विजयदशमी क्यों है अबूझ मुहूर्त ? ज्योतिष महत्व

विजयादशमी का संबंध ज्योतिष शास्त्र अनुसार मुहूर्त प्रकरण में आता है. मुहूर्त गणना में इस दिन को बेहद महत्वपूर्ण माना गया है.यह एक अबूझ मुहूर्त भी है, वो मुहूर्त जिन पर किसी शुभ कार्य को करने के लिए किसी से सलाह-मशविरा नहीं करना पड़ता. शुभ कार्य बिना सोचे-समझे किए जा सकते हैं. दीपावली, होली, दशहरा, अक्षय तृतीया आदि को अबूझ मुहूर्त कहा जाता है.

दशहरा पर गृह प्रवेश किया जा सकता है, विवाह सगाई कार्य भी किए जाते हैं. इसके अलावा नया कार्य आरंभ करने, भूमि, भवन, वाहन, सोने-चांदी के आभूषण, खाता बही आदि खरीदने के लिए श्रेष्ठ है. इस दिन खरीदारी स्थायी समृद्धि प्रदान करती है. इसके अलावा सोना, पीतल का हाथी, दक्षिणावर्ती शंख खरीदने से लक्ष्मी आकर्षित होती हैं. नई प्रॉपर्टी खरीदना या फ्लैट बुक करना लाभकारी रहेगा. दशहरे के दिन लोग नया काम शुरू करते हैं, शस्त्रों की पूजा की जाती है. प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना करते थे और युद्ध के लिए प्रस्थान करते थे.

विजयादशमी का ज्योतिष महत्व
आश्विन माह में आने वाली शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को विजया तिथि के रुप में भी जाना गया है. ज्योतिष अनुसार इस दिन किसी भी कार्य में जीत प्राप्त करने का शुभ योग बनता है. इस समय पर ग्रहों की स्थिति विशेष आसर दिखाती है. इसे ज्योतीष शास्त्र में बेहद विशेष माना गया है. ग्रह नक्षत्रों का प्रभव इस दिन विजय को प्रदान करने वाला होता है. इस कारन से इस दिन को शुभ मुहूर्तों में से एक माना जाता है.

कुछ स्थानों पर लोग इसे अपना महत्वपूर्ण दिन मानते हैं. उनका मानना ​​है कि अगर दुश्मन से युद्ध की संभावना न भी हो तो भी राजाओं को इस दौरान अपनी सीमाओं का उल्लंघन अवश्य करना चाहिए. शास्त्रों के अनुसार एक बार जब राजा युधिष्ठिर ने इसके बारे में पूछा तो श्रीकृष्ण ने उन्हें इसका महत्व बताते हुए कहा कि विजयादशमी के दिन राजा को अपने सेवकों और हाथी-घोड़ों को सजाकर धूमधाम से मंगलाचार करना चाहिए.

राजा को अपने पुरोहित के साथ पूर्व दिशा में जाकर अपने राज्य की सीमा से बाहर जाकर वास्तु पूजा करनी चाहिए तथा आठ दिग्पालों और पार्थ देवता की पूजा करनी चाहिए. शत्रु की प्रतिमा या पुतला बनाकर उसकी छाती में बाण मारना चाहिए और पूजा इत्यादि के पश्चात सभी कार्य करने पर ही अपने स्थान में वापस लौट जाना चाहिए. इस प्रकार जो भी राजा हो या कोई भी व्यक्ति विजय पूजा करता है तो वह अपने शत्रु पर सदैव विजय प्राप्त करता है. इस कारण से इस दिन को मुहूर्त शास्त्र में बहुत खास माना गया है. आज भी किसी विजय प्राप्ति दुश्मन को परास्त करने के लिए इस दिन का चयन करना शुभता देने वाला होता है.

ज्योतिष अनुसार शनि देव होते हैं शांत
विजयादशमी के दिन शनि देव की शुभता एवं शांति के लिए शमी वृक्ष की पूजा को बहुत महत्व पूर्ण माना गया है. शनि देव को शमी से जोड़ा जाता है, इसके अलावा श्मंतक वृक्ष की पूजा भी इस दिन करना अनुकूल होता है.

शास्त्रों के अनुसार माता पार्वती भगवान शिव से शमी वृक्ष के महत्व के बारे में पूछती हैं, तब शिव उन्हें बताते हैं कि वनवास के दौरान अर्जुन ने अपने अस्त्र शमी वृक्ष से ही प्राप्त किए थे. अर्जुन शमी वृक्ष से अपना धनुष-बाण उठाते हैं तथा शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं. इस तरह शमी वृक्ष ने अर्जुन के शस्त्रों की रक्षा की थी.

रामायण काल की एक घटना भी शमी के पूजन को बताती है. श्री रामजी ने लंका पर आक्रमण करने से पहले शमी वृक्ष का पूजन किया था इसलिए विजय काल में शमी वृक्ष की पूजा का विशेष विधान है.

आर्थिक सुख समृद्धि प्राप्त होने का समय
इस दिन को धन लाभ प्राप्ति का भी समय माना जाता है जिस प्रकार शमी के पूजन से शनि देव शांत होते हैं उसी प्रकार अपराजिता का पूजन करने से धन की स्थिति अच्छी होती है. ज्योतिश अनुसार अपराजिता वृक्ष की पूजा करने के बाद इसके पत्तों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक दूसरे को दिया जाता है. इसका प्रभाव आर्थिक सुख समृद्धि को देने वाला होता है. इसकी पत्तियों को धन संपदा के रुप में देखा जाता है.

कानूनी मामलों में मिलती है विजय
विजयादशमी के दिन को कानूनी मामलों में विजय प्राप्ति के लिए उपयोग किया जाता है. ज्योतिष अनुसार अपराजिता पूजा के नाम से भी जाना जाता है. अपराजिता संपूर्ण ब्रह्मांड की शक्ति और ऊर्जा है, अपराजिता पूजन अपने नाम के अनुरूप ही है. यह भगवान विष्णु को प्रिय है और हर परिस्थिति में विजय प्रदान करती है. तंत्र शास्त्र में युद्ध या मुकदमे की स्थिति में यह पूजा बहुत कारगर होती है. शास्त्रों में इसका महत्व बताया गया है. दशहरे के दिन शस्त्रों की पूजा करके देवताओं की शक्ति का आह्वान किया जाता है, इस दिन हर व्यक्ति अपने जीवन में प्रतिदिन उपयोग में आने वाली वस्तुओं की पूजा करता है. यह पर्व क्षत्रियों का प्रमुख पर्व है, जिसमें वे अपराजिता देवी की पूजा करते हैं. इस पूजा से सभी सुख भी प्राप्त होते हैं.

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दुर्गा विसर्जन : दुर्गा पूजा से लेकर विदाई तक का समय

दुर्गा विसर्जन नवरात्रि के अंतिम दिन का प्रतीक है जिसे भक्त उत्साह के साथ मनाते हैं. देश भर के अलग अलग हिस्सों में इसे मनाते हुए देख अजा सकता है. अलग अलग स्थानों में अलग अलग रंग रुप लिए ये दिन विशेष महत्व रखता है. नवरात्रिनौ दिनों का पर्व दुर्गा विसर्जन के साथ ही समाप्त होता है. दुर्गा विसर्जन के बाद ही कई लोग अपने नवरात्रि व्रत खोलते हैं और इसके बाद ही विजयादशमी का पर्व मनाया जाता है. मान्यता है कि जहां एक ओर भगवान श्री राम ने रावण का वध किया था, वहीं दूसरी ओर मां दुर्गा ने इसी दिन महिषासुर नामक राक्षस का वध किया था अत: इन दो दिनों की विशेषता को अपने में समाए हुए यह दिन अपने आप में बहुत ही खास समय होता है. 

दुर्गा विसर्जन और शुभ मुहूर्त 

हमेशा ध्यान रखें कि दुर्गा विसर्जन कभी भी नवमी तिथि के दिन नहीं करना चाहिए. नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा के अलग-अलग स्वरूपों को समर्पित होते हैं. दशमी के दिन लोग दुर्गा विसर्जन करते हैं, जिससे नवरात्रि में मां की पूजा संपुर्ण मानी जाती है. इसलिए मां दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन हमेशा दसवें दिन यानी दशहरे के दिन ही करना चाहिए.

दुर्गा विसर्जन सुबह या दोपहर में तब शुरू किया जाता है जब विजय दशमी तिथि शुरू होती है, इसलिए जितना संभव हो सके, मां दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन सुबह या दोपहर में ही करना शुभ माना जाता है. वैसे तो कई जगहों पर सुबह के समय ही मां दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन कर दिया जाता है, लेकिन अगर श्रवण नक्षत्र और दशमी तिथि दोपहर में एक साथ बन रही हो, तो यह समय मां दुर्गा की मूर्ति के विसर्जन के लिए सबसे अच्छा होता है.

दुर्गा विसर्जन विधि से जुड़ी खास बातें 

दुर्गा विसर्जन का समय दशमी के दिन किया जाता है. दशमी के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करनी चाहिए और साफ कपड़े पहनने चाहिए, शुभ मुहूर्त में हाथ में फूल और कुछ चावल लेकर संकल्प लेना चाहिए. विसर्जन से पहले मां दुर्गा की पूजा करनी चाहिए और उनकी आरती करनी चाहिए. इसके बाद घाट यानी कलश पर रखे नारियल को घर में मौजूद सभी लोगों को प्रसाद के रूप में बांट्ना चाहिए और खुद भी ग्रहण करनी चाहिए. इसके बाद कलश के पवित्र जल को पूरे घर में छिड़कना चाहिए. घर के सभी सदस्यों को भी प्रसाद के रूप में ग्रहण करने के लिए देना चाहिए. इसके बाद आप कलश में रखे सिक्कों को अपनी धन रखने वाली जगह पर भी रख सकते हैं अथवा इसे जल में प्रवहित कर सकते हैं या किसी मंदिर में दान कर सकते हैं. इसके बाद पूजा स्थल पर रखी सुपारी को घर के लोगों में प्रसाद के रूप में बांटना चाहिए. 

घर के मंदिर में मां की चौकी के सिंहासन को वापस उसके स्थान पर रख कर मां को अर्पित किए गए श्रृंगार का सामान, साड़ी और आभूषण किसी महिला को दे सकते हैं. इसके बाद भगवान गणेश की मूर्ति को वापस घर के मंदिर में स्थापित करनी चाहिए. प्रसाद के रूप में लोगों को मिठाई और भोग बांटें. इसके बाद चौकी पर रखे चावल और घट के ढक्कन को पक्षियों को खिला देने चाहिए इसके बाद मां दुर्गा की तस्वीर या मूर्ति, कलश में बोए गए जौ और पूजन सामग्री को प्रणाम करनी चाहिए और भगवान से पूजा के दौरान अनजाने में हुई किसी भी गलती के लिए क्षमा मांगें और उन्हें अगले साल आने का निमंत्रण देना चाहिए और फिर सम्मानपूर्वक मां को नदी या तालाब में विसर्जित कर देना चाहिए. 

दुर्गा विसर्जन के लिए मंत्र

रूपं देहि यशो देहि भाग्यं भगवति देहि मे. पुत्रान् देहि धनं देहि सर्वान् कामांश्च देहि मे.. 

महिषघ्नि महामाये चामुण्डे मुण्डमालिनी. आयुरारोग्यमैश्वर्यं देहि देवि नमोस्तु ते..

गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठे स्वस्थानं परमेश्वरि. पूजाराधनकाले च पुनरागमनाय च.. 

दुर्गा विसर्जन से जुड़ी मान्यताएं 

दुर्गा विसर्जन के दिन सालों से कई स्थानों पर परंपराएं निभाई जाती रही हैं. इन्हीं परंपराओं में से एक है सिंदूर खेला की परंपरा. इस परंपरा के तहत विवाहित महिलाएं एक-दूसरे को सिंदूर लगाकर अपने पति की लंबी उम्र और मां दुर्गा की कृपा अपने जीवन पर बनी रहे, इसकी कामना करती हैं. इसके अलावा इस दिन महिलाएं एक-दूसरे को सिंदूर लगाकर बधाई देती हैं और अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं. बंगाली समाज में सिंदूर खेला की परंपरा सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है. मान्यता है कि मां दुर्गा साल में एक बार अपने मायके आती हैं और दस दिनों तक यहीं रहती हैं और इसे दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है. ऐसे में सिंदूर खेला से जुड़ी मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि इस दिन इस परंपरा से प्रसन्न होकर मां उन्हें अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद देती हैं और उनके लिए स्वर्ग का रास्ता भी खोलती हैं. 

दुर्गा विसर्जन पौराणिक कथा 

पौराणिक धर्म ग्रंथों के अनुसार जल को ब्रह्म माना गया है. जल को सृष्टि का आरंभ, मध्य और अंत भी माना जाता है. कहा जाता है कि यही कारण है कि त्रिदेव भी जल में निवास करते हैं, इसीलिए पूजा-पाठ में शुद्धिकरण के लिए भी जल का उपयोग किया जाता है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी-देवताओं की मूर्तियों को जल में विसर्जित करने के पीछे कारण यह है कि देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भले ही जल में विलीन हो जाती हैं, लेकिन उनकी आत्माएँ सीधे परम ब्रह्म में समा जाती हैं. इसी महत्व और मान्यता के कारण दुर्गा विसर्जन में माँ दुर्गा की प्रतिमाओं को विसर्जित करते हैं.

दुर्गा विसर्जन के बाद विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है

दुर्गा मूर्ति के विसर्जन के बाद कई लोग अपना व्रत खोलते हैं. इसके बाद यानी दुर्गा विसर्जन के बाद दशहरा का पावन त्यौहार शुरू होता है, जिसे पूरे भारत में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. कहा जाता है कि इसी दिन भगवान श्री राम ने अहंकारी रावण का वध किया था. साथ ही यह वही दिन है जिस दिन मां दुर्गा ने महिषासुर का वध भी किया था. विजयादशमी के दिन शमी वृक्ष की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है.

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दर्श अमावस्या क्यों मनाई जाती है?

हर माह आने वाली अमावस्या को दर्श अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है. प्रत्येक माह आने वाले कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को दर्श अमावस्या के नाम से जाना जाता है. मान्यता है कि इस अमावस्या पर पितरों का पूजन करना शुभफल प्रदान करता है. हिंदू धर्म में दर्श अमावस्या को विशेष महत्व दिया जाता है, तो आइए आपको दर्श अमावस्या व्रत की विधि और महत्व के बारे में बताते हैं.

अमावस्या पर स्नान दान तर्पण से जुड़े कार्यों को करना विशेष माना गया है. इसके साथ ही इस दिन धर्म स्थलों में स्नान और दान करने से अक्षय फलों की प्राप्ति होती है. इस दिन चंद्र देव की विशेष पूजा की जाती है. ज्योतिष के अनुसार चंद्रमा मन का कारक ग्रह है. शास्त्रों के अनुसार इस दिन चंद्रमा का पूजन, व्रत अनुष्ठान करने से चंद्र देव प्रसन्न होते हैं और शुभ प्रभाव मिलते हैं. मानसिक संतोष प्रबल होता है. साथ ही जीवन में सुख-समृद्धि बनी रहती है. इसके अलावा इस दिन लोग गंगा या किसी पवित्र नदी में स्नान भी करते हैं.

दर्श अमावस्‍या और विशेष फल 

पंचांग अनुसार दर्श अमावस्‍या का बड़ा महत्‍व है. इस द‍िन चंद्रमा की रोशनी व‍िलुप्‍त रहती है, हिंदू शास्‍त्रों के मुताबि‍क दर्शा अमावस्या पर चांद पूरी रात गायब रहता है. कहते हैं क‍ि सुख समृद्धि परिवार के उद्धार की कामना के ल‍िए यह द‍िन बहुत खास होता है. इस दिन पूर्वजों की पूजा करना भी शुभ माना जाता और चन्द्र दर्शन करना जरूरी होता है. चंद्रमा को देखने के बाद उपवास आद‍ि रखने का भी व‍िध‍ान है. कहा जाता है क‍ि जो लोग इस द‍िन सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं. चंद्र देव उनकी प्रार्थना जरूर सुनते हैं. वह अपने भक्‍तों की हर मुराद को पूरी करते हैं. 

दर्श अमावस्या के दिन चंद्रमा का पूजन 

ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को मानसिक संतोष का आधार कहा गया है अगर कुंडली में चंद्रमा कमजोर हो तो किसी भी प्रकार की संतुष्टि मिल पाना मुश्किल होता है. इस कारण से दर्श अमावस्या के दिन चंद्रमा के पूजन की महत्ता को दर्शाया गया है. दर्श अमावस्या के द‍िन पूजा करते हैं, उन्हें चंद्र देव की कृपा दृष्टि म‍िलती है. इसके अलावा उन्‍हें अपने जीवन में अच्छे भाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है. भगवान चंद्र देव की पूजा करने से जीवन में ज‍िन कामों में अटकले लग रही होती हैं वे समाप्‍त हो जाती हैं. 

इसके अलावा इस द‍िन चंद्र दर्शन और उपवास करने वाले लोग आध्यात्मिक संवेदनशीलता प्राप्त कर सकते हैं. मान्‍यता है क‍ि भगवान चंद्र देव की पूजा करने से मन को शीतलता और शांति का अहसास होता है. जीवन में संघर्ष अध‍िक होता है तब चंद्र देव आत्म विश्वास को बढ़ाते हैं और अनेक मार्गों को आसान बनाते हैं. जो लोग अपने जीवन में आध्यात्मिक लक्ष्य तय करना चाह‍ते हैं तो चंद्र देव की पूजा विशेष फलदायी होता है. ऐसे में अगर इस द‍िन उपवास रखकर चंद्र देव के दर्शन करते हैं तो उनकी इच्‍छा पूरी होती है. शास्‍त्रों में कहा गया है क‍ि चंद्रमा के देवता चंद्र देव हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण नवग्रहों में से हैं. इतना ही नहीं चंद्र देव भावनाओं और दिव्य अनुग्रह के स्वामी है. चंद्र देव को मन का कारक माना जाता है.  

दर्श अमावस्या का आध्यात्मिक महत्व

अमावस्या या अमावसी को वह दिन माना जाता है, जब चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता. हम यह भी कह सकते हैं कि हिंदू परंपरा में चंद्र पंचांग के अनुसार, अमावस्या की रात को चंद्रमा दिखाई नहीं देता. चंद्र मास की पहली तिमाही में इसे पहली रात कहा जाता है. शास्त्रों के अनुसार अमावस्या के दिन मांगलिक कार्यों को नहीं किया जाता है लेकिन धर्म कर्म से जुड़े कामों को करना शुभ होता है. 

ज्योतिष में चंद्रमा और महत्वपूर्ण ग्रह दिखाई नहीं देते हैं. इसलिए, इस दिन कोई नया कामकाज या महत्वपूर्ण समारोह आयोजित नहीं किया जाना चाहिए. अमावस्या शब्द का इस्तेमाल भारत के अधिकांश हिस्सों में आम तौर पर किया जाता है. लेकिन इसे अलग-अलग राज्यों और अलग-अलग महीनों में अलग-अलग नामों से भी पुकारा जाता है. 

चंद्रदेव को सबसे महत्वपूर्ण नवग्रह माना जाता है. उन्हें भावनाओं का स्वामी और जल तत्व को दर्शाता है जीवन की शक्ति को दिखाता है. जो व्यक्ति इस शुभ दिन पर चंद्र देव की पूजा करते हैं, उन्हें अपने जीवन में सौभाग्य और समृद्धि मिलती है. इससे जीवन में परेशानियां कम होती हैं. इस दिन चंद्रमा की पूजा करने से व्यक्ति को आध्यात्मिक संवेदनशीलता प्राप्त करने में मदद मिलती है. 

अमावस्या का दिन ज्ञान, पवित्रता और शुभ भावनाओं से जुड़ा हुआ है. पितरों की पूजा करने के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है. मोक्ष प्राप्त करने के साथ-साथ अच्छे भाग्य की कामना के लिए इस दिन कई तरह की पूजा की जाती है. दर्शन अमावस्या का व्रत अमावस्या की सुबह से शुरू होता है और अगले दिन चंद्र दर्शन के बाद ही समाप्त होता है. इस दिन पितरों के लिए किया गया श्राद्ध पापों और पितृ दोष को दूर करता है और परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य और खुशी के लिए पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. 

दर्श अमावस्या के दिन किए जाने वाले कार्य 

दर्श अमावस्या के दिन इस दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करना चाहिए, इस दिन पवित्र नदी या तालाब में स्नान करना भी बहुत शुभ होता है. स्नान करने के बाद तांबे के बर्तन में सूर्य देव को जल चढ़ाना चाहिए. पीपल या बरगद के पेड़ पर जल और दूध चढ़ाना चाहिए और इसके बाद पेड़ पर चीनी, चावल और फूल चढ़ाने चाहिए तेल का दीपक जलाना चाहिए. ॐ पितृभ्य: नमः मंत्र का जाप करना चाहिए. शाम के समय सरसों के तेल का दीपक जलाना चाहिए.

गरीबों और जरूरतमंदों को दान देना चाहिए. इस दिन गाय, कुत्ते, कौवे और चींटियों को भोजन कराना चाहिए.चंद्र देव की पूजा करनी चाहिए. घी का दीपक जलाकर और कपूर जलाकर चंद्र देव को सफेद फूल, चंदन, साबुत चावल और इत्र चढ़ाना चाहिए. चंद्र देव की पूजा के साथ-साथ भगवान शिव की पूजा भी करनी चाहिए. दर्श अमावस्या को पितृ पक्ष का अंतिम दिन माना जाता है. इस दिन पितरों का श्राद्ध करने से पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है.

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क्यों की जाती है संधि पूजा ? जानें संधि पूजा महत्व

संधि पूजा देवी दुर्गा के निमित्त किया जाने वाला विशेष अनुष्ठान होता है. इसे विशेष रुप से नवरात्रि के दौरान किया जाता है. शास्त्रों के अनुसार भगवान श्री राम जी द्वारा किया गया था संधि पूजन.
संधि पूजा द्वारा देवी का आशीर्वाद प्राप्त होता है. जिसके प्रभाव से भक्तों के समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं. इस समय के दौरान देवी को विभिन्न तरीकों से अनुष्ठान भी किए जाते हैं. भक्ति के साथ किया गया संधि पूजन समस्त प्रकार के कल्याण को प्रदान किया.

संधि पूजा कब होता है
नवरात्रि पर्व के दौरान संधि पूजा का विशेष महत्व है और संधि पूजा इस समय की जाती है जब अष्टमी तिथि समाप्त होती है और नवमी तिथि शुरू होती है. शास्त्रों की मान्यताओं के अनुसार, इसी मुहूर्त में देवी चामुंडा चंड और मुंड नामक राक्षसों का वध करने के लिए प्रकट हुई थीं. संधि पूजा दो घटी यानी करीब 48 मिनट तक चलती है. संधि पूजा का मुहूर्त दिन में कभी भी पड़ सकता है और संधि पूजा उसी समय की जाती है. संधि पूजा अष्टमी के अंत और नवमी की शुरुआत में की जाती है. इस दिन भक्त देवी चामुंडा के रूप की पूजा करते हैं.

संधि पूजा कथा
संधि पूजा से संबंधित कई आख्यान मौजूद है जिसमें पौराणिक कथाओं और मान्यताओं के अनुसार, देवी ने संधि काल के दौरान चंड और मुंड नामक राक्षसों का वध किया था. संधि पूजा दुर्गा पूजा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. यह त्योहार आमतौर पर पश्चिम बंगाल में मनाया जाता है. संधि पूजा अष्टमी के अंत और नवमी की शुरुआत में की जाती है. इस दिन भक्त देवी चामुंडा के रूप की पूजा करते हैं. पौराणिक कथाओं और मान्यताओं के अनुसार, देवी ने संधि काल के दौरान चंड और मुंड नामक राक्षसों का वध किया था. तभी से देवी के भक्त इसे त्यौहार के रूप में मनाने लगे.

संधि पूजा विधान
संधि पूजा बहुत धूमधाम और भव्यता के साथ की जाती है.संधि पूजा के दिन मां दुर्गा के सामने 108 दीये जलाए जाते हैं. इस दिन मां दुर्गा को 108 कमल के फूल, 108 बिल्व पत्र, आभूषण, पारंपरिक वस्त्र, गुड़हल के फूल, कच्चे चावल और अनाज, एक लाल रंग का फल और माला चढ़ाई जाती है. संधि पूजा मंत्र का जाप करते हुए मां दुर्गा को सभी चीजें चढ़ाई जाती हैं. संधि पूजा के दिन मां दुर्गा के सामने कुम्हडा़ और खीरे की बलि भी देते हैं. इसके बाद मां दुर्गा के मंत्रों का जाप किया जाता है और उनकी आरती की जाती है. संधि पूजा सभी जगहों पर अलग-अलग तरीके से की जाती है.

संधि पूजा करते समय हमेशा ध्यान रखें कि यह पूजा तभी शुरू होनी चाहिए जब संधिक्षण शुरू हो. संधि पूजा का शुभ समय किसी भी स्थिति में और किसी भी समय आ सकता है. और यह पूजा उसी समय ही की जानी चाहिए. कई जगहों पर संधि पूजा पर बड़े-बड़े पंडाल सजाए जाते हैं और ढोल-नगाड़ों के साथ मां दुर्गा की पूजा की जाती है. संधि पूजा को बहुत ही पूजनीय त्योहार माना जाता है क्योंकि यह त्योहार बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है.

संधि पूजा महत्व
हिंदू धर्म में संधि पूजा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. संधि पूजा नवरात्रि पर्व के दौरान मनाई जाती है. यह पूजा एक विशेष समय पर की जाती है, यानी संधि पूजा उस समय की जाती है जब अष्टमी तिथि समाप्त होती है और नवमी तिथि शुरू होती है. अष्टमी तिथि के अंत के दौरान अंतिम 24 मिनट और नवमी तिथि के दौरान पहले 24 मिनट मिलकर संधिक्षण बनाते हैं, यानी यही वह समय है जब मां दुर्गा ने देवी चामुंडा का अवतार लिया और चंड और मुंड नामक राक्षसों का वध किया.

संधि पूजा कब मनाई जाती है- हिंदू कैलेंडर के अनुसार चैत्र नवरात्रि संधि पूजा चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाती है और शरद नवरात्रि संधि पूजा आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाती है. संधि पूजा क्यों मनाई जाती है मान्यताओं के अनुसार संधि पूजा का विशेष महत्व है. हिंदू पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि जब मां दुर्गा राक्षस महिषासुर से युद्ध कर रही थीं, तब महिषासुर के सहयोगी चंड और मुंड ने मां दुर्गा पर पीछे से हमला किया, पीछे से किए गए हमले के कारण मां दुर्गा को बहुत गुस्सा आया और गुस्से के कारण उनके चेहरे का रंग नीला पड़ गया.

तब देवी ने क्रोधित होकर अपनी तीसरी आंख खोली और चामुंडा अवतार लिया. मां दुर्गा ने चामुंडा अवतार लिया और दोनों दुष्ट राक्षसों का वध किया. तब से, इस दिन मां दुर्गा के उग्र अवतार चामुंडा के रूप में संधि पूजा की जाती है.

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शिव वास और इसके नियम

शिव वास अपने नाम के अनुरुप भगवान शिव के निवास स्थान की स्थिति को बताता है. शिव वास की स्थिति को जानकर भगवान शिव के रुद्राभिषेक को करना शुभफल देने वाला होता है. शिव वास के नियमों के द्वारा जान सकते हैं कि अनुष्ठान के समय भगवान शिव कहां निवास कर रहे हैं क्योंकि जब उनके निवास के समय की स्थिति अनुकूल होती है तभी शुभ फल प्राप्त होते हैं. शिव वास से ही सुनिश्चित होता है कि किया जाने वाले पूजन, अभिषेक, अनुष्ठान शुभ होगा या अशुभ. इसके अलावा किस समय शिव वास पर विचार जरूरी नहीं होता है.आइए जानते हैं शिव वास की गणना नियम, लाभ और विशेष विचार महत्व है.

शिव वास क्या है?
शिव वास का अर्थ है भगवान शिव का निवास स्थान यानी किसी तिथि विशेष पर भगवान शिव कहां स्थित हैं. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार शिव पूजा, रुद्राभिषेक, महामृत्युंजय मंत्र का जाप या किसी विशेष कार्य के लिए किए जाने वाले अनुष्ठान से पहले शिव वास विचार जरूरी होता है. भगवान शिव पूरे महीने में अलग-अलग स्थानों पर निवास करते हैं. इसी के आधार पर यह पता चलता है कि भगवान इस समय क्या कर रहे हैं और उनकी पूजा करने के लिए यह समय उचित है या नहीं.

भगवान शिव के निवास स्थान को जानने के लिए शिव वास नियम के बारे में ध्यान देने की जरुरत होती है. शास्त्रों में इसका का पता लगाने के लिए महर्षि नारद ने शिव वास की गणना के लिए शिव वास सूत्र की रचना की थी. इसके अनुसार शिव वास जानने के लिए सबसे पहले तिथि पर ध्यान दें, शुक्ल पक्ष में प्रथम तिथि से पूर्णिमा तक की तिथि को 1 से 15 का मान दें और कृष्ण पक्ष में प्रतिपदा से अमावस्या तक की तिथि को 16 से 30 का मान दें. इसके बाद जिस तिथि को शिव वास देखना है, उसे दो से गुणा करें, फिर गुणनफल में 5 जोड़ें और अंत में 7 से भाग दें. बचा हुआ परिणाम आपको शिव वास के बारे में बताएगा. इस सूत्र का विचार कु8छ इस प्रकार है:

तिथिं च द्विगुणि कृत्वा पुन: पंच समन्वितम्.
सप्तभिष्ठुरेद्भागं शेषं शिव वास उच्यते.
एके कैलाश वासंधितिये गौरीनिधौ.
तृतीया वृषभारूढ़ा चतुर्थे च सभा स्थित.
पंचमे भोजने चैव क्रीड़ायनतुसआत्मके
शून्येश्माशंके चैव शिववास वास संचययोजयते.

शिव के निवास का फल

अगर शेष एक आए तो शिव कैलाश में निवास करेंगे और इस समय पूजा का फल शुभ होगा.
अगर शेष दो आए तो शिव गौरी पार्श्व में निवास करेंगे और इसका फल सुख और धन होगा.
अगर शेष तीन आए तो शिव वृषारूढ़ में निवास करेंगे और इसका फल मनोवांछित सफलता, लक्ष्मी प्राप्ति होगी.
अगर शेष चार आए तो शिव सभा में निवास करेंगे और इसका फल दुख देता है.
अगर शेष पांच आए तो शिव भोजन पर निवास करेंगे और इसका फल भक्त के लिए कष्टकारी हो सकता है.
अगर शेष छह आता है तो शिव खेल रहे होंगे और इससे कष्ट हो सकता है.
अगर संतुलन शून्य हो तो श्मशान में शिव का वास होगा और मृत्यु हो सकती है.

शिव वास गणना नियम?
शिव वास गणना नियम के अनुसार शुक्ल पक्ष की द्वितीया, पंचमी, षष्ठी, नवमी, द्वादशी और त्रयोदशी तिथियां तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, चतुर्थी, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, द्वादशी तिथियां शुभ रहती हैं. इन तिथियों पर किए गए अनुष्ठान फलदायी सिद्ध होते हैं. साथ ही निस्वार्थ पूजा, महाशिवरात्रि, श्रावण मास, तीर्थ स्थानों या ज्योतिर्लिंगों में शिव के दर्शन करना आवश्यक नहीं है.

रुद्राभिषेक मुहूर्त शिववास तिथि और उसका प्रभाव
कुछ तिथियां शिववास मुहूर्त के अनुसार लिखी गई हैं. मासिक शिवरात्रि भी शुक्ल पक्ष त्रयोदशी को होती है जिसे प्रदोष व्रत कहते हैं और इसमें रुद्राभिषेक का विधान माना गया है. त्रयोदशी तिथि भगवान शिव को समर्पित है. महाशिवरात्रि और श्रावण मास में तिथि या मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए पूरे समय में रुद्राभिषेक किया जा सकता है.

तिथि शिववास फल तिथि शिववास प्रभाव
प्रथमा शमशान मृत्युतुल्य प्रथमा गौरी सानिध्य सुखप्रद
द्वितीया गौरी सानिध्य सुखप्रद द्वितीया सभायां संताप
तृतीया सभायां संताप तृतीया क्रीडायां कष्ट एवं दुःख
चतुर्थी क्रीडायां कष्ट एवं दुःख चतुर्थी कैलाश पर सुखप्रद
पंचमी कैलाश पर सुखप्रद पंचमी वृषारूढ अभीष्टसिद्धि
षष्ठी वृषारूढ अभीष्टसिद्धि षष्ठी भोजन पीड़ा
सप्तमी भोजन पीड़ा सप्तमी शमशान मृत्युतुल्य
अष्टमी शमशान मृत्युतुल्य अष्टमी गौरी सानिध्य सुखप्रद
नवमी गौरी सानिध्य सुखप्रद नवमी सभायां संताप
दशमी सभायां संताप दशमी क्रीडायां कष्ट एवं दुःख
एकादशी क्रीडायां कष्ट एवं दुःख एकादशी कैलाश पर सुखप्रद
द्वादशी कैलाश पर सुखप्रद द्वादशी वृषारूढ अभीष्टसिद्धि
त्रयोदशी वृषारूढ अभीष्टसिद्धि त्रयोदशी भोजन पीड़ा
चतुर्दशी भोजन पीड़ा चतुर्दशी शमशान मृत्युतुल्य
पूर्णिमा शमशान मृत्युतुल्य अमावस्या गौरी सानिध्य सुखप्रद

कैलाश लभते सौख्यं गौर्य च सुख संपदाः. वृषभेऽभिष्ठ सिद्धिः स्यात् सभयं सन्तपकारिणी.
भोजने च भवेत् पीड़ा कृपायां कष्टमेव च. श्मशान मृत्यु है, ज्ञान फल है और विचार हैं.

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ग्रह वक्री कब होते हैं और सूर्य चंद्रमा वक्री क्यों नहीं होते हैं ?

ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति जैसी भी हो उसका असर बहुत गहरा होता है. वक्री ग्रहों की बात की जाए तो बुध, मंगल, शुक्र, शनि, गुरु वक्री होते हैं और राहु केतु सदैव वक्री ही माने गए हैं हां ये मार्गी हो सकते हैं लेकिन इनकी प्रकृत्ति में वक्री का प्रभाव ही मूल रुप से मिलता है. वक्री ग्रहों की भूमिका में जब बात आती है सूर्य और चंद्रमा की तो ये कभी वक्री नही होते हैं बल्कि सूर्य के माध्यम से ही अन्य ग्रह वक्री होते हैं.

कौन से ग्रह मार्गी रहते हैं और कौन होते हैं वक्री
नौ प्रमुख ग्रह हैं जिन्हें फलित ज्योतिष के लिए माना जाता है. इन ग्रहों में सूर्य, चंद्र, बुध, मंगल, गुरु, शुक्र, शनि और राहु और केतु हैं सूर्य और चंद्र वैदिक ज्योतिष में प्रकाशमान ग्रह हैं और वे कभी वक्री या प्रतिगामी नहीं होते हैं. सूर्य और चंद्रमा ज्योतिष के मूल स्तंभ हैं और इन्हीं के द्वारा भविष्यवाणियों को आधार मिलता है, यही कारण है कि पंचांग सूर्य और चंद्र पर आधारित हैं.
अन्य ग्रह बुध और शुक्र, मंगल, गुरु और शनि वक्री या प्रतिगामी होते हैं. राहु और केतु सामान्य रूप से हमेशा वक्री या प्रतिगामी होते हैं, लेकिन मीन स्थिति में राहु और केतु को हमेशा वक्री माना जाता है और सच्चा(ट्रू) राहु और केतु मार्गी या सीधा भी हो जाता है.

रेट्रो या वक्री क्या है ?
वक्री का अर्थ है एक ग्रह जो पीछे की ओर बढ़ता हुआ प्रतीत होता है. ग्रह की स्थिति में कुछ वक्रता आ जाए. ग्रह पीछे की ओर जा रहा है जिसे कुंडली, गोचर में आसानी से देख सकते हैं. ग्रह वक्री होकर पीछे की ओर चलना शुरू कर देता है लेकिन वास्तव में ऎसा होता है नहीं किंतु यह स्थिति इस प्रकार प्रतीत होती है जिसमें ग्रह पीछे की ओर चलता दिखाई देता है.उदाहरण के रुप में मान लीजिए हम कार चला रहे हैं और हम दूसरी कार को ओवरटेक करते हैं तो ऐसा लगता है कि दूसरी कार पीछे की ओर जा रही है या जब हम ट्रेन में यात्रा करते हैं तो खिड़की से बाहर देखने पर सभी पेड़ बहुत तेज़ गति से पीछे की ओर जाते हुए प्रतीत होते हैं. इसी तरह जब पृथ्वी किसी ग्रह के पास से गुजरती है तो ग्रह पीछे की ओर जाता हुआ प्रतीत होता है और इसे वक्री या प्रतिगामी ग्रह कहते हैं. सभी ग्रह अपनी कक्षाओं में चक्कर लगा रहे हैं और इसलिए जब कोई ग्रह पृथ्वी के बहुत करीब होता है और गुजरता है तो ऐसा लगता है कि वह पीछे की ओर जा रहा है.

कोई बाहरी ग्रह सूर्य से कहाँ वक्री हो सकता है इसलिए कोई ग्रह वक्री हो भी सकता है और नहीं भी, अगर वह सूर्य से पंचम या नवम स्थान पर स्थित है, लेकिन कोई ग्रह 100% वक्री होता है, जब वह सूर्य से 6वें, 7वें या 8वें स्थान पर होता है. जब सभी ग्रह सूर्य के साथ होते हैं, तो वे सूर्य द्वारा अस्त हो जाते हैं. लेकिन अधिक दूरी से, सूर्य से 5वें और 9वें ग्रह के लिए यह देखा जा सकता है कि अगर वह सूर्य से 5वें स्थान पर है, तो वह पहले 15 डिग्री में वक्री नहीं हो सकता है और अगर वह सूर्य से 9वें स्थान पर है, तो वह अंतिम 15 डिग्री में वक्री नहीं हो सकता है. इसे और बेहतर तरीके से समझने पर, वक्री ग्रह की गति 3 प्रकार की होती है, जैसे,

स्थिर, वक्री, अनु वक्री

जब कोई बाहरी ग्रह सूर्य से पांचवें स्थान पर होता है तो वह कुटिला या स्थिर होता है, जब कोई ग्रह सूर्य से छठे स्थान पर होता है तो वह गति या अनु वक्री प्राप्त करना शुरू कर देता है, जब कोई ग्रह सूर्य के ठीक विपरीत या सूर्य से सातवें स्थान पर होता है तो वह ग्रह की अधिकतम गति होती है और फिर जब वह सूर्य से आठवें स्थान पर होता है तो ग्रह की गति धीमी होने लगती है और फिर सूर्य से नवें स्थान पर फिर से स्थिर हो जाता है इसलिए वास्तव में वक्री बाहरी ग्रह जो सूर्य के ठीक विपरीत है, उसमें सबसे अधिक चेष्टा बल होता है. सूर्य के ठीक विपरीत ग्रह कुंडली के आधार पर अच्छे या बुरे पूर्ण परिणाम देगा.

शुभ ग्रह वक्री ग्रह अधिक शुभ हो जाते हैं और अशुभ ग्रह अधिक अशुभ हो जाते हैं. इसलिए अगर छठे, आठवें, बारहवें स्वामी वक्री होने पर अधिक खतरनाक हो सकते हैं.

शुक्र और बुध ग्रह कब होते हैं वक्री
आंतरिक ग्रह अर्थात बुध और शुक्र ग्रह कैसे वक्री बनते हैं. आंतरिक ग्रह सूर्य से दो भाव से अधिक दूर नहीं जा सकते इनमें बुध एक भाव और शुक्र दो भाव इसका मतलब है कि वे सूर्य के साथ वक्री हो सकते हैं और सूर्य से एक या दो भाव दूर भी हो सकते हैं. इसके अलावा बुध और शुक्र दोनों अस्त और वक्री भी हो सकते हैं और केवल वक्री भी हो सकते हैं. इसलिए इन बिंदुओं पर भी भविष्यवाणी करते समय या परिणाम देने वाली शक्ति की जांच करते समय विचार किया जाना चाहिए.

सारावली अनुसार अग्र कोई शुभ ग्रह वक्री है, तो उसे बलवान माना जाता है. उसके प्रभाव से राज्य लाभ देने में सक्षम होता है, लेकिन अगर कोई अशुभ ग्रह वक्री है, तो वह अधिक अशुभ परिणाम देता है.

फलदीपिका अनुसार अगर कोई ग्रह वक्री है, तो वह बलवान हो जाता है, भले ही वह नीच राशि, नीच नवमांश, शत्रु राशि या शत्रु नवमांश में हो, इसलिए उसे बलवान माना जाता है. इसके अलावा अन्य ग्रंथ अनुसार कोई वक्री ग्रह छठे, आठवें, बारहवें भाव में हो और उस पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो, तो उसे अच्छा नहीं माना जाता है.

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अमावस्या योग ज्योतिष के नजरिये से शुभ अशुभ प्रभाव

ज्योतिष अनुसार किसी भी राशि में सूर्य और चंद्रमा की युति का अंशात्मक रुप से करीब होना अमावस्या तिथि और अमावस्या योग कहा जाता है. धर्म शास्त्रों और ज्योतिष शास्त्र अनुसार अमावस्या का महत्व बहुत ही विशेष रहा है. अमावस्या का योग एवं अमावस्या तिथि का प्रभाव पितरों से संबंधित होता है. इसका प्रभाव इतना प्रबल होता हैं कि इस समय किए जाने वाले कुछ विशेष कामों को अनुकूलता प्रदान करने वाला माना गया है. अमावस्या को पितृ पक्ष के लिए खास माना गया है क्योंकि इस स्थिति का स्वामित्व पितरों को ही प्राप्त होता है. 

ज्योतिष में अमावस्या योग कैसे बनता है ? 

ज्योतिष के अनुसार अमावस्या का योग तब बनता है जब जिस दिन सूर्य और चन्द्र दोनों समान अंशों पर होते है. इस समय को अमावस्या कहा जाता है. 

अमावस्या योग के शुभ प्रभाव 

अमावस्या योग का प्रभाव कुछ ऎसी विशेषताओं को देता है जिसके कारण कई चीजों की प्राप्ति होती है. इस योग के प्रभाव से व्यक्ति अपने पूर्वजों का आशीर्वाद पाता है. व्यक्ति अनेक विचारों पर तर्क देने में सक्षम होता है. व्यक्ति को विज्ञान एवं दर्शन के विषयों का अच्छा ज्ञान होता है. 

अमावस्या योग के नकारात्मक प्रभाव 

ज्योतिष शास्त्र में जन्म कुंडली में इस अमावस्या योग के होने से व्यक्ति को कई शारीरिक और मानसिक संघर्षों का सामना करना पड़ सकता है. अमावस्या योग के चलते कुछ परेशानियां भी देखने को मिल सकती हैं. रिश्ते अस्थिर या अल्पकालिक हो सकते हैं. अपने लोगों के साथ संचार संबंधी समस्याएं हो सकती हैं, जिससे गलतफहमी और संघर्ष हो सकता है. दूसरों पर लोगों को विश्वास संबंधी समस्याएं हो सकती हैं, जिससे स्वस्थ संबंध बनाना मुश्किल हो सकता है. अधिकार जताने की प्रवृत्ति के हो सकते हैं, जो नुकसान पहुंचा सकता है.

कुंडली में ग्रहों का योग जीवन की दशा और दिशा तय करता है. जब जन्म कुंडली के किसी भी भाव में दो ग्रह एक साथ बैठते हैं तो वे एक या दूसरी ज्योतिषीय युति बनाते हैं, जो शुभ भी होती है और अशुभ भी. अगर कुंडली में शुभ ग्रहों की युति हो तो शुभ योग बनता है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति का जीवन खुशियों से भर जाता है, लेकिन अगर अशुभ ग्रहों के कारण योग बन रहा हो तो व्यक्ति का जीवन संघर्ष और परेशानियों से भरा हो जाता है. इस तरह अगर किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में शनि और चंद्रमा एक साथ किसी भी स्थान पर आ जाएं तो विष योग बनता है. इन ग्रहों की परस्पर स्थिति होने पर इसके दुष्प्रभाव अधिक होते हैं. विष योग के बारे में अधिक जानने के लिए ज्योतिषियों से बात करें.

अमावस्या लिए उपाय

अमावस्या के किसी भी प्रकार के नकारात्मक पक्ष से बचाव के लिए यदि ज्योतिषी एवं शास्त्रिय उपाय करता है तो इसके अनुकूल फल मिलते हैं. अमावस्या के लिए कुछ उपाय का पालन करने से नकारात्मक प्रभावों को कम करने में मदद मिलेगी और व्यक्तियों को लाभकारी और अनुकूल परिणाम भी मिलेंगे. आइए इन पर एक नज़र डालते हैं. ये उपाय और समाधान इस प्रकार हैं:

अमावस्या चंद्रमा पूजा और मंत्र जाप

अमावस्या के दिन चंद्रमा का पूजन विशेष माना गया है. अमावस्या के दिन चंद्रमा की पूजा में चंद्रमा को जल अर्पित करना, चंद्रमा की कथा श्रवण करना, चंद्रमा के मंत्र जाप करना, प्रत्येक अमावस्या एवं पूर्णिमा के समय चंद्रमा की पूजा करना हमेशा से मददगार रहते हैं. गायत्री मंत्र का प्रतिदिन जाप करना बहुत उपयोगी हो सकता है. इसके अलावा, नवग्रह शांति पूजा रखने से शांति बनी रहती है. 

माता पिता का पूजन 

अमावस्या योग के नकारात्मक प्रभावों से मुक्ति के लिए आवश्यक है माता-पिता का पूजन नमक, किया जाए. ज्योतिष में चंद्रमा माता का ग्रह है और सूर्य पिता का कारक ग्रह है ऎसे में अमावस्या के अशुभ प्रभाव माता-पिता की सेवा द्वारा अनुकूल होते हैं.  

अमावस्या पर पितरों को प्रसन्न करना

अमावस्या पर श्राद्ध करना और पितरों को प्रसन्न करना अमावस्या पर जन्मे बच्चों के लिए सबसे अच्छा उपाय है. इसके अलावा, अपने पितरों को तृप्त करना और उनका आशीर्वाद लेना भी बहुत महत्वपूर्ण है.

तुलसी की पूजा और उन्हें प्रसन्न करना

तुलसी के पौधे की पूजा करें और अमावस्या की रात को तुलसी के पत्ते न तोड़ें. इसके पत्ते तोड़ना बहुत अशुभ होता है और इसे किसी भी कीमत पर नहीं तोड़ना चाहिए.

अमावस्या दान और उपवास 

हिंदू धर्म में, दान, स्नान और व्रत के माध्यम से कई तरह के नकारात्मक तत्वों से बचाव संभव माना गया है. इन सभी को ग्रहों को मजबूत करने और किसी व्यक्ति के जीवन में किसी भी दोष या तिथि के नकारात्मक प्रभावों को कम करने का एक बहुत ही प्रभावी तरीका माना जाता है. अमावस्या योग के नकारात्मक फलों को कम करने के लिए          दूध, चावल, तिल, गुड़ और मिष्ठान जैसी चीजें दान करनी चाहिए. इसके अलावा अमावस्या समय पर उपवास करते हुए लाभ प्राप्ति होती है.

अमावस्या पर शनि देव की पूजा

शनि देव का जन्म अमावस्या तिथि के दिन ही हुआ माना गया है. शनि देव कर्मों को शुद्धि देते हैं. अमावस्या तिथि के कारण व्यक्ति के जीवन में आने वाले नकारात्मक प्रभावों को कम करने और उनसे छुटकारा पाने में मदद कर सकते हैं शनि देव की पूजा करनी बहुत अच्छी मानी जाती है.

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पितृ आरती और पितर चालिसा : पितर देवों की आरती से प्रसन्न होंगे समस्त पितृ

पितरों का पूजन वंश को समृद्धि और वंश वृद्धि देने वाला मार्ग होता है. पितरों का पूजन अमावस्या तिथि एवं आश्विन माह के कृष्ण पक्ष के दोरान श्राद्ध पक्ष में किया जाता है. पितरों को मनाने के लिए कई तरह के धार्मिक कार्यों को किया जाता है. पितरों हेतु तर्पण एवं पूजा अनुष्ठान कार्यों से पितर शांत होते हैं. 

पितृ पूजा लाभ महत्व 

पितृ पक्ष हर महीने की अमावस्या से और साल में आश्विन महीने की प्रतिपदा से अमावस्या तक मनाया जाता है, इस दौरान पितरों को तर्पण किया जाता है. इसके साथ ही श्राद्ध कर्म भी किया जाता है. इसके अलावा इसी के साथ पूर्णिमा और अमावस्या तिथि पर पितरों की पूजा भी की जाती है. धार्मिक मान्यता है कि विशेष तिथियों पर पितरों की पूजा करने से पितर प्रसन्न होते हैं. उनके आशीर्वाद से घर में सुख, शांति, समृद्धि और खुशहाली आती है.

सभी बिगड़े हुए काम बनने लगते हैं जब पूर्वज प्रसन्न होते हैं तो धन लाभ के योग बनते हैं. साथ ही धन प्राप्ति के साथ भाग्य में भी वृद्धि होती है, पितरों का आशीर्वाद वंश वृद्धि का सुख देता है, वैवाहिक जीवन का सुख प्राप्त होता है. अगर पितर आपसे खुश हैं तो घर में सुख, समृद्धि और खुशहाली आएगी. करियर और बिजनेस में अपनी इच्छा के अनुसार सफलता प्राप्त होती है. पितरों की पूजा एवं उनके आशीर्वाद से आपको जीवन में सभी खुशियां मिलती हैं.

पितरों की आरती एवं चालीसा का पाठ

।। पितर देवों की आरती ।।

जय जय पितर महाराज, मैं शरण पड़यों हूँ थारी ।

शरण पड़यो हूँ थारी बाबा, शरण पड़यो हूँ थारी ।।

आप ही रक्षक आप ही दाता, आप ही खेवनहारे ।

मैं मूरख हूँ कछु नहिं जाणूं, आप ही हो रखवारे ।।

जय जय पितर महाराज, मैं शरण पड़यों हूँ थारी ।।

आप खड़े हैं हरदम हर घड़ी, करने मेरी रखवारी ।

हम सब जन हैं शरण आपकी, है ये अरज गुजारी ।।

जय जय पितर महाराज, मैं शरण पड़यों हूँ थारी ।।

देश और परदेश सब जगह, आप ही करो सहाई ।

काम पड़े पर नाम आपको, लगे बहुत सुखदाई ।।

जय जय पितर महाराज, मैं शरण पड़यों हूँ थारी ।।

भक्त सभी हैं शरण आपकी, अपने सहित परिवार ।

रक्षा करो आप ही सबकी, रटूँ मैं बारम्बार ।।

जय जय पितर महाराज, मैं शरण पड़यों हूँ थारी ।।

जय जय पितर महाराज, मैं शरण पड़यों हूँ थारी ।

शरण पड़यो हूँ थारी बाबा, शरण पड़यो हूँ थारी ।।

जय जय पितर महाराज, मैं शरण पड़यों हूँ थारी ।।

पितर देव आरती समापन 

।। पितर चालीसा ।।

दोहा

हे पितरेश्वर आपको दे दियो आशीर्वाद,

चरणाशीश नवा दियो रखदो सिर पर हाथ ।

सबसे पहले गणपत पाछे घर का देव मनावा जी ।

हे पितरेश्वर दया राखियो, करियो मन की चाया जी ।।

चौपाई

पितरेश्वर करो मार्ग उजागर, चरण रज की मुक्ति सागर ।

परम उपकार पित्तरेश्वर कीन्हा, मनुष्य योणि में जन्म दीन्हा।

मातृ-पितृ देव मन जो भावे, सोई अमित जीवन फल पावे ।

जै-जै-जै पित्तर जी साईं, पितृ ऋण बिन मुक्ति नाहिं ।

अथ चालीसा

चारों ओर प्रताप तुम्हारा, संकट में तेरा ही सहारा।

नारायण आधार सृष्टि का, पित्तरजी अंश उसी दृष्टि का।

प्रथम पूजन प्रभु आज्ञा सुनाते, भाग्य द्वार आप ही खुलवाते।

झुंझनू में दरबार है साजे, सब देवों संग आप विराजे।

प्रसन्न होय मनवांछित फल दीन्हा, कुपित होय बुद्धि हर लीन्हा।

पित्तर महिमा सबसे न्यारी, जिसका गुणगावे नर नारी।

तीन मण्ड में आप बिराजे, बसु रुद्र आदित्य में साजे।

नाथ सकल संपदा तुम्हारी, मैं सेवक समेत सुत नारी।

छप्पन भोग नहीं हैं भाते, शुद्ध जल से ही तृप्त हो जाते।

तुम्हारे भजन परम हितकारी, छोटे बड़े सभी अधिकारी।

भानु उदय संग आप पुजावै, पांच अँजुलि जल रिझावे।

ध्वज पताका मण्ड पे है साजे, अखण्ड ज्योति में आप विराजे।

सदियों पुरानी ज्योति तुम्हारी, धन्य हुई जन्म भूमि हमारी।

शहीद हमारे यहाँ पुजाते, मातृ भक्ति संदेश सुनाते।

जगत पित्तरो सिद्धान्त हमारा, धर्म जाति का नहीं है नारा।

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब पूजे पित्तर भाई।

हिन्दू वंश वृक्ष है हमारा, जान से ज्यादा हमको प्यारा।

गंगा ये मरुप्रदेश की, पितृ तर्पण अनिवार्य परिवेश की।

बन्धु छोड़ ना इनके चरणाँ, इन्हीं की कृपा से मिले प्रभु शरणा।

चौदस को जागरण करवाते, अमावस को हम धोक लगाते।

जात जडूला सभी मनाते, नान्दीमुख श्राद्ध सभी करवाते।

धन्य जन्म भूमि का वो फूल है, जिसे पितृ मण्डल की मिली धूल है।

श्री पित्तर जी भक्त हितकारी, सुन लीजे प्रभु अरज हमारी।

निशिदिन ध्यान धरे जो कोई, ता सम भक्त और नहीं कोई।

तुम अनाथ के नाथ सहाई, दीनन के हो तुम सदा सहाई।

चारिक वेद प्रभु के साखी, तुम भक्तन की लज्जा राखी।

नाम तुम्हारो लेत जो कोई, ता सम धन्य और नहीं कोई।

जो तुम्हारे नित पाँव पलोटत, नवों सिद्धि चरणा में लोटत।

सिद्धि तुम्हारी सब मंगलकारी, जो तुम पे जावे बलिहारी।

जो तुम्हारे चरणा चित्त लावे, ताकी मुक्ति अवसी हो जावे।

सत्य भजन तुम्हारो जो गावे, सो निश्चय चारों फल पावे।

तुमहिं देव कुलदेव हमारे, तुम्हीं गुरुदेव प्राण से प्यारे।

सत्य आस मन में जो होई, मनवांछित फल पावें सोई।

तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई, शेष सहस्र मुख सके न गाई।

मैं अतिदीन मलीन दुखारी, करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी।

अब पित्तर जी दया दीन पर कीजै, अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै।

दोहा

पित्तरों को स्थान दो, तीरथ और स्वयं ग्राम।

श्रद्धा सुमन चढ़ें वहां, पूरण हो सब काम।

झुंझनू धाम विराजे हैं, पित्तर हमारे महान।

दर्शन से जीवन सफल हो, पूजे सकल जहान।।

जीवन सफल जो चाहिए, चले झुंझनू धाम।

पित्तर चरण की धूल ले, हो जीवन सफल महान।।

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एकादशी श्राद्ध कथा : पितृ श्राप से मुक्ति की कथा

एकादशी तिथि को बहुत ही शुभ समय माना गया है. आश्विन मास में आने वाली कृष्ण पक्ष की एकादशी एक अत्यंत ही उत्तम दिवस है इस समय को एकादशी व्रत, ग्यारस श्राद्ध, इंदिरा एकादशी, एकादशी श्राद्ध तिथि इत्यादि के नामों से पूजा जाता है. शास्त्रों के अनुसार इस दिन किए गए श्राद्ध एवं तर्पण के कार्यों को करके शरणागति प्राप्त होती है. इस दिन शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष दोनों की एकादशी तिथि का श्राद्ध किया जा सकता है.

एकादशी श्राद्ध क्यों किया जाता है 

एकादशी श्राद्ध के दिन श्राद्ध और तर्पण के साथ पिंडदान भी करना चाहिए. हिंदू धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्व है. आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को इंदिरा एकादशी श्राद्ध कहा जाता है. इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. पितृ पक्ष में पड़ने के कारण इस एकादशी का विशेष महत्व है. मान्यता है कि इस दिन पिंडदान और तर्पण आदि करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है.

पितृ पक्ष श्राद्ध पार्वण श्राद्ध होते हैं. इन श्राद्धों को करने के लिए कुटुप, रौहिंण आदि मुहूर्त शुभ माने जाते हैं. दोपहर के बाद तक श्राद्ध संबंधी कर्म संपन्न कर लेने चाहिए. श्राद्ध के अंत में तर्पण किया जाता है. एकादशी श्राद्ध करने का सबसे शुभ समय कुटुप और रौहिंण है. जो दोपहर समय होता है. पितृ पक्ष में एकादशी श्राद्ध का बहुत महत्व है. 

शास्त्र परंपरा में एकादशी तिथि भगवान विष्णु को समर्पित होती है. ऐसे में इस दिन किया गया तर्पण कार्य पितरों को तृप्ति देता है. पंचांग के अनुसार आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के श्राद्ध को इंदिरा एकादशी श्राद्ध के नाम से जाना जाता है. इंदिरा एकादशी श्राद्ध उन लोगों के लिए है जिनका श्राद्ध एकादशी तिथि का समय है, इसके साथ ही इस दिन अपने पूर्वजों को याद करना भी सामान्य रूप से शुभ होता है.  

एकादशी श्राद्ध महत्व 

श्राद्ध कर्म में पिंडदान, तर्पण किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण के माध्यम से ही करवाना चाहिए. पवित्र नदियों और धार्मिक स्थलों में श्राद्ध कर्म का कार्य करना भी शुभ होता है. इसके लिए गंगा नदी के तट पर इसे करना काफी प्रभावी होता है. अगर ऐसा संभव न हो तो इसे घर पर भी किया जा सकता है. श्राद्ध के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए. भोजन के बाद दान देकर उन्हें संतुष्ट करें. दोपहर में श्राद्ध पूजा शुरू करनी चाहिए. श्राद्ध कर्म में ब्राह्मणों को श्रद्धा से दान दिया जाता है. साथ ही गरीबों और जरूरतमंदों को दान देना भी अच्छा माना जाता है. इसके अलावा एकादशी श्राद्ध में भोजन का एक हिस्सा पशु-पक्षियों जैसे गाय, कुत्ता, कौआ आदि के लिए जरूर रखना चाहिए.

एकादशी श्राद्ध कथा 

एकादशी श्राद्ध के साथ साथ इस दिन किया जाता है. आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को किया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु और माता पार्वती की पूजा की जाती है. यह एकादशी पितृ पक्ष में आती है, इसलिए इसका महत्व और भी बढ़ जाता है. इंदिरा एकादशी व्रत की संपूर्ण कथा यहां पढ़ें.

एकादशी श्राद्ध कथा पूर्वकाल की कथा है, सत्ययुग में इंद्रसेन नाम का एक प्रसिद्ध राजकुमार था, जो अब महिष्मतीपुरी का राजा बन गया था और प्रजा पर धर्मपूर्वक शासन करता था. उसकी कीर्ति सर्वत्र फैल चुकी थी. भगवान विष्णु की भक्ति करने वाले राजा इंद्रसेन गोविंद के मोक्षदायक नामों का जाप करते हुए समय व्यतीत करते थे और विधिपूर्वक अध्यात्म के चिंतन में लगे रहते थे. एक दिन राजा राज दरबार में आराम से बैठे थे, तभी देवर्षि नारद आकाश से उतरकर वहां पहुंचे. उन्हें आते देख राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गए और विधिपूर्वक उनका पूजन करके उन्हें आसन पर बैठाया, तत्पश्चात बोले- ‘मुनिश्रेष्ठ! आपकी कृपा से मैं पूर्णतः स्वस्थ हूं. आज आपके दर्शन से मेरे सभी यज्ञ सफल हो गए हैं. देवर्षि, कृपया मुझे अपने आने का कारण बताकर आशीर्वाद दीजिए.

नारदजी ने कहा- हे राजनश्रेष्ठ! सुनिए, मेरी बातें आपको आश्चर्य में डालने वाली हैं. मैं ब्रह्मलोक से यमलोक में आया, वहाँ उत्तम आसन पर बैठा और यमराज ने भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की. उस समय मैंने यमराज के दरबार में आपके पिता को भी देखा. वे व्रत भंग करने के दोष के कारण वहाँ आए थे. हे राजन! उन्होंने आपको संदेश दिया है, उसे सुनिए. उन्होंने कहा है, ‘पुत्र! मुझे ‘इन्दिरा’ व्रत का पुण्य देकर स्वर्ग भेज दीजिए.’ मैं यह संदेश लेकर आपके पास आया हूँ. हे राजन! अपने पिता को स्वर्ग की प्राप्ति कराने के लिए आप ‘इन्दिरा’ एकादशी का व्रत कीजिए.

राजा ने पूछा- हे प्रभु! कृपया मुझे बताइए कि किस पक्ष में, किस तिथि को और किस प्रकार ‘इन्दिरा’ का व्रत करना चाहिए.

राजन! सुनिए, मैं आपको इस पूर्ण सफल व्रत की शुभ विधि बताता हूँ. आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को प्रातःकाल श्रद्धापूर्वक स्नान करें. तत्पश्चात दोपहर में स्नान करके एक बार एकाग्र मन से भोजन करें तथा रात्रि में भूमि पर सोएं. रात्रि के अंत में जब प्रातःकाल स्वच्छ हो जाए तो एकादशी तिथि के दिन दांत साफ करके तथा मुंह धोकर व्रत का संकल्प लें. इसके पश्चात भक्तिपूर्वक निप्राणित मंत्र का उच्चारण करते हुए व्रत का संकल्प लें-

अद्य स्थित्वा निराहारः सर्वभोगविवर्जितः. श्वो भोक्ष्ये पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवच्युत. कमलनयन भगवान नारायण. आज मैं सभी भोगों से दूर रहूंगा तथा कल भोजन करूंगा. अच्युत. कृपया मुझे शरण दें.

इस नियम का पालन करने के पश्चात दोपहर में पितरों को प्रसन्न करने के लिए शालिग्राम शिला के समक्ष श्राद्ध करें तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर सम्मानित करें तथा उन्हें भोजन कराएं. पितरों को अर्पित किए गए अन्मय पिंड को सूंघकर विद्वान पुरुष गायों को खिला दें. फिर धूप-गंध से भगवान हविकेश का पूजन करके रात्रि में उनके समीप जागरण करें. तत्पश्चात प्रातःकाल होने पर द्वादशी के दिन पुनः भक्तिपूर्वक भगवान श्रीहरि का पूजन करें. तत्पश्चात ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपने भाई-पौत्रों तथा पुत्रों आदि के साथ मौन रहकर भोजन करें.

हे राजन! इस विधि का पालन करते हुए, आलस्य न करते हुए इंदिरा एकादशी का व्रत करें. ऐसा करने से आपके पितर भगवान विष्णु के वैकुंठ धाम को जाएंगे.

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – हे राजन! राजा इंद्रसेन से ऐसा कहकर देवर्षि नारद अंतर्ध्यान हो गए. राजा ने उनके द्वारा बताई गई विधि के अनुसार अंतःपुर की रानियों, पुत्रों तथा सेवकों सहित उस उत्तम व्रत को किया. हे कुन्तीनंदन! व्रत पूर्ण होने पर आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी. इंद्रसेन के पिता गरुड़ पर सवार होकर श्री विष्णु धाम गए तथा राजा इंद्रसेन भी निष्कंटक राज्य भोगकर अपने पुत्र को राजा बनाकर स्वर्ग को चले गए. इस प्रकार मैंने आपके समक्ष ‘इंदिरा’ व्रत का माहात्म्य वर्णन किया है. इसे पढ़ने और सुनने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है.

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आश्विन पूर्णिमा : व्रत कथा और आश्विन पूर्णिमा के रहस्य

आश्विन मास की पूर्णिमा को आश्विन पूर्णिमा कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार इसी पूर्णिमा के दिन समुद्र मंथन से देवी लक्ष्मी का जन्म हुआ था, और इस दिन कई अन्य विशेष घटनाएं घटित हुई जिनके कारण यह दिन वर्ष भर की पूर्णिमाओं में सबसे अधिक खास है. आश्विन पूर्णिमा का अपना विशेष महत्व है, इस समय चंद्रमा अपनी 16 कलाओं से पूर्ण होकर आकाश से अमृत की वर्षा करता है. धन की देवी लक्ष्मी अपने पति श्री हरि के साथ पृथ्वी पर भ्रमण करने आती हैं. इस दिन संपूर्ण ओर महारास की स्थिति होती है. 

आश्विन पूर्णिमा 2024: शुभ मुहूर्त व तिथि
पूर्णिमा तिथि प्रारंभ – 16 अक्टूबर 2024, 08:40 PM

पूर्णिमा तिथि समाप्त – 17 अक्टूबर 2024, 04:55 PM

आश्विन पूर्णिमा की विशेष बातें 

आश्विन पूर्णिमा के दिन को कौमुदी व्रत के नाम से भी जाना जाता है. हिंदू पंचांग के अनुसार आश्विन मास में ही आश्विन पूर्णिमा की तिथि आती है. इसे रास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. हिंदू धर्म के अनुसार इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने महारास रचाया था.इस दिन चंद्रमा की किरण से अमृत वर्षा होती है. आश्विन पूर्णिमा में रात्रि भ्रमण और चंद्रमा की रोशनी का शरीर पर पड़ना बहुत माना गया है. आश्विन पूर्णिमा वर्ष में आने वाली सभी पूर्णिमा तिथियों में तन, मन और धन तीनों में ही सर्वश्रेष्ठ निर्धारित दी गई है. ऐसा माना जाता है कि आश्विन पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की रोशनी से अमृत की वर्षा होती है. इस दिन महालक्ष्मी पूजा करने पर भक्तों को धन-धान्य की प्राप्ति होती है. 

आश्विन पूर्णिमा का एक अलग नाम कोजागरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. आश्विन पूर्णिमा आश्विन मास में आती है. इस दिन चंद्रमा अश्विनी नक्षत्र में प्रवेश करता है. इसलिए इस महीने में अश्विनी के नाम से भी जाना जाता है.  आयुर्वेद के आचार्य भी इस दिन का इंतजार करते हैं इस दिन सभी जीवनदायिनी दवाओं को चंद्रमा की रोशनी में रखा जाता है। इस दिन चंद्रमा की किरण से अमृत वर्षा होती है. इन सभी में अमृत वर्षा में स्नान किया जाता है. चंद्रमा को वेदों और पुराणों में जल का कारक माना गया है. दूसरी ओर चंद्रमा को औषधियों का स्वामी भी कहा जाता है. आश्विन पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की रोशनी में खीर खाने की प्रथा काफी पुराने समय से प्रचलित है. इस दिन चंद्रमा की रोशनी में खीर खाने से शरीर के सभी रोग दूर हो जाते हैं.

आश्विन पूर्णिमा पूजा विधि 

आश्विन पूर्णिमा के दिन सुबह जल्दी या हो सके तो किसी पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए. अगर किसी कारण से आप नदी में स्नान नहीं कर सकते हैं तो घर पर ही गंगाजल स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. इस दिन सफ़ेद रंग के कपड़ों को धारण करना शुभ माना जाता है. पूजा के लिए मंदिर स्थान में लाल रंग का कपड़ा बिछाकर और उस पर गंगाजल छिड़ककर उसे शुद्ध करना चाहिए. इसके बाद माँ लक्ष्मी की मूर्ति को स्थापित किया जाना चाहिए. फूल, धूप-दीप, नेवेद्य आदि से देवी लक्ष्मी मां को अर्पित करने चाहिए. इसके बाद लक्ष्मी माता की मूर्ति के सामने जाकर लक्ष्मी चालीसा का पाठ करना चाहिए. पूजा के पूर्ण होने के बाद माता लक्ष्मी जी की आरती करनी चाहिए. 

आश्विन पूर्णिमा संध्या पूजा 

इसके बाद संध्या समय को माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु की पूजा पुन: करनी चाहिए  और चंद्रमा को अर्घ्य देना चाहिए.  शाम के समय चंद्रमा पर मिट्टी के दीपक जलाने चाहिए.

फिर चावल और गाय के दूध से बनी खीर उसे चंद्रमा की रोशनी में रख देने चाहिए. मध्य रात्रि में माता लक्ष्मी जी को भोग लगाया और सभी भक्तों को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है.

आश्विन पूर्णिमा के दिन ब्राह्मणों को वस्त्र, मिठाई और फल आदि का दान करना उत्तम होता है. 

आश्विन पूर्णिमा की कथा

पूर्णिमा के व्रत का बहुत महत्व है. हर महीने पड़ने वाली पूर्णिमा के दिन व्रत रखने से भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्त होती है. माता लक्ष्मी और श्री हरि के इस आशीर्वाद को पाने के लिए एक साहूकार की दोनों बेटियां हर पूर्णिमा के दिन व्रत रखती थीं. इन दोनों बेटियों में बड़ी बेटी पूर्णिमा का व्रत पूरे विधि-विधान और उपवास के साथ रखती थी. जबकि छोटी बेटी व्रत तो रखती थी, लेकिन नियमों को अनदेखा कर देती थी. जब वे विवाह योग्य हुई तो साहूकार ने अपनी दोनों बेटियों का विवाह कर दिया. बड़ी बेटी ने समय पर एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया.

छोटी बेटी ने भी एक बच्चे को जन्म दिया, लेकिन उसका बच्चा जन्म लेते ही मर जाता था. ऐसा जब दो-तीन बार हुआ तो उसने एक ब्राह्मण को बुलाकर अपनी समस्या बताई और धार्मिक उपाय पूछा. उसकी बात सुनने और कुछ प्रश्न पूछने के बाद ब्राह्मण ने उसे बताया कि तुम पूर्णिमा के दिन अधूरा व्रत रखती हो, जिसके कारण तुम्हारा व्रत फलित नहीं होता और अधूरे व्रत का दोष तुम पर लगता है. ब्राह्मण की बात सुनकर छोटी बेटी ने पूरे विधि-विधान से पूर्णिमा का व्रत रखने का निर्णय लिया. लेकिन पूर्णिमा आने से पहले ही उसने एक पुत्र को जन्म दिया.

जन्म लेते ही पुत्र की मृत्यु हो गई. इस पर उसने अपने पुत्र के शव को एक चौकी पर रखकर कपड़े से ढक दिया, ताकि किसी को पता न चले. फिर उसने अपनी बड़ी बहन को बुलाकर उसे वही चौकी बैठने के लिए दे दी. जैसे ही बड़ी बहन उस चौकी पर बैठने लगी, उसके लहंगे का किनारा बच्चे को छू गया और वह तुरंत जीवित हो गया और रोने लगा. इस पर बड़ी बहन पहले तो डर गई और फिर छोटी बहन पर क्रोधित होकर उसे डांटने लगी, “क्या तू मुझे बच्चे की हत्या का दोषी और कलंकित करना चाहती है? अगर मेरे बैठने से यह बच्चा मर जाता तो क्या होता?”

छोटी बहन ने उत्तर दिया, “यह बच्चा तो पहले से ही मरा हुआ था. दीदी, यह तुम्हारे तप और स्पर्श के कारण जीवित हो गया है. पूर्णिमा के दिन तुमने जो व्रत और तपस्या की है, उसके कारण तुम पवित्र और दिव्य तेज से परिपूर्ण हो गई हो. अब मैं भी तुम्हारी तरह व्रत और पूजा करूंगी.” इसके बाद उसने विधि-विधान से पूर्णिमा का व्रत किया और पूरे नगर में इस व्रत के महत्व और फल का प्रचार किया. जिस प्रकार माता लक्ष्मी और श्री हरि ने साहूकार की बड़ी बेटी की मनोकामना पूरी की और उसे सौभाग्य प्रदान किया. 

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