धा एकादशी. सूर्योदयकाल में यदि दशमी तिथि का वेध हो या अरुणोदयकाल में एकादशी में दशमी का वेध हो तब यह एकादशी विद्धा कहलाती है.

यदि अरुणोदयकाल में दशमी के वेध से रहित एकादशी हो तब उसे शुद्धा एकादशी माना जाता है. प्राय: सभी शास्त्रों में दशमी से युक्त एकादशी व्रत करने का निषेध माना गया है. यदि शुद्धा एकादशी दो घड़ी तक भी हो और वह द्वादशी तिथि से युक्त हो तब उसे ही व्रत के लिए ग्रहण करना चाहिए.

इस वर्ष 2024 में निर्जला एकादशी का व्रत 18 जून को रखा जाएगा. ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की निर्जला एकादशी को भीमसेनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. ऋषि वेदव्यास जी के अनुसार इस एकादशी को भीमसेन ने धारण किया था. इसी वजह से इस एकादशी का नाम भीमसेनी एकादशी पडा. इस एकादशी के दिन व्रत व उपवास करने का विधान भी है. इस व्रत को करने से व्यक्ति को दीर्घायु तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है. निर्जला अर्थात जल के बिना रहना इस कारण इसे निर्जला एकादशी कहा जाता है यह एक कठिन व्रत होता है. इस व्रत को निर्जल रखा जाता है अर्थात इस व्रत में जल का सेवन भी नहीं किया जाता .

इस एकादशी को करने से वर्ष की 24 एकादशियों के व्रत के समान फल मिलता है. यह व्रत करने के पश्चात द्वादशी तिथि में ब्रह्मा बेला में उठकर स्नान,दान तथा ब्राह्माण को भोजन कराना चाहिए. इस दिन “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का जाप करके गौदान, वस्त्रदान, छत्र, फल आदि दान करना चाहिए.

निर्जला एकादशी पूजा | Nirjala Ekadashi Pooja

निर्जला एकादशी का व्रत करने के लिये दशमी तिथि से ही व्रत के नियमों का पालन आरंभ हो जाता है. इस एकादशी में “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का उच्चारण करना चाहिए. इस दिन गौ दान करने का भी विशेष महत्व होता है. इस दिन व्रत करने के अतिरिक्त जप, तप गंगा स्नान आदि कार्य करना शुभ रहता है.

इस व्रत में सबसे पहले श्री विष्णु जी की पूजा कि जाती है तथा व्रत कथा को सुना जाता है. पूजा पाठ के पश्चात सामर्थ अनुसार ब्राह्माणों को दक्षिणा, मिष्ठान आदि देना चाहिए संभव हो सके तो व्रत की रात्रि में जागरण करना चाहिए.

निर्जला एकादशी व्रत कथा | Nirjala Ekadashi Fast Story

निर्जला एकादशी व्रत की कथा इस प्रकार है – महाभारत काल में भीमसेन ने व्यास जी से कहा की हे भगवान, युधिष्ठर, अर्जुन, नकुल, सहदेव, कुन्ती तथा द्रौपदी सभी एकादशी के दिन व्रत किया करते हैं परंतु मैं भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता. मैं दान देकर वासुदेव भगवान की अर्चना करके प्रसन्न कर सकता हूं. मैं बिना काया कलेश की ही फल प्राप्त करना चाहता हूं अत: आप कृपा करके मेरी सहायता करें.

इस पर वेद व्याद जी भीमसेन से कहते हैं कि हे भीम अगर तुम स्वर्गलोक जाना चाहते हो, तो दोनों एकादशियों का व्रत बिना भोजन ग्रहण किए करो क्योंकि ज्येष्ठ मास की एकादशी का निर्जल व्रत करना विशेष शुभ कहा गया है. इस व्रत में आचमन में जल ग्रहण कर सकते है. अन्नाहार करने से व्रत खंडित हो जाता है. व्यास जी की आज्ञा अनुसार भीमसेन ने यह व्रत किया और वे पाप मुक्त हो गये.

निर्जला एकादशी व्रत का महत्व | Significance of nirjala ekadasi vrat

मिथुन संक्रान्ति के मध्य ज्येष्ठ मास की शुक्लपक्ष की एकादशी को निर्जल व्रत किया जाता है. सूर्योदय से व्रत का अरंभ हो जाता है. इसके अतिरिक्त द्वादशी के दिन सूर्योदय से पहले ही उठना चाहिए. इस एकादशी का व्रत करना सभी तीर्थों में स्नान करने के समान है. निर्जला एकादशी का व्रत करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्ति पाता है. जो मनुष्य़ निर्जला एकादशी का व्रत करता है उनको मृत्यु के समय मानसिक और शारीरिक कष्ट नही होता है. यह एकादशी पांडव एकादशी के नाम से भी जानी जाती है. इस व्रत को करने के बाद जो व्यक्ति स्नान, तप और दान करता है, उसे करोडों गायों को दान करने के समान फल प्राप्त होता है.

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शत्रु नाशक श्री बगलामुखी साधना | Shri Baglamukhi Sadhana to defeat enemies | Baglamukhi Sadhana

देवी बगलामुखी दस महाविद्या में आठवीं महाविद्या हैं यह माँ बगलामुखी स्तंभन शक्ति की अधिष्ठात्री हैं. इन्हीं में संपूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्ति का समावेश है. माता बगलामुखी की उपासना से शत्रुनाश, वाकसिद्धि, वाद विवाद में विजय प्राप्त होती है. इनकी उपासना से शत्रुओं का नाश होता है तथा भक्त का जीवन हर  प्रकार की बाधा से मुक्त हो जाता है. बगला शब्द संस्कृत भाषा के वल्गा का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता है दुलहन है अत: मां के अलौकिक सौंदर्य और स्तंभन शक्ति के कारण ही इन्हें यह नाम प्राप्त है.

देवी बगलामुखी भक्तों के भय को दूर करके शत्रुओं और बुरी शक्तियों का नाश करती हैं. माँ बगलामुखी का एक नाम पीताम्बरा भी है इन्हें पीला रंग अति प्रिय है इसलिए इनके पूजन में पीले रंग की सामग्री का उपयोग सबसे ज्यादा होता है. देवी बगलामुखी का रंग स्वर्ण के समान पीला होता है अत: साधक को माता बगलामुखी की आराधना करते समय पीले वस्त्र ही धारण करना चाहिए.

बगलामुखी देवी रत्नजडित सिहासन पर विराजती होती हैं रत्नमय रथ पर आरूढ़ हो शत्रुओं का नाश करती हैं. देवी के भक्त को तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पाता, वह जीवन के हर क्षेत्र में सफलता पाता है पीले फूल और नारियल चढाने से देवी प्रसन्न होतीं हैं. देवी को पीली हल्दी के ढेर पर दीप-दान करें, देवी की मूर्ति पर पीला वस्त्र चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है, बगलामुखी देवी के मन्त्रों से दुखों का नाश होता है.

मां बगलामुखी पूजन | Goddess Baglamukhi Pujan

माँ बगलामुखी की पूजा हेतु इस दिन प्रात: काल उठकर नित्य कर्मों में निवृत्त होकर, पीले वस्त्र धारण करने चाहिए. साधना अकेले में, मंदिर में या किसी सिद्ध पुरुष के साथ बैठकर की जानी चाहिए. पूजा करने के लुए  पूर्व दिशा की ओर मुख करके पूजा करने के लिए आसन पर बैठें चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर भगवती बगलामुखी का चित्र स्थापित करें.

आसन पवित्रीकरण, स्वस्तिवाचन, दीप प्रज्जवलन के बाद हाथ में पीले चावल, हरिद्रा, पीले फूल और दक्षिणा लेकर संकल्प करें. इस पूजा में  ब्रह्मचर्य का पालन करना आवशयक होता है  मंत्र- सिद्ध करने की साधना में माँ बगलामुखी का पूजन यंत्र चने की दाल से बनाया जाता है और यदि हो सके तो ताम्रपत्र या चाँदी के पत्र पर इसे अंकित करें.

माँ बगलामुखी यंत्र – मंत्र साधना | Goddess Baglamukhi yantra-tantra Sadhana

श्री ब्रह्मास्त्र-विद्या बगलामुख्या नारद ऋषये नम: शिरसि।

त्रिष्टुप् छन्दसे नमो मुखे। श्री बगलामुखी दैवतायै नमो ह्रदये।

ह्रीं बीजाय नमो गुह्ये। स्वाहा शक्तये नम: पाद्यो:।

ऊँ नम: सर्वांगं श्री बगलामुखी देवता प्रसाद सिद्धयर्थ न्यासे विनियोग:।

इसके पश्चात आवाहन करना चाहिए

ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं बगलामुखी सर्वदृष्टानां मुखं स्तम्भिनि सकल मनोहारिणी अम्बिके इहागच्छ

सन्निधि कुरू सर्वार्थ साधय साधय स्वाहा।

ध्यान | Meditation

सौवर्णामनसंस्थितां त्रिनयनां पीतांशुकोल्लसिनीम्

हेमावांगरूचि शशांक मुकुटां सच्चम्पकस्रग्युताम्

हस्तैर्मुद़गर पाशवज्ररसना सम्बि भ्रति भूषणै

व्याप्तांगी बगलामुखी त्रिजगतां सस्तम्भिनौ चिन्तयेत्।

विनियोग | Viniyoga

ॐ अस्य श्रीबगलामुखी ब्रह्मास्त्र-मन्त्र-कवचस्य भैरव ऋषिः

विराट् छन्दः, श्रीबगलामुखी देवता, क्लीं बीजम्, ऐं शक्तिः

श्रीं कीलकं, मम (परस्य) च मनोभिलषितेष्टकार्य सिद्धये विनियोगः ।

न्यास | Nyaas

भैरव ऋषये नमः शिरसि, विराट् छन्दसे नमः मुखे

श्रीबगलामुखी देवतायै नमः हृदि, क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, ऐं शक्तये नमः पादयोः

श्रीं कीलकाय नमः नाभौ मम (परस्य) च मनोभिलषितेष्टकार्य सिद्धये विनियोगाय नमः सर्वांगे ।

मन्त्रोद्धार | Mantrodar

ॐ ह्रीं ऐं श्रीं क्लीं श्रीबगलानने मम रिपून् नाशय नाशय, ममैश्वर्याणि देहि देहि शीघ्रं मनोवाञ्छितं कार्यं साधय साधय ह्रीं स्वाहा ।

मंत्र | Mantra

ऊँ ह्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां

वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्ववां कीलय

बुद्धि विनाशय ह्रीं ओम् स्वाहा।

बगलामुखी कवच-पाठ | Baglamukhi Kawach-path

शिरो मेंपातु ॐ ह्रीं ऐं श्रीं क्लीं पातुललाटकम ।

सम्बोधनपदं पातु नेत्रे श्रीबगलानने ।। १

श्रुतौ मम रिपुं पातु नासिकां नाशयद्वयम् ।

पातु गण्डौ सदा मामैश्वर्याण्यन्तं तु मस्तकम् ।। २

देहिद्वन्द्वं सदा जिह्वां पातु शीघ्रं वचो मम ।

कण्ठदेशं मनः पातु वाञ्छितं बाहुमूलकम् ।। ३

कार्यं साधयद्वन्द्वं तु करौ पातु सदा मम ।

मायायुक्ता तथा स्वाहा, हृदयं पातु सर्वदा ।। ४

अष्टाधिक चत्वारिंशदण्डाढया बगलामुखी ।

रक्षां करोतु सर्वत्र गृहेरण्ये सदा मम ।। ५

ब्रह्मास्त्राख्यो मनुः पातु सर्वांगे सर्वसन्धिषु ।

मन्त्रराजः सदा रक्षां करोतु मम सर्वदा ।। ६

ॐ ह्रीं पातु नाभिदेशं कटिं मे बगलावतु ।

मुखिवर्णद्वयं पातु लिंग मे मुष्क-युग्मकम् ।। ७

जानुनी सर्वदुष्टानां पातु मे वर्णपञ्चकम् ।

वाचं मुखं तथा पादं षड्वर्णाः परमेश्वरी ।। ८

जंघायुग्मे सदा पातु बगला रिपुमोहिनी ।

स्तम्भयेति पदं पृष्ठं पातु वर्णत्रयं मम ।। ९

जिह्वावर्णद्वयं पातु गुल्फौ मे कीलयेति च ।

पादोर्ध्व सर्वदा पातु बुद्धिं पादतले मम ।। १०

विनाशयपदं पातु पादांगुल्योर्नखानि मे ।

ह्रीं बीजं सर्वदा पातु बुद्धिन्द्रियवचांसि मे ।। ११

सर्वांगं प्रणवः पातु स्वाहा रोमाणि मेवतु ।

ब्राह्मी पूर्वदले पातु चाग्नेय्यां विष्णुवल्लभा ।। १२

माहेशी दक्षिणे पातु चामुण्डा राक्षसेवतु ।

कौमारी पश्चिमे पातु वायव्ये चापराजिता ।। १३

वाराही चोत्तरे पातु नारसिंही शिवेवतु ।

ऊर्ध्वं पातु महालक्ष्मीः पाताले शारदावतु ।। १४

इत्यष्टौ शक्तयः पान्तु सायुधाश्च सवाहनाः ।

राजद्वारे महादुर्गे पातु मां गणनायकः ।। १५

श्मशाने जलमध्ये च भैरवश्च सदाऽवतु ।

द्विभुजा रक्तवसनाः सर्वाभरणभूषिताः ।। १६

योगिन्यः सर्वदा पान्तु महारण्ये सदा मम ।

इति ते कथितं देवि कवचं परमाद्भुतम् ।। १७

बगालामुखि – पूजन का यंत्र | Baglamukhi – Puja Yantra

पहले त्रिकोण बनाकर, उसके बाहर षटकोण अंकित करके वृत्त तथा अष्टदल पद्म को अंकित करे! उसके बहिर्भाग में भूपुर अंकित करके यंत्र को प्रस्तुत करना चाहिए! यंत्र को अष्टगंध से भोजपत्र के ऊपर लिखना चाहिए!

माँ बगलामुखी की साधना करने वाला साधक सर्वशक्ति सम्पन्न हो जाता है. यह मंत्र विधा अपना कार्य करने में सक्षम हैं. मंत्र का सही विधि द्वारा जाप किया जाए तो निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होती है. बगलामुखी मंत्र के जाप से पूर्व बगलामुखी कवच का पाठ अवश्य करना चाहिए. देवी बगलामुखी पूजा अर्चना सर्वशक्ति सम्पन्न बनाने वाली सभी शत्रुओं का शमन करने वाली तथा मुकदमों में विजय दिलाने वाली होती है.

पीत वस्त्र धारण कर. हल्दी की गाँठ से निर्मित अर्थात जिसमें हल्दी की गाँठ लगी हुई हों,  माला से प्रतिदिन एक लाख की संख्या में मन्त्र का जप करना चाहिए.

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दुर्गा अष्टमी महाविद्या पूजा | Durga Ashtami Mahavidya Puja | Goddess Dhumavati | Durga Ashtami

मां शक्ति की दस महा विद्या का पूजन वर्ष के विभिन्न मासों में किया जाता है और यह दस महा विद्याओं का पूजन गुप्त साधना के रुप में भी जाना जाता है. धूमावती देवी के स्तोत्र पाठ व सामूहिक जप का अनुष्ठान होता है. काले वस्त्र में काले तिल बांधकर मां को भेंट करने से साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

महाविद्या आराधना जो अधिकांश तान्त्रिक साधकों के लिए मुख्य पूजा साधना होती है और साधारण भक्तों को भी अचूक सिद्धि प्रदान करने वाली होती है. महाविद्या उपासना में भक्त एकांत वास में साधना करते हुए अपने को सबल बनाने का प्रयास करता है देवी कि उपासन अका एक अभेद रुप जब साधक हृदय में समाहित होता है.

धर्म ग्रंथों के अनुसार मां धूमावती अपनी क्षुधा शांत करने के लिए भगवान शंकर को निगल जाती हैं. इस कारण मां के शरीर से धुंआ निकलने लगा और उनका स्वरूप विकृत और श्रृंगार विहीन हो जाता है जिस कारण उनका नाम धूमावती पड़ता है.

माँ धूमावती मंत्र | Goddess Dhumavati Mantra

  • ॐ धूं धूं धूमावती स्वाहा
  • ॐ धूं धूं धूमावती ठ: ठ:

देवी धूमावती के विषय में पुराणों में कहा गया है कि जब देवी भगवान शिव से कुछ भोजन की मांग करती हैं. इस पर महादेव पार्वती जी से कुछ समय इंतजार करने को कहते हैं. समय बीतने लगता है परंतु भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाती और देवी भूख से व्याकुल होकर भगवान शिव को ही निगल जाती हैं. महादेव को निगलने पर देवी पार्वती के शरीर से धुआँ निकलने लगाता है. धूम्र से व्याप्त शरीर के कारण तुम्हारा एक नाम धूमावती होगा. भगवान कहते हैं तुमने जब मुझे खाया तब विधवा हो गई अत: अब तुम्हारी इसी रुप पूजा होगी. तब से माता धूमावती इसी रुप में पूजी जाती हैं.

दुर्गा अष्टमी महत्व | Significance of Durga Ashtami

देवी का स्वरुप मलिन और भयंकर प्रतीत होता है.यह श्वेत वस्त्र धारण किए हुए, खुले केश रुप में होती हैं. मां धूमावती के दर्शन से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है. धूमावती दीक्षा प्राप्त होने से साधक मजबूत तथा सुदृढ़ बनता है. नेत्रों में प्रबल तेज व्याप्त होता है, शत्रु भयभीत रहते हैं. किसी भी प्रकार की तंत्र बाधा या प्रेत बाधा क्षीण हो जाती है. मन में अदभुद साहस का संचार हो जाता है तथा भय का नाश होता है.  तंत्र की कई क्रियाओं का रहस्य इस दीक्षा के माध्यम से साधक के समक्ष खुल जाता है. नष्ट व संहार करने की सभी क्षमताएं देवी में निहीत हैं.

सृष्टि कलह के देवी होने के कारण इनको कलहप्रिय भी कहा जाता है. चौमासा देवी का प्रमुख समय होता है जब देवी का पूजा पाठ किया जाता है. माँ धूमावती जी का रूप अत्यंत भयंकर हैं इन्होंने ऐसा रूप शत्रुओं के संहार के लिए ही धारण किया है. यह विधवा हैं, केश उन्मुक्त और रुक्ष हैं. इनके रथ के ध्वज पर काक का चिन्ह है. इन्होंने हाथ में शूर्पधारण कर रखा है, यह भय-कारक एवं कलह-प्रिय हैं. ऋषि दुर्वासा, भृगु, परशुराम आदि की मूल शक्ति धूमावती हैं. माँ की पूजा बहुत कठिन है जो इनकी भक्ति को पा लेता है उसके सभी कष्टों का नाश हो जाता है.

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गणेश पूजन | Worship Lord Ganesha | Lord Ganesha | Lord Ganesha Pooja

गणेश का अनुसरण मात्र ही सभी संकटों का हरण कर देता है तथा सभी कार्य सफलता पूर्वक पूर्ण हो जाते हैं. गज जैसा सिर होने के कारण यह गजानन भी कहे जाते हैं. गणपति आदिदेव हैं अपने भक्तों के समस्त संकटों को दूर करके उन्हें मुक्त करते हैं गणों के स्वामी होने के कारण इन्हें गणपति कहा जाता है.

ऋग्वेद में लिखा है “न ऋते त्वम क्रियते किं चनारे” अर्थात गणेश भगवान बिना कोई भी कार्य प्रारंभ नहीं होता, आप ही वैदिक देवता हैं आप के उच्चारण से ही वेद पाठ प्रारंभ होता है, वैदिक ऋचाओं में इनका विशेष अस्तित्व रहा है पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव द्वारा इनकी पूजा किए जाने का तक उल्लेख प्राप्त होता है.

भगवान गणेश देवों में सर्वप्रथम पूजनीय देव महादेव शिव एवं देवी शक्ति पार्वती के पुत्र हैं गणेश जी को विघ्न विनाशक एवं बुद्धि दाता कहा जाता है. हिन्दू धर्म में किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पूर्व भगवान श्री गणेश जी का आहवान ही किया जाता है तत्पश्चात अन्य धार्मिक कार्यक्रम आरंभ होते हैं, क्योंकि भगवान श्री

गणेश भगवान के नाम | Different names of lord Ganesha

गणेश भगवान को अनेक नामों से पुकारा जाता है. गणपति के नाम इनके रूप की ही तरह ही प्रभाव युक्त रहे हैं गणपति भगवान के अनेक नाम हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं एकदंत, सुमुख, लंबोदर, विनायक, कपिल, गजकर्णक, विकट, विघ्न-नाश, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र तथा गजानन तथा गणेश.

भगवान गणेश  पूजन | Lord Ganesha Pujan

गणपति जी के के पिता भगवान शिव हैं उनकी माता देवी पार्वती जी हैं इनके भाई का नाम कार्तिकय(स्कंद) है इनकी दो पत्नी हैं रिद्धि, सिद्धि हैं परंतु दक्षिण भारतीय संस्कृति में गणेशजी को ब्रह्मचारी रूप में दर्शाया गया है. इनके दो पुत्र शुभ एवं लाभ हैं, भगवान गणेश की सवारी मूषक है इनका प्रिय मोदक बहुत प्रिय हैं भक्त इनके प्रसाद में मोदक, लड्डू का भोग लगाते हैं, इनके अस्त्रों में अंकुश एवं पाश है, चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक उनकी चार भुजाएँ हैं, उनका लंबोदर रूप “समस्त सृष्टि उनके उदर में विचरती है” का भाव है बड़े-बडे़ कान अधिक ग्राह्यशक्ति का तथा आँखें सूक्ष्म तीक्ष्ण दृष्टि की सूचक हैं, उनकी लंबी सूंड महाबुद्धित्व का प्रतीक है,

गणेशजी हिन्दू शास्त्रों के अनुसार किसी भी कार्य के लिये पहले पूज्य है अत: इन्हें आदीपूज्य कहा गया है गणेश जी की भक्ति और पूजा करने से कष्टों से मुक्ति तथा सभी सुखों की प्राप्ति होती है. गणेश चतुर्थी के दिन गणेश पूजन का विशेष विधान है, गणेश चतुर्थी से अंनत चतुर्दशी तक दस दिन गणेशोत्सव मनाया जाता है, तथा एक अन्य मतानुसार शिव पुराण में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मंगल मूर्ति गणेश की अवतरण तिथि मानी गई है, गणेश पुराण के मत से यह गणेशावतार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुआ था.

भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी से प्रारंभ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चंद्रोदयव्यापिनी चतुर्थी के दिन व्रत करने पर विघ्नेश्वर गणेश प्रसन्न होकर समस्त संकट दूर कर देते हैं, बुद्धवार का दिन श्री गणेश की उपासना के लिए श्रेष्ठ माना जाता है. श्रद्धा और भक्ति से गणेश जी की पूजा करने से सभी कार्य सफल होते हैं.

गणपति मंत्र । Lord Ganpati Mantra

  • ऊँ गं गणपतये नम:
  • “ ॐ तत्पुरूषाय विद्यहे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ति प्रचोदयात”
  • ॐ श्री विध्नेश्वार्य नम:
  • ऊँ श्री गणेशाय नम:

इन मंत्रों के अतिरिक्त गणेश चालीसा एवं गणेश वंदना करना लाभदायक है. श्री गणेश का स्मरण और श्री गणेश मंत्रों का उच्चारण करने से सभी संकट एवं मुसीबतें दूर हो जाती हैं.

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वट सावित्री व्रत 2023 | Vat Savitri Fast Katha

वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है. इस वर्ष 2024 में यह व्रत 06 जून को मनाया जाएगा. यह व्रत सौभाग्य की कामना एवं संतान की प्राप्ति हेतु फलदायी माना जाता है. वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ.  भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक माना गया है. स्कंद पुराण, भविष्योत्तर पुराण तथा निर्णयामृत आदि में इस व्रत के विषय में विस्तार पूर्वक बताया गया है.

सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को दर्शाता यह व्रत ‘वट’ और ‘सावित्री’ दोनों का विशिष्ट महत्व व्यक्त करता है. पीपल कि भांति वट वृक्ष को भी हिंदु धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है. धर्म ग्रंथों में वट वृक्ष के भीतर ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास माना गया है तथा इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से समस्त इच्छाएं पूर्ण होती हैं.

इस दिन सत्यवान सावित्री की यमराज सहित पूजा की जाती है. यह व्रत करने से स्त्री का सुहाग अचल रहता है. सावित्री ने इसी व्रत को कर अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से जीत लिया था. इस दिन उपवासक को सुवर्ण या मिट्टी से सावित्री-सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यमराज कि प्रतिमा बनाकर धूप-चन्दन, फल, रोली, केसर से पूजन करना चाहिए. तथा सावित्री-सत्यवान कि कथा सुननी चाहिए.

वट सावित्री व्रत कथा | Vat Savitri Fast Story

सावित्री भारतीय संस्कृति में महान ऐतिहासिक चरित्र हुई हैं. सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था. कहते हैं कि भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी. उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए अनेक वर्षों तक तप किया जिससे प्रसन्न हो देवी सावित्री ने प्रकट होकर उन्हें पुत्री का वरदान दिया जिसके फलस्वरूप राजा को पुत्री प्राप्त हुई और उस कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया

सावित्री सभी गुणों से संपन्न कन्या थी जिसके लिए योग्य वर न मिलने के कारण सावित्री के पिता दुःखी रहने लगे एक बार उन्होंने पुत्री को स्वयं वर तलाशने भेजा इस खोज में सावित्री एक वन में जा पहुंची जहां उसकी भेंट साल्व देश के राजा द्युमत्सेन से होती है. द्युमत्सेन उसी तपोवन में रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था. सावित्री ने उनके पुत्र सत्यवान को देखकर उन्हें पति के रूप में वरण किया.

इधर यह बात जब ऋषिराज नारद को ज्ञात हुई तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे- आपकी कन्या ने वर खोजने में भारी भूल कि है. सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा है परन्तु वह अल्पायु है और एक वर्ष के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी. नारद जी के वचन सुन राजा अश्वपति का चेहरा विवर्ण हो गया. “वृथा न होहिं देव ऋषि बानी” ऎसा विचार करके उन्होने अपनी पुत्री को समझाया की ऎसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं है. इसलिये अन्य कोई वर चुन लो.

इस पर सावित्री अपने पिता से कहती है कि पिताजी- आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही वरण करती है, तथा कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है. अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान को ही वर रुप में स्वीकार कर चुकी हूँ. इस बात को सुन दोनों का विधि विधान के साथ पाणिग्रहण संस्कार किया गया और सावित्री अपने ससुराल पहुंचते ही सास-ससुर की सेवा में रत हो गई. समय बदला, नारद का वचन सावित्री को दिन -प्रतिदिन अधीर करने लगा. उसने जब जाना कि पति की मृत्यु का दिन नजदीक आ गया है तब तीन दिन पूर्व से ही उपवास शुरु कर दिया. नारद द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया. नित्य की भांति उस दिन भी सत्यवान अपने समय पर लकडी काटने के लिये चला गया तो सावित्री भी सास-ससुर की आज्ञा से अपने पति के साथ जंगल में चलने के लिए तैयार हो गई़.

सत्यवान वन में पहुंचकर लकडी काटने के लिये वृ्क्ष पर चढ गया. वृ्क्ष पर चढते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीडा होने लगी. वह व्याकुल हो गया और वृक्ष से नीचे उतर गया. सावित्री अपना भविष्य समझ गई तथा अपनी गोद का सिरहाना बनाकर अपने पति को लिटा लिया. उसी समय दक्षिण दिशा से अत्यन्त प्रभावशाली महिषारुढ यमराज को आते देखा. धर्मराज सत्यवान के जीवन को जब लेकर चल दिए तो सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पडी. पहले तो यमराज ने उसे देवी-विधान समझाया परन्तु उसकी निष्ठा और पतिपरायणता देख कर उसे वर मांगने के लिये कहा.

सावित्री बोली – मेरे सास-ससुर वनवासी तथा अंधे है उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें. यमराज ने कहा ऎसा ही होगा और अब तुम लौट जाओ. यमराज की बात सुनकर उसने कहा – भगवान मुझे अपने पतिदेव के पीछे पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है. पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है. यह सुनकर उन्होने फिर से उसे एक और वर मांगने के लिये कहा. सावित्री बोली-हमारे ससुर का राज्य छिन गया है, उसे वे पुन: प्राप्त कर सकें, साथ ही धर्मपरायण बने रहें. यमराज ने यह वर देकर कहा की अच्छा अब तुम लौट जाओ परंतु वह न मानी.

यमराज ने कहा कि पति के प्राणों के अलावा जो भी मांगना है मांग लो और लौट जाओ इस बार सावित्री ने अपने को सत्यवान के सौ पुत्रों की माँ बनने का वरदान मांगा यमराज ने तथास्तु कहा और आगे चल दिये सावित्री फ़िर भी उनके पीछे पीछे चलती रही उसके इस कृत से यमराज नाराज हो जाते हैं. यमराज को क्रोधित होते देख सावित्री उन्हें नमन करते हुए उन्हें कहती है कि आपने मुझे सौ पुत्रों की माँ बनने का आशीर्वाद तो दे दिया लेकिन बिना पति के मैं मां किस प्रकार से बन सकती हूँ इसलिये आप अपने तीसरे वरदान को पूरा करने के लिये अपना कहा पूरा करें.

सावित्री की पतिव्रत धर्म की बात जानकर यमराज ने सत्यवान के प्राण को अपने पाश से मुक्त कर दिया सावित्री सत्यवान के प्राणों लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुंची और सत्यवान जीवित होकर उठ बैठे दोनों हर्षित होकर अपनी राजधानी की ओर चल पडे. वहां पहुंच कर उन्होने देखा की उनके माता-पिता को दिव्य ज्योति प्राप्त हो गई है. इस प्रकार सावित्री-सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहें. वट सावित्री व्रत करने और इस कथा को सुनने से उपवासक के वैवाहिक जीवन या जीवन साथी की आयु पर किसी प्रकार का कोई संकट आया भी हो तो टल जाता है.

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अचला एकादशी व्रत 2024 | Achla Ekadashi Fast – Apara Ekadashi Fast

अपरा या अचला एकादशी वर्त 03 जून 2024 के दिन ज्येष्ठ मास के कृ्ष्ण पक्ष की एकादशी को मनाई जाएगी. यह व्रत पुण्यों को प्रदान करने वाला एवं समस्त पापों को नष्ट करने वाला होता है. इस व्रत को करने से व्यक्ति को अपार धन संपदा प्राप्त होती है. इस व्रत को करने वाला प्रसिद्धि को पाता है. अपरा एकादशी के प्रभाव से बुरे कर्मों से छुटकारा मिलता है. इसके करने से कीर्ति, पुण्य तथा धन में अभिवृ्द्धि होती है.

अचला एकादशी का महत्व | Importance of Achla Ekadashi

शास्त्रों में कहा गया है कि जिस प्रकार मनुष्य को कार्तिक मास में स्नान अथवा गंगाजी के तट पर पितरों को पिंड दान करने से जो फल मिलता है. वैसा ही फल उसे अपरा एकाद्शी का व्रत करने से प्राप्त होता है. व्यक्ति  का गोमती में स्नान, करने से कुम्भ में श्री केदारनाथ जी के दर्शन करने से तथा बद्रिकाश्रम में रहने से तथा सूर्य-चन्द्र ग्रहण में कुरुक्षेत्र में स्नान करने का जो महत्व है. वही अपरा एकादशी का व्रत का महत्व होता है.

अपरा या अचला एकादशी का फल, हाथी घोडे के दान, यज्ञ करने , स्वर्ण दान करने जैसा ही है. गौ व भूमि स्वर्ण के दान का फल भी इसके फल के बराबर होता है.  अपरा का व्रत पाप रुपी अन्धकार के लिये सूर्य के के प्रकाश समान है. इसलिये जो मनुष्य इस अमूल्य देह को पाकर इस महत्व पूर्ण व्रत को करता है वह धन्य है.

अचला एकादशी पूजा-विधि | Procedure of Achla Ekadashi puja

अपरा एकादशी व्रत के दून पूजा का विशेष विधान रहता है इसमें साफ सफाई एवं मन की स्वच्छता का पूरा ध्यान रखा जाता है. इस व्रत का प्रारम्भ दशमी तिथि से ही आरंभ हो जाता है. दशमी तिथि से ही भोजन और आचार-विचार में संयम रखना चाहिए. एकादशी तिथि के दिन प्रात: काल में जल्द उठ कर अन्य क्रियाओं से निवृत होकर स्नान आदि करके व्रत का संकल्प और श्री विष्णु भगवान की पूजा करें पूरे दिन व्रत कर संध्या समय में फल आदि से भगवान को भोग लगा कर, श्री विष्णु जी की पूजा धूप, दीप और फूलों से करते हुए कथा का श्रवण करना चाहिए इसके पश्चात समस्त लोगों में भगवान का प्रसाद वितरित करें.

अचला एकादशी व्रत कथा | Story of Achla Ekadashi Fast

धर्म ग्रंथों में अचला एकादशी व्रत के साथ एक कथा कही गई है जो इस प्रकार है कि महिध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था उसका छोटा भाई बज्रध्वज बहुत ही क्रूर, अधर्मी तथा अन्यायी व्यक्ति था. वह अपने बडे भाई से बडा द्वेष रखता था तथा वह स्वभाव से अवसरावादी था. एक रात्रि उसने अपने बडे भाई की हत्या कर देता है और उसकी देह को पीपल के वृक्ष के नीचे दबा देता है.

मृत्यु के उपरान्त वह पीपल के वृक्ष पर उत्पात करने लगा जिस कारण वहां रहने वाले सभी लोग भयभीत रहने लगे अकस्मात एक दिन धौम्य नामक ऋषि उधर से गुजरते हैं जब उन्हें इस बात का बोध होता है तो वह अपने तपोबल से उस आत्मा को पीपल एक पेड से नीचे उतारते हैं और उसे विधा का उपदेश देते हैं. प्रेत्मात्मा को मुक्ति के लिये अपरा एकादशी व्रत करने का मार्ग दिखाते हैं. इस प्रकार इस व्रत को करने से उसे प्रेत योनि से मुक्ति मिलत जाती है और मोक्ष प्राप्त होता है.

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आठ प्रमुख सिद्धियाँ | Aath Siddhia | Ashta Siddhia | Ashta Siddhi | Siddhia

सिद्धि अर्थात पूर्णता की प्राप्ति होना व सफलता की अनुभूति मिलना. सिद्धि को प्राप्त करने का मार्ग एक कठिन मार्ग हो ओर जो इन सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है वह जीवन की पूर्णता को पा लेता है. असामान्य कौशल या क्षमता अर्जित करने को ‘सिद्धि’ कहा गया है. चमत्कारिक साधनों द्वारा ‘अलौकिक शक्तियों को पाना जैसे – दिव्यदृष्टि, अपना आकार छोटा कर लेना, घटनाओं की स्मृति प्राप्त कर लेना इत्यादि. ‘सिद्धि’ इसी अर्थ में प्रयुक्त होती है.

शास्त्रों में अनेक सिद्धियों की चर्चा की गई है और इन सिद्धियों को यदि नियमित और अनुशासनबद्ध रहकर किया जाए तो अनेक प्रकार की परा और अपरा सिद्धियाँ प्राप्त कि जा सकती है. सिद्धियाँ दो प्रकार की होती हैं, एक परा और दूसरी अपरा. यह सिद्धियां इंद्रियों के नियंत्रण और व्यापकता को दर्शाती हैं. सब प्रकार की उत्तम, मध्यम और अधम सिद्धियाँ अपरा सिद्धियां कहलाती है . मुख्य सिद्धियाँ आठ प्रकार की कही गई हैं. इन सिद्धियों को पाने के उपरांत साधक के लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं रह जाता.

सिद्धियां क्या हैं व इनसे क्या हो सकता है इन सभी का उल्लेख मार्कंडेय पुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में प्राप्त होता है जो इस प्रकार है:- अणिमा लघिमा गरिमा प्राप्ति: प्राकाम्यंमहिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वंच  सर्वकामावशायिता:।।

यह आठ मुख्य सिद्धियाँ इस प्रकार हैं:-

अणिमा सिद्धि | Anima Siddhi

अपने को सूक्ष्म बना लेने की क्षमता ही अणिमा है. यह सिद्धि यह वह सिद्धि है, जिससे युक्त हो कर व्यक्ति सूक्ष्म रूप धर कर एक प्रकार से दूसरों के लिए अदृश्य हो जाता है. इसके द्वारा आकार में लघु होकर एक अणु रुप में परिवर्तित हो सकता है. अणु एवं परमाणुओं की शक्ति से सम्पन्न हो साधक वीर व बलवान हो जाता है. अणिमा की सिद्धि से सम्पन्न योगी अपनी शक्ति द्वारा अपार बल पाता है.

महिमा सिद्धि | Mahima Siddhi

अपने को बड़ा एवं विशाल बना लेने की क्षमता को महिमा कहा जाता है. यह आकार को विस्तार देती है विशालकाय स्वरुप को जन्म देने में सहायक है. इस सिद्धि से सम्पन्न होकर साधक प्रकृति को विस्तारित करने में सक्षम होता है. जिस प्रकार केवल ईश्वर ही अपनी इसी सिद्धि से ब्रह्माण्ड का विस्तार करते हैं उसी प्रकार साधक भी इसे पाकर उन्हें जैसी शक्ति भी पाता है.

गरिमा सिद्धि | Garima Siddhi

इस सिद्धि से मनुष्य अपने शरीर को जितना चाहे, उतना भारी बना सकता है.  यह सिद्धि साधक को अनुभव कराती है कि उसका वजन या भार उसके अनुसार बहुत अधिक बढ़ सकता है जिसके द्वारा वह किसी के हटाए या हिलाए जाने पर भी नहीं हिल सकता .

लघिमा सिद्धि | Laghima Siddhi

स्वयं को हल्का बना लेने की क्षमता ही लघिमा सिद्धि होती है.  लघिमा सिद्धि में साधक स्वयं को  अत्यंत हल्का अनुभव करता है. इस दिव्य महासिद्धि के प्रभाव से योगी सुदूर अनन्त तक फैले हुए ब्रह्माण्ड के किसी भी पदार्थ को अपने पास बुलाकर उसको लघु करके अपने हिसाब से उसमें परिवर्तन कर सकता है.

प्राप्ति सिद्धि | Prapti Siddhi

कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता  इस सिद्धि के बल पर जो कुछ भी पाना चाहें उसे प्राप्त किया जा सकता है. इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक जिस भी किसी वस्तु की इच्छा करता है, वह असंभव होने पर भी उसे प्राप्त हो जाती है. जैसे रेगिस्तान में प्यासे को पानी प्राप्त हो सकता है या अमृत की चाह को भी पूरा कर पाने में वह सक्षम हो जाता है केवल इसी सिद्धि द्वारा ही वह असंभव को भी संभव कर सकता है.

प्राकाम्य सिद्धि | Prakamya Siddhi

कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता प्राकाम्य सिद्धि की प्राप्ति है. इसके सिद्ध हो जाने पर मन  के विचार आपके अनुरुप परिवर्तित होने लगते हैं. इस सिद्धि में साधक अत्यंत शक्तिशाली शक्ति का अनुभव करता है. इस सिद्धि को पाने के बाद मनुष्य जिस वस्तु कि इच्छा करता है उसे पाने में कामयाब रहता है. व्यक्ति चाहे तो आसमान में उड़ सकता है और यदि चाहे तो पानी पर चल सकता है.

ईशिता सिद्धि | Ishta Siddhi

हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना ही इस सिद्धि का अर्थ है. इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक समस्त प्रभुत्व और अधिकार प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है. सिद्धि प्राप्त होने पर अपने आदेश के अनुसार किसी पर भी अधिकार जमाय अजा सकता है. वह चाहे राज्यों से लेकर साम्राज्य ही क्यों न हो.

इस सिद्धि को पाने पर साधक ईश रुप में परिवर्तित हो जाता है.

वशिता सिद्धि | vashita siddhi

जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता को वशिता या वशिकरण कही जाती है. इस सिद्धि के द्वारा जड़, चेतन, जीव-जन्तु, पदार्थ- प्रकृति, सभी को स्वयं के वश में किया जा सकता है.  इस सिद्धि से संपन्न होने पर किसी भी प्राणी को अपने वश में किया जा सकता है.

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ओम पर्वत | ॐ पर्वत । Om Mountain | Om Parvat | ॐ Mountain | Aum Parvat

अदभूत स्थल ओम पर्वत आदि कैलाश यात्रा के मार्ग में स्थित है. इसे ॐ पर्वत  इसलिए कहा जाता है क्योंकि पर्वत का आकार व इस पर जो बर्फ जमी हुई है वह ओम आकार की छठा बिखेरती है तथा ओम का प्रतिबिंब दिखाई देता है. यह मनमोहक ओम पर्वत गौरी कुंड का आधार स्थल भी है. मान्यता है कि इस पवित्र स्थान में वह शक्ति है जो यहां आने वाले सभी व्यक्तियों को आनंद की अनुभूति देती है व नास्तिक को भी आस्तिक में परिवर्तित कर देती है.

यहां स्थित पावन स्थलों एवं न्यनाभिराम दृश्यों का आनंद देखते ही बनता है. यह स्थान आदि कैलाश तीर्थस्थल का रास्ता है जहां के दृ्श्यों से सभी भक्त रोमांचित हो जाते हैं. यहां का परिदृश्य कैलाश मानसरोवर जैसा ही होता है गुंजी पहुंचने के बाद तीर्थ यात्री लिपू लेख पास पहुंच सकते हैं जिसके बिल्कुल पीछे चीन की सीमा दिखाई पड़ती है. इन के दर्शन के बाद ही आदि कैलाश यात्रा को पूरा माना जाता है.

इस पर्वत की परिक्रमा बहुत ही दुर्गम स्थलों से होते हुए मुश्किल से पूरी होती है क्योंकि  ॐ पर्वत मार्ग काफी ऊचांई पर होने के कारण बर्फ से ढका रहता है. परंतु इस सबके बावजूद यहां आने वाले श्रद्धालु तीर्थयात्रियों की संख्या मे हर वर्ष इजाफा होता है. इस यात्रा के लिए बहुत सारी औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं, यात्रा करने के लिए परमिट की आवश्यकता होती है. परमिट प्राप्त करने के बाद बुद्धि के रास्ते गुंजी जाना होता है इसके बाद जौलिंगकोंग के लिए आगे की यात्रा शुरू की जा सकती है. जौलिंगकोंग से आदि कैलाश और पार्वती सरोवर थोडी ही दूर पर है.

यह संसार की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं मे से एक है, यह बहुत बर्फीला क्षेत्र भी है इतना होते हुए भी हर वर्ष यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है इसके अतिरिक्त बुद्धिजीवी व पर्यटक भी इस रोमांचकारी स्थान पर आते रहते हैं इस  ॐ पर्वत  पर आना आत्मा को शांति प्रदान करता.

इस स्थल के विषय में अनेक पुराणों में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है. यहां लगभग प्रत्येक पर्वत पर एक तीर्थ स्थल है यहां के प्रत्येक रास्ते, जंगल और चोटी से एक कहानी जुडी हुई है इन कहानियों में हिंदू दंत कथाओं के साथ-साथ बौद्ध धर्म की कहानियां भी जुडी हुई है. वास्तव में यह स्थान तीर्थ यात्रा पर आने वाले व सभी के लिए एक आदर्श जगह है.

ॐ पर्वत महत्व | Significance of Om Mountain

कैलाश मानसरोवर यात्रा के बाद  ॐ पर्वत यात्रा को सबसे प्रमुख व पवित्र यात्रा माना गया है. इस स्थान पर स्थित आदि कैलाश को छोटा कैलाश के नाम से भी पुकारा जाता है, इसके साथ ही यहां पार्वती सरोवर स्थित है जो गौरी कुंड के नाम से जाना जाता है. मान्यता है की यह वह स्थल है जहां माँ पार्वती स्नान किया करती थीं, अत: यहां आने वाली महिलाएं इस पवित्र जल में स्नान करके अनेक कष्टों से मुक्ति पाती हैं. इन दोनों ही तीर्थस्थलों को कैलाश पर्वत व मानसरोवर झील के समतुल्य माना जाता है. ॐ पर्वत का मौसम बेहद ठंडा होता है तथा रास्ता बेहद कठिनाई से भरा होता है.

यह  ॐ पर्वत देवभूमि हिमालय पर स्थित है. अधिकतर तीर्थस्थलों की यात्रा के महत्वपुर्ण संदर्भों में एक यात्रा इस पर्वत के रूप मे भी उपस्थित है यह रमणीय स्थल जहां पर पर्वतों से निकलती नदियां, छोटे-छोट बहते झरने अद्वितीय दृश्य प्रस्तुत करते हैं तथा तीर्थयात्रा के आनंद को बढ़ाते हैं. इस तीर्थस्थलों की सुन्दरता का वर्णन पुराणों में किया गया है वृहत पुराण में इसके बार में लिखा हुआ है कि भगवान शिव को यह स्थल अत्यधिक प्रिय रहा है. पौराणिक कथाओं में भी हिमालय की गोद मे समाए इस पवित्र स्थल का विस्तृत वर्णन मिलता है.

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गया । Gaya | Religious Places in Bihar | Gaya India

फल्गु नदी के तट पर बसा बिहार का प्रमुख शहर गया एक तीर्थ स्थल है. गया तीर्थयात्रियों के लिए प्रमुख स्थान है. श्राध  के महीने में बिहार के प्रमुख तीर्थस्थल गया में लगने वाले पितृ-पक्ष मेले में दूर-दूर से लोग यहां पितरों का श्राध करने आते हैं.मान्यता अनुसार यहां श्राध करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. गया के विभिन्न धार्मिक स्थलों जैसे विष्णुपद मंदिर, राम शिला, अक्षयवट, ब्रह्मयोनि पर्वत तथा फाल्गु नदी के तट पर व शहर के अन्य प्रमुख स्थान मौजुद हैं जो इस स्थल की गरिमा को बढाते हैं.

गया का सूर्य मंदिर | Sun temple of Gaya

औरंगाबाद जिले में स्थित है भगवान सूर्य का यह मंदिर सोन नदी के किनारे स्थित है. किंवदंतियां है कि सूर्य मंदिर के पत्थरों में विजय चिन्ह अंकित हैं जो यह दर्शाता है कि शिल्प के कलाकार विश्वकर्मा ने सूर्य मंदिर का निर्माण कर के ही शिल्प कला पर विजय प्राप्त की थी. सूर्य मंदिर देवार्क माना जाता है जो श्रद्धालुओं के लिए सबसे ज्यादा फलदायी एवं मनोकामना पूर्ण करने वाला है. छठ के पावन पर्व के अवसर पर यहां भारी तादात में देश-भर से लोग आते हैं इस अवसर पर यहां मेले का आयोजन भी किया जाता है.

यह मंदिर अपनी उत्कृष्ठ शिल्प कला के लिए बहुत प्रसिद्ध है. पत्थरों को तराश कर बनाए गया यह मंदिर पूर्वाभिमुख ना होकर पश्चिमाभिमुख है. मान्यता है कि इसका निर्माण स्वयं विश्वकर्मा द्वारा किया गया है. मंदिर के बाहर संस्कृत में लिखे श्लोक अनुसार राजा इलापुत्र पुरूरवा ऐल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था और इतिहासकार इस मंदिर का निर्माण काल आठवीं-नौवीं सदी के मध्य को मानते हैं.

गया का विष्णुपद मंदिर | Vishnupad temple of Gaya

विष्णुपद मंदिर हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थल है.पितृपक्ष के समय यहां पर श्रद्धालुओं की काफी भीड़ लगती है. मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु के पदचिन्हों के निशान पर ही इस मंदिर का निर्माण हुआ है. यहां फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से पितरों को बैकुंठ की प्राप्ति होती है. मंदिर में भगवान विष्णु के पांव के निशान देखे जा सकते हैं हिन्दू लोग इस मंदिर को अहम स्थान देते हैं.

बानाबर पहाड |Banaabar Mountain

गया से कुछ दूर उत्तर बेलागंज के पूरब मे स्थित है यह पर्वत  श्रृंखला भारत के अमूल्य पौराणिक एवं ऐतिहासिक धरोहरों मे से एक है.बराबर पर्वत श्रृंखला प्रकृति के नैसर्गिंक सौंदर्य को अपने मे समेटे हुए प्रतीत होती है. इसका अपना पौराणिक इतिहास है महाभारत में बराबर पर्वत को गोरथगिरी के नाम से दर्शाया गया है.

इसमें लोमश ऋषिगुफा, कर्ण चौपार, सुदामा गुफा, विश्व झोपड़ी, गोपी गुफा व वेदांतिका गुफा प्रमुख हैं. इस पर्वत की सबसे ऊंची पहाड़ी पर भगवान शिव का प्राचीन मंदिर है जो गुप्तकाल के समय का माना जाता है. सावन के महीने व अनंत चर्तुदशी के दिन यहां हजारों श्रद्धालु पुजा-अर्चना करने एवं जल चढ़ाने आते हैं. तथा बाबा सिद्धेश्वर नाथ पर जलाभिषेक करते हैं इस पर्वत के नीचे एक मीठे पानी का झरना भी है जिसे लोग पतालगंगा कहते हैं. इस पवित्र झरने में स्नान करने का बहुत महत्व है लोग यहां के जल से ही शिवलिंग का अभिषेक भी करते हैं.

इस पर्वत श्रृंखला पर मौर्य कालीन गुफाएं एवं शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं. बड़े-बड़े पहाडों को तराशकर बनायी गयी ये गुफाएं प्राचीन भारतीय वास्तुकला के अदभुत रूप हैं. बनाबर की सात गुफाओं को सतघरवा के नाम से भी जाना जाता है जिनमे से चार गुफाएं बराबर पहाड़ी पर स्थित हैं और अन्य तीन गुफाएं नागार्जुन पर्वत पर हैं.

प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेसांग ने भी अपनी भारत यात्रा के वृतांत में बराबर का उल्लेख किया है.भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा बराबर को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया है. प्रसिद्ध ब्रिटिश उपान्यासकार ई एम फोस्टर ने यहां के बारे में विस्तृत रुप से वर्णन किया है व उन्होंने बनाबर पर्वत को किमाराबार नाम भी दिया.

ब्रह्मयोनि पहाड़ी | Brahmaoni Mountain

इस ब्रह्मïयोनि पर्वत पर गौतम ने आदित्य पर्याय सूत्र का उपदेश दिया था. गया पटना मार्ग पर लगभग विठो शरीफ, सूफी संत स्थल है तथा गया का महाबोधि मंदिर भी यह विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्थल माना जाता है यहीं गौतम बुद्ध  को ज्ञान प्राप्त हुआ था इसके साथ ही राजगिरी, नालंदा, वैशाली, पाटलीपुत्र प्राचीन समय मे शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे.

इस पहाड़ी की चोटी पर विशाल बरगद के पेड़ के नीचे भगवान शिव का मंदिर है. इस स्थान का वर्णन रामायण में किया गया है किंवदंति है कि प्राचीन समय मे फल्गु नदी इसी पहाड़ी के ऊपर से बहती थी. परंतु माता सीता के श्राप से अब यह नदी पहाड़ी के नीचे से बहती है. यह पहाड़ी हिन्दुओं के लिए काफी पवित्र तीर्थस्थानों में से एक है यहां पर पिंडदान का विशेष महत्व होता है.

कोटेस्वरनाथ | Koteswarnatha

कोटेस्वरनाथ शिव मन्दिर मोरहर नदी के किनारे मेन गाँव में स्थित है. यहाँ हर वर्ष शिवरात्रि में मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें काफी संख्या में भक्त लोग यहां पहुँचते हैं.

इसके अलावा गया का महाबोधि मंदिर भी विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्थल माना जाता है यहीं गौतम बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था इसके साथ ही राजगिरी, नालंदा, वैशाली, पाटलीपुत्र प्राचीन समय मे शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे. गया हिंदू एवं बौद्ध दोनों धर्मों का श्रद्धा केंद्र है. फल्गू नदी के  किनारे बसा यह एक रमणीक स्थल है पर्वत-शृंखलाओं एवं पवित्र फल्गू नदी की लहरें इसकी प्राकृतिक सुंदरता को बढाती है.

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