भड़ली (भढ़ली) नवमी अबूझ समय जब हर कार्य होता है मंगलकारी

भड़ली नवमी का पर्व 15 जुलाई 2024 को मनाया जाएगा. इस दिन चित्रा नक्षत्र को पश्चात स्वाति नक्षत्र भी प्राप्त होगा. शिव योग एवं सिद्ध नामक शुभ योग बनेंगे तथा शुभ योग का निर्माण भी होगा. 

आषाढ माह की शुक्ल नवमी भड़ली नमवी. कंदर्प नवमी ओर गुप्त नवमी के रुप में मनाई जाती है. भड़ली नवमी का समय भगवान विष्णु, भगवान शिव देवी भगवती के पूजन का विशेष समय होता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन के बाद भगवान चार माह तक योग निद्रा में चले जाते हैं और इस अवधि में विवाह, सगाई, गृह प्रवेश, मुंडन , कार्य आरंभ जैसे काम रुक जाते हैं. यह पर्व का प्रमुख महत्व है क्योंकि इसे हिंदू विवाह संस्कार कार्यों के लिए अंतिम दिन भी माना जाता है. इसके बाद चार महिने के बाद देव उठनी एकादशी से ही विवाह, गृह प्रवेश एवं अन्य प्रकार के शुभ कार्य शुरु हो पाते हैं. 

भड़ली नवमी पर बनने वाले शुभ योग 2024

इस वर्ष भड़ली नवमी का पर्व 15 जुलाई 2024 को मनाया जाएगा. भड़ली नवमी तिथि का आरंभ 14 जुलाई 2024 को 17:27 पर होगा. नवमी तिथि की समाप्ति 15 जुलाई को 19:20 पर होगी. इस दिन चित्रा नक्षत्र को पश्चात स्वाति नक्षत्र भी प्राप्त होगा. शिव योग एवं सिद्ध नामक शुभ योग बनेंगे तथा शुभ योग का निर्माण भी होगा. 

भड़ली नवमी के दिन गुप्त नवरात्रि के नवमी तिथि का पूजन होगा. इसी के साथ नवरात्रि का पारण समय भी होगा. देवी दुर्गा का पूजन संपन्न होगा. 

भड़ली नवमी पर्व महत्व 

भड़ली नवमी का पर्व भगवान श्री विष्णु एवं भगवान शिव के पूजन के लिए विशेष होता है. हिंदू पौराणिक कथाओं अनुसार माना जाता है कि भगवान विष्णु सुखों को प्रदान करने वाले तथा जीवन की भौतिकता के आनम्द प्रतीक भी हैं. इनके आशीर्वाद द्वारा जीवन में मंगल सुखों की प्राप्ति होती है. देवताओं के शयन का समय जब होता है तब विवाह कार्य नहीं हो पाते हैं क्योंकि इस समय देवों का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त नहीं हो पाता है. इसलिए भड़ली नवमी के दिन भगवान श्री विष्णु पूजन होता है इसके पश्चात भगवान शयन में चले जाते हैं जो चातुर्मास का समय कहा जाता है. दांम्पत्य जीवन को सुखमय बनाने के लिए भगवान विष्णु की कृपा आवश्यक होती है. भडली नवमी भगवान विष्णु के सोने से पहले का समय होता है  इसलिए, भक्त दिन को अनोखे तरीके से मनाते हैं उत्सव पूजा इत्यादि कार्य होते हैं. भड़ली नवमी किसी भी मांगलिक कार्यों के लिए अंतिम दिन होता है इसके पश्चात 4 माह तक कोई मांगलिक कार्य नहीं होते हैं. 

इस दिन बड़े उत्साह के साथ भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. भगवान श्री विष्णु को प्रसाद चढ़ाया जाता है. इस दिन विष्णु सहस्त्रनाम और भगवान विष्णु के अन्य मंत्र एवं भजन गाए जाते हैं.

भारत के झारखंड राज्य में प्राचीन काल से भड़ली मेले का आयोजन होता रहा है. इस समय देवी देवताओं का पूजन होता है. 

इस दिन भगवान शिव और देवी काली मंदिरों में विशेष पूजा यज्ञ किए जाते हैं 

भड़ली नवमी के दिन गृह प्रवेश पूजा, मुंडन संस्कार, जनेऊ संस्कार, सगाई, विवाह कार्यों को करना शुभ होता है. 

इस दिन नए व्यवसाय का आरंभ किया जा सकता है. नई स्थान की यात्रा एवं नई वस्तुओं को लेना शुभ होता है. 

भड़ली नवमी के दिन कन्या पूजन करना शुभफल प्रदान करता है. 

भड़ली नवमी कथा   

पौराणिक कथाओं के अनुसार अषाढ़ शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि के दिन कामदेव का कंदर्प रुप में पुन: जन्म होता है. गुप्त नवरात्रि के दिन को भड़ली नवमी का समय मनाया जाता है. इस दिन से संब्म्धित कई कथाएं प्राप्त होती हैं जिनमें एक कामदेव से संबंधित है. मान्यताओं के अनुसार जब भगवान शिव सती के वियोग में साधना मेम रमे रहते हैं तब उस समय सती का पुन: जन्म होता है वह हिमायल राज की पुत्री पार्वती के रुप में जन्म लेती हैं. भगवान शिव ओर पार्वती के विवाह कराने हेतु देवी देवता कई जतन करते हैं देवी पार्वती भी भगवान शिव को पाने हेतु कठोर व्रत का पालन करती हैं किंतु भगवान शिव अपनी योग साधना से जब बाहर नहीं आते हैं, तब उस समय सभी देवता कामदेव के पास जाकर उन्हें भगवान शिव के भीतर काम भवना जागृत करने को कहते हैं, किंतु कामदेव जब भगवान शिव को जगाने हेतु प्रयास करते हैं तो उस समय भगवान अपने क्रोध के कारण तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर देते हैं. ऎसे में देवी रति अपने पति की मृत्यु से व्यथित होकर विलाप करने लगती हैं भगवान शिव उनकि दशा देख कर कामदेव की पुन: प्राप्ति का आशीर्वाद देते हैं. इसी आशीर्वाद के अनुरुप 

आषाढ़ नवमी के दिन देव कन्दर्प का जन्म होता है. भगवान शिव के द्वारा भस्म होने के बाद इस तिथि पर वह पुन: आते हैं. कन्दर्प देव को भगवान श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रुप में जन्म लेते हैं ओर कंदर्प नाम से विख्यात होते हैं. इसलि भी दिन विवाह कार्यों को करना अत्यंत शुभ माना जाता है. 

दांपत्य जीवन का सुख प्रदन करता भड़ली नवमी 

भड़ली नवमी के दिन पर शादी सगाई जैसे माम्गलिक कार्यों को उत्साह के साथ किया जाता है. इस दिन को दांपत्य जीवन के सुख पाने के लिए शुभ समय माना जाता है. इस दिन पर शादी विवाह करने से विवाह में किसी भी प्रकार का दोष या अलगाव उत्पन्न नहीं होता है. जीवन में यदि दांपत्य सुख की कमी हो या रिश्तों में किसी प्रकार का विवाद बना हुआ दिखाई देता हो तो भडली नवमी के दिन कामदेव का पूजन करना बहुत शुभ माना गया है. कामदेव के आशीर्वाद से विवाह का सुख प्राप्त होता है. भड़ली नवमी के दिन भगवान शिव देवी पार्वती श्री विष्णु पूजन के द्वारा सुख सौभाग्य प्राप्त होता है. 

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चातुर्मास : क्यों रुक जाते हैं मांगलिक कार्य ?

चातुर्मास में रुक जाते हैं मांगलिक कार्य और पूजा पाठ को करना क्यों होता है शुभ 

हिन्दू पंचांग के अनुसार देवशयनी एकादशी आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि  चातुर्मास का आरंभ होता है. इस दिन भगवान विष्णु योग निद्रा में पाताल लोक को चले जाते हैं मान्यताओं के अनुसार श्री विष्णु भगवान राजा बली को दिए आशीर्वाद के कारण इस समय पाताल लोक में निवास करते हैं. इसके साथ ही चातुर्मास शुरू हो जाता है. इसके बाद सभी मांगलिक कार्य बंद हो जाते हैं. इसके बाद कार्तिक मास की देवोत्थान एकादशी के दिन जब भगवान विष्णु योग निद्रा से जागते है तो पुन: लोक मंगल से जुड़े काम शुरु हो जाते हैं और माता तुलसी से विवाह करते हैं इसके बाद सभी शुभ कार्य फिर से शुरू हो जाने से चातुर्मास समाप्त हो जाता है. 

इस बार चातुर्मास 17 जुलाई से शुरू होकर 12 नवंबर 2024 को समाप्त होगा. इस दौरान विवाह, गृह प्रवेश, कोई नए कार्य का आरंभ व्यवसाय शुरु करना, जैसे कार्य नहीं किए जाते हैं इन्हें कुछ समय के लिए रोक दिया जाता है. 

चातुर्मास चार महिनों का योग 

पहला महीना – श्रवण 

चातुर्मास्य व्रत के पहले महीने को शक व्रत के रूप में जाना जाता है. शक व्रत आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि से प्रारंभ होकर श्रावण मास की शुक्ल एकादशी के दिन समाप्त होता है.

नहीं खाना चाहिए पालक, धनिया पत्ती, मेथी के पत्ते, पुदीने के पत्ते, करी पत्ते, आदि.

दूसरा महीना- भाद्रपद 

चातुर्मास्य व्रत के दूसरे महीने को दधि व्रत के नाम से जाना जाता है.दधि व्रत श्रावण शुक्ल पक्ष की द्वादशी से शुरू होकर भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी को समाप्त होता है.

नहीं खाना चाहिए दही 

तीसरा महीना– अश्विन 

चातुर्मास्य व्रत के तीसरे महीने को क्षीर व्रत के नाम से जाना जाता है. क्षीर व्रत भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी को शुरू होता है.

दूध से करना चाहिए परहेज 

चौथा महीना– कार्तिक

चातुर्मास्य व्रत का चौथा महीना द्विदल व्रत के नाम से जाना जाता है. यह आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी पर समाप्त होती है.

नहीं खानी चाहिए दालें 

पद्म पुराण और भागवत अनुसार, किए जाने वाले कार्य 

चातुर्मास समय धर्म स्थलों – मंदिर की साफ सफाई करनी चाहिए ऎसा करने से सात जन्मों तक अच्छे भोग प्राप्त होते हैं 

भगवान को दूध, दही, घी, शहद और चीनी से स्नान कराना चाहिए ऎसा करने से समृद्ध हो जाते हैं और स्वर्गलोक में जाकर इंद्र के समान भोग प्राप्त करते हैं.

ब्राह्मण को  28 या 108 मिट्टी के बर्तनों का दान करना चाहिए ऎसा करने से सभी पापों से मुक्ति प्राप्त होती है. 

भगवान विष्णु के पूजन भजन में कीर्तन करना चाहिए ऎसा करने से गंधर्व लोक प्राप्त होता है.

मंदिर की परिक्रमा करनी चाहिए ऎसा करने से भक्त विष्णु धाम को पाता है.

गुड़ का त्याग करने वाले को पुत्र या पौत्र की प्राप्ति होती है.

सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करना चाहिए.

प्रातः सूर्योदय से पहले मंत्र जाप करना चाहिए 

चार महीने तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए.

अपनी क्षमता के अनुसार दान करना चाहिए. 

पौराणिक नियम: चातुर्मास क्या करें और क्या न करें 

चातुर्मास में विवाह कार्य, गृह प्रवेश, भूमि पूजन, मुंडन, तिलकोत्सव आदि काम नहीं किए जाते हैं. 

चातुर्मास में पतल में भोजन करना शुभ माना जाता है.

पलंग छोड़कर जमीन पर ही सोना उत्तम होता है. इसमें सूर्य देव की कृपा प्राप्त होती है.

चातुर्मास के दौरान मांस और शराब का सेवन अशुभ होता है.

चातुर्मास में भगवान विष्णु की पूजा अत्यंत लाभकारी होती है. मां लक्ष्मी का आशीर्वाद मिलता है. 

इस माह किसी प्रकार के विवाद-झगड़े से दूर रहना चाहिए. गलत एवं असत्य वचनों को नहीं बोलना चाहिए.

तुलसी पूजन करना चाहिए. शाम को तुलसी के पौधे पर घी का दीपक जलाना चाहिए 

चातुर्मास के दौरान गुड़, तेल, शहद, मूली, परवल, बंगाल, साग आदि का सेवन नहीं करना चाहिए.

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गुप्त नवरात्रि 2024 पर महाविद्या को लगाएं विशेष भोग मिलेगी हर कार्य में सफलता

गुप्त नवरात्रि के दिन दस महाविद्याओं का पूजन किए जाने का विधान रहा है. गुप्त नवरात्रि का पर्व गृहस्थ से अधिक तंत्र, साधना कर्म एवं योग क्रियाओं के लिए उपयुक्त समय माना जाता है. गुप्त नवरात्रि हेतु किए जाने पूजा कर्म में साधारण स्वरुप में दुर्गा के नव रुपों का पूजन भी किया जाता है किंतु विशेष रुप से ये समय महाविद्याओं का पूजन संपन्न होता है. इस समय पर प्रत्येक दिन ब्रह्माणिय शक्ति एवं ऊर्जा का अलग स्तर होता है. प्रत्येक दिवस विशेष होता है तथा साधना को चरण दर चरण पूरा होते देखा जा सकता है.

गुप्त नवरात्रि के दिन महाविद्या के प्रत्येक रुप का पूजन किया जाता है. इस समय पर दसमहाविद्या को विशेष भोग अर्पित करने का विधान रहा है. इस समय पर महाविद्याओं के प्रत्येक रुप का उनके प्रिय भोग के साथ पूजन करने से सर्वकामनाओं की सिद्धि प्राप्त होती है. आइये जानें दस महाविद्याओं को कौन सा भोग अर्पित किया जाए जिससे साधना ओर सिद्धि की प्राप्ति हो संभव. 

दस महाविद्या को लगाए जाने वाले विशेष भोग (प्रसादम) 

माँ महाविद्या काली को लगाएं विशेष भोग 

महाविद्या काली का पूजन विशेष रुप से गुप्त नवरात्रि में साधना सिद्धि हेतु किया जाता है. देवी काली का पूजन भक्त की ऊर्जा को जागृत करने का समय होता है. इस समय पर देवी के समक्ष विभिन्न पूजन अनुष्ठान किए जाते हैं. देवी को श्रीफल विशेष रुप से अर्पित किया जाता है. 

देवी काली की पूजा में भोग स्वरुप शहद का उपयोग विशेष रुप से किया जाता है. माँ काली को शहद अत्यंत प्रिय है. गुप्त नवरात्रि में महाविद्या काली का पूजन करने उपरांत देवी को शहद का भोग विशेष रुप से अर्पित करना चाहिए. 

काली मंत्र 

ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके

क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥

माँ महाविद्या तारा को लगाएं विशेष भोग 

दस महाविद्या की दूसरी शक्ति देवी तारा हैं, माहविद्या तारा को एकजता, उग्रतारा और नीलसरस्वती के नाम से भी पुकारा जाता है. सृष्टि की शक्ति इन्हीं में निहित है. देवी भक्तों को सभी दुखों से तारने वाली हैं. देवी तारा को हिंदू धर्म की ही भांति बौद्ध धर्म में भी अत्यंत पूजनीय माना गया है.

देवी तारा के पूजन में सरसों के तेल में बने पदार्थ, तेजपत्ता चढ़ाएं, नारियल, सूखे मेवे और रेवड़ियों का भोग लगाने से सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है.

तारा मंत्र 

ॐ त्रीं ह्रीं, ह्रूं, ह्रीं, हुं फट्॥

महाविद्या ललिता को लगाएं विशेष भोग 

दस महाविद्या में देवी ललिता सुख एवं सौभाग्य की देवी हैं. देवी ललिता का पूजन आर्थिक विपन्नता को दूर करने वाला होता है. ऋषि दुर्वासा एवं आदिगुरू शंकरचार्य भी देवी ललिता के परम भक्त थे. सौन्दर्यलहरी में त्रिपुर सुन्दरी श्रीविद्या की स्तुति का वर्णन अत्यंत मनोरुप से वर्णित है. देवी ललिता के पूजन में  ललिता सहस्त्रनामावली का पाठ करने से सभी कष्ट दूर होते हैं, धन धान्य की प्राप्ति होती है. 

देवी ललिता के पूजन में श्वेत रंग से निर्मित खाद्य पदार्थों का विशेष रुप से भोग निर्मित किया जाता है. इस दिन देवी को खीर, श्वेत मिष्ठान एवं दूध से बने भोग अर्पित करना उत्तम माना गया है. देवी के पूजन के पश्चात भोग अर्पित करके भोग को गरीबों में वितरित करने से रोग दोष शांत होते हैं. जीवन में सुख एव्म सफलता का आगमन होता है. 

ललिता मंत्र

 ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नम:। ‘

महाविद्या भुवनेश्वरी को लगाएं विशेष भोग 

महाविद्या भुवनेश्वरी का पूजन सृष्टि के कल्याण एवं समस्त सिद्धियों की प्राप्ति हेतु किया जाता है. देवी भुवनेश्वरी आदि शक्ति का स्वरुप हैं. भुवन की अधिष्ठात्रि देवी शत्रुओं का नाश करने हेतु सदैव सृष्टि में व्याप्त हैं. इनकी शक्ति के द्वारा सृष्टि का संचालन अविरल रुप से गतिमान है. देवी का पूजन करने से संपत्ति से जुड़े सभी विवाद समाप्त होते हैं. महाविद्या भुवनेश्वरी का पूजन करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है. देवी की पूजा से ज्ञान में वृद्धि और सुख की प्राप्ति होती है. पंच तत्वों में समाहित शक्ति को प्रदान करती हैं. 

देवी भुवनेश्वरी की पूजा में माता को मालपुआ का भोग विशेष रुप से अर्पित किया जाता है. 

भुवनेश्वरी मंत्र

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सौंः क्रीं हूं ह्रीं ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥

महाविद्या त्रिपुर भैरवी को लगाएं विशेष भोग 

महाविद्या त्रिपुर भैरवी को काली का स्वरुप माना गया है. त्रिपुर भैरवी के अनेकों नाम हैं ओर देवी की अनेक सहायिकाओं को भैरवी रुप में भी जाना जाता है. देवी का स्वरुप शत्रुओं का नाश करने हेतु विख्यात है. त्रिपुर की सुरक्षा का दायित्व इन्हें प्राप्त है. देवी त्रिपुर भैरवी जी का पूजन तंत्र एवं मंत्र दोनों ही साधनाओं हेतु उपयुक्त होता है. देवी की साधना में शक्ति एवं बल की वृद्धि होती है. 

महाविद्या त्रिपुर भैरवी पूजा में देवी को गुड़, खाण्ड इत्यादि का भोग विशेष रुप से अर्पित किया जाता है. देवी की पूजा में लाल चंदन का उपयोग अवश्य करना चाहिए. देवी को गुड़ का भोग लगाने से शत्रु बाधा शांत होती है. न्यायिक मामलों में विजय की प्राप्ति होती है.

महाविद्या त्रिपुर भैरवी  मंत्र 

ॐ ह्रीं त्रिपुर भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा॥

महाविद्या छिन्नमस्तिका को लगाएं विशेष भोग 

महाविद्या छिन्नमस्तिका को तंत्र में विशेष स्थान प्राप्त है. देवी का पूजन तांत्रिक कर्म में सफलता हेतु किया जाता है. देवी छिन्नमस्तिका का स्वरुप काफी रौद्र है किंतु उनका ममतामयी व्यवहार भक्तों को सिद्धि एवं सुख प्रदान करता है. देवी का पूजन सभी कष्टों का नाश करता है. समस्त कामानों की पूर्ति होती है. देवी को चिंताओं का नाश करने वाला माना गया है और चिंतपूर्णी नाम भी प्राप्त है.

देवी छिन्नमस्तिका के पूजन में माता को मीठे पान का भोग लगाना उत्तम होता है. देवी के पूजन में शहद फर पान को विशेष माना जाता है.

छिन्नमस्तिका मंत्र

ॐ वैरोचन्ये विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥

महाविद्या धूमावती  को लगाएं विशेष भोग 

गुप्त नवरात्रि में महाविद्या धूमावती जी का पूजन रोगों के नाश हेतु प्रमुख होता है. देवी का स्वरुप धूम्र की भांति है. देवी का वर्णन रुद्रामल तंत्र में प्राप्त होता है. दस महाविद्याओं में माता सती का ये स्वरुप भगवान शिव को ग्रहण कर लेने के कारण मिला. देवी ने जब भगवान शिव को निगल लिया तब उनकी देह से धुआं व्याप्त होने लगा ऎसे में माता का स्वरुप शोक एवं दुखों को दूर करने वाला होता है. रोग एवं दोषों का नाश देवी के पूजन द्वारा संभव होता है. माता को दुख एवं दारिद्र से मुक्ति पाने हेतु भी पूजा जाता है. 

देवी का पूजन करने में सरल एवं गरिष्ठ दोनों प्रकार के भोग लगाने का वर्णन प्राप्त होता है. देवी की पूजा में तेल से बने पदार्थ एवं खिचड़ी को विशेष माना गया है. 

धूमावती मंत्र 

धूं धूं धुर धुर धूमावती क्रों फट् स्वाहा॥

महाविद्या बगलामुखी को लगाएं विशेष भोग 

गुप्त नवरात्रि में महाविद्या बगलामुखी का पूजन विशेष तंत्र साधना का समय होता है. तांत्रिक कर्म में देवी का को मुख्य स्थान प्राप्त होता है. देवी बगलामुखी पीताम्बराके रुप में बःई पूजी जाती है क्योंकि देवी का स्वरुप पीले रंग से अधिक वर्णित होता है. देवी के पूजन में पीले रंग का विशेष उपयोग होता है. देवी को हल्दी की माला विशेष रुप से अर्पित की जाती है. माता स्तंभन की देवी हैं इसलिए जीवन में आने वाला कोई भी संकट इनके स्मरण मात्र से रुक जाता है. कष्ट की स्थिति टल जाती है. जीवन में किसी भी प्रकार के विवाद में विजय पाने के लिए बगलामुखी का पूजन किया जाता है. यह आठवी महाविद्या के रुप में पूजी जाती हैं. 

महाविद्या बगलामुखी को विशेष रुप से पीले रंग के मिष्ठान अर्पित किए जाते हैं. बेसन ओर हल्दी से निर्मित भोग अर्पित किया जाना उत्तम होता है.

महाविद्या बगलामुखी मंत्र 

ह्लीं बगलामुखी विद्महे दुष्टस्तंभनी धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥

महाविद्या मातंगी को लगाएं विशेष भोग 

देवी महाविद्या मातंगी शुभ एवं कोमल स्वरुप होती हैं. देवी का पूजन नवें दिन पर प्रमुख रुप से होता है. कला एवं संगीत का स्वर इन्हीं में विराजित है. देवी को प्रकृति का स्वरुप संगीतमय है. माता सभी सुखों के साथ जीवन में शुभता को प्रदान करने वाली होती हैं. वाणी से संबंधित कोई भी परेशानी से बचाव के लिए मातंगी का पूजन बहुत शुभ माना जाता है. प्राणियों के जीवन में आनंद एवं संगीत का उद्घोष देवी के आशिर्वाद से ही संपन्न होता है. देवी जीवन में सुखों का नाश करती हैं दांपत्य जीवन में सुख प्रदान करने वाली होती हैं. 

देवी मातंगी को भोग स्वरुप मिष्ठान एवं श्रीफल से बने भोग अर्पित किए करना बहुत ही शुभ माना जाता है. 

मंत्र

ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा॥

महाविद्या कमला को लगाएं विशेष भोग 

देवी कमला का स्वरुप अत्यंत शुभदायक होता है. देवी को महाविद्याओं में दसवीं शक्ति के रुप में माना जाता है. देवी का स्वरुप सभी तरह के ज्ञान एवं बुद्धि को प्रदान करने वाला माना जाता है. 

देवी के पूजन से अन्न धन की प्राप्ति होती है. जीवन में अभाव की समाप्ति होती है. देवी कमला श्री का स्वरुप हैं. लक्ष्मी रुपा हैं इसलिए आर्थिक तंगी एवं कर्ज से जुड़ी समस्याओं को हल करने के लिए इनका पूजन विशेष होता है. 

देवी कमला को खीर का भोग एवं केसर अर्पित करना शुभ होता है. 

मंत्र

ॐ ह्रीं हूं हां ग्रें क्षों क्रों नमः॥

दस महाविद्या स्तोत्र  

दुर्ल्लभं मारिणींमार्ग दुर्ल्लभं तारिणींपदम्।

मन्त्रार्थ मंत्रचैतन्यं दुर्ल्लभं शवसाधनम्।।

श्मशानसाधनं योनिसाधनं ब्रह्मसाधनम्।

क्रियासाधनमं भक्तिसाधनं मुक्तिसाधनम्।।

तव प्रसादाद्देवेशि सर्व्वाः सिध्यन्ति सिद्धयः।।

नमस्ते चण्डिके चण्डि चण्डमुण्डविनाशिनी।

नमस्ते कालिके कालमहाभयविनाशिनी।।

शिवे रक्ष जगद्धात्रि प्रसीद हरवल्लभे। 

प्रणमामि जगद्धात्रीं जगत्पालनकारिणीम्।।

जगत्क्षोभकरीं विद्यां जगत्सृष्टिविधायिनीम्।

करालां विकटां घोरां मुण्डमालाविभूषिताम्।।

हरार्च्चितां हराराध्यां नमामि हरवल्लभाम्।

गौरीं गुरुप्रियां गौरवर्णालंकार भूषिताम्।।

हरिप्रियां महामायां नमामि ब्रह्मपूजिताम्।

सिद्धां सिद्धेश्वरीं सिद्धविद्याधरगणैर्युताम्।

मंत्रसिद्धिप्रदां योनिसिद्धिदां लिंगशोभिताम्।।

प्रणमामि महामायां दुर्गा दुर्गतिनाशिनीम्।।

उग्रामुग्रमयीमुग्रतारामुग्रगणैर्युताम्।

नीलां नीलघनाश्यामां नमामि नीलसुंदरीम्।।

श्यामांगी श्यामघटितांश्यामवर्णविभूषिताम्।

प्रणमामि जगद्धात्रीं गौरीं सर्व्वार्थसाधिनीम्।।

विश्वेश्वरीं महाघोरां विकटां घोरनादिनीम्।

आद्यमाद्यगुरोराद्यमाद्यनाथप्रपूजिताम्।।

श्रीदुर्गां धनदामन्नपूर्णां पद्मा सुरेश्वरीम्।

प्रणमामि जगद्धात्रीं चन्द्रशेखरवल्लभाम्।।

त्रिपुरासुंदरी बालमबलागणभूषिताम्।

शिवदूतीं शिवाराध्यां शिवध्येयां सनातनीम्।।

सुंदरीं तारिणीं सर्व्वशिवागणविभूषिताम्।

नारायणी विष्णुपूज्यां ब्रह्माविष्णुहरप्रियाम्।।

सर्वसिद्धिप्रदां नित्यामनित्यगुणवर्जिताम्।

सगुणां निर्गुणां ध्येयामर्च्चितां सर्व्वसिद्धिदाम्।।

दिव्यां सिद्धि प्रदां विद्यां महाविद्यां महेश्वरीम्।

महेशभक्तां माहेशीं महाकालप्रपूजिताम्।।

प्रणमामि जगद्धात्रीं शुम्भासुरविमर्दिनीम्।।

रक्तप्रियां रक्तवर्णां रक्तबीजविमर्दिनीम्।

भैरवीं भुवनां देवी लोलजीह्वां सुरेश्वरीम्।।

चतुर्भुजां दशभुजामष्टादशभुजां शुभाम्।

त्रिपुरेशी विश्वनाथप्रियां विश्वेश्वरीं शिवाम्।।

अट्टहासामट्टहासप्रियां धूम्रविनाशीनीम्।

कमलां छिन्नभालांच मातंगीं सुरसंदरीम्।।

षोडशीं विजयां भीमां धूम्रांच बगलामुखीम्।

सर्व्वसिद्धिप्रदां सर्व्वविद्यामंत्रविशोधिनीम्।।

प्रणमामि जगत्तारां सारांच मंत्रसिद्धये।।

इत्येवंच वरारोहे स्तोत्रं सिद्धिकरं परम्।

पठित्वा मोक्षमाप्नोति सत्यं वै गिरिनन्दिनी।।

कुजवारे चतुर्द्दश्याममायां जीववासरे।

शुक्रे निशिगते स्तोत्रं पठित्वा मोक्षमाप्नुयात्।

त्रिपक्षे मंत्रसिद्धिः स्यात्स्तोत्रपाठाद्धि शंकरि।।

चतुर्द्दश्यां निशाभागे शनिभौमदिने तथा।

निशामुखे पठेत्स्तोत्रं मंत्रसिद्धिमवाप्नुयात्।।

केवलं स्तोत्रपाठाद्धि मंत्रसिद्धिरनुत्तमा।

जागर्तिं सततं चण्डी स्तोत्रपाठाद्भुजंगिनी।।

इति महाविद्या स्तोत्र समाप्तम् |

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देवी कामाख्या, तंत्रविद्या का शक्ति केन्द्र

कामाख्ये वरदे देवी
नीला पर्वता  वासिनी
त्वम् देवी जगतम माता
योनि मुद्रे नमोस्तुते ||

देवी कामाख्या , तंत्र और मंत्र का शक्ति पीठ
तंत्र और मंत्र की अधिठात्रि देवी कामाख्या, शक्ति का वह स्वरुप हैं जो सृष्टि के निर्माण को दर्शाती हैं. कामाख्या संपूर्ण कामानाओं को पूर्ण करने वाली देवी हैं. देवी के प्रमुख शक्ति पीठों में कामाख्या को विशेष स्थान प्राप्त है. कामाख्या मंदिर एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है जो भारत के आसाम के खूबसूरत शहर गुवाहाटी में नीलाचल पहाड़ी पर स्थित है. शक्ति का यह अभयारण्य भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है और हर दिन हजारों तीर्थयात्री इस स्थान पर आकर देवी का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं यह स्थान देवी के प्रमुख शक्ति पीठों में सबसे पुराना माना जाता है.

देवी कामाख्या योनी स्वरुपा

देवी कामाख्या को अक्सर श्मशान घाट में विभिन्न प्रकार की साधना हेतु चित्रित किया जाता है. अन्य देवी-देवताओं के विपरीत, इनके योनी रुप का पूजन होता है क्योंकि देवी गर्भ स्थान में योनी रुपा स्वरुप में स्थित हैं.

देवी कामाख्या तारण और मारण की शक्ति

देवी कामाख्या तंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं, सृजन और विनाश दोनों ही स्थितियां इनमें विराजमान हैं. कामाख्या नाम का अर्थ काम तथा कामना से संबंधित माना गया है. देवी समस्त कामानों को पूर्ण करने वाली हैं. कामाख्या देवी कोमल एवं कठोर दोनों ही रुपों में विराजित हैं देवी अपने भक्तों के लिए माता करुणा हैं तथा शत्रुओं के लिए विनाशकारी शक्ति हैं. सृष्टि के निर्माण में इन्हीं का स्वरुप विराजमान है. प्रकृति की नवीनता का कारण भी देवी ही हैं. तीन लोकों में देवि की सत्ता सर्वविदित है.देवी कामाख्या वह अग्नि, प्रकाश, अंधकार सभी पहलुओं को धारण करती है. कुंडलिनी की देवी हैं, जो रीढ़ के आधार के रूप में स्थित ऊर्जा का एक दिव्य रूप है. यही कारण है कि देवी कामाख्या की पूजा में ध्यान की चेतना पर विशेष बल दिया जाता है, जो कुंडलिनी को जगाने में मदद होता है.

तंत्र विद्या में कामाख्या
वह महान ब्रह्मांडीय चेतना का एक रूप है और कामाख्या माता को सबसे शक्तिशाली तांत्रिक देवी में से एक माना जाता है. वह एक ऐसी मां है जो अपने बच्चों की रक्षा के लिए कुछ भी कर सकती है. तंत्र विद्या में, वह शक्ति का रूप है. वह कामाख्या क्रिया जैसे कई तांत्रिक क्रियाओं से जुड़ी हुई हैं. इन क्रियाओं को करने वाले प्रकाश, अग्नि और पृथ्वी की सभी प्रकार की ऊर्जा को एक में केंद्रित करते हैं. कामाख्या मंदिर प्राचीन भारत के सबसे रहस्यमय स्थानों में से एक स्थान भी है, जिसे दैवीय शक्तियों की प्राप्ति के लिए बनाया गया था. तंत्रवाद से जोड़ा गया माता का रुप शक्तियों का समुह है जिसमें सभी शक्तिशाली क्रियाओं को किया जाता है.

देवी की पूजा प्रकृति के पंचभूतों पर नियंत्रण करने के लिए शरीर और मन को नियंत्रित करने की इच्छा रखने वालों के लिए उत्तम होती है. देवी कामाख्या की पूजा एक चक्र के रूप में पूजा की जाती है पूजा करने से तत्काल आशीर्वाद मिलता है और व्यक्ति को सभी कुछ प्राप्त होता है. देवी अपने उपासकों एवं भक्तों को दर्द और पिड़ा से राहत दिलाने में मदद करती है.कामाख्या साधना को सिद्ध करने वाले साधक को सभी अष्टसिद्धियां प्राप्त होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप सभी अलौकिक शक्ति में महारत हासिल करने के लिए आध्यात्मिक प्रगति प्राप्त होती है.

देवी कामाख्या की उत्पत्ति
देवी कामाख्या सती का प्रतिरुप हैं जो भगवान शिव के साथ मौजूद हैं. देवी को काल कामाख्या के नाम से भी जाना जाता है. देवी काली को ऊर्जा के आदि शक्ति के रूप में जाना जाता है.
पौराणिक ग्रंथों में शक्ति की स्थापना एवं शिव शक्ति के मिलन से जुड़ी कई कहानियां ओर मिथक मिल जाते हैं. कामाख्या को देवी सती का स्वरुप माना गया है और इसे देवी के महत्वपूर्ण शक्तिपीठों में गिना जाता है.

अनेक कथाएं अलग अलग रुप से चित्रित हैं. एक कथा अनुसार, भगवान ब्रह्मा ने ब्रह्मांड के निर्माण में सहायता के लिए शक्ति और शिव को प्रसन्न करने के लिए एक यज्ञ किया जिसके फलस्वरुप देवी शक्ति शिव से अलग हो जाती हैं और ब्रह्मा जी की सहायता के लिए निकल पड़ती हैं. जब उद्देश्य पूर्ण होता है तो शक्ति पुन: शिव के पास चली जाती हैं. सहस्त्र वर्षों उपरांत ब्रह्मा के मानस पुत्र दक्ष ने सती को अपनी बेटी के रूप में पाने हेतु बहुत तप किया और देवी शक्ति दक्ष के घर उनकी पुत्री स्वरुप उत्पन्न होती हैं. दक्ष को भगवान शिव से अत्यंत वैर रहा अपने पिता के अपमान का भी उनके भीतर क्षोभ था उन्होंने सती का विवाह शिव से न करने का निश्चय किया हुआ था किंतु ऎसा होन नहीं पाया और अंत में सती का विवाह शिव के साथ ही संपन्न होता है.

दक्ष एक बार फिर शिव द्वारा पराजित हुआ अनुभव करता है ओर शिव का प्रतिपल अपमान करने का संकल्प बनाए रखता है. एक बार वह दक्ष ने एक महाविशाल यज्ञ का आयोजन किया जिसमें समस्त देवी देवताओं को आमंत्रित किया किंतु उन्होंने अपने पुत्रि सती ओर अपने जमाता शिव को आमंत्रण नहीं दिया. ये यज्ञ दक्ष ने भगवान शिव से बदला लेने की इच्छा से ही किया था. जब सती को पता चला की पिता ने सभी को पूजा में बुलाया लेकिन उन्हें बुलावा नहीं दिया गया तो वह बिना आमंत्रण के ही अपने पिता के घर जाने को व्याकुल होने लगीं.

देवी सती ने उसने शिव से अपनी इच्छा व्यक्त की, शिव नहीं माने और सती को जाने से रोकने की पूरी कोशिश करते हैं. किंतु सती के बार -बार कहने पर वह मान जाते हैं, सती अपने पिता के यज्ञ में चली जाती है लेकिन सती को यज्ञ में सम्मान नहीं दिया जाता है अपना और अपने पति के अनादर से वह इतनी पीड़ा से भर जाती हैं की उसी यज्ञ की अग्नि में समा जाती है. यज्ञ में सती के आत्मदाह को देखते ही समस्त लोक त्राही त्राही करने लगते हैं. भगवान शिव को जब इस घटना का पता चलता है तो वह क्रोधित हो पत्नी के अपमान और मृत्यु का दंड देने के लिए अपने वीरभद्र अवतार को दक्ष के यज्ञ में भेजते हैं जहां यज्ञ पूर्ण रुप से नष्ट कर दिया जाता है और दक्ष का सिर काट दिया जाता है.

शिव अपनी शक्ति को खोने से व्यथित हो जाते हैं. दु: ख में डूबे हुए, शिव देवी सती के शरीर को अपने कंधों पर उठा कर तांडव करने लगते हैं. यह एक विनाश का समय होता है और देवता भगवान श्री विष्णु के पास जाकर इस स्थिति को नियंत्रित करने के लिए आग्रह करते हैं. श्री विष्णि तब अपने सुदर्शन चक्र द्वार देवी सती की देह को काट देते हैं ओर देवी के प्रत्येक अंग जहां जहां भी गिरते हैं उस स्थान पर शक्ति पीठों की स्थापना होती है.

इस कथा अनुसार देवी का योनी भाग आसाम में गिरा जहां आज का कामाख्या मंदिर स्थापित है. देवी योनी स्वरुपा होकर कामाख्या स्थल पर विराजमान हुईं.

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दक्षिणायन का आरंभ योग साधना के लिए विशेष समय

हिंदू पंचांग अनुसार उत्तरायण एवं दक्षिणायन का विशेष महत्व रहा है. दक्षिणायन वह समय है जब सूर्य ग्रह उत्तरी गोलार्ध से पृथ्वी के आकाश में दक्षिण गोलार्ध की ओर गति करना शुरू करता है. किसी भी प्रकार की योग साधना करने वाले व्यक्ति के जीवन में दक्षिणायन का विशेष महत्व है. दक्षिणायन समय को देवों की रात्रि का समय माना जाता है ओर इस समय पर साधना एवं जप के कार्यों अत्यंत ही उत्तम माना जाता है. 

20/21 जून को सायन दक्षिणायन का समय होगा

16 जुलाई 2024 को निरयण संक्रांति का समय होगा

सायन और निरयण पद्धितियों के अनुसार इस स्थिति में दिन का कुछ अंतर देखने को जहां सायन अनुसार 21 जून या 22 जून का समय सूर्य की गति में बदलाव का समय होता है. इस समय को सौर वर्ष अनुसार दक्षिणायन का समय माना जाता है. वहीं निरयण अनुसार यह समय सूर्य के कर्क राशि में प्रवेश से आरंभ होता है जो 16 जुलाई के आस-पास की स्थिति का होता है जिसे निरयण दक्षिणायन के नाम से भी जाना जाता है. 

दक्षिणायन के इस चरण में, ग्रह के साथ जीव एवं जगत का संबंध उत्तरी भाग की तुलना में बहुत अलग होता है. विशेष रूप से हममें से जो उत्तरी गोलार्ध में रह रहे हैं, उनके लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि सूर्य अब दक्षिण की ओर बढ़ रहा है और ग्रह वाम दिशा में घूम रहा होता है. ये एक ऎसा समय होता है जब कुछ महत्वपूर्ण चीजें साथ साथ जीवन एवं प्रकृति पर अपना गहरा असर डालती हैं. 

दक्षिणायन भगवान शिव का दक्षिण योग साधना का समय 

मानव शरीर पर ये क्रिया विज्ञान के आधार पर भी एक निश्चित प्रभाव उत्पन्न करती हैं. इस पहलू को ध्यान में रखते हुए हिंदू धर्म द्वारा की जाने वाली सभी प्रथाओं को संरचित किया गया है. मान्यताओं के अनुसार वर्ष के इस समय के दौरान भगवान शिव दक्षिण की ओर मुड़े और दक्षिणामूर्ति बने. उन्होंने योग विज्ञान के मूल सिद्धांतों को अपने पहले सात शिष्यों तक पहुँचाया जिन्हें सप्तर्षि के रूप में मनाया जाता है. यह अचानक नहीं था कि उसने दक्षिण की ओर मुड़ने का फैसला किया. वह दक्षिण की ओर मुड़ गया क्योंकि सूर्य दक्षिण की ओर मुड़ गया था. सूर्य का दक्षिणी भाग महत्वपूर्ण हो गया क्योंकि यह शिक्षण का पहला चरण भी कहा जाता है. यह साधना पद बन गया जहां उन्होंने सप्तर्षियों को सिखाया कि उन्हें क्या करना चाहिए. उत्तरी भाग या उत्तरायण को समाधि पद या कैवल्य पद के रूप में जाना जाता है. यह बोध का समय होता है. इस दौरान विभिन्न प्रकार के विवाह एवं मांगलिक कार्य रोक दिए जाते हैं और व्रत, यज्ञ, पूजा और अन्य धार्मिक कार्य रोगों और दुखों को दूर करते हैं.

दक्षिणायन संबंधी पौराणिक विचार 

दक्षिणायन के विषय में पौराणिक एवं धार्मिक विचारों के अनुसार इस समय को एक ऎसी लम्बी अवधि के रुप में दर्शाया गया है जिसमें व्यक्ति की आंतरिक मनोभावनाओं का उद्गार अधिक दिखाई देता है. ये समय प्रकृति के साथ अंधकार की स्थिति के संतुलन का विशेष समय होता है. अंधकार हमारे भीतर के प्रकाश द्वारा ही दूर हो सकता है, इसलिए दक्षिणायन को तपस्या हेतु अत्यंत शुभकारी समय माना गया है.. इस समय के दौरान आत्मबल में वृद्धि के प्रयास करने की ओर संकेत मिलते हैं. यह वो समय होता है जब चेतना को उस स्तर पर जागृत करने की चेष्ठा की जाती है कि जब उत्तरायण का आरंभ हो तब आत्म सुख एवं दर्शन भक्ति के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेने में व्यक्ति सफलता को प्राप्त कर पाए. इसलिए इस समय पर आत्म नियंत्रण की स्थिति ही अधिक महत्वपूर्ण होती है विवाह इत्यादि कार्यों को इस समय पर रोक दिया जाता है जो दर्शाता है की इस अवधि के समय पर यदि योग साधना को बढ़ाया जाए तो आने वाले समय में एक श्रेष्ठ समय का व्यक्ति का निर्माण संभव हो पाए. 

कुछ महत्वपूर्ण बातें जो दक्षिणायन पर कही जाती हैं जो उसके ऊपरी पक्ष को दर्शाती है किंतु उसके आंतरिक स्वरुप को समझने हेतु इन चीजों से परे हटकर देखने की आवश्यकता होती है. 

वैदिक पंचांग अनुसार दक्षिणायन का समय देवताओं की रात्रि के रुप में दर्शाया जाता है. 

दक्षिणायन को पितरों का समय माना जाता है. 

दक्षिणायन को राक्षसों का दिन भी कहा जाता है. 

दक्षिणायन समय को अंधकार का समय माना गया है. 

वासनाओं की जागृति का समय भी कहा जाता है. 

दक्षिणायन समय व्रत, उपवास, संयम, आत्म अवलोकन का समय होता है. 

दक्षिणायन का समय भक्ति और तपस्या हेतु उत्तम माना गया है. 

उत्तरायण और दक्षिणायन में क्या अंतर है?

वर्ष में दो अयन या संक्रांति होती है या हम कह सकते हैं कि सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति बदलता है. इन परिवर्तनों को उत्तरायण यानि ग्रीष्म संक्रांति और दक्षिणायन यानि शीत संक्रांति के नाम से जाना जाता है. हिंदू पंचांग गणना में उत्तरायण की शुरुआत मकर संक्रांति के दिन से होती है जिसे सकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है. इस अवधि में सूर्य मकर राशि से कर्क राशि अर्थात दक्षिण से उत्तर की ओर यात्रा करता है. उत्तरायण को मकर संक्रांति के नाम से भी जाना जाता है और भारत में इसे विभिन्न नामों से मनाया जाता है. उत्तरायण का समय पर्व के रुप में संपूर्ण भारत वर्ष में विभिन्न रुपों में मनाया जाता है. यह मूल रूप से दक्षिण से उत्तर की ओर सूर्य की गति है. भारत में मकर संक्रांति हर साल 14 जनवरी को मनाई जाती है जो सौर कैलेंडर का एक निश्चित दिन होता है. यह वह दिन है जब सूर्य मकर रेखा से दूर उत्तरी गोलार्ध की ओर अपनी गति शुरू करता है. इसे उत्तरायण के नाम से भी जाना जाता है.  

दक्षिणायन अर्थ, जैसा कि नाम से पता चलता है कि दक्षिणायन उत्तरायण के ठीक विपरीत है. यह वह अवधि है जब सूर्य कर्क राशि से मकर राशि अर्थात उत्तर से दक्षिण की ओर वापस यात्रा करता है. इस समय पर साधना, तपस्या, व्रत, पूजा पाठ से जुड़े कार्य किए जाते हैं. दक्षिणायन काल में वर्षा ऋतु, पतझड़ और शीत ऋतु आती है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार दक्षिणायन काल देवों की रात है. रातें लंबी और दिन छोटे होते हैं. यहां सायन एवं निरयण का विचार भी होता है जहां वैदिक निरयण को अपनाता है और पाश्चात्य ज्योतिष सायन को अपनाता है. 

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हयग्रीव जयंती 2024, इसलिए लिया था श्री विष्णु ने ये अवतार

हयग्रीव को श्री विष्णु भगवान का एक अवतार रुप माना गया है. सावन मास की पूर्णिमा को हयग्रीव जयंती मनाई जाती है. भगवान विष्णु के अवतारों में से एक हयग्रीव ने वेदों का कल्याण किया. इस कारण यह अवतार जीवन में ज्ञान को प्रदान करने वाला है. व्यक्ति के जीवन को सही मार्ग पर ले जाने वाला है. 

हयग्रीव जयंती शुभ मुहूर्त पूजा समय

इस वर्ष हयग्रीव जयन्ती 19 अगस्त 2024 को सोमवार के दिन मनाई जाएगी

  • पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ – 18 अगस्त , 2024 को 27:09
  • पूर्णिमा तिथि समाप्त – 19 अगस्त, 2024 को 23:56

हयग्रीव का रुप कैसा है

भगवान के इस रुप का वर्णन आधे मनुष्य और सिर घोड़े के जैसा होता है. यह दोनों का मेल प्रकृति और मनुष्य की निर्माण और उसकी नवीन चेतना को दर्शाता है. वेद, जिन्हें मधु और कैटभ नाम के दैत्य उठा ले गये थे, उनके उद्धार के लिए विष्णु ने यह अवतार लिया और सृष्टि का कल्याण किया.

हयग्रीव पौराणिक कथा

हयग्रीव की कथा का स्त्रोत अनेक ग्रथों में मौजूद है. इसमें से एक कथा महाभारत में भी है. यह कथा इस प्रकार है. – एक समय जब पृथ्वी चारों ओर से जलमग्न होती है. तब विष्णु को सृष्टि के निर्माण का विचार आता है. वह जगत की रचना के लिए योगनिद्रा का आवलम्बन कर जल में सो रहे थे. कुछ समय के पश्चात भगवान कानों से दो दैत्य प्रकट होते हैं. एक का नाम मधु और दूसरे से का नाम कैटभ होते हैं. दोनों दैत्य वहां उपस्थित ब्रह्मा जी को देखते हैं और ब्रहमा जी से वेदों चुराकर रसातल में चले जाते हैं.

वेदों का लुप्त हो जाना सृष्टि के ज्ञान को अंधकार में बदलने वाला होता है. चारों ओर एक अज्ञान का आवरण बढ़ने लगता है. सृष्टि के इस रुप को देख ब्रह्मा चिन्तित होने लगते हैं. वेद ही ब्रह्मा जी के चक्षु होते है जिनके अभाव में लोकसृष्टि का उचित रुप से पालन कर पाना संभव नही हो पाता है.

ब्रह्मा जी वेद प्राप्ति के लिए श्री विष्णु जी का स्मरण करते हैं और वेदों के उद्धार के लिए भगवान विष्णु की स्तुति करते हैं. तब भगवान जागते हैं और वेद को प्राप्त करने के लिए हयग्रीव का रुप धारण करते हैं. दैत्यों से वेद को प्राप्त कर वेदों का उद्धार करते हैं.

एक अन्य कथा – कथा अनुसार भगवान श्री विष्णु का सिर अलग होने और उस स्थान पर घोड़े के सिर कि स्थापना होती है जिस कारण वह हयग्रीव कहलाते हैं. कथा इस प्रकार है – शौनक आदि ऋषि सुत जी से श्री विष्णु के सिर के गायब होने की कथा के बारे में पूछते हुए कह्ते हैं कि “हे सूत जी ! हम सब के मन में इस अत्याधिक संदेह को दूर कीजिये की किस प्रकार श्री विष्णु का सिर उनके शरीर से अलग होता है और उस के बाद वे हयग्रीव कहलाये गए .यह आश्चर्यजनक घटना किस प्रकार हो सकती है. जिनकी प्रशंसा वेद करते हैं, देवता भी जिन पर निर्भर हैं, जो सभी कारणों के भी कारण हैं. यह कैसे संभव हुआ कि उनका भी सिर कट गया” अत: आप इस वृत्तांत का विस्तार रुप से हमारे समक्ष वर्णन कीजिये.

ऋषियों की बात सुन कर सूत जी बोले हे मुनि श्रेष्ठ ऋषियों, विष्णु के इस कार्य को ध्यान से सुनें. यह उन्हीं की रचना है. एक बार दस सहस्त्र वर्षों के चले आ रहे दैत्यों के साथ युद्ध के पश्चात जब भगवान थक गए थे. तब पद्मासन में विराजमान होकर अपना सिर एक प्रत्यंचा चड़े हुए धनुष पर रखकर सो जाते हैं.

उस समय इन्द्र तथा अन्य देवों ने एक यज्ञ का आहवान आरंभ किया.यज्ञ में ब्रहमा और भगवान शिव भी को भी बुलाया जाता है. जब देव भगवान विष्णु के पास वैकुंठ में जाते हैं लेकिन श्री विष्णु को वहां न पा कर उन्होंने ध्यान द्वारा उस स्थान का पता लगाया जहां भगवान विष्णु विश्राम कर रहे थे.

भगवान विष्णु को योगनिद्रा में सोता हुए देख देव एवं ब्रह्मा व शिव भगवान चिंतित हो गए. भगवान को कैसे जगाया जाए. यदि भगवान की निद्रा में बाधा डाली गयी तो वे क्रुद्ध होंगे ऎसे में ब्रह्मा जी ने वामरी कीट की रचना की ताकि वह धनुष के अग्र भाग को काट दे जिससे धनुष ऊपर उठ जाये और विष्णु निद्रा से जाग उठें.

ब्रह्मा जी ने कीट को धनुष काटने का आदेश दिया. आदेश अनुसार वामरी ने धनुष के अग्रभाग, जिसपर वह भूमि पर टिका था, को काट दिया.धनुष प्रत्यंचा टूट गयी और धनुष ऊपर उठ गया और एक भयंकर आवाज होती है.

विष्णु का सिर मुकुट सहित गायब हो गया, विष्णु के सिर – विहीन देह को देख देव चिंता के सागर में डूब गये तब ब्रह्मा जी ने वेदों को आदेश दिया कि वह महा माया देवी की स्तुति करें, ब्रह्मा के वचन सुनकर समस्त वेद महामाया देवी की स्तुति करने लगे.

महामाया देवी प्रसन्न होती हैं और कहती हैं कि कुछ भी बिना किसी कारण के नहीं होता है. अब सुनों हरि का सिर क्यों कट गया. बहुत पहले एक समय अपनी प्रिय पत्नी लक्ष्मी देवी का सुंदर मुख देख कर वे उन के समक्ष ही हंस पड़े. लक्ष्मी , विष्णु के हंसने पर क्रुद्ध हो गयी और भगवान के सिर को शरीर से अलग हो जाने का श्राप देती हैं. लक्ष्मी के श्राप कारण उन्हें यह कष्ट उठाना पड़ा है.

 

हयग्रीव महात्म्य

प्राचीन काल में एक प्रसिद्ध देत्य – ह्यग्रीव ने कठोर तपस्या की उसकी कठोर तपस्ता से प्रसन्न होकर वर मांगने को कहती हैं हयग्रीव माता से मुझे वर मांगता है कि मृत्यु कभी मेरे निकट ना आये और मैं अमर हो जाऊं. किंतु देवी अमरता का वरदान देने से मना कर देती हैं तब उससे कोई ओर वर मांगने को कहती हैं तब हयग्रीव कहता है कि मुझे वर दीजिए कि मेरी मृत्यु केवल उसी से हो जिसका मुख अश्व का हो. माता उसे वरदान देती है और वरदान को पाकर हयग्रीव ने अपना आतंक सभी ओर मचा दिया.

 

सूत जी बोले “देवी के वचन सुन कर देवताओं ने विश्वकर्मा से प्रार्थना करी की विष्णु का सिर लगा दें जिससे वह उस असुर का वध कर पाएं. विश्वकर्मा ने घोड़े का सिर काट कर विष्णु जी के शरीर पर लगा दिया. हयग्रीव बन कर भगवान ने उस दानव का अपनी शक्ति द्वारा वध कर दिया.

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संत तुकाराम जयंती 2024 : जिन्होंने भक्ति को नया रुप दिया

संत तुकाराम भक्त और एक महान संत थे. भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में डूबे हुए संत तुकाराम जी का जन्म एक ऎसी घटना थी जिसने भक्ति की धारा को एक नया रंग दिया. ये एक महान संत कवि थे जो भारत में लंबे समय तक चले भक्ति आंदोलन के एक अग्रदूत संत भी थे. इस लिए इन्हें संत तुकाराम के नाम से पुकारा जाता रहा है.

संत तुकाराम जी ने अपनी साधना और भक्ति द्वारा चारों ओर जो अलख जगाई वह आज भी लोगों के भीतर मौजूद है. अपने समय की अवस्था का इनकी वाणी में दर्शन दिखाई देता है. तुकाराम जी की वाणी में जो गहराई और श्रद्धा दिखाई देती है, वह अत्यंत ही आश्चर्य से भर देने वाली है.

तुकाराम की वाणी सूत्रबद्ध, अल्पाक्षर, रमणीय तथा मर्मभेदक रही है. फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी के दिन उन्होंने अपनी देह त्यागी. संत कवियों के सहित्य में जो आध्यात्म सूत्र पिरोया हुआ है और जो विचारों का कलेवर दिखाई पड़ता है, वह सभी कुछ तुकाराम जी में दिखाई देता है.

तुकाराम जीवन काल

संत तुकाराम का जन्म पुणे में हुआ था. पुणे में स्थित देहू नामक गांव में हुआ था. संत तुकाराम के जन्म समय को लेकर विद्वानों में एकमत दिखाई नहीं देता है. ऎसे में इनकी जन्म तिथि को लेकर मतभेद दिखाई देते हैं.

संत तुकाराम जी जिस कुल में जन्में थे उस कुल के लोग पंढरपुर पर बहुत विश्वास रखते थे. पंढरपुर की यात्रा पर इन लोगों का बहुत योगदान रहता था. धार्मिक जीवन इन्हें हर जगह प्राप्त होता है. देहू गांव में इनके परिवार को एक अच्छा स्थान प्राप्त था. इनका परिवार महाजन होने के कारण प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित परिवार था. एक भरा पूरा कुटूंब इन्हें मिलता है.

तुकाराम जी की माता का नाम कनकाई जी था और इनके पिता का नाम बहेला था. अपने बचपन में तुकाराम जी को अपने माता-पिता का बहुत स्नेह प्राप्त होता है. परिवार में जो धार्मिक माहौल इन्होंने देखा उसका इनके जीवन पर भी बहुत असर दिखाई देता है.

तुकाराम जी की किशोरावस्था में ही अपने माता-पिता का विच्छोह सहना पड़ा था. इनके माता-पिता का स्वर्गवास होने का बाद जीवन में बहुत बदलाव आया. इसके बाद उसी समय के आस-पास जब एक अकाल का असर संपूर्ण क्षेत्र पर पड़ा तो उसका असर इनके परिवार पर भी पड़ा. भीषण अकाल के कारण इनकी जीवन संगनी ओर इनके पुत्र की मृत्यु हो जाती है.

पत्नी व बालक की भूख के कारण मृत्यु होने से इनके मन को गहर आघात लगा. विपत्तियों का उन पर पहाड़ ही टूट पड़ा था. इनकी दूसरी पत्नी का स्वभाव भी बहुत कठोर था. संत तुकाराम उस समय में बहुत बड़े जमीदार थे. इस कारण जीवन में बहुत सारा झूठ और अलगाव के चलते इनका मन बहुत ही परेशान रहने लगा था.

तुकाराम की प्रवृत्ति इन सभी प्रपंच से ऊब चुकी थी. इनकी दूसरी पत्नी “जीजा बाई” बहुत ही कठोर वाणी की थीं. तुकाराम जी को अब किसी भी प्रकार का मोह नहीं था. अपने आस पास के माहौल से तंग आ चुके थे. अब वह भगवान की भक्ति में खुद को लीन कर देना चाहते थे. सांसारिक सुखों से विरक्ति पाने के लिए तुकाराम जी अपने गांव के समीप भावनाथ नामक पहाड़ी पर जाने लगे. वहीं भगवान की भक्ति करने में लग जाते हैं. भगवान्‌ विट्ठल के नाम स्मरण में अपने दिन बिताने लगते हैं.

संत तुकाराम जी का भक्ति में प्रवेश

संत तुकाराम जी को उनकी भक्ति का मार्ग उनके गुरु की कृपा से भी प्राप्त होता है. लोभ और द्वेष से मुक्त होते हुए, परमेश्वर प्राप्ति के लिये ललायित हुए तुकाराम जी को बाबा जी चैतन्य नामक साधु जी का दर्शन प्राप्त होता है. गुरु द्वारा ‘रामकृष्ण हरि’ मंत्र की प्राप्ति होती है. इस घटना के बाद इनके जीवन में जो बदलाव आया वह सभी कुछ इनके चारों ओर होने वाले बदलाव को दर्शाता है. कहा जाता है की गुरु का संदेश इन्हें स्वप्न में प्राप्त होता है. जिसके बाद ये भक्ति की पूर्णता को प्राप्त कर पाते हैं.

गुरु के उपदेश प्राप्त होते ही इन्होंने अपने जीवन का सभी कुछ भक्ति में लगा दिया. जीवन के लगभग संपूर्ण वर्ष लोगों को भक्ति का उपदेश देने में बिताए. तुकाराम जी का स्वभाव इतना शुद्ध व वैराग्य से भरपूर था की इन्हें किसी के प्रति कोई द्वेष नहीं था. ये हर किसी को क्षमा कर देने का गुण रखते थे.

इसी कारण कहा जाता है कि इनकी निंदा करने वाले भी उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते थे. निंदा करने वाले भी इनसे क्षमा मांग लेते थे. इनकी बुराई करने वाले भी इनके भक्त बन गए थे. भक्ति में भगवत कथा का प्रचार करते हुए आगे बढ़ते थे. धर्म का सबको उपदेश करते व परमार्थ मार्ग को आलोकित करते थे. अधर्म का खंडन करते हुए तुकाराम जी ने अपना सारा जीवन व्यतीत किया.

तुकाराम जी द्वारा रचित रचनाएं

संत तुका राम जी ने अनेक भक्ति रचनाएं निर्मित की थी. तुकाराम जी ने जो भी गाया वह उनके मन की अभिव्यक्ति थी. मन की अभिव्यक्ति ‘अभंग’ वाणी के रुप में सभी के सामने आती है. अभंग का अर्थ होता है वह गीत जो भगवान विट्ठल या विठोबा की स्तुति में छंद रुप में गये गए. महाराष्ट्र के संतों ने समाज को जागृत करने के लिए जो छंद क्षेत्रीय भाषा में गाये, उन्हें ही अभंग के नाम से जाना गया है.

अभंग के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई विशेष साहित्यिक कृति का पता नहीं चल पाता है. इनके द्वारा गाए गए भक्ति गीतों को इनके शिष्यों ने ही आगे बढ़ाया और उन्हें लिखा. माना जाता है कि संत ज्ञानेश्वर और श्री एकनाथ द्वारा जो रचनाएं रचि गयी थी उनका प्रभाव संत तुकाराम जी की भाषा में बहुत अधिक दिखाई दिया. ज्ञानेश्रवरी रचना और एकनाथी भागवत ग्रंथों की छाप इनके विचारों पर स्पष्ट रुप से दिखाई देती है.

संत तुकाराम जी के विचार

संत तुकाराम जी ने अपनी भक्ति वाणी द्वारा लोगों के जीवन की निराशा और अधंकार को दूर करने की बहुत कोशिश की. वह हमेशा इस बात पर अधिक जोर देते थे कि सभी लोग उस एक ईश्वर की संताने हैं. इस कारण सभी समान है. किसी में कोई भेद भाव नही हो सकता है. उन्होंने धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

संत तुकाराम जी को महाराष्ट्र धर्म का प्रचारक माना गया है. इनके सिद्धांतों के द्वारा भक्ति आंदोलन को एक तीव्रता प्राप्त हुई. तुकाराम जी का तत्कालीन सामाजिक विचारधारा पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है. जाति और वर्णव्यवस्था पर कुठाराघात करते हैं. समानता के सिद्धांत के द्वारा वर्णव्यवस्था को लचीला बनाने में इनका योगदान सदैव ही यादगार रहेगा.

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इंदिरा एकादशी 2024, इंदिरा एकादशी व्रत कब और क्यों किया जाता है

आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को इंदिरा एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस वर्ष में इंदिरा एकादशी का व्रत 28  सितंबर 2024 को शनिवार के दिन संपन्न होगा.

इंदिरा एकादशी के दिन भगवान श्री विष्णु का पूजन होता है. इस दिन एकादशी के लिए व्रत किया जाता है. इंदिरा एकादशी व्रत करने से सभी कष्ट और पापों का नाश होता है. एकादशी व्रत करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को दशमी तिथि के दिन से ही आरंभ करने का विधान बताया गया है. इंदिरा एकादशी में कुछ नियमों का पालन करते हुए व्रत करने पर राजसूर्य यज्ञ के समान फल की प्राप्ति होती है.

इंदिरा एकादशी में क्या करें

  • इंदिरा एकादशी के दिन प्रात: काल उठ कर श्री विष्णु जी का ध्यान करना चाहिए.
  • एकादशी के दिन लकड़ी से दातुन करने का विधान बताया गया है. इस दिन लकड़ी न मिल पाने के कारण नींबू, जामुन या आम के पत्तों द्वारा ही मुख को साफ करना चाहिए.
  • इस दिन पर वृक्षों से पत्ते तोड़ना मना होता है इसलिए पेड़ से स्वत: ही गिरे हुए पत्तों का उपयोग मुख साफ करने के लिए किया जाता है.
    इस दिन स्नान के लिए पवित्र नदियों, सरोवरों या कुण्ड का उपयोग किया जाना अत्यंत उत्तम होता है.
  • यदि स्नान के लिए यह स्थान न मिल पाए तो घर पर ही स्नान करना उत्तम होता है.
  • एकादशी के दिन गीता पाठ करना चाहिए.
  • एकादशी की रात्रि को जागरण और कीर्तन किया जाता है.
  • तुलसीदल को भगवान के भोग में अवश्य रखना चाहिए.
  • व्रत धारण करने वाले भक्त को चाहिए की वह फलाहार का पालन करे.
  • बादाम, पिस्ता, केला, आम इत्यादि मौसमी फलों का सेवन कर सकते हैं.
  • द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्ठान्न, दक्षिणा देना चाहिए.

इंदिर एकादशी में क्या नहीं करें

  • एकादशी के दिन किसी भी प्रकार के तामसिक भोजन का सेवन करना मना है.
  • इंदिरा एकादशी के दिन भोग-विलास से दूर रहना चाहिए.
  • एकादशी के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए.
  • एकादशी के दिन घर में झाड़ू नहीं लगाना चाहिए.
  • एकादशी के दिन बाल कटवाना, दाढ़ी बनाना इत्यादि कार्य नहीं करने चाहिए.
  • एकादशी के दिन जितना संभव हो मौन का धारण करना चाहिए.
  • इस दिन झूठ बोलना, निंदा करना, चोरी करना इत्यादि जैसे कृत नहीं करने चाहिए.
  • अधिक नहीं बोलना चाहिए, क्रोध नहीं करना चाहिए. मधुर वचन ही बोलने चाहिए.

इंदिरा एकादशी कथा

इंदिरा एकादशी की कथा के विषय में महाभारत पर्व में कहा गया है. महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर भगवान मधुसूदन श्री कृष्ण से पूछते हैं, कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को किस नाम से पुकारा जाता है. इस दिन व्रत करने से किन फलों की प्राप्ति होती है. इस एकादशी की कथा क्या है, इन सभी रहस्यों को आप मेरे समक्ष कहें. युधिष्ठिर के वचन सुन श्री कृष्ण उनके सामने इंदिरा एकादशी की कथा और उसके महात्म्य को व्यक्त करते हैं.

प्राचीनकाल में महिष्मति नाम की एक नगरी थी. इस नगरी में इंद्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा राज्य करता था. इंद्रसेन एक अत्यंत धार्मिक प्रवृति का था. धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करता था. राजा के पुत्र, पौत्र सभी थे. सभी सुख और धन आदि से संपन्न थे. इंद्रसेन राजा, भगवान श्री विष्णु का परम भक्त भी था. एक बार राजा सभा में बैठे हुए थे. उस समय महर्षि नारद उनकी सभा में आते हैं. राजा उन्हें सम्मान के साथ स्थान देते हैं और उनके आने का प्रयोजन पूछते हैं.

नारद मुनि, राजा से कहते हैं की आपका राज्यकाल और आपके कार्य सभी कुशलता पूर्वक तो हो रहे हैं. आपका ध्यान विष्णु भक्ति में लगा रहता तो है. नारद के कथन सुन कर राजा उन्हें प्रणाम करते हुए कहते हैं – हे मुनि नारद जी आपकी कृपा से मेरा राज्य कुशल मंगल है. मैं धर्म पूर्वक सभी कार्यों को भी कर रहा हूं. मेरे राज्य में यज्ञ कर्म अनुष्ठान सदैव होते रहते हैं. राजा के वचन सुन ऋषि नारद कहते हैं कि हे राजन!

मैं एक समय जब यमलोक को गया, तो उस स्थान पर मैने तुम्हारे पिता को देखा. यमराज की सभा में धर्मात्मा तुम्हारे पिता को एकादशी का व्रत भंग होने के कारण ही वहां देखा. तुम्हारे पिता ने मुझे तुम तक संदेश पहुंचाने को कहा है. उन्होंने संदेश दिया है कि पूर्व जन्म में किसी व्यवधान के कारण मैं यमराज के समक्ष यम लोक में रह गया हूं. सो हे पुत्र यदि तुम आश्विन माह के कृष्ण पक्ष में आने वाली इंदिरा एकादशी का व्रत मेरे लिए कर सको तो मुझे यमलोक से मुक्ति प्राप्त हो और स्वर्ग की प्राप्ति संभव हो पाएगी.

नारद के मुख से अपने पिता का यह वचन सुन राजा इंद्रसेन अपने पिता की मुक्ति के लिए व्रत करने को आतुर होते हैं. राजा नारद से इंदिरा एकादशी व्रत की विधि पूछते हैं. महर्षि नारद, राजा को व्रत की विधि के विषय में सविस्तार से बताते हैं. आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन से ही एकादशी के व्रत के नियम को धारण करना चाहिए. दशमी के दिन से ही श्रद्धापूर्वक भगवान का स्मरण करना चाहिए. दशमी रात्रि समय सभी प्रकार की भोग विलास और तामसिक वस्तुओं को त्याग कर भक्ति का आचरण करना चाहिए.

एकादशी के दिन पवित्र नदी, सरोवर अथवा घर पर ही स्नान कार्य संपन्न करना चाहिए. श्रद्धापूर्वक पितरों का श्राद्ध करना चाहिए. एकादशी व्रत का पालन करना चाहिए. व्रत के नियमों को भक्तिपूर्वक करते हुए व्रत संपन्न करना चाहिए.

नारद जी से व्रत की विधि जानकर राजा ने इंदिरा एकादशी व्रत की प्रतिज्ञा धारण करी. नारदजी के कथनानुसार राजा द्वारा अपने बांधवों सहित व्रत का पालन करता है. व्रत के शुभ प्रभाव से उनके पिता को विष्णु लोक की प्राप्ति संभव हो पाती है. एकादशी व्रत के प्रभाव से राजा इंद्रसेन भी सुख पूर्वक राज्य का भोग करते हुए अंत में स्वर्गलोक को पाते हैं.

इंदिरा एकादशी महत्व

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं इंदिरा एकादशी व्रत की महिमा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “ हे युधिष्ठिर, आश्विन मास की एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी होता है. इस एकादशी पापों को नष्ट करने वाली होती है. यह पितरों को भी मुक्ति देने वाली होती है. एकादशी कथा सुनने मात्र से ही वायपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है. पापों का नाश होता है और शुभ फलों की प्राप्ति होति है.

इसलिए इंदिरा एकादशी के दिन अवश्य ही शुभ कर्मों का निर्वाह करना चाहिए. सभी प्रकार से भगवान क अपूजन और स्मरण करना चाहिए. यह व्रत सभी सुखों को प्रदान करने वाला ओर पापों का शमन करने वाला होता है. “ राज सुख देता है”.

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महेश्वर व्रत 2024 : जानें क्यों किया जाता है महेश्वर व्रत

फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को महेश्वर व्रत करने का विधान है. इस वर्ष महेश्वर व्रत 24 मार्च 2024 को रविवार के दिन किया जाएगा. महेश्वर भगवान शिव का ही एक अन्य नाम है. इस दिन भगवान शिव का पूजन करना अत्यंत शुभ एवं फलदायी माना गया है. फाल्गुन माह में भगवान शिव के पूजन की विशेष महिम का वर्णन हमे पुराणों में प्राप्त होता है. इस माह में आने वाले प्रमुख पर्वों में से एक पर्व महेश्वर व्रत का भी है. इस दिन व्रत का धारण करने का नियम भी होता है.

फाल्गुन मास की चतुर्दशी तिथि के दिन स्नान आदि करने के उपरांत पूजा आरंभ होती है. शिव जी की प्रतिमा को स्नान कराकर पुष्प, अक्षत, रोली, धूप, दीप, बेल पतों को अर्पित करते हुए पूजा करनी चाहिए. महेश्वर व्रत पूजा के दिन में श्रद्धालु भक्त पवित्र नदियों में स्नान करते हैं. स्नान के पश्चात सुर्य को अर्घ्य देने के बाद दीप प्रज्वलित किया जाता है. महेश्वर व्रत पूजा में स्नान, दान, होम और उपासना आदि का अनन्त फल प्राप्त होता है. इसलिए इसमें दान करने से अनेक यज्ञों के समान फल मिलता है.

महेश्वर व्रत फल

जो स्त्री-पुरुष इस व्रत को पूरे विधि विधान से करते हैं, उन्हें शिवलोक प्राप्त होता है. इसके बाद अच्छे कुल में मनुष्य रूप में जन्म लेता है. इस व्रत का पालन करने पर स्त्रियों को सौभाग्य की प्राप्ति होती है. जीवन साथी का सुख प्राप्त होता है और दांपत्य जीवन के सुख में वृद्धि होती है.

महेश्वर व्रत के संदर्भ में अनेक कथाएं प्रचलित हैं. जिनमें से से कुछ के अनुसार भगवान शिव बिना किसी निवास स्थान के रहते हैं. पर पार्वती के साथ विवाह उपरांत वह गृहस्थ जीवन में आते हैं. उन्हें निवास स्थान चुनना पड़ता है. इस प्रकार एक वैरागी से गृहस्थ जीवन की ओर प्रवेश का स्वरुप ही इस व्रत की कथा को दर्शाता है.

भगवान शिव के महेश्वर स्वरुप का व्रत एवं पूजन 12 वर्षों तक करने तक व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है. महेश्वर व्रत का आधार त्रयोदशी की रात्रि से आरंभ हो जाता है. इस दिन से ही शुद्धता एवं ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए. सृष्टि के कण-कण में विराजमान भगवान महेश्वर का अशीर्वाद पाना अत्यंत ही सुलभ एवं सहज कार्य होता है. भगवान शिव का महेश्वर रूप भक्तों का कल्याण करता है.

महेश्वर व्रत पूजा

भगवान महेश्वर को शिवलिंग रुप में या प्रतिमा रुप में जैसे भी चाहें पूजन किया जा सकता है. विशेष रुप से शिवलिंग रुप में पूजन करने समस्त कामनाओं की पूर्ति कराती है. शिव का साक्षात स्वरुप शिवलिंग में विराजमान माना गया है. भगवान महेश्वर के पूजन में रुद्राभिषेक को अत्यंत ही विशेष पूजन माना गया है. भगवान शिव पर किया गया जलाभिषेक शिव को अत्यंत प्रिय होता है.

भगवान शिव पर जल का अभिषेक करने के लिए शुद्ध जल में गंगा जल मिला कर करने से अत्यंत शुभदायक माना गया है. सभी परेशानियों में शिव अभिषेक करना अत्यंत ही चमत्कारिक उपाय माना गया है. महेश्वर के अभिषेक की विधि प्राचीन काल से ही चली आ रही है. पुराणों में इस विधि का विस्तार पूर्वक उल्लेख भी किया गया. भगवान महेश्वर के अभिषेक में अनेक वस्तुओं का उपयोग किया जाता है जो अलग अलग रुप में अपना फल देने के लिए अत्यंत महत्वपुर्ण मानी गई हैं.

भगवान शिव का अभिषेक करते समय शिव पंचाक्षरी मंत्र का जाप करना चाहिए. भगवान शिव को बेल पतों को अर्पित करना सभी पापों का नाश करने वाला होता है.

महेश्वर व्रत पर करें शिव मंत्रों का जाप

महेश्वर व्रत के दिन भगवान शिव के मंत्रों का जाप अवश्य करना चाहिए. महेश्वर मंत्र भगवान शंकर को प्रसन्न करने का अत्यंत सरल और अचूक मंत्र है. इस मंत्र का रुद्राक्ष की माला से जाप करना उत्तम होता है. उत्तर दिशा की ओर मुख करके ही मंत्र का जाप करना चाहिए. जाप करने से पहले शिवलिंग पर बेल-पत्र अर्पित करना चाहिए. शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिए. यह महेश्वर मंत्र अमोघ एवं मोक्षदायी होता है. महेश्वर व्रत के दिन भक्त पर कठिन व्याधि या समस्या आन पड़े तब श्रद्धापूर्वक इस मंत्र का जप करना चाहिए. यह बड़ी से बड़ी समस्या और विघ्न को टाल देता है.

मंत्र:

“ओम तत्पुरुषाय विदमहे, महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्।”

“ॐ नमः शिवाय शुभं शुभं कुरू कुरू शिवाय नमः ॐ”

वृषभ दान महत्व

महेश्वर व्रत के दौरान वृषभ दान को एक अत्यंत ही प्रभावशाली और महत्वपूर्ण दान माना गया है. वृषभ-दान पवित्र और दानों में सबसे उत्तम दान बताया गया है. इस दिन एक स्वस्थ और पुष्ट वृषभ(बैल) के दान का फल, दस गायों के दान से भी अधिक माना गया है. शुभ लक्षण सम्पन्न वृषभ को दान करने से दान देने वाले व्यक्ति के कुल का उद्धार होता है. वृषभदान के महत्व का वर्णन भविष्यपुराण में भी किया गया है. वृषभ दान के दिन वृषभ की पूंछ में चांदी लगाकर. उसे सुंदर तरीके से सजाकर. आभुषणों से अलंकृत करना चाहिए. उसके पश्चात शुद्ध प्रसन्नचित मन से किसी योग्य ब्राह्मण को दक्षिणा के साथ उस वृषभ का दान करना चाहिए. ब्राह्मणों को दान करने के उपरांत प्रार्थना करनी चाहिए कि उसके सभी पापों का नाश हो सके. इस प्रकार उत्तम रुप से वृषभ का दान करने वाले व्यक्ति के किए गए पापों का प्राश्चित होता है और शुभ कर्मों में वृद्धि होती है.

महेश्वर व्रत का पौराणिक महत्व

भगवन शिव और माता पार्वती की अर्चना कर दीपदान करने से पुनर्जन्मदि का कष्ट नहीं होता है. इस दिन भगवान शिव का दर्शन किया जाए तो अनेक जन्मों तक व्यक्ति वेद-ज्ञानी और धनवान होता है. लिंग पुराण व ब्रह्मपुराण के अनुसार इस दिन वृषदान करने से शिवपद की प्राप्ति संभव होती है. इसके अलावा जो भी सामर्थ्य अनुरुप दान किया जाए तो संपति बढ़ती है. मान्यताओं के अनुसार इस पुण्य तिथि को भगवान शंकर ने राक्षस का संहार करके भक्तों क अकल्याण भी किया था. इस दिन संध्या समय मंदिरों में दीपक जलाए जाते हैं. शिव पूजन और शिव कथा कथा की परंपरा है. सांयकाल के समय देव मंदिरों, चौराहों, गलियों और बड़ के वृक्ष के पास दीपक जलाते हैं.

फाल्गुन माह के शुक्ल चतुर्दशी को उपवास तथा शिव पूजन करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है. विष्णुधर्मोत्तर ग्रंथ के अनुसार इस व्रत का फल अत्यंत ही शुभदायी होता है. इस व्रत को करने से जीवन के सभी कष्ट दूर होते हैं. मोक्ष प्राप्ति का एक उत्तम मार्ग बनता है ये व्रत. “ राज सुख देता है”.

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दुर्गा पूजा, दुर्गा की शक्ति का आहवान

हिन्दुओं के प्रसिद्ध व्रत और त्यौहार में एक है दुर्गा पूजा का त्यौहार. दुर्गा पूजा का त्यौहार संपूर्ण भारत में श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाया जाता है. दुर्गा पूजा एक ऎसी शक्ति कि अराधना और साधना का समय होता है, जो समस्त सृष्टि को संचालित और नवरुप दे पाने में सक्षम है. माँ दुर्गा सिर्फ एक शक्ति ही नहीं है अपितु वह वो सामंजय से है जो सृष्टि को आगे बढ़ाने का प्रमुख आधार स्तंभ बनता है.

दुर्गा पूजा कई तरह से मनाई जाती है. दुर्गा पूजा को मासिक दुर्गाष्टमी के रुप में भी मनाया जाता है. दुर्गा पूजा को वर्ष भर में आने वाली नवरात्री के अवसर पर भी की जाती है. इसके अतिरिक्त दुर्गा का पूजन विभिन्न अवतारों के रुप में, शक्ति पीठ और महासिद्धि रुप में भी होता है.

दुर्गा पूजन क्यों किया जाता है

देवी-देवताओं की शक्ति में से एक शक्ति दुर्गा है. वेदों में भी शक्ति के स्वरुप का वर्णन प्राप्त होता है. प्रकृति रुप में विराजमान शक्ति सृष्टि के समस्त रंग को दर्शाने वाली होती है. दुर्गा पूजा का उत्सव भारत के विभिन्न हिस्सों में अलग अलग रुप से मनाया जाता रहा है. बहुत पुराने समय से चली आ रही यह पूजा आज भी अपने भव्य रुप में मौजूद है. बंगाल की दुर्गा पूजा तो विश्व भर में प्रसिद्ध है.

दुर्गा पूजा के दिन से नौ दिनों तक मां दूर्गा के नौ रूपों की पूजा कि जाती है. यह उत्सव बड़े ही जोरों शोरों से मनाया जाता है. इस समय जगह- जगह पंडाल सजाकर मां की प्रतिमा स्थापित की जाती है. यज्ञ और हवन किए जाते हैं. लोग दुर्गा पूजा पर व्रत रखते हैं. देवी दुर्गा से अपने मंगल की कामना करते हैं.

दूर्गा पूजा के दिन को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ किया जाता है. इस दिनों में महा सप्तमी, महा अष्टमी, महा नवमी और दशमी का स्वरुप बहुत ही भव्य होता है. पारम्परिक हिन्दू पंचांग के अनुसार दुर्गा पूजन के लिए घट स्थापना का मुहूर्त निर्धारित किया जाता है. इस पर्व से सम्बंधित समय को देवी पक्ष के नाम से भी पुकारा जाता है. दुर्गा पूजा का पर्व बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक रुप में भी मनाया जाता है. इस से संबंधित अनेकों कथाएं प्राप्त होती हैं जिसमें संबसे महत्वपूर्ण कथा देवी दुर्गा के राक्षस महिषासुर पर विजय के रूप में प्रस्तुत है.

दुर्गा पूजा के विभिन्न रुप

दुर्गा पूजा एक विशेष अनुष्ठान होता है. इस पर्व के समय के दौरान विशेष नियमों का पालन किया जाता है. पूजा में जितनी एकाग्रता एवं ध्यान की आवश्यकता बरती जाती है, साधना उतनी ही फलीभूत होती है. दुर्गा पूजा का उत्सव बिहार, असम, ओडिशा, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल इत्यादि में व्यापक रूप से मनाया जाता है. यहां इस समय विशेष भव्य आयोजन किए जाते हैं. यह वर्ष के सबसे महत्वपूर्ण एवं विशेष उत्सव के रुप में माना जाता है. यह न केवल सबसे बड़ा हिन्दू उत्सव है बल्कि सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण समय भी होता है.

दुर्गा पूजा विधि

  • दुर्गा पूजा के दिन व्रत करने वाले व्यक्ति को शूबह जल्दी उठकर नहाधोकर साफ वस्त्र धारण करने चाहिए.
  • पूजा स्थान पर एक चौकी को गंगा जल से शुद्ध करके उस पर लाल वस्त्र को बिछाना चाहिए.
  • जल से भरा एक कलश चौकी के साथ स्थापित करना चाहिए. कलश पर आम के पत्ते बांधने चाहिए.
  • कलश पर नारियल रखना चाहिए.
  • सर्वप्रथम गणेश जी का पूजन करना चाहिए.
  • देवी दुर्गा को कुमकुम, रोली, अक्षत से माता को तिलक लगाना चाहिए.
  • इसके बाद कलश का भी इसी तरह तिलक करके पूजन करना चाहिए.
  • हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर मां का ध्यान करते दुर्गा के मंत्रों का जाप करें. इसके बाद अक्षत और पुष्प को मां को अर्पित करना चाहिए.
  • देवी मां को फल-मेवे इत्यादि का भोग लगाना चाहिए. प्रसाद चढ़ाने के बाद सभी के बीच प्रसाद का वितरण करना चाहिए. अंत में मां से पूजा में जाने अनजाने हुई किसी भी भूल के लिए क्षमा मांगनी चाहिए.
  • दुर्गा पूजा महत्व

    दुर्गा पूजा का महत्व संपूर्ण स्थानों पर ही रहा है. चारों दिशाओं में माता का तेज व्याप्त है. जिस प्रकार देवी दुर्गा ने दुष्ट महिषासुर का नाश करके धर्म को स्थापित किया. उसी प्रकार हम सभी इस दिन दुर्गा पूजन करके अपनी बुराईयों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं. यह समय विशेष प्रकार के आनंद की प्राप्ति का होता है. जीवन में उत्साह एवं नव ऊर्जा का संचार भी होता है. दुर्गापूजा भी एक ऐसा ही त्योहार है, जो जीवन में ऊर्जा का संचार करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

    दुर्गा पूजा की तैयारियां पहले ही शुरू कर दी जाती हैं. देवी दूर्गा का भव्य श्रृंगार किया जाता है. जगह -जगह मां दुर्गा की मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. पंडालों को सजाया जाता है. दुर्गा पूजा में तरह -तरह के कार्यक्रमों का आयोजन होता है. नवरात्रि के समय नौ दिनों तक मां दूर्गा की विधि -विधान से पूजा करते हैं. दुर्गा पूजा के समय लोग मां दूर्गा की विशेष पूजा करते हैं.

    इन दिनों में मां के मंत्रों का जाप-हवन, और यज्ञ किया जाता है. यह समय सिद्धि प्राप्त करने के लिए भी विशेष माना गया है. मां की विशेष पूजा के लिए मंदिरों को सजाया जाता है. मंदिरों में मां के दर्शन हेतु भारी भीड़ उमड़ती है. साधक अपने परिवार की खुशहाली और समृद्धि के लिए मां कि आराधना करते हैं. दूर्गा पूजा के दिन कन्याओं का पूजन किया जाता है. कन्या पूजन द्वारा माँ का आर्शीवाद प्राप्त किया जाता है.

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