मत्स्य द्वादशी : जानें तिथि, समय, अनुष्ठान और महत्व

मत्स्य द्वादशी वह दिन है जो भगवान विष्णु को समर्पित है. यह वह दिन है जब भगवान विष्णु मत्स्य के रूप में अवतार लेते हैं. यह दिन मोक्षदा एकादशी के बाद मनाया जाता है जो मार्गशीर्ष माह में शुक्ल पक्ष में आती है. मत्स्य द्वादशी वह दिन है जो भगवान विष्णु को समर्पित है. यह दिन मोक्षदा एकादशी के बाद मनाया जाता है जो मार्गशीर्ष माह में शुक्ल पक्ष में आती है. मत्स्य द्वादशी का हिंदुओं में विशेष महत्व है.

मत्स्य द्वादशी पूजा विशेष
मत्स्य द्वादशी का हिंदुओं में विशेष महत्व है. इस शुभ दिन पर भगवान श्री हरि मछली के रूप में प्रकट हुए थे. यह भगवान विष्णु के बारह अवतारों में से एक है. इस दिन मंदिरों में भगवान विष्णु की विशेष पूजा की जाती है. दक्षिण भारत के अनेके स्थानों में इसकी पूजा को विशेष होती है. आंध्र प्रदेश में भगवान विष्णु के मछली अवतार को समर्पित उत्सव बहुत खास होता है.

भगवान विष्णु के मछली अवतार को समर्पित कई मंदिर यहां स्थापित हैं. ऐसा माना जाता है कि मत्स्य द्वादशी के दिन जो भक्त भगवान विष्णु की पूर्ण श्रद्धा और समर्पण के साथ पूजा करते हैं, उन्हें सुख, समृद्धि और मनोवांछित कामनाओं की पूर्ति का आशीर्वाद मिलता है. अग्नि पुराण और मत्स्य पुराण के अनुसार, वैवस्वत मनु नाम के एक राजा थे और वे मनु राजाओं के वंशज थे.

माना जाता है कि मनु राजाओं को भगवान ब्रह्मा ने बनाया था. वैवस्वत मनु महान राजा थे और वे आध्यात्मिक रूप से सक्रिय थे. अपने सभी कर्तव्यों को पूरा करने के बाद, उन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र को सौंप दिया और तपस्या करने के लिए वन में चले गए. उनका नाम सत्यव्रद था. उन्होंने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए वर्षों तक तपस्या की. भगवान ब्रह्मा ने उनकी सच्ची भक्ति से प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगने के लिए कहा. उन्होंने मांगा कि जब पूरी दुनिया जल में डूब जाएगी तो वे ही जीवित रहेंगे और अन्य लोगों को बचाएंगे. भगवान ब्रह्मा ने खुशी-खुशी उन्हें वरदान दिया और अंतर्ध्यान हो गए.

मत्स्य द्वादशी पूजा लाभ
भगवान विष्णु के सभी अवतारों में से मत्स्य अवतार सबसे महत्वपूर्ण अवतारों में से एक है. इसे भगवान विष्णु का पहला अवतार भी माना जाता है. इस अवतार में भगवान विष्णु ने मछली का रूप धारण कर सृष्टि को विनाश से बचाया था. भगवान के इस अवतार से जुड़ी कई कहानियां प्रचलित हैं. यह सभी बातें प्रकृति में निर्माण और संतुलन पर केंद्रित हैं.

मत्स्य द्वादशी उस बात का प्रतिनिधित्व करती है जो कहता है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में मानवता ही उत्तम है. भगवान का यह अवतार व्यक्ति के जीवन की नई यात्रा की शुरुआत को दर्शाता है. इस दिन को हिंदू बड़े उत्साह और भक्ति के साथ मनाते हैं. भगवान विष्णु की पूजा की जाती है और विभिन्न मंदिरों में भागवत कथाओं का आयोजन किया जाता है. पारंपरिक तौर पर लोग मत्स्य द्वादशी के अवसर पर धार्मिक स्थलों पर जाते हैं और पवित्र नदियों में स्नान करते हैं.

मत्स्य द्वादशी पूजा विधि
मत्स्य द्वादशी के दिन पवित्र नदियों में स्नान करना चाहिए.पवित्र नदियों में जाना संभव न हो तो घर पर ही शुद्ध जल का उपयोग करना चाहिए. सूर्योदय के समय सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए.
भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए और ‘श्री नमो नारायण’ मंत्र का जाप करना चाहिए. पूजा स्थल पर एक वेदी स्थापित करें और उसे गंगाजल से साफ करें, उस पर पीला कपड़ा बिछाएं. पीले कपड़े पर भगवान विष्णु की मत्स्य अवतार मूर्ति स्थापित करें.

भगवान को चंदन केसर का तिलक लगाएं. भगवान को पुष्प माला अर्पित करें. पूजा करते समय भगवान को पंचामृत, फल, मेवे आदि अर्पित करें. मत्स्य अवतार कथा का पाठ करें. भागवत और मत्स्य पुराण का पाठ करना उत्तम होता है.

श्री विष्णु की आरती के बाद भगवान को भोग लगाना चाहिए. भोग में खीर और मिठाई का प्रयोग करना चाहिए. इसके बाद इसे परिवार के सदस्यों में बांटना चाहिए. मत्स्य द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा देना अत्यंत लाभकारी माना जाता है. मत्स्य द्वादशी के दिन मंत्र का जाप करना चाहिए.

नदियों और अन्य जलाशयों में मछलियों को गेहूं के आटे की छोटी गोलियां खिलानी चाहिए. इस दिन सात प्रकार के अनाज दान करने चाहिए. इस दिन मंदिरों में हरिवंशपुराण का दान करना चाहिए. मत्स्य द्वादशी कथा मत्स्य द्वादशी की कथा का उल्लेख पुराणों में मिलता है. भगवान विष्णु का पहला अवतार मत्स्य अवतार है. जब दुनिया का अंत होने वाला था, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लेकर पृथ्वी को बचाया.

मत्स्य द्वादशी की कथा

सत्यव्रत मनु भगवान विष्णु के परम भक्त थे. एक दिन सत्यव्रत मनु भगवान की पूजा और तर्पण करने के लिए नदी पर जाते हैं. वहां उनके कमंडल में एक छोटी मछली गिर जाती है. सत्यव्रत मनु एक धर्मपरायण, दयालु और परोपकारी राजा थे, वे उस मछली को अपने घर ले जाते हैं, लेकिन मछली बहुत बड़ी हो जाती है. उसे घर में रखना मुश्किल हो जाता है. इसलिए सत्यव्रत उसे एक तालाब में स्थानांतरित कर देते हैं.

जैसे ही मछली को तालाब में डाला जाता है, वह इतनी बड़ी हो जाती है कि वह उस तालाब में समा नहीं पाती. तब राजा मनु मछली को तालाब से निकालकर नदी में डाल देते हैं, लेकिन मछली फिर से बड़ी होकर नदी से भी बड़ी हो जाती है. अंत में मनु उस मछली को समुद्र में डाल देते हैं, फिर भी मछली समुद्र से भी बड़ी हो जाती है.

मछली का यह रूप देखकर मनु आश्चर्यचकित हो जाते हैं. उन्हें एहसास होता है कि यह कोई साधारण मछली नहीं है. वे मछली को प्रणाम करते हैं, हाथ जोड़ते हैं और मछली से इस सब के पीछे का रहस्य बताने के लिए कहते हैं. भगवान विष्णु मछली से प्रकट होते हैं और उन्हें बताते हैं कि सात दिनों के बाद पृथ्वी पर प्रलय होगा. परिणामस्वरूप, पृथ्वी जल में डूब जाएगी. इसलिए उन्होंने मछली का अवतार लिया है. फिर वे राजा मनु को दुनिया को बचाने के लिए अपने निर्देशों का पालन करने के लिए नियुक्त करते हैं.

मत्स्य द्वादशी : भगवान मत्स्यावतार

श्री विष्णु मनु से एक बड़ी नाव बनाने के लिए कहते हैं. वे मनु से कहते हैं कि फिर सभी आवश्यक वस्तुओं को इकट्ठा करें और उन्हें नाव में रखें. फिर वे मनु से कहते हैं कि सप्तर्षि और अन्य सभी जीवों को नाव पर बुलाएं. इस तरह प्रलय के बाद भी संसार का पुनर्निर्माण किया जा सकता है. मनु भगवान द्वारा दिए गए सभी निर्देशों का पालन करते हैं. ठीक सात दिन बाद प्रलय होता है.

भगवान विष्णु एक बार फिर मछली के अवतार में आते हैं और सत्यव्रत से नाव को मछली से बांधने के लिए कहते हैं. प्रलय समाप्त होने तक भगवान विष्णु मत्स्य अवतार में जल में रहते हैं. नाव मछली से जुड़ जाने पर सभी बच जाते हैं. भगवान विष्णु चारों वेदों को अपने पास रखते हैं और उन्हें भगवान ब्रह्मा को दे देते हैं ताकि वे संसार का पुनर्निर्माण कर सकें.इस प्रकार भगवान मत्स्यावतार लेकर पृथ्वी का उद्धार करते हैं तथा सभी जीवों का कल्याण सुनिश्चित करते हैं.

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मार्गशीर्ष द्बादशी , जानें क्यों है विशेष मार्गशीर्ष मास की द्वादशी

मार्गशीर्ष द्वादशी में आने वाले द्वादशी व्रत का बहुत महत्व है. हर द्वादशी में दो द्वादशी आती हैं, एक कृष्ण पक्ष की द्वादशी और दूसरी शुक्ल पक्ष की द्वादशी. इस द्वादशी में द्वादशी पर गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों में स्नान का विशेष महत्व है. मार्गशीर्ष द्वादशी में यमुना नदी में स्नान करने से भगवान की प्राप्ति आसानी से हो जाती है. मान्यताओं के अनुसार इस माह से ही एकादशी का आरंभ हुआ था और उसके पश्चात द्वादशी का प्रारंभ होता है. जिसके कारण यह काफी विशेष समय होता है.

जो भी भक्त अपने जीवन में भगवान की कृपा बनाए रखना चाहते हैं और हर संकट से मुक्ति चाहते हैं, उन्हें मार्गशीर्ष द्वादशी के दौरान पवित्र नदी में स्नान करने अवश्य जाना चाहिए, लेकिन जिनके लिए ऐसा करना संभव नहीं है, उन्हें अपने स्नान के पानी में थोड़ा सा पवित्र जल मिलाकर घर पर ही स्नान करना चाहिए.अपने नाम के अनुरूप ही यह व्यक्ति को उसके उद्देश्यों और कार्यों में सफलता दिलाने वाली है. शास्त्रों और पुराणों के अनुसार मनुष्य का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है. इस द्वादशी व्रत से मोक्ष की राह आसान हो जाती है. 

मार्गशीर्ष द्वादशी कब और क्यों मनाई जाती है

द्वादशी और एकादशी की शुरुआत के बारे में पुराणों में जो कथा मिलती है उसके अनुसार मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को भगवान विष्णु के शरीर से एकादशी का जन्म हुआ था. इसलिए मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की एकादशी उत्पन्ना द्वादशी के नाम से जाना जाता है और इसके बाद आने वाली तिथि द्वादशी होती है जो भगवान श्री हर के पूजन के लिए विशेष बन जाती है. 

द्वादशी का नामकरण उस द्वादशी की पूर्णिमा तिथि जिस नक्षत्र से संबंधित होती है, उसके आधार पर किया जाता है. मार्गशीर्ष द्वादशी की पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र से संबंधित होने के कारण इस द्वादशी को मार्गशीर्ष कहा जाता है. इसके अलावा इसे मगसर, मंगसिर, अगहन, अग्रहायण द्वादशी आदि नामों से भी जाना जाता है. इसकी महिमा स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने गीता में बताई है. गीता के 10वें अध्याय के 35वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-

मार्गशीर्ष द्वादशी पौराणिक महत्व 

भगवान कहते हैं महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूं इसलिए इस द्वादशी में भगवान श्री कृष्ण की पूजा करने की बड़ी महिमा है. इस द्वादशी में भगवान श्री कृष्ण की पूजा करने से व्यक्ति को जीवन में हर प्रकार की सफलता प्राप्त होती है और वह हर प्रकार के संकट से बाहर निकलने में सक्षम होता है. सतयुग में देवताओं ने मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से वर्ष का प्रारंभ किया था.  मार्गशीर्ष द्वादशी में स्नान और दान का बहुत महत्व है.

मार्गशीर्ष द्वादशी पूजा अनुष्ठान 

मार्गशीर्ष द्वादशी का बहुत महत्व है. यह द्वादशी भगवान कृष्ण की पूजा को समर्पित है. इस दौरान यथासंभव धार्मिक कार्य करने चाहिए. इससे सौभाग्य की प्राप्ति होती है. इस दौरान कान्हा जी के नामों का जाप करना बहुत शुभ माना जाता है. पंचांग अनुसार मार्गशीर्ष नौवां महीना होता है. इस माह में आने वाली द्वादशी भगवान श्री कृष्ण को प्रसन्न करने पर विशेष जोर दिया जाता है. शास्त्रों में मार्गशीर्ष द्वादशी श्री कृष्ण का प्रिय है. इस द्वादशी में मुरलीधर की पूजा करने से जीवन में खुशियां आती हैं. ऐसे में जब आज से यह पावन महीना शुरू हो रहा है तो भगवान कृष्ण की विशेष पूजा करें. उन्हें फल, फूल, नैवेद्य (भोजन प्रसाद), धूप, दीप अर्पित करें.

मार्गशीर्ष द्वादशी के दौरान व्यक्ति को सुबह जल्दी उठकर स्नान करके खुद को शुद्ध करना चाहिए, भगवान का ध्यान करना चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए. स्नान से पहले तुलसी की जड़ की मिट्टी से भी स्नान करें, यानी इसका लेप अपने शरीर पर लगाएं और लेप लगाने के कुछ देर बाद पानी से स्नान करें. साथ ही स्नान करते समय ‘ॐ नमो भगवते नारायणाय’ या गायत्री मंत्र का जाप करें.

मार्गशीर्ष द्वादशी के दिन गर्म कपड़े, कंबल, मौसमी फल, बिस्तर, भोजन और अन्न दान का विशेष महत्व है. साथ ही इस द्वादशी में पूजन सामग्री जैसे आसन, तुलसी की माला, चंदन, पूजा मूर्ति, मोर पंख, जल का पात्र, आचमनी, पीतांबर, दीपक आदि का दान शुभ माना जाता है.

सभी द्वादशी किसी न किसी देवता को समर्पित होते हैं और सभी महीनों में कुछ खास व्रत और त्योहार शामिल होते हैं. इन्हीं महीनों में से एक महीना है मार्गशीर्ष महीना जिसे अगहन भी कहा जाता है. यह साल का नौवां महीना होता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस द्वादशी में भगवान विष्णु, श्री कृष्ण और माता लक्ष्मी की पूजा करने का बहुत महत्व है. साथ ही यह महीना पितरों की शांति और मोक्ष प्राप्ति के लिए भी खास माना जाता है. ऐसे में आइए जानते हैं मार्गशीर्ष द्वादशी से जुड़े महत्वपूर्ण नियम.

मार्गशीर्ष द्वादशी महत्व 

मार्गशीर्ष द्वादशी  पवित्र नदियों में स्नान, भगवान की पूजा और दान-पुण्य करना बहुत शुभ माना जाता है. वहीं इस द्वादशी में खरद्वादशी भी शुरू हो जाता है जिसमें शुभ काम करना वर्जित माना जाता है. मान्यता है कि मार्गशीर्ष द्वादशी में भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की पूजा करने से घर में सुख-समृद्धि आती है और भगवान कृष्ण की पूजा करने से मन को शांति मिलती है.

मार्गशीर्ष द्वादशी में गंगा या किसी अन्य पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए. स्नान के बाद भगवान सूर्य को जल चढ़ाना चाहिए. द्वादशी के दिन सात्विक भोजन करना चाहिए और तामसिक चीजों, जैसे मांस और शराब से दूर रहना चाहिए. जो लोग व्रत धारण कर सकें उन्हें व्रत का नियम लेना चाहिए. इस द्वादशी में भगवान विष्णु, श्रीकृष्ण और देवी लक्ष्मी की पूजा अवश्य करनी चाहिए. इसके साथ ही इस द्वादशी में विष्णुसहस्रनाम और भगवद गीता का पाठ करना भी शुभ माना जाता है. इस द्वादशी जरूरतमंदों को कपड़े, कंबल और भोजन का दान करें. गाय, कुत्ते, कौवे और चींटियों को खाना खिलाना भी फलदायी माना जाता है. पितरों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण करें. अगर आप गंगा घाट नहीं जा सकते हैं, तो घर पर ही पवित्र तरीके से पूजा करें.

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वैकुंठ एकादशी 2025 – मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी

मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को वैकुंठदा एकादशी कहते हैं.यह एकादशी व्रत व्यक्ति के कई प्रकार के पापों का नाश करती है. दक्षिण भारत में इस एकादशी को वैकुंठ एकादशी भी कहते हैं. मान्यता है कि इस दिन भगवान कृष्ण ने महाभारत के आरंभ से पहले अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया था. इस एकादशी पर भगवान कृष्ण और गीता की पूजा करने से शुभ फल प्राप्त होते हैं. 

वैकुंठ एकादशी कब है?

वैकुंठ एकादशी का दिन इस वर्ष 2025 में 10 दिसंबर को मनाया जाएगा. वैकुंठ एकादशी 10 दिसंबर को मनाई जाएगी. इस दिन व्रत करने वाले व्यक्ति को स्नान करने के बाद पूजा करने के लिए मंदिर जाना चाहिए. भगवान के सामने व्रत का संकल्प लेते हुए मंदिर या घर पर विष्णु पाठ करना चाहिए. 

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एकादशी के एक दिन बाद पारन करते हुए ब्राह्मणों को दान देने के बाद व्रत का समापन किया जाता है. व्रत की रात्रि में जागरण करने से व्रत से प्राप्त होने वाले पुण्यों में वृद्धि होती है. वैकुंठदा एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के पूर्वज, जो मृत्यु के पश्चात नरक में रह रहे थे, स्वर्ग को प्राप्त होते हैं. इस दिन ब्राह्मणों को दान और भोजन कराया जाता है. इस दिन धूप, दीप, नैवेद्य आदि से भगवान दामोदर की पूजा की जाती है.

वैकुंठ एकादशी कथा

प्राचीन काल में गोकुल नगर में वैखानस नामक एक राजा रहता था. उसके राज्य में चारों वेदों के विद्वान ब्राह्मण रहते थे. एक रात राजा ने स्वप्न में देखा कि उसके पिता नरक में हैं. पिता की यह दशा देखकर वह व्याकुल हो गया. प्रातःकाल वह ब्राह्मण के पास पहुंचा और स्वप्न सुनाया. उसने कहा कि पिता की यह दशा देखकर उसे सभी सुख-सुविधाएं व्यर्थ लगने लगी हैं. उसने ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि वे उसे कोई ऐसा तप, दान, व्रत आदि बताएं जिससे उसके पिता की आत्मा को मुक्ति मिल सके. 

ब्राह्मणों ने उसे पर्वत नामक मुनि के बारे में बताया, जो भूत और भविष्य का ज्ञान रखते थे. उन्होंने राजा को मुनि से समाधान पाने का सुझाव दिया.राजा मुनि के आश्रम में पहुंचे और देखा कि बहुत से ऋषिगण मौन रहकर तप कर रहे हैं. राजा मुनि के पास पहुंचे, उन्हें प्रणाम किया और अपनी समस्या बताई. मुनि ने तुरंत अपनी आंखें बंद कर लीं और कुछ देर बाद बोले, “तुम्हारे पिता ने पिछले जन्म में कुछ गलत काम किए थे, इसलिए वे मृत्यु के बाद नरक में गए.” यह सुनकर राजा ने मुनि से अपने पिता के उद्धार का उपाय बताने की प्रार्थना की. 

मुनि ने उन्हें मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने को कहा. और बताया कि इस एकादशी व्रत के पुण्य से राजा के पिता को वैकुंठ की प्राप्ति होगी. इसलिए राजा ने परिवार सहित व्रत रखा. इसके फलस्वरूप उनके पिता को स्वर्ग की प्राप्ति हुई और स्वर्ग जाते समय उनके पिता ने उन्हें आशीर्वाद दिया.

वैकुंठ एकादशी पूजा नियम 

वैकुंठ एकादशी का व्रत बहुत महत्व रखता है, इस दिन ब्राह्मणों को भोजन कराने से पुण्य मिलता है. एक महीने में दो बार एकादशी आती है, कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष. एकादशी व्रत रखने वाले लोगों को दशमी यानी एकादशी के एक दिन पहले से ही कुछ महत्वपूर्ण नियमों का पालन करना होता है. दशमी के दिन से ही मांस, मछली, प्याज, दाल और शहद जैसे खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए. दशमी और एकादशी दोनों ही दिन लोगों को ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना चाहिए और भोग-विलास से दूर रहना चाहिए.

एकादशी पूजा विधि

सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करें. घर के मंदिर में दीपक जलाना चाहिए. गंगा जल से भगवान विष्णु का अभिषेक करना चाहिए, भगवान विष्णु को फूल और तुलसी के पत्ते अर्पित करने चाहिए. संभव हो तो इस दिन व्रत रखें भगवान की आरती करनी चाहिए, भगवान को भोग लगाना चाहिए, भगवान विष्णु के साथ देवी लक्ष्मी की भी पूजा करनी चाहिए. पूजा में श्री विष्णु जी की तस्वीर या मूर्ति को स्थापित करते हैं. पुष्प, माला, नारियल, सुपारी, अनार, आंवला, बेर, अन्य मौसमी फल, धूप, पंचामृत बनाने के लिए घी, कच्चा दूध, दही, घी, शहद और चीनी की आवश्यकता होती है, चावल, तुलसी, गाय का गोबर, केले का पेड़, मिठाई की भी आवश्यकता होती है. एकादशी व्रत के दिन और उद्यापन के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए. 

भक्तों को इसे भक्ति भाव से करना चाहिए. एकादशी व्रत का उद्यापन में  ब्राह्मणों को आमंत्रित किया जाता है. उद्यापन पूजा में तांबे के कलश में चावल भरकर रखें. आठ पंखुड़ियों वाला कमल बनाकर भगवान विष्णु और लक्ष्मी की षोडशोपचार से पूजा की जाती है. कोई भी व्रत तभी पूर्ण माना जाता है जब उसका उद्यापन विधि-विधान से किया जाए, उद्यापन करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हम जो व्रत करते हैं उसके साक्षी सभी देवी-देवता, यक्ष, नाग आदि होते हैं. ऐसे में उद्यापन के दौरान की गई पूजा और हवन से उन सभी देवी-देवताओं को उनका भाग प्राप्त होता है. इस दौरान किए गए दान-दक्षिणा से व्रत पूर्ण होता है और मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है. वैकुंठ एकादशी व्रत के पश्चात व्रत उद्यापन करना शुभ होता है. 

एकादशी आरती

ॐ जय एकादशी, जय एकादशी, जय एकादशी माता.

विष्णु पूजा व्रत को धारण कर, शक्ति मुक्ति पाता॥

ॐ जय एकादशी 

तेरे नाम गिनाऊं देवी, भक्ति प्रदान करनी.

गण गौरव की देनी माता, शास्त्रों में वरनी॥

ॐ जय एकादशी 

मार्गशीर्ष के कृष्णपक्ष की उत्पन्ना, विश्वतारनी जन्मी.

शुक्ल पक्ष में हुई मोक्षदा, मुक्तिदाता बन आई॥

ॐ जय एकादशी…॥

पौष के कृष्णपक्ष की, सफला नामक है.

शुक्लपक्ष में होय पुत्रदा, आनन्द अधिक रहै॥

ॐ जय एकादशी 

नाम षटतिला माघ मास में, कृष्णपक्ष आवै.

शुक्लपक्ष में जया, कहावै, विजय सदा पावै॥

ॐ जय एकादशी…॥

विजया फागुन कृष्णपक्ष में शुक्ला आमलकी.

पापमोचनी कृष्ण पक्ष में, चैत्र महाबलि की॥

ॐ जय एकादशी 

चैत्र शुक्ल में नाम कामदा, धन देने वाली.

नाम बरुथिनी कृष्णपक्ष में, वैसाख माह वाली॥

ॐ जय एकादशी 

शुक्ल पक्ष में होय मोहिनी अपरा ज्येष्ठ कृष्णपक्षी.

नाम निर्जला सब सुख करनी, शुक्लपक्ष रखी॥

ॐ जय एकादशी 

योगिनी नाम आषाढ में जानों, कृष्णपक्ष करनी.

देवशयनी नाम कहायो, शुक्लपक्ष धरनी॥

ॐ जय एकादशी…॥

कामिका श्रावण मास में आवै, कृष्णपक्ष कहिए.

श्रावण शुक्ला होय पवित्रा आनन्द से रहिए॥

ॐ जय एकादशी 

अजा भाद्रपद कृष्णपक्ष की, परिवर्तिनी शुक्ला.

इन्द्रा आश्चिन कृष्णपक्ष में, व्रत से भवसागर निकला॥

ॐ जय एकादशी 

पापांकुशा है शुक्ल पक्ष में, आप हरनहारी.

रमा मास कार्तिक में आवै, सुखदायक भारी॥

ॐ जय एकादशी 

देवोत्थानी शुक्लपक्ष की, दुखनाशक मैया.

पावन मास में करूं विनती पार करो नैया॥

ॐ जय एकादशी 

परमा कृष्णपक्ष में होती, जन मंगल करनी.

शुक्ल मास में होय पद्मिनी दुख दारिद्र हरनी॥

ॐ जय एकादशी 

जो कोई आरती एकादशी की, भक्ति सहित गावै.

जन गुरदिता स्वर्ग का वासा, निश्चय वह पावै॥

ॐ जय एकादशी 

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भानु सप्तमी : भानु सप्तमी व्रत और विशेष उपाय

भगवान सूर्य की पूजा का दिन भानु सप्तमी कहलाता है. इस दिन भानु यानि सूर्य की पूजा की जाती है.  शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को भानु सप्तमी व्रत रखा जाता है. धर्म ग्रंथों के अनुसार, सूर्य देव की पूजा करने वाले भक्तों को धन, स्वास्थ्य और दीर्घायु की प्राप्ति होती है. इसके अलावा भक्तों को सूर्य देव की विशेष कृपा भी प्राप्त होती है. भानु सप्तमी रविवार को पड़ रही हो तो, इस दिन का महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि रविवार को सूर्य देव का दिन माना जाता है.  

भानु सप्तमी के दिन सूर्य देव को अर्घ्य दिया जाता है और सूर्य देव से संतान वृद्धि का आशीर्वाद माना जाता है. इसके अलावा सूर्य देव से रोग मुक्ति का वरदान मांगा जाता है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, भानु सप्तमी का व्रत और पूजा उन लोगों के लिए बहुत लाभकारी हो सकता है जिनकी कुंडली में मंगल का अशुभ प्रभाव होता है और मंगल के प्रभाव को कम करता है. भानु सप्तमी की पूजा

कब मनाई जाती है भानु सप्तमी   

पंचांग के अनुसार भानु सप्तमी का दिन रविवार के योग और सप्तमी तिथि होने पर बनता है. प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को सूर्य देव की पूजा की जाती है और सूर्य देव का एक अन्य नाम भानु भी है अत: इस दिन सूर्य देव खी उपासना विशेष होती है. 

हिंदू पंचांग के अनुसार, अगर सप्तमी तिथि को रविवार हो तो उस दिन भानु सप्तमी मनाई जाती है. भानु सप्तमी के दिन पूजा करना बहुत शुभ होता है. इस दिन लोग सुबह जल्दी उठकर सूर्योदय से पहले स्नान करते हैं. ऐसा कहा जाता है कि जो लोग नदियों में स्नान नहीं कर सकते हैं उन्हें पानी में गंगाजल डालकर स्नान करना चाहिए. इसके बाद भक्त व्रत का संकल्प लेते हैं. 

भानु सप्तमी पूजा विधि 

भगवान सूर्य को समर्पित कई त्योहार हैं, जिन पर भक्त उनकी विधि-विधान से पूजा-अर्चना करते हैं. इन्हीं पावन तिथियों में से एक है भानु सप्तमी. इस त्योहार पर लोग भगवान सूर्य की पूजा कर अच्छे स्वास्थ्य और सौभाग्य की कामना करते हैं. भानु सप्तमी के दिन सुबह उगते हुए सूर्य को देखते हुए सूर्य देव की पूजा की जाती है. 

सूर्य देव को अर्घ्य दिया जाता है. जिस जल से अर्घ्य दिया जा रहा है उसमें लाल चंदन डालना बहुत शुभ माना जाता है. सूर्य देव को फूल और प्रसाद भी चढ़ाया जाता है. इस दिन घर के प्रवेश द्वार पर रंगोली बनाई जा सकती है. घर में पकवान बनाए जाते हैं. पकवान में खीर बनाई जाती है जिसे प्रसाद के रूप में भी बांटा जाता है.

भानु सप्तमी पूजा और स्नान दान का लाभ 

भानु सप्तमी के दिन सूर्योदय से पहले किसी पवित्र नदी या जलाशय में स्नान करते हैं. इसके बाद सूर्य देव की पूजा करने या व्रत रखने का संकल्प लिया जाता है, पूजा स्थल पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठकर पूजा करते हैं. पूजा में सूर्य देव को लाल चंदन, अक्षत, लाल फूल, धूप, नैवेद्य आदि अर्पित करते हैं. सूर्य देव की आरती करते हैं. तांबे के बर्तन में साफ पानी भरें और उसमें लाल चंदन, अक्षत और एक लाल फूल डालकर ‘ॐ सूर्याय नमः’ मंत्र का जाप करते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देते हुए सूर्य उपासना करते हैं.

भानु सप्तमी पर सूर्य देव की पूजा करते समय उनके किसी भी मंत्र का जाप करना शुभ होता है. इस दिन खाने या फलों में नमक का प्रयोग नहीं किया जाता है. भानु सप्तमी की पूजा द्वारा अरोग्य का सुख मिलता है. सूर्य देव की पूजा करने से व्यक्ति को असाध्य रोगों से मुक्ति मिलती है, लंबी आयु प्राप्त होती है. इस दिन सूर्य देव को जल चढ़ाने से बुद्धि और व्यक्तित्व का विकास होता है, मानसिक शांति मिलती है और स्मरण शक्ति बहुत तेज होती है. भानु सप्तमी को बहुत शुभ माना जाता है, इस दिन किया गया पूजन व्यक्ति को मनचाहा फल देता है. पूजा करने के बाद भानु सप्तमी पर दान-पुण्य करने से घर में कभी भी धन-धान्य की कमी नहीं होगी. इस दिन सच्चे मन से सूर्य की पूजा करने से कष्ट दूर हो जाते हैं. 

भानु सप्तमी स्त्रोत एवं पूजा लाभ 

ग्रंथों में वर्णन है कि जब सूर्य देव पहली बार सात घोड़ों के रथ पर सवार होकर प्रकट हुए और पृथ्वी से अंधकार दूर करने के लिए अपनी किरणें फैलाई, तब शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि थी. सूर्य देव के प्रकट होने के उपलक्ष्य में भानु सप्तमी मनाई जाती है. भानु सप्तमी के दिन स्नान करने और सूर्य देव को जल अर्पित करने से सुख वृद्धि होती है. इस दिन व्रत रखने का भी नियम है. मान्यता है कि यह व्रत मनुष्य को मोक्ष प्रदान करता है. अगर इस दिन सच्चे मन से सूर्य देव की पूजा की जाए तो सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है.  

सूर्य स्त्रोत में सूर्य देव के कई गुप्त नामों का वर्णन है सूर्य स्त्रोत में सूर्य देव के कई गुप्त नामों का वर्णन है सूर्य देव को जीवन शक्ति का प्रदाता माना जाता है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सूर्य से प्राप्त ऊर्जा से ही संपूर्ण संसार संचालित होता है. रविवार के दिन व्रत रखते हैं और सूर्य देव की पूजा करते हैं उन्हें जीवन में यश और सम्मान की प्राप्ति होती है. मान्यता है कि रविवार के दिन सूर्य देव का व्रत रखने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, शरीर निरोगी रहता है और सभी प्रकार के दर्द से मुक्ति मिलती है और नेत्र ज्योति अच्छी होती है.

भानु सप्तमी के रक्षा कवच और सूर्य स्त्रोत. सूर्य रक्षा कवच जहां जातक को सभी प्रकार की बाधाओं और समस्याओं से बचाता है, वहीं सूर्य स्त्रोत जातक का कल्याण करता है. सूर्य स्त्रोत में सूर्य देव के कई गुप्त नामों का वर्णन है, तो चलिए पढ़ते हैं सूर्य स्त्रोत और सूर्य रक्षा कवच.

सूर्य स्त्रोत:

विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः.

लोक प्रकाशकः श्री माँल्लोक चक्षुर्मुहेश्वरः॥

लोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्ता हर्ता तमिस्रहा.

तपनस्तापनश्चैव शुचिः सप्ताश्ववाहनः॥

गभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृतः.

एकविंशतिरित्येष स्तव इष्टः सदा रवेः॥

सूर्य रक्षा कवच:

याज्ञवल्क्य उवाच-

श्रणुष्व मुनिशार्दूल सूर्यस्य कवचं शुभम्.

शरीरारोग्दं दिव्यं सव सौभाग्य दायकम्.1.

देदीप्यमान मुकुटं स्फुरन्मकर कुण्डलम.

ध्यात्वा सहस्त्रं किरणं स्तोत्र मेततु दीरयेत् .2.

शिरों में भास्कर: पातु ललाट मेडमित दुति:.

नेत्रे दिनमणि: पातु श्रवणे वासरेश्वर: .3.

ध्राणं धर्मं धृणि: पातु वदनं वेद वाहन:.

जिव्हां में मानद: पातु कण्ठं में सुर वन्दित: .4.

सूर्य रक्षात्मकं स्तोत्रं लिखित्वा भूर्ज पत्रके.

दधाति य: करे तस्य वशगा: सर्व सिद्धय: .5.

सुस्नातो यो जपेत् सम्यग्योधिते स्वस्थ: मानस:.

सरोग मुक्तो दीर्घायु सुखं पुष्टिं च विदंति .6.  

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खंडोबा मार्तण्ड षष्ठी कथा और पूजा विशेष

मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को खंडोबा षष्ठी या खंडोबा मार्तण्ड षष्ठी के नाम से भी मनाया जाता है। मान्यता है कि खंडोबा मार्तण्ड षष्ठी का पर्व भगवान शिव के अवतार खंडोवा को समर्पित है। खंडोवा या खंडोबा को कई अन्य नामों से भी पुकारा जाता है। इनमें खंडेरया, मल्हारी, मार्तंड आदि नाम बहुत प्रसिद्ध हैं। खंडोबा मार्तण्ड षष्ठी के दिन स्कंद षष्ठी भी पूजते हैं और इसे चंपा षष्ठी नाम से भी पूजा जाता है.

खंडोबा मार्तण्ड षष्ठी कब मनाया जाता है?
मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होगा। 6 दिवसीय यह उत्सव नवरात्रि की तरह मनाया जाता है। व्रत रखने के साथ-साथ लोग पूजा-पाठ भी करते हैं। पूजा से जुड़े नियमों का पालन करते हुए भक्त इन दिनों को भक्ति भाव के साथ मनाते हैं. यह लोक परंपराओं और भक्ति के जुड़ा विशेष दिवस है.

खंडोबा मार्तण्ड षष्ठी : देश के इन भागों का है विशेष पर्व
खंडोबा मार्तण्ड षष्ठी का पर्व नवरात्रि की ही भांति देश के कुछ स्थानों में मार्गशीर्ष माह के प्रतिपदा से षष्ठी तिथि तक चलता है मान्यता अनुसार भगवान शिव के अवतार खंडोवा देव को महाराष्ट्र और कर्नाटक में रहने वाले लोग कुल देवता के रूप में पूजते हैं। इनकी पूजा हर वर्ग के लोग करते हैं। इनमें अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं है। सभी लोग भगवान की पूजा समान स्तर पर करते हैं। इसके अलावा खंडोबा को कुछ लोग स्कंद का अवतार भी मानते हैं तो कुछ के अनुसार उन्हें शिव या उनके भैरव रूप का अवतार मानते हैं। कुछ अन्य लोगों के अनुसार खंडोबा एक वीर योद्धा थे और इसलिए उन्हें देवता का रूप माना जाता था। खंडोबा के बारे में ऐसे कई मत मिलते हैं। इतने सारे अलग-अलग मत और मान्यताएं यह साबित करती हैं.

मार्तण्ड षष्ठी : मल्हारी मार्तण्ड पूजा
मल्हारी मार्तण्ड को भगवान शिव का ही रूप माना जाता है। इस पर्व को चंपा षष्ठी और स्कंद षष्ठी कहा जाता है। महाराष्ट्रीयन समाज में मल्हारी मार्तण्ड का खंडोबा उत्सव छह दिन तक मनाया जाएगा। जिसे छह दिवसीय उत्सव के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन भगवान को पूरन पोली और बैंगन का प्रसाद चढ़ाया जाएगा इस पर्व के देवता खंडोबा बाबा की विशेष पूजा की जाती है। हवन-पूजा के साथ-साथ उनकी मूर्ति या फोटो पर हल्दी उड़ाने की रस्म के साथ भंडारे का आयोजन किया जाता है इसमें मल्हारी मार्तंड को बैंगन, बाजरे की रोटी, पूरन पोली और विभिन्न व्यंजन का भोग लगाया जाता है।

मल्हारी मार्तंड : भगवान शिव का रूप
मल्हारी मार्तंड को भगवान शिव का रूप माना जाता है। इस पर्व को चंपा षष्ठी और स्कंद षष्ठी कहते हैं। बैंगन देवता को अर्पित किया जाता है। दक्षिण भारतीय लोग इस दिन महादेव के पुत्र कार्तिकेय की पूजा करते हैं। ऐसा माना जाता है कि मल्हारी मार्तण्ड 64 भैरवों में से एक हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान शंकर ने मल्हारी मार्तण्ड का रूप धारण कर मणिमल्ल नामक राक्षस का वध किया था। यह दिन चंपा षष्ठी था।

जेजुरी में खंडोबा मंदिर विशेष
खंडोबा षष्ठी देश के पूना और महाराष्ट्र क्षेत्रों में अधिक मनाई जाती है। जेजुरी में खंडोबा मंदिर में इसे बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन खंडोबा देव को हल्दी, फल, सब्जियां आदि चढ़ाई जाती हैं। यहां मेला भी लगता है। मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को भगवान शिव की पूजा की जाती है। इस दिन भगवान शिव की मार्तंड के रूप में पूजा की जाती है।

महाकाल भैरवाष्टकम्

यं यं यं यक्षरूपं दशदिशिविदितं भूमिकम्पायमानं
सं सं संहारमूर्तिं शिरमुकुटजटा शेखरं चन्द्रबिम्बम् ।
दं दं दं दीर्घकायं विकृतनखमुखं चोर्ध्वरोमंकरालं
पं पं पं पापनाशं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ १॥

रं रं रं रक्तवर्णं कटिकटिततनुं तीक्ष्णदंष्ट्राकरालं
घं घं घं घोष घोषं घ घ घ घ घटितं घर्झरं घोरनादम् ।
कं कं कं कालपाशं ध्रुक्ध्रुक्ध्रुकितं ज्वालितं कामदाहं
तं तं तं दिव्यदेहं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ २॥

लं लं लं लम्बदन्तं ल ल ल ल ललितं दीर्घजिह्वाकरालं
धूं धूं धूं धूम्रवर्णं स्फुटविकटमुखं भास्करं भीमरूपम् ।
रुं रुं रुं रुण्डमालं रवितमनियतं ताम्रनेत्रं करालं
नं नं नं नग्नभूषं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ३॥

वं वं वं वायुवेगं नतजनसदयं ब्रह्मसारं परन्तं
खं खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवनविलयं भास्करं भीमरूपम् ।
चं चं चं चं चलित्वाऽचल चल चलिता चालितं भूमिचक्रं
मं मं मं मायिरूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ४॥

शं शं शं शङ्खहस्तं शशिकरधवलं मोक्षसम्पूर्णतेजं
मं मं मं मं महान्तं कुलमकुलकुलं मन्त्रगुप्तं सुनित्यम् ।
यं यं यं भूतनाथं किलिकिलिकिलितं बालकेलिप्रधानं
अं अं अं अन्तरिक्षं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ५॥

खं खं खं खड्गभेदं विषममृतमयं कालकालं करालं
क्षं क्षं क्षं क्षिप्रवेगं दहदहदहनं तप्तसन्दीप्यमानम् ।
हूं हूं हूंकारनादं प्रकटितगहनं गर्जितैर्भूमिकम्पं
बं बं बं बाललीलं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ६॥

सं सं सं सिद्धियोगं सकलगुणमखं देवदेवं प्रसन्नं
पं पं पं पद्मनाभं हरिहरमयनं चन्द्रसूर्याग्निनेत्रम् ।
ऐं ऐं ऐश्वर्यनाथं सततभयहरं पूर्वदेवस्वरूपं
रौं रौं रौं रौद्ररूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ७॥

हं हं हं हंसयानं हसितकलहकं मुक्तयोगाट्टहासं
धं धं धं नेत्ररूपं शिरमुकुटजटाबन्धबन्धाग्रहस्तम् ।
टं टं टङ्कारनादं त्रिदशलटलटं कामगर्वापहारं
भ्रूं भ्रूं भ्रूं भूतनाथं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ८॥

भैरवाष्टकमिदं पुण्यं षण्मासं यः पठेन्नरः ।
स याति परमं स्थानं यत्र देहो महेश्वरः ॥

इति महाकालभैरवाष्टकं सम्पूर्णम् ।
श्रीक्षेत्रपालभैरवाष्टकम्

नमो भूतनाथं नमः प्रेतनाथं
नमः कालकालं नमः रुद्रमालम् ।
नमः कालिकाप्रेमलोलं करालं
नमो भैरवं काशिकाक्षेत्रपालम् ॥

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विवाह पंचमी: क्यों है विशेष मार्गशीर्ष माह पंचमी

वैवाहिक जीवन व्यक्ति को मनचाहा सुख प्रदान करता है. मार्गशीर्ष माह में आने वाली पंचमी तिथि को विवाह पंचमी के नाम से जाना जाता है. शास्त्रों के अनुसार इस दिन श्री राम और सीता जी का विवाह समारोह मनाया जाता है. अगर  सुख-सुविधाओं की कमी हो या फिर जातक की कुंडली में विवाह का योग नहीं है तो उसे श्री राम सीता विवाह पंचमी के दिन श्री राम और सीता जी की पूजा करनी चाहिए ऎसा करने से से सुखी वैवाहिक जीवन की कामना पूर्ण होती है. आइये जान लेते हैं विवाह पंचमी कथा और पौराणिक महत्व 

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मार्गशीर्ष माह विवाह पंचमी 

विवाह पंचमी के दिन हुआ था श्री राम और सीता जी का विवाह इसी कारण इस दिन पूजा और उत्सव मनाने से विवाह की संभावना बढ़ती है और वैवाहिक जीवन सुखमय होता है. श्री राम विवाह मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है. मान्यता है कि इस दिन भगवान राम का सीता से विवाह हुआ था. रामायण में राम विवाह का सुंदर वर्णन मिलता है. 

अयोध्या और मिथिला क्षेत्रों में उत्सव का विशेष रंग 

आज भी इस पर्व के दिन अयोध्या और मिथिला के आसपास के क्षेत्र उत्साह से भर जाते हैं. हर जगह भक्ति और प्रेम दिखाई देता है जो इस अवधि को बहुत पवित्र बनाता है. राम विवाह के इस महत्वपूर्ण अवसर पर पूरा देश खुशी मनाता है. इस दिन विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. राम-सीता कथा हमारी सभी प्राचीन परंपराओं और लोक कथाओं का अभिन्न अंग है. इनके बिना हमारी पौराणिक कथाएं कभी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकतीं. राम को मर्यादापुरुषोत्तम कहा जाता है और जगत जननी सीता को पतिव्रता और लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है. भारत में जब भी किसी सुखी विवाहित जोड़े का जिक्र होता है तो उसकी तुलना राम-सीता से की जाती है. राम और सीता को आदर्श जोड़ा माना जाता है. भले ही रावण के कारण उनका विवाह संकट में पड़ गया हो, लेकिन उनके मिलन को आदर्श मिलन माना जाता है.

श्री राम और सीता का जन्म एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है. उनका जन्म और उनका पूरा जीवन एक ऐसा आदर्श रहा है कि उन्हें उसी रूप में पूजा जाता है जैसे कई शताब्दियों पहले था यानी राम का जन्म अयोध्या में दशरथ के घर हुआ था. उसी समय सीता का जन्म धरती से हुआ और मिथिला के राजा जनक उनके पिता बने.

रामायण में है विवाह पंचमी का उल्लेख

श्री राम और सीता के विवाह का वर्णन तुलसीदास द्वारा रचित रामायण में विस्तार से किया गया है. उनके विवाह की कहानी बहुत ही सुंदर तरीके से शुरू होती है जब वे पहली बार पुष्प वाटिका में मिलते हैं. सीताजी रामजी के हृदय में बस जाती हैं. सीताजी तब देवी पार्वती से प्रार्थना करती हैं और भगवान राम को पति के रूप में मांगती हैं. सीता के स्वयंवर का दिन आता है. राजा जनक अपनी पुत्री का विवाह एक बलवान व्यक्ति से करवाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने सीता के विवाह के लिए एक शर्त रखी. उन्होंने घोषणा की कि केवल वही व्यक्ति सीता से विवाह कर सकेगा जो शिव का धनुष उठाने में सक्षम होगा. रामायण में उनके विवाह का बहुत ही सजीव वर्णन किया गया है.

सीता जी के विवाह योग्य हो जाने पर राजा जनक उनके स्वयंवर की घोषणा करते हैं और सभी राज्यों के राजकुमारों को निमंत्रण भेजते हैं. यही निमंत्रण वन में ऋषि विश्वामित्र के पास पहुंचता है. ऋषि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ स्वयंवर में भाग लेने के लिए जनकपुरी पहुंचते हैं. राम और सीता की पहली मुलाकात पुष्पवाटिका में होती है और फिर स्वयंवर के दौरान एक अद्भुत दृश्य होता है. 

सीता स्वयंवर कथा

अपने गुरु की आज्ञा पर भगवान राम धनुष उठाने का प्रयास करते हैं और बिना किसी प्रयास के ऐसा करने में सफल हो जाते हैं. वास्तव में, धनुष उनके हाथ में ही टूट जाता है. धनुष टूटते ही राम का सीता से विवाह संपन्न हो जाता है.

विवाह पंचमी पूजा

विवाह पंचमी के दिन पारंपरिक रूप से राम सीता की पूजा की जाती है. कई तरह की रस्में निभाई जाती हैं. कई जगहों पर जुलूस, कीर्तन आदि का आयोजन भी किया जाता है. इस दिन विशेष रूप से राम कथा सुनी जाती है. पूजा स्थल पर श्री राम जी और माता सीता की मूर्ति या चित्र रखना चाहिए. भगवान राम को पीले वस्त्र और माता सीता को लाल वस्त्र अर्पित करने चाहिए.

इस पूजा में रामायण का पाठ करना चाहिए. उनके विवाह की कथा सुननी और पढ़नी चाहिए. इस दिन ये अनुष्ठान करना बेहद शुभ माना जाता है. भगवान और देवी को खीर और पूरी का भोग लगाना चाहिए. इसे पूरे परिवार को खाना चाहिए. परिवार के कल्याण का आशीर्वाद लेना चाहिए. राम और सीता ने सभी के लिए जीवन जीने का आदर्श उदाहरण पेश किया है. उनके वैवाहिक जीवन का उल्लेख आज भी किया जाता है. यह समर्पण, प्रेम, निष्ठा और नैतिक मूल्यों को दर्शाता है.

विवाह पंचमी से जुड़ी मान्यताएं  

विवाह पंचमी के दिन श्री राम और माता सीता का विवाह हुआ था. इसलिए इस दिन भगवान राम और माता सीता की विवाह वर्षगांठ मनाई जाती है. इस दिन श्री राम और माता सीता की पूजा की जाती है. मान्यता है कि अगर कोई व्यक्ति आज के दिन सच्चे मन से व्रत और पूजा करता है तो उसे मनचाहा जीवनसाथी मिलता है. इस दिन नागदेवता की भी पूजा की जाती है.

कई जगहों पर इस तिथि को विवाह के लिए शुभ नहीं माना जाता है. मिथिला और नेपाल में लोग इस दिन कन्याओं का विवाह करने से बचते हैं. लोगों की ऐसी मान्यता है कि विवाह के बाद भगवान श्री राम और माता सीता दोनों को ही बड़े दुखों का सामना करना पड़ा था. इसी वजह से लोग विवाह पंचमी के दिन विवाह करना अच्छा नहीं मानते हैं.

 भगवान श्री राम और माता सीता के विवाह के बाद दोनों को वनवास भोगना पड़ा था. वनवास काल में भी कठिनाइयों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. जब दोनों रावण को हराकर अयोध्या लौटे तब भी उन्हें साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ. शायद यही वजह है कि लोग इस तिथि को विवाह के लिए शुभ मुहूर्त नहीं मानते. 

कुछ जगहों पर मान्यताएं अलग हैं. कहा जाता है कि अगर विवाह होने में बाधा आ रही हो तो विवाह पंचमी पर ऐसी समस्या दूर हो जाती है. मनचाही शादी का वरदान भी मिलता है. वैवाहिक जीवन की परेशानियां भी खत्म होती हैं. भगवान राम और माता सीता की एक साथ पूजा करने से विवाह में आ रही बाधाएं नष्ट होती हैं. 

भगवान राम और सीता जी के विवाह प्रसंग का पाठ करना शुभ होता है. संपूर्ण रामचरित-मानस का पाठ करने से भी पारिवारिक जीवन सुखमय होता है. 

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एकादशी जन्म कथा : क्यों और कब हुआ एकादशी का जन्म और कैसे बनी मोक्ष देने वाली

एकादशी तिथि को उन विशेष तिथियों में स्थान प्राप्त है जिनके द्वारा व्यक्ति मोक्ष की गति को पाने में भी सक्षम होता है. एक माह में आने वाली शुक्ल पक्ष की एकादशी और कृष्ण पक्ष की एकादशी दोनों का ही विशेष महत्व रहा है. एकादशी को धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों ही पहलुओं से खास माना गया है जो शरीर के लिए उत्तम परिणाम देने वाली होती है. यह शरीर को शुद्ध करने और मन को पवित्र करने का साधन भी है. एकादशी का समय चंद्रमा की स्थिति के साथ बदलता रहता है.

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एकादशी 11वीं तिथि को पड़ती है, चंद्र मास के शुक्ल पक्ष में, एकादशी के दिन चंद्रमा लगभग 75 प्रतिशत समय दिखाई देता है, जबकि चंद्र मास के कृष्ण पक्ष में, यह विपरीत होता है.आइये जानने की कोशिश करते हैं एकादशी जन्म कथा और मोक्ष प्राप्ति में महत्व.

एकादशी का जन्म कब हुआ 

एकादशी के जन्म कि कथा का वर्णन धर्म ग्रंथों से प्राप्त होता है. जिसमें उत्पन्ना एकादशी को एकादशी की उत्पति जन्म समय की एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. यह कृष्ण पक्ष के दौरान मार्गशीर्ष महीने के ग्यारहवें दिन आती है. यह कार्तिक पूर्णिमा के बाद शुरू होने वाली पहली एकादशी है.  प्रत्येक एकादशी हिंदू कैलेंडर के अनुसार चंद्रमा की स्थिति और उनके बदलते समय से प्राप्त होती है. उत्तर भारत में, एकादशी मार्गशीर्ष में आती है जबकि दक्षिण भारत में यह कार्तिक महीने में मनाई जाती है. 

पद्म पुराण के चौदहवें अध्याय में इस एकादशी के जन्म का वर्णन मिलता है. एक बार महान ऋषि जैमिनी ऋषि ने अपने गुरु श्री व्यास जी देव से कहा कि हे गुरुदेव! मैं एकादशी के व्रत के लाभ और एकादशी के प्रकट होने की बात सुनना चाहता हूँ. ” कस्मद एकादशी जाता तस्याह को वा विधीर द्विज, कदा वा क्रियते किम वा फलम किम वा वदस्व मे, का वा पूज्यतामा तत्र देवता सद्गुणार्णव, अकुर्वताः स्यात् को दोष एतं मे वक्तुं अर्हसि” 

एकादशी का जन्म कब हुआ और वह किससे प्रकट हुई? एकादशी व्रत के क्या नियम हैं? कृपया इस व्रत के पालन से होने वाले लाभ तथा इसका पालन कब करना चाहिए, इसका वर्णन करें. श्री एकादशी के परम पूजनीय अधिष्ठाता कौन हैं? एकादशी का विधिपूर्वक पालन न करने से क्या दोष हैं? कृपया मुझे इन बातों के बारे में बताने की कृपा करें. 

जैमिनी जी को व्यास जी ने सुनाई एकादशी जन्म कथा

जैमिनी ऋषि की जिज्ञासा सुनकर व्यास जी ने कथा और महत्व के बारे में बताना शुरु किया. भौतिक सृष्टि के आरंभ में भगवान ने इस संसार में पांच स्थूल भौतिक तत्वों से बनी चर-अचर जीवों की रचना की. साथ ही मनुष्यों को दण्डित करने के उद्देश्य से उन्होंने एक ऐसे व्यक्तित्व की रचना की जिसका स्वरूप पाप का मूर्त रूप पापपुरुष था. इस व्यक्तित्व के विभिन्न अंग विभिन्न पाप कर्मों से निर्मित थे. 

उसका सिर ब्रह्महत्या के पाप से बना था, उसकी दोनों आंखें मादक द्रव्य पीने के पाप से बनी थीं, उसका मुख सोना चुराने के पाप से बना था, उसके कान गुरु की पत्नी के साथ अवैध संबंध बनाने के पाप से बने थे, उसकी नाक अपनी पत्नी की हत्या के पाप से बनी थी, उसकी भुजाएं गाय की हत्या के पाप से बनी थीं, उसकी गर्दन संचित धन की चोरी के पाप से बनी थी, उसकी छाती गर्भपात के पाप से बनी थी, उसकी छाती के निचले हिस्से में दूसरे की पत्नी के साथ संभोग करने के पाप से बनी थी.

उसके पेट में अपने रिश्तेदारों की हत्या के पाप से बनी थी, उसकी नाभि में अपने आश्रितों की हत्या के पाप से बनी थी, उसकी कमर में आत्म-मूल्यांकन के पाप से बनी थी, उसकी जांघों में गुरु को अपमानित करने के पाप से बनी थी, उसकी जननांग में अपनी बेटी को बेचने के पाप से बनी थी, उसके नितंबों में गोपनीय बातें बताने के पाप से बनी थी, उसके पैरों में अपने पिता की हत्या के पाप से बनी थी, और उसके बाल कम गंभीर पाप कर्मों के पाप से बने थे. इस प्रकार, सभी पाप कर्मों और दोषों से युक्त एक भयंकर व्यक्तित्व की रचना हुई. वह पापी व्यक्तियों को अत्यधिक कष्ट पहुंचाता था.

पाप पुरुष से मुक्ति के लिए एकादशी अवतरण 

पाप व्यक्तित्व को देखकर भगवान विष्णु मन ही मन इस प्रकार सोचने लगे मैं जीवों के दुख और सुख का निर्माता हूं मैं उनका स्वामी हूँ, क्योंकि मैंने ही इस पापी व्यक्तित्व की रचना की है, जो सभी बेईमान, धोखेबाज और पापी व्यक्तियों को कष्ट देता है. अब मुझे किसी ऐसे व्यक्ति की रचना करनी चाहिए जो इस व्यक्तित्व को नियंत्रित करे.’ इस समय श्री भगवान ने यमराज नामक व्यक्तित्व और विभिन्न नारकीय ग्रह प्रणालियों की रचना की. जो जीव बहुत पापी हैं, उन्हें मृत्यु के बाद यमराज के पास भेजा जाएगा, जो बदले में, उनके पापों के अनुसार, उन्हें पीड़ा सहने के लिए नारकीय क्षेत्र में भेज देंगे.

इन कामों के पश्चात, यमराज के पास गए. जब श्री विष्णु, सिंहासन पर बैठे उन्होंने दक्षिण दिशा से बहुत सी रोने की आवाज़ सुनी. वे इससे आश्चर्यचकित हो गए और इस प्रकार यमराज से पूछा, यह आवाज़ कहां से आ रही है. यमराज ने उत्तर में कहा हे देव पृथ्वी के जीव नरक लोकों में गिर गए हैं. वे अपने कुकर्मों के कारण अत्यधिक पीड़ा झेल रहे हैं. यह भयानक रोना उनके पिछले जन्मों के कष्टों के कारण है. यह सुनकर भगवान विष्णु दक्षिण दिशा में नारकीय क्षेत्र में जाते हैं ​​वहां के निवासियों को देख भगवान विष्णु का हृदय करुणा से भर गया. भगवान विष्णु ने मन ही मन सोचा, मैंने ही इन सभी संतानों को बनाया है और मेरे कारण ही ये कष्ट भोग रहे हैं.

पापों के नाश के लिए हुआ एकादशी का अवतरण 

भगवान ने तब अपने स्वयं के रूप से एकादशी के देवता को प्रकट किया. तब जीव एकादशी व्रत का पालन करने लगे और शीघ्र ही वैकुंठ धाम को प्राप्त हो गए. हे जैमिनी! इसलिए एकादशी  भगवान विष्णु और परमात्मा का ही स्वरूप है. श्री एकादशी परम पुण्य कर्म है और सभी व्रतों में प्रधान है. एकादशी के आने पर पापपुरुष भगवान विष्णु के पास गया और प्रार्थना करने लगा, जिससे भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और बोले, तुम क्या वरदान चाहते हो. पापपुरुष ने कहा मैं आपकी सन्तान हूं, और मेरे द्वारा ही आपने उन जीवों को कष्ट देना चाहा, जो अत्यन्त पापी हैं. 

अब श्री एकादशी के प्रभाव से मैं लगभग नष्ट हो चुका हूँ. हे प्रभु! मेरे मरने के पश्चात् आपके सभी अंश, जिन्होंने भौतिक शरीर धारण किया है, मुक्त हो जाएंगे और वैकुण्ठधाम को लौट जाएँगे. यदि सभी जीवों की यह मुक्ति हो गई, तो आपकी लीला कौन करेगा. हे केशव! यदि आप चाहते हैं कि ये शाश्वत लीलाएँ चलती रहें, तो आप मुझे एकादशी के भय से बचाएं. कोई भी प्रकार का पुण्य कार्य मुझे बांध नहीं सकता. किन्तु केवल एकादशी ही, जो आपका स्वयं का प्रकट रूप है, मुझे बाधा पहुंचा सकती है.अतः कृपा करके मुझे ऐसे स्थान का निर्देश करें जहाँ मैं निर्भय होकर निवास कर सकूं.

भगवान विष्णु ने हंसते हुए पापपुरुष की स्थिति देखकर कहा ‘हे पापपुरुष! तीनों लोकों का कल्याण करने वाली एकादशी के दिन तुम अन्न रूपी भोजन का आश्रय ले सकते हो तब एकादशी के रूप में मेरा स्वरूप तुम्हें बाधा नहीं पहुंचाएगा. इसलिए जो लोग आत्मा के परम लाभ के बारे में गंभीर हैं, वे एकादशी तिथि को कभी अन्न नहीं खाएँगे. भगवान विष्णु के निर्देशानुसार, भौतिक जगत में पाए जाने वाले सभी प्रकार के पाप कर्म इस अन्न रूपी स्थान में निवास करते हैं. जो कोई एकादशी का पालन करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और कभी भी नरक लोक में नहीं जाता है.

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मगसर अमावस्या : अर्थ, महत्व और लाभ

मगसर अमावस्या को मार्गशीर्ष माह के दौरान मनाया जाता है. यह अमवास्य तिथि हिंदू पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष अर्थात मगसर महीने में नवंबर-दिसंबर के कृष्ण पक्ष में आती है, मगसर अमावस्या का दूसरा नाम अगहन अमावस्या है, मगसर को अग्रहायण, मगसर और अगहन भी कहा जाता है. इस दिन विश्णु पूजा, पितृ पूजा करने का विशेष लाभ मिलता है. इस दौरान गंगा स्नान भी करते हैं और कई तरह की वस्तुओं का दान भी किया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु और शिव की पूजा करते हैं,

मगसर अमावस्या और इसकी विशेषता

यह त्यौहार हिंदू धर्म और ज्योतिष में महत्वपूर्ण है, इस दिन, हम खुद को नकारात्मक ऊर्जाओं से शुद्ध करने के लिए विभिन्न पूजा अनुष्ठान करते हैं, जैसे भगवान शिव ने तांडव नृत्य किया था, तिल तर्पण और पिंड दान करने से हमारे पितृ मुक्ति पाते हैं, मगसर अमावस्या से जुड़ी लोगों की कई पौराणिक मान्यताएं और कथाएं ग्रंथों में मिलती हैं, कुछ के अनुसार इस दिन सृष्टि  के निर्माता भगवान ब्रह्मा का जन्म हुआ था.

भगवान शिव ने इस अमावस्या पर तांडव नृत्य किया था, इस दिन, भगवान विष्णु ने भगवान वामन का रूप धारण किया था, अमरता का अमृत पाने के लिए असुरों और देवताओं ने क्षीर सागर का मंथन किया, दूसरी कहानी भगवान कृष्ण के बारे में है, जो वृंदावन की गोपियों को किसी भी पवित्र नदी में डुबकी लगाने के लिए कहते हैं, अगर वे ऐसा करते हैं, तो वे उन्हें प्राप्त कर सकते हैं,

मगसर अमावस्या स्नान दान लाभ 

मगसर अमावस्या पर लोगों को आवश्यक चीजें दान करने से अच्छे कर्म मिलते हैं, इस दिन की गई रुद्राभिषेक और महामृत्युंजय पूजा हमें खुशी, सकारात्मकता और समृद्धि ला सकती है, ज्योतिष इस त्यौहार को सूर्य और शनि शनि ग्रह से जोड़ता है. इस दिन सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए, इससे हमें सूर्य देव का आशीर्वाद और दिव्य गुण प्राप्त होते हैं सूर्य के शुभ प्रभाव कुंडली में बढ़ते हैं.  

इस दिन गंगा में स्नान करने से मन पवित्र होता है ओर कष्ट दूर होते हैं. मन और आत्मा पवित्र होते हैं. सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव मिलता है. इस दिन शनि पूजा करते हैं, शनि से संबंधित वस्तुओं का दान करते हैं तो इससे शनि ग्रह के अशुभ प्रभाव कम हो सकते हैं और आपको सौभाग्य प्राप्त हो सकता है,

मगसर पूजा पूजा विधि और लाभ 

मगसर अमावस्याके दिन कई तरह के विशेष पूजा अनुष्ठान किए जाते हैं. इस दिन व्रत रखते हैं, तो पानी में तिल डालना शुभ होता है. पवित्र नदी में स्नान करके प्रार्थना करनी चाहिए, भगवान विष्णु और शिव की पूजा करनी चाहिए, पितृ पूजा पवित्र नदी के तट पर की जानी चाहिए, यह हमारे पूर्वजों की मुक्ति के लिए किया जाता है, मगसर अमावस्या के दिन व्रत धारण करने वाले को पर कुछ भी खाना-पीना नहीं चाहिए, बहुत आवश्यक होने पर फलाहार किया जा सकता है.  

मगसर अमावस्या को एक बहुत ही पवित्र समय माना गया है, अगर भक्त पूरी श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं, तो उन्हें आशीर्वाद मिलता है और इच्छाएं पूरी होती हैं, जो भक्त जीवन में मानसिक तनाव से अधिक परेशान रहते हैं उनके लिए मगसर अमावस्या का पूजन बहुत उत्तम फल देता है.  इस समय पर स्नान करने से आप ग्रहों के बुरे प्रभावों को खत्म कर सकते हैं, स्नान हमारे शरीर और आत्मा को विषाक्त पदार्थों से मुक्त करता है और हमारे स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है, स्नान हमें चिंता और तनाव को कम करने और हमें शांत मन देने में मदद कर सकता है, इस स्नान से त्वचा संबंधी बीमारियों से बचा जा सकता है.

मगसर अमावस्या पूजा मंत्र 

मगसर अमावस्या के दिन कुछ मंत्रों के जाप से पूजा लाभ विशेष फल प्रदान करता है. इस समय पर मिलता है भक्तों को विशेष लाभ 

ॐ नम: शिवाय

ॐ कुल देवताभ्यो नमः

ॐ आपदामपहर्तारम दातारं सर्वसम्पदाम्,लोकाभिरामं श्री रामं भूयो-भूयो नामाम्यहम

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे, रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नम:! 

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्

ॐ ग्रह देवताभ्यो नमः। · ॐ लक्ष्मीपति देवताभ्यो नमः। · ॐ विघ्नविनाशक देवताभ्यो नमः

मगसर महीना और इसका महात्म्य 

मगसर महीना भगवान कृष्ण से संबंधित है, ऐसा माना जाता है कि यह महीना मगसर नक्षत्र से संबंधित है, मगसर नक्षत्र 27 नक्षत्रों में से एक है और इस महीने की पूर्णिमा इसी नक्षत्र से आती है, इसी कारण से इस महीने को मगसर माह के नाम से जाना जाता है, इस महीने को मगसर, अगहन और अग्रहायण के नाम से भी जाना जाता है. इस महीने में दान, स्नान आदि का बहुत महत्व है. भगवान कृष्ण ने गोपियों को इस महीने का महत्व बताते हुए कहा था कि इस महीने में यमुना नदी में स्नान करने से व्यक्ति अपने करीब आ जाता है, इसलिए इस महीने में नदी में स्नान करना बहुत पवित्र माना जाता है. 

मगसर अमावस्या में गंगा नदी में स्नान करना कार्तिक, माघ, वैशाख आदि अन्य महीनों की तरह ही पवित्र माना जाता है, मगसर अमावस्या के दिन भगवान शिव सत्यनारायण की पूजा करनी चाहिए क्योंकि इससे सभी समस्याओं और पापों से मुक्ति मिलती है, उदयतिथि के दिन दान और पुण्य करने से व्यक्ति के सभी पापों से मुक्ति मिलती है, मान्यता है कि इस दिन ये काम करने से सामान्य दिनों की अपेक्षा कई गुना अधिक फल प्राप्त होते हैं, इसलिए मगसर को इतना विशेष माना गया है. 

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सुब्रहमन्य षष्ठी : सुब्रहमन्य षष्ठी कथा और पूजा महत्व

हिंदू पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सुब्रहमन्य षष्ठी के नाम से मनाया जाता है. सुब्रहमन्य भगवान का पूजन इस दिन भक्ति भाव के साथ किया जाता है. शिव के दूसरे पुत्र को सुब्रहमन्य या कार्तिकेय नाम से जाना जाता है और इनके जन्म का दिन सुब्रहमन्य षष्ठी के रुप में मनाते हैं. दक्षिण भारत में इस दिन को विशेष धूमधाम से मनाया जाता है. 

सुब्रहमन्य भगवान के जन्म की कथा भी भक्तों को शुभ फल प्रदान करती है. कथाओं के अनुसार जब भगवान शिव की पत्नी सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ की अग्नि में कूदकर भस्म हो गईं, तो शिव विलाप करते हुए घोर तपस्या में लीन हो गए. ऐसा करने से सृष्टि शक्तिहीन हो गई. इस स्थिति को देखते हुए तारकासुर नामक राक्षस ने पूरी धरती पर आतंक फैला दिया. देवताओं को पराजय का सामना करना पड़ा. चारों ओर हाहाकार मच गया, तब सभी देवता ब्रह्मा से प्रार्थना करते हैं. तब ब्रह्मा कहते हैं कि शिव का पुत्र तारक का अंत करेगा.

पुराणों के अनुसार भगवान कार्तिकेय का जन्म षष्ठी तिथि को हुआ था, इसलिए इस दिन उनकी पूजा का विशेष महत्व है. शिव के सबसे बड़े पुत्र कार्तिकेय को सुब्रमण्यम, मुरुगन और सुब्रहमन्य के नाम से भी जाना जाता है. कार्तिकेय की पूजा मुख्य रूप से दक्षिण भारत में की जाती है. अरब में यजीदी समुदाय भी उनकी पूजा करता है, वे उनके मुख्य देवता हैं. उन्होंने उत्तरी ध्रुव के पास के क्षेत्र उत्तर कुरु के विशेष क्षेत्र में सुब्रहमन्य नाम से शासन किया. सुब्रहमन्य पुराण का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है.

सुब्रहमन्य षष्ठी पूजा ग्रह शांत लाभ 

सुब्रहमन्य षष्ठी के दिन पूजा करने से कई तरह के पाप प्रभावों का नाश होता है. मंगल शांति से लेकर काल सर्पदोष शांति के लिए सुब्रहमन्य भगवान कि पूजा को बहुत विशेष माना गया है. ज्योतिष में मंगल देव के अधिपति के रुप में सुब्रहमन्य भगवान को स्थान प्राप्त है. भगवान का पूजन करने से मंगल दोष शांत होते हैं. वास्तु उपायों के लिए इस पूजा को उत्तम माना गया है. 

सुब्रहमन्य षष्ठी पूजा नियम

षष्ठी तिथि भगवान सुब्रहमन्य को समर्पित है. ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म इसी तिथि को हुआ था, इसलिए इस दिन को उनके जन्मदिन के रूप में भी मनाया जाता है. षष्ठी तिथि पर भक्त पूजा और व्रत रखते हैं. भगवान सुब्रहमन्य को अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे कार्तिकेय, मुरुगन और सुब्रमण्यम. यह पर्व मुख्य रूप से दक्षिण भारत में मनाया जाता है. दक्षिण भारत में इस पर्व को मनाने के लिए विशेष पूजा और रैलियां आयोजित की जाती हैं. भगवान सुब्रहमन्य को देवी पार्वती और भगवान शिव का पुत्र माना जाता है. भगवान सुब्रहमन्य को सभी देवताओं का सेनापति माना जाता है. 

सुब्रहमन्य षष्ठी व्रत पौराणिक महत्व 

सुब्रहमन्य षष्ठी व्रत और पूजा से जुड़े कई तथ्य हैं. धर्म सिंधु और निर्णय सिंधु ग्रंथों के अनुसार, यदि सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच के समय में पंचमी तिथि समाप्त हो रही हो या षष्ठी तिथि शुरू हो रही हो, तो यह दिन इस व्रत को करने के लिए शुभ माना जाता है. षष्ठी तिथि और पंचमी तिथि का मिलन सुब्रहमन्य षष्ठी व्रत के लिए शुभ माना जाता है. इस दिन इस व्रत को करने का विधान बताया गया है. कभी-कभी सुब्रहमन्य षष्ठी व्रत पंचमी तिथि को भी किया जाता है.

दक्षिण से भगवान सुब्रहमन्य का संबंध

यद्यपि भगवान सुब्रहमन्य की पूजा पूरे भारत में की जाती है, लेकिन दक्षिण भारत में उनका बहुत महत्व है. दक्षिण भारत में उन्हें अलग-अलग नामों से पूजा जाता है और उनके कई मंदिर भी हैं. दक्षिण भारत से उनके संबंध को बताने वाली एक बहुत ही प्रचलित कथा है. कथा के अनुसार एक बार भगवान सुब्रहमन्य अपनी माता देवी पार्वती, पिता भगवान शिव और भाई भगवान गणेश से नाराज हो गए थे. इसके बाद वे मल्लिकार्जुन चले गए. इस कारण दक्षिण भारत उनका मूल स्थान बन गया.  

सुब्रहमन्य षष्ठी कथा

भगवान सुब्रहमन्य के पीछे की कहानी इस प्रकार है:- तारकासुर नामक राक्षस को वरदान प्राप्त था कि उसे कोई नहीं मार सकता, केवल भगवान शिव का पुत्र ही उसे मार सकता है. इस वरदान का लाभ उठाकर उसने सभी पर अत्याचार करना शुरू कर दिया. तारकासुर की शक्ति बढ़ती जा रही थी. उसने अपनी शक्ति का उपयोग सभी देवताओं को हराने और इंद्र का स्थान लेने के लिए किया. जब देवताओं को तारकासुर की योजना का पता चला, तो उन्होंने त्रिदेवों से सुरक्षा मांगी.

भगवान विष्णु ने उन्हें मदद का आश्वासन दिया. इंद्र और अन्य देवता भगवान शिव के पास जाते हैं, तब भगवान शंकर पार्वती के प्रेम की परीक्षा लेते हैं और पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होते हैं और इस तरह शुभ मुहूर्त में शिव और पार्वती का विवाह हो जाता है. इस तरह कार्तिकेय का जन्म होता है. कार्तिकेय तारकासुर का वध कर देवताओं को उनका स्थान दिलाते हैं. उन्होंने भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती से करवाया. 

दोनों अपनी ऊर्जा का उपयोग करते हैं और एक पुंज बनाते हैं. इस पुंज को अग्निदेव ले जाते हैं, लेकिन वे इसकी गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाते और इसे गंगा में डाल देते हैं. गंगा भी इसकी गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाती. वे पुंज को लेकर श्रवण वन में रख देती हैं. इससे उस पुंज से एक बहुत ही सुंदर बालक का जन्म होता है. छह कृतिकाएं उस बालक को देख लेती हैं और उसे गोद ले लेती हैं. इस प्रकार बालक का नाम कार्तिकेय रखा जाता है.

सुब्रहमन्य भगवान को देवताओं का सेनापति बनाया जाता है. इसके बाद वे तारकासुर पर आक्रमण करते हैं और उसे पराजित करते हैं. तारकासुर की मृत्यु से फिर से शांति आती है. देवताओं को भी राहत मिलती है.

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अगहन एकादशी : मार्गशीर्ष माह की विशेष एकादशी

अगहन माह एकादशी

अगहन माह में आने वाली एकादशी तिथि को बहुत ही शुभ और खास माना गया है. चतुर्मास में हर प्रबोधनी के पश्चात आने वाली ये एकादशी श्री हरि पूजन और एकादशी के जन्म को दर्शाती है. अगहन माह में आने वाली पहली एकादशी तिथि को एकादशी जन्म से भी संबंधित माना गया है. उत्पन्ना एकादशी का व्रत अगहन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को किया जाता है.  इस व्रत का परम फल मोक्ष बताया गया है. इस दिन एकादशी का जन्म भी हुआ था इसी कारण इसे उत्पन्ना एकादशी के नाम से पूजा जाता है. 

अगहन माह में आने वाली दूसरी एकादशी को मोक्षदा एकादशी के नाम से जाना गया है. इस एकादशी का समय अगहन माह के शुक्ल पक्ष में होता है. अपने नाम के अनुसार ये एकादशी मोक्ष का फल प्रदान करती है.  जहां एक एकादशी उत्पन्न होती है वहीं दूसरी एकादशी मोक्ष की प्राप्ति को दर्शाती है. दोनों एकादशियों का प्रभाव जीवन को श्रेष्ठ परिणाम देने वाला होता है. 

अगहन एकादशी धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व  

अगहन माह में आने वाली एकादशी का व्रत करने मात्र से व्यक्ति को पुण्य फलों की प्राप्ति होती है. जीवन के सभी शुभ फल मिल जाते हैं. एकादशी के समय पर ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल इस एकादशी के पुण्य के दसवें भाग के बराबर होता है. इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. व्रत करने वाले व्यक्ति को दशमी की रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए. एकादशी के दिन प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में भगवान की पुष्प, दीप, धूपबत्ती और अक्षत से पूजा की जाती है. एकादशी का व्रत करने वाले मनुष्य को सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं प्राप्त होती हैं तथा मृत्यु के पश्चात भगवान विष्णु की शरण मिलती है.

एकादशी के दिन प्रातःकाल उठकर स्नान आदि नित्य कर्म करने चाहिए. स्नान के पश्चात भगवान विष्णु की दीप, धूप, नैवेद्य आदि से पूजा करनी चाहिए. रात्रि में दीपदान करना चाहिए. यह कार्य पूर्ण श्रद्धा से करना चाहिए. एकादशी की रात्रि में निद्रा का त्याग किया जाता है. एकादशी की रात्रि में भजन, कीर्तन या जागरण किया जाता है. एकादशी के दिन ब्राह्मणों को दान दिया जाता है तथा भूलों के लिए क्षमा मांगी जाती है. यदि संभव हो तो इस मास के दोनों पक्षों में एकादशी का व्रत करना चाहिए जिसके द्वारा आध्यात्मिक और धार्मिक प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त होता है.

अगहन उत्पन्ना एकादशी कथा

उत्पन्ना एकादशी व्रत प्राचीन काल में एक भयंकर राक्षस हुआ करता था. उसका नाम मुर था. उसने इंद्र आदि देवताओं को जीतकर उनके स्थान से नीचे गिरा दिया था. तब इन्द्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे मुर के अत्याचारों से उन्हें बचाएं तथा मृत्यु लोक में अपना जीवन व्यतीत करें. यह सुनकर भगवान विष्णु ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे उस राक्षस को मारकर उनके प्राण बचाएंगे. भगवान विष्णु उनके साथ चल दिए, राक्षसों ने भगवान विष्णु पर अस्त्र-शस्त्र चलाना शुरू कर दिया. भगवान विष्णु का मुर के साथ कई वर्षों तक युद्ध चलता रहा, परंतु मुर को पराजित नहीं किया जा सका.

अंत में भगवान विष्णु विश्राम करने के लिए बद्रीकाश्रम की एक गहरी गुफा में चले गए. मुर भी भगवान विष्णु को मारने के लिए वहां पहुंच गया. उस समय गुफा में एक सुंदर कन्या प्रकट हुई तथा मुर से युद्ध करने लगी. उसने उसे धक्का देकर अचेत कर दिया. तथा उसका सिर काट दिया. जब भगवान विष्णु की नींद खुली तो उन्होंने देखा कि किसी ने राक्षस को मार डाला है. कन्या ने बताया कि राक्षस तुम्हें मारने आ रहा था, इसलिए मैं तुम्हारे शरीर से उत्पन्न हुई तथा उसे मार डाला. भगवान विष्णु ने उसका नाम एकादशी रखा क्योंकि उसका जन्म एकादशी के दिन हुआ था.

अगहन मोक्ष एकादशी कथा

वैखानस नामक राजा ने जब अपने पितरों को कष्ट में देखा तो वह व्याकुल हो गया. वह ब्राह्मण के पास पहुंचा और स्वप्न सुनाया, उसने कहा कि पिता और पितरों  की यह दशा देखकर उसे सभी सुख-सुविधाएं व्यर्थ लगने लगी हैं. तब ब्राह्मण ने उसे पर्वत नामक मुनि के बारे में बताया, जो भूत और भविष्य के बारे में जानते थे. उन्होंने राजा को मुनि से समाधान पाने का सुझाव दिया.

राजा मुनि के आश्रम पहुंचे, मुनि ने उन्हें बताया कि उनके पिता ने पिछले जन्म में कुछ गलत काम किए थे, इसलिए वे मृत्यु के बाद नरक में गए. यह सुनकर राजा ने मुनि से अपने पिता के उद्धार का उपाय बताने की प्रार्थना की. मुनि ने उसे अगहन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने को कहा, और राजा ने इस व्रत को भक्ति भाव के साथ किया एकादशी व्रत के पुण्य से राजा के पिता और पूर्वजों को मोक्ष की प्राप्ति संभव हो जाती है. 

अगहन एकादशी लाभ 

इस माह में आने वाली एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के कई तरह के पाप दूर होते हैं. . मान्यता है कि इस दिन भगवान कृष्ण ने महाभारत के आरंभ होने से पहले अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया था. इस एकादशी पर भगवान कृष्ण और गीता की पूजा करने से शुभ फल प्राप्त होते हैं. ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी जाती है. इस दिन धूप-दीप, नैवेद्य आदि से भगवान दामोदर की पूजा की जाती है. मोक्ष एकादशी पूजा व्रत रखने वाले व्यक्ति को स्नान करने के बाद मंदिर में जाकर पूजा करनी चाहिए. भगवान के सामने व्रत का संकल्प लेते हुए मंदिर या घर पर ही विष्णु पाठ करना चाहिए. द्वादशी (एकादशी के एक दिन बाद) को ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देने के बाद व्रत का समापन किया जाता है. व्रत की रात्रि में जागरण करने से व्रत से प्राप्त होने वाले पुण्यों में वृद्धि होती है. मोक्षदा एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के पूर्वज, जो मृत्यु के पश्चात नरक में निवास कर रहे थे, स्वर्ग को प्राप्त होते हैं.

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