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#एकादश भाव - Ekadash Bhav[Eleventh House]
Imageइस भाव को लाभ या आय भाव भी कहते हैं. इस भाव के अन्य नाम आगमन, सिद्धि, प्राप्ति, भव, श्लाध्यता, सरस, संतोषमाकर्णम, आगम, सर्वतोभद्र, पणफर, उपचय, लब्धि आदि भाव भी कहते हैं. इस भाव से सब प्रकार के लाभ, उपाधियाँ, सम्मान, व्यापार से संबंधित लाभ आदि देखे जाते हैं.ीस भाव से सभी वस्तुओं के मिलने को देखा जाता है. आय, वृ्द्धि प्राप्ति, प्रशंसा, बडे़ भाई - बहन आदि का विचार किया जाता है. सम्पूर्ण धन की प्राप्ति इसी भाव से विचारते हैं.

इच्छित द्रव्य की प्राप्ति, द्रव्य का लाभ, मांगलिक श्रृंगार का द्रव्य, गुप्त और प्रकट धन, पाक विद्या, मित्र परिवार और मित्र सुख, हर तरह के मित्र, मित्र कैसे मिलेंगें, खुशी, मनोरंजन के साधन आदि का विचार इस भाव से करते हैं. व्यापार से लाभ - हानि, दामाद, पुत्र वधु, आशा या इच्छा पूर्ति, कन्या संतान, पुत्र नाश, नि:संतान, मकान आदि का लाभ आदि को इस भाव से देखते हैं.

बांयाँ हाथ, बांयाँ कान, पिण्डलियाँ, टखने इस भाव के अंतर्गत आते हैं. इस भाव के पीड़ित होने पर शरीर के इन भागों में पीडा़ होगी.

#एकादशांश - Ekadashansh
यह वर्ग रुद्रांश या लाभांश भी कहलाता है. जहाँ दशमांश जातक के प्रयासों के द्वारा अर्जित धन दिखाता है वहाँ रुद्रांश बिना प्रयास के धन प्राप्ति को दिखाता है. इसलिये यह वर्ग पैतृ्क सम्पति, शेयर तथा सट्टे के द्वारा स्थायी धन प्राप्ति के लिये महत्वपूर्ण है.

इस वर्ग में 30 डिग्री के 11 बराबर भाग किये जाते हैं. प्रत्येक भाग 2 डिग्री 43 मिनट 38.1 सैकण्ड का होता है. प्रत्येक राशि के लिये गणना मेष राशि से उल्टी दिशा में शुरु होती है और वृ्ष राशि निष्कासित हो जाती है. इसमें 11 एकादशांश होने से 11वाँ एकादशांश मिथुन राशि तक ही आयेगा. वृ्ष राशि तक नहीं आता. जैसे शनि 28 डिग्री 12 मिनट का जन्म कुण्डली में मिथुन राशि में स्थित है तो गणना मेष राशि से उल्टी शुरु होगी. 11वाँ एकादशांश मिथुन राशि में आएगा अत: शनि एकादशांश कुण्डली में मिथुन में गया.

#एकाधिपत्य शोधन - Ekadhipatya Shodhan
एकाधिपत्य का अर्थ है एक ही ग्रह का अधिपति होना अथवा एक ही ग्रह का स्वामी होना भी कह सकते हैं. एकाधिपत्य शोधन उन दो राशियों के लिए किया जाता है जिनका स्वामी एक ही ग्रह है. सूर्य तथा चन्द्रमा एक-एक राशि के अधिपति है इसलिए सिंह राशि और कर्क राशि का त्रिकोण शोधन नहीं होता है. राहु/ केतु छाया ग्रह हैं इसलिए इन्हें भी शामिल नहीं किया गया है. बाकी बचे पांचों ग्रह शनि, बृह्स्पति, मंगल, शुक्र तथा बुध का एकाधिपत्य शोधन किया जाता है.

#एकार्गल दोष - Ekargal Dosh
जिस दिन सूर्य नक्षत्र से अभिजित सहित गिनने पर चन्द्रमा और सूर्य के बीच के नक्षत्र विषम संख्यक हों और व्यतिपात, शूल, विषकुंभ, गण्ड, वैधृ्ति, वज्र, परिघ, अतिगण्ड में से कोई एक योग हो तो इस दोष का निर्माण होता है. यह दोष भंग हो जाता है यदि चन्द्रमा सम संख्यक नक्षत्र में पडे़.अर्थ यह है कि सूर्य के नक्षत्र से चन्द्रमा का नक्षत्र विषम स्थानों में पड़ने तथा उपरोक्त लिखे अशुभ योग भी उसी समय हों तो एकार्गल दोष बनता है.

#गण मिलान - Gan Milan [Gan Matching]
गण तीन प्रकार के होते हैं :- 1 देव, 2 मनुष्य, 3 राक्षस गण. ये प्रकृ्ति के तीन गुणों - सत्त्व, रजस एवं तमस - के प्रतीक माने गए हैं. गणों का निर्धारण जन्म नक्षत्र के आधार पर किया जाता है. इसमें कुल अंक 6 होते हैं.

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देवगण में उत्पन्न व्यक्ति स्वभावत: सात्त्विक होता है.

मनुष्य गण में उत्पन्न व्यक्ति में रजस गुण होते हैं.

राक्षस गण वाले जातक में तमस गुण विद्यमान होते हैं.

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वर एवं कन्या दोनों के गण यदि एक समान हैं तो उनके स्वभाव में समानता रहेगी. दोनों में प्रेम बना रहेगा. यदि एक का देव गण दूसरे का राक्षस गण है तो दोनों एक-दूसरे का विरोध करेंगें. अत: इस स्थिति में विवाह करना वर्जित माना गया है. इसे गण दोष कहते हैं.

गण दोष का परिहार

यदि वर एवं कन्या के राशि स्वामियों में नैसर्गिक मित्रता हो अथवा उन दोनों की राशियों का स्वामी एक ही ग्रह हो तो गण दोष अपना खराब प्रभाव नहीं डाल पाता. कारण यह है कि प्रकृ्ति, मनोवृ्ति एवं रुचि में समानता रहती है.

#गण्डमूल नक्षत्र का अपवाद - Exception Of Gundamool Nakshatra
  1. गर्ग के मत से रविवार को अश्विनी नक्षत्र में जन्म हो या रविवार या बुधवार को ज्येष्ठा, रेवती, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाति नक्षत्र हो तो नक्षत्र जन्म दोष कम होता है.तीनों गण्डातों का फल भी कम होता है.
  2. बादरायण के मत से गण्ड नक्षत्र में चन्द्रमा यदि लग्नेश से कोई सम्बन्ध न बनाता हो तो गण्डदोष में कमी होती है.
  3. वशिष्ठ जी कहते हैं कि दिन में मूल का दूसरा चरण हो और रात में मूल का पहला चरण हो तो माता-पिता के लिए कष्ट होता है. अत: शांति अवश्य करें.
  4. ब्रह्मा का वाक्य है कि चन्द्रमा यदि बलवान हो तो नक्षत्र गण्डात व गुरु बली हो तो लग्न गण्डात का दोष काफी कम लगता है. लेकिन दोष होता अवश्य है
  5. वशिष्ठ जी का मत है कि अभिजित मुहूर्त में जन्म होने पर गण्डात आदि दोष प्राय: नष्ट हो जाते हैं. लेकिन यह विचार विवाह लग्न में ही देखें. जन्म में नही, यह शिष्टों का मत हैं.

#गलग्रह तिथि - Galgrah Tithi
शुभ कार्यों में गलग्रह तिथियों का परित्याग करना उचित है. सभी शुभ कार्यों में ये तिथियाँ लेना वर्जित है. विशेष तौर पर शिक्षा और उपनयन संस्कार के लिए वर्जित है.

कृ्ष्ण पक्ष की सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या तिथियाँ तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि गलग्रह तिथियाँ हैं.

#गैरी कम्बूल योग - Gairi kambul Yog
लग्नेश और कार्येश परस्पर इत्थशाल इत्थशाल करें, पर चन्द्र किसी से भी इत्थशाल न करता हो, तब गैरी कम्बूल योग बनता है.

वर्ष कुण्डली में यदि लग्नेश - कार्येश की परस्पर दृ्ष्टि हो, लेकिन चन्द्रमा लग्नेश्-कार्येश को नहीं देख रहा हो और राशि के अंतिम भाग में किसी अन्य बलवान ग्रह से इत्थशाल कर ले तब गैरी कम्बूल योग बनता है. यह योग किसी अन्य के सहयोग से कार्यसिद्धि कराता है.

#ग्रहों के दीप्तांश - Diptansh of The Planets
ग्रहों के दीप्तांश का प्रयोग वर्ष कुण्डली में किया जाता है.

सूर्य - 15

चन्द्र - 12

मंगल - 8

बुध - 7

बृहस्पति - 9

शुक्र - 7

शनि - 9


#ग्रीष्म क्रान्ति या दक्षिणायन बिन्दु - Greeshma Kranti / Dakshinayan Bindu [Southern Solistice]
यह 21 जून के आसपास होता है जब सूर्य सायन मेष से चल कर उत्तर गोल यात्रा में इस क्रान्ति सीमा पर 21 जून के लगभग पहुँच जाता है, उस समय सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर समकोण बनाती है. इस समय सूर्य सबसे दूर रहता है और सूर्य के उदय अस्त का घेरा बहुत बडा़ होता है अर्थात उस दिन, दिन सबसे बडा़ होता है. इसी को सायन संक्रमण कहते है. इस बिन्दु पर पहुँच कर सूर्य दक्षिण की ओर मुड़ता है और दक्षिणायन हो जाता है. इसीलिये ग्रीष्म क्रान्ति को दक्षिणायन बिन्दु भी कहते है.

#ज्योतिष में विभिन्न दशाएं - Different Dasha Periods of Astrology
ज्योतिष की विभिन्न पुस्तकों में पराशरी और जैमिनी दशाओं का उल्लेख मिलता है. जो बहुत सारी हैं. लेकिन हमें कुल 47 दशाओं का ही उल्लेख पुस्तकों में मिलता है. इन सब दशाओं में विंशोत्तरी दशा का मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है. भारत के कुछ भागों में अष्टोत्तरी दशा का प्रयोग किया जाता है. जैमिनी की चर दशा का भी उपयोग किया जाता है. कुछ विद्वान योगिनी दशा का उपयोग भी करते हैं.

पराशर जी के द्वारा सभी दशाओं को समझने की आवश्यकता है तथा यह एक अनुसंधान का क्षेत्र है. जैमिनी सूत्र की भी कुछ ही दशाओं का प्रयोग किया जाता है. बाकी दशाओं को लागू करने के लिए समय और सब्र की आवश्यकता है. उन दशाओं की गणना करने के लिए समय की आवश्यकता होती है. वर्तमान समय में समयाभाव के कारण ही कुछ दशाएं लुप्त होती जा रही हैं. आजकल सभी ज्योतिषी कम्प्यूटर पर आश्रित हैं.

#ढै़य्या - Dhaiyya
कुण्डली में जब चन्द्र राशि से चतुर्थ भाव या अष्टम भाव में शनि का गोचर होता है तब उसे शनि की ढै़य्या का कहते हैं. शनि का यह गोचर ढाई वर्ष तक रहता है इसलिए इसे ढै़य्या कहा गया है. कई ग्रंथों में ढै़य्या को लघु कल्याणी और कण्टक शनि भी कहा गया है.

#दरिद्रता सहम - Daridrata Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- पुण्य सहम - बुध + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- बुध - पुण्य सहम + लग्न

#दशम भाव - Dasham Bhav[Tenth House]
Image इस भाव को कर्म भाव भी कहते हैं. इस भाव के अन्य नाम आज्ञा, मान, आस्पद, व्यापार, जय, सत, कीर्ति, क्रतु, जीवन, व्योम, आचार, गुण, गमन, तात, नभ, अम्बर, मध्य, केन्द्र, उपचय, राज्य आदि हैं. व्यक्ति के व्यवसाय का क्या रुप रहेगा या व्यक्ति का व्यवसाय किस तरह का होगा, यह दशम भाव से पता चलता है. प्रसिद्धि, सम्मान, आदर, प्रतिष्ठा तथा व्यक्ति की उपलब्धियाँ सभी दशम भाव से विचारते हैं. हुकुमत, पदोन्नति, पूर्व जन्म, सास आदि का विचार भी इस भाव से करते हैं.

इस भाव से मुख्य रुप से आजीविका का ही विचार करते हैं. राजा से आदर, अधिकार मिलने का विचार, पदवी, बडे़ पद की प्राप्ति, नौकरों पर हुकुमत, राज्य वृ्द्धि, राजनैतिक शक्ति, सत्ता, पुरुषार्थ, हाथ से होने वाले अच्छे-बुरे कर्म, कर्म की प्रवृ्त्ति, सब कर्मों की समीक्षा, बलिदान, शास्त्रों का ज्ञान, धार्मिक कार्य आदि में सफलता - विफलता, विद्या में परीक्षा उत्तीर्ण, सत्य धर्म, पितृ पक्ष से सुख का विचार, पिता का धन आदि का विचार करते हैं.

इस भाव से घुटनों का विचार करते हैं. यदि यह भाव पीड़ित है तब कर्म क्षेत्र में परेशानी तथा घुटनों से संबंधित रोग हो सकते है.

#दशाएँ - Dashayen
जैमिनी पद्धति की दशाएँ राशि दशाओं के रूप में जानी जाती हैं. इस पद्धति में राशियों पर आधारित कुल बारह दशाएं होती हैं. मेष, वृ्ष, मिथुन,कर्क,सिंह, कन्या, तुला, वृ्श्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन राशियों की दशाएं होती हैं. इस पद्धति में किसी राशि की दशा अधिकतम 12 वर्ष और कम से कम एक वर्ष होती है.

#दारा कारक - Dara Karaka
जैमिनी ज्योतिष में कुण्डली में सबसे कम अंशों वाला ग्रह दारा कारक कहलाता है. यह ग्रह पत्नी या पति का कारक ग्रह है. साथ ही यह सातवें भाव का कारक है.

#दिन-रात्रि बल - Din-Ratri Bal
यदि वर्ष प्रवेश का समय दिन का है तब पुरुष ग्रह बलिष्ठ होते हैं. यदि प्रवेश काल रात्रि का है तब स्त्री ग्रह बलिष्ठ होते हैं. इस प्रकार ग्रहों को पांच अंक प्राप्त होते हैं. अन्यथा शून्य अंक मिलेगा.

यदि रात्रि का वर्ष प्रवेश है तब पुरुष ग्रहों को शून्य अंक मिलता है. यदि दिन का प्रवेश काल है तब स्त्री ग्रहों को शून्य अंक प्राप्त होता है.

पुरुष ग्रह :- सूर्य, मंगल, बृहस्पति

स्त्री ग्रह :- चन्द्र, बुध, शुक्र, शनि

इस बल का आंकलन वर्ष कुण्डली में हर्ष बल के अन्तर्गत आता है.

#दिल्ला योग - Dilla Yog
यदि जन्म कुण्डली का लग्नेश सूर्य हो और वह वर्ष कुण्डली में दशम भाव में स्थित हो तथा वर्ष लग्न से दशम भाव का स्वामी उच्च राशि में हो तब दिल्ला योग बनता है.

इस योग के बनने से जातक को उस वर्ष में धन की प्राप्ति होती है. नया वाहन लेता है. कार्य क्षेत्र में वृद्धि होती है. नया घर भी जातक बना सकता है या बना हुआ घर खरीद सकता है.

#दुत्थकुत्थीर योग - Duttha Kutthir Yog
वर्ष कुण्डली में यदि लग्नेश और कार्येश दोनों ही निर्बल हों, जिसके कारण इत्थशाल होने पर भी पूर्ण सफलता संदिग्ध हो, परन्तु दोनों में से एक भी ग्रह स्वग्रही, उच्च या बलवान ग्रह से इत्थशाल करता हो तो दुत्थकुत्थीर योग बनता है.

इस योग के होने से परिश्रम के बाद किसी दूसरे की सहायता से कार्य सिद्धि होगी.

#दुरुफ योग - Duruf Yog
यह योग कुत्थ योग से विपरीत योग है. वर्ष कुण्डली में यदि लग्नेश और कार्येश दोनों ही निर्बल हों या 3,8,12वें भाव में स्थित हों या शत्रु राशि में, नीच, पापग्रह से युक्त, कान्तिहीन, अस्त, वक्री या विंशोपक बल में क्षीण बली हों तब दुरूफ योग बनता है. यह अशुभ योग है.

#दुर्ग भंग - Durga Bhanga[Damage of Fort]
दुर्ग का अर्थ है - किला. कोट चक्र में जब पाप ग्रह स्तंभ या मध्य भाग में स्थित होते हैं तब उसे दुर्ग भंग कहा जाता है. इसका अर्थ हुआ कि जिस व्यक्ति या घटना को देखने के लिए हम कोट चक्र बना रहे हैं उसे किसी प्रकार से हानि होने की संभावनाएं बनती हैं. घटना का संबंध बीमारी, कोर्ट केस या किसी विवाद से हो सकता है.

दुर्ग भंग होने पर मरीज के ठीक होने की संभावना कम रहेगी. कोर्ट केस की बात है तो केस व्यक्ति के पक्ष में नहीं रहेगा. विवाद के मामले में विवाद लम्बा चल सकता है. कोट चक्र के साथ ही हमें उस समय की दशा का अध्ययन भी करना चाहिए. यदि दशा खराब है और दुर्ग भंग योग बन रहा है तभी विपरीत परिणाम मिलेंगें, अन्यथा दशा अनुकूल होने पर परिणाम पक्ष में रहेगें.


#दुष्फाली कुत्थ योग - Dushfali Kuttha Yog
वर्ष कुण्डली में लग्नेश और कार्येश में इत्थशाल हो, पर इन दोनों में मंद गति ग्रह स्वराशि, उच्चराशि, द्रेष्काण, नवांशादि से बलवान हो अर्थात विंशोपक बल में बली हो और शीघ्र गति ग्रह अपनी उच्च राशि या स्वराशि में न हो तथा विंशोपक बल में निर्बल और क्षीण हो तो दुष्फाली कुत्थ योग बनता है. यह योग होने से काफी प्रयत्नों के बाद किसी अन्य के सहयोग से कार्य की सिद्धी होती है.

#दृ्ष्ट सौर दिन - Drisht Saur Din [Observed Solar Day]
दृ्ष्ट सौर दिन एक मध्य रात्रि से दूसरी मध्य रात्रि तक अर्थात 00:00 घण्टे 24:00 घण्टे तक होता है. नाक्षात्रिक दिवस या साम्पातिक दिवस से 4 मिनट बडा़ होता है.

#दृ्ष्टि बल - Drishti Bal
दृ्ष्टि केन्द्र = दृ्ष्य ग्रह का भोगांश (-) दृ्ष्टि ग्रह भोगांश

दृ्ष्टि पिण्ड = 30 से 60 = (दृ्के - 30 )भाग 2

60 से 90 = ( दृ्के - 60 )+15

90 से 120 = ( 120 - दृ्के ) भाग 2 + 30

120 से 150 = ( 150 - दृ्के )

150 से 180 = ( दृ्के - 150 ) x 2

180 से 300 = ( 300 - दृ्के ) भाग 2



दृ्ष्टि पिण्ड भाग 4 = दृ्ष्टि बल ( शुभ ग्रहों में घनात्मक, पाप ग्रहों में ऋणात्मक )

विशेष दृ्ष्टि = शनि, गुरु, मंगल भाव से भाव तक ( क्रम से 45,30,15 षष्टियांश )

यदि किसी ग्रह पर विशेष दृ्ष्टि पडे़, अन्यथा नहीं.

बृ्हत पाराशर होरा शास्त्रम के अनुसार :-

शनि - 45 - 60से90 व 270से300

गुरु - 30 - 120से150 व 240से270

मंगल - 15 - 90से120 व 210से240


#दृ्ष्टियाँ - Drishtiyan [Aspects of Signs]
जैमिनी पद्धति में राशियों की दृ्ष्टि का महत्व है.

सभी चर राशियाँ अपनी समीपवर्ती स्थिर राशि को छोड़कर बाकी सभी स्थिर राशियों को देखती हैं.

सभी स्थिर राशियाँ अपनी पिछली चर राशि को छोड़कर अन्य सभी चर राशियों को देखती है.

सभी द्विस्वभाव राशियाँ परस्पर एक-दूसरे को देखती हैं.

#दृ्ष्य ग्रह - Drishya Grah
जिस ग्रह पर किसी दूसरे ग्रह सी दृ्ष्टि पड़ रही है, वह दृ्ष्य ग्रह कहलाता है.

#देशान्तर सहम - Deshantar Saham
दिन व रात्रि प्रवेश दोनो के लिए :- नवम भाव मध्य रेखांश + लग्न

#दोशना योग - Doshana Yog
वर्ष कुण्डली के दूसरे या नवम भाव में शनि, मंगल और बुध हों तथा लग्न का स्वामी कमजोर होकर आठवें भाव में बैठा हो तब दोशना योग बनता है. जिस वर्ष यह योग बनता है, उस वर्ष व्यक्ति को दु:ख तथा परेशानियों का सामना करना पड़ता है. जातक के मनोनुकूल कार्य नहीम बनते हैं. मानसिक परेशानियां घेरे रहती हैं.

#द्रष्टा ग्रह - Drashta Grah
जो ग्रह, किसी दूसरे ग्रह को दृ्ष्टि दे रहा है, द्रष्टा ग्रह कहलाता है.

#द्रेष्काण - Dreshkaan
इस वर्ग से जातक के भाई - बहनों के बारे में अध्ययन किया जाता है. भाई - बहनों से जीवन में सुख की प्राप्ति होगी या नहीं होगी, उसके बारे में पता चलता है. इस वर्ग से पारिवारिक संबंधों के बारे में भी विश्लेषण किया जाता है. भाई-बहनों की मृ्त्यु एवं जातक की मृ्त्यु का स्वरूप भी मालूम होता है. जिसके लिये हमें 22वें द्रेष्काण का अध्ययन अवश्य करना चाहिए.

प्रत्येक राशि को 10-10 डिग्री के तीन समान भागों में बांटा जाता है. पहले द्रेष्काण ( 0 से 10 डिग्री ) में स्थित ग्रह उसी राशि में रहेगा जिसमे वह जन्म कुण्डली में स्थित है. दूसरे द्रेष्काण ( 10 से 20 डिग्री ) में स्थित ग्रह अपने से पांचवीं राशि में जाएगा. तीसरे द्रेष्काण ( 20 से 30 डिग्री ) में स्थित ग्रह अपनी राशि से नौवीं राशि में जाएगा.

इस वर्ग का विश्लेषण करते समय हमें तीसरे भाव के स्वामी, तीसरे भाव के कारक मंगल एवं मंगल से तीसरे भाव के स्वामी की स्थिति एवं शक्ति का विचार करना चाहिए.

#द्रेष्काण बल - Dreshkan Bal
यह बल ग्रहों की द्रेष्काण वर्ग में स्थिति पर आधारित है किन्तु यह वर्ग पराशरी पद्धति के द्रेष्काण वर्ग से भिन्न है. इस वर्ग में 30 अंशों को 10-10 अंशों के तीन भागों में बाँटा गया है. प्रत्येक राशि में प्रत्येक भाग का आधिपत्य किसी एक ग्रह विशेष को प्रदान किया गया है.

अपने द्रेष्काण में स्थित ग्रह को 10 अंक मिलते हैं.

मित्र द्रेष्काण में स्थित ग्रह को 7.30 अंक मिलते हैं.

सम द्रेष्काण में स्थित ग्रह को 5 अंक मिलते हैं.

शत्रु द्रेष्काण में स्थित ग्रह को 2.30 अंक मिलते हैं.

द्रेष्काण बल वर्ष कुण्डली में पंचवर्गीय बल का एक हिस्सा है.

#द्वादश भाव - Dwadash Bhav[Twelth House]
Imageइस भाव को व्यय भाव भी कहते हैं. इस भाव के अन्य नाम अंत्य, रिष्फ, विनाश, लग्नांत, खंड, दु:ख, अंघ्रि, वामनयन, क्षय, सूचक, दारिद्रय, शयन, बंध, प्रान्त्य, अंतिम, अपोक्लिम, त्रिक आदि हैं. इस भाव से जीवन में होने वाले हर तरह के व्यय का विचार किया जाता है. सब प्रकार के खर्च संबंधी कार्य का विचार होता है. धन व्यय, दुर्व्यय, जलाशय, कूप, तालाब, यज्ञ आदि में व्यय का शुभाशुभ विचार, बुरे कर्म, पाप कर्म पतन, नीच कर्म आदि का विचार भी इस भाव से होता है. धन उत्तम कार्यों में खर्च होगा या नीच कार्यों में खर्च होगा इसका विचार भी इस भाव से होता है.

अंग हीनता या कुरूपता, द्रारिद्रय, शरीर नाश, पाप स्थान निद्रा भंग, मन पीडा़, धन का नाश होना आदि इस भाव से देखते हैं. घेरना या पकड़्ना, स्वर्ग या नरक मिलना, मानसिक चिंता, शत्रु, गुप्त शत्रु, शत्रुओं का व्यवहार, विवाद, पीडा़, पाखंड, हठ, हठ संबंधी कार्य, दण्ड, बंधन, राजद्ण्ड, कारागार निवास आदि इस भाव से देखे जाते हैं. दान संबंधी कार्य, दानशीलता, त्याग, भोग, कृ्षि कर्म, शयन आदि सुख. अध्यात्म विद्या, गुप्त विद्या आदि का विचार इस भाव से होता है.

इस भाव को मोक्ष का कारक भी कहा गया है. इस भाव से दु:ख, खुफिया पुलिस, परदेश गमन या विदेश गमन देखा जाता है. विदेशों से व्यापार भी इस भाव से देखा जाता है. पैतृ्क सम्पत्ति का विवाद, छोटी बहन का पुत्र, बायाँ नेत्र, कान से संबंधित रोग द्वादश भाव से देखते हैं. इस भाव के अधिकार क्षेत्र में बाईं आँख और दोनों पैर और पैर की अंगुलियाँ आती हैं. इस भाव के पीड़ित होने पर पैर के रोग और बाईं आँख के रोग हो सकते हैं.आध्यात्मिक लोगों की कुण्डली में द्वादशभाव का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. आध्यात्मिक जीवन के संकेत द्वादश भाव से मिलते हैं.

#द्वादशवर्गीय बल - Dwadasha Vargiya Bal
इस बल की गणना वर्ष कुण्डली में की जाती है. इस बल का प्रयोग मुख्यत: ग्रह की बलिष्ठता अथवा क्षीणता ज्ञात करने के लिए किया जाता है. द्वादश का अर्थ है बारह. इस बल को निकालने के लिए बारह वर्ग कुण्डलियों का प्रयोग किया जाता है. जो निम्न है :-

  1. जन्म कुण्डली
  2. होरा कुण्डली
  3. द्रेष्काण कुण्डली
  4. चतुर्थांश कुण्डली
  5. पंचमांश कुण्डली
  6. षष्ठांश कुण्डली
  7. सप्तांश कुण्डली
  8. अष्टमांश कुण्डली
  9. नवांश कुण्डली
  10. दशमांश कुण्डली
  11. एकादशांश कुण्डली
  12. द्वादशांश कुण्डली

#द्वादशांश - Dwadashansh
यह वर्ग माता-पिता से संबंधित समस्याओं को देखने लिये उपयोग में आता है. यह वर्ग उच्च साधना की प्रवृ्त्ति भी दर्शाता है क्योंकि यह पूर्व और आगामी जीवन की कडी़ है.

30 डिग्री के 12 बराबर भाग किए जाते है. प्रत्येक भाग 2 डिग्री 30 मिनट का होता है. इस वर्ग में गणना, ग्रह जिस राशि में है वही से शुरु होगी. माना सूर्य कर्क राशि में 6 डिग्री का स्थित है तो तीसरे द्वादशांश में हुआ. अब गणना भी कर्क राशि से शुरु करेगें. अत: सूर्य द्वादशांश कुण्डली में कन्या राशि में आएगा.

#द्वादशोत्तरी दशा - Dwadashottari Dasha
यह दशा 112 वर्षों की होती है. अगर जन्म लग्न में शुक्र का नवांश हो तो इस दशा का प्रयोग किया जाता है. दशा क्रम में शुक्र को शामिल नहीं किया गया है. शुक्र का नवांश होने के कारण ऎसा संभव माना गया है. पुस्तकों में शुक्र को दशा क्रम में शामिल ना करने का स्पष्ट कारण नही उपलब्ध नहीं है.

महादशा ग्रह को जानने के लिये जन्म नक्षत्र से रेवती नक्षत्र तक गणना करें फिर प्राप्त संख्या को 8 से भाग दें अब जो संख्या शेष मिलेगी उस ग्रह की संख्या से दशा क्रम शुरु होगा. माना 3 शेष बचा तो केतु की दशा जन्म के समय मिलेगी. भोग्य दशा निकालने की गणना विंशोत्तरी जैसे है.

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#द्वार राशि - Dwar Rashi
जैमिनी ज्योतिष में वह राशि जिसमें दशा शुरु होती है या वह राशि जिसकी दशा का विचार करना है द्वार राशि है. माना कि मिथुन राशि की दशा मारक ज्ञात करने के लिए विचारणीय है या कोई ओर घटना के लिए भी तो यह राशि द्वार राशि हुई. द्वार राशि को पाक राशि भी कहते हैं.

#द्वितीय भाव - Dwitiya Bhav[Second House]
Imageइस भाव को धन भाव भी कहते हैं. इस भाव के अन्य नाम वाक, वित्त, कुटुम्ब, नेत्र, विद्या, अन्नमान, पत्रिका, अर्थ, कोष, स्वधन, द्र्व्य, स्वयं, पणफर आदि हैं. इस भाव से जातक के धन - धान्य का विचार किया जाता है. धन की सिद्धि, सोने आदि वस्तुओं का क्रय- विक्रय आदि इसी भाव से. रत्नों और कोष का संग्रह आदि भी इस भाव से देखा जाता है. मोती, सोना, चाँदी, रत्न, लोहा, सीसा आदि धातुओं का विचार इस भाव से किया जाता है. पहले से अर्जित अर्थात कुटुम्ब से मिला धन, स्वयं उपार्जित धन या पिता से मिला धन भी इसी भाव से देखा जाता है.

पुरुष का सुख, भोग, सौभाग्य आदि इस भाव से आते हैं. जातक सत्यवादी है या असत्यवादी, जातक की रुचि, खाने के पदार्थ या भोजन का प्रकार कैसा होगा आदि का विचार द्वितीय भाव से किया जाता है. मुख और बोलने की शक्ति, चेहरा, दाएँ नेत्र का विचार और शरीर का दायाँ अंग इस भाव से देखा जाता है.

साधारण विद्या, शिक्षा और विभिन्न मन्त्रों का जाप इस भाव से देखे जाते हैं. क्रोध, कपट आदि का विचार, अपना परिवार, सेवक, मित्र, शत्रु, मौसी, मामा अदि का विचार इस भाव से होता है. इस भाव को प्रथम मारक स्थान भी कहते हैं और मृ्त्यु का विचार भी इस भाव से किया जाता है. इस भाव से मुख व नेत्र का विचार प्रमुख रुप से किया जाता है.

#द्विपाद नक्षत्र - Dwipad Nakshatra
जब किसी नक्षत्र के दो चरण एक राशि में बाकि दो चरण दूसरी अर्थात अगली राशि में पड़ते हैं तो वह द्विपाद नक्षत्र कहलाते हैं. मृ्गशिरा, चित्रा, धनिष्ठा ये द्विपाद नक्षत्र हैं.

#द्विपुष्कर और त्रिपुष्कर योग - Dwipushkar And Tripushkar Yog
जिन नक्षत्रों के तीन चरण एक राशि में पडे़ वे त्रिपुष्कर नक्षत्र कहलाते है. जिन नक्षत्रों के दो चरण एक राशि में पडे़ वे द्विपुष्कर नक्षत्र कहलाते है. इसी आधार पर विशेष तिथि वार के दिन ये नक्षत्र होने पर द्विपुष्कर या त्रिपुष्कर योग बनते है.

द्वित्तीया तिथि, सप्तमी तिथि, द्वादशी तिथि में रविवार का दिन, मंगलवार का दिन, शनिवार का दिन हों और विशाखा नक्षत्र, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र, पुनर्वसु नक्षत्र, कृ्त्तिका नक्षत्र, उत्तराषाढा़ नक्षत्र भी हो तो त्रिपुष्कर योग बनता है.

इन्ही उपरोक्त तिथियों व वारों में यदि मृ्गशिरा नक्षत्र, चित्रा नक्षत्र, धनिष्ठा नक्षत्र पडे़ तो द्विपुष्कर योग बनता है.

हम ये भी कह सकते है कि भद्रा तिथि व रविवार, मंगलवार, शनिवार को त्रिपुष्कर नक्षत्र होने पर त्रिपुष्कर योग व द्विपुष्कर नक्षत्र पड़ने पर द्विपुष्कर योग होते है.इन योगों में भी हानि या लाभ या मृ्त्यु दो गुनी व तिगुनी होती है. इन योगों का फल मृ्त्यु, हानि, विनाश, एवं लाभ के लिए ही देखा जाता है. किसी के जन्म के समय इन योगों का फल नही देखा जाता.

#द्विसप्तति समदशा - Dwisaptati Samadasha
द्विसप्तति का अर्थ है 72. अर्थात ये कुल 72 वर्ष की दशा है. लग्नेश जब सप्तम भाव में हो या सप्तमेश, लग्न में हो, तब ये दशा लागू होती है. अगर लग्नेश और सप्तमेश का राशि परिवर्तन हो तब भी ये दशा लागू होती है. इस दशा में मूल नक्षत्र से जन्म नक्षत्र तक गिनें. जो संख्या प्राप्त हुई, उसे 8 से भाग दें, जो संख्या शेष बची उसके क्रम के अनुसार दशा क्रम होगा.

प्रत्येक ग्रह की दशा 9 वर्ष है तथा केतु को दशा क्रम में शामिल नहीं किया गया है. इस दशा में अन्तर्दशा 1 वर्ष 1 माह 15 दिन की होगी. दशा की गणना विंशोत्तरी दशा के अनुसार चन्द्र की डिग्री पर आधारित है.

  1. सूर्य
  2. चन्द्रमा
  3. मंगल
  4. बुध
  5. गुरु
  6. शुक्र
  7. शनि
  8. राहु

#धनयोग - Dhanyog
कुण्डली में दूसरा भाव धन स्थान कहलाता है. एकादश भाव को लाभ स्थान कहते हैं. पंचम और नवम भाव त्रिकोण भाव या लक्ष्मी स्थान कहलाते हैं. जब इन चारों भावों के स्वामियों का संबंध एक-दूसरे से होता है तब धन योग बनता है. द्वितीयेश यदि 5,9,11 भावों में स्थित हो या इन भावों के स्वामियों से दृ्ष्टि संबंध बना रहा हो या राशि परिवर्तन कर रह हो तो धनयोग बनता है. इसी तरह से 5,9,11 भावों के स्वामी भी धन योग बनाते हैं. यदि धनयोग शुभ भावों में बन रहा है तो धनयोग में शामिल ग्रहों की दशा-अन्तर्दशा में जातक को धन की प्राप्ति अवश्य होती है.

#धनिष्ठा नक्षत्र - Dhanishtha Nakshtra
धनिष्ठा नक्षत्र मकर राशि में 23 अंश 20 कला से लेकर कुंभ राशि में 6 अंश 40 कला तक रहता है. क्रान्तिवृ्त्त से 31 अंश 55 कला 7 विकला उत्तर में और विषुवत रेखा से 14 अंश 35 कला 5 विकला उत्तर में स्थित है. धनिष्ठा नक्षत्र उलूपी तारा मंडल का सदस्य है जो, श्रवण नक्षत्र से 15 अंश पर उत्तर पूर्व में स्थित है. ये चार तारों का समूह ढोल या मृ्दंग की आकृ्ति का आभास देता है. धनिष्ठा नक्षत्र का प्राचीन नाम श्रविष्ठा था.

धनिष्ठा के प्रथम दो चरण मकर राशि में तो बाद के दो चरण कुंभ राशि में पड़ते हैं. निरायन सूर्य 6 फरवरी को धनिष्ठा नक्षत्र में प्रवेश करता है. उस समय इस नक्षत्र को सूर्योदय के समय प्रात: काल पूर्वी क्षितिज पर देखा जा सकता है. सितम्बर मास में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के मध्य उत्तरी आकाश में इसे शिरो बिन्दु पर देख सकते हैं. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह मंगल होता है.

धनिष्ठा शब्द- धन+इष्ठन के योग से बना है. विद्वानों ने ढो़ल या मृ्दंग को धनिष्ठा नक्षत्र का प्रतीक चिह्न माना है. दोनों वाद्य भीतर से खोखले हैं. चमडे़ के आवरण पर थाप पड़ने से ध्वनि उत्पन्न होती है. मृ्दंग या ढोल का प्रयोग उत्सवों में गाने-बजाने के लिए होता है. मन्दिरों में भी इनका प्रयोग आरती के समय होता है. कुछ विद्वान धनिष्ठा नक्षत्र में भगवान शिव का डमरु देखते हैं.

विद्वानों ने आठ वस्तुओं को धनिष्ठा नक्षत्र का देवता माना है. " वसु " का अर्थ है उत्कृ्ष्ट, श्रेष्ठ मणि व रत्न, धन - वैभव, समृ्द्धि, कुबेर या शिव. धरती रत्नों को धारण करने से वसुन्धरा कहलाती है. आठ प्रकार के वसु हैं - (1) आप (2)ध्रुव (3)सोम (4) धर (5) अनिल (6) अनल (7) प्रत्यूष (8) प्रभास. कुछ अन्य विद्वानों ने महादेव शिव को धनिष्ठा नक्षत्र का देवता माना है. नटराज शिव को संगीत व नृ्त्य का देवता माना गया है. `

धनिष्ठा नक्षत्र के मूल स्वभाव को ध्यान में रखकर वैदिक ऋषियों ने इसे सक्रिय या क्रियाशील नक्षत्र माना है. धनिष्ठा नक्षत्र में एक संदेश छिपा है कि "आप इस संसार को अधिक बेहतर व सुखद बनाने के लिए धरती पर आए हैं." इस नक्षत्र को भूमिहर किसान, शिल्पी या सेवक जाति का माना जाता है. ऎसा इस लिए हो सकता है कि धनिष्ठा नक्षत्र की दोनो राशियों, मकर व कुम्भ, का संबंध शनि से है और शनि का संबंध सेवक वर्ग से अधिक है.

धनिष्ठा नक्षत्र को स्त्री नक्षत्र माना जाता है. क्योंकि गीत-संगीत, नृ्त्य अधिकतर स्त्रियों के गुण हैं. धनिष्ठा नक्षत्र का अंग पीठ व गुदा को माना गया है. मेरुदंड का संबंध शनि व मकर राशि से जोडा़ जाता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह मंगल ग्रह अग्नि प्रधान होने से धनिष्ठा को पित्त प्रकृ्ति का माना गया है. इस नक्षत्र की दिशा वायव्य कोण या उत्तर-पश्चिम दिशा को धनिष्ठा की दिशा माना गया है. कुछ विद्वान मंगल व राशिपति शनि होने से मंगल की दक्षिण दिशा तथा शनि की पश्चिम दिशा प्रभावी को मानते हैं.

धनिष्ठा नक्षत्र तमोगुणी नक्षत्र है. इस नक्षत्र का संबंध आकाश तत्व से है. इस नक्षत्र को राक्षस गण माना गया है. क्योंकि इस नक्षत्र का संबंध मंगल व शनि दो तमोगुणी ग्रहों से है. धनिष्ठा ऊर्ध्वमुखी नक्षत्र है. इसे चर या चल नक्षत्र भी कहते हैं.

श्रवण मास के बीच वाले नौ दिन, कृ्ष्ण पक्ष की दशमी से श्रवण शुक्ल पक्ष की तृ्तीया या हरियाली तीज तक, को धनिष्ठा नक्षत्र से जोडा़ गया है. सभी मासों के दोनों पक्षों की अष्टमी तिथि को धनिष्ठा ऩक्षत्र की तिथि स्वीकार किया है.

धनिष्ठा ऩक्षत्र के प्रथम चरण का नामाक्षर 'गा' है. द्वितीय चरण का नामाक्षर 'गी' है. तृ्तीय चरण का नामाक्षर 'गू' है. चतुर्थ चरण का नामाक्षर 'गे' है. इस नक्षत्र की योनि सिंह योनि है. विद्वानों ने इस नक्षत्र का गोत्र ऋषि अंगिरा को माना है. अंगिरा का अर्थ है सुतप्त, आग का गोला या दुष्ट व दोषों को जलाकर राख करने वाला. धनिष्ठा में मंगल का बल, पराक्रम व संघर्ष शक्ति निश्चय ही उसे अंगिरा का एक योग्य वंशज बनाती है.


#धनु राशि - Dhanu Rashi[Sagittarius Sign]
Imageयह भचक्र और कालपुरुष की नौवीं राशि है. इस राशि का स्वामी ग्रह बृ्हस्पति है. इस राशि का रंग पीला है. इस राशि में एक योद्धा सामने की ओर धनुष - बाण लिए हुए है और राशि का बाकी हिस्सा घोड़े का शरीर है अर्थात धनु राशि का प्रथम हिस्सा मनुष्य का है पिछला हिस्सा घोड़े का है. इस राशि के अधिकार क्षेत्र में दोनों जंघाएं शरीर का नाड़ी चक्र, धमनी चक्र आदि आते हैं. यह राशि अधिकार प्रिय, करुणामयी, मर्यादा की इच्छुक राशि है.

यह द्विस्वभाव राशि है. विषम है. यह पुरुष संज्ञक राशि है. स्वभाव से क्रूर राशि है. यह अग्नि तत्व राशि है. यह पृ्ष्ठोदय राशि है. यह शुष्क और निर्जल राशि है. यह राशि रात्रि बली राशि है. इस राशि की पित्त प्रवृ्त्ति है. इसका शरीर समान है. इसके आदि में दो पैर और अंत में चार पैर हैं. अन्य मत से इस राशि के पूर्वार्द्ध में नर है और उत्तरार्ध में पशु है. यह मध्य संतति राशि है. यह जीव राशि है. इस राशि का वर्ण क्षत्रिय है. यह सतगुणी राशि है.

इस राशि की दिशा पूर्व है. इस राशि का निवास स्थान राजगृ्ह है. यह राशि सैंधव देश या सिंध देश की स्वामी है. यह राशि मार्गशीर्ष मास में शून्य रहती है. इस राशि के अन्य नाम जैव, धनु, तौक्षिक, चाप, धन्वी, शरासन है. इस राशि में मूल नक्षत्र के चार चरण, पूर्वाषाढा़ नक्षत्र के चार चरण और उत्तराषाढा़ नक्षत्र का एक चरण आते हैं. इस राशि में ये, यो, भा, भी, भू, ध, फ, ढ़, भे चरणाक्षर आते हैं.

इस राशि के पीड़ित होने पर जंघाओं में कमजोरी हो सकती है. वृ्क्ष, जल, काष्ठ या शस्त्र भय हो सकता है.

#धृ्तिमान योग - Dhritiman Yog
इस योग वाला जातक धनवान, भाग्यवान, सुखी, गुणवान होता है. विद्वान, शील,नीतिवान, सभा में बुद्धिमत्ता व चतुरता से बोलने वाला होता है. साथ ही पर स्त्री के धन से धनी होता है.

#ध्रुव योग - Dhruv Yog
इस योग का जातक दीर्घायु, विशेष धनी व कीर्तिवान होता है. सभी का प्रिय, बुद्धि स्थिर रहती है, कार्य भी स्थिर करता है. जातक के मुख में सरस्वती का वास होता है.

#नक्षत्र राशि विभाग - Division of Nakshatra in Signs
108 चरणों को मिलाकर 27 नक्षत्र बनते हैं अथवा हम कह सकते हैं कि 27 नक्षत्रों में 108 नवांश होते हैं. 9 नक्षत्र चरण की एक राशि बनती है. इस प्रकार 12 राशियों में 108 चरण होते है या 108 को 12 से भाग दें तो हमें 9 का अंक प्राप्त होता है. सभी प्रकार से हमें 12 राशि और एक राशि में 9 चरण प्राप्त होते हैं.

मेष राशि में अश्विनी के 4 चरण, भरणी के 4 चरण और कृत्तिका नक्षत्र का 1 चरण आता है.

वृष राशि में कृत्तिका के 3 चरण, रोहिणी के 4 चरण और मृगशिरा नक्षत्र के 2 चरण आते हैं.

मिथुन राशि में मृगशिरा के 2 चरण, आर्द्रा के 4 चरण और पुनर्वसु नक्षत्र के 3 तीन चरण आते हैं.

कर्क राशि में पुनर्वसु का 1 चरण, पुष्य के 4 चरण और अश्लेषा नक्षत्र के 4 चरण आते हैं.

सिंह राशि में मघा के 4 चरण, पूर्वाफाल्गुनी के 4 चरण और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का 1 चरण आते हैं.

कन्या राशि में उत्तराफाल्गुनी के 3 चरण, हस्त के 4 चरण, चित्रा नक्षत्र के 2 चरण आते हैं.

तुला राशि में चित्रा के 2 चरण, स्वाति के 4 चरण और विशाखा नक्षत्र के 3 चरण आते हैं.

वृश्चिक राशि में विशाखा का 1 चरण, अनुराधा के 4 चरण और ज्येष्ठा नक्षत्र के 4 चरण आते हैं.

धनु राशि में मूल के 4 चरण, पूर्वाषाढा़ के 4 चरण, उत्तराषाढा़ नक्षत्र का 1 चरण आता है.

मकर राशि में उत्तराषाढा़ के 3 चरण, श्रवण के 4 चरण और धनिष्ठा नक्षत्र के 2 चरण आते हैं.

कुम्भ राशि में धनिष्ठा के 2 चरण, शतभिषा के 4 चरण और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के 3 चरण आते हैं.

मीन राशि में पूर्वाभाद्रपद का 1 चरण, उत्तराभाद्रपद के 4 चरण और रेवती नक्षत्र के 4 चरण आते हैं.

#भद्रा का स्वरूप - Features of Bhadra
भद्रा का रुप बहुत काला, भयानक आकृ्ति, नाक, ठुड्डी बहुत लम्बी-चौडी़, मुख से लपटें निकालती हुई है. भद्रा समस्त कार्यों का नाश करती है. इसे अशुभ माना गया है.

अन्य मत से कृ्ष्ण पक्ष में यह वृ्श्चिकी व शुक्लपक्ष में सर्पिणी होती है. इसलिए वृ्श्चिक का पिछला भाग व सर्पिणी का अगला भाग वर्जित करते हैं.

#वर्ष कुण्डली की दशाएं - Dasha Cycle of Varsh Kundali
वर्ष कुण्डली में मुख्य रुप से तीन प्रकार की दशाओं का प्रयोग किया जाता है.

  1. विंशोत्तरी मुद्दा दशा
  2. योगिनी मुद्दा दशा
  3. पात्यायनी दशा
उपरोक्त तीनों दशाओं का ही प्रयोग वर्ष कुण्डली के फलित के लिए किया जाता है, परन्तु पात्यायनी दशा तीनों दशाओं से विशेष तौर पर फलित के लिए प्रयोग में लाई जाती है.

#वस्तुओं के स्थिर कारक - [Fixed Karak of The Objects]
सूर्य - राजत्व, रक्त वस्त्र, राज्य, माणिक्य, वन, पर्वत, क्षेत्र, पिता आदि.

चन्द्र - माता, मन, गन्ध, रस, ईख, गेहूँ, पृ्थ्वी, चाँदी, ब्राह्मण, कपास.

मंगल - हिम्मत, मकान, भूमि, अग्नि, रोग, चोरी, शील, भाई, राज्य, शत्रु.

बुध - ज्योतिष,गणित,डॉक्टरी,बीमा एजेंसी,बुद्धि,हास्य,नृ्त्य,गाना,लेखन,व्यापार.

गुरु - अपना कार्य, यज्ञ कर्म, धर्म, ब्राह्मण, देअवता, पुत्र, मित्र, सोना, पालकी.

शुक्र - पत्नी,काम शास्त्र,सुंदरता,यौवन,ऎश्वर्य, आभूषण, काव्य, नृ्त्यगान, सिनेमा,टेलीविजिन.

शनि - दु:ख, शूल, रोग,मृ्त्यु,यात्रा,आयु,दास-दासी,नीलम,भैंस, घोडा़,ऊंट,हाथी,शिल्प,बाल

तेल, शस्त्र,वैराग्य.

राहु - प्रयाण समय ( यात्रा या मृ्त्यु ) सर्प,रात्रि,सट्टा,खोई हुई वस्तु,छिपा धन.

केतु - व्रण, चर्मरोग, अतिशूल, दु:ख, मूर्ख.

#शनि की ढै़य्या - Dhaiyya of Saturn
जब चन्द्र राशि से, चतुर्थ भाव और अष्टम भाव में शनि का गोचर होता है, तब इसे शनि की ढै़य्या कहते हैं. ढैय्या का अर्थ है ढा़ई वर्ष अर्थात शनि ढा़ई वर्ष तक चन्द्रमा से चतुर्थ और अष्टम भाव में गोचर करेगा. इसे कण्टक शनि भी कहते हैं.

#इक्कबाल योग - Ikkabal Yog
वर्ष कुण्डली में यदि सभी ग्रह 1,2,4,5,7,10 और 11वें भावों में स्थित हों अर्थात सभी ग्रह केन्द्र और पणफर में स्थित हों तो इक्कबाल योग बनता है. इक्कबाल का अर्थ है प्रतिष्ठा, सम्मान व प्रसिद्धि. कुण्डली में केन्द्र में स्थित ग्रह बलिष्ठ होते हैं. कुण्डली में इक्कबाल योग यदि बन रहा है तो भाग्य तथा शुभता का सूचक है.

#इत्थशाल योग - Itthashal Yog
कई विद्वान 'इसे मुत्थशिल योग' भी कहते हैं.

वर्ष कुण्डली में दो ग्रह परस्पर ऎसे भावों में स्थित हों, जहाँ से वह एक-दूसरे को देखते हों. दोनों ग्रहों में तेज गति वाले ग्रह के अंश कम हों और मंदगति वाले ग्रह के अंश अधिक हों, साथ ही इन दोनों ग्रहों के अंशों का अंतर इनके दीप्तांशों से कम हो, तब हम कह सकते है कि दोनों ग्रह इत्थशाल योग में शामिल हैं.

उदाहरण के तौर पर हम शनि और मंगल के दीप्तांशों को लेते हैं. शनि के दीप्तांश 9 होते हैं तथा मंगल के दीप्तांश 8 होते हैं. दोनों ग्रहों के दीप्तांशों का योग 17 है. 17 को 2 से भाग देने पर 8.5 संख्या प्राप्त होती है. अब हम मान लेते हैं कि शनि का भोगांश 11 अंश 22 कला है तथा मंगल का भोगांश 9 अंश 15 कला है. दोनों ग्रहो के भोगांश का अंतर ज्ञात करते हैं. दोनो ग्रहों के भोगांश का अंतर 2 अंश 7 कला है.

इस प्रकार दोनों ग्रहों के भोगांश का अंतर उनके दीप्तांशों से कम है. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शनि और मंगल के मध्य इत्थशाल योग बन रहा है. इत्थशाल योग में शामिल मंदगामी ग्रह शनि का भोगांश, मंगल के भोगांश से अधिक है और दोनों में दृ्ष्टि संबंध भी होना आवश्यक है तभी एक बलिष्ठ इत्थशाल योग बनता है. इत्थशाल योग के तीन प्रकार हैं.

  1. वर्तमान इत्थशाल
  2. पूर्ण इत्थशाल
  3. भविष्यत इत्थशाल

#इन्दुवार योग - Induvar Yog
वर्ष कुण्डली में सभी ग्रह यदि 3,6,9 और 12वें भावों में स्थित हो अर्थात अपोक्लिम भावों में स्थित हों तब इन्दुवार योग बनता है.

वर्ष कुण्डली में यह योग भाग्यहीनता का सूचक है. 3,6,9,12भावों में ग्रह क्षीणता युक्त होते हैं. इस योग का अध्ययन सावधानी पूर्वक करना चाहिए क्योंकि अशुभ ग्रहों के लिए 3,6,11 भावों में अच्छा माना गया है.


#इशराफ योग - Ishraf Yog
कुछ विद्वान इसे मुशरिफ योग भी कहते हैं.

यह योग इत्थशाल योग के ठीक विपरीत होता है. परस्पर दो ग्रहों में दृ्ष्टि हो, परन्तु शीघ्रगामी ग्रह के अधिक अंश हों तथा मंदगामी ग्रह के अंश कम हों. इस प्रकार शीघ्रगामी ग्रह आगे ही बढ़ता रहेगा

#ईशराफ योग - Isharaf Yog
कुछ विद्वान इसे मुशरिफ योग भी कहते हैं.

यह योग इत्थशाल योग के ठीक विपरीत होता है. परस्पर दो ग्रहों में दृ्ष्टि हो, परन्तु शीघ्रगामी ग्रह के अधिक अंश हों तथा मंदगामी ग्रह के अंश कम हों. इस प्रकार शीघ्रगामी ग्रह आगे ही बढ़ता रहेगा ओर दोनों ग्रहों का मिलन नहीं होगा और ईशराफ योग बनेगा. यह योग अच्छा नहीं होता है.

#काल चक्र दशा - Kaal Chakra Dasha
यह राशि दशा है. चन्द्रमा जिस नवांश में है यदि उस भाव का स्वामी बली है तो कालचक्र दशा का प्रयोग करना चाहिए. जिस राशि की दशा चल रही हो उस राशि के स्वामी के अनुसार दशा का फलादेश करना चाहिए. काल चक्र दशा में राशियों के दशा वर्ष होते हैं.

राशि - दशा वर्ष

मेष, वृ्श्चिक - 7 वर्ष

वृ्ष, तुला - 16 वर्ष

कर्क - 21 वर्ष

सिंह - 5 वर्ष

मिथुन, कन्या - 9 वर्ष

धनु, मीन - 10 वर्ष

मकर, कुम्भ - 4 वर्ष

#काल पुरुष का भीतरी शरीर - [Internal Body Parts of Kaal Purush]
कालपुरुष का भीतरी शरीर

राशि - अंग

मेष - मस्तिष्क

वृ्ष - कंठ-टॉन्सेल आदि

मिथुन - फेफडे़, श्वास संबंधी अंग

कर्क - दिल,ह्रदय

सिंह - पाचन शक्ति

कन्या - आँतें, पेट के अंदर का निचला हिस्सा

तुला - गुर्दे

वृ्श्चिक - मूत्रेंद्रिय, जननेंद्रिय

धनु - स्नायुमंडल तथा रक्तवाहक नसें

मकर - हड्डियाँ तथा जोड़

कुंभ - रक्त तथा रक्त प्रवाह मीन - शरीर में कफ उत्पाद

#गण्ड योग - Gund Yog
इस योग वाला जातक दुराचारी, क्लेश भोगी, योगी होता है. शूरवीर, विचारों में दृ्ढ़, कठोर स्वभाव, सिर बडा़ होता है. देह छोटी व बहुत मोटी है.

#गण्डमूल नक्षत्र - Gundamool Nakshatra
मूल नक्षत्र, ज्येष्ठा नक्षत्र, अश्लेषा नक्षत्र, मघा नक्षत्र, रेवती नक्षत्र व अश्विनी नक्षत्र ये 6 नक्षत्र सारे के सारे मान में अर्थात् जितने समय तक नक्षत्र रहें वह गण्डमूल कहलाता है. इनमें जन्म होने पर प्राय: अशुभ होता है. तब शांति विधान अनिवार्य रूप से करवाना चाहिए.

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मूल नक्षत्र में केतु के बाकी दो नक्षत्र भी लेगें. अश्लेषा नक्षत्र में बुध के बाकी दो नक्षत्रों की गणना भी उपरोक्त तालिका के अनुसार होगी.

#गण्डात और अभुक्त मूल नक्षत्र - Gandat And Abhukt Mool Nakshatra
रेवती नक्षत्र के अन्त की 2 घडी़ ( 48 मिनट ) व अश्विनी नक्षत्र् के प्रारंभ की 2 घडी़ कुल 1 घंटा 36 मिनट का गण्डात होत है. इनमें भी ज्येष्ठा नक्षत्र व मूल नक्षत्र की आदि अन्त की आधी-आधी अभुक्त मूल है. किसी के मत से ये काल 1-1 घडी़ ही है. इसी तरह ज्येष्ठा नक्षत्र की अन्त की व मूल नक्षत्र की आदि की और अश्लेषा नक्षत्र के अन्त की व मघा नक्षत्र के आदि की 2-2 घडि़याँ ( 1 घंटा 36 मिनट ) गण्डात कहलाती है. यह नक्षत्र गण्डात है. नक्षत्र गण्डात, लग्न गण्डात, तिथि गण्डात तीनों एक साथ होने पर अधिक अशुभता देते है.

#गुण मिलान का निर्णय - Gun Milan ka Nirnay
गुण मिलान में नाडी़ मिलान एवं भकूट मिलान शुद्ध हों तथा गुण 20 से अधिक मिलते हों तब विवाह किया जा सकता है.25 या इससे अधिक गुण होने पर मिलान उत्तम होता है. गुण मिलान में यदि 20 से कम गुण मिलते हों तो वर्ग का विचार अवश्य करना चाहिए वर और कन्या मित्र वर्ग के हों तो 18 गुण मिलने पर भी विवाह कर सकते हैं.

#गुरु पुष्य योग - Guru Pushya Yog
गुरुवार के दिन पुष्य नक्षत्र होने से गुरु पुष्य योग बनता है. सबसे अच्छा योग है परंतु विवाह के लिये शुभ नहीं है.

#गृ्हारम्भ मुहूर्त - Griharambha Muhurta
गृ्ह निर्माण का आरम्भ मंगलवार, रविवार, रिक्ता तिथि (4,9,14 तिथियाँ), चर लग्न तथा धनिष्ठादि पंचकों का त्याग करना चाहिए. विवाह में जिन पांच बाणों का उपयोग किया जाता है, उनमें से मृ्त्यु, अग्नि तथा राज बाण घर बनाने के मुहूर्त में नहीं होने चाहिए.

मुहूर्त की कुण्डली में आठवें तथा बारहवें भाव में शुभ ग्रह ना हों. तीसरे, छठे, एकादश भावों में पाप ग्रह हों तो गृ्हारम्भ का मुहूर्त शुभ होता है. पंचक का निषेध खम्बा या पिल्लर उठाकर मकान बनाना हो तो करना है. यदि सीधी नींव भरकर दीवार खडी़ करनी हो तब पंचक का निषेध नहीं करना चाहिए.

स्थिर या द्विस्वभाव लग्न में, केन्द्र में शुभ ग्रह हों या लग्नेश हो और अष्टम में तथा लग्न में पाप ग्रह ना हों. लग्न में पाप वर्ग भी ना हो तो ठीक है.

#गोचर - Gochar
गोचर जन्म के समय कुण्डली में जो ग्रह स्थित होते हैं वह जीवन भर के लिए स्थाई हो गए जातक के लिए परन्तु ग्रह तो हमेशा गतिमान रहते हैं. हमेशा गति में रहते हैं. स्थाई ग्रहों के ऊपर से या कुण्डली के विभिन्न भावों में ग्रह गतिशील रहते हैं. इसका हम लग्न से और चन्द्र से विश्लेषण करते हैं और ग्रहों के इस भ्रमण को ही गोचर कहते हैं.

गोचर के विषय में भी मतान्तर है. कई विद्वान चन्द्र राशि से ग्रहों का गोचर देखने की बात करते हैं तो कुछ विद्वान लग्न से. परन्तु हमारे विचार से चन्द्र और लग्न दोनों से ही गोचर का विचार करना चाहिए.

#गोचर - Gochar[Transit]
जन्म के समय कुण्डली में जो ग्रह स्थित होते हैं वह जीवन भर के लिए स्थाई हो गए जातक के लिए परन्तु ग्रह तो हमेशा गतिमान रहते हैं. हमेशा गति में रहते हैं. स्थाई ग्रहों के ऊपर से या कुण्डली के विभिन्न भावों में ग्रह गतिशील रहते हैं. इसका हम लग्न से और चन्द्र से विश्लेषण करते हैं और ग्रहों के इस भ्रमण को ही गोचर कहते हैं.

गोचर के विषय में भी मतान्तर है. कई विद्वान चन्द्र राशि से ग्रहों का गोचर देखने की बात करते हैं तो कुछ विद्वान लग्न से. परन्तु हमारे विचार से चन्द्र और लग्न दोनों से ही गोचर का विचार करना चाहिए.

#ग्रह मैत्री - Grah Maitri [Friendship of Planets]
ग्रह मैत्री के कुल अंक पाँच होते हैं. जब वर एवं कन्या दोनों की राशियों के स्वामी ग्रह परस्पर मित्र हैं या दोनों के राशि स्वामी एक ही ग्रह है तब दम्पति में प्रेम बना रहता है. यदि राशि स्वामी परस्पर शत्रु हों तो विचार नहीं मिलते हैं. विचारों में मतभेद और विवाद रहता है.

यदि दोनों परस्पर मित्र हैं तो 5 अंक मिलते हैं.

एक सम दूसरा मित्र है तो 4 अंक.

एक मित्र दूसरा शत्रु है तो 1 अंक.

परस्पर सम 3 अंक.

एक सम दूसरा शत्रु तो 1/2 अंक.

परस्पर शत्रु 0 अंक.

यदि दोनों के राशि स्वामी एक ही है तब भी 5 अंक मिलते हैं.

#गोशना योग - Goshana Yog
वर्ष कुण्डली में लग्न से आठवें स्थान का स्वामी नवम, षष्ठ या पंचम भाव में हो तथा दूसरे भाव का स्वामी पाप ग्रह के नवांश में हो तो उस वर्ष गोशना योग बनता है. यह एक अशुभ योग है. धन हानि की पूरी संभावना उस वर्ष में रहती है.

#ग्रस्त ग्रह - Grast Grah
सूर्य, अमावस्या के दिन राहु/ केतु अक्ष पर हो या राहु/ केतु युक्त हो तब सूर्य की यह अवस्था ग्रस्त अवस्था कहलाती है.

#ग्रह - Graha [Planets]
हिन्दु ज्योतिष में हम केवल नौ ग्रह को मानते हैं. सूर्य और चन्द्रमा वास्तव में ग्रह नहीं हैं. फिर भी इनके अत्यधिक प्रभाव से इन्हें ग्रह माना जाता है. यूरेनस, नैपच्यून और प्लूटों की असीम दूरी तथा मनुष्य जीवन पर प्रभाव की कमी के कारण निराधार समझकर इनकी अवहेलना कर देते हैं. परंतु राहु और केतु जो राहु और केतु चन्द्र और सूर्य की कक्षा के कटान बिन्दु होने के कारण दोहरा प्रभाव रखते है, इसलिये हम इन्हें ग्रह मानते है.

इस प्रकार कुल नौ ग्रह हैं

सूर्य ग्रह

चन्द्र ग्रह

मंगल ग्रह

बुध ग्रह

बृ्हस्पति ग्रह

शुक्र ग्रह

शनि ग्रह

राहु ग्रह

केतु ग्रह

#ग्रह बल - Grah Bal
कुंडली में कौन सा ग्रह बली है या कौन सा ग्रह निर्बल है यह जानने के लिए ग्रहों के बल को गणितीय विधि से निकाला जाता है. 6 प्रकार के ग्रह बल होते है. सभी बलों को निकालने के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचा जाता है. बलवान ग्रह पूर्ण फल देता है और बलहीन ग्रह फल देने में असमर्थ होता है. 6 प्रकार के बल निम्नलिखित है.

  1. स्थान बल
  2. दिगबल
  3. कालबल
  4. चेष्टाबल
  5. नैसर्गिक बल
  6. दृ्ग बल

#ग्रह मैत्री - Grah Maitri [Friendship of Planets]
ग्रह मैत्री के कुल अंक पाँच होते हैं. जब वर एवं कन्या दोनों की राशियों के स्वामी ग्रह परस्पर मित्र हैं या दोनों के राशि स्वामी एक ही ग्रह है तब दम्पति में प्रेम बना रहता है. यदि राशि स्वामी परस्पर शत्रु हों तो विचार नहीं मिलते हैं. विचारों में मतभेद और विवाद रहता है.

यदि दोनों परस्पर मित्र हैं तो 5 अंक मिलते हैं.

एक सम दूसरा मित्र है तो 4 अंक.

एक मित्र दूसरा शत्रु है तो 1 अंक.

परस्पर सम 3 अंक.

एक सम दूसरा शत्रु तो 1/2 अंक.

परस्पर शत्रु 0 अंक.

यदि दोनों के राशि स्वामी एक ही है तब भी 5 अंक मिलते हैं.

#ग्रह युद्ध - Grah Yuddh [War of the planets]
जब दो ग्रहों की युति किसी भाव में होती है और उन दोनों ग्रहों की आपस में 1 डिग्री या इससे भी कम दूरी है तो दोनों ग्रहों में ग्रह युद्ध है. ग्रह युद्ध में विजयी ग्रह बली एवं फल देने में समर्थ तथा पराजित ग्रह बलहीन एवं फल देने में असमर्थ होता है. इस युद्ध में कौन सा ग्रह विजयी होगा, इसमें मतभेद है. प्राय: ऎसा माना जाता है कि जिस ग्रह का भोगांश कम होगा वह ग्रह युद्ध में विजयी होगा.

#ग्रहण - Grahan [Eclipse]
जब किसी खगोलीय पिण्ड का पूर्ण या आंशिक रूप से ढ़क जाना या पीछे आ जाना होता है तो उसे ग्रहण कहते है. जब कोई खगोलीय पिण्ड किसी अन्य पिण्ड की छाया में आ जाता है, या जब किसी खगोलीय पिण्ड का प्रकाश अन्य पिण्ड द्वारा बाधित होकर नजर नही आता, तब ग्रहण की स्थिति होती है. सूर्य प्रकाश का पिण्ड है जिसके इर्द-गिर्द सारे ग्रह घूम रहे हैं. अपनी कक्षाओं में घूमते हुए जब तीन पिण्ड एक रेखा में आ जाते हैं तब ग्रहण होता है.

#ग्रहों का उदय एवं अस्त - [Rising and Combustion of the planets]
अपनी कक्षा में भ्रमण करते हुए जब कोई ग्रह सूर्य के नजदीक आ जाता है तो पृ्थ्वी से दिखाई नहीं देता तथा अदृ्ष्य हो जाता है. जब ग्रह सूर्य से दूर होता हुआ दृ्ष्टि गोचर हो जाए तो उसे उदय कहते है. विभिन्न ग्रह सूर्य से भिन्न-भिन्न दूरियों पर अस्त होते है.

#ग्रहों की उच्च-नीच राशि - Graho ki Uchch-Neech raashi
ग्रह निम्नलिखित राशियों में उच्च तथा नीच के होते हैं.

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#ग्रहों की मूल त्रिकोण राशियाँ - Graho ki Mool Trikon Rashiyan
ग्रह - मूल त्रिकोण राशि

सूर्य - सिंह

चन्द्र - वृ्ष

मंगल - मेष

बुध - कन्या

गुरु - धनु

शुक्र - तुला

शनि - कुंभ

#ग्रहों के दीप्तांश - Graho ke Diptansh
सूर्य - 15

चन्द्र - 12

मंगल - 8

बुध - 7

बृहस्पति - 9

शुक्र - 7

शनि - 9


#ग्रहों के परमोच्च अंश - Graho ke Paramochcha Ansha
ग्रह - परमोच्च अंश

सूर्य - 10 डिग्री

चन्द्र - 3 डिग्री

मंगल - 28 डिग्री

बुध - 15 डिग्री

गुरु - 5 डिग्री

शुक्र - 27 डिग्री

शनि - 20 डिग्री

#ग्रीनविच औसत समय - Greenwich Mean Time
एक औसत दिन 24 घण्टे का होता है. ग्रीनविच रेखा का औसत सौर समय, सार्वदेशिक समय चुन लिया गया है. जब औसत सूर्य ग्रीनविच रेखा को पार करता है तब ग्रीनविच समय के अनुसार मध्याह्न के 12:00 बजे का समय होता है. विश्व के सभी देश इस समय को मानते हैं. सौर ग्रीनविच, औसत समय से ज्यादा या कम हो सकता है अर्थात (+) या (-) में होता है.

#घटिका लग्न - Ghatika Lagna
जन्म लग्न को 12 से भाग करें. भागफल को छोड़कर शेषफल में जमा करें. जन्म लग्न से गिनने पर घटिका लग्न मिलता है. शेषफल का दशमलव के उपरान्त की संख्या को अंश में से घटाने पर स्पष्ट देशान्तर आता है.

#जन्म कुण्डली - Janm Kundali
जातक की जन्म कुण्डली को पहला वर्ग कहा जाता है. इस कुण्डली से जातक के शरीर, उसकी संरचना एवं स्वास्थ्य के बारे में विस्तार से अध्ययन किया जाता है. फलित ज्योतिष का यह सबसे महत्वपूर्ण वर्ग है. यह वर्ग अपने आप में पूर्ण है. अन्य वर्ग जन्म कुण्डली के पूरक होते है.

#जन्म लग्नपति - Janm Lagnapati
जन्म कुण्डली में जो ग्रह लग्न राशि का स्वामी है, वह जन्म लग्नपति कहलाता है.

#जया तिथि - Jaya Tithi
शुक्ल पक्ष व कृ्ष्ण पक्ष की तृ्तीया तिथि, अष्टमी तिथि तथा त्रयोदशी तिथि को जया तिथि कहते हैं.

जया तिथि में सैन्य संगठन, सैनिकों की शिक्षा, शस्त्र निर्माण, यात्रा उत्सव, गृ्ह का आरम्भ, गृ्ह प्रवेश, औषधकर्म और व्यापार जैसे कार्यों का शुभारम्भ कर सकते हैं.

#जल पथ सहम - Jal Path Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- कर्क 15 अंश - शनि + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- शनि - कर्क 15 अंश + लग्न

#जामित्र दोष - Jamitra Dosh
विवाह के दस दोषों में से एक दोष जामित्र दोष भी है.

सप्तम भाव या सप्तम स्थान को जामित्र भी कहते हैं. इस प्रकार इस भाव से संबंधित दोष को यामित्र या जामित्र दोष कहते हैं. चन्द्रमा से सप्तम स्थान या लग्नसे सप्तम स्थान में विवाह के समय किसी भी ग्रह की स्थिति से यह दोष होता है. साथ ही चन्द्रमा पापयुक्त ना हो और पाप ग्रह चन्द्र नक्षत्र में ना हों.

विवाह लग्न या चन्द्रमा से सप्तम भाव में जो ग्रह स्थित है, यदि वह ग्रह विवाह लग्न या चन्द्र से 55वें नवांश में स्थित हो तो जामित्र दोष का अधिक सूक्ष्म प्रभाव होता है. पापी ग्रह द्वारा उत्पन्न होने वाला जामित्र दोष अधिक अशुभ होता है.

यदि विवाह लग्न की कुण्डली में चन्द्रमा बली हो और जामित्र दोष बनाने वाला ग्रह शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तब जामित्र दोष का अशुह प्रभाव कम हो जाता है. यदि चन्द्रमा और बृहस्पति बली होकर विवाह लग्न के सप्तम भाव में स्थित हों तब जामित्र दोष नहीं होता है.

विवाह लग्न में चन्द्रमा से सप्तम भाव में यदि बुध स्थित हो तब वह भी शुभ फल देता है.

#जीव योग - Jeev Yog
वर्ष कुण्डली में तृ्तीय या एकादश भाव में सूर्य हो और चौथे तथा सातवें भाव में शुभ ग्रह हों तो जीव योग बनता है.

जिस वर्ष यह योग बनता है उस वर्ष जातक को संतान सुख, बहुत अधिक धन, व्यापार में वृद्धि तथा यश-सम्मान की प्राप्ति होती है. यह एक शुभ योग है.

#जीव सहम - Jeev Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- शनि - बृ्हस्पति + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- बृ्हस्पति - शनि + लग्न

#जैमिनी कारक - Jaimini Karaka
जैमिनी में प्रत्येक कुण्डली के अनुसार कारक बदलते रहते हैं. यह इस पद्धति की मुख्य बात है. कोई भी ग्रह किसी का भी कारक हो सकता है. कारक का निर्धारण ग्रह के अंशों से होता है. सात मुख्य कारक होते हैं.

  1. आत्म कारक
  2. अमात्यकारक
  3. भ्रातृ कारक
  4. मातृ कारक
  5. पुत्र कारक
  6. ज्ञाति कारक
  7. दारा कारक

#जैमिनी ग्रह बल - Jaimini Grah Bal
जैमिनी ज्योतिष में भी ग्रहों का बल ज्ञात किया जाता है. ग्रह उच्च भाव, मूल त्रिकोण भाव, स्वग्रही, मित्रभाव, सम भाव, शत्रु भाव, अथवा नीच भाव में से कहीं भी हो सकते हैं. इन भावों में ग्रह होने पर ग्रहों को अलग-अलग षष्टियाँश बल प्राप्त होता है. मित्र, सम, शत्रु आदि पराशरी सिद्धांत के अनुसार ही है.

#जैमिनी ज्योतिष - Jaimini jyotish [Jaimini Astrology]
जैमिनी पद्धति की अपनी विशिष्ट पहचान है. कारकों की प्रस्तावना की, आयु निर्धारण की विशेष पद्धति जो असाधारण है, ग्रहों के बल ज्ञात करने की सरलतम विधि विभिन्न दशाओं के प्रकार, गर्भाधान कुण्डली पर बल देना, आरूढ़ लग्न की श्रेष्ठता और कारकांश को दी गई विशेष महत्ता एवं उसका किसी की जीविका के निर्धारण में महत्त्व आदि ने इस सम्पूर्ण पद्धति में अद्वितीय व मौलिकता का समावेश किया है.

जैमिनी कुण्डली में सात स्थिर कारक होते हैं जिसमें राहु/केतु को शामिल नहीं किया जाता. कोई भी ग्रह किसी भी भाव का कारक बन सकता है. कारकों का निर्धारण ग्रहों के अंशों पर आधारित होता है.

#जोवियन वर्ष - Jovian Varsh [Jovian Year]
इसे बृ्हस्पति वर्ष कहते हैं. यह बृ्हस्पति पर आधारित है. यह वह काल है जब बृ्हस्पति एक राशि में भ्रमण करता है.

#ज्ञाति कारक Gyati Karaka
जैमिनी ज्योतिष में पुत्र कारक से कम जिस ग्रह के अंश होते हैं वह ज्ञाति कारक कहलाता है. यह संबंधियों का कारक है. रिश्तेदारों का नैसर्गिक कारक मंगल है. यह छठे भाव का कारक ग्रह है.छठे भाव के सभी प्रकार के कारकत्व ज्ञाति कारक से देखे जाते हैं.

#ज्येष्ठा नक्षत्र - Jyeshtha Nakshatra
ज्येष्ठा नक्षत्र वृ्श्चिक राशि में 16 अंश 40 कला से 30 अंश तक रहता है. यह क्रान्तिवृ्त्त से 4 अंश 34 कला 10 विकला दक्षिण में तथा विषुवत रेखा से 26 अंश 25 कला 31 विकला दक्षिण में स्थित है. ज्येष्ठा एकल तारा नक्षत्र है. लेकिन अनेक विद्वान इसके दोनो ओर के दो तारों को मिलाकर तीन तारे इस समूह में मानते हैं. ज्येष्ठ तारे का रंग लाल होने से यूनानी भाषा में इसे एन्टार्यस अर्थात मंगल ग्रह का प्रतिद्वन्द्वी कहा जाता है. हिन्दी में भी ज्येष्ठा को मंगलारि कहते हैं. इसका अर्थ है मंगल ग्रह का शत्रु.

निरायन सूर्य 2 दिसम्बर को ज्येष्ठा नक्षत्र में प्रवेश करता है. उस समय यह नक्षत्र सूर्य के साथ पूर्वी क्षितिज पर उदय होता है. जुलाई - अगस्त मास में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के मध्य यह नक्षत्र आकाश के शिरोबिन्दु पर होता है. भचक्र के द्वितीय तिहाई भाग का अंतिम नक्षत्र होने से मूल संज्ञक माना जाता है. ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्र में रहता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह बुध है. सभी सभ्यताओं में इस नक्षत्र को आदर से देखा जाता है.

ज्येष्ठ का अर्थ है सबसे बडा़, सर्वोच्च. प्राचीन विद्वानों ने इस नक्षत्र को सर्वोच्च माना था. कुछ विद्वानों का मानना है कि प्राचीन काल में मात्र 18 नक्षत्रों की पहचान हुई थी. उन सभी नक्षत्रों में यह बडा़ व अधिक श्रेष्ठ होने से ज्येष्ठा कहलाया. बाद में 9 नक्षत्र ओर शामिल हो गए परन्तु इस नक्षत्र का नाम नहीं बदला गया. आज भी इस नक्षत्र को ज्येष्ठ नक्षत्र के नाम से बुलाते हैं.

इस नक्षत्र का प्रतीक चिह्न है - दो छोटे तारों के बीच एक मध्य तारा कान का झुमका या तीन मोती वाला लॉकेट जैसा लगता है. ज्येष्ठा नक्षत्र की तीन तारों से बनी आकृ्ति को दैवीय शक्ति से सम्पन्न रक्षा कवच माना गया है. कुछ अन्य विद्वान इसे आदि शक्ति या देवी माँ के कान का झुमका मानते हैं. जगत में व्याप्त शक्तियों के नियंत्रण का प्रतीक चिह्न, ज्येष्ठा नक्षत्र ही है.

कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि सृ्ष्टि के नियमों व रहस्यों का ज्ञान ही सुरक्षा देता है. वेद साहित्य में वर्णित विविध कवच ही राज्य व राजा को सुरक्षा देते हैं. वे ज्येष्ठा नक्षत्र को वेद वर्णित, सुख व सुरक्षा के सिद्ध मंत्रों का अधिष्ठाता मानते हैं. देवराज इन्द्र को ज्येष्ठा नक्षत्र का देवता माना गया है. हजारों वर्षों से वर्षा और अच्छी फसल पाने के लिए, विभिन्न धर्मों में इन्द्र या वर्षा के राजा की पूजा करने की परंपरा चली आ रही है.

ज्येष्ठा नक्षत्र क्रियाशील नक्षत्र है. विद्वानों ने इसे आकाश का सुरक्षा अधिकारी माना है. इस नक्षत्र को शूद्र जाति का माना गया है. स्वर्ग की सेवा व सुरक्षा का दायित्व इन्द्र का है. इसी वजह से शायद विद्वानों ने ज्येष्ठा नक्षत्र को शूद्र जाति का मान लिया हो. इस नक्षत्र को स्त्री नक्षत्र माना है. इसे सबसे बडी़ महारानी या पटरानी माना जाता है.

गर्दन व धड़ का दाहिना भाग ज्येष्ठा का अंग कहलाता है. सिर, हाथ व पाँव को छोड़कर शरीर का ऊपरी हिस्सा धड़ माना जाता है. ज्येष्ठा को वात या वायु प्रधान नक्षत्र माना जाता है. इसका स्वामी ग्रह बुध वात प्रधान ग्रह है. इसलिए वायु संबंधी रोग, अफारा, पेट की गैस या गठिया जैसे रोगों से कष्ट हो सकता है.

विद्वानों ने दक्षिण पश्चिम या नैऋत्य कोण को ज्येष्ठा नक्षत्र की दिशा माना है. अन्य विद्वान वृ्श्चिक राशि में स्थित ज्येष्ठा को राशि की दिशा उत्तर दिशा में प्रभावी मानते हैं. कुछ विद्वानों ने इस नक्षत्र को सात्विक माना है. इस नक्षत्र को राक्षस गण नक्षत्र माना गया है. क्योंकि इस नक्षत्र का देवता इन्द्र कभी वैर विरोध में या ईर्ष्या के कारण अधर्म व अनीति पूर्ण कार्य करने में राक्षसों को भी मात दे देते हैं.

ज्येष्ठा नक्षत्र को तिर्यक मुख या समतल नक्षत्र माना है. यह तीक्ष्ण व दारुण नक्षत्र है. ज्येष्ठ मास के पूर्वार्ध को ज्येष्ठा ऩक्षत्र का मास माना जाता है. यह मई के अंत व जून के आरम्भ में पड़ता है. दोनो प़क्ष की सप्तमी व चतुर्दशी तिथि को ज्येष्ठा नक्षत्र की तिथि माना जाता है. विद्वानों ने इस नक्षत्र की मृ्ग योनि मानी है.

ज्येष्ठा नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'नो' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'या' है. तृ्तीय चरन का अक्षर 'यी' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'यु' है. इस नक्षत्र को अत्रि मुनि का वंशज माना गया है. अत्रि ऋषि को वेद सूक्तों का मंत्र द्रष्टा माना गया है. यह नक्षत्र भचक्र में 18वाँ नक्षत्र है. अंक 18 का संबंध चन्द्रमा की ऊर्जा के साथ माना गया है.


#हद्दा बल - Hadda Bal
हद्दा का अर्थ है - सीमा. कुण्डली में यदि कुछ विशेष राशियों में ग्रह स्थित हो तब उन्हें राशि में स्थिति के आधार पर अंक दिए जाते हैं. हद्दा बल, पंचवर्गीय बल का एक हिस्सा है. इसमें ग्रहों की हद्दा के अनुसार अंकों का निर्धारण किया गया है.

ग्रह अपनी हद्दा में स्थित है तब 15 अंक मिलते हैं.

ग्रह अपनी मित्र हद्दा में स्थित है तब 11.15 अंक मिलते हैं.

ग्रह सम हद्दा में स्थित है तब 7.30 अंक मिलते हैं.

ग्रह शत्रु हद्दा में स्थित है तब 3.45 अंक मिलते है.

#हर्ष बल - Harsha Bal
वर्ष कुण्डली में ग्रहों के बल को ज्ञात करने के लिए हर्ष बल निकाला जाता है. हर्ष बल निकालने के लिए चार प्रकार के बलों का आंकलन किया जाता है. जो निम्नलिखित हैं.

  1. स्थान बल
  2. उच्च-स्वक्षेत्र बल
  3. स्त्री-पुरुष बल
  4. दिन-रात्रि बल

#हर्षण योग - Harshan Yog
इस योग वाला जातक ज्ञानी, बहुत यश वाला होता है. शास्त्रों में रुचि, शत्रु नाशक, प्रसन्नचित्त रहने वाला, धनवान, होता है. भाग्यशाली, आभुषण युक्त, होता है. इस योग वाला ढीठ होता है.

#हस्त नक्षत्र - Hast Nakshatra
उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र सिंह राशि के 26 अंश 40 कला से कन्या राशि में 10 अंश तक रहता है. अर्थात इस नक्षत्र का एक चरण सिंह राशि में तथा बाकि तीन चरण कन्या राशि में पड़ते हैं. यह क्रान्ति वृ्त्त से 12 अंश 16 कला 1 विकला उत्तर और विषुवत रेखा से 14 अंश 35 कला 20 विकला उत्तर में स्थित है. इसमें दो तारे हैं जो पूर्वा फाल्गुनी के तारों से मिलकर पलंग या शैय्या की आकृ्ति बनाते हैं. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के दो तारों को सिंह की पूँछ में देखा जा सकता है. इनमें एक तारा डेनेबोला अधिक चमकीला तो दूसरे की चमक मद्धिम है.

उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र, सितम्बर मास में सूर्य के साथ पूर्व दिशा में उदय होता है. निरायन सूर्य 12 या 13 सितम्बर को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में प्रवेश करता है. अप्रैल मास में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के मध्य उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र शिरो बिन्दु पर होता है. फाल्गुन मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा बहुधा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में रहता है.

उत्तरा फाल्गुनी का अर्थ है बाद वाला रक्त वर्ण तारा. फाल्गुन मास वसंत ऋतु का प्रतीक है. पूर्वा फाल्गुनी वसंत ऋतु का आरम्भ तो उत्तरा फाल्गुनी बसंत ऋतु का उत्तरार्ध बनता है. फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होलिका दहन व उसके बाद रंगोत्सव होली, मानो सभी प्रकार के अनिष्ट व अशुभ की समाप्ति तथा शुभ व कल्याणकारी समय के आरम्भ को दर्शाता है.

मंच या दीवान के पिछले दो पाँव उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के माने जाते हैं. यह नक्षत्र बहुत सी बातों में पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र जैसा है. विश्राम व ताजगी तथा ऊर्जा को पुन: प्राप्त करने का प्रयास उत्तरा फाल्गुनी का गुण है. पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र थक कर चूर हुए व्यक्ति का विश्राम है, वहाँ उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में पुन: काम पर जाने की तैयारी तथा काम-काज की रुप रेखा तैयार करना भी शामिल होता है.

उत्तरा फाल्गुनी का अधिष्ठाता देवता अर्यमा को माना जाता है. अर्यमा को दया, करुणा, अनुग्रह, कृ्पा, सहयोग व आश्रय देने वाला माना जाता है. अर्यमा का संबंध सूर्य से होने के कारण ऎसा जातक, वैर विरोध पाने पर क्रुद्ध व असंतुलित होकर, कभी अशिष्ट व असंयत व्यवहार करता है.

पूर्वाफाल्गुनी व उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में स्वभाव में विशेष अंतर नहीं है. पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र सूर्य की राशि में होता है. सूर्य ग्रह परिषद का राजा होने से पूर्वा व उत्तराफाल्गुनी जातक राजा जैसा परक्रमी, प्रतापी व प्रतिष्ठित होता है.

विद्वानों की मान्यता है कि सूर्य का नक्षत्र उत्तराफल्गुनी होने से, राजकुमार बुध को अस्तंगत होने का दोष नहीं लगता. इसका कारण यह है कि सूर्य का बुध के प्रति अत्यधिक स्नेह भाव है. सूर्य व बुध दोनों ही बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता, विश्लेषण व निर्णय कुशलता के कारक हैं. उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र संतुलन प्रेमी नक्षत्र होता है. वह समाज के विभिन्न घटकों के बीच स्नेह, सौहार्दपूर्ण तालमेल व सहयोग बनाए रखता है. इसका व्यहार दया, करुणा व मैत्रीपूर्ण होता है. सम्मानजनक समझौता, स्नेहपूर्ण सहयोग व एकजुटता या समन्वय उसके विशिष्ट गुण होते हैं.

उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का स्वामी सूर्य क्षत्रिय होने से उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र को क्षत्रिय जाति का नक्षत्र माना गया है. इस नक्षत्र के तीन पद कन्या राशि में होने से विद्वानों ने इसे स्त्री संज्ञक माना है. ओष्ठ, प्रजनन अंग तथा बाँए हाथ को इस नक्षत्र का अंग माना गया है. यह वात प्रधान ऩक्षत्र माना गया है. इस नक्षत्र की दिशा पूर्व व दक्षिण दिशा है.

विद्वानों ने इस नक्षत्र को राजसी नक्षत्र माना है. यह अग्नि तत्व नक्षत्र है. उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र मनुष्य गण नक्षत्र है. विद्वानों ने इस नक्षत्र को ऊर्ध्वमुखी नक्षत्र माना है. यह उन्नति और विकास का प्रतिनिधि है. इसे ध्रुव नक्षत्र कहा गया है. क्योंकि इसका आरम्भ स्थिर राशि सिंह में होता है. फाल्गुन मास के उत्तरार्ध, जो प्राय: मार्च में आता है, को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का मास माना जाता है. कृ्ष्ण व शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि का संबंध इस नक्षत्र से माना जाता है.

उत्तराफाल्गुनी के प्रथम चरण का अक्षर 'टे' है. दूसरे चरण का अक्षर 'टो' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'पा' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'पी' है. इस नक्षत्र को गौ या गाय योनि माना जाता है. विद्वानों ने इसे ऋषि पुलस्त्य का वंशल माना है. पुलस्त्य का अर्थ है कोमल व सुंदर बालों वाला.

संक्षेप में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र ऊर्ध्वमुखी नक्षत्र, भौतिक सुख समृ्द्धि को अध्यात्म के साथ जोड़ता है. वह मात्र अपना उत्थान नहीं चाहता अपितु कर्मयोग का आश्रय लेकर, समाज की उन्नति में अपना योगदान देता है.

#हुताशन तिथि - Hutashan Tithi
हुताशन तिथियाँ शुभ कार्यों में वर्जित हैं. इन तिथियों का संबंध वारों से होता है.

  1. रविवार को द्वादशी तिथि.
  2. सोमवार को षष्ठी तिथि.
  3. मंगलवार को सप्तमी तिथि.
  4. बुधवार को अष्टमी तिथि.
  5. बृ्हस्पतिवार को नवमी तिथि.
  6. शुक्रवार को दशमी तिथि.
  7. शनिवार को एकादशी तिथि.

#होरा - Hora
इस वर्ग से जातक की सम्पत्ति व समृ्द्धि का विश्लेषण किया जाता है. प्रत्येक राशि को दो बराबर भागों में बांटा जाता है. एक भाग 15 डिग्री का होता है जिसे होरा कहते हैं. प्रत्येक भाग का स्वामी सूर्य या चन्द्र में से होता है. उसका नियम निम्नलिखित है :-

  1. यदि कोई ग्रह विषम राशि में 0 से 15 डिग्री के अन्दर स्थित है तो होरा वर्ग में सिंह राशि में जाएंगें. यदि ग्रह विषम राशि में 15 से 30 डिग्री के अन्दर स्थित है तो कर्क राशि की होरा में जाएंगें.
  2. इसके विपरीत यदि ग्रह सम राशि में 0 से 15 डिग्री के अन्दर स्थित है तो होरा वर्ग में कर्क राशि में जाएंगें और यदि ग्रह 15 से 30 डिग्री के अन्दर है तो सिंह राशि की होरा में जाएंगें.

#होरा लग्न - Hora Lagna
होरा लग्न इष्ट घटी ( जन्म समय घटी, पल में सूर्योदय से ) में 2.5 से भाग करके शेष में एक जोड़कर सूर्य या लग्न से गिनें. जन्म लग्न के सम या विषम होने के अनुसार यह होरा लग्न बताता है. अंश में से शेष घटाने पर ही लग्न का स्पष्टाँश आ जायेगा.

#होलिकाष्टक विचार - Holikashtak Vichar
व्यास(विपाशा), इरावती, शतद्रु(सतलुज) के तीर प्रदेश अजमेर आदि त्रिपुष्कर प्रदेश में होली से पहले के आठ दिन होलाष्टक कहलाते हैं.

इनमें शुभ कार्य विवाहादि वर्जित होते हैं. व्यास, इरावती, सतलुज नदियां पंजाब व हिमाचल प्रदेश की हैं. अत: पंजाब, राजस्थान, हिमाचल आदि में ही होलाष्टक वर्जित हैं.

लेकिन वर्तमान समय में इन प्रदेशों के आस-पास के स्थानों में भी होलाष्टक में शुभ कार्य वर्जित हैं. फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा से आठ दिन पहले से होलिकाष्टक के दिन शुरु हो जाते हैं.

होली के बाद के 15 दिन सवंत्सर का अंतिम पक्ष होता है. इसलिए इन दिनों को भी शुभ कार्य में वर्जित माना जाता है. वर्तमान समय में सारे उत्तर भारत के मैदानी इलाको में होलिकाष्टक के दिनों को वर्जित माना जाने लगा है.

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