चंद्रमा का कुंडली प्रभाव और उसके दूरगामी परिणाम

कुंडली में एक ग्रह के रूप में चंद्रमा सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. ऎसा इस कारण होता है क्योंकि इसके गोचर की अवधी ओर इसका मानसिकता के साथ संबंध होना. जीवन के रोजमर्रा में होने वाले बदलावों को चंद्रमा की स्थिति से बहुत अधिक गहराई से जोड़ा जा सकता है. उदाहरण के लिए किसी का काम अचानक से छूट जाना,  व्यापार में हानि हुई है, रिश्ते में समस्या है, या कोई बीमारी हो जाना, इसी तरह सकारात्मक पक्ष के रुप में जीवन में कुछ प्राप्ति होना, लाभ होना इत्यादि बातें चंद्रमा के गोचर द्वारा अधिक संवेदनशील हो जाती हैं. चंद्रमा मन, स्वभाव और आंतरिक शक्ति को दर्शाता है. इस स्थिति में, अपने रोज के स्वभाव में आने वाले बदलाव, दिशाहीन होने की स्थिति जैसी बातें चंद्रमा से अधिक तारतम्य दिखाती हैं. 

चंद्रमा मन एवं दिमाग को नियंत्रित करने वाला ग्रह है, हमारी विचार प्रक्रिया, आंतरिक प्रवृत्ति को नियंत्रण में रखता है, तोअगर यह चंद्रमा मजबूत होगा तब हम सबसे खराब परिस्थितियों को भी संभाल सकते हैं लेकिन यदि  चंद्रमा कमजोर है, तो व्यक्ति दूसरों की कही बातों परिअधिक निर्भर हो जाता है. निर्णय और कार्य करने में अपने ज्ञान का उपयोग करने के बजाय व्यक्ति दूसरों से प्रभावित होने की संभावना अधिक रखता है. चंद्रमा स्त्रियों के साथ आपका संबंध, खाने की आदतें, सोने की आदतें, नियमित काम और इसी तरह के कई व्यक्तिगत छोटे छोटे फैसलों पर भी अपना असर डालता है. कुंडली में चंद्रमा की खराब स्थिति के साथ यह सबसे बड़ा मुद्दा है. यदि सूर्य शक्ति और अधिकार प्रदान करता है, तो चंद्रमा इस शक्ति और अधिकार का सर्वोत्तम उपयोग करने के लिए मन और विचार प्रक्रिया को नियंत्रित करता है. चंद्रमा दर्शाता है कि हम आंतरिक रूप से क्या हैं 

चंद्रमा का जन्म और पूनर्जन्म महत्व 

जन्म कुंडली में चंद्रमा के महत्व को प्राचीन काल से अच्छी तरह से समझा जाता रहा है. मुख्य रुप से जन्म कुंडली में सूर्य कुंडली और चंद्र कुंडली पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है. अधिकार, शक्ति, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की आवश्यकता है, लेकिन इसके साथ एक उचित मनोवैज्ञान की भी और यही चंद्रमा व्यक्ति को प्रदान करता है. कुंडली में चंद्रमा की भूमिका  जीवन में आने से शुरू हो जाती है. जन्म कुंडली में चंद्रमा जीवन में देखभाल करने वाली बुद्धि, रोग, सामान्य खुशी, दिल और स्त्रियों कई चीजों को दर्शाता है. जन्म कुंडली में चंद्रमा का महत्व  जीवन की शुरुआत में मिलने वाले पोषण को दर्शाने के लिए भी है. जन्म कुंडली में चंद्रमा की भूमिका और इसकी स्थिति पिछले जन्मों के सभी अच्छे और बुरे कर्मों का प्रभाव भी है.

ज्योतिष में चंद्रमा की भूमिका

ज्योतिष में चंद्रमा सूर्य के बाद मानव जीवन को सीधे प्रभावित करने वाला दूसरा सबसे महत्वपूर्ण ग्रह है. सभी ग्रहों में चंद्रमा पृथ्वी को सबसे निकट रुप से प्रभावित करता है. चंद्रमा का नकारात्मक एवं सकारात्मक प्रभाव जीवन पर तत्काल पड़ता है. ज्योतिष में चंद्रमा की भूमिका कई तरह से देखी जाती है. ज्योतिष में चंद्रमा की समग्र भूमिका काफी गहरे रुप से प्रभावित करने वाली है. चिकित्सा विज्ञान ने भी मानव जीवन में चंद्रमा की भूमिका की पहचान की है. किसी व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य, विशेष रूप से मंदबुद्धि लोगों या पागलखानों में रहने वाले लोगों को देखने के लिए इसे सबसे महत्वपूर्ण ग्रह के रूप में लिया जाता है. ज्योतिष में चंद्रमा की भूमिका को तब समझा जा सकता है जब  चंद्र कुंडली पर ध्यान केंद्रित करते हैं. चंद्र नक्षत्र का उपयोग अच्छे मुहूर्त और नामकरण को जानने के लिए किया जाता है, और जन्म के चंद्रमा से सभी मुख्य ग्रहों की स्थिति को विभिन्न ज्योतिषीय विश्लेषण और भविष्यवाणियों के लिए देखा जाता है.

अलग-अलग भावों में चंद्रमा की स्थिति से चंद्रमा की भूमिका देखी जाती है. तो, आइए हम कुंडली में अलग-अलग घरों में चंद्रमा की भूमिका पर एक नजर डालते हैं.

चंद्रमा व्यक्ति के व्यक्तित्व को दर्शाता है. चंद्रमा गर्भाधान, बच्चे के जन्म और पशु प्रवृत्ति पर असर डालता है. वह माता, माता के परिवार, दादी, बूढ़ी महिलाओं, नौवाहन, कृषि भूमि, प्रेम, दया, मानसिक शांति, हृदय, दूसरों के कल्याण के लिए दी गई सेवाओं और चौथे भाव का प्रतिनिधित्व करती है. चंद्रमा का प्रभाव जीवन के कई पड़ावों पर असर डालता है.  इसी प्रकार इसका पहला चक्र चौबीसवें वर्ष में, दूसरा चक्र उनिचासवें वर्ष में और तीसरा चक्र जातक के चौरानवें वर्ष में पड़ता है. बृहस्पति, सूर्य और मंगल चंद्रमा के मित्र हैं, जबकि शनि, राहु और केतु उसके शत्रु हैं. वृष राशि के द्वितीय भाव में उच्च का होता है और वृश्चिक राशि में अष्टम भाव में नीच का हो जाता है.

विभिन्न घरों में चंद्रमा का प्रभाव

चंद्रमा कुंडली के बारह घरों पर अपना असर डालता है यह प्रभाव उसके गोचर के दोरान होता है. इसके अलग जन्म कुंडली में चंद्रमा की स्थिति कौन से स्थान भाव पर होती है राशि पर होती है यह सब बातें कुंडली के अनुरुप चंद्रमा के प्रभावों को दिखाने वाली होती हैं. जन्म कुंडली में जब चंद्रमा पहले भाव स्थान पर होता है तो यह उसकी काफी विशेष स्थिति होती है, इसके उलट चंद्रमा जब अष्टम में होता है तो अपने प्रभाव में अलग असर दिखाता है. लग्न आपके शारीरिक व्यक्तित्व, जीवन शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है. चंद्रमा भावनात्मक जुड़ाव और प्रतिक्रिया दिखाता है. पहले भाव में चंद्रमा स्वास्थ्य-चेतना, एक सुंदर और युवा रूप, और गोल-मटोल गोल चेहरे के साथ  साफ रंग देता है. प्रथम भाव में चंद्रमा का प्रभाव व्यक्ति को देखभाल करने वाला और मातृ भाव को प्रदान करता है. 

पहले भाव, दूसरे भाव, तीसरे भाव, चतुर्थ भाव, पंचम भाव, सप्तम भाव और नवम भाव में स्थित होने पर चंद्रमा बहुत अच्छे परिणाम देता है जबकि छठे भाव, आठवें भाव, एकादश भाव और द्वादश भाव में चंद्रमा को खराब परिणाम वाला माना जाता है. दुधारू पशु या घोड़े की मृत्यु, तालाब का सूखना, छूने और महसूस करने की इंद्रियों का खो जाना चंद्रमा के अशुभ होने के लक्षण होते हैं. चतुर्थ भाव में केतु की स्थिति मातृ ऋण का कारण बनता है. 

इसी प्रकार अलग अलग भावों में चंद्रमा का होना तथा कुंडली में बनने वाले ग्रहों के साथ उसका गठ जोड़ कैसा रहेगा यह सभी बातें कुंडली पर चंद्रमा के असर के लिए विशेष महत्व रखने वाली होती हैं. 

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जन्म कुंडली से कैसे जाने पुनर्जन्म का संबंध

वैदिक ज्योतिष कर्म और पुनर्जन्म के दर्शन पर आधारित है. जन्म कुंडली द्वारा व्यक्ति अपने जीवन और कर्म सिद्धांत की स्थिति को काफी गहराई के द्वारा जांच सकता है. जन्मों की इस यात्रा को समझने में ज्योतिष हमारी बहुत मदद कर सकता है. इसके ज्ञान के द्वारा कर्मों के सिद्धांत को शुभता प्रदान कर लेना भी बहुत बेहतर है. हम वह हैं जो आप अपने पिछले कई जन्मों के कारण हैं, और अभी के द्वारा किए गए काम आने वाले कर्मों का निर्धारण करते चले जाते हैं. इस जन्म में हमारे सुख दुख पुर्व में किए गए हमारे वो कृत्य हैं जिनके फल का निर्धारण इस जन्म में हमें प्राप्त होता है. जन्म कुण्डली में कर्म के निर्धारण के लिए कुंडली के कुछ भाव विशेष रुप से देखे जाते हैं. इन में से विशेष रुप से पंचम भाव, नवम भाव को मुख्य स्थान प्राप्त होता है. इसके अतिरिक्त छठा भाव और द्वादश भाव भी इसके अन्य पहलुओं के लिए विशेष होता है. कर्म एक व्यक्ति के कार्यों से उत्पन्न बल है. कर्म के नियम के दौरान, न्याय की अभिव्यक्ति स्पष्ट रुप से देखने को मिलती है. अपने अच्छे कार्यों के लिए अच्छा मिलता है लेकिन अपने पिछले जन्मों में इन अच्छे कर्मों को करने के द्वारा अर्जित गुणों के माध्यम से अपना अच्छा बुरा प्राप्त करते हैं.  

अच्छे फलों एवं मोक्ष को प्राप्त करने के लिए, एक व्यक्ति को तब तक कई जन्म लेने पड़ते हैं जब तक कि वे अपने बुरे कर्मों से मुक्त नहीं हो जाते.  इस जन्म में हम जो भी कुछ हैं वो अपने पिछले जन्मों के इन अनुभवों के कारण हैं. हमारी आत्मा की चेतना विभिन्न जीवन काल में हमारे अनुभवों से ढाली जाती है.संचित कर्म पिछले जन्मों के संचित अच्छे और बुरे कर्मों का प्रतिनिधित्व करता है जो पहले से ही परिपक्व हो चुके हैं और उन परिस्थितियों में उनका प्रभाव है जिनमें एक का जन्म हुआ है. यह कर्म हमारे जन्म के समय के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है और इसलिए इस जीवनकाल में हमें जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है वह सभी उन्हीं संचित कर्मों का प्रभाव होता है. कुछ लोग मानसिक या शारीरिक अक्षमताओं के साथ पैदा होते हैं जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता और कुछ महान प्रतिभाओं के साथ पैदा होते हैं जो बहुत कम उम्र में चमक जाते हैं. 

जन्म कुण्डली में संचित कर्म को चौथे भाव, छठे भाव, आठवें भाव और बारहवें भाव द्वारा दर्शाया गया है, यह भाव गहरे और छिपे हुए अर्थों और प्रभावों का प्रतिनिधित्व करते हैं. जीवन के आराम, मृत्यु और से संबंधित इन भावों के द्वारा व्यक्ति के कर्मों को जाना जा सकता है.  

जन्म कुंडली में कर्म भाव और उसकी स्थिति 

जन्म कुण्डली में संचित कर्म को चौथे भाव, छठे भाव, आठवें भाव और बारहवें भाव द्वारा दर्शाया गया है, यह भाव गहरे और छिपे हुए अर्थों और प्रभावों का प्रतिनिधित्व करते हैं. जीवन के आराम, मृत्यु और से संबंधित इन भावों के द्वारा व्यक्ति के कर्मों को जाना जा सकता है.  

जन्म कुडली में दूसरे भाव, छठे भाव, दशम भाव को धन, दैनिक कार्य, स्वास्थ्य, लेनदारों, करियर और व्यक्तिगत स्थिति का प्रतिनिधित्व करता है. इन भावों को देखना होता है ताकि व्यक्ति पर इस कर्म के भौतिक और सांसारिक प्रभावों का विश्लेषण किया जा सके. जन्म और परिस्थितियों की स्पष्ट असमानताओं का कारण तब स्पष्ट हो जाता है जब यह स्वीकार कर लिया जाता है कि आज की हमारी परिस्थितियाँ पूर्व में लिए गए निर्णयों और कार्यों का परिणाम हैं. प्रारब्ध कर्म पिछले जन्मों से लाए गए अधूरे लेन-देन का प्रतिनिधित्व करता है जिसे इस जीवन काल में निपटाने की आवश्यकता है. यह कर्म पंचम भाव पूर्व पुण्य के फलों को दिखाता है. यह लग्न भाव, पंचम और नवम भाव कर्मों के लिए काफी विशेष होता है. 

इस कर्म पर व्यक्ति का एक निश्चित मात्रा में नियंत्रण होता है क्योंकि यह अभी पूरी तरह से गठित नहीं हुआ है. राहु और केतु दो कर्म ग्रह हैं जो इस कर्म को उकसाते हैं.  केतु आगे लाए गए कर्म ऋण का प्रतिनिधित्व करता है और राहु दर्शाता है कि यह कैसे पूरा होने की संभावना है. राहु कुछ लोगों को अचानक ऊपर उठाने में एक प्रमुख भूमिका निभाता है. 

शनि और पुनर्जन्म का संबंध 

प्रथम भाव में शनि का कार्य बहुत विशिष्ट है, इनकी लग्न राशि में सबसे नीच दिग्बल होता है. तो यहां शनि हमें अपने कर्म को बहुत अधिक प्रभावित प्रभावित करते हैं यहां शनि जीवन को पूर्ण रुप से बदल देने के लिए काफी महत्व रखता है. शनि का आप अपने आप को अभिव्यक्त करने से डर सकते हैं बाधित हो सकते हैं, नई चीजें सीखना मुश्किल है, मित्रतापूर्ण, आत्मविश्वास की कमी, सामान्य ज्ञान की कमी आदि. यह असर पिछले जन्मों में शक्ति के दुरुपयोग को अधिक दिखाता है. इसमें जरुरी है कि अब इस कर्म में जीवन को संतुलन करना सीखना होगा. जब आप इसे समझ जाते हैं, तो आप जीवन में अपने लक्ष्यों के लिए व्यवस्थित रूप से काम कर पाते हैं. अपने आप को एकांत में रहने से बचना चाहिए क्योंकि इससे नकारात्मकता अधिक असर डाल सकती है. समस्याएं लगभग हमेशा मौजूद रहती हैं लेकिन उन्हें हल करने का प्रयास करना और  विनम्र होकर सीखने के लिए तैयार रहना चाहिए. 

चतुर्थ भाव और शनि का पुनर्जन्म संबंध 

चतुर्थ भाव में शनि का होना अपने घर से संबंधित अधिक कर्तव्यों को दिखाता है. ऎसा इसलिए करने की आवश्यकता है क्योंकि पिछले जन्म में परिवार की उपेक्षा या परित्याग के कारण इस जीवन में उनके सुख को पाने में कमजोर हो जाते हैं. ऎसे में भावनात्मक सुख, आराम, सुरक्षा आदि के मामलों में हमें अधिक सहयोग नहीं मिल पाता है. अकेलेपन की भावना बहुत ज्यादा तनाव देगी. इन चीजों से बचाव के लिए ही जिम्मेदार होना होगा. नियमित आध्यात्मिक चीजों के प्रति आस्था रखनी होगी. नैतिकता का सख्ती से पालन करना होगा जिससे शनि कर्म की शुभता को प्रदान करें. 

छठे भाव और शनि का पुनर्जन्म संबंध 

छठे भाव में शनि, का होना व्यक्ति को बहुत सी चुनौतियों से प्रभावित करता है. शनि मुख्य रूप से बीमार, कर्ज, शत्रु के द्वारा इस घर में होकर प्रभावित करने वाला होता है. शनि का प्रभाव छठे घर में उथल-पुथल से डरता है. इनसे बचने के लिए सक्रिय सावधानी बरतनी चाहिए. 

जब शनि की स्थिति इन घरों में होती है तो कर्म का सिद्धांत विशेष रुप से काम करता है. शनि की स्थिति जब यहां हो तो अपने कर्मों में अब बदलाव की आवश्यकता होती है. 

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शनि के साथ बृहस्पति का योग कुंभ राशि में होंगे दूरगामी प्रभाव

ज्योतिष अनुसार खगोलिय एवं ग्रह गोचरीय दोनों दृष्टिकोण से यह घटना क्रम काफी महत्वपूर्ण माने गए हैं. इन दोनों ग्रहों का मेल जब एक साथ होता है तो इसमें ज्ञान के विस्तार के साथ साथ कई चीजों में आगे बढ़ने के मौके मिलते हैं. खगोलीय रूप से एक राशि ग्रह योग तब होता है जब दो ग्रह आकाश में एक दूसरे से मिलते हुए दिखाई देते हैं. बृहस्पति और शनि हर 20 साल में मिलते हैं, ज्योतिषियों के लिए, आश्चर्यजनक रूप से, यह बहुत बड़ा घटना क्रम होता है. बृहस्पति और शनि बाहरी ग्रह हैं, और धीमी गति से चलते हैं. इस प्रकार, उनका व्यापक पैमाने पर प्रभाव भी डालते हैं. 

बृहस्पति को आशा, विस्तार, खुशी, विकास और चमत्कार का ग्रह कहा जाता है; शनि, इसके विपरीत, रुकावट, जिम्मेदारी और दीर्घकालिक इंतजार और शिक्षा  सबक से जुड़ा है. जब ये ऊर्जाएं गठबंधन करती हैं, तो कुछ नया होने की उम्मीद कर सकते हैं. इन दोनों ग्रहों का मिलना विचारों, संभावनाओं और उनकी अभिव्यक्ति की धारणा को एक नए तरीके से बढ़ने के लिए प्रेरित करता है. कला, संगीत, रंगमंच, साहित्य, मनोरंजन, भोजन, संगीत, गणित, विज्ञान, राजनीति और सरकार इन सभी पर इस योग का असर जरुर पड़ता है. 

इन दोनों ग्रहों का प्रभाव जिस भी राशि में होता है उसके अनुसार फल मिलते हैं यह संयोग कुम्भ राशि में होने पर नवाचार, मानवतावाद और स्वतंत्रता का प्रतीक बनता है, जहां ग्रह 1405 के बाद से नहीं मिले हैं इसे हम ठीक पुनर्जागरण की शुरुआत के आसपास देखते हैं. अपने आप में उल्लेखनीय होगा, लेकिन उससे भी ऊपर कुम्भ एक वायु राशि है, जो बौद्धिक, संचार में अनुकूल  और आदर्शवादी होने के लिए जानी जाती है. पिछली एक लम्बे समय तक के लिए, बृहस्पति-शनि युति ज्यादातर पृथ्वी तत्व वाली राशियों में हुई है, जो व्यावहारिक और प्रकृति द्वारा आधारित हैं. अब आगे चलकर अगले दो सौ वर्षों तक या इसके आसपास, वे केवल वायु राशियों में मिलेंगे. इस परिवर्तन को किसी बड़े बदलाव के रूप में संदर्भित कर सकते हैं स्थिर पृथ्वी ऊर्जा से आविष्कारशील वायु ऊर्जा तक देखने को मिलेगी. 

शनि और बृहस्पति का योग एक लम्बे समय पर होता है. बृहस्पति को लाभ, आशा, विश्वास, विकास और विस्तार का प्राकृतिक सूचक माना गया है. दूसरी ओर, शनि अशुभ होने के कारण प्रतिबंधों, देरी, सीमाओं, रुकावटों और निराशावाद को दर्शाता है. इनके स्वभाव के विपरीत होने से जब एक साथ होते हैं तो एक संघर्ष पैदा होता है. बृहस्पति प्रतिबंधात्मक शनि के प्रभाव में पीड़ित महसूस करता है रूढ़िवादी और प्रतिबंधात्मक शनि के साथ योग में बृहस्पति किसी की पारंपरिक मान्यताओं और धार्मिक झुकाव का कारक होने के नाते एक ऐसे व्यक्ति को दिखा सकता है जो हठधर्मी और कट्टर हो सकता है. शनि बृहस्पति की स्वाभाविक रूप से स्वीकार करने और क्षमा करने की प्रकृति को प्रतिबंधित करता है, एक व्यक्ति को दूसरे के दृष्टिकोण से चीजों को देखने में असमर्थ बनाता है और इसलिए असहिष्णु और कभी-कभी हद तक को पार कर जाता है. यह एक सख्त दमनकारी अनुशासक बना सकता है, जो अपने अधीन लोगों पर अपना अनुशासन थोपता है. व्यक्ति अत्यधिक अंतर्मुखी भी हो सकता है 

शनि के साथ बृहस्पति कार्यक्षेत्र को कैसे करता है प्रभावित 

शिक्षण, सलाह, परामर्श आदि जैसे बृहस्पति के गुण व्यक्ति को ऎसे ही काम में जोड़ते हैं. इसी प्रकार शनि भी व्यक्ति को जिम्मेदारी और अनुशासन की ओर खिंचता है. इस तरह के व्यवसायों को आगे बढ़ाने के लिए एक सामान्य झुकाव हो सकता है. व्यक्ति इतिहास, पुरातत्व और कानून जैसे कार्यों में रुझान रख सकता है. यह संयोग जब कुंडली में बनता है तो वकील और जज जैसी कार्यवाही दिखाता है. बृहस्पति एक व्यक्ति की बुद्धि और निर्णय होने के साथ-साथ शनि के अनुभव और परिपक्वता को दर्शाता है, व्यक्ति को उसके करियर में एक कुशल न्यायाधीश बना सकता है. इस तरह का संयोजन धार्मिक प्रचारकों में भी देखने को मिल सकता है क्योंकि बृहस्पति धर्म और आध्यात्मिकता का कारक है. कालपुरुष के नवें भाव का स्वामी बृहस्पति है और शनि कर्म भाव कर्म का कारक है. इसलिए दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या का घर, धर्म और उपदेश को अपने करियर और दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या से जोड़ना इन दोनों के युति योग में देखने को मिल सकता है. 

कुंडली के प्रथम भाव में शनि और गुरु की युति

प्रथम भाव में शनि और बृहस्पति की युति व्यक्ति के लिए आर्थिक समस्याओं का कारण बन सकती है. इन दोनों का युति योग व्यक्ति को आध्यात्मिक रुख देता है. व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों के लिए काफी सजग भी रहता है. 

कुंडली के दूसरे भाव में शनि और गुरु की युति

दूसरे भाव में शनि और गुरु की युति होने से व्यक्ति विद्वान बनता है पैतृक रुप से अपने पूर्वजों का सहयोग पाता है. व्यक्ति की निर्णय शक्ति कमजोर हो जाती है. खर्चे अधिक हो सकते हैं. करियर में बदलाव आ सकते हैं.

कुंडली के तीसरे भाव में शनि और गुरु की युति

तीसरे भाव में शनि और गुरु की युति होने से व्यक्ति परिश्रम से अधिक बौद्धिक कार्यों की ओर ले जाती है. व्यापार का विस्तार हो सकता है. दिमागी ताकत बढ़ाता है आप बार-बार नौकरी बदल सकते हैं. आप एक आरामदायक जीवन व्यतीत कर सकते हैं.

कुंडली के चौथे भाव में शनि और गुरु की युति

चतुर्थ भाव में शनि और गुरु की युति व्यक्ति को प्रसिद्धि दिला सकती है. धन लाभ और भौतिक लाभ मिल पाते हैं. पारिवारिक सुखों कि पाने के लिए कुछ समय लग सकता है. 

कुंडली के पंचम भाव में शनि और गुरु की युति

पंचम भाव में शनि और गुरु की युति होने से जातक को भाग्य का साथ अधिक नहीं मिल पाता है. सरकार से अनबन हो सकती है और मुकदमेबाजी से परेशानी होती है, लेकिन कर्मों के द्वारा कुछ सकारात्मक प्रभाव मिल पाएंगे. 

कुंडली के छठे भाव में शनि और गुरु की युति

छठे भाव में शनि और गुरु की युति होने से जातक को पत्नी से पूर्ण सुख प्राप्त होता है. इस दौरान स्वास्थ्य संबंधी परेशानी हो सकती है. शत्रुओं को हराने में व्यक्ति काफी कुशल होता है. 

कुंडली के सप्तम भाव में शनि और गुरु की युति

कुंडली के सप्तम भाव में शनि और गुरु की युति से शुभ कार्य किए जा सकते हैं. इस दौरान खर्चों के साथ-साथ धन में वृद्धि होगी. व्यापार में लाभ लेकिन आपसी संबंधों में उतार-चढ़ाव बने रहते हैं. 

कुंडली के आठवें भाव में शनि और गुरु की युति

अष्टम भाव में शनि और गुरु की युति होने से जातक की आर्थिक स्थिति अस्थिर रहती है. आयु की अधिकता प्राप्त होती है. व्यक्ति प्रभावशाली और शक्तिशाली होता है. 

कुंडली के नवम भाव में शनि और गुरु की युति

नवम भाव में शनि और गुरु की युति व्यक्ति को अच्छी समृद्धि और धन देता है. वरिष्ठ लोगों के साथ सहयोग देता है. आद्यात्मिक रुप से व्यक्ति अधिक मजबूत बनता है. 

कुंडली के दशम भाव में शनि और गुरु की युति

दशम भाव में शनि और गुरु की युति व्यक्ति को भाग्य का सहयोग देने वाली होती है. करियर में सफलता मिल पाती है और व्यापार में सफलता भी प्राप्ति होती है. 

कुंडली के एकादश भाव में शनि और गुरु की युति

एकादश भाव में शनि और गुरु की युति व्यक्ति के करियर में बदलाव ला सकती है. करियर में सफलता मिलने से व्यक्ति सामाजिक दायरे में आगे बढ़ सकता है. मान सम्मान और प्रसिद्धि प्राप्त होती है.

कुंडली के द्वादश भाव में शनि और गुरु की युति

बारहवें भाव में शनि और गुरु की युति व्यक्ति को बाहरी संपर्क से जोड़ने वाली होती है.  धार्मिक स्थान से जुड़ने का मौका मिलता है. 

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जन्म कुंडली से जानें सूर्य महादशा का प्रभाव

सूर्य महादशा का आगमन जब होता है, तो व्यक्ति के जीवन में काफी बदलाव का समय होता है. सूर्य दशा का प्रभाव जातक को कई तरह के जीवन में प्रभाव दिखाता है. सूर्य ग्रह का प्रभाव विशेष माना जाता है. सूर्य की स्थिति व्यक्ति को मान सम्मान दिलाने वाली होती है. सूर्य की स्थिति व्यक्ति के संपूर्ण जीवन में मिलने वाली शुभता या नकारात्मकता के लिए जिम्मेदार होती है. यदि सूर्य की स्थिति कुंडली में अच्छी होती है और सूर्य शुभ हो तब इस दशा का आगमन काफी अच्छा होगा. इसके अलग अगर ये दशा अनुकूल न हो तो इस समय जीवन में चुनौतियों एवं प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है. इस तरह से दशा का प्रभाव जीवन में कुंडली की स्थिति के आधार पर विशेष होता है. सूर्य ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत है. वैदिक ज्योतिष भी सूर्य को प्रमुख ग्रह मानता है, जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका सूर्य की होती है. ऐसा माना जाता है कि शुभ सूर्य व्यक्ति के लिए अत्यधिक अधिकार और प्रसिद्धि ला सकता है, जबकि कमजोर सूर्य प्रसिद्धि और शक्ति में बाधा उत्पन्न कर सकता है, जिससे समस्याएं और संघर्ष हो सकते हैं.

सूर्य की महादशा के प्रभाव और उपाय 

सूर्य की महादशा का समय व्यक्ति के जीवन पर कई तरह के असर दिखने को मिल सकते हैं. सूर्य महादशा जीवन में करियर, रिश्तों, व्यक्तित्व, स्वभाव, भाग्य एवं जीवन की अनेक गतिविधियों पर अपना असर दिखाने वाला होता है. सूर्य महादशा के बारे में सभी महत्वपूर्ण और प्रासंगिक चीजों को समझने की कोशिश करके इस दशा को अच्छे से जान सकते हैं. सूर्य महादशा के महत्वपूर्ण ज्योतिषीय परिणाम इस प्रकार से अपना प्रभाव डालने में सक्षम होंगे. 

सूर्य दशा का कुंडली अनुसार 

वैदिक ज्योतिष में चंद्रमा के बाद सूर्य को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण ग्रह माना जाता है जिसका व्यक्ति पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है. सूर्य जीवन के विभिन्न पहलुओं में समग्र व्यक्तित्व, स्थिति, शक्ति, मान्यता, महत्वाकांक्षा, पूर्णता और व्यक्ति की स्थिरता को प्रभावित करता है. यदि किसी कुण्डली में सूर्य शक्तिशाली है तो अन्य ग्रहों के बुरे प्रभावों को काफी हद तक नकार सकता है. यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में उच्च का सूर्य है और उसकी कुंडली में नीच का शनि या बृहस्पति या मंगल है, तो यह शक्तिशाली सूर्य नीच ग्रह के नकारात्मक प्रभावों को कम करने की क्षमता रखता है. सूर्य को मेष राशि में उच्च और तुला राशि में नीच माना जाता है. अर्थात यदि सूर्य मेष राशि में हो तो उसे उच्च का माना जाता है और यदि सूर्य तुला राशि में हो तो नीच का सूर्य कहलाता है. 

सूर्य का मजबूत होना ऊर्जा, जुनून, उत्साह, महत्वाकांक्षा, क्षमता, जीवन शक्ति, प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता, महत्वपूर्ण और कठिन कार्यों को करने की क्षमता का प्रतिनिधित्व करता है. उच्च के सूर्य के कारण दशा में व्यक्ति कई शुभ गुणों का आनंद उठाने में सफल होता है. वह जो कुछ भी करता है उसमें अति उत्साही होता है, बहुत आत्मविश्वासी, महत्त्वाकांक्षी होगा, जो कुछ भी करेगा उसमें जुनून होगा. लेकिन उच्च सूर्य का अर्थ यह भी है कि इस व्यक्ति इस दशा में अहंकार और क्रोध की स्थिति को भी पाएगा. इस समय वह कई चीजों में नियंत्रण खो सकता है और कभी-कभी हद से ज्यादा उत्तेजित हो सकता है.

सूर्य गरिमा, स्वाभिमान और योग्यता का भी प्रतिनिधित्व करता है. जिस व्यक्ति की कुण्डली में सूर्य की दशा अच्छी होती है, इस दशा के समय बेकार की चीजों और अनुभवों से हमेशा दूर रख पाएंगे. इस दशा के समय स्वाभिमान उनके लिए सर्वोच्च प्राथमिकता रखेगा. लोग कभी भी दूसरों को धोखा नहीं देता है, ईमानदार, भरोसेमंद होकर काम करेगा. सूर्य भी पिता का प्रतिनिधित्व करता है. यदि किसी व्यक्ति की कुण्डली में सूर्य की दशा अच्छी होने पर पिता का सुख प्राप्त होता है, या पिता को समाज में अच्छे पद, शक्ति और प्रसिद्धि की प्राप्ति हो सकती है. सूर्य सरकार, राजनयिक संबंधों और प्रशासन से संबंधित किसी भी चीज का प्रतिनिधित्व करता है. इस दशा के समय पर व्यक्ति सरकार की नौकरी चाहते हैं, तो सूर्य दशा में इसमें शामिल होने का मौका मिलता है. 

नीच के सूर्य की दशा का प्रभाव 

तुला राशि में सूर्य को नीच माना जाता है. नीच का सूर्य उत्साह, महत्वाकांक्षा और ऊर्जा की कमी का कारण बनता है. इस कारण से दशा का प्रभाव व्यक्ति को लापरवाह बना सकता है.  टालमटोल कर रहे हैं, दशा के प्रभाव से चीजों को पूरा कर पाने में अक्षम ही दिखाई देते हैं. इस दशा के दौरान व्यक्ति के साहस और आत्मविश्वास की कमी देखने को मिल सकती है. व्यक्ति कोई भी छोटा निर्णय या चुनाव करने से पहले कई बार सोचेगा. नीच का सूर्य आत्म सम्मान या आत्म मूल्य की कमी का कारण बनता है. व्यक्ति खुद को किसी चीज के लिए काबिल नहीं समझते. व्यक्ति खुद को कम आंकता है, जब उन्हें कोई कठिन कार्य दिया जाता है, तो वे आसानी से उसे कर पाने में सक्षम नहीं दिखाई देते हैं. नीच के सूर्य की दशा का समय व्यक्ति को सुस्त भी बनाता है, कुछ करने के लिए पर्याप्त इच्छा शक्ति की कमी इस दशा में अधिक परेशान कर सकती है.

नीच के सूर्य की दशा का प्रभाव अवसाद और मानसिक विकारों का कारण बन सकता है. नीच के सूर्य की दशा का असर प्रतिष्ठा, समाज में स्थिति, नौकरी छूटने, व्यवसाय में हानि या किसी प्रकार के ऋण का कारण बनता है. नीच के सूर्य की दशा सदैव अशुभ फल नहीं देती है, यह व्यक्ति को रचनात्मक बनाता है और कल्पना शक्ति को बढ़ाता है और इस दशा के समय इन क्षेत्रों में आगे बढ़ने ओर सफलता को पाने का सुख भी मिल सकता है. 

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राहु और शुक्र की युति का कुंडली के 12 भाव में प्रभाव

इन दोनों ग्रहों का आपस में गहरा संबंध माना गया है. राहु का प्रभाव व्यक्ति को उचित अनुचित के भेद से परे को दिखाता है. शुक्र प्रेम, संबंध, विलासिता, प्रसिद्धि और धन को दर्शाता है. राहु शुक्र जब एक साथ होते हैं तो इच्छाओं में वृद्धि के लिए विशेष कारक बन जाते हैं. यह योग एक व्यक्ति को अच्छा दिखता है, उसके कोमल व्यक्तित्व को भी सामने लाता है, लेकिन इच्छाओं में बढ़ावा गलत मार्गदर्शन भी देने वाला होता है. विपरीत लिंग को अधिक आकर्षित करने की प्रवृत्ति रखता है. प्यार और रिश्ते के लिए इनके जुनून भी अधिक हो जाता है. किसी ऐसे व्यक्ति के लिए सीमा पार कर सकते हैं जिससे वे प्यार करते हैं, भौगोलिक या सांस्कृतिक दूरी से कोई फर्क नहीं पड़ता. व्यक्ति अपने मन के प्रति काफी कमजोर होता है. राहु के होने से व्यक्ति अपनी पृष्ठभूमि से हटकर काम करने और दूसरों के प्रति विश्वास को पाने में अधिक केन्द्रित दिखाई देता है. बदलाव की प्रवृत्ति व्यक्ति में बहुत अधिक होती है. ग्रहों की ऊर्जा मिलकर एक व्यक्ति को कई चीजों के लिए अधिक जिद्दी बना देती है,. 

राहु और शुक्र प्रथम भाव में

प्रथम भाव व्यक्ति के रूप-रंग, आत्म-अभिव्यक्ति, स्वभाव को दर्शाता है. इस स्थान पर राहु शुक्र का युति योग व्यक्ति को शानदार बनाता है. खूबसूरत और आकर्षक व्यक्तित्व मिलता है.  अत्यधिक महत्वाकांक्षी भी बनाता है. आर्थिक एवं भौतिक रुप से संपन्नता पाने के लिए आगे रखता है. दूसरों को ये लोग जल्द से प्रभावित कर लेने में सक्षम होते हैं. 

राहु और शुक्र दूसरे भाव में

दूसरा भाव संपत्ति और आय का प्रतिनिधित्व करता है. यहां मौजूद राहु शुक्र का युति योग अच्छे परिणाम धन के मामले में देने वाला होता है, खर्चीला हो सकता है व्यक्ति. परिवार से धन की प्राप्ति होती है लेकिन उस धन को खराब भी कर सकता है. खान पान में लापरवाह होता है और इस कारण व्यसन का भी असर पड़ सकता है. राहु और शुक्र एक व्यक्ति को जोखिम उठाने वाले बनाते हैं. 

राहु और शुक्र तीसरे घर में

तृतीय भाव से व्यक्ति के आत्मविश्वास का पता चलता है, साहस और उसके द्वारा किए जाने वाले प्रयास भी इसी भाव से देखाई देते हैं. इस स्थान पर राहु शुक्र व्यक्ति को रोमांच से जोड़ने वाला होता है. जीवन में कई तरह के उतार-चढ़ाव बने रहते हैं. भाग्य को लेकर कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है लेकिन उन्हीम पर विजय पर व्यक्ति सफल भी होता है. 

राहु और शुक्र चौथे भाव में

जन्म कुंडली में चतुर्थ भाव सांसारिक सुख से जुड़ा हुआ होता है, यहीं से माता के स्नेह सुख का पता चलता है. यहां राहु और शुक का योग व्यक्ति को आर्थिक संपन्नता देता है लेकिन उसके सुख को भोगने में कमी भी देता है. धन के मामले में यह योग कुछ हद तक अविश्वसनीय रूप से समृद्ध बना सकता है.  शानदार वाहन और घर की प्राप्ति होती है. चीजों से सुख कम मिल पाता है. माता का की ओर से कुछ दूरी बनी रह सकती है.

राहु और शुक्र पंचम भाव में

पंचम भाव पूर्व पुण्य का भाव माना गया है. इस भाव में राहु का और उसके साथ शुक्र की उपस्थिति कुछ परेशाणि दे सकती है लेकिन भौतिक चीजों का लाभ मिलता है. यह आध्यात्मिकता से जोड़ते हैं लेकिन परंपराओं से हट कर व्यक्ति अपनी धार्मिक मान्यताओं को अधिक मानता है. 

राहु और शुक्र छठे भाव में

छठा भाव रोग का स्थान होता है. जब कुंडली के इस भाव में राहु शुक्र साथ होते हैं तो कुछ मामलों में सफल बना सकते हैं लेकिन कुछ में यह चुनौतियां भी देते हैं. व्यक्ति को कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ेगा. किसी प्रकार के व्यसन इत्यादि की लत भी व्यक्ति को जल्दी से लग सकती है, इसलिए स्वास्थ्य के प्रति बहुत सावधान रहना होता है. 

राहु और शुक्र सप्तम भाव में

सप्तम भाव सभी प्रकार की साझेदारियों को दर्शाता है चाहे व्यक्तिगत हो या फिर काम का क्षेत्र बदलाव तो होते हैं. विवाहेतर संबंधों में उतार-चढ़ाव अधिक बने रह सकते हैं. व्यक्ति किसी अलग पृष्ठभूमि या जाति में विवाह कर सकता है. सहकर्मियों से अनबन हो सकती है. परिवार शांति की कमी के कारण व्यक्ति कई मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं और तनाव का सामना करना पड़ सकता है. उसके साथी उसे धोखा दे सकते हैं.

राहु और शुक्र आठवें घर में

आठवां भाव दीर्घायु और मृत्यु का भाव है. राहु के साथ शुक्र का योग यहां कुछ नकारात्मक असर अधिक दिखा सकता है. इन दोनों ग्रहों के प्रभाव से व्यक्ति को शरीर के निचले हिस्से से संबंधित रोग होने की संभावनाएं अधिक रह सकती है. इसलिए अपने स्वास्थ्य के प्रति सावधान रहना जरुरी है. अपने रिश्तों में निर्भरता से बचना चाहिए. व्यक्ति गुढ विद्याओं में अधिक जुड़ सकता है. 

राहु और शुक्र नवम भाव में

राहु के साथ शुक्र का नवम भाव में युति योग में होना व्यक्तिको एक धर्म से दूसरे धर्म में ले जा सकता है. इसके अलावा व्यक्ति काफी बदलाव के लिए उत्साहित करने वाला होता है. व्यक्ति को सफलता प्राप्त करने और भाग्य को बनाए रखने के लिए अधिक संघर्ष करने की आवश्यकता होती है. 

राहु और शुक्र दशम भाव में

दशम भाव का स्थान कैरियर और व्यवसाय का स्थान होता है. व्यक्ति को अपने काम में अच्छे विस्तार मिलता है. वह अपने कार्यक्षेत्र में उपलब्धियों को पाने सफल होते हैं. विदेश से संबंधी कार्यों से जुड़ने का समय भी व्यक्ति को मिलता है. 

राहु और शुक्र एकादश भाव में

कुंडली का एकादश भाव इच्छाओं और लाभ का प्रतिनिधित्व करता है. राहु और शुक्र का एकादश भाव में होना व्यक्ति को जीवन में आगे बढ़ने के साथ साथ सफलताओं को दिखाने वाला होता है. व्यक्ति सामाजिक क्षेत्र में नाम कमाने में सक्षम होता है.

राहु और शुक्र द्वादश भाव में

कुंडली का द्वादश भाव खर्चों, विदेश यात्रा और बाहरी संपर्क को दर्शाता है. राहु के साथ शुक्र का होना व्यक्ति को बाहरी क्षेत्र से जोड़ने वाला होता है. व्यक्ति अपने लोगों के साथ अधिक रह नहीं पाता है.खर्चों की अधिकता रहती है. इच्छाएं भी अनियंत्रित भी रहती है. 

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सप्तम भाव में सूर्य विवाह पर कैसे डालता है अपना असर

सातवें भाव में बैठा सुर्य बहुत अधिक महत्वपुर्ण प्रभाव डालने वाला माना गया है. सूर्य का असर कुंडली के सातवें घर में जाना मिलेजुले असर दिखाने वाला होता है. जब सूर्य कुण्डली के सप्तम भाव में होता है. इसका असर जीवन साथी पर अपना गहरा प्रभाव डालने वाला होता है. जीवनसाथी की ओर से उसके साथ संबंधों पर इस स्थिति का असर कई तरह से देखने को मिलता है. व्यक्ति के भीतर स्वयं को स्थापित करने की इच्छा अधिक होती है. वह लीडरशीप की चाह रख सकता है. जीवन साथी योग्य एवं प्रतिभाशाली होता है. व्यक्ति की वाणी में प्रभाव झलकता है. लालित्य की ओर भी झुकाव रहता है.

सूर्य सप्तम भाव में हो तो सुंदरता के प्रति रुझान भी देता है. प्रभावशाली लोगों के साथ मेल-जोल भी रहता है. सूर्य के प्रभाव से जीवनसाथी सम्मानित परिवार और प्रतिष्ठि स्थिति वाला होता है. आर्थिक रुप से सहयोगात्मक होता है. मेष लग्न के लिए सप्तम भाव में नीच का सूर्य ग्रह चिंता का विषय बन जाता है. सूर्य एक अच्छे भाव का स्वामी है और मेष राशि के लिए एक अच्छा ग्रह है. ऐसे ग्रह को खराब फल नहीं देना चाहिए, लेकिन यहां पर जीवनसाथी और वैवाहिक जीवन से संबंधित कुछ प्रतिकूल परिणाम देने वाला हो जाता है.  

सप्तम भाव क्या है? 

सप्तम भाव व्यवसाय और व्यक्तिगत जीवन में साझेदारी के लिए देखा जाता है.  इस भाव में स्थित हो तो यह व्यक्ति के किसी के साथ मिलकर कार्य करने की इच्छा को दर्शाता है. ऐसा व्यक्ति साथी की इच्छाओं की अत्यधिक कद्र करने वाला भी होता है. व्यक्ति सहज स्वभाव का होता है, इसलिए लोगों के लिए इनके साथ बातचीत करना आसान व सहज है. सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाना मुश्किल काम होता है विशेष रुप से दांपत्य जीवन में. वह न्याय और कानून से संबंधित सभी क्षेत्रों में व्यक्ति अच्छा होता है. भाग्य का साथ भी इसे मिलता है. जन्म कुण्डली में सप्तम भाव में सूर्य का प्रभाव व्यक्ति को मजबूत चरित्र प्रदान करता है. शक्तिशाली, लेकिन कूटनीतिक, दोस्ती में वफादार होता है. जीवन के पथ पर, वे मेल खाने के लिए लोगों से मिलते हैं. एक आदर्श साथी के रूप में, उन्हें समान सिद्धांतों वाले व्यक्ति की आवश्यकता होती है, ईमानदार रिश्तों के मूल्य को समझते हैं. सूर्य के पीड़ित होने पर किसी भी कीमत पर नेतृत्व करने की इच्छा प्रकट होती है. ऐसे में वह दूसरों पर अधिक दबाव भी बना देते हैं. 

सप्तम भाव में सूर्य का फल

सूर्य को सप्तम भाव में अनुकूल कम ही माना जाता है. सप्तम घर के लिए एक अच्छा इसलिए भी नहीं होता है क्योंकि वहां वह कालपुरुष कुंडली में यहां कमजोर हो जाता है. सातवें घर में सूर्य जन्म के दौरान या सूर्यास्त के निकट के जन्म का समय भी दर्शाता है, सूर्य का अस्त होना अनुकूलता के असर को नहीं दिखा पाता है. वह बहुत बुरा नहीं होता है लेकिन कुछ मामलों में वह कई तरह से बेहतर असर नहीं दिखा पाता है. सूर्य यहां थोड़ा असहज हो सकता है. 

सूर्य सातवें भाव में होने पर व्यक्ति अपने तक अधिक होता है इसलिए जरुरत होती है की शेयरिंग, केयरिंग और बॉन्डिंग बनाए रखे की  क्योंकि यहा चीजें कई बार दूसरे के नजरिये से भी देखने की जरूर हो सकती है. पार्टनर के साथ पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में व्यक्ति आगे रहने वाला होता है. वह अपने कंट्रोल को दिखाने में आगे रह सकता है. साथी के साथ उचित स्वभाव का नहीं रह पाना, यह रिश्तों को बहुत ही विद्रोही और विनाशकारी बना सकता है. रिश्ते में व्यक्ति अपनी शक्ति और ऊर्जा जरूर लगाता है लेकिन अपनी उम्मीद को पूरा होते नहीं देख पाता है. अपने लोगों की और उसका ध्यान अधिक रहता है. लेकिन व्यक्ति को अपनों की ओर से अधिक समय विरोध ही मिलता है. 

लाइफ पार्टनर के साथ दे सकता है मतभेद 

जब सूर्य सातवें भाव में होता है तो इसके कारण व्यक्ति को अपने पार्टनर के कारन अधिक परेशानी का अनुभव करना पड़ सकता है. व्यक्ति अपने जीवन साथी के साथ विरोध को अधिक झेल सकता है. या किसी न किसी कारण से अलगाव की स्थिति रिश्तों में अधिक बनी रहती है. रिश्ते में दूरी का कारण कुछ भी हो सकता है, कई बार सब कुछ सही होने के बावजूद भी नौकरी, इत्यादि के चलते ही दूरी झेलनी पड़ सकती है. सप्तम भाव में सूर्य का होना जीवनसाथी की तलाश में अधिक भगाता है, वह आसानी से अपने दांपत्य जीवन का सुख भोग नहीं पाते हैं. इनके लिए अपने जीवन में लगातार संघर्ष की स्थिति भी बनी रहती है.  अपने पार्ट्नर के लिए वह काफी जिम्मेदार भी रहता है. समर्पण का भाव भी बहुत अधिक दिखाता है. सूर्य का सप्तम में होना वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल को अवश्य दर्शाने वाला होता है. 

सूर्य के सप्तम में होना सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष  

सातवें भाव में सूर्य का प्रभाव व्यक्ति को लोकप्रियता दिलाने में सक्षम होता है. व्यक्ति अपने काम के द्वारा प्रसिद्धि भी पाता है. अपने जीवन में उच्च वर्ग के लोगों से सम्मान भी पाता है. कुछ उपलब्धियों के सहयोग से उसका जीवन बहुत अधिक सक्रिय भी बनता है. सप्तम भाव में सूर्य व्यक्ति को नेतृत्व का गुण भी देता है. अपने साथ जुड़े लोगों का मार्गदर्शन करने में भी वह आगे रहता है. व्यक्ति उत्साही एवं सजगता के साथ काम करने में अधिक विश्वास रखता है. दूसरों के साथ होने वाली बातें उसके जीवन को भी बदलने का काम करती हैं. 

सातवें भाव में सूर्य वाले जातकों को संघर्षों का सामना अधिक करना पड़ सकता है. वह उन चीजों में उलझ सकता है जो दूसरों के द्वारा अधिक क्रिएट की गई होती हैं. वह अपने जीवन के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कई तरह से कोशिशों में लगा भी रहता है. कई बार चीजों को डील कर पाना उसके लिए मुश्किल होता है तो इस स्थिति में वह न समझौता करता है न पिछे हटना पसंद करता है. तह जटिलता अधिक परेशानी देने वाली होती है. कल्पनाओं का संसार भी विस्तार पाता है ऎसे में कई कमियों के कारण निराशा भी परेशानी देती है. दूसरों को मार्गदर्शन देने में आगे रहते हुए वह खुद के लिए उचित मार्ग को कई बार अपना नहीं पाता है. उसकी बेचैनी एवं हताशा जीवन पर भी साफ झलक सकती है. 

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चिकित्सा ज्योतिष में मानसिक विकार का कारण

ज्योतिष शास्त्र में मानसिक विकार से संबंधित योगों का वर्णन मिलता है. ज्योतिष अनुसार मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले विकार एवं नकारात्मक सोच के पीछे ज्योतिषिय कारण बहुत असर डालते हैं. मानसिक रुप से चंद्रमा का प्रभाव बहुत विशेष माना गया है. इस कारण से सभी प्रकार के मनोविकारों के लिए चंद्रमा का प्रभाव बहुत होता है. इसके अलावा अन्य ग्रहों का योग अलग- अलग रुप से अपना प्रभाव दिखाता है. 

ज्योतिष के माध्यम से मानसिक विसंगतियों को समझना आसान है, इसका विश्लेषण करके इससे बचाव का मार्ग भी सुलभ रुप से प्राप्त होता है. मानसिक विकारों के विभिन्न कारण होते हैं. मानसिक विकारों की संभावना का निर्धारण करने में ज्योतिषीय महत्व के बारे में बात करेंगे. चिकित्सा ज्योतिष में कुछ ऐसे योग हैं जो हमें यह निर्धारित करने में मदद करते हैं कि एक व्यक्ति अपने जीवन में किन स्वास्थ्य जटिलताओं से पीड़ित होगा. इस तरह के गंभीर विश्लेषण के लिए हमेशा सूक्ष्म रुप से ग्रह नक्षत्रों का चयन जरुरी होता है.  

मानसिक विकारों को कैसे जाने कुंडली से 

कुंडली में मानसिक विकारों के लिए चंद्रमा, बुध, चतुर्थ भाव और पंचम भाव का विश्लेषण किया जाता है. चंद्रमा हृदय-मन है और बुध मस्तिष्क-बुद्धि है. इसी प्रकार चतुर्थ भाव हृदय और पंचम भाव मस्तिष्क को दर्शाता है. चंद्रमा और पंचम भाव ऐसी स्थिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. जब व्यक्ति भावनाओं से परेशान होता है वह उन्हें संभाल नहीं पाता है, भावनात्मक उथल-पुथल के कारण अपनी मानसिक स्थिरता खो देता है तो ये स्थिति उसे दिमागी रोगों की ओर ले जाने लगती है. इसी प्रकार चतुर्थ भाव सिजोफ्रेनिया जैसे मानसिक विकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. वहीं शनि और चंद्र की युति भी मानसिक स्वास्थ्य के लिए शुभ नहीं मानी जाती है. किसी भी प्रकार के मानसिक विकार की घटना के लिए कुंडली में चंद्रमा पीड़ित होना चाहिए.

मानसिक विकार को प्रभावित करने वाले योग 

किसी व्यक्ति में मानसिक विकार उत्पन्न होने की प्रवृत्ति तब दिखाई देती है, जब वह अपनी इच्छाओं एवं विचारों को नियंत्रित नहीं कर पाता है. इसका कारण जन्म कुंडली में बनने वाले खराब योगों के कारण ही अधिक लक्षित होता है. जन्म कुंडली में जब चन्द्रमा एक ही भाव में राहु के साथ स्थित होता है तो ऎसे में यह एक ग्रहण योग होता है. इसके कारण जातक को शुभ फल नहीं मिल पाते हैं ऐसा इसलिए है क्योंकि राहु चंद्रमा को हमारे मन को इच्छाओं को भ्रमित कर देता है. चंद्रमा मन का कारक है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने सपनों की दुनिया का निर्माण अधिक करता है और जब उसे इसमें सफलता नहीं मिलती है तो धीरे धीरे इसका प्रभाव उसे मानसिक रुप से कमजोर कर देता है. 

जन्म कुंडली में बुध का पाप प्रभावित होना भी दिमागी रोग के लिए जिम्मेदार होता है. पीड़ित बुध, केतु और चतुर्थ भाव का आपस में संबंध बनाना जातक को अत्यधिक जिद्दी बनाता है. ऐसे लोग सिजोफ्रेनिया जैसे गंभीर मानसिक विकार से भी पीड़ित हो सकते हैं. बहुत से विद्वान ऐसी स्थितियों का विश्लेषण करने के लिए चतुर्थ भाव और बुध पर बल देते हैं. जब मन और बुद्धि एक समान रुप से किसी चीज पर एकाग्र होती है तो यह अच्छी है लेकिन यदि जब यह जबरदस्ती चीजों पर जोर लगाती है तो अनुकूल नहीं होती है. इस कारण से ही कई तरह की परेशानी दिमागी फितूर के रुप में देखी जा सकती हैं. 

जन्म कुंडली में बृहस्पति या मंगल क्रमशः लग्न या सप्तम भाव में स्थित होते हैं तब जातक मानसिक समस्याओं से पीड़ित हो सकता है. मंगल ऊर्जा शक्ति है और बृहस्पति ज्ञान है. जब इन दोनों का संबंध इन भावों से बनता है तो यह विचारों को बहुत अधिक तेजी से प्रभावित करते हैं. लग्न का संबंध व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व से होता है, उसकी इच्छा शक्ति एवं विचारधारा इसी लग्न द्वारा प्रभावित होती है. इस कारण जब मंगल और बृहपति दोनों इस भाव से संबंध बनाते हैं तब व्यक्ति पर इन दोनों की जबरदस्त उर्जा का असर भी पड़ता है. अभिमान, अंहकार, क्रोध जिद जैसे गुण भी विकसित होते हैं, इन बातों का बढ़ जाना ही व्यक्ति को मानसिक विकार की ओर ले जाने वाला होता है. विशेष रुप से यदि ये दोनों ग्रह कुंडली के पाप भावों के साथ संबंध बना रहे हों उनके स्वामित्व को पाते हों अथवा पाप ग्रहों से पीड़त हो रहे हों तो उस स्थिति में इसका असर अधिक पड़ता है. 

जन्म कुंडली में  शनि लग्न में या कुंडली के पंचम, सप्तम या नवम भाव में मंगल के साथ हो, चंद्रमा केतु के साथ द्वादश भाव में स्थित हो तो व्यक्ति मानसिक विकारों से पीड़ित होता है. व्यक्ति अपने मनोभावों को सही प्रकार से दूसरों के सामने रख नहीं पाता है. वह किसी न किसी अंजाने भय से भी परेशान होता है. इसके अलावा यदि कृष्ण पक्ष के कमजोर चंद्रमा के साथ शनि बारहवें भाव में बैठा हो तो भी इस कारण मानसिक विकार होने की संभावना होती है. चंद्र और शनि की युति भी मानसिक अशांति का कारण बनती है. इसमें बुध का शामिल होना व्यक्ति को डर और भय का माहौल देने वाला होता है. उन्मांद से प्रभावित होकर जातक गलत चीजों को करने के लिए अधिक प्रेरित दिखाई देता है. 

जन्म कुंडली में उपग्रहों का स्वरुप भी विशेश होता है. मांदी अगर सप्तम भाव में हो और पाप ग्रह से पीड़ित हो. राहु और चंद्रमा लग्न में स्थित हों तो व्यक्ति को मसिक विकार परेशानी देते हैं. जब किसी कुंडली के छठे या आठवें भाव में शनि और मंगल की युति होती है तो मानसिक विकार का कारण बनती है. 

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अपनी कुंडली से जाने शुभ और अशुभ ग्रहों के बारे में विस्तार

कुंडली विषण एक बहुत विस्तृत प्रक्रिया है, और कुंडली में सभी सूक्ष्म बातों को देखना होता है. इन विवरणों में शुभ और अशुभ ग्रहों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है. यह एक कठिन काम है क्योंकि कोई ग्रह एक ही समय पर शुभ भी होगा तो वहीं वह खराब भी हो सकता है. कुछ ग्रह प्राकृतिक रुप से शुभ होते हैं और कुछ अशुभ ग्रह होते हैं. शुभ और अशुभ ग्रह. यह एक सामान्य नियम है कि कुछ ग्रह अशुभ होते हैं और कुछ शुभ. उदाहरण के लिए, बृहस्पति को एक प्राकृतिक लाभकारी के रूप में जाना जाता है, जबकि शनि को एक प्राकृतिक अशुभ के रूप में जाना जाता है. इसके विपरित कुछ लग्नों के लिए बृहस्पति अशुभ हो सकता है, और शनि शुभ हो सकता है, इसलिए वे लग्न के अनुसार शुभ बन जाते हैं, जिसे क्रियात्मक शुभ और अशुभ कहा जाता है. इसलिए कुंडली की जांच में इन बातों पर ध्यान रखने की आवश्यकता होती है. 

शुभ और अशुभ ग्रहों का पता लगाने के लिए बहुत सारी बातों को ध्यान रखना होता है. ग्रहों के बीच संबंध का पता लगाने पर शुभ और अशुभ के अलावा एक और स्थिति होती है जिसे तटस्थ भी कहा जाता है. इसमें ग्रह न शुभ होता है न अशुभ होता है व न्यूट्रल रह कर प्रभवैत करता है. शुभ और अशुभ की अवधारणा वैदिक ज्योतिष के मानदंड़ों पर आधारित है. 

शुभ और अशुभ ग्रहों का वर्गीकरण 

ग्रहों में से शनि, मंगल और राहु अशुभ हैं, और सूर्य क्रूर ग्रह है, लेकिन यह अन्य पाप ग्रहों की तरह खराब नहीं है. बृहस्पति और शुक्र को शुभ के रूप में देखा जाता है जबकि चंद्रमा और बुध की शुभता उनके साथ बैठे ग्रहों पर निर्भर करती है. यदि वे शुभ ग्रह हों तो इनका शुभ फल दिखाई देता है और यदि किसी पाप ग्रह के साथ हों तो अशुभ फल देने वाले होते हैं. इसलिए वे न तो शुभ हैं और न ही अशुभ होते हैं. ज्योतिष शास्त्र में गुरु का उच्च स्थान है लेकिन वेदों में शुक्र को गुरु से अधिक ज्ञानी बताया गया है. बृहस्पति को देवताओं के गुरु के रूप में जाना जाता है, और शुक्र असुरों के गुरु के रुप में स्थान प्राप्त होता है. शुक्ल पक्ष के चंद्रमा को लाभकारी माना जाता है. कृष्ण पक्ष या अमावस्या के दिन चंद्रमा को अशुभ माना जाता है.

मेष लग्न  के लिए शुभ अशुभ ग्रह 

मेष लग्न के लिए बृहस्पति, मंगल, चंद्र और सूर्य शुभ ग्रह हैं. लग्न का स्वामी मंगल है और मंगल के मित्र ग्रह सूर्य, चंद्र और बृहस्पति हैं तो स्वाभाविक रूप से इन ग्रहों की दशा मेष लग्न के लिए अच्छी रहती है. राहु और केतु मंगल के शत्रु हैं अत: मेष लग्न के लिए ये पापकारक हैं. ग्रहों की मित्रता में मंगल शनि और शुक्र के साथ एक तटस्थ संबंध रहता है. शुक्र मेष लग्न के लिए एक मारक ग्रह है. मेष लग्न के लिए बुध शत्रु ग्रह है और यह छठे भाव का स्वामी है.

वृष लग्न के लिए शुभ अशुभ ग्रह
वृष लग्न का स्वामी शुक्र है, शनि, शुक्र और बुध शुभ ग्रह हैं क्योंकि ये शुक्र के मित्र हैं. शनि नौवें और दसवें भाव के स्वामी है होकर बहुत शुभ बन जाते हैं. वृष राशि के लिए शनि शुभ योगकारक ग्रह बनते हैं. वृष लग्न के लिए, लग्न स्वामी शुभ और पाप दोनों श्रेणी में आता है क्योंकि नकारात्मकता के रुप में छठे भाव का स्वामी बनता है. वृष राशि के लिए चंद्रमा, मंगल, राहु, केतु और बृहस्पति, शत्रु स्थिति में होते हैं. सूर्य और शुक्र मित्र नहीं हैं, फिर भी वृष लग्न के लिए सूर्य एक तटस्थ ग्रह है.

मिथुन लग्न के लिए शुभ अशुभ ग्रह
बुध मिथुन राशि का स्वामी है और बुध शुक्र और शनि का मित्र है. मिथुन लग्न के लिए लाभकारी होते हैं, लेकिन शुक्र सबसे अधिक शुभ ग्रह है. मिथुन लग्न के लिए, मंगल सबसे अधिक पाप ग्रह के रुप में देखा जाता है, और अन्य पाप ग्रह राहु, केतु, बृहस्पति और सूर्य शामिल होते हैं. मिथुन लग्न के लिए चंद्रमा और बुध तटस्थ ग्रह के रुप में जाने जाते हैं. 

कर्क लग्न के लिए शुभ अशुभ ग्रह 

कर्क लग्न का स्वामी चंद्रमा है और कर्क लग्न के लिए केवल मंगल और चंद्रमा ही शुभ कारक ग्रह होते हैं. कर्क लग्न के लिए बृहस्पति, शनि और बुध पाप ग्रह के रुप में असर डालते हैं क्योंकि उनका नकारात्मक भावों पर अधिकार भी होता है. कर्क लग्न के लिए राहु, केतु, शुक्र और सूर्य सम होते हैं. 

सिंह लग्न के लिए शुभ अशुभ ग्रह 

सिंह लग्न, सूर्य अधिपति है अत: सिंह लग्न के लिए सूर्य, मंगल, बृहस्पति शुभ ग्रह बनते हैं. सिंह लग्न के लिए बुध, शुक्र, राहु, केतु और चंद्रमा को पाप ग्रह के रूप में देखा जाता है, क्योंकि इन ग्रहों का स्थान पाप भाव से भी जुड़ा होता है. सिंह लग्न के लिए शनि एक मारक ग्रह है होता है.

कन्या लग्न के लिए शुभ और अशुभ       

कन्या लग्न का स्वामी बुध है. कन्या लग्न के लिए बुध और शुक्र एक अत्यंत शुभ ग्रह हैं. कन्या लग्न के लिए सूर्य, मंगल, बृहस्पति, राहु, केतु और चंद्रमा अशुभ ग्रह के रुप में देखे जाते हैं.

तुला लग्न के लिए शुभ और अशुभ  

तुला लग्न के लिए शुक्र इस लग्न का स्वामी होकर शुभ बन जाता है, लेकिन अष्टम का स्वामी होकर अशुभ हो जाता है. तुला लग्न के लिए शनि योगकारक बनते हैं. शनि इसके लिए सबसे अधिक शुभ ग्रह होता है. 

वृश्चिक लग्न के लिए शुभ और अशुभ  

मंगल वृश्चिक राशि का लग्न स्वामी है. वृश्चिक लग्न के लिए शुभ ग्रह मंगल, चंद्रमा, बृहस्पति और सूर्य हैं. वृश्चिक लग्न के लिए शुक्र, राहु और केतु पाप ग्रह हैं.

धनु लग्न के लिए शुभ और अशुभ  

बृहस्पति धनु राशि का स्वामी है, बृहस्पति  मंगल और सूर्य इस लग्न के लिए शुभ ग्रह हैं. धनु लग्न के लिए बुध, शुक्र, राहु और केतु अशुभ ग्रह हैं. इनमें शुक्र सबसे अधिक अशुभ होता है.

मकर लग्न के लिए शुभ और अशुभ  

शनि मकर लग्न का स्वामी है और धनु लग्न के लिए शुक्र, बुध और शनि शुभ कारक ग्रह होते हैं. शुक्र सबसे अधिक शुभकारी ग्रह है क्योंकि शनि और शुक्र मित्र हैं. इस लग्न के लिए  मंगल, चंद्र, राहु और केतु हैं अशुभ रुप में असर डालते हैं. 

कुंभ लग्न के लिए शुभ और अशुभ  

शनि कुम्भ लग्न का स्वामी है. कुम्भ लग्न के लिए शुक्र हैं और शनि शुभ ग्रह हैं. इस बीच, मंगल, बृहस्पति, चंद्रमा, राहु और केतु शुभता में कमी करते हैं बृहस्पति तटस्थ भी होता है. 

मीन लग्न के लिए शुभ और अशुभ  

मीन लग्न का स्वामी गुरु है. इस लग्न के शुभ ग्रह चंद्रमा और मंगल हैं. अशुभ ग्रह शुक्र, सूर्य, राहु और केतु हैं.

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केतु महादशा में अन्य ग्रहों की अंतर्दशा प्रभाव

केतु महादशा का समय बेहद महत्वपूर्ण होता है. इस दशा के समय व्यक्ति को अस्थिरता अधिक परेशान कर सकती है. जातक अपने लिए उचित एवं अनुचित के मध्य की स्थिति को समझ पाने में कुछ कमजोर रह सकता है. केतु की महादशा में व्यक्ति को कुछ लाभ मिलते हैं लेकिन वह लाभ सीमित रुप से प्राप्त होते हैं इस के अलावा इस समय के दौरान व्यक्ति का बाहरी लोगों के साथ संपर्क अधिक हो सकता है. धन, परिवार, संबंधों के मामले में यह दशा काफी अस्थिर हो सकती है. केतु महादशा के समय अन्य ग्रहों की अंतर्दशा का आगमन भी कई तरह से असर दिखाने वाला होता है. 

केतु महादशा केतु अंतर्दशा क्या है

केतु की महादशा में केतु की अन्तर्दशा का समय जीवन में बदलाव का होता है. इस समय के दोरान व्यक्ति अपनी चीजों को लेकर अधिक भ्रम में दिखाई दे सकता है. केतु की कुंडली में स्थिति अगर शुभ हो तो इस दशा में कुछ बेहतर परिणाम मिलते हैं. इसके विपरित अगर केतु शुभ स्थिति में न हो तब यह दशा कई मायनों में परेशानी को दिखा सकती है.  

केतु महादशा में बुध की अंतर्दशा

केतु की महादशा में बुध की अन्तर्दशा का समय सावधानी पूर्वक काम करने का होता है. इस समय व्यक्ति अधिक बेचैन और उत्साही हो सकता है. इस समय के दौरान व्यक्ति अपने काम में जितना हो सके तो सोच विचार से ही आगे बढ़ने की जरुरत होती है. 

केतु महादशा में शुक्र की अंतर्दशा

केतु की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा का समय कुछ अच्छे लाभ को प्रदान करने वाला होता है. इस समय पर व्यक्ति कुछ नई चीजों को प्राप्त कर पाता है. अगर कुंडली में केतु के साथ शुक्र का संबंध अनुकूल रहता है तो व्यक्ति को इस समय पर अच्छे फल प्राप्त होते हैं. रिश्ते में नई शुरुआत का भी समय होता है. इस समय व्यक्ति अगर केतु शुक्र की अशुभता को झेलता है तो व्यसनों अथवा संक्रमण का असर उस पर तेजी से असर डाल सकता है. 

केतु महादशा में सूर्य की अंतर्दशा

केतु की महादशा में सूर्य की अन्तर्दशा का समय मानसिक एवं स्वास्थ्य के लिहाज से कुछ अनुकूलता की कमी को दिखाने वाला होता है. इस समय धार्मिक यात्राओं का दौर भी होता है. उच्च एवं गुरु जनों से वार्तालाप का मौका मिलता है. सरकार की ओर से लाभ कम ही ही मिल पाता है. विवाद से बचने की आवश्यकता होती है. व्यक्ति अपने लक्ष्यों को पाने के लिए इच्छुक होता है. 

केतु महादशा में चंद्रमा की अंतर्दशा

केतु की महादशा में चन्द्रमा की अन्तर्दशा का समय कई मायनों में विशेष रहता है. व्यक्ति अपने सुख को लेकर परेशान अधिक दिखाई दे सकता है. मानसिक रुप से वह बेचैन रह सकता है. काम को करने में वह आगे तो रहता है लेकिन कुछ मायनों में वह अपनी कार्यशैली में असंतुष्ट भी रहता है. इस समय पर अपने संबंधों में भी कुछ अस्थिरता का समय होता है. जल जनित रोग अधिक प्रभाव डालने वाले होते हैं आर्थिक और भौतिक सुख को लेकर उतार-चढ़ाव बना रह सकता है. 

केतु की महादशा में राहु की अंतर्दशा

केतु की महादशा में राहु की अन्तर्दशा का समय कई मायनों में महत्वपूर्ण रह सकता है. व्यक्ति अपने आस पास की स्थिति को लेकर कुछ अधिक जिज्ञासु रहता है. कम काज में किसी भी प्रकार से सफलता पाने की उसकी इच्छा शक्ति में वृद्धि होती है. ये समय स्वास्थ्य की दृष्टि से कुछ कमजोर हो सकता है. इस समय विदेश यात्रा का योग भी रहता है. नीचले तबके के साथ सामाजिक क्षेत्र में लाभ की स्थिति प्रभावित होती है.

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सूर्य – केतु का कुंडली के सभी भावों पर प्रभाव

सूर्य और केतु का योग ज्योतिष अनुसार काफी महत्वपूर्ण होता है. यह योग कुंडली में जहां बनता है उस स्थान पर असर डालता है. इस योग को वैसे तो अनुकूलता की कमी को दिखाने वाला अधिक माना गया है. इस योग में मुख्य रुप से दो उर्जाओं का योग एक होने पर व्यक्ति पर इसके दुरगामी असर अधिक पड़ते हैं. यदि ये योग अंशात्मक रुप से दूर होता है तब इसमें अधिक तनाव नहीं पड़ता लेकिन जब यह अधिक करीब होता है उसके कारण व्यक्ति को खराब असर अधिक देखने को मिलते हैं. ज्योतिष में एक वर्ष में एक बार और यह योग निर्मित अवश्य होता है.  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सूर्य मजबूत है या केतु केवल स्थिति  व भाव का असर यहां बहुत महत्व रखता है. 

यह योग आध्यात्मिक रुप से काफी अच्छे परिणाम दे सकता है लेकिन भौतिक रुप से कमजोर बना देता है. सूर्य प्रकाश है, आत्मा और जीवन है यह जब केतु के साथ होता है आत्मविश्वास पर असर डालता है. केतु ध्यान, आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व करता है.  

प्रथम भाव में सूर्य केतु की युति

प्रथम भाव में सूर्य के साथ केतु की युति होने पर व्यक्ति स्वभाव से कुछ कठोर और अंतर्मुखी हो सकता है.  समाज में अपनी पहचान के लिए प्रयास अधिक करता है. दूसरों पर अधिकार जताने की प्रवृत्ति रखता है. व्यक्ति सोच विचार अधिक करेगा तथा कई बार भ्रम में अधिक रहेगा.  गुसा और क्रोध के कारण विवाद में अधिक रह सकता है. वैवाहिक जीवन में साथी के साथ अलगाव परेशान कर सकता है. 

दूसरे भाव में सूर्य केतु की युति 

दूसरे भाव में सूर्य केतु का होना व्यक्ति को वाणी में कठोरता देने वाला होता है. आर्थिक रुप से धन का संचय कर पाना व्यक्ति के लिए कठिन होता है. यदि इन का योग शुभ स्थिति को पाता है तो व्यक्ति अपने वरिष्ठ लोगों से लाभ प्राप्त कर सकता है. परिवार से दूर जाकर निवास कर सकता है. घरेलू क्षेत्र में शांति कुछ कम रहेगी. परिश्रम बना रहेगा. वैवाहिक जीवन में मुद्दे बने रह सकते हैं. 

तीसरे घर में सूर्य केतु की युति  

तीसरे घर में सूर्य के साथ केतु का योग व्यक्ति को परिश्रमी बनाता है. अपनों का सहयोग कम मिल पाता है. जीवन में आध्यात्मिक यात्राएं भी करता है. व्यक्ति दार्शनिक, लेखक और राजनीतिज्ञ बन सकता है.  परिवार के सदस्यों के साथ दूरी भी रहेगी. अपने निवास स्थान को लेकर चिंता होगी ओर विदेश में निवास हो सकता है. सूर्य और केतु कुछ समय के लिए बहुत आक्रामक स्वभाव और गुस्सैल बनाता है. 

चतुर्थ भाव में सूर्य केतु की युति

चतुर्थ भाव में सूर्य के साथ केतु का योग अनुकूलता की कमी को दर्शाता है. माता या भाई-बहनों के साथ सुख की कमी को दिखा सकता है. सूर्य की स्थिति अनुकूल होने पर   साहस और संचार कौशल देता है. धर्म या तीर्थ से जुड़ी कई यात्राएं होती है. अपने लिए विदेश में निवास के योग बनते हैं जन्म स्थान से दूर जाने का योग बनता है. भौतिक सुख साधनों को पाकर भी संतुष्टि नहीं मिल पाती है. 

पंचम भाव में सूर्य केतु की युति 

पंचम भाव में सूर्य के साथ केतु का योग जीवन में कई तरह की चुनौतियों के साथ सफलता का सुचक होता है. प्रेम के संबंध में विवाद अलगाव की स्थिति रहती है. अपने मित्र मंडली में व्यक्ति काफी प्रभाव डालता है. संतान के सुख में कमी रहेगी या कोई परेशानी हो सकती है. बौद्धिकता नई चीजों की खोज के लिए अग्रीण होती है. अपने पितरों का आशीर्वाद लेने के लिए उनके निमित्त श्रद्धा भाव करने की जरूरत होती है.

छठे भाव में सूर्य केतु की युति 

छठे भाव में सूर्य के साथ केतु का होना अच्छे परिणाम देता है. यहां शक्ति और प्रभुत्व को प्रदान करता है. शत्रुओं को पाता है लेकिन उन्हें हरा देने में सफलता भी पाता है. अपने कार्यक्षेत्र में वह सफलता को पाता है. गलत कार्यों में भी लाभ पाता है. स्वास्थ्य को लेकर अधिक सजग होना पड़ सकता है. 

सप्तम भाव में सूर्य केतु की युति 

सप्तम भाव में सूर्य के साथ केतु का होना अनुकूलता की कमी को दिखाता है. यहां व्यक्ति साझेदारी के काम में असफलता को देखता है. वह सामाजिक कार्यों में आगे रह सकता है लेकिन मान सम्मान अपनों से नहीं मिल पाता है. जीवन साथी से अलगाव होता है. व्यवहार की कठोरता दूसरों के साथ सहयोग की कमी दिखाती है. 

आठवें भाव में सूर्य केतु की युति 

आठवें भाव में सूर्य के साथ केतु का होना आध्यात्मिक रुप से अच्छा होगा लेकिन स्वास्थ्य के लिए कुछ कमजोर होगा. यह आकस्मिक घटनाओं को देने वाला होगा. जीवन में व्यक्ति तंत्र इत्यादि जैसी विद्याओं से जुड़ सकता है. पिता का सहयोग या स्वास्थ्य प्रभावित रह सकता है. 

नवम भाव में सूर्य केतु की युति 

नवें घर में सूर्य के साथ केतु क अयोग पितृ दोष को दर्शाता है. यह भाग्य को कमजोर करता है. इसके कारण जीवन में संघर्ष अधिक करना पड़ता है. इसमें पिता या वरिष्ठ लोगों का अधिक सहयोग नहीं मिल पाता है. सुखों की कमी होती है. आध्यात्मिक रुप से यह योग कई तरह के सकारात्मक प्रभाव दिखाता है. इस योग में व्यक्ति अपने और अपने समाज के कल्याण हेतु कार्य करता है. 

दशम भाव में सूर्य केतु की युति 

दसवें भाव में सूर्य और केतु की युति जीवन में कर्म के क्षेत्र को बढ़ा देती है. प्रयासों के द्वारा ही सफलता मिल पाती है. जातक अपने लोगों के साथ अधिक अनुकूल रिश्ते बना नहीं पाता है. करियर में हर तरह के कार्यों से जुड़ने का मौका मिलता है. सामाजिक प्रतिष्ठा आसानी से नहीं मिल पाती है. 

ग्यारहवें भाव में सूर्य केतु की युति 

ग्यारहवें भाव में सूर्य और केतु का युति योग व्यक्ति को आर्थिक रुप से प्रयास करने के लिए प्रेरित करने वाला होता है. व्यक्ति अपनी इच्छाओं को पूरी करने में कमजोर होता है. असंतोष की स्थिति जीवन में लगी रहती है. सामाजिक रुप से मान सम्मान पर शत्रुओं का प्रभाव इसे खराब करता है. संतान सुख प्रभावित होता है. प्रेम संबंधों में एक से अधिक संबंध बन सकते हैं. 

बारहवें भाव में सूर्य केतु की युति 

बारहवें भाव में सूर्य के साथ केतु युति योग मोक्ष के लिए अच्छा स्थान होता है. यह व्यक्ति को विदेश से लाभ भी दिलाता है. स्वास्थ्य एवं नेत्र ज्योति पर असर डाल सकता है. व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी रह सकती है. 

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