कब मनाई जाती है आश्विन संक्रांति ? पितरों को क्यों प्रिय है आश्विन संक्रांति

क्या है आश्विन संक्रांति 

संक्रांति को देवता माना जाता है. भारत वर्ष में ही संक्रांति का समय बेहद विशेष माना गया है. आश्विन संक्रांति के दिन स्नान करना, भगवान सूर्य को नैवेद्य अर्पित करना, दान या दक्षिणा देना, श्राद्ध अनुष्ठान करना और व्रत तोड़ना या पारणा करना, पुण्य काल के दौरान किया जाना चाहिए. यदि आश्विन संक्रांति सूर्यास्त के बाद होती है तो सभी पुण्य काल से जुड़े स्नान दान के कार्य अगले दिन होते हैं.

संक्रांति का दिन भगवान सूर्य को समर्पित है. यह हिंदू कैलेंडर में एक विशिष्ट सौर दिवस को भी संदर्भित करता है. इस शुभ दिन पर, सूर्य आश्विन राशि में प्रवेश करता है जो सर्दियों के महीनों के लंबे दिनों की शुरुआत का प्रतीक है. आश्विन संक्रांति के दिन से सूर्य अपनी दक्षिण यात्रा करते हैं  आश्विन संक्रांति के अवसर पर संभव हो तो गंगा नदी में स्नान करना शुभ माना जाता है. . अगर ऐसा संभव न हो तो घर पर ही ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करें. इसके लिए पानी में काले तिल और गंगा जल मिलाएं. फिर इससे स्नान करें. इस विधि से स्नान करने से आपको पुण्य का लाभ मिलेगा. मां गंगा की कृपा से आपके पाप मिट जाएंगे और आपको अक्षय पुण्य की प्राप्ति होगी.

आश्विन संक्रांति  पूजा विधि

आश्विन संक्रांति पर स्नान करने के बाद पितरों को तर्पण करते हैं, तर्पण से उन्हें तृप्त करें. फिर घड़े में जल भर कर उसमें लाल चंदन, लाल फूल और गुड़ डालकर सूर्य मंत्र का जाप करते हुए भगवान भास्कर को अर्घ्य देते हैं इसके बाद सूर्य चालीसा, आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करते हैं. फिर कपूर या घी के दीपक से सूर्य आरती करते हैं कुंडली में सूर्य देव और अन्य ग्रहों के दोष दूर करने के लिए दान करना शुभ होता है.

आश्विन संक्रांति का महत्व

शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन भगवान की रात्रि या पितरों का समय है, और उत्तरायण भगवान के दिन या सकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है. सूर्य का कन्या राशि में जाना ही आश्विन संक्रांति और दक्षिणायन समय का प्रतिक माना गया है. कन्या संक्रांति अर्थात आश्विन संक्रांति के दस्मय पर ही पितरों का समय एवं पूजन करना उत्तम होता है. इसलिए लोग पवित्र स्थानों पर गंगा, गोदावरी, कृष्णा, यमुना नदी में पवित्र स्नान करते हैं, मंत्रों का जाप करते हैं, पितरों के लिए पूजा करते हैं. सामान्य तौर पर सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करता है, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि धार्मिक दृष्टि से आश्विन संक्रांति का होना फलदायी होता है.

आश्विन संक्रांति के अवसर पर लोग अपनी भक्ति व्यक्त करते हैं. पूरे वर्ष भर भारत के लोगों के प्रति सूर्य देव की पूजा-अर्चना की जाती है. इस दौरान किया गया कोई भी पुण्य कार्य या दान अधिक फलदायी होता है.

आश्विन संक्रांति पर हल्दी कुमकुम समारोह को इस तरह से करना कि ब्रह्मांड में शांत आदि-शक्ति की तरंगों का आह्वान होता गै. इससे व्यक्ति के मन में सगुण भक्ति की छाप पैदा होती है और ईश्वर के प्रति आध्यात्मिक भावना बढ़ती है. देश के विभिन्न क्षेत्रों में आश्विन संक्रांति को अलग-अलग नामों से मनाया जाता है

संक्रांति मुख्य रूप से स्नान दान का त्यौहार है. पवित्र धर्म नगरियों एव्म नदियों जैसे गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर आश्विन संक्रांति के दिन विशेष पूजा अनुष्ठान होते हैं. इस पावन दिन पर उत्तर प्रदेश में लोग व्रत रखते हैं और खिचड़ी खाते हैं.  इस दिन उड़द, चावल, सोना, तिल, कपड़े, कंबल आदि दान करने का अपना महत्व है. आश्विन संक्रांति पर स्नान के बाद तिल दान करने की परंपरा है.  इस तरह से भारत में आश्विन संक्रांति त्यौहार का अपना अलग महत्व है. इसे विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है.  

आश्विन संक्रांति के लाभ  

सूर्य पूजा को समर्पित आश्विन संक्रांति के दिन सुबह स्नान करके भगवान भास्कर की पूजा करते हैं. सामर्थ्य क्षमता के अनुसार दान करते हैं आश्विन संक्रांति पर स्नान और दान करने से न केवल पुण्य मिलता है, बल्कि व्यक्ति का भाग्य भी मजबूत होता है. ज्योतिष अनुसार ग्रहों के राजा भी हैं. सूर्य की कृपा से आप अपने करियर में बड़ी सफलता हासिल कर सकते हैं. आश्विन संक्रांति पर लाल वस्त्र, लाल फूल और फल, गुड़ और काला तिल, तांबे का लोटा, धूप, दीप, सुगंध, कपूर, नैवेद्य, लाल चंदन, सूर्य चालीसा, आदित्य हृदय स्तोत्र, गेहूं या सप्तधान्य, गाय का घी, कपड़े, कंबल, अनाज, खिचड़ी आदि दान करना एवं पूजा में इनका उपयोग विशेष होता है. 

आश्विन संक्रांति के दिन किया गया सूर्य पूजन रोगों को शांत करता है. अर्थात धर्म में इतनी शक्ति है कि धर्म सभी व्याधियों का हरण कर आपको सुखमय जीवन प्रदान कर सकता है . धर्म इतना शक्तिशाली है कि वह सभी ग्रहों के दुष्प्रभावों को दूर कर सकता है . धर्म ही आपके सभी शत्रुओं का हरण कर उनपर आपको विजय दिला सकता है . शास्त्रों व ज्योतिषशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित सूर्य देव की साधना संक्रांति के समय विशेष होती है. 

आश्विन संक्रांति मंत्र और सूर्य पूजा 

आश्विन संक्रांति के दिन सूर्यदेवका पूजन विभिन्न मंत्रों को करते हुए करने से पितर शांत होते हैं तथा सूर्य देव की कृपा प्राप्त होती है. 

ॐ ऐहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते। अनुकंपये माम भक्त्या गृहणार्घ्यं दिवाकर:।।

ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय, सहस्त्रकिरणाय। मनोवांछित फलं देहि देहि स्वाहा :।।

ऊँ सूर्याय नमः।ऊँ घृणि सूर्याय नमः।

ऊं भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात।

सूर्य मंत्र – ऊँ सूर्याय नमः।

तंत्रोक्त मंत्र – ऊँ ह्यं हृीं हृौं सः सूर्याय नमः। ऊँ जुं सः सूर्याय नमः।

सूर्य का पौराणिक मंत्र

जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिं।

तमोरिसर्व पापघ्नं प्रणतोस्मि दिवाकरं ।।

सूर्य गायत्री मंत्र 

ऊँ आदित्याय विदमहे प्रभाकराय धीमहितन्नः सूर्य प्रचोदयात् ।

ऊँ सप्ततुरंगाय विद्महे सहस्त्रकिरणाय धीमहि तन्नो रविः प्रचोदयात् ।

मंत्र-विनियोग

ऊँ आकृष्णेनेति मंत्रस्य हिरण्यस्तूपऋषि, त्रिष्टुप छनदः सविता देवता, श्री सूर्य प्रीत्यर्थ जपे विनियोगः।

मंत्र:

‘ॐ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।

हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्‌॥

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रांधण छठ – रंधन छठ व्रत कथा

रांधण छठ इसे ललही छठ और हलछठ व्रत भी कहते हैं. इसके अलावा इसे हलषष्ठी, हरछठ व्रत, चंदन छठ, तिनछठी, तिन्नी छठ, कमर छठ या खमर छठ भी कहते हैं. इस दिन को माताओं द्वारा विशेष रुप से पूजा जाता है. माता और संतान के प्रेम का यह अटूट बंधन है जो रांधण छठ के रुप में मनाया जाता है. शास्त्रों में मान्यता है कि इस दिन भगवान बलराम की पूजा करने से संतान की रक्षा होती है. इस दिन भगवान बलराम की पूजा करने से संतान की रक्षा होती है क्योंकि इसी दिन बलराम का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है. 

रांधण छठ संतान प्राप्ति का योग 

रांधण छठ का व्रत विशेष रुप से संतान के कल्याण हेतु किया जाता है. अपनी संतान की लंबी उम्र की कामना के साथ मातें इस व्रत को रखती हैं. निसंतान दंपत्ति भी संतान सुख के लिए इए व्रत को करके संतान का सुख पाते हैं. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन माताएं अपनी संतान की सुख-समृद्धि और लंबी आयु की कामना से हलछठ व्रत रखती हैं. इसी दिन श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम का भी जन्म हुआ था. 

हलछठ व्रत पूजा विधि जो करती है आपकी मनोकामनाएं पूर्ण

हलछठ व्रत के दिन सुबह स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए पूजा कक्ष को साफ करके भगवान की पूजा करनी चाहिए. पूरे दिन बिना कुछ खाए-पिए व्रत रखा जाता है. शाम को पूजा और कथा पढ़ने के बाद फलाहार करना चाहिए. इस व्रत में नियमों का विशेष ध्यान रखा जाता है. इस व्रत में कई नियमों का पालन करना होता है. इस व्रत में गाय का दूध या दही इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. साथ ही गाय के दूध या दही का सेवन भी वर्जित माना गया है. इस दिन केवल भैंस का दूध या दही ही खाया जाता है, साथ ही हल से जोता हुआ कोई अनाज या फल नहीं खाया जा सकता है.

रांधण छठ कथा 

रांधण छठे से जुड़ी दो कथाएं बेहद प्रसिद्ध हैं. एक कथा अनुसार माता शीतला कथा का पूजन होता है. एक अन्य कथा ग्वालिन से संबंधित है. 

ग्वालिन की कथा 

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्राचीन समय में एक ग्वालिन थी. उसके प्रसव का समय बहुत निकट था. एक ओर वह प्रसव को लेकर चिंतित थी तो दूसरी ओर उसका मन दूध-दही बेचने में लगा हुआ था. उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो सब वहीं पड़ा रह जाएगा. यह सोचकर उसने दूध,दही के बर्तन सिर पर रखे और उन्हें बेचने चल दी, लेकिन कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा होने लगी. वह एक रसभरी के पेड़ की ओट में चली गई और वहीं एक बच्चे को जन्म दिया.वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध और दही बेचने चली गई. संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी. उसने गाय और भैंस के मिले दूध को भैंस का दूध कहकर सीधे-सादे ग्रामीणों को बेच दिया. उधर, जिस रसभरी के पेड़ के नीचे वह बच्चे को छोड़कर गई थी, उसके पास ही एक किसान खेत जोत रहा था. अचानक उसके बैल भड़क गए और हल की धार उसके शरीर में घुसने से बच्चा मर गया.

इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया. उसने बच्चे के फटे पेट को रसभरी के पेड़ के कांटों से सिल दिया और उसे वहीं छोड़कर चला गया. थोड़ी देर बाद दूध बेचने वाली ग्वालिन वहां पहुंची. बच्चे की हालत देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है. वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता तथा गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता, तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती. अत: मुझे वापस जाकर गांव वालों को सब कुछ बताकर प्रायश्चित करना चाहिए. ऐसा निश्चय करके वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध,दही बेचा था. तब स्त्रियों ने अपने धर्म की रक्षा के लिए तथा उसे क्षमा करने के लिए दया करके उसे क्षमा कर दिया तथा आशीर्वाद दिया.

जब वह अनेक स्त्रियों से आशीर्वाद लेकर पुनः रसभरी के पेड़ के नीचे पहुंची, तो यह देखकर आश्चर्यचकित हो गई कि उसका पुत्र वहां जीवित पड़ा है. तब से लोग भक्ति भाव के साथ रांघण छठ का व्रत एवं पूजन करते आ रहे हैं. 

रांधण छठ अन्य कथा -शीतला माता कथा

एक नगर में एक महिला अपनी दो बहुओं के साथ रहती थी. सबसे छोटी बहू बहुत ही दयालु और भोली थी. रांधन छठ की शाम को सबसे छोटी बहू ने परिवार के लिए खाना बनाना शुरू किया. रात होने के कारण वह थक गई थी और उसे नींद आ गई. वह चूल्हे से अंगारे हटाना भूल गई. परंपरागत रूप से रांधन छठ पर शीतला मां सभी के घर जाती हैं और चूल्हे पर बैठी महिलाओं को आशीर्वाद देती हैं. उस शाम जब शीतला मां के घर पहुंचीं तो चूल्हे पर अंगारे देखकर वह बहुत क्रोधित हो गईं, शीतला मां ने क्रोधित होकर बहू को श्राप दे दिया कि जैसे मेरा शरीर जला है, वैसे ही तुम्हारे पुत्र भी जलेंगे. सुबह बहू उठी तो देखा कि उसका बेटा जलकर मर गया है. छोटी बहू की चीखें सुनकर सास और उसकी बड़ी बहू दौड़कर आईं और मृत बच्चे को देखा. सास ने कहा कि तुम रात को अंगारे डालना भूल गई और अब तुम्हें शीतला मां का श्राप मिल गया है. उसकी सास ने सुझाव दिया कि वह बच्चे को लेकर तुरंत शीतला मां की तलाश करे और उनसे क्षमा मांगे. वह अपने बच्चे को टोकरी में लेकर देवी को खोजने निकल पड़ी. यात्रा के दौरान बहू को दो झीलें दिखाई दीं, उसे बहुत प्यास लगी थी. जब वह पानी पीने गई तो उसे झील से आवाजें सुनाई दीं कि वह उसे यह पानी न पिए क्योंकि यह श्रापित है. जो भी पशु, पक्षी या व्यक्ति यह पानी पीएगा वह मर जाएगा. झीलों ने बहू से पूछा कि वह कहां जा रही है? और तुम क्यों रो रही हो? बहू ने सरोवरों से कहा कि वह शीतला माता से क्षमा मांगने जा रही है. सरोवरों ने बहू से मदद मांगी और कहा कि जब शीतला माता मिलें तो उनसे जरूर पूछें कि उनके सरोवरों का पानी जहरीला क्यों है. बहू आगे बढ़ी. वहां उसे दो बैल दिखाई दिए, उनके गले में आटा पीसने का भारी पत्थर बंधा था और वे लगातार लड़ रहे थे. उन्होंने उससे पूछा तुम कहां जा रही हो? उसने उन्हें अपनी कहानी सुनाई कि वह अपने बेटे को बचाने के लिए शीतला माता की खोज में निकली है. बैलों ने उससे कहा कि शीतला माता से पूछो कि हम हर समय लड़ते क्यों रहते हैं?  उन्होंने उससे शीतला माता से उनकी समस्या का समाधान करने में मदद करने के लिए कहा. बहू आगे बढ़ती रही. उसे एक पेड़ के नीचे बैठी एक बूढ़ी महिला मिली, जिसके कपड़े गंदे थे. उसके बाल बिखरे हुए थे और वह अपना सिर खुजला रही थी. महिला ने बहू से कहा कि वह आकर उसके बालों को देखे. बहू का दिल बड़ा था और वह देखभाल करने वाली थी.  

महिला बहुत आभारी हुई और राहत महसूस की. उसने बहू को आशीर्वाद दिया और आशा व्यक्त की कि उसकी इच्छा पूरी होगी. अचानक बिजली चमकी और उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया. तभी उसने देखा कि शीतला उसके बच्चे को गोद में लिए खड़ी हैं. बहू ने अपनी गलती के लिए शीतला माता से माफ़ी मांगी, माँ ने उसे आशीर्वाद दिया. फिर बहू ने शीतला माँ को दो झीलों के बारे में बताया. शीतला माता ने बहू को उनके पिछले जन्मों के बारे में बताया और कहा कि वे दोनों बहुत स्त्रियाँ लोगों को दूध और मक्खन में पानी मिलाकर पिलाती थीं उन्होंने स्वार्थी कर्म किए थे और अब अपने कुकर्मों का फल भोग रही हैं. तब शीतला माता ने बहू से कहा कि सरोवरों से जल लेकर चारों दिशाओं में ‘मेरा’ कहते हुए छिड़को और फिर थोड़ा पानी पी लो. वे अपने पापों से मुक्त हो जाएंगी.

तब बहू ने उन दो बैलों के बारे में पूछा और शीतला माता ने कहा कि पिछले जन्म में वे देवरानी-जेठानी थीं, यदि कोई उनके पास मदद के लिए आता तो वे केवल अपना स्वार्थ पूरा करवाती थीं. इसलिए आज आपस में लड़ती रहती हैं. शीतला माता ने बहू से कहा कि बैलों के पास जाओ और उनसे पत्थर हटाओ, उनका श्राप हट जाएगा. इसके बाद शीतला माता अंतर्धान हो गईं.

अपने मुस्कुराते हुए बेटे को टोकरी में लेकर घर वापस लौटते समय बहू बैलों के पास गई. उसने बैलों के पेट से भारी पत्थर हटा दिए और पीसने वाले पत्थरों के वजन के बिना शांत हो गए. फिर उसने दो झीलों का जल चारों दिशाओं में छिड़का और थोड़ा पी लिया. झीलों में जीवन लौट आया लोग इसका उपयोग करने लगे. फिर बहू घर गई और बच्चे को अपनी सास और ससुर की गोद में रख दिया, मुस्कुराते हुए और हँसते हुए वे सभी बहुत खुश होते हैं इस प्रकार संतान के सुख और परिवार की शांति को प्रदान करने वाला रांधण छठ व्रत भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है. 

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चन्दन षष्ठी व्रत कथा : चंदन षष्ठी व्रत पूजा महत्व

चन्दन षष्ठी व्रत : भगवान बलभद्र का जन्मोत्सव  

चंदन षष्ठी का उत्सव भादो माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी के दिन रखा जाता है. जन्माष्टमी से पहले आने वाले इस उत्सव के दिन भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बल भद्र का पूजन होता है. चंदन षष्ठी को कई नामों से जाना जाता है. इसे हल षष्ठी, ललही छठ, बलदेव छठ, रंधन छठ, हल छठ, हर छठ व्रत, चंदन छठ आदि नामों से जाना जाता है.इस व्रत में हल से जोते गए अनाज और सब्जियों का सेवन नहीं किया जाता है. 

इस दिन को भगवान बलराम की जयंती के रूप में मनाया जाता है. भगवान बलराम को शेषनाग के अवतार के रूप में पूजा जाता है, जिन्हें क्षीर सागर में भगवान विष्णु के साथ रहने वाली शय्या के रूप में जाना जाता है. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भगवान बलराम का मुख्य शस्त्र हल और मूसल है इसीलिए उन्हें हलधर भी कहा जाता है.

चंदन षष्ठी के दिन जन्म श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम

चंदन षष्ठी व्रत के बारे में शास्त्रों में विस्तार से प्राप्त होता है. चंदन षष्ठी व्रत हर साल भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को किया जाता है. जन्माष्टमी के समय से पहले कृष्ण भगवान के बड़े भाई के जन्म का उत्सव मनाया जाता है. यह व्रत विवाहित और अविवाहित महिलाएं कर सकती हैं. इस दिन महिलाएं पूरे दिन व्रत रखती हैं और विशेष रूप से सूर्य और चंद्रमा की पूजा करती हैं इस दिन व्रत कथा सुनी और सुनाई जाती है.  चंद्रमा को अर्घ्य देते हैं और रात में भोजन करते हैं. कहा जाता है कि यदि व्रती ने चंदन षष्ठी व्रत का उद्यापन कर लिया है, तभी वह किसी भी व्रत का उद्यापन दोबारा कर सकता है. सबसे पहले इस व्रत का उद्यापन करना होता है और मासिक धर्म के दौरान महिलाओं द्वारा स्पर्श, अस्पर्श, भक्ष्य, अभक्ष्य आदि दोषों से बचने के लिए यह व्रत किया जाता है.

चंदन षष्ठी व्रत संतान सुख की कामना को करता है पूरा

भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को हलषष्ठी और चंद्र छठ मनाई जाती है. इस साल यह पर्व हर साल उत्साह के साथ मनाया जाता है कि अविवाहित लड़कियां भी यह व्रत रख सकती हैं. इस व्रत में किसी भी तरह का खाना-पीना वर्जित होता है.  इस व्रत में हल से जोते गए अनाज और सब्जियों का सेवन नहीं किया जाता है. कुछ राज्यों में महिलाएं अपनी संतान की दीर्घायु और स्वास्थ्य के लिए चंदन षष्ठी व्रत रखती हैं और इस दिन चंदन षष्ठी पूजा की जाती है.

इस दिन पूजा में एक लोटे में जल रखकर उस पर रोली छिड़की जाती है और सात तिलक लगाए जाते हैं. एक गिलास में गेहूं रखा जाता है और ऊपर अपनी श्रद्धा के अनुसार पैसे रखे जाते हैं. हाथ में गेहूं के सात दाने लेकर कथा सुनी जाती है. इसके बाद चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाता है  इस दिन गेहूं और पैसे ब्राह्मण को दिए जाते हैं. चंद्रमा को जल अर्पित करने के बाद व्रत के नियमों का पालन करते हुए व्रत संपन्न होता है. इस तरह से अलग अलग नियमों के साथ लोग इस दिन का उत्सव मनाते हैं.

चंदन षष्ठी व्रत कथा

एक शहर में एक धनी व्यक्ति और उसकी पत्नी रहा करते थे. पत्नी मासिक धर्म के दौरान भी बर्तनों को छूती रहती थी. कुछ समय बाद धनी व्यक्ति और उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई. मृत्यु के बाद धनी व्यक्ति को बैल का रूप मिला और पत्नी को कुतिया का रूप मिला. वे दोनों अपने बेटे के घर की रखवाली करते थे. यह उनके पिता का श्राद्ध था. पत्नी ने खीर बनाई. जब वह किसी काम से बाहर गई तो एक चील ने खीर के बर्तन में सांप गिरा दिया. बहू को इस बात का पता नहीं चला. लेकिन कुतिया यह सब देख रही थी. वह जानती थी कि चील ने खीर में सांप गिरा दिया है.

कुतिया ने सोचा कि अगर ब्राह्मण इस खीर को खा लेंगे तो वे मर जाएंगे. यह सोचकर कुतिया ने खीर के बर्तन में अपना मुंह डाल दिया. गुस्से में बहू ने कुतिया को जलती हुई लकड़ी से बहुत मारा जिससे उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई. बहू ने उस खीर को फेंक दिया और दूसरी खीर बना ली. सभी ब्राह्मण भोजन से तृप्त होकर चले गए. परंतु पुत्रवधू ने कुतिया को बचा हुआ भोजन भी नहीं दिया. रात्रि में कुतिया और बैल में बातचीत होने लगी. कुतिया बोली, ‘आज तुम्हारा श्राद्ध था. तुम्हें खाने को बहुत से व्यंजन मिले होंगे. परंतु मुझे आज कुछ खाने को नहीं मिला, उलटे मुझे बहुत मारा गया. उसने बैल को खीर और सांप के बारे में बताया. बैल बोला, ‘आज मुझे भी भूख लगी है. मुझे कुछ खाने को नहीं मिला. आज मुझे बाकी दोनों से अधिक काम करना पड़ा. बेटा और पुत्रवधू बैल और कुतिया की सारी बातें सुन रहे थे. 

बेटे ने पंडितों को बुलाकर उनसे पूछा और अपने माता-पिता की योनि के बारे में जानकारी ली कि वे किस योनि में गए हैं. पंडितों ने बताया कि माता कुतिया की योनि में गई है और पिता बैल की योनि में गए हैं. लड़के को सारी बात समझ में आ गई और उसने पंडितों से उनकी योनि से मुक्ति का उपाय भी पूछा. पंडितों ने सलाह दी कि भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को जब कुंवारी लड़कियां चंद्रमा को जल चढ़ाने लगे तो दोनों को उस जल के नीचे खड़ा होना चाहिए, तब उन्हें इस योनि से मुक्ति मिल सकती है. तुम्हारी माता रजस्वला अवस्था में सभी बर्तन छूती थी, इसीलिए उसे यह योनि मिली है. आने वाली चंद्र षष्ठी को लड़के ने उपरोक्त निर्देश का पालन किया, जिसके कारण उसके माता-पिता को कुतिया और बैल की योनि से मुक्ति मिल गई.

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श्रावण पुत्रदा एकादशी : कुंडली के पंचम भाव को बनाती है शुभ

व्रत त्यौहारों का मनाया जाना सनातन परंपरा में किसी न किसी कारण के शुभ फलों को देने वाला होता है. व्रत त्यौहारों का संबंध ज्योतिष के साथ जुड़ा हुआ माना गया है. ज्योतिष अनुसार कुछ विशेष भावों की शुभता में व्रत एवं पर्व बेहद विशेष भुमिका का निर्धारण करते हैं. इसी में एक पर्व है जिसे सावन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन मनाया जाता है.

इस एकादशी को संतान सुख के लिए बेहद उत्तम माना गया है. इस एकादशी के शुभ फलों में पुत्र संतति, वंश वृद्धि के साथ अनेक प्रकार के दोषों की शांति संभव होती है. तो चलिये जान लेते हैं कि कैसे सावन माह की ये एकादशी देती है विशेष फल और कैसे ज्योतिष अनुसार कुंडली के भाव फल होते हैं जागृत. 

जन्म कुंडली से जानें संतान योग : – https://astrobix.com/discuss/index

ज्योतिष अनुसार पुत्रदा एकादशी महत्व 

ज्योतिष अनुसार जब कुंडली में किसी भाव के फलों की प्राप्ति में बाधाएं होती हैम तब उस स्थिति में किस जाने वाले उपाय बेहद कारगर सिद्ध होते हैं. जन्म कुंडली का पंचम भाव संतान सुख से जुड़ा हुआ है. जब कुंडली में इस भाव की स्थिति कमजोर होती है. भाव के कमजोर होने पर अनुकूल परिणाम मिलने में देरी का सामना करना पड़ता है. इस स्थिति से बचाव के लिए श्रावण पुत्रदा एकादशी बेहद कारगर सिद्ध होती है. भविष्य पुराण में इस दिन के महत्व के बारे में बताया गया है, श्रावण पुत्रदा एकादशी दिन बहुत ही शुभ होता है इस दिन व्रत रखने एवं पूजा द्वारा संतान से संबंधित कष्ट दूर होते हैं.  

श्रावण पुत्रदा एकादशी 2025 तिथि और समय

श्रावण पुत्रदा एकादशी की तिथि 05 अगस्त 2025 (मंगलवार) है

श्रावण पुत्रदा एकादशी तिथि प्रारंभ – 04 अगस्त, 2025 (सोमवार) को सुबह 11:42 बजे

श्रावण पुत्रदा एकादशी तिथि समाप्त – 05 अगस्त, 2025 (मंगलवार) को दोपहर 13:13 बजे

श्रावण पुत्रदा एकादशी क्या है?

श्रावण पुत्रदा एकादशी साल की 24 एकादशियों में से एक है. यह एकादशी हर साल श्रावण मास में शुक्ल पक्ष के 11वें दिन आती है.  श्रावण पुत्रदा एकादशी को पवित्रोपना एकादशी और पवित्रा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. साल में दो उत्तरदा एकादशी होती हैं, एक पौष मास (दिसंबर-जनवरी) के शुक्ल पक्ष में आती है. यह एक ऐसा व्रत है जिसे पति-पत्नी दोनों रखते हैं.

श्रावण पुत्रदा एकादशी की कथा और महत्व

हम समझ गए हैं कि श्रावण पुत्रदा एकादशी क्या है. अब हम आगे बढ़ेंगे और व्रत कथा या शुभ एकादशी की कहानी के बारे में जानेंगे. क्या हुआ था? इस दिन का क्या महत्व है? हम इसके बारे में आगे सब कुछ जानेंगे. चलिए शुरू करते हैं.

श्रावण पुत्रदा एकादशी लोमेश ऋषी और महिजीत कथा 

श्रावण एकादशी के संदर्भ में लोमेश ऋषी और राजा महिजीत की कथा प्रचलित हैं इस कथा के अनुसार अपनी शक्ति और धन के बावजूद, राजा महीजित को संतान नहीं हुई और उन्होंने कई संतों और ऋषियों से मदद मांगी, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. अंत में, ऋषि लोमेश ने दिव्य दर्शन के माध्यम से बताया कि राजा व्यापारी के रूप में अपने पिछले जन्म के पाप के कारण निःसंतान था. पूर्व जन्म में राजा व्यापारी था और उसने स्वार्थवश एक गाय और उसके बछड़े को डराकर तालाब का पानी नहीं पीने दिया स्वयं सारा पानी पी लिया था. इस कृत्य के कारण उसे अगले जन्म में निःसंतान होने का श्राप मिलता है, लेकिन उसके अन्य अच्छे कर्मों ने उसे राजा के रूप में पुनर्जन्म की प्राप्ति भी होती है किंतु संतान हीनता का दुख भी मिलता है. ऋषी लोमेश की बातों को सुनकर उसने इस श्राप से मुक्ति का उपाय पूजा तब लोमेश ऋषी ने राजा को श्रावण पुत्रदा एकादशी के व्रत करने की बात कही. 

ऋषि की बातों को सुनकर राजा और रानी को भगवान विष्णु की पूजा करने के लिए श्रावण एकादशी पर व्रत रखा. एकादशी का पालन किया, प्रार्थना की, उपवास किया, मंत्रों का जाप किया और दान किया. परिणामस्वरूप, उन्हें एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई जो उनके राज्य का उत्तराधिकारी बना.

जन्म कुंडली का पंचम भाव होता है प्रबल 

श्रावण पुत्रदा एकादशी के दिन किए गए व्रत पूजन अनुष्ठानों से संतान भाव को प्रबलता मिलती है. यह एक शक्तिशाली पंचम भाव को दिखाता है और  इस एकादशी का व्रतअनुष्ठा किया जाता है, तो यह संतान प्राप्ति की इच्छा को पूरा करता है. श्रावण पुत्रदा एकादशी का व्रत आमतौर पर पति और पत्नी दोनों ही रख सकते हैं. इस दिन व्रत रखने से पिछले पाप भी दूर होते हैं और भक्त को मोक्ष प्राप्त करने के लिए अच्छे कर्म करने का अवसर मिलता है.

श्रावण पुत्रदा एकादशी देता है जन्म कुंडली के संतान योग को शुभता मिलती है. श्रावण पुत्रदा एकादशी का व्रत उन के लिए बहुत फायदेमंद है जो संतान के रूप में पुत्र चाहते हैं. यह भक्तों की इच्छाओं को पूरा करता है, और यह उन दंपत्तियों के लिए अत्यधिक शुभदायक और अनुकूल है जो गर्भधारण करने में परेशानी का सामना कर रहे हैं. या संतान होने में किसी न किसी कारण से देरी का असर झेल रहे हैं. यह व्यक्ति के पिछले पाप कर्मों को भी दूर कर देता है. पितर दोषों की शांति भी इस के द्वारा संभव होती है.

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आदि अमावस्या : क्यों और कब मनाई जाती है आदि अमावस्या जानें इसका महत्व

पंचांग गणना अनुसार प्रत्येक माह में अमावस्या का आगमन होता है. यह अमावसाय तिथि कृ्ष्ण पक्ष के अंतिम दिन में मनाई जाती है जिसके पश्चात शुक्ल पक्ष का आरंभ होता है. अमावस्या को कई नामों से पुकारा जाता है. जिस माह में जो अमावस्या आती है उसे उस नाम से पुकारते हैं. जैसे श्रावण माह में आने वाली अमावस्या तिथि को सावन अमावस्या के नाम से पुकारा जाता है उसी प्रकार तमिल संप्रदाय द्वारा आदि अमावस्या, तमिल महीने के आदि माह में आने वाली अमावस्या होती है जिसे माह के नाम से आदि अमावस्या कहा जाता है. 

अमावस्या तिथि का महत्व हर समुदाय के लिए विशेष रहा है. यह वह समय होता है जब कुछ विशेष नियमों का पालन भी किया जाता है. इस दिन को श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है. आदि अमावस्या में लोग अपने पूर्वजों का सम्मान करने और उनसे आशीर्वाद लेने के लिए अत्यधिक शुभ मानते हैं.  तमिल महीना आदि, जो जुलाई के मध्य से अगस्त के मध्य तक चलता है, आध्यात्मिक महत्व का समय है, और आदि अमावस्या इसके भीतर एक विशेष क्षण को चिह्नित करती है. 

आदि अमावस्या 2025 की तिथि और समय

वर्ष 2025 में आदि अमावस्या 24 जुलाई, गुरुवार मनाई जाएगी. इस पवित्र दिन की शुरुआत को 23 जुलाई को 26:29 बजे शुरू होगी और 24 जुलाई को 24:41 बजे समाप्त होगी. इस अवधि को पारंपरिक रूप से पूजा मंत्रों  और प्रार्थनाओं के साथ मनाया जाता है.

तमिल महिनों के नाम 

थाई, माछी, मासी, पंगुनी, चिट्ठी (चिट्ठिराई), वैकासी, आनी, आदि, आवनी, पुरात्तासी, अइप्पासी, कार्तिकाई, मार्कजी़(मरकज़ी)

इन सभी महिनों में आने वाली अमावस्याओं को इन नामों से भी पुकारा जाता है. 

आदि अमावस्या का ज्योतिष अनुसार महत्व 

आदि अमावस्या के दिन को ज्योतिष अनुसार भी काफी विशेष माना गया है. इस दिन, सूर्य और चंद्रमा एक ही राशि में होते हैं. सूर्य पिता और आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है, और चंद्रमा माता और मन का प्रतिनिधित्व करता है. इस कारण ये दोनों ग्रह पूर्वजों के रुप में माता-पिता का प्रतिनिधित्व करते हुए भक्तों को उनकी आध्यात्मिक यात्रा पर मार्गदर्शन करते हैं. माना जाता है कि यह भक्ति के साथ साथ प्रार्थनाओं और भक्ति की शक्ति को बढ़ाता है, जिससे यह पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने और उनका आशीर्वाद लेने का एक आदर्श समय बन जाता है. 

आदि अमावस्या का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व रहा है. तमिल संस्कृति और हिंदू समुदाय में आदि अमावस का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व बहुत अधिक रहता है. यह अमावस्या का दिन अपने पूर्वजों के सम्मान के लिए पितृ तर्पण करने के लिए शुभ होता है. 

पितृ दोष शांति : आदि अमावस्या को पितरों के पूजन के लिए काफी विशेष माना गया है. इस दिन पितरों का पूजन पितृ दोष की शांति रहती है. पितृ तर्पण में पूर्वजों को भोजन, जल और प्रार्थना अर्पित करते हैं. माना जाता है कि य्ह दिन पूर्वजों को जन्म और मृत्यु के चक्र से मोक्ष प्राप्त करने में सहायता करता है. पूर्वजों को याद करने और उनका सम्मान करने का कार्य इस विश्वास पर आधारित है कि उनके आशीर्वाद से जीवित लोगों को समृद्धि, स्वास्थ्य और आध्यात्मिक विकास मिल सकता है. एक ही राशि में सूर्य और चंद्रमा का होना माता-पिता के मिलन का प्रतीक है, जो इसे आध्यात्मिक अभ्यास करने के लिए एक अत्यंत शक्तिशाली समय बनाता है. यह प्रार्थनाओं और भक्तों को लाभ पहुंचाता है, जो इसे पूर्वजों का आशीर्वाद लेने के लिए एक आदर्श समय बनाता है.

आदि अमावस्या जीवित लोगों को अपने दिवंगत पूर्वजों से जुड़ने का अवसर प्रदान करती है. इस समय के दौरान, यह माना जाता है कि भौतिक दुनिया आध्यात्मिक क्षेत्र के करीब होती है. यह समय पूजा अनुष्ठान को अधिक शक्ति प्रदान करता है. इस दिन किए जाने वाले पूजा कार्यों में गलत काम के लिए क्षमा मांगने और वंश वृद्धि का आशिर्वाद देता है. आदि अमावस्या पर पूजा दान स्नान के कामों को करने से जीवन में सौभाग्य, समृद्धि और आशीर्वाद मिलता है. इस के द्वारा परिवार के लिए सकारात्मक ऊर्जा और आशीर्वाद प्राप्त होता है. इसके अलावा, आदि अमावस्या अतीत, वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के परस्पर संबंध की याद दिलाती है. यह भक्तों को पारिवारिक बंधनों को बनाए रखने और उन्हें संजोने तथा इन परंपराओं को भावी पीढ़ियों तक पहुँचाने के लिए प्रोत्साहित करती है.

आदि अमावस्या से जुड़ी खास बातें 

आदि अमावस्या की शुरुआत भक्तों द्वारा सुबह जल्दी उठकर स्नान और ध्यान जैसे कार्यों से शरीर और मन को शुद्ध करना शामिल होती है. इसके बाद, पूजा करने के साथ साथ प्रभु का आशीर्वाद लेने के लिए मंदिरों में जाते हैं. इस दिन दान-पुण्य के कार्य भी महत्वपूर्ण होते हैं. इस दिन जरूरतमंदों को  भोजन, कपड़े और अन्य आवश्यक वस्तुएं दान करना विशेष होता है. 

आदि अमावस्या के समय तर्पण से संबंधित कार्य किए जाते हैं, जो विशेष रूप से मृत पूर्वजों की आत्माओं के प्रति सम्मान हेतु होते हैं. इस दिन तर्पण के कार्यों को नदियों, समुद्रों, तालाबों या झीलों जैसे प्राकृतिक जल निकायों के पास किए जाने का विशेष विधान माना गया है. पूर्वजों को तिल और पानी चढ़ाते हैं, ये तर्पण आत्माओं को तृप्त करने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए प्रतीकात्मक कार्य हैं. तर्पण के दौरान मंत्रों का अनुष्ठानिक जाप भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह पूर्वजों की उपस्थिति का आह्वान करता है और उन्हें मुक्ति की ओर ले जाता है.

उपवास और पूजा: व्रत पूजा उपवास आदि अमावस्या के नियमों का महत्वपूर्ण पहलू है. इस दिन भक्त पूजा एवं उपवास के नियमों को चुनते हैं, इस दौरान केवल एक बार भोजन करते हैं या भोजन से पूरी तरह परहेज़ करते हैं. आत्म-अनुशासन और भक्ति के इस कार्य को मन और शरीर को शुद्ध करने के तरीके के रूप में देखा जाता है. इस दिन मंदिरों और घरों में विशेष पूजा की जाती है. इस पूजा हवन इत्यादि में मंत्रोच्चार और देवताओं और पूर्वजों को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद शामिल होते हैं. दक्षिण भारत में, रामेश्वरम में अग्नि तीर्थम और कन्याकुमारी में त्रिवेणी संगमम जैसे पवित्र स्थल आस्था का मुख्य केन्द्र होते हैं. 

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क्यों मनाया जाता है दस दिनों तक गणेश उत्सव ?

भगवान गणेश के जन्म का उत्सव भाद्रपद माह के दौरान कई दिनों तक मनाया जाता है. यह उत्सव भाद्रपद मास की चतुर्थी से प्रारंभ होकर भाद्रपद मास की अनंत चतुर्दशी तक चलता है. दस दिनों तक मनाए जाने वाले इस उतस्व के पीछे धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व काफी विशेष रहा है. इसके अलावा गणेश जन्मोत्सव का हिंदू धर्म में बहुत महत्व है. वैसे तो हर माह की चतुर्थी पर यह पूजा होती है लेकिन भाद्रपद माह के दौरान इसकी अलग ही रौनक दिखाई देती है ओर यह दस दिनों तक चलने वाला पर्व बन जाता है.

इस वर्ष गणेश उत्सव 27 अगस्त 2025 को बुधवार से आरंभ होगा और 06 सितंबर 2025 को शनिवार के दिन समाप्त होगा.

गणेश महोत्सव की धूम हर ओर देखी जा सकती है. इस महत्वपूर्ण त्योहार के पिछे कुछ विशेष तथ्यों का वर्णन धर्म कथाओं में मिलता है. इस समय दौरान पंडाल सजाए जाते हैं और गणपति मूर्ति स्थापना के साथ ही गणेश जी का आह्वान किया जाता है. भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को सिद्धिविनायक व्रत श्रद्धा और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. दस दिनों तक चलने वाला यह त्यौहार अपने साथ कई विशेष तिथियों को लाता है को इस पर्व के दौरान आती हैं. इस इन सभी दस दिनों में प्रत्येक तिथि के दिन पर्व मनाया जाता है. 

गणेश उत्सव की कथा और महत्व 

श्री गणेश का जन्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन हुआ था. गणपति महोत्सव का यह उत्सव चतुर्थी से शुरू होकर अनंत चतुर्दशी तक चलता है. शास्त्रों के अनुसार इस व्रत का फल बहुत विशेष होता है. भगवान श्री गणेश को जीवन में विघ्नहर्ता कहा जाता है.  श्री गणेश सभी की मनोकामनाएं पूरी करते हैं. गणेशजी को सभी देवताओं में सबसे अधिक महत्व दिया गया है. कोई भी नया काम शुरू करने से पहले भगवान श्री गणेश को याद किया जाता है.  इसलिए उनके जन्मदिन को व्रत रखकर श्री गणेश जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है. 

गणपति जन्म

दस दिनों तक चलने के पीछे पौराणिक कथा इस प्रकार है हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान गणेश का जन्म देवी पार्वती ने स्नान के लिए इस्तेमाल किए गए चंदन के लेप से हुआ था.   स्नान करते समय अपने निवास के प्रवेश द्वार की रक्षा करने के लिए कहा. इस बीच, पार्वती के पति भगवान शिव घर लौट आए और गणेश ने उन्हें दरवाजे पर रोक दिया. शिव ने गणेश को अपने पुत्र के रूप में नहीं पहचाना और उन्हें अंदर आने से मना करने पर क्रोधित हो गए. उन्होंने अपने त्रिशूल से गणेश का सिर काट दिया और घर में प्रवेश कर गए.

अपने पुत्र का निर्जीव शरीर देखकर पार्वती अत्यंत दुखी एवं क्रोधित होती हैं तब भगवान शिव को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने अपने अनुयायियों से एक ऐसे बच्चे को ढूंढने को कहा जिसकी मां उनकी ओर नहीं देख रही थी और उसका सिर उनके पास ले आएं. उन्हें एक हाथी का बच्चा मिला तत्ब वह उसका सिर ले आए फिर शंकर जी ने हाथी का सिर गणेश के शरीर से जोड़ दिया और उन्हें पुनर्जीवित कर दिया. उन्होंने यह भी घोषणा की कि गणेश किसी भी अन्य देवता या किसी भी शुभ अवसर से पहले पूजे जाने वाले पहले देवता होंगे. गणेश के जन्म और पुनरुद्धार की कथा उन कारणों में से एक है. 

महाभारत रचना और गणपति विसर्जन महिमा

वहीं एक अन्य कथा का संबंध भी मिलता है  शास्त्रों के अनुसार इस उत्सव के लिए अनंत चतुर्दशी के दिन गणेश विसर्जन किया जाता है. इसके पीछे एक पौराणिक कहानी है जिसके अनुसार वेद व्यास जी ने महाभारत ग्रंथ लिखने के लिए भगवान गणेश को आग्रह करते हैं वेद व्यास जी कथा सुनाते हैं और गणेश जी लिखते जाते हैं. कथा सुनाते समय वेद व्यास जी ने अपनी आंखें बंद कर लीं। वह 10 दिनों तक कथा सुनाते रहे और गणपति बप्पा उसे लिखते रहे. दस दिन बाद जब वेद व्यास जी की आंखें खुलीं तो उन्होंने देखा कि गणपति जी के शरीर का तापमान बहुत बढ़ जाता है तब उनकी इस बेचैनी को दूर करने तथा उनके शरीर को ठंडा करने के लिए वेद व्यास जी ने उन्हें पानी में डुबा दिया, जिससे उनका शरीर ठंडा हो गया. कहा जाता है कि तभी से यह मान्यता चली आ रही है कि भगवान गणेश को शीतलता प्रदान करने के लिए ही गणेश विसर्जन किया जाता है.

इन कथाओं का संदर्भ भगवान की निष्ठा को स्वयं के भीतर अपनाने का भी है. जिस प्रकार भगवान के अपने हर कार्य को पूर्णता के साथ किया उसी प्रकार जीवन में किए गार्यों को हमें भी उसी पूर्णता से करने की आवश्यकता होती है. यह दस दिन आध्यात्मिक ऊर्जा को पूर्ण करने का समय होते हैं. 

भाद्रपद माह में पड़ने वाली चतुर्थी का व्रत विशेष शुभ माना जाता है. इस दिन सुबह जल्दी उठना चाहिए. सूर्योदय से पहले उठकर स्नान और अन्य दैनिक कार्यों से निवृत्त होकरपूजा का रंभ किया जाता है. भगवान गणेश की पूजा करने के साथ ही  ॐ गं गणपतये नमः का जाप करना शुभ होता है. भगवान श्रीगणेश की पूजा धूप, दूर्वा, दीप, पुष्प, नैवेध और जल आदि से करनी चाहिए. पूजा में मोदक एवं लड्डुओं से पूजा करनी चाहिए. श्रीगणेश को लाल वस्त्र धारण कराना चाहिए और लाल वस्त्र का दान करना चाहिए.

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भाद्रपद माह में मनाई जाती है वामन एकादशी जानें पूजा और महत्व 2025

वामन एकादशी : भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को वामन एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस एकादशी का व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. यह व्रत भगवान के वामन रुप के साथ राजा बली के त्याग की कथा का भी होता है.  इस तिथि पर वामन देव की पूजा अवश्य करनी चाहिए, वहीं राजा बली का पूजन भी किया जाता है.

इस वर्ष 03 सितंबर 2025 को बुधवार के दिन मनाई जाएगी.

भादों मास की एकादशी को वामन एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस दिन यज्ञोपवीत धारण किए हुए वामन की मूर्ति स्थापित करके अर्ध दान, फल, फूल चढ़ाने और व्रत करने से व्यक्ति का कल्याण होता है.

 एक अन्य मत के अनुसार यह व्रत भादों मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को पड़ने वाली एकादशी को किया जाता है. एकादशी के दिन रखे जाने वाले व्रत को पद्मा एकादशी के नाम से जाना जाता है. जबकि एक अन्य मत यह कहता है कि चूंकि यह एकदशी व्रत है, इसलिए इस व्रत को केवल एकादशी तिथि पर ही करना चाहिए. इस दिन वामन एकादशी का व्रत रखा जा सकता है, इस व्रत को करना विशेष लाभकारी रहेगा.

वामन एकादशी मंत्र 

वामन एकादशी का पूजन करने के साथ इस दिन मंत्र जाप का भी महत्व होता है. इस दिन पूजा विधि विधान के साथ करने के साथ ही पूजा के बाद 52 पेड़े और 52 दक्षिणा चढ़ाई जाती है. इस दिन ब्राह्मणों का पूजन किया जाता है. वामन भगवान ने ब्राह्मण का रुप ही लिया था इसी कारण से इन ब्राह्मण पूजा के साथ साथ उनको दक्षिणा देने से ही पूजा का शुभ फल प्राप्त होता है. इस शुभ दिन पर ब्राह्मण को एक कटोरा चावल, एक कटोरा मीठा जल, एक कटोरा चीनी और एक कटोरा दही दान किया जाता है. इस दिन व्रत का उद्यापन भी करना चाहिए. उद्यापन के समय ब्राह्मणों को छाता, खड़ाऊं और दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए. इस व्रत को करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है.

देवेश्चराय देवाय, देव संभूति करिणे.

प्रभावे सर्व देवानां वामनाय नमो नमः.

वामन एकादशी व्रत कथा

त्रेतायुग में बलि नाम का एक राक्षस था. वह भक्त, दानी, सत्यवादी और ब्राह्मणों का सेवक था. इसके अलावा वह सदैव यज्ञ-तप आदि भी करता रहता था. अपनी भक्ति के कारण वह इंद्र के स्थान पर स्वर्ग पर शासन करने लगा. इंद्र और अन्य देवता यह सहन नहीं कर सके और भगवान के पास जाकर प्रार्थना करने लगे. अंततः भगवान श्री विष्णु ने वामन अवतार लिया.

बौने ब्राह्मण का भेष बना कर वह राजा बली के यज्ञ की ओर जाते हैं और उसने राजा बलि से प्रार्थना करते हैं कि हे राजन, कृपया मुझे तीन पग भूमि दीजिए. इससे तुम्हें तीन सार्वजनिक दानों का फल मिलेगा. राजा बलि ने यह छोटा सा अनुरोध स्वीकार कर लेते हैं और राजा भूमि देने को तैयार हो गया. ऐसे में भगवान श्री विष्णु ने अपना आकार बड़ा कर लिया. पहला कदम था ज़मीन, दूसरा था ब्राह्मण और तीसरा कदम रखने से पहले उसने सोचा कि अपने पैर कहां रखूं क्योंकि समस्त जगत को उन्होंने नाम लिया था तब राजा बलि जान जाते हैं की वह भगवान श्री विशःनू तो और उनके वचन सुनकर राजा बलि ने अपना सिर नीचे कर लिया. और भगवान विष्णु ने तीसरा पैर राजा बलि के सिर पर रख दिया. ऐसे में भक्त राजा बलि पाताल लोक चला गया.

जब राजा बलि ने पाताल लोक में गुहार लगाई तो भगवान विष्णु ने कहा कि मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूंगा. तभी से भादों के शुक्ल पक्ष की परिवर्तिनी नामक एकादशी के दिन मेरी एक मूर्ति राजा बलि के पास रहती है. और वह क्षीरसागर में शेषनाग पर शयन करती रहती हैं. इस एकादशी के दिन भगवान श्री विष्णु शयन करते समय करवट बदलते हैं. इस दिन त्रिलोकी स्वामी भगवान श्री विष्णु की पूजा की जाती है. इस दिन चावल और दही के साथ चांदी भी दान करने का विशेष विधान है.

वामन एकादशी व्रत का फल 

वामन एकादशी भादों के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहा जाता है. इस एकादशी को जयंती एकादशी भी कहा जाता है. इस एकादशी का व्रत करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं. इस जयंती एकादशी का व्रत करने से घोर पापियों का उद्धार हो जाता है. यदि कोई व्यक्ति परिवर्ती एकादशी के दिन भगवान श्री विष्णु जी की कई बार पूजा करता है. उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है.

इस एकादशी के फल के बारे में कोई संदेह नहीं है कि जो व्यक्ति इस एकादशी के दिन वामन रूप की पूजा करता है, वह ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों की पूजा करता है. इस एकादशी का व्रत करने के बाद उसे इस संसार में कुछ भी करने को नहीं बचता. वामन एकादशी के दिन के बारे में मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री विष्णु अपना करवट बदलते हैं. इसी कारण से इस एकादशी को परिवर्तिनी एकादशी भी कहा जाता है.

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ललिता सप्तमी पर करें राशि अनुसार पूजन 2025

ललिता को महात्रिपुरसुंदरी, षोडाशी और कामेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है, यह देवी का सर्वोच्च रूप है. देवी का कोई अन्य रूप ललिता या तांत्रिक पार्वती जितना महत्वपूर्ण नहीं है. इन्हें श्री महाविद्या के नाम से भी जाना जाता है. देवी ललिता को राजराजेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है, उनका वर्णन अत्यंत सुंदर है. देवी के माथे पर कस्तूरी का तिलक है, पलकें ऐसी प्रतीत होती थीं मानो वे प्रेम के देवता के घर का द्वार हों, और उसकी आँखें ऐसी थीं जैसे मछली उसके चेहरे की झील में खेल रही हो. उसकी नाक तारों से भी अधिक चमकने वाली नथों से सुसज्जित थी, कान सूर्य और चंद्रमा को नगों से सजाए हुए थे, गाल पद्मराग के दर्पण के समान हैं.देवी की वाणी बहुत अधिक मधुर है  और उनकी मुस्कान इतनी सुंदर थी कि स्वयं शिव भी उनसे अपनी नज़रें नहीं हटा पाते थे. देवी का विवाह भगवान कामेश्वर से हुआ है. 

ललिता सुंदरी कथा 

भगवान शिव का विवाह दक्ष की पुत्री सती से हुआ था. किंतु दक्ष को शिच से कभी भी प्रिति नहीं रही. वह विष्णु के उपासक थे और शिव के प्रति उन्हें सदैव नफरत ही रहती थी. दक्ष और परमशिव की आपस में नहीं बनती थी और परिणामस्वरूप दक्ष ने अपने द्वारा आयोजित एक महान अग्नि यज्ञ में परमशिव को आमंत्रित नहीं किया. किंतु पिता के प्रति पुत्रि सती का मोह ऎसा था कि शिव के विरोध के बावजूद सती उस समारोह में शामिल होने गईं. दक्ष ने तब उस सभा में सती के पति का अपमान किया और तब इस अपमान को सती सहन न कर पाईं उन्होंने अग्नि में कूदकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली. परिणामस्वरूप, परमशिव के आदेश पर, दक्ष को मार दिया गया और बाद में एक बकरी के सिर के साथ पुनर्जीवित किया गया. इस घटना ने परमशिव को व्यथित कर दिया और वे गहरे ध्यान में चले गये. सती ने पहाड़ों के राजा हिमावत और उनकी पत्नी अप्सरा मैना की बेटी के रूप में पुनर्जन्म लिया और तब देवी का एक नाम पार्वती भी था. 

योग और शक्ति में आदि पराशक्ति कौन है 

आदि पराशक्ति ललिता महा त्रिपुरा सुंदरी हैं जो महा कामेश्वर शिव की पत्नी हैं. और शक्तिसिम के श्रीकुल के अनुसार पार्वती पूर्ण रूप से आदि पराशक्ति ललिता का पूर्ण रूप है. काली कुल के अनुसार काली आदि पराशक्ति हैं जो महाकाल शिव की पत्नी हैं और पार्वती पूर्णतः दक्षिणा काली का रूप हैं. शक्तिवाद के अनुसार शिवपत्नी ही आदि पराशक्ति हैं. और पार्वती पूर्णतया आदि पराशक्ति का स्वरूप हैं.  

मेष राशि 

मेष राशि वालों को ललिता सप्तमी के दिन विशेष पूजा करनी चाहिए. ललिता चालीसा का पाठ करना चाहिए. माता दयालु हैं और उनमें वात्सल्य की भावना है. जो मेष राशि वालों को सफलता का आशीर्वाद देगा और उनकी बाधाओं को हरेगा.

वृषभ राशि 

वृषभ राशि के लोगों को ललिता स्वरूप की पूजा से विशेष फल मिलेगा. वृषभ राशि वाले लोगों को ललिता सहस्रनाम का पाठ करना चाहिए. जो जनकल्याणकारी भी है. इसका पाठ करने से अविवाहित कन्याओं को पूजन से उत्तम वर की प्राप्ति होती है.

मिथुन राशि

मिथुन राशि के जातकों को महादेवी यंत्र स्थापित करके देवी ललिता की पूजा करनी चाहिए और प्रतिदिन ललिता कवच का पाठ भी करना चाहिए. मां ललिता ज्ञान प्रदाता हैं और ज्ञान में आने वाली बाधाओं को दूर करती हैं और मां का आशीर्वाद हमेशा बना रहता है.

कर्क राशि 

कर्क राशि के लोगों को ललिता की पूजा करनी चाहिए. साथ में ललिता लक्ष्मी स्त्रोत का पाठ करें. देवी वरद मुद्रा में अभय दान प्रदान करती है. इस समय साधना करने से धन के भंडार भरे रहते हैं और व्यापार, नौकरी आदि में सफलता मिलती है.

सिंह राशि 

सिंह राशि के लिए देवी ललिता की पूजा करनी चाहिए. इस दिन में देवी मंत्रों का जाप करना चाहिए. ऐसा माना जाता है कि देवी मां की हंसी से ब्रह्मांड अस्तित्व में आया. देवी को भक्ति प्रिय हैं, इसलिए भक्त को ललिता सप्तमी पर देवी के चरणों में नारियल बलि चढ़ानी चाहिए. माता का आशीर्वाद बना रहेगा.

कन्या राशि 

कन्या राशि के जातकों को ललिता माता की पूजा करनी चाहिए. इस दिन मां ललिता लक्ष्मी के मंत्रों का जाप करना चाहिए. इस समय मां ज्ञान देती हैं और ज्ञान के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करती हैं. इन दिनों में विद्यार्थियों के लिए देवी की साधना अत्यंत फलदायी होती है.

तुला राशि 

तुला राशि के जातकों को देवी ललिता की पूजा से विशेष फल की प्राप्ति होती है. देवी ललिता चालीसा या स्त्रोत का पाठ करें. जो उनके लिए फायदेमंद होगा. साथ ही इस पूजा से कुंवारी कन्याओं को उत्तम वर की प्राप्ति होती है.

वृश्चिक राशि 

वृश्चिक राशि वाले लोगों को ललिता की पूजा उत्तम फल देगी. और ललिता मंत्र का जाप करना चाहिए. जिससे उन्हें धन, संतान और पारिवारिक सुख मिलेगा. ललिता माता की कृपा बनी रहती है.  

धनु राशि 

धनु राशि वाले लोगों को मां ललिता की पूजा करनी चाहिए. यथाशक्ति माता के मंत्रों का अनुष्ठान जाप करना चाहिए. उनकी मुस्कान ब्रह्म ध्वनि का प्रतीक है, जो अपनी ध्वनि से साधक के भय और बाधाओं को समूल नष्ट कर देती है. इस समय इनकी पूजा करने से किसी भी प्रकार के शत्रु से मुक्ति मिलती है.

मकर राशि 

मकर राशि के लोगों के लिए देवी ललिता की पूजा सर्वोत्तम मानी गई है. इस दिन ललिता निर्वाण मंत्र का जाप करना चाहिए. देवी अंधेरे में भक्तों का मार्गदर्शन करती है और प्राकृतिक आपदाओं से बचाती है और दुश्मन को भी नष्ट कर देती है. इन दिनों में इनकी साधना विशेष फल देगी.

कुंभ राशि

कुंभ राशि वाले लोगों के लिए देवी ललिता की पूजा विशेष लाभकारी है. इन दिनों में देवी कवच का पाठ करें. वह भक्तों को प्राकृतिक आपदाओं से बचाती हैं. माता का पूजन करने भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं.

मीन राशि

मीन राशि के लोगों को मां ललिता की पूजा करनी चाहिए. यथासंभव माता मंत्र का जाप हरिद्रा की माला से करना चाहिए. माता ब्रह्मनाद का प्रतीक है, जो अपनी ध्वनि से साधक के भय और बाधाओं को समूल नष्ट कर देती है. इस दिन में देवी मां की पूजा करना बहुत लाभकारी रहेगा.

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भाद्रपद माह में गणेश महोत्सव का ऎतिहासिक और पौराणिक महत्व

गणेश उत्सव का पर्व भादो माह में मनाया जाने वाला एक विशेष त्यौहार है.  यह उत्सव भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से प्रारंभ होकर अनंत चतुर्दशी तक चलता है. गणेशोत्सव का त्यौहार उत्साह और आस्था के साथ मनाया जाता है. इस समय पर भगवान गणेश की स्थापना का विशेष आयोजन होता है और अनंत चतुर्दशी के दिन भगवान गणेश की मूर्ति का विधि-विधान से विसर्जन कर दिया जाता है. इस तरह से हर वर्ष बप्पा के आगमन से लेकर उनकी विदाई तक का संपुर्ण दस दिवसीय यह उत्सव भक्तों के भीतर आस्था एवं जोश को भर देने वाला होता है. 

भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की गणेश चतुर्थी के अवसर पर भगवान गणेश की भव्य मूर्ति स्थापित कर पूजा-अर्चना शुरू हो जाती है. इस 10 दिनों तक चलने वाले धार्मिक अनुष्ठान की शुरुआत गणेश प्रतिमा की स्थापना के साथ होती है. घर हों या गलि मुह्ह्ले या बड़े बड़े भव्य पंडाल सभी में गणेश जी की प्रतिमाओं को स्थापित किया जाने का विधान प्राचीन काल से ही चल आ रहा है. 

गणेश उत्सव का पौराणिक महत्व 

नारद पुराण के अनुसार पार्थिव गणेश की स्थापना भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को बताई गई है इस दिन गंगाजल, पान, फूल, दूर्वा आदि से पूजा की जाती है. भगवान गणेश को दूब चढ़ाने से वह शीघ्र प्रसन्न होते हैं. भगवान को लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए, श्रीगणेश स्त्रोत का पाठ करना चाहिए, श्रीगणेश मंत्र का जाप करना चाहिए . गणपति आदिदेव हैं, वे अपने भक्तों के सभी कष्टों को दूर कर उन्हें मुक्त कर देते हैं. गणों के स्वामी होने के कारण उन्हें गणपति कहा जाता है. प्रथम पूज्य देव के रूप में वे अपने भक्तों के रक्षक हैं. उनके बारह नामों- एकदंत, सुमुख, लंबोदर, विनायक, कपिल, गजकर्णक, विकट, विघ्न-नाश, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र और गजानन तथा गणेश का स्मरण सुख और शांति प्रदान करता है. 

सांस्कृतिक एवं पारंपरिक रूप से भक्त भक्ति भाव के साथ गणपति की स्थापना करते हैं. इस मौके पर भक्तों का उत्साह देखते ही बनता है. ऐसा माना जाता है कि अगर इन दस दिनों में भगवान गणेश की भक्ति और विधि-विधान से पूजा की जाए तो व्यक्ति की सभी बाधाएं समाप्त हो जाती हैं और भगवान गणेश सौभाग्य, समृद्धि और खुशियां प्रदान करते हैं. वैदिक मंत्रोच्चार के साथ भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित की गई. गणेश महोत्सव के दौरान धार्मिक अनुष्ठान और रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है.

 गणेश चतुर्थी ऎतिहासिक घटना क्रम

अंग्रेजों ने इतने कठोर कानून बनाएं जिसके चलते सभा एवं कोई आयोजन कर पाना असंभव हो गया. इन कानूनों के कारण लोग एक साथ एक जगह पर एकत्रित नहीं हो पाते थे. समूह बनाकर कोई कार्य या प्रदर्शन नहीं कर सकते थे. और यदि कोई अंग्रेज अधिकारी उन्हें एक साथ देख लेता तो उसे इतनी कड़ी सजा दी जाती थी. अब आजादी के नायकों ने इस डर को भारतीयों में से निकालने के लिए एक बार पुन: गणेश उत्सव की शुरुआत की क्योंकि धार्मिक गतिविधियों का विरोध अंग्रेज सरकार के लिए भी आसान नहीं हो सकता था.  लोगों में अंग्रेजों का डर खत्म करने और इस कानून का विरोध करने के लिए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव की दोबारा शुरुआत की. और इसकी शुरुआत पुणे के शनिवारवाड़ा में गणेश उत्सव के आयोजन से हुई. लगभग 1894 के बाद इसे सामूहिक रूप से मनाया जाने लगा. हजारों लोगों की भीड़ जुटी ब्रिटिश पुलिस कानून के अनुसार पुलिस केवल किसी राजनीतिक समारोह में एकत्र हुई भीड़ को ही गिरफ्तार कर सकती है, किसी धार्मिक समारोह में एकत्र हुई भीड़ को नहीं.

इस प्रकार पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव मनाया गया. इस उत्सव का एक उद्देशय यह भी था कि भारत को अंग्रेजों से आज़ाद कराया जा सके. गणपति जी हमें इतनी शक्ति दें कि हम आजादी ला सकें. इसके बाद, गणपति उत्सव धीरे-धीरे पुणे के पास के बड़े शहरों जैसे अहमदनगर, मुंबई, नागपुर आदि में फैल गया. उत्सव में लाखों लोगों की भीड़ जुटती थी और आमंत्रित नेता उनमें देशभक्ति की भावना जगाते थे. इस प्रकार का प्रयास सफल रहा और लोगों के मन में देश के प्रति भावनाएं जागी और इस पर्व ने स्वतंत्रता आंदोलन में लोगों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.  

शिवाजी काल समय में गणेश उत्सव 

गणेश उत्सव अपनी पौराणिकता के साथ साथ इतिहास की विशेष घटनाओं और बदलावों के साथ भी जुड़ा हुआ पर्व है. प्राचीन भारत में सातवाहन राज्य एवं चालुक्य राजवंशों जैसे अन्य राजवंशों ने भी इस पर्व को मनाया है जिसका उल्ल्खे साक्ष्यों में प्राप्त होता है. गणेश उत्सव मनाने का उल्लेख काफी पुराने समय से जुड़ता है मराठा शासक छत्रपति शिवाजी महाराज ने गणेश उत्सव को राष्ट्रीय धर्म और संस्कृति से जोड़कर एक अलग रंग देने का कार्य करते हैं. यह इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दर्शाता है जिसे आज भी उसी रंग में मौजूद देखा जा सकता है. शिवाजी महाराज के बाद मराठा शासकों ने गणेश उत्सव को बड़े पैमाने पर मनाना जारी रखा. ब्रिटिश काल में यह त्योहार केवल हिंदू घरों तक ही सीमित था लेकिन फिर आजादी के नायकों ने इसे आगे बढ़ाने में योगदान दिया. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव को फिर से शुरू किया और गणपति उत्सव का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्त करना था. बन गया. इस प्रकार गणेश उत्सव का त्यौहार न केवल पौराणिक बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण रहा है.

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