कमला जयंती : दस महाविद्या पूजा

तांत्रिक लक्ष्मी कमला जयंती 2024

दस महाविद्याओं में से एक देवी कमला को सुख समृद्धि प्रदान करने वाल लक्ष्मी माना गया है. देवी शत्रुओं को परास्त करके भक्तों को निर्भय होने का वरदान देती हैं. कार्तिक माह के मास की अमावस्या को मनाई जाती है. मां कमला देवी भाग्य सौभाग्य की देवी हैं. मां कमला देवी को श्री हरि भगवान विष्णु की शक्ति और मां लक्ष्मी का रूप माना जाता है. आदिशक्ति का दसवां अवतार मां कमला देवी का है. कमला जयंती को तांत्रिक पूजा का भी महत्व बताया जाता है. कहा जाता है कि इस दिन मां कमला देवी की विशेष पूजा से धन, कौशल, ऐश्वर्य और ज्ञान का आशीर्वाद मिलता है. कमला देवी की पूजा से गर्भवती महिलाओं के गर्भ की रक्षा होती है.

माता कमला देवी जयंती कार्तिक अमावस्या को मनाई जाती है. मान्यता है कि इस दिन देवी कमला धरती पर अवतरित हुई थीं. माता कमला देवी को मां लक्ष्मी का रूप माना जाता है, इसलिए कमला जयंती पर मां कमला की विशेष पूजा की जाती है, जिससे धन, समृद्धि और सौभाग्य का आशीर्वाद मिलता है. आइए जान लेते हैं कमला देवी जयंती का महत्व और पूजा विधि.

कमला जयंती कब मनाई जाएगी 

इस बार कमला जयंती 01 नवंबर 2024 को मनाई जाएगी. 

कमला जयंती पूजा विधि 

ज्योतिषियों के अनुसार, कमला जयंती पर दस शक्तियों की पूजा का विधान है. इस दिन दस वर्ष से कम आयु की कन्याओं की पूजा करनी और उन्हें भोजन कराना चाहिए. माता कमला देवी की पूजा के लिए सबसे पहले सुबह जल्दी उठकर स्नान करके पूजा स्थल तैयार करें. इसके बाद गुरु वंदना, गुरु पूजा और गौ पूजा करें. 

माता कमला देवी की मूर्ति को चौकी पर स्थापित करना चाहिए. मां कमला देवी का पूरा श्रृंगार करना चाहिए. माता को हल्दी, कुमकुम, अक्षत और सिंदूर चढ़ाना चाहिए. इसके बाद माता कमला देवी को फल और मिठाई का भोग लगाना चाहिए. आरती के बाद पूजा पूरी करनी चाहिए और प्रसाद बांटना चाहिए और खुद भी प्रसाद ग्रहण करना चाहिए. इस दिन दान का भी बहुत महत्व है.  

कमला जयंती महत्व 

देवी कमला दस महाविद्याओं में दसवीं महाविद्या हैं और इनका संबंध काली कुल से माना जाता है और इन्हें तंत्र की देवी माना गया है. ग्रंथों में देवी कमला को तांत्रिक लक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है. देवी कमला अपने भक्तों को धन, समृद्धि, सौभाग्य आदि प्रदान करती हैं. 

देवी कमला भगवान विष्णु की वैष्णवी शक्ति और लीला सहचरी हैं. आगम और निगम दोनों में ही मां की महिमा का वर्णन किया गया है. देवी कमला को देवी भार्गवी के नाम से भी जाना जाता है. स्वतंत्र तंत्र के अनुसार देवी कमला ने कोलासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए अवतार लिया था इसी लिए देवी को शत्रुओं का नाश करने वाली शक्ति भी जाना गया है.

कमला जयंती स्त्रोत आरती 

कमला जयंती के शुभ दिन पर देवी कमला स्त्रोत का पाठ करने से भक्तों को पूजा का शुभ फल प्राप्त होता है.

कमला स्तोत्रम Kamala Stotram

ओंकाररूपिणी देवि विशुद्धसत्त्वरूपिणी।

देवानां जननी त्वं हि प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी लक्ष्मी! आप ओंकारस्वरूपिणी हैं, आप विशुद्धसत्त्व गुणरूपिणी

और देवताओं की माता हैम्। हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न होम्।

तन्मात्रंचैव भूतानि तव वक्षस्थलं स्मृतम्।

त्वमेव वेदगम्या तु प्रसन्ना भव सुंदरि॥

हे सुंदरी! पंचभूत और पंचतन्मात्रा आपके वक्षस्थल हैं,

केवल वेद द्वारा ही आपको जाना जाता है। आप मुझ पर कृपा करें।

देवदानवगन्धर्वयक्षराक्षसकिन्नरः।

स्तूयसे त्वं सदा लक्ष्मि प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी लक्ष्मी! देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस्

और किन्नर सभी आपकी स्तुति करते हैम्। आप हम पर प्रसन्न होम्।

लोकातीता द्वैतातीता समस्तभूतवेष्टिता।

विद्वज्जनकीर्त्तिता च प्रसन्ना भव सुंदरि॥

हे जननी! आप लोक और द्वैत से परे और सम्पूर्ण भूतगणों से

घिरी हुई रहती हैं। विद्वान लोग सदा आपका गुण-कीर्तन करते हैं।

हे सुंदरी! आप मुझ पर प्रसन्न होम्।

परिपूर्णा सदा लक्ष्मि त्रात्री तु शरणार्थिषु।

विश्वाद्या विश्वकत्रीं च प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी लक्ष्मी! आप नित्यपूर्णा शरणागतों का उद्धार करने वाली,

विश्व की आदि और रचना करने वाली हैं। हे सुन्दरी! आप मुझ पर

प्रसन्न होम्।

ब्रह्मरूपा च सावित्री त्वद्दीप्त्या भासते जगत्।

विश्वरूपा वरेण्या च प्रसन्ना भव सुंदरि॥

हे माता! आप ब्रह्मरूपिणी, सावित्री हैं। आपकी दीप्ति से ही त्रिजगत

प्रकाशित होता है, आप विश्वरूपा और वर्णन करने योग्य हैं।

हे सुंदरी! आप मुझ पर कृपा करें।

क्षित्यप्तेजोमरूद्धयोमपंचभूतस्वरूपिणी।

बन्धादेः कारणं त्वं हि प्रसन्ना भव सुंदरि॥

हे जननी! क्षिति, जल, तेज, मरूत् और व्योम

पंचभूतों की स्वरूप आप ही हैं। गंध, जल का रस,

तेज का रूप, वायु का स्पर्श और आकाश में शब्द आप ही हैं।

आप इन पंचभूतों के गुण प्रपंच का कारण हैं, आप हम

पर प्रसन्न होम्।

महेशे त्वं हेमवती कमला केशवेऽपि च।

ब्रह्मणः प्रेयसी त्वं हि प्रसन्ना भव सुंदरि॥

हे देवी! आप शूलपाणि महादेवजी की प्रियतमा हैं। आप केशव की

प्रियतमा कमला और ब्रह्मा की प्रेयसी ब्रह्माणी हैं, आप हम पर

प्रसन्न होम्।

चंडी दुर्गा कालिका च कौशिकी सिद्धिरूपिणी।

योगिनी योगगम्या च प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी! आप चंडी, दुर्गा, कालिका, कौशिकी,

सिद्धिरूपिणी, योगिनी हैं। आपको केवल योग से ही प्राप्त किया जाता है।

आप हम पर प्रसन्न होम्।

बाल्ये च बालिका त्वं हि यौवने युवतीति च।

स्थविरे वृद्धरूपा च प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी! आप बाल्यकाल में बालिका, यौवनकाल में युवती और

वृद्धावस्था में वृद्धारूप होती हैं। हे सुन्दरी! आप हम पर

प्रसन्न होम्।

गुणमयी गुणातीता आद्या विद्या सनातनी।

महत्तत्त्वादिसंयुक्ता प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे जननी! आप गुणमयी, गुणों से परे, आप आदि, आप सनातनी

और महत्तत्त्वादिसंयुक्त हैं। हे सुंदरी!

आप हम पर प्रसन्न होम्।

तपस्विनी तपः सिद्धि स्वर्गसिद्धिस्तदर्थिषु।

चिन्मयी प्रकृतिस्त्वं तु प्रसन्ना भव सुंदरि॥

हे माता! आप तपस्वियों की तपःसिद्धि स्वर्गार्थिगणों की

स्वर्गसिद्धि, आनंदस्वरूप और मूल प्रकृति हैं।

हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न होम्।

त्वमादिर्जगतां देवि त्वमेव स्थितिकारणम्।

त्वमन्ते निधनस्थानं स्वेच्छाचारा त्वमेवहि॥

हे जननी! आप जगत् की आदि, स्थिति का एकमात्र कारण हैं। देह के

अंत में जीवगण आपके ही निकट जाते हैं। आप स्वेच्छाचारिणी हैं।

आप हम पर प्रसन्न होम्।

चराचराणां भूतानां बहिरन्तस्त्वमेव हि।

व्याप्यव्याकरूपेण त्वं भासि भक्तवत्सले॥

हे भक्तवत्सले! आप चराचर जीवगणों के बाहर और भीतर दोनों

स्थलों में विराजमान रहती हैं, आपको नमस्कार है।

त्वन्मायया हृतज्ञाना नष्टात्मानो विचेतसः।

गतागतं प्रपद्यन्ते पापपुण्यवशात्सदा॥

हे माता! जीवगण आपकी माया से ही अज्ञानी और चेतनारहित होकर

पुण्य के वश से बारम्बार इस संसार में आवागमन करते हैं।

तावन्सत्यं जगद्भाति शुक्तिकारजतं यथा।

यावन्न ज्ञायते ज्ञानं चेतसा नान्वगामिनी॥

जैसे सीपी में अज्ञानतावश चांदी का भ्रम हो जाता है और फिर

उसके स्वरूप का ज्ञान होने पर वह भ्रम दूर हो जाता है, वैसे

ही जब तक ज्ञानमयी चित्त में आपका स्वरूप नहीं जाना जाता है,

तब तक ही यह जगत् सत्य भासित होता है, परन्तु आपके स्वरूप

का ज्ञान हो जाने से यह सारा संसार मिथ्या लगने लगता है।

त्वज्ज्ञानात्तु सदा युक्तः पुत्रदारगृहादिषु।

रमन्ते विषयान्सर्वानन्ते दुखप्रदान् ध्रुवम्॥

जो मनुष्य आपके ज्ञान से पृथक रहते हुए जगत् को ही सत्य

मानकर विषयों में लगे रहते हैं, निःसंदेह अंत में उनको

महादुख मिलता है।

त्वदाज्ञया तु देवेशि गगने सूर्यमण्डलम्।

चन्द्रश्च भ्रमते नित्यं प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवेश्वरी! आपकी आज्ञा से ही सूर्य और चंद्रमा आकाश मण्डल

में नियमित भ्रमण करते हैम्। आप हम पर प्रसन्न होम्।

ब्रह्मेशविष्णुजननी ब्रह्माख्या ब्रह्मसंश्रया।

व्यक्ताव्यक्त च देवेशि प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवेश्वरी! आप ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की भी जननी हैं।

आप ब्रह्माख्या और ब्रह्मासंश्रया हैं, आप ही प्रगट और गुप्त रूप

से विराजमान रहती हैम्। हे देवी! आप हम पर प्रसन्न होम्।

अचला सर्वगा त्वं हि मायातीता महेश्वरि।

शिवात्मा शाश्वता नित्या प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी! आप अचल, सर्वगामिनी, माया से परे,

शिवात्मा और नित्य हैम्। हे देवी! आप हम पर प्रसन्न होम्।

सर्वकायनियन्त्री च सर्वभूतेश्वरी।

अनन्ता निष्काला त्वं हि प्रसन्ना भवसुन्दरि॥

हे देवी! आप सबकी देह की रक्षक हैं। आप सम्पूर्ण जीवों की

ईश्वरी, अनन्त और अखंड हैम्। आप हम पर प्रसन्न होम्।

सर्वेश्वरी सर्ववद्या अचिन्त्या परमात्मिका।

भुक्तिमुक्तिप्रदा त्वं हि प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे माता! सभी भक्तिपूर्वक आपकी वंदना करते हैं। आपकी कृपा

से ही भुक्ति और मुक्ति प्राप्त होती है। हे सुंदरि! आप हम पर

प्रसन्न होम्।

ब्रह्माणी ब्रह्मलोके त्वं वैकुण्ठे सर्वमंगला।

इंद्राणी अमरावत्यामम्बिका वरूणालये॥

हे माता! आप ब्रह्मलोक में ब्रह्माणी, वैकुण्ठ में सर्वमंगला

अमरावती में इंद्राणी और वरूणालय में अम्बिकास्वरूपिणी हैं।

आपको नमस्कार है।

यमालये कालरूपा कुबेरभवने शुभा।

महानन्दाग्निकोणे च प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी! आप यम के गृह में कालरूप, कुबेर के भवन में

शुभदायिनी और अग्निकोण में महानन्दस्वरूपिणी हैं, हे

सुन्दरी! आप हम पर प्रसन्न होम्।

नैरृत्यां रक्तदन्ता त्वं वायव्यां मृगवाहिनी।

पाताले वैष्णवीरूपा प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी! आप नैरृत्य में रक्तदन्ता, वायव्य कोण में मृगवाहिनी

और पाताल में वैष्णवी रूप से विराजमान रहती हैं। हे सुंदरी!

आप हम पर प्रसन्न होम्।

सुरसा त्वं मणिद्वीपे ऐशान्यां शूलधारिणी।

भद्रकाली च लंकायां प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी! आप मणिद्वीप में सुरसा, ईशान कोण में शूलधारिणी और

लंकापुरी में भद्रकाली रूप में स्थित रहती हैं। हे सुंदरी! आप

हम पर प्रसन्न होम्।

रामेश्वरी सेतुबन्धे सिंहले देवमोहिनी।

विमला त्वं च श्रीक्षेत्रे प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी! आप सेतुबन्ध में रामेश्वरी, सिंहद्वीप में देवमोहिनी

और पुरूषोत्तम में विमला नाम से स्थित रहती हैं। हे सुंदरी!

आप हम पर प्रसन्न होम्।

कालिका त्वं कालिघाटे कामाख्या नीलपर्वत।

विरजा ओड्रदेशे त्वं प्रसन्ना भव सुंदरि॥

हे देवी! आप कालीघाट पर कालिका, नीलपर्वत पर कामाख्या और

औड्र देश में विरजारूप में विराजमान रहती हैं। हे सुंदरी!

आप हम पर प्रसन्न होम्।

वाराणस्यामन्नपूर्णा अयोध्यायां महेश्वरी।

गयासुरी गयाधाम्नि प्रसन्ना भव सुंदरि॥

हे देवी! आप वाराणसी क्षेत्र में अन्नपूर्णा, अयोध्या नगरी में

माहेश्वरी और गयाधाम में गयासुरी रूप से विराजमान रहती हैं।

हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न होम्।

भद्रकाली कुरूक्षेत्रे त्वंच कात्यायनी व्रजे।

माहामाया द्वारकायां प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी! आप कुरूक्षेत्र में भद्रकाली, वज्रधाम में कात्यायनी और

द्वारकापुरी में महामाया रूप में विराजमान रहती हैं। हे देवी! आप

हम पर प्रसन्न होम।

क्षुधा त्वं सर्वजीवानां वेला च सागरस्य हि।

महेश्वरी मथुरायां च प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी! आप सम्पूर्ण जीवों में क्षुधारूपिणी हैं, आप मथुरानगरी

में महेश्वरी रूप में विराजमान रहती हैं। हे देवी! आप हम पर

प्रसन्न होम्।

रामस्य जानकी त्वं च शिवस्य मनमोहिनी।

दक्षस्य दुहिता चैव प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे देवी! आप रामचंद्र की जानकी और शिव को मोहने वाली दक्ष की

पुत्री हैम् । हे देवी! आप हम पर प्रसन्न होम्।

विष्णुभक्तिप्रदां त्वं च कंसासुरविनाशिनी।

रावणनाशिनां चैव प्रसन्ना भव सुन्दरि॥

हे माता! आप विष्णु की भक्ति देने वाली, कंस और रावण का नाश

करने वाली हैम् । हे देवी! आप हम पर प्रसन्न होम्।

लक्ष्मीस्तोत्रमिदं पुण्यं यः पठेद्भक्सिंयुतः।

सर्वज्वरभयं नश्येत्सर्वव्याधिनिवारणम्॥

जो प्राणी भक्ति सहित सर्वव्याधि के नाशक इस पवित्र लक्ष्मी स्तोत्र

का पाठ करता है, उसे किसी प्रकार का ज्वर का भय नहीं रहता है।

इदं स्तोत्रं महापुण्यमापदुद्धारकारणम्।

त्रिसंध्यमेकसन्ध्यं वा यः पठेत्सततं नरः॥

मुच्यते सर्वपापेभ्यो तथा तु सर्वसंकटात्।

मुच्यते नात्र सन्देहो भुवि स्वर्गे रसातले॥

यह लक्ष्मी स्तोत्र परम पवित्र और विपत्ति का नाशक है । जो प्राणी

तीनों संध्याओं में अथवा केवल एक बार ही इसका पाठ करता है,

वह सभी पापों से छूट जाता है । स्वर्ग, मर्त्य, पाताल आदि में

कहीं भी उसको किसी प्रकार का संकट नहीं होता, इसमें संदेह

नहीं है।

समस्तं च तथा चैकं यः पठेद्भक्तित्परः।

स सर्वदुष्करं तीर्त्वा लभते परमां गतिम्॥

जो प्राणी भक्तियुक्त चित्त से सम्पूर्ण स्तोत्र अथवा इसका एक श्लोक

भी प्णाढ़ता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर

परमगति को प्राप्त होता है।

सुखदं मोक्षदं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिसंयुक्तः।

स तु कोटीतीर्थफलं प्राप्नोति नात्र संशयः॥

जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर सुख और मोक्ष के देने वाले इस लक्ष्मी

स्तोत्र का पाठ करता है, उसको करोड़ तीर्थों का फल प्राप्त होता

है, इसमें संदेह नहीं है।

एका देवी तु कमला यस्मिंस्तुष्टा भवेत्सदा।

तस्याऽसाध्यं तु देवेशि नास्तिकिंचिज्जगत् त्रये॥

हे देवेश्वरी! जिस पर आपकी कृपा हो, उसको तीनों लोकों में कुछ

भी असंभव नहीं है।

पठनादपि स्तोत्रस्य किं न सिद्धयति भूतले।

तस्मात्स्तोत्रवरं प्रोक्तं सत्यं हि पार्वति॥

हे पार्वती! मैं सत्य कहता हूं कि पृथ्वी पर ऐसा कुछ भी नहीं

है, जो इस स्तोत्र का पाठ करने से सुलभ न हो। यह स्तोत्र मैंने

तुम्हें सत्य कहा है।

॥इति कमला स्तोत्रम् सम्पूर्णम्॥

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मीन संक्रांति : सूर्य का अंतिम राशि पड़ाव खर मास की शुरुआत का समय

सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना ”संक्रांति ” कहलाता है और सूर्य के मीन राशि में प्रवेश करने को मीन संक्रांति कहते हैं. पंचांग के अनुसार सूर्यदेव 14 मार्च को कुंभ राशि की यात्रा समाप्त करके मीन राशि में प्रवेश कर रहे हैं.ज्योतिष मान्यता के अनुसार ग्रहों के राजा सूर्य सभी बारह राशियों में भ्रमण करते हैं और एक राशि में करीब एक माह रुकते हैं. इस तरह सूर्य देव एक साल में सभी बारह राशियों का एक चक्कर पूरा कर लेते हैं. सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना ‘संक्रांति कहलाता है और सूर्य के मीन राशि में प्रवेश करने को मीन संक्रांति कहते हैं.

मीन संक्रांति से होता है खर मास आरंभ
सौर पंचांग के अनुसार सूर्यदेव 14 मार्च को कुंभ राशि की यात्रा समाप्त करके मीन राशि में प्रवेश कर देते हैं उसके बाद मेष राशि में चले जाएंगे. मीन राशि में सूर्य के प्रवेश के साथ ही खरमास की शुरुआत हो जाता है. राशि परिवर्तन के साथ ही मांगलिक कार्यों पर भी विराम लग जाएगा. जब सूर्य मीन राशि में गोचर करते हैं तो बृहस्पति की शक्ति को भी प्रभावित करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप ही जनमानस मांगलिक कार्यों को करने से परहेज करता है. इस अवधि में धार्मिक अनुष्ठान यानी पूजा-पाठ, हवन और तीर्थ यात्रा आदि तो किए जा सकते हैं लेकिन किसी भी तरह के मांगलिक कार्य करना शुभ नहीं माना जाता है.

मीन संक्रांति 2024, सूर्य का कुंभ राशि से मीन राशि में संक्रमण, एक शुभ दिन है जब भगवान सूर्य कुंभ राशि से मीन राशि में अपना स्थान बदलते हैं. लोग धार्मिक गतिविधियाँ करते हैं, पवित्र स्नान करते हैं, और दान-पुण्य करते हैं, मंत्रों का जाप करते हैं और ध्यान का अभ्यास करते हैं.

मीन संक्रांति 2025 में कब है?

मीन संक्रांति 2025 में 14 मार्च को मनाई जाएगी. सूर्य जब कुंभ राशि से मीन राशि में अपना स्थान बदलता है, तो इसे मीन संक्रांति के रूप में भी मनाया जाता है. यह विभिन्न धार्मिक गतिविधियों को करने के लिए एक शुभ दिन है. राशि चक्र के एक राशि से दूसरे राशि में सूर्य के गोचर को संक्रांति कहा जाता है.

मीन संक्रांति 2025: तिथि और समय
मीन संक्रांति 14 मार्च 2024 को मनाई जाएगी .
मीन संक्रांति पुण्य काल – 14 मार्च 2025 – 12:30 पी एम से 06:29 पी एम
मीन संक्रांति महा पुण्य काल – 14 मार्च 2025 -04:29 पी एम से 06:29 पी एम
मीन संक्रांति क्षण – 14 मार्च 2024 – 06:59 पी एम

मीन संक्रांति 2025: महत्व
मीन संक्रांति वह समय है जब भगवान सूर्य कुंभ राशि से मीन राशि में प्रवेश करते हैं. यह दिन फाल्गुन माह में आता है और इस दिन लोग पूजा, उपासना जैसे विभिन्न धार्मिक कार्य करते हैं, प्रार्थना करते हैं और गंगा नदी में पवित्र स्नान करते हैं. इस दिन भगवान सूर्य की पूजा करना शुभ माना जाता है. दान-पुण्य किया जाता है, ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है और उनका आशीर्वाद लेना चाहिए. मीन संक्रांति, जो सर्दियों के अंत और वसंत की शुरुआत को दर्शाती है, उत्तरी गोलार्ध के लंबे दिन और छोटी रातों की ओर बदलाव की शुरुआत है. इसे कुछ स्थानों में मेल-मिलाप, मेलों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ इस दिन को जोश और उत्साह के साथ मनाया जाता है.

मीन संक्रांति पर क्या करें?
मीन संक्रांति के दिन कुछ कार्यों को करना बहुत आवश्यक होता है. मीन संक्रांति पर सूर्योदय के समय पवित्र नदियों में पवित्र स्नान करना बहुत शुभ माना जाता है. ऐसा माना जाता है कि इससे लोग पापों से मुक्त हो सकते हैं और इससे आत्मा शुद्ध होती है. लोग गंगा, यमुना, शिप्रा, नर्मदा और गोदावरी में पवित्र स्नान कर सकते हैं. इस दिन दान का अपना बहुत महत्व है. भक्तों को भोजन और कपड़े दान करने चाहिए इससे जीवन में समृद्धि आती है. माना जाता है कि ऎसा करने से प्रभु का आशीर्वाद मिलता है और दुख दर्द दूर होते हैं.

इस शुभ दिन पर भक्तों को भगवान सूर्य को समर्पित मंत्रों का जाप करना चाहिए और भगवान सूर्य को नमन करना चाहिए. लोगों को ध्यान और योग या अन्य आध्यात्मिक गतिविधियों में शामिल होना चाहिए. इससे मन, शरीर और आत्मा शुद्ध होती है. लोगों को हवन या यज्ञ भी करना चाहिए और मीन संक्रांति के दिन गायत्री यज्ञ करना शुभ माना जाता है. इससे पितृ दोष दूर करने में मदद मिल सकती है. यह दिन भगवान सूर्य को जल या अर्घ्य देने के लिए शुभ माना जाता है. लोगों को सुबह जल्दी उठकर सूर्य को जल चढ़ाना चाहिए और सूर्य देव के प्रति भक्ति व्यक्त करनी चाहिए.

मीन संक्रांति पर राशि के अनुसार दान करें

मंगल मेष राशि का स्वामी है, इसलिए मेष राशि के लोगों को मीन संक्रांति के दिन तिल, गेहूं, गुड़ और मसूर की दाल का दान करने से पुण्य मिलेगा.

शुक्र वृषभ राशि का स्वामी है, इसलिए वृषभ राशि के लोगों को मीन संक्रांति के दिन गरीबों को दूध, दही, आटा और पैसे दान करने चाहिए. इससे सुख और समृद्धि बढ़ेगी.

मिथुन राशि का स्वामी बुध है, इसलिए इस राशि के जातकों को इस दिन सुबह स्नान करने के बाद गरीबों को तिल के लड्डू, साबुत मूंग, खिचड़ी आदि दान करना शुभ रहेगा.

कर्क राशि का स्वामी चंद्रमा है, इस राशि के जातकों को इस दिन चावल की खीर, सफेद तिल के लड्डू, मावे से बनी मिठाई आदि दान करना शुभ रहेगा.

सिंह राशि का स्वामी सूर्य है. इस राशि के जातकों को मीन संक्रांति के अवसर पर लाल कपड़ा, गेहूं, गुड़ और दाल, तांबे के बर्तन आदि दान करना फलदायी रहेगा.

कन्या राशि का स्वामी बुध है, कन्या राशि के कों को इस दिन मूंग-चावल की खिचड़ी, हरी सब्जियां और अनाज दान करना चाहिए, मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहेगी.

तुला राशि का स्वामी शुक्र है, तुला राशि को इस दिन चीनी, गुड़, चावल, दूध-दही, सफेद या गुलाबी रंग के कपड़े दान करना विशेष फलदायी रहेगा.

वृश्चिक राशि का स्वामी मंगल है, इस राशि के लोगों को मीन संक्रांति पर दाल, अनाज, धन आदि का दान करना चाहिए, इससे सौभाग्य की प्राप्ति होगी.

धनु राशि का स्वामी गुरु है, इसलिए इस राशि के लोगों को इस दिन हल्दी, बेसन के लड्डू, पपीता और पीला चंदन दान करना शुभ रहेगा.

मकर राशि का स्वामी शनि है, मकर राशि के लोगों को इस दिन सरसों का तेल और काले तिल, काला कपड़ा और लोहा दान करना चाहिए.

कुंभ राशि का स्वामी शनि है, इस राशि के लोगों को इस दिन सरसों का तेल, कपड़ा, काला छाता और काले चने की दाल दान करनी चाहिए.

मीन राशि का स्वामी बृहस्पति है, इस राशि के लोगों को इस दिन पीले कपड़े, पीला चंदन और धार्मिक पुस्तकें दान करनी चाहिए.

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धनतेरस का ज्योतिष महत्व और राशि अनुसार प्रभाव-उपाय

Astrological significance of Dhanteras

धनतेरस का समय कई मायनों में विशेष रहा है जिसे धार्मिक रुप से विशेष माना जाता है और इस दिन का ज्योतिषिय महत्व भी बहुत रहा है. इस समय पर ग्रहों की स्थिति का प्रभाव कई मायनों में विशेष होता है. अपनी राशि के अनुसार कुछ उपाय करके इस दिन लाभ प्राप्ति का सुख पाने में सक्षम होते हैं. अपनी आर्थिक स्थिति और सुख-समृद्धि को बढ़ा सकते हैं. पांच दिवसीय दिवाली उत्सव की शुरुआत धनतेरस से होती है, जिसमें सबसे पहले धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दिवाली, गोवर्धन बलिप्रतिपदा पूजा और अंत में भैया दूज का त्योहार मनाया जाता है.

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ज्योतिष अनुसार मान्यता है कि धनतेरस के दिन ही भगवान धन्वंतरि का जन्म हुआ था. इसलिए धनतेरस को धन्वंतरि जी के जन्मदिन के रूप में भी मनाया जाता है. इसी के साथ धन तेरस के दिन ही अम्रत तत्व की भी प्राप्ति होती है. धनतेरस को ‘धन्य तेरस’ या ‘ध्यान तेरस’ भी कहा जाता है. जैन धर्म में इस दिन भगवान महावीर ध्यान में लीन हो गए थे और तीन दिन बाद दिवाली के दिन ही उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ था.

ज्योतिष में धनतेरस का महत्व

धनतेरस के दिन आप अपनी राशि के अनुसार कुछ उपाय करके आर्थिक स्थिति और सुख-समृद्धि को बढ़ा सकते हैं. इस दिन सेहत से जुड़े लाभ प्राप्त कर सकते हैं. धन तेरस के दिन चंद्र, सूर्य, शुक्र गुरु का प्रभाव अत्यंत ही महत्व रखता है. इस समय पर ग्रहों का असर जीवन में कई तरह के विशेष फलों को देता है. सूर्य और चंद्रमा का डिग्री प्रभाव उन ऊर्जाओं को बढ़ा देता है जिनके द्वारा आर्थिक स्थिति के अलावा सेहत की स्थिति भी प्रभावित होती है.

इसके लावा इस समय गुरु और शुक्र का प्रभव व्यक्ति की मानसिक स्थिति पर असर डालता है इन ग्रहों की ऊर्जा के तहह जीवन में शुभता का आगमन होता है. धनतेरस पर्व का विशेष महत्व है. कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को धनतेरस मनाया जाता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान धन्वंतरि समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे. इस दिन बड़े ग्रह विशेष योग भी बनाते हैं. इन योगों का प्रभाव सभी राशियों पर कुछ न कुछ प्रभाव पड़ता है.

धनतेरस पर बन रहे ग्रह योग के कारण सभी राशियों वाले लोग आत्मविश्वास से भरपूर रह सकते हैं. इस दौरान व्यक्ति स्वयं में नई ऊर्जा से भरा हुआ महसूस करता है. व्यापार में वृद्धि होने की संभावना भी अच्छी होती है. नौकरी में पदोन्नति के योग बनते हैं. सरकारी नौकरी से जुड़े लोगों का स्थान बदलाव होता है जो विभिन्न प्रकार के असर डालने वाला साबित हो सकता है. छात्रों को परीक्षाओं में अच्छे परिणाम मिल पाने का योग बनता है क्योंकि धनवंतरि जी ज्ञान प्रदान करने वाले ग्रह भी हैं. घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहती है. अगर इन ग्रहों के अनुसार कर लिए जाएं तो काफी शुभ फल प्राप्त होते हैं.

मेष राशि के लिए धनतेरस उपाय
मेष राशि वालों को धनतेरस के समय पर घर के बाहर भगवान यमराज के लिए तेल का दीपक जलाना चाहिए और उसमें काली गुंजा को डालना के डालें. धनतेरस पर आपको काफी लाभ होगा. अपने व्यवहारिक कौशल से आपको चल-अचल संपत्ति में मनचाहा लाभ मिलेगा. आपके व्यापार में बहुत तेजी से प्रगति होगी. इससे न केवल आपका भय दूर होगा बल्कि आपके घर की सुख-समृद्धि भी बढ़ेगी.

वृषभ राशि के लिए धनतेरस उपाय
वृषभ राशि वालों को धनतेरस के दिन नारियल के सुखे खोल में सरसों का तेल डाल कर दीपक जलाना चाहिए. यम देव को नमस्कार करना चाहिए. ऎसा करने से आरोग्य का लाभ मिलता है. इस उपाय को करने से कड़ी मेहनत करते रहें और आपको जल्द ही अपनी सभी समस्याओं का समाधान मिल जाएगा. देवी लक्ष्मी के मंत्र का जाप करें जिससे लक्ष्मी की कृपा से आपका खजाना हमेशा भरा रहेगा.

मिथुन राशि के लिए धनतेरस उपाय
मिथुन राशि वालों को धनतेरस के दिन चौमुखी दीपक जलाना चाहिए घर दहलीज पर और इस दीपक में सिक्का जरूर डालना चाहिए और अगले दिन इस सिक्के को जल में प्रवाहित करना चाहिए. ऎसा करने से अचानक से धन लाभ का योग बनेगा. आपको अधिक लाभ होगा, आप अपने काम को महत्व देकर अपने सभी कार्यों को पूरा करेंगे.

कर्क राशि के लिए धनतेरस उपाय
कर्क राशि वालों को धनतेरस के दिन पीपल के पत्ते पर गोल मौली या कलावा बांधकर और उस पर चंदन से ऊं लिखें और इसमें 5 कौड़ियों को बांध कर इसे अपने घर या ऑफिस में धन स्थान पर रखें. ऐसा करने से आपके व्यापार में प्रगति होती है. कार्यक्षेत्र में आपको सफलता मिलेगी. सभी काम समय पर पूरे होते हैं. लंबे समय से रुके हुए कामों में गति आती है. अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर पाते हैं.

सिंह राशि के लिए धनतेरस उपाय
सिंह राशि वालों को धनतेरस के दिन यमदेवता के लिए जलाए गए दीपक में चुटकी भर काले तिल डालकर जला कर इसे दहलीज पर जलाना चाहिए ससे आपके आस-पास की सारी नकारात्मकता दूर होती है और आपके जीवन में सुख-समृद्धि बनी रहती है. सुख-समृद्धि बनी रहती है, परिवार के सदस्यों का पूरा सहयोग मिलने से आपको कार्य क्षेत्र में अधिकतम लाभ मिलता है. पारिवारिक सुख मिलता है.

कन्या राशि के लिए धनतेरस उपाय
कन्या राशि वालों को धनतेरस के दिन सिक्कों और बर्तनों के अलावा मिट्टी से बने लक्ष्मी-गणेश जी खरीदकर घर लाने चाहिए. चांदी का सिका लाल चंदन का तिलक लगा कर मंदिर में रखना चाहिए. ऐसा करने से मां लक्ष्मी और श्री गणेश जी की कृपा आपके पूरे परिवार पर बनी रहती है और शुक्र ग्रह की शुभता प्राप्त होती है. काम-काज में उन्नति अच्छी होती है, व्यवस्थित दिनचर्या के कारण आपको सभी क्षेत्रों में लाभ मिलता है.

तुला राशि के लिए धनतेरस उपाय
तुला राशि वालों को धनतेरस के दिन घर की सुख-समृद्धि बढ़ाने के लिए भगवान धन्वंतरि जी का पूजन करना चाहिए. तुलसी जी के सामने दीपक जलाना चाहिए. इससे गुरु ग्रह को मजबूती मिलती है. घर की सुख-समृद्धि बढ़ाने में सफल होते हैं. आर्थिक जीवन में अनुकूलता देखने को मिलती है. कुछ नए बिजनेस आइडिया भी आपके दिमाग में आ सकते हैं जिसमें आपको दोस्तों का पूरा सहयोग भी मिलता है.

वृश्चिक राशि के लिए धनतेरस उपाय
वृश्चिक राशि के लिए धनतेरस पर एक सूखा नारियल खरीदें और इस पर लाल कलावा बांध कर दिवाली के दिन तक मंदिर में रखें.इससे आपके परिवार में खुशियां बनी रहती हैं और नकारात्मक ग्रहों की शांति होती है. बिजनेस सामान्य से अधिक अच्छा होता है. लंबे समय से चली आ रही समस्याओं का जल्द ही कोई न कोई समाधान आपको मिल जाता है. आपके जीवन में कुछ बदलाव देखने को मिल सकते हैं. इन समस्याओं से छुटकारा पाने और अपने घर की सुख-समृद्धि के लिए धनतेरस के दिन एक

धनु राशि के लिए धनतेरस उपाय
धनु राशि वालों को धनतेरस के दिन आपकी आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए तुलसी या पीपल का पत्ता लें, उस पर पीले चंदन का तिलक लगाएं और उसे बहते पानी में प्रवाहित करें. इससे घर की सुख-समृद्धि बढ़ेगी और आप आर्थिक रूप से भी मजबूत होंगे.आप अपनी समझदारी और बुद्धि से मुश्किल से मुश्किल समय को पार कर पाएंगे. अगर आप अपने घर में धन की वर्षा होगी.

मकर राशि के लिए धनतेरस उपाय
मकर राशि वालों को धनतेरस के दिन घर में कुबेर यंत्र लाना चाहिए. धनतेरस से दिवाली के दिन तक इसकी नियमित पूजा करनी चाहिए. इससे आपके घर से धन संबंधी सभी परेशानियां दूर होंगी और धन की वर्षा होगी.

कुंभ राशि के लिए धनतेरस उपाय
धनतेरस के दिन बरगद के पत्ते पर ‘श्री गणेशाय नमः’ मंत्र लिखें और इसका जाप करने के बाद इस से एक बत्ती बनाकर रख लें और धनतेरस से दिवाली तक अपने घर में जो भी दीये जलाएं, उसमें इस बत्ती का इस्तेमाल करें. ऐसा करने से आपकी सफलता की लौ बहुत लंबे समय तक जलती रहेगी और आपके घर में सुख-शांति बनी रहती है. आपको लाभ के नए अवसर मिलते हैं. उच्च वर्ग के लोगों से संपर्क करने से आपको अधिक लाभ होगा.

मीन राशि के लिए धनतेरस उपाय
मीन राशि वालों को धनतेरस के दिन केसर का दान श्री विष्णु में करना चाहिए. इस दिन मंदिर में तिल के दीपक को जलाना चाहिए ऎसा करने से मानसिक रोग दूर होते हैं. अचानक आय के नए स्रोत मिलते हैं. आपके लाभ और व्यय में समानता रहती है.

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यम पंचक : पांच दिनों का विशेष उत्सव

यम पंचक कार्तिक माह में आने वाला विशेष समय होता है जो पांच दिनों तक चलता है. यम पंचक के दौरान विभिन्न तरह के धार्मिक कार्यों को किया जाता है.  इस समय को पांच दिन चलने वाले त्यौहारों के रुप में भी देखा जाता है. कार्तिक मास हिंदू धर्म का सबसे महत्वपूर्ण महीना है. इस महीने में सूर्योदय से पहले स्नान करने की मान्यता है. इस माह में किए जाने वाले धार्मिक कार्यों को बहुत ही शुभ एवं पुण्य फल प्रदान करने माना जाता है. इसी समय पर यम पंचक का आगमन विशेष प्रभावों के साथ शुभ परिणामों को देता है. 

कार्तिक मास में यम पंचक 

कार्तिक मास में कई त्योहार एक साथ मनाए जाते हैं. कार्तिक मास में धनतेरस पूजा भी की जाती है. इसके अलावा दिवाली मनाई जाती है. दिवाली मनाने की परंपरा से ही जुड़ा है यह यम पंचक का पर्व. इसके साथ पांच त्योहार जुड़े हुए हैं. कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से लेकर शुक्ल पक्ष की द्वितीया तक लगातार पांच दिन तक उत्सव आते हैं. 

यम पंचक में कौन से पांच त्योहार शामिल हैं.

शास्त्रों में इन पांच दिनों को यम पंचक कहा जाता है. इन पांच दिनों में यमराज, वैद्यराज धन्वंतरि, लक्ष्मी-गणेश, हनुमान, काली और गोवर्धन की पूजा का समय विशेष रहता है. इस समय के दौरान इन सभी की पूजा लगातर पांच दिनों तक की जाती है. इन पांच दिनों तक किये जाने वाले कार्यों से यम देव का आशीर्वाद मिलता है तथा अकाल मृत्यु, कष्ट एवं रोगों से मुक्ति मिलती है. तंत्र इत्यादि का प्रभाव भी शांत होता है. 

धनतेरस (धन्वंतरि जयंती)

 दिवाली से दो दिन पहले कार्तिक मास की त्रयोदशी से यम पंचक शुरू हो जाता है. पहले दिन धनतेरस मनाई जाती है. इस दिन भगवान धन्वंतरि की पूजा की जाती है. भगवान धन्वंतरि को आयुर्वेद का जनक भी कहा जाता है. आपको बता दें कि धनतेरस के दिन ही भगवान धन्वंतरि का जन्म हुआ था. भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में से भगवान धन्वंतरि का अवतार बारहवां है. मान्यता है कि देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन का प्रयास शुरू किया था, जिससे चौदह रत्न प्राप्त हुए थे इसी समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरि का अवतार हुआ था. धनतेरस पर यम दीप जलाने के साथ ही नए आभूषण और बर्तन आदि खरीदने की भी परंपरा है.

प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इस दिन सोने या चांदी के सिक्के या बर्तन खरीदना बहुत शुभ माना जाता है. इस दिन को स्वास्थ्य लाभ के लिए भी शुभ माना गया है. इस समय पर किया जाने वाला स्नान दान रोगों से मुक्ति को दिलाने वाला होता है. इस समय पर आयुर्वेद से संबंधित वस्तुओं की पूजा होती है जो सेहत के अनुकूलता देने वाली होती हैं. 

नरक चतुर्दशी

यम पंचक में एक अन्य पर्व जुड़ता है जो नर्क चतुर्दशी के नाम से जाना जाता है. इसे नरक चौदस भी कहते हैं इस दिन पर यम देव के निमित्त दीपक जलाने की परंपरा रही है. मान्यता है कि ऎसा करने से कष्ट दूर होते हैं. इस पर्व पर लोग यम दीप दरवाजे पर जलाते हैं. शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार इस दिन शाम के समय घर के बाहर कूड़े के ढेर पर चार बातियों वाला दीया जलाया जाता है. इसी के साथ एक बाती वाला दीया भी जलाया जाता है. इस समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि यह दीया पुराना होना चाहिए. इसके पीछे मान्यता यह है कि चाहे वह किसी भी स्थान पर हो, शुभता हर जगह रहती है. किसी खास समय पर इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है.

दीपावली का पर्व 

रोशनी के त्योहार दिवाली का संबंध भी यम पंचक के साथ खास रुप से जुड़ा हुआ है. यह दिन भी यम पंचक में बहुत महत्वपुर्ण हो जाता है. दिवाली कार्तिक मास की अमावस्या को मनाई जाती है और इस यम पंचक में दिवाली तीसरे दिन होती है. दिवाली सनातनी परंपरा में रात में मनाए जाने वाले प्रमुख त्योहारों में से एक है. पौराणिक कथाओं के अनुसार यह तीसरी महानिशा में शामिल कालरात्रि का महापर्व है. 

दिवाली या दीपावली का पर्व अंधकार की समाप्ति एवं प्रकाश के आगमन का संकेत देता है. इस दिन चारोम ओर दीपों को जलाया जाता है और ज्ञान की शुभता इसके प्रभाव से चारों ओर फैलती है. कहा जाता है कि दिवाली के दिन सूर्यास्त से अगले सूर्योदय के बीच का समय विशेष रूप से प्रभावी होता है. मोहरात्रि, शिवरात्रि, होलिका दहन, शरद पूर्णिमा की तरह दिवाली में भी पूरी रात जागने का प्रावधान है. कालरात्रि वह रात्रि है जिसमें तंत्र साधना करने वालों के लिए सबसे अधिक अवसर होते हैं. इस दिन खास तौर पर बिहार और पश्चिम बंगाल में काली पूजा का भी प्रावधान है. 

दिवाली के दिन काली पूजा भी मनाई जाती है. दिवाली बुराई पर अच्छाई की जीत का भी त्योहार है. शास्त्रों के अनुसार भगवान श्री राम ने लंकापति रावण पर विजय प्राप्त की थी और इसी दिन वे चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके अयोध्या लौटे थे. भगवान राम के वापस लौटने की खुशी में प्रकाश का त्योहार दिवाली मनाया गया था. कहा जाता है कि जब भगवान राम, लक्ष्मण और माता सीता अयोध्या लौटे थे तो लोगों ने उनका स्वागत दीप जलाकर किया था, इसलिए दिवाली को मिलन का त्योहार भी कहा जाता है, इस दिन सभी एक दूसरे के घर जाते हैं और मिठाइयां बांटते हैं.

गोवर्धन पूजा (अन्नकूट)

दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा या अन्नकूट मनाया जाता है. हिंदू कैलेंडर के अनुसार यह पूजा कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन की जाती है. यह पर्व विशेष रूप से श्री कृष्ण, गौ माता और गोवर्धन पर्वत की पूजा को समर्पित है. गोवर्धन पूजा में अन्नकूट बनाया जाता है और गाय के गोबर से गोवर्धन की आकृति बनाई जाती है. इसके बाद मान्यता के अनुसार पूजा की जाती है. 

गोवर्धन पूजा को अन्नकूट के नाम से भी मनाते हैं क्योंकि इस दिन भगवान को अनेक प्रकार के व्यंजनों का भोग अर्पित करते हैं और कई तरह की सब्जियों को मिलाकर अन्नकूट तैयार करते हैं जिसे भगवान को अर्पित करते हैं. 

भैया दूज

भैया दूज का पर्व यम पंचक का पांचवां पर्व माना गया है. भाई दूज भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक पर्व है जो भाई बहन के अटूट प्रेम को दर्शाता है. यह पर्व रक्षाबंधन की भांति ही सुरक्षा स्नेह ओर प्रेम को दर्शाता है. इसका महत्व स्कंद पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण दोनों में वर्णित है. इस दिन हर भाई का दायित्व होता है कि वह अपनी विवाहित बहन के घर जाए. उसके द्वारा पकाया गया भोजन ग्रहण करें और अपनी क्षमता के अनुसार धन, वस्त्र, मिठाई आदि उपहार में देना चाहिए. शास्त्रों के अनुसर इसदिन को यमराज ओर उनकी बहन यमुना जी के मिलन और प्रेम स्नेह का समय भी प्रकट करता है और इस दिन पूजन द्वारा अकाल मृत्यु से मुक्ति की प्राप्ति होती है.

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देव उठनी एकादशी : श्री हरि सहित देवताओं के जागने का समय

देव उठनी एकादशी : श्री हरि सहित देवताओं के जागने का समय
देव उठनी एकादशी, कार्तिक माह में आने वाली एकादशी है जो साल भर आने वाले सभी एकादशियों में कुछ विशेष स्थान रखती है. मान्यताओं के अनुसार देव उठनी एकादशी के दिन विष्णु भगवान जागते हैं और सृष्टि को संभालते हैं. इस के अलावा इसे देवताओं के उठने का समय भी माना गया है जिस कारण इसे देवउठनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है.

सभी एकादशियों में से यह एकादशी बहुत ही शुभ और अत्यंत फलदायी एकादशी है. देव उठनी एकादशी को देव उठनी एकादशी, देवउठन एकादशी आदि नामों से जाना जाता है. वैष्णव संप्रदाय में एकादशी तिथि को बहुत ही शुभ समय माना जाता है. मान्यताओं के अनुसार देव उठनी एकादशी के दिन से ही सभी धार्मिक कार्य शुरू हो जाते हैं.

देव उठनी एकादशी कब है ?
देव उठनी एकादशी 12 नवंबर 2024 मंगलवार को मनाई जाएगी.
देवउठनी एकादशी कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि के दिन मनाते हैं.
देव उठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु के साथ देवता जागते हैं
देवउठनी एकादशी से शुरु होते हैं विवाह जैसे मांगलिक कार्य.

देव उठनी एकादशी शुभ मुहूर्त
उठनी एकादशी के समय को अबूझ मुहूर्त का समय भी माना जाता है. अबूझ मुहूर्त एक ऐसा समय होता है जिसमें आप कोई भी शुभ कार्य कर सकते हैं. इस दिन से ही सभी मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं. अन्य सभी प्रकार के शुभ कार्य जैसे सगाई, विवाह, गृह प्रवेश, नए कार्यों की शुरुआत इसी दिन की जाती है. मान्यता है कि भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान विष्णु चार माह के लिए क्षीर सागर में शयन करते हैं. इस चार माह की अवधि में मांगलिक कार्य भी नहीं किए जाते हैं. जिस दिन भगवान चार माह के बाद जागते हैं, उसे देव एकादशी कहते हैं.

देव उठनी एकादशी तुलसी विवाह
देवोत्थान एकादशी पर तुलसी विवाह भी आयोजित किए जाते हैं. तुलसी पूजन का पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पूरे भारत में मनाया जाता है. इस दिन का विशेष प्रभाव होता है. ऐसा कहा जाता है कि कार्तिक मास की एकादशी के दिन तुलसी विवाह करने वाले व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं.

देवोत्थान एकादशी के दिन महिलाएं सुबह जल्दी उठकर स्नान करती हैं और फिर कार्तिक शुक्ल एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह संपन्न कराती हैं. इस दिन तुलसी विवाह पूरे विधि-विधान से करना चाहिए, गीत गाने चाहिए और एक सुंदर मंडप बनाना चाहिए. मंडप में विवाह संपन्न होता है. विवाह के समय महिलाएं मंगल गीत और भजन गाती हैं.

देव उठनी एकादशी कथा
देव उठनी से संबंधित एक कथा इस प्रकार है. जब भगवान श्री कृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने प्रेम और सौंदर्य पर बहुत गर्व हो जाता है, तो भगवान कृष्ण उसे सबक सिखाने का निर्णय लेते हैं. भगवान उसे विनम्र बनाने के लिए एक लीला रचते हैं. एक दिन नारद जी उनके निवास स्थान पर आते हैं. सत्यभामा ने उनसे कहा कि अगले जन्म में भी वह भगवान कृष्ण को अपने पति के रूप में चाहती हैं. नारद ने उनसे कहा कि यदि वह इस जन्म में अपनी प्रिय वस्तु दान करेंगी तो यह अवश्य संभव होगा.

नारद ने सत्यभामा से कहा कि चूंकि श्री कृष्ण तुम्हें सबसे प्रिय हैं, इसलिए तुम्हें उन्हें मुझे दे देना चाहिए, फिर अगले जन्म में तुम्हें वे अवश्य प्राप्त होंगे. सत्यभामा ने उनकी बात मान ली और श्री कृष्ण को नारद के साथ जाने दिया. जब नारद वहां पहुंचे तो उन्होंने श्री कृष्ण को अपने साथ ले जाने का निर्णय लिया. श्री कृष्ण जी को साथ ले जाने के लिए जब रुक्मिणी जी रुक्मिणी जी को रोकती हैं तो अन्य रानियां उन्हें रोकती हैं. इस पर नारद जी कहते हैं कि यदि उन्हें कृष्ण के बराबर स्वर्ण और रत्न प्राप्त हो जाएं तो वे कृष्ण को साथ नहीं ले जाएंगे. तराजू के एक पलड़े पर श्री कृष्ण बैठते हैं और दूसरे पलड़े में सभी आभूषण रखते हैं, लेकिन पलड़ा बिल्कुल भी नहीं हिलता. अंत में रुक्मिणी जी तुलसी की टहनी को पलड़े पर रखती हैं. पलड़ा तुरंत बराबर हो जाता है. नारद जी अपने वचनों के अनुसार भगवान कृष्ण को छोड़कर तुलसी की टहनी को साथ ले जाते हैं. तुलसी के कारण रानियों का सौभाग्य सुरक्षित रहा. इसलिए इस दिन व्रत रखा जाता है और तुलसी जी की पूजा की जाती है.

देव उठनी एकादशी का महत्व
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी का महत्व कई पौराणिक ग्रंथों में बताया गया है. देवोत्थानी एकादशी के दिन भगवान जागते हैं. परंपरागत रूप से चार माह की अवधि में जो कार्य नहीं किए जा सके थे, वे सभी अब किए जाते हैं. एक प्रचलित कथा के अनुसार, भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान विष्णु ने शंखासुर नामक अजेय राक्षस से युद्ध किया था. युद्ध में भगवान विष्णु ने शंखासुर का वध कर दिया था. हालांकि, लंबे युद्ध ने भगवान को काफी थका दिया था और इसलिए वे अपनी थकान दूर करने के लिए सो जाते हैं. वे चार माह की अवधि के लिए सोते हैं. जिस दिन वे चार माह के बाद जागते हैं, उसे देवोत्थानी एकादशी कहते हैं. इस दिन पूरे विधि-विधान से भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. इस दिन व्रत रखने का विशेष महत्व है.

कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थान, तुलसी विवाह और भीष्म पंचक एकादशी जैसे कई अन्य नामों से भी मनाया जाता है. दिवाली के बाद आने वाली इस एकादशी को उठनी एकादशी भी कहते हैं. भगवान विष्णु को जगाने के लिए भगवान उठनी एकादशी के दिन से ही मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु क्षीर सागर में सोए हुए हैं. देवउठनी एकादशी के साथ ही गृह प्रवेश, नींव मुहूर्त, यज्ञोपवीत, देव प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्य भी शुरू हो जाते हैं. इन चार दिनों तक वैष्णव मंदिरों और घरों में तुलसी विवाह भी मनाया जाता है.

देव उठनी एकादशी पूजा अनुष्ठान
देव उठनी एकादशी तब होती है जब श्री विष्णु जागते हैं. पद्मपुराण में इस एकादशी का महत्व वर्णित है.
श्री हरि-उठनी एकादशी का व्रत और पूजन करने से भक्त को एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सौ राजसूय यज्ञ के बराबर फल मिलता है.
इस पुण्यदायी एकादशी पर पूरे विधि-विधान से व्रत करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं.
भक्त इस दिन पूर्ण श्रद्धा और भक्ति के साथ जप-तप, स्नान-दान, होम आदि करते हैं
देवउठनी एकादशी पूजा में कभी न खत्म होने वाले पुण्य की प्राप्ति होती है. इस दिन भक्त को अपने सभी आध्यात्मिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए.

श्री विष्णु की षोडशोपचार विधि से पूजा की जाती है. भगवान को अनेक प्रकार के फल और पुष्प अर्पित किए जाते हैं. इस दिन यदि संभव हो तो व्रत रखना चाहिए. अन्यथा एक बार फलाहार ग्रहण कर भगवान की पूजा करनी चाहिए. इस एकादशी में जागरण किया जाता है. इस दिन श्री हरि कीर्तन का आयोजन करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं. चतुर्मास जिसे चौमासा भी कहते हैं, में रुके हुए कार्यों को फिर से शुरू किया जा सकता है. देवोत्थान एकादशी से मांगलिक कार्यों की शुरुआत होती है.

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करक चतुर्थी कथा और महत्व

करक चतुर्थी का उत्सव कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी में मनाया जाता है. करक चतुर्थी की रस्में क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग हों, लेकिन सार एक ही है जो भक्ति, आस्था और विश्वास को दर्शाने वाला समय होता है. 

करक चतुर्थी का व्रत गणेश करक चतुर्थी के रुप में भी रखा जाता है और इस दिन को करवा चौथ के रुप में भी रखा जाता है जो सौभाग्य सुख के लिए किया जाता है. करक चतुर्थी व्रत एक कठिन व्रतों में से भी एक होता है जो कुछ लोगों द्वारा विशेष रूप से बिना पानी के रखा जाता है. करक चतुर्थी, विवाहित हिंदू महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण त्योहार है, जो ज्यादातर भारत के उत्तरी क्षेत्र में मनाया जाता है. इसे करवा चतुर्थी के नाम से भी जाना जाता है. करवा या करक का अर्थ है मिट्टी का बर्तन जिसके माध्यम से पानी चढ़ाया जाता है, जिसे चंद्रमा को अर्घ कहा जाता है. यह त्यौहार विवाह का उत्सव भी है, पत्नियां उपवास रखती हैं, जिसे निर्जला व्रत के रूप में जाना जाता है, जो सूर्योदय से शुरू होता है और शाम को चांद दिखने तक चलता है. करक चतुर्थी उसी दिन पड़ता है जिस दिन संकष्टी चतुर्थी होती है, जो भगवान गणेश को समर्पित एक व्रत का दिन है.  

करक चतुर्थी तिथि और समय

पूर्णिमांत पंचांग के अनुसार, करक चतुर्थी कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है. करक चतुर्थी, जिसे करक चतुर्थी के नाम से भी जाना जाता है, वैवाहिक बंधन की मजबूती का प्रतीक है और इसका पता महाभारत की कहानी से लगाया जा सकता है, जब सावित्री ने अपने पति की आत्मा के लिए मृत्यु के देवता, भगवान यम से प्रार्थना की थी.

महाकाव्य का एक और अध्याय पांडवों और उनकी पत्नी द्रौपदी के बारे में है, जिन्होंने अर्जुन द्वारा कुछ दिनों के लिए प्रार्थना और ध्यान करने के लिए नीलगिरी की यात्रा करने के बाद अपने भाई कृष्ण की सहायता मांगी थी. उन्होंने उसे देवी पार्वती की तरह ही अपने पति शिव की सुरक्षा के लिए कठोर व्रत रखने का निर्देश दिया. द्रौपदी ने इसका पालन किया और अर्जुन जल्द ही सुरक्षित घर लौट आए.तो, इस त्यौहार के पीछे का महत्व यह है कि व्रत रखने से वैवाहिक जीवन में प्रेम ओर सुख का भाव सदैव बना रहता है. 

करक चतुर्थी : गणेश भगवान की कथा 

कार्तिक गणेश चतुर्थी व्रत कथा, इसे पढ़ने से सौ यज्ञों का फल मिलता है. चतुर्थी तिथि के स्वामी विघ्नहर्ता भगवान गणेश हैं. इस तिथि पर भगवान शिव के पुत्र गणेशजी की पूजा करने से सभी विघ्न दूर हो जाते हैं और कथा पढ़ने और सुनने मात्र से सौ यज्ञों के बराबर पुण्य का फल मिलता है. हिंदू धर्म में गणेश चतुर्थी तिथि का विशेष महत्व है. आइए जानते हैं कार्तिक मास की करक चतुर्थी की व्रत कथा 

कार्तिक मास गणेश चतुर्थी तिथि व्रत कथा अनुसार देवी पार्वतीजी ने कहा- हे पुत्र! कार्तिक मास की गणेश चतुर्थी पर किस गणेश की पूजा करनी चाहिए, उन्होंने कहा- गिरजा नंदिनी, कार्तिक में विकट नामक गणेश की पूजा करनी चाहिए, चंद्रोदय के समय अध्र्य भोजन करना चाहिए. प्राचीन काल में अगस्त्य मुनि नाम के एक ऋषि थे, वे समुद्र के किनारे कठोर तपस्या कर रहे थे, कुछ समय पश्चात एक मादा पक्षी अपने अंडों से बच्चे निकाल रही थी, उसी समय समुद्र उफान पर आ गया और अंडों को बहा ले गया. पक्षी बहुत दुखी हुआ और उसने प्रण किया कि वह समुद्र का पानी खत्म कर देगा और अपनी चोंच से समुद्र के पानी को फेंकना शुरू कर दिया. इस प्रकार बहुत समय बीत गया परंतु समुद्र का पानी कम नहीं हुआ तो वह दुखी होकर अगस्त्य मुनि के पास गया और उनसे समुद्र को सुखाने की प्रार्थना की, तब अगस्त्य मुनि को चिंता हुई कि मैं समुद्र को कैसे पी पाऊंगा. तब महर्षि ने गणेशजी का स्मरण किया और करक चतुर्थी का व्रत किया. तीन माह तक व्रत रखने से गणेशजी प्रसन्न हुए. श्री गणेशजी के व्रत की कृपा से अगस्त्य मुनि ने प्रसन्नतापूर्वक समुद्र को पी लिया. इस व्रत के प्रभाव से अर्जुन ने निर्गत, कवच आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त की. श्री गणेश के ऐसे वचन सुनकर पार्वतीजी प्रसन्न हो गईं और सोचने लगीं कि मेरा पुत्र संसार में पूजनीय है और सब सिद्धियों को देने वाला है. इस कथा का माहात्म्य बताते हुए श्री कृष्णजी ने कहा- हे राजन तुम कार्तिक मास की चतुर्थी तिथि का व्रत करो. श्री कृष्ण के ऐसे वचन सुनकर धकराज ने भक्तिपूर्वक व्रत किया और अपना राज्य पुनः प्राप्त किया.  

करक चतुर्थी साहूकार कथा

प्राचीन समय की कथा है. एक नगर में एक साहूकार अपनी पत्नी, 7 बेटों, 7 बहुओं और एक बेटी के साथ रहता था. साहूकार की बेटी का नाम करवा था. साहूकार के सातों बेटे अपनी बहन से बहुत प्रेम करते थे. बहन के खाए बिना वे भोजन नहीं करते थे, एक बार करक चतुर्थी कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को पड़ा. यह व्रत साहूकार की पत्नी, बेटी और सातों बहुओं ने किया. शाम को जब करवा के भाई घर आए और भोजन करने बैठे तो उन्होंने अपनी बहन से कहा कि वह भी उनके साथ भोजन करे लेकिन बहन ने भाइयों से कहा, आज मेरा करक चतुर्थी का व्रत है, मैं चांद के दर्शन और पूजन के बाद ही जल और भोजन ग्रहण करूंगी. यह सुनकर भाइयों ने भी भोजन नहीं किया और चांद निकलने का इंतजार करने लगे. कुछ देर इंतजार करने के बाद जब चांद नहीं निकला तो अपनी बहन को भूखी-प्यासी देखकर भाइयों ने एक उपाय सोचा. 

सभी भाई नगर से बाहर गए और एक पेड़ पर चढ़ गए और वहां अग्नि जला दी और घर आकर उसने अपनी बहन से कहा, चांद निकल आया है, चलो दर्शन करें और अर्ध्य देकर जल पिएं. करवा ने यह बात अपनी भाभी से कही, चांद निकल आया है. चलो दर्शन करें और जल पिएं. भाभी ने समझाया कि उसके भाइयों ने नगर के बाहर एक पेड़ पर अग्नि जला दी है, और उसे चांद कह रहे हैं. लेकिन करवा ने उसकी बात नहीं मानी और उसने अग्नि को ही चांद समझकर अपना व्रत तोड़ दिया. व्रत खोलते ही करवा को ससुराल से समाचार मिला, उसके पति की मृत्यु हो गई है. यह सुनकर करवा के होश उड़ गए. तब उसकी बड़ी भाभी ने उसे समझाया, तुम्हारा व्रत टूट गया है, इसीलिए तुम्हारे साथ ऐसा हुआ है. करवा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने प्रण किया कि वह अपनी पतिव्रता भक्ति से अपने पति को जीवित कर लेगी.

और उसने अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने दिया. वह प्रतिदिन शव के पास बैठती और उस पर उगने वाली घास को इकट्ठा करती रहती. ऐसा करते-करते एक वर्ष बीत जाता है और करक चतुर्थी आ जाता है और वह विधि विधान से व्रत करती है जिसके प्रभाव से उसका पति जीवित हो जाता है. तब से सुहाग की लंबी उम्र की कामना के लिए करक चतुर्थी का व्रत किया जाता है. 

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मेष संक्रांति 2025 : शुभ मुहूर्त, योग एवं धार्मिक महत्व

सौर पंचांग का आरंभ मेष संक्रांति से होता है. सूर्य जब मीन राशि से निकल कर मेष राशि में प्रवेश करता है, तो मेष संक्रांति होती है. जिस तरह से मीन राशि में सूर्य का होना सौर कैलेंडर का आखिरी महीना होता है उसी तरह से मेष में सूर्य का गमन सौर पंचांग का आरंभ समय होता है. सौर कैलेंडर में बारह महीने होते हैं और इसे आप बारह राशियों के नाम से भी जाना जाता है. संक्रांति तिथि का बहुत ही विशेष महत्व है इस समय पर सूर्य देव अपनी राशि बदलते हैं. 

चैत्र मास में सूर्य के मेष में जाने का समय मेष संक्रांति के नाम से मनाया जाता है. मेष संक्रांति समत पर श्रद्धालु पवित्र गंगा समेत अन्य पवित्र नदियों में आस्था की डुबकी लगाते हैं. इसके साथ ही पूजा-पाठ, जप-तप कर दान-पुण्य करते हैं. इसके अलावा संक्रांति तिथि पर पितरों का तर्पण भी किया जाता है. धार्मिक मान्यता है कि संक्रांति तिथि पर सूर्य देव की पूजा करने से सभी तरह के शारीरिक और मानसिक कष्ट दूर हो जाते हैं.

मेष संक्रांति सौर वर्ष का आरंभ 

वैदिक ज्योतिष के अनुसार मेष संक्रांति के पहले दिन से सौर पंचांग का नया साल शुरू होता है. भारत के विभिन्न सौर पंचांग जैसे ओडिया पंचांग, तमिल पंचांग, मलयालम पंचांग और बंगाली पंचांग में मेष संक्रांति के पहले दिन को नए साल का पहला दिन माना जाता है. ओडिशा में हिंदू आधी रात से पहले मेष संक्रांति मनाते हैं, इसलिए संक्रांति के पहले दिन को नए साल के पहले दिन के रूप में मनाया जाता है. मेष संक्रांति को पना संक्रांति के रूप में मनाया जाता है.

मेष संक्रांति के विभिन्न नाम

सौर महीनों के बारह नाम इस प्रकार हैं- मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, कुंभ, मकर और मीन. मेष संक्रांति को तमिलनाडु में पुथांडु , केरल में विशु, बंगाल में नबा बर्ष या पोहला बोइशाख, असम में बिहु और पंजाब में वैशाखी के नाम से मनाया जाता है.  मेष संक्रांति पर सूर्य देव की पूजा करने से विशेष लाभ मिलता है. इस दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर सूर्य को जल अर्पित करना चाहिए. गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए इसके बाद ब्राह्मण को दान दे. इस दिन गेहूं, गुड़ और चांदी की वस्तुएं दान करना शुभ होता है. मेष संक्रांति के दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर लाल वस्त्र धारण करें. तांबे के बर्तन या लोटे में जल, साबुत चावल और लाल फूल डालकर सूर्य देव को जल अर्पित करें. सूर्य देव की स्तुति करने से सभी प्रकार की उन्नति होती है. यश, कीर्ति और समृद्धि की प्राप्ति होती है. 

मेष संरांति स्नान-दान का विशेष उत्सव 

अप्रैल माह मध्य को मेष संक्रांति का उत्सव मनाया जाता है. सूर्य के राशि परिवर्तन को संक्रांति कहते हैं इस दिन सूर्य को जल चढ़ाने की परंपरा, रोग-कष्ट दूर होते हैं. हर संक्रांति का अपना महत्व होता है. अलग-अलग वार और नक्षत्र के अनुसार संक्रांति का फल होता है. सूर्य के मेष राशि में आने को मेष संक्रांति कहते हैं. 14 अप्रैल के करीब को सूर्य मीन राशि से निकलकर मेष राशि में प्रवेश करते हैं. संक्रांति के दिन ब्रह्म मुहूर्त में सूर्य की पूजा और जल चढ़ाने से शारीरिक परेशानियां दूर होती हैं. परिवार के किसी भी सदस्य को कोई परेशानी या बीमारी नहीं होती. भगवान सूर्य के आशीर्वाद से कई तरह के दोष भी दूर होते हैं. इससे मान-सम्मान में भी वृद्धि होती है. इस दिन खाद्य पदार्थ, वस्त्र और गरीबों को दान करने से दोगुना पुण्य मिलता है. 

ज्योतिष अनुसार मेष संक्रांति 

ज्योतिष अनुसार सूर्य मेष राशि में उच्च का होता है, मेष मंगल की राशि है और मेष राशि में सूर्य का उच्चतम उच्च बिंदु अश्विनी में 10 डिग्री पर होता है, जो केतु का नक्षत्र है. मेष और अश्विनी आकाश में राशि चक्र के शुरुआती बिंदु हैं और ऊर्जा और नई शुरुआत का संकेत देते हैं. मंगल शक्ति है, सूर्य आत्मा है और केतु आत्मा की प्राप्ति है. जब ये ऊर्जाएं मिलती हैं तो यह उच्च और तीव्र मात्रा में ऊर्जा को छोड़ती है. मेष राशि में सूर्य शरीर में पित्त प्रवृत्ति बनाता है जिससे एसिडिटी, अपच, निर्जलीकरण, उच्च रक्तचाप, नेत्र समस्या, निराशा, असहिष्णुता और अत्यधिक पसीना आ सकता है. करियर की बात कि जाए तो आप राजनीति, सरकार, रक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में अनुकूल परिणाम दिखाई देते हैं. व्यापार में ऊनी कपड़े, लकड़ी, इमारती लकड़ी, प्राकृतिक उत्पाद, तांबा, सोना, जंगल में शिकार, और आग और लाल कपड़ों से संबंधित किसी भी चीज़ का अच्छा प्रभाव देखने को मिलता है. 

ज्योतिष शास्त्र में मेष संक्रांति पर तीर्थ स्नान करने से सूर्य को सभी ग्रहों का पिता माना जाता है. सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायन होने से मौसम और ऋतुएं बदलती हैं.

मेष संक्रांति लाभ 

हिंदू धर्म में संक्रांति का बहुत महत्व है. इसीलिए इसे संक्रांति पर्व कहा जाता है. संक्रांति पर्व पर सूर्योदय से पहले स्नान और खास तौर पर गंगा स्नान का बहुत महत्व है. शास्त्रों में कहा गया है कि जो व्यक्ति संक्रांति पर्व पर पवित्र स्नान करता है, उसे ब्रह्म लोक की प्राप्ति होती है. देवी पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति संक्रांति के दिन स्नान नहीं करता, वह रोगों से परेशान रहता है. संक्रांति के दिन दान और पुण्य करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. मेष संक्रांति से गर्मी बढ़ जाती है. मेष संक्रांति को बहुत खास माना जाता है. क्योंकि इस समय सूर्य की रोशनी धरती पर अधिक समय तक रहती है. इसलिए गर्मी का मौसम शुरू हो जाता है. इस महीने में जल दान करने का महत्व पुराणों में बताया गया है. ऐसा करने से मिलने वाला पुण्य कभी समाप्त नहीं होता 

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पद्मनाभ द्वादशी : जानें पद्मनाभ द्वादशी कथा और महत्व

द्वादशी का व्रत हर माह की कृष्ण और शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को रखा जाता है. पंचांग के अनुसार आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को पद्मनाभ द्वादशी के नाम से जाना जाता है. इस बार ये व्रत 14 अक्टूबर को रखा जाएगा. एकादशी तिथि जगत के पालनहार भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को समर्पित है. आश्विन मास की द्वादशी के दिन श्री हरि और माता लक्ष्मी की पूजा करने का विधान है.

पद्मनाभ द्वादशी के दिन कलश स्थापना कर भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए. पद्मनाभ द्वादशी श्री हरि का स्मरण और भजन कर कीर्तन करते रहना चाहिए. साथ ही आस्था के अनुसार गरीब लोगों को विशेष चीजें दान करनी चाहिए. इस एकादशी को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. आइए इस लेख में जानते हैं द्वादशी के दिन पूजा-पाठ और व्रत करने से साधक को मिलने वाले लाभों के बारे में.

पद्मनाभ द्वादशी और पौराणिक महत्व
श्री विष्णु भगवान को नारायण, हरि के साथ अनेक अनंत नामों से पुकारा जाता है. धार्मिक ग्रंथों में भगवान विष्णु के तीन प्रमुख स्वरूपों में से एक हैं. ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की. शिव जी को संहारक माना जाता है. भगवान विष्णु को सृष्टि का रक्षक कहा जाता है.

मूलतः त्रिदेव एक ही हैं. भगवान विष्णु ने धर्म की स्थापना के लिए मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध का अवतार लिया और अब वे कल्कि का अवतार लेंगे. विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु के अनंत नाम हैं, जिनमें से उन्हें पद्मनाभस्वामी भी कहा जाता है.

दक्षिण भारत में विशेष रूप से पद्मनाभस्वामी स्वरूप की पूजा की जाती है. भगवान विष्णु के पद्मनाभस्वामी में पद्म का अर्थ कमल होता है. नाभ का अर्थ नाभि और स्वामी का अर्थ भगवान और स्वामी होता है इसलिए उनका शाब्दिक अर्थ है कमल नाभि वाले भगवान. पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु क्षीर सागर में शेषनाग का ध्यान कर रहे थे. तभी उनकी नाभि से एक कमल का फूल खिल गया और उस कमल से भगवान ब्रह्मा का जन्म हुआ. इसी कारण भगवान विष्णु को पद्मनाभ कहा जाता है.

पद्मनाभ द्वादशी पूजा विधि
पद्मनाभ द्वादशी हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारों में से एक है. यह दिन भगवान विष्णु के पद्मनाभ स्वरूप की पूजा के लिए समर्पित है. इस पावन तिथि पर भगवान विष्णु का आशीर्वाद पाने और जीवन में सुख-समृद्धि लाने के लिए विशेष पूजा-अनुष्ठान किए जाते हैं. कमल को पवित्रता, ज्ञान और सुंदरता का प्रतीक माना जाता है. भगवान विष्णु इन सभी गुणों के स्वामी हैं. इसीलिए भगवान विष्णु को पद्मनाभ कहा जाता है.

पद्मनाभस्वामी नाम केरल के तिरुवनंतपुरम में स्थित भगवान विष्णु के प्रसिद्ध पद्मनाभस्वामी मंदिर से भी जुड़ा है. इस मंदिर में भगवान विष्णु शेषनाग पर लेटे हुए कमल के फूल पर विराजमान हैं. हिंदू पंचांग के अनुसार यह तिथि शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को पड़ती है. इस दिन भक्त भगवान विष्णु की विधि-विधान से पूजा करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.

पद्मनाभ द्वादशी लाभ
हिंदू धर्म में पद्मनाभ द्वादशी का विशेष महत्व है. इस दिन भगवान विष्णु की पूजा करने से कई लाभ मिलते हैं. पद्मनाभ द्वादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा करने से उनकी कृपा प्राप्त होती है. भगवान विष्णु अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और उन्हें जीवन में सफलता प्रदान करते हैं. पद्मनाभ द्वादशी के दिन भगवान विष्णु का व्रत और पूजा करने से व्यक्ति के पिछले जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं. इससे आत्मिक शुद्धि और मन की शांति मिलती है.

पद्मनाभ द्वादशी के दिन सच्चे मन से भगवान विष्णु की पूजा करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पद्मनाभ द्वादशी के दिन विधिपूर्वक पूजा करने और नियमों का पालन करने से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है.इसके अलावा, पद्मनाभ द्वादशी के दिन दान-पुण्य करने से भी विशेष फल मिलता है. गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और जीवन में सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं.

पद्मनाभ द्वादशी पूजा विधि

पद्मनाभ द्वादशी के पावन दिन भगवान विष्णु की कृपा पाने के लिए विधि-विधान से पूजा करना जरूरी है. पद्मनाभ द्वादशी के दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. पूजा स्थल को साफ करके गंगाजल से शुद्ध करना चाहिए. पूजा में एक चौकी या आसन पर लाल कपड़ा बिछा कर भगवान विष्णु की मूर्ति या चित्र स्थापित करना चाहिए. भगवान विष्णु के साथ देवी लक्ष्मी और देवी सरस्वती की मूर्ति या चित्र भी रखना चाहिए,

पूजा में भगवान विष्णु का पंचामृत से स्नान कराना चाहिए. भगवान विष्णु को वस्त्र, चंदन का तिलक, तुलसी की माला और सुगंधित फूल चढ़ाने चाहिए. तुलसी के पत्तों के साथ भोग अर्पित करना चाहिए. द्वादशी के दिन “ॐ नमो नारायणाय” मंत्र का जाप करना विशेष फलदायी होता है. “विष्णु सहस्रनाम” का पाठ भी करना चहिए. द्वादशी के दिन कई भक्त उपवास भी रखते हैं और इस दिन केवल फलाहार किया जाता है. अगले दिन यानी सूर्योदय के बाद त्रयोदशी तिथि को उपवास तोड़ा जाता है.

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विजयादशमी पर राशि अनुसार दान और इसका महत्व

हर साल आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है. इसे दशहरा भी कहते हैं. यह दिन भगवान श्री राम को समर्पित है उनके घर वापसी का दिन है और इसी कारण इस दिन व्यक्ति अपने सुखों की वापसी करता है जो इस दिन की प्रतिकात्मकता को दर्शाता है. इस पावन अवसर पर भगवान श्री राम की पूजा की जाती है. इस दिन देवी के विभिन्न रुपों का पूजन होता है और इस दिन सरस्वती माता का भी पूजन होता है. इसके साथ ही रावण दहन भी किया जाता है. 

शास्त्रों में निहित है कि आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को भगवान श्री राम ने लंका नरेश दशानन रावण का वध किया था और इसी उपलक्ष्य में विजयादशमी मनाया जाता है. विजयादशमी के दिन दान करने का भी विधान है. अगर आप जीवन में विजय एवं सफलता पाना चाहते हैं तो इस दिन राशि अनुसार किया गया दान बहुत महत्व रखता है. विजयादशमी के दिन स्नान-ध्यान के बाद भगवान की विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए और पूजा के बाद राशि के अनुसार इन चीजों का दान करना चाहिए.

विजयादशमी पर किस राशि के व्‍यक्‍ति को क्‍या दान करना चाहिए 

हर व्यक्ति किसी ना किसी रूप में दान जरूर करता है. शास्त्रों में भी दान देने का विशेष महत्व है. विजयादशमी का दिन भी उन खास दिनों में से एक होता है जब ग्रहों के अनुसार दान करने से ग्रह शुभता बनी रहती है.  

विजयादशमी पर मेष राशि के लिए दान

मेष राशि का स्वामी ग्रह मंगल है. इस राशि के जातकों को काले चने, काली उड़द, तेल और फूल दान करने चाहिए. इसके साथ ही पीले और लाल रंग की चीजों का दान करने से बचना चाहिए.

विजयादशमी पर वृषभ राशि के लिए दान

वृष राशि का स्वामी ग्रह शुक्र है और विजयादशमी के दिन इस राशि के लोगों को आभूषण, काले कपड़े, गुड़, चने की दाल, हल्दी, लोहा और सोना दान करना चाहिए.

विजयादशमी पर मिथुन राशि के लिए दान

मिथुन राशि का स्वामी ग्रह बुध है. इस राशि के जातकों को हरे रंग की चीजों का दान करने से बचना चाहिए. आप पीली दाल, बर्तन, कपड़े, फल और पीतल से जुड़ी चीजें दान कर सकते हैं.

विजयादशमी पर कर्क राशि के लिए दान

कर्क राशि का स्वामी ग्रह चंद्रमा है विजयादशमी के दिन इस राशि के लोगों को पीली चीजों का दान करना चाहिए. जैसे पीली दाल, गुड़ या काली दाल का भी दान किया जा सकता है.

विजयादशमी पर सिंह राशि के लिए दान

सिंह राशि का स्वामी ग्रह सूर्य है. इस राशि के अनुसार पीली या लाल चीजों का दान करना आपके लिए शुभ रहेगा विजयादशमी के दिन तांबा, केसर, सोना, लाल और सफेद रंग के कपड़े दान कर सकते हैं.

विजयदशमी पर कन्या राशि के लिए दान

कन्या राशि का स्वामी ग्रह बुध है. इस राशि के लोगों को विजयादशमी के दिन पीतल, पन्ना, सोना, गुड़, पीली दाल आदि चीजें दान करना चाहिए. 

विजयदशमी पर तुला राशि के लिए दान

तुला राशि का स्वामी ग्रह शुक्र है, इसलिए विजयादशमी के दिन इन लोगों को सफेद कपड़े, मोती, तेल, गाय और पीली चीजों का दान करना चाहिए.

विजयदशमी पर वृश्चिक राशि के लिए दान

वृश्चिक राशि के लोगों का स्वामी ग्रह मंगल है. इस राशि के लोगों को विजयादशमी के दिन लाल कपड़े, मूंगा, सोना, केसर और तांबा काली मिर्च का दान करना चाहिए. 

विजयदशमी पर धनु राशि के लिए दान

धनु राशि के स्वामी बृहस्पति हैं. विजयादशमी के दिन इस राशि के लोगों के लिए पीली चीजें, तांबा, केसर, किताबें और काली चीजों का दान करना बहुत शुभ माना जाता है.

विजयादशमी पर मकर राशि के लिए दान

मकर राशि का स्वामी ग्रह शनि है. विजयादशमी के दिन इस राशि के लोगों के लिए चने की दाल, तेल, नीले और काले कपड़े, तिल, लोहा, सोना आदि दान करना अनुकूल होता है. 

विजयादशमी पर कुंभ राशि के लिए दान

चूंकि शनि कुंभ राशि का स्वामी ग्रह है, इसलिए इससे संबंधित प्रिय चीजों का दान करना चाहिए. विजयादशमी के दिन लोहा, काले कपड़े, नीले कपड़े, तिल, तेल और कस्तूरी आदि का दान करना शुभ रहता है

विजयादशमी पर मीन राशि के लिए दान

बृहस्पति मीन राशि का स्वामी ग्रह है, इसलिए इन लोगों को पीली चीजें, शहद, किताबें, लाल कपड़े, तांबा आदि का दान करना चाहिए. विजयादशमी के दिन इन्हें इन चीजों का दान करना चाहिए.

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काली चौदस : तंत्र साधना के साथ आध्यात्मिक उन्नति का समय

काली चौदस कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है. इस तिथि पर मां काली की पूजा करने का विधान है. ऐसा करने से साधक को सभी तरह के कष्टों से मुक्ति मिलती है. साथ ही इस दिन छोटी दिवाली और नरक चतुर्दशी भी मनाई जाती है. शास्त्रों के अनुसार हर देवी-देवता की पूजा के लिए कुछ खास समय, दिन, तिथि और त्योहार होते हैं. इस समय इनका विशेष सम्मान करना जरूरी है. दिवाली की अमावस्या तिथि पर मां काली की विशेष पूजा और साधना की जाती है. इसी दिन मां काली प्रकट भी हुई थीं, इसलिए दिवाली के दिन काली की पूजा का विधान है. अमावस्या तिथि पर रात 10 बजे से सुबह 02 बजे तक विशेष योग में पूजा करने से मनचाहा फल मिल सकता है.

दिवाली पर ही क्यों आती है काली चौदस 

काली पूजा का समय, कौन सा योग विशेष होता है इस दिन के लिए तो शास्त्रों में दिवाली की रात को सबसे बड़ी अमावस्या में से एक माना गया है. इस दिन का धर्म शास्त्रों एवं तंत्र सभी में महत्व मिलत अहै. देवी उपासकों के लिए काली चौदस का दिन अत्यंत ही श्रेष्ठ होता है.  सिद्धि योग और अमृत योग में मां काली की पूजा करने से विशेष लाभ मिलता है. हालांकि अलग-अलग जगहों पर काली पूजा के अलग-अलग विधान हैं. अमावस्या तिथि मां काली की विशेष तिथि है, कुछ मान्यताओं के अनुसार इसी तिथि को देवी काली का जन्म हुआ था. मां काली शक्ति संप्रदाय की सबसे प्रमुख देवी हैं, जिस तरह भगवान शिव संहार के अधिष्ठाता हैं, उसी तरह देवी काली संहार की अधिष्ठात्री देवी हैं. शक्ति के अनेक रूप हैं. शुम्भ-निशुम्भ के वध के समय माता के शरीर से एक तेज किरण निकली थी. फलस्वरूप उनका रंग काला हो गया और तब से वे काली कहलायीं.

काली चौदस पूजा और ज्योतिषीय प्रभाव

काली चौदस पर भक्तों द्वारा देवी पार्वती के स्वरूप मां काल की विशेष पूजा की जाती है. देवी के इस स्वरूप की पूजा करने से अशुभ ग्रहों के दुष्प्रभाव दूर होते हैं. साथ ही हर मनोकामना पूरी होती है. इसके लिए धार्मिक ग्रंथों में मां काली मंत्र और कालरात्रि स्तुति आदि का वर्णन किया गया है, जो ज्योतिष के अनुसार भी महत्वपूर्ण हैं. देवी काली की पूजा की जाती है. यह देवी शनि ग्रह को नियंत्रित करती हैं, जो कर्मफल दाता और दंडदाता है. जो व्यक्ति मां काली की पूजा करता है, शनि उन्हें शुभ फल प्रदान करते हैं. यह देवी पार्वती का उग्र रूप है. यह रूप देवी पार्वती ने शुंभ और निशुंभ का वध करने के लिए धारण किया था. इसके लिए उन्होंने बाहरी सुनहरी त्वचा को हटा दिया था. इनका रंग अत्यंत काला और रात्रि के समान भयानक है. इसी कारण इन्हें देवी कालरात्रि के नाम से भी जाना जाता है. लेकिन इस रूप में देवी शीघ्र प्रसन्न होती हैं और हर मनोकामना पूरी करती हैं.  

राहु केतु होते हैं शांत 

काली चौदस के दिन राशु केतु जैसे पाप ग्रहों की भी शांति होती है. इनकी पूजा से भय का नाश होता है, आरोग्य की प्राप्ति होती है, आत्मरक्षा होती है और शत्रुओं पर नियंत्रण होता है. इनकी पूजा से तंत्र मंत्र के सभी प्रभाव समाप्त हो जाते हैं. मां काली की पूजा का उपयुक्त समय रात्रि का समय है. पाप ग्रहों विशेषकर राहु, केतु और शनि की शांति के लिए मां काली की पूजा अचूक है.   

धार्मिक ग्रंथों में मां कालरात्रि को श्याम वर्ण और चार भुजाओं वाली बताया गया है. माँ काली अपने भक्तों को अभय और वरद मुद्रा से आशीर्वाद देती हैं. उन्हें उग्र रूप में उपस्थित शुभ और मंगलकारी शक्ति के रूप में भी जाना जाता है. इसके अलावा देवी काल को देवी महायोगेश्वरी और देवी महायोगिनी के नाम से भी जाना जाता है. दिवाली यानी अमावस्या तिथि पर अधिकतर साधक मां लक्ष्मी की पूजा करते हैं, लेकिन दिवाली से एक दिन पहले यानी छोटी दिवाली पर काली मां की पूजा का विधान है. दिवाली की अधिकतर पूजा और काली पूजा आमतौर पर एक ही दिन होती है. पंचांग के अनुसार, काली पूजा उस दिन की जाती है, जिस दिन मध्य रात्रि में अमावस्या हो.

काली चौदस से नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है 

काली चौदस की पूजा करने से पहले अभ्यंग स्नान जो सूर्योदय से पहले शरीर पर उबटन लगाकर किया जाने वाला स्नान होता है उसे करना जरूरी माना जाता है. इसके बाद शरीर पर इत्र लगाने और मां काली की विधिवत पूजा करने से साधक के जीवन में आने वाली सभी बाधाएं दूर होती हैं. काली चौदस की रात को हल्दी, गोमती चक्र, चांदी का सिक्का और कौड़ियां पीले कपड़े में बांधकर धन रखने के स्थान या तिजोरी में रख देने से व्यापार में आने वाली किसी भी तरह की बाधा दूर होती है.

काली चौदस की पूजा के दौरान काली माता के चरणों में लौंग का एक जोड़ा अर्पित करना शुभ होता है. ऎसा करने से साधक के अंदर मौजूद सभी तरह की नकारात्मक ऊर्जा समाप्त हो जाती है. साथ ही मां काली को चने की दाल और गुड़ का भोग लगाएं. काली चौदस की पूजा के दौरान मां काली का ध्यान करते हुए इस मंत्र का जाप करना चाहिए.

काली चौदस मंत्र जाप

‘ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।’

काली चौदस काली स्त्रोत 

ॐ देवी कालरात्र्यै नमः॥

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।

लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त शरीरिणी॥

वामपादोल्लसल्लोह लताकण्टकभूषणा।

वर्धन मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥

या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

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करालवन्दना घोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।

कालरात्रिम् करालिंका दिव्याम् विद्युतमाला विभूषिताम्॥

दिव्यम् लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।

अभयम् वरदाम् चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम्॥

महामेघ प्रभाम् श्यामाम् तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।

घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥

सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।

एवम् सचियन्तयेत् कालरात्रिम् सर्वकाम् समृध्दिदाम्॥

हीं कालरात्रि श्रीं कराली च क्लीं कल्याणी कलावती।

कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता॥

कामबीजजपान्दा कमबीजस्वरूपिणी।

कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी॥

क्लीं ह्रीं श्रीं मन्त्र्वर्णेन कालकण्टकघातिनी।

कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा॥

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ऊँ क्लीं मे हृदयम् पातु पादौ श्रीकालरात्रि।

ललाटे सततम् पातु तुष्टग्रह निवारिणी॥

रसनाम् पातु कौमारी, भैरवी चक्षुषोर्भम।

कटौ पृष्ठे महेशानी, कर्णोशङ्करभामिनी॥

वर्जितानी तु स्थानाभि यानि च कवचेन हि।

तानि सर्वाणि मे देवीसततंपातु स्तम्भिनी॥

कालरात्रि जय जय महाकाली। काल के मुंह से बचाने वाली॥

दुष्ट संघारक नाम तुम्हारा। महाचण्डी तेरा अवतारा॥

पृथ्वी और आकाश पे सारा। महाकाली है तेरा पसारा॥

खड्ग खप्पर रखने वाली। दुष्टों का लहू चखने वाली॥

कलकत्ता स्थान तुम्हारा। सब जगह देखूं तेरा नजारा॥

सभी देवता सब नर-नारी। गावें स्तुति सभी तुम्हारी॥

रक्तदन्ता और अन्नपूर्णा। कृपा करे तो कोई भी दुःख ना॥

ना कोई चिन्ता रहे ना बीमारी। ना कोई गम ना संकट भारी॥

उस पर कभी कष्ट ना आवे। महाकाली माँ जिसे बचावे॥

तू भी भक्त प्रेम से कह। कालरात्रि मां तेरी जय॥

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