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#अंश बल - Ansh Bal
जैमिनी ज्योतिष में ब्रह्मा का निर्धारण करने के लिए ग्रह बल निकालते हैं. अंश बल जैमिनी ज्योतिष के ग्रह बल के अन्तर्गत आता है. ग्रहों के अंशों के आधार पर हम उनका वर्गीकरण करते हैं. अधिकतम अंश वाले ग्रह को आत्म कारक और सबसे कम अंश वाले ग्रह को दाराकारक कहते हैं.

आत्मकारक को 70 षष्टियांश बल मिलता हैं.
अमात्यकारक को 60 षष्टियांश बल मिलता है.
भ्रातृ्कारक को 50 षष्टियांश बल मिलता है.
मातृ्कारक को 40 षष्टियांश बल मिलता है.
पुत्रकारक को 30 षष्टियांश बल मिलता है.
ज्ञातिकारक को 20 षष्टियांश बल मिलता है.
दाराकारक को 10 षष्टियांश बल मिलता है.

#अक्षवेदांश - Akshavedansh
इस वर्ग से जातक का चरित्र और सामान्य अच्छे या बुरे प्रभाव देखे जाते हैं. 30 डिग्री के 45 बराबर भाग किये जाते है. प्रत्येक भाग 0 डिग्री 40 मिनट का होता है. यदि ग्रह चर राशि में है तो गणना मेष राशि से शुरु होगी. ग्रह स्थिर राशि में है तो गणना सिंह राशि से शुरु होगी और ग्रह यदि द्विस्वभाव राशि में है तो गणना तुला राशि से शुरु होगी.

#अतिगण्ड योग - Atigand Yog
इस योग वाला व्यक्ति धनी, अभिमानी, क्रोधी और कलहप्रिय होता है. जातक धूर्त, पाखंडी, माता को कष्ट देने वाला होता है. जातक के गले में बीमारी हो सकती है. जातक के हाथ-पैर विशाल होते है. ठोड़ी बड़ी होती है. अति गण्ड योग के अंतिम भाग में जन्मा व्यक्ति कुल का नाश करने वाला होता है.

#अतिचारी ग्रह - Atichari Grah
जब कोई ग्रह अपनी सामान्य गति से अधिक तेजी से गति करता है तो उसे ग्रह की अतिचारी अवस्था कहा जाता है.

#अधम तिथियाँ - Adham Tithiyan
अधम तिथियाँ शुभ कार्यों में वर्जित हैं. इन तिथियों का संबंध वारों से हैं.

  1. रविवार को सप्तमी तिथि व द्वादशी तिथि.
  2. सोमवार को एकादशी तिथि.
  3. मंगलवार को दशमी तिथि.
  4. बुधवार को प्रतिपदा तिथि और नवमी तिथि.
  5. बृ्हस्पतिवार को अष्टमी तिथि.
  6. शुक्रवार को सप्तमी तिथि.
  7. शनिवार को षष्ठी तिथि.

#अधिक मास - Adhik Maas
जिस चान्द्र मास में सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती उसे अधिक मास कहते है. इसका अर्थ यह हुआ कि जब दो पक्ष में संक्रान्ति नहीं होती उसे अधिक मास कहते है. 32 मास 16 दिन 4 घडी़ बीतने पर अधिक मास होता है. अर्थात तीसरे वर्ष अधिक मास होता है और उस वर्ष में 13 मास हो जाते हैं.

अधिक मास को मल मास या पुरुषोत्तम मास भी कहते है. चन्द्र मास के वर्ष में 354 दिन 9 घण्टे और सूर्य मास के वर्ष में 365 दिन 6 घण्टे प्राय: होते हैं. इस कारण सूर्य और चन्द्र के दिनों का अन्तर अधिक मास होने से बराबर हो जाता है.

#अधोमुख नक्षत्र - Adhomukh Nakshatra
यह नक्षत्र वृश्चिक राशि में 3 अंश 20 कला से 16 अंश 40 कला तक रहता है. क्रान्ति वृ्त्त से 1 अंश 59 कला 9 विकला दक्षिण में तथा विषुवत वृ्त्त से 22 अंश 36 कला 48 विकला दक्षिण में है. इस नक्षत्र में 4 तारे हैं जो ऊपर से नीचे एक पंक्ति में हैं. ये सारे तारे वृ्श्चिक राशि के आरम्भ में ही स्थित हैं. कुछ विद्वान इसे पताका का दंड या स्तम्भ मानते हैं.

निरायन सूर्य 19 नवम्बर को अनुराधा नक्षत्र में प्रवेश करता है. उस समय अनुराधा नक्षत्र सूर्य के साथ पूर्वी क्षितिज पर उदय होता है. जुलाई मास में रात्रि 9 बजे से 11 बके के मध्य यह नक्षत्र शिरोबिन्दु पर होता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि है. अनुराधा का अर्थ है राधा का अनुगमन करने वाली, राधा के बाद या राधा के पीछे रहने वाली. विशाखा नक्षत्र को राधा मानते हैं तो विशाखा रुपी राधा के बाद में आने वाला नक्षत्र अनुराधा ही कहलाएगा.

विद्वानों ने इस नक्षत्र का प्रतीक चिह्न तपस्वी का दंड माना हैं. यह दंड शक्ति व सुरक्षा का प्रतीक है. देखने में यह एक साधारण सा डंडा होता है पर सच यह है कि अनेक वर्षों की कठिन तपस्या व साधना का बल इस दंड में रहता है. यह दंड बुद्धि, विवेक व अनुभव का प्रतीक है. यह नक्षत्र दैवीय ज्ञान व दिव्य शक्ति प्रदान कर, जैसे तपस्या का फल दे रहा हो. कुछ विद्वानों ने इसे कमल माना है. कमल सदा ही कीचड़ में खिलता है.

द्वादश आदित्य में से मित्र नामक आदित्य को अनुराधा नक्षत्र का देवता माना गया है. नाम से ही स्पष्ट है कि अनुराधा नक्षत्र जातक मैत्री, विश्वास व सहयोग करने वाला होता है. अनुराधा का देवता मित्र, सदा ही मित्रों के साथ रहना पसन्द करता है. इसी कारण इसका आहवान एकाकी नहीं होता वरन मित्र को सदा ही वरूण अथवा अर्यमा के साथ आमंत्रित किया जाता है. यह नक्षत्र ज्ञान पिपासु, विद्या व्यसनी व नयी जानकारी बटोरने का इच्छुक होता है.

खोज, अन्वेषण व शोध को अनुराधा नक्षत्र का मूलमंत्र कहा जा सकता है. सृ्ष्टि की कार्य योजना में अनुराधा नक्षत्र का संबंध आराधना या पूजा उपासना से जोडा़ गया है. कुछ विद्वानों का मानना है कि राधा का आना ही आराधना है. अनुराधा को कुछ विद्वानों ने निष्क्रिय नक्षत्र माना है. इस नक्षत्र की जाति शूद्र जाति है. शूद्र का गुण सेवा करना है. ये शूद्र ब्राह्मण व तपस्वियों के बीच रहते थे. नक्षत्रपति शनि होने से, अनुराधा को शुद्र जाति का माना गया है. यह नक्षत्र निश्चय ही सेवा धर्मी है. इसकी मान्यता है कि नेता व राजा दोनों ही सेवक होते हैं. वे जिन पर शासन करते है उनकी सेवा का दायित्व भी इन्ही का होता है.

विद्वानों ने अनुराधा नक्षत्र को पुरुष नक्षत्र माना है. इस नक्षत्र का देवता मित्र तथा राशीश मंगल दोनों ही पुरुष ग्रह हैं. वक्षस्थल, उदर, आमाशय व गर्भाशय को इस नक्षत्र का अंग माना गया है. अनुराधा का देवता व राशिपति अग्नि ग्रह होने से इसे पित्त प्रधान नक्षत्र माना है. यह नक्षत्र विद्युत तरंग व सूक्ष्म देह की ऊर्जा को दर्शाता है. इडा, पिंगला व सुषुम्णा नाडी़ में प्राण वायु बन कर इस ऊर्जा का प्रवाह होता है.

अनुराधा नक्षत्र की दिशा दक्षिण-पश्चिम दिशा या नैऋत्य कोण से मानी है. कुछ विद्वान राशिपति मंगल की दिशा दक्षिण तथा वृ्श्चिक राशि की दिशा उत्तर पर भी अनुराधा का अधिकार व प्रभाव मानते हैं. इस नक्षत्र का दो तामसिक ग्रहों मंगल व शनि से संबंध इसे तमोगुणी नक्षत्र बनाता है. अनुराधा को अग्नितत्व नक्षत्र मानते हैं. क्योंकि राशीश मंगल एक अग्नितत्व ग्रह है.

अनुराधा को देवगण नक्षत्र माना गया है. दैवीय गुणों से संपन्न होता है. अनुराधा नक्षत्र संतुलन व समता प्रिय, तिर्यकमुखी नक्षत्र है. यह मृ्दु व कोमल नक्षत्र भी है. अनुराधा का प्रतीक कमल बहुत सुन्दर व कोमल पुष्प है. मई मास में आने वाले वैशाख मास के उत्तरार्ध को अनुराधा का चन्द्रमास माना जाता है. इस नक्षत्र का संबंध कृ्ष्ण व शुक्ल द्वादशी तिथि से है.

अनुराधा नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'ना' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'नी' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'नू' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'ने' है. विद्वानों ने अनुराधा को मृ्ग या हिरण की योनि माना है. अनुराधा नक्षत्र कुंडलिनी शक्ति जागृ्त करने में सहायक होती है. अनुराधा नक्षत्र को महर्षि अंगिरा का वंशज माना जाता है. अंगिरा का अर्थ है अग्नि सरीखा, तेजस्वी, ऊर्जावान व शक्ति सम्पन्न. कारण यह है कि यह नक्षत्र वृ्श्चिक राशि में पड़ता है. वृ्श्चिक राशि का संबंध मंगल, केतु व प्लुटो जैसे अग्नि प्रधान ग्रहों से है.


#अनुराधा नक्षत्र - Anuradha Nakshatra
यह नक्षत्र वृश्चिक राशि में 3 अंश 20 कला से 16 अंश 40 कला तक रहता है. क्रान्ति वृ्त्त से 1 अंश 59 कला 9 विकला दक्षिण में तथा विषुवत वृ्त्त से 22 अंश 36 कला 48 विकला दक्षिण में है. इस नक्षत्र में 4 तारे हैं जो ऊपर से नीचे एक पंक्ति में हैं. ये सारे तारे वृ्श्चिक राशि के आरम्भ में ही स्थित हैं. कुछ विद्वान इसे पताका का दंड या स्तम्भ मानते हैं.

निरायन सूर्य 19 नवम्बर को अनुराधा नक्षत्र में प्रवेश करता है. उस समय अनुराधा नक्षत्र सूर्य के साथ पूर्वी क्षितिज पर उदय होता है. जुलाई मास में रात्रि 9 बजे से 11 बके के मध्य यह नक्षत्र शिरोबिन्दु पर होता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि है. अनुराधा का अर्थ है राधा का अनुगमन करने वाली, राधा के बाद या राधा के पीछे रहने वाली. विशाखा नक्षत्र को राधा मानते हैं तो विशाखा रुपी राधा के बाद में आने वाला नक्षत्र अनुराधा ही कहलाएगा.

विद्वानों ने इस नक्षत्र का प्रतीक चिह्न तपस्वी का दंड माना हैं. यह दंड शक्ति व सुरक्षा का प्रतीक है. देखने में यह एक साधारण सा डंडा होता है पर सच यह है कि अनेक वर्षों की कठिन तपस्या व साधना का बल इस दंड में रहता है. यह दंड बुद्धि, विवेक व अनुभव का प्रतीक है. यह नक्षत्र दैवीय ज्ञान व दिव्य शक्ति प्रदान कर, जैसे तपस्या का फल दे रहा हो. कुछ विद्वानों ने इसे कमल माना है. कमल सदा ही कीचड़ में खिलता है.

द्वादश आदित्य में से मित्र नामक आदित्य को अनुराधा नक्षत्र का देवता माना गया है. नाम से ही स्पष्ट है कि अनुराधा नक्षत्र जातक मैत्री, विश्वास व सहयोग करने वाला होता है. अनुराधा का देवता मित्र, सदा ही मित्रों के साथ रहना पसन्द करता है. इसी कारण इसका आहवान एकाकी नहीं होता वरन मित्र को सदा ही वरूण अथवा अर्यमा के साथ आमंत्रित किया जाता है. यह नक्षत्र ज्ञान पिपासु, विद्या व्यसनी व नयी जानकारी बटोरने का इच्छुक होता है.

खोज, अन्वेषण व शोध को अनुराधा नक्षत्र का मूलमंत्र कहा जा सकता है. सृ्ष्टि की कार्य योजना में अनुराधा नक्षत्र का संबंध आराधना या पूजा उपासना से जोडा़ गया है. कुछ विद्वानों का मानना है कि राधा का आना ही आराधना है. अनुराधा को कुछ विद्वानों ने निष्क्रिय नक्षत्र माना है. इस नक्षत्र की जाति शूद्र जाति है. शूद्र का गुण सेवा करना है. ये शूद्र ब्राह्मण व तपस्वियों के बीच रहते थे. नक्षत्रपति शनि होने से, अनुराधा को शुद्र जाति का माना गया है. यह नक्षत्र निश्चय ही सेवा धर्मी है. इसकी मान्यता है कि नेता व राजा दोनों ही सेवक होते हैं. वे जिन पर शासन करते है उनकी सेवा का दायित्व भी इन्ही का होता है.

विद्वानों ने अनुराधा नक्षत्र को पुरुष नक्षत्र माना है. इस नक्षत्र का देवता मित्र तथा राशीश मंगल दोनों ही पुरुष ग्रह हैं. वक्षस्थल, उदर, आमाशय व गर्भाशय को इस नक्षत्र का अंग माना गया है. अनुराधा का देवता व राशिपति अग्नि ग्रह होने से इसे पित्त प्रधान नक्षत्र माना है. यह नक्षत्र विद्युत तरंग व सूक्ष्म देह की ऊर्जा को दर्शाता है. इडा, पिंगला व सुषुम्णा नाडी़ में प्राण वायु बन कर इस ऊर्जा का प्रवाह होता है.

अनुराधा नक्षत्र की दिशा दक्षिण-पश्चिम दिशा या नैऋत्य कोण से मानी है. कुछ विद्वान राशिपति मंगल की दिशा दक्षिण तथा वृ्श्चिक राशि की दिशा उत्तर पर भी अनुराधा का अधिकार व प्रभाव मानते हैं. इस नक्षत्र का दो तामसिक ग्रहों मंगल व शनि से संबंध इसे तमोगुणी नक्षत्र बनाता है. अनुराधा को अग्नितत्व नक्षत्र मानते हैं. क्योंकि राशीश मंगल एक अग्नितत्व ग्रह है.

अनुराधा को देवगण नक्षत्र माना गया है. दैवीय गुणों से संपन्न होता है. अनुराधा नक्षत्र संतुलन व समता प्रिय, तिर्यकमुखी नक्षत्र है. यह मृ्दु व कोमल नक्षत्र भी है. अनुराधा का प्रतीक कमल बहुत सुन्दर व कोमल पुष्प है. मई मास में आने वाले वैशाख मास के उत्तरार्ध को अनुराधा का चन्द्रमास माना जाता है. इस नक्षत्र का संबंध कृ्ष्ण व शुक्ल द्वादशी तिथि से है.

अनुराधा नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'ना' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'नी' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'नू' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'ने' है. विद्वानों ने अनुराधा को मृ्ग या हिरण की योनि माना है. अनुराधा नक्षत्र कुंडलिनी शक्ति जागृ्त करने में सहायक होती है. अनुराधा नक्षत्र को महर्षि अंगिरा का वंशज माना जाता है. अंगिरा का अर्थ है अग्नि सरीखा, तेजस्वी, ऊर्जावान व शक्ति सम्पन्न. कारण यह है कि यह नक्षत्र वृ्श्चिक राशि में पड़ता है. वृ्श्चिक राशि का संबंध मंगल, केतु व प्लुटो जैसे अग्नि प्रधान ग्रहों से है.


#अन्त्या नाडी़ - Antya Nadi
यह नाडी़ चक्र की तीसरी नाडी़ है. यह नाडी़ कफ़ प्रवृ्त्ति की है. जातक की अन्त्या नाडी़ होने पर उसे कफ़ प्रवृ्त्ति से संबंधित रोग होने की संभावना अधिक रहेगी.

#अन्न प्राशन मुहूर्त - Anna Prashan Muhurta
जन्म के मास से छठे, आठवें, दसवें या बारहवें माह में पुत्र को और पांचवें, सातवें या नौवें या ग्यारहवें माह में पुत्री को प्रथम बार अन्न प्राशन कराना उपयुक्त होता है. अन्न प्राशन में शुक्ल पक्ष उपयुक्त होता है. कृ्ष्ण पक्ष की प्रथमा, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी तिथियों को भी ले सकते हैं.

वार - सोमवार, बुधवार, बृह्स्पतिवार और शुक्रवार शुभ दिन हैं.

नक्षत्र - अश्विनी, रोहिणी, मृ्गशिरा, पुनर्वसु, उतराफाल्गुनी, उत्तराषाढा़, उत्तराभाद्रपद, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, अभिजीत, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती तथा जन्म-नक्षत्र 'सप्तशलाका चक्र' द्वारा क्रूर ग्रह विद्ध नक्षत्र त्याज्य होगा.

जन्म राशि से छठे, आठवें लग्न को छोड़कर 2,3,4,5,6,7,9,10,11 वें भावों का लग्न हों और लग्न से पहले, दूसरे, सातवें भावों में शुभ ग्रह हों तथा लग्न पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो. अन्न प्राशन के दिन पूर्वार्द्ध भाग में बालक की राशि का चन्द्र बल देखकर भद्रा रहित काल को लेना चाहिए.

सर्वप्रथम भगवान का स्मरण करें तथा दिक्पतियों की पूजा करके माता स्वलंकृ्त बालक को अपनी गोद में बिठाकर ईश्वर-स्मरण करते हुए उसे मधु, घृ्त, दूध, दही खीर का भोजन कराएं.

#अपमृ्त्यु सहम - Apmrityu Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- अष्टम भाव मध्य रेखांश - मंगल + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- मंगल - अष्टम भाव मध्य रेखांश + लग्न

#अभिजित नक्षत्र - Abhijit Nakshatra
अभिजित नक्षत्र 4 अंश 13 कला 20 विकला तक के अधिकार क्षेत्र में रहता है. यह अन्य सभी नक्षत्रों से भिन्न हैं. इसे उत्तराषाढा़ नक्षत्र के चतुर्थ चरण में स्थान मिला है. अभिजित नक्षत्र का कुछ भाग श्रवण नक्षत्र के क्षेत्र में भी आता है. यह नक्षत्र मकर राशि में 6 अंश 40 कला से लेकर 10 अंश 53 कला 20 विकला तक रहता है. क्रान्तिवृ्त्त से 6 अंश 43 कला 59 विकला उत्तर तथा विषुवत रेखा से 38 अंश 46 कला 51 विकला उत्तर में है.

अभिजित नक्षत्र वीणा मंडल का सदस्य है. वीणा का संबंध ज्ञान व कला की देवी सरस्वती से है. यह एक तारे वाला नक्षत्र है. यह 13 हजार वर्ष पहले ध्रुव की सीध में था. 13 हजार वर्ष बाद पुन: ध्रुव की सीध में आ जाएगा. यह नक्षत्र मकर संक्रान्ति के एक सप्ताह बाद, 20 जनवरी को पूर्वी क्षितिज पर उदय होता है तो अगस्त मास में सुदूर उत्तरी आकाश में रात्रि 9 बजे के बीच यह शिरो बिन्दु पर दिखाई देता है.

अभि + जित के योग से अभिजित शब्द बना है. अभि का अर्थ है अधिक या श्रेष्ठ . अभिजित का प्रयोग भगवान विष्णु के लिए होता है. भगवान विष्णु को असुरों का नाश करने वाला तथा धर्म की रक्षा करने वाला माना गया है. अभिजित का अर्थ है अजेय, सदा विजयी, अन्तिम व निर्णायक विजय.

यह एकल तारा बहुत चमकीला है चमकीलें तारे का अर्थ है - ऎसा जातक प्रतिभाशाली, यशस्वी, गुणी व उत्सव या सभा में आकर्षण का मुख्य केन्द्र होता है. कुछ विद्वान इसे तीन तारों से बना त्रिकोण मानते हैं. त्रिकोण उन्नति, ऊर्जा व गतिशीलता का परिचायक है.

कुछ विद्वान अभिजित नक्षत्र का अधिदेवता विश्वदेव को ही मानते हैं. उनका मत है कि अभिजित नक्षत्र उत्तराषाढा़ का ही अंग है तो इसका देवता व नक्षत्रपति ग्रह उत्तराषाढा़ वाले विश्वदेव को ही मानना चाहिए. अन्य विद्वान अभिजित नक्षत्र पर भगवान विष्णु का अधिकार मानते हैं. एक अन्य विद्वानों का वर्ग अभिजित को ब्रह्मा के अधीन मानता है. उनका तर्क है कि अभिजित की सृ्जनात्मक प्रवृ्ति सृ्ष्टिकर्त्ता ब्रह्मा जैसी है.

अभिजित नक्षत्र सात्विक नक्षत्र है. यह नक्षत्र वैश्य जाति का नक्षत्र माना गया है. अभिजित नक्षत्र का अधिक भाग उत्तराषाढा़ में पड़ने से इस नक्षत्र को स्त्री नक्षत्र माना है. इस नक्षत्र की समाप्ति पुरुष नक्षत्र में हुई है. विद्वानों ने मस्तिष्क को अभिजित नक्षत्र का अंग माना है. इस नक्षत्र को कफ़ प्रधान ऩात्र माना जाता है.

पश्चिम दिशा को विद्वानों ने अभिजित नक्षत्र की दिशा स्वीकारा है. अन्य विद्वान पश्चिम, पश्चिम - उत्तर तथा उत्तर दिशा से बने चाप को अभिजित नक्षत्र की दिशा मानते हैं. विद्वानों ने अभिजित नक्षत्र को मनुष्य गण नक्षत्र माना है. इस नक्षत्र को ऊर्ध्वमुखी नक्षत्र माना जाता है. अभिजित को लघु या क्षिप्र नक्षत्र माना जाता है.

अभिजित का संबंध आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी से पूर्णिमा तक माना जाता है. पूर्णिमा को अभिजित की तिथि माना जाता है. ये दोनों बातें उत्तराषाढा़ नक्षत्र के समान हैं. विद्वानों ने अभिजित ऩक्षत्र के नामाक्षर 'जू' 'जे' 'जो' 'खा' को माना है. इस नक्षत्र को नकुल योनि में स्वीकारा गया है. विद्वानों ने अभिजित नक्षत्र को महर्षि मरीचि का वंशज माना है. कुछ विद्वान राधा रानी जी के 28 नामों को 28वाँ नक्षत्र अभिजित , का शुभ प्रभाव मानते हैं.

#अमात्यकारक - Amatya Karaka
जैमिनी ज्योतिष में दूसरा महत्वपूर्ण कारक ग्रह अमात्य कारक है. दूसरे स्थान पर जिस ग्रह के अधिकतम अंक हो वह अमात्यकारक होता है. जहाँ कोई प्राकृ्तिक अमात्यकारक नहीं है वहाँ हम बुध को मान सकते हैं. यह कुण्डली में दशम भाव का कारक ग्रह है. इस से व्यवसाय का अध्ययन किया जाता है.

#अमृ्तसिद्धि नक्षत्र - Amrit Siddhi Nakshatra
जब कुछ नक्षत्र, वार विशेष में पड़ते हैं तो अमृ्तसिद्धि योग बनता है. सभी शुभ कार्य कर सकते है.

रविवार को हस्त नक्षत्र

सोमवार को मृ्गशिरा नक्षत्र

मंगलवार को अश्विनी नक्षत्र

बुधवार को अनुराधा नक्षत्र

गुरुवार को पुष्य नक्षत्र

शुक्रवार को रेवती नक्षत्र

शनिवार को रोहिणी नक्षत्र होने से अमृ्तसिद्धि योग बनता है.

इनमें कुछ कार्य वर्जित है जैसे मंगलवार के दिन अमृ्तसिद्धि योग बनता है तो गृ्ह निर्माण और गृ्ह प्रवेश उस दिन नही करना चाहिए.

गुरुवार के दिन ये योग होने से शादी नहीं करनी चाहिए.

शनिवार के दिन इस योग के होने पर यात्रा वर्जित है. दक्षिण दिशा के लिए बिल्कुल वर्जित है.

#अयन - Ayan
नाडी़वृ्त्त और क्रांतिवृ्त्त एक-दूसरे को दो जगह काटते हैं, वे सम्पात बिन्दु है. इन्हीं दो बिन्दुओं को अयन भी कहते हैं. इन्ही बिन्दुओं पर सूर्य आने से दिन रात बराबर होते हैं. इन संपात बिन्दुओं की वक्र गति होती है. शरद संपात का बिन्दु अपनी पूर्व स्थिति से पीछे हटता जा रहा है इसी कारण इसे वक्र गति कहते है. अर्थात अयन बिन्दु पश्चिम की ओर खिसक रहे हैं.

इस संपात बिन्दु की पूर्व स्थिति, ज्योतिष शास्त्र में रेवती नक्षत्र से मानी गई है, परन्तु ज्योतिष चक्र (भचक्र) में संपात बिन्दु मेष के प्रथम अंश से माना गया है. इस संपात बिन्दु की वार्षिक गति होती है और यही गति अयन चलन कहलाता है.

जहाँ इस सायन का उपयोग होता है उसे सायन (चलित ग्रह) कहते हैं. निरयन में स्थिर मेष के पहले अंश से संपात बिन्दु का आरम्भ मानते है और इसमें अयन का उपयोग नहीं होता इस कारण निरयन को स्थिर भचक्र कहते है.

इसी संपात की गति को अयनाँश कहते हैं. इस संपात का पूर्ण चक्र 25868 वर्ष में पूरा होता है. इस कारण इसको एक अंश चलने में 72 वर्ष लगते है. एक वर्ष में प्राय: 50 विकला के हिसाब से अयन की गति होती है.

अयनांश सहित ग्रह - चलित ग्रह - सायन ग्रह - सायन मत

अयनांश रहित ग्रह - स्थिर ग्रह - निरयन ग्रह - निरयन मत

सायन मत को पाश्चात्य लोग भविष्य कथन में उपयोग करते हैं उनके पंचांग में सायन ग्रह दिए रहते हैं, परन्तु हिन्दु लोग प्राय: निरयन मत से ही भविष्य कथन करते है. कहीं-कहीं महाराष्ट्र में भी सायन मत का उपयोग करते है.

जो कोई ग्रह में अयनांश मिलाकर ग्रह को सायन बनाकर सायन ग्रह का उपयोग करते हैं वे सायन मत के हैं और जो सायन में से अयनांश निकालकर (घटा कर) उसे निरयन बनाकर या निरयन ग्रह हो तो बिना अयनांश मिलाये ही ग्रह का उपयोग करते हैं वे निरयन मत के है.

#अर्गला - Argala
किसी भी राशि के स्वामी ग्रह से चतुर्थ भाव, द्वितीय भाव, एकादश भाव में कोई ग्रह स्थित हो तो अर्गला कहते हैं. साथ ही इन तीनों अर्गला स्थानों से दसवें, बारहवें तथा तीसरे स्थान बाधक स्थान होते हैं. यदि इन स्थानों में ग्रह हो तो अर्गला का प्रतिबन्ध होगा. अर्थात चतुर्थ का प्रतिबन्ध 10वाँ स्थान, दूसरे का 12वाँ स्थान और 11वें का तीसरा स्थान प्रतिबन्ध स्थान होगा.

#अर्थ सहम - Arth Saham
दिन व रात्रि वर्ष प्रवेश दोनों के लिए :- द्वित्तीय भाव मध्य रेखांश - द्वित्तीयेश + लग्न

#अवरोही ग्रह - Avarohi Grah
यदि ग्रह अपनी नीच राशि की ओर बढ़ रहा है तब ग्रह की इस अवस्था को अवरोही ग्रह कहते हैं. ग्रह की अवरोही स्थिति को शुभ नहीं माना जाता. यह अशुभ कारक है. जैसे सूर्य कन्या राशि में स्थित है, उसके बाद कन्या से तुला राशि में प्रवेश करेगा. इस प्रकार सूर्य तुला की ओर बढ़ता हुआ अवरोही अवस्था में कहलाएगा. बाकी ग्रहों को भी हम इसी प्रकार से देख सकते हैं.

#अवहकडा़ चक्र - Avahakada Chakra
इसे हम, नामाक्षर से वैर ज्ञान चक्र भी कहते हैं. इस चक्र की मदद से जातक अपने नामाक्षर से अपने वैरी अर्थात शत्रु अथवा मित्र को जान सकता है. जातक अपने नाम से जान सकता है कि किस नाम वाले व्यक्ति से उसका वैर है? इसके लिए जातक को अपने वर्ग की गणना करनी पडे़गी.

अपने वर्ग से पांचवाँ वर्ग शत्रु होता है.

तीसरा वर्ग सम होता है.

चौथा वर्ग मित्र होता है.

इस वर्ग से यह पता चलता है कि जातक का किस व्यक्ति से कैसा संबंध रहेगा अथवा जातक किस व्यक्ति से साझेदारी कर सकता हैं आदि बातों के बारे में जान सकता है. इसका मुख्य आधार जन्म अक्षर होता है.

अ, ई, उ, ए गरूड़

क, ख, ग, घ, ड़ मार्जार

च, छ, ज, झ सिंह

ट, ठ, ड, ढ़, ण श्वान (कुत्ता)

त, थ, द, ध, न सर्प

प, फ, ब, भ, म मूषक

य, र, ल, व मृ्ग

श, ष, स, ह मेष (मेढा़)

#अशुभ कर्तरी - Ashubh Kartari
जब किसी ग्रह के द्वितीय और द्वादश भाव में अशुभ ग्रह हो तो वह ग्रह अशुभ कर्तरी योग में है. यह एक तरह से बन्धन योग बन जाता है.

#अश्लेषा नक्षत्र - Ashlesha Nakshatra
अश्लेषा नक्षत्र कर्क राशि में 16 अंश 40 कला से 30 अंश तक रहता है. अर्थात कर्क राशि की समाप्ति तक यह नक्षत्र रहता है. क्रान्ति वृ्त्त से 11 अंश 6 कला 40 विकला दक्षिण किन्तु विषुवत रेखा से 6 अंश 25 कला 48 विकला उत्तर में अश्लेषा नक्षत्र स्थित है. इस नक्षत्र में 6 तारे हैं जो चक्राकार हैं. सूर्य अगस्त के प्रथम सप्ताह में अश्लेषा नक्षत्र में गोचर करता है. उस समय यह नक्षत्र पूर्व दिशा में उदय होता है. मार्च के अन्त में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के मध्य यह नक्षत्र शिरोबिन्दु पर होता है. अश्लेषा नक्षत्र को वासुकि का सिर माना जाता है. यह नक्षत्र मंडल के प्रथम तृ्तीयाँश का नवम नक्षत्र होने से मूल संज्ञक माना जाता है. इसका नक्षत्रपति बुध है.

अश्लेषा नक्षत्र के तारा चक्र को सर्पराज वासुकि के सिर में स्थान मिला है. इसका संबंध सर्प की कुण्डली, सबको समेटने वाला, सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व से माना जाता है. कुछ विद्वान इसका संबंध, भगवान विष्णु के शेष शैय्या वाले नागराज शेष से जोड़ते हैं. मस्तिष्क की कार्य प्रणाली पर शोध करने वाले चिकित्सकों ने अश्लेषा नक्षत्र जातकों को क्रूर, प्रतिशोधी व हिंसक माना है. विचित्र बात तो यह है कि जैवीय कूट (DNA) भी कुण्डली मारे हुए सर्प जैसा दिखाई देता है. पूर्व जन्म के आधे-अधूरे कार्यों को पूरा करने में अश्लेषा नक्षत्र में स्थित ग्रह विशेष भूमिका निभाते हैं.

पिछले जन्मों के संचित कर्म का एक भाग प्रारब्ध के रुप में प्रगट होता है. इस प्रारब्ध के अशुभ फल में क्या, कैसा व कितना परिवर्तन करने में जीव समर्थ व स्वतंत्र है इसका निर्णय अश्लेषा नक्षत्र पर शुभ प्रभाव से होता है. अश्लेषा नक्षत्र का अधिष्ठाता देवता नागों के राजा शेष नाग को माना जाता है. राम के अनुज लक्ष्मण को शेष नाग का अवतार माना जाता है. इनका जन्म लग्न अश्लेषा नक्षत्र में था.

अश्लेषा नक्षत्र का गुण और स्वभाव भयानक शक्तिशाली असुर जैसा है जो महान मायावी तथा मृ्त्यु का अग्रदुत है. शत्रुओं को तहस-नहस कर उसे निराशा, असफलता व पराजय का उपहार देना इसका सहज कार्य है. अश्लेषा नक्षत्र को विद्वानों ने सक्रिय व प्रति - क्रियावादी या प्रतिशोधी माना है. इस नक्षत्र की जाति विद्वानों ने म्लेच्छ या विधर्मी जाति मानी है. अश्लेषा को स्त्री नक्षत्र माना गया है. अधिकतर अश्लेषा से प्रभावित पुरुष जातक भी बहुधा स्त्रियोचित व्यवहार कर अपना भेद किसी को भी नहीं बताते.

इस नक्षत्र में अस्थि संधि, कोहिनी, घुटना, नाखून व कानों का संबंध आता है. इस नक्षत्र को विद्वानों ने कफ़ प्रकृ्ति का माना है. क्योंकि यह नक्षत्र चन्द्रमा की जल तत्व राशि में होने से कफ़ प्रकृ्ति का माना गया है. इस नक्षत्र की दिशा उत्तर - पश्चिम से उत्तर दिशा तक की चाप को माना गया है. मतान्तर से सर्प नैऋत्यकोण अर्थात दक्षिण - पश्चिम में अधिक बली होते हैं. इस नक्षत्र को सात्विक नक्षत्र माना गया है. यह नक्षत्र जलतत्व नक्षत्र माना गया है.

विद्वानों ने इस नक्षत्र को राक्षस गण माना है. इस नक्षत्र को अधोमुख नक्षत्र माना जाता है. ऎसा जातक भूमि के नीचे छिपी या गुप्त बातों में विशेष रूचि लेता है. इस नक्षत्र को तीक्ष्ण व क्रूर तथा राक्षस प्रकृ्ति का नक्षत्र माना जाता है.

माघ मास का पूर्वार्ध, जो जनवरी में आता है, को अश्लेषा का मास कहा जाता है. शुक्ल व कृ्ष्ण पक्ष की नवमी तिथि का सम्बंध अश्लेषा नक्षत्र के साथ माना गया है.अश्लेषा का राशिपति चन्द्रमा व नक्षत्रपति बुध को मानते हैं. कुछ विद्वान अश्लेषा को एक युद्ध भूमि जैसा मानते हैं.

अश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'डी' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'डू' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'डे' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'डो' है. इस नक्षत्र की योनि मार्जार योनि है. मेरु दंड के निचले छोर पर स्थित मूलाधार चक्र जो कुंडलिनी शक्ति का आरम्भ स्थान भी है, का संबंध अश्लेषा नक्षत्र से माना गया है. अश्लेषा नक्षत्र को ब्रह्म ऋषि वशिष्ट का वंशज माना गया है. वसिष्ट का अर्थ है धन -वैभव युक्त. प्राचीन ग्रन्थों में सर्पों को धन का रक्षक माना जाता था. इसलिए वशिष्ट का गोत्र इस नक्षत्र के लिए तर्क संगत है.

#अश्विनी नक्षत्र - [Ashvini Nakshatra]
अश्विनी नक्षत्र आकाश में तारा मंडल का आरम्भ बिन्दु होने से सभी कार्यों का आरम्भ दर्शाता है. इस नक्षत्र का स्वामी केतु ग्रह है. इस नक्षत्र के चारों चरण मेष राशि में आते हैं. मेष राशि में दो तारे पास-पास हैं जबकि तीसरा तारा नीचे की ओर है. इन तीनो तारों को मिलाने पर अश्व के मुख जैसा आभास होता है. अश्विनी का अर्थ है अश्वी या घोड़ी से उत्पन्न. कुछ विद्वान इसे घोडे़ पर बैठी महिला मानते हैं तो अन्य विद्वान इसे अश्व के मुख वाली महिला मानते हैं. घोडे़ का सिर अश्विनी नक्षत्र का प्रतीक चिह्न है. यह चिह्न आरम्भ को दर्शाता है. सिर का संबंध मस्तिष्क व सभी अवयवों पर नियंत्रण शक्ति से है. यह नक्षत्र मानसिक संवेग तथा नेतृ्त्व करने के गुणों को दर्शाता है. अश्विनी नक्षत्र को दो घोडों द्वारा खींचे जाने वाले वाहन से दर्शाया गया है. इस रथ पर दो युवा बैठे हैं. यह चिह्न नक्षत्र के देवता दोनों अश्विनी कुमारों का प्रतीक है. यहाँ गति व यात्रा को दर्शाया गया है. कुछ विद्वान अश्विनी नक्षत्र को विभिन्न लोकों की यात्रा का प्रतीक मानते हैं.

सूर्य पुत्र अश्विनी कुमार अश्विनी नक्षत्र के स्वामी देवता है. ये दोनों वैद्यक शास्त्र के ज्ञाता, सत्यनिष्ठ, दूसरों की सेवा व सहायता को तत्पर रहते हैं. वेद पुराणों में कथा है कि सूर्य पत्नी संज्ञा जब धरती पर तप कर रही थी तब सूर्य उसे ढूंढते हुए आये. संज्ञा अश्वी रुप में तप कर रही थी तब अश्व रुप में आये सूर्य के साथ उनका मिलन हुआ. जिसके फलस्वरुप देवताओं के चिकित्सक अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ. अश्विनी कुमारों को सभी जड़ी बूटी व वनौषधियों का पूर्ण ज्ञान है.

अश्विनी नक्षत्र सर्वप्रथम नक्षत्र होने से सभी का आरंभ दिखाता है. कुछ विद्वान शिव व पार्वती के पुत्र गणेश को अश्विनी नक्षत्र का स्वामी मानने पर बल देते हैं. अश्विनी नक्षत्र के स्वामी ग्रह केतु पर गणेश जी का ही नियंत्रण है. इस नक्षत्र का स्वभाव व कार्यशैली तीव्र गति से, कम से कम समय में कार्य पूरा कर लेना अश्विनी नक्षत्र का मूल स्वभाव है.

अश्विनी नक्षत्र के गुण व स्वभाव को ध्यान में रखकर हमारे ऋषियों ने इस नक्षत्र को क्रियाशील नक्षत्र माना है.इस नक्षत्र को कार्य आरम्भ करने साथ जोडा़ गया है. किसी भी कार्य को आरंभ करने से पहले शक्ति व योग्यता की ऊर्जा इस नक्षत्र से मिलती है.

अश्विनी नक्षत्र की जाति वैश्य है. कुछ विद्वान विभिन्न स्तर तथा विभिन्न वर्गों के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान का संबंध बनाने में अश्विनी नक्षत्र की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं. इस नक्षत्र को पुरुष संज्ञक माना गया है. अश्विनी नक्षत्र मंगल की राशि में है जिसमें सूर्य उच्च का होता है. इस नक्षत्र का अंग घुटना है. घोडे़ तीव्र गति से दौड़ते हैं क्योंकि उनके घुटने अधिक बली होते हैं. घुटने तथा पाँव का संबंध चलने, दौड़ने आदि से है.

अश्विनी नक्षत्र को वात अर्थात वायु का कारक माना गया है. इस नक्षत्र की मुख्य दिशाएँ केन्द्र या ब्रह्म स्थान होने से, पूर्व (सूर्य की दिशा), दक्षिण तथा उत्तर पश्चिम दिशा मानी गई है. अश्विनी नक्षत्र का निवास स्थान घुड़्साल, घोडों का चरागाह, घोड़दौड़ का मैदान, अश्व चिकित्सा केन्द्र, औषधालय आदि हैं. आधुनिक समय में खेल-कूद का मैदान, यातायात व परिवहन संबंधी स्थान तथा रेल, सड़कें आदि. सैनिक छावनी, मिलिटरी बेस कैंप, अनुसंधान केन्द्र आदि इसके स्थान है. मुख्य तौर पर वे स्थान हैं जहाँ से कार्य का आरम्भ हो वे सभी अश्विनी नक्षत्र से प्रभावित हैं.

विद्वानों ने अश्विनी नक्षत्र को सात्विक नक्षत्र माना है. अश्विनी नक्षत्र भूतत्व प्रधान है. अश्विनी नक्षत्र को देवता से जोड़ा गया है. इसलिए यह देवगण में आता है. अश्विनी को तिर्यक या समतल नक्षत्र कहा है. यह क्षिप्र या लघु नक्षत्र है. अश्विनी मास का पूर्वार्ध अश्विनी नक्षत्र का मास माना गया है. इस नक्षत्र का संबंध शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जोड़ा गया है. कुछ विद्वानों ने अश्विनी नक्षत्र के प्रथम पाद को गंडमूल कहकर शुभ कार्यों के लिये वर्जित माना है.

इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह केतु है जो ध्वज वाहक या झंडा उठाकर सबसे आगे चलने वाला है. अश्विनी नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर चू है. द्वितीय चरण का अक्षर चे है. तृ्तीय चरण का अक्षर चो है और चतुर्थ चरण का अक्षर ला है. अश्विनी नक्षत्र की योनि अश्व है. इस नक्षत्र का गूढ़ प्रभाव यह है कि मनुष्य की कुछ नया करने की स्वाभाविक इच्छा व शक्ति को दर्शाता है.

अश्विनी नक्षत्र का गोत्र मरीचि है. सृ्ष्टि के हित के लिए लगे सप्तऋषियों ने मरीचि मुनि का संबंध अश्विनी नक्षत्र से जोडा़ है. मरीचि का अर्थ है 'प्रकाश'. प्रकाश की गति तीव्रतम है इसी प्रकार अश्विनी नक्षत्र सभी से हल्का व तीव्र गति से काम करने वाला होता है.

#अष्टकवर्ग - Ashtak Varga
कुण्डली में किसी राशि में कितना शुभत्व है और कितना अशुभत्व है अर्थात राशि में कितना बल है यह जानने के लिए अष्टकवर्ग साधन करना पड़ता है. जन्म के समय कुण्डली में जो ग्रह जिस राशि में हैं उसके अनुसार सब ग्रहों का अष्टकवर्ग बनाना पड़ता है. ग्रह के अष्टकवर्ग चक्र में जो अंक दिए गए हैं उनसे प्रकट होता है कि उस स्थान पर वह ग्रह शुभ है या अशुभ है. कुण्डली में भरने के लिए शुभ और अशुभ का चिन्ह बनाया जाता है. कोई शून्य को शुभ मानता है और रेखा को अशुभ मानता है. कोई शून्य को अशुभ मानता है और रेखा को शुभ मानता है.

राहु/केतु को छोड़कर लग्न और सात ग्रहों सहित आठ अष्टकवर्ग या भिन्नाष्टक वर्ग बनते हैं. किसी-किसी भाव में अधिकतम आठ अंक और न्यूनतम शून्य भी हो सकता है.

#अष्टकवर्ग - Ashtakvarg
अष्टकवर्ग कुण्डली में किसी राशि में कितना शुभत्व है या अशुभत्व है अर्थात राशि में कितना बल है यह जानने के लिए अष्टकवर्ग साधन करना पड़ता है. जन्म के समय कुण्डली में जो ग्रह जिस राशि में हैं उसके अनुसार सब ग्रहों का अष्टकवर्ग बनाना पड़ता है. ग्रह के अष्टकवर्ग चक्र में जो अंक दिए गए हैं उनसे प्रकट होता है कि उतने स्थान पर वह ग्रह शुभ है या अशुभ है. कुण्डली में भरने के लिए शुभ और अशुभ का चिन्ह बनाया जाता है. कोई शून्य को शुभ मानता है और रेखा को अशुभ मानता है. कोई शून्य को अशुभ मानता है और रेखा को शुभ मानता है.

राहु/केतु को छोड़कर लग्न और सात ग्रहों सहित आठ अष्टकवर्ग या भिन्नाष्टक वर्ग बनते हैं. किसी - किसी भाव में अधिकतम आठ अंक और न्यूनतम शून्य भी हो सकता है.

#अष्टकूट मिलान - Ashtkoot Milan[Ashtkoot Matching]
अष्टकूट मिलान का अर्थ है आठ कूटों का मिलान. अष्टकूट मिलान में विभिन्न कूटों के मर्म समाहित हैं. ये अष्टकूट मिलान हैं :- वर्ण, वश्य, तारा, योनि, राशीश मैत्री, गण, भकूट और नाडी़ कूट. इन कूटों का वर-वधु दोनों की कुण्डलियों से मिलान होता है.

#अष्टम भाव - Ashtam Bhav[Eighth House]
इस भाव को आयु स्थान भी कहते हैं. इस भाव के अन्य नाम क्षीर, गुण, रंध्र, मांगल्य, मलिन, आधि, पराभव, आयुष्य, अपवाद, अशुचि, विघ्न, छिद्र, निधन, पणफर, त्रिक हैं. इस भाव से आयु का विचार किया जाता है. मरण, व्याधि, रोग, रोग की उत्पत्ति, मानसिक पीडा़, मृ्त्यु का कारण या मृ्त्यु किस प्रकार से हो सकती है आदि का विचार इस भाव से देखा जाता है.

मृ्त्यु के संबंध में हर तरह का विचार इस भाव से किया जाता है. मरने के बाद गति होगी या नहीं, पूर्व जन्म और अग्रिम जन्म का वृ्तांत, निर्याण, जीवन का समय, अरिष्ट, दीर्घ जीवन, हानि या बरबादी, संकट आदि का विचार इस भाव से किया जाता है.

पाप, वध, पितृ ऋण, पूर्व संचित द्र्व्य, अचानक होने वाले लाभ, दहेज, अत्यंत भयंकर मार्ग, छिद्र, छिद्र मार्ग, बंधन, सजा, क्रूरता, अपमान, पद हानि और हर तरह के दोषारोपण अष्टम भाव से देखे जाते हैं. ज्येष्ठ बहन का पुत्र, जननेन्द्रिय, अचानक होने वाली घटनाएँ आदि इस भाव से देखी जाती हैं. इस भाव से गुह्येन्द्रिय और गुप्त अंगों का विचार किया जाता है.

इस भाव से स्त्रियों का माँगल्य, मरे हुए व्यक्ति का धन, वसीयत या बीमा कंपनी से प्राप्त धन आदि का विचार किया जाता है. इस भाव से पैतृ्क संपत्ति, विरासत में मिलने वाला धन, अचानक धन लाभ इस भाव के कारक हैं. सप्तम भाव द्वितीय मारक स्थान है. इस भाव में स्थित और इस भाव के स्वामी ग्रह को मारकेश कहा गया है. इस भाव से मृ्त्यु का विचार, कैद, जहर से मृ्त्यु, ऊँचाई से गिरना आदि का विचार किया जाता है. लम्बी बीमारी, मृ्त्यु का कारण, यौन तथा दाम्पत्य जीवन को इस भाव से देखते हैं.

#अष्टमांश - Ashtamansha
यह वर्ग आयु एवं आयुर्दाय के विषय में जानकारी देता है. 30 डिग्री के 8 बराबर भाग किये जाते है. प्रत्येक भाग 3 डिग्री 45 मिनट का होता है. अगर ग्रह चर राशि में हैं तो गणना मेष राशि से शुरु होती है. यदि ग्रह स्थिर राशि में हैं तो गणना धनु राशि से शुरु होती है. अगर ग्रह द्विस्वभाव राशि में है तो गणना सिंह राशि से शुरु होती है.

#अष्टोत्तरी दशा - Ashtottari Dasha
इस दशा का नियम है कि यदि राहु, लग्न के स्वामी से केन्द्र (लग्न को छोड़कर) या त्रिकोण में स्थित हो तो अष्टोत्तरी दशा का प्रयोग किया जाता है. कश्मीर और मध्यप्रदेश में यह सर्वाधिक प्रचलन में है. इस दशा में केतु को शामिल नहीं किया गया है. यह कुल 108 वर्षों की दशा होती है.

पाप ग्रह सूर्य, मंगल, शनि तथा राहु चार-चार नक्षत्र के स्वामी है. शुभ ग्रह चन्द्र, बुध, गुरु और शुक्र तीन-तीन नक्षत्र के स्वामी हैं. पाप ग्रहों के दशा मान का चतुर्थांश एक-एक नक्षत्र में दशा वर्ष होते हैं. मंगल की महादशा 8 वर्ष है, अत:वह चार नक्षत्र जिनका स्वामी मंगल है, उन चारों नक्षत्र का मान दो वर्ष है. शुभ ग्रहों में एक-एक नक्षत्र का दशामान ग्रह की दशा वर्ष का तृतीयांश होगा. यदि लग्न में कोई ग्रह हो तब आर्द्रा नक्षत्र से गणना करें. यदि लग्न में कोई ग्रह नहीं है तब कृतिका से गणना करें.

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यदि किसी जातक का जन्म शुक्ल पक्ष की रात में हुआ है या कृ्ष्ण पक्ष की दिन में हुआ है तो अष्टोत्तरी दशा के अनुसार फलादेश करना चाहिए.

#असंगति मास Asangati Maas
चन्द्र को एक भूमि नीच स्थिति से दूसरी भूमि नीच स्थिति तक पहुँचने में लगने वाला समय ‘असंगति मास’ सकहलाता है. इसकी अवधि 27.55 दिन की होती है.

#अस्तंगत ग्रह - Astangat Grah
यदि कोई ग्रह सूर्य के बहुत समीप आता है तब वह अस्त हो जाता है. हर ग्रह के अस्त होने के अंश भिन्न - भिन्न होते हैं. जब ग्रह अपने अस्त अंशों पर पहुँचता है तो यह ग्रह की अस्तंगत स्थिति होती है.

#आत्म कारक - Aatma Karaka
जैमिनी ज्योतिष में जिस ग्रह के अंश सबसे अधिक होते हैं उसे आत्म कारक कहते हैं. आत्म कारक का शक्तिशाली या निर्बल होना जन्मपत्री को निर्बल या शक्तिशाली होने को दर्शाता है. इसलिये आत्मकारक की स्थिति का कुण्डली में विशेष महत्व है. प्राकृ्तिक आत्मकारक सूर्य है.

#आद्य नाडी़ - Adya Nadi
ज्योतिष शास्त्र की तीन नाड़ियों में से पहली नाडी़ आद्य नाडी़ है. यह नाडी़ वात प्रवृ्त्ति की होती है. जिस जातक की आद्य नाडी़ है, उसे वात या वायु विकार से संबंधित रोग अधिक होगें.

#आधानादि नक्षत्र संज्ञा - Adhanadi Nakshatra Sangya
जन्म नक्षत्र, आधान नक्षत्र, कर्म नक्षत्र , वैनाशिक नक्षत्र, सामुदायिक नक्षत्र, सांघातिक नक्षत्र इन छ: नक्षत्रों को आधानादि नक्षत्र कहा गया है. इन नक्षत्रों का अध्ययन फलित करने के लिए किया जाता है. इन नक्षत्रों में अभिजित सहित 28 नक्षत्रों को लिया जाता है. इनका उपयोग गोचर में विशेष रुप से किया जाता है.

यदि जन्म नक्षत्र पीड़ित है तब मरणतुल्य कष्ट होता है. यदि कर्म नक्षत्र पीड़ित है तब व्यक्ति के काम में बाधा या कष्ट होता है. आधान नक्षत्र के पीड़ित होने पर व्यक्ति को प्रवास करना पड़ता है. वैनाशिक नक्षत्र में शरीर में कष्ट तथा अपने प्रियजनों से विरोध होता है. सामुदायिक नक्षत्र में अनिष्ट की संभावना रहती है. सांघातिक नक्षत्र में कोई बडी़ हानि होने की संभावना बनी रहती है. मानस नक्षत्र में मन में संताप रहता है.

(1) जन्म नक्षत्र - यह जन्म कालीन चन्द्रमा का नक्षत्र है.

(2) कर्म नक्षत्र - जन्म नक्षत्र से दसवां नक्षत्र कर्म नक्षत्र होता है.

(3) आधान नक्षत्र - जन्म नक्षत्र से 19वां नक्षत्र आधान नक्षत्र कहलाता है.

(4) वैनाशिक नक्षत्र - जन्म नक्षत्र से 23वां नक्षत्र वैनाशिक नक्षत्र कहलाता है.

(5) सामुदायिक नक्षत्र - जन्म नक्षत्र से 18वां नक्षत्र सामुदायिक नक्षत्र कहलाता है.

(6) सांघातिक नक्षत्र - जन्म नक्षत्र से 16वां नक्षत्र सांघातिक नक्षत्र कहलाता है.

(7) मानस नक्षत्र - जन्म नक्षत्र से 25वां नक्षत्र मानस संज्ञक नक्षत्र होता है.

सभी नक्षत्रों की गणना अभिजित सहित है.

#आयुष्मान योग - Aayushman Yog
इस योग में जन्मा व्यक्ति दीर्घायु, निरोग, धनी, साहसी, मानी-अभिमानी, कवी, विजयी होता है. व्यक्ति को जंगल और अनेक स्थानों पर घूमने की इच्छा होती है.

#आरूढ़ लग्न या पद लग्न - Aarudh Lagna or Pad Lagna
लग्नेश, लग्न से जितने भाव दूर हो उन भावों को गिन लें और लग्नेश जहाँ स्थित है वहाँ से उतने ही भाव गिनें जितने लग्न से लग्नेश तक गिनें थे. जो भाव प्राप्त होता है इस भाव को आरूढ़ लग्न या पद लग्न कहते हैं. माना लग्न मेष है और लग्नेश मंगल चतुर्थ भाव में स्थित है जो लग्न से चतुर्थ भाव हुआ. अब चतुर्थ भाव से चतुर्थ भाव सप्तम भाव में आरूढ़ लग्न बनेगा.

#आरोही ग्रह - Aarohi Grah
यदि ग्रह अपनी उच्च राशि की ओर बढ़ रहा है, तब ग्रह की यह आरोही अवस्था कहलाती है. यह ग्रह की शुभ अवस्था कहलाती है. जैसे सूर्य मीन राशि से मेष राशि की ओर बढ़्ता हुआ आरोही अवस्था में कहलाएगा.

#आर्द्रा नक्षत्र - Ardra Nakshatra
आर्द्रा नक्षत्र का क्षेत्र मिथुन राशि में 6 अंश 40 कला से 20 अंश तक रहता है. यह नक्षत्र एक ही तारे से मिलकर बना है जो सर्वाधिक चमकीले 20 तारों में गिना जाता है. इस लाल रंग के तारे में संहारकर्ता शिव का निवास है ऎसी प्राचीन मान्यता है. यह नक्षत्र क्रान्ति वृ्त्त से 15 अंश 1 कला 39 विकला दक्षिण किन्तु विषुवत वृ्त्त से 7 अंश 24 कला -24 विकला उत्तर की ओर है. रोहिणी से मृ्गशिरा तक एक रेखा खींच कर यदि उसे दक्षिण पूर्व दिशा में बढाएँ तो यह आर्द्रा नक्षत्र पर पहुँच जाएगी.

जून मास के तीसरे सप्ताह में प्रात: पूर्व दिशा में आर्द्रा नक्षत्र का उदय होता है तथा फरवरी मास में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के बीच यह आर्द्रा नक्षत्र शिरो बिन्दु पर होता है. निरायन सूर्य 21 जून को आर्द्रा में प्रवेश करता है.राहु को आर्द्रा का नक्षत्रपति माना जाता है. आर्द्रा का अर्थ है नमी, भीषण गर्मी के बाद, नमी के कारण बादल बरसने का समय, आर्द्रा में सूर्य प्रवेश से आरम्भ होता है. सूर्य का इस नक्षत्र पर गोचर ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति व वर्षा ऋतु के आगमन को दर्शाता है. वर्षा का अर्थ है चारों तरफ हरियाली, खेतिं में भरपूर फसल व समाज में खुशहाली.

कुछ विद्वानों ने आर्द्रा का संबंध पसीने और आँसू की बूँद से जोडा़ है. उनका विचार है जन ग्रीष्म ऋतु प्रच्ण्ड व उग्र होती है तो एक ओर पसीना टपकता है तो दूसरी ओर अन्न व जल का अभाव सामान्यजन को रुला देता है. कुछ विद्वान आर्द्रा को चमकीला हीरा तो कुछ अन्य आँसू की बूँद मानते है. सच इतना है कि सभी प्रकार की नमी, ठंडक व गीलापन आर्द्र्ता कहलाता है. जो बीत गया उसे भूल जाओ नए का स्वागत करो यही संदेश आर्द्रा नक्षत्र में छिपा है. दृ्ढ़्ता, धैर्य, सहिष्णुता व सतत प्रयास का महत्व आर्द्रा नक्षत्र सिखलाता है. कहीं- कहीं पर आर्द्रा नक्षत्र को 'मनुष्य का सिर भी कहा गया है.

रुद्र या शिव को आर्द्रा नक्षत्र का अधिपति देवता माना गया है. लाल रंग दैत्यों के संहार को दर्शाता है. आर्द्रा को विद्वानों ने प्राणदाता या जीवनदाता कहा है. भगवान शिव की संहार लीला, खेत में उगी अनचाही खरपतवार को निकाल बाहर फैंकने की क्रिया है. आर्द्रा नक्षत्र परिवर्तन व मंथन का प्रतीक है. आर्द्रा नक्षत्र का संबंध उत्साह, भावावेश व कठिन परिश्रम करने क्षमता से है. आध्यात्मिक दृ्ष्टि से विकसित व्यक्ति, सृ्ष्टि - सृ्ष्टा, व्यक्ति और समाज तथा प्रकृ्ति और पुरुष का संबंध जानने का प्रयास करता है तथा आर्द्रा ऩात्र से प्राप्त ऊर्जा का प्रयोग समाज और विश्व - कल्याण के लिए करता है. आर्द्रा नक्षत्र को समतल व संतुलन देने वाला नक्षत्र माना गया है.

आर्द्रा का स्वामी राहु शूद्र या अंत्यज कसाई माना जाता है. सडी़-गली व अनुपयोगी वस्तुओं को नष्ट कर, साफ - सफाई रखना आर्द्रा नक्षत्र का मुख्य कार्य है. दोनों नेत्र तथा मस्तक का आगे और पीछे वाला भाग आर्द्रा के हिस्से में आते हैं. किसी विषय को समझकर उसका विश्लेषण करना आर्द्रा का स्वभाव है. सभी अंगों का संचालन व नियंत्रण करने वाली कार्य प्रणाली मस्तिष्क के आगे व पीछे वाले भाग या आर्द्रा नक्षत्र के क्षेत्र में ही है. इस नक्षत्र का संबंध वात दोष या वायु विकार से है. क्योंकि आर्द्रा नक्षत्र वायु प्रधान राशि मिथुन में हैं तो इसका स्वामी राहु भी वायु प्रधान ग्रह है.

दक्षिण-पश्चिम या नैऋत्य कोण के साथ पश्चिम व उत्तर मतान्तर से वायव्य कोण को आर्द्रा नक्षत्र की दिशा माना गया है. विद्वानों ने आर्द्रा नक्षत्र को तामसिक या तमोगुणी माना है. आर्द्रा को विद्वानों ने जल तत्व प्रधान माना है क्योंकि इसमें कल्पनाशक्ति व भावुकता की प्रधानता है. इस नक्षत्र का गण मनुष्य माना गया है. आर्द्रा को ऊर्ध्वमुखी नक्षत्र माना जाता है. इसे तीक्ष्ण नक्षत्र भी कहा जाता है. मार्गशीर्ष मास के उत्तरार्ध को आर्द्रा नक्षत्र से जोडा़ गया है. शुक्ल व कृ्ष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को आर्द्रा की आध्यात्मिक शक्ति बढा़ने के लिये उपयोगी माना जाताहै.

आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर कु है. दूसरे चरण का अक्षर ख है तृ्तीय चरण का अक्षर न है. चतुर्थ चरण का अक्षर छ है. विद्वानों ने आर्द्रा नक्षत्र की योनि श्वान योनि मानी है. आर्द्रा नक्षत्र को महर्षि पुलह का वंशज माना जाता है.

#आशा सहम - Asha Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- शनि - शुक्र + लग्न
रात्रि का वर्ष प्रवेश :- शुक्र - शनि + लग्न

#ऎन्द्र योग - Aindra Yog
इस योग में जन्म लेने वाला जातक चतुर होता है. बलवान, धनवान, पराक्रमी होता है. जातक की कफ़ प्रकृ्ति होती है. जातक अपने कुल में श्रेष्ठ होता है. जातक अल्पायु होता है. सुखी, गुणवान, भोगी, बुद्धिमान व उपकारी होता है.

#औसत सौर दिन [Mean Solar Day]
वर्ष के सभी दिनों का औसत, औसत- सौर दिवस कहलाता है. औसत सूर्य समय में उसकी अवधि 24 घण्टे की होती है.

#बंधक सहम(कैद) - Bandhak Saham [Constrain]
दिन का वर्ष प्रवेश :- बुध - चन्द्र + लग्न
रात्रि का वर्ष प्रवेश :- चन्द्र - बुध + लग्न

#बल - Bal
जैमिनी ज्योतिष में बल की गणना

राशि बल

राशि बल का प्रथम आधार है राशियों का अपना स्वभाव, इसे हम राशि बल कहते हैं. राशि बल में हम तीन प्रकार के बलों की गणना करते हैं.

चर बल

12 राशियों को तीन हिस्सों चर, स्थिर व द्विस्वभाव में बाँटा गया है. चर राशियों को 20 इकाई, स्थिर राशियों को 40 इकाई और द्विस्वभाव राशियों को 60 इकाई दी जाती हैं.

स्थिर बल

यदि किसी राशि में ग्रह है तो उस राशि को 10 इकाई बल प्राप्त होता है. यदि किसी राशि में दो ग्रह बैठे हों तो उस राशि को 20 इकाई अतिरिक्त बल मिलेगा.

दृ्ष्टि बल

राशियों को यह बल ग्रहों की दृ्ष्टि से प्राप्त होगा. जो भी राशि अपने स्वामी से दृ्ष्ट होगी उसे 60 षष्टियाँश बल प्राप्त होगा. बुध और गुरु को जैमिनी ज्योतिष में विशेष दृ्ष्टि प्राप्त है. बुध और गुरु जिन राशियों को देखते हैं व जिन राशियों में स्थित है उन राशियों को 60 षष्टियाँश अतिरिक्त दृ्ष्टि बल प्राप्त होता है.

#बाण पंचक - Baan Panchak
बाण पाँच प्रकार के होते हैं.

रोग बाण
अग्नि बाण
राज बाण
चोर बाण
मृ्त्यु बाण.
बाणों में प्रमुखतया मृ्त्यु बाण का विवाह में त्याग करना चाहिए.

#बाधक ग्रह - Badhak Grah
यदि लग्न में चर राशि उदय होती है तब एकादशेश बाधक होता है.
स्थिर लग्न के लिए नवमेश बाधक होता है.
द्विस्वभाव लग्न के लिए सप्तमेश बाधक ग्रह होता है.

#बालादि अवस्था - Baladi Avastha
यदि ग्रह जन्म कुण्डली में विषम राशि में 0 से 6 अंशों के अन्दर स्थित है तो वह बाल अवस्था में है.

6 से 12 अंशों के अन्दर स्थित है तो किशोर अवस्था में है.

12 से 18 अंशों के अन्दर स्थित है तो युवावस्था में है.

18 से 24 अंशों के अन्दर स्थित है तो वृ्द्ध अवस्था में है.

24 से 30 अंशों के अन्दर स्थित है तो मृ्त अवस्था में है.

यही क्रम में सम राशियों उलटा हो जाएगा. जैसे 0 से 6 अंश तक सम राशि में ग्रह है वह मृ्त अवस्था में स्थित है.

6 से 12 अंश तक वृ्द्ध अवस्था

12 से 18 अंश तक युवावस्था

18 से 24 अंश तक किशोर अवस्था

24 से 30 अंश तक बाल अवस्था .

#बाह्य - Bahya[Outer Portion]
जो नक्षत्र कोट चक्र के तीसरे आयताकार वर्ग से बाहर पड़ते हैं उन्हें बाह्य नक्षत्र या बाह्य भाग कहते हैं. इस भाग में जन्म नक्षत्र से 7वां, 8वां, 14वां, 15वां, 21वां, 22वां और 28वां नक्षत्र पड़ते हैं.

#बाह्य राशि - Bahya Rashi
लग्न से द्वार राशि जितने भाव दूर होगी बाह्य राशि, द्वार राशि से उतने ही भाव दूर होती है. बाह्य राशि को भोग राशि भी कहते हैं. ये राशि आयु निर्धारण में काम आती है.

#भद्रा तिथि - Bhadra Tithi
शुक्ल पक्ष और कृ्ष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि, सप्तमी तिथि तथा द्वादशी तिथि को भद्रा तिथि कहते हैं. भद्रा तिथि में विवाह, उपनयन संस्कार, यात्रा, आभूषण निर्माण, किसी कला का सीखना तथा वाहन सीखना आदि कार्य किए जा सकते हैं.

#भद्रा या विष्टि - Bhadra or Vishti
शुक्ल पक्ष में अष्टमी व पूर्णिमा में तिथि के पूर्वार्ध में, एकादशी, चतुर्दशी तिथियों के उत्तरार्ध में भद्रा होती है.
कृ्ष्ण पक्ष में तृ्तीया, दशमी तिथियों में उत्तरार्ध में और सप्तमी व चतुर्दशी तिथियों के पूर्वार्ध में भद्रा होती है.
भद्रा तिथि को विष्टी भी कहते हैं. भद्रा सामान्यत: अशुभ है मानी गई है. भद्रा में मंगल कार्य वर्जित हैं.

#अक्षांश - Akshansha [Celestial latitude]
आकाश में अक्षांश क्रान्तिवृ्त्त से नापे जाते हैं क्योंकि क्रांतिवृ्त्त की स्थिति स्थिर और निश्चित हैं. क्रान्तिवृ्त्त के समानान्तर उत्तर या दक्षिण दूरी पर जितने अंश की दूरी पर वह ग्रह होगा वही उसका अक्षांश होगा आकाशीय अक्षांश को शर भी कहते है. इसी को विक्षेप भी कहते हैं.

#काल पुरुष का बाह्य शरीर - [Body Parts of Kaal Purush]
कालपुरुष का बाह्य शरीर
राशि - अंग
मेष - सिर
वृ्ष - मुख
मिथुन - गला,बाँहें
कर्क - ह्रदय
सिंह - पेट
कन्या - कमर
तुला - पेडू , जननेंद्रिय
वृ्श्चिक - गुदा
धनु - जाँघें, कूल्हे
मकर - घुटने
कुंभ - पिंडलियां
मीन - पैर

#कुम्भ और वृ्श्चिक राशि की गणना - [Calculation of Aquarius And Scorpio Sign]
जैमिनी ज्योतिष में वृ्श्चिक और कुम्भ राशि दशा की गणना अलग है. वृ्श्चिक राशि के दो स्वामी है मंगल और केतु ग्रह. कुम्भ राशि के भी दो स्वामी ग्रह है :- राहु और शनि.

मंगल या केतु में से जो ग्रह वृ्श्चिक राशि में स्थित है उसे छोड़ दें अर्थात माना केतु वृ्श्चिक राशि में स्थित है तो उसे छोड़ दें और वृ्श्चिक राशि से मंगल ग्रह तक गिनती करें. यदि मंगल वृ्श्चिक राशि में है तो उसे छोड़ दें और वृ्श्चिक राशि से केतु तक गिनें. यदि दोनों ग्रह वृ्श्चिक राशि में स्थित है तो वृ्श्चिक राशि की पूरे 12 वर्ष की दशा मानें.

यदि दोनों ग्रह अलग - अलग राशियों में स्थित है तो जिसके साथ ग्रह बैठे हों वह बलवान है और वृ्श्चिक की गणना उस तक ही होगी. जैसे मंगल के साथ अन्य ग्रह है और केतु के साथ नहीं तो गणना मंगल तक होगी केतु तक नहीं. यदि दोनों ही ग्रह अकेले बैठे हैं तब जिसका भोगांश अधिक होगा गिनती उस ग्रह तक होगी.

दशा वर्ष निकालने के जो नियम वृ्श्चिक राशि के लिए है वही नियम कुंभ राशि के लिए भी हैं परन्तु इसमें अपसव्य क्रम से गिनती करेगें.

#गुलिक की गणना दिन में - Calculation of Gulik in Day Time
दिन में गुलिक निकालने की विधि यह है कि दिनमान के आठ बराबर भाग करें अर्थात सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक के समय को आठ बराबर भागों में बाँटें. जिस दिन की गुलिक के बारे में जानना हो उस दिन का वार स्वामी प्रथम भाग का स्वामी होगा. बाकि भागों के स्वामी क्रम से होगें.

जैसे रविवार के दिन का प्रथम भाग का स्वामी सूर्य होगा. फिर चन्द्र और बाकि क्रम से चलेंगें. आठवें भाग का स्वामी कोई नहीं होता है. इस क्रम में शनि का भाग गुलिक कहलाता है. गुलिक को शनि का बेटा भी कहते हैं.

#गुलिक की गणना रात में - Calculation of Gulik in Night
रात्रिमान के आठ बराबर भाग करने हैं. अर्थात सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक के समय को आठ बराबर भागों में बाँटना हैं. इसमें पहले प्रथम भाग का स्वामी, उस दिन के वार स्वामी से पाँचवें वार का स्वामी होगा. जैसे रविवार की रात के प्रथम भाव का स्वामी बृ्हस्पति होगा. रविवार से गिनने पर पाँचवाँ वार बृ्हस्पति होता है. बाकि क्रम से जैसे बृ्हस्पति के बाद शुक्रवार आदि. शनि जिस भाग में आएगा वही गुलिक है.

#ग्रहों के अस्त अंश [Combust Degrees of The Planets]
ग्रहों के सूर्य से अस्त होने के अंश (Degrees)
कौन सा ग्रह सूर्य से कितने अंशों की दूरी पर अस्त होता है, इसका विवरण निम्न प्रकार से है.
चन्द्रमा, सूर्य से 12 अंश के भीतर रहने पर अस्त रहता है.
मंगल, सूर्य से 17 अंश के अंदर रहने पर अस्त होता है.
बुध, सूर्य से 13 अंश ( मतांतर से 14 अंश ) के भीतर रहने पर अस्त होता है. यदि वक्री है तो 12 अंश
गुरु, सूर्य से 11 अंश के भीतर अस्त होता है
शुक्र, सूर्य से 9 अंश के भीतर अस्त. मतांतर से 10 अंश. वक्री हो तो 8 अंश के भीतर अस्त.
शनि, सूर्य से 15 अंश के भीतर अस्त होता है.

#चक्र दशा - Chakra Dasha
इस दशा की तीन प्रकार से गणना की जाती है.

यदि जन्म दिन का है तो चन्द्र राशिश जिस भाव में है, उस भाव से दशा क्रम शुरु होगा.

यदि जन्म रात के समय का है तो लग्नेश जिस भाव में स्थित है, दशा क्रम उस भाव से शुरु होगा.

यदि जन्म संध्या काल का है (सूर्योदय से 2 घण्टे पहले या बाद में और सूर्यास्त से 2 घण्टे पहले या बाद में संध्या काल होता है) तब द्वितीयेश जिस भाव में स्थित है, दशा क्रम उस भाव से शुरु होगा.

यह राशि दशा है. प्रत्येक राशि की 10 वर्ष की दशा होती है. प्रत्येक राशि में 10 माह की अन्तर दशा होती है और 25 दिन की प्रत्यन्तर दशा होती है.

#चतुर्थ भाव - Chaturth Bhav[Fourth House]
Imageइस भाव को सुख भाव भी कहते हैं. इस भाव के अन्य नाम सुह्रद, रसातल, क्षेत्र, मातुल, भागिनेय, बन्धु, मित्र, राज्य, गौ, महिष, हिबुक, सेतु, गृ्ह, यान, केन्द्र, कंटक, चतुष्टय, चतुर्थ आदि हैं. इस भाव से इष्ट मित्र, बन्धु वर्ग, वंश, माता, माता से मिले सुख-दुख, माता का स्वभाव और मातृ पक्ष का पूर्ण विचार इस भाव से. ससुर, नानी विविध मित्र, घरेलू स्त्री का सुख, दासियाँ, पिता की सम्पति, निधि(भूमि गत द्र्व्य), आयु के अंतिम दिनों के सुख-दु:ख का विचार इस भाव से किया जाता है.

ग्राम, गौ, वाहन, बावडी़. तालाब, वृ्क्ष, क्षेत्र, बगीचा, जमीन संबंधी कार्य, औषधि, रसायन शास्त्र के विषय, पाताल कर्म, भूमि शोधन, भू-विद्या, खेती से संबंधी काम, खेती आदि कार्य का विचार इस भाव से किया जाता है. सुख, आनंद, शयन सुख, अपनी स्वयं की वृ्द्धि, सदाचार व धर्माचार, ह्र्दय का साहस, ह्रदय कपट, शिक्षा, विद्या, यश, वैभव, ज्ञान, पराजय, मनोगुण, मानसिक बातें आदि का विचार इस भाव से होता है.

मुख्य रुप से इस भाव से माता, घर का सुख, वाहन सुख और जातक स्वयं से घर का निर्माण करेगा या नहीं, देखा जाता है. इस भाव से छाती व ह्रदय का विचार किया जाता है. यदि यह भाव पीड़ित है तब छाती व ह्रदय रोग होने संभावना होती है.

#चतुर्थांश - Chaturthansh
इस वर्ग से जातक की चल-अचल सम्पत्ति एवं भाग्य का पता चलता है. इसमें 30 डिग्री को चार बराबर भागों में विभक्त किया जाता है. एक भाग 7 डिग्री 30 मिनट का होता है. ग्रह पहले चतुर्थांश में उसी राशि में, दूसरे चतुर्थांश में अपनी राशि से चौथी राशि में अर्थात ग्रह जन्म कुण्डली में जिस राशि में है उससे चौथी राशि में चतुर्थांश कुण्डली में जाएगा. तीसरे चतुर्थांश में, ग्रह जिस राशि में स्थित है, उससे सातवीं राशि में जाएगा. चौथे चतुर्थांश में स्थित होने पर उस राशि से दसवीं राशि में जाएगा.

चौथा भाव सम्पति एवं वाहन के बारे में जानकारी देता है. इस वर्ग की व्याख्या करते समय लग्न, लग्नेश,चौथा भाव, चतुर्थेश और चौथे भाव के कारक मंगल एवं शुक्र और मंगल व शुक्र से चौथे भाव का विचार करना चाहिए. अचल सम्पत्ति, वाहन और इनसे सम्बन्धित सुख- दुख तथा मुकदमें चतुर्थांश से देखे जाते हैं.

#चतुर्विंशांश - Chaturvinshansh
इस वर्ग का अध्ययन शिक्षा, दीक्षा, ज्ञान, विद्या आदि के लिये किया जाता है. इसमें प्रत्येक राशि को 1 डिग्री 15 मिनट के 24 बराबर भागों में बांटा जाता है. यदि ग्रह विषम राशि में हैं तो गणना सिंह राशि से शुरु होगी और ग्रह यदि सम राशि में हैं तो गणना कर्क राशि से शुरु होगी.

#चतुर्शीति समदशा - Chaturshiti Samadasha
कुण्डली में जब दशमेश, दशम भाव में ही स्थित हो तब चतुर्शीति सम दशा लागू होती है. यह कुल 85 वर्ष की दशा होती है. यह दशा बाकी दशाओं से भिन्न है.

इस दशा में 7 ग्रह शामिल हैं और प्रत्येक ग्रह की दशा 12 वर्ष है.

इस दशा में प्रत्येक ग्रह की अन्तर्दशा 1 वर्ष 8 माह 17 दिन की होती है.

स्वाति नक्षत्र से जन्म नक्षत्र तक गिनें, प्राप्त संख्या को 7 से भाग देने पर जो संख्या शेष बची उस ग्रह से दशा क्रम शुरु होगा.

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#चतुष्पाद नक्षत्र - Chatushpad Nakshatra
जिन नक्षत्रों के चारों चरण एक ही राशि में पडे़ वह चतुष्पाद नक्षत्र कहलाते हैं.

अश्विनी, भरणी, रोहिणी, आर्द्रा, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा़, श्रवण, शतभिषा, उत्तराभाद्रपद, रेवती नक्षत्र चतुष्पाद नक्षत्र हैं.

#चन्द्र ग्रह - Chandra Grah[Moon]
Imageचन्द्र के अन्य नाम सोम, शीतरश्मि, शीतांशु, मृ्गांक, उडुपति, इन्द्र, शीतद्युति है. चन्द्र का वर्ण या जाति वैश्य है. रंग श्वेत है. मनुष्य का रंग गोरा है. इसके देवता जल हैं. अधिपति पार्वती हैं. चन्द्र की वायव्य दिशा है. यह रूधिर(खून) का कारक है. चन्द्र मणि, कांसा, चांदी धातुओं का कारक ग्रह है. चन्द्र का वस्त्र कठोर व नया है. वर्षा ऋतु इसके अन्तर्गत आती है. इसका स्वाद नमकीन है. यह धातु है. इसकी दृ्ष्टि सम है.

चन्द्र सतगुणी ग्रह है. जलतत्व है. स्त्री संज्ञक ग्रह है. चन्द्र का समय अपराह्न में होता है. रात्रि के आरम्भ समय में यह बली होता है. चन्द्र की वात प्रकृ्ति है. इसका आकार स्थूल है. शरीर गोल है. नेत्र कमल समान है. बाल घुँघराले हैं. इसका स्वरूप सुंदर है. चन्द्र की अवस्था मध्यम है. चन्द्र मन का कारक है. चन्द्र पंडित है. श्रेष्ठ बुद्धि है. आयु 70 वर्ष है. चन्द्र का रत्न मोती है. यह शीर्षोदय ग्रह है. जलचर है.

चन्द्र के अन्तर्गत यवन प्रदेश आता है. जल प्रदेश और समुद्र भी इसके अन्तर्गत आते हैं. चन्द्रमा बांए अंग और बांई आँख का कारक ग्रह है. इसका चिन्ह स्थान सिर में है. चन्द्रमा का पितृ लोक है. यह चर ग्रह है. गले से ह्र्दय तक का भाग चन्द्रमा के अधिकार क्षेत्र में हैं. चन्द्र के अन्तर्गत लता वाले पौधे, दूध वाले, फूल वाले और जडी़-बूटी वाले वृ़क्ष आते हैं.

चन्द्र भी सूर्य के समान राजसत्त्ता का प्रतीक है. परिवार में चन्द्रमा माता तथा माता से संबंधित सभी बातों का प्रतीक है. समाज में चन्द्र विद्वान तथा प्रसिद्ध व्यक्तियों का कारक है.

#चन्द्र दिवस - Chandra Divas [Lunar day]
चन्द्र दिवस को तिथि भी कहते है. जब चन्द्र सूर्य के रेखांश से 12 डिग्री अधिक बढ़ जाता है तो एक तिथि बनती है. तिथि का निर्धारण सूर्योदय से होता है. यदि एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के बीच में तीन तिथियाँ आ जाएँ तो उसमें एक तिथि का “क्षय” हो जाता है तथा वह “क्षय तिथि ” कहलाती है. इसी प्रकार यदि दो सूर्योदयों तक एक ही तिथि चलती रहे तो वह तिथि “अधिक तिथि ” कहलाती है.

#चन्द्र वर्ष - Chandra Varsh [Lunar Year]
एक चान्द्र मास चन्द्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय होता है. ऎसे 12 चन्द्र मासों का एक चन्द्र वर्ष होता है. इसी प्रकार कृ्ष्ण पक्ष की प्रथमा से पूर्णिमा तक का काल एक चन्द्र मास होता है.ऎसे 12 चन्द्र मासों का एक चन्द्र वर्ष कहलाता है पर शुक्लादि चन्द्र मास पद्धति अधिक प्रचलित है. चन्द्र वर्ष चैत्र मास की शुक्ल प़क्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होता है. चन्द्र वर्ष की अवधि लगभग 29.53 x 12 = 354.37 दिन होती है.

#चन्द्र सौर वर्ष - Chandra Saur Varsh [Lunar Solar Year]
इस पद्धति में सौर वर्ष और चन्द्रमासों का मिश्रण होता है. एक चन्द्र वर्ष ( 12 चन्द्र मास ) 354.37 दिन का होता है. इस वर्ष में सौर वर्ष से 11 दिन कम होते हैं. इस कारण एक चन्द्र कैलेण्डर और ऋतुओं का तालमेल नहीं बनता. इसलिये चन्द्र सौर वर्ष की अवधारणा आई. इस अवधारणा में हर तीसरे या चौथे वर्ष में 13 चन्द्र मास होते हैं. इस प्रकार एक लीप मास जुड़ जाता है.

जैसा कि हम जानते है कि 12 चन्द्रमास में 354 दिन होते हैं, दिनों कि संख्या का सौर वर्ष से समायोजन करने के लिये “ अधिक मास “ या “क्षय मास “ की अवधारणा आई.

#चर दशा का क्रम - Char Dasha ka Kram
इस क्रम में छ: दशाएं सव्य ( सीधी ) और छ: दशाएं अपसव्य ( विपरीत ) होती है.

अन्तर दशा का क्रम

चर दशा में प्रत्येक महादशा में अपनी अन्तर्दशा अंत में आती है. जैसे मेष राशि की महादशा में मेष राशि की अन्तर्दशा सबसे अंत में आएगी. शुरु में मेष में वृ्ष राशि की अन्तर्दशा होगी फिर क्रम से अन्य राशियों की अन्तर्दशाएं होगी. महादशा क्रम सव्य है तो अन्तर्दशा क्रम भी सव्य होगा. यदि दशा क्रम अपसव्य है तो अन्तर्दशा क्रम भी अपसव्य होगा.

#चर दशा की गणना - Char Dasha ki Ganana
चर दशा की गणना चर् दशा में यदि राशि सव्य वर्ग की है तो उस राशि से गिनती सव्य क्रम में शुरु करे तथा राशि का स्वामी ग्रह जिस भाव में है उस भाव तक गिनें. जो संख्या प्राप्त होगी उस में से एक घटा दें. जो शेष बचा उतने वर्ष की दशा राशि को मिलेगें.

यदि राशि अपसव्य वर्ग की है तो राशि से अपसव्य गिनती करेगें राशि स्वामी तक. जो संख्या प्राप्त होगी उसमें से एक घटाने पर शेष दशा वर्ष राशि के होगें.

#चर नक्षत्र - Char Nakshatra[Movable Nakshatra]
स्वाति नक्षत्र, पुनर्वसु, श्रवण,धनिष्ठा, शतभिषा नक्षत्र ये पाँच नक्षत्र चर नक्षत्र कहलाते है. इनमें सवारी करना, यात्रा करना, मंत्रसिद्धि करना आदि कार्य शुभ होते है.

#चान्द्र मास - Chandra Maas [Lunar Month]
चन्द्र मास में दो पक्ष होते है जिन्हे शुक्ल पक्ष और कृ्ष्ण पक्ष कहा जाता है. प्रत्येक पक्ष में 15 तिथियाँ होती है. शुक्ल पक्ष में जो उज्जवल पक्ष है, 1 से 15 तिथियाँ होती हैं. 15वीं तिथि ‘पूर्णिमा’ कहलाती है जब चन्द्रमा पूर्ण होता है. कृ्ष्ण पक्ष अंधेरा पखवाडा़ है तथा इसमें भी 1 से 15 तिथियाँ होती हैं. इस पक्ष की 15वीं तिथि पूर्ण अंधकार मय होती है तथा अमावस्या तिथि कहलाती है. चन्द्र मास दो प्रकार के होते है :

अमावस्या से अंत होने वाले चन्द्र मास एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक का मास शुक्लादि या अमान्त अर्थात अमावस्या + अन्त कहलाता है. गुजरात, महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश में इस मास का प्रचलन है.

पूर्णिमा से अन्त होने वाला चन्द्र मास एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा तक का मास कृ्ष्णादि या पूर्णिमान्त कहलाता है. मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, दिल्ली और राजस्थान में व्यवहार में पूर्णिमान्त मास प्रचलन में है.

इन पद्धतियों में शुक्ल पक्ष में महिने का नाम वही रहता है परन्तु कृ्ष्ण पक्ष में दूसरे महिने का नाम दिया जाता है.

#चित्रा नक्षत्र - Chitra Nakshatra
चित्रा नक्षत्र कन्या राशि में 23 अंश 20 कला से तुला राशि में 6 अंश 40 कला तक रहता है. क्रान्तिवृ्त्त से 2 अंश 3 कला 15 विकला द्क्षिण और विषुवत वृ्त्त से 11 अंश 8 कला 45 विकला द्क्षिण में स्थित है. इसमें केवल एक ही तारा है जो कन्या राशि के अंत में दिखाई देता है. यह बहुत चमकदार तारा है. इसे विश्वकर्मा या ब्रह्मा का निवास स्थान माना जाता है. भचक्र में यह मध्य भाग में होने से संतुलन नक्षत्र कहलाता है.

निरायण सूर्य 10 या 11 अक्तुबर को चित्रा नक्षत्र में प्रवेश करता है. उस अवधि में सूर्योदय के समय चित्रा नक्षत्र को पूर्वी क्षितिज पर देखा जा सकता है. चित्रा नक्षत्र के दो चरण पार कर 16 - 17 अक्तुबर को सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश कर जाता है. मई मास के अंत में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के बीच चित्रा नक्षत्र शिरोबिन्दु के मध्य पर होता है. चैत्र मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा चैत्र नक्षत्र पर गोचर करता है. चित्रा का नक्षत्र पति ग्रह मंगल है.

चित्रा शब्द चित्र से बना है. चित्र का अर्थ है उज्जवल, चितकबरा, रुचिकर, आश्चर्यजनक या अदभुत . कुछ विद्वान इसका संबंध चित्त से मानते हैं. उनके मतानुसार देखा हुआ प्रत्यक्ष, ज्ञात-विचार, चिन्तन, संकल्प किया हुआ या इच्छित पदार्थ की प्राप्ति के लिये चित्रा शब्द का प्रयोग होता है. चित्त की रक्षा करना भी चित्रा कहलाता है. चित्रा नक्षत्र के विशिष्ट गुन इस नक्षत्र के नाम में छिपे हैं. भारत सरकार ने चित्रा प़एएय अयनाँश को राष्ट्रीय पंचांग में स्वीकृ्ति इसके विशिष्ट गुणों के कारण दी है.

चित्रा तारे का प्रतीक चिह्न एक बडे़ आकार के तारे को इस नक्षत्र का मुख्य तारा माना जाता है. चित्रा नक्षत्र में किसी को सजा सँवार कर अदभुत व आश्चर्यजनक बनाने की कला है. चित्रा नक्षत्र सूर्य को भी सँवारता है. इसलिए दक्षिणायन का सूर्य चित्रा नक्षत्र के दो चरण पूरे कर के दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश करता है. मतान्तर से इसे मोती द्वारा भी दर्शाया गया है. सीप के गर्भ में पलने वाला मोती बडी़ असहज व असामान्य परिस्थितियों पलता व जन्मता है. इसी प्रकार चित्रा नक्षत्र में सृ्जनात्मक प्रकृ्ति के पीछे छिपी वेदना साफ दिखाई देती है. कभी - कभी जातक बहुत मामूली या बेकार सी चीजों से अदभुत कलाकृ्ति तैयार कर लेता है. चित्रा नक्षत्र, मोह माया के परदे को हटा कर, वास्तविक ज्ञान या ब्रह्मज्ञान का मोती पाने में सक्षम होता है.

विश्वकर्मा को चित्रा नक्षत्र का अधिपति देवता माना गया है. विश्वकर्मा व ब्रह्मा अभिन्न हैं. अपनी शक्ति गायत्री का सहयोग पाकर ब्रह्मा ने अपने ज्ञान व माया के सहारे, सृ्ष्टि की रचना की है. नक्षत्र मण्डल में चित्रा नक्षत्र मध्य भाग में है. चित्रा से पहले 13 नक्षत्र हैं और चित्रा के बाद 13 नक्षत्र हैं. ब्रह्मा, देव, दैत्य व मनुष्य तीनों के लिए आदरणीय हैं. वे असुरों पर भी कृ्पा करते हैं. अनेक दैत्योम ने ब्रह्मा की उपासना कर अजेय होने का वरदान पाया. इस प्रकार चित्रा नक्षत्र इस बात की चिन्ता नहीं करता कि उसकी कृ्ति का अंतिम परिणाम क्या होगा. कुछ नया व अनोखा करने का इच्छुक होता है.

चित्रा नक्षत्र के गुण " कुछ करो, नया, कुछ अनोखा तथा अदभुत" चित्रा नक्षत्र गतिशील, ऊर्जावान, उत्साही व कुछ विचित्र काम करने का इच्छुक रहता है. निठल्ला बैठना इसे पसन्द नहीं. मन व शरीर निरन्तर सक्रिय या क्रियाशील रहते हैं. चित्रा नक्षत्र का पूर्वार्ध कन्या राशि में पड़ता है. यह सक्रिय व कर्मठ नक्षत्र है.

विद्वानों ने चित्रा नक्षत्र को वैश्य जाति का नक्षत्र माना है. विविध वस्तुओं का उत्पादन तथा वितरण का दायित्व वैश्य जाति का है. चित्रा का अधिष्ठाता देवता विश्वकर्मा भी सभी वस्तुओं का सृ्जनकर्ता अथवा निर्माता है. विद्वानों ने चित्रा को स्त्री नक्षत्र माना है. वैदिक साहित्य में स्त्री को माया कहा गया है. चित्रा नक्षत्र माया से जुडा़ है अत: इसे स्त्री नक्षत्र कहना उचित जान पड़ता है.

माथा, मस्तक, तथा गर्दन को चित्रा नक्षत्र का अंग माना गया है. इसका नक्षत्रपति मंगल ग्रह होने से चित्रा को पित्त प्रधान माना गया है. विद्वानों ने चित्रा नक्षत्र का संबंध दक्षिण दिशा से माना है. कुछ विद्वान दक्षिण पूर्व अग्नि कोण दक्षिण दिशा व दक्षिण पश्चिम नैऋत्य कोण को जोड़ कर बनाई गई चाप को चित्रा की प्रभावी दिशा स्वीकारते हैं.

चित्रा नक्षत्र का स्वामी मंगल एक तमोगुणी ग्रह होने से चित्रा को तामसिक नक्षत्र माना जाता है. चित्रा नक्षत्र माया से जुडा़ है अत: इसे तमोगुणी नक्षत्र मानना सही लगता है. चित्रा को नक्षत्रपति मंगल के कारण अग्नि नक्षत्र माना गया है. सृ्जनात्मक प्रवृ्ति के लिएिअग्नि व उर्जा की आवश्यकता होती है. अत: चित्रा को अग्नि तत्व मानना सही है.

मायावी चित्रा को राक्षस गण माना जाता है. राक्षस माया की अच्छी जानकारी रखते हैं तथा मायावी शक्तियों के उपयोग में कुशल होते हैं. चित्रा के माया पक्ष पर अधिक बल देने के लिए इसका राक्षस गण होना सही है. चित्रा को तिर्यक मुख नक्षत्र माना जाता है. यह एक संतुलित नक्षत्र है. यह मृ्दु अथवा कोमल नक्षत्र भी है.

चैत्र मास के मध्य वाले 9 दिन जो अप्रैल के माह में आते हैं, उन्हे चित्रा नक्षत्र से जोडा़ जाता है. कृ्ष्ण व शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को चित्रा नक्षत्र की तिथि माना जाता है. चित्रा नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'पे' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'पो' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'रा' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'री' है. चित्रा ऩक्षत्र को व्याघ्र योनि माना गया है. चित्रा नक्षत्र का अधिष्ठाता देवता ब्रह्मा सारे संसार की रचना करते हैं. चित्रा का संबंध बुध व तुला राशि से है.

विद्वानों ने चित्रा नक्षत्र को ऋषि कृ्तु का वंशज माना है. कृ्तु का अर्थ है मनोबल बढा़ने वाला, प्रोत्साहन देने वाला. सृ्जनात्मक प्रकृ्ति के सक्रिय नक्षत्र को कृ्तु का वंशज मानना सही ही है. कुछ विद्वान चित्रा को पुण्य संचयी शक्ति भी कहते हैं.


#चीन योग - Chin Yog
वर्ष कुण्डली में चन्द्रमा जिस भाव में स्थित है, उस भाव से चौथे भाव में शुक्र हो तथा लग्न में शनि और चन्द्रमा स्थित हों या अपनी राशि में हों तब चीन योग बनता है.

जिस वर्ष कुण्डली में यह योग बनता है तो व्यक्ति के लिए शुभ रहता है. उस वर्ष उसे विशेष आर्थिक लाभ और वाहन सुख की प्राप्ति होती है. उस वर्ष नया मकान भी बन सकता है. धन-धान्य, सुख-सम्पत्ति व्यक्ति को प्राप्त होती है. यह एक शुभ योग है.

#छिद्र दशा - Chhidra Dasha
जब किसी महादशा में अंतिम अन्तर्दशा चल रही है तो इस समय को दशा छिद्र या छिद्र दशा कहते हैं. जैसे सूर्य की महादशा में अंतिम अन्तर्दशा शुक्र की होती है तो इसे छिद्र दशा कहते हैं.

#दग्ध तिथि - Dagdh Tithi
दग्धा तिथियों का संबंध वार से होता है. इन तिथियों में सभी शुभ कार्य वर्जित हैं.

  1. रविवार को द्वादशी तिथि.
  2. सोमवार को एकादशी तिथि.
  3. मंगलवार को पंचमी तिथि.
  4. बुधवार को तृ्तीया तिथि.
  5. बृ्हस्पति को षष्ठी तिथि.
  6. शुक्रवार को अष्टमी तिथि.
  7. शनिवार को नवमी तिथि.

#दग्ध नक्षत्र - Dagdha Nakshatra
इन नक्षत्रों का सम्बन्ध वार (दिन) से होता है.

  1. रविवार को भरणी नक्षत्
  2. सोमवार को चित्रा नक्षत्र
  3. मंगलवार को उत्तराषाढा़ नक्षत्र
  4. बुधवार को धनिष्ठा नक्षत्र
  5. गुरूवार को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र
  6. शुक्रवार को ज्येष्ठा नक्षत्र
  7. शनिवार को रेवती नक्षत्र होने से दग्ध नक्षत्र होता है.

#दग्धा तिथि - Dagdha Tithi
इस तिथि के निर्णय का आधार सूर्य और चन्द्रमा की राशि से होता है. इस आधार पर सौर मास में कुछ चान्द्र तिथियाँ दग्ध होती हैं, ये शुभ कार्यों में वर्जित हैं.

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सूर्य उपरोक्त राशियों में स्थित होने के साथ ही जिस दिन उपरोक्त तिथियों में भी रहता है तब उन तिथियों को दग्धा तिथियाँ कहते हैं.

#नक्षत्रों का वर्गीकरण - [Category of Nakshatra]
नक्षत्र, ज्योतिष शास्त्र की आत्मा है. प्राचीन काल में ज्योतिष का व्यवहार नक्षत्रो पर ही आधारित था. अत: नक्षत्र ज्योतिष शास्त्र की नींव है. वैदिक काल में ही अठ्ठाईस नक्षत्रों व उनके देवताओं का ज्ञान प्राप्त किया जा चुका था. शुभ व अशुभ नक्षत्रों का वर्गीकरण किया गया था. जन्म समय में कुछ विशेष नक्षत्रों को विशेष अशुभ माना जाता था. बाकी नक्षत्रों को शुभ माना गया था.

हर जातक के लिये सभी नक्षत्र शुभ या अशुभ फलदायी हो सकते है यदि वह पाप ग्रहों या शुभ ग्रहो से संबन्ध बनाते है.हम अपने जीवन मे कई कार्य करते है. हर कार्य के लिये हमारे शास्त्रों मे नक्षत्रों के महत्त्व के बारे मे बताया गया है. हम उन्ही नक्षत्रों का वर्गीकरण करते है.

#पत्यांश की गणना - Calculation of Patyansh
कृशांश के क्रम में सबसे ऊपर उस ग्रह के भोगांश लिखेगें जो सबसे कम हैं फिर बढ़ते हुए क्रम में बाकी ग्रहों का भोगांश लिखेगें. सबसे ऊपर लिखे ग्रह का भोगांश ही इस ग्रह का पत्यांश कहलाएगा. दूसरे क्रम पर जिस ग्रह के भोगांश लिखे हैं उसमें में से पहले वाले ग्रह के भोगांश को घटा देगें. तब हमें जो संख्या प्राप्त होगी वह दूसरे क्रम के ग्रह का पत्यांश होगी. इस प्रकार हम क्रम से सभी सात ग्रहों और लग्न का पत्यांश ज्ञात करते हैं. तीसरे क्रम पर जो ग्रह है उसका पत्यांश ज्ञात करने के लिए उसके भोगांश में से दूसरे क्रम के ग्रह के भोगांश को घटाएंगें. चौथे क्रम पर जो ग्रह है, उसका पत्यांश ज्ञात करने के लिए उसके भोगांश में से तीसरे क्रम के ग्रह के भोगांश को घटाएंगें. इस प्रकार हमें क्रम से पत्यांश की एक तालिका प्राप्त होती है.

यदि विभिन्न ग्रहों के पत्यांश का जोड़ किया जाए तो कुल पत्यांश सबसे अधिक भोगांश या सबसे अधिक कृशांश के बराबर होता है.

#पात्यायनी दशा की गणना - Calculation of Patyayani Dasha
कृशांश के अधिकतम भोगांश को 365 दिनों के बराबर माना जाता है. वर्ष कुण्डली में अन्य दशाएं कुल 360 दिन की होती हैं. इसलिए अधिकतम भोगांश को 360 दिन के बराबर माना जाता है. वर्ष कुण्डली में विभिन्न ग्रहों की पात्यायनी दशा काल गणना के लिए इस सिद्धांत का उपयोग किया जाता है.

पात्यायनी दशा के दिन = सबसे कम भोगांश वाले ग्रह का पत्यांश X 360 = जो संख्या प्राप्त होगी उसे अधिकतम कृ्शांश से भाग देगें. जो संख्या प्राप्त होगी उतने दिन की दशा शेष उस संबंधित ग्रह की होगी. यही नियम बाकी ग्रहों और लग्न की दशा निकालने के लिए भी करते हैं.

पात्यायनी दशा के ग्रहों का कोई नियम नहीं है. जो दशा क्रम कृशांश निकालने के लिए बनाया जाता है, वही क्रम दशा का होता है, उसमें ग्रह आगे-पीछे भी हो सकते हैं.

#बुध ग्रह - Budh Grah[Mercury]
Imageबुध ग्रह के अन्य नाम वित्त, सौम्य, बोधन, चन्द्रपुत्र, चांद्रि, शांत. अतिदीर्घ, इन्द्रपुत्र, विद्य, तारमियन, हेमन हैं. बुध ग्रह का वर्ण वैश्य है. रंग हरित है. इस ग्रह के देवता विष्णु भगवान हैं, दामोदर भगवान हैं. अधिपति विष्णु जी है. इस ग्रह की उत्तर दिशा है. यह साधारण शुभ ग्रह है. यह शरीर में त्वचा का कारक ग्रह है. बुध ग्रह के खनिज सीप, सीसा, पारा है. इसके स्थान विहार हैं. बुध का वस्त्र नवीन है. नया है.

बुध ग्रह की शरद ऋतु है. इस ग्रह का स्वाद मिश्रित है. यह जीव रुप है. बुध की दृ्ष्टि तिरछी है. इसका गुण राजसी है. इस ग्रह का पृ्थ्वी तत्व है. बुध ग्रह नपुंसक ग्रह है. इस ग्रह का समय प्रात: काल है और यह प्रात: काल में ही बली होता है. इस ग्रह की प्रकृ्ति त्रिदोषयुक्त है. वात,पित्त,कफ़ तीनों ही प्रकृ्ति इसमें है. बुध का आकार गोल और शरीर मध्यम है. नेत्र लाल हैं. बाल काले हैं. बुध की इन्द्रिय नाक सूंघने की शक्ति है.

इस ग्रह का स्वरूप रजोगुणी अधिक है. बुध ग्रह की अवस्था बालक की है. बुध ग्रह भाषण और वाणी का कारक है. बुद्धिमान है. सभी शास्त्रों का ज्ञाता है. अनेक कलाओं को जानने वाला व हास्य प्रिय है. इसकी आयु 20 वर्ष अर्थात कुमार है. इसका रत्न पना है. यह शीर्षोदय ग्रह है. यह ग्राम व पंडित के घर विचरता है. इस ग्रह को युवराज या कुमार की पदवी प्राप्त है.

बुध ग्रह मगध देश का स्वामी है. विन्ध्य से गंगा तक का भाग इसके अधिकार क्षेत्र में हैं. यह दाहिनी ओर चिन्ह करते हैं. बुध ग्रह के अंदर पाताल लोक आता है. मतान्तर से नरक आता है. यह चर ग्रह है. फलहीन वृ्क्ष इस ग्रह के अन्तर्गत आते हैं. हाथ और पांव इसके अधिकार क्षेत्र में आते हैं.

ज्योतिष में बुध को राजकुमार का पद प्राप्त है. परिवार में मामा तथा चचेरे भाई-बहनों का कारक ग्रह है. आधुनिक समय में बुध व्यापार का कारक ग्रह है. इस ग्रह को अनेक कारकत्व प्राप्त हैं. गणितज्ञ, मूर्तिकार, ज्योतिषी, खगोल शास्त्री, वक्ता, विद्वान, लेखक, मंत्र और यंत्रों के रहस्य के ज्ञाता बुध के कारकों में शामिल है. वित्तीय विशेषज्ञ, लेखाकार, लेखापरीक्षक, पत्रकार, अखबार से संबंधित व्यक्ति तथा कागज से संबंधित व्यापार आदि का कारक ग्रह भी बुध है.

#बृ्हस्पति ग्रह - Brihaspati Grah[Jupiter]
Imageइस ग्रह के नाम जीव, अंगिरा, देवगुरु, प्रशांत, ईज्य, त्रिदिवेश, बंद्य, मंत्री, वाचस्पति, सुराचार्य, देवेज्य, सुरगुरु हैं. बृ्हस्पति का वर्ण ब्राह्मण है. रंग पीत है. देवता इन्द्र हैं. अधिपति ब्रह्मा हैं. इस ग्रह की ईशान दिशा है. यह नैसर्गिक शुभ ग्रह है. यह शरीर में चर्बी का कारक है. गुरु खनिज धातु में चाँदी, स्वर्ण, टीन का कारक है. इसका स्थान खजाने के भंडार हैं. इस ग्रह का वस्त्र मध्यम है. ना नया वस्त्र है ना ही पुराना है. वस्त्र का रंग पीताम्बर है अर्थात पीला है.

हेमंत ऋतु इसके अन्तर्गत आती है. इस ग्रह का स्वाद मीठा है. यह जीव रुप है. इसकी दृ्ष्टि सम है. यह ग्रह सतगुणी है. यह आकाश तत्व है. यह पुरुष संज्ञक ग्रह है. इस ग्रह का समय प्रात: काल है. यह सर्वकाल बली रहते हैं. इसकी प्रकृ्ति कफ़ है. इसका आकार गोल तथा शरीर छोटा है. अर्थात आकार मोटा तथा देह पुष्ट है. नेत्र पीले हैं. इस ग्रह की अवस्था बूढी़ है. यह बुद्धि, ज्ञान व सुख का कारक है. गुरु के गुण काव्य कर्त्ता व सुखी है. इस ग्रह की उदार बुद्धि, चतुर व बुद्धिमान है. आयु 30 वर्ष है.

बृ्हस्पति का रत्न पुखराज है. यह उभयोदय ग्रह है. द्विपद है. यह ग्राम में व विद्वान पंडितों के घर विचरता है. इस ग्रह को मंत्री की पदवी प्राप्त है. यह ग्रह सिन्धु देश का स्वामी है. गोमती से विन्ध्य पर्वत तक का प्रदेश इसके अधिकार क्षेत्र में हैं. यह ग्रह दाहिनी ओर चिन्ह करते हैं. चिन्ह स्थान कंधा है. यह स्वर्ग लोक का कारक है. यह एक स्थिर ग्रह है. इस ग्रह की चाल धीमी है. यह फलदार वृ्क्ष का कारक ग्रह है. इस ग्रह के अधिकार में कमर से जाँघ तक का हिस्सा आता है. बृ्हस्पति ग्रह की इन्द्रिय कान श्रवण है अर्थात सुनने की शक्ति है. इस ग्रह से वायु, कफ़ से संबंधित रोग हो सकते हैं.

बृ्हस्पति देवताओं के गुरु है अर्थात देव गुरु हैं. इन्हें एक सम्मानीय स्थान प्राप्त है. यह संतान, बडे़ भाई, आचार्य, गुरुजन, शिक्षक तथा परिवार के सम्मानीय व्यक्ति के सूचक हैं. उत्तरकालामृ्त में पौत्र और दादा के प्रतीक के रुप में बृ्हस्पति के अन्य रुप भी दिए गए हैं. प्राचीन समय में बृ्हस्पति पुजारी, विद्वान या पंडित तथा राजा के सलाहकार का सूचक था. आधुनिक समय में बृ्हस्पति न्यायाधीश, अध्यापक, वकील, कानूनी विशेषज्ञ, प्रबन्धन विशेषज्ञ, मनोवैज्ञानिक तथा साहूकार आदि का कारक ग्रह है.

#ब्रह्म योग - Brahma Yog
इस योग में जन्म लेने वाला जातक विद्या प्रेमी, सत्य का पालन करने वाला, अच्छे कर्म करने वाला, समाज व परिवार में आदरणीय, विद्वान, छिपे धन को पाने वाला, विवेकवान होता है.

#ब्रह्मा - Brahma
जैमिनी ज्योतिष में कुण्डली में सबसे पहले यह जानना होगा कि लग्न अथवा सप्तम भाव में ज्यादा बली भाव कौन सा है. ( इसकी गणना राशि बल के आधार पर की जाएगी ) जो भी भाव बली होगा उससे षष्ठेश, अष्टमेश तथा द्वादशेश को देखा जाता है. इन तीनों में से जो ग्रह सबसे अधिक बली होगा, उसे हम ब्रह्मा कहेंगे. शनि को कभी ब्रह्मा नहीं बनाया जाता. शनि को छोड़कर बाकि ग्रहों को लिया जाता है.

#भकूट मिलान - Bhakut Milan [Bhakut Matching]
भकूट मिलान

भकूट का तात्पर्य वर एवं कन्या की राशियों के आपसी अंतर से है. यह 6 प्रकार से होता है.

  1. दोनों के राशि स्वामी एक - दूसरे से 1/7 अक्ष पर हों
  2. एक - दूसरे से द्विर्द्वादश हों अर्थात 2/12 अक्ष पर हों
  3. 3/11 अक्ष पर हों.
  4. 4/10 अक्ष पर हों.
  5. 5/9 अक्ष पर हों इसे नव-पंचम भी कहते हैं
  6. 6/8 अक्ष या षडाष्टक बना रहे हों.
इन 6 प्रकार के भकूट में से द्विर्द्वादश, नव-पंचम और षडाष्टक ये तीनों भकूट खराब हैं. इन तीनों दोषों को काफी महत्व दिया गया है. तीनों अशुभ एवं त्याज्य माने गए हैं.

भकूट की पूर्ण शुभता के 7 अंक मिलते हैं. दुष्ट भकूट ( द्विर्द्वादश, नव-पंचम एवं षडाष्टक ) में राशिशों की मित्रता होने पर 4 अंक मिलते हैं. अन्यथा 0 अंक मिलते है.

भकूट दोष का परिहार

वर एवं कन्या कि एक ही राशि या राशि मैत्री तथा नाडी़ दोष ना होने पर भी भकूट दोष प्रभाव हीन हो जाता है. षडाष्टक भकूट में यदि वर एवं कन्या की राशियों के स्वामी नीच राशि में या नीच नवांश में हों तो यह दोष कुछ कम हो जाता है.

#भरणी नक्षत्र - [Bharani Nakshatra]
आकाश में भरणी नक्षत्र तीन तारों से बने त्रिकोण सरीखा है. मेष राशि में भरणी नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनट से 26 डिग्री 40 मिनट तक रहता है. प्राचीन विद्वानों ने यहाँ स्त्री के प्रजनन अंग की कल्पना की है. भरणी शब्द भरण-पोषण के लिये प्रयुक्त होता है. निश्चय ही वीर्य और बीज ग्रहण कर गर्भ धारण कर उसका पोषण करना तथा सृ्ष्टि बढा़ना ही भरणी का कार्य क्षेत्र जान पड़ता है. नारी की प्रजनन क्षमता और मातृ्त्व शक्ति का भरणी से विशेष संबंध है.स्त्री का प्रजनन अंग विभिन्न लोकों में आवागमन करने का प्रवेश द्वार है. वेदों में ऎसी आकृ्ति का उपयोग जन्म, मृ्त्यु, रुप, परिवर्तन, पुन: उत्पति या नयी देह धारण करने के लिये हुआ है. कहीं-कहीं भरणी नक्षत्र को संयम, सावधानी, ईर्ष्या, गोपनीयता, संघर्ष, बलिदान, धैर्य व सहिष्णुता का प्रतीक माना गया है.

जीवात्मा, देव लोक या पितृ लोक या अन्य किसी लोक से आकर, योनि मार्ग से गर्भ में प्रवेश करता है. गर्भ में शिशु पलेगा या गर्भपात हो जाएगा, यह एक अनिश्चय स्थिति है. अत: यमराज को भरणी नक्षत्र का स्वामी माना जाता है. जनमानस में पलने व बढ़ने वाले क्षोभ, प्रतिशोध या घृ्णा के जो भाव हिंसात्मक प्रदर्शन का रुप ले लेते हैं वे सभी कार्य भरणी नक्षत्र से प्रभावित हैं. बाहर प्रगट होने से पूर्व क्रोध या क्षोभ की जलन, ह्रदय में लम्बे समय तक बनी रहना भरणी का ही कार्य क्षेत्र है.

मृ्त्यु के स्वामी यमराज, भरणी नक्षत्र के देवता है. भरणी नक्षत्र को त्रिभुज योनि के अलावा नौका द्वारा भी दर्शाया गया है. लोक - लोकान्तर की यात्रा जन्म, मृ्त्यु व पुन: जन्म उत्पति का कारकत्व भरणी नक्षत्र के पास है. यह नक्षत्र प्रकृ्ति में व्याप्त द्वंद्व तथा परस्पर विरोधी गुणों को दर्शाता है. यह एक युद्ध भूमि जैसा दिखता है जहाँ अच्छाई और बुराई में निरंतर संघर्ष चलता है. जीवन शोधन के लिये, बुराई को नष्ट करने की प्रक्रिया इस नक्षत्र की विशेषता है.

'चरम सीमा या अतिरेक' शब्द में भरणी का स्वभाव व कार्य छिपा है. ऎसा जातक दो परस्पर छोरों के बीच झूलता दिखलाई देता है. भरणी नक्षत्र मानव मन की इच्छा, आकांक्षा का प्रतिनिधि है. यह जीवन के प्रति आसक्ति या मोह तथा मृ्त्यु का भय दिया करता है. कुछ विद्वानों ने भरणी नक्षत्र को 16 वर्ष की सुकुमारी कन्या के रुप में चित्रण किया है. कहीं गर्भिणी स्त्री या यमदूतों के सम्मुख मरणासन्न व्यक्ति के रुप में भी चित्रण किया है. कुछ विद्वानों ने इसे बच्चे जैसा जिज्ञासु प्रकृ्ति का माना है.

विद्वानों ने भरणी नक्षत्र को संतुलन बनाए रखने वाला नक्षत्र कहा है. भरणी अतिरेक या अतिवादी स्वभाव देता है, किन्तु जातक बहुधा जीवन और मृ्त्यु सरीखे दो विरोधी तत्वों के बीच संतुलन कायम रखने का प्रयास करता है. सूर्योदय व सूर्यास्त के समय प्रकृ्ति में जो परिवर्तन दिखते हैं उनका प्रतिनिधित्व भरणी नक्षत्र करता है.

भरणी नक्षत्र को म्लेच्छ जाति का नक्षत्र माना गया है क्योंकि इसकी स्वेच्छाचारिता तथा मन - मौजी स्वभाव, प्राचीन काल के ऋषियों को भाया नहीं. उन्होने इसे समाज से बहिष्कृ्त कर अछूत, अस्पृ्श्य या म्लेच्छ माना है. भरणी को स्त्री संज्ञक नक्षत्र माना गया है. नारी स्वभाव के सब गुण व दुर्बलताएं इसमें मौजूद हैं. नारी मन के संवेग व कोमल भाव भरणी नक्षत्र में स्पष्ट दिखते हैं. इसी कारण भरणी नक्षत्र को प्रमुख स्त्री नक्षत्र माना गया है.

भरणी नक्षत्र के अंदर सिर और पाँव का तला आता है. जन्म के समय शिशु का सिर या पाँव ही पहले दिखाई देता है. अग्नितत्व राशि मेष में भरणी नक्षत्र की स्थिति होने से इसे पित्त प्रधान नक्षत्र माना जाता है. पित्त व्यक्ति को कर्मठ, परक्रमी, उत्साही व सक्रिय बनाता है जो भरणी नक्षत्र का विशिष्ट गुण है. पूर्व - दक्षिण में दक्षिण दिशा से पहले भरणी नक्षत्र की दिशा है.

भरणी नक्षत्र के स्थान सुंदर व मनमोहक प्राकृ्तिक छटा वाले स्थल, मनोरंजन उद्यान, फिल्म या फोटोग्राफी स्टूडियो, रुप-सज्जा कार्य स्थल, रंगमंच आदि ये सभी शुक्र से प्रभावित हैं. भरणी नक्षत्र को रजोगुण प्रधान या राजसिक नक्षत्र कहा गया है. मेष राशि अग्नितत्व प्रधान है किन्तु भरणी नक्षत्र को भूमि नक्षत्र माना गया है. यह ऊर्जा को भौतिक पदार्थ में रूपान्तरित करने वाला भौतिकवादी नक्षत्र है. भरणी को भारी भरकम विशालकाय हाथी से दर्शाया जाता है. यह सूक्ष्म शरीर या आत्मा का ऎसा आवरण है जिसके द्वारा मनुष्य बाह्य लोक व अन्तरिक्ष का ज्ञान व अनुभव पाता है.

भरणी नक्षत्र को मनुष्य, मानव या नर नक्षत्र कहा जाता है. मनुष्य गण इस नक्षत्र के अन्तर्गत आता है. भरणी नक्षत्र को अधोमुखी या नीचे की ओर दृ्ष्टि रखने वाला अधोदृ्ष्टि नक्षत्र कहा गया है. भरणी नक्षत्र गोपनीयता व रहस्य बनाए रखने में कुशल है. भरणी नक्षत्र को क्रूर या तीक्ष्ण नक्षत्र कहते हैं. कारण यह कि भरणी के देवता यम और महाकाली दोनों ही उग्र स्वभाव के स्वामी है.

अश्विनी मास का उत्तरार्ध भरणी नक्षत्र का भाग माना जाता है. प्राय: यह अक्टूबर मास में पड़ता है. विद्वानों ने भरणी का संबंध शुक्ल व कृ्ष्ण पक्ष की चतुर्थी से माना है. इस नक्षत्र में शनि को परम नीच माना जाता है. कारण यह कि भरणी नक्षत्र सृ्जनात्मक व ऊर्जायुक्त नक्षत्र है. इसके विपरीत शनि आलसी, सुस्त, विलम्ब व बाधा देने वाला ग्रह है. अत: शनि का भरणी नक्षत्र से तालमेल नहीं होता.

भरणी नक्षत्र के पहले चरण का अक्षर ली है. दूसरे चरण का अक्षर लू है. तीसरे चरण का अक्षर ले है. चतुर्थ चरण का अक्षर लो है. भरणी नक्षत्र की गज योनि है. भरणी नक्षत्र का रहस्य इसके स्वामी शुक्र में छिपा है. शुक्र कभी उदय, कभी अस्त होकर मानो जन्म व मृ्त्यु को दर्शाता है. भरणी नक्षत्र का संबंध महर्षि वसिष्ठ से जोडा़ गया है. वसिष्ठ का अर्थ है 'धन वैभव संपन्न'. वराहमिहिर ने भरणी नक्षत्र जातक को दृ्ढ़ निश्चयी, साधन संपन्न, ईमानदार, स्वस्थ व सुखी व्यक्ति बताया है.

#भविष्यत इत्थशाल - Bhavishyat Itthashal
वर्ष कुण्डली में मंदगति ग्रह जिस राशि में हो, उससे पिछली राशि में शीघ्रगामी ग्रह मात्र दीप्तांश के अंतर पर ही हो तो भविष्यत इत्थशाल योग बनता है. अर्थात भविष्य में दोनों ग्रहों में इत्थशाल होगा.

#भातृ सहम - Bhatri Saham
दिन व रात्रि प्रवेश दोनों के लिए :- बृ्हस्पति - शनि + लग्न

#भाव - Bhav[House]
जन्म कुण्डली में 12 भाव होते हैं जो स्थिर हैं. हर भाव से जीवन की अलग-2 घटनाओं का विचार किया जाता है. बारह भावों के नाम हैं :-

  1. तनु भाव
  2. धन भाव
  3. सहज भाव
  4. सुख भाव
  5. संतान भाव या पुत्र भाव
  6. अरि या रिपु भाव(शत्रु भाव)
  7. दारा या कलत्र भाव
  8. आयु भाव
  9. भाग्य भाव
  10. कर्म भाव
  11. आय भाव
  12. व्यय भाव

#भाव दृ्ष्टि बल - Bhav Drishti Bal
भाव दृ्ष्टि बल :-

  1. बारह भाव मध्य, दृ्श्य भाव (-) दृ्ष्टि देने वाला ग्रह = दृ्ष्टि केन्द्र
  2. दृ्ष्टि बल व दृ्ष्टि पिण्ड की गणना ग्रह दृ्ष्टि बल के समान हैं.
  3. भावाधिपति बल, भाव दिग बल तथा भाव दृ्ष्टि बल का कुल जोड़ भाव बल होता है.

#भाव बल - Bhav Bal
भाव बल

भावाधिपति बल :- भावों के स्वामियों का षडबल ही भावाधिपति है. इसे षष्टियांश में लें.

भाव दिग बल :- नर राशियाँ 3,6,7,9 का पहला भाग और 11 राशि 7भाव में = 0

जलचर राशियाँ 4,10 का दूसरा भाग 12 राशि 10 भाव में = 0

चतुष्पद राशियाँ 1,2,5,9 का दूसरा भाग, 10 का प्रथम भाग = 0

कीट राशि 8 लग्न में = 0

भाव राशि में भाव मध्य बलहीन बिन्दु (-) भाव मध्य x 10 ( यदि 6 से कम है तो 12 से घटाकर 10 से गुणा करें)= भाव दिग बल (अधिकतम भाव दिग बल 60 षष्टियांश)

#भाव लग्न - Bhav Lagna
भाव लग्न सूर्य या लग्न में M+1 करने से यह राशि मिलेगी क्योंकि जन्म लग्न के सम या विषम के अनुसार 1M है. जन्म घटी को 5 से भाग देकर भागफल आया. शेषफल को भाव लग्न के अंश में से घटाने पर स्पष्ट भाव अंश आ जायेगा.

#भिन्नाष्टकवर्ग - Bhinnashtakvarga
भिन्नाष्टकवर्ग बनाने के लिए सर्वप्रथम सातों ग्रह(राहु/केतु को छोड़कर) और लग्न के शुभ बिन्दुओं को प्रस्थार चक्र की तालिका के रुप में दर्शाया जाता है. इस प्रकार आठ प्रस्थार चक्र बनते हैं. सातों ग्रह तथा लग्न सहित आठ जन्म कुण्डली बनाई जाती है. सभी ग्रहों की तालिका के शुभ बिन्दुओं को भिन्नाष्टकवर्ग में लिखा जाता है.

भिन्नाष्टक का अर्थ है - भिन्न-भिन्न अष्टकवर्ग अर्थात सात ग्रह और लग्न सहित आठ कुण्डलियों में व्यक्ति के लग्नानुसार शुभ बिन्दुओं के कुल जोड़ को क्रम से लिखा जाता है.

#भोग या भोगाँश - Bhog / Bhogansh [Celestial longitude]
क्रान्तिपथ पर पूर्व की तरफ बसन्त सम्पात बिन्दु से किसी ग्रह की कोणीय दूरी उसका सायन भोगाँश कहलाती है.

#भ्रातृ कारक - Bhratri Karaka
जैमिनी ज्योतिष में जिस ग्रह के अंश अमात्यकारक से कम हों वह भ्रातृ्कारक ग्रह होता है. भाई व बहनों से सम्बन्धित सभी घटनाएँ भ्रातृ्कारक से देखी जाती हैं. मंगल भ्रातृ्भाव का नैसर्गिक कारक है. यह कुण्डली के तीसरे भाव का कारक है. तीसरे भाव से संबंधित सभी बातों का विचार भ्रातृ कारक से किया जाता है.

#मण्डूक दशा की गणना [Calculation of Manduk Dasha]
दशा का प्रारम्भ

यदि लग्न में विषम राशि है तो दशा लग्न से शुरु होगी. और लग्न में सम राशि है तो दशा का आरम्भ सप्तम भाव से होगा.
विषम राशियों में गणना सव्य है तथा सम राशियों में गणना अपसव्य है.

दशा क्रम

मण्डूक का अर्थ है मेंढ़क. यदि दशा लग्न से शुरु होती है तो लग्न के बाद चतुर्थ भाव की दशा, फिर सप्तम भाव की दशा और अन्त में दशम भाव की दशा होगी. उसके बाद द्वितीय भाव से दशा शुरु होगी फिर दूसरे भाव से चतुर्थ भाव की दशा, द्वितीय भाव से सप्तम भाव की दशा, द्वितीय से दशम भाव की दशा. बाकी भावों की दशा का क्रम भी ऎसे रहेगा.

यदि दशा क्रम सप्तम से शुरु होता है तो सबसे पहले सप्तम भाव की दशा फिर दशम भाव की दशा फिर लग्न की और अंत में चतुर्थ भाव की दशा होगी. बाकी भावों की दशा भी क्रम से अपसव्य क्रम में चलेगी.

महादशा का क्रम यदि सव्य है तो अन्तर्दशा क्रम भी सव्य होगा और यदि क्रम अपसव्य है तो अन्तर्दशा क्रम भी अपसव्य चलेगा.

मण्डूक दशा में यदि राशिश सप्तम भाव में है तो उस राशि की 10 वर्ष की दशा होगी. इस दशा में चर दशा की तरह एक वर्ष की कटौती नहीं होगी. दशा वर्ष निर्धारित करने के लिये विषम राशि में सव्य क्रम में राशिस्वामी तक गिनेगें और सम राशि में राशि से राशि स्वामी तक अपसव्य क्रम में गिनेगें. जो संख्या आई उतने वर्ष का दशा क्रम होगा.

#मुद्दा दशा की गणना - Calculation of Mudda Dasha
विंशोत्तरी दशा में प्रत्येक ग्रह के वर्ष निश्चित होते हैं. उन निश्चित वर्षों को 3 से गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त होगी, उतने दिनों की उस ग्रह की मुद्दा दशा प्राप्त होगी. जैसे विंशोत्तरी दशा में सूर्य के 6 वर्ष निश्चित होते हैं. मुद्दा दशा निकालने के लिए 6 को 3 से गुणा करने पर 18 संख्या प्राप्त होती है अर्थात सूर्य की मुद्दा दशा 18 दिनों की है. बाकि ग्रहों की मुद्दा दशा के दिनो की संख्या को इसी प्रकार क्रम से प्राप्त करेगें.

चन्द्र की दशा 10 वर्षों की होती है तो 10 को 3 से गुणा करने पर 30 संख्या प्राप्त होती है अर्थात चन्द्र की मुद्दा दशा 30 दिन की है.

मंगल की 7 वर्षों की दशा है तो 7 गुणा 3 = 21 दिन की मुद्दा दशा मंगल की है.

राहु की 18 वर्षों की दशा है तो 18 X 3 = 54 दिन की मुद्दा दशा राहु की है.

बृ्हस्पति की 16 वर्षों की दशा है तो 16 X 3 = 48 दिन की मुद्दा दशा बृ्हस्पति की है.

शनि की 19 वर्षों की दशा है तो 19 X 3 = 57 दिन की मुद्दा दशा शनि की है.

बुध की 17 वर्षों की दशा है तो 17 X 3 = 51 दिन की मुद्दा दशा बुध की है.

केतु की 7 वर्षों की दशा है तो 7 X 3 = 21 दिन की मुद्दा दशा बुध की है.

शुक्र की 20 वर्षों की दशा है तो 20 X 3 = 60 की मुद्दा दशा शुक्र की है.

विंशोत्तरी मुद्दा दशा कुल 360 दिनों की होती है.


#राशियों का पूर्ण चक्र - [Complete Cycle of the Signs]
राशियों का पूर्ण चक्र

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#विंशोत्तरी मुद्दा दशा की गणना - Calculation of Vinshottari Mudda Dasha
विंशोत्तरी दशा में प्रत्येक ग्रह के वर्ष निश्चित होते हैं. उन निश्चित वर्षों को 3 से गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त होगी, उतने दिनों की उस ग्रह की मुद्दा दशा प्राप्त होगी. जैसे विंशोत्तरी दशा में सूर्य के 6 वर्ष निश्चित होते हैं. मुद्दा दशा निकालने के लिए 6 को 3 से गुणा करने पर 18 संख्या प्राप्त होती है अर्थात सूर्य की मुद्दा दशा 18 दिनों की है. बाकि ग्रहों की मुद्दा दशा के दिनो की संख्या को इसी प्रकार क्रम से प्राप्त करेगें.

चन्द्र की दशा 10 वर्षों की होती है तो 10 को 3 से गुणा करने पर 30 संख्या प्राप्त होती है अर्थात चन्द्र की मुद्दा दशा 30 दिन की है.

मंगल की 7 वर्षों की दशा है तो 7 गुणा 3 = 21 दिन की मुद्दा दशा मंगल की है.

राहु की 18 वर्षों की दशा है तो 18 X 3 = 54 दिन की मुद्दा दशा राहु की है.

बृ्हस्पति की 16 वर्षों की दशा है तो 16 X 3 = 48 दिन की मुद्दा दशा बृ्हस्पति की है.

शनि की 19 वर्षों की दशा है तो 19 X 3 = 57 दिन की मुद्दा दशा शनि की है.

बुध की 17 वर्षों की दशा है तो 17 X 3 = 51 दिन की मुद्दा दशा बुध की है.

केतु की 7 वर्षों की दशा है तो 7 X 3 = 21 दिन की मुद्दा दशा बुध की है.

शुक्र की 20 वर्षों की दशा है तो 20 X 3 = 60 की मुद्दा दशा शुक्र की है.

विंशोत्तरी मुद्दा दशा कुल 360 दिनों की होती है.

#सहम की गणना - Calculation of Saham
सभी सहमों की गणना रात्रि और दिन के वर्ष प्रवेश के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है. दिन के वर्ष प्रवेश की गणना अलग होगी और रात्रि की गणना अलग होगी. सहम की गणना में ग्रह और लग्न के भोगांश को प्रयोग में लाया जाता है. यदि हमें व्यवसाय के बारे में वर्ष कुण्डली से गणना करनी है तब कर्म सहम का उपयोग किया जाएगा, जिसकी गणना निम्न तरीके से होगी :-

दिन की वर्ष प्रवेश कुण्डली के लिए गणना = मंगल - बुध + लग्न

रात्रि की वर्ष प्रवेश कुण्डली के लिए गणना = बुध - मंगल + लग्न

इस प्रकार सभी सहमों की गणना में भिन्न-भिन्न ग्रहों को शामिल किया गया है.

#स्थिर दशा की गणना - [Calculation of Sthir Dasha]
स्थिर दशा की गणना

कुण्डली में ब्रह्मा जिस भाव में स्थित हैं दशा उस भाव से शुरु होगी. दशा का क्रम सीधा रहेगा.

स्थिर राशि दशा में चर राशियों को सात वर्ष की दशा मिलती है.

स्थिर राशियों को आठ वर्ष की दशा मिलती है.

द्विस्वभाव राशियों को नौ वर्ष की दशा मिलती है.

महादशाओं और अन्तर्दशाओं का क्रम सीधा रहता है. महादशा में पहली अन्तर्दशा उसी राशि की होती है जिसकी महादशा है. जैसे मेष में मेष की अन्तर्दशा.

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