कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कार्तिक शुक्ल एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस दिन को देवउठनी एकादशी, देवउत्थान एकादशी, देवउठनी ग्यारस, प्रबोधिनी एकादशी आदि नामों से जाना जाता है. इस दिन भगवान विष्णु निद्रा से जागते हैं. इस दिन का बहुत ही विशेष महत्व है. ये समय कई मायनों से लोगों के मध्य भक्ति और नव जीवन का संकेत देता है. आइये जन लेते हैं इस दिन से जुड़ी कुछ कथाओं और इसके महत्व के बारे में विस्तार पूर्वक.
कार्तिक एकादशी से जुड़ी पहली कथा
प्राचीन काल में एक राजा था उसके राज्य में प्रजा सुखी थी. एकादशी पर कोई भी अन्न नहीं बेचता था. सभी फल खाते थे. एक बार भगवान ने राजा की परीक्षा लेनी चाही. भगवान ने एक सुंदर स्त्री का रूप धारण किया और मार्ग में बैठ गए. तभी राजा उधर से आया और सुंदर स्त्री को देखकर आश्चर्यचकित हो गया.
राजा ने पूछा, सुन्दरी तुम कौन हो और इस प्रकार यहाँ क्यों बैठी हो. तब सुन्दरी का वेश धारण किए भगवान ने कहा मैं विवश हूँ. मैं नगर में किसी को नहीं जानता, किससे सहायता मांगूं राजा उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गया. उसने कहा मेरे महल में चलो और मेरी रानी बनकर रहो. सुन्दरी ने कहा मैं आपकी बात मानूंगी, किन्तु आपको राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा.
राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार होगा. मैं जो भी पकाऊंगी, तुम्हें खाना पड़ेगा. राजा उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गया, अतः उसने उसकी सारी शर्तें मान लीं. अगले दिन एकादशी थी. रानी ने आदेश दिया कि अन्य दिनों की भांति बाजारों में अन्न बेचा जाए. उसने घर पर मांस-मछली आदि पकाकर परोस दिया और राजा से भोजन करने को कहा. यह देखकर राजा ने कहा रानी आज एकादशी है. मैं केवल फल खाऊंगा. तब रानी ने उसे शर्त याद दिलाते हुए कहा या तो भोजन करो, नहीं तो मैं बड़े राजकुमार का सिर काट दूंगी. राजा ने जब अपनी स्थिति बड़ी रानी से बताई तो बड़ी रानी ने कहा महाराज! आप अपना धर्म मत छोड़िए, बड़े राजकुमार का सिर दे दीजिए. आपको आपका पुत्र तो वापस मिल जाएगा, परंतु धर्म नहीं मिलेगा.
इसी बीच बड़ा राजकुमार खेलकर वापस आ गया. अपनी माता की आंखों में आंसू देखकर उसने रोने का कारण पूछा तो उसकी माता ने उसे सारा हाल बता दिया. तब उसने कहा मैं अपना सिर देने को तैयार हूं. पिता के धर्म की रक्षा होगी, उसकी रक्षा अवश्य होगी. राजा ने दुखी मन से राजकुमार का सिर देने की हामी भरी, तब भगवान विष्णु ने रानी के रूप में प्रकट होकर सत्य बताया राजन! आप इस कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं. प्रभु ने प्रसन्न मन से राजा से वरदान मांगने को कहा तो राजा ने कहा- आपने तो सब कुछ दे दिया है. हमारा उद्धार कीजिए. उसी समय वहां एक विमान उतरा. राजा ने अपना राज्य अपने पुत्र को सौंप दिया और विमान में बैठकर परमधाम को चले गए.
कार्तिक एकादशी दूसरी पौराणिक कथा
देवउठनी एकादशी की एक प्रमुख कथा शंखासुर नामक राक्षस की है. शंखासुर ने तीनों लोकों में बहुत उत्पात मचा रखा था. तब सभी देवताओं के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने उस राक्षस से युद्ध किया और यह युद्ध कई वर्षों तक चलता रहा. बाद में वह राक्षस मारा गया और इसके बाद भगवान विष्णु विश्राम करने चले गए. कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान विष्णु निद्रा से जागे और सभी देवताओं ने भगवान विष्णु की आराधना की.
शिव महापुराण के अनुसार प्राचीन काल में दंभ नाम का एक दैत्यों का राजा हुआ करता था. वह बहुत बड़ा विष्णु भक्त था. कई वर्षों तक संतान न होने पर उसने शुक्राचार्य को अपना गुरु बनाया और उनसे श्री कृष्ण मंत्र प्राप्त किया. मंत्र प्राप्त करने के बाद उसने पुष्कर सरोवर में घोर तपस्या की. उसकी तपस्या से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए और उसे संतान प्राप्ति का वरदान दिया. भगवान विष्णु के वरदान से राजा दंभ के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ. इस पुत्र का नाम शंखचूड़ रखा गया. बड़ा होने पर शंखचूड़ ने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए पुष्कर में घोर तपस्या की.
ब्रह्मा जी ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान मांगने को कहा. तब शंखचूड़ ने वरदान मांगा कि वह अमर रहे और कोई भी देवता उसका वध न कर सके. ब्रह्मा जी ने उसे यह वरदान दिया और कहा कि तुम बदरीवन जाकर वहां तपस्या कर रही धर्मध्वज की पुत्री तुलसी से विवाह करो, शंखचूड़ ने वैसा ही किया और तुलसी से विवाह कर सुखपूर्वक रहने लगा.
अपने बल से उसने देवता, दैत्य, दानव, गंधर्व, नाग, किन्नर, मनुष्य और त्रिलोकी के सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त कर ली. जब भगवान शिव को इस बात का पता चला तो वे अपनी सेना के साथ युद्ध के लिए निकल पड़े. इस प्रकार देवताओं और दानवों में भयंकर युद्ध हुआ. परंतु ब्रह्मा जी के वरदान के कारण देवता शंखचूड़ को पराजित नहीं कर सके.
तब भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रूप धारण किया और तुलसी के पास गए. शंखचूड़ का रूप धारण किए भगवान विष्णु तुलसी के महल के द्वार पर गए और उसे अपनी विजय का समाचार सुनाया. यह सुनकर तुलसी बहुत प्रसन्न हुई और उसने अपने पति रूप में आए भगवान की पूजा की और उनके साथ सहवास किया. ऐसा करते ही तुलसी का सतीत्व भंग हो गया और भगवान शिव ने युद्ध में अपने त्रिशूल से शंखचूड़ का वध कर दिया.
तब तुलसी को पता चला कि वह उसका पति नहीं बल्कि भगवान विष्णु थे, क्रोध में आकर तुलसी ने कहा कि तुमने छल से मेरा धर्म भ्रष्ट कर मेरे पति को मार डाला है. इसलिए मैं तुम्हें पत्थर बनकर धरती पर रहने का श्राप देती हूं.
तब भगवान विष्णु ने कहा तुम्हारे श्राप को सत्य करने के लिए मैं पत्थर (शालिग्राम) के रूप में रहूंगा और तुम पुष्पों में श्रेष्ठ तुलसी का वृक्ष बनोगी और सदैव मेरे साथ रहोगी.