- #क्षेत्र बल - Kshetra Bal
-
क्षेत्र बल की गणना वर्ष कुण्डली में ग्रह की स्वराशि, मित्र राशि, शत्रु राशि आदि में स्थिति के आधार पर किया जाता है. इस बल में अधिकतम अंक 30 प्राप्त होते हैं.
क्षेत्र बल पंचवर्गीय बल का एक हिस्सा है. इसकी गणना वर्ष कुण्डली में की जाती है.
- #चित्रा नक्षत्र - Chitra Nakshatra
-
चित्रा नक्षत्र कन्या राशि में 23 अंश 20 कला से तुला राशि में 6 अंश 40 कला तक रहता है. क्रान्तिवृ्त्त से 2 अंश 3 कला 15 विकला द्क्षिण और विषुवत वृ्त्त से 11 अंश 8 कला 45 विकला द्क्षिण में स्थित है. इसमें केवल एक ही तारा है जो कन्या राशि के अंत में दिखाई देता है. यह बहुत चमकदार तारा है. इसे विश्वकर्मा या ब्रह्मा का निवास स्थान माना जाता है. भचक्र में यह मध्य भाग में होने से संतुलन नक्षत्र कहलाता है.
निरायण सूर्य 10 या 11 अक्तुबर को चित्रा नक्षत्र में प्रवेश करता है. उस अवधि में सूर्योदय के समय चित्रा नक्षत्र को पूर्वी क्षितिज पर देखा जा सकता है. चित्रा नक्षत्र के दो चरण पार कर 16 - 17 अक्तुबर को सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश कर जाता है. मई मास के अंत में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के बीच चित्रा नक्षत्र शिरोबिन्दु के मध्य पर होता है. चैत्र मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा चैत्र नक्षत्र पर गोचर करता है. चित्रा का नक्षत्र पति ग्रह मंगल है.
चित्रा शब्द चित्र से बना है. चित्र का अर्थ है उज्जवल, चितकबरा, रुचिकर, आश्चर्यजनक या अदभुत. कुछ विद्वान इसका संबंध चित्त से मानते हैं. उनके मतानुसार देखा हुआ प्रत्यक्ष, ज्ञात-विचार, चिन्तन, संकल्प किया हुआ या इच्छित पदार्थ की प्राप्ति के लिये चित्रा शब्द का प्रयोग होता है. चित्त की रक्षा करना भी चित्रा कहलाता है. चित्रा नक्षत्र के विशिष्ट गुन इस नक्षत्र के नाम में छिपे हैं. भारत सरकार ने चित्रा प़एएय अयनाँश को राष्ट्रीय पंचांग में स्वीकृ्ति इसके विशिष्ट गुणों के कारण दी है.
चित्रा तारे का प्रतीक चिह्न एक बडे़ आकार के तारे को इस नक्षत्र का मुख्य तारा माना जाता है. चित्रा नक्षत्र में किसी को सजा सँवार कर अदभुत व आश्चर्यजनक बनाने की कला है. चित्रा नक्षत्र सूर्य को भी सँवारता है. इसलिए दक्षिणायन का सूर्य चित्रा नक्षत्र के दो चरण पूरे कर के दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश करता है. मतान्तर से इसे मोती द्वारा भी दर्शाया गया है. सीप के गर्भ में पलने वाला मोती बडी़ असहज व असामान्य परिस्थितियों पलता व जन्मता है. इसी प्रकार चित्रा नक्षत्र में सृ्जनात्मक प्रकृ्ति के पीछे छिपी वेदना साफ दिखाई देती है. कभी - कभी जातक बहुत मामूली या बेकार सी चीजों से अदभुत कलाकृ्ति तैयार कर लेता है. चित्रा नक्षत्र, मोह माया के परदे को हटा कर, वास्तविक ज्ञान या ब्रह्मज्ञान का मोती पाने में सक्षम होता है.
विश्वकर्मा को चित्रा नक्षत्र का अधिपति देवता माना गया है. विश्वकर्मा व ब्रह्मा अभिन्न हैं. अपनी शक्ति गायत्री का सहयोग पाकर ब्रह्मा ने अपने ज्ञान व माया के सहारे, सृ्ष्टि की रचना की है. नक्षत्र मण्डल में चित्रा नक्षत्र मध्य भाग में है. चित्रा से पहले 13 नक्षत्र हैं और चित्रा के बाद 13 नक्षत्र हैं. ब्रह्मा, देव, दैत्य व मनुष्य तीनों के लिए आदरणीय हैं. वे असुरों पर भी कृ्पा करते हैं. अनेक दैत्योम ने ब्रह्मा की उपासना कर अजेय होने का वरदान पाया. इस प्रकार चित्रा नक्षत्र इस बात की चिन्ता नहीं करता कि उसकी कृ्ति का अंतिम परिणाम क्या होगा. कुछ नया व अनोखा करने का इच्छुक होता है.
चित्रा नक्षत्र के गुण " कुछ करो, नया, कुछ अनोखा तथा अदभुत" चित्रा नक्षत्र गतिशील, ऊर्जावान, उत्साही व कुछ विचित्र काम करने का इच्छुक रहता है. निठल्ला बैठना इसे पसन्द नहीं. मन व शरीर निरन्तर सक्रिय या क्रियाशील रहते हैं. चित्रा नक्षत्र का पूर्वार्ध कन्या राशि में पड़ता है. यह सक्रिय व कर्मठ नक्षत्र है.
विद्वानों ने चित्रा नक्षत्र को वैश्य जाति का नक्षत्र माना है. विविध वस्तुओं का उत्पादन तथा वितरण का दायित्व वैश्य जाति का है. चित्रा का अधिष्ठाता देवता विश्वकर्मा भी सभी वस्तुओं का सृ्जनकर्ता अथवा निर्माता है. विद्वानों ने चित्रा को स्त्री नक्षत्र माना है. वैदिक साहित्य में स्त्री को माया कहा गया है. चित्रा नक्षत्र माया से जुडा़ है अत: इसे स्त्री नक्षत्र कहना उचित जान पड़ता है.
माथा, मस्तक, तथा गर्दन को चित्रा नक्षत्र का अंग माना गया है. इसका नक्षत्रपति मंगल ग्रह होने से चित्रा को पित्त प्रधान माना गया है. विद्वानों ने चित्रा नक्षत्र का संबंध दक्षिण दिशा से माना है. कुछ विद्वान दक्षिण पूर्वअग्नि कोण दक्षिण दिशा व दक्षिण पश्चिम नैऋत्य कोण को जोड़ कर बनाई गई चाप को चित्रा की प्रभावी दिशा स्वीकारते हैं.
चित्रा नक्षत्र का स्वामी मंगल एक तमोगुणी ग्रह होने से चित्रा को तामसिक नक्षत्र माना जाता है. चित्रा नक्षत्र माया से जुडा़ है अत: इसे तमोगुणी नक्षत्र मानना सही लगता है. चित्रा को नक्षत्रपति मंगल के कारण अग्नि नक्षत्र माना गया है. सृ्जनात्मक प्रवृ्ति के लिएिअग्नि व उर्जा की आवश्यकता होती है. अत: चित्रा को अग्नि तत्व मानना सही है.
मायावी चित्रा को राक्षस गण माना जाता है. राक्षस माया की अच्छी जानकारी रखते हैं तथा मायावी शक्तियों के उपयोग में कुशल होते हैं. चित्रा के माया पक्ष पर अधिक बल देने के लिए इसका राक्षस गण होना सही है. चित्रा को तिर्यक मुख नक्षत्र माना जाता है. यह एक संतुलित नक्षत्र है. यह मृ्दु अथवा कोमल नक्षत्र भी है.
चैत्र मास के मध्य वाले 9 दिन जो अप्रैल के माह में आते हैं, उन्हे चित्रा नक्षत्र से जोडा़ जाता है. कृ्ष्ण व शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को चित्रा नक्षत्र की तिथि माना जाता है. चित्रा नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'पे' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'पो' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'रा' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'री' है. चित्रा ऩक्षत्र को व्याघ्र योनि माना गया है. चित्रा नक्षत्र का अधिष्ठाता देवता ब्रह्मा सारे संसार की रचना करते हैं. चित्रा का संबंध बुध व तुला राशि से है.
विद्वानों ने चित्रा नक्षत्र को ऋषि कृ्तु का वंशज माना है. कृ्तु का अर्थ है मनोबल बढा़ने वाला, प्रोत्साहन देने वाला. सृ्जनात्मक प्रकृ्ति के सक्रिय नक्षत्र को कृ्तु का वंशज मानना सही ही है. कुछ विद्वान चित्रा को पुण्य संचयी शक्ति भी कहते हैं.
- #तगी योग - Tagi Yog
-
वर्ष कुण्डली में यदि पंचम भाव का स्वामी और गुरु, बुध तथा चन्द्रमा कर्क या वृश्चिक राशि में स्थित हों और नवम भाव में शुक्र वृ्षभ या मीन राशि में स्थित हो तो तगी योग बनता है.
यह योग अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है. जिस वर्ष यह योग बनता है, उस वर्ष जातक का विशेष भाग्योदय होता है. जातक को मान-सम्मान की प्राप्ति, यश में वृ्द्धि, संतान सुख की प्राप्ति होती है. इस वर्ष जातक कुछ धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करता हैं जिससे समाज में उसको विशेष सम्मान और यश मिलता है.
- #तमाल योग - Tamaal Yog
-
यदि वर्ष कुण्डली के लग्न का स्वामी चौथे, सातवें या दसवें भाव में हो तथा जिस भाव में हो उस भाव का स्वामी चौथे स्थान में स्थित हो तब तमाल योग बनता है.
यह एक शुभ योग है. जातक इस वर्ष में विशेष सम्मान मिलता है. सरकारी कार्यालय में उच्च पद की प्राप्ति होती है. नौकरी में पदोन्नति मिलती है. वाहन सुख मिलता है. भूमि सुख प्राप्त होता है. शत्रुओं का नाश होता है. इस वर्ष विदेश यात्रा का संयोग बनता है.
- #तमाली योग - Tamaali Yog
-
वर्ष कुण्डली के लग्न का स्वामी मंगल के साथ दसवें भाव में बैठा हो तथा दसवें भाव का स्वामी लग्न में या सातवें भाव में स्थित हो तो तमाली योग बनता है.
यह शुभ योग है. यह योग जातक के लिए अनुकूल योग है. इस योग के बनने से संतान सुख की प्राप्ति, आनन्द व सुखों की प्राप्ति होती है. सरकार की ओर से सम्मान की प्राप्ति होती है. व्यापार में वृद्धि होती है. समय अनुकूल रहता है.
- #ताजिक कुण्डली - Tajik Kundli
-
हर वर्ष की वर्षफल कुण्डली को ही ताजिक कहते हैं. इस पद्धति में एक-एक वर्ष का पृ्थक-पृ्थक फल तथा प्रत्येक वर्ष हर ग्रह के स्वतंत्र फल को महत्व दिया गया है. इस पद्धति में नवग्रहों की अपनी - अपनी पहचान होते हुए भी एक ग्रह को सर्वाधिक महत्व दिया गया है, वो ग्रह वर्षेश कहलाता है.
वर्ष प्रवेश कुण्डली सूर्य पर आधारित है. जन्म कुण्डली में सूर्य जिस राशि, अंश, कला और विकला पर स्थित होता है, अगले वर्ष उसी जन्म राशि, अंश, कला और विकला पर जब सूर्य स्थित होगा तब उस समय वर्ष प्रवेश कुण्डली का निर्माण होता है.
सूर्य हर वर्ष 365 दिन, 15 घटी, 31 पल 30 विपल में पुन: उसी स्थान या बिन्दु पर आ जाता है जिस पर वह जन्म के समय था. इस कारण वर्ष प्रवेश कुण्डली जन्म दिन से एक दिन पहले या एक दिन बाद में बनती है या उसी दिन सुबह या शाम के समय में वर्ष प्रवेश कुण्डली बनती है.
- #ताजिक दृ्ष्टियाँ - Tajik Aspect
-
वर्ष कुण्डली में ग्रहों की दृ्ष्टियाँ पराशरी दृ्ष्टि से अलग होती है.
वर्ष कुण्डली में 3,5,9 और 11वें भाव में स्थित ग्रह आपस में मित्र होते है.
2,6,8, और 12वें भाव में स्थित ग्रह आपस में सम दृ्ष्टि रखते हैं.
1,4,7 और 10वें भाव में स्थित ग्रह आपस में शत्रु दृ्ष्टि रखते हैं.
पांचवीं तथा नौवीं दृ्ष्टि प्रत्यक्ष मित्र दृ्ष्टि कहलाती है.
तीसरी व ग्यारहवीं दृ्ष्टि अप्रत्यक्ष या गुप्त मित्र दृ्ष्टि कहलाती है.
चौथी तथा दसवीं दृ्ष्टि गुप्त शत्रु दृ्ष्टि कहलाती है.
पहली व सातवीं दृ्ष्टि प्रत्यक्ष शत्रु दृ्ष्टि कहलाती है.
- #ताम्बीर योग - Tambir Yog
- वर्ष कुण्डली में लग्नेश और कार्येश की परस्पर दृ्ष्टि न हो, पर इनमें से एक ग्रह राशि के अंत में स्थित होकर आगे की राशि में स्थित बलवान ग्रह से इत्थशाल करता हो तब ताम्बीर योग बनता है. यह शुभ योग है.
- #तारा - Tara
-
ताराएं नौ प्रकार की होती हैं. जन्म के समय चन्द्र जिस नक्षत्र में स्थित होता है, पहली तारा उस जन्म नक्षत्र से शुरु होती है. इन नौ ताराओं में से विपत,प्रत्यरि और वध ताराएं अपने नाम के अनुसार अशुभ होती हैं. नौ ताराएं निम्नलिखित हैं :-
जन्म
सम्पत
विपत
क्षेम
प्रत्यरि
साधक
वध
मित्र
अतिमित्र
- #तारा नक्षत्र - Tara Nakshatra
- जन्म नक्षत्र से गिनने पर जन्म, सम्पत,विपत,क्षेम,प्रत्यरि,साधक,वध,मैत्र,अतिमैत्र ये नौ ताराएँ होती है. ये तारा अपने नाम के अनुसार फल देती है. कृ्ष्णपक्ष में तारा बल भी देखना चाहिए.सामान्य नियम से चन्द्रबल सर्वत्र देखना चाहिए. 3, 5, 7 ताराएँ (विपत, प्रत्यरि, वध) अशुभ व शेष शुभ होती है. यात्रा, विवाह, चिकित्सा में सदा अशुभ तारा का त्याग करना चाहिए.
- #तारा मिलान - Tara Milan [Tara Matching]
-
तारा 9 प्रकार की होती हैं.
- जन्म
- सम्पत
- विपत
- क्षेम
- प्रत्यरि
- साधक
- वध
- मित्र
- अतिमित्र
यदि दोनों प्रकार से तारा विपत, प्रत्यरि एवं वध ना हो तो तारा शुभ होती है तथा उसके पूरे तीन अंक माने जाते हैं.
यदि एक की तारा शुभ हो तब 1 1/2 अंक मिलता है.
यदि दोनों ही अशुभ तारा आ रही हों तब 0 अंक मिलता है.
तारा के शुभ-अशुभ की जानकारी के लिए वर के नक्षत्र से कन्या के नक्षत्र तक गिनकर प्राप्त संख्या में 9 का भाग दें जो संख्या शेष बची उस की तारा होगी. इसी प्रकार कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र तक गिनकर तारा संख्या प्राप्त करें.
- #वर्ष कुण्डली के सोलह योग - Sixteen Yogas of Varsh Kundali
-
वर्ष कुण्डली में सोलह प्रकार के योग होते हैं, जो निम्नलिखित हैं.
- इक्कबाल योग
- इन्दुवार योग
- इत्थशाल योग
- ईशराफ योग
- नक्त योग
- यमया योग
- मणऊ योग
- कम्बूल योग
- गैरी कम्बूल योग
- खल्लासर योग
- रद्द योग
- दुष्फाली कुत्थ योग
- दुत्थकुत्थीर योग
- ताम्बीर योग
- कुत्थ योग
- दुरूफ योग
- #विवाह में कार्तिक मास का विशेष नियम - [Special Rule of Kartik Month in Marriage]
- आचार्यों ने कार्तिक मास की पूर्णिमा से पाँच दिन पहले व पीछे, विवाह में दोष नहीं बताया है अर्थात तिथिवार, नक्षत्र तथा त्रिबल शुद्धि अविचारणीय होती है. इन तिथियों में बृ्हस्पति, शुक्रास्त होने पर भी विवाह संपन्न हो सकता है. परन्तु ग्रहण सूतक तथा चन्द्रबल पर अवश्य विचार कर लेना चाहिए और गोधूलि तथा गोधूलि लग्न को प्राथमिकता देनी चाहिए.
- #शत्रु सहम - Shatru Saham
-
दिन का वर्ष प्रवेश :- मंगल - शनि + लग्न
रात्रि का वर्ष प्रवेश :- शनि - मंगल + लग्न
- #शयनादि अवस्था - Shayanadi Avastha
-
ग्रहों की कुण्डली में शयनादि अवस्थाएँ
- शयन अवस्था (लेटना)
- उपवेशन अवस्था (बैठना)
- नेत्रपाणि अवस्था (नेत्रों को मलते हुए उठना)
- प्रकाशन (प्रकाशित)
- गमनेच्छा (बाहर जाने की इच्छा)
- गमन अवस्था (बाहर जाना)
- सभा वसति (सभा में बैठना)
- आगमन (आना)
- भोजन (खाना)
- नृ्त्य लिप्सा (नृ्त्य की इच्छा)
- कौतुक अवस्था (प्रसन्न चित्त)
- निद्रा अवस्था (सोना)
- #शिव योग - Shiv Yog
-
इस योग का जातक शास्त्रज्ञ, धनी, राजा का प्रिय, महाबुद्धिमान, कल्याण करने को तत्पर, इन्द्रियों पर विजय पाने वाला तथा संसार में पूज्य होता है.
- #शुक्र ग्रह - Shukra Grah[Venus]
-
इसके अन्य नाम भृ्गु, उशना, भार्गव सुत, आच्छ, काण, कवि, दैत्यगुरु, सित, काव्य, भृ्गुसुत, दानवेज्य, आस्फुटित हैं. शुक्र का वर्ण ब्राह्मण है. इसका रंग मध्यम है. ना ज्यादा गोरा ना ज्यादा काला. इस ग्रह के देवता इन्द्राणी हैं. अधिपति इन्द्र हैं. शुक्र ग्रह की दिशा आग्नेय है. यह नैसर्गिक शुभ ग्रह है. शुक्र वीर्य का कारक है. मोती इसके खनिज पदार्थ है. शुक्र का स्थान शयन गृ्ह है. इसका वस्त्र मध्यम है. वस्त्र का रंग सफेद है. बसंत ऋतु इसके अन्तर्गत आती है. इसका स्वाद खट्टा है. यह मूल रुप है. इसकी दृ्ष्टि तिरछी है.
शुक्र रजोगुणी ग्रह है. यह वायु तत्व ग्रह है. यह स्त्री संज्ञक ग्रह है. इसका समय अपराह्न का है. यह ग्रह अर्धरात्रि में बली होता है. इस ग्रह की पित्त प्रकृ्ति है. इसका शरीर सुंदर है. नेत्र कमल के समान हैं. शुक्र ग्रह के टेढे़ व नीले बाल है. स्वरुप राजसी है और प्रकृ्ति अति कामी है. इस ग्रह की अवस्था मध्यम है. यह भोग का कारक ग्रह है. इस ग्रह से काम देव का विचार करते हैं.
शुक्र की प्रकृ्ति में आलस्य विद्यमान है. यह अभिमानी है. आयु 16 वर्ष है. इसका रत्न हीरा है. यह शीर्षोदय ग्रह है. द्विपद है. यह जलचर ग्रह है. इसे मंत्री की पदवी प्राप्त है. शुक्र ग्रह के अन्तर्गत कीकट प्रदेश आता है. कृ्ष्णा से गोमती नदी तक का क्षेत्र इसके अधिकार क्षेत्र में है. शुक्र बांई ओर चिन्ह करते है और चिन्ह स्थान चेहरा है. पितृ लोक इसके अन्तरग्त आता है. यह चर ग्रह है. लता वाले पौधे, दुध वाले और फूल वाले वृ्क्ष इसके कारक हैं. इसके अधिकार क्षेत्र में गुप्त स्थान आते हैं. जैसे गुदा और अंडकोष. मुख का स्वाद इसकी इन्द्रिय है. इस ग्रह के पीड़ित होने से वात, कफ़ या भय रोग हो सकते हैं.
शुक्र सांस्कृ्तिक या मानवीय समाज में बहुमुखी विकास और दुनियादारी का द्योतक है. समान्यता शुक्र पारिवारिक सम्पन्नता, यातायात, आभूषणों और बहुमूल्य वस्तुओं के स्वामित्व का प्रतीक है. सब प्रकार की कलाएं नृ्त्य, गीत, अभिनय आदि इसके कारक हैं. आधुनिक युग में इत्र, होटल, कम्प्युटर सॉफ्टवेयर से संबंधित व्यक्ति और देह व्यापार से जुड़े व्यक्ति शुक्र के अन्तर्गत आते हैं.
- #शुक्ल प़क्ष अंशों सहित - Shukla Paksh Ansho Sahit
-
तिथि - सूर्य से चन्द्र की दूरी
प्रतिपदा - 0 से 12 डिग्री तक
द्वितीया - 12 से 24 डिग्री तक
तृ्तीया - 24 से 36 डिग्री तक
चतुर्थी - 36 से 48 डिग्री तक
पंचमी - 48 से 60 डिग्री तक
षष्ठी - 60 से 72 डिग्री तक
सप्तमी - 72 से 84 डिग्री तक
अष्टमी - 84 से 96 डिग्री तक
नवमी - 96 से 108 डिग्री तक
दशमी - 108 से 120 डिग्री तक
एकादशी - 120 से 132 डिग्री तक
द्वादशी - 132 से 144 डिग्री तक
त्रयोदशी - 144 से 156 डिग्री तक
चतुर्दशी - 156 से 168 डिग्री तक
पूर्णिमा - 168 से 180 डिग्री तक
- #शुक्ल योग - Shukla Yog
- इस योग वाला जातक सत्य बोलने वाला, पराक्रमी, विजय पाने वाला, सम्मान प्राप्त करने वाला, कला को जानने वाला, सभी का प्रिय होता है. धनी, कवि, क्रोधी, धर्म के लिए तत्पर रहता है.
- #शुक्लादि मास - Shukladi Maas
- एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक का मास शुक्लादि या अमान्त अर्थात अमावस्या + अन्त कहलाता है. गुजरात, महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश में इस मास का प्रचलन है.
- #शुभ कर्तरी - Shubh Kartari
- किसी ग्रह के द्वितीय भाव और द्वादश भाव में शुभ ग्रह हो तो वह ग्रह शुभ कर्तरी में है.यदि कोई भाव खाली है और उस भाव के भी दूसरे और द्वादश भाव में शुभ ग्रह हों तब वह भाव भी शुभ कर्तरी में कहलाता है.
- #शुभ योग - Shubh Yog
- इस योग में जन्मे जातक की वाणी श्रेष्ठ होती है. अच्छे कर्म करने वाला, धर्म-कर्म करने वाला, दानी, ज्ञानी, दाता, ब्राह्मणों का आदर करने वाला होता है. कामी तथा कफ़ प्रकृ्ति वाला होता है.
- #शूल योग - Shul Yog
- इस योग वाला जातक दरिद्र, रोगी, क्रोधी, कलहकारी होता है. शूल के रोग हो सकते हैं. शास्त्रों में निपुण, विद्यावान होता है. द्रव्यों में कुशल होता है.
- #शोधन - Shodhan[Refinement]
-
हर ग्रह के भिन्नाष्टकवर्ग में जो अंक प्राप्त होते हैं, उनका शोधन दो प्रकार से किया जाता है. त्रिकोण शोधन तथा एकाधिपत्य शोधन के नाम से इन शोधनों को जाना जाता है. शोधनों का प्रयोग कुण्डली में स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं तथा अन्य कई विषयों को जानने के लिए किया जाता है.
जब हम शोधन करते हैं तब पहले त्रिकोण शोधन तथा बाद में एकाधिपत्य शोधन किया जाता है.
- #शोभन योग - Shobhan Yog
- इस योग में जन्मा जातक भोगी, श्रेष्ठ बुद्धिवाला, पुत्र और स्त्री युक्त, युद्ध में उत्सुकता दिखाने वाला, सभी प्रकार के कार्य करने में आतुर होता है. शुभ कार्य करने के लिये हमेशा तत्पर रहता है.
- #श्रवण नक्षत्र - Shravana Nakshatra
-
श्रवण नक्षत्र मकर राशि में 10 अंश से 23 अंश 20 कला तक के क्षेत्र में रहता है. क्रान्तिवृ्त्त से 29 अंश 18 कला 13 विकला उत्तर और विषुवत रेखा से 8 अंश 51 कला 37 विकला उत्तर में स्थित है. श्रवण नक्षत्र गरुड़ तारा मंडल का सदस्य है. अल्फा श्रवण इस नक्षत्र का मुख्य तारा है. इसके आगे व पीछे के दो बीटा तारों को मिलाकर यह नक्षत्र तीन तारों का समूह है.
जनवरी के चतुर्थ सप्ताह में सूर्योदय के समय श्रवण नक्षत्र पूर्वी क्षितिज पर उदय होता है. क्योंकि निरायन सूर्य 24 जनवरी को श्रवण नक्षत्र में प्रवेश करता है. सितम्बर मास में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के मध्य यह नक्षत्र उत्तरी आकाश में शिरोबिन्दु पर देखा जा सकता है. श्रावन मास की पूर्णिमा को अर्थात रक्षा बन्धन के दिन चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र पर होता है. चन्द्रमा को श्रवण नक्षत्र का स्वामी ग्रह माना जाता है.
'श्रवण' शब्द का अर्थ है सुनना, अध्ययन, ख्याति, कीर्ति. श्रवण नक्षत्र का अन्य नाम 'अश्वत्थ या पीपल का वृ्क्ष है. पीपल को बहुत पवित्र माना जाता है. विद्वानों ने श्रवण ऩात्र के तीन तारों को भगवान विष्णु के तीन चरण माना है. उनका विचार है कि राजा बलि का यज्ञ भंग कर देवताओं का स्वर्ग पर अधिकार बनाए रखने के लिए, भगवान विष्णु ने छल किया था.
अन्य विद्वान तीन तारों में त्रिलोक, त्रिकाल व त्रिगुण देखते हैं. कहीं श्रवण नक्षत्र के तीन तारों को भगवान शिव का त्रिशुल माना गया है. कभी श्रवण नक्षत्र की तुलना मनुष्य के कान से की गई है. 'श्रवण' व कान का परस्पर संबंध अधिक सटीक लगता है.
भगवान विष्णु को त्रिदेवों में प्रमुख देवता माना जाता है. यही विष्णु श्रवण नक्षत्र के अधिदेवता भी हैं. विद्वानों का एक वर्ग श्रवण नक्षत्र का संबंध ज्ञान व कला की देवी सरस्वती से मानते हैं. उनका मत है कि ज्ञान प्राप्ति में श्रवण क्रिया सर्वप्रथम व प्रमुख क्रिया है. श्रवण श्ब्द अर्थात सुनना, समझना व दूसरों को समझाना तीन क्रियाओं को दर्शाता है. विद्वानों ने इस नक्षत्र को निष्क्रिय नक्षत्र माना है.
विद्वानों ने श्रवण नक्षत्र को म्लेच्छ या विजातीय माना है. इसे पुरुष नक्षत्र माना गया है. क्योंकि इसके देवता विष्णु भगवान हैं. कान व प्रजनन अंग का संबंध श्रवण नक्षत्र से माना गया है. मतान्तर से इसका मुख्य अंग कान है. श्रवन ऩक्षत्र, संतुलन व संरक्षण का नक्षत्र है. श्रवण का संबंध मनुष्य की चाल से है. मकर राशि में श्रवण नक्षत्र वाला भाग ही टाँगों व चाल को प्रभावित करता है.
श्रवण नक्षत्र का स्वामी ग्रह चन्द्रमा होने से श्रवण को कफ़ प्रधान नक्षत्र माना जाता है. दक्षिण व उत्तर - पश्चिम दिशा को श्रवण की दिशा माना जाता है. कुछ विद्वान पश्चिम दिशा को इस नक्षत्र की दिशा मानते हैं. इस नक्षत्र को राजसिक नक्षत्र माना गया है. श्रवण को देवगन माना गया है. यह नक्षत्र उर्ध्वमुख नक्षत्र है. यह चर नक्षत्र भी है.
श्रवण मास के पहले नौ दिनों का संबंध श्रवण नक्षत्र से माना जाता है. यह जुलाई के अन्त में या अगस्त मास में पड़ता है. दोनों पक्ष की तृ्तीया तिथि का संबंध श्रवण नक्षत्र से माना गया है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह चन्द्रमा व राशिपति शनि है.
श्रवण नक्षत्र का प्रथम चरण अक्षर 'खी' है. द्वितीय चरण अक्षर 'खू' है. तृ्तीय चरण अक्षर 'खे' है चतुर्थ चरण अक्षर 'खो' है. विद्वानों ने इसे वानर योनि नक्षत्र माना है. श्रवण को ऋषि वसिष्ठ का वंशज माना जाता है. वसिष्ठ का अर्थ है - धन, मान व यश पाने वाला.
- #षटत्रिशतवर्षा दशा - Shatatrishatvarsha Dasha
-
कुल 36 वर्ष की दशा होती है. केतु ग्रह दशा क्रम में नहीं है. यदि दिन का जन्म हो और सूर्य की होरा हो तथा रात के जन्म में चन्द्र की होरा हो तब यह दशा कुन्डली में लागू होती है. श्रवण नक्षत्र से जन्म नक्षत्र तक गणना करें प्राप्त संख्या को 8 से भाग दें जो संख्या शेष बचे उस संख्या के क्रमानुसार दशा क्रम शुरु होगा.
इस दशा की गणना विंशोत्तरी दशा जैसी है.
- #षोडश संस्कार - Shodasha Sanskar
-
16 संस्कार निम्नलिखित हैं -
- गर्भाधान
- पुंसवन
- सीमन्तोन्नयन
- जातकर्म
- नामकरण
- निष्क्रमण
- अन्नप्राशन
- मुण्डन
- कर्णवेधन
- उपनयन
- वेदारम्भ
- केशान्त
- व्रतस्नान
- विवाह
- अग्निपरिग्रह
- दाहकर्मादि
- #षोडशांश - Shodashansha
-
यह वर्ग कालांश के रूप में भी जाना जाता है. वाहन एवं सामान्य खुशियों के बारे में यह वर्ग जानकारी देता है. इस वर्ग का प्रयोग वाहन से संबंधित कष्ट, दुर्घटना एवं मृ्त्यु जानने के लिये भी कर सकते है. 30 डिग्री के 16 बराबर विभाग किये जाते है. हर भाग 1 डिग्री 52 मिनट 30 सैकण्ड का होता है.
महर्षि पराशर के ‘बृ्हत पराशर होरा शास्त्र’ के अनुसार यदि ग्रह या लग्न चर राशि में स्थित है तो उसकी गणना मेष राशि से शुरु होगी. यदि ग्रह स्थिर राशि में स्थित है सिंह राशि से शुरु होगी और ग्रह यदि द्विस्वभाव राशि में है तो गणना धनु राशि से शुरु होगी.
दूसरे मत के अनुसार यदि ग्रह विषम राशि में है तो गणना उसी राशि से शुरु होगी जबकि ग्रह यदि सम राशि में है तो गणना उस राशि से चौथी राशि से अपसव्य ( उल्टी गिनती )क्रम में शुरु होती है. यह नियम मंत्रेश्वर के द्वारा बताए गये नियम से थोडा़ सा भिन्न है.
यह दोनों विधियां एक समान परिणाम देती हैं क्योंकि दोनों विधियों में षोडशांश में ग्रहों की स्थिति लगभग एक जैसे आती है. फिर भी महर्षि पराशर की विधि प्रयोग में लायी जाती है.
- #षोडशोत्तरी दशा - Shodashottari Dasha
-
यह 116 वर्ष की दशा है. जब जन्म कृ्ष्ण पक्ष में हो तथा चन्द्र की होरा में जन्म हो या जन्म शुक्ल पक्ष में तथा सूर्य की होरा हो तब इस दशा का उपयोग करना चाहिए. इस दशा में आठ ग्रहों की गणना की जाती है. इस दशा में राहु को दशा क्रम में नहीं लिया गया है. पुष्य नक्षत्र से जन्म नक्षत्र तक गिनें जो संख्या प्राप्त हो उसे 8 से भाग दें जो शेष बचेगा उस संख्या से दशा क्रम शुरु होगा.
ग्रहों का दशा क्रम :-
भोग्य दशा निकालने के लिए गणना विंशोत्तरी दशा की तरह् की जाती है.
- #सिंह राशि - Simha Rashi[Leo Sign]
-
यह भचक्र और कालपुरुष की पांचवीं राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह सूर्य है. इस राशि का रंग नारंगी है. इस राशि का चिन्ह शेर है. इस राशि के अधिकार क्षेत्र में पीठ, पेट, ह्रदय, रक्त स्थान, कलेजा आते हैं. इस राशि का पंचम नवांश में पूरा प्रभाव दिखाई पड़ता है. यह राशि स्वतंत्रता पसन्द करती है. उदार चित्त है.
यह विषम राशि है. पुरुष संज्ञक है. स्वभाव से स्थिर राशि है. तत्व अग्नि है. क्रूर राशि है. अल्प या बन्ध्या संतति है. पित्त प्रवृ्त्ति है.
इस राशि की पूर्व दिशा है. यह राशि पर्वतों पर विचरण करती है. मतान्तर से पहाड़ों पर विचरण करती है. चतुष्पद राशि है.यह राशि दिन में बली होती है. इस राशि की देह मृ्दु है. जाति क्षत्रिय है. यह शीर्षोदय राशि है. यह शुष्क व निर्जल राशि है. यह राशि मूल राशि है.
यह राशि पांडय देश, त्रिचनापल्ली, मदुरा, तंजौर देश की स्वामी है. यह राशि फाल्गुन मास में शून्य रहती है. इस राशि के अन्य नाम कंठीरव, लेय और मृ्गेन्द्र हैं. इस राशि में मघा नक्षत्र के चार चरण, पूर्वाफाल्गुनी के चार चरण और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का एक चरण आता है. इस राशि में मा, मी, मू, मे, मो, टा, टी, टू, टे चरणाक्षर आते हैं.
इस राशि के पीड़ित होने पर ह्रदय रोग पेट से संबंधी रोग हो सकते हैं. जंगली पशु से भय, तेज ज्वर, शत्रु भय, अग्नि भय, उँचाई से गिरने का भय रहता है.
- #सिद्धा तिथि - Siddha Tithi
-
सिद्धा तिथियों में किया गया कार्य सिद्धि देने वाला होता है.
- मंगलवार की तृ्तीया, अष्टमी और त्रयोदशी तिथियाँ.
- बुधवार की द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी तिथियाँ
- बृ्हस्पतिवार की पंचमी, दशमी व पूर्णिमा तिथियाँ.
- शुक्रवार की प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथियाँ.
- शनिवार को चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी तिथियाँ.
- #सिद्धि योग - Siddhi Yog
- इस योग वाला जातक उदार चित्त होता है. चतुर होता है, शीलवान, बली, भाग्य वृ्द्धि होती है. सभी सिद्धियों से युक्त होता है. दाता, दानी व रोगी होता है. सुखी, सभी उस पर आश्रित होते हैं.
- #सुकर्म योग - Sukarm Yog
- इस योग में जन्मा जातक अच्छे कर्म करने वाला, सुशील, सबसे प्रेम करने वाला, गुणी, भोगी, हमेशा प्रसन्नचित्त रहने वाला होता है. पराक्रमी, उपकारी तथा आचारवान होता है.
- #सूर्य ग्रह - Surya Grah[Sun]
-
सूर्य के अन्य नाम हेलि, भानु, दीप्तरश्मि, भास्कर, तपन, दिनकृ्त, पूषा, अरूण, अर्क आदि हैं. सूर्य ग्रहों में राजा है. इसकी जाति राजक्षत्रिय है. इसका रंग रक्त के समान है. सूर्य के देवता अग्नि है. इसके अधिपति शिव है. सूर्य की दिशा पूर्व दिशा है. यह नैसर्गिक पाप ग्रह ना होकर नैसर्गिक क्रूर ग्रह है.
सूर्य आत्मा का कारक है. सूर्य हड्डी का कारक है. सूर्य का वस्त्र मोटा होता है. ग्रीष्म ऋतु सूर्य के अन्तर्गत आती है. इसका स्वाद कड़ुवा है. सूर्य मूल है. सूर्य की दृ्ष्टि ऊपर की ओर है. यह सतगुणी ग्रह है. सूर्य पुरुष संज्ञक ग्रह है. सूर्य का समय मध्याह्न में है. यह मध्याह्न समय में बली होता है. इसकी पित्त प्रवृ्त्ति है. इसका आकार चौकोर है. शरीर मध्यम है. सुर्य के नेत्र शहद जैसे पीले हैं. सिर पर बाल बहुत कम है. सूर्य की अवस्था बूढी़ है. सूर्य से शरीर का विचार करते हैं.
सूर्य बुद्धिमान है. शूरवीर, गंभीर, चतुर है. इसकी आयु 100 वर्ष है. सूर्य का रत्न माणिक्य है. यह शुष्क और निर्जल ग्रह है. यह पर्वतों और वनों में निवास करता है. सूर्य के अन्तर्गत कलिंग देश आता है. सूर्य का लोक मृ्त्यु लोक है. मतान्तर से पाताल लोक है. सूर्य पीड़ित होने पर पिता संबंधी कष्ट, हड्डी के रोग, गंजापन, नेत्र रोग दे सकता है. सिर या मुख में भी पीडा़ दे सकता है. सूर्य दांई आँख का कारक है.
प्रत्येक स्थान में राजा का प्रतीक है. जन्मकुण्डली में सूर्य की स्थिति से जातक की राजसी भव्यता का पता चलता है. परिवार में सूर्य से पिता का और पैत्रिक संबंधों का विचार किया जाता है. सूर्य राजतंत्र में राजा का कारक ग्रह है. आधुनिक प्रजातंत्र में उच्चाधिकारी या प्रतिष्ठित व्यक्ति का प्रतीक है. साथ ही सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में उच्चपदाधिकारियों का प्रतीक भी सूर्य है.
- #सृ्ष्टि, स्थिति, संहार नक्षत्र - Srishti, Sthiti, Sanhar Nakshatra
-
अश्विनी से गणना करने पर तीन-तीन नक्षत्र क्रमश: सृ्ष्टि. स्थिति व संहार तारा कहलाती है. जन्मकुण्डली में भाव का फल विचार करने में इनका उपयोग होता है.
- #सोमपद तिथियाँ - Sompad Tithiyan
-
सोमपद तिथियाँ शुभफलदायक होती हैं. इनका संबंध मास से है.
- ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि.
- आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि.
- पौष मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि.
- माघ मास की कृ्ष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि और शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि.
- #सौभाग्य योग - Sobhagya Yog
- इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति ज्ञानवान, सुखी, धनवान, आचारवान, बलवान, सौभाग्य युक्त, अभिमानी होता है. हर काम में निपुण, स्त्रियों का प्यारा होता है. ऎसा जातक राजा का मंत्री होता है. आधुनिक युग में एक बडा़ ओहदा प्राप्त करता है.
- #सौर मास और संक्रान्ति [Solar Month and Sakraanti]
- सूर्य जब एक राशि के अन्त में जाकर दूसरी राशि में जाता है तब उसे संक्रान्ति कहते है. या फिर हम कह सकते है कि सूर्य जब दो राशियों की संधि पर आता है तब आगे की राशि की संक्रान्ति होती है. इस प्रकार प्रत्येक सौर मास में एक संक्रान्ति होती है. जिस राशि पर सूर्य जाता है उस राशि की संक्रान्ति कहलाती है. जैसे धनु का अन्त होने पर सूर्य मकर संक्रान्ति में जाता है तो वह मकर संक्रान्ति कहलाती है.
- #स्तंभित ग्रह - Stambhit Grah
- जब कोई भी ग्रह मार्गी से वक्री होने वाला होता है तो कुछ समय के लिए ठहरा हुआ सा लगता है. दो एक या दो दिन तक ग्रह की यह स्थिति बनी रहती है. ग्रह की इस अवस्था को सतंभित अवस्था कहते हैं. जब वक्री से मार्गी होता है तब उस अवस्था को भी स्तंभित अवस्था कहते हैं. स्तंभ का अर्थ है - खडा़ हुआ या रुका हुआ. जिसमें कोई गति ना हो रही हो.
- #स्तम्भ - Stambha[Pillars]
- कोट चक्र के सबसे भीतरी भाग को स्तम्भ कहते हैं. स्तम्भ के भीतर चार नक्षत्र स्थित होते हैं. ये चार नक्षत्र स्तम्भ नक्षत्र भी कहलाते हैं. यह कोट चक्र का सबसे संवेदनशील हिस्सा है. इस हिस्से में पाप ग्रह का गोचर, खराब दशा होने पर, जातक के लिए नुकसान देह होता है.
- #स्त्री दीर्घ कूट - Stri Dirgh Koot
-
स्त्री दीर्घ कूट का अर्थ है कि वर का जन्म नक्षत्र कन्या के जन्म नक्षत्र से नौ से अधिक होना चाहिए.
प्रथम भाव स्वयं को निर्धारित करता है.
द्वितीय भाव से कुटुम्ब का पता चलता है.
तृ्तीय भाव से छोटे भाई-बहन को देखते हैं.
इसका अर्थ ये है कि वर का जन्म नक्षत्र कन्या के नक्षत्र से नौ से कम हुआ तो उनकी जन्म राशि कन्या की राशि से अगली तीन राशियों में से एक होगी और वर व कन्या एक दूसरे के संबंधी हो जाएंगें. इस कारण स्त्री दीर्घ कूट का विचार किया जाता है.
- #स्त्री नक्षत्र - Stree Nakshatra[Female Nakshatra]
- भरणी नक्षत्र, चित्रा, कृ्त्तिका, स्वाति, रोहिणी, विशाखा, आर्द्रा, ज्येष्ठा, अश्लेषा, पूर्वाषाढा़, मघा, उत्तराषाढा़, पूर्वाफाल्गुनी, धनिष्ठा, उत्तराफाल्गुनी, रेवती नक्षत्र स्त्री संज्ञक नक्षत्र कहलाते हैं. यदि स्त्री-पुरुष का नक्षत्र एक ही वर्ग में पडे़ अर्थात स्त्री वर्ग में पडे़ या पुरुष वर्ग में पडे़ तो दोनों में प्रेम-भाव बना रहता है.
- #स्त्री-पुरुष बल - Stri-Purush Bal
-
यदि वर्ष कुण्डली में पुरुष ग्रह, पुरुष भावों में स्थित हों और स्त्री ग्रह, स्त्री भावों में स्थित हों तब ग्रह को पांच अंक मिलते हैं अन्यथा शून्य अंक मिलेगा. यदि पुरुष ग्रह, स्त्री भाव में स्थित है तो शून्य अंक मिलेगा. स्त्री ग्रह, पुरुष भाव में है तब भी उस ग्रह को शून्य अंक मिलेगा.
पुरुष ग्रह :- सूर्य, मंगल, बृहस्पति
स्त्री ग्रह :- चन्द्रमा, बुध, शुक्र, शनि
- #स्थान बल - Sthan Bal
-
(1)उच्च बल: ग्रह का भोगांश - परम नीच अंश.
जो अंतर है उसे तीन से भाग दे = उच्च बल
ग्रहों के परम नीच अंश :
सूर्य = 190
चन्द्र = 213
मंगल = 118
बुध = 345
गुरु = 275
शुक्र = 177
शनि = 20.
(2) सप्तवर्गीय बल : राशि, होरा, द्रेष्काण, सप्तांश, नवांश, द्वादशांश, त्रिंशांश आदि में ग्रहों का बल.
यदि ग्रह मूलत्रिकोण में है तो 45 अंक.
स्वग्रही = 30.
अतिमित्र = 22.5
मित्र = 15.
सम = 7.5
शत्रु = 3.75
अतिशत्रु=1.875.
इन सबका योग = सप्तवर्गीय बल
(3) ओजयुग्म बल: शुक्र एवं चन्द्र यदि जन्म कुन्डली व नवांश में सम राशि में हैं तो 15 अंक. बाकी बचे ग्रह जन्म कुण्डली तथा नवांश कुण्डली में विषम राशि में हों तब ग्रह को 15 अंक मिलेगें, अन्यथा शून्य अंक मिलता है. राशि व नवांश में बल का योग = ओजयुग्म बल
(4) केन्द्रादि बल : केन्द्र में ग्रह हैं तो 60 अंक. पणफर में ग्रह हैं तो 30 अंक. अपोक्लिम भावों में ग्रह हैं तो 15 अंक.
(5) द्रेष्काण बल : 15 षष्टियांश
पुरुष ग्रह : सूर्य, गुरु, मंगल - प्रथम द्रेष्काण
सम ग्रह : शनि, बुध - द्वितीय द्रेष्काण
स्त्री ग्रह : चन्द्र, शुक्र - तृ्तीय द्रेष्काण
यदि उपरोक्त ग्रह दिए गए द्रेष्काण में हैं तब अंक मिलेगें अन्यथा अंक नहीं मिलेगें.
- #स्थान बल(वर्ष कुण्डली) - Sthan Bal in Varsha Kundli
-
वर्ष कुण्डली में यदि ग्रह दी गई तालिका के अनुसार विभिन्न भावों में स्थित हैं तो उन्हें पांच अंक प्राप्त होते हैं अन्यथा शून्य अंक प्राप्त होता है.
सूर्य - नवम भाव
चन्द्रमा- तृ्तीय भाव
मंगल - षष्ठ भाव
बुध - लग्न भाव
बृ्हस्पति - एकादश भाव
शुक्र - पंचम भाव
शनि - द्वादश भाव
उपरोक्त ग्रह वर्ष कुण्डली में इन भावों में स्थित होते हैं तभी अंक मिलते हैं अन्यथा शून्य अंक प्राप्त होते हैं.
- #स्थिर कारक - Sthir Kaarak
-
जैमिनी ज्योतिष के स्थिर कारक
- सूर्य और शुक्र में से जो भी ग्रह शक्तिशाली हो, वह पिता का कारक होता है.
- चन्द्रमा और शुक्र में से जो भी ग्रह शक्तिशाली हो, वह ग्रह माता का कारक होता है.
- मंगल ग्रह छोटे भाई - बहन, बहनोई/साला और यहाँ तक कि माँ का भी कारक होता है.
- बुध ग्रह चाचा - चाची, ताऊ - ताई, फूफा - बुआ, मामा-मामी और मौसा-मौसी का कारक होता है.
- बृ्हस्पति ग्रह दादा का कारक होता है.
- शुक्र ग्रह जीवन साथी का कारक होता है.
- शनि ग्रह पुत्रों का कारक होता है.
- राहु ग्रह दादा और नाना का कारक होता है.
- केतु ग्रह दादी और नानी का कारक ग्रह होता है.
- #स्थिर दशा - Sthir Dasha
-
जैमिनी स्थिर दशा
जैमिनी की स्थिर दशा के अध्ययन के लिए हमें ब्रह्मा, रुद्र और महेश्वर को समझना होगा. जैमिनी की स्थिर दशा का प्रयोग जीवन की मात्र नकारात्मक स्थितियों की जानकारी के लिए होता रहा है किन्तु जैमिनी की चर दशा की तरह स्थिर दशा का प्रयोग जीवन के हर क्षेत्र को जानने लिए किया जा सकता है.
- #स्थिर नक्षत्र - Sthir Nakshatra[Fixed Nakshatra]
- उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, उत्तराषाढा़, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी ये चार नक्षत्र स्थिर नक्षत्र कहलाते है. इन नक्षत्रों में सभी स्थिर कार्य करने चाहिए. जैसे - गृ्ह प्रवेश करना, बीज बोना, व्यापार आरंभ करना, ग्रह शांति करवाना, , मंदिर बनवाना तथा अन्य स्थायी कार्य स्थिर नक्षत्र मे करने चाहिए.
- #स्वप्नादि अवस्था - Swapnadi Avastha
-
ग्रह 0 से 10 अंश के अन्दर विषम राशि में हैं तो जागृ्त अवस्था में हैं.
10 से 20 अंश तक स्वप्न अवस्था में हैं.
20 से 30 अंश तक सुसुप्त अवस्था में हैं.
सम अवस्था में क्रम विपरीत हो जाता है.
0 से 10 सुसुप्त अवस्था.
10 से 20 स्वप्न अवस्था.
20 से 30 जागृ्त अवस्था.
- #अपसव्य लग्न - Upsavya Lagna
- लग्न में आई वृ्ष, मिथुन, कर्क, वृ्श्चिक, धनु और मकर राशियाँ अपसव्य लग्न की राशियाँ कहलाती हैं.
- #उग्र नक्षत्र - Ugra Nakshatra
- पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र, पूर्वाषाढा़, पूर्वाभाद्रपद, भरणी, मघा नक्षत्र ये पाँच नक्षत्र उग्र नक्षत्र कहलाते हैं. इनमें उग्र कार्य करना श्रेष्ठ होता है. तांत्रिक प्रयोग करना, मुकदमा दायर करना, शत्रु पर आक्रमण करना, सन्धि कार्य करना, चतुराई और चालाकी के कार्य करना विशेष अनुकूल होते है.
- #उच्च बल - Uchcha Bal
- इस बल में उच्च का अर्थ है - कुण्डली में ग्रह की उच्च राशि में स्थिति और स्थिति के आधार पर ग्रहों का बल. ग्रह यदि अपनी उच्च राशि या परमोच्च भोगांश पर स्थित है तब 20 अंक प्राप्त होगें. इस बल को वर्ष कुण्डली में निकाला जाता है. उच्च बल, पंचवर्गीय बलों में से एक बल है.
- #उच्च-स्वक्षेत्र बल - Uchcha-Swakshetra Bal
- यदि वर्ष कुण्डली में ग्रह अपनी स्वराशि या अपनी उच्चराशि में स्थित है तो पांच अंक प्राप्त होते हैं अन्यथा शून्य अंक मिलेगा.
- #उत्तमाँश ग्रह - Uttamansh Grah
- यदि ग्रह मूल त्रिकोण राशि में, उच्च राशि में तथा स्वक्षेत्री और केन्द्र में बली अवस्था में स्थित है तो ग्रह उत्तमाँश कहलाता है.
- #उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र - Uttaraphalguni Nakshatra
-
उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र सिंह राशि के 26 अंश 40 कला से कन्या राशि में 10 अंश तक रहता है. अर्थात इस नक्षत्र का एक चरण सिंह राशि में तथा बाकि तीन चरण कन्या राशि में पड़ते हैं. यह क्रान्ति वृ्त्त से 12 अंश 16 कला 1 विकला उत्तर और विषुवत रेखा से 14 अंश 35 कला 20 विकला उत्तर में स्थित है. इसमें दो तारे हैं जो पूर्वा फाल्गुनी के तारों से मिलकर पलंग या शैय्या की आकृ्ति बनाते हैं. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के दो तारों को सिंह की पूँछ में देखा जा सकता है. इनमें एक तारा डेनेबोला अधिक चमकीला तो दूसरे की चमक मद्धिम है.
उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र, सितम्बर मास में सूर्य के साथ पूर्व दिशा में उदय होता है. निरायन सूर्य 12 या 13 सितम्बर को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में प्रवेश करता है. अप्रैल मास में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के मध्य उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र शिरो बिन्दु पर होता है. फाल्गुन मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा बहुधा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में रहता है.
उत्तरा फाल्गुनी का अर्थ है बाद वाला रक्त वर्ण तारा. फाल्गुन मास वसंत ऋतु का प्रतीक है. पूर्वा फाल्गुनी वसंत ऋतु का आरम्भ तो उत्तरा फाल्गुनी बसंत ऋतु का उत्तरार्ध बनता है. फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होलिका दहन व उसके बाद रंगोत्सव होली, मानो सभी प्रकार के अनिष्ट व अशुभ की समाप्ति तथा शुभ व कल्याणकारी समय के आरम्भ को दर्शाता है.
मंच या दीवान के पिछले दो पाँव उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के माने जाते हैं. यह नक्षत्र बहुत सी बातों में पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र जैसा है. विश्राम व ताजगी तथा ऊर्जा को पुन: प्राप्त करने का प्रयास उत्तरा फाल्गुनी का गुण है. पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र थक कर चूर हुए व्यक्ति का विश्राम है, वहाँ उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में पुन: काम पर जाने की तैयारी तथा काम-काज की रुप रेखा तैयार करना भी शामिल होता है.
उत्तरा फाल्गुनी का अधिष्ठाता देवता अर्यमा को माना जाता है. अर्यमा को दया, करुणा, अनुग्रह, कृ्पा, सहयोग व आश्रय देने वाला माना जाता है. अर्यमा का संबंध सूर्य से होने के कारण ऎसा जातक, वैर विरोध पाने पर क्रुद्ध व असंतुलित होकर, कभी अशिष्ट व असंयत व्यवहार करता है.
पूर्वाफाल्गुनी व उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में स्वभाव में विशेष अंतर नहीं है. पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र सूर्य की राशि में होता है. सूर्य ग्रह परिषद का राजा होने से पूर्वा व उत्तराफाल्गुनी जातक राजा जैसा परक्रमी, प्रतापी व प्रतिष्ठित होता है.
विद्वानों की मान्यता है कि सूर्य का नक्षत्र उत्तराफल्गुनी होने से, राजकुमार बुध को अस्तंगत होने का दोष नहीं लगता. इसका कारण यह है कि सूर्य का बुध के प्रति अत्यधिक स्नेह भाव है. सूर्य व बुध दोनों ही बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता, विश्लेषण व निर्णय कुशलता के कारक हैं. उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र संतुलन प्रेमी नक्षत्र होता है. वह समाज के विभिन्न घटकों के बीच स्नेह, सौहार्दपूर्ण तालमेल व सहयोग बनाए रखता है. इसका व्यहार दया, करुणा व मैत्रीपूर्ण होता है. सम्मानजनक समझौता, स्नेहपूर्ण सहयोग व एकजुटता या समन्वय उसके विशिष्ट गुण होते हैं.
उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का स्वामी सूर्य क्षत्रिय होने से उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र को क्षत्रिय जाति का नक्षत्र माना गया है. इस नक्षत्र के तीन पद कन्या राशि में होने से विद्वानों ने इसे स्त्री संज्ञक माना है. ओष्ठ, प्रजनन अंग तथा बाँए हाथ को इस नक्षत्र का अंग माना गया है. यह वात प्रधान ऩक्षत्र माना गया है. इस नक्षत्र की दिशा पूर्व व दक्षिण दिशा है.
विद्वानों ने इस नक्षत्र को राजसी नक्षत्र माना है. यह अग्नि तत्व नक्षत्र है. उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र मनुष्य गण नक्षत्र है. विद्वानों ने इस नक्षत्र को ऊर्ध्वमुखी नक्षत्र माना है. यह उन्नति और विकास का प्रतिनिधि है. इसे ध्रुव नक्षत्र कहा गया है. क्योंकि इसका आरम्भ स्थिर राशि सिंह में होता है. फाल्गुन मास के उत्तरार्ध, जो प्राय: मार्च में आता है, को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का मास माना जाता है. कृ्ष्ण व शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि का संबंध इस नक्षत्र से माना जाता है.
उत्तराफाल्गुनी के प्रथम चरण का अक्षर 'टे' है. दूसरे चरण का अक्षर 'टो' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'पा' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'पी' है. इस नक्षत्र को गौ या गाय योनि माना जाता है. विद्वानों ने इसे ऋषि पुलस्त्य का वंशल माना है. पुलस्त्य का अर्थ है कोमल व सुंदर बालों वाला.
संक्षेप में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र ऊर्ध्वमुखी नक्षत्र, भौतिक सुख समृ्द्धि को अध्यात्म के साथ जोड़ता है. वह मात्र अपना उत्थान नहीं चाहता अपितु कर्मयोग का आश्रय लेकर, समाज की उन्नति में अपना योगदान देता है.
- #उत्तराभाद्रपद नक्षत्र - Uttarabhadrapad Nakshatra
-
उत्तराभाद्रपद नक्षत्र मीन राशि में 3 अंश 20 कला से 16 अंश 40 कला तक रहता है. क्रान्तिवृ्त्त से 12 अंश 36 कला उत्तर में और विषुवत रेखा से उत्तर में हैं. 15 अंश 10 कला 1 विकला उत्तर में हैं. ये दो तारों वाला नक्षत्र है. पूर्वाभाद्रपद के दो तारों को जोड़ने पर एक चौकोर मंच या पलंग जैसी आकृ्ति बनती है. प्राचीन विद्वानों ने उत्तराभाद्रपद के तारों को शयन या मृ्त्यु शैया के पीछे वाले पाँव माना है. इस नक्षत्र का निचला तारा अल्जेनिब इस नक्षत्र का योग तारा है. ऊपर का तारा अलकाराटज देवयानी मंडल का सदस्य है. ये दोनों तारे मीन राशि में सरलता से देखे जा सकते हैं.
निरायन सूर्य 17 मार्च को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में प्रवेश करता है. अत: मार्च के तीसरे सप्ताह में सूर्योदय के समय उत्तराभाद्रपद को पूर्व दिशा के क्षितिज पर देखा जा सकता है. अक्तुबर - नवम्बर मास में रात 9 बजे से 11 बजे बीच इसे उत्तरी आकाश में शिरो बिन्दु पर देखा जा सकता है. भाद्र मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा कभी उत्तरभाद्रपद नक्षत्र में भी हुआ करता है. इस नक्षत्र कास्वामी ग्रह शनि है. इस नक्षत्र में शनि की ऊर्जा चरम सीमा पर होती है.
उत्तराभाद्रपद का अर्थ है शुभ पाँवों वाला बाद का नक्षत्र. इसे उत्तर पृ्ष्ठोपाद भी कहा जाता है. इसका अर्थ है मंच के बाद वाले दो पाँव. कुछ विद्वानों ने 'इस नक्षत्र को मृ्त्यु शैया के पिछले पैर स्वीकारा है. उनका मत है कि भचक्र में मीन राशि व उत्तराभाद्रपद नक्षत्र दोनों ही इहलोक छोड़कर परलोक जाने का संकेत देते हैं. उत्तराभाद्रपद नक्षत्र मीन राशि के मध्य में होने से शव यात्रा में प्रयुक्त चारपाई की बात उचित लगती है. क्योंकि मीन राशि को प्राय: सभी ने मोक्ष देने वाली राशि माना है. अन्य विद्वानों का तर्क है कि द्वादश भाव तो निद्रा का भाव है अत: उत्तरभाद्रपद नक्षत्र को शयन शैया के पिछले पैर मानना उचित है.
कुछ विद्वान उत्तरभाद्रपद नक्षत्र की तुलना मेरु दंड के मूल स्थान गुदा के समीप सुप्त कुंडलिनी से करते हैं उनका मत है कि मीन राशि के ह्र्दय में स्थित शनि का नक्षत्र उत्तरभाद्रपद कुंडलिनी जाग्रत कर ज्ञान व वैराग्य प्राप्ति की बात कहता है, मृ्त्यु या मोह निद्रा की नहीं. हमें याद रखना चाहिए कि कुंडलिनी जागरण का आरंभ शनि के अनुराधा नक्षत्र से होता है. अब उत्तरभाद्रपद में शनि की ऊर्जा शिखर पर है, अत: इस नक्षत्र में कुंडली जाग्रत होने की बात अधिक उचित जान पड़ती है.
उत्तराभाद्रपद नक्षत्र का देवता अतिर्बुधन्य' को माना गया है. इस देवता का कटि या कमर के नीचे वाला भाग सर्प का किन्तु ऊपर वाला हिस्सा किसी कल्याणकारी देवता का है. इस देवता का दायाँ हाथ अभय मुद्रा में उठा है. अति: + बुध्न्य का अर्थ है धरती के नीचे बैठा साँप. इसे भगवान विष्णु को शैय्या प्रदान करने शेष नाग, जिसके सिर पर धरती टिकी है, उचित व तर्क संगत जान पड़ता है.
विद्वानों ने इस उत्तरभाद्रपद को संतुलित नक्षत्र माना है. इस नक्षत्र को क्षत्रिय जाति का नक्षत्र माना गया है. यह पुरुष संज्ञक नक्षत्र है. इस नक्षत्र को शरीर का दायाँ भाग स्वीकार किया है. टाँग, माँस - पेशियाँ व पद - तल का दाहिना किनारा उत्तराभाद्रपद का अंग हैं. इस नक्षत्र की दिशा पश्चिम व उत्तर दिशा को जोड़ने वाली चाप से माना गया है. अन्य मत से प्रथम दो चरण की दिशा वायव्य कोण पश्चिमोत्तर तथा बाद के दो चरण की दिशा उत्तर दिशा माना है.
इस नक्षत्र को तमोगुणी नक्षत्र माना गया है. उत्तराभाद्रपद नक्षत्र को मनुष्य गण माना गया है. यह ऊर्ध्वमुखी नक्षत्र है. भाद्रपद मास की कृ्ष्ण पक्ष की दशमी से शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तक अर्थात भाद्रपद मास के मध्य के तिहाई भाग को उत्तरभाद्रपद नक्षत्र का मास माना गया है. यह सितम्बर माह में आता है. शुक्ल व कृ्ष्ण पक्ष की नवमी को उत्तराभाद्रपद की तिथि माना गया है.
उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के प्रथम चरण का नामाक्षर ' दू' है. दूसरे चरण का नामा़क्षर ' थ' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'झ' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'ण' है. इस नक्षत्र की योनि गौ योनि है. इस नक्षत्र को पुलह ऋषि का वंशज माना जाता है. पुलह का अर्थ है - आकाश या अंतरिक्ष से जुडा़ हुआ.
- #उत्तराषाढा नक्षत्र - Uttarashadha Nakshatra
-
उत्तराषाढा़ नक्षत्र धनु राशि में 26 अंश 40 कला से लेकर मकर राशि में 10 अंश तक रहता है. यह नक्षत्र क्रान्तिवृ्त्त से 3 अंश 26 कला 56 विकला दक्षिण में तथा विषुवत रेखा से 26 अंश 18 कला 2 विकला दक्षिण में स्थित है. पूर्वाषाढा़ तथा उत्तराषाढा़ नक्षत्र के 4-4 तारे मंजूषा के रुप में एक तारे के नीचे लटकते हुए दिखाई देते हैं.
निरायन सूर्य लगभग 10 जनवरी को उत्तराषाढा़ नक्षत्र में प्रवेश करता है. 14 जनवरी को प्रथम चरण पार कर, मकर राशि में प्रवेश करता है. अत: 10 जनवरी से 24 जनवरी तक उत्तराषाढा़ नक्षत्र पूर्व दिशा में उदय होता है. इस प्रकार सितम्बर मे रात्रि 9 बजे से 11 बजे के बीच पुर्वा तथा उत्तराषाढा़ शिरो बिन्दु पर दिखाई देते है. उत्तराषाढा़ नक्षत्र का स्वामी ग्रह सूर्य है. आषाढ़ मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा पूर्वा या उत्तराषाढा़ नक्षत्र में होता है.
उत्तराषाढा़ का अर्थ है बाद वाला अपराजेय, सदा विजय पाने वाला. कहीं इसे अंतिम विजय के रुप में भी दर्शाया गया है. कुछ विद्वान पूर्वाषाढा़ के जैसे ही गजदंत को ही उत्तराषाढा़ का मूल प्रतीक मानते हैं. हाथी का दाँत उसकी देह का सर्वाधिक मूल्यवान भाग है. उत्तराषाढा़ नक्षत्र का संबंध नेतृ्त्व के गुण व क्षमता के साथ है. कुछ विद्वान इसे मंच या चारपाई जैसी आकृ्ति मानते हैं.
दस विश्वदेवों को उत्तराषाढा़ नक्षत्र का अधिपति देवता माना जाता है. इनके नाम हैं - शुभता, सत्य, इच्छाशक्ति, दक्षता, काल, आकांक्षा, संकल्प, पितर, आभा व शिखर. ये सभी देवता दैवीय गुणों के कारक व कल्याणकारी हैं. विश्व में जो कुछ भी शुभ या पुण्यदायी है ये विश्वदेव उसका संरक्षण करते हैं. अन्य शब्दों में सभी नक्षत्रों के विशिष्ट गुण उत्तराषाढा़ नक्षत्र में हैं. गणेश जी जिन की पूजा सबसे पहले की जाती है, इस नक्षत्र के मुख्य देवता हैं. गणेश जी की बुद्धि, बल व शत्रु को पराजित करने की क्षमता अदभुत है. इनका बायाँ दाँत तो टूटा हुआ है किन्तु दाहिना दाँत (उत्तराषाढा़)पूरा है. इस प्रकार गणेश जी का पूर्वा व उत्तराषाढा़ से विशेष संबंध माना जाता है. गणेश जी विघ्न हर्त्ता व सर्व प्रथम पूज्य देव हैं और शुभ आरम्भ के देवता हैं.
विद्वानों ने उत्तराषाढा़ नक्षत्र को संतुलित नक्षत्र बताया है. इस नक्षत्र को क्षत्रिय नक्षत्र माना जाता है. यह स्त्री नक्षत्र है. विश्वदेव के सभी गुण देवियों के गुण है. इसलिए इसे स्त्री नक्षत्र कहते हैं. जाँघें व कमर या कटि प्रदेश को उत्तराषाढा़ का अंग माना गया है. यह कफ़ प्रधान नक्षत्र है. विद्वानों ने पश्चिम दिशा को उत्तराषाढा़ नक्षत्र की दिशा माना है. अन्य विद्वान दक्षिण, पश्चिम, उत्तर पूर्व तथा पुर्व दिशा को इस नक्षत्र की दिशा चाप मानते हैं.
विद्वानों ने उत्तराषाढा़ नक्षत्र को सात्विक नक्षत्र माना है. यह वायु तत्व नक्षत्र है. नक्षत्र का अधिक भाग वायु प्रधान शनि की राशि में पड़ने से वायु तत्व नक्षत्र माना गया है. उत्तराषाढा़ को मनुष्य गण माना जाता है. इस नक्षत्र को विद्वानों ने उर्ध्व मुखी नक्षत्र माना है. इसे स्थिर या ध्रुव नक्षत्र भी माना गया है. उत्तराषाढा़ का स्वामी ग्रह सूर्य जगत की आत्मा कहलाता है. भचक्र खंड का तीसरा नक्षत्र सूर्य का जन्म स्थान है. यह सूर्य का तीसरा नक्षत्र है. यहाँ सूर्य शिरोबिन्दु पर या आकाश में सर्वोच्च स्थान पर होता है.
उत्तराषाढा़ नक्षत्र का संबंध आषाढ़ मास के उत्तरार्ध से माना जाता है. अधिकतर यह जुलाई मास में पड़ता है. पूर्णिमा तिथि को उत्तराषाढा़ नक्षत्र की तिथि माना गया है. उत्तराषाढा़ नक्षत्र के प्रथम चरण का नामाक्षर 'भे' है. द्वितीय चरण का नामाक्षर 'भो' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'जा' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'जी' है. इस नक्षत्र की योनि नकुल योनि है. इस नक्षत्र का गोत्र महर्षि क्रतु का वंशज माना गया है.
- #उत्पात,मृ्त्यु और काण नक्षत्र - Utpat,Mrityu And Kaan Nakshatra
-
रविवार को विशाखा से तीन नक्षत्र
सोमवार को पूर्वाषाढा़ से तीन नक्षत्र
मंगलवार को धनिष्ठा से तीन नक्षत्र
बुधवार को रेवती से तीन नक्षत्र
गुरुवार को रोहिणी से तीन नक्षत्र
शुक्र्वार को पुष्य से तीन नक्षत्र
शनिवार को उत्तराफल्गुनी से तीन-तीन नक्षत्र होने पर क्रमश: उत्पात, मृ्त्यु व काण योग बनते है.
इन योगों में शुरु किए गए काम अपने नाम के अनुसार उत्पातयुक्त, मृ्त्युकारक व आधी-अधूरी सफलता देने वाले होते है.
- #उदित ग्रह - Udit Grah
- जब ग्रह अपने अस्तंगत अंशों से बाहर निकल जाता है तब वह ग्रह उदित कहलाता है. इसका अर्थ है कि जब कोई ग्रह अस्त होने के बाद पुन: उदित होता है तब उसे उदित ग्रह कहा जाता है.
- #उपग्रह - Upagrah
-
वैदिक ज्योतिष में नौ ग्रहों की गणना की जाती है. प्रत्येक ग्रह के तृ्तीयक ग्रह भी होते हैं जिन्हें उपग्रह कहते हैं. ये ग्रह अदृ्श्य होते हैं तथा इनका भौतिक अस्तित्व नहीं है. वस्तुत: यह गणितीय विधि से निकाले गये बिन्दु होते हैं. इन बिन्दुओं का जातक की कुण्डली में तथा व्यक्ति विशेष की ( या देश ) की वर्ष कुण्डली में महत्वपूर्ण स्थान है जो सामान्यत: बुरे परिणाम देते हैं. ये संवेदनशील बिन्दु या उपग्रह निम्नलिखित हैं.
ग्रह - उपग्रह
सूर्य - काल
मंगल - धूम या मृ्त्यु
बुध - अर्धप्रहार
गुरु - यमघण्टक
शुक्र - इन्द्रचाप या कोदण्ड
शनि - मांदि या गुलिक
राहु - पात या व्यतिपात
केतु - उपकेतु या शिखी
इन उपग्रहों में से पांच उपग्रह सूर्य के भोगांश के निकाले जाते हैं.
- #उपग्रह की गणना - Upagrah ki ganana
-
ग्रह - उपग्रह - उपग्रह गणना की विधि
मंगल - धूम = सूर्य का भोगांश + 133 डिग्री 20 मिनट
राहु - पात = 360 डिग्री - धूम
चन्द्र - परिधि = 180 डिग्री + पात
शुक्र - इन्द्र्चाप = 360 डिग्री - परिधि
केतु - उपकेतु = इन्द्रचाप + 16 डिग्री 40 मिनट या 330 डिग्री + सूर्य का भोगांश
शेष बचे चार ग्रहों के उपग्रह निकालने की अलग विधि है. जब दिन या रात 30 घटी के बराबर हो तो मान्दी की स्थिति निम्न घटी के बाद होगी. यह स्थिति साप्ताहिक दिन एवं रात्रि के उपर निर्भर करती है.
- #उपग्रह दोष - Upgrah Dosh
-
उपग्रह दोष में अभिजित नक्षत्र को भी शामिल किया जाता है. जिस दिन विवाह का मुहूर्त निकालना है, उस दिन सूर्य के नक्षत्र से चन्द्रमा के नक्षत्र तक गिनें. यदि चन्द्रमा का नक्षत्र, सूर्य के नक्षत्र से 5,7,8,10,14,15,18,19,21,22,23,24,25 वें स्थान पर है तो यह उपग्रह दोष कहलाता है.
- #उपनयन मुहूर्त - Upanayan Muhurta
-
उपनयन संस्कार अर्थात यज्ञोपवीत उत्तरायण सूर्य में होता है. उस समय गुरु व शुक्र अस्त नहीं होने चाहिए. काल शुद्धि का विचार कर लें.
नक्षत्र :- अश्विनी, पुष्य, हस्त, अश्लेषा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पुनर्वसु, स्वाती, मूल, मृ्गशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा़, पूर्वाभाद्रपद, आर्द्रा नक्षत्रों में उपनयन संस्कार कर सकते हैं.
वार :- रविवार, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार आदि दिन उपनयन संस्कार के लिए शुभ दिन हैं.
तिथियाँ :- द्वित्तीया, तृतीया, पंचमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी तिथियों में तथा कृष्ण पक्ष में पंचमी तिथी तक, दोपहर से पहले यज्ञोपवीत संस्कार कर लेना
चाहिए.
ज्येष्ठ मास में प्रथम बालक अर्थात ज्येष्ठ बालक का उपनयन संस्कार ना करें. उपनयन संस्कार में बृहस्पति की स्थिति अवश्य देख लें. धनु, कर्क तथा मीन राशि का बृह्स्पति अशुभ स्थानों में गोचर करने पर भी शुभ माना जाता है.
- #उपनयन संस्कार - Upanayan Sanskar
-
ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के लिए उपनयन संस्कार आवश्यक है. व्रत, पूजा, अनुष्ठादि करने का अधिकार यज्ञोपवीत के बाद ही होता है.
जन्म से आठवें वर्ष में ब्राह्मण का उपनयन संस्कार होता है. अथवा अत्यधिक ब्रह्म के तेज की कामना करने वाले तथा वेदाध्ययन करने के प्रति समर्पित बालक का पांचवें वर्ष में उपनयन संस्कार किया जाता है. क्षत्रिय बालक का छठे वर्ष में अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं तथा 11वें वर्ष में अनिवार्य रुप से उपनयन करें. वैश्य बालक का आठवें वर्ष में इच्छानुसार तथा 12वें वर्ष में अनिवार्य रुप से संस्कार को सम्पन्न करें.
यदि उपरोक्त समय में दिए गए वर्षों में उपनयन संस्कार ना किया हो तब गौण रुप से भी उपनयन किया जा सकता है. जैसे ब्राह्मण का 16 वर्ष तक, क्षत्रिय का 22 वर्ष तक, वैश्य का 24 वर्ष तक उपनयन संस्कार कर सकते हैं. इसके बाद भी यदि यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो तो पतित हो सकता है. वर्तमान समय में बहुत से व्यक्ति विवाह के समय में ही उपनयन संस्कार करवा लेते हैं.
- #ऊर्ध्वमुख नक्षत्र - Urdhvamukh Nakshatra
- आर्द्रा नक्षत्र, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा़, उत्तराभाद्र्पद, रोहिणी ये नौ नक्षत्र ऊर्ध्वमुख नक्षत्र है. इनमें सब उन्नत्ति के कार्य, ऊपर चढने के कार्य या आगे बढने के कार्य करने चाहिएं. जैसे नौकरी शुरु करना, बडे़ पद पर बैठना, शपथ ग्रहण करना, चढा़ई करना आदि.जो काम अधोमुख नक्षत्रों मे करते है उसके विपरीत कार्य इन नक्षत्रों में करने चाहिए.
- #कोट चक्र का उपयोग - Use of Kota Chakra
-
प्राचीन समय में राजा आदि कोट चक्र का उपयोग युद्द के समय में करते थे. राजा की युद्ध में हार होगी या जीत होगी इसका अध्ययन कोट चक्र के आधार पर किया जाता था.
वर्तमान समय में कोट चक्र का उपयोग बीमार व्यक्ति की कुण्डली का सूक्ष्म अध्ययन करने के लिए किया जाता है. जब कुण्डली में दशा खराब चल रही है और जातक की हालत भी नाजुक है तो कोट चक्र के द्वारा सूक्ष्म निरीक्षण करके फलित करने में सहायता मिलती है. इसके अतिरिक्त कोट चक्र का उपयोग कोर्ट-केस तथा किसी विवाद या झगडे़ के निपटारे को देखने के लिए भी किया जाता है.
- #ग्रहों की तात्कालिक मित्रता - [Temporal Friendship of the Planets]
- यह मित्रता कुंडली में ग्रहों की स्थिति पर आधारित होती है. अगर किसी एक ग्रह से दूसरा ग्रह 2,12 या 3,11 या 4,10 भावों में स्थित है तो उस अवस्था में दोनों परस्पर तात्कालिक मित्र हुए. माना सूर्य किसी कुन्डली में चतुर्थ भाव में स्थित है तो पंचम भाव, छठे भाव और सप्तम भाव में बैठे ग्रह सूर्य के तात्कालिक मित्र हुए. इस प्रकार तीसरे भाव, दूसरे भाव और लग्न में बैठे ग्रह भी तात्कालिक मित्र हुए.
- #तिथि - Tithi
-
यह पंचांग का प्रथम अंग है. पंचांग में पहले तिथि दी होती है. चन्द्र मास की 30 तिथियाँ होती है. तिथियाँ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से गिनी जाती है और 15 तिथि को पूर्णिमा कहते हैं. इसके बाद कृ्ष्ण पक्ष की तिथियाँ आरम्भ हो जाती है. वे भी प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावस्या तक गिनी जाती हैं परन्तु अमावस्या को 30 वीं तिथि कहते है. अमावस्या के स्थान पर 30 तिथि लिखी जाती है. इसलिये जहाँ 30 तिथि लिखी हो वहाँ अमावस्या समझना चाहिए.
सूर्य की गति से चन्द्र की गति अधिक है. जब दोनों का अन्तर बढ़ने लगता है तो एक तिथि का आरम्भ होने लगता है. जब यह अन्तर बढ़ते-2 बारह अंश का होता है तो एक तिथि पूरी हो जाती है अर्थात सूर्य और चन्द्र में जब 12 डिग्री का अन्तर पड़ता है तो 1 तिथि बनती है.तिथियों के नाम निम्नलिखित हैं :-
प्रतिपदा
द्वितीया
तृ्तीया
चतुर्थी
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
अष्टमी
नवमी
दशमी
एकादशी
द्वादशी
त्रयोदशी
चतुर्दशी
पूर्णिमा/अमावस्या
- #तिथियों के स्वामी - Tithiyo ke swami[Lords of The Tithis]
-
प्रतिपदा से शुरु होकर 15 तिथियों के स्वामी निम्नलिखित हैं :-
- प्रतिपदा - अग्नि
- द्वित्तीया - ब्रह्मा
- तृतीया - गौरी (पार्वती)
- चतुर्थी - गणेश
- पंचमी - नाग
- षष्ठी - कार्तिकेय
- सप्तमी - सूर्य
- अष्टमी - शिव
- नवमी - दुर्गा
- दशमी - यमराज
- एकादशी - विश्वदेव
- द्वादशी - भगवान विष्णु
- त्रयोदशी - कामदेव
- चतुर्दशी - शिव
- अमावस्या - चन्द्र, मतान्तर से अमावस्या के स्वामी पितर भी हैं.
- पूर्णिमा - चन्द्र
- #तिर्यक मुख नक्षत्र - Tiryak Mukh Nakshatra
- मृ्गशिरा नक्षत्र, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, स्वाति, पुनर्वसु, ज्येष्ठा, अश्विनी नक्षत्र तिर्यक मुख नक्षत्र कहलाते हैं. इनमें पशुओं को ट्रेनिंग देना, नाव चलाना, जलयात्रा करना, विमान चलाना आदि कार्य करना अच्छा माना गया है.
- #तीक्ष्ण या दारूण नक्षत्र - Teekshna or Darun Nakshatra
- मूल नक्षत्र, ज्येष्ठा, आर्द्रा, अश्लेषा नक्षत्र ये चार नक्षत्र दारूण नक्षत्र हैं.इनमे सारे उग्र कार्य, फूट डालना, पशुओं को ट्रेनिंग देना.शत्रु पर प्रहार करना आदि कार्य करने चाहिए.
- #तुला राशि - Tula Rashi[Libra Sign]
-
यह भचक्र और कालपुरुष की सातवीं राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह शुक्र है. इस राशि का चिन्ह तराजू है. जिसके दोनों पलडे़ बराबर हैं. इस राशि का रंग काला है. अन्य मत से कृ्ष्ण रंग है. इस राशि के अधिकार क्षेत्र में मूत्राशय, गुर्दा, वस्ति, नाभि से नीचे का पेट का हिस्सा आते हैं. इस राशि का हाथ के पंजे पर भी अधिकार है. त्वचा भी इसी राशि के अन्दर आती है.
यह चर राशि है. विषम राशि है. यह पुरुष संज्ञक राशि है. स्वभाव से क्रूर है. इस राशि का वर्ण शूद्र है. यह वायु तत्व राशि है. यह धातु राशि है. यह शीर्षोदय राशि है. इस राशि में जल की मात्रा भी है. यह रजोगुणी राशि है. यह राशि दिन में बली होती है. इस राशि की सम प्रवृ्त्ति है. इस राशि का शरीर मध्यम है. यह द्विपदी राशि है. यह मनुष्य राशि है. यह राशि मध्य संतति है. अन्य मत से अल्प संतति भी है.
इस राशि विचारशील, ज्ञानप्रिय, यह राशि अपने कार्य को संपन्न करती है बीच में नहीं रखती तथा कार्य कुशलता से करती है. यह राजनीति में भी रुचि रखती है. राजनीतिज्ञ है. यह राशि पहले नवांश में अपना पूरा प्रभाव दिखाती है.
इस राशि का निवास स्थान वैश्य का घर है. यह राशि कार्तिक मास में शून्य रहती है. इस राशि के अन्य नाम जूक, बनिक, तौलि, सप्तम, घट हैं. इस राशि की पश्चिम दिशा है. तुला राशि केरल देश की स्वामी है. इस राशि में चित्रा नक्षत्र के दो चरण, स्वाती नक्षत्र के चार चरण, विशाखा नक्षत्र के तीन चरण आते हैं. इस राशि में रा,री,रू, रे, रो, ता, ती, तू, ते, चरणाक्षर आते हैं.
इस राशि के पीड़ित होने पर गुर्दे से संबंधित रोग होते हैं. साथ ही सन्निपात और मस्तिष्क ज्वर भी हो सकता है.
- #तृ्तीय भाव - Tritiya Bhav[Third House]
-
इस भाव को सहज भाव भी कहते हैं. इस भाव के अन्य नाम सहोत्थ, दुश्चिक्य, गल, उरस, कर्ण, सेना, धैर्य, साहस, विक्रम, भ्रातृ, पराक्रम, अपोक्लिम , उपचय भाव है. इस भाव से छोटे भाई - बहन का विचार विशेष तौर पर किया जाता है. भाई - बहन की संख्या आदि का इसी भाव से पता चलता है. भाई - बहनों का सुख मिलेगा या नहीं सब इस भाव से देखते हैं. दास - दासी, चाचा- ताऊ और उनकी पत्नी, पिता की मृ्त्यु, नातेदार व आस - पास के सगे - संबंधियों का सुख व दुख आदि का विचार इस भाव से किया जाता है.
पराक्रम, साहस, बलाबल, सहनशक्ति धैर्य, स्वयं का स्वार्थ, चालाकी, दुष्ट बुद्धि आदि का विचार इस भाव से करते हैं. कन्द - मूल आदि खाने के पदार्थ, कुभोजन, सुधा आदि इस भाव से. क्रीडा़, युद्ध, शरण, उपदेश, आश्रय, पात्रता-अपात्रता कर्म की हानि आदि का विचार, औषधियों का विचार, दीर्घ जीवन, आजीविका, व्यापार, उद्यम, छोटी यात्राएँ आदि का विचार इसी भाव से होता है. गला, स्वर, कान आदि का विचार इस भाव से किया जाता है. इस भाव से बाँहें, कंधा, दायाँ कान और सुनने की क्षमता आदि इस भाव से देखी जाती है.
इस भाव का संबंध यदि पंचम भाव से बना हुआ है या इस तृ्तीय भाव में केतु स्थित है तो जातक कोई ना कोई विदेशी भाषा सीखता है. इस भाव से कार्यालय में काम में काम करने वाले सहयोगियों का भी विचार किया जाता है. इस भाव से जातक के हर तरह के शौक का विचार, कला का विचार किया जाता है.
- #तेगी योग - Tegi Yog
-
वर्ष कुण्डली में लग्न से छठे, नवम, एकादश और द्वादश भाव में पाप ग्रह बैठे हों या बारहवें भाव से केन्द्र में जन्म लग्न का स्वामी तथा वर्ष लग्न का स्वामी बैठे हों तब तेगी योग बनता है.
जिस वर्ष यह योग बनता है वह वर्ष जातक के लिए अनुकूल नहीं होता है. यह वर्ष जातक के लिए कठिनाई पूर्ण होता है. लेकिन वर्ष के अन्त में उसे पूर्ण सफलता मिल जाती है तथा व्यापार में विशेष लाभ की प्राप्ति होती है.
- #तेज योग - Tej Yog
-
यदि वर्ष कुण्डली में चन्द्र, बुध, सूर्य, शुक्र और मंगल ये पांचों पंचम या अष्टम भाव में हों तथा वर्ष लग्न पर गुरु की दृष्टि हो या वर्ष लग्न में गुरु हो तब तेज योग बनता है.
जिस वर्ष में यह योग बनता है, वह वर्ष जातक के लिए शुभ होता है. जातक को सुख की प्राप्ति होती है. सरकार से लाभ, सम्मान, नौकरी में पदोन्नति, मुकदमों में जीत हासिल होती है. व्यापार में सफलता तथा लाभ मिलता है. पूरा वर्ष जातक सुखी जीवन जीता है.
- #त्रिकोण शोधन - Trikon Shodhan[Triangle Refinement]
-
भिन्नाष्टक वर्ग में जो अंक प्राप्त होते हैं पहले उनका त्रिकोण शोधन किया जाता है. कुण्डली की सभी बारह राशियों को तत्वों के आधार पर चार भागों में बांटा जाता है. ये चार तत्व हैं :- अग्नि तत्व, पृथ्वी तत्व, वायु तत्व तथा जल तत्व.
मेष, सिंह और धनु राशि अग्नि तत्व राशियां हैं.
वृष, कन्या और मकर राशि पृथ्वी तत्व राशियां है.
मिथुन, तुला और कुम्भ राशियां वायु तत्व राशियां है.
कर्क, वृश्चिक और मीन राशियां जल तत्व राशियां हैं.
त्रिकोण शोधन का नियम :-
- भिन्नाष्टक वर्ग में चार तत्वों की तीन-तीन राशि के चार समूह बनते हैं. तीनों राशियों ( ऊपर हमने तीन-तीन राशियों के चार समूह बनाए हैं, उसके अनुसार देखना है.) में प्राप्त अंकों की संख्या देखे. यदि संख्या क समान नहीं है तब सबसे कम संख्या में से बाकी की दो संख्याओं को घटा देगें. जो संख्या शेष बची उसे भिन्नाष्टक वर्ग की कुण्डली में उसी स्थान पर लिख देगें.
- यदि किसी भी समूह में किसी एक राशि को शून्य अंक मिला है तब उसका उसका शोधन नहीं होगा. अंकों को उसी प्रकार लिखा रहने देगें.
- यदि किसी समूह की तीनों राशियों के अंक समान है तब शोधन के बाद उसकी तीनों राशियों को शून्य अंक प्राप्त होगा.
- यदि किसी समूह में तीनों राशियों में से दो के अंक शून्य है तब शोधन के पश्चात तीसरी राशि का अंक भी शून्य हो जाएगा.
- #त्रिनाडी़ चक्र - Trinadi Chakra
-
अश्विनी नक्षत्र से तीन-तीन नक्षत्रों की गणना सीधे और उल्टे क्रम से करें. पहले तीन नक्षत्र सीधे, फिर अगले तीन नक्षत्र उलटे लिखें. इस प्रकार नक्षत्रों की एक तालिका बन जाएगी.
पहली पंक्ति के नक्षत्र आदि नाडी़ में आते हैं.
दूसरी पंक्ति में लिखे नक्षत्र मध्या नाडी़ में आते हैं.
तीसरी पंक्ति के नक्षत्र अन्त्या नाडी़ के अन्तर्गत आते हैं.
- #त्रिपताकी चक्र - Tripataki Chakra
-
त्रिपताकी चक्र का वर्ष कुण्डली में बहुत महत्व है. इस चक्र के माध्यम से जन्म कुण्डली में स्थित ग्रहों तथा वर्ष कुण्डली के लग्न के मध्य संबंध स्थापित किया जाता है. इस चक्र के द्वारा लग्न तथा चन्द्र पर ग्रहों का क्या प्रभाव होगा, इसका अध्ययन किया जाता है. यह चक्र संबंधित वर्ष में होने वाली घटनाओं के शुभ व अशुभ का सामान्य विचार करने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है. जिस व्यक्ति के लिए त्रिपताकी चक्र बनाना हो, उसकी जन्म कुण्डली तथा संबंधित वर्ष कुण्डली सामने रख कर चक्र की रचना की जाती है.
सबसे पहले तीन रेखाएं समानान्तर सीधी पूर्व से पश्चिम की ओर बनाएं. अब तीन समानान्तर रेखाएं उत्तर से दक्षिण की ओर बनाएं, पहले वाली रेखाओं के ऊपर से ही बनानी है. अब इन रेखाओं के कोनों को परस्पर मिला दें, नीचे दिए चित्र के अनुसार.
अब सबसे ऊपर के तीन कोनों पर तीन पताका बना दें, बीच की पताका थोडी़ बडी़ बना दें. इस पताकी चक्र के चारों ओर तीन - तीन कोने बन जाएंगें. कुल बारह कोने पताकी चक्र के चारों ओर स्थापित हो जाएंगें.
अब सबसे पहले हम ऊपर बनी पताका में बीच की पताका के ऊपर संबंधित वर्ष की लग्न राशि को लिखेगें. उसके बाद बाकी राशियों को क्रम से लिखेगें. राशियों को लिखने का क्रम बांई ओर से शुरु होगा अर्थात बीच की राशि से शुरु करके बाकी राशियाँ Anti Clock Wise लिखें.
माना वर्ष कुण्डली के लग्न में कुम्भ राशि है तो हम बीच की पताका में कुम्भ राशि को लिख देंगें. उसके बाद बाकी राशियों को क्रम से लिखेगें. इस चक्र में ग्रहों की स्थापना करने के लिए सभी ग्रहों के लिए कुछ नियम हैं. जैसे चन्द्र की स्थापना करने के लिए जिस वर्ष की कुण्डली बनी है उस वर्ष संख्या को 9 से भाग दें जो संख्या शेष बचें, उस संख्या के बराबर, जन्म कुण्डली में स्थित चन्द्रमा से गणना शुरु करें. माना शेष संख्या तीन बची है और जन्म कुण्डली में चन्द्रमा तुला राशि में स्थित है तो हम तुला राशि से गिनती शुरु करके तुला से तीन भाव आगे तक गिनेगें तो चन्द्रमा धनु राशि में आएगा. अब चन्द्रमा को हम त्रिपताकी चक्र में धनु राशि के आगे लिख देगें.
सूर्य, बुध, शुक्र, बृ्हस्पति तथा शनि की स्थापना के लिए जिस वर्ष की कुण्डली बनी है उस वर्ष संख्या को चार से भाग करेगें. जो शेष बचेगा उस संख्या के बराबर गणना जन्म कुण्डली में करेगें. जैसे हमने चन्द्रमा की स्थापना के लिए किया था. गणना जन्म कुण्डली में करेगें और जो संख्या प्राप्त होगी त्रिपताकी चक्र में उस संख्या के सामने ग्रहों की स्थापना कर देगें.
राहु, केतु और मंगल की त्रिपताकी चक्र में स्थापना के लिए जिस वर्ष की कुण्डली बनी है उस वर्ष संख्या को छ: से भाग करेगें. जो संख्या शेष आएगी उस संख्या के बराबर गणना जन्म कुण्डली में करेगें और ग्रहों को त्रिपताकी चक्र में स्थापित करेगें जैसे हमने चन्द्रमा के लिए किया है. इस प्रकार हम सभी ग्रहों की स्थापना त्रिपताकी चक्र में कर लेते हैं. इस चक्र में शुभ ग्रहों का वेध यदि अशुभ ग्रहों द्वारा हो रहा है तो वह वर्ष जातक के लिए मानसिक परेशानियां तथा संघर्ष पैदा कर सकता है. यदि शुभ ग्रहों द्वारा वेध हो रहा है तो जातक के लिए वह वर्ष अनुकूल परिणाम लेकर आएगा.
- #त्रिपाद नक्षत्र - Tripad Nakshatra
- अवकहडा़ चक्र में जिस नक्षत्र के तीन चरण किसी एक राशि में पडे़ तथा एक चरण अगली राशि में पडे़ अर्थात एक चरण पृ्थक राशि में रहे, उस नक्षत्र को 'त्रिपाद' नक्षत्र कहते हैं. कृ्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढा़, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों को 'त्रिपाद' नक्षत्र कहते हैं.
- #त्रिराशिपति - Trirashiapti
- त्रिराशिपति का निर्धारण त्रिराशिपति चक्र के आधार पर होता है. दिन के समय की वर्ष कुण्डली है तो त्रिराशिपति की गणना अलग है और रात के समय की वर्ष कुण्डली है तब त्रिराशिपति की गणना का तरीका भिन्न है.
- #त्रिशांश - Trishansha
- इस वर्ग से दु:ख, तकलीफ, जीवन में दुर्घटनाएं, अरिष्ट तथा सुख का अध्ययन किया जाता है. इस वर्ग से जातक के आचरण का भी पता लगता है. 30 डिग्री के 30 बराबर भाग किए जाते है. प्रत्येक भाग 1 डिग्री का होता है.
- #नक्षत्रों के वृक्ष - Tree of The Nakshatras
-
अश्विनी - केला, आक, धतूरा
भरणी - केला, आंवला
कृत्तिका - गूलर
रोहिणी - जामुन
मृगशिरा - खैर
आर्द्रा - आम, बेल
पुनर्वसु - बांस
पुष्य - पीपल
अश्लेषा- नाग केसर अथवा चंदन
मघा - बड़
पूर्वाफाल्गुनी - ढा़क
उत्तराफाल्गुनी - बड़ या पाकड़
हस्त - रीठा
चित्रा - बेल
स्वाति - अर्जुन
विशाखा - नीम अथवा वीकंक
अनुराधा - मौलसिरी
ज्येष्ठा - रीठा
मूल - राल का वृक्ष
पूर्वाषाढा़ - मौलसिरी तथा जामुन
उत्तराषाढा़ - कटहल
श्रवण - आक
धनिष्ठा - शमी अथवा सेमर
शतभिषा - कदम्ब
पूर्वाभाद्रपद - आम
उत्तराभाद्रपद - पीपल अथवा सोनपाठा
रेवती - महुआ
जातक अपने नक्षत्र के अनुकूल वृक्ष लगा सकते हैं. जो नक्षत्र कुण्डली में पीड़ित है उस नक्षत्र से संबंधित वृक्ष की पूजा करनी चाहिए.
- #भद्रा के प्रकार - Types of Bhadra
-
चतुर्थी में भद्रा हंसी
अष्टमी में नन्दिनी
एकादशी में त्रिशिरा
पूर्णिमा में सुमुखी
तृ्तीया में करतलिका
सप्तमी में वैकृ्ति
दशमी में रौद्रमुखी
चतुर्दशी में चतुर्मुखी भद्रा के नाम हैं.
- #वक्री ग्रह - Vakri Graha [Retrograde Planets]
-
अपनी कक्षा में किसी भी ग्रह की गति एक समान नहीं होती. यह गति सूर्य से दूरी के अनुसार बदलती रहती है. ग्रह अपनी कक्षा में भ्रमण करते हुए सूर्य से समीपतम स्थिति में शीघ्र एवं दूरस्थ स्थिति में मन्द गति हो जाते है. वास्तव में ग्रह मार्गी ही होता हैं परन्तु भूकेन्द्रीय पद्धति तथा भिन्न-भिन्न नाक्षत्र काल के कारण यह गति हमेशा मार्गी न होकर वक्री भी प्रतीत होती है.
मंगल, बृ्हस्पति एवं शनि बहिर्गत ग्रह हैं अत: इनका नाक्षत्र काल पृ्थ्वी से अधिक होने के कारण, जब ये ग्रह सूर्य से 5,6,7,8 वें भाव में होते हैं तो वक्री प्रतीत होते है. राहु और केतु का कोई भौतिक अस्तित्व न होने के कारण एवं उनकी सदैव वक्री गति होने से यह आभास उन पर लागू नही होता.
- #वज्र योग - Vajra Yog
- इस योग वाला जातक धनी, गुणवान, सुन्दर, अच्छी बुद्धि वाला होता है. जातक कामी, पराक्रमी, रत्नों को जांचने वाला, रत्नों से युक्त आभूषण व वस्त्र, धन - धान्य युक्त, अस्त्र विद्या में पारंगत होता है.
- #वदारा योग - Vadara Yog
-
वर्ष कुण्डली के लग्न का स्वामी आठवें भाव में मंगल के साथ हो तथा आठवें भाव का स्वामी छठे भाव में या आठवें भाव में ही हो तो वदारा योग बनता है.
जिस वर्ष में यह योग बनता है वह वर्ष जातक के लिए कठिनाई वाला होता है. किसी ना किसी कारण से दु:खों का सामना करना पड़ता है. जातक को स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. यदि बीमारी बढ़ जाए तब आपरेशन भी हो सकता है. शारीरिक कष्टों का सामना करना पड़ता है. दुर्घटना होने का खतरा भी बना रहता है.
- #वदारी योग - Vadari Yog
-
वर्ष कुण्डली का सिंह लग्न हो तथा लग्न का स्वामी सूर्य द्वादश भाव में हो तथा गुरु छठे या आठवें भाव में हो तब वदारी योग बनता है.
इस योग के बनने पर जातक को उस वर्ष हानि का सामना अधिक करना पड़ता है. यह एक अशुभ योग है. जातक पूरे वर्ष बीमारियों से घिरा रहता है. आर्थिक हानि भी जातक को उठानी पड़ती है. यह एक प्रतिकूल वर्ष होता है.
- #वरीयान योग - Variyan Yog
- इस योग वाला जातक भोगी होता है. नम्र, कम धन वाला, पैसों को श्रेष्ठ काम में खर्च करने वाला होता है. काव्य, कला, गीत, नृ्त्य को जानने वाला होता है. जातक श्रेष्ठ कारीगर भी होता है.
- #वर्ग - Varga
-
फलित ज्योतिष की गूढ़ता हम वर्गों के अध्ययन के बिना नहीं समझ सकते. वर्गों का अध्ययन किये बिना केवल जन्म कुण्डली का विश्लेषण करना एक अधूरा कार्य करने के समान है. अधिकतर ज्योतिषी वर्गों का अध्ययन नहीं करते हैं.
वर्गों का अध्ययन, ग्रहों का बलाबल ज्ञात करने के लिये किया जाता है. यदि ग्रह विभिन्न वर्गों में अपनी स्वराशि या उच्च राशि में स्थित है तो वह शक्तिशाली है. फलित ज्योतिष में विभिन्न ग्रहों की विभिन्न वर्गों में मित्र, शत्रु या सम राशि में स्थिति का अवलोकन विशेष महत्व रखता है.
प्रत्येक वर्ग मनुष्य के जीवन में विशेष कारक या घटना के अध्ययन में काम में आता है.
- #वर्ग विचार Varga Vichar
-
वर्ग विचार वर्ग आठ प्रकार के होते हैं :-
- गरुड़
- विडाल
- सिंह
- श्वान
- सर्प
- मूषक
- मृ्ग
- मेष
वर्ग का निश्चय कर उनकी पारस्परिक मित्रता या शत्रुता आदि का विचार करना चाहिए. वर्गों के पारस्परिक संबंध तीन प्रकार के होते हैं - सम, शत्रु एवं मित्र. प्रत्येक वर्ग से तीसरा उसका सम, चौथा मित्र एवं पांचवाँ शत्रु होता है.
- #वर्ग विभाजन - Varg Vibhaajan
-
वर्गों को विभिन्न श्रेणियों में बांटा गया है.
षड्वर्ग : जन्म कुण्डली, होरा कुण्डली, द्रेष्काण कुण्डली, नवांश कुण्डली, द्वादशांश कुण्डली, त्रिंशांश कुण्डली
सप्तवर्ग : जन्म कुण्डली, होरा कुण्डली, द्रेष्काण कुण्डली, सप्तांश कुण्डली, नवांश कुण्डली, द्वादशांश कुण्डली, त्रिंशांश कुण्डली.
दशवर्ग : जन्म कुण्डली, होरा कुण्डली, द्रेष्काण कुण्डली, सप्तांश कुण्डली, नवांश कुण्डली, दशमांश कुण्डली, द्वादशांश कुण्डली, षोडशांश कुण्डली, त्रिंशांश कुण्डली, षष्टियांश कुण्डली.
षोडशवर्ग : जन्म कुण्डली, होरा कुण्डली, द्रेष्काण कुण्डली, चतुर्थांश कुण्डली, सप्तांश कुण्डली, नवांश कुण्डली, दशमांश कुण्डली, द्वादशांश कुण्डली, षोडशांश कुण्डली, विंशांश कुण्डली, चतुर्विंशांश कुण्डली, सप्तविंशांश कुण्डली, त्रिंशांश कुण्डली, खवेदांश कुण्डली, अक्षवेदांश कुण्डली, षष्टियांश कुण्डली.
यह षोडशवर्ग महर्षि पराशर ने कुण्डली के सूक्ष्म विश्लेषण के लिये दिये हैं.
- #वार - Vaar [Day]
- यह पंचांग का दूसरा अंग है. पंचांग में तिथि के पास वार दिया रहता है. वार 7 होते है. दिनों के नाम ग्रहों के नाम से पडे़ हैं. जिस ग्रह की होरा प्रात: काल होती है उसी ग्रह के नाम से उस दिन का नाम पडा़ है. सारी पृ्थ्वी पर दिनों का क्रम एक जैसा है और दिन 7 ही माने जाते है.
- #वार - Vaar[Week Day]
- सप्ताह के एक दिन को वार कहते हैं. इसकी गणना दिन के स्वामी का निर्धारण करने के लिए की जाती है. वार की गणना करने का तरीका आसान है. AD का पहला दिन सोमवार मानते है. यदि वर्ष के पूर्ण सप्ताहों को निकाल दें तो शेष 1 बचता है. जैसे 365 को 7 से भाग दिया तो 52 सप्ताह आते हैं और शेष 1 बचता है. इस प्रकार लीप वर्ष में 2 दिन शेष बचते हैं तो 100 साल में 5 दिन अधिक होते हैं. 100+24 लीप दिन=124 भाग 7=17,शेष 5 बचा. इस विधि से किसी भी तिथि का वार ज्ञात किया जा सकता है.
- #वार शुद्धि - Vaar Shuddhi
-
वार शुद्धि
सोम, बुध, बृ्हस्पति, शुक्र वारों को विवाह हेतु शुभ बताया गया है.
रविवार और शनिवार को मध्यम बताया गया है.
मंगलवार को त्यागना चाहिए. ऎसा ग्रन्थों में बताया गया है.
- #वारा योग - Vara Yog
- यदि वर्ष कुण्डली में धनु लग्न हो ओर लग्न में मंगल, गुरु तथा शुक्र हों या ये तीनों ग्रह चतुर्थ भाव में हों तो वारा योग बनता है. उस वर्ष जातक विशेष आर्थिक लाभ प्राप्त करता है. व्यापार में वृद्धि होती है. इस वर्ष व्यापार का विस्तार होता है.
- #विवाह के प्रकार - Types of Marriage
-
प्राचीन काल में विवाह को आठ श्रेणियों में बांटा गया था. अर्थात आठ प्रकार के विवाहों को स्वीकारा गया था.
- ब्राह्म विवाह
- दैव विवाह
- आर्ष विवाह
- प्राजापत्य विवाह
- आसुर विवाह
- गान्धर्व विवाह
- राक्षस विवाह
- पैशाच विवाह
- #वैधृ्ति योग - Vaidhriti Yog
- इस योग वाला जातक चंचल होता है. चुगली करने वाला होता है. मायावी, परनिन्दक होता है. जातक की दुष्टों से मित्रता रहती है. शास्त्र ज्ञान व भक्ति से रहित होता है. उत्साह की कमी रहती है.
- #वैशाख नक्षत्र - Vaishakh Nakshatra
-
विशाखा नक्षत्र तुला राशि में 20 अंश से लेकर वृ्श्चिक राशि में 3 अंश 20 कला तक रहता है. क्रान्ति वृ्त्त से 0 अंश 20 कला उत्तर और विषुवत रेखा से 16 अंश 1 कला 46 विकला दक्षिण में स्थित है. इस नक्षत्र में मुख्य रुप से 4 तारे हैं. जो एक आयताकार आकृ्ति बनाते हैं. इसके नीचे के 4 तारों को मिलाकर एक तराजू जैसी आकृ्ति भी बनती है. जो तुला राशि का प्रतीक चिह्न है.
निरायन सूर्य 5 नवम्बर को विशाखा नक्षत्र में प्रवेश करता है. उस समय सूर्योदय के समय विशाखा पूर्वी क्षितिज पर उदय होता है. जून मास में रात्रि 9 बजे से 11 बजे तक दक्षिणी गोलार्ध में यह शिरोबिन्दु पर रहता है. वैशाख मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा विशाखा नक्षत्र में रहता है. इसके पहले तीन चरण तुला राशि में तो अंतिम एक चरण वृ्श्चिक राशि में रहता है. वैदिक साहित्य में स्वर्ग व देवस्थान तथा विशाखा के मुख्य तारे को इन्द्रपद या इन्द्र का सिंहासन कहा जाता है. इस नक्षत्र का स्वामी बृ्हस्पति है.
संस्कृ्त में विशाख: शब्द कार्तिकेय के लिए प्रयुक्त हुआ है. धनुर्धारी की बाण संधान के समय की मुद्रा तथा नेत्र लक्ष्य की ओर भी विशाख: कहलाती है. भगवान शिव को भी विशाख: कहते हैं. अन्य विद्वानोम के अनुसार कृ्ष्ण प्रिया राधा जी के प्रतिरुप व राधा जी की सखी को विशाखा मानते हैं. उनके मतानुसार किसी भी वृ्क्ष की शाखाएँ अनेक हो सकती है परन्तु विशेष शाखा या विशाखा तो एक ही है. रास मंडल में राधा जी की अंगभूत सखियों में ललिता व विशाखा को विशेश महत्व व आदर दिया जाता है. कभी-कभी कुच लोग विशाखा को " विषाखा " मानकर विष पात्र समझने लगते है.
सुसज्जित प्रवेश द्वार को विशाखा का प्रतीक चिह्न माना जाता है. भारत में विवाहादि सामाजिक उत्सवों पर प्रवेश द्वार बनाने की परंपरा आज भी चली आ रही है. विशाखा नक्षत्र शुक्र की राशि तुला में होने से विवाह का कारक है. विशाखा नक्षत्र ल़क्ष्य प्राप्ति और सफलता को दर्शाता है. प्रवेश द्वार दिखाता है कि एक यात्रा की समाप्ति हो रही है तो नई परिस्थिति व चुनोतियों का आरम्भ भी है. जैसे विवाह के बाद ससुराल में नया जीवन अनेक उलझनों व चुनौतियों को लेकर आता है.
विशाखा नक्षत्र की दृ्ष्टि सदैव अंतिम लक्ष्य को पाने की ओर बडी़ जीत की ओर रहती है. चाहे ये नक्षत्र मंगल समारोह से जुडा़ हो, परन्तु अपने लक्ष्य को पाने के लिए अनथक प्रयास, मानसिक शक्ति को छीन लेता है.
विशाखा नक्षत्र के देवता इन्द्र व अग्नि को माना गया है. इन्द्र देवताओं का राजा होने पर भी धर्म विरुद्ध कार्य करने से भारी मुसीबत में पड़ जाते हैं. यदि सुरा-सुन्दरी के फेर में विशाखा नक्षत्र पड़ जाए तो निश्चय ही संकट में पड़ जायेगा. अग्नि को देवताओं का मुख माना गया है. सभी देवगण यज्ञ में अपना भाग यज्ञाग्नि से ही पाते हैं. अग्नि देह बल बढा़ने के लिए जठाराग्नि है. आधुनिक समय में भोजन बनाने के लिए रसोइ में चूल्हे या गैस स्टोव की आग है. यह अग्नि भीषण अग्निकांड बनकर, जन-धन की हानि भी करती है.
सूक्ष्म रुप से पराक्रम, परिश्रम, दृ्ढ़ निश्चय व अदम्य साहस का संबंध भी अग्नि से होता है. इन्द्र व अग्नि का संबंध बादलों और वर्षा से है. विशाखा को कृ्षि कार्यों के लिए उपयोगी माना जाता है. विशाखा नक्षत्र को यदि एक शब्द में बताना है तो है - " दृ्ढ़ निश्चयी " यह नक्षत्र सक्रिय नक्षत्र है. निरन्तर प्रयासशील रहता है.
विशाखा नक्षत्र की जाति म्लेच्छ या विधर्मी मानी गई है. म्लेच्छ जाति माने जाने के पीछे गूढ़ रहस्य है. यह समाज के लिए उपयोगी नहीं है. कभी डाकू, क्रान्तिकारी या आतंकवादी होकर समाज में अराजकता फैलाता है. कभी साधु व तपस्वी होकर समाज से कटकर किसी जंगल या गुफा में निवास करता है.
विशाखा नक्षत्र को स्त्री नक्षत्र माना गया है. भुजा व वक्ष को विशाखा का अंग कहा गया है. यह कफ़ प्रधान नक्षत्र है. क्योंकि तुला राशि का स्वामी शुक्र जल प्रधान स्त्री ग्रह है. वृ्श्चिक राशि भी जल तत्व राशि है. यहाँ पर चन्द्रमा नीच राशि में होने से कफ़ दोष दिया करता है. तुला राशि पश्चिम दिशा की स्वामिनी है तथा वृ्श्चिक राशि का संबंध उत्तर दिशा से होने के कारण विशाखा की मुख्य दिशा पश्चिम व उत्तर को माना गया है. कई विद्वान दक्षिण दिशा को भी विशाखा नक्षत्र की प्रभावी दिशा मानते हैं.
विशाखा नक्षत्र को सत्वगुणी नक्षत्र माना गया है. इसे अग्नि तत्व नक्षत्र माना जाता है क्योंकि अग्नि इसका देवता है. इस नक्षत्र को राक्षस गण माना गया है. इसका कारण विशाखा ऩात्र मूलत: स्वार्थी व स्वसुख का लोभी होता है. विशाखा को अधोमुखी नक्षत्र माना गया है. इसे मिश्र स्वभाव नक्षत्र भी माना गया है.
वैशाख मास का पूर्वार्ध जो मई मास में आता है, उसे विशाखा का मास माना जाता है. कृ्ष्ण व शुक्ल पक्ष की षष्ठी व सप्तमी तिथि का संबंध विशाखा नक्षत्र से माना जाता है. वैशाख पूर्णिमा को चन्द्रमा विशाखा नक्षत्र में होता है. शुक्र, मंगल, यम, केतु व गुरु ग्रहों का संबंध विशाखा नक्षत्र से माना जाता है. गुरु इस नक्षत्र का स्वामी है और शुक्र व मंगल राशीश हैं. केतु व यम का संबंध भी वृ्श्चिक राशि से माना जाता है. देव गुरु बृ्हस्पति इन्द्र के द्वारा विशाखा को प्रभावित करते हैं.
विशाखा नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'ती' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'तू' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'ते' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'तो' है. इस नक्षत्र की व्याघ्र योनि है. विशाखा को मुनि वशिष्ठ का वंशज माना जाता है.
- #शरदक्रान्ति या उत्तरायण बिन्दु - Sharad Kranti / Uttarayan Point [Northern Solistice]
-
यह 22 दिसम्बर को होता है, जब सूर्य आकाशीय विषुवत रेखा से बहुत दूरी पर दक्षिण की ओर रहता है. यह क्रान्तिवृ्त्त की दक्षिण सीमा है. 22 दिसम्बर को जब सूर्य की किरणें मकर रेखा पर समकोण बनाती हैं उस समय सायन मकर संक्रान्ति होती है. इस समय सूर्य की दक्षिण क्रान्ति 23डिग्री 28 मिनट होती है. उस दिन से सूर्य उत्तर की ओर जाने लगता है. उस दिन रात सबसे बडी़ होती है. इस बिन्दु पर पहुँच कर सूर्य उत्तर की ओर जाने लगता है तब उत्तरायण का आरम्भ होता है. इसी कारण इसे उत्तरायण बिन्दु भी कहते है.
अयन बिन्दु आकाश में सदा एक ही जगह नही रहते, ये पश्चिम की ओर खिसकते रहते हैं. जिस नक्षत्र के पास आजकल उत्तरायण या दक्षिणायन होता है पुराने समय में नहीं होता था. वर्तमान समय में उत्तरायण का आरम्भ मूल नक्षत्र के आधे भाग पर और दक्षिणायन का आरम्भ आर्द्रा नक्षत्र के आरम्भ में होता है.
इस पेज की विषय सूची
क्षेत्र बल | चित्रा नक्षत्र | तगी योग | तमाल योग | तमाली योग | ताजिक कुण्डली | ताजिक दृ्ष्टियाँ | ताम्बीर योग | तारा | तारा नक्षत्र |
तारा मिलान | वर्ष कुण्डली के सोलह योग | विवाह में कार्तिक मास का विशेष नियम | शत्रु सहम | शयनादि अवस्था | शिव योग | शुक्र ग्रह | शुक्ल प़क्ष अंशों सहित | शुक्ल योग | शुक्लादि मास |
शुभ कर्तरी | शुभ योग | शूल योग | शोधन | शोभन योग | श्रवण नक्षत्र | षटत्रिशतवर्षा दशा | षोडश संस्कार | षोडशांश | षोडशोत्तरी दशा |
सिंह राशि | सिद्धा तिथि | सिद्धि योग | सुकर्म योग | सूर्य ग्रह | सृ्ष्टि, स्थिति, संहार नक्षत्र | सोमपद तिथियाँ | सौभाग्य योग | सौर मास और संक्रान्ति | स्तंभित ग्रह |
स्तम्भ | स्त्री दीर्घ कूट | स्त्री नक्षत्र | स्त्री-पुरुष बल | स्थान बल | स्थान बल(वर्ष कुण्डली) | स्थिर कारक | स्थिर दशा | स्थिर नक्षत्र | स्वप्नादि अवस्था |
अपसव्य लग्न | उग्र नक्षत्र | उच्च बल | उच्च-स्वक्षेत्र बल | उत्तमाँश ग्रह | उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र | उत्तराभाद्रपद नक्षत्र | उत्तराषाढा नक्षत्र | उत्पात,मृ्त्यु और काण नक्षत्र | उदित ग्रह |
उपग्रह | उपग्रह की गणना | उपग्रह दोष | उपनयन मुहूर्त | उपनयन संस्कार | ऊर्ध्वमुख नक्षत्र | कोट चक्र का उपयोग | ग्रहों की तात्कालिक मित्रता | तिथि | तिथियों के स्वामी |
तिर्यक मुख नक्षत्र | तीक्ष्ण या दारूण नक्षत्र | तुला राशि | तृ्तीय भाव | तेगी योग | तेज योग | त्रिकोण शोधन | त्रिनाडी़ चक्र | त्रिपताकी चक्र | त्रिपाद नक्षत्र |
त्रिराशिपति | त्रिशांश | नक्षत्रों के वृक्ष | भद्रा के प्रकार | वक्री ग्रह | वज्र योग | वदारा योग | वदारी योग | वरीयान योग | वर्ग |
वर्ग विचार | वर्ग विभाजन | वार | वार | वार शुद्धि | वारा योग | विवाह के प्रकार | वैधृ्ति योग | वैशाख नक्षत्र | शरदक्रान्ति या उत्तरायण बिन्दु