आश्विन पूर्णिमा : व्रत कथा और आश्विन पूर्णिमा के रहस्य

आश्विन मास की पूर्णिमा को आश्विन पूर्णिमा कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार इसी पूर्णिमा के दिन समुद्र मंथन से देवी लक्ष्मी का जन्म हुआ था, और इस दिन कई अन्य विशेष घटनाएं घटित हुई जिनके कारण यह दिन वर्ष भर की पूर्णिमाओं में सबसे अधिक खास है. आश्विन पूर्णिमा का अपना विशेष महत्व है, इस समय चंद्रमा अपनी 16 कलाओं से पूर्ण होकर आकाश से अमृत की वर्षा करता है. धन की देवी लक्ष्मी अपने पति श्री हरि के साथ पृथ्वी पर भ्रमण करने आती हैं. इस दिन संपूर्ण ओर महारास की स्थिति होती है. 

आश्विन पूर्णिमा 2024: शुभ मुहूर्त व तिथि
पूर्णिमा तिथि प्रारंभ – 16 अक्टूबर 2024, 08:40 PM

पूर्णिमा तिथि समाप्त – 17 अक्टूबर 2024, 04:55 PM

आश्विन पूर्णिमा की विशेष बातें 

आश्विन पूर्णिमा के दिन को कौमुदी व्रत के नाम से भी जाना जाता है. हिंदू पंचांग के अनुसार आश्विन मास में ही आश्विन पूर्णिमा की तिथि आती है. इसे रास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. हिंदू धर्म के अनुसार इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने महारास रचाया था.इस दिन चंद्रमा की किरण से अमृत वर्षा होती है. आश्विन पूर्णिमा में रात्रि भ्रमण और चंद्रमा की रोशनी का शरीर पर पड़ना बहुत माना गया है. आश्विन पूर्णिमा वर्ष में आने वाली सभी पूर्णिमा तिथियों में तन, मन और धन तीनों में ही सर्वश्रेष्ठ निर्धारित दी गई है. ऐसा माना जाता है कि आश्विन पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की रोशनी से अमृत की वर्षा होती है. इस दिन महालक्ष्मी पूजा करने पर भक्तों को धन-धान्य की प्राप्ति होती है. 

आश्विन पूर्णिमा का एक अलग नाम कोजागरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. आश्विन पूर्णिमा आश्विन मास में आती है. इस दिन चंद्रमा अश्विनी नक्षत्र में प्रवेश करता है. इसलिए इस महीने में अश्विनी के नाम से भी जाना जाता है.  आयुर्वेद के आचार्य भी इस दिन का इंतजार करते हैं इस दिन सभी जीवनदायिनी दवाओं को चंद्रमा की रोशनी में रखा जाता है। इस दिन चंद्रमा की किरण से अमृत वर्षा होती है. इन सभी में अमृत वर्षा में स्नान किया जाता है. चंद्रमा को वेदों और पुराणों में जल का कारक माना गया है. दूसरी ओर चंद्रमा को औषधियों का स्वामी भी कहा जाता है. आश्विन पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की रोशनी में खीर खाने की प्रथा काफी पुराने समय से प्रचलित है. इस दिन चंद्रमा की रोशनी में खीर खाने से शरीर के सभी रोग दूर हो जाते हैं.

आश्विन पूर्णिमा पूजा विधि 

आश्विन पूर्णिमा के दिन सुबह जल्दी या हो सके तो किसी पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए. अगर किसी कारण से आप नदी में स्नान नहीं कर सकते हैं तो घर पर ही गंगाजल स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. इस दिन सफ़ेद रंग के कपड़ों को धारण करना शुभ माना जाता है. पूजा के लिए मंदिर स्थान में लाल रंग का कपड़ा बिछाकर और उस पर गंगाजल छिड़ककर उसे शुद्ध करना चाहिए. इसके बाद माँ लक्ष्मी की मूर्ति को स्थापित किया जाना चाहिए. फूल, धूप-दीप, नेवेद्य आदि से देवी लक्ष्मी मां को अर्पित करने चाहिए. इसके बाद लक्ष्मी माता की मूर्ति के सामने जाकर लक्ष्मी चालीसा का पाठ करना चाहिए. पूजा के पूर्ण होने के बाद माता लक्ष्मी जी की आरती करनी चाहिए. 

आश्विन पूर्णिमा संध्या पूजा 

इसके बाद संध्या समय को माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु की पूजा पुन: करनी चाहिए  और चंद्रमा को अर्घ्य देना चाहिए.  शाम के समय चंद्रमा पर मिट्टी के दीपक जलाने चाहिए.

फिर चावल और गाय के दूध से बनी खीर उसे चंद्रमा की रोशनी में रख देने चाहिए. मध्य रात्रि में माता लक्ष्मी जी को भोग लगाया और सभी भक्तों को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है.

आश्विन पूर्णिमा के दिन ब्राह्मणों को वस्त्र, मिठाई और फल आदि का दान करना उत्तम होता है. 

आश्विन पूर्णिमा की कथा

पूर्णिमा के व्रत का बहुत महत्व है. हर महीने पड़ने वाली पूर्णिमा के दिन व्रत रखने से भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्त होती है. माता लक्ष्मी और श्री हरि के इस आशीर्वाद को पाने के लिए एक साहूकार की दोनों बेटियां हर पूर्णिमा के दिन व्रत रखती थीं. इन दोनों बेटियों में बड़ी बेटी पूर्णिमा का व्रत पूरे विधि-विधान और उपवास के साथ रखती थी. जबकि छोटी बेटी व्रत तो रखती थी, लेकिन नियमों को अनदेखा कर देती थी. जब वे विवाह योग्य हुई तो साहूकार ने अपनी दोनों बेटियों का विवाह कर दिया. बड़ी बेटी ने समय पर एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया.

छोटी बेटी ने भी एक बच्चे को जन्म दिया, लेकिन उसका बच्चा जन्म लेते ही मर जाता था. ऐसा जब दो-तीन बार हुआ तो उसने एक ब्राह्मण को बुलाकर अपनी समस्या बताई और धार्मिक उपाय पूछा. उसकी बात सुनने और कुछ प्रश्न पूछने के बाद ब्राह्मण ने उसे बताया कि तुम पूर्णिमा के दिन अधूरा व्रत रखती हो, जिसके कारण तुम्हारा व्रत फलित नहीं होता और अधूरे व्रत का दोष तुम पर लगता है. ब्राह्मण की बात सुनकर छोटी बेटी ने पूरे विधि-विधान से पूर्णिमा का व्रत रखने का निर्णय लिया. लेकिन पूर्णिमा आने से पहले ही उसने एक पुत्र को जन्म दिया.

जन्म लेते ही पुत्र की मृत्यु हो गई. इस पर उसने अपने पुत्र के शव को एक चौकी पर रखकर कपड़े से ढक दिया, ताकि किसी को पता न चले. फिर उसने अपनी बड़ी बहन को बुलाकर उसे वही चौकी बैठने के लिए दे दी. जैसे ही बड़ी बहन उस चौकी पर बैठने लगी, उसके लहंगे का किनारा बच्चे को छू गया और वह तुरंत जीवित हो गया और रोने लगा. इस पर बड़ी बहन पहले तो डर गई और फिर छोटी बहन पर क्रोधित होकर उसे डांटने लगी, “क्या तू मुझे बच्चे की हत्या का दोषी और कलंकित करना चाहती है? अगर मेरे बैठने से यह बच्चा मर जाता तो क्या होता?”

छोटी बहन ने उत्तर दिया, “यह बच्चा तो पहले से ही मरा हुआ था. दीदी, यह तुम्हारे तप और स्पर्श के कारण जीवित हो गया है. पूर्णिमा के दिन तुमने जो व्रत और तपस्या की है, उसके कारण तुम पवित्र और दिव्य तेज से परिपूर्ण हो गई हो. अब मैं भी तुम्हारी तरह व्रत और पूजा करूंगी.” इसके बाद उसने विधि-विधान से पूर्णिमा का व्रत किया और पूरे नगर में इस व्रत के महत्व और फल का प्रचार किया. जिस प्रकार माता लक्ष्मी और श्री हरि ने साहूकार की बड़ी बेटी की मनोकामना पूरी की और उसे सौभाग्य प्रदान किया. 

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ओणम : राजा बली और भगवान के वामन रुप की कथा

ओणम का त्यौहर दक्षिण भारत के प्रसिद्ध त्यौहारों में से एक है. उत्तर भारत पंचाग अनुसार यह त्यौहार भाद्रपद माह के दौरान आता है. भादो माह की द्वादशी के करीब इस पर्व को मनाया जाता है और दक्षिण भारत के पंचांग अनुसार चिंगम महीने में मनाया जाने वाला त्यौहार है जो अट्टम से शुरू होकर पोन्नोनम तक दस दिनों तक चलता है. ओणम मनाने की कई मान्यताएं हैं, जिनमें से एक यह है कि इसे नई फसलों के आने की खुशी में मनाया जाता है. तो वहीं एक के अनुसार राजा बलि और वामन देव की कथा के रुप में भी इस दिन को भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है. 

ओणम का त्यौहार दक्षिण भारत में, खास तौर पर केरल में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है. ओणम केरल का आधिकारिक त्यौहार है. ओणम में किसी देवी या देवता की पूजा नहीं की जाती, बल्कि इस त्यौहार में महाबली नामक राक्षस की पूजा की जाती है. लोग अपने घरों के बाहर फूलों की रंगोली बनाकर उनका स्वागत करते हैं. 

ओणम : आध्यात्मिक यात्रा का समय  

ओणम दक्षिण भारतीयों, खासकर मलयाली और केरलवासियों के लिए एक प्रमुख हिंदू त्यौहार है. यह त्यौहार राजा महाबली की केरल की वार्षिक यात्रा का प्रतीक है. इस त्यौहार में प्रार्थना, जीवंत सजावट, पारंपरिक व्यंजन, नृत्य और नौका दौड़ जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम और दान-पुण्य के कार्य शामिल हैं. भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया और राजा महाबली की परीक्षा लेने के लिए उनके पास गए और महाबली से तीन पग भूमि मांगी. ओणम हिंदुओं के सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है. यह त्यौहार मुख्य रूप से दक्षिण भारतीय लोगों द्वारा मनाया जाता है. ओणम फसल कटाई का त्यौहार है जिसे बहुत उत्साह और जोश के साथ मनाया जाता है. ओणम त्यौहार मलयाली और केरलवासी मनाते हैं. ओणम भाद्रपद माह में शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि और श्रवण नक्षत्र में मनाया जाता है. 

यह 15 सितंबर, 2024 को मनाया जाएगा.

ओणम 2024: तिथि और समय मुहूर्त

थिरुवोणम नक्षत्रम शुरू होता है – 14 सितंबर, 2024 को रात 08:32 बजे

थिरुवोणम नक्षत्रम समाप्त होता है – 15 सितंबर, 2024 को शाम 06:49 बजे

ओणम त्यौहार से जुड़ी कुछ विशेष बातें 

  • दक्षिण भारत में राजा महाबली को बहुत उदार माना जाता है. 
  • मान्यता है कि केरल के राजा बलि के राज्य में लोग बहुत सुखी और समृद्ध थे. 
  • इस दौरान भगवान विष्णु ने वामन का रूप धारण किया और राजा बलि से दान मांगा. 
  • भगवान विष्णु ने दान में तीन पग भूमि मांगी. 
  • श्री हरि ने दो पग में धरती और स्वर्ग नाप लिया, तब राजा ने पूछा कि तीसरा पग कहां रखूं. 
  • भगवान के इस प्रश्न पर राजा कहते हैं, वामन देव कृपया तीसरा पग मेरे सिर पर रख दीजिए.
  • तभ भगवान वामन ने राजा बलि से प्रसन्न होकर पाताल लोक का राजा बना दिया और इसके अलावा उन्होंने उसे हर साल एक बार अपनी प्रजा से मिलने की अनुमति दी. 
  • हर साल ओणम के त्यौहार पर राजा बलि धरती पर आते हैं. थिरुवोणम के दिन दैत्यराज महाबली हर मलयाली घर में जाकर अपनी प्रजा से मिलते हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हैं. 
  • ओणम का त्यौहार मनाने के पीछे यही कारण है.

ओणम : कथा कहानी

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा महाबली बहुत उदार थे और उन्हें केरल का एक महान राजा माना जाता था. उनके शासनकाल में राज्य बहुत समृद्ध और शांतिपूर्ण था. राज्य के लोग खुश थे और वे अपने राजा से प्यार करते थे. लेकिन देवता पृथ्वी से महाबली के शासन को समाप्त करना चाहते थे. वे उससे ईर्ष्या करते थे क्योंकि राजा महाबली ने उन्हें हराकर राजा बन गए थे. उन्होंने भगवान विष्णु से मदद मांगी और भगवान श्री हरि ने देवताओम को आश्वासन दिया की वह उनकी इस चिंता को शीघ्र दूर कर देंगे. 

तब भगवान ने अवतार लिया जो बौने ब्राह्मण के रुप में हुआ जिसे वामन कहा जाता है. भगवान अपने इस अवतार रुप में राजा महाबली के पास उनकी परीक्षा लेने गए और महाबली से तीन पग भूमि मांगते हैं. राजा बली उस समय यज्ञ करके हटे ही थे और यह उनका नियम था की यज्ञ पूजन के बाद जो भी पहला भिक्षु उनके पास आएगा वह उसे उसकी इच्छा हेतु सभी कुछ देने में आगे रहेंगे. वह इस बात पर सहमत हो गए और भगवान विष्णु ने दो पग में सभी लोकों को नाप लिया और फिर उनसे तीसरा पग रखने के लिए जगह मांगी. राजा महाबली ने वामन से तीसरा पग अपने सिर पर रखने का अनुरोध किया जो उन्हें पाताल लोक ले गया. लेकिन इससे भगवान विष्णु प्रसन्न हुए और वे उनकी भक्ति और उदारता से प्रसन्न हुए. भगवान विष्णु ने राजा महाबली को आशीर्वाद दिया कि वह साल में एक बार अपने राज्य को देखने आ सकेंगे इसलिए केरल के लोग इस ओणम त्योहार को अपने प्रिय राजा महाबली के घर आने के दिन के रूप में मनाते हैं.

ओणम महत्व

ओणम हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारों में से एक है. यह त्योहार मुख्य रूप से दक्षिण भारतीय लोगों द्वारा मनाया जाता है. यह त्योहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है. इस शुभ दिन पर, लोग अपने परिवार के सदस्यों, दोस्तों और रिश्तेदारों की शुभता और दीर्घायु के लिए भगवान वामन और राजा महाबली की पूजा एवं प्रार्थना करते हैं. अच्छी फसल के लिए भूमि के प्रति प्रार्थना करते हैं और भक्ति भाव प्रकट करते हैं. इस पवित्र दिन पर, भक्त अपने घरों को अलग-अलग रंग-बिरंगे फूलों से सजाते हैं, रंगों और फूलों से रंगोली बनाते हैं. महिलाएं भगवान वामन और राजा महाबली को चढ़ाने के लिए विशेष व्यंजन और मिष्ठान तैयार किए जाते हैं. इस दिन विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन भी किए जाते हैं

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पार्श्व एकादशी: पार्श्व एकादशी कब मनाई जाती है ?

पार्श्व एकादशी हिंदू पंचांग के अनुसार भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी के दिन मनाई जाती है.. एकादशी का यह दिन विशेष फल प्रदान करता है. यह पुण्य व्रतों में से एक है जब भक्त को प्रभु का आशीर्वाद मिलता हे. यह पर्व अगस्त से सितंबर के महीनों के बीच मनाया जाता है. इस विशिष्ट एकादशी व्रत को भागवत या वैष्णव लोग पार्श्व एकादशी के नाम से मनाते हैं. पार्श्व एकादशी को पद्मा या परिवर्तिनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है

पार्श्व एकादशी दक्षिणायन पुण्यकाल समय
पार्श्व एकादशी को दक्षिणायन पुण्यकाल का समय माना जाता है. यह देवी-देवताओं की रात्रि के समय को दर्शाती है. यह एकादशी ‘चतुर्मास’ अवधि के दौरान आती है, इसलिए इसे बहुत शुभ माना जाता है. यह एक प्रचलित मान्यता है कि पार्श्व एकादशी व्रत रखने से व्रती को उसके सभी पापों की क्षमा मिल जाती है.

पार्श्व एकादशी 2024 पर महत्वपूर्ण समय
सूर्योदय 14 सितंबर, 2024 6:17 पूर्वाह्न
सूर्यास्त 14 सितंबर, 2024 6:27 अपराह्न
एकादशी तिथि प्रारंभ 13 सितंबर, 2024 10:30 अपराह्न
एकादशी तिथि समाप्त 14 सितंबर, 2024 8:41 अपराह्न
हरि वासरा समाप्ति क्षण 15 सितंबर, 2024 2:04 पूर्वाह्न
द्वादशी समाप्ति क्षण 15 सितंबर, 2024 6:12 अपराह्न
पाराना समय 15 सितंबर, 6:17 पूर्वाह्न – 15 सितंबर, 8:43 पूर्वाह्न

पार्श्व एकादशी के विभिन्न रुप
पार्श्व एकादशी पूरे भारत में अपार समर्पण और उत्साह के साथ मनाई जाती है. देश के अलग-अलग इलाकों में इसे पद्मा एकादशी, वामन एकादशी, जयंती एकादशी, जलझिलिनी एकादशी और परिवर्तिनी एकादशी जैसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है. हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि इस दौरान भगवान विष्णु विश्राम करते हैं और अपनी शयन मुद्रा को बाईं ओर से दाईं ओर कर लेते हैं, इसलिए इसे पार्श्व परिवर्तिनी एकादशी के नाम से पुकारा जाता है.

पार्श्व एकादशी के दिन भगवान विष्णु के अवतार भगवान वामन की पूजा की जाती है. इस एकादशी का पवित्र व्रत करने से व्यक्ति को श्री हरि विष्णु का दिव्य आशीर्वाद प्राप्त होता है, जो इस ब्रह्मांड के पालनहार हैं.

पार्श्व एकादशी व्रत कथा
पद्म पुराण में वर्णित पार्श्व एकादशी व्रत कथा इस प्रकार है: युधिष्ठिर ने पूछा, ‘केशव, भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी का क्या नाम है, तथा इसकी पूजा कौन करता है, तथा इसके अनुष्ठान क्या हैं? कृपया मुझे बताइए.’ भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘हे राजन, इस विषय में मैं भगवान ब्रह्मा द्वारा महामुनि नारद को सुनाई गई एक कथा सुनाऊंगा.’

नारद ने पूछा, ‘भगवान चतुर्मुख, भगवान विष्णु की महिमा के लिए, मैं आपके दिव्य मुख से भाद्रपद के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी के बारे में सुनना चाहता हूँ. कृपया इसका महत्व बताएं.’ ब्रह्मा ने उत्तर दिया, ‘हे पूज्य ऋषिवर, भगवान विष्णु की पूजा के लिए आपका प्रश्न बहुत सराहनीय है. ऐसा क्यों न हो, आखिर आप तो श्रेष्ठ वैष्णवों में से एक हैं! इस एकादशी को ‘पद्मा एकादशी’ के नाम से जाना जाता है और इस दिन भगवान हृषिकेश की पूजा की जाती है. इस पवित्र व्रत का पालन करना बहुत पुण्यदायी होता है.

पूर्वकाल में सूर्यवंश में मान्धाता नामक एक धर्मात्मा राजा थे. वे धर्म के प्रति अपनी अटूट प्रतिबद्धता और अपनी प्रजा के कल्याण के लिए प्रसिद्ध थे. वे अपनी प्रजा को अपने पालक बच्चों की तरह मानते थे. उनके शासन में कभी सूखा नहीं पड़ता था, मानसिक चिंताएँ दूर रहती थीं और उनके राज्य में रोग नहीं आते थे. उनकी प्रजा निर्भय थी और उनके पास प्रचुर भोजन और धन था. राजा का खजाना केवल धर्म से प्राप्त राजस्व से भरा रहता था.

उनके राज्य में सभी जातियों और आश्रमों के लोग अपने-अपने धर्म और धर्म में लगे रहते थे. मान्धाता के राज्य की भूमि कामधेनु गाय की तरह उपजाऊ थी. उनके शासनकाल में प्रजा ने बहुत सुख भोगा. एक बार उनके महान शासन के बावजूद, उनके राज्य में तीन वर्षों तक भयंकर सूखा पड़ा. इस विपत्ति ने उनकी प्रजा को बहुत कष्ट पहुँचाया और वे नष्ट होने लगे. सारी प्रजा अपनी व्यथा लेकर राजा के पास पहुँची.

प्रजा ने कहा, ‘हे राजन, कृपया हमारी विनती सुनिए. पुराणों में जल को ‘नर’ कहा गया है और यह परम सत्ता का निवास स्थान, “अयन” है. नारायण, भगवान विष्णु, जल में निवास करते हैं. नारायण भगवान विष्णु का ही रूप हैं, जो सबमें व्याप्त हैं और वे सर्वत्र जल तत्व में निवास करते हैं. वे बादलों का रूप धारण करते हैं और वर्षा के कारण होते हैं और वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है, जिससे सभी जीव जीवित रहते हैं. हे राजन, वर्षा न होने के कारण सूखा पड़ गया है और सूखे के कारण अकाल पड़ रहा है और लोग मर रहे हैं. कृपया

पिछले सभी पापों से मुक्ति. इसकी दिव्य महिमा के बारे में सुनने मात्र से ही पिछले पापों से मुक्ति मिल जाती है. यह व्रत अत्यंत शुभ है, इसका पुण्यफल अश्वमेध यज्ञ के समान है. इससे श्रेष्ठ कोई एकादशी नहीं है, क्योंकि यह भौतिक अस्तित्व के अथक चक्र से मुक्ति का मार्ग प्रदान करती है.”

इस एकादशी का महत्व यह है कि यह उस दिन को मनाती है जब भगवान विष्णु सोते समय अपनी दूसरी करवट बदलते हैं, जिसे परिवर्तिनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है.

पार्श्व एकादशी पूजा अनुष्ठान

विष्णु पूजा हिंदू धर्म में भगवान विष्णु की पूजा को शुभता के साथ साथ सुख समृद्धि प्रदान करने वाली आध्यात्मिक पूजा कहा गया है. भगवान श्री हरि संरक्षक और रक्षक के रूप में अपनी भूमिका के लिए जाने जाने वाले प्रमुख देवताओं में से एक हैं और एकादशी के दिन इन्का पूजन करने से भक्तों सदैव जीवन में सुरक्षा प्राप्त होती है. धार्मिक मान्यताओं के आधार पर माना जाता है कि विष्णु पूजा करने से भक्तों को शांति, समृद्धि और सुरक्षा मिलती है.

एकादशी का दिन विष्णु पूजा की भक्ति यात्रा है जिसमें भगवान विष्णु को दिए जाने वाले विशिष्ट मंत्र पूजन और प्रसाद शामिल होते हैं. यह आध्यात्मिक शुद्धि प्राप्त करने और अपने जीवन में सकारात्मक ऊर्जाओं को पाने का समय होता है. एकादशी का पूजन बहुत ही विशेष फल प्रदान करता है.

एकादशी पूजा में भगवान के विग्रह में फूल, फल, धूपबत्ती, घी के दीपक, चंदन का लेप, हल्दी, कुमकुम इत्यादि को रखा जाता है जिन्हें भगवान को अर्पित किया जाता है. पूजा को आरंभ करने से पूव जल पीकर और शुद्धिकरण मंत्रों का जाप करके आत्म-शुद्धिकरण से शुरुआत करते हैं संकल्प लेते हैं. विष्णु की मूर्ति या छवि को एक साफ और सजी हुई वेदी पर रखते हैं विशिष्ट मंत्रों और प्रार्थनाओं के माध्यम से प्रभु का आह्वान करते हैं. भगवान विष्णु को उनके नाम और मंत्रों का जाप करते हुए फूल, फल, जल और धूप अर्पित करते हैं यहां प्रत्येक अर्पण भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक है.

एकादशी के दिन विष्णु सहस्रनाम, भगवान विष्णु को समर्पित अन्य भजनों का पाठ करना शुभ होता है, माना जाता है कि यह जाप दिव्य ऊर्जा और आशीर्वाद को देने वाले होते हैं. विष्णु जी की आरती करने के पश्चात भगवान को प्रसाद चढ़ाकर उसे लोगों में बांटा जाता है और पूजा का समापन होता है.

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ज्येष्ठ गौरी पूजा : भाद्रपद माह में होता है ज्योष्ठ गोरी विसर्जन

भाद्रपद माह में आने वाला ज्येष्ठ गोरी विसर्जन का उत्सव भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है. ज्येष्ठ गौरी पूजा महाराष्ट्र का एक प्रमुख त्यौहार है, जिसमें मराठी महिलाएँ व्रत रखती हैं और देवी गौरी की पूजा करती हैं. तीन दिन तक चलने वाले इस पूजन को भक्ति भाव के सतह किया जाता है.  दिवसीय उत्सव में मूर्ति को घर लाना, दूसरे दिन पूजा अनुष्ठान करना और तीसरे दिन मूर्ति का विसर्जन करना शामिल है.

ज्येष्ठ गौरी विसर्जन समय, पूजा अनुष्ठान 

ज्येष्ठ गौरी पूजा का हिंदू धर्म में बहुत बड़ा धार्मिक महत्व है. यह दिन महाराष्ट्र में मनाए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक के रूप में मनाया जाता है. मराठी महिलाएँ इस शुभ दिन पर व्रत रखती हैं और देवी गौरी की पूजा करती हैं. ज्येष्ठा गौरी आवाहन मराठी महिलाओं के बीच एक बड़ा धार्मिक महत्व रखता है क्योंकि वे इस व्रत को अत्यधिक भक्ति और विश्वास के साथ रखती हैं.

ज्येष्ठ गौरी आवाहन के पहले दिन, गौरी की मूर्ति का आह्वान किया जाता है, इस दिन व्रत रखा जाता है और विवाहित महिलाएं पति की भलाई के लिए देवी गौरी से प्रार्थना करती हैं जबकि अविवाहित कन्याएं भी इस व्रत को रखती हैं. यह तीन दिवसीय उत्सव होता है जो बहुत ही भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है. इस पूजन के आरंभ के पहले दिन देवी गौरी की मूर्ति घर पर लाई जाती है, दूसरे दिन, गौरी पूजा का आयोजन किया जाता है और तीसरे दिन, मूर्ति को अपने घर के पास किसी समुद्र या नदी में विसर्जित किया जाता है. 

गौरी माता की मूर्ति को घर पर लाने से पहले, महिलाएं अपने घर को अच्छी तरह से साफ करती हैं और इसे फूलों से सजाती हैं, घर में सुंदर रंगोली बनाई जाती है. घर के प्रवेश द्वार पर देवी गौरी के पैर भी ए जाते हैं. महिलाएं गौरी माता के लिए सोलह अलग-अलग प्रकार के व्यंजन और विशेष भोग प्रसाद तैयार करती हैं.  गौरी माता को प्रसन्न करने के लिए भक्ति और पारंपरिक गीत या भजन गाए जाते हैं. लगातार दो दिनों तक चलने वाले इस उत्सव के अंतिम दिन यानि तीसरे दिन गौरी माता विसर्जन किया जाता है.  मान्यता है कि विसर्जन के बाद देवी कैलाश पर्वत पर लौट जाती हैं. 

ज्येष्ठ गौरी कथा

शास्त्रों के अनुसार, ज्येष्ठ गौरी पूजा और विसर्जन भारतीय संस्कृति और धार्मिक परंपराओं में एक महत्वपूर्ण त्योहार है. यह पूजा भारत के विभिन्न हिस्सों में, विशेष रूप से महाराष्ट्र और कर्नाटक में बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है. शास्त्रों में ज्येष्ठ गौरी की पूजा और विसर्जन का महत्व विस्तार से वर्णित है. यहां हम इस परंपरा के शास्त्रीय पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करेंगे ज्येष्ठ गौरी की कथा भारतीय पौराणिक कथाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखती है. ज्येष्ठा देवी, जिन्हें ज्येष्ठा गौरी के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू धर्म में इनका स्थान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है और पूजा का उद्देश्य भक्तों को दुख और समस्याओं से मुक्ति दिलाना है. ज्येष्ठा देवी का संबंध भगवान शिव और देवी पार्वती से है.

पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार भगवान शिव और देवी पार्वती ने एक विशेष यज्ञ का आयोजन किया. इस यज्ञ में सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया था. सभी देवताओं में से देवी पार्वती ने अपने पुत्र गणेश को इस यज्ञ का संचालन करने के लिए चुना लेकिन यज्ञ के दौरान कुछ बाधाएं आईं और यज्ञ का पूरा लाभ नहीं मिल सका. उसी समय देवी ज्येष्ठा ने यज्ञ में बाधा डालने का निर्णय लिया. वह एक डरावने और क्रोधित रूप में प्रकट हुईं. उनका उद्देश्य यज्ञ में बाधा डालकर सभी देवताओं को परेशान करना था. इस रूप में, उन्होंने अपने भक्तों को प्रभावित करना शुरू कर दिया और यज्ञ को बर्बाद कर दिया.

इस दौरान, देवी पार्वती ने भगवान शिव से प्रार्थना की और उनसे इस समस्या को दूर करने की प्रार्थना की. भगवान शिव ने अपना ध्यान देवी ज्येष्ठा की ओर लगाया और उन्हें समझाया कि उनका व्यवहार ठीक नहीं था. देवी ज्येष्ठा ने अपनी गलती स्वीकार की और यज्ञ को सही करने का प्रयास किया. इस प्रकार, उन्होंने यज्ञ में उपस्थित सभी देवताओं की मदद करना शुरू कर दिया. ज्येष्ठा देवी की पूजा का उद्देश्य दुखों से मुक्ति और जीवन में सुख-शांति प्राप्त करना है. उनके आदर्श से हमें यह सीख मिलती है कि जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान धैर्य और समझदारी से करना चाहिए.

ज्येष्ठा गौरी पूजा का महत्व

ज्येष्ठा गौरी, जिन्हें ज्येष्ठा देवी या ज्येष्ठा मां के नाम से भी जाना जाता है, माता पार्वती का ही एक रूप हैं और उन्हें देवी लक्ष्मी की बहन भी माना जाता है. हिंदू धर्मग्रंथों में ज्येष्ठा देवी का वर्णन किया गया है, जिसमें वे विशेष रूप से पूजनीय देवी हैं, जो समृद्धि, सुख और सौभाग्य का प्रतिनिधित्व करती हैं. उनकी पूजा से परिवार के संकट दूर होते हैं और समृद्धि आती है.

ज्येष्ठ गौरी पूजा नियम 

ज्येष्ठ गौरी पूजा में महिलाएं सुबह जल्दी उठती हैं और स्नान करती हैं. महिलाएं पारंपरिक कपड़े पहनती हैं और घर की सफाई करती हैं और अपने घर को फूलों, आम के पत्तों से सजाते हैं, रंगोली बनाते हैं और प्रवेश द्वार पर देवी गौरी के पैर बनाते हैं.

परिवार के पुरुष सदस्य देवी गौरी की मूर्ति घर लाते हैं. मूर्ति को लकड़ी के तख़्त पर रखते हैं, पानी से भरा कलश रखते हैं और कलश पर नारियल रखते हैं और मूर्ति को श्रृंगार की वस्तुओं और गहनों से सजाते हैं. देवी गौरी की पूजा करते हैं भोग प्रसाद, मौसमी फल और अन्य चीज़ें देवी को अर्पित की जाती हैं. इस दिन महिलाएँ हरी चूड़ियां और हरी साड़ी पहनती हैं, जिसे मराठी परंपरा में बहुत शुभ माना जाता है. तीसरे और आखिरी दिन, मूर्ति को पानी में विसर्जित कर दिया जाता है.

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भाद्रपद माह अष्टमी : राधा अष्टमी और लक्ष्मी पूजन का शुभ योग क्यों है विशेष

भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी का दिन बेहद खास माना जाता है. इस दिन को राधा जी के जन्म उत्सव के रुप में मनाते हैं और साथ में इस दिन को देवी लक्ष्मी जी के विशेष पूजन एवं व्रत के आरंभ होने का समय भी माना जाता है. शास्त्रों में राधा जी को देवी लक्ष्मी का रुप माना गया है. देवी लक्ष्मी जी ने ही राधा के रुप में जन्म लिया. भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी जहां श्री कृष्ण जन्म का समय होती है वहीं भादो माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी राधा जी के जन्म का समय मानी जाती है.

राधा अष्टमी और महा लक्ष्मी व्रत का प्रभाव
राधा अष्टमी और महालक्ष्मी व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन ही मनाया जाता है. इस समय पर देवी राधा जी के साथ महालक्ष्मी की पूजा की जाती है. राधा अष्टमी के साथ महालक्ष्मी व्रत करने से व्यक्ति को जीवन में आने वाले सभी आर्थिक संकटों से मुक्ति मिलती है. कर्ज से मुक्ति, संतान और परिवार का सुख प्राप्त होता है. महालक्ष्मी व्रत के दिन व्यक्ति को सुबह जल्दी उठकर स्नान करना चाहिए, सभी कामों को समाप्त करके राधा रानी जी के साथ देवी लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए.

इस दिन महा लक्ष्मी की पूजा के साथ राधा जी की भी पूजा करनी चाहिए, क्योंकि इसी दिन राधा अष्टमी भी पड़ती है. इस शुभ दिन पर बरसाना की महारानी राधा का जन्म हुआ था. धार्मिक पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राधा जी को भी लक्ष्मी का ही रूप माना जाता है, इसलिए इस दिन राधा जी की पूजा करना भी बहुत शुभ होता है. परंपरागत रूप से यह दिन लंबे समय से ब्रज और बरसाना में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है. राधा रानी की पूजा विभिन्न मंदिरों में बहुत धूमधाम से की जाती है. जुलूस निकाले जाते हैं, इस दिन का माहौल बहुत शुभ होता है.

राधा जी और माता लक्ष्मी की पूजा में किसी न किसी रूप में लाल रंग का प्रयोग करना चाहिए. लाल गुलाब अर्पित करना चाहिए, इसके अलावा पूजा में लाल चंदन, सुपारी, इलायची, पुष्प माला, अक्षत, दूर्वा, लाल रूई, नारियल, पान आदि रखना चाहिए. विभिन्न प्रकार के भोग, मिष्ठान और विशेष रूप से खीर का भोग लगाना चाहिए. पूजा दो बार करनी चाहिए, सुबह और शाम दोनों समय.

राधा अष्टमी केवल राधा के जन्म का उत्सव ही नहीं है, बल्कि कृष्ण से जुड़ी आध्यात्मिक साधना का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. माना जाता है कि उनकी पूजा कृष्ण के प्रति श्रद्धा को पूर्ण करती है, क्योंकि राधा शुद्ध प्रेम और भक्ति का प्रतीक हैं. भक्तों का मानना ​​है कि इस दिन राधा रानी की पूजा करने से रिश्तों, खासकर वैवाहिक संबंधों में शांति, समृद्धि और सद्भाव आता है. जो लोग जन्माष्टमी पर व्रत रखते हैं, वे अक्सर राधा अष्टमी पूजा करके अपनी आध्यात्मिक यात्रा जारी रखते हैं, जिससे ईश्वर के साथ उनका पूर्ण संबंध सुनिश्चित होता है. मथुरा, वृंदावन, बरसाना और नंदगांव में यह उत्सव विशेष रूप से भव्य होता है, ये स्थान राधा और कृष्ण की कहानियों से भरे हुए हैं. यह त्यौहार हजारों भक्तों को आकर्षित करता है जो दिव्य वातावरण का अनुभव करने और सुख, समृद्धि और उपयुक्त जीवनसाथी पाने के लिए राधा का आशीर्वाद लेने के लिए एकत्रित होते हैं.

राधा अष्टमी और महा लक्ष्मी व्रत का महत्व
शास्त्रों के अनुसार राधा अष्टमी और देवी लक्ष्मी जी का आशीष भक्त के जीवन को सुख से परिपूर्ण कर देने वाला होता है. इस दिन व्रत रखना और अनुष्ठान करना अत्यधिक शुभ माना जाता है. भक्तों का मानना ​​​​है कि राधा की पूजा करके, वे शांति, समृद्धि और खुशी के लिए उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं. यह दिन उन लोगों के लिए असाधारण है जो व्यक्तिगत संबंधों और आध्यात्मिक विकास में मार्गदर्शन चाहते हैं.

राधा अष्टमी पर किए जाने वाले अनुष्ठान और पूजा बहुत ही आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक होते हैं. इस दिन भक्तों को अपने दिन की शुरुआत देवी के नाम जाप से करनी चाहिए. कमल के आकार का यंत्र बनाने के लिए पांच अलग-अलग रंगों के पाउडर का उपयोग करके मंडप बनाएं. कमल के बीच में राधा-लक्ष्मी की एक सुंदर मूर्ति रखनी चाहिए. पंचामृत, दूध, दही, शहद, घी और गंगा जल के पवित्र मिश्रण से मूर्ति को साफ करके अभिषेक करना चाहिए. देवी को धूप और फूल चढ़ाना चाहिए और आरती तथा मंत्र जाप करने चाहिए. राधा रानी की पूजा में खुद को डुबोने के लिए राधा चालीसा का पाठ करना शुभ होता है.

राधा चालीसा

॥ दोहा ॥
श्री राधे वुषभानुजा, भक्तनि प्राणाधार .
वृन्दाविपिन विहारिणी, प्रानावौ बारम्बार ॥

जैसो तैसो रावरौ, कृष्ण प्रिया सुखधाम .
चरण शरण निज दीजिये, सुन्दर सुखद ललाम ॥

॥ चौपाई ॥
जय वृषभान कुंवारी श्री श्यामा .
कीरति नंदिनी शोभा धामा ॥

नित्य विहारिणी श्याम अधर .
अमित बोध मंगल दातार ॥

रास विहारिणी रस विस्तारिन .
सहचरी सुभाग यूथ मन भावनी ॥

नित्य किशोरी राधा गोरी .
श्याम प्राण धन अति जिया भोरी ॥

करुना सागरी हिय उमंगिनी .
ललितादिक सखियाँ की संगनी ॥

दिनकर कन्या कूल विहारिणी .
कृष्ण प्रण प्रिय हिय हुल्सवानी ॥

नित्य श्याम तुम्हारो गुण गावें .
श्री राधा राधा कही हर्शवाहीं ॥

मुरली में नित नाम उचारें .
तुम कारण लीला वपु धरें ॥

प्रेमा स्वरूपिणी अति सुकुमारी .
श्याम प्रिय वृषभानु दुलारी ॥

नावाला किशोरी अति चाबी धामा .
द्युति लघु लाग कोटि रति कामा ॥

गौरांगी शशि निंदक वदना .
सुभाग चपल अनियारे नैना ॥

जावक यूथ पद पंकज चरण .
नूपुर ध्वनी प्रीतम मन हारना ॥

सन्तता सहचरी सेवा करहीं .
महा मोड़ मंगल मन भरहीं ॥

रसिकन जीवन प्रण अधर .
राधा नाम सकल सुख सारा ॥

अगम अगोचर नित्य स्वरूप .
ध्यान धरत निशिदिन ब्रजभूपा ॥

उप्जेऊ जासु अंश गुण खानी .
कोटिन उमा राम ब्रह्मणि ॥

नित्य धाम गोलोक बिहारिनी .
जन रक्षक दुःख दोष नासवानी ॥

शिव अज मुनि सनकादिक नारद .
पार न पायं सेष अरु शरद ॥

राधा शुभ गुण रूपा उजारी .
निरखि प्रसन्ना हॉट बनवारी ॥

ब्रज जीवन धन राधा रानी .
महिमा अमित न जय बखानी ॥

प्रीतम संग दिए गल बाहीं .
बिहारता नित वृन्दावन माहीं ॥

राधा कृष्ण कृष्ण है राधा .
एक रूप दौऊ -प्रीती अगाधा ॥

श्री राधा मोहन मन हरनी .
जन सुख प्रदा प्रफुल्लित बदानी ॥

कोटिक रूप धरे नन्द नंदा .
दरश कारन हित गोकुल चंदा ॥

रास केलि कर तुम्हें रिझावें .
मान करो जब अति दुःख पावें ॥

प्रफ्फुल्लित होठ दरश जब पावें .
विविध भांति नित विनय सुनावें ॥

वृन्दरंन्य विहारिन्नी श्याम .
नाम लेथ पूरण सब कम ॥

कोटिन यज्ञ तपस्या करुहू .
विविध नेम व्रत हिय में धरहु ॥

तू न श्याम भक्ताही अपनावें .
जब लगी नाम न राधा गावें ॥

वृंदा विपिन स्वामिनी राधा .
लीला वपु तुवा अमित अगाध ॥

स्वयं कृष्ण नहीं पावहीं पारा .
और तुम्हें को जननी हारा ॥

श्रीराधा रस प्रीती अभेद .
सादर गान करत नित वेदा ॥

राधा त्यागी कृष्ण को भाजिहैं .
ते सपनेहूं जग जलधि न तरिहैं ॥

कीरति कुमारी लाडली राधा .
सुमिरत सकल मिटहिं भाव बड़ा ॥

नाम अमंगल मूल नासवानी .
विविध ताप हर हरी मन भवानी ॥

राधा नाम ले जो कोई .
सहजही दामोदर वश होई ॥

राधा नाम परम सुखदायी .
सहजहिं कृपा करें यदुराई ॥

यदुपति नंदन पीछे फिरिहैन .
जो कौउ राधा नाम सुमिरिहैन ॥

रास विहारिणी श्यामा प्यारी .
करुहू कृपा बरसाने वारि ॥

वृन्दावन है शरण तुम्हारी .
जय जय जय व्र्शभाणु दुलारी ॥

॥ दोहा ॥
श्री राधा सर्वेश्वरी,
रसिकेश्वर धनश्याम .
करहूँ निरंतर बास मै,
श्री वृन्दावन धाम ॥
॥ इति श्री राधा चालीसा ॥

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कब मनाई जाती है आश्विन संक्रांति ? पितरों को क्यों प्रिय है आश्विन संक्रांति

क्या है आश्विन संक्रांति 

संक्रांति को देवता माना जाता है. भारत वर्ष में ही संक्रांति का समय बेहद विशेष माना गया है. आश्विन संक्रांति के दिन स्नान करना, भगवान सूर्य को नैवेद्य अर्पित करना, दान या दक्षिणा देना, श्राद्ध अनुष्ठान करना और व्रत तोड़ना या पारणा करना, पुण्य काल के दौरान किया जाना चाहिए. यदि आश्विन संक्रांति सूर्यास्त के बाद होती है तो सभी पुण्य काल से जुड़े स्नान दान के कार्य अगले दिन होते हैं.

संक्रांति का दिन भगवान सूर्य को समर्पित है. यह हिंदू कैलेंडर में एक विशिष्ट सौर दिवस को भी संदर्भित करता है. इस शुभ दिन पर, सूर्य आश्विन राशि में प्रवेश करता है जो सर्दियों के महीनों के लंबे दिनों की शुरुआत का प्रतीक है. आश्विन संक्रांति के दिन से सूर्य अपनी दक्षिण यात्रा करते हैं  आश्विन संक्रांति के अवसर पर संभव हो तो गंगा नदी में स्नान करना शुभ माना जाता है. . अगर ऐसा संभव न हो तो घर पर ही ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करें. इसके लिए पानी में काले तिल और गंगा जल मिलाएं. फिर इससे स्नान करें. इस विधि से स्नान करने से आपको पुण्य का लाभ मिलेगा. मां गंगा की कृपा से आपके पाप मिट जाएंगे और आपको अक्षय पुण्य की प्राप्ति होगी.

आश्विन संक्रांति  पूजा विधि

आश्विन संक्रांति पर स्नान करने के बाद पितरों को तर्पण करते हैं, तर्पण से उन्हें तृप्त करें. फिर घड़े में जल भर कर उसमें लाल चंदन, लाल फूल और गुड़ डालकर सूर्य मंत्र का जाप करते हुए भगवान भास्कर को अर्घ्य देते हैं इसके बाद सूर्य चालीसा, आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करते हैं. फिर कपूर या घी के दीपक से सूर्य आरती करते हैं कुंडली में सूर्य देव और अन्य ग्रहों के दोष दूर करने के लिए दान करना शुभ होता है.

आश्विन संक्रांति का महत्व

शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन भगवान की रात्रि या पितरों का समय है, और उत्तरायण भगवान के दिन या सकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है. सूर्य का कन्या राशि में जाना ही आश्विन संक्रांति और दक्षिणायन समय का प्रतिक माना गया है. कन्या संक्रांति अर्थात आश्विन संक्रांति के दस्मय पर ही पितरों का समय एवं पूजन करना उत्तम होता है. इसलिए लोग पवित्र स्थानों पर गंगा, गोदावरी, कृष्णा, यमुना नदी में पवित्र स्नान करते हैं, मंत्रों का जाप करते हैं, पितरों के लिए पूजा करते हैं. सामान्य तौर पर सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करता है, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि धार्मिक दृष्टि से आश्विन संक्रांति का होना फलदायी होता है.

आश्विन संक्रांति के अवसर पर लोग अपनी भक्ति व्यक्त करते हैं. पूरे वर्ष भर भारत के लोगों के प्रति सूर्य देव की पूजा-अर्चना की जाती है. इस दौरान किया गया कोई भी पुण्य कार्य या दान अधिक फलदायी होता है.

आश्विन संक्रांति पर हल्दी कुमकुम समारोह को इस तरह से करना कि ब्रह्मांड में शांत आदि-शक्ति की तरंगों का आह्वान होता गै. इससे व्यक्ति के मन में सगुण भक्ति की छाप पैदा होती है और ईश्वर के प्रति आध्यात्मिक भावना बढ़ती है. देश के विभिन्न क्षेत्रों में आश्विन संक्रांति को अलग-अलग नामों से मनाया जाता है

संक्रांति मुख्य रूप से स्नान दान का त्यौहार है. पवित्र धर्म नगरियों एव्म नदियों जैसे गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर आश्विन संक्रांति के दिन विशेष पूजा अनुष्ठान होते हैं. इस पावन दिन पर उत्तर प्रदेश में लोग व्रत रखते हैं और खिचड़ी खाते हैं.  इस दिन उड़द, चावल, सोना, तिल, कपड़े, कंबल आदि दान करने का अपना महत्व है. आश्विन संक्रांति पर स्नान के बाद तिल दान करने की परंपरा है.  इस तरह से भारत में आश्विन संक्रांति त्यौहार का अपना अलग महत्व है. इसे विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है.  

आश्विन संक्रांति के लाभ  

सूर्य पूजा को समर्पित आश्विन संक्रांति के दिन सुबह स्नान करके भगवान भास्कर की पूजा करते हैं. सामर्थ्य क्षमता के अनुसार दान करते हैं आश्विन संक्रांति पर स्नान और दान करने से न केवल पुण्य मिलता है, बल्कि व्यक्ति का भाग्य भी मजबूत होता है. ज्योतिष अनुसार ग्रहों के राजा भी हैं. सूर्य की कृपा से आप अपने करियर में बड़ी सफलता हासिल कर सकते हैं. आश्विन संक्रांति पर लाल वस्त्र, लाल फूल और फल, गुड़ और काला तिल, तांबे का लोटा, धूप, दीप, सुगंध, कपूर, नैवेद्य, लाल चंदन, सूर्य चालीसा, आदित्य हृदय स्तोत्र, गेहूं या सप्तधान्य, गाय का घी, कपड़े, कंबल, अनाज, खिचड़ी आदि दान करना एवं पूजा में इनका उपयोग विशेष होता है. 

आश्विन संक्रांति के दिन किया गया सूर्य पूजन रोगों को शांत करता है. अर्थात धर्म में इतनी शक्ति है कि धर्म सभी व्याधियों का हरण कर आपको सुखमय जीवन प्रदान कर सकता है . धर्म इतना शक्तिशाली है कि वह सभी ग्रहों के दुष्प्रभावों को दूर कर सकता है . धर्म ही आपके सभी शत्रुओं का हरण कर उनपर आपको विजय दिला सकता है . शास्त्रों व ज्योतिषशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित सूर्य देव की साधना संक्रांति के समय विशेष होती है. 

आश्विन संक्रांति मंत्र और सूर्य पूजा 

आश्विन संक्रांति के दिन सूर्यदेवका पूजन विभिन्न मंत्रों को करते हुए करने से पितर शांत होते हैं तथा सूर्य देव की कृपा प्राप्त होती है. 

ॐ ऐहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते। अनुकंपये माम भक्त्या गृहणार्घ्यं दिवाकर:।।

ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय, सहस्त्रकिरणाय। मनोवांछित फलं देहि देहि स्वाहा :।।

ऊँ सूर्याय नमः।ऊँ घृणि सूर्याय नमः।

ऊं भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात।

सूर्य मंत्र – ऊँ सूर्याय नमः।

तंत्रोक्त मंत्र – ऊँ ह्यं हृीं हृौं सः सूर्याय नमः। ऊँ जुं सः सूर्याय नमः।

सूर्य का पौराणिक मंत्र

जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिं।

तमोरिसर्व पापघ्नं प्रणतोस्मि दिवाकरं ।।

सूर्य गायत्री मंत्र 

ऊँ आदित्याय विदमहे प्रभाकराय धीमहितन्नः सूर्य प्रचोदयात् ।

ऊँ सप्ततुरंगाय विद्महे सहस्त्रकिरणाय धीमहि तन्नो रविः प्रचोदयात् ।

मंत्र-विनियोग

ऊँ आकृष्णेनेति मंत्रस्य हिरण्यस्तूपऋषि, त्रिष्टुप छनदः सविता देवता, श्री सूर्य प्रीत्यर्थ जपे विनियोगः।

मंत्र:

‘ॐ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।

हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्‌॥

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रांधण छठ – रंधन छठ व्रत कथा

रांधण छठ इसे ललही छठ और हलछठ व्रत भी कहते हैं. इसके अलावा इसे हलषष्ठी, हरछठ व्रत, चंदन छठ, तिनछठी, तिन्नी छठ, कमर छठ या खमर छठ भी कहते हैं. इस दिन को माताओं द्वारा विशेष रुप से पूजा जाता है. माता और संतान के प्रेम का यह अटूट बंधन है जो रांधण छठ के रुप में मनाया जाता है. शास्त्रों में मान्यता है कि इस दिन भगवान बलराम की पूजा करने से संतान की रक्षा होती है. इस दिन भगवान बलराम की पूजा करने से संतान की रक्षा होती है क्योंकि इसी दिन बलराम का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है. 

रांधण छठ संतान प्राप्ति का योग 

रांधण छठ का व्रत विशेष रुप से संतान के कल्याण हेतु किया जाता है. अपनी संतान की लंबी उम्र की कामना के साथ मातें इस व्रत को रखती हैं. निसंतान दंपत्ति भी संतान सुख के लिए इए व्रत को करके संतान का सुख पाते हैं. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन माताएं अपनी संतान की सुख-समृद्धि और लंबी आयु की कामना से हलछठ व्रत रखती हैं. इसी दिन श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम का भी जन्म हुआ था. 

हलछठ व्रत पूजा विधि जो करती है आपकी मनोकामनाएं पूर्ण

हलछठ व्रत के दिन सुबह स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए पूजा कक्ष को साफ करके भगवान की पूजा करनी चाहिए. पूरे दिन बिना कुछ खाए-पिए व्रत रखा जाता है. शाम को पूजा और कथा पढ़ने के बाद फलाहार करना चाहिए. इस व्रत में नियमों का विशेष ध्यान रखा जाता है. इस व्रत में कई नियमों का पालन करना होता है. इस व्रत में गाय का दूध या दही इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. साथ ही गाय के दूध या दही का सेवन भी वर्जित माना गया है. इस दिन केवल भैंस का दूध या दही ही खाया जाता है, साथ ही हल से जोता हुआ कोई अनाज या फल नहीं खाया जा सकता है.

रांधण छठ कथा 

रांधण छठे से जुड़ी दो कथाएं बेहद प्रसिद्ध हैं. एक कथा अनुसार माता शीतला कथा का पूजन होता है. एक अन्य कथा ग्वालिन से संबंधित है. 

ग्वालिन की कथा 

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्राचीन समय में एक ग्वालिन थी. उसके प्रसव का समय बहुत निकट था. एक ओर वह प्रसव को लेकर चिंतित थी तो दूसरी ओर उसका मन दूध-दही बेचने में लगा हुआ था. उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो सब वहीं पड़ा रह जाएगा. यह सोचकर उसने दूध,दही के बर्तन सिर पर रखे और उन्हें बेचने चल दी, लेकिन कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा होने लगी. वह एक रसभरी के पेड़ की ओट में चली गई और वहीं एक बच्चे को जन्म दिया.वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध और दही बेचने चली गई. संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी. उसने गाय और भैंस के मिले दूध को भैंस का दूध कहकर सीधे-सादे ग्रामीणों को बेच दिया. उधर, जिस रसभरी के पेड़ के नीचे वह बच्चे को छोड़कर गई थी, उसके पास ही एक किसान खेत जोत रहा था. अचानक उसके बैल भड़क गए और हल की धार उसके शरीर में घुसने से बच्चा मर गया.

इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया. उसने बच्चे के फटे पेट को रसभरी के पेड़ के कांटों से सिल दिया और उसे वहीं छोड़कर चला गया. थोड़ी देर बाद दूध बेचने वाली ग्वालिन वहां पहुंची. बच्चे की हालत देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है. वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता तथा गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता, तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती. अत: मुझे वापस जाकर गांव वालों को सब कुछ बताकर प्रायश्चित करना चाहिए. ऐसा निश्चय करके वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध,दही बेचा था. तब स्त्रियों ने अपने धर्म की रक्षा के लिए तथा उसे क्षमा करने के लिए दया करके उसे क्षमा कर दिया तथा आशीर्वाद दिया.

जब वह अनेक स्त्रियों से आशीर्वाद लेकर पुनः रसभरी के पेड़ के नीचे पहुंची, तो यह देखकर आश्चर्यचकित हो गई कि उसका पुत्र वहां जीवित पड़ा है. तब से लोग भक्ति भाव के साथ रांघण छठ का व्रत एवं पूजन करते आ रहे हैं. 

रांधण छठ अन्य कथा -शीतला माता कथा

एक नगर में एक महिला अपनी दो बहुओं के साथ रहती थी. सबसे छोटी बहू बहुत ही दयालु और भोली थी. रांधन छठ की शाम को सबसे छोटी बहू ने परिवार के लिए खाना बनाना शुरू किया. रात होने के कारण वह थक गई थी और उसे नींद आ गई. वह चूल्हे से अंगारे हटाना भूल गई. परंपरागत रूप से रांधन छठ पर शीतला मां सभी के घर जाती हैं और चूल्हे पर बैठी महिलाओं को आशीर्वाद देती हैं. उस शाम जब शीतला मां के घर पहुंचीं तो चूल्हे पर अंगारे देखकर वह बहुत क्रोधित हो गईं, शीतला मां ने क्रोधित होकर बहू को श्राप दे दिया कि जैसे मेरा शरीर जला है, वैसे ही तुम्हारे पुत्र भी जलेंगे. सुबह बहू उठी तो देखा कि उसका बेटा जलकर मर गया है. छोटी बहू की चीखें सुनकर सास और उसकी बड़ी बहू दौड़कर आईं और मृत बच्चे को देखा. सास ने कहा कि तुम रात को अंगारे डालना भूल गई और अब तुम्हें शीतला मां का श्राप मिल गया है. उसकी सास ने सुझाव दिया कि वह बच्चे को लेकर तुरंत शीतला मां की तलाश करे और उनसे क्षमा मांगे. वह अपने बच्चे को टोकरी में लेकर देवी को खोजने निकल पड़ी. यात्रा के दौरान बहू को दो झीलें दिखाई दीं, उसे बहुत प्यास लगी थी. जब वह पानी पीने गई तो उसे झील से आवाजें सुनाई दीं कि वह उसे यह पानी न पिए क्योंकि यह श्रापित है. जो भी पशु, पक्षी या व्यक्ति यह पानी पीएगा वह मर जाएगा. झीलों ने बहू से पूछा कि वह कहां जा रही है? और तुम क्यों रो रही हो? बहू ने सरोवरों से कहा कि वह शीतला माता से क्षमा मांगने जा रही है. सरोवरों ने बहू से मदद मांगी और कहा कि जब शीतला माता मिलें तो उनसे जरूर पूछें कि उनके सरोवरों का पानी जहरीला क्यों है. बहू आगे बढ़ी. वहां उसे दो बैल दिखाई दिए, उनके गले में आटा पीसने का भारी पत्थर बंधा था और वे लगातार लड़ रहे थे. उन्होंने उससे पूछा तुम कहां जा रही हो? उसने उन्हें अपनी कहानी सुनाई कि वह अपने बेटे को बचाने के लिए शीतला माता की खोज में निकली है. बैलों ने उससे कहा कि शीतला माता से पूछो कि हम हर समय लड़ते क्यों रहते हैं?  उन्होंने उससे शीतला माता से उनकी समस्या का समाधान करने में मदद करने के लिए कहा. बहू आगे बढ़ती रही. उसे एक पेड़ के नीचे बैठी एक बूढ़ी महिला मिली, जिसके कपड़े गंदे थे. उसके बाल बिखरे हुए थे और वह अपना सिर खुजला रही थी. महिला ने बहू से कहा कि वह आकर उसके बालों को देखे. बहू का दिल बड़ा था और वह देखभाल करने वाली थी.  

महिला बहुत आभारी हुई और राहत महसूस की. उसने बहू को आशीर्वाद दिया और आशा व्यक्त की कि उसकी इच्छा पूरी होगी. अचानक बिजली चमकी और उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया. तभी उसने देखा कि शीतला उसके बच्चे को गोद में लिए खड़ी हैं. बहू ने अपनी गलती के लिए शीतला माता से माफ़ी मांगी, माँ ने उसे आशीर्वाद दिया. फिर बहू ने शीतला माँ को दो झीलों के बारे में बताया. शीतला माता ने बहू को उनके पिछले जन्मों के बारे में बताया और कहा कि वे दोनों बहुत स्त्रियाँ लोगों को दूध और मक्खन में पानी मिलाकर पिलाती थीं उन्होंने स्वार्थी कर्म किए थे और अब अपने कुकर्मों का फल भोग रही हैं. तब शीतला माता ने बहू से कहा कि सरोवरों से जल लेकर चारों दिशाओं में ‘मेरा’ कहते हुए छिड़को और फिर थोड़ा पानी पी लो. वे अपने पापों से मुक्त हो जाएंगी.

तब बहू ने उन दो बैलों के बारे में पूछा और शीतला माता ने कहा कि पिछले जन्म में वे देवरानी-जेठानी थीं, यदि कोई उनके पास मदद के लिए आता तो वे केवल अपना स्वार्थ पूरा करवाती थीं. इसलिए आज आपस में लड़ती रहती हैं. शीतला माता ने बहू से कहा कि बैलों के पास जाओ और उनसे पत्थर हटाओ, उनका श्राप हट जाएगा. इसके बाद शीतला माता अंतर्धान हो गईं.

अपने मुस्कुराते हुए बेटे को टोकरी में लेकर घर वापस लौटते समय बहू बैलों के पास गई. उसने बैलों के पेट से भारी पत्थर हटा दिए और पीसने वाले पत्थरों के वजन के बिना शांत हो गए. फिर उसने दो झीलों का जल चारों दिशाओं में छिड़का और थोड़ा पी लिया. झीलों में जीवन लौट आया लोग इसका उपयोग करने लगे. फिर बहू घर गई और बच्चे को अपनी सास और ससुर की गोद में रख दिया, मुस्कुराते हुए और हँसते हुए वे सभी बहुत खुश होते हैं इस प्रकार संतान के सुख और परिवार की शांति को प्रदान करने वाला रांधण छठ व्रत भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है. 

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चन्दन षष्ठी व्रत कथा : चंदन षष्ठी व्रत पूजा महत्व

चन्दन षष्ठी व्रत : भगवान बलभद्र का जन्मोत्सव  

चंदन षष्ठी का उत्सव भादो माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी के दिन रखा जाता है. जन्माष्टमी से पहले आने वाले इस उत्सव के दिन भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बल भद्र का पूजन होता है. चंदन षष्ठी को कई नामों से जाना जाता है. इसे हल षष्ठी, ललही छठ, बलदेव छठ, रंधन छठ, हल छठ, हर छठ व्रत, चंदन छठ आदि नामों से जाना जाता है.इस व्रत में हल से जोते गए अनाज और सब्जियों का सेवन नहीं किया जाता है. 

इस दिन को भगवान बलराम की जयंती के रूप में मनाया जाता है. भगवान बलराम को शेषनाग के अवतार के रूप में पूजा जाता है, जिन्हें क्षीर सागर में भगवान विष्णु के साथ रहने वाली शय्या के रूप में जाना जाता है. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भगवान बलराम का मुख्य शस्त्र हल और मूसल है इसीलिए उन्हें हलधर भी कहा जाता है.

चंदन षष्ठी के दिन जन्म श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम

चंदन षष्ठी व्रत के बारे में शास्त्रों में विस्तार से प्राप्त होता है. चंदन षष्ठी व्रत हर साल भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को किया जाता है. जन्माष्टमी के समय से पहले कृष्ण भगवान के बड़े भाई के जन्म का उत्सव मनाया जाता है. यह व्रत विवाहित और अविवाहित महिलाएं कर सकती हैं. इस दिन महिलाएं पूरे दिन व्रत रखती हैं और विशेष रूप से सूर्य और चंद्रमा की पूजा करती हैं इस दिन व्रत कथा सुनी और सुनाई जाती है.  चंद्रमा को अर्घ्य देते हैं और रात में भोजन करते हैं. कहा जाता है कि यदि व्रती ने चंदन षष्ठी व्रत का उद्यापन कर लिया है, तभी वह किसी भी व्रत का उद्यापन दोबारा कर सकता है. सबसे पहले इस व्रत का उद्यापन करना होता है और मासिक धर्म के दौरान महिलाओं द्वारा स्पर्श, अस्पर्श, भक्ष्य, अभक्ष्य आदि दोषों से बचने के लिए यह व्रत किया जाता है.

चंदन षष्ठी व्रत संतान सुख की कामना को करता है पूरा

भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को हलषष्ठी और चंद्र छठ मनाई जाती है. इस साल यह पर्व हर साल उत्साह के साथ मनाया जाता है कि अविवाहित लड़कियां भी यह व्रत रख सकती हैं. इस व्रत में किसी भी तरह का खाना-पीना वर्जित होता है.  इस व्रत में हल से जोते गए अनाज और सब्जियों का सेवन नहीं किया जाता है. कुछ राज्यों में महिलाएं अपनी संतान की दीर्घायु और स्वास्थ्य के लिए चंदन षष्ठी व्रत रखती हैं और इस दिन चंदन षष्ठी पूजा की जाती है.

इस दिन पूजा में एक लोटे में जल रखकर उस पर रोली छिड़की जाती है और सात तिलक लगाए जाते हैं. एक गिलास में गेहूं रखा जाता है और ऊपर अपनी श्रद्धा के अनुसार पैसे रखे जाते हैं. हाथ में गेहूं के सात दाने लेकर कथा सुनी जाती है. इसके बाद चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाता है  इस दिन गेहूं और पैसे ब्राह्मण को दिए जाते हैं. चंद्रमा को जल अर्पित करने के बाद व्रत के नियमों का पालन करते हुए व्रत संपन्न होता है. इस तरह से अलग अलग नियमों के साथ लोग इस दिन का उत्सव मनाते हैं.

चंदन षष्ठी व्रत कथा

एक शहर में एक धनी व्यक्ति और उसकी पत्नी रहा करते थे. पत्नी मासिक धर्म के दौरान भी बर्तनों को छूती रहती थी. कुछ समय बाद धनी व्यक्ति और उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई. मृत्यु के बाद धनी व्यक्ति को बैल का रूप मिला और पत्नी को कुतिया का रूप मिला. वे दोनों अपने बेटे के घर की रखवाली करते थे. यह उनके पिता का श्राद्ध था. पत्नी ने खीर बनाई. जब वह किसी काम से बाहर गई तो एक चील ने खीर के बर्तन में सांप गिरा दिया. बहू को इस बात का पता नहीं चला. लेकिन कुतिया यह सब देख रही थी. वह जानती थी कि चील ने खीर में सांप गिरा दिया है.

कुतिया ने सोचा कि अगर ब्राह्मण इस खीर को खा लेंगे तो वे मर जाएंगे. यह सोचकर कुतिया ने खीर के बर्तन में अपना मुंह डाल दिया. गुस्से में बहू ने कुतिया को जलती हुई लकड़ी से बहुत मारा जिससे उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई. बहू ने उस खीर को फेंक दिया और दूसरी खीर बना ली. सभी ब्राह्मण भोजन से तृप्त होकर चले गए. परंतु पुत्रवधू ने कुतिया को बचा हुआ भोजन भी नहीं दिया. रात्रि में कुतिया और बैल में बातचीत होने लगी. कुतिया बोली, ‘आज तुम्हारा श्राद्ध था. तुम्हें खाने को बहुत से व्यंजन मिले होंगे. परंतु मुझे आज कुछ खाने को नहीं मिला, उलटे मुझे बहुत मारा गया. उसने बैल को खीर और सांप के बारे में बताया. बैल बोला, ‘आज मुझे भी भूख लगी है. मुझे कुछ खाने को नहीं मिला. आज मुझे बाकी दोनों से अधिक काम करना पड़ा. बेटा और पुत्रवधू बैल और कुतिया की सारी बातें सुन रहे थे. 

बेटे ने पंडितों को बुलाकर उनसे पूछा और अपने माता-पिता की योनि के बारे में जानकारी ली कि वे किस योनि में गए हैं. पंडितों ने बताया कि माता कुतिया की योनि में गई है और पिता बैल की योनि में गए हैं. लड़के को सारी बात समझ में आ गई और उसने पंडितों से उनकी योनि से मुक्ति का उपाय भी पूछा. पंडितों ने सलाह दी कि भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को जब कुंवारी लड़कियां चंद्रमा को जल चढ़ाने लगे तो दोनों को उस जल के नीचे खड़ा होना चाहिए, तब उन्हें इस योनि से मुक्ति मिल सकती है. तुम्हारी माता रजस्वला अवस्था में सभी बर्तन छूती थी, इसीलिए उसे यह योनि मिली है. आने वाली चंद्र षष्ठी को लड़के ने उपरोक्त निर्देश का पालन किया, जिसके कारण उसके माता-पिता को कुतिया और बैल की योनि से मुक्ति मिल गई.

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श्रावण पुत्रदा एकादशी : कुंडली के पंचम भाव को बनाती है शुभ

व्रत त्यौहारों का मनाया जाना सनातन परंपरा में किसी न किसी कारण के शुभ फलों को देने वाला होता है. व्रत त्यौहारों का संबंध ज्योतिष के साथ जुड़ा हुआ माना गया है. ज्योतिष अनुसार कुछ विशेष भावों की शुभता में व्रत एवं पर्व बेहद विशेष भुमिका का निर्धारण करते हैं. इसी में एक पर्व है जिसे सावन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन मनाया जाता है.

इस एकादशी को संतान सुख के लिए बेहद उत्तम माना गया है. इस एकादशी के शुभ फलों में पुत्र संतति, वंश वृद्धि के साथ अनेक प्रकार के दोषों की शांति संभव होती है. तो चलिये जान लेते हैं कि कैसे सावन माह की ये एकादशी देती है विशेष फल और कैसे ज्योतिष अनुसार कुंडली के भाव फल होते हैं जागृत. 

जन्म कुंडली से जानें संतान योग : – https://astrobix.com/discuss/index

ज्योतिष अनुसार पुत्रदा एकादशी महत्व 

ज्योतिष अनुसार जब कुंडली में किसी भाव के फलों की प्राप्ति में बाधाएं होती हैम तब उस स्थिति में किस जाने वाले उपाय बेहद कारगर सिद्ध होते हैं. जन्म कुंडली का पंचम भाव संतान सुख से जुड़ा हुआ है. जब कुंडली में इस भाव की स्थिति कमजोर होती है. भाव के कमजोर होने पर अनुकूल परिणाम मिलने में देरी का सामना करना पड़ता है. इस स्थिति से बचाव के लिए श्रावण पुत्रदा एकादशी बेहद कारगर सिद्ध होती है. भविष्य पुराण में इस दिन के महत्व के बारे में बताया गया है, श्रावण पुत्रदा एकादशी दिन बहुत ही शुभ होता है इस दिन व्रत रखने एवं पूजा द्वारा संतान से संबंधित कष्ट दूर होते हैं.  

श्रावण पुत्रदा एकादशी 2024 तिथि और समय

श्रावण पुत्रदा एकादशी की तिथि 16 अगस्त 2024 (शुक्रवार) है

श्रावण पुत्रदा एकादशी तिथि प्रारंभ – 15 अगस्त, 2024 (गुरुवार) को सुबह 10:26 बजे

श्रावण पुत्रदा एकादशी तिथि समाप्त – 16 अगस्त, 2024 (शुक्रवार) को सुबह 09:39 बजे

श्रावण पुत्रदा एकादशी क्या है?

श्रावण पुत्रदा एकादशी 2024 इस साल की 24 एकादशियों में से एक है. यह एकादशी हर साल श्रावण मास में शुक्ल पक्ष के 11वें दिन आती है.  श्रावण पुत्रदा एकादशी को पवित्रोपना एकादशी और पवित्रा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. साल में दो उत्तरदा एकादशी होती हैं, एक पौष मास (दिसंबर-जनवरी) के शुक्ल पक्ष में आती है. यह एक ऐसा व्रत है जिसे पति-पत्नी दोनों रखते हैं.

श्रावण पुत्रदा एकादशी की कथा और महत्व

हम समझ गए हैं कि श्रावण पुत्रदा एकादशी क्या है. अब हम आगे बढ़ेंगे और व्रत कथा या शुभ एकादशी की कहानी के बारे में जानेंगे. क्या हुआ था? इस दिन का क्या महत्व है? हम इसके बारे में आगे सब कुछ जानेंगे. चलिए शुरू करते हैं.

श्रावण पुत्रदा एकादशी लोमेश ऋषी और महिजीत कथा 

श्रावण एकादशी के संदर्भ में लोमेश ऋषी और राजा महिजीत की कथा प्रचलित हैं इस कथा के अनुसार अपनी शक्ति और धन के बावजूद, राजा महीजित को संतान नहीं हुई और उन्होंने कई संतों और ऋषियों से मदद मांगी, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. अंत में, ऋषि लोमेश ने दिव्य दर्शन के माध्यम से बताया कि राजा व्यापारी के रूप में अपने पिछले जन्म के पाप के कारण निःसंतान था. पूर्व जन्म में राजा व्यापारी था और उसने स्वार्थवश एक गाय और उसके बछड़े को डराकर तालाब का पानी नहीं पीने दिया स्वयं सारा पानी पी लिया था. इस कृत्य के कारण उसे अगले जन्म में निःसंतान होने का श्राप मिलता है, लेकिन उसके अन्य अच्छे कर्मों ने उसे राजा के रूप में पुनर्जन्म की प्राप्ति भी होती है किंतु संतान हीनता का दुख भी मिलता है. ऋषी लोमेश की बातों को सुनकर उसने इस श्राप से मुक्ति का उपाय पूजा तब लोमेश ऋषी ने राजा को श्रावण पुत्रदा एकादशी के व्रत करने की बात कही. 

ऋषि की बातों को सुनकर राजा और रानी को भगवान विष्णु की पूजा करने के लिए श्रावण एकादशी पर व्रत रखा. एकादशी का पालन किया, प्रार्थना की, उपवास किया, मंत्रों का जाप किया और दान किया. परिणामस्वरूप, उन्हें एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई जो उनके राज्य का उत्तराधिकारी बना.

जन्म कुंडली का पंचम भाव होता है प्रबल 

श्रावण पुत्रदा एकादशी के दिन किए गए व्रत पूजन अनुष्ठानों से संतान भाव को प्रबलता मिलती है. यह एक शक्तिशाली पंचम भाव को दिखाता है और  इस एकादशी का व्रतअनुष्ठा किया जाता है, तो यह संतान प्राप्ति की इच्छा को पूरा करता है. श्रावण पुत्रदा एकादशी का व्रत आमतौर पर पति और पत्नी दोनों ही रख सकते हैं. इस दिन व्रत रखने से पिछले पाप भी दूर होते हैं और भक्त को मोक्ष प्राप्त करने के लिए अच्छे कर्म करने का अवसर मिलता है.

श्रावण पुत्रदा एकादशी देता है जन्म कुंडली के संतान योग को शुभता मिलती है. श्रावण पुत्रदा एकादशी का व्रत उन के लिए बहुत फायदेमंद है जो संतान के रूप में पुत्र चाहते हैं. यह भक्तों की इच्छाओं को पूरा करता है, और यह उन दंपत्तियों के लिए अत्यधिक शुभदायक और अनुकूल है जो गर्भधारण करने में परेशानी का सामना कर रहे हैं. या संतान होने में किसी न किसी कारण से देरी का असर झेल रहे हैं. यह व्यक्ति के पिछले पाप कर्मों को भी दूर कर देता है. पितर दोषों की शांति भी इस के द्वारा संभव होती है.

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आदि अमावस्या : क्यों और कब मनाई जाती है आदि अमावस्या जानें इसका महत्व

पंचांग गणना अनुसार प्रत्येक माह में अमावस्या का आगमन होता है. यह अमावसाय तिथि कृ्ष्ण पक्ष के अंतिम दिन में मनाई जाती है जिसके पश्चात शुक्ल पक्ष का आरंभ होता है. अमावस्या को कई नामों से पुकारा जाता है. जिस माह में जो अमावस्या आती है उसे उस नाम से पुकारते हैं. जैसे श्रावण माह में आने वाली अमावस्या तिथि को सावन अमावस्या के नाम से पुकारा जाता है उसी प्रकार तमिल संप्रदाय द्वारा आदि अमावस्या, तमिल महीने के आदि माह में आने वाली अमावस्या होती है जिसे माह के नाम से आदि अमावस्या कहा जाता है. 

अमावस्या तिथि का महत्व हर समुदाय के लिए विशेष रहा है. यह वह समय होता है जब कुछ विशेष नियमों का पालन भी किया जाता है. इस दिन को श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है. आदि अमावस्या में लोग अपने पूर्वजों का सम्मान करने और उनसे आशीर्वाद लेने के लिए अत्यधिक शुभ मानते हैं.  तमिल महीना आदि, जो जुलाई के मध्य से अगस्त के मध्य तक चलता है, आध्यात्मिक महत्व का समय है, और आदि अमावस्या इसके भीतर एक विशेष क्षण को चिह्नित करती है. 

आदि अमावस्या 2024 की तिथि और समय

वर्ष 2024 में आदि अमावस्या 4 अगस्त, रविवार को मनाई जाएगी. इस पवित्र दिन की शुरुआत को 3 अगस्त को 15:50 बजे शुरू होगी और 4 अगस्त को 16:42 बजे समाप्त होगी. इस अवधि को पारंपरिक रूप से पूजा मंत्रों  और प्रार्थनाओं के साथ मनाया जाता है.

तमिल महिनों के नाम 

थाई, माछी, मासी, पंगुनी, चिट्ठी (चिट्ठिराई), वैकासी, आनी, आदि, आवनी, पुरात्तासी, अइप्पासी, कार्तिकाई, मार्कजी़(मरकज़ी)

इन सभी महिनों में आने वाली अमावस्याओं को इन नामों से भी पुकारा जाता है. 

आदि अमावस्या का ज्योतिष अनुसार महत्व 

आदि अमावस्या के दिन को ज्योतिष अनुसार भी काफी विशेष माना गया है. इस दिन, सूर्य और चंद्रमा एक ही राशि में होते हैं. सूर्य पिता और आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है, और चंद्रमा माता और मन का प्रतिनिधित्व करता है. इस कारण ये दोनों ग्रह पूर्वजों के रुप में माता-पिता का प्रतिनिधित्व करते हुए भक्तों को उनकी आध्यात्मिक यात्रा पर मार्गदर्शन करते हैं. माना जाता है कि यह भक्ति के साथ साथ प्रार्थनाओं और भक्ति की शक्ति को बढ़ाता है, जिससे यह पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने और उनका आशीर्वाद लेने का एक आदर्श समय बन जाता है. 

आदि अमावस्या का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व रहा है. तमिल संस्कृति और हिंदू समुदाय में आदि अमावस का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व बहुत अधिक रहता है. यह अमावस्या का दिन अपने पूर्वजों के सम्मान के लिए पितृ तर्पण करने के लिए शुभ होता है. 

पितृ दोष शांति : आदि अमावस्या को पितरों के पूजन के लिए काफी विशेष माना गया है. इस दिन पितरों का पूजन पितृ दोष की शांति रहती है. पितृ तर्पण में पूर्वजों को भोजन, जल और प्रार्थना अर्पित करते हैं. माना जाता है कि य्ह दिन पूर्वजों को जन्म और मृत्यु के चक्र से मोक्ष प्राप्त करने में सहायता करता है. पूर्वजों को याद करने और उनका सम्मान करने का कार्य इस विश्वास पर आधारित है कि उनके आशीर्वाद से जीवित लोगों को समृद्धि, स्वास्थ्य और आध्यात्मिक विकास मिल सकता है. एक ही राशि में सूर्य और चंद्रमा का होना माता-पिता के मिलन का प्रतीक है, जो इसे आध्यात्मिक अभ्यास करने के लिए एक अत्यंत शक्तिशाली समय बनाता है. यह प्रार्थनाओं और भक्तों को लाभ पहुंचाता है, जो इसे पूर्वजों का आशीर्वाद लेने के लिए एक आदर्श समय बनाता है.

आदि अमावस्या जीवित लोगों को अपने दिवंगत पूर्वजों से जुड़ने का अवसर प्रदान करती है. इस समय के दौरान, यह माना जाता है कि भौतिक दुनिया आध्यात्मिक क्षेत्र के करीब होती है. यह समय पूजा अनुष्ठान को अधिक शक्ति प्रदान करता है. इस दिन किए जाने वाले पूजा कार्यों में गलत काम के लिए क्षमा मांगने और वंश वृद्धि का आशिर्वाद देता है. आदि अमावस्या पर पूजा दान स्नान के कामों को करने से जीवन में सौभाग्य, समृद्धि और आशीर्वाद मिलता है. इस के द्वारा परिवार के लिए सकारात्मक ऊर्जा और आशीर्वाद प्राप्त होता है. इसके अलावा, आदि अमावस्या अतीत, वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के परस्पर संबंध की याद दिलाती है. यह भक्तों को पारिवारिक बंधनों को बनाए रखने और उन्हें संजोने तथा इन परंपराओं को भावी पीढ़ियों तक पहुँचाने के लिए प्रोत्साहित करती है.

आदि अमावस्या से जुड़ी खास बातें 

आदि अमावस्या की शुरुआत भक्तों द्वारा सुबह जल्दी उठकर स्नान और ध्यान जैसे कार्यों से शरीर और मन को शुद्ध करना शामिल होती है. इसके बाद, पूजा करने के साथ साथ प्रभु का आशीर्वाद लेने के लिए मंदिरों में जाते हैं. इस दिन दान-पुण्य के कार्य भी महत्वपूर्ण होते हैं. इस दिन जरूरतमंदों को  भोजन, कपड़े और अन्य आवश्यक वस्तुएं दान करना विशेष होता है. 

आदि अमावस्या के समय तर्पण से संबंधित कार्य किए जाते हैं, जो विशेष रूप से मृत पूर्वजों की आत्माओं के प्रति सम्मान हेतु होते हैं. इस दिन तर्पण के कार्यों को नदियों, समुद्रों, तालाबों या झीलों जैसे प्राकृतिक जल निकायों के पास किए जाने का विशेष विधान माना गया है. पूर्वजों को तिल और पानी चढ़ाते हैं, ये तर्पण आत्माओं को तृप्त करने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए प्रतीकात्मक कार्य हैं. तर्पण के दौरान मंत्रों का अनुष्ठानिक जाप भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह पूर्वजों की उपस्थिति का आह्वान करता है और उन्हें मुक्ति की ओर ले जाता है.

उपवास और पूजा: व्रत पूजा उपवास आदि अमावस्या के नियमों का महत्वपूर्ण पहलू है. इस दिन भक्त पूजा एवं उपवास के नियमों को चुनते हैं, इस दौरान केवल एक बार भोजन करते हैं या भोजन से पूरी तरह परहेज़ करते हैं. आत्म-अनुशासन और भक्ति के इस कार्य को मन और शरीर को शुद्ध करने के तरीके के रूप में देखा जाता है. इस दिन मंदिरों और घरों में विशेष पूजा की जाती है. इस पूजा हवन इत्यादि में मंत्रोच्चार और देवताओं और पूर्वजों को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद शामिल होते हैं. दक्षिण भारत में, रामेश्वरम में अग्नि तीर्थम और कन्याकुमारी में त्रिवेणी संगमम जैसे पवित्र स्थल आस्था का मुख्य केन्द्र होते हैं. 

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