अधिक मास 2023: श्रावण अधिक मास

अधिक मास एक विशेष अवधि है जो धार्मिक दृष्टि के साथ-साथ धार्मिक गतिविधियों के लिए भी महत्वपूर्ण है. काल गणना की उचित व्याख्या के लिए इस समयावधि को अपनाया जाता है. जिस प्रकार समय गणना के उचित क्रम के लिए लीप वर्ष का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार हिंदू धर्मग्रंथों ने पंचांग गणना के लिए अधिक मास की अवधारणा को अपनाया है. हर तीन साल में आने वाले इस समय को अधिक मास के नाम से जाना जाता है, जो अपने नाम के अनुरूप माह में बढ़ोत्तरी के अर्थ को दिखाता है. अधिक मास में संक्रांति न होने के कारण इसे मलमास कहा गया. 

साल 2023 में अधिक माह का समय 18 जुलाई से 16 अगस्त तक रहेगा. इस वर्ष अधिक मास का समय श्रावण माह के दौरान रहेगा, जिसके कारण सावन माह को श्रावण अधिक माह के नाम से भी जाना जाएगा. इस समय दो श्रावण पूर्णिमा और दो श्रावण अमावस्या भी मिलेंगी.

अधिक मास श्री विष्णु पूजन का समय 

अधिक मास के समय को विष्णु पूजन के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है. यह जिस भी मह में आता है उस माह के दौरान विष्णु पूजन अवश्य होता है. इस वर्ष सावन माह के दौरान आने पर यह समय जहां शिव पूजा के लिए विशिष्ट होता है उसी के साथ इस समय पर श्री हरि पूजन भी विशेष रहने वाला है. 

यह माह देवताओं, पितरों आदि की पूजा और शुभ कार्यों के लिए उत्तम माना जाता है. जब लोग उनकी निंदा करने लगे. तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा मैं तो इन्हें अपना ही मानता हूं.   

अहमेत यथा लोके प्रथिथा पुरूषोत्तम.

तथयामपि लोकेषु प्रथिथाः पुरूषोत्तमः॥

भागवत पुराण के अनुसार पुरूषोत्तम या मलमास में किए गए सभी शुभ कार्यों का अनंत गुना फल मिलता है. इस माह में श्रीमद्भागवत कथा सुनने का भी विशेष महत्व है. इस माह में तीर्थ स्थानों पर गंगा स्नान का भी महत्व है. जिस प्रकार हल से खेत में बोया हुआ बीज करोड़ों गुना बढ़कर बढ़ता है, उसी प्रकार मेरे पुरूषोत्तम मास में किये गये पुण्य भी लाखों गुना अधिक होते हैं.

इस महीने में कोई भी शुभ कार्य नहीं होता है, इसलिए यह सभी प्रकार के सांसारिक और भौतिक सुखों से अलग होकर भगवान का ध्यान करने का समय है. मलमास या अधिक मास का स्वामी भगवान विष्णु को माना जाता है. पुरूषोत्तम भगवान विष्णु में से एक हैं. इसलिए अधिक मास को पुरूषोत्तम मास भी कहा जाता है.

अधिकमास कथा के अनुसार जब इस माह को किसी भी नाम की प्राप्ति नहीं होती है तब उस समय पर यह श्री विष्णु की शरण में जाता है ओर अधिक मास को भगवान अपना नाम प्रदान करते हैं. इसी कारण इस माह को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है. इस कारण से इस माह के समय श्री विष्णु जी का पूजन विशेष रुप से जुड़ा हुआ है.   

अधिक मास की गणना नियम 

अधिक मास के संदर्भ में कई ग्रंथ इसकी व्याख्या करते हैं. ब्राह्मण ग्रंथों, तैतरीय संहिता, ऋग्वेद, अथर्ववेद इत्यादि ग्रंथों में अधिक मास का विवरण प्राप्त होता है. यह समय खगोलिय गणना को उपयुक्त रुप से समझने के लिए किया जाता है. इस गणना के अनुसार सूर्य लगभग 30.44 दिनों में एक राशि पूरी करता है और यह सूर्य का सौर मास है. इसी प्रकार, बारह महीनों का समय, जो लगभग 365.25 दिन है, एक सौर वर्ष है, और चंद्र माह 29.53 दिनों का है, इसलिए चंद्र वर्ष 354.36 दिनों के करीब है. इस तरह दोनों के कैलेंडर वर्ष में लगभग 10/11 दिनों का अंतर होता है और तीन साल में यह अंतर बहुत अधिक बढ़ जाता है जो एक महीने के करीब का हो जाता है. ऎसे में इसकाल गणना के अंतर को दूर करने के लिए हर तीसरे वर्ष एक माह अधिक का नियम बनाया गया है. जिसके द्वारा सभी व्रत त्यौहार एवं अन्य प्रकार के कार्यों की अवधि निश्चित रुप से हमें प्राप्त हो सके तथा पंचांग गणना भी उचित रुप से हमे प्राप्त हो. 

अधिक मास किन किन नामों से जाना जाता है 

अधिक मास को कई नामों से पुकारा जाता है. यह जिस भी माह में आता है उसे उसी माह के नाम से संबोधित किया जाता है, इसके अलावा इसे पुरूषोत्तम या मल मास, अधिमास, मलिम्लुच, संसर्प, अनाहस्पति मास के नाम से भी जाना जाता है. सौर वर्ष और चंद्र वर्ष के बीच उचित समन्वय के लिए ही हर तीसरे वर्ष को अधिक मास के रूप में बढ़ाया जाता है.

ज्योतिष अनुसार अधिक मास में किए जाने वाले कार्य

ज्योतिष गणना के अनुसार हर तीसरे साल एक अतिरिक्त महीना आता है और इस महीने को बहुत खास माना जाता है. इस माह में पूजा-पाठ के कार्यों को करने का अधिक महत्व है. इस दौरान विवाह संस्कार, गृह प्रवेश, गृह निर्माण या अन्य शुभ कार्य करना वर्जित होता है, इसके विपरीत इस दौरान भगवान की पूजा, नाम स्मरण और ध्यान आदि करना सर्वोत्तम फलदायी माना जाता है. अधिक मास के दौरान श्री विष्णु जी की पूजा करने का विशेष विधान है क्योंकि इस माह को भगवान श्री विष्णु के एक नाम पुरूषोत्तम मास के नाम से भी जाना जाता है. इसलिए इस समय विष्णु पूजा करने से भक्तों को पूजा का शीघ्र फल मिलता है.

इस माह में किए गए जप, तप और दान का भी विशेष महत्व बताया गया है. सूर्य की बारह संक्रांतियों के आधार पर हमारे चंद्रमा पर आधारित बारह मास कहे गए हैं और अधिक मास या मल मास हर तीन साल के अंतराल पर आता है. इस माह में मांगलिक कार्य वर्जित माने गए हैं, लेकिन धार्मिक कार्य फलदायी होते हैं. समय के अंतर की असमानता को दूर करने के लिए अधिक मास और क्षय मास का नियम बनाया गया है.

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तेलुगु हनुमान जयंती 2025: क्यों मनाते हैं इस हनुमान दीक्षा को

भगवान हनुमान के जन्म से संबंधित कई कथाएं प्रचलित रही हैं. धर्म ग्रंथों में हनुमान जन्मोत्सव के विषय में कई उल्लेख प्राप्त होते हैं.  हनुमान जी के जन्म दिवस और तिथि का एक साथ मिलना एक विशेष संयोग माना जाता है. विशेष योग में की गई बजरंगबली की पूजा विशेष फलदायी होती है. हनुमान जयंती विशेष रूप से दक्षिण भारत में मनाई जाती है, वहीं मान्यता है कि चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन हनुमान जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है. जबकि ऐसा माना जाता है कि हनुमान जी का जन्म नरक चतुर्दशी यानी कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन हुआ था अत: उत्तर भारत में इस दिन को मनाया जाता है हनुमान जी के जन्म को लेकर विद्वानों में अलग-अलग मत हैं हनुमान जी के अवतार के संबंध में कुछ विशेष तिथियों का वर्णन प्राप्त होता है. 

हनुमान हैं रुद्र अवतार 

हनुमान को भगवान शिव के अवतार स्वरुप स्थान प्राप्त है. हनुमान जी भगवान शिव के आठ रुद्रावतारों में से एक हैं. शास्त्रों का मत है कि भगवान राम की सहायता हेतु हनुमान जी का अवतरण पृथ्वी पर होता है. धर्म कथाओं के अनुसार पुंजिकस्थल नाम की अप्सरा ने कुंजर नामक वानर की पुत्री “अंजना” के रूप में वानर की योनि में जन्म लिया. अंजना इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर सकती थी. उनका विवाह केसरी नामक वानर से हुआ था. प्रत्येक क्षेत्र का हनुमान जयंती मनाने का अपना अनूठा तरीका और कारण है. तेलुगु हनुमान जयंती को आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में महत्वपूर्ण धार्मिक कार्य के रुप में देखा जाता है. 

हनुमान जयंती के संदर्भ में सबसे अधिक विचार धर्म ग्रंथों में प्राप्त होते हैं तथा लोक किवदंतियों में भी इन का उल्लेख प्राप्त होता है. जिस प्रकार श्री राम चंद्र जी के जन्मोत्सव का समय रामनवमी के रुप में मनाया जाता है उसी प्रकार उनके प्रिय भक्त हनुमान जीब का जन्म उत्सव हनुमान जयंती के रुप में मनाए जाने का विधान रहा है. आइये जानते हैं जयंती के समय में होने वाले इन भेदों के बारे में विस्तार से : – 

हनुमान जयंती और विभिन्न तिथियों का महत 

चैत्र एकादशी समय 

हनुमान जी के जन्म से संबंधित एक विचार मिलता है जो बताता है की हनुमान का जन्म समय एकादशी तिथि से जुड़ा रहा है. इसे चैत्र माह की एकादशी तिथि के साथ बताया गया है. इस श्लोक के अनुसार हनुमान जी इस दिन को अवतरण लेते हैं : – 

“चैत्रे मासे सिते पक्षे हरिदिन्यां मघाभिदे |

नक्षत्रे स समुत्पन्नौ हनुमान रिपुसूदनः ||”

श्लोक अनुसार भगवान हनुमान जी का जन्म समय चैत्र शुक्ल की एकादशी को हुआ था. इस तिथि का समय अत्यंत ही शुभ फलों को प्रदान करने वाला भी होता है क्योंकि एकादशी का समय भगवान श्री विष्णु के पूजन का भी समय होता है अत: यह समय हनुमान जी के जन्मोत्सव के साथ ही भगवान श्री हरि पूजन का भी विशेष समय होता है. 

 चैत्र पूर्णिमा समय 

हनुमान जी के जन्म से संबंधित एक अत्यंत प्रचलित विचार यह रहा है की भगवान का जन्म चैत्र माह की पूर्णिमा तिथि को हुआ है. धार्मिक ग्रंथों में मौजूद श्लोक एवं ग्रंथों से हम इस विचार को देख पाते हैं. इस समय को देश भर में काफी व्यापक रुप से मनाया भी जाता रहा :- 

“महाचैत्री पूर्णीमाया समुत्पन्नौ अन्जनीसुतः |

वदन्ति कल्पभेदेन बुधा इत्यादि केचन ||” 

कार्तिक चतुर्दशी समय 

हनुमान जन्मोत्सव का समय कार्तिक माह में आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से रहा है. यह समय भगवान हनुमान के जन्म की तिथि के रुप में प्रचलित रही है. चैत्र पूर्णिमा की ही भांति यह दिन भी व्यापक रुप से देश भर में उत्सव रुप में दिखाई देता है. इस श्लोक का संबंध रामायण से प्राप्त होता है. जिसके अनुसार विद्वान इस तिथि को अत्यधिक ग्राह्य मानते हैं. 

“ऊर्जे कृष्णचतुर्दश्यां भौमे स्वात्यां कपीश्वरः |

मेष लग्ने अन्जनागर्भात प्रादुर्भूतः स्वयं शिवा |”

वैशाख कृष्ण दशमी (ज्येष्ठ कृष्ण दशमी) समय 

एक अन्य मत का संबंध पंचांग में दो माह के समय अनुसार बनता है जिसमें पूर्णिमांत और अमांत के कारण इस अंतर की प्राप्ति होती है. आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना क्षेत्रों में हनुमान जयंती का समय वैशाख कृष्ण दशमी का माना गया है जो उत्तर भारत पंचांग के अनुसर ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि का समय होता है. अत: इस समय को भी भगवान हनुमान के जन्मोत्सव के रुप में वहां बेहद उत्साह एवं भक्ति के साथ मनाया जाता है. 

इस दिन हुई थी भेंट श्री राम की हनुमान जी से

तेलगू पंचांग के अनुसार ये वो समय है जब हनुमान जी की प्रभु राम के साथ प्रथम भेंट होती है. हनुमान जी श्री रम के अनन्य भक्त हैं. राम का स्थान हनुमान के लिए सदैव ही अविस्मरणीय रहा है. अपने प्रिय सखा एवं भ्रात के रुप में श्री राम जी को हनुमान जी का सहयोग मिला. हनुमान जी की सहायता से ही वे राम ओर सीता का मिलन भी संभव हो पाता है. इस कारण से यह एक लम्बा समय होता है साधना का भक्तों के लिए अपनी साधना के जब अंतिम पड़ाव पर भक्त होते हैं तो इसके कारण जीवन में शुभता प्राप्त होती है. इस लम्बी हनुमान साधना को भक्त बहुत शृद्धा के साथ पूर्ण करते हैं. जिस प्रकार हनुमान जी को पाकर श्री राम जी के कार्य सिद्ध होते हैं उसी प्रकार भक्त भी हनुमान जी के लिए इस कठोर साधना को करते हुए अपनी भक्ति को प्रकट करते हैं.

आंध्र और तेलगाना क्षेत्रों से जुड़ा पर्व 

आंध्र एवं तेलंगाना क्षेत्र में इस पर्व का विशेष महत्व रहा है यह यहां का लोकप्रिय पर्व भी है. इस समय पर शोभायात्राएं भी निकाली जाती है जिसमें शृद्धालु बढ़ चढ़ कर भाग लेते दिखाई दे सकते हैं. भक्त अपनी साधना काल के दौरान हनुमान की के मंदिरों की यात्रा भी करते हैं. इस समय को आंजनेय साधना के रुप में भी जाना जाता है. भगवान की इस साधना में व्रत उपवास एवं ब्रह्मचर्य का पालन कड़ाई के साथ किया जाता है. इस समय पर व्रत रखने वाला अथवा उपासक नरंगी, लाल रंगों को धारण करते हैं. इस समय हनुमान जी के मंत्र जाप एवं नियमित साधना को किया जाता है. 

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भालचंद्र गणेश चतुर्थी व्रत : जानें क्यों कहलाते हैं श्री गणेश भालचंद

चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को भालचंद्र संकष्टि चतुर्थी के रुप में मनाया जाता है. भगवान गणेश को बाधाओं को दूर करने वाले, कला और विज्ञान के संरक्षक के रुप में स्थान प्राप्त है.  बुद्धि और ज्ञान को प्रदान करने वाले देव हैं. अपने सभी रुपों में वह किसी न किसी रुप में ज्ञान को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं. भगवान गणेश गणपति और विनायक के रूप में भी जाने जाते हैं. हिंदू धर्म में सर्व प्रथम पूज्य देव के रुप में यह विराजमान हैं. किसी भी शुभ कार्य का आरंभ श्री गणेश के आहवान द्वारा ही संपन्न होता है. श्री गणेश भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र हैं और भगवान कार्तिकेय, देवी लक्ष्मी और सरस्वती के भाई स्वरुप हैं. 

बुद्धी, सिद्धि और ऋद्धि नाम के तीन गुणों को प्रदान करने वाले देव होने के नाते यह क्रमशः ज्ञान, आध्यात्मिकता और समृद्धि के रूप में जाने जाते हैं. भगवान वान गणेश स्वयं बुद्धी के अवतार हैं. अन्य दो गुणों को देवी के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है और उन्हें भगवान गणेश की पत्नी माना जाता है. श्री गणेश जी के वैवाहिक जीवन पर अलग-अलग मत हैं, किंतु गुणों के मध्य को भेद व्याप्त नही होता है. शिव पुराण के अनुसार, भगवान गणेश के दो पुत्र थे जिनका नाम शुभ और लाभ रखा गया था. शुभ और लाभ क्रमशः शुभता और लाभ के अवतार हैं. शुभ देवी रिद्धि के पुत्र थे और लाभ देवी सिद्धि के पुत्र थे.गणेश के प्रतिनिधित्व समय के साथ बदलते व्यापक बदलाव और विशिष्ट स्थिति को दिखाता है. श्री गणेश जी को राक्षसों के खिलाफ युद्ध करते हुए, बाल रुप में माता पार्वती के साथ स्नेह रुप में तथा पिता के समक्ष साहस से खड़े होते हुए और भाई के समक्ष बुद्धि को महत्वपूर्ण दिखाते हुए देखा जा सकता है 

भालचंद्र गणेश चतुर्थी कथा 

श्री गणेश जी का चतुर्थी तिथि से गहरा संबंध है. यह उनके जन्म समय की तिथि है. इस कारण से इस तिथि के समय गणेश जी का पूजन करने का विधान भी रहा है. हाथी की सूंड, एक मानव शरीर और एक गोल पेट का स्वरुप उनके ज्ञान के हर स्वरुप का भाग बनता है. श्री गणेश भगवान अपने हाथों में एक पाश और कुल्हाड़ी लिए हैं. श्रीगणेश के निचले हाथों में से एक अभय मुद्रा में दिखाया गया है जबकि दूसरे हाथ में उनके पास मोदक से भरा कटोरा है. गणेश जी की सूंड का बाईं ओर मोड़ना एक विशेषता है. भगवान गणेश का वाहन एक चूहा है. 

गणेश चतुर्थी के दिन श्री गणेश भगवान की भालचंद्र के रूप में पूजा की जाती है. वह सभी प्रकार की परेशानियों को दूर करने वाले देव हैं. भालचन्द्र का अर्थ है जिसके मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित हो. गणेश के इस रूप के बारे में गणेश पुराण में एक कहानी है, एक बार चंद्रमा ने आदिदेव गणपति का मजाक उड़ाया, जिसके कारण गणेश ने उन्हें श्राप दिया कि आप अपनी संदरता को सदैव धारण नहीं कर पाएंगे यह सुंदरता भी कमजोर हो जाएगी. और आप किसी के सामने नहीं आ पाएंगे जो आपको देखेगा वह श्राप से प्रभवैत होगा. चंद्रमा को तब अपनी भूल का एहसास होता है. वह श्री गणेश से अपने कृत्य हेतु क्षमायाचना करते हैं. इस प्रकार देवताओं के अनुरोध पर गणेश जी ने अपने श्राप को भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष चतुर्थी तक ही सीमित रखा. गणेश जी ने कहा भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को ही तुम अदृश्य रहोगे, जबकि प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष चतुर्थी को मेरे साथ तुम्हारी पूजा होगी. तुम मेरे माथे पर विराजमान रहोगी. इस प्रकार चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करके गजानन भालचन्द्र बन गये.

भगवान गणेश को अगर प्रसन्न किया जाता है, तो वे सफलता, समृद्धि प्रदान करते हैं तथा विपत्ति से सुरक्षा करते हैं. हर धार्मिक मांगलिक अवसर पर उनकी पूजा की जाती है और विशेष रूप से प्रार्थना द्वारा उनका आह्वान किया जाता है.

भगवान गणेश का स्वरुप एवं महत्व 

सात चक्रा में श्री गणेश को मूलाधार चक्र के मुख्य देवता माना गया है. श्री गणेश केतु का स्वामित्व पाते हैं . इसलिए, पहले उन्हें पूजने पर समस्त प्रकार की नकारात्मकता शांत हो जाती है. मूलाधार चक्र रीढ़ की हड्डी के नीचे स्थित है. यह व्यक्ति की सबसे बुनियादी प्रवृत्ति को दर्शाता है. इसलिए ध्यात्मिक यात्रा तभी शुरू होती है जब श्री गणेश को साकार किया जाता है. श्री गणेश जी का हाथी का सिर भौतिक शक्ति और समृद्धि का भी प्रतिनिधित्व करता है. अपने बड़े आकार के कारण शत्रुओं पर भी हावि रहता है. हाथी को जंगल के अन्य सभी प्राणियों से कम डर लगता है. और इस प्रकार, शक्ति का प्रतीक. इसका अस्तित्व समृद्धि का प्रतीक बनाता है. श्री गणेश भगवान उन लोगों को आशीर्वाद देते हैं जो छिपे हुए सत्य को जने के लिए प्रेरित होते हैं. भगवान श्री गणेश भक्तों के मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं और अशुद्धियों को नष्ट करने वाले होते हैं.भक्त के मन को ज्ञान से प्रकाशित कर देते हैं भक्त के जीवन में शांति, समृद्धि और खुशी प्रदान करते हैं.

अत: गणेश चतुर्थी के दिन भगवान का पूजन करने से जीवन में शुभता का वास होता है. व्यक्ति अपने कार्यों में सफलता को पाता है. 

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शनि-त्रयोदशी : जानें शनि त्रयोदशी व्रत विधि और कथा

शनि त्रयोदशी का पर्व पंचाग अनुसार त्रयोदशी तिथि के दिन शनिवार के दिन पड़ने पर मनाया जाता है. शनि त्रयोदशी का समय भगवान शिव और शनि देव के पूजन का विशेष संयोग होता है. इस समय पर भगवान शिव के साथ शनि देव का पूजन करने से समस्त प्रकार के रोग दोष शांत होते हैं. इस दिन विशेष अनुष्ठान कार्यों को भी किया जाता है. शनि त्रयोदश का व्रत पंचांग तिथि अनुसार कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष में दोनों ही समय पर मनाया जाता है. शनि त्रयोदशी तिथि के समय पर शनि देव का पूजन करने से शनि संबंधी पीड़ा शांत होती है और जीवन में सुख की प्राप्ति होती है. इस समय पर भगवान शिव का पूजन करने से व्यक्ति को भक्ति एवं सिद्धि का योग प्राप्त होता है. 

शनि त्रयोदशी क्या है?

शनिवार के दिन त्रयोदशी का योग शनि त्रयोदश के रुप में मनाया जाता है. यह दिन भगवान शनि का है और उनके लिए प्रार्थना करने से शनि ग्रह के खराब प्रभाव से पीड़ित व्यक्तियों को आराम मिलता है. यह एक बहुत ही शुभ दिन है और इस दिन शनि प्रार्थना करना बहुत फायदेमंद माना जाता है.  

शनि त्रयोदशी कथा 

शनि त्रयोदश के दिन शनि देव का पूजन एवं भगवान शिव पूजन के साथ कथा को सुनने एवं पढ़ने से व्रत का संपूर्ण फल प्राप्त होता है. शनि त्रयोदश कथा अनुसार प्राचीन काल में एक नगम में धनवान सेठ निवास करता था. सेठ अपनी पत्नी सहित धन पूर्ण एवं सुखद जीवन को व्यतीत कर रहा होता है. सेठ कई तरह के धार्मिक कार्य भी करता था तथा दया भाव के साथ सभी का कल्याण करने में आगे रहता था. सेठ अपनी धन-दौलत का कुछ भाग गरीबों में बांटता था. वैभव पूर्ण जीवन जीने पर भी वह दयालु स्वभाव से सभी का सहयोग करता. अपने घर से किसी को भी खाली हाथ नहीं जाने देता था.

जीवन में सभी सुख होने पर भी दोनों पति पत्नी को एक ही दुख था की उन्हें कोई संतान नहीं थी. संतान न होने का अत्यंत दुख उनके मन में उपस्थित था. निसंतान होने के दुख के कारण वह सदैव ही मन से निराश भाव में होते थे. एक बार उन दोनों ने तीर्थयात्रा पर जाने का विचार किया. अपना सारा काम काज उन्होंने अपने सेवकों पर छोड़ कर तीर्थ यात्रा करने के लिए निकल पड़े. मार्ग में उन्हें एक दिव्य तेजस्वी साधु महाराज के दर्शन होते हैं और वह उनका आशीर्वाद लेने के पश्चात यात्रा आरंभ करने का सोचते हैं. साधु महाराज उस समय समाधी में होते हैं तब दोनों पति पत्नी वहीं रुक जाते हैं और साधु महाराज के जागने का इंतजार करते हैं. 

एक लम्बा समय व्यतीत हो गया किंतु साधु महाराज अपनी समाधि से नहीं उठते हैं लेकिन वह दंपति वहीं पर बैठ रहे और साधु जी के जागने का इंतजार करते हैं. अगले दिन साधु महाराज अपनी साधना से जागते हैं. अपने सामने सेठ दंपति को देख कर उन के मन की बात जान लेते हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हैं. साधु उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन दंपति को शनि त्रयोदश का व्रत रखने का आदेश देते हैं और उसके प्रभाव से संतान सुख की प्राप्ति का योग मिलने का वरदान भी देते हैं. तब दंपति ने भगवान शिव और शनि देव का पूजन एवं व्रत किया. शनि त्रयोदश के व्रत उपरांत सेठ दंपति को संतान का सुख प्राप्त होता है. 

शनि त्रयोदश से दूर होते हैं शनि दोष 

शनि त्रयोदश का समय शनि देव की पूजा ओर शनि के शुभ लाभ प्राप्त करने के लिए सर्वोत्तम होता है. जीवन में कई बार व्यक्ति को शनि देव के प्रकोप के कारण दुखों का सामना करना पड़ता है. कई तरह के उतार-चढ़ाव जीवन में बने रहते हैं. वैदिक ज्योतिष अनुसार यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में शनि कमजोर है या शनि का प्रभाव साढ़ेसाती अथवा शनि ढैय्या के रुप में उस पर पड़ रहा है तो उस समय व्यक्ति को शनि त्रयोदश का व्रत अवश्य करना चाहिए. इस व्रत के प्रभाव से शनि के दुष्प्रभाव शांत होते हैं. शनि कर्म अनुसार फल देने वाले ग्रह हैं. जाने अंजाने किए गए सभी कर्मों का निर्धारण शनि द्वारा ही फल प्राप्ति के रुप में हमें प्राप्त होता है. ऎसे में शनि त्रयोदश का समय शनि उपासना करके कर्मों की शुद्धि भी प्रदान करता है. 

इस दिन शनि देव का भक्ति भाव से पूजन करना चाहिए. यदि भक्ति शृद्धा के साथ व्रत किया जाए तो शनि देव अपने भक्तों को शांति एवं सुख का आशीर्वाद देते हैं. अचानक होने वाली दुर्घटनाओं या जीवन के खतरों के किसी भी जोखिम को दूर करने में शनि देव सहायक बनते हैं. शनि के प्रतिकूल प्रभाव से पीड़ित व्यक्ति को बचाव हेतु शनि को खुश करने के लिए एक उपचारात्मक उपायों के रूप में शनि त्रयोदश की पूजा को करने की सलाह दी जाती हैं. शनि त्रयोदशी का समय शनि के नकारात्मक प्रभावों को कम करने का सबसे विशेष दिन और अचूक उपाय बन जाता है.

भगवान शनि मंत्र

“ॐ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम। छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्”

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नरसिंह द्वादशी 2025 : भगवान का पूजन करने से पूर्ण होंगे सभी मनोरथ

फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को नरसिंह द्वादशी के रुप में पूजा जाता है. भगवान श्री विष्णु के दो स्वरुप इस दिन विशेष रुप से पूजे जाते हैं. इस दिन भगवान को नृसिंह रुप में और  गोंविद रुप में भी पूजा जाता है. नृसिंह अवतार में भगवान भक्तों के कष्टों को हर लेने वाले हैं. श्री विष्णु के अनेक अवतारों में एक अवतार है नृसिंह अवतार. श्री हरि ने अपने इस अवतार में भी सृष्टि के कल्याण हेतु कार्य किया. भगवान नरसिंह का पूजन करने से भक्तों को कई प्रकार की शुभता प्राप्त होती है. 

श्री नरसिंह भगवान पौराणिक महत्व 

श्री विष्णु भगवान के समस्त अवतारों का उल्लेख मिलता है. इसमें विष्णु पुराण, इत्यादि में नरसिंह भगवान के स्वरुप एवं उनकी महत्ता के बारे में समझ पाना आसान होता है. श्री नृसिंह देव को शक्ति एवं साहस का परिचायक माना गया है. भगवान श्री विष्णु का ये स्वरुप भक्तों को शक्ति एवं समृद्धि को प्रदान करने वाला होता है. नृसिंह द्वादशी के संबंध में कुछ कथाएं प्राप्त होती हैं. इन कथाओं में भगवान का स्वरुप हिरण्यकाशपु के वध के लिए अवतार लेने का समय को दिखाता है. 

नरसिंह द्वादशी कथा 

एक प्रमुख कथा विष्णुपुराण में मिलती है इस कथा के अनुसार ऋषि कश्यप एवं उनकी पत्नी दिती को दो संताने होती हैं. इन संतानों का नाम था हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु. दोनों की प्रवृत्ति असुरी थी ओर इस कारण वह देवताओं के शत्रु रुप में ही अधिक स्थापित होते हैं. दोनों ही भाई बेहद शक्ति संपन्न एवं साहस उदंड प्रवृत्ति के रहते हैं. अपने कार्यों द्वारा वह देवताओं को सताने में भी आगे रह सकते हैं.  एक बार हिरण्याक्ष अपनी शक्ति के अहंकार में चूर होकर पृथ्वी को रसातल में ले जाता है, तब श्री विष्णु भगवान ने वाराह का अवतार लेकर हिरण्याण का वध किया और पृथ्वी को राक्षस से मुक्त कराकर पुन: स्थापित करते हैं. 

हिरण्यकशिपु की तपस्या एवं वरदान प्राप्ति

हिरण्यकशिपु श्री विष्णु से बदला लेने हेतु कठिन तप करता है.  हिरण्यकशिपु भगवान ब्रह्मा की साधना करता है. वह समस्त कठोर तप करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न करते हैं. ब्रह्मा जी उसकी साधना से प्रसन्न होकर हरिण्यकशिपु के समक्ष जाते हैं और उसे वरदान मांगने को कहते हैं तब  हिरण्यकशिपु भगवान से अपने आप को अजय एवं मृत्यु से मुक्त होने का वरदान मांगता है. ऎसे में ब्रह्म अजी कहते हैं की जो जन्मा है उसकी मृत्यु संभव होगी ऎसे में  हिरण्यकशिपु कहता है कि तो वह उसे ये वरदान दें की उसे कोई न कोई पशु न कोई मनुष्य मार सके, न उसे दिन में मारा जा सके और न उसे रात्रि में मारा जा सके, न उसे घर के अंदर मारा जा सके और न घर के बाहर ,मारा जा सके. न किसी अस्त्र से न किसी शस्त्र से उसकी मृत्यु हो इस प्रकार वर मांगने पर ब्रह्मा जी उसे वरदान दे कर अंतर्ध्यान हो जाते हैं. 

वरदान को पर  हिरण्यकशिपु के अत्याचारों में और अधिक वृद्धि होने लगती है. उसने अपने इस वरदान के बल पर दूसरों को प्रताडि़त करना आरंभ कर दिया. इंद्र का पद छीन कर उसने देवताओं को परेशान करना शुरु कर दिया. श्री विष्णु से शत्रुता के कारण उसने भगवान की पूजा को समाप्त करवा दिया अपने आप को भगवान के पद पर स्थापित कर दिया. अब जो भी श्री विष्णु करता था तो वह उन्हें कठोर दंण्ड देता था.  हिरण्यकशिपु का एक पुत्र था प्रह्लाद जो जन्म समय से ही श्री विष्णु का परम भक्त था. जब अपने पुत्र के मुख से उसने श्री विष्णु की उपासना को सुना तो उसे अत्यंत क्रोध आया और उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को कई तरह की यातनाएं दी हर प्रकार से उसे श्री विष्णु भगवान के पूजन से विमुख करने का प्रयास किया लेकिन प्रह्लाद की भक्ति कम न हो पाई. 

प्रह्लाद की भक्ति और नरसिंह अवतार

प्रह्लाद अपनी भक्ति से जरा भी नहीं डिगा तब  हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका को उसे मारने का आदेश दिया क्योंकि होलिका को वरदान प्राप्त था की वह अग्नि में नहीं जल सकती है ऎसे में वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठा जाती है लेकिन यहां होलिका जल कर मर जाती है किंतु प्रह्लाद को कुछ नहीं होता है. अंतिम प्रयास में वह उसे मारने के लिए स्वयं उद्दत होता है और इस दौरान बहस में वह अपने पुत्र से कहता है कि तुम्हें श्री विष्णु पर इतना विश्वास है तो क्या वह इस खंबे में भी मौजूद है तब प्रह्लाद कहता है की भगवान कण कण में मौजूद हैं इस पर  हिरण्यकशिपु उस खंबे पर प्रहार करता है और तभी उस खंबे से श्री विष्णु नृसिंह के रुप में अवतरित होते हैं जो आधा मनुष्य आधा सिंह का अवतार था. हिरण्यकशिपु को नरसिंह देव पकड़ कर उसे उसके महले की दहलीज पर ले जाकर अपनी जंघा पर लेटा कर गोधुली बेला में अपने नाखूनों से उसकी छाति फाड़ देते हैं ओर इस प्रकार  हिरण्यकशिपु का अंत होता है ओर देवता पुन: दैत्यों के आतंक सेमुक्त होते हैं. 

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बुध प्रदोष क्या है और इसका महत्व क्यों है इतना खास

बुध प्रदोषम से मिलता है ज्ञान एवं बुद्धि का आशीर्वाद 

प्रदोष तिथि में रखा जाने वाला व्रत भगवान शिव से संबंधित रहा है. प्रदोष का समय शिव पूजन के लिए अति शुभ एवं विशेष होता है. बुधवार के दिन प्रदोष व्रत का होना बुध प्रदोषम व्रत के नाम से जाना जाता है. इस दिन भगवान शिव के पूजन के साथ साथ बुध ग्रह की शुभता का भी फल प्राप्त होता है. 

प्रत्येक त्रयोदशी का प्रदोष समय प्रदोष व्रत के नाम से उल्लेखित है. प्रत्येक दिवस में प्रदोष समय व्याप्त रहता है. इसी कारण सातों दिन प्रदोष का समय शिव पूजा पूजा का होता है. इस समय के दौरान भगवान शिव का पूजन विशेष पूजा विधि के द्वारा संपन्न होता है. विशेष रुप से त्रयोदशी तिथि का समय प्रदोष व्रत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाता है. इस समय के दौरान भगवान शिव के उस स्वरुप का दर्शन एवं आशीर्वाद प्राप्त होता है. जो संपूर्ण दिन में केवल इसी समय पर हो पाता है. 

भगवान शिव स्वरुप प्रदोष पूजा 

भगवान शिव हिंदू धर्म में भगवान शिव को सभी से परे मान अगया है. त्रि मूर्ति के स्वरुप में शिव को विनाश एवं निर्माण के मध्य का सेतु माना गया है. भगवान शिव के पूजन के द्वारा जीवन के इसी पक्ष को जानने एवं मौक्ष के संदर्भ को पाने का प्रयास संभव हो पाता है. प्रदोष का स्वरुप हर प्रकार के दोषों से मुक्ति के लिए भी उत्तम होता है. भगवान शिव का निवास कैलाश माना गया है जो अनंत का स्वरुप दर्शाता है. जहां पहुंच कर जीवन के दूसरे पक्ष से साक्षात्कार होता प्रतीत होता है. 

भगवान शिव  को में अपनी पत्नी देवी पार्वती और उनके दो पुत्रों गणपति और कार्तिकेय के साथ पूजा जाता है.  शिव का वाहन नंदी और शिव संहार के देवता हैं. इस कारण भगवान संहारक भी कहा जाता है. वह जीवन चक्र को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार है. शिव नष्ट भी करते हैं और पुन: उत्पन्न भी करता है. वह एक महान योगी हैं और अपनी दया, दया और निष्पक्ष न्याय के लिए जाने जाते हैं. शिव की विशेषताओं में उनके गले में सर्प ‘वासुकी’, उनके माथे पर तीसरी आँख, उनके सिर पर विराजमान अर्धचंद्र और उनके बालों से बहती गंगा से जाना जा सकता है. 

प्रदोष काल में किया जाने वाला भगवान का पूजन जीवन में संपूर्ण शुभता को प्रदान करने वाला माना गया है. भगवान के आशीर्वाद की प्राप्ति इस प्रदोष समय पर पूर्ण होती है. 

बुध प्रदोष व्रत बुध ग्रह शांति का विशेष समय 

प्रदोष व्रत यदि बुधवार के दिन हो तो इस दिन बुध ग्रह शांति पूजा एवं मंत्र जाप करना बहुत ही लाभदायक माना जाता है. बुध, ज्योतिष में एक विशेष ग्रह के रूप में स्थापित है, यह बुद्धि पर अधिकार रखता है. ज्योतिष में, बुध ग्रह शिक्षा, लेखन क्षमता, व्यापार कौशल, संचार और मौखिक कौशल को नियंत्रित करने वाला ग्रह है. यह व्यक्ति के तर्क, विश्लेषणात्मक कौशल और आपकी बुद्धिमत्ता का भी प्रतिनिधित्व करता है. बुध के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र एकाउंटेंसी, कॉमर्स, गणित, मीडिया एंड कम्युनिकेशन, सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट हैं और साथ ही यह आपके मनोविनोद पक्ष का भी सूचक है.

बुध कन्या राशि में 15 डिग्री तक उच्च में स्थित है. कन्या राशि में 15-20 अंश होने पर इसका प्रभाव विशेष लाभकारी माना जाता है 12वें भाव में यह व्यय भाव का प्रतिनिधित्व करता है. यदि यह इस भाव में हो तो इसका प्रभाव हानिकारक या अशुभ होता है. मिथुन राशि में बुध अपना अच्छा प्रभाव दिखाता है. काल पुरुष कुंडली के अनुसार यह ग्रह तीसरे और छठे भाव का स्वामी है. तीसरा घर आपकी संचार शक्ति, भावनात्मक स्थिरता, छोटे भाई-बहन, ताकत, छोटी यात्राओं का प्रतिनिधित्व करता है. छठा भाव अदालती मामलों, मुकदमेबाजी, प्रतियोगिता का प्रतिनिधित्व करता है और इसे संभालने के लिए बुध और इसकी स्थिति से संचालित उत्तम बौद्धिकता की आवश्यकता होती है.

बुध प्रदोष व्रत के लाभ 

यदि आपकी जन्म कुंडली में बुध अनुकूल स्थिति में है, तो व्यक्ति को उत्तम कौशल के साथ धन्य कमाने की योग्यता प्रदान करता है. एक हास्य अभिनेता, लेखक, उत्कृष्ट संचार क्षमता और भाई-बहनों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध इसी शुभ बुध की देन हैं. बुध अच्छी मात्रा में छोटी यात्रा और यात्रा की इच्छा भी देता है. यह एक ऐसे व्यक्ति को भी दर्शाता जो सभी प्रतिस्पर्धाओं को आत्मविश्वास से पूरा कर सकता है, बुध एक उत्तम गणितीय और तार्किक दिमाग प्रदान करता है.

छठा भाव भी समस्याओं का घर है जिसे दूर करने में बुध मदद कर सकता है. अपने जीवन में बुध के प्रभाव में यदि शुभता की कमी बनी होती है तो वह अपने गुणों को अनुकूल रुप से नही दे पाता है. बुध का कमजोर होना कई तरह की परेशानियों का कारण बन जाता है. बुध के खराब होने के कारण वाणी में अशुभता दिखाई देती है. हकलाना, गूंगापन, कठोरता, जैसी बातें बुध के खराब होने के कारण बनता है. खराब अशुभ बुध तर्क को खराब करता है. नकारात्मक विचारधारा में बढ़ोत्तरी करने वाला होता है. ऎसी स्थिति में बुध प्रदोष के व्रत को करना इस प्रकार के सभी दोषों को शांत कर देने वाला समय होता है. 

बुध प्रदोष मंत्र

बुध प्रदोष के दिन भगवान शिव के मंत्रो उच्चारण के साथ ही बुध मंत्रों का जाप करना शुभ फलदायी माना गया है जिसके द्वारा बुध ग्रह शांति होती है. इस दिन मंत्रों का उपयोग एवं जाप जीवन में बुध ग्रह ही शुभता प्रदान करने वाला होता है. 

बुध त्वं बुद्धिजनको बोधद: सर्वदा नृणाम्।

तत्वावबोधं कुरुषे सोमपुत्र: नमो नम:।।

ऊं बुं बुधाय नम:

ऊं ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम:

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वृश्चिक संक्रांति : जाने इसके महत्व और पूजन विधि के बारे में विस्तार पूर्वक

ज्योतिष में सूर्य का महत्व सर्वोपरी रहा है. प्राचीन भारतीय ज्योतिष में सबसे महत्वपूर्ण दिन चंद्रमा की गति पर आधारित होते हैं, संक्रांति सूर्य की गति का प्रतीक है. प्रत्येक संक्रांति उस संक्रमण काल को दर्शाता है जहां सूर्य राशि चक्र की एक नई राशि, राशि, नक्षत्र में प्रवेश करता है. दो विशेष रूप से महत्वपूर्ण संक्रांति हैं. वृश्चिक संक्रांति, वह दिन है जो सूर्य की दक्षिण यात्रा को दिखाता है. 

इस साल वृश्चिक संक्रांति 16 नवंबर 2024 को शनिवार के दिन होगा प्रवेश समय 07:32 का रहने वाला है.

सूर्य हमारी आत्मा को इंगित करता है, ऊर्जा, प्रकाश और जीवन का स्रोत है. यह दिन और रात, ऋतुओं और वर्षों को परिभाषित करता है, और यह अधिक सर्दी का मौसम लाता है. सूर्य जीवन की नींव और आधार है और हमारे अस्तित्व के सभी पहलुओं को आकार देता है. संक्रांति का पालन सूर्य की गति और पर्यावरण पर इसके प्रभाव, किसी के पूरे अस्तित्व और दैनिक जीवन को देखने और इन संबंधों में सामंजस्य स्थापित करने का एक विशेष अवसर है.

संक्रांति समय काल क्यों है विशेष

संक्रांति एक हिंदू त्योहार है और यह दिन भगवान सूर्य की पूजा के लिए विशेष समय होता है. वृश्चिक संक्रांति का महत्व, उस दिन का प्रतीक है जब सूर्य तुला राशि से निकल कर वृश्चिक राशि में गोचर करता है. सौर पंचांग के अनुसार, यह हर साल नवंबर माह मध्य को पड़ता है. यह त्योहार सर्दियों की अधिकता का होता है. मौसम में बड़े बदलाव होने लगते हैं. इसका प्रकृतिक और धार्मिक दोनों महत्व रहा है. इसे हिंदू पंचांग के सबसे शुभ दिनों में से एक माना जाता है.

वृश्चिक संक्रांति क्यों मनाई जाती है

संक्रांति का समय भगवान सूर्य देव की पूजा का होता है. यह हिंदू संस्कृति में एक विशिष्ट सौर दिवस को दिखाता है. इस शुभ दिन पर, सूर्य वृश्चिक राशि में प्रवेश करता है. इसलिए इस पर्व को दक्षिणायन समय के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन देश भर के किसान अच्छी फसल की कामना करते हैं. यह अवसर स्वास्थ्य, धन और खुशी प्रदान करने के लिए प्रकृति को धन्यवाद देने का स्मरण कराता है. सूर्य के संपर्क में आने से मानव शरीर को विटामिन डी मिलता है, जिसकी दुनिया भर की सभी चिकित्सा शाखाओं में व्यापक रूप से सिफारिश की गई है.

वृश्चिक संक्रांति 2024: तिथि और पूजा का समय

वृश्चिक संक्रांति पुण्य कला अगले दिन मध्याह्न तक रहेगा.

वृश्चिक संक्रांति पौराणिक संदर्भ 

पौराणिक कथाओं के अनुसार संक्रांति को देवता माना जाता है. पौराणिक कथा के अनुसार, संक्रांति ने शंकरसुर नाम के एक राक्षस का वध किया था. पंचांग अनुसार प्रत्येक संक्रांति की उम्र, रूप, वस्त्र, दिशा, गति एवं फल के बारे में विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है. संक्रांति गतिविधियों में विशेशः रुप से स्नान करना, भगवान सूर्य को नैवेद्य अर्पित करना, दान या दक्षिणा देना, श्राद्ध अनुष्ठान करना और उपवास या पारण करना, पुण्य काल के दौरान किया जाना चाहिए. यदि संक्रांति सूर्यास्त के बाद हो तब सभी पुण्य काल की गतिविधियों को अगले सूर्योदय तक स्थगित कर दिया जाता है. सभी पुण्य काल गतिविधियों को दिन में किया जाना उचित होता है. 

शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन भगवान की रात का प्रतीक है, और उत्तरायण को भगवान के दिन का प्रतीक माना जाता है. इस समय के अवसर पर सूर्य दक्षिण की ओर अपनी यात्राकर रहा होता है. इस अवसर पर लोग पवित्र स्थानों पर गंगा, गोदावरी, कृष्णा, यमुना नदी में पवित्र डुबकी लगाते हैं, मंत्रों का जाप करते हैं, यह समय सूर्य सभी राशियों को भी प्रभावित करता है. 

वृश्चिक संक्रांति में सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में होता है. इसी कारण से भारत में सर्दियों में रातें लंबी और दिन छोटे होते हैं. 

वृश्चिक संक्रांति के मौके पर भक्त विभिन्न रूपों में सूर्य देव की पूजा करते हैं. इस अवधि के दौरान कोई भी पुण्य कार्य या दान अधिक फलदायी होता है.

वृश्चिक संक्रांति का पर्व देश के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है. वृश्चिक संक्रांति के दिन उड़द, चावल, सोना, ऊनी वस्त्र, कम्बल आदि दान करने का विशेष महत्व होता है. 

वृश्चिक संक्रांति ज्योतिष महत्व 

वृश्चिक संक्रांति समय सूर्य अपनी नीच राशि तुला से निकल कर वृश्चिक में आता है. इस समय पर सूर्य अपनी निर्बल अवस्था से निकल जाता है. सूर्य इस समय पर अपने मित्र मंगल की वृश्चिक राशि आता है. इस राशि में जाने पर सूर्य को बल की प्राप्ति होती है. सूर्य के वृश्चिक राशि में होने से संसाधनों को बेहतरीन रुप से उपयोग करने का समय भी होता है. इस समय पर अनुसंधान से संबंधित कार्यों को भी विशेष परिणाम प्राप्त होते हैं.

पितरों का तर्पण कार्य 

संक्रांति का समय तर्पण कार्य हेतु भी अनुकूल माना जाता है. मार्गशीर्ष संक्रांति के समय पर पूजा पाठ व दान कार्यों को करने से अक्षय फलों की प्राप्ति होती है. इस समय पर ब्राह्मण द्वारा पितरों के निम्मित कार्य किए जाते हैं. भोजन एवं दान इत्यादि का कार्य होता है. इस समय पर ब्राह्मण भोजन भी किया जाता है. 

वृश्चिक संक्रांति प्रभाव 

वृश्चिक संक्रांति का समय मंगल के फलों में करता है वृद्धि, इस समय पर सूर्य का मंगल के स्वामित्व की राशि वृश्चिक में गोचर होता है. मंगल एक आक्रामक एवं अग्नि युक्त ग्रह है. सूर्य भी अपनी ऊर्जा एवं पराक्रम में सदैव आगे रहता है. इस कारण से दो समान चीजों का एक साथ आना अपनी उस प्रवृति के मूल तत्व को विस्तार देने वाला होगा ही. 

दूसरा तथ्य यह है की वृश्चिक राशि एक जल तत्व युक्त राशि है, ऎसे में इस शीतलता का प्रभाव भी गोचर को प्रभावित करने वाला होगा. वृश्चिक संक्रांति का समय भी शीत ऋतु के समय को भी दर्शाता है. इस समय सूर्य की गर्मी में कमी भी आती है तथा इस समय पर सूर्य की किरणों में मौजूद शीतलता प्रकृति में भी अपना असर डालती है. इसलिए ये समय प्रकृति के अनुरुप स्वयं को ढ़ालने के लिए भी आवश्यक होता है. 

वृश्चिक संक्रांति मंगल पूजा 

वृश्चिक संक्रांति के समय सूर्य उपासना के साथ ही मंगल ग्रह शांति एवं पूजा करने से मंगल ग्रह की शुभता प्राप्त होती है. यदि कुंडली में मंगल शुभ प्रभाव में नहीं है या किसी प्रकार से मंगल के शुभ फलों की प्राप्ति नही हो पाती है तो उस स्थिति में वृश्चिक संक्रांति के समय पर मंगल देव का पूजन अत्यंत लाभकारी बनता है. इस समय पर मंगल मंत्र जाप, दान एवं हवन इत्यादि के काम द्वारा मंगल शांति संभव हो पाती है. 

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शुक्र प्रदोष व्रत जिससे दूर होते हैं शुक्र ग्रह के दोष

भुगुवारा प्रदोष

किसी भी माह के त्रयोदशी तिथि के दिन यदि शुक्रवार पड़ रहा हो तो वह दिन शुक्र प्रदोष व्रत के रुप में जाना जाता है. प्रदोष व्रत विशेष रुप से भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा का समय होता है. त्रयोदशी तिथि के दिन प्रदोषम व्रत को किया जाता है. शिव भक्त के लिए सोमवार, शिवरात्रि की ही भांति प्रदोष व्रत की बहुत अधिक महिमा रही है. यदि प्रदोष व्रत शुक्रवार के दिन पड़ता है, तो इसे शुक्र प्रदोष व्रत और भृगुवारा प्रदोषम भी कहा जाता है. इस व्रत को करना विवाह सुख एवं भौतिक समृद्धि के लिए अच्छा परिणाम देने वाला माना जाता है. 

कृष्ण पक्ष प्रदोषम और शुक्ल पक्ष प्रदोषम 

पंचांग अनुसार चंद्र आधारित तिथियों के अनुसार शुक्र प्रदोष व्रत कृष्ण पक्ष में और शुक्ल पक्ष में दोनों ही समय पर आता है. एक माह के दौरान यह दो बार पड़ता है. प्रत्येक पक्ष में इसका विशेष महत्व होता है. शुक्ल पक्ष के समय चंद्र का बल होता है तथा कृष्ण पक्ष में चंद्र के बल का प्रभाव क्षीण होता है. इस समय के दौरान प्रदोष का समय विशेष रुप से कुछ ज्योतिषिय एवं शास्त्रीय कार्यों के लिए अनुकूल होता है. 

शास्त्रों के अनुसार, शुक्र प्रदोष पर उपवास का पन किया जाता है. सूर्योदय से सूर्यास्त तक उपवास का नियम पालन होता है. जिसके दौरान भक्त भगवन की भक्ति करते हैं ओर शुद्ध और पवित्र चित से व्रत के नियमों का पन करते हैं. इस समय पर शिव मंदिरों में विशेष प्रदोष पूजा भी संपन्न होती है. भजन कीर्तन किया जाता है. भारत के कुछ हिस्सों में, भक्त शुक्र प्रदोष व्रत के दिन भगवान शिव के नटराज रूप की पूजा करते हैं. दक्षिण भारत में प्रदोषम व्रत की महिमा अत्यंत ही विस्तार पूर्वक प्राप्त होती है. 

शुक्र प्रदोष के इस पवित्र दिन पर उपवास रखने वाले भक्तों को सुबह जल्दी उठना चाहिए. प्रात:काल पूजन में भगवान गणेश और स्कंद के साथ देवी गौरी, भगवान शिव की एक मूर्ति स्थापित करनी चाहिए, जिसे शिव परिवार की मूर्ति कहा जाता है. दीया जलाना चाहिए, सिंदूर या फूल, सफेद मिठाई चढ़ानी चाहिए और शिव चालीसा और प्रदोष व्रत कथा का पाठ करना चाहिए. घर में पूजा करने के बाद मंदिर में जाकर दर्शनों को अवश्य जाना चाहिए.

शुक्र प्रदोष व्रत का महत्व

प्रदोष के पौराणिक महत्व की महिमा को बहुत ही सुंदर स्वरुप से वर्णित किया गया है. स्कंद पुराण में शुक्र प्रदोष व्रत का महत्व बताया गया है. इसके साथ ही शिव पुराण में शुक्र प्रदोष व्रत के कई गुना लाभ बताए गए हैं. शुक्र प्रदोष व्रत का पालन करने से, भगवान शिव और देवी पार्वती का आशीष मिलता है. भक्त को आध्यात्मिक और सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति का सुख प्राप्त होता है. इस दिन में सफेद रंग और खीर जैसे पदार्थों का ही सेवन करना जरूरी है. शुक्रवार होने के कारण श्वेत वस्तुओं का उपयोग करना शुभदायी होता है. 

प्रदोष व्रत शिवलिंग अभिषेक 

प्रदोष व्रत के समय शिवलिंग अभिषेकम करना अत्यंत शुभदायक होता है. इस क्रिया को शुक्र प्रदोष के दिन अत्यधिक लाभदायी माना जाता है. दूध, दही, चीनी, शहद और घी के मिश्रण से पंचामृत निर्मित करके या फिर अलग अलग करके इन वस्तुओं से शिवलिंग का अभिषेक करना चाहिए.शिवलिंग अभिषेक करने से सभी प्रकार के शुभ फल प्राप्त होते हैं. जीवन में सुख समृद्धि का वास होता है. इस दिन किया गया अभिषेक सौ गुना किए जाने वाले अभिषेक का फल प्रदान करता है.  

शुक्र प्रदोष व्रत से जुड़ी कथा 

प्रदोष व्रत में शुक्रवार की प्रदोष व्रत कथा को पढ़ना या सुनना अत्यंत अच्छा माना जाता है. इसके द्वारा व्रत के फलों की प्राप्ति में भी वृद्धि होती है. शुक्र प्रदोष व्रत कथा इस प्रकार है :- 

एक ग्राम में तीन मित्र रहते थे, उन तीनों में गहरी मित्रता थी. तीनों ही मित्र अलग अलग वर्ग से थे, उनमें से एक राजकुमार, दूसरा ब्राह्मण पुत्र और तीसरा सेठ पुत्र था. राजकुमार और ब्राह्मण पुत्र का विवाह हो गया था लेकिन सेठ के पुत्र विवाह के बाद ‘गोना’ नहीं हुआ था. एक बार तीनों मित्र साथ में बैठे हुए कुछ बातें कर रहे होते हैं तभी आपस में स्त्रीयों के बारे में चर्चा कर रहे होते हैं.  तभी उनमें से ब्राह्मण पुत्र ने स्त्री की प्रशंसा करते हुए ने कहा, स्त्रीविहीन घर भूतों का अड्डा होता है. स्त्री का घर पर होना लक्ष्मी का वास होता है, तब दूसरा मित्र भी इस बत से सहमत होते हुए उसकी हां में हां मिलाता है. यह बातें सुनकर सेठ-पुत्र के मन में अपनी पत्नी को लाने का विचार हुआ. उसने तुरन्त अपनी पत्नी को लाने का निश्चय किया. 

सेठ के पुत्र ने अपने घर जाकर अपने माता-पिता को अपने फैसले के बारे में बताया. तब उसए माता-पिता ने उससे कहा की अभी शुभ समय नहीं है क्योंकि शुक्र देवता जलमग्न हो गए हैं. इन दिनों बहुओं को उनके घर से विदा करना शुभ नहीं होता है, इसलिए शुक्र दिवस के बाद अपनी पत्नी को विदा करके घर पर ले आना. लेकिन सेठ के बेटे ने अपने माता-पिता की बात नहीं मानी और जबरन अपने ससुराल चला गया. सास ने सेठ के बेटे को बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन वह नहीं माना इसलिए मजबूर होकर उन्हें अपनी बेटी को दामाद के साथ विदा कर देना  पड़ा.

ससुराल से निकलने के बाद पति-पत्नी शहर से बाहर निकले थे कि उनकी बैलगाड़ी का पहिया टूट गया जिसके कारण एक बैल का पैर टूट गया. पत्नी को भी काफी चोट आई. सेठ-पुत्र आगे बढ़ने की कोशिश करते रहे. फिर डाकू मिल गर उन्होंने उन दोनों के पैसे और सामान को लूट लिया. सेठ का बेटा पत्नी के साथ रोता हुआ अपने घर पहुंचा. घर पहुंचते उसे सर्प ने काट लिया. उसके पिता ने वैद्य को बुलाया. लेकिन वैध ने उस लड़के ही हालात देख कर कहा कि आपका पुत्र तीन दिन में मर जाएगा.उसी समय ब्राह्मण-पुत्र को इस घटना की जानकारी हो गई. उसने सेठ से कहा कि वह अपने बेटे को अपनी पत्नी के साथ बहू के घर वापस भेज दे. यह सब विघ्न इसलिए आए हैं क्योंकि तुम्हारा पुत्र अपनी पत्नी को शुक्राष्ट में ले आया है. अगर वह वहां पहुंच जाता है, तो वह बच जाएगा.

सेठ ने ब्राह्मण पुत्र की बात मानी और अपनी बहू और बेटे को वापस बहू के घर भेज दिया. घर पहुंचते ही सेठ के बेटे की हालत में सुधार होने लगा. उसके बाद उन्होंने शुक्र त्रयोदशी का व्रत करना शुरू किया और शुक्र प्रदोष व्रत कथा का पाठ किया, जिससे उनका शेष जीवन सुखमय व्यतीत हुआ.  जो कोई भी शुक्रवार प्रदोष व्रत कथा को पढ़ता और सुनता है, उसे सभी वांछित सुख प्राप्त होते हैं.

शुक्र प्रदोष से दूर होते हैं ग्रह दोष 

जन्म कुंडली में शुक्र ग्रह की अशुभता को समाप्त करने के लिए शुक्र प्रदोष व्रत बहुत ही उत्तम होता है. शुक्र ग्रह सभी इच्छाओं को दर्शाता है. धन की इच्छा, काम सुख की इच्छा, सुंदरता और रचनात्मकता से घिरे रहने की इच्छा,  प्रेम और रोमांस में सफलता और सभी सुखों की प्राप्ति के लिए शुक्र विशेष ग्रह है. वैदिक ज्योतिष के अनुसार, शुक्र प्रेम की अभिव्यक्ति है, यह भावनात्मक लगाव, शारीरिक आकर्षण, विवाह, मिलन, साझेदारी, कला, संस्कृति, रचनात्मकता, खुशी, जुनून, सौंदर्य इत्यादि का कारक होता है. अगर शुक्र कमजोर खराब होगा तो वह इन चीजों से दूर ले जाता है. कमजोर शुक्र के घातक प्रभाव से बचने के लिए इस व्रत का पालन करना अच्छा होता है. जन्म कुंडली में शुक्र की कमजोर अशुभ स्थिति कई तरह से परेशानी का कारण बन सकती है. 

शुक्र कमजोर है व्यक्ति को शुक्र प्रदोष व्रत करना चाहिए यह व्रत शुक्र को मजबूत करता है और देवी लक्ष्मी की कृपा भी प्रदान करता है. शुक्रवार के दिन सफेद चंदन, सफेद चावल, सफेद कपड़े, सफेद फूल, चांदी, घी, दही, चीनी इत्यादि भगवान को अर्पित करने चाहिए और ब्राह्मणों को दक्षिणा आदि का दान करना चाहिए. शुक्र प्रदोष व्रत एवं पूजन द्वारा शुक्र ग्रह की शुभता प्राप्त होती है. 

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भरणी श्राद्ध का महत्व और पितृ पक्ष

शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के लिए तीन ऋण हैं, पहला देवताओं का ऋण है, दूसरा ऋषि है और तीसरा पिता का ऋण है. पितृ ऋण को पितृ पक्ष श्राद्ध समय या पिंडदान करके पितरों के ऋण से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है. श्राद्ध पक्ष में आश्विनी मास के दौरान जब भी भरणी नक्षत्र का समय आता है तब इस भरणी श्राद्ध कार्य को करके पितृ ऋण से मुक्त हुआ जा सकता है. इस समय पर किया गया तर्पण अत्यंत उत्तम माना जाता है. 

12 सितंबर 2025 के समय शनिवार के दिन भरणी का श्राद्ध किया जाएगा.

भरणी श्राद्ध कार्य करने से उत्तम स्वास्थ्य, खुशी और सौभाग्य की प्राप्ति होती है. पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले विविध कर्मों को श्राद्ध कहते हैं.हिंदू धर्म में यह कार्य एक अनिवार्य कर्म की भांति माना गया है जिसके बिना व्यक्ति अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्त नहीं हो सकता है. असंतुष्ट अतृप्त आत्माओं की शांति के लिए आश्विन मास के कृष्ण पक्ष का समय श्राद्ध कार्यों के रूप में मनाने का प्रावधान प्राचीन काल से चला आ रहा है.

भरणी श्राद्ध करने से क्या होता है 

परिवार के मृतक सदस्यों माता, पिता, पत्नी, दादा, दादी, चाचा, चाची आदी का श्राद्ध कर्म भरणी नक्षत्र समय एवं तिथि समय पर करना शुभ होता है. भरणी श्राद्ध कार्य को करने से मृतकों की आत्मा को मुक्ति प्राप्त होती है और वह परिवार के सदस्यों को शुभाशीष प्रदान करते हैं. पूर्वजों को अनंत काल तक शांति प्राप्त होती है. भरणी का श्राद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण समय होता है. हिंदू भक्त गया, काशी और रामेश्वरम में भरणी  का श्राद्ध करते हैं. मान्यताओं के अनुसार इस नक्षत्र समय इन विशेष तीर्थ स्थानों पर किया गया तर्पण कर्म का एक विशेष स्थान होता है. भरणी श्राद्ध करने का शुभ समय कुतुप मुहूर्त और रोहिना मुहूर्त होता है.

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, भरणी श्राद्ध को पवित्र नदियों एवं स्थानों पर करना चाहिए. काशी, गया, प्रयाग, कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य, रामेश्वरम, हरिद्वार आदि में करने से पितरों को संतुष्टि प्राप्त होती है. कुछ विचारकों के अनुसार भरणी नक्षत्र श्राद्ध किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद एक बार किया जाता है, तो कुछ अन्य विचारकों के अनुसार जिसमें मुख्य ग्रंथ धर्मसिंधु के अनुसार यह प्रत्येक वर्ष किया जा सकता है.

श्राद्ध कार्य और तर्पण का महीना

भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से अश्विन कृष्ण अमावस्या तक पितरों के लिए इन दिनों के तर्पण को पितृ पक्ष कहा जाता है. इस समय में श्राद्ध करने से पितरों को संतुष्टि मिलती है. इस समय के मध्य  कोई भी व्यक्ति अपने मृत पूर्वजों के लिए श्राद्ध कर सकता है. शुक्ल पक्ष को पितरों की रात्रि कहा जाता है. इसलिए मनुस्मृति के अनुसार मनुष्यों में एक मास के बराबर पितरों का एक अहोरात्र अर्थात  दिन और रात होता है. एक महीने में दो पक्ष होते हैं. मनुष्य का कृष्ण पक्ष पितरों के कर्मों का दिन है और शुक्ल पक्ष पितरों की रात है. इसलिए आश्विन मास के पितृ पक्ष में श्राद्ध करना विधान माना गया है. श्राद्ध करने से पितरों को प्रतिदिन अन्न एवं तृप्ति की प्राप्ति होती है. शास्त्रों में पितृ पक्ष में श्राद्ध की महिमा का विशेष रूप से वर्णन किया गया है. 

श्राद्ध के विभिन्न प्रकार 

धर्म पुराणों में विभिन्न प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख मिलता है. भविष्य पुराण के अनुसार श्राद्ध 12 प्रकार के होते हैं. नित्य, नैमित्तिका, काम्य, वृद्धी, सम्पिन्दन, पर्व, गोष्ठ, शुद्रथ, कामंग, दैविका, शांतिार्थ, और पुष्ठार्थ. इसके अलावा नंदीमुख, षोडशाह, पंचदेव, वार्षिक, गया और तीर्थ श्राद्ध भी महत्वपूर्ण श्राद्ध हैं. लेकिन हमारे शास्त्रों में श्राद्ध के दो प्रकार बताए गए हैं. तिथि श्राद्ध और पर्व श्राद्ध. इनमें से प्रत्येक वर्ष जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई उस तिथि को तिथि श्राद्ध किया जाता है. प्रत्येक वर्ष पितृ पक्ष को पर्व श्राद्ध किया जाता है. हर साल आश्विन मास के शुक्ल पक्ष से पहले के कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिनों को पितृ पक्ष के रूप में जाना जाता है. इस पक्ष में पूर्णिमा जोड़ने से इसे सोलह  दिन का महालय श्राद्ध पक्ष या महालय पक्ष भी कहा जाता है. इस पक्ष के लोग अपने पूर्वजों को जल चढ़ाते हैं और मृत्यु तिथि पर श्रद्धा के साथ श्राद्ध करते हैं.

भरणी श्राद्ध महिमा

श्राद्ध की महिमा के बारे में शास्त्रों में बहुत कुछ लिखा गया है. श्राद्ध परम आनंद देता है. पितरों के संतुष्ट होने पर भगवान प्रसन्न होते हैं और जब वे संतुष्ट होते हैं तो तीनों लोकों में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता. जो व्यक्ति श्राद्ध करता है वह आयु, शक्ति, प्रसिद्धि, ज्ञान और मृत्यु के बाद सर्वोच्च स्थिति प्राप्त करता है. अग्नि पुराण में बताया गया है कि श्राद्ध की शुरुआत देवकर्म से करनी चाहिए.  वायु पुराण अनुसार श्राद्ध से तृप्त होने वाले पितृ सदैव अपने परिवार को आशीर्वाद प्रदान करते हैं. श्राद्ध आदि करने वाले व्यक्ति के पितरों की सदा उन्नति होती है. देवताओं के लिए किए गए यज्ञों की तुलना में पूर्वजों के लिए किए गए अनुष्ठान अधिक फलदायी होता है. पूर्वज अपने कुल संतानों को आयु, वंश वृद्धि, धन और शिक्षा का आशीर्वाद देते हैं. 

भरणी श्राद्ध करने के नियम

श्राद्ध हमेशा अपनी भूमि या अपने घर पर ही करना चाहिए. श्राद्ध तीर्थ यात्रा या नदी के किनारे भी किया जा सकता है.

श्राद्ध करने के लिए दक्षिण दिशा की ओर ढलान वाली भूमि होनी चाहिए, क्योंकि दक्षिणायन में पितरों का प्रभुत्व होता है. देवताओं का प्रभाव उत्तरायण में होता है. 

श्राद्ध के लिए तीर्थ स्थल सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं.

श्राद्ध कर्म में आस्था, पवित्रता, स्वच्छता और पवित्रता पर ध्यान देना आवश्यक है.

श्राद्ध दिन के मध्य में करना चाहिए.

श्राद्ध का अधिकार पुत्र को ही दिया गया है. गया है. यदि पुत्र न हो तो पुत्री के पुत्र का पौत्र श्राद्ध कर सकता है. जिन माता-पिता के कई पुत्र हैं, उनमें ज्येष्ठ पुत्र को श्राद्ध करने का अधिकार है. पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र श्राद्ध कर सकता है और पौत्र की अनुपस्थिति में प्रपौत्र श्राद्ध कर सकता है.

श्राद्धकर्म में ब्राह्मण भोजन के साथ-साथ तर्पण का अत्यधिक महत्व है.

श्राद्ध में इस मंत्र का पाठ करना चाहिए – 

“ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगीभ्य इव च

नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नम:”

याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार श्राद्ध की तिथि पूर्ण होने तक ब्राह्मणों के साथ श्राद्ध का कर्ता को ब्रह्मचारी होकर रहना चाहिए. उसे पान खाना, तेल लगाना, दवा लेना, बाल कटवाना,यात्रा करना, गुस्सा करना आदि मना होता है. तामसिक कार्यों से दूर रहना चाहिए. सात्विक कर्मों को करते हुए तर्पण के कार्य करने चाहिए. 

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ललिता सप्तमी, का पूजा समय विधि एवं महत्व

ललिता सप्तमी भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी पर देवी ललिता सप्तमी मनाई जाती है. देवी ललिता जी को भगवान श्री कृष्ण एवं श्री राधा जी के साथ संबंधित किया जाता है. भाद्रपद माह की  शुक्ल पक्ष की सप्तमी में ललिता सप्तमी होती है ओर दूसरी ओर ललिता षष्ठी एवं ललिता ज्यती के रुप में देवी लक्ष्मी, देवी पार्वती जे स्वरुप में मां ललिता का पूजन होता है. यह दो नाम अलग लग स्वरुप को दर्शाते हैं किंतु दोनों के मध्य जो शक्ति व्याप्त है वह अनुकल्पनीय है. दोनों देवियों को अलग-अलग स्वरुप में देखा जा सकता है तो उन्हें एक स्वरुप भी माना गया है.

भाद्रपद माह में आने वाली कई तिथियां महत्वपुर्ण हैं क्योंकि इसी समय पर श्री कृष्ण भगवान, जन्म, बलराम जी का जन्म, श्री राधा जी का जन्म, एवं ललिता जी का जन्म भी अता है. इसी के साथ भाद्रपद माह जीवन का वह समय होता है जब प्रकृति का नवीन एवं बदला हुआ स्वरुप देखने को मिलता है. अत: इस समय पर जब भगवान की लीला का निर्माण हुआ तो इस निर्माण में समस्त देवी देवताओं का प्रादुर्भाव भी हुआ. इसी क्रम में देवी ललिता जी राधा जी की सखी के रुप में जन्म लेती हैं. ललिता जी का संबंध कृष्ण एवं राधा के साथ सदैव घनिष्ट रहा है. 

ललिता सप्तमी श्री ललिता देवी के सम्मान में मनाई जाती है. यह ललिता देवी का प्रकटन दिवस है जो राधादेवी की घनिष्ठ मित्र थीं, ललिता सप्तमी भाद्रपद माह में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को पड़ती है और इसके अगले दिन राधा जन्म का समय राधा अष्टमी के रुप में मनाया जाता है. ललिता देवी राधा के प्रति सबसे समर्पित गोपी में से एक थी, यह एक बहुत ही शुभ दिन है जिसका बहुत महत्व है. ललिता सप्तमी राधाष्टमी के समय से एक दिन पहले आती है. ललिता देवी राधारानी और भगवान कृष्ण की सबसे प्रिय भी थीं. इस दिन भगवान कृष्ण के साथ ललिता देवी की पूजा करना अत्यंत शुभ माना जाता है.

उत्तर भारत में ललिता सप्तमी 

भारत के इस क्षेत्र में इस पर्व का विशेष रंग देखने को मिलता है. बज्र, मथुरा, वृंदावन इत्यादि में इस पर्व की काफी महत्ता है. ललिता जी से संबंधित अनेक कथाएं भी हमें यहां स्थान-स्थान पर सुनने को मिलती हैं. देवी ललिता जी को राधा कृष्ण के मध्य का सेतु भी कहा जाता है. इन दोनों के साथ देवी का ऎसा संबंध रहा जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ता गया है. देवी भगवान के प्रेम की साक्षी बनीं तथा जगत कल्याण में उनकी भूमिका का भी विशेष महत्व रहा है. भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन ब्रज मंडल में ललिता जी के स्त्रोत पूजन की व्यवस्था बहुत ही सुंदर रुप से की जाती है. हर ओर देवी के नाम की ध्वनी गूंजती है. देवी के पूजन के साथ भगवान श्री कृष्ण एवं राधारानी का भी पूजन किया जाता है. 

गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय अनुसार ललिता सप्तमी

ललिता देवी राधारानी और कृष्ण की पारंपरिक गौड़ीय वैष्णव पूजा में आठ गोपियों में से एक हैं. आठ वरिष्ठ गोपियों, अष्टसखियों में ललिता सबसे अग्रीण स्थान रखती हैं. अष्टसखियों में देवी ललिता, विशाखा, चित्रलेखा, चंपकलता, तुंगविद्या, इंदुलेखा, रंगदेवी और सुदेवी जी का नाम आता है. इन अष्ट सखियों को शक्ति का रुप भी माना गया है. इन्हीं के द्वारा सृष्टि में शुभता स्थिरता एवं सांजस्य मौजूद है. 

अष्टसखियां अपनी प्रिय राधा और कृष्ण के लिए आध्यात्मिक प्रेम दर्शाती हैं. राधा-कृष्ण के प्रति वे जो प्रेम रखते हैं, उसकी बराबरी या उससे अधिक कोई नहीं कर सकता है. दोनों के मध्य होने वाले विवाद में ललिता जी सदैव राधा जी के समक्ष होती थीं किंतु वह विवाद को शांत कर देने में भी आगे रहती थीं. वह राधारानी से 14 साल, 8 महीने और 27 दिन बड़ी मानी जाती हैं और इन्हें चौदह वर्ष की कन्या के रुप में अत्यंत ही सौदर्य स्वरुपा बताया गया है. देवी ललिता श्री कृष्ण के गोपी मित्रों में सबसे पुरानी हैं. ललिता देवी को राधा की निरंतर और वफादार दोस्त के रूप में याद किया जाता है. ललिता जी हल्के पीले रंग की उपस्थिति को दर्शाती हैं और इन्हें यह रंग अत्यंत प्रिय भी है. देवी के वस्त्र मोर पंख के समान हैं.

ललिता सप्तमी से संबंधित कथाएं

ललिता जी के स्म्दर्भ में कई लोक कथाएं प्रचलित हैं जो उनके समर्पण शक्ति एवं स्नेह को दर्शाती हैं. माना जाता है कि जब बचपन में राधा और कृष्ण  किसी खेल में व्यस्त रहते थे तभी खेल के दौरान , अगर उनके चरण कमलों में पसीने की एक बूंद आती है, तो ललिता देवी लाखों रूप लेती हैं और जल्दी से उसे हटा देती हैं. वह सदैव उनके प्रति सेवा एवं प्रेम को प्रकट करती हैं. अपने प्रिय राधा-कृष्ण के प्रति उनके हृदय में अत्यंत ही गहरी भावना मौजूद है. अपनि निष्ठा एवं सेवा भाव को हर पल प्रकट करती हैं. राधा कृष्ण की सभी आठ सिद्धांत सखियाँ ललिता देवी के मार्गदर्शन में ही रहती हैं. राधा और कृष्ण की सेवा के लिए अपने संरक्षक के रूप में ललिता देवी का सम्मान करते हैं. मान्यताओं के अनुसार देवी ललिता जी का जन्म करेहला गांव में हुआ था. उनके पिता उन्हें उक्कागांव ले आए थे. इस स्थान पर एक चट्टान है जिसमें देवी के चरण कमलों के निशान आज भी व्याप्त माने जाते हैं. ललिता देवी और उनकी सहेलियों द्वारा भगवान कृष्ण को खिलाने के लिए उपयोग किए जाने वाले बर्तन आज भी मौजूद माने जाते हैं कभी-कभी, सूरज की रोशनी में, यह सभी चिन्ह प्रकाशित भी होते हैं. 

ललिता सप्तमी का महत्व

ब्रजभूमि और वृंदावन में राधारानी और भगवान कृष्ण दो सखियों, ललिता और विशाखा को अत्यधिक देखा जा सकता है. मंदिरों में इन गोपियों का स्थान सर्वोपरी रहा है. ललिता जी की मित्र व्यवहार सभी के लिए अनुकरणिय रहता है. इनकी भक्ति के सामने सभी देव भी नतमस्त होते हैं. देवी अपने मित्र के सुख दुख एवं प्रत्येक क्षम में साथ देती हैं. देवी ललिता जी की एकमात्र इच्छा राधा और कृष्ण की सेवा करना है और यही संदेह वह सभी जन में प्रसारित करती हैं. जब हम किसी के प्रति प्रेम रखते हैं तो पूर्ण निष्ठा भाव के साथ हमें उसे निभाना चाहिए. 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार वृंदावन में प्रसिद्ध पवित्र ललिता कुंड भक्तों को मुक्ति प्रदान करता है. यह ललिता देवी के भगवान कृष्ण और राधा के प्रेम की सबसे शुभ अभिव्यक्ति है जो शुद्ध भक्ति और समर्पण के मार्ग में सभी बाधाओं को दूर करती है. कहते हैं देवी सभी प्रकार के दोषों का शमन करने वाली होती हैं. ललिता सप्तमी के शुभ दिन राधारानी और भगवान कृष्ण के साथ ललिता देवी की पूजा करना अत्यंत शुभ माना जाता है. 

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