गुरू पूर्णिमा 2024 | Guru Purnima Festival

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है और इसी के संदर्भ में यह समय अधिक प्रभावी भी लगता है. इस वर्ष गुरू पूर्णिमा 21 जुलाई 2024, को मनाई जाएगी. गुरू पूर्णिमा अर्थात गुरू के ज्ञान एवं उनके स्नेह का स्वरुप है. हिंदु परंपरा में गुरू को ईश्वर से भी आगे का स्थान प्राप्त है तभी तो कहा गया है कि हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर. इस दिन के शुभ अवसर पर गुरु पूजा का विधान है. गुरु के सानिध्य में पहुंचकर साधक को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त होती है.

गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी होता है. वेद व्यास जी प्रकांड विद्वान थे उन्होंने वेदों की भी रचना की थी इस कारण उन्हें वेद व्यास के नाम से पुकारा जाने लगा.

ज्ञान का मार्ग है गुरू पूर्णिमा | Guru Purnima – A path to wisdom

शास्त्रों में गुरू के अर्थ के अंधकार को दूर करके ज्ञान का प्रकाश देने वाला कहा गया है. गुरु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले होते हैं. गुरु की भक्ति में कई श्लोक रचे गए हैं जो गुरू की सार्थकता को व्यक्त करने में सहायक होते हैं. गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव हो पाता है और गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं हो पाता.

भारत में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है. प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा हमारे भीतर गुरू के महत्व को परिलक्षित करती है. पहले विद्यार्थी आश्रम में निवास करके गुरू से शिक्षा ग्रहण करते थे तथा गुरू के समक्ष अपना समस्त बलिदान करने की भावना भी रखते थे, तभी तो एकलव्य जैसे शिष्य का उदाहरण गुरू के प्रति आदर भाव एवं अगाध श्रद्धा का प्रतीक बना जिसने गुरू को अपना अंगुठा देने में क्षण भर की भी देर नहीं की.

गुरु पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह उच्चवल और प्रकाशमान होते हैं उनके तेज के समक्ष तो ईश्वर भी नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते. गुरू पूर्णिमा का स्वरुप बनकर आषाढ़ रुपी शिष्य के अंधकार को दूर करने का प्रयास करता है. शिष्य अंधेरे रुपी बादलों से घिरा होता है जिसमें पूर्णिमा रूपी गुरू प्रकाश का विस्तार करता है. जिस प्रकार आषाढ़ का मौसम बादलों से घिरा होता है उसमें गुरु अपने ज्ञान रुपी पुंज की चमक से सार्थकता से पूर्ण ज्ञान का का आगमन होता है.

गुरू आत्मा – परमात्मा के मध्य का संबंध होता है. गुरू से जुड़कर ही जीव अपनी जिज्ञासाओं को समाप्त करने में सक्षम होता है तथा उसका साक्षात्कार प्रभु से होता है. हम तो साध्य हैं किंतु गुरू वह शक्ति है जो हमारे भितर भक्ति के भाव को आलौकिक करके उसमे शक्ति के संचार का अर्थ अनुभव कराती है और ईश्वर से हमारा मिलन संभव हो पाता है. परमात्मा को देख पाना गुरू के द्वारा संभव हो पाता है. इसीलिए तो कहा है , गुरु गोविंददोऊ खड़े काके लागूं पाय. बलिहारी गुरु आपके जिन गोविंद दियो बताय.

गुरु पूर्णिमा महत्व | Significance of Guru Purnima

गुरु को ब्रह्मा कहा गया है. गुरु अपने शिष्य को नया जन्म देता है. गुरु ही साक्षात महादेव है, क्योकि वह अपने शिष्यों के सभी दोषों को माफ करता है. गुरु का महत्व सभी दृष्टि से सार्थक है. आध्यात्मिक शांति, धार्मिक ज्ञान और सांसारिक निर्वाह सभी के लिए गुरू का दिशा निर्देश बहुत महत्वपूर्ण होता है. गुरु केवल एक शिक्षक ही नहीं है, अपितु वह व्यक्ति को जीवन के हर संकट से बाहर निकलने का मार्ग बताने वाला मार्गदर्शक भी है.

गुरु व्यक्ति को अंधकार से प्रकाश में ले जाने का कार्य करता है, सरल शब्दों में गुरु को ज्ञान का पुंज कहा जा सकता है. आज भी इस तथ्य का महत्व कम नहीं है. विद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में विद्यार्थियों द्वारा आज भी इस दिन गुरू को सम्मानित किया जाता है. मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेलों का आयोजन किया जाता है.

वास्तव में हम जिस भी व्यक्ति से कुछ भी सीखते हैं , वह हमारा गुरु हो जाता है और हमें उसका सम्मान अवश्य करना चाहिए. आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा ‘गुरु पूर्णिमा’ अथवा ‘व्यास पूर्णिमा’ है. लोग अपने गुरु का सम्मान करते हैं उन्हें माल्यापर्ण करते हैं तथा फल, वस्त्र  इत्यादि वस्तुएं गुरु को अर्पित करते हैं. यह गुरु पूजन का दिन होता है जो पौराणिक काल से चला आ रहा है.

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दस महाविद्या साधना | Dus Mahavidya Sadhana | Gupt Navratri

दस महाविद्या देवी दुर्गा के दस रूप कहे जाते हैं. प्रत्येक महाविद्या अद्वितीय रुप लिए हुए प्राणियों के समस्त संकटों का हरण करने वाली होती हैं. इन दस महाविद्याओं को तंत्र साधना में बहुत उपयोगी और महत्वपूर्ण माना जाता है. दस महाविद्या को उच्च स्तर कि साधनाओ में से एक माना जाता है, यह दस महाविद्याएं इस प्रकार हैं.

देवी काली | Devi Kali

देवी काली को मां दुर्गा की दस महाविद्याओं मे से एक मानी जाती हैं. देवी काली शक्ति का स्वरूप है. मां ने यह काली रूप दैत्यों के संहार के लिए लिया था इनकी उत्पत्ति राक्षसों का अंत करने के लिए हुई थी तथा धर्म की रक्षा और उसकी स्थापना ही इनकी उत्पत्ति का कारण था देवी काली की पूजा संपूर्ण भारत में कि जाती है. देवी काली की व्युत्पत्ति काल अथवा समय से है जो सबको ग्रास कर लेती है. देवी काली का स्वरूप काला व डरावना हैं किंतु भक्तों को अभय वर देने वाला है. शक्ति भगवती निराकार होकर भी समस्त जन का दु:ख दूर करने के लिये अनेकों रूप धारण करके अवतार लेती रहीं हैं. देवी काली काल और परिवर्तन की देवी मानी गईं हैं तंत्र साधना में तांत्रिक देवी काली के रूप की उपासना किया करते हैं. देवी काली को भवतारणी अर्थात ‘ब्रह्मांड के उद्धारक’ रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है. तंत्र साधना में देवी काली की उपासना सर्वोत्कृष्ट है इनसे संपूर्ण अभिष्ट फल की प्राप्ति होती हैं.

देवी तारा | Devi Tara

दस महाविद्याओं में से माँ तारा की उपासना तंत्र साधकों के लिए सर्वसिद्धिकारक मानी जाती है. देवी तारा को सूर्य प्रलय की अघिष्ठात्री देवी का उग्र रुप माना जाता है. जब चारों और निराशा ही व्याप्त हो तथा विपत्ति में कोई राह न दिखे तब मां भगवती तारा के रूप में उपस्थित होती हैं तथा भक्त को विपत्ति से मुक्त करती हैं. उग्र तारा, नील सरस्वती और एकजटा इन्हीं के रूप हैं. शत्रुओं का नाश करने वाली सौंदर्य और रूप ऐश्वर्य की देवी तारा आर्थिक उन्नति और भोग दान और मोक्ष की प्राप्ति के लिए सहायक मानी जाती हैं. देवी तारा ब्रह्मांड-नायिका एवं राज-राजेश्वरी हैं, सृष्टि का समस्त ज्ञान शून्यआकाश में केंद्रित है और देवी तारा इसी शून्य में अवस्थित कही गई हैं. माँ तारा परारूपा हैं एवं महासुन्दरी कला-स्वरूपा हैं तथा देवी तारा सबकी मुक्ति का विधान रचती हैं.

माता ललिता | Mata Lalita

देवी ललिता जी का ध्यान रुप बहुत ही उज्जवल व प्रकाश मान है. कालिकापुराण के अनुसार देवी की दो भुजाएं हैं, यह गौर वर्ण की, रक्तिम कमल पर विराजित हैं. ललिता देवी की पूजा से समृद्धि की प्राप्त होती है. दक्षिणमार्गी शाक्तों के मतानुसार देवी ललिता को चण्डी का स्थान प्राप्त है. इनकी पूजा पद्धति में  ललितोपाख्यान, ललितासहस्रनाम, ललितात्रिशती का पाठ किया जाता है. दुर्गा का एक रूप ललिता के नाम से जाना गया है.

माता भुवनेश्वरी | Matha Bhuvaneswari

माता भुवनेश्वरी सृष्टि के ऐश्वयर  की स्वामिनी हैं. चेतनात्मक अनुभूति का आनंद इन्हीं में हैं. गायत्री उपासना में भुवनेश्वरी जी का भाव निहित है. भुवनेश्वरी माता के एक मुख, चार हाथ हैं चार हाथों में गदा-शक्ति का एवं दंड-व्यवस्था का प्रतीक है. आशीर्वाद मुद्रा प्रजापालन की भावना का प्रतीक है, यही सर्वोच्च सत्ता की प्रतीक हैं. विश्व भुवन की जो, ईश्वर हैं, वही भुवनेश्वरी हैं. इनका वर्ण श्याम तथा गौर वर्ण हैं. इनके नख में ब्रह्माण्ड का दर्शन होता है. माता भुवनेश्वरी सूर्य के समान लाल वर्ण युक्त दिव्य प्रकाश से युक्त हैं. माता के मंत्रों का जाप साधक को माता का आशीर्वाद प्रदान करने में सहायक है. इनके बीज मंत्र को समस्त देवी देवताओं की आराधना में विशेष शक्ति दायक माना जाता हैं इनके मूल मंत्र और पंचाक्षरी मंत्र का जाप करने से समस्त सुखों एवं सिद्धियों की प्राप्ति होती है.

त्रिपुर भैरवी | Tripura Bhairavi

माँ त्रिपुर भैरवी तमोगुण एवं रजोगुण से परिपूर्ण हैं. माँ भैरवी के अन्य तेरह स्वरुप हैं इनका हर रुप अपने आप अन्यतम है. माता के किसी भी स्वरुप की साधना साधक को सार्थक कर देती है. माँ त्रिपुर भैरवी कंठ में मुंड माला धारण किये हुए हैं. माँ ने अपने हाथों में माला धारण कर रखी है. माँ स्वयं साधनामय हैं उन्होंने अभय और वर मुद्रा धारण कर रखी है जो भक्तों को सौभाग्य प्रदान करती है. माँ  ने लाल वस्त्र धारण किया है, माँ के हाथ में विद्या तत्व है. माँ त्रिपुर भैरवी की पूजा में लाल रंग का उपयोग किया जाना लाभदायक है. भागवत के अनुसार महाकाली के उग्र और सौम्य दो रुपों में अनेक रुप धारण करने वाली दस महा-विद्याएँ हुई हैं. भगवान शिव की यह महाविद्याएँ सिद्धियाँ प्रदान करने वाली होती हैं.

छिन्नमस्तिका॒ | Chinnamasta

दस महा विद्याओं में छिन्नमस्तिका॒ माता छठी महाविद्या॒ कहलाती हैं. छिन्नमस्तिका देवी को मां चिंतपूर्णी के नाम से भी जाना जाता है. मार्कंडेय पुराण व शिव पुराण आदि में देवी के इस रूप का विशद वर्णन किया गया है इनके अनुसार जब देवी ने चंडी का रूप धरकर राक्षसों का संहार किया. दैत्यों को परास्त करके देवों को विजय दिलवाई तो चारों ओर उनका जय घोष होने लगा. परंतु देवी की सहायक योगिनियाँ अजया और विजया की रुधिर पिपासा शांत नहीँ हो पाई थी, इस पर उनकी रक्त पिपासा को शांत करने के लिए माँ ने अपना मस्तक काटकर अपने रक्त से उनकी रक्त प्यास बुझाई. इस कारण माता को छिन्नमस्तिका नाम से पुकारा जाने लगा.

धूमावती | Dhumavati

धूमावती देवी का स्वरुप बड़ा मलिन और भयंकर प्रतीत होता है. देवी का स्वरूप चाहे जितना उग्र क्यों न हो वह संतान के लिए कल्याणकारी ही होता है. मां धूमावती के दर्शन से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है. नष्ट व संहार करने की सभी क्षमताएं देवी में निहीत हैं. ऋषि दुर्वासा, भृगु, परशुराम आदि की मूल शक्ति धूमावती हैं. सृष्टि कलह के देवी होने के कारण इनको कलहप्रिय भी कहा जाता है. चौमासा देवी का प्रमुख समय होता है जब देवी का पूजा पाठ किया जाता है. माँ धूमावती जी का रूप अत्यंत भयंकर हैं इन्होंने ऐसा रूप शत्रुओं के संहार के लिए ही धारण किया है. यह भय-कारक एवं कलह-प्रिय हैं. माँ भक्तों के सभी कष्टों को मुक्त कर देने वाली है.

माँ बगलामुखी | Maa Baglamukhi

देवी बगलामुखी स्तंभव शक्ति की अधिष्ठात्री हैं. यह अपने भक्तों के भय को दूर करके शत्रुओं और उनकी बुरी शक्तियों का नाश करती हैं. माँ बगलामुखी का एक नाम पीताम्बरा भी है इन्हें पीला रंग अति प्रिय है. देवी बगलामुखी का रंग स्वर्ण के समान पीला होता है. देवी बगलामुखी दसमहाविद्या में आठवीं महाविद्या हैं यह स्तम्भन की देवी हैं. संपूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्ति का समावेश हैं माता बगलामुखी शत्रुनाश, वाकसिद्धि, वाद विवाद में विजय के लिए इनकी उपासना की जाती है. इनकी उपासना से शत्रुओं का नाश होता है तथा भक्त का जीवन हर  प्रकार की बाधा से मुक्त हो जाता है. बगलामुखी देवी रत्नजडित सिहासन पर विराजती होती हैं रत्नमय रथ पर आरूढ़ हो शत्रुओं का नाश करती हैं.

देवी मातंगी | Devi Matangi

देवी मातंगी दसमहाविद्या में नवीं महाविद्या हैं. यह वाणी और संगीत की अधिष्ठात्री देवी कही जाती हैं. यह स्तम्भन की देवी हैं तथा इनमें संपूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्ति का समावेश हैं. देवी मातंगी दांपत्य जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाने वाली होती हैं इनका पूजन करने से गृहस्थ के सभी सुख प्राप्त होते हैं.  माँ मातंगी पुरुषार्थ चतुष्ट्य की प्रदात्री हैं. भगवती मातंगी अपने भक्तों को अभय का फल प्रदान करती हैं. यह अभीष्ट सिद्धि प्रदान करती हैं. देवी मातंगी को उच्छिष्टचांडालिनी या महापिशाचिनी भी कहा जाता है. मातंगी के विभिन्न प्रकार के भेद हैं उच्छिष्टमातंगी, राजमांतगी, सुमुखी, वैश्यमातंगी, कर्णमातंगी, आदि यह देवी दक्षिण तथा पश्चिम की देवता हैं . ब्रह्मयामल के अनुसार मातंग मुनि की  दीर्घकालीन तपस्या द्वारा देवी राजमातंगी रूप में प्रकट हुईं.

कमला | Kamla

इनका वर्ण स्वर्ण जैसी आभा देने वाला है. गजराज सूंड में सुवर्ण कलश लेकर मां को स्नान कराते हैं.  कमल पर आसीन हुए मां स्वर्ण से सुशोभित हैं. सुख संपदा की प्रतीक देवी कमला समृद्धि दायक हैं. इनकी साधना द्वारा साधक धनी और विद्यावान बनता है. व्यक्ति को यश और सम्मान की प्राप्ति होती है. चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाली माता कमला साधक को समस्त बंधनों से मुक्त कर देती हैं. माँ कमला धन संपदा की आधिष्ठात्री देवी है, भौतिक सुख की इच्छा रखने वालों के लिए इनकी अराधना सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं.

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लक्ष्मी मंत्र | Lakshmi Mantra | Goddess Lakshmi | Lakshmi Puja

देवी लक्ष्मी जी को धन-सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूजा जाता है. लक्ष्मी जी जिस पर भी अपनी कृपा दृष्टि डालतीं हैं वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, के रूपों से मुक्त हो जाता है, समस्त देवी शक्तियाँ  के मूल में लक्ष्मी ही हैं जो सर्वोत्कृष्ट पराशक्ति हैं. समस्त धन संपदा की अधिष्ठात्री देवी कोमलता की प्रतीक हैं, लक्ष्मी परमात्मा की एक शक्ति हैं वह सत, रज और तम रूपा तीन शक्तियों में से एक हैं. महालक्ष्मी प्रवर्तक शक्ति हैं जीवों में लोभ, आकर्षण, आसक्ति उत्पन्न करती हैं धन, सम्पत्ति लक्ष्मी का भौतिक रूप है. लक्ष्मी जी का नित्य पूजन, आरती कष्टों से मुक्ति प्रदान करती है.

लक्ष्मी पूजा प्रतिदिन की जानी चाहिए, देवी लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए शुक्रवार के दिन माता वैभव लक्ष्मी का व्रत करने से भी सुख समृद्धि प्राप्त करते हैं. इस दिन लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करते हुए श्वेत पुष्प, कमल , श्वेत चंदन को अर्पित करना चाहिए, चावल और खीर का प्रसाद बनाकर भगवान को भोग लगाकर प्रसाद को सभी में तथा स्वयं ग्रहण करते हैं व्रत के दिन उपासक को एक समय भोजन करना होता है इस व्रत को नियमित रूप से 11 या 21 शुक्रवारों तक करना चाहिए. लक्ष्मी की उपासना से सुख-समृद्धि, सौभाग्य, ऐश्वर्य प्राप्त होता है.

लक्ष्मी पूजन में उनका आवाहन करते हैं मिश्री, लौंग, इलायची, कपूर आदि मिलाकर उसके पेड़े बनाकर लक्ष्मी को भोग लगाया जाता है इसके अतिरिक्त अपनी सुविधानुसार पदार्थ तथा फूलादि लक्ष्मी को अर्पण करके तब दीप-दान करते हैं. देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होने के बाद भक्त को कभी धन की कमी नहीं होती देवी लक्ष्मी चल एवं अचल संपत्ति प्रदान करने वाली हैं दीपावली समय लक्ष्मीजी के विधिवत पूजन से हमारे सभी कष्ट दूर हो जाते हैं पूजन एवं मंत्रों उच्चारण द्वार पूजा करें “ऊँ महालक्ष्म्यै नम:” मंत्र जप के साथ पूजन करें.

हिन्दू शास्त्रों में देवी लक्ष्मी जी के स्वरुप को अत्यंत सुंदर और प्रभावि रुप से दर्शाया गया है. शुक्रवार को देवी लक्ष्मी की पूजा, दरिद्रता को दूर करने में सहायक होती है. माता लक्ष्मी की उपासना का विशेष महत्व है देवी लक्ष्मी को वैभव की अधिष्ठात्री देवी कहा जाता है. जीवन में धन की दिक्कत,  नौकरी या व्यवसाय में असफलता या खर्चों से आर्थिक तंगी से परेशान होने पर देवी लक्ष्मी की विशेष मंत्र से उपासना द्वारा माता लक्ष्मी की कृपा को प्राप्त किया जा सकता है.

स्नान के बाद एक चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर देवी लक्ष्मी की यथासंभव चांदी की प्रतिमा को स्थापित करके

प्रतिमा को कच्चे दूध व गंगाजल से स्नान कराना चाहिए. इसके पश्चात देवी जी को अक्षत, फूल, लाल चंदन, अर्पण करना चाहिए तथा लक्ष्मी मंत्र का स्मरण कर आर्थिक सुख समृद्धि की कामना करनी चाहिए.

लक्ष्मी पूजा मंत्र | Lakshmi Puja Mantra

“ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः।” अथवा “ॐ ह्री श्रीं क्रीं श्रीं क्रीं क्लीं श्रीं महालक्ष्मी मम गृहे धनं पूरय पूरय चिंतायै दूरय दूरय स्वाहा ।”

साफ आसन ग्रहण कर माला द्वारा 108 बार मंत्र जाप पूर्ण कर अपने कार्य उद्देश्य कि पूर्ति हेतु मां लक्ष्मी से प्राथना करनी चाहिए. विधि विधान द्वारा मंत्र पूजन करने से मां लक्ष्मी कि कृपा से व्यक्ति को धन धान्य की की प्राप्ति होती है. वैभव लक्ष्मी की साधना शुक्रवार को बहुत ही शुभ मानी जाती है. देवी मंत्र के साथ ही श्रीसूक्त का पाठ भी करें.

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शिवाष्टक | Shivashtak – Shivashtakam

भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न होकर भक्तों के समस्त दुखों को दूर करने वाले समस्त जगत के स्वामी हैं. इन्हीं की कृपा दृष्टि को प्राप्त करके जीव अपने स्वरुप को जान पाता है. प्रभु की भक्ति से भक्त के समस्त कष्टों का क्षय होता है. भगवान महादेव जिनकी महिमा का बखान पुराणों में, वेदों में और शास्त्रों में विस्तार पूर्वक कही गई है जो सृष्टि के प्रणेता आदिदेव हैं तथा त्र्यम्बकम शिव साकार, निराकार, ॐकार और लिंगाकार रूप में सभी के द्वारा पूजे जाते हैं.

भगवान शिव भक्त की पुकार सुनकर उसकी सभी पीड़ाओं का हरण कर लेते हैं. पौराणिक कथाओं में भी भगवान भोलेनाथ दया निधि और कृपालु स्वरुप की छवि के दर्शन होते हैं. सृष्टि को बचाने हेतु उन्होंने विष का पान की या सृष्टि के कल्याण के लिए भगवान शिव ने माता गंगा को अपनी जटाओं में स्थान दिया ऎसी अनेक कथाओं से प्रभु के सर्वकल्याण रुप के दर्शन होते हैं.

भक्त को स्नान के पश्चात स्वच्छ व सफेद वस्त्र पहन शांत मन से शिवालय या घर पर ही भगवान का स्मरण करना चाहिए. महादेव पर चंदन, वस्त्र, अक्षत, बिल्वपत्र, फल-फूल इत्यादि अर्पण करने चाहिए. भगवान शिव की स्तुति में कई अष्टकों की रचना की गई है जिसमें से शिवाष्टक, लिंगाष्टक, रूद्राष्टक इत्यादि नाम प्रमुख हैं. यह शिवाष्टक आठ पदों में विभक्त शिव आराधना है.

तस्मै नम: परमकारणकारणाय , दिप्तोज्ज्वलज्ज्वलित पिङ्गललोचनाय ।
नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय , ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नम: शिवाय ॥ 1 ॥

श्रीमत्प्रसन्नशशिपन्नगभूषणाय , शैलेन्द्रजावदनचुम्बितलोचनाय ।
कैलासमन्दरमहेन्द्रनिकेतनाय , लोकत्रयार्तिहरणाय नम: शिवाय ॥ 2 ॥

पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय , कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय ।
भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय , नीलाब्जकण्ठसदृशाय नम: शिवाय ॥ 3 ॥

लम्बत्स पिङ्गल जटा मुकुटोत्कटाय , दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय ।
व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय , त्रिलोकनाथनमिताय नम: शिवाय ॥ 4 ॥

दक्षप्रजापतिमहाखनाशनाय , क्षिप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय ।
ब्रह्मोर्जितोर्ध्वगक्रोटिनिकृंतनाय , योगाय योगनमिताय नम: शिवाय ॥ 5 ॥

संसारसृष्टिघटनापरिवर्तनाय , रक्ष: पिशाचगणसिद्धसमाकुलाय ।
सिद्धोरगग्रहगणेन्द्रनिषेविताय , शार्दूलचर्मवसनाय नम: शिवाय ॥ 6 ॥

भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय , सौम्यावदातवनमाश्रितमाश्रिताय ।
गौरीकटाक्षनयनार्धनिरीक्षणाय , गोक्षीरधारधवलाय नम: शिवाय ॥ 7 ॥

आदित्य सोम वरुणानिलसेविताय , यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय ।
ऋक्सामवेदमुनिभि: स्तुतिसंयुताय , गोपाय गोपनमिताय नम: शिवाय ॥ 8 ॥

इन पदों में भगवान शिव स्वरुप को उल्लेखित किया गया है जिसके अनुसार भगवान शिव कारणों के कारण हैं. अग्नि के समान अति उज्ज्वल नेत्रोंवाले हैं, जिन पर सर्प हार रुप में विराजित हैं. भगवान शिव जो ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र को भी वर देने वाले हैं मैं उन्हीं शिव को नमस्कार करता हूँ.

चन्द्र कला तथा सर्पों द्वारा ही सुसजित शिव का कैलास एवं महेन्द्रगिरि निवासस्थान हैं और जो त्रिलोकों के दुख को दूर करनेवाले हैं, उन शिव को मैं नमस्कार करता हूँ. पद्मरागमणि कुण्डलों, अगरू तथा चन्दन, भस्म, कमल और जूही से सुशोभित नीलकण्ठ शिव को मैं नमस्कार करता हूँ. जटाओं सहित मुकुट धारण करने वाले व्याघ्रचर्म धारण किए हुए मनोहर और तीनों लोकों के देव जिनके चरणों में सिर झुकाते हैं, उन शिव जी को मेरा नमस्कार है. दक्षप्रजापति महायज्ञ का ध्वंस करने वाले, त्रिपुरासुर का अन्त करने वाले तथा दर्पयुक्त ब्रह्मा के पंचम सिर को काटने वाले शिव को मेरा नमस्कार है.

घटनाओं में परिवर्तन करने में सक्षम, राक्षस, पिशाचों तथा सिद्धगणों से घिरे, सिद्ध, सर्प, ग्रह-गण एवं इन्द्रादि से पूजित, बाघम्बर धारण किये हुए हैं भगवान शिव को मैं नमस्कार करता हूँ. ऋषि, भक्तगण जिनके आश्रित में हैं, जिन्हें देवी पार्वतीजी नेत्रों द्वरा देखती हैं तथा जिनका वर्ण दुग्ध धारा समान श्वेत है उन शिव को मेरा नमस्कार है. सूर्य, चन्द्र, वरूण एवं पवन द्वार सेवित, यज्ञ एवं अग्निहोत्र में जिनका निवास है. वेद तथा मुनिगण जिनकी स्तुति करते हैं, उन नन्दीश्वरपूजित शिव जी को मैं नमस्कार करता हूँ.

इस प्रकार जीव की सांसारिक जीवन में उत्पन्न समस्त परेशानियों से मुक्ति या कामनासिद्धि के लिए यदि व्यक्ति भगवान शिव के शिवाष्टक मंत्रों का पाठ करता है तो निसंदेह उसे कष्टों से मुक्ति प्राप्त होती है तथा प्रभु की भक्ति से उनको सानिध्य प्राप्त होता है.

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गंगा स्नान का महत्व | Importance of a bath in the Ganges

भारत देश नदियों और मान्यताओं का देश है. यहां नदियों को विशेष सम्मान दिया गया है. गंगा नदी यहां के निवासियों के लिए माता का रुप है. यही वजह है, कि गंगा को माता के नाम से सम्बोधित किया जाता है. इस कारण हिंदुओं के लिए गंगा स्नान बहुत महत्व रखता है. गंगा जीवन और मृत्यु दोनों से जुडी़ हुई है इसके बिना अनेक संस्कार अधूरे हैं. गंगा नदी में स्नान करने से व्यक्ति अपने जीवन के सभी पापों से मुक्ति पाता है. गंगा नदी जिस स्थान से अपनी यात्रा प्रारम्भ करती है, उस स्थान को गंगोत्री कहा जाता है.

गंगा नदी के भूमि पर आने के विषय में एक पौराणिक कथा प्रचलित है. कथा के अनुसार राजा भगीरथ माता गंगा को अपनी प्रजा के सुख हेतू धरती पर लाना चाहता था. इसी उद्देश्य से उन्होनें वर्षों तक कठोर तपस्या की और तपस्या से प्रसन्न होकर, गंगा सात धाराओं के रुप में भूमि पर अवतरित हुईं.  इन सात धाराओं का नाम ह्रादिनी, पावनी, नलिनी, सुचक्षु, सीता और महानदी सिन्धु नदी है. स्कन्दपुराण, वाल्मीकि रामायण आदि ग्रंथों में गंगा जन्म की कथा वर्णित है.

गंगा मुक्ति का मार्ग | Ganga – Path to salvation

गंगा जी में स्नान करने से सात्त्विकता और पुण्यलाभ प्राप्त होता है. भारत की अनेक धार्मिक अवधारणाओं में गंगा नदी को देवी के रूप में दर्शाया गया है. अनेक पवित्र तीर्थस्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हुये हैं. गंगा नदी को भारत की पवित्र नदियों में सबसे पवित्र नदी के रूप में पूजा जाता है. मान्यता अनुसार गंगा में स्नान करने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश होता है. लोग गंगा के किनारे ही प्राण विसर्जन या अंतिम संस्कार की इच्छा रखते हैं तथा मृत्यु पश्चात गंगा में अपनी राख विसर्जित करना मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक समझते हैं. लोग गंगा घाटों पर पूजा अर्चना करते हैं और ध्यान लगाते हैं.

गंगाजल को पवित्र समझा जाता है तथा समस्त संस्कारों में उसका होना आवश्यक माना गया है. गंगाजल को अमृत समान माना गया है. अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा संबंध है मकर संक्राति, कुंभ और गंगा दशहरा के समय गंगा में स्नान, दान एवं दर्शन करना महत्त्वपूर्ण समझा माना गया है. गंगा पर अनेक प्रसिद्ध मेलों का आयोजन किया जाता है. गंगा तीर्थ स्थल सम्पूर्ण भारत में सांस्कृतिक एकता स्थापित करता है गंगा जी के अनेक भक्ति ग्रंथ लिखे गए हैं जिनमें श्रीगंगासहस्रनामस्तोत्रम एवं गंगा आरती बहुत लोकप्रिय हैं.

गंगा पूजन एवं स्नान से रिद्धि-सिद्धि, यश-सम्मान की प्राप्ति होती है तथा समस्त पापों का क्षय होता है. मान्यता है कि गंगा पूजन से मांगलिक दोष से ग्रसित जातकों को विशेष लाभ प्राप्त होता है. विधिविधान से गंगा पूजन करना अमोघ फलदायक होता है.  गंगा स्नान करने से अशुभ ग्रहों का प्रभाव समाप्त होता है. अमावस्या दिन गंगा स्नान और पितरों के निमित तर्पण व पिंडदान करने से सदगती प्राप्त होती है और यही शास्त्रीय विधान भी है.

पुराणों में एक अन्य कथा अनुसार गंगा जी भगवान विष्णु के अँगूठे से निकली हैं, जिसका पृथ्वी पर अवतरण भगीरथ के प्रयास से कपिल मुनि के शाप द्वारा भस्मीकृत हुए राजा सगर के पुत्रों की अस्थियों का उद्धार करने के लिए हुआ था. इसी कारण गंगा का दूसरा नाम भागीरथी पड़ा.

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शिव महिम्न स्तोत्रम् | Shiva Mahimna Stotram

शिव पूजा-अर्चना मनोवांछित फल और कामनाओं का पूर्ण करने का अमूल्य वरदान है. शिव आराधना में प्रभु का जलाभिषेक के साथ विभिन्न उपायों द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न किया जाता है. शिव भक्ति में पूजा-अर्चना के साथ शिव स्त्रोत का पाठ किया जाता है तो वह विशेष फल देने वाला होता है शिव महिमा के इन स्त्रोतों में प्रभु के स्वरुप का बोध होता है. शिव महिम्र स्त्रोत का पाठ दुखों का नाश करने वाला होता है.

शिव महिम्न स्तोत्रम् कथा | Shiva Mahimna Stotra Story

शिवमहिम्र स्त्रोत भगवान शिव के साकार और निराकार स्वरुप का बोध कराता है. पौराणिक मान्यता अनुसार यह स्त्रोत अपनी दिव्य शक्तियां और बल खो चुके गंधर्वराज पुष्पदन्त द्वारा रचित है. भगवान शिव को प्रसन्न करके पुष्पदंत ने फिर से अपनी खोई शक्तियों को प्राप्त किया. कथा अनुसार एक समय में चित्ररथ नाम का राजा हुए वह भगवान शिव के परम भक्त थे. उन्होंने उसने एक सुंदर बागा का निर्माण करवाया था जिसके पुष्पों द्वारा वह प्रभु का पूजन करता था. परंतु एक दिन पुष्पदंत नामक गन्धर्व उस उद्यान पर अपना अधिकार जताने लगता है.

पुष्यदंत बाग के पुष्पों को चुराने का कार्य करने लगा जिससे परेशान होकर राजा ने बाग में शिव को अर्पित पुष्प एवं बिल्व पत्र बाग में बिछा दिए. अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पैरों से कुचल दिया जिस कारण उसकी समस्त शक्तिओं का नाश हो जाता है. अपनी शक्तियों को पुन: प्राप्त करने हेतु उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसे उसकी समस्त शक्तियां पुन: प्रदान कर दीं. पुष्पदंत द्वारा रचित स्तोत्र भगवान शिव को अत्यंत ही प्रिय है और इसका पाठ करने वाला भक्त अपनी मनोकामनाओं को साकार करता है.

शिव महिम्न स्तोत्रम् | Shiva Mahimna Stotra

महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी ।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन् ।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ।।१।।

अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः ।
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः ।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ।।२।।

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः ।
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः ।
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ।।३।।

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् ।
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु ।।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं ।
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ।।४।।

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं ।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः ।
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः ।।५।।

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां ।
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति ।।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो ।
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ।।६।।

त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति ।
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।७।।

महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः ।
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां ।
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ।।८।।

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं ।
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव ।
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ।।९।।

तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः ।
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः ।।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत् ।
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ।।१०।।

अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं ।
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् ।।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः ।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ।।११।।

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं ।
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि ।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ।।१२।।

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं ।
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः ।।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः ।
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ।।१३।।

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा ।
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः ।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो ।
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः ।।१४।।

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे ।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् ।
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः ।।१५।।

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं ।
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम् ।।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा ।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ।।१६।।

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः ।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति ।
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ।।१७।।

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो ।
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति ।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः ।
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ।।१८।।

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः ।
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः ।
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ।।१९।।

क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां ।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं ।
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ।।२०।।

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां ।
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः ।।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः ।
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः ।।२१।।

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं ।
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं ।
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ।।२२।।

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत् ।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात् ।
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ।।२३।।

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः ।
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः ।।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं ।
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि ।।२४।।

मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः ।
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः ।।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये ।
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् ।।२५।।

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः ।
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं ।
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि ।।२६।।

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान् ।
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति ।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः ।
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ।।२७।।

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान् ।
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि ।
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते ।।२८।।

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः ।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः ।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः ।।२९।।

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः ।
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः ।।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः ।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ।।३०।।

कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं ।
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः ।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद् ।
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ।।३१।।

असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे ।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं ।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ।।३२।।

असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः ।
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः ।
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ।।३३।।

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत् ।
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः ।।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र ।
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ।।३४।।

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ।।३५।।

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।३६।।

कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः ।
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः ।।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् ।
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः ।।३७।।

सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं ।
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः ।।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः ।
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ।।३८।।

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम् ।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् ।।३९।।

इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः ।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ।।४०।।

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर ।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ।।४१।।

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते ।।४२।।

श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन ।
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण ।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन ।
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ।।४३।।

।। इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम् ।।

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शिव पंचाक्षरी मंत्र | Shiva Panchakshari Mantra | Mantra for success

शिव को प्रसन्न करने की चाह तथा उनकी शरणागत पाने के लिए भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र बहुत महत्व रखता है. इस व्रत के साथ ही शिव भगवान का व्रत तथा पूजन अवश्य करना चाहिए. शिव व्रत करने वाले व्यक्ति सांसारिक भोगों को भोगने के पश्चात अंत में शिवलोक में जाते है. चतुर्दशी तिथि को इस पंचाक्षरी मंत्र का जाप अवश्य ही किया जाना चाहिए ऎसा करने से मनुष्य सभी तीर्थों के स्नान का फल प्राप्त करता है. जो व्यक्ति शिव की भक्ति से अछूते रहते हैं वह हमेशा जन्म-मरण के चक्र में घूमते रहते हैं.

भगवान शिव का पूजन कर भक्तगण उनका आशीर्वाद प्राप्त कर अपनी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने का वर माँगते हैं. शिवलिंग पर बेल वृक्ष के पत्ते चढा़ने चाहिए. धतूरे के पुष्पों से शिवलिंग पर पूजन करना चाहिए. भगवान शिव को बिल्वपत्र तथा धतूरे के फूल बहुत प्रिय हैं. इसलिए शिव पूजन में इनका प्रयोग करना चाहिए. इस दिन “ऊँ नम: शिवाय” का जाप 108 बार करना चाहिए. महामृत्युंजय मंत्र का जाप शिव भगवान को प्रसन्न करने का तथा सभी प्रकार की बाधाओं को दूर करने का महामंत्र है.

भगवान शिव पर जिस पर कृपा करते हैं उनका उद्धार हो जाता है. भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कई स्तुतियों की रचना प्राप्त होती है इन सभी के मध्य में शिव पंचाक्षर स्त्रोत एक महत्वपूर्ण मंत्र साधना है. इसका प्रतिदिन जाप करने से भगवान शंकर शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं तथ औनका आशिर्वाद एवं सानिध्य प्राप्त होता है.

शिव पंचाक्षर स्त्रोत | Shiva Panchakshar Stotra

नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय

नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे न काराय नम: शिवाय:॥

मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय

मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मे म काराय नम: शिवाय:॥

शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय

श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै शि काराय नम: शिवाय:॥

वषिष्ठ कुभोदव गौतमाय मुनींद्र देवार्चित शेखराय

चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै व काराय नम: शिवाय:॥

यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकस्ताय सनातनाय

दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै य काराय नम: शिवाय:॥

पंचाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेत शिव सन्निधौ

शिवलोकं वाप्नोति शिवेन सह मोदते॥

नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय|
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे “न” काराय नमः शिवायः॥

इस मंत्र के अर्थ में हम इस बात को समक्ष सकते हैं जो इस प्रकार है कि हे प्रभु महेश्वर आप नागराज को गले  हार रूप में धारण करते हैं आप तीन नेत्रों वाले  भस्म को अलंकार के रुप में धारण करके अनादि एवं अनंत शुद्ध हैं. आप आकाश को वस्त्र सामान धारण करने वाले हैं. मै आपके ‘न’स्वरूप को नमस्कार करता हूँ आप चन्दन से लिप्त गंगा को अपने सर पर धारण करके नन्दी एवं अन्य गणों के स्वामी महेश्वर हैं आप सदा मन्दार एवं अन्य पुष्पों द्वारा पुजित हैं. हे भगवन मैं आपके ‘म्’ स्वरूप को नमस्कार करता हूं.

धर्म ध्वज को धारण करने वाले नीलकण्ठ प्रभु तथा ‘शि’ अक्षर वाले महाप्रभु, आपने ही दक्ष के अंहकार स्वरुप यज्ञ का नाश किया था. माता गौरी को सूर्य सामान तेज प्रदान करने वाले प्रभु शिव को मै नमन करता हूँ.

देवगणो एवं वषिष्ठ, अगस्त्य, गौतम आदि मुनियों द्वारा पूज्य महादेव जिनके लिए सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्नि त्रिनेत्र सामन हैं. हे प्रभु मेरा आपके ‘व्’ अक्षर वाले स्वरूप को नमस्कार है. हे यज्ञस्वरूप, जटाधारी शिव आप आदि, मध्य एवं अंत से रहित हैं आप सनातन हैं, हे प्रभु आप दिव्य अम्बर धारी शिव हैं मैं आपके ‘शि’ स्वरुप को मैं नमस्कार करता हूं

इस प्रकार जो कोई भी शिव के इस पंचाक्षर मंत्र का नित्य चिंतन-मनन ध्यान करता है वह शिव लोक को प्राप्त करता है

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सुखी जीवन पाने का उपाय | Remedies for a prosperous life

हमारे धर्म शास्त्रों में जीवन को सफल एवं सुखमय बनाने के लिए कई बातों का उल्लेख किया गया है. वेदों उपनिषदों एवं धर्म ग्रंथों में सुखी जीवन के कुछ सूत्र बताए गए हैं जिनपर चलकर मनुष्य़ जीवन में एक नई दिसा और सकारात्मक सोच को पाता है. कुछ ऎसे तथ्य हैं जिनका पालन करके प्राणी स्वयं एवं समाज का उद्धार कर सकता है जिसमें से एक रहस्य ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म में छुपा हुआ है जिसक अर्थ है चेतना ही ब्रह्म है वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप एवं अविनाशी है. सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द स्वरूप का स्वामी है उसी का ध्यान इस चेतना द्वारा ज्ञात होता है.

इसको जानने के लिए चित कि शुद्धता आवश्यक है,  ब्रह्म ज्ञान गम्यता से परे है, ब्रह्म का ध्यान करके ही हम ‘मोक्ष’ को प्राप्त कर सकते हैं, उसी का आधार प्राप्त करके सभी जीवों में चेतना का समावेश होता है, वह अखण्ड विग्रह रूप में चारों ओर व्याप्त होता है. वही हमारी शक्तियों हमारी किर्याओं पर नियंत्रण करने वाला है. उसी की प्रार्थना द्वारा चित और अहंकार पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है वह प्रज्ञान अर्थात चैतन्य विद्वान पुरुष है सभी में समाहित ब्रह्म मोक्ष का मार्ग है.

ॐ अहं ब्रह्मास्मि – ॐ अहं ब्रह्मास्मि महावाक्य का अर्थ ‘मैं ब्रह्म हूं’ से प्रकट होता है. जब जीव परमात्मा का अनुभव प्राप्त कर लेता है, और उससे साक्षात्कार कर बैठता है तब वह उसी ब्रह्म का रूप हो जाता है और साधक एवं ब्रह्म के मध्य द्वैत भाव समाप्त हो जाता है. इसी मै से वह उस त्याग को जान पाता है जो दूसरों के लिए उपकार की भावना लाता है ओर व्यक्ति को सभी के प्रति समर्पित करता है. भेद और भिन्नता का अंतर समापत हो जाता है, चाहे वह भाषा की वजह से हो, धर्म की वजह से हो या फिर सीमाओं के कारण हो

ॐ तत्त्वमसि –  इस ॐ तत्त्वमसि महावाक्य को स्पष्ट करते हुए यह अर्थ सामने आता है कि ब्रह्म तुम्हीं हो,  सृष्टि पूर्व, द्वैत रहित, नाम, रूप से रहित,केवल ब्रह्म ही विराजमान था और आज भी वही है आदि से अंत उसी की सत्ता उपस्थित रही है. इसी कारण ब्रह्म को ‘तत्त्वमसि’ कहा गया.  हर प्राणी में एक ही प्रकार का जीव है दूसरे जो तुम में है, वही मुझमें है कि इस धारणा की पूर्ण व्याख्या करता हे. ब्रह्म देह में रहते हुए भी उससे मुक्त है केवल आत्मा द्वारा उसका अनुभव होता है, वह संपूर्ण सृष्टि में होते हुए भी उससे दूर है.

ॐ अयमात्मा ब्रह्म –  ॐ अयमात्मा ब्रह्म महावाक्य का अर्थ है ‘यह आत्मा ब्रह्म है से दृष्ट होता है. देह का प्राण आत्मा ही है वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विराजमान है. सम्पूर्ण चर, अचर में तत्त्व-रूप में वह व्याप्त है, आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित ब्रह्म है. इस प्रकार इन तथ्यों के ज्ञान का बोध करके ही जीव अपने को मुक्त कर सकत अहै ओर जीवन तथा समाज में नई दिशा ला सकने में सक्षम हो सकता है. अत: इस सच्चिदानन्द ब्रह्म को, तपस्या एवं साधना ध्यान द्वारा प्राप्त किया जा सकता है तथा गुरू के निर्देश स्वरुप तप करके ब्रह्म को जाना जा सकता है. जो भी जीव इस ब्रह्म को जान लेते है वह मोक्ष को पाता है. इस प्रकार मनुष्य संपूर्ण सृष्टि स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो जाता है.

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शिव चतुर्दशी | Shiva Chaturdashi | Shiva Chaturdashi Vrat

हिंदु शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को शिवरात्रि का दिन माना जाता है.  धार्मिक मान्यताओं के आधार पर हिंदु पंचांग की चतुर्दशी तिथि के स्वामी भगवान शिव हैं. इसी के साथ पौराणिक मान्यताओं में दिव्य ज्योर्तिलिंग का प्राकट्य भी चतुर्दशी तिथि को ही माना गया है. इन्हीं सभी महत्वपूर्ण तथ्यों के आधार पर चतुर्दशी तिथि के दिन भगवान शंकर की पूजा तथा व्रत का विधान है. विधिपूर्वक व्रत रखने पर तथा शिवपूजन, शिव कथा, शिव स्तोत्रों का पाठ व “उँ नम: शिवाय” का पाठ करते हुए रात्रि जागरण करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त होता हैं. व्रत के दूसरे दिन ब्राह्माणों को यथाशक्ति वस्त्र-क्षीर सहित भोजन, दक्षिणादि प्रदान करके संतुष्ट किया जाता हैं.

शिव चतुर्दशी पूजा विधि | Shiva Chaturdashi Puja Vidhi

शिव चतुर्दशी में भगावन शंकर की पूजा उनके परिवार के सदस्यों सहित की जाती है. पूजा का आरम्भ भोलेनाथ के अभिषेक के साथ होता है. इस अभिषेक में जल, दूध, दही, शुद्ध घी, शहद, शक्कर या चीनी,गंगाजल तथा गन्ने के रसे आदि से स्नान कराया जाता है. अभिषेक कराने के बाद बेलपत्र, समीपत्र, कुशा तथा दूब आदि से शिवजी को प्रसन्न करते हैं. अंत में भांग, धतूरा तथा श्रीफल भोलेनाथ को भोग के रुप में चढा़या जाता है. शिव चतुर्दशी के दिन पूरा दिन निराहार रहकर इनके व्रत का पालन करना चाहिए.

रात्रि में स्वच्छ वस्त्र धारण कर शुद्ध आसन पर बैठकर भगवान भोलेनाथ का ध्यान करना चाहिए. उनके मंत्र की माला का जाप करना शुभफलदायी होता है. शिवभक्त अपनी श्रद्धा तथा भक्ति के अनुसार शिव की उपासना करते हैं. चारों ओर का वातावरण शिव भक्ति से ओत-प्रोत रहता है.शिव की भक्ति के महत्व का वर्णन ऋग्वेद में किया गया है. शिव चतुर्दशी में भगवान की पूजा करने में निम्न मंत्र जाप करने चाहिए.

  • “पंचाक्षरी मंत्र” का जाप करना चाहिए.
  • “ऊँ नम: शिवाय” मंत्र की प्रतिदिन एक माला करनी चाहिए.
  • महामृत्यंजय मंत्र की एक माला प्रतिदिन करनी चाहिए. इससे कष्टों से मुक्ति मिलती है.

इन मंत्रों के जाप से व्यक्ति रोग, भय, दुख आदि से मुक्ति पाता है. जातक दीर्घायु को पाता है. इन मंत्र जाप के साथ रुद्राभिषेक तथा अनुष्ठान आदि भी भक्तों द्वारा कराए जाते हैं.

शिवरात्री व्रत की महिमा | Importance of Shivaratri fast

इस व्रत के विषय में यह मान्यता है कि इस व्रत को जो जन करता है, उसे सभी भोगों की प्राप्ति के बाद, मोक्ष की प्राप्ति होती है. यह व्रत सभी पापों का क्षय करने वाला है. इस व्रत को लगातार करने के बाद विधि-विधान के अनुसार इसका उद्धापन कर देना चाहिए.
उपवास की पूजन सामग्री में जिन वस्तुओं को प्रयोग किया जाता हैं, उसमें पंचामृ्त (गंगाजल, दुध, दही, घी, शहद), सुगंधित फूल, शुद्ध वस्त्र, बिल्व पत्र, धूप, दीप, नैवेध, चंदन का लेप, ऋतुफल आदि. इस व्रत में चारों पहर में पूजन किया जाता है, प्रत्येक पहर की पूजा में “उँ नम: शिवाय” व ” शिवाय नम:” का जाप करते रहना चाहिए. अगर शिव मंदिर में यह जाप करना संभव न हों, तो घर की पूर्व दिशा में, किसी शान्त स्थान पर जाकर इस मंत्र का जाप किया जा सकता हैं. चारों पहर में किये जाने वाले इन मंत्र जापों से विशेष पुण्य प्राप्त होता है. इसके अतिरिक्त उपावस की अवधि में रुद्राभिषेक करने से भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न होते है.

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आध्यात्मिक चेतना से परब्रह्म ज्ञान | Knowledge of Param Brahma through spiritual consciousness

परब्रह्म सता को प्रदर्शित करता है शास्त्रों द्वारा उस अनंत, अव्यक्त तत्व को समझने का प्रयास किया गया है जिसे संन्यास धर्म का पालन करके प्राप्त किया जा सकता है. संन्यास के शुद्ध कर्मों द्वारा एवं योग साधना के मंत्रों अभिमंत्रित होकर ही उस परम तत्व के ज्ञान को जान सकते हैं केवल वाणी द्वारा ही हम इसे जान नहीं सकते. किंतु संन्यासी जो ब्रह्म को जानने कि जिज्ञासा को अपने भीतर लिए उसे पाने का संकल्प करते हुए मोक्ष के मार्ग में खुद को समर्पित करके ही परब्रह्म के सानिध्य को प्राप्त करने में सक्ष्म होता है.

ब्रह्म के विषय में मुख्य सिंद्धातों को बताया गया है उनकी शक्ति एवं उनकी सर्वव्याप्त सत्ता का उल्लेख किया गया है. परब्रह्म जो ब्रह्म से भी परे है समस्त सृष्टि ब्रह्म के अंतर्गत मानी गई है मन, विचार, ज्ञान  भाव ,वेद, शास्त्र मंत्र, आधुनिक विजान ज्योतिष आदि सभी कुछ इसी में समाहित हैं परब्रह्म के बारे में ज्ञान पाना एक असंभव सी बात है किसी भी माध्यम से इसकी परिभाषा नही हो सकती.

परब्रह्म गुणातीत, भावातीत, माया, प्रकृति और ब्रह्म से भी परे है, वह एक ही है अजन्मा, अव्यक्त, सनातन ज्ञानियों ने उसे ब्रह्म से भी परे एक सत्ता रूप में माना है जो शब्दों के द्वारा व्यक्त नही किया जा सकता. वेदों में उस परम तत्व की महिमा का विशद विवरण प्राप्त होता है उसे नेति नेति कह कर व्यक्त किया गया है जिसे वाणी द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता है. परब्रह्म ही समस्त जीव निर्जीव का अस्तित्व है यही एकमात्र परम कारण सर्वसमर्थ सर्वज्ञानी है.

वेदों में परब्रह्म की प्राप्ति का मार्ग दर्शाया गया है. ऋषियों के प्रश्न द्वारा परब्रह्म को जानने का प्रयास संभव हो पाया है इसमें ऋषियों के प्रश्नों के उत्तर स्वरूप परब्रह्म के विषय में बताने का प्रयास संभव हो पाया है.

ब्रह्म विद्या के ज्ञान को समझाने हेतु उस परम सत्ता का ज्ञान करना आवश्यक होता है जो सभी में व्याप्त है जिसके द्वारा सृष्टि का संचार संभव हो पाता है जो मुक्त प्रकाशवान चैतन्य एवं शाश्वत है.ब्रह्म एक सबसे उत्कृष्ट विद्या जिसे मैं आपके सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ. यह उत्कृष्ट ब्रह्म एक प्रकाश का क्षेत्र है जो सदैव फैलाता रहता है. वह राजाओं से परे जा रहा है गुणों मुक्त शुद्ध, अविनाशी और इंद्रियों की शक्ति को बनाए रखने वाला है .

वह आत्माओं के रूप में समूह का निर्माण करता है तथा उनकी दृष्टि को सीमित कर देता है जिससे व्यक्ति उसकी लीला को जान न पाए परब्रह्म स्वयं के शहर में अकेला है वह वहां रहकर कोई भी सांसारिक काम नहीं करता जैसे एक संन्यासी अपने को संसार की मोह माया से अलग रखता है.

संन्यासी का यह रूप ब्रह्म के साथ एकता का एहसास है. परब्रह्म एक कर्ता के रूप में कर्मों के फलों को देने वाला है वह एक किसान की तरह फल को काटने वाला है. वह बिना किसी से जुडे अपना कार्य करता जाता है जैसे एक संन्यासी बिना भेद भाव के एवं लगाव के अपने कार्य में रत रहता है उसी प्रकार परब्रह्म का रूप स्पष्ट होता है.

परब्रह्म की प्राप्ति हेतु संन्यास कर्म का विस्तृत विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है. सृष्टि से पूर्व परम सत्ता अकेली थी उसने इच्छा स्वरूप सृष्टि का निर्माण किया. वही सत्य है वह सूक्ष्म रूप में सभी में विराजमान है उसे जानने के लिए योग साधना कि जाती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि द्वारा उस परब्रह्म को जाना जा सकता है.

संन्यास धर्म के पालन द्वारा परब्रह्म के समीप पहुँचा जा सकता है. सत्य का अनुसरण करके शुद्ध मन से आंतरिक शिखा और बाह्य यज्ञोपवीत द्वारा परब्रह्म को जाना जा सकता है संन्यासी इसी ब्रह्म स्वरूप यज्ञोपवीत को बाहरी एवं भीतर रूप में दोनों प्रकार परब्रह्म को जानने की जिज्ञास को धारण करके परमात्मा के साक्ष्य को प्राप्त कर सकता है.

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