बुधाष्टमी व्रत, जानें बुधाष्टमी पूजा विधि और कथा

भारतवर्ष में प्रत्येक दिन किसी न किसी महत्व से जुड़ा होता है. यहां मौजूद तिथि, नक्षत्र और दिनों का मेल होने पर कोई उत्सव, व्रत-त्यौहार इत्यादि संपन्न होते हैं. इन सभी का मेल एक उत्साह ओर विश्वास के साथ भक्ति और शक्ति के प्रतिबिंब को दर्शाने वाला होता है. इसी में एक व्रत आता है बुधाष्टमी व्रत.

बुधाष्टमी व्रत को बुधवार के दिन अष्टमी तिथि के पड़ने पर किया जाता है. श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाया गया बुधाष्टमी व्रत जीवन में सुख को लाता है. इसके अतिरिक्त मृत्यु पश्चात मोक्ष को प्र्दान करने में भी सहायक बनता है. कुछ मान्यताओं के अनुसार यह व्रत धर्मराज के निमित्त भी किया जाता है. बुध अष्टमी का व्रत करने वाले व्यक्ति को मृत्यु के पश्चात नरक की यातना नहीं झेलनी पड़ती है. व्यक्ति के सभी पापों का नाश होता है. उसके जीवन में शुभता आती है.

बुधाष्टमी पर्व

बुधाष्टमी का पर्व पौराणिक और लोक कथाओं के साथ जुडा़ हुआ है. बुध अष्टमी का उपवास करने से व्यक्ति के सभी कष्ट दूर जाते हैं और पाप नष्ट हो जाते हैं. हमारे शास्त्रों में अष्टमी तिथि को बहुत ही महत्वपूर्ण बताया गया है. जिस बुधवार के दिन अष्टमी तिथि पड़ती है उसे बुध अष्टमी कहा जाता है. बुध अष्टमी के दिन सभी लोग विधिवत बुद्धदेव और सूर्य देव की पूजा अर्चना करते हैं. मान्यताओं के अनुसार जिन लोगों की कुंडली में बुध कमजोर होता है उनके लिए बुध अष्टमी का व्रत बहुत ही फलदायी होता है.

अष्टमी तिथि का हिंदु पंचांग में बहुत महत्व रहा है. यह चन्द्र पक्ष के दो समय पर आती है. एक शुक्ल पक्ष के समय और दूसरी कृष्ण पक्ष के समय. इन दोनों ही समय पर बुधवार का संयोग इसे और भी शुभता देता है. यह तिथि प्रत्येक माह में दो बार आती है. जो अष्टमी तिथि शुक्ल पक्ष में आती है, उस दिन बुधवार का समय होने पर बुधाष्टमी का पर्व अत्यंत शुभदायक होता है. शुक्ल पक्ष की अष्टमी के स्वामी भगवान शिव है. इसके साथ ही यह तिथि जया तिथियों की श्रेणी में आती है. इस कारण से ये बहुत ही शुभ मानी गयी है.

बुधाष्टमी दिलाता है विजय

बुधाष्टमी पर्व विजय की प्राप्ति के लिए बहुत ही उपयोगी होता है. यह व्रत उन कार्यों में सफलता दिलाने में बहुत सहायक बनता है जिनमें व्यक्ति को साहस और शौर्य की अधिक आवश्यकता होती है. धर्मराज, माँ दुर्गा और भगवान शिव की शक्ति के लिए भी बुधाष्टमी का व्रत बहुत महत्व होता है. इस व्रत की ऊर्जा का प्रवाह व्यक्ति को जीवन शक्ति और विपदाओं से आगे बढ़ने की क्षमता देता है. जिस पक्ष में बुधाष्टमी का अवसर हो उस दिन यह सिद्धि का योग बनाता है.

बुध अष्टमी तिथि में किसी पर विजय प्राप्ति करना उत्तम माना गया है. यह विजय दिलाने वाली तिथि है, इस कारण जिन भी चीजों में व्यक्ति को सफलता चाहिए वह सभी काम इस तिथि में करे तो उसे सकारात्मक फल मिल सकते हैं. यह दिन बुरे कर्मों के बंधन को दूर करता है. इस दिन लेखन कार्य, घर इत्यादि वास्तु से संबंधित काम, शिल्प निर्माण से संबंधी काम, अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले काम का आरम्भ भी सफलता देने वाला होता है.

बुध अष्टमी पूजन विधि-

बुध अष्टमी का व्रत करने के लिए पहले से ही सभी तैयारियों को कर लेना भी सही होता है. व्रत के पहले दिन व्रती को चाहिए कि वह सात्विकता और आध्यात्मिकता का आचरण करना चाहिए. बुधअष्टमी के दिन व्रती को चाहिए की वह ब्रह्म मुहूर्त समय पर उठना चाहिए. प्रातः काल उठकर स्नान कार्य करना चाहिए. यदि संभव हो सके तो इस दिन किसी पवित्र नदी या सरोवर इत्यादि में स्नान करना चाहिए. पर अगर ये संभव न हो सके तो घर पर ही स्नान कार्य करना चाहिए. घर पर अपने नहाने के पानी में थोड़ा सा गंगाजल मिलाकर स्नान करना गंगा स्नान जैसा फल दिलाने वाला होता है. अपने नित्य कार्यों को कर लेने के बाद व्रती को पूजा का संकल्प लेना चाहिए.

पूजा स्थान पर एक पानी से भरा कलश स्थापित करना चाहिए. कलश के पानी में गंगाजल भरना चाहिए. इस कलश को घर के पूजा स्थान में स्थापित करना उत्तम होता है.बुधाष्टमी के दिन बुध देव व बुध ग्रह का पूजन किया जाता है. पूजा में बुधाष्टमी कथा का पाठ भी करना उत्तम फल प्रदान करने वाला होता है.

भक्त को चाहिए की इस दिन व्रत का संकल्प भी धारण करे. बुधाष्टमी के व्रत के अवसर पर संपूर्ण दिन मानसिक, वाचिक और आत्मिक शुद्धि का पालन करना चाहिए. इस भगवान के समक्ष धूप-दीप, पुष्प, गंध इत्यादि को अर्पित करना चाहिए. भगवान को विभिन्न पकवान और मेवे फल इत्यादि का अर्पित करने चाहिए. बुध भगवान की पूजा विधिवत तरीके से संपन्न करनी चाहिए. पूजा अर्चना करने के पश्चात भगवान बुध देव को को भोग लगाना चाहिए. पूजा समाप्ति के बाद भगवान का प्रसाद सभी लोगों में वितरित करना चाहिए.

बुध अष्टमी व्रत कथा और महत्व

कई जगहों पर बुध अष्टमी के दिन भगवान शिव और पार्वती की पूजा होती है. श्री विष्णु भगवान का पूजन, श्री गणेश जी का पूजन भी किया जाता है. इस दिन घर को अच्छी तरह से साफ सुथरा करके इष्ट देव की पूजा करनी चाहिए. शास्त्रों के अनुसार बुध अष्टमी के दिन भगवान की पूजा करना जीवन में सकारात्मकता और शुभता लाने वाला माना जाता है.

बुधाष्टमी की कथा का संबंध वैवस्वत मनु से भी संबंधित बतायी गयी है. इसके अनुसार मनु के दस पुत्र हुए और एक पुत्री इला हुई थी. इला बाद में पुरुष बन गयी थी. इला के पुरुष बनने की कथा इस प्रकार रही कि मनु ने पुत्र की कामना से मित्रावरुण नामक यज्ञ किया. पर उस प्रभाव से पुत्री की प्राप्ति हुई. कन्या का नाम इला रखा गया.

इला को मित्रावरुण ने उसे अपने कुल की कन्या और मनु का पुत्र इल होने का वरदान दिया था. एक बार राजा इल एक शिकार का पीछा करते हुए, ऎसे स्थान में जा पहुंचे जिसे भग्वान शिव और पार्वती ने वरदान दिया था की उस स्थान में जो भी प्रवेश करेगा वह स्त्री रुप में हो जाएगा. उस प्रभाव के कारण वन में इल के प्रवेश करते ही वह स्त्री में बदल जाते हैं.

इला के सुंदर रुप को देख कर बुध उनसे प्रभावित हो जाते हैं. इला से विवाह कर लेते हैं. इला और बुध का विवाह के अवसर को बुधाष्टमी के रुप में मनाने की परंपरा रही.

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कोकिला व्रत 2024, जाने कोकिला व्रत की कथा और इसकी पूजा विधि

व्रत और त्यौहार की श्रेणी में प्रत्येक दिन और समय किसी न किसी तिथि नक्षत्र योग इत्यादि के कारण अपनी महत्ता रखता है. इसी के मध्य में आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन कोकिला व्रत भी मनाया जाता है. अषाढ़ मास में आने वाले अंतिम दिन के समय पूर्णिमा तिथि पर कोकिला व्रत के साथ ही आषाढ़ मास की समाप्ति भी होती है.

20 जुलाई 2024 शनिवार के दिन रखा जाएगा कोकिला व्रत 

कोकिला व्रत उन व्रतों कि श्रेणी में स्थान पाता जिसमें प्रकृति प्रेम को मुख्य आधार के रुप में मनाया जाता है. इस व्रत का प्रभाव से जीवन ओर सृष्टि के संबंध और हमारे जीवन की शुभता नेचर के साथ जुड़ कर अधिक बढ़ जाती है. आषाढ़ माह होता ही प्रकृति के भीतर नए बदलावों को दिखाने वाला माह. धर्म ग्रंथों के अनुसार आषाढ़ माह की पूर्णिमा को कोकिला व्रत करने की परंपरा रही है. 

परंपराओं से जुड़ा कोकिला व्रत

कोकिला व्रत एक लोक जीवन से जुड़ा और सांस्कृतिक महत्व से संबंध रखने वाला व्रत है. इस व्रत को विशेष रुप से ग्रामीण जीवन में जुड़ी लोक कथाओं के साथ पौराणिक महत्व के साथ जुड़ कर आगे बढ़ता है. प्रत्येक जातियां प्रकृति के अमूल्य गुणों को पहचानते हुए उनके साथ अपने जीवन का तालमेल बिठाते हुए कई प्रकार के धार्मिक व आध्यात्मिक कृत्य करते हैं. इसी में जब भारतीय परंपराओं की बात आती है तो यहां भी ऎसे व्रत और पर्व हैं जो पशु पक्षिओं और पेड़ पौधों के साथ मनुष्य प्रेम को दर्शाते हैं.

कोकिला व्रत मुख्य रुप से स्त्रियां रखती हैं. इस व्रत का मूल प्रयोजन सौभाग्य में वृद्धि पाने ओर दांपत्य जीवन के सुख को पाने के लिए किया जाता है. विवाहित स्त्रियां और कुवांरियाँ कन्याएं भी इस व्रत को करती हैं. कोकिला व्रत करने से योग्य पति की प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त होता है. विवाह जल्द होने का आशीर्वाद मिलता है. इस व्रत को भी अन्य सभी प्रकार के व्रतों की ही भांति नियमों द्वारा रखा जाता है.

कोकिला व्रत पूजा नियम-विधान

कोकिला व्रत में नियम पूर्वक विधि विधान से किया गया पूजन बहुत ही शुभ फल देने वाला होता है. जो भी इस व्रत का पालन नियम अनुसार और श्राद्ध भाव के साथ करते हैं, उन्हें इसका संपूर्ण फल प्राप्त होता है. कोकिला व्रत को पूर्णिमा के दिन किया जाता है पर इसका आरंभ एक दिन पहले से ही आरंभ कर दिया जाता है. हिन्दू धर्म में कोकिला व्रत का विशेष महत्व है यह व्रत दांपत्यु सुख और अविवाहितों के लिए विवाह जल्द होने का वरदान देता है.

कोकिला व्रत को विशेष कर कुमारी कन्या सुयोग्य पति की कामना के लिए करती है जैसे तीज का व्रत भी जीवन साथी की लम्बी आयु का वरदान देता है उसी प्रकार कोकिला व्रत एक योग्य जीवन साथी की प्राप्ति का आशीर्वाद देता है. इस व्रत को विधि विधान से करने पर व्यक्ति को मनोवांछित कामनाओं की प्राप्ति होती है.

  • व्रत वाले दिन व्यक्ति को ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए.
  • भगवान का नाम स्मरण करते हुए अपने सभी दैनिक नित्य कर्म करते हुए स्नान करना चाहिए.
  • इस दिन गंगा स्नान का भी विशेष महत्व होता है.
  • धर्म स्थलों की यात्रा और पवित्र नदियों में स्नान करना चाहिए.
  • स्नान के पश्चात सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए.
  • भगवान शिव और माता पार्वती का पूजन आरंभ करना चाहिए.
  • पूजा स्थल पर भगवान का चित्र या फिर प्रतिमा को स्थापित करना चाहिए.
  • शिवलिंग का अभिषेक करना चाहिए.
  • भगवान का पंचामृत से अभिषेक करके गंगाजल अर्पित करना चाहिए.
  • पूजा में सफेद व लाल रंग के पुष्प, बेलपत्र, दूर्वा, गंध, धुप, दीप आदि का उपयोग करना चाहिए.

इस दिन निराहार रहकर व्रत का संकल्प करना चाहिए. प्रात:काल समय पूजा के उपरांत सारा दिन व्रत का पालन करते हुए भगवान के मंत्रों का जाप करना चाहिए. संध्या समय सूर्यास्त के पश्चात एक बार फिर से भगवान की आरती पूजा करनी चाहिए. व्रत के दिन कथा को पढ़ना और सुनना चाहिए. शाम की पूजा पश्चात फलाहार करना चाहिए.

कोकिला व्रत कथा

कोकिला व्रत की कथा का संबंध भगवान शिव और देवी सती से बताया गया है. इस कथा अनुसार माता सती भगवान को पाने के लिए एक लम्बे समय तक कठोर तपस्या को करके उन्हें फिर से जीवन में पाती हैं.

कोकिला व्रत कथा शिव पुराण में भी वर्णित बतायी जाती है. इस कथा के अनुसार देवी सती ने भगवान को अपने जीवन साथी के रुप में पाया. इस व्रत का प्रारम्भ माता पार्वती के पूर्व जन्म के सती रुप से है. देवी सती का जन्म राजा दक्ष की बेटी के रुप में होता है. राजा दक्ष को भगवान शिव से बहुत नफरत करते थे. परंतु देवी सती अपने पिता के अनुमति के बिना भगवान शिव से विवाह करती हैं. दक्ष सती को अपने मन से निकाल देते हैं ओर उसे अपने सभी अधिकारों से वंचित कर देते हैं. राजा दक्ष अपनी पुत्री सती से इतने क्रोधित होते हैं कि उन्हें अपने घर से सदैव के लिए निकाल देते हैं.

राजा दक्ष एक बार यज्ञ का आयोजन करते हैं. इस यज्ञ में वह सभी लोगों को आमंत्रित करते हैं ब्रह्मा, विष्णु, व सभी देवी देवताओं को आमंत्रण मिलता है किंतु भगवान शिव को नहीं बुलाया जाता है. ऎसे में जब सती को इस बात का पता चलता है कि उनके पिता दक्ष ने सभी को बुलाया लेकिन अपनी पुत्री को नही. तब सती से यह बात सहन न हो पाई. सती ने शिव से आज्ञा मांगी की वे भी अपने पिता के यज्ञ में जाना चाहतीं है. शिव ने सती से कहा कि बिना बुलाए जाना उचित नहीं होगा, फिर चाहें वह उनके पिता का घर ही क्यों न हो. सती शिव की बात से सहमत नहीं होती हैं और जिद्द करके अपने पिता के यज्ञ में चली जाती हैं.

वह शिव से हठ करके दक्ष के यज्ञ पर जाकर पाती हैं, कि उनके पिता उन्हें पूर्ण रुप से तिरस्कृत किया जाता है. दक्ष केवल सती का ही नही अपितु भगवान शिव का भी अनादर करते हैं उन्हें अपश्ब्द कहते हैं. सती अपने पति के इस अपमान को सह नही पाति हैं और उसी यज्ञ की अग्नि में कूद जाती हैं. सती अपनी देह का त्याग कर देती हैं. भगवान शिव को जब सती के बारे में पता चलता है तो वह उस यक्ष को नष्ट कर देते हैं और दक्ष के अहंकार का नाश होता है. सती की जिद्द के कारण प्रजपति के यज्ञ में शामिल होने के कारण वह सती भी श्राप देते हैं कि हजारों सालों तक कोयल बनकर नंदन वन में निवास करेंगी. इस कारण से इस व्रत को कोकिला व्रत का नाम प्राप्त होता है क्योंकि देवी सती ने कोयल बनकर हजारों वर्षों तक भगवान शिव को पुन: पति रुप में पाने के लिए किया. उन्हें इस व्रत के प्रभाव से भगवान शिव फिर से प्राप्त होते हैं.

कोकिला व्रत के विषय में मान्यता

कोकिला व्रत के विषय में मान्यता है स्त्रियां इस व्रत का पालन करती हैं उन्हें जीवन सभी सुख प्राप्त होते हैं. उनके भीतर उस शक्ति का आगमन होता है जो उन्हें अपने परिवार को जोड़े रखने और हर सुख दुख को सहते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है. इस व्रत को करने से सौन्दर्य और रुप की प्राप्ति होती है. इस दिन जड़ी-बूटियों से स्नान करना उत्तम होता है. कुछ स्थानों पर कोयल का चित्र अथवा मूर्ति स्वरुप को मंदिर अथवा ब्राह्मण को भेंट भी किया जाता है.

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नवचंडी यज्ञ – पूजा कब और क्यों की जाती है

नवचंडी शक्ति का ही एक अंग है. देवी के नव रुपों का स्वरुप है. नव चंडी देवी की शक्ति और उसका पूजन किसी भी भक्त को साधना की परकाष्ठा तक पहुंचा देने में अत्यंत ही सहायक बनता है. नवचण्डी का पूजन एक यज्ञ का रुप होता है. नवचन्डी साधना एक नव दुर्गा पूजा है. इस पूजा द्वारा जीवन में शक्ति, समृद्धि, सफलता की प्राप्ति होती है. दुर्गा पूजन द्वारा सभी प्रकार की शक्तियों की प्राप्ति संभव हो पाती है.

विरोधियों को परास्त करता है

नवचंडी पूजा कई कारणों के लिए की जाती है. नव चंडी यज्ञ सभी कष्टों को दूर करता है. इस पूजा के द्वारा दुश्मन व किसी भी प्रकार के शत्रुओं का नाश कर देने में सहायक होता है. कुछ मामलों में अगर विरोधी काम पूरा नहीं होने देते हैं तो इस पूजा के द्वारा काम पूर्ण होते हैं. व्यक्ति के जीवन में आने वाले विरोधी, युद्ध में विजय प्राप्ति के लिए इन सभी में सफलता के लिए नवचण्डी पूजा बहुत कारगर होती है. अगर कोई व्यक्ति किसी परेशानी में है. व्यक्ति अपने कार्यों में सफलता न प्राप्त कर पा रहा हो. तो उस के लिए इस पूजा का अनुष्ठान आरंभ करना सफलता के मार्ग प्रशस्त करने वाला होता है.

नवचंडी पूजा – ग्रह शांति का उपाय

नव चंडी पूजा द्वारा ग्रहों की शांति भी संभव हो पाती है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार दुर्गा पूजा द्वारा पाप ग्रहों की शांति संभव होती है. राहु केतु शनि इत्यादि पाप ग्रहों से बचने के लिए नच चंडी पाठ का जाप करना एक अत्यंत चमत्कारी उपाय की ही तरह होता है. कइ बार कुण्डली में मौजूद कुछ ग्रहों के द्वारा जातक के जीवन में कई प्रकार के उतार-चढ़ाव आते हैं. जीवन में आने वाली कष्टकारी दशाओं से बचने के लिए ग्रह शांति करना उचित होता है. इस प्रकार ग्रह शांति से जातक को पाप ग्रहों से मिलने वाले प्रभावों से मुक्ति प्राप्त होती है. बुरे ग्रहों का प्रभाव नष्ट होता है. व्यक्ति को जीवन की हर सफलता प्राप्त होती हैं.

नव चंडी पूजा महत्व

नव चंडी पूजा में भगवान गणेश, भगवान शिव, नव ग्रह, और नव दुर्गा की पूजा होती है. इसके प्रभाव से व्यक्ति जीवन में धन्य धान्य की वृद्धि होती है. नवचंडी पूजा और हवन द्वारा देवी का आशीर्वाद प्राप्त होता है. अगर आपके ग्रह नक्षत्र आपके पक्ष में नहीं हों. तो ऎसे समय में उन सभी को अपने अनुकूल करने के लिए नवचंडी यज्ञ बहुत सहायक बनता है. नव चंडी पूजा सब से अधिक सकारात्मक फल देने वाली शक्ति है. व्यक्ति को ऊर्जावान और सकारात्मक माहौल प्राप्त होता है. नव चंडी यज्ञ एक असाधारण पूजा है. यह पूजा साधक को शक्तियों से जोड़ती है.

नवचंडी पूजा का लाभ और इसकी शक्ति इतनी है, की इसको करने से ग्रहों की स्थिति को आपके पक्ष में किया जा सकता है. भाग्य हमारे लिए सहायक बनता है. नवचंडी पूजा के पूरा होने पर दिव्य अनुभूति प्राप्त होती है. चारों ओर का वातावरण में सकारात्मक होता है. मन की शांति प्राप्त होती है. नव चंडी पूजा से कठिन परिस्थितियां अनुकूल हो जाती हैं. जीवन की उदासी और दर्द दूर हो जाते हैं. नव चंडी यज्ञ पूजा कठिनाइयों और बुरी किस्मत के विरुद्ध एक शक्तिशाली उपाय बनता है.

नवचंडी – तंत्र मंत्र अनुष्ठान

नव चंडी उपासना को सृष्टिरचना करनेवाला माना गया है. यह अनंतरूपा है. नवचण्डी अराधना शक्ति को जागृत करने का तरीका है. नव चंडी वह शक्ति है जो सृष्टि के संचालन के लिए आवश्यक है. योगमाया वह शक्ति है जो व्यक्त और अव्यक्त रूप में हैं, सभी तरफ व्याप्त है. भगवान कृष्ण ‘योगमाया” पर आश्रित होकर अपनी लीला करते हैं. राधा जी कृष्ण की आदि शक्ति है. भगवान शिव भी शक्ति के बिना शक्तिहीन होते हैं.

दर्शन शास्त्र में किसी न किसी नाम रूप में शक्ति की चर्चा होती रही है. पुराणों में विभिन्न देवताओं की विभिन्न शक्तियों की कल्पना की गई है. तंत्र के अनुसार किसी अधिष्ठात्री देवी शक्ति के रूप में, जिसकी उपासना की जाती है. उस शक्ति के उपासक शाक्त कहे जाते हैं. जो शाक्त संप्रदाय से जुड़े होते हैं. यह शक्ति भी सृष्टि की रचना करनेवाली. संप्रदायों के तंत्रशास्त्रों में शक्ति की कल्पना की गई है.

नव चंडी कथा

नव चंडी पूजा की कथा में दुर्गा उत्पत्ति कथा का संबंध बहुत अधिक दिखाई देता है. इस कथा में दुर्गा को प्रमुख देवी कहा गया है. देवी, शक्ति और जगदम्बा भी कहते हैं. इसके साथ ही इन्हें अनेक नामों और रुपों से पूजा जाता है. शाक्त सम्प्रदाय की यह मुख्य देवी हैं जिनकी तुलना ब्रह्म से की जाती है. शक्ति, का आगमन अंधकार व अज्ञानता रुपी राक्षसों से रक्षा करने हेतु होता है.

शक्ति का निरूपण सिंह पर सवार एक देवी के रूप में होता है. दुर्गास्प्तशति में दुर्गा के नव रुपों का उल्लेख विस्तार रुप से मिलता है. इसमें देवी महिषासुर नामक असुर का वध करती हैं. शक्ति, दुर्गम नाम के दैत्य का वध करती है. समस्त ब्रह्मांड में विख्यात यह शक्ति हैं. माता के देश में अनेकों मंदिर और शक्ति पीठ हैं. दुर्गा सप्तशती, मार्कण्डेय पुराण, देवी पुराण इत्यादि में माता के अनेक रुप और शक्ति को दर्शाया गया है.

नवचंडी पूजा में नव दुर्गा की पूजा

नवचंडी पूजा अनुष्ठा के दौरान देवी के नौ रुपों का पूजन होता है. नवरात्रि के दौरान में नच चंडी पूजा अनुष्ठान किए जाते हैं. इसके अतिरिक्त शक्ति पीठों में नवचंडी अनुष्ठान किए जाते हैं. नव चंडी दुर्गा पूजा नौ अवतार की होती है.

शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री. इसमें सप्तशती का पाठ किया जाता है. नव चंडी पूजा विजय की प्राप्ति को दर्शाती है.

नवचंडी यज्ञ एक ऎसी पूजा है जिसके द्वारा धन, शक्ति की प्राप्ति होती है. जीवन में समृद्धि, सफलता पाने और समस्याओं को दूर करने के लिए नव चंडी यज्ञ को करने से सहायता प्राप्त होती है.

यह यज्ञ शत्रु और बुरे ग्रहों के परिणाम को दूर करता है. इस यज्ञ को समर्पित करने से मनुष्य जीवन प्रत्येक सफलता प्राप्त कर सकता है. यह मोक्ष प्राप्त करने के लिए है. इसके अलावा यह अशुभ ग्रहों के सभी प्रकार के बुरे प्रभावों को दूर करता है. इसके अलावा लोगों को इस पूजा से मन, शरीर और आत्मा की पवित्रता मिलती है. शुद्ध और शांत बनाने में भी मदद करता है. मन, शरीर, आत्मा में पवित्रता फैलाने के लिए नव चंडी पूजा करते हैं.

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रंग पंचमी 2024, कब और क्यों मनाई जाती है रंग पंचमी जाने विस्तार से

रंग पंचमी का उत्सव चैत्र माह के कृष्ण पंचमी के दिन मनाया जाता है. इस पर्व के उपलक्ष पर देशभर में कई तरह के धार्मिक और रंगारंग कार्यक्रम संपन्न होते हैं. रंगपंचमी का पर्व बड़ी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है. अपने नाम के अनुरुप ये पर्व रंगों की महत्ता को दर्शाता है. इस दिन पर रंगों से लोग खेलते हैं. एक दूसरे पर रंग उड़ाते हैं. जीवन में हर रंग और सुंदरता के आगमन की कामना करते हैं.

चैत्र मास में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्यौहार है. यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार पंचमी तिथि का ये पर्व बहुत से रहस्यों को अपने में समेटे हुए होता है. रंगों का और खुशी का पर्व है, रंगों का पर्व कहा जाने वाला यह समय पारंपरिक रूप से मनाया जाता है. लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर गीत गाये जाते हैं. घर-घर जा कर सभी एक दूसरे पर रंग लगाते हैं. रंगों के दिन लोग अपनी कटुता को भूल कर एक दूसरे के साथ प्रेम से मिलते हैं. आज के दिन मित्रता की जाती है. एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर चलता है.

होली के पांचवें दिन रंग पंचमी

रंग पंचमी पर्व का संबंध होली के साथ ही बहुत ही गहराई से जुड़ा हुआ है. होली की ही तरह रंगपंचगी के दिन भी एक दूसरे के साथ रंग खेला जाता है. होली के पांचवें दिन रंग पंचमी का पर्व मनाया जाता है. इस दिन लोग भगवान श्री कृष्ण और राधा जी का पूजन होता है. इस पूजन में भगवान के साथ रंग खेला जाता है. राधा कृष्ण जी को गुलाल और अबीर लगाया जाता है.

होली की भांति रंगों से भरा यह त्यौहार मुख्य रुप से मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के क्षेत्रों में बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है. रंग पंचमी की धूम हर तरफ दिखाई देती है. इस पर्व के अवसर पर बहुत से पकवान बनाए जाते हैं, जिन्हें भोग स्वरुप भगवान को अर्पित किया जाता है. धूम धाम से मनाए जाने वाले इस उत्सव को सभी लोग मनाते हैं.

रंग पंचमी मुहूर्त

इस बार रंग पंचमी का त्यौहार 30 मार्च 2024 को शनिवार के दिन मनाया जाएगा. रंग पंचमी को होली महोत्सव का समापन भी माना जाता है.

  • पंचमी तिथि प्रारंभ – 29 मार्च, 2024, 20:20 बजे से
  • पंचमी तिथि समाप्त – 30 मार्च, 2024, 21:13 बजे तक

भगवान के साथ खेली जाती है होली

रंग पंचमी का दिन भगवान को समर्पित होता है. इस दिन भक्त लोग भगवान के साथ रंग खेलते हैं. रंगों की होली का उत्सव विशेष रुप से मनाया जाता है. देवी देवताओं को समर्पित ये पर्व एक विशेष दिन होता है. इस दिन भगवान पर अबीर और गुलाल भेंट करने से मनोकामनाओं की पूर्ति होती हैं. इस दिन रंगों का उपयोग सभी प्रकार की नकारात्मकता को दूर करने के बहुत उपयोगी होता है.

इस दिन हर तरफ का माहौल भक्तिमय होता है. रंगों में डूबा हुआ वातावरण और उड़ने वाले रंग को लेकर भी बहुत सी मान्यताओं से इसकी महत्ता स्पष्ट होती है. माना जाता है कि गुलाल, अबीर रंग व्यक्ति को भीतर से प्रसन्न कर देते हैं. इन रंगों द्वारा लोगों में नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है. व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक के प्रवेश करते हैं.राग-रंग का यह पर्व संगीत और रंग का प्रमुख अंग है. प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे कलेवर के साथ चरम अवस्था पर होती है. इस दिन रंग उड़ाया जाता है. पारंपरिक गानों का प्रारंभ होता है. बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा हर तरफ छाई होती है. पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण होते हैं. ढोल-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में सभी लोग डूबे होते हैं. चारों तरफ़ रंगों की फुहार होती है.

भगवान भी आसमान में रंगों के जरिए अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं.इस दिन व्रत रखने और पूजा पाठ करने से भगवान का आशीर्वाद प्राप्त होता है. भगवान अपने भक्तों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं. रंग पंचमी के दिन व्रत रखने से बड़े दोष मिटाए जा सकते हैं.

रंग पंचमी पौराणिक महत्व

रंग पंचमी का त्यौहार अपने में अनेकों कथाएं और पौराणिक मान्यताओं को अपने में समेटे हुए है. कुछ कथाओं के अनुसार रंग पंचमी का पर्व एक प्रकार की विजय का प्रतिक है. यह वो समय होता है जब जीवन नकारात्मक और तामसिक गुणों पर एक पवित्रता का प्रतिक बनता है. सतगुणों की प्रगती ही विजय का प्रतीक बनती है. रंग पंचमी का समय आध्यात्मिक साधना के मार्ग को आगे बढ़ाने में बहुत अधिक सहयोग करता है. इस समय पर रंग पंचमी पर्व का आयोजन विकास के मार्ग में आने वाली बाधाओं जल्द समाप्त हो जाएंगी. रंग पंचमी त्यौहार जीवन के प्रत्येक तत्व को प्रभावित करता है.

पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान श्री विष्णु ने जो भी अवतार लिए हैं. उन अवतारों में प्रत्येक रंग की छता दिखाई देती है. भगवान द्वारा किया जाना धूलि वंदन सभी को रंगों में डूबों देने वाला होता है. धूलि वंदन से अर्थ है है कि त्रेता युग में श्री विष्णु जी ने अलग-अलग अवतार कार्य का आरंभ किया. देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाली रंग पंचमी का पर्व लोक परंपराओं से जुड़ा होता है. वर्षों पुरानी परंपरा आज भी मौजूद है. इस दिन पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. लोग रंग पंचमी खेलते है. भगवान का पूजन करते हैं. रंग भरी यात्राओं का आयोजन होता है. इस यात्रा में बहुत से रंग उड़ाए जाते हैं. संपूर्ण मार्ग रंगों से भर जाता है.

कुछ स्थानों पर होली दहन के बाद से धुलेंडी से रंग खेलने का सिलसिला शुरू होता है जो रंग पंचमी तक चलता है. इस दिन के साथ ही रंग पंचमी के साथ ही होली का अम्त होता है.

रंग पंचमी की पूजा विधि

रंग पंचमी के दिन भगवान श्री विष्णु और भगवान शिव का पूजन किया जाता है. इस दिन पवित्र नदियों में स्नान कार्य किया जाता है. स्नान के पश्चात शुद्ध एवं साफ वस्त्रों को धारण किया जाता है. मंदिर में भगवान की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. इसके बाद घी अथवा तेल का दीपक जलाना चाहिए. धूप,गंध, सिंदूर, चंदन, अबीर इत्यादि भगवान को अर्पित करने चाहिए. यह सभी चीजें चढ़ाने के बाद विधिवत पूजा और अर्चना करनी चाहिए. इसके बाद भगवान को रंग लगाना चाहिए. और परिवार के साथ मिलकर कर इस पर्व को मनाना चाहिए.

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होलाष्टक 2024 – आज से होलाष्टक शुरू, मांगलिक कार्यों पर लगेगी रोक

फाल्गुन माह के शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन माह की पूर्णिमा तक होलाष्टक का समय माना जाता है, जिसमें शुभ कार्य वर्जित रहते हैं. होला अष्टक अर्थात होली से पहले के वो आठ दिन जिस समय पर सभी शुभ एवं मांगलिक कार्य रोक दिए जाते हैं. होलाष्टक का लगना होली के आने की सूचना है.

होलाष्टक में आने वाले आठ दिनों का विशेष महत्व होता है. इन आठ दिनों के दौरान पर सभी विवाह, गृहप्रवेश या नई दुकान खोलना इत्यादि जैसे शुभ कार्यों को नहीं किया जाता है. फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होलिका पर्व मनाया जाता है. इसके साथ ही होलाष्टक की समाप्ति होती है.

2024 में कब से कब तक होगा होलाष्टक

  • होलाष्टक का आरंभ – 17 मार्च  2024 को शनिवार के दिन से होगा.
  • होलष्टक समाप्त होगा – 24 मार्च 2024 को रविवार के दिन होगा.

होलाष्टक का समापन होलिका दहन पर होता है. रंग और गुलाल के साथ इस पर्व का समापन हो जाता है. होली के त्यौहार की शुरुआत ही होलाष्टक से प्रारम्भ होकर धुलैण्डी तक रहती है. इस समय पर प्रकृति में खुशी और उत्सव का माहौल रहता है. इस दिन से होली उत्सव के साथ-साथ होलिका दहन की तैयारियां भी शुरु हो जाती है.

होलाष्टक पर नहीं किए जाते हैं ये काम

होलाष्टक मुख्य रुप से पंजाब और उत्तरी भारत के क्षेत्रों में अधिक मनाया जाता है. होलाष्टक के दिन से एक ओर जहां कुछ मुख्य कामों का प्रारम्भ होता है. वहीं कुछ कार्य ऎसे भी काम हैं जो इन आठ दिनों में बिलकुल भी नहीं किए जाते हैं. यह निषेध अवधि होलाष्टक के दिन से लेकर होलिका दहन के दिन तक रहती है.

होलाष्टक के समय पर हिंदुओं में बताए गए शुभ कार्यों एवं सोलह संस्कारों में से किसी भी संस्कार को नहीं किया जाने का विधान रहा है. मान्यता है की इस दिन अगर अंतिम संस्कार भी करना हो तो उसके लिए पहले शान्ति कार्य किया जाता है. उसके उपरांत ही बाकी के काम होते हैं. संस्कारों पर रोक होने का कारण इस अवधि को शुभ नहीं माना गया है.

इस समय पर कुछ शुभ मागंगलिक कार्य जैसे कि विवाह, सगाई, गर्भाधान संस्कार, शिक्षा आरंभ संस्कार, कान छेदना, नामकरण, गृह निर्माण करना या नए अथवा पुराने घर में प्रवेश करने का विचार इस समय पर नहीं करना चाहिए. ज्योतिष अनुसार, इन आठ दिनों में शुभ मुहूर्त का अभाव होता है.

होलाष्टक की अवधि को साधना के कार्य अथवा भक्ति के लिए उपयुक्त माना गया है. इस समय पर केवल तप करना ही अच्छा कहा जाता है. ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए किया गया धर्म कर्म अत्यंत शुभ दायी होता है. इस समय पर दान और स्नान की भी परंपरा रही है.

होलाष्टक पर क्यों नहीं किए जाते शुभ मांगलिक काम

होलाष्टक पर शुभ और मांगलिक कार्यों को रोक लगा दी जाती है. इस समय पर मुहूर्त विशेष का काम रुक जाता है. इन आठ दिनों को शुभ नहीं माना जाता है. इस समय पर शुभता की कमी होने के कारण ही मांगलिक आयोजनों को रोक दिया जाता है.

पौराणिक कथाओं के मुताबिक, दैत्यों के राजा हिरयकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवान श्री विष्णु की भक्ति न करने को कहा. लेकिन प्रह्लाद अपने पिता कि बात को नहीं मानते हुए श्री विष्णु भगवान की भक्ति करता रहा. इस कारण पुत्र से नाराज होकर राजा हिरयकश्यप ने प्रह्लाद को कई प्रकार से यातनाएं दी. प्रह्लाद को फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तिथि तक बहुत प्रकार से परेशान किया. उसे मृत्यु तुल्य कष्ट प्रदान किया. प्रह्लाद को मारने का भी कई बार प्रयास किया गया. प्रह्लाद की भक्ति में इतनी शक्ति थी की भगवान श्री विष्णु ने हर बार उसके प्राणों की रक्षा की.

आठवें दिन यानी की फाल्गुन पूर्णिमा के दिन हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए अपनी बहन होलिका को जिम्मा सौंपा. होलिका को वरदान प्राप्त था की वह अग्नि में नहीं जल सकती. होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाती है. मगर भगवान श्री विष्णु ने अपने भक्त को बचा लिया. उस आग में होलिका जलकर मर गई लेकिन प्रह्लाद को अग्नि छू भी नहीं पायी. इस कारण से होलिका दहन से पहले के आठ दिनों को होलाष्टक कहा जाता हैं और शुभ समय नहीं माना जाता.

होलाष्टक पर कर सकते हैं ये काम

होलाष्टक के समय पर जो मुख्य कार्य किए जाते हैं. उनमें से मुख्य हैं होलिका दहन के लिए लकडियों को इकट्ठा करना. होलिका पूजन करने के लिये ऎसे स्थान का चयन करना जहां होलिका दहन किया जा सके. होली से आठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को शुद्ध किया जाता है. उस स्थान पर उपले, लकडी और होली का डंडा स्थापित किया जाता है. इन काम को शुरु करने का दिन ही होलाष्टक प्रारम्भ का दिन भी कहा जाता है.

शहरों में यह परंपरा अधिक दिखाई न देती हो, लेकिन ग्रामिण क्षेत्रों में आज भी स्थान-स्थान पर गांव की चौपाल इत्यादि पर ये कार्य संपन्न होता है. गांव में किसी विशेष क्षेत्र या मौहल्ले के चौराहे पर होली पूजन के स्थान को निश्चित किया जाता है. होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक रोज ही उस स्थान पर कुछ लकडियां डाली जाती हैं. इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकडियों का बहुत बड़ा ढेर तैयार किया जाता है.

शास्त्रों के अनुसार होलाष्टक के समय पर व्रत किया जा सकता है, दान करने से कष्टों से मुक्ति मिलती है. इन दिनों में सामर्थ्य अनुसार वस्त्र, अन्न, धन इत्यादि का दान किया जाना अनुकूल फल देने वाला होता है.

होलाष्टक पौराणिक महत्व

फाल्गुण शुक्ल अष्टमी से लेकर होलिका दहन अर्थात पूर्णिमा तक होलाष्टक रहता है. इस दिन से मौसम की छटा में बदलाव आना आरम्भ हो जाता है. सर्दियां अलविदा कहने लगती है, और गर्मियों का आगमन होने लगता है. साथ ही वसंत के आगमन की खुशबू फूलों की महक के साथ प्रकृ्ति में बिखरने लगती है. होलाष्टक के विषय में यह माना जाता है कि जब भगवान श्री भोले नाथ ने क्रोध में आकर काम देव को भस्म कर दिया था, तो उस दिन से होलाष्टक की शुरुआत हुई थी.

इस दिन भगवान श्री विष्णु का पूजन किया जाता है. होलाष्टक की एक कथा हरिण्यकश्यपु और प्रह्लाद से संबंध रखती है. होलाष्टक इन्हीं आठ दिनों की एक लम्बी आध्यात्मिक क्रिया का केन्द्र बनता है जो साधक को ज्ञान की परकाष्ठा तक पहुंचाती है.

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माध्वाचार्य जयंती, द्वैतवाद सिद्धांत के विचारक और प्रचारक

माध्वाचार्य जी का समय काल 1199-1317 लगभग के आस पास का बताया गया है. उनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था. माध्वाचार्य एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक थे. उन्होने द्वैतमत को आधार प्रदान किया. माध्वाचार्य जी ने सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं को समझा और लोगों तक उन विचारों को पहुंचाने का प्रयास भी किया. माध्वाचार्य जी ने उपनिषदों और वेद सूत्रों पर अनेकों टीकाएं रची थीं. भारतवर्ष में इन्हों ने अनेक मठों की स्थापना की थी. इन स्थानों को आज भी बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माना जाता है. अनेक लोगों को धर्म में दीक्षित किया था. माध्वाचार्य जी को वायुदेव का अवतार माना गया है. माध्वाचार्य जी ने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है.

माध्वाचार्य जीवन परिचय

माध्वाचार्य का जन्म दक्षिण भारत के कन्नड जिले के उडुपी शिवल्ली नामक स्थान के पास पाजक नामक गांव में हुआ था. बहुत कम उम्र में ही इन्होंने वेद और वेदांगों की शिक्षा ग्रहण कर ली थी और इनके अच्छे ज्ञाता हुए. इन्होंने संन्यास को अपना लिया. अपने संन्यास और शिक्षा काल में अच्युतपक्षाचार्य नामक आचार्य से भी विद्या प्राप्त की थी.

द्वैतवाद क्या होता है.

द्वैतवाद, “वेदांत” की दार्शनिक विचारधारा का एक महत्त्वपूर्ण मत है. द्वैतवाद दर्शन को सभी के समक्ष लाने और उसे बढ़ाने का मुख्य कार्य विचारक मध्वाचार्य जी को बताया जाता है. “द्वैतवाद” का अर्थ है एक से अधिक मत की स्वीकृति होना. यही इसके नाम को अभिव्यक्त करता है. द्वैत मत के अनुसार प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों का अस्तित्त्व स्वीकार्य है. माध्वाचार्य जी ने अभाव अर्थात किसी भी चीज की कमी को भ्रम का मूल कारण को बताया. इस मत में विभिन्न दर्शनों में से अनेक बातों को संग्रहित किया गया.

दर्शन में द्वैतवाद सबसे अधिक लोकप्रिय विचारधारा में से एक है. इस विचारधारा में ईश्वर को सर्वत्र स्थापित किया गया है. विश्व का निर्माण और शासन का संपूर्ण भार ईश्वर के ही अधीन है. द्वैतवादियों की मान्यता है की इस सृष्टि में तीन चीजों का अस्तित्व है- ईश्वर, प्रकृति और जीवात्मा. यह तीनों ही नित्य हैं. प्रकृति और जीवात्मा में परिवर्तन होते रहते हैं. लेकिन ईश्वर में कोई परिवर्तन नहीं है. ईश्वर तो शाश्वत है. ईश्वर सगुण है उसमे दयालुता, न्याय, शक्ति इत्यादि गुण विद्यमान हैं.

माध्वाचार्य थे द्वैत मत के प्रचारक

द्वैतवाद में ईश्वर की पूजा को दर्शाया गया. द्वैतवाद का विरोध भी किया गया. एक तरफ वो कहते हैं कि ईश्वर में कोई ऎसा गुण नहीं है जिसे गलत या व्यर्थ कहा जाए. लेकिन जब वह कहते हैं ईश्वर प्रसन्न होता है तो यहां कई बातें उठती हैं. विवाद इस बात में होता है की जब कहा जाता है ईश्वर अप्रसन्न होता है, तो वो ये स्पष्ट नहीं करते की वो अप्रसन्न क्यों होता है क्योंकि ये अच्छा मानवीय गुण नहीं है. द्वैतवाद में इसी तरह के आन्य विरोधी सिद्धांत भी बताए गए हैं.

द्वैतवाद के संस्थापक माधवाचार्य जी थे, जिन्हें आनंदतीर्थ के नाम से भी पुकारा जाता है. कर्नाटक राज्य में उनके अब भी बहुत से अनुयायी हैं. माध्वाचार्य को उनके जीवनकाल में ही “वायु देवता” का अवतार बताया जाने लगा था. उनके अनुयायी और शिष्य उन्हें इसी रुप में मानते थे.

माधव का मत है कि विष्णु सर्वोच्च ईश्वर है. वह उपनिषदों में मौजूद ब्रह्मा को वैयक्तितक ईश्वर के रूप में मानते हैं. रामानुज जी, ने भी उनसे पहले इस मत को माना था. माधवाचार्य की पद्धति में तीन व्यवस्थाएं हैं. ईश्वर, आत्मा और जड़ प्रकृति. ईश्वर को सभी सिद्धियों का सार बताया गया है. यह निराकार है, माधवाचार्य के परमात्मा ही ब्रह्मांड का कर्ता है. ईश्वर ने खुद को बांट कर विश्व का सृजन नहीं किया और न ही किसी अन्य तरह से.

माध्वाचार्य के सुधार कार्य

मध्वाचार्य जी ने अनेकों धार्मिक कार्यों के साथ साथ ही समाज में सुधार के काम भी किए. भारत में जब भक्ति आन्दोलन का दौर आरंभ होता है तो उस समय पर सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे माधवाचार्य जी. अपने कार्यों के कारण ही उन्हें वे पूर्णप्रज्ञ और आनंदतीर्थ जैसे नामों से पुकारा गया.

मंदिरों और मठ की स्थापना द्वारा ज्ञान का प्रचार किया. इसके साथ ही साथ पशुबलि बन्द कराने का काम भी किया. मध्वाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की रचना, अपनी रचनाओं में उन्होंने अनेक प्रकार के पाखण्डवाद को दूर करने का प्रयास किया. भगवान की भक्ति का प्रचार करके लाखों लोगों को उचित मार्ग भी दिखाया. माध्वाचार्य जी ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए बहुत से ग्रंथ लिखे. इनके ग्रंथों की संख्या 30 या 37 के आस पास की बतायी जाती है.

मध्वाचार्य और अच्युतपक्षाचार्य के मध्य क्यों हुआ विवाद

अच्युतपक्षाचार्य अद्वैतमत के समर्थक थे. माध्वाचार्य के दीक्षा गुरु होने के कारण माधवाचार्य ने उनसे अनेकों बातें सिखी. पर कुछ स्थानों पर वे उनसे सहमत नहीं हो पाए. इस कारण वह अपने तर्क को सदैव अपने गुरु के सामने अवश्य रखते थे. कुछ बातों पर वह उनके समर्थक नही होने के कारण अपने गुरु के साथ उनका शास्त्रार्थ होता है. गुरु और शिष्य के मध्य तर्क की समाप्ति न होने के कारण. माधवाचार्य ने अपना एक अलग मत बनाया जिसे “द्वैत दर्शन” के नाम से जाना गया.

इनके अनुसार विष्णु ही परमात्मा हैं. श्री विष्णु के परम भक्त्त बनते हुए माधवाचार्य जी ने श्री विष्णु भगवान के चिन्हों और आभूषणों को खुद पर भी सजाया. माध्वाचार्य जी ने शंख, चक्र, गदा और पद्म के चिन्हों से अपने अंगों को सजाने की प्रथा का आरंभ किया. इनके विचार को आगे भी समर्थन प्राप्त हुआ. देश भर में इन्हों भ्रमण किया. इनके अनेकों अनुयायी बनते हैं. उडुपी स्थान में श्रीकृष्ण के मंदिर की स्थापना का श्रेय भी इन्हें जाता है. यह स्थान आज भी माध्वाचार्य के मानने वालों के लिए एक विशेष स्थान है.

ग्रंथों की रचना करना

माध्वाचार्य जी ने अपने जीवन काल में अनेक प्रकार के ग्रंथों की रचना की. सुमध्वविजय और मणिमंजरी नामक ग्रन्थ में मध्वाचार्य जी द्वारा की गई रचनाओं और उनके कामों का वर्णन मिलता है. भारत में भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक स्थान माध्वाचार्य जी को प्राप्त है. मध्वाचार्य जी अपने समय के अग्रदूत थे, प्रचलित रीतियों के विरुद्ध जाते हुए उन्हेंने अनेकों कार्य भी किए.

द्वैत दर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा है. वेदांत की तार्किक रुप से पुष्टि के लिये एक अनुव्याख्यान लिखा जिसमें ब्राह्ममणा ग्रंथों का वह भाग जो कठिन सूत्रों और मंत्रों की व्याख्या करता है. श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों पर टीकाएं भी लिखीं. महाभारततात्पर्यनिर्णय और श्रीमद्भागवतपुराण नामक कुछ ग्रंथ भी इनके द्वारा रचे गए. इनके द्वारा ऋग्वेद के पहले चालीस सूक्तों पर भी एक टीका प्राप्त होती है.

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पौष पूर्णिमा 2024, पौष पूर्णिमा में जानें स्नान, दान का महत्व

पौष मास की पूर्णिमा को “पौष पूर्णिमा” का पर्व मनाया जाता है. पौष मास की पूर्णिमा को हिंदू पंचांग अनुसार बहुत ही शुभ माना गया है. इस पूर्णिमा के दिन श्री विष्णु पूजन होता है. भगवान सत्यनारायण कथा का पाठ होता है. पौष माह की पूर्णिमा मोक्ष प्रदान करने वाली होती है. इस दिन किया गया दान और पुण्य उत्तम लोक की कामना रखने वालों के लिए खास होता है. पौष पूर्णिमा के दिन किया गया गंगा स्नान पुण्य प्राप्ति कराता है. कष्टों का नाश होता है. इस तिथि को सूर्य और चंद्रमा का पूजन करना चाहिए. पूजा द्वारा मनोकामनाएं पूर्ण होती है. जीवन में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं.

पौष पूर्णिमा पूजा मुहूर्त

  • पूर्णिमा आरंभ – 24 जनवरी, 2024 को 20:11 से.
  • पूर्णिमा समाप्त – 25 जनवरी, 2024 को 17:07 तक.

पौष पूर्णिमा विधि-विधान

पौष पूर्णिमा के अवसर पर भगवान सत्यनारायण जी कि कथा की जाती है. भगवान विष्णु की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंचामृत, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग किया जाता है. सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, शहद, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है. इस दिन पूजा के लिए आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर चूरमे का प्रसाद बनाया जाता है और इस का भोग लगता है. सत्य-नारायण की कथा के बाद उनका पूजन होता है, इसके बाद देवी लक्ष्मी, महादेव और ब्रह्मा जी की आरती कि जाती है और चरणामृत लेकर प्रसाद बांटा जाता है.

पौष पूर्णिमा कथा

पौष पूर्णिमा कथा इस प्रकार है – प्राचीन काल में कातिका नामक एक नगरी थी. उस नगर का राजा चन्द्रहास था. वह नगरी सभी प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी. उस नगर में एक धनेश्वर नाम का एक ब्राह्मण रहा करता था. ब्राह्मण की पत्नी भी धर्म कर्म में निपुण थी. दोनों पति पत्नी सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं, पर उन दोनो को एक ही दुख था की उनके कोई संतान नही थी.

उस नगर में एक बार एक महान योगी आते हैं. वह योगी घरों से भोजन प्राप्त करके अपना जीवन यापन करते हैं. योगी हर घर से भिक्षा लेते थे लेकिन उस ब्राह्मण दंपति के घर से कुछ भी नही लेते थे. ब्राह्मण दंपति को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने योगी जी से अपने घर से कुछ न लेने के बारे में पूछा. तो योगी उसे बताते हैं की तुम्हारे कोई संतान नहीं है. ऎसे में हम योगी उस व्यक्ति से कुछ नही लेते हैं जिनके संतान न हो. क्योंकि संतान हीन से कुछ भी लेना पाप योग्य होता है. अतः पतित हो जाने के भय के कारण ही तुम्हारे घर की भिक्षा नहीं लेते हैं.

ब्राह्मण ने जब यह बात सुनी तो वह उन योगी के चरणों में गिरकर संतान प्राप्ति का सुख पाने की मंशा व्यक्त की. यह सुनकर योगी उसे देवी चण्डी की आराधना करने को कहते हैं. अपने स्त्री को सारी बात बता कर वह ब्राह्मण साधना के लिए वन की ओर चल पड़ता है. चण्डी की उपासना की के सोलहवें दिन उन्हें सपने में माता ने दर्शन दिया. उसे संतान प्राप्ति का आशीर्वाद देती हैं पर साथ ही यह भी कहती हैं कि बच्चा केवल सोलह वर्ष तक ही जीवित रह पाएगा.

ब्राह्मण देवी से अपने पुत्र की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करता है. तब देवी उन्हें कहती है. यदि तुम दोनों पति-पत्नी बत्तीस पूर्णमासियों का व्रत करते हो तो तुम लोगों को संतान की दीर्घायु का आशीर्वाद प्राप्त हो सकता है.

इस प्रकार धनेश्वर और उसकी पत्नी ने बत्तीस पौष पूर्णिमाओं का व्रत किया. इस व्रत के प्रभाव से उन्हें संतान का सुख प्राप्त हुआ और संतान को लम्बी आयु भी पाप्त हुई. जो भी स्त्री पुरुष इस व्रत को करते हैं उन्हें संतान का सुख और सौभाग्य की प्राप्त होती है. जो भी स्त्रियां इस व्रत को करती हैं, वे उन्हें वैधव्य का दुख नहीं झेलना पड़ता है. सदैव सौभाग्यवती होने का सुख पाती हैं.

पौष पूर्णिमा पर स्नान दान का महत्व

पौष पूर्णिमा के शुभ दिन से एक माह तक गंगा-यमुना स्नान का बहुत महत्व होता है. पौष पूर्णिमा पर चारों ओर वातावरण भक्तिमय होता है. श्रद्धालु व भक्त जन प्रात:काल ही नदी व तालाबों में स्नान करने पहुंच जाते हैं. श्रद्धालु स्नान करते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देते हैं और अनेक प्रकार के धार्मिक कृत पूर्ण करते हैं इस पावन अवसर पर शिवलिंग को जलअर्पण किया जाता है तथा ध्यान साधना की जाती है. मंदिरों व अन्य स्थानों में धार्मिक आयोजन होते हैं. रामायण, भागवत प्रवचन, कथाओं व सतसंगो का आयोजन किया जाता है.

पौष पूर्णिमा के पावन पर्व पर गंगा समेत अनेक पवित्र नदियों में स्नान किया जाता है. हरिद्वार समेत अनेक स्थानों पर लोग आस्था की डुबकी लगाते हैं और पापों से मुक्त होते हैं. पौष पूर्णिमा के स्नान पर पुण्य की कामना से स्नान का बहुत महत्व होता है. इस अवसर पर किए गए दान का अमोघ फल प्राप्त होता है. पौष पूर्णिमा के साथ ही माघ स्नान आरंभ हो जाता है. यह एक बहुत पवित्र अवसर माना जाता है, जो सभी संकटों को दूर करके मनोकामनाओं की पूर्ति करता है.

पौष पूर्णिमा महत्व

पौष पूर्णिमा का व्रत पुत्र-पौत्रों का सुख देने वाला होता है. सम्पूर्ण मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है. बत्तीस पूर्णिमाओं के व्रत करने से साधक की सभी कामनाएं और इच्छाएं पूर्ण होती हैं. भगवान शिव जी की कृपा से मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं. पौष पूर्णिमा को अन्य की नामों से जाना जाता है. इसी के साथ इस पूर्णिमा के दिन को भारत के अनेकों क्षेत्रों में अलग-अलग रुप से मनाया भी जाता रहा है.

ग्रामीण लोग पौष पूर्णिमा के दिन को छेरता नामक पर्व के रुप में मनाते हैं. इस समय पर सभी लोग अपने घरों में अनेकों व्यंजन बनाते हैं. चावल का चिवड़ा गुड़ और तिल के बनें पकवान भोग स्वरुप भगवान को लहाए जाते हैं. यह प्रसाद रुप में सभी को दिया जाता है. पौष पूर्णिमा के दिन शाकंभरी जयन्ती भी मनाई जाती है. इस दिन को दुर्गा के अवतार रुप शाकम्भरी को पूजा जाता है. दुर्गा का यह अवतार पृथ्वी पर जीवन को पुन: आरंभ करने और संचालन के लिए होता है.

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भीष्म द्वादशी 2024, जाने पूजा मुहूर्त और कथा

भीष्म द्वादशी का पर्व माघ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को किया जाता है. यह व्रत भीष्म पितामह के निमित्त किया जाता है. इस दिन महाभारत की कथा के भीष्म पर्व का पठन किया जाता है, साथ ही भगवान श्री कृष्ण का पूजन भी होता है. पौराणिक मान्यता अनुसार भीष्म अष्टमी के दिन ही भीष्म पितामह ने अपने शरीर का त्याग अष्टमी तिथि को किया था लेकिन उनके निमित्त जो भी धार्मिक कर्मकाण्ड किए गए उसके लिए द्वादशी तिथि का चयन किया गया था.अत: उनके निर्वाण दिवस के पूजन को इस दिन मनाया जाता है.

भीष्म द्वादशी पूजा मुहूर्त

  • इस वर्ष भीष्म द्वादशी 21 फरवरी 2024 को बुधवार के दिन मनाई जाएगी.
  • द्वादशी तिथि आरंभ – 20 फरवरी 2024, 09:56 से.
  • द्वादशी समाप्त – 21 फरवरी 2024, 11:27.

भीष्म द्वादशी कथा

महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे होते हैं. पांडवों के लिए भीष्म को हरा पाना असंभव था. इसका मुख्य कन था की उन्हें इच्छा मृ्त्यु का वरदान प्राप्त था. वह केवल अपनी इच्छा से ही प्राण त्याग सकते थे. युद्ध में भीष्म पितामह के कौशल से कौरव हार ही नहीं सकते थे. उस युद्ध में पितामह को पराजित करने के लिए एक योजना बनाई गई. इस योजना का मुख्य केन्द्र शिखंडी था. पितामह ने प्रण लिया था की वह कभी किसी स्त्री के समक्ष शस्त्र नहीं उठाएंगे. इसलिए उनकी इस प्रतिज्ञा का भेद जब पांडवों को पता चलता है. तब एक चाल चली जाती है. युद्ध समय पर शिखंडी को युद्ध में उनके समक्ष खड़ा कर दिया जाता है. अपनी प्रतिज्ञा अनुसार पितामह शिखंडी पर शस्त्र नहीं उठाते हैं. शस्त्र न उठाने के कारण भीष्म पितामह युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र नहीं उठाते हैं. इस अवसर का लाभ उठा कर अर्जुन उन पर तीरों की बौछार शुरू कर देते हैं. पितामह बाणों की शैय्या पर लेट जाते हैं.

परंतु उस समय भीष्म पितामह अपने प्राणों का त्याग नहीं करते हैं. सूर्य दक्षिणायन होने के कारण भीष्म पितामह ने अपने प्राण नहीं त्यागे. सूर्य के उत्तरायण होने पर ही वे अपने शरीर का त्याग करते हैं. भीष्म पितामह ने अष्टमी को अपने प्राण त्याग दिए थे. पर उनके पूजन के लिए माघ मास की द्वादशी तिथि निश्चित की गई. इस कारण से माघ मास के शुक्ल पक्ष द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी कहा जाता है.

भीष्म द्वादशी पर की पूजा विधि

  • भीष्म द्वादशी के दिन नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान के पश्चात भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए.
  • सूर्य देव का पूजन करना चाहिए.
  • तिल, जल और कुशा से भीष्म पितामह के निमित्त तर्पण करना चाहिए.
  • तर्पण का कार्य अगर खुद न हो पाए तो किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा इसे कराया जा सकता है.
  • ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देनी चाहिए.
  • इस दिन अपने पूर्वजों का तर्पण करने का भी विधान बताया गया है.
  • इस दिन भीष्म कथा का श्रवण करना चाहिए. मान्यता है कि इस दिन विधि विधान के साथ पूजन इत्यादि करने से व्यक्ति के कष्ट दूर होते हैं.
  • पितृरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. इस पूजन से पितृ दोष से भी मुक्ति प्राप्त होती है.

भीष्म द्वादशी पर करें तिल का दान

भीष्म द्वादशी का दिन तिलों के दान की महत्ता भी दर्शाता है. इस दिन में तिलों से हवन करना. पानी में तिल दाल कर स्नान करना और तिल का दान करना ये सभी अत्यंत उत्तम कार्य बताए गए हैं. तिल दान करने से अपने जीवन में खुशियों का आगमन होता है. सफलता के दरवाजे खुलते हैं. हिंदू धर्म में इस दिन को लेकर अलग-अलग तरह की मान्यताएं हैं, लेकिन इस पर्व पर तिलों को बेहद ही महत्वपू्र्ण माना जाता.

भीष्म द्वादशी के दिन तिलों के दान से लेकर तिल खाने तक को शुभ बताया गया है. हिन्दू धर्म में तिल पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय माने जाते हैं. शुद्ध तिलों का संग्रह करके यथाशक्ति ब्राह्मणों को दक्षिणासहित तिल का दान करना चाहिए. तिल के दान का फल अग्निष्टोम यज्ञ के समान होता है. तिल दान देने वाले को गोदान करने का फल मिलता है.

क्यों मिला था भीष्म पितामह को “ इच्छा मृत्यु” का वरदान

महाभारत की कथा अनुसार ​हस्तिनापुर में शांतनु नामक राजा और उनकी पत्नी गंगा के पुत्र देवव्रत थे. देवव्रत के जन्म के बाद अपने वचन के मुताबिक गंगा, शांतनु को छोड़कर चली जाती हैं. शांतनु अकेले रह जाते हैं. एक बार राजा शांतनु, जब सत्यवती नाम की कन्या से भेंट होती है. सत्यवती के रूप पर मोहित हो जाते हैं. उनसे विवाह के लिए आग्रह करते हैं. राजा शांतनु सत्यवती के पिता के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा. उनके पिता शर्त के रुप में उनके सामने सत्यवती की संतान ही राज्य की उतराधिकारी बनाने की शर्त रखते हैं.

राता शांतनु इस शर्त को अस्वीकार कर देते हैं. परंतु के पुत्र देवव्रत को जब इस बात का पता चलता है, तो वह अविवाहित रहने का संकल्प लेते हैं और सत्यवती की संतानों को राज्य का उत्तराधिकारी होने का वचन देते हैं. इसके बाद सत्यवती का विवाह शांतनु से होता है. पुत्र की कठोर प्रतिज्ञा सुनकर, राजा शांतनु देवव्रत को इच्छा मृत्यु का वरदान देते हैं. इस प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत को भीष्म नाम प्राप्त होता है.

अष्टमी के दिन भीष्म ने प्राण त्यागे, द्वादशी को होती है पूजा

माघ मास में शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी का समय तर्पण और पूजा-पाठ के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है. इस दिन स्नान दान का भी अत्यंत ही शुभ फल मिलता है. इस दिन को तिल द्वादशी भी कहते हैं. इसलिए इस दिन तिलों का दान और सेवन दोनों ही कार्य उत्तम होते हैं. मान्यता है कि पांडवों ने इस दिन पितामह भीष्म का अंतिम संस्कार किया था. इसलिए इस दिन को पितरों के लिए तर्पण और श्राद्ध करना शांति प्रदान करने वाला होता है.

मान्यता है कि भीष्म द्वादशी के दिन उपवास रखने से व्यक्ति की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. जीवन में सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है. इस द्वादशी के दिन भगवान विष्णु का पूजन भी किया जाता है. ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं और सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देने से सुख की वृद्धि होती है. द्वादशी के दिन स्नान-दान करने से सुख-सौभाग्य, धन-संतान की प्राप्ति होती है. इस दिन गरीबों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन किया जाता है. इस व्रत से समस्त पापों का नाश होता है. इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. भीष्म द्वादशी का उपवास संतोष प्रदान करता है.

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श्री (सरस्वती) पंचमी 2024, हर परीक्षा में होंगे सफल

माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन श्री पंचमी का त्यौहार मनाया जाता है. इस पर्व को हर्ष और उत्साह के साथ मनाया जाता है. यह दिन भिन्न भिन्न रुपों में अलग अलग स्थानों पर मनाते हुए देखा जा सकता है. इस दिन मंदिरों में सरस्वती पूजा होती है. मान्यता है की इस दिन देवी सरस्वती की पूजा अर्चना करने से विधा और ज्ञान की प्राप्ति होती है इसीलिए इस दिन माँ सरस्वती की पूजा पीले फूलों, फलों व पीले व्यंजनों से की जाती है.

हिन्दू संस्कृति में इस दिन से कई धार्मिक और लोक परम्पराएं जुडी हुई हैं. इसी दिन देवी सरस्वती की पूजा करने के बाद छोटे बच्चों को विद्यारम्भ या फिर प्राथमिक शिक्षा की प्रक्रिया आरंभ की जाती है. श्री पंचमी के दिन को बच्चों की शिक्षा आरम्भ करने के लिए बहुत ही शुभ माना गया है.

श्री पंचमी के अलग-अलग रुप

“श्री” शब्द का अर्थ लक्ष्मी और सरस्वती के संदर्भ में लिया जाता रहा है. श्री को विजय, धन संपदा, बौद्धिकता और ज्ञान के साथ जोड़ा गया है. भारतीय परंपरा में देवी सरस्वती और देवी लक्ष्मी इन दोनों को ही श्री नाम से संबोधित किया जाता रहा है. इन दोनों का ही एक पर्व श्री पंचमी के नाम से मनाया जाता है. यह पर्व पंचांग गणना के अनुसार अलग-अलग महीनों में मनया जाता रहा है.

श्री पंचमी पूजा मुहूर्त

  • पंचमी तिथि प्रारम्भ – 13 फरवरी 2024 को 14:43 से.
  • पंचमी तिथि समाप्त -14 फरवरी 2024 को 12:10 तक.

श्री पंचमी प्रकृति के बदलाव की शुरुआत का समय होता है. इस समय पर पकृति का नया कलेवर दिखाई देता है. इस समय पर चारों एक अलग प्रकार का रंग दिखाई देता है. ये समय चारों ओर पीले फूलों की बहार होती है. इस पर्व का प्रकृतिक और धार्मिक रंग दोनों ही ऎसी छाप छोड़ते हैं जो सभी पर एक समान रुप से प्रभाव भी डालते हैं.

श्री पंचमी – क्यों माना जाता है शुभ मुहूर्त समय

श्री पंचमी के समय को बहुत ही शुभ माना जाता है. इस दिन पर कई प्रकार के मांगलिक कार्यों को किया जाता है. बहुत सी नई चीजों की शुरुआत करने के लिए इस दिन को विशेष महत्व बताया गया है. इस दिन को विवाह जैसे पवित्र बंधन में बंधने के लिए भी शुभ माना गया है. विवाह कार्य इस दिन जरुर होते हैं. माना जाता है की इस दिन विवाह होने पर वैवाहिक जीवन मजबूत होता है और उम्र भर एक दूसरे का साथ निभाते हैं.

श्री पंचमी के दिन से कई मान्यताएं जुडी हुई हैं. इस दिन को रीती-रिवाजों के लिए उत्तम माना गया है. मान्यता है कि ब्रम्हांड की रचना इसी दिन हुई थी. देवी सरस्वती का प्राकट्य हुआ था. इसीलिए देवी सरस्वती की पूजा का विधान है. इस दिन गुरु से ज्ञान लिया जाता है. शिक्षा ग्रहण करने का शुभारम्भ भी किया जाता है. पुस्तकों और वाद्य यंत्रों को पूजा की जाती है.

श्री पंचमी के दिन बच्चों को पहली बार कलम पकड़ाई जाती है. विद्वानों का मानना है की इस दिन बच्चों की जीभ पर शहद से ॐ बनाना चाहिए. इससे बच्चा बुद्धिमान बनता है. अन्नप्राशन की परंपरा के लिए श्री पंचमी का दिन बहुत शुभ होता है. इनके साथ-साथ गृह प्रवेश और नए कार्यों की शुरुआत के लिए भी इस दिन को श्रेष्ठ माना गया है.

श्री पंचमी – विभिन्न स्थानों ऎसे मनाई जाती है

श्री पंचमी का उत्सव भारत वर्ष के प्रत्येक स्थानों पर अलग-अलग रुपों में मनाया जाता है. हर स्थान में अपनी अलग-अलग परम्पराएं और मान्यताएं मौजूद हैं. यह सभी कुछ इस प्रकार से श्री पंचमी का पर्व मनाते हैं.

मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस दिन को शिक्षण संस्थानों को खास तौर पर मनाया जाता है. इस दिन पीले रंग का उपयोग सबसे अधिक होता है. पहनावा हो या फिर खान-पान सभी में इस रंग की मौजूदगी दिखाई देती है. विधि विधान के साथ देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. संस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. यह समय मेल-मिलाप और खुशियों को बांटने का समय होता है.

उत्तर भारत क्षेत्र में श्री पंचमी के दिन घरों को साफ सुथरा किया जाता है. सजाया जाता है, पीले वस्त्र धारण किए जाते हैं. केसर-हल्दी का टिका लगाया जाता है. धूमधाम से मनाया जाता है और इस दिन मिठाई के रूप में केसरिया खीर को घरों में भोग स्वरुप बनाया जाता है. बूंदी व बेसन के लड्डू, मालपुए का प्रसाद सभी को बांटा जाता है. देवी सरस्वती का पूजन होता है.

बंगाल में श्री पंचमी का पर्व सरस्वती पूजा के रुप में धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन भी दुर्गा पूजा की तरह ही पंडाल सजाकर देवी सरस्वती की पूजा की जाती है. देवी सरस्वती को प्रसाद के रूप में लड्डू, खिचड़ी, राजभोग इत्यादि को बनाया जाता है. पंजाब और हरियाणा क्षेत्र में इस दिन को बसंत पंचमी के रुप में मानाया जाता है. इस दिन पर पतंगे भी उड़ाई जाती है. सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है.

श्री पंचमी पर कैसे करें पूजा

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पान के पत्ते पर हल्दी लगाकर पान के पत्ते को माता के पास रखना चाहिएदेवी सरस्वती को को पुष्प अर्पित करने चाहिए. पंचामृत अर्पित करना चाहिए, दीप जला कर धुप-अगरबत्ती से पूजा करनी चाहिए. माता सरस्वती के मंत्र जाप और आरती के बाद हाथ जोड़कर माता सरस्वती से उज्जवल भविष्य की कामना का आशीर्वाद मांगना चाहिए. घर में पढने वाले बच्चों की किताबों और पैन को भी पूजन स्थल पर रखा जा सकता है.

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वरद कुंद चतुर्थी 2024

माघ माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को “वरद कुंद चतुर्थी” के रुप में मनाया जाता है. वैसे यह चतुर्थी अन्य नामों से भी जानी जाती है. जिसमें इसे तिल, कुंद, विनायक आदि नाम भी दिए गए हैं. इस दिन भगवान श्री गणेश का पूजन होता है. वरद चतुर्थी जीवन में सभी सुखों का आशीर्वाद प्रदान करने वाली है. भगवन श्री गणेश द्वारा दिया गया आशीर्वाद ही “वरद” होता है.

भगवान श्री गणेश का एक नाम वरद भी है जो सदैव भक्तों को भय मुक्ति और सुख समृद्धि का आशीर्वाद होता है. चतुर्थी तिथि भगवान गणेश की पूजा के लिए विशेष महत्वपूर्ण बतायी गयी है. इसलिए प्रत्येक माह की चतुर्थी तिथि के गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जाता है. भगवान श्री गणेश चतुर्थी का उत्सव संपूर्ण भारत वर्ष में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. चतुर्थी को भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी जाती है. शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को वरद विनायकी चतुर्थी के नाम से भी पुकारा जाता है. चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी पर श्री गणेश का पूजन करना अत्यंत ही शुभदायक होता है.

वरद कुंद चतुर्थी मुहूर्त

इस वर्ष माघ मास के शुक्ल पक्ष के दौरान आने वाली कुंद चतुर्थी का पर्व 13 फरवरी 2024 को मनाया जाएगा.

  • चतुर्थी तिथि आरंभ – 12 फरवरी 2024 सोमवार
  • चतुर्थी तिथि समाप्त – 13 फरवरी 2024 मंगलवार.

कुंद चतुर्थी पूजन कैसे किया जाए

वरद कुंद चतुर्थी के दिन भगवान श्री गणेश जी का पूजन उल्लास और उत्साह के साथ होता है. चतुर्थी तिथि व्रत के नियमों का पालन चतुर्थी तिथि से पूर्व ही आरंभ कर देना चाहिए. पूजा वाले दिन प्रात:काल उठ कर श्री गणेश जी के नाम का स्मरण करना चाहिए. चतुर्थी के दिन सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर साफ-स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. चतुर्थी व्रत वाले दिन नाम स्मरण का विशेष महत्व रहा है. कुंद चतुर्थी पूजा स्थल पर भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. अक्षत, रोली, फूल माला, गंध, धूप आदि से गणेश जी को अर्पित करने चाहिए. गणेश जी दुर्वा अर्पित और लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए. पूजा की विधि इस प्रकार है –

  • जिस स्थान पर पूजा करनी है उस स्थान को गंगाजल से शुद्ध करना चाहिए. पूजा के लिए ईशान दिशा का होना शुभ माना गया है. गणेश जी की प्रतिमा और चित्र को स्थापित करना चाहिए.
  • भगवान श्री गणेश जी पूजा में दूर्वा का उपयोग अत्यंत आवश्यक होता है. इसका मुख्य कारण है की दुर्वा(घास) भगवान को अत्यंत प्रिय है.
    भगवान गणेश के सम्मुख ऊँ गं गणपतयै नम: का मंत्र बोलते हुए दुर्वा अर्पित करनी चाहिए.
  • इसके बाद आसन पर बैठकर भगवान श्रीगणेश का पूजन करना चाहिए.
  • कपूर, घी के दीपक से आरती करनी चाहिए.
  • भगवान को भोग लगाना चाहिए. तिल और गुड़ से बने लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए और उस प्रसाद को सभी में बांटना चाहिए.
  • व्रत में फलाहार का सेवन करते हुए संध्या समय गणेश जी की पुन: पूजा अर्चना करनी चाहिए. पूजा के पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए उसके बाद स्वयं भोजन ग्रहण करना चाहिए.
  • इस दिन दान का भी विशेष शुभ फल मिलता है. इसलिए इस दिन गर्म कपड़े, कंबल, गुड़, तिल इत्यादि वस्तुओं का दान करना चाहिए. इस प्रकार विधिवत भगवान श्रीगणेश का पूजन करने से घर-परिवार में सुख-समृद्धि में निरंतर वृद्धि होती है.

चतुर्थी व्रत कथा

चतुर्थी व्रत से सबंधित कथा भगवान श्री गणेश जी के जन्म से संबंधित है तो कुछ कथाएं भगगवान के भक्त पर की जाने वाली असीम कृपा को दर्शाती है. इसी में एक कथा इस प्रकार है. शिवपुराण में बताया गया है कि शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि पर गणेशजी का जन्म हुआ था. इस कारण चतुर्थी तिथि को जन्म तिथि के रुप में मनाया जाता है. इस दिन गणेशजी के लिए विशेष पूजा-पाठ का आयोजन होता है. मान्यता के अनुसार एक बार माता पार्वती स्नान के लिए जब जाने वाली होती हैं तो वह अपनी मैल से एक बच्चे का निर्माण करती हैं और उस बालक को द्वारा पर पहरा देने को कहती हैं.

उस समय भगवान शिव जब अंदर जाने लगते हैं तो द्वार पर खड़े बालक, शिवजी को पार्वती से मिलने से रोक देते है. बालक माता पार्वती की आज्ञा का पालन कर रहे होते हैं. जब शिवजी को बालक ने रोका तो शिवजी क्रोधित हो गए और अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर धड़ से अलग कर देते हैं. जब पार्वती को ये बात मालूम हुई तो वह बहुत क्रोधित होती हैं. वह शिवजी से बालक को पुन: जीवित करने के लिए कहती हैं. तब भगवान शिव ने उस बालक के धड़ पर हाथी का सिर लगा कर उसे जीवित कर देते हैं. उस समय बालक को गणेश नाम प्राप्त होता है. वह बालक माता पार्वती और भगवन शिव का पुत्र कहलाते हैं.

चंद्रमा का क्यों मिला श्राप

वरद चतुर्थी तिथि शुरू होने से लेकर खत्म होने तक चन्द्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए. मान्यता है की चतुर्थी तिथि के दिन चंद्र देव को नहीं देखना चाहिए. पौराणिक कथाओं के अनुसार चंद्रमा को भगवान श्री गणेश द्वारा श्राप दिया गया था की यदि कोई भी भाद्रपद माह चतुर्थी तिथि के दिन चंद्रमा का दर्शन करेगा तो उसे कलंक लगेगा. ऎसे में इस कारण से चतुर्थी तिथि के दिन चंद्रमा के दर्शन को मना किया जाता है. कहा जाता है कि इस दोष से मुक्ति के लिये वरद गणेश चतुर्थी के व्रत को किया और मिथ्या दोष से मुक्ति को प्राप्त होते हैं.

एक बार चंद्रमा, गणेशजी का ये स्वरूप देखकर उन पर हंस पड़ते हैं. जब गणेश जी ने चंद्र को ऎसा करते देखा तो उन्होंने कहा की “चंद्रदेव तुम्हें अपने रुप पर बहुत घमण्ड है अत: मै तुम्हें श्राप देता हूं की तुम्हारा रुप सदैव ऎसा नहीं रहेगा”. गणेश जी के चंद्र को दिए शाप के कारण ही वह सदैव धीरे-धीरे क्षीण होने लगते हैं और आकार में बदलाव रहता है.

श्राप को सुनकर चंद्रमा को अपने अपराध पर पश्चताप होता है और वे गणेश से क्षमा मांगते हैं. तब गणेश उन्हें कहते हैं कि श्राप निष्फल नहीं होगा. पर इस का असर कम हो सकता है. तुम चतुर्थी का व्रत करो तो इसके पुण्य से तुम फिर से बढ़ने लगोगे. चंद्रमा ने ये व्रत किया. इसी घटना के बाद से चंद्र कृष्ण पक्ष में घटता है और फिर शुक्ल पक्ष में बढ़ने लगता है. गणेशजी के वरदान से ही चतुर्थी तिथि पर चंद्र दर्शन करने का विशेष महत्व है. इस दिन व्रत करने वाले भक्त चंद्र पूजन के पश्चात ही भोजन ग्रहण करते हैं.

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