हरतालिका तीज : भाद्रपद माह कि तृतीया का पर्व देता है सुखी वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद

तीज पर्व के रुप में मनाई जाने वाली हरतालिका तीज का समय भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को आता है. इस दिन को हरतालिका व्रत के रुप में मनाया जाता है. यह व्रत विवाहिता एवं कुंवारी कन्याओं सभी के लिए विशेष महत्व रखता है.

अपने जीवन साथी की आयु एवं उत्तम स्वास्थ्य के लिए विवाहिता स्त्रियां इस व्रत को करती हैं तथा कन्याएं अपने लिए एक उत्तम एवं मनचाहे वर की कामना हेतु इस व्रत को रखती हैं. देवी पार्वती एवं भगवान शिव का पूजन इस दिन पर विशेष रुप से किया जाता है. जिस प्रकार देवी पार्वती ने भगवान शिव को अपने वर रुप में प्राप्त किया उसी प्रकार सभी को ये सुख प्राप्त हो सके इसलिए स्त्रियां इस व्रत को श्रद्धा एवं भक्ति भाव के साथ रखती हैं. इस व्रत को निराहार रुप में संपन्न किया जाता है. 

हरितालिका तीज पूजा मुहूर्त समय 

हरितालिका तीज मंगलवार, 26 अगस्त, 2025 को मनाया जाएगा. 

तृतीया तिथि प्रारम्भ – 25 अगस्त, 2025 को 12:25 

तृतीया तिथि समाप्त – 26 अगस्त, 20266 को 13:55

प्रातःकाल हरितालिका पूजा मुहूर्त – 05:58 से 13:55 तक

हरतालिका पूजन विधि 

फूल, गीली मिट्टी अथवा बालू रेत, केले के पत्ते, बेल पत्र, शमी पत्र, धतूरे का फल एवं फूल, जनेउ, वस्त्र, समस्त सुहाग सामग्री, घी, तेल, दीपक, कपूर, कुमकुम, सिंदूर, चन्दन, कलावा, नारियल, अक्षत, पान, कलश, पंचामृत, भोग सामग्री इत्यादि वस्तुओं को पूजा हेतु उपयोग में लाया जाता है. हरतालिका पूजा में भगवान, देवी पार्वती, श्री गणेश, कार्तिकेय जी के सतह समस्त शिव परिवार को पूजा जाता है. इस में इनकी प्रतिमा अथवा चित्र इत्यादि को स्थापित करने के बाद पूजन आरंभ होता है. कुछ स्थानों पर मिट्टी से मूर्तियां भी निर्मित की जाती हैं. रंगोली बनाते हैं तथा मंदिर में 

कलश स्थापित करते हैं जिस पर नारियल रखा जाता है कलश को कलावे से बांधा जाता है और अक्षत अर्पित करके कलश पूजन होता है  इसके पश्चात भगवान का पूजन आरंभ होता है. समस्त सामग्री को भगवान शिव एवं देवी पार्वती को अर्पित किया जाता है देवी को सुहाग सामग्री अर्पित करते हैं. हरतालिका तीज की कथा का पढ़ी एवं सुनी है. कथा के बाद आरती होती है तथा भोग अर्पित किया जाता है.

हरतालिका तीज कथा 

हिंदू पौराणिक कथाओं में हरतालिका तीज की कथा देवी पार्वती के भगवान शिव के साथ विवाह की कथा से संबंधित है. कथा कहानियों एवं मिथक के आधार पर कई तरह से यह कथा लोक में प्रचलित रही है और वैवाहिक जीवन का आधार बनी. जब दक्ष प्रजापति के हवन में माता सती अपने प्रिय शिव का अपमान सहन नहीं कर पाई तो उसी पवित्र हवन कुंड में कूद कर सती हो गई. इस कृत्य से भगवान शिव पूरी तरह टूट गए.

भगवान शिव ने जब प्रिय सती को खो दिया तो वह इस दुःख में, हजारों वर्षों तक योग ध्यान में चले गए. एक समय, सृष्टि के देवता ब्रह्मा ने चारों ओर देखा और देखा कि प्रकृति अपनी चमक खो चुकी है. शिव के बिना परिवर्तन संभव नहीं ब्रह्मा सृजन नहीं कर सकते थे. अत: विचार पैदा नहीं हो सकते थे, रचनात्मकता और कल्पना अवरुद्ध हो गई थी. तब ब्रह्मा जी श्री विष्णु के साथ शक्ति के पास गए. शक्ति ने ब्रह्मा से कहा कि वह शिव को वापस दुनिया में लाने के लिए पुन: उत्पन्न होंगी. 

सती का पार्वती रुप में जन्म 

शक्ति का पुनर्जन्म पार्वती के रूप में हुआ था. समय के साथ सती ने शिव से मिलने के लिए हिमालय की पुत्री के रूप में फिर से जन्म लिया, लेकिन शिव वर्षों तक उसी तपस्या में लीन रहे।अपने पूरे जीवन में, पार्वती के दिल में शिव के लिए एक विशेष प्रेम था. पार्वती ने शिव को पाने के लिए कई प्रकार के प्रयास भी किए. भग्वान शिव को जागृत करने हेतु देवताओं ने भी अनेक प्रयास किए.  भगवान शिव-पार्वती से मिलने के लिए भगवान शिव की उस तपस्या को तोड़ने के उपाय सोचने लगे और फिर सभी की सहमति पर भगवान कामदेव इस कार्य में लगे.

कामदेव शिव तपोस्थली पहुंचे और विभिन्न प्रयोग करके शिव का ध्यान भंग करने लगे. कामदेव ने शिव पर एक फूल बाण छोड़ा था, कामदेव इस कार्य में सफल हो गए, उन्होंने शिव की तपस्या को तोड़ा,  शिव के पुन: जागरण से एक ओर देवता प्रसन्न हुए. अपने शरीर में वासना की उत्तेजना को महसूस करते हुए, क्रोधित हो गया कि उन्हें ध्यान से बाहर लाया गया. क्रोध में, उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोली, और काम को भस्म कर दिया. शिव ने अपनी तीनों आंखें बंद कर लीं और भीतर की ओर पीछे हट गए. पार्वती, व्याकुल होकर कि उनकी योजना विफल हो गई, बैठ गई और सोचा कि आगे क्या करना है.

देवी पार्वती का कठोर तपस्या और शिव से विवाह

देवी पार्वती ने बहुत तपस्या शुरु की थी तब इस कठोर तपस्या को देखकर देवी पार्वती के पिता बहुत चिंतित होते हैं. तब एक बार नारद जी हिमालय के पास आते हैं और भगवान विष्णु का रिश्ता देवी सती के लिए लाते हैं जिसे हिमालय स्वीकार कर लेते हैं. अपना रिश्ता विष्णु के साथ तय होने का सुन अत्यंत दुखी होती हैं. पार्वती की सखी जब उनकी यह दशा देखती हैं तब देवी सखी को अपना दुख बताती हैं. तब उनकी सखी उन्हें अपने साथ एक घने जंगल में ले जाती हैं. तब सब से छिप कर देवी वहां तपस्या करती हैं.

पिता हिमालयराज को जब देवी के कहीं चले जाने का बोध हुआ तो उनकी खोज करवाते हैं. यहां देवी की खोज जारी रहती है. नदी के किनारे एक गुफा में तपस्या लीन होती हैं. भाद्रपद शुक्ल की तृतीया को हस्त नक्षत्र में शिवलिंग स्थापित कर व्रत करती हैं पार्वती ध्यान करने लगती हैं. हजारों सालों से वह गर्म अंगारों में एक पैर पर खड़ी है. हजारों सालों से वह ठंडे बर्फ में दूसरे पैर पर खड़ी है. इन ध्यानों के दौरान, वह तप, आंतरिक गर्मी का निर्माण करती है, और उसकी अपनी शक्ति इतनी मजबूत हो जाती है कि शिव, अपने ध्यान में गहरे, उसकी उपस्थिति को महसूस करने लगते हैं और अपने ध्यान से जागते हैं.   

भगवान शिव ने देवी को दर्शन दिए ओर उनकी तप के वर स्वरुप उन्हें अपनी भार्या स्वीकार किया. देवी की तपस्या सफल होती हैं और वह भगवान को अपने जीवन साथी के रुप में प्राप्त करती हैं. 

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गणेश चतुर्थी : श्री गणेश को प्रसन्न करने के लिए सभी राशियों के लिए विशेष मंत्र

गणेश पूजन में सभी राशियों के द्वारा दिए गए मंत्रों का उल्लेख, पुराणों में मिलता है. गणेश स्तुती हेतु यदि राशि अनुसार मंत्र जाप भी किया जाए तो ये प्रभाव व्यक्ति को सुख एवं समृद्धि का आशीर्वाद देने वाला होता है. प्रत्येक कार्य में सर्वप्रथम पूजनीय देव के रुप में विराजमान श्री गणेश सभी संकटों का हरण करने वाले देव हैं. कुछ नया कार्य और शुभ कर्म शुरू करने से पहले श्रि गणेश द्वारा ही काम आरंभ होते हैं. भगवान गणेश जी विघ्नहर्ता हैं, और हमारी राशि के अनुसार उनके अलग-अलग नामों का जाप करने से सभी दुखों से मुक्ति मिलती है और स्वास्थ्य, धन और यश की प्राप्ति होती है.

ज्योतिष शास्त्र अनुसार भी सभी ग्रहों के शुभ एवं शांति प्रभाव हेतु विभिन्न प्रकार के मंत्रों एवं स्त्रोतों का स्मरण करना बहुत उत्तम माना जाता है. इसी में भगवान श्री गणेश जी की पूजा हेतु सभी राशियों के लिए कुछ विशेष मंत्रों का जाप करना भी पूजा को सिद्ध करने वाला होता है. नारद पुराण में भी गणेश जी के मंत्रों का उल्लेख मिलता है. 

श्री गणेश राशि मंत्र 

मेष राशि

मेष राशि मंत्र  “ॐ वक्रतुण्डाय नमः और  ॐ ह्रीं ग्रीं ह्रीं।”

मेष राशि के लिए मंत्र साधना हेतु लाल रंग की गणेश प्रतिमा का उपयोग शुभ होता है. गणेश जी की मूर्ति रखनी चाहिए और उसे लाल सिंदूर एवं वस्त्र अर्पित करने चाहिए. गणेश जी की पूजा करते समय गुड़, अनार, सूखे खजूर, एक लाल गुलाब और दूर्वा अर्पित करनी चाहिए. 

वृषभ राशि 

वृषभ राशि मंत्र  “ॐ एकदंताय नमो नम: “

वृष राशि वालों को भगवान गणेश की पूजा में इन मंत्रों का जाप करना चाहिए. श्वेत एवं नीले रंग की भगवान गणेश की मूर्ति का पूजन करना शुभता एवं समृद्धि का कारक बनता है. पूजा में श्वेत वस्त्रों को धारण करते हुए कपूर द्वारा पूजन करना चाहिए. भगवान गणेश जी को मोदक, सफेद फूल, इत्र, मिश्री और नारियल के लड्डू अर्पित करना उत्तम होता है. 

मिथुन राशि

मिथुन राशि मंत्र “ॐ पिंगाक्षाय नमः।”

मिथुन राशि वालों को भगवान गणेश की इन दिए मंत्रों से पूजा करनी चाहिए. इसके साथ ही भगवान श्री गणेश की हरे रंग की मूर्ति का पूजन करना शुभदायक बनता है. हरे रंग के वस्त्र, दुर्वा भगवान को अर्पित करनी चाहिए. पूजा में मूंग के लड्डू, पान, हरी इलायची, दूर्वा, हरे फल और सूखे मेवे चढ़ाने चाहिए. 

कर्क राशि 

कर्क राशि को “ऊँ गजवक्त्रं सुरश्रेष्ठं कर्णचामरभूषितम्”  मंत्र का जाप करना चाहिए.  

कर्क राशि वालों को भगवान गणेश की पूजा में इन दिए हुए मंत्रों का उपयोग करना चाहिए. भगवान गणेश की श्वेत प्रतिमा का पूजन उत्तम होता है. भगवान को सफेद वस्त्र, यज्ञोपवित अर्पित करना चाहिए . भगवान गणेश को मोदक, चावल का हलवा,माखन और गुलाब के फूल अर्पित करने चाहिए. भगवान की पूजा में मोती की माला से मंत्र  जाप करना शुभदायक होता है. 

सिंह राशि 

सिंह राशि मंत्र  ‘ऊँ लम्बोदराय नमः’

सिंह राशि वालों के लिए इन मंत्रों का जाप अच्छा होता है. भगवान श्री गणेश जी की लाल रंग की मूर्ति का पूजन करना चाहिए. भगवान को लाल वस्त्र अर्पित करने चाहिए. श्री  गणेश की पूजा में लाल वस्त्र धारण करना चाहिए. पूजा के दौरान गुड़ या गुड़ की मिठाई, कनेर के फूल, सूखे खजूर आदि चढ़ाना शुभ होता है. 

कन्या राशि 

कन्या राशि मंत्र: “गं गणपतये नमः।। ॐ श्रीं श्रियैः नमः।। ॐ विकटाय नमः।।”

कन्या राशि के लिए भगवान गणेश  तहत पैदा हुए लोगों को भगवान गणेश की हरे रंग की मूर्ति को अपने घरों में लाना चाहिए और इसे हरे रंग की पोशाक पहनाना चाहिए। पूजा के दौरान हरे फल, मूंग दाल के लड्डू, पान, हरी इलायची, किशमिश, दूर्वा और सूखे मेवे चढ़ाएं।

तुला राशि 

तुला राशि मंत्र “ऊँ विघ्नेश्वराय नमः” 

तुला राशि वालों के लिए इस मंत्र का जाप करना शुभ होता है. मंत्र जप के साथ ही भगवान श्री गणेश की सफेद और नीले रंग की मूर्ति पूजा करना भी शुभ होता है. गणेश जी को सफेद वस्त्र अर्पित करने चाहिए. भगवान को लड्डू, केला, सफेद फूल, इत्र और मिश्री भोग भी अर्पित करना चाहिए. 

वृश्चिक राशि 

वृश्चिक राशि मंत्र “ऊँ धूम्रवर्णाय नमः'”

वृश्चिक राशि वालों को भगवान की पूजा में इन मंत्रों करना शुभदायक होता है. भगवान श्री गणेश की लाल रंग वाली प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए. भगवान गणेश की मूर्ति को लाल वस्त्रों से सजाना चाहिए. सिंदूरांर्पित करना चाहिए. गुड़ के लड्डू, सूखे खजूर, अनार और लाल फूल अर्पित करने चाहिए. ऎसा करने पूजा का पूर्ण फल प्राप्त होता है. 

धनु राशि

धनु राशि मंत्र “ॐ भालचंद्राय नम:”

धनु राशि के साधकों को भगवान श्री गणेश की पीले रंग की मूर्ति स्थापित करनी चाहिए और इसे पीले रंग की पोशाक में पहनना चाहिए. पूजा के समय उन्हें पीले फूल, पीले रंग की मिठाई, मोदक और केला अर्पित करना चाहिए. 

मकर राशि

मकर राशि मंत्र “ॐ विनायकाय नमः” ऊँ लम्बोदराय नमः।

मकर राशि के साधकों को चाहिए की भगवान श्री गणेश की पूजा में इन मंत्रों का जाप करना चाहिए. भगवान की नीले रंग की मूर्ति की पूजा भी शुभदायक होती है. गणेश  जी को नीले रंग के कपड़े पहनाना चाहिए. गजानन की भक्ति पूजा में किशमिश, सफेद फूल, तिल के लड्डू और चमेली का तेल मिलाकर अर्पित करना चाहिए.

कुंभ राशि

कुंभ राशि मंत्र ऊँ सर्वेश्वराय नमः। ॐ गणपतये नमः”

कुंभ राशि के लोगों को भगवान गणेश की नीले रंग की मूर्ति की पूजा करना शुभदायक होता है, श्री गणेश जी को नीले रंग के वस्त्र अर्पित करने चाहिए. पूजा के दौरान खोया, किशमिश, हरे फल, सफेद फूल, गुड़ के लड्डू और चमेली के तेल से बना प्रसाद अर्पित करना शुभ होता है. 

मीन राशि

मीन राशि मंत्र “ॐ सिद्धि विनायकाय नमः।, ‘ॐ गजाननाय नमः”

मीन राशि के भक्त के लिए इन मंत्रों का जाप शुभदायक होता है. गहरे पीले रंग की गणेश की मूर्ति की पूजा करना शुभदायक होता है. प्रतिमा को पीले वस्त्र अर्पित करने चाहिए. गजानन की पूजा में पीले वस्त्र, पीले फूल, बादाम, पीले रंग की मिठाई, बेसन के लड्डू और केले अर्पित करना अत्यंत शुभदायक होता है. 

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हरियाली तीज कथा, पूजा विधि और राशि अनुसार करें पूजन

हरियाली तृतीया  

27 जुलाई 2025 को रविवार के दिन हरियाली तीज का पर्व मनाया जाएगा.

हरियाली तीज अपने नाम अनुसार ही सावन के सबसे सुंदर परिदृष्य के रुप में दिखाई देती है. हरियाली तीज का त्यौहार श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि पर मनाया जाता है. यह त्यौहार सौभाग्य एवं दांपत्य जीवन की सुख समृद्धि के लिए विशेष रुप से किया जाता है. इस पर्व को महिलाओं का पर्व भी कहा जाता है. इस पर्व पर प्रकृत्ति की शक्ति एवं उसके अत्यंत सुंदर रुप की झलक प्राप्त होती है. जीवन शक्ति एवं पोषण का अधिकार भी ईश्वर ने स्त्रियों को दिया है उसी शक्ति में वृद्धि और उसे ग्रहण करने का समय होता है हरितालिका तीज का समय. 

यह त्यौहार मानसून के मौसम के दौरान आता है जब आसपास का वातावरण प्रकृति के हरे रंग से आच्छादित होता है, इसलिए इसका नाम हरियाली तीज पड़ा. हरियाली तीज को सावन तीज, छोटी तीज के नाम से भी जाना जाता है. हरियाली तीज का त्योहार वही महत्व रखता है जो विवाहित हिंदू महिलाओं द्वारा मनाया जाने वाला करवा चौथ का होता है. हरियाली तीज का त्योहार देवी पार्वती और भगवान शिव के साथ उनकी एकता को समर्पित है. मान्यताओं के अनुसार इस शुभ दिन पर भगवान शिव ने देवी पार्वती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया था. इसी कारण देवी पार्वती को ‘तीज माता’ भी कहा जाता है.

उत्तर भारतीय राज्यों में हरियाली तीज बहुत धूमधाम से मनाई जाती है. पंजाब में इसे तीयन के नाम से जाना जाता है और राजस्थान राज्य में इसे सिंधारा तीज के नाम से जाना जाता है. हरियाली तीज का उत्सव एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में थोड़ा भिन्न हो सकता है, लेकिन भावना और उत्साह हर जगह समान है.

हरियाली तीज से संबंधित रीति-रिवाज़

हरियाली तीज के दिन, विवाहित महिलाओं को उनके ससुराल पक्ष द्वारा पारंपरिक कपड़े, चूड़ियाँ, मेहंदी, सिंदूर और मिठाई समेत अन्य चीजें भेंट की जाती हैं. महिलाएं विशेष रूप से हरे एवं लाल रंग को धारन करती हैं. इस दिन ‘सिंधरा’ उपहार देने की प्रथा नवविवाहितों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण होती है. सभी नवविवाहित महिलाओं के लिए सावन तीज का विशेष महत्व है. हरियाली तीज की पूर्व संध्या पर, कुछ स्थानों पर उन्हें त्योहार मनाने के लिए अपने माता-पिता के घर वापस बुलाया जाता है. 

हरियाली तीज से एक दिन पहले ‘सिंधारा’ मनाया जाता है. इस दिन की शुरुआत ससुराल में सास द्वारा बहू को नए वस्त्र, गहने, सौंदर्य प्रसाधन, मेहंदी और मिठाई भेंट करने की परंपरा से होती है.

इस शुभ अवसर पर महिलाएं, लड़कियां हथेलियों पर मेहंदी एवं पैरों पर आलता को लगाती हैं. हरा और लाल रंग पवित्र वैवाहिक बंधन का प्रतीक होता है.

 हरियाली तीज पर महिलाएं अपनी सास का आशीर्वाद लेने के लिए उनके पैर छूती हैं और बदले में उन्हें उपहार देती हैं. यदि किसी कारण से सास मौजूद नहीं है, तो पति की ओर से सबसे बड़ी भाभी या किसी अन्य बुजुर्ग महिला को भी भेंट अर्पित करते हैं तथा आशीर्वाद लेते हैं. 

पर्व के दिन पूजा करने के लिए महिलाएं नए वस्त्रों और गहनों के साथ सौलह शृंगार करती हैं तथा इस दिन पर झूला झूलने का भी रिवाज रहा है. लोक गीतों एव्म धार्मिक कथाओं के साथ इस पर्व को मनयअ जाता है, 

हरियाली तीज पूजन विधि

शिव पुराण के अनुसार हरियाली तीज के दिन को भगवान शिव और देवी पार्वती के मिलन के उत्सव रुप में मनाते हैं. महिलाएं अपने वैवाहिक जीवन के सुख की कामना हेतु महादेव और मां पार्वती की स्तुति करती हैं.इस दिन घर को साफ-सुथरा करके फूलों से सजाया जाता है तथा मंदिर को भी पवित्र किया जाता है. एक मिट्टी की वेदी का निर्माण करते हैं और उस पर भगवान शिव, शिवलिंग, भगवान गणेश, देवी पार्वती और उनके परिवार के अन्य सदस्यों की मूर्तियां रखते हैं. इसके बाद देवताओं के लिए सोलह चरणों का अनुष्ठान, षोडश उपचार पूजन किया जाता है.  हरियाली तीज का पूजन पूरी रात चलता है और इस समय में महिलाएं रात में जागरण भी करती हैं और भक्ति संगीत और मंत्रोच्चार द्वारा पूजन करती हैं 

हरियाली तीज कथा 

हरियाली तीज पर्व की कथा भगवान शिव और देवी पार्वती के विवाह से जुड़ी है. कहानी के अनुसार, देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की. इस पूर्ण तपस्या के सहस्त्रों वर्षों के बाद, देवी पार्वती भगवान शिव को अपने प्रिय पति के रूप में प्राप्त करने में सक्षम थीं. ऐसा कहा जाता है कि श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को भगवान शिव ने मां पार्वती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया था. उस शुभ दिन के बाद से, देवत्व ने विवाहित महिलाओं के लिए एक पवित्र दिन के लिए दिन का आशीर्वाद दिया है. इसी वजह से सुखी और भरपूर वैवाहिक जीवन को पाने के लिए विवाहित दंपत्ति के जीवन में हरियाली तीज का दिन विशेष महत्व रहता है. 

हरियाली तीज पर राशि अनुसार उपाय

अब जानिए हरियाली तीज के दिन राशि के अनुसार कौन से उपाय आपके लिए फलदायी साबित हो सकते हैं.

मेष राशि

मेष राशि वालों के लिए तीज पर्व पर लाल रंग का उपयोग अत्यंत शुभ माना गया है. लाल रंग मेष राशि का स्वामित्व भी पाता है. इस दिन पर देवी पार्वती जी को लाल रंग से इर्मित वस्तुओं को अर्पित अवश्य करना चाहिए. मांगल्य सुख को प्रदान करता जै. 

वृष राशि

वृष राशि के लिए तीज पर्व के समय गुलाबी रंग का उपयोग करना शुभ होता है. इस दिन चांदी के दीपक में कपूर डाल कर प्रज्जवलित करना चाहिए. देवी पार्वती को श्रृंगार सामग्री का दान करके लाल या सफेद सुत द्वारा देवी पार्वती एवं भगवान शिव का गठबंधन करना चाहिए.

मिथुन राशि

मिथुन राशि वालों के लिए हरा रंग उपयोग करना अत्य्म्त शुभ माना गया है. मिथुन राशि के लिए हरा रंग अत्यंत सकारात्मक माना गया है. इस दिन देवी को हरे रंग की वस्तुएं अर्पित करनि चाहिएं तथा कन्याओं को खीर खिलानी चाहिए. 

कर्क राशि

कर्क राशि वालों को तीज के दिन में देवी पार्वती और भगवान शिव को सफेद फूल चढ़ाने चाहिएं. इसके साथ ही भगवान का अभिषेक करते हुए इस म्म्त्र का जाप करना चाहिए “ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च । मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च”

सिंह राशि

सिंह राशि वालों को तीज के दिन शिवलिंग पर गाय का दूध, शहद अर्पित करना चाहिए तथा देवी पार्वती और भगवान शिव को भोग स्वरूप खीर अर्पित करनी चाहिए. 

कन्या राशि

कन्या राशि वालों को आज के दिन देवी पार्वती को हरे रंग की चूडियां जरुर अर्पित करनी चाहिए. रुद्राभिषेक करना अत्यंत शुभदायक होता है.

तुला राशि

तुला राशि वालों को आज के दिन देवी पार्वती और भगवान शिव का लाल धागे के साथ गठबंधन अवश्य करना चाहिए. इसके साथ ही भगवान को केसर का भोग अर्पित करना चाहिए. 

वृश्चिक राशि 

वृश्चिक राशि वालों को तीज के शुभ अवसर पर माता पार्वती को लाल रंग की चुनरी अर्पित करनी चाहिए. इसके साथ ही भगवान शिव के समक्ष कपूर को अर्पित करना चाहिए. 

धनु राशि 

धनु राशि वालों को तीज के शुभ अवसर पर मंदिर में जाकर भगवान शिव और देवी पार्वती का पूजन करना चाहिए. पीले रंग भगवान शिव को अर्पित करने चाहिए तथा नारियल अर्पित करना चाहिए भोग स्वरुप.

मकर राशि 

मकर राशि वालों को तीज के शुभ अवसर पर भगवान को नीले पुष्प अर्पित करने चाहिए. देवी पार्वती एवं भगवान शिव के समक्ष लौंग और घी का दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए. 

कुंभ राशि 

कुंभ राशि वालों को हरियाली तीज के शुभ दिन पर देवी पार्वती एवं भगवान शिव को आसमानी रंग की वस्तुओं को अर्पित करना चाहिए. भगवन को पूरी और हलवे का भोग अवश्य लगाना चाहिए. 

मीन राशि

मीन राशि वालों को हरियाली तीज के शुभ अवसर पर भगवान को लाल ओर पीले रंग के पुष्प अर्पित करने चाहिए. देवी को खीर का भोग अर्पित करना उत्तम होता है. 

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भड़ली (भढ़ली) नवमी अबूझ समय जब हर कार्य होता है मंगलकारी

भड़ली नवमी का पर्व 04 जुलाई 2025 को मनाया जाएगा. इस दिन चित्रा नक्षत्र को पश्चात स्वाति नक्षत्र भी प्राप्त होगा. शिव योग एवं सिद्ध नामक शुभ योग बनेंगे तथा शुभ योग का निर्माण भी होगा. 

आषाढ माह की शुक्ल नवमी भड़ली नमवी. कंदर्प नवमी ओर गुप्त नवमी के रुप में मनाई जाती है. भड़ली नवमी का समय भगवान विष्णु, भगवान शिव देवी भगवती के पूजन का विशेष समय होता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन के बाद भगवान चार माह तक योग निद्रा में चले जाते हैं और इस अवधि में विवाह, सगाई, गृह प्रवेश, मुंडन , कार्य आरंभ जैसे काम रुक जाते हैं. यह पर्व का प्रमुख महत्व है क्योंकि इसे हिंदू विवाह संस्कार कार्यों के लिए अंतिम दिन भी माना जाता है. इसके बाद चार महिने के बाद देव उठनी एकादशी से ही विवाह, गृह प्रवेश एवं अन्य प्रकार के शुभ कार्य शुरु हो पाते हैं. 

भड़ली नवमी पर बनने वाले शुभ योग 2025

इस वर्ष भड़ली नवमी का पर्व 04 जुलाई 2025 को मनाया जाएगा. भड़ली नवमी तिथि का आरंभ 03 जुलाई 2025 को 14:07 पर होगा. नवमी तिथि की समाप्ति 04 जुलाई को 16:32 पर होगी. इस दिन चित्रा नक्षत्र को पश्चात स्वाति नक्षत्र भी प्राप्त होगा. शिव योग एवं सिद्ध नामक शुभ योग बनेंगे तथा शुभ योग का निर्माण भी होगा. 

भड़ली नवमी के दिन गुप्त नवरात्रि के नवमी तिथि का पूजन होगा. इसी के साथ नवरात्रि का पारण समय भी होगा. देवी दुर्गा का पूजन संपन्न होगा. 

भड़ली नवमी पर्व महत्व 

भड़ली नवमी का पर्व भगवान श्री विष्णु एवं भगवान शिव के पूजन के लिए विशेष होता है. हिंदू पौराणिक कथाओं अनुसार माना जाता है कि भगवान विष्णु सुखों को प्रदान करने वाले तथा जीवन की भौतिकता के आनम्द प्रतीक भी हैं. इनके आशीर्वाद द्वारा जीवन में मंगल सुखों की प्राप्ति होती है. देवताओं के शयन का समय जब होता है तब विवाह कार्य नहीं हो पाते हैं क्योंकि इस समय देवों का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त नहीं हो पाता है. इसलिए भड़ली नवमी के दिन भगवान श्री विष्णु पूजन होता है इसके पश्चात भगवान शयन में चले जाते हैं जो चातुर्मास का समय कहा जाता है. दांम्पत्य जीवन को सुखमय बनाने के लिए भगवान विष्णु की कृपा आवश्यक होती है. भडली नवमी भगवान विष्णु के सोने से पहले का समय होता है  इसलिए, भक्त दिन को अनोखे तरीके से मनाते हैं उत्सव पूजा इत्यादि कार्य होते हैं. भड़ली नवमी किसी भी मांगलिक कार्यों के लिए अंतिम दिन होता है इसके पश्चात 4 माह तक कोई मांगलिक कार्य नहीं होते हैं. 

इस दिन बड़े उत्साह के साथ भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. भगवान श्री विष्णु को प्रसाद चढ़ाया जाता है. इस दिन विष्णु सहस्त्रनाम और भगवान विष्णु के अन्य मंत्र एवं भजन गाए जाते हैं.

भारत के झारखंड राज्य में प्राचीन काल से भड़ली मेले का आयोजन होता रहा है. इस समय देवी देवताओं का पूजन होता है. 

इस दिन भगवान शिव और देवी काली मंदिरों में विशेष पूजा यज्ञ किए जाते हैं 

भड़ली नवमी के दिन गृह प्रवेश पूजा, मुंडन संस्कार, जनेऊ संस्कार, सगाई, विवाह कार्यों को करना शुभ होता है. 

इस दिन नए व्यवसाय का आरंभ किया जा सकता है. नई स्थान की यात्रा एवं नई वस्तुओं को लेना शुभ होता है. 

भड़ली नवमी के दिन कन्या पूजन करना शुभफल प्रदान करता है. 

भड़ली नवमी कथा   

पौराणिक कथाओं के अनुसार अषाढ़ शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि के दिन कामदेव का कंदर्प रुप में पुन: जन्म होता है. गुप्त नवरात्रि के दिन को भड़ली नवमी का समय मनाया जाता है. इस दिन से संब्म्धित कई कथाएं प्राप्त होती हैं जिनमें एक कामदेव से संबंधित है. मान्यताओं के अनुसार जब भगवान शिव सती के वियोग में साधना मेम रमे रहते हैं तब उस समय सती का पुन: जन्म होता है वह हिमायल राज की पुत्री पार्वती के रुप में जन्म लेती हैं. भगवान शिव ओर पार्वती के विवाह कराने हेतु देवी देवता कई जतन करते हैं देवी पार्वती भी भगवान शिव को पाने हेतु कठोर व्रत का पालन करती हैं किंतु भगवान शिव अपनी योग साधना से जब बाहर नहीं आते हैं, तब उस समय सभी देवता कामदेव के पास जाकर उन्हें भगवान शिव के भीतर काम भवना जागृत करने को कहते हैं, किंतु कामदेव जब भगवान शिव को जगाने हेतु प्रयास करते हैं तो उस समय भगवान अपने क्रोध के कारण तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर देते हैं. ऎसे में देवी रति अपने पति की मृत्यु से व्यथित होकर विलाप करने लगती हैं भगवान शिव उनकि दशा देख कर कामदेव की पुन: प्राप्ति का आशीर्वाद देते हैं. इसी आशीर्वाद के अनुरुप 

आषाढ़ नवमी के दिन देव कन्दर्प का जन्म होता है. भगवान शिव के द्वारा भस्म होने के बाद इस तिथि पर वह पुन: आते हैं. कन्दर्प देव को भगवान श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रुप में जन्म लेते हैं ओर कंदर्प नाम से विख्यात होते हैं. इसलि भी दिन विवाह कार्यों को करना अत्यंत शुभ माना जाता है. 

दांपत्य जीवन का सुख प्रदन करता भड़ली नवमी 

भड़ली नवमी के दिन पर शादी सगाई जैसे माम्गलिक कार्यों को उत्साह के साथ किया जाता है. इस दिन को दांपत्य जीवन के सुख पाने के लिए शुभ समय माना जाता है. इस दिन पर शादी विवाह करने से विवाह में किसी भी प्रकार का दोष या अलगाव उत्पन्न नहीं होता है. जीवन में यदि दांपत्य सुख की कमी हो या रिश्तों में किसी प्रकार का विवाद बना हुआ दिखाई देता हो तो भडली नवमी के दिन कामदेव का पूजन करना बहुत शुभ माना गया है. कामदेव के आशीर्वाद से विवाह का सुख प्राप्त होता है. भड़ली नवमी के दिन भगवान शिव देवी पार्वती श्री विष्णु पूजन के द्वारा सुख सौभाग्य प्राप्त होता है. 

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चातुर्मास : क्यों रुक जाते हैं मांगलिक कार्य ?

चातुर्मास में रुक जाते हैं मांगलिक कार्य और पूजा पाठ को करना क्यों होता है शुभ 

हिन्दू पंचांग के अनुसार देवशयनी एकादशी आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि  चातुर्मास का आरंभ होता है. इस दिन भगवान विष्णु योग निद्रा में पाताल लोक को चले जाते हैं मान्यताओं के अनुसार श्री विष्णु भगवान राजा बली को दिए आशीर्वाद के कारण इस समय पाताल लोक में निवास करते हैं. इसके साथ ही चातुर्मास शुरू हो जाता है. इसके बाद सभी मांगलिक कार्य बंद हो जाते हैं. इसके बाद कार्तिक मास की देवोत्थान एकादशी के दिन जब भगवान विष्णु योग निद्रा से जागते है तो पुन: लोक मंगल से जुड़े काम शुरु हो जाते हैं और माता तुलसी से विवाह करते हैं इसके बाद सभी शुभ कार्य फिर से शुरू हो जाने से चातुर्मास समाप्त हो जाता है. 

इस बार चातुर्मास 06 जुलाई से शुरू होकर 02 नवंबर 2025 को समाप्त होगा. इस दौरान विवाह, गृह प्रवेश, कोई नए कार्य का आरंभ व्यवसाय शुरु करना, जैसे कार्य नहीं किए जाते हैं इन्हें कुछ समय के लिए रोक दिया जाता है. 

चातुर्मास चार महिनों का योग 

पहला महीना – श्रवण 

चातुर्मास्य व्रत के पहले महीने को शक व्रत के रूप में जाना जाता है. शक व्रत आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि से प्रारंभ होकर श्रावण मास की शुक्ल एकादशी के दिन समाप्त होता है.

नहीं खाना चाहिए पालक, धनिया पत्ती, मेथी के पत्ते, पुदीने के पत्ते, करी पत्ते, आदि.

दूसरा महीना- भाद्रपद 

चातुर्मास्य व्रत के दूसरे महीने को दधि व्रत के नाम से जाना जाता है.दधि व्रत श्रावण शुक्ल पक्ष की द्वादशी से शुरू होकर भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी को समाप्त होता है.

नहीं खाना चाहिए दही 

तीसरा महीना– अश्विन 

चातुर्मास्य व्रत के तीसरे महीने को क्षीर व्रत के नाम से जाना जाता है. क्षीर व्रत भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी को शुरू होता है.

दूध से करना चाहिए परहेज 

चौथा महीना– कार्तिक

चातुर्मास्य व्रत का चौथा महीना द्विदल व्रत के नाम से जाना जाता है. यह आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी पर समाप्त होती है.

नहीं खानी चाहिए दालें 

पद्म पुराण और भागवत अनुसार, किए जाने वाले कार्य 

चातुर्मास समय धर्म स्थलों – मंदिर की साफ सफाई करनी चाहिए ऎसा करने से सात जन्मों तक अच्छे भोग प्राप्त होते हैं 

भगवान को दूध, दही, घी, शहद और चीनी से स्नान कराना चाहिए ऎसा करने से समृद्ध हो जाते हैं और स्वर्गलोक में जाकर इंद्र के समान भोग प्राप्त करते हैं.

ब्राह्मण को  28 या 108 मिट्टी के बर्तनों का दान करना चाहिए ऎसा करने से सभी पापों से मुक्ति प्राप्त होती है. 

भगवान विष्णु के पूजन भजन में कीर्तन करना चाहिए ऎसा करने से गंधर्व लोक प्राप्त होता है.

मंदिर की परिक्रमा करनी चाहिए ऎसा करने से भक्त विष्णु धाम को पाता है.

गुड़ का त्याग करने वाले को पुत्र या पौत्र की प्राप्ति होती है.

सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करना चाहिए.

प्रातः सूर्योदय से पहले मंत्र जाप करना चाहिए 

चार महीने तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए.

अपनी क्षमता के अनुसार दान करना चाहिए. 

पौराणिक नियम: चातुर्मास क्या करें और क्या न करें 

चातुर्मास में विवाह कार्य, गृह प्रवेश, भूमि पूजन, मुंडन, तिलकोत्सव आदि काम नहीं किए जाते हैं. 

चातुर्मास में पतल में भोजन करना शुभ माना जाता है.

पलंग छोड़कर जमीन पर ही सोना उत्तम होता है. इसमें सूर्य देव की कृपा प्राप्त होती है.

चातुर्मास के दौरान मांस और शराब का सेवन अशुभ होता है.

चातुर्मास में भगवान विष्णु की पूजा अत्यंत लाभकारी होती है. मां लक्ष्मी का आशीर्वाद मिलता है. 

इस माह किसी प्रकार के विवाद-झगड़े से दूर रहना चाहिए. गलत एवं असत्य वचनों को नहीं बोलना चाहिए.

तुलसी पूजन करना चाहिए. शाम को तुलसी के पौधे पर घी का दीपक जलाना चाहिए 

चातुर्मास के दौरान गुड़, तेल, शहद, मूली, परवल, बंगाल, साग आदि का सेवन नहीं करना चाहिए.

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गुप्त नवरात्रि 2025 पर महाविद्या को लगाएं विशेष भोग मिलेगी हर कार्य में सफलता

गुप्त नवरात्रि के दिन दस महाविद्याओं का पूजन किए जाने का विधान रहा है. गुप्त नवरात्रि का पर्व गृहस्थ से अधिक तंत्र, साधना कर्म एवं योग क्रियाओं के लिए उपयुक्त समय माना जाता है. गुप्त नवरात्रि हेतु किए जाने पूजा कर्म में साधारण स्वरुप में दुर्गा के नव रुपों का पूजन भी किया जाता है किंतु विशेष रुप से ये समय महाविद्याओं का पूजन संपन्न होता है. इस समय पर प्रत्येक दिन ब्रह्माणिय शक्ति एवं ऊर्जा का अलग स्तर होता है. प्रत्येक दिवस विशेष होता है तथा साधना को चरण दर चरण पूरा होते देखा जा सकता है.

गुप्त नवरात्रि के दिन महाविद्या के प्रत्येक रुप का पूजन किया जाता है. इस समय पर दसमहाविद्या को विशेष भोग अर्पित करने का विधान रहा है. इस समय पर महाविद्याओं के प्रत्येक रुप का उनके प्रिय भोग के साथ पूजन करने से सर्वकामनाओं की सिद्धि प्राप्त होती है. आइये जानें दस महाविद्याओं को कौन सा भोग अर्पित किया जाए जिससे साधना ओर सिद्धि की प्राप्ति हो संभव. 

दस महाविद्या को लगाए जाने वाले विशेष भोग (प्रसादम) 

माँ महाविद्या काली को लगाएं विशेष भोग 

महाविद्या काली का पूजन विशेष रुप से गुप्त नवरात्रि में साधना सिद्धि हेतु किया जाता है. देवी काली का पूजन भक्त की ऊर्जा को जागृत करने का समय होता है. इस समय पर देवी के समक्ष विभिन्न पूजन अनुष्ठान किए जाते हैं. देवी को श्रीफल विशेष रुप से अर्पित किया जाता है. 

देवी काली की पूजा में भोग स्वरुप शहद का उपयोग विशेष रुप से किया जाता है. माँ काली को शहद अत्यंत प्रिय है. गुप्त नवरात्रि में महाविद्या काली का पूजन करने उपरांत देवी को शहद का भोग विशेष रुप से अर्पित करना चाहिए. 

काली मंत्र 

ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके

क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥

माँ महाविद्या तारा को लगाएं विशेष भोग 

दस महाविद्या की दूसरी शक्ति देवी तारा हैं, माहविद्या तारा को एकजता, उग्रतारा और नीलसरस्वती के नाम से भी पुकारा जाता है. सृष्टि की शक्ति इन्हीं में निहित है. देवी भक्तों को सभी दुखों से तारने वाली हैं. देवी तारा को हिंदू धर्म की ही भांति बौद्ध धर्म में भी अत्यंत पूजनीय माना गया है.

देवी तारा के पूजन में सरसों के तेल में बने पदार्थ, तेजपत्ता चढ़ाएं, नारियल, सूखे मेवे और रेवड़ियों का भोग लगाने से सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है.

तारा मंत्र 

ॐ त्रीं ह्रीं, ह्रूं, ह्रीं, हुं फट्॥

महाविद्या ललिता को लगाएं विशेष भोग 

दस महाविद्या में देवी ललिता सुख एवं सौभाग्य की देवी हैं. देवी ललिता का पूजन आर्थिक विपन्नता को दूर करने वाला होता है. ऋषि दुर्वासा एवं आदिगुरू शंकरचार्य भी देवी ललिता के परम भक्त थे. सौन्दर्यलहरी में त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या की स्तुति का वर्णन अत्यंत मनोरुप से वर्णित है. देवी ललिता के पूजन में  ललिता सहस्त्रनामावली का पाठ करने से सभी कष्ट दूर होते हैं, धन धान्य की प्राप्ति होती है. 

देवी ललिता के पूजन में श्वेत रंग से निर्मित खाद्य पदार्थों का विशेष रुप से भोग निर्मित किया जाता है. इस दिन देवी को खीर, श्वेत मिष्ठान एवं दूध से बने भोग अर्पित करना उत्तम माना गया है. देवी के पूजन के पश्चात भोग अर्पित करके भोग को गरीबों में वितरित करने से रोग दोष शांत होते हैं. जीवन में सुख एव्म सफलता का आगमन होता है. 

ललिता मंत्र

 ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नम:। ‘

महाविद्या भुवनेश्वरी को लगाएं विशेष भोग 

महाविद्या भुवनेश्वरी का पूजन सृष्टि के कल्याण एवं समस्त सिद्धियों की प्राप्ति हेतु किया जाता है. देवी भुवनेश्वरी आदि शक्ति का स्वरुप हैं. भुवन की अधिष्ठात्रि देवी शत्रुओं का नाश करने हेतु सदैव सृष्टि में व्याप्त हैं. इनकी शक्ति के द्वारा सृष्टि का संचालन अविरल रुप से गतिमान है. देवी का पूजन करने से संपत्ति से जुड़े सभी विवाद समाप्त होते हैं. महाविद्या भुवनेश्वरी का पूजन करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है. देवी की पूजा से ज्ञान में वृद्धि और सुख की प्राप्ति होती है. पंच तत्वों में समाहित शक्ति को प्रदान करती हैं. 

देवी भुवनेश्वरी की पूजा में माता को मालपुआ का भोग विशेष रुप से अर्पित किया जाता है. 

भुवनेश्वरी मंत्र

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सौंः क्रीं हूं ह्रीं ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥

महाविद्या त्रिपुर भैरवी को लगाएं विशेष भोग 

महाविद्या त्रिपुर भैरवी को काली का स्वरुप माना गया है. त्रिपुर भैरवी के अनेकों नाम हैं ओर देवी की अनेक सहायिकाओं को भैरवी रुप में भी जाना जाता है. देवी का स्वरुप शत्रुओं का नाश करने हेतु विख्यात है. त्रिपुर की सुरक्षा का दायित्व इन्हें प्राप्त है. देवी त्रिपुर भैरवी जी का पूजन तंत्र एवं मंत्र दोनों ही साधनाओं हेतु उपयुक्त होता है. देवी की साधना में शक्ति एवं बल की वृद्धि होती है. 

महाविद्या त्रिपुर भैरवी पूजा में देवी को गुड़, खाण्ड इत्यादि का भोग विशेष रुप से अर्पित किया जाता है. देवी की पूजा में लाल चंदन का उपयोग अवश्य करना चाहिए. देवी को गुड़ का भोग लगाने से शत्रु बाधा शांत होती है. न्यायिक मामलों में विजय की प्राप्ति होती है.

महाविद्या त्रिपुर भैरवी  मंत्र 

ॐ ह्रीं त्रिपुर भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा॥

महाविद्या छिन्नमस्तिका को लगाएं विशेष भोग 

महाविद्या छिन्नमस्तिका को तंत्र में विशेष स्थान प्राप्त है. देवी का पूजन तांत्रिक कर्म में सफलता हेतु किया जाता है. देवी छिन्नमस्तिका का स्वरुप काफी रौद्र है किंतु उनका ममतामयी व्यवहार भक्तों को सिद्धि एवं सुख प्रदान करता है. देवी का पूजन सभी कष्टों का नाश करता है. समस्त कामानों की पूर्ति होती है. देवी को चिंताओं का नाश करने वाला माना गया है और चिंतपूर्णी नाम भी प्राप्त है.

देवी छिन्नमस्तिका के पूजन में माता को मीठे पान का भोग लगाना उत्तम होता है. देवी के पूजन में शहद फर पान को विशेष माना जाता है.

छिन्नमस्तिका मंत्र

ॐ वैरोचन्ये विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥

महाविद्या धूमावती  को लगाएं विशेष भोग 

गुप्त नवरात्रि में महाविद्या धूमावती जी का पूजन रोगों के नाश हेतु प्रमुख होता है. देवी का स्वरुप धूम्र की भांति है. देवी का वर्णन रुद्रामल तंत्र में प्राप्त होता है. दस महाविद्याओं में माता सती का ये स्वरुप भगवान शिव को ग्रहण कर लेने के कारण मिला. देवी ने जब भगवान शिव को निगल लिया तब उनकी देह से धुआं व्याप्त होने लगा ऎसे में माता का स्वरुप शोक एवं दुखों को दूर करने वाला होता है. रोग एवं दोषों का नाश देवी के पूजन द्वारा संभव होता है. माता को दुख एवं दारिद्र से मुक्ति पाने हेतु भी पूजा जाता है. 

देवी का पूजन करने में सरल एवं गरिष्ठ दोनों प्रकार के भोग लगाने का वर्णन प्राप्त होता है. देवी की पूजा में तेल से बने पदार्थ एवं खिचड़ी को विशेष माना गया है. 

धूमावती मंत्र 

धूं धूं धुर धुर धूमावती क्रों फट् स्वाहा॥

महाविद्या बगलामुखी को लगाएं विशेष भोग 

गुप्त नवरात्रि में महाविद्या बगलामुखी का पूजन विशेष तंत्र साधना का समय होता है. तांत्रिक कर्म में देवी का को मुख्य स्थान प्राप्त होता है. देवी बगलामुखी पीताम्बराके रुप में बःई पूजी जाती है क्योंकि देवी का स्वरुप पीले रंग से अधिक वर्णित होता है. देवी के पूजन में पीले रंग का विशेष उपयोग होता है. देवी को हल्दी की माला विशेष रुप से अर्पित की जाती है. माता स्तंभन की देवी हैं इसलिए जीवन में आने वाला कोई भी संकट इनके स्मरण मात्र से रुक जाता है. कष्ट की स्थिति टल जाती है. जीवन में किसी भी प्रकार के विवाद में विजय पाने के लिए बगलामुखी का पूजन किया जाता है. यह आठवी महाविद्या के रुप में पूजी जाती हैं. 

महाविद्या बगलामुखी को विशेष रुप से पीले रंग के मिष्ठान अर्पित किए जाते हैं. बेसन ओर हल्दी से निर्मित भोग अर्पित किया जाना उत्तम होता है.

महाविद्या बगलामुखी मंत्र 

ह्लीं बगलामुखी विद्महे दुष्टस्तंभनी धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥

महाविद्या मातंगी को लगाएं विशेष भोग 

देवी महाविद्या मातंगी शुभ एवं कोमल स्वरुप होती हैं. देवी का पूजन नवें दिन पर प्रमुख रुप से होता है. कला एवं संगीत का स्वर इन्हीं में विराजित है. देवी को प्रकृति का स्वरुप संगीतमय है. माता सभी सुखों के साथ जीवन में शुभता को प्रदान करने वाली होती हैं. वाणी से संबंधित कोई भी परेशानी से बचाव के लिए मातंगी का पूजन बहुत शुभ माना जाता है. प्राणियों के जीवन में आनंद एवं संगीत का उद्घोष देवी के आशिर्वाद से ही संपन्न होता है. देवी जीवन में सुखों का नाश करती हैं दांपत्य जीवन में सुख प्रदान करने वाली होती हैं. 

देवी मातंगी को भोग स्वरुप मिष्ठान एवं श्रीफल से बने भोग अर्पित किए करना बहुत ही शुभ माना जाता है. 

मंत्र

ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा॥

महाविद्या कमला को लगाएं विशेष भोग 

देवी कमला का स्वरुप अत्यंत शुभदायक होता है. देवी को महाविद्याओं में दसवीं शक्ति के रुप में माना जाता है. देवी का स्वरुप सभी तरह के ज्ञान एवं बुद्धि को प्रदान करने वाला माना जाता है. 

देवी के पूजन से अन्न धन की प्राप्ति होती है. जीवन में अभाव की समाप्ति होती है. देवी कमला श्री का स्वरुप हैं. लक्ष्मी रुपा हैं इसलिए आर्थिक तंगी एवं कर्ज से जुड़ी समस्याओं को हल करने के लिए इनका पूजन विशेष होता है. 

देवी कमला को खीर का भोग एवं केसर अर्पित करना शुभ होता है. 

मंत्र

ॐ ह्रीं हूं हां ग्रें क्षों क्रों नमः॥

दस महाविद्या स्तोत्र  

दुर्ल्लभं मारिणींमार्ग दुर्ल्लभं तारिणींपदम्।

मन्त्रार्थ मंत्रचैतन्यं दुर्ल्लभं शवसाधनम्।।

श्मशानसाधनं योनिसाधनं ब्रह्मसाधनम्।

क्रियासाधनमं भक्तिसाधनं मुक्तिसाधनम्।।

तव प्रसादाद्देवेशि सर्व्वाः सिध्यन्ति सिद्धयः।।

नमस्ते चण्डिके चण्डि चण्डमुण्डविनाशिनी।

नमस्ते कालिके कालमहाभयविनाशिनी।।

शिवे रक्ष जगद्धात्रि प्रसीद हरवल्लभे। 

प्रणमामि जगद्धात्रीं जगत्पालनकारिणीम्।।

जगत्क्षोभकरीं विद्यां जगत्सृष्टिविधायिनीम्।

करालां विकटां घोरां मुण्डमालाविभूषिताम्।।

हरार्च्चितां हराराध्यां नमामि हरवल्लभाम्।

गौरीं गुरुप्रियां गौरवर्णालंकार भूषिताम्।।

हरिप्रियां महामायां नमामि ब्रह्मपूजिताम्।

सिद्धां सिद्धेश्वरीं सिद्धविद्याधरगणैर्युताम्।

मंत्रसिद्धिप्रदां योनिसिद्धिदां लिंगशोभिताम्।।

प्रणमामि महामायां दुर्गा दुर्गतिनाशिनीम्।।

उग्रामुग्रमयीमुग्रतारामुग्रगणैर्युताम्।

नीलां नीलघनाश्यामां नमामि नीलसुंदरीम्।।

श्यामांगी श्यामघटितांश्यामवर्णविभूषिताम्।

प्रणमामि जगद्धात्रीं गौरीं सर्व्वार्थसाधिनीम्।।

विश्वेश्वरीं महाघोरां विकटां घोरनादिनीम्।

आद्यमाद्यगुरोराद्यमाद्यनाथप्रपूजिताम्।।

श्रीदुर्गां धनदामन्नपूर्णां पद्मा सुरेश्वरीम्।

प्रणमामि जगद्धात्रीं चन्द्रशेखरवल्लभाम्।।

त्रिपुरासुंदरी बालमबलागणभूषिताम्।

शिवदूतीं शिवाराध्यां शिवध्येयां सनातनीम्।।

सुंदरीं तारिणीं सर्व्वशिवागणविभूषिताम्।

नारायणी विष्णुपूज्यां ब्रह्माविष्णुहरप्रियाम्।।

सर्वसिद्धिप्रदां नित्यामनित्यगुणवर्जिताम्।

सगुणां निर्गुणां ध्येयामर्च्चितां सर्व्वसिद्धिदाम्।।

दिव्यां सिद्धि प्रदां विद्यां महाविद्यां महेश्वरीम्।

महेशभक्तां माहेशीं महाकालप्रपूजिताम्।।

प्रणमामि जगद्धात्रीं शुम्भासुरविमर्दिनीम्।।

रक्तप्रियां रक्तवर्णां रक्तबीजविमर्दिनीम्।

भैरवीं भुवनां देवी लोलजीह्वां सुरेश्वरीम्।।

चतुर्भुजां दशभुजामष्टादशभुजां शुभाम्।

त्रिपुरेशी विश्वनाथप्रियां विश्वेश्वरीं शिवाम्।।

अट्टहासामट्टहासप्रियां धूम्रविनाशीनीम्।

कमलां छिन्नभालांच मातंगीं सुरसंदरीम्।।

षोडशीं विजयां भीमां धूम्रांच बगलामुखीम्।

सर्व्वसिद्धिप्रदां सर्व्वविद्यामंत्रविशोधिनीम्।।

प्रणमामि जगत्तारां सारांच मंत्रसिद्धये।।

इत्येवंच वरारोहे स्तोत्रं सिद्धिकरं परम्।

पठित्वा मोक्षमाप्नोति सत्यं वै गिरिनन्दिनी।।

कुजवारे चतुर्द्दश्याममायां जीववासरे।

शुक्रे निशिगते स्तोत्रं पठित्वा मोक्षमाप्नुयात्।

त्रिपक्षे मंत्रसिद्धिः स्यात्स्तोत्रपाठाद्धि शंकरि।।

चतुर्द्दश्यां निशाभागे शनिभौमदिने तथा।

निशामुखे पठेत्स्तोत्रं मंत्रसिद्धिमवाप्नुयात्।।

केवलं स्तोत्रपाठाद्धि मंत्रसिद्धिरनुत्तमा।

जागर्तिं सततं चण्डी स्तोत्रपाठाद्भुजंगिनी।।

इति महाविद्या स्तोत्र समाप्तम् |

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देवी कामाख्या, तंत्रविद्या का शक्ति केन्द्र

कामाख्ये वरदे देवी
नीला पर्वता  वासिनी
त्वम् देवी जगतम माता
योनि मुद्रे नमोस्तुते ||

देवी कामाख्या , तंत्र और मंत्र का शक्ति पीठ
तंत्र और मंत्र की अधिठात्रि देवी कामाख्या, शक्ति का वह स्वरुप हैं जो सृष्टि के निर्माण को दर्शाती हैं. कामाख्या संपूर्ण कामानाओं को पूर्ण करने वाली देवी हैं. देवी के प्रमुख शक्ति पीठों में कामाख्या को विशेष स्थान प्राप्त है. कामाख्या मंदिर एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है जो भारत के आसाम के खूबसूरत शहर गुवाहाटी में नीलाचल पहाड़ी पर स्थित है. शक्ति का यह अभयारण्य भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है और हर दिन हजारों तीर्थयात्री इस स्थान पर आकर देवी का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं यह स्थान देवी के प्रमुख शक्ति पीठों में सबसे पुराना माना जाता है.

देवी कामाख्या योनी स्वरुपा

देवी कामाख्या को अक्सर श्मशान घाट में विभिन्न प्रकार की साधना हेतु चित्रित किया जाता है. अन्य देवी-देवताओं के विपरीत, इनके योनी रुप का पूजन होता है क्योंकि देवी गर्भ स्थान में योनी रुपा स्वरुप में स्थित हैं.

देवी कामाख्या तारण और मारण की शक्ति

देवी कामाख्या तंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं, सृजन और विनाश दोनों ही स्थितियां इनमें विराजमान हैं. कामाख्या नाम का अर्थ काम तथा कामना से संबंधित माना गया है. देवी समस्त कामानों को पूर्ण करने वाली हैं. कामाख्या देवी कोमल एवं कठोर दोनों ही रुपों में विराजित हैं देवी अपने भक्तों के लिए माता करुणा हैं तथा शत्रुओं के लिए विनाशकारी शक्ति हैं. सृष्टि के निर्माण में इन्हीं का स्वरुप विराजमान है. प्रकृति की नवीनता का कारण भी देवी ही हैं. तीन लोकों में देवि की सत्ता सर्वविदित है.देवी कामाख्या वह अग्नि, प्रकाश, अंधकार सभी पहलुओं को धारण करती है. कुंडलिनी की देवी हैं, जो रीढ़ के आधार के रूप में स्थित ऊर्जा का एक दिव्य रूप है. यही कारण है कि देवी कामाख्या की पूजा में ध्यान की चेतना पर विशेष बल दिया जाता है, जो कुंडलिनी को जगाने में मदद होता है.

तंत्र विद्या में कामाख्या
वह महान ब्रह्मांडीय चेतना का एक रूप है और कामाख्या माता को सबसे शक्तिशाली तांत्रिक देवी में से एक माना जाता है. वह एक ऐसी मां है जो अपने बच्चों की रक्षा के लिए कुछ भी कर सकती है. तंत्र विद्या में, वह शक्ति का रूप है. वह कामाख्या क्रिया जैसे कई तांत्रिक क्रियाओं से जुड़ी हुई हैं. इन क्रियाओं को करने वाले प्रकाश, अग्नि और पृथ्वी की सभी प्रकार की ऊर्जा को एक में केंद्रित करते हैं. कामाख्या मंदिर प्राचीन भारत के सबसे रहस्यमय स्थानों में से एक स्थान भी है, जिसे दैवीय शक्तियों की प्राप्ति के लिए बनाया गया था. तंत्रवाद से जोड़ा गया माता का रुप शक्तियों का समुह है जिसमें सभी शक्तिशाली क्रियाओं को किया जाता है.

देवी की पूजा प्रकृति के पंचभूतों पर नियंत्रण करने के लिए शरीर और मन को नियंत्रित करने की इच्छा रखने वालों के लिए उत्तम होती है. देवी कामाख्या की पूजा एक चक्र के रूप में पूजा की जाती है पूजा करने से तत्काल आशीर्वाद मिलता है और व्यक्ति को सभी कुछ प्राप्त होता है. देवी अपने उपासकों एवं भक्तों को दर्द और पिड़ा से राहत दिलाने में मदद करती है.कामाख्या साधना को सिद्ध करने वाले साधक को सभी अष्टसिद्धियां प्राप्त होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप सभी अलौकिक शक्ति में महारत हासिल करने के लिए आध्यात्मिक प्रगति प्राप्त होती है.

देवी कामाख्या की उत्पत्ति
देवी कामाख्या सती का प्रतिरुप हैं जो भगवान शिव के साथ मौजूद हैं. देवी को काल कामाख्या के नाम से भी जाना जाता है. देवी काली को ऊर्जा के आदि शक्ति के रूप में जाना जाता है.
पौराणिक ग्रंथों में शक्ति की स्थापना एवं शिव शक्ति के मिलन से जुड़ी कई कहानियां ओर मिथक मिल जाते हैं. कामाख्या को देवी सती का स्वरुप माना गया है और इसे देवी के महत्वपूर्ण शक्तिपीठों में गिना जाता है.

अनेक कथाएं अलग अलग रुप से चित्रित हैं. एक कथा अनुसार, भगवान ब्रह्मा ने ब्रह्मांड के निर्माण में सहायता के लिए शक्ति और शिव को प्रसन्न करने के लिए एक यज्ञ किया जिसके फलस्वरुप देवी शक्ति शिव से अलग हो जाती हैं और ब्रह्मा जी की सहायता के लिए निकल पड़ती हैं. जब उद्देश्य पूर्ण होता है तो शक्ति पुन: शिव के पास चली जाती हैं. सहस्त्र वर्षों उपरांत ब्रह्मा के मानस पुत्र दक्ष ने सती को अपनी बेटी के रूप में पाने हेतु बहुत तप किया और देवी शक्ति दक्ष के घर उनकी पुत्री स्वरुप उत्पन्न होती हैं. दक्ष को भगवान शिव से अत्यंत वैर रहा अपने पिता के अपमान का भी उनके भीतर क्षोभ था उन्होंने सती का विवाह शिव से न करने का निश्चय किया हुआ था किंतु ऎसा होन नहीं पाया और अंत में सती का विवाह शिव के साथ ही संपन्न होता है.

दक्ष एक बार फिर शिव द्वारा पराजित हुआ अनुभव करता है ओर शिव का प्रतिपल अपमान करने का संकल्प बनाए रखता है. एक बार वह दक्ष ने एक महाविशाल यज्ञ का आयोजन किया जिसमें समस्त देवी देवताओं को आमंत्रित किया किंतु उन्होंने अपने पुत्रि सती ओर अपने जमाता शिव को आमंत्रण नहीं दिया. ये यज्ञ दक्ष ने भगवान शिव से बदला लेने की इच्छा से ही किया था. जब सती को पता चला की पिता ने सभी को पूजा में बुलाया लेकिन उन्हें बुलावा नहीं दिया गया तो वह बिना आमंत्रण के ही अपने पिता के घर जाने को व्याकुल होने लगीं.

देवी सती ने उसने शिव से अपनी इच्छा व्यक्त की, शिव नहीं माने और सती को जाने से रोकने की पूरी कोशिश करते हैं. किंतु सती के बार -बार कहने पर वह मान जाते हैं, सती अपने पिता के यज्ञ में चली जाती है लेकिन सती को यज्ञ में सम्मान नहीं दिया जाता है अपना और अपने पति के अनादर से वह इतनी पीड़ा से भर जाती हैं की उसी यज्ञ की अग्नि में समा जाती है. यज्ञ में सती के आत्मदाह को देखते ही समस्त लोक त्राही त्राही करने लगते हैं. भगवान शिव को जब इस घटना का पता चलता है तो वह क्रोधित हो पत्नी के अपमान और मृत्यु का दंड देने के लिए अपने वीरभद्र अवतार को दक्ष के यज्ञ में भेजते हैं जहां यज्ञ पूर्ण रुप से नष्ट कर दिया जाता है और दक्ष का सिर काट दिया जाता है.

शिव अपनी शक्ति को खोने से व्यथित हो जाते हैं. दु: ख में डूबे हुए, शिव देवी सती के शरीर को अपने कंधों पर उठा कर तांडव करने लगते हैं. यह एक विनाश का समय होता है और देवता भगवान श्री विष्णु के पास जाकर इस स्थिति को नियंत्रित करने के लिए आग्रह करते हैं. श्री विष्णि तब अपने सुदर्शन चक्र द्वार देवी सती की देह को काट देते हैं ओर देवी के प्रत्येक अंग जहां जहां भी गिरते हैं उस स्थान पर शक्ति पीठों की स्थापना होती है.

इस कथा अनुसार देवी का योनी भाग आसाम में गिरा जहां आज का कामाख्या मंदिर स्थापित है. देवी योनी स्वरुपा होकर कामाख्या स्थल पर विराजमान हुईं.

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दक्षिणायन का आरंभ योग साधना के लिए विशेष समय

हिंदू पंचांग अनुसार उत्तरायण एवं दक्षिणायन का विशेष महत्व रहा है. दक्षिणायन वह समय है जब सूर्य ग्रह उत्तरी गोलार्ध से पृथ्वी के आकाश में दक्षिण गोलार्ध की ओर गति करना शुरू करता है. किसी भी प्रकार की योग साधना करने वाले व्यक्ति के जीवन में दक्षिणायन का विशेष महत्व है. दक्षिणायन समय को देवों की रात्रि का समय माना जाता है ओर इस समय पर साधना एवं जप के कार्यों अत्यंत ही उत्तम माना जाता है. 

20/21 जून को सायन दक्षिणायन का समय होगा

16 जुलाई 2025 को निरयण संक्रांति का समय होगा

सायन और निरयण पद्धितियों के अनुसार इस स्थिति में दिन का कुछ अंतर देखने को जहां सायन अनुसार 21 जून या 22 जून का समय सूर्य की गति में बदलाव का समय होता है. इस समय को सौर वर्ष अनुसार दक्षिणायन का समय माना जाता है. वहीं निरयण अनुसार यह समय सूर्य के कर्क राशि में प्रवेश से आरंभ होता है जो 16 जुलाई के आस-पास की स्थिति का होता है जिसे निरयण दक्षिणायन के नाम से भी जाना जाता है. 

दक्षिणायन के इस चरण में, ग्रह के साथ जीव एवं जगत का संबंध उत्तरी भाग की तुलना में बहुत अलग होता है. विशेष रूप से हममें से जो उत्तरी गोलार्ध में रह रहे हैं, उनके लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि सूर्य अब दक्षिण की ओर बढ़ रहा है और ग्रह वाम दिशा में घूम रहा होता है. ये एक ऎसा समय होता है जब कुछ महत्वपूर्ण चीजें साथ साथ जीवन एवं प्रकृति पर अपना गहरा असर डालती हैं. 

दक्षिणायन भगवान शिव का दक्षिण योग साधना का समय 

मानव शरीर पर ये क्रिया विज्ञान के आधार पर भी एक निश्चित प्रभाव उत्पन्न करती हैं. इस पहलू को ध्यान में रखते हुए हिंदू धर्म द्वारा की जाने वाली सभी प्रथाओं को संरचित किया गया है. मान्यताओं के अनुसार वर्ष के इस समय के दौरान भगवान शिव दक्षिण की ओर मुड़े और दक्षिणामूर्ति बने. उन्होंने योग विज्ञान के मूल सिद्धांतों को अपने पहले सात शिष्यों तक पहुँचाया जिन्हें सप्तर्षि के रूप में मनाया जाता है. यह अचानक नहीं था कि उसने दक्षिण की ओर मुड़ने का फैसला किया. वह दक्षिण की ओर मुड़ गया क्योंकि सूर्य दक्षिण की ओर मुड़ गया था. सूर्य का दक्षिणी भाग महत्वपूर्ण हो गया क्योंकि यह शिक्षण का पहला चरण भी कहा जाता है. यह साधना पद बन गया जहां उन्होंने सप्तर्षियों को सिखाया कि उन्हें क्या करना चाहिए. उत्तरी भाग या उत्तरायण को समाधि पद या कैवल्य पद के रूप में जाना जाता है. यह बोध का समय होता है. इस दौरान विभिन्न प्रकार के विवाह एवं मांगलिक कार्य रोक दिए जाते हैं और व्रत, यज्ञ, पूजा और अन्य धार्मिक कार्य रोगों और दुखों को दूर करते हैं.

दक्षिणायन संबंधी पौराणिक विचार 

दक्षिणायन के विषय में पौराणिक एवं धार्मिक विचारों के अनुसार इस समय को एक ऎसी लम्बी अवधि के रुप में दर्शाया गया है जिसमें व्यक्ति की आंतरिक मनोभावनाओं का उद्गार अधिक दिखाई देता है. ये समय प्रकृति के साथ अंधकार की स्थिति के संतुलन का विशेष समय होता है. अंधकार हमारे भीतर के प्रकाश द्वारा ही दूर हो सकता है, इसलिए दक्षिणायन को तपस्या हेतु अत्यंत शुभकारी समय माना गया है.. इस समय के दौरान आत्मबल में वृद्धि के प्रयास करने की ओर संकेत मिलते हैं. यह वो समय होता है जब चेतना को उस स्तर पर जागृत करने की चेष्ठा की जाती है कि जब उत्तरायण का आरंभ हो तब आत्म सुख एवं दर्शन भक्ति के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेने में व्यक्ति सफलता को प्राप्त कर पाए. इसलिए इस समय पर आत्म नियंत्रण की स्थिति ही अधिक महत्वपूर्ण होती है विवाह इत्यादि कार्यों को इस समय पर रोक दिया जाता है जो दर्शाता है की इस अवधि के समय पर यदि योग साधना को बढ़ाया जाए तो आने वाले समय में एक श्रेष्ठ समय का व्यक्ति का निर्माण संभव हो पाए. 

कुछ महत्वपूर्ण बातें जो दक्षिणायन पर कही जाती हैं जो उसके ऊपरी पक्ष को दर्शाती है किंतु उसके आंतरिक स्वरुप को समझने हेतु इन चीजों से परे हटकर देखने की आवश्यकता होती है. 

वैदिक पंचांग अनुसार दक्षिणायन का समय देवताओं की रात्रि के रुप में दर्शाया जाता है. 

दक्षिणायन को पितरों का समय माना जाता है. 

दक्षिणायन को राक्षसों का दिन भी कहा जाता है. 

दक्षिणायन समय को अंधकार का समय माना गया है. 

वासनाओं की जागृति का समय भी कहा जाता है. 

दक्षिणायन समय व्रत, उपवास, संयम, आत्म अवलोकन का समय होता है. 

दक्षिणायन का समय भक्ति और तपस्या हेतु उत्तम माना गया है. 

उत्तरायण और दक्षिणायन में क्या अंतर है?

वर्ष में दो अयन या संक्रांति होती है या हम कह सकते हैं कि सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति बदलता है. इन परिवर्तनों को उत्तरायण यानि ग्रीष्म संक्रांति और दक्षिणायन यानि शीत संक्रांति के नाम से जाना जाता है. हिंदू पंचांग गणना में उत्तरायण की शुरुआत मकर संक्रांति के दिन से होती है जिसे सकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है. इस अवधि में सूर्य मकर राशि से कर्क राशि अर्थात दक्षिण से उत्तर की ओर यात्रा करता है. उत्तरायण को मकर संक्रांति के नाम से भी जाना जाता है और भारत में इसे विभिन्न नामों से मनाया जाता है. उत्तरायण का समय पर्व के रुप में संपूर्ण भारत वर्ष में विभिन्न रुपों में मनाया जाता है. यह मूल रूप से दक्षिण से उत्तर की ओर सूर्य की गति है. भारत में मकर संक्रांति हर साल 14 जनवरी को मनाई जाती है जो सौर कैलेंडर का एक निश्चित दिन होता है. यह वह दिन है जब सूर्य मकर रेखा से दूर उत्तरी गोलार्ध की ओर अपनी गति शुरू करता है. इसे उत्तरायण के नाम से भी जाना जाता है.  

दक्षिणायन अर्थ, जैसा कि नाम से पता चलता है कि दक्षिणायन उत्तरायण के ठीक विपरीत है. यह वह अवधि है जब सूर्य कर्क राशि से मकर राशि अर्थात उत्तर से दक्षिण की ओर वापस यात्रा करता है. इस समय पर साधना, तपस्या, व्रत, पूजा पाठ से जुड़े कार्य किए जाते हैं. दक्षिणायन काल में वर्षा ऋतु, पतझड़ और शीत ऋतु आती है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार दक्षिणायन काल देवों की रात है. रातें लंबी और दिन छोटे होते हैं. यहां सायन एवं निरयण का विचार भी होता है जहां वैदिक निरयण को अपनाता है और पाश्चात्य ज्योतिष सायन को अपनाता है. 

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हयग्रीव जयंती 2025, इसलिए लिया था श्री विष्णु ने ये अवतार

हयग्रीव को श्री विष्णु भगवान का एक अवतार रुप माना गया है. सावन मास की पूर्णिमा को हयग्रीव जयंती मनाई जाती है. भगवान विष्णु के अवतारों में से एक हयग्रीव ने वेदों का कल्याण किया. इस कारण यह अवतार जीवन में ज्ञान को प्रदान करने वाला है. व्यक्ति के जीवन को सही मार्ग पर ले जाने वाला है. 

हयग्रीव जयंती शुभ मुहूर्त पूजा समय

इस वर्ष हयग्रीव जयन्ती 9 अगस्त 2025 को सोमवार के दिन मनाई जाएगी

  • पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ – अगस्त 08, 2025 को 02:12 पी एम बजे
  • पूर्णिमा तिथि समाप्त – अगस्त 09, 2025 को 01:24 पी एम बजे

हयग्रीव का रुप कैसा है

भगवान के इस रुप का वर्णन आधे मनुष्य और सिर घोड़े के जैसा होता है. यह दोनों का मेल प्रकृति और मनुष्य की निर्माण और उसकी नवीन चेतना को दर्शाता है. वेद, जिन्हें मधु और कैटभ नाम के दैत्य उठा ले गये थे, उनके उद्धार के लिए विष्णु ने यह अवतार लिया और सृष्टि का कल्याण किया.

हयग्रीव पौराणिक कथा

हयग्रीव की कथा का स्त्रोत अनेक ग्रथों में मौजूद है. इसमें से एक कथा महाभारत में भी है. यह कथा इस प्रकार है. – एक समय जब पृथ्वी चारों ओर से जलमग्न होती है. तब विष्णु को सृष्टि के निर्माण का विचार आता है. वह जगत की रचना के लिए योगनिद्रा का आवलम्बन कर जल में सो रहे थे. कुछ समय के पश्चात भगवान कानों से दो दैत्य प्रकट होते हैं. एक का नाम मधु और दूसरे से का नाम कैटभ होते हैं. दोनों दैत्य वहां उपस्थित ब्रह्मा जी को देखते हैं और ब्रहमा जी से वेदों चुराकर रसातल में चले जाते हैं.

वेदों का लुप्त हो जाना सृष्टि के ज्ञान को अंधकार में बदलने वाला होता है. चारों ओर एक अज्ञान का आवरण बढ़ने लगता है. सृष्टि के इस रुप को देख ब्रह्मा चिन्तित होने लगते हैं. वेद ही ब्रह्मा जी के चक्षु होते है जिनके अभाव में लोकसृष्टि का उचित रुप से पालन कर पाना संभव नही हो पाता है.

ब्रह्मा जी वेद प्राप्ति के लिए श्री विष्णु जी का स्मरण करते हैं और वेदों के उद्धार के लिए भगवान विष्णु की स्तुति करते हैं. तब भगवान जागते हैं और वेद को प्राप्त करने के लिए हयग्रीव का रुप धारण करते हैं. दैत्यों से वेद को प्राप्त कर वेदों का उद्धार करते हैं.

एक अन्य कथा – कथा अनुसार भगवान श्री विष्णु का सिर अलग होने और उस स्थान पर घोड़े के सिर कि स्थापना होती है जिस कारण वह हयग्रीव कहलाते हैं. कथा इस प्रकार है – शौनक आदि ऋषि सुत जी से श्री विष्णु के सिर के गायब होने की कथा के बारे में पूछते हुए कह्ते हैं कि “हे सूत जी ! हम सब के मन में इस अत्याधिक संदेह को दूर कीजिये की किस प्रकार श्री विष्णु का सिर उनके शरीर से अलग होता है और उस के बाद वे हयग्रीव कहलाये गए .यह आश्चर्यजनक घटना किस प्रकार हो सकती है. जिनकी प्रशंसा वेद करते हैं, देवता भी जिन पर निर्भर हैं, जो सभी कारणों के भी कारण हैं. यह कैसे संभव हुआ कि उनका भी सिर कट गया” अत: आप इस वृत्तांत का विस्तार रुप से हमारे समक्ष वर्णन कीजिये.

ऋषियों की बात सुन कर सूत जी बोले हे मुनि श्रेष्ठ ऋषियों, विष्णु के इस कार्य को ध्यान से सुनें. यह उन्हीं की रचना है. एक बार दस सहस्त्र वर्षों के चले आ रहे दैत्यों के साथ युद्ध के पश्चात जब भगवान थक गए थे. तब पद्मासन में विराजमान होकर अपना सिर एक प्रत्यंचा चड़े हुए धनुष पर रखकर सो जाते हैं.

उस समय इन्द्र तथा अन्य देवों ने एक यज्ञ का आहवान आरंभ किया.यज्ञ में ब्रहमा और भगवान शिव भी को भी बुलाया जाता है. जब देव भगवान विष्णु के पास वैकुंठ में जाते हैं लेकिन श्री विष्णु को वहां न पा कर उन्होंने ध्यान द्वारा उस स्थान का पता लगाया जहां भगवान विष्णु विश्राम कर रहे थे.

भगवान विष्णु को योगनिद्रा में सोता हुए देख देव एवं ब्रह्मा व शिव भगवान चिंतित हो गए. भगवान को कैसे जगाया जाए. यदि भगवान की निद्रा में बाधा डाली गयी तो वे क्रुद्ध होंगे ऎसे में ब्रह्मा जी ने वामरी कीट की रचना की ताकि वह धनुष के अग्र भाग को काट दे जिससे धनुष ऊपर उठ जाये और विष्णु निद्रा से जाग उठें.

ब्रह्मा जी ने कीट को धनुष काटने का आदेश दिया. आदेश अनुसार वामरी ने धनुष के अग्रभाग, जिसपर वह भूमि पर टिका था, को काट दिया.धनुष प्रत्यंचा टूट गयी और धनुष ऊपर उठ गया और एक भयंकर आवाज होती है.

विष्णु का सिर मुकुट सहित गायब हो गया, विष्णु के सिर – विहीन देह को देख देव चिंता के सागर में डूब गये तब ब्रह्मा जी ने वेदों को आदेश दिया कि वह महा माया देवी की स्तुति करें, ब्रह्मा के वचन सुनकर समस्त वेद महामाया देवी की स्तुति करने लगे.

महामाया देवी प्रसन्न होती हैं और कहती हैं कि कुछ भी बिना किसी कारण के नहीं होता है. अब सुनों हरि का सिर क्यों कट गया. बहुत पहले एक समय अपनी प्रिय पत्नी लक्ष्मी देवी का सुंदर मुख देख कर वे उन के समक्ष ही हंस पड़े. लक्ष्मी , विष्णु के हंसने पर क्रुद्ध हो गयी और भगवान के सिर को शरीर से अलग हो जाने का श्राप देती हैं. लक्ष्मी के श्राप कारण उन्हें यह कष्ट उठाना पड़ा है.

 

हयग्रीव महात्म्य

प्राचीन काल में एक प्रसिद्ध देत्य – ह्यग्रीव ने कठोर तपस्या की उसकी कठोर तपस्ता से प्रसन्न होकर वर मांगने को कहती हैं हयग्रीव माता से मुझे वर मांगता है कि मृत्यु कभी मेरे निकट ना आये और मैं अमर हो जाऊं. किंतु देवी अमरता का वरदान देने से मना कर देती हैं तब उससे कोई ओर वर मांगने को कहती हैं तब हयग्रीव कहता है कि मुझे वर दीजिए कि मेरी मृत्यु केवल उसी से हो जिसका मुख अश्व का हो. माता उसे वरदान देती है और वरदान को पाकर हयग्रीव ने अपना आतंक सभी ओर मचा दिया.

 

सूत जी बोले “देवी के वचन सुन कर देवताओं ने विश्वकर्मा से प्रार्थना करी की विष्णु का सिर लगा दें जिससे वह उस असुर का वध कर पाएं. विश्वकर्मा ने घोड़े का सिर काट कर विष्णु जी के शरीर पर लगा दिया. हयग्रीव बन कर भगवान ने उस दानव का अपनी शक्ति द्वारा वध कर दिया.

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संत तुकाराम जयंती 2025 : जिन्होंने भक्ति को नया रुप दिया

संत तुकाराम भक्त और एक महान संत थे. भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में डूबे हुए संत तुकाराम जी का जन्म एक ऎसी घटना थी जिसने भक्ति की धारा को एक नया रंग दिया. ये एक महान संत कवि थे जो भारत में लंबे समय तक चले भक्ति आंदोलन के एक अग्रदूत संत भी थे. इस लिए इन्हें संत तुकाराम के नाम से पुकारा जाता रहा है.

संत तुकाराम जी ने अपनी साधना और भक्ति द्वारा चारों ओर जो अलख जगाई वह आज भी लोगों के भीतर मौजूद है. अपने समय की अवस्था का इनकी वाणी में दर्शन दिखाई देता है. तुकाराम जी की वाणी में जो गहराई और श्रद्धा दिखाई देती है, वह अत्यंत ही आश्चर्य से भर देने वाली है.

तुकाराम की वाणी सूत्रबद्ध, अल्पाक्षर, रमणीय तथा मर्मभेदक रही है. फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी के दिन उन्होंने अपनी देह त्यागी. संत कवियों के सहित्य में जो आध्यात्म सूत्र पिरोया हुआ है और जो विचारों का कलेवर दिखाई पड़ता है, वह सभी कुछ तुकाराम जी में दिखाई देता है.

तुकाराम जीवन काल

संत तुकाराम का जन्म पुणे में हुआ था. पुणे में स्थित देहू नामक गांव में हुआ था. संत तुकाराम के जन्म समय को लेकर विद्वानों में एकमत दिखाई नहीं देता है. ऎसे में इनकी जन्म तिथि को लेकर मतभेद दिखाई देते हैं.

संत तुकाराम जी जिस कुल में जन्में थे उस कुल के लोग पंढरपुर पर बहुत विश्वास रखते थे. पंढरपुर की यात्रा पर इन लोगों का बहुत योगदान रहता था. धार्मिक जीवन इन्हें हर जगह प्राप्त होता है. देहू गांव में इनके परिवार को एक अच्छा स्थान प्राप्त था. इनका परिवार महाजन होने के कारण प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित परिवार था. एक भरा पूरा कुटूंब इन्हें मिलता है.

तुकाराम जी की माता का नाम कनकाई जी था और इनके पिता का नाम बहेला था. अपने बचपन में तुकाराम जी को अपने माता-पिता का बहुत स्नेह प्राप्त होता है. परिवार में जो धार्मिक माहौल इन्होंने देखा उसका इनके जीवन पर भी बहुत असर दिखाई देता है.

तुकाराम जी की किशोरावस्था में ही अपने माता-पिता का विच्छोह सहना पड़ा था. इनके माता-पिता का स्वर्गवास होने का बाद जीवन में बहुत बदलाव आया. इसके बाद उसी समय के आस-पास जब एक अकाल का असर संपूर्ण क्षेत्र पर पड़ा तो उसका असर इनके परिवार पर भी पड़ा. भीषण अकाल के कारण इनकी जीवन संगनी ओर इनके पुत्र की मृत्यु हो जाती है.

पत्नी व बालक की भूख के कारण मृत्यु होने से इनके मन को गहर आघात लगा. विपत्तियों का उन पर पहाड़ ही टूट पड़ा था. इनकी दूसरी पत्नी का स्वभाव भी बहुत कठोर था. संत तुकाराम उस समय में बहुत बड़े जमीदार थे. इस कारण जीवन में बहुत सारा झूठ और अलगाव के चलते इनका मन बहुत ही परेशान रहने लगा था.

तुकाराम की प्रवृत्ति इन सभी प्रपंच से ऊब चुकी थी. इनकी दूसरी पत्नी “जीजा बाई” बहुत ही कठोर वाणी की थीं. तुकाराम जी को अब किसी भी प्रकार का मोह नहीं था. अपने आस पास के माहौल से तंग आ चुके थे. अब वह भगवान की भक्ति में खुद को लीन कर देना चाहते थे. सांसारिक सुखों से विरक्ति पाने के लिए तुकाराम जी अपने गांव के समीप भावनाथ नामक पहाड़ी पर जाने लगे. वहीं भगवान की भक्ति करने में लग जाते हैं. भगवान्‌ विट्ठल के नाम स्मरण में अपने दिन बिताने लगते हैं.

संत तुकाराम जी का भक्ति में प्रवेश

संत तुकाराम जी को उनकी भक्ति का मार्ग उनके गुरु की कृपा से भी प्राप्त होता है. लोभ और द्वेष से मुक्त होते हुए, परमेश्वर प्राप्ति के लिये ललायित हुए तुकाराम जी को बाबा जी चैतन्य नामक साधु जी का दर्शन प्राप्त होता है. गुरु द्वारा ‘रामकृष्ण हरि’ मंत्र की प्राप्ति होती है. इस घटना के बाद इनके जीवन में जो बदलाव आया वह सभी कुछ इनके चारों ओर होने वाले बदलाव को दर्शाता है. कहा जाता है की गुरु का संदेश इन्हें स्वप्न में प्राप्त होता है. जिसके बाद ये भक्ति की पूर्णता को प्राप्त कर पाते हैं.

गुरु के उपदेश प्राप्त होते ही इन्होंने अपने जीवन का सभी कुछ भक्ति में लगा दिया. जीवन के लगभग संपूर्ण वर्ष लोगों को भक्ति का उपदेश देने में बिताए. तुकाराम जी का स्वभाव इतना शुद्ध व वैराग्य से भरपूर था की इन्हें किसी के प्रति कोई द्वेष नहीं था. ये हर किसी को क्षमा कर देने का गुण रखते थे.

इसी कारण कहा जाता है कि इनकी निंदा करने वाले भी उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते थे. निंदा करने वाले भी इनसे क्षमा मांग लेते थे. इनकी बुराई करने वाले भी इनके भक्त बन गए थे. भक्ति में भगवत कथा का प्रचार करते हुए आगे बढ़ते थे. धर्म का सबको उपदेश करते व परमार्थ मार्ग को आलोकित करते थे. अधर्म का खंडन करते हुए तुकाराम जी ने अपना सारा जीवन व्यतीत किया.

तुकाराम जी द्वारा रचित रचनाएं

संत तुका राम जी ने अनेक भक्ति रचनाएं निर्मित की थी. तुकाराम जी ने जो भी गाया वह उनके मन की अभिव्यक्ति थी. मन की अभिव्यक्ति ‘अभंग’ वाणी के रुप में सभी के सामने आती है. अभंग का अर्थ होता है वह गीत जो भगवान विट्ठल या विठोबा की स्तुति में छंद रुप में गये गए. महाराष्ट्र के संतों ने समाज को जागृत करने के लिए जो छंद क्षेत्रीय भाषा में गाये, उन्हें ही अभंग के नाम से जाना गया है.

अभंग के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई विशेष साहित्यिक कृति का पता नहीं चल पाता है. इनके द्वारा गाए गए भक्ति गीतों को इनके शिष्यों ने ही आगे बढ़ाया और उन्हें लिखा. माना जाता है कि संत ज्ञानेश्वर और श्री एकनाथ द्वारा जो रचनाएं रचि गयी थी उनका प्रभाव संत तुकाराम जी की भाषा में बहुत अधिक दिखाई दिया. ज्ञानेश्रवरी रचना और एकनाथी भागवत ग्रंथों की छाप इनके विचारों पर स्पष्ट रुप से दिखाई देती है.

संत तुकाराम जी के विचार

संत तुकाराम जी ने अपनी भक्ति वाणी द्वारा लोगों के जीवन की निराशा और अधंकार को दूर करने की बहुत कोशिश की. वह हमेशा इस बात पर अधिक जोर देते थे कि सभी लोग उस एक ईश्वर की संताने हैं. इस कारण सभी समान है. किसी में कोई भेद भाव नही हो सकता है. उन्होंने धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

संत तुकाराम जी को महाराष्ट्र धर्म का प्रचारक माना गया है. इनके सिद्धांतों के द्वारा भक्ति आंदोलन को एक तीव्रता प्राप्त हुई. तुकाराम जी का तत्कालीन सामाजिक विचारधारा पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है. जाति और वर्णव्यवस्था पर कुठाराघात करते हैं. समानता के सिद्धांत के द्वारा वर्णव्यवस्था को लचीला बनाने में इनका योगदान सदैव ही यादगार रहेगा.

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