नवरात्रों में गृह शांति के उपाय | Remedies For Planet Pacification in Navratras

नवरात्रों के समय गृह शांति  पूजा सभी बाधाऔम को दूर करने का योग्य समय होता है. अध्यात्मिक साधना के लिए जो लोग इच्छुक होते हैं वह लोग इन दिनों साधना रत रहते है. ग्रहों से पीड़ित व्यक्ति इन दस दिनों में ग्रह शांति भी कर सकते हैं यह इसके लिए उत्तम समय होता है.

दुर्गा पूजा के साथ ग्रह शांति | Planet Pacification Rituals with Durga Puja

माता दुर्गा ही सभी तंत्र और मंत्र की आधार हैं.यह देवी कालरात्रि हैं, काली और कपालिनी हैं.सभी तंत्र और मंत्र, यंत्र इन्हीं से जन्म लेते हैं और इन्हीं में मिल जाते हैं.बिना मंत्र के इनकी साधना अपूर्ण मानी जाती है.ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पृथ्वी पर जो भी मनुष्य हैं वे किसी न किसी ग्रह से पीड़ित हैं, ग्रहों की पीड़ा से बचने का एक मात्र उपाय उनकी शांति हैं.ग्रहों की शांति के लिए भी यंत्र और मंत्र प्रभवकारी हैं.दुर्गा पूजा के दस दिनों में अगर इनकी सहायता से ग्रह शांति करें तो इसका लाभ जल्दी मिलता है.इन दिनों हम लोग माता दुर्गा के लिए कलश स्थापित करके नियमित मां की पूजा करते हैं.मां की पूजा के बाद अगर प्रत्येक दिन एक एक ग्रह की शांति करें तो न दिनों में न ग्रहों की शांति हो जाएगी और ग्रहों के अशुभ प्रभाव के कारण जो भी परेशानी आ रही है उनसे आपको राहत मिल सकती है।

नवग्रह शांति विधि | Rituals For Pacification of Nine Planets

नवरात्रों के न दिनों में नवग्रह शांति की विधि यह है कि प्रतिपदा के दिन आप मंगल ग्रह की शांति करें, द्वितीय के दिन राहु की, तृतीया के दिन बृहस्पति की, चतुर्थी के दिन शनि ग्रह की, पंचमी के दिन बुध ग्रह की, षष्ठी के दिन केतु की, सप्तमी के दिन शुक्र की, अष्टमी के दिन सूर्य की एवं नवमी के दिन चन्द्रमा की.ग्रह शांति की प्रक्रिया शुरू करने से पहले कलश स्थापन और दुर्गा मां की पूजा करनी चाहिए.माता की पूजा के बाद लाल रंग के वस्त्र पर एक यंत्र बनायें.इस यंत्र में तीन खाने बनाकर      ৠपर के तीन खानो में बुध, शुक्र, चन्मा स्थापित करें बीच में गुरू, सूर्य, मंगल और नीचे के तीन खाने में केतु, शनि, राहु को स्थान दें.यंत्र बनने के बाद नवग्रह बीज मंत्र से इस यंत्र की पूजा करे फिर नवग्रह शांति का संकल्प करें.

प्रतिपदा के दिन मंगल ग्रह की शांति होती है इसलिए मंगल ग्रह की फिर से पूजा करनी चाहिए.पूजा के बाद पंचमुखी रूद्राक्ष, मूंगा अथवा लाल अकीक की माला से 108 मंगल बीज मंत्र का जप करना चाहिए.जप के बाद मंगल कवच एवं अष्टोत्तरशतनाम का पाठ करना चाहिए.इसी प्रकार से राहु की शांति के लिए द्वितीया तिथि को राहु की पूजा के बाद राहु के बीज मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए फिर अष्टोत्तरशतनाम व कवच पाठ करना चाहिए.नवग्रह की शांति के लिए सभी ग्रह का विधान इसी प्रकार से रहेगा यानी सम्बन्धित ग्रह के बीज मंत्र से जप के बाद अष्टोत्तरशतनाम व कवच पाठ करें. दसवीं के दिन नवग्रह यंत्र की पूजा के बाद इसे घर में पूजा स्थल पर स्थापित कर देना चाहिए और नियमित इसकी पूजा करनी चाहिए.

ग्रह शांति माला | Rosary For Planet Pacification

जप माला सभी ग्रह के लिए अलग प्रयोग करना चाहिए जैसे राहु के लिए पंचमुखी रूद्राक्ष, पीले अकीक या सुनहले की माला.शनि के लिए पंचमुखी रूद्राक्ष या काले अकीक की माला, बुध के लिए हरे अकीक की माला या चारमुखी रूद्राक्ष की माला.केतु के लिए  न मुखी रूद्राक्ष की माला.अगर नमुखी रूद्राक्ष न मिले तो पंचमुखी रूद्राक्ष से भी जप किया जा सकता है.शुक्र के लिए स्फटिक, चन्दन, सफेद अकीक की माला.सूर्य की शांति के लिए लाल अकीक की माला, पंचमुखी रूद्राक्ष या रक्त चंदन की माला.चन्द्रमा की शांति के लिए मोती अथवा सफेद अकीक की माला का प्रयोग करना चाहिए.

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अहोई अष्टमी व्रत पूजन 2025 | Ahoi Ashtami Vrat Puja 2025 | Ahoi Ashtami Vrat | Ahoi Aathe 2025

कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष कि अष्टमी को अहोई अष्टमी का व्रत किया जाता है. यह व्रत पूजन संतान व पति के कल्याण हेतु किया जाता है. अहोई अष्टमी व्रत उदयकालिक एवं प्रदोषव्यापिनी अष्टमी को ही किया जाता है. यह व्रत मुख्यत: स्त्रियों द्वारा किया जाता है. सन्तान की रक्षा और उसकी लंबी उम्र की कामना के लिए यह व्रत मुख्य है. वर्ष 2025 को अहोई अष्टमी 13 अक्टूबर के दिन मनाई जानी है.

अहोई अष्टमी महत्व | Ahoi Ashtami Importance

संतान की शुभता को बनाये रखने के लिये क्योकि यह उपवास किया जाता है. इसलिये इसे केवल माताएं ही करती है. एक मान्यता के अनुसार इस दिन से दीपावली का प्रारम्भ समझा जाता है. अहोई अष्टमी के उपवास को करने वाली माताएं इस दिन प्रात:काल में उठकर, एक कोरे करवे (मिट्टी का बर्तन) में पानी भर कर. माता अहोई की पूजा करती है. पूरे दिन बिना कुछ खाये व्रत किया जाता है. सांय काल में माता को फलों का भोग लगाकर, फिर से पूजन किया जाता है.

तथा सांयकाल में तारे दिखाई देने के समय अहोई का पूजन किया जाता है. तारों को करवे से अर्ध्य दिया जाता है. और गेरूवे रंग से दीवार पर अहोई मनाई जाती है. जिसका सांयकाल में पूजन किया जाता है. कुछ मीठा बनाकर, माता को भोग लगा कर संतान के हाथ से पानी पीकर व्रत का समापन किया जाता है. अहोई अष्टमी का महत्व इसकी कथा द्वारा प्रलक्षित होता है.

कथा अनुसार, प्राचीन काल में दतिया नगर में चंद्रभान नाम का एक साहूकार रहता था. उसकी बहुत सी संताने थी, परंतु उसकी संताने अल्प आयु में ही अकाल मृत्यु को प्राप्त होने लगती हैं. अपने बच्चों की अकाल मृत्यु से पति पत्नी दुखी रहने लगते हैं. कोई संतान न होने के कारण वह पति पत्नी अपनी धन दौलत का त्याग करके वन की ओर चले जाते हैं और बद्रिकाश्रम के समीप बने जल के कुंड के पास पहुँचते हैं तथा वहीं अपने प्राणों का त्याग करने के लिए अन्न जल का त्याग करके बैठ जाते हैं.

इस तरह छह दिन बीत जाते हैं तब सातवें दिन एक आकाशवाणी होती है कि, हे साहूकार तुम्हें यह दुख तुम्हारे पूर्व जन्म के पाप से मिल रह है अत: इन पापों से मुक्ति के लिए तुम्हें अहोई अष्टमी के दिन व्रत का पालन करके अहोई माता की पूजा अर्चना करना जिससे प्रसन्न हो अहोई मां तुम्हें पुत्र की दीर्घ आयु का वरदान देंगी. इस प्रकार दोनो पति पत्नी अहोई अष्टमी के दिन व्रत करते हैं और अपने पापों की क्षमा मांगते हैं. अहोई माँ प्रसन्न हो उन्हें संतान की दीर्घायु का वरदान देतीं हैं.

अहोई अष्टमी व्रत पूजा विधि | Ahoi Ashtami Vrat Puja Vidhi

अहोई अष्टमी के दिन पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु एवं सुखमय जीवन हेतु कामना करते हुए व्रत करना चाहिए. अहोई अष्टमी उत्साह से मनाया जाता है अहोई अष्टमी व्रत की तैयारियों से जुड़ी समस्त सामग्री जैसे गन्ना, सिंघाड़ा, कच्ची हल्दी, मटकी, अहोई अष्टमी का विशेष व्रत कथा कैलेंडर को इकट्ठा किया जाता है. महिलाएं विधि विधान से व्रत से संबंधित अनुष्ठान पूरे करने का संकल्प लेती हैं. अहोई माता की पूजा के लिए गेरू से दीवार पर अहोई माता का चित्र बनाते हैं तथा साथ ही सेह और उसके बच्चों का चित्र भी बनाते हैं.

सन्ध्या समय माँ का पूजन करने के उपरांत अहोई माता की कथा सुनते हैं. पूजा के बाद सास के पैर छू कर आर्शीवाद प्राप्त कर तारों की पूजा करके जल चढ़ाते हैं. इसके पश्चात व्रती जल ग्रहण करके व्रत का समापन करता है,  आसमान में तारों के दर्शन के बाद व्रत को तोडा़ जाता है. जहां एक ओर करवाचौथ महिला अपने पति की दीर्घायु की कामना से मनाती हैं, वहीं अहोई अष्टमी संतान के दीर्घायु के लिए मनाया जाता है. करवाचौथ में चांद को देखने के बाद लोग व्रत तोड़ते हैं, वहीं अहोई अष्टमी का व्रत तारा देखने के बाद तोड़ा जाता है.

संतान प्राप्ति के लिए अहोई अष्टमी | Ahoi Ashtami Fast and Children

जिन्हें संतान का सुख प्राप्त नहीं हो पा रहा हो उन्हें अहोई अष्टमी व्रत अवश्य करना चाहिए. संतान प्राप्ति हेतु अहोई अष्टमी व्रत अमोघफल दायक होता है.  इसके लिए, एक थाल मे सात जगह चार-चार पूरियां एवं हलवा रखना चाहिए. इसके साथ ही पीत वर्ण की पोशाक-साडी एवं रूपये आदि रखकर श्रद्धा पूर्वक अपनी सास को उपहार स्वरूप देना चाहिए. शेष सामग्री हलवा-पूरी आदि को अपने पास-पडोस में वितरित कर देना चाहिए सच्ची श्रद्धा के साथ किया गया यह व्रत शुभ फलों को प्रदान करने वाला होता है.

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करवा चौथ व्रत 2025 | Karwa Chauth Vrat 2025 | Karva Chauth 2025

कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन करवा चौथ का व्रत किया जाता है, पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन चंद्रमा की पूजा अर्चना की जाती है. करवा चौथ व्रत को करक चतुर्दशी के नाम से भी जाना जाता है. इस वर्ष करवा चौथ का त्योहार 10 अक्टूबर 2025 को मनाया जाएगा. करवा चौथ का व्रत अपने पति के स्वास्थय और दीर्घायु के लिये किया जाने वाला व्रत है.

उत्तरी भारत में यह व्रत आज श्रद्धा व विश्वास की सीमाओं से आगे निकलकर, नये रंग में रंग गया है. करवा चौथ आज अपने प्रेमी, होने वाले पति और जीवन साथी के प्रति स्नेह व्यक्त करने का प्रर्याय बन गया है. आज यह केवल सुहागिनों का व्रत ही न रहकर, पतियों के द्वारा अपनी पत्नियों के लिये रखा जाने वाला पहला व्रत बन गया है.

करवा चौथ के व्रत ने बाजारीकरण को कितना लाभ पहुंचाया है, यह तो स्पष्ट है, परन्तु यह व्रत वैवाहिक जीवन को सफल और खुशहाल बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. क्योकि करवा़चौथ अब केवल लोक परम्परा न रहकर, भावनाओं के आदान-प्रदान का पर्व बन गया है.

करवा चौथ का पौराणिक महत्व | Mythological Importance of Karva Chauth

करवा चौथ पर्व का पौराणिक महत्व धर्म ग्रंथों में प्रतीत होता है. महाभारत से संबंधित कथानुसा अपने वनवास काल के दौरान अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले जाते हैं तथा दूसरी ओर पांडवों पर कई  संकट आन पड़ते हैं यह सब देख द्रौपदी चिंता में पड़ जाती है और वह भगवान श्री श्रीकृष्ण से इन समस्याओं से मुक्ति पाने का उपाय जानने की प्रार्थना करती है. उनकी विनय सुन कृष्ण द्रौपदी से कहते हैं कि यदि वह कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन करवा चौथ का व्रत रहे तो उन्हें अपने संकटों से मुक्ति मिल सकती है. कृष्ण के कथन अनुसार द्रौपदी ने पूर्ण निष्ठा भव के सतह करवा चौथ का व्रत किया. व्रत के फल स्वरुप पांडवों को पने कष्टों से मुक्ति प्राप्त होती है.  अटूट बंधन व सौभाग्य का प्रतीक करवाचौथ व्रत आज के संदर्भ में भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की प्राचीन काल में रहा.

सरगी | Sargi

करवा चौथ में सरगी का काफी महत्व है. सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दी जाती है. इसका सेवन महिलाएं करवाचौथ के दिन सूर्य निकलने से पहले तारों की छांव में करती हैं. सरगी के रूप में सास अपनी बहू को विभिन्न खाद्य पदार्थ एवं वस्त्र इत्यादि देती हैं. सरगी, सौभाग्य और समृद्धि का रूप होती है. सरगी के रूप में खाने की वस्तुओं को जैसे फल, मीठाई आदि को व्रती महिलाएं व्रत वाले दिन सूर्योदय से पूर्व प्रात: काल में तारों की छांव में ग्रहण करती हैं. तत्पश्चात व्रत आरंभ होता है. अपने व्रत को पूर्ण करती हैं.

करवा चौथ व्रत पूजन विधि | Karwa Chauth Vrat Pujan Vidhi

व्रत के दिन प्रातः स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प करके करवा चौथ व्रत का आरंभ करना चाहिए. गेरू और पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित बनाया जाता है. पीली मिट्टी से माँ गौरी और उनकी गोद में गणेशजी को चित्रित किया जाता है. गौरी मां की मूर्ति के साथ शिव भगवान व गणेशजी की को लकड़ी के आसन पर बिठाते हैं. माँ गौरी को चुनरी बिंदी आदि सुहाग सामग्री से सजाया जाता है. जल से भरा हुआ लोटा रखा जाता है. रोली से करवा पर स्वस्तिक बनाते हैं. गौरी-गणेश जी की श्रद्धा अनुसार पूजा की जाती है और कथा का श्रवण किया जाता है. पति की दीर्घायु की कामना करते हुए कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ घुमाकर अपनी सासुजी के पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं और उन्हें करवा भेंट करते हैं. रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद चन्द्रमा को अर्घ्य देते हैं इसके बाद पति से आशीर्वाद पाकर व्रत पूर्ण होता है.

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कार्तिक मास के त्यौहार | Kartik Month Festivals | Festivals in Kartik Maas

करवा चौथ व्रत | Karva Chauth Vrat

करवा चौथ व्रत कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के दिन मनाया जाता है. यह पवित्र पर्व सौभाग्यवती स्त्रियाँ मनाती हैं. पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन चंद्रमा की पूजा की जाती है. इसी के साथ देवी गौरी भगवान शिव एवं गणेश जी की पूजा अर्चना की जाती है. करवाचौथ के दिन उपवास रखकर रात्रि समय चन्द्रमा को अ‌र्घ्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है.

अहोई अष्टमी व्रत | Ahoi Ashtami Vrat

यह व्रत कार्तिक मास की अष्टमी तिथि के दिन संतानवती स्त्रियों के द्वारा किया जाता है. अहोई अष्टमी का पर्व मुख्य रुप से अपनी संतान की लम्बी आयु की कामना के लिये किया जाता है. अहोई अष्टमी का व्रत अहोई आठे के नाम से भी जाना जाता है.इस पर्व के विषय में एक ध्यान देने योग्य पक्ष यह है कि इस व्रत को उसी वार को किया जाता है.

धनतेरस | Dhanteras

दिवाली से दो दिन पहले धन-तेरस अथवा धन त्रयोदशी का त्यौहार मनाया जाता है. इस दिन नए बर्तन खरीदने की परंपरा है. इस दिन स्वर्ण अथवा रजत आभूषण खरीदने का भी रिवाज है. अपनी – अपनी परम्परानुसार लोग सामान खरीदते है. संध्या समय में घर के मुख्य द्वार पर एक बडा़ दीया जलाया जाता है.

नरक चतुर्दशी | Narak Chaturthi

बडी़ दिवाली से एक दिन पहले छोटी दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है. इस दिन को नरक चतुर्दशी अथवा नरका चौदस भी कहते हैं. इस दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था. इसलिए इसे नरका चौदस कहा जाता है. इस दिन संध्या समय में पूजा की जाती है और अपनी – अपनी परंपरा के अनुसार दीये जलाए जाते हैं.

दिपावली | Diwali

पांच दिन के इस पर्व का यह मुख्य दिन होता है. इस दिन सुबह से ही घरों में चहल-पहल आरम्भ हो जाती है. एक-दूसरे को बधाई संदेश दिए जाते हैं. घर को सजाने का काम आरम्भ हो जाता है. संध्या समय में गणेश जी तथा लक्ष्मी जी का पूजन पूरे विधि-विधान से किया जाता है. पूजन विधि में धूप-दीप, खील-बताशे, रोली-मौली, पुष्प आदि का उपयोग किया जाता है. पूजन के बाद मिठाई खाने का रिवाज है.

कार्तिक मास की अमावस्या को दीवाली का पर्व हर वर्ष मनाया जाता है. भारतवर्ष में हिन्दुओं का यह प्रमुख त्यौहार है. इस दिन सभी लोग सुबह से ही घर को सजने का कार्य आरम्भ कर देते हैं. संध्या समय में दीये जलाते हैं. लक्ष्मी तथा गणेश पूजन करते हैं. आस-पडौ़स में एक-दूसरे को मिठाइयां व उपहार बांटते हैं. रिश्तेदारों तथा मित्रों को मिठाइयों का आदान-प्रदान कई दिन पहले से ही आरम्भ हो जाता है. रात में बच्चे तथा बडे़ मिलकर पटाखे तथा आतिशबाजी जलाते हैं.

अन्नकूट पर्व | Annakut Festival

दिवाली से अगले दिन अन्नकूट का पर्व मनाया जाता है. इस दिन मंदिरों में सभी सब्जियों को मिलाकर एक सब्जी बनाते हैं, जिसे अन्नकूट कहा जाता है. मंदिरों में इस अन्नकूट को खाने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ लगी होती है. अन्नकूट के साथ पूरी बनाई जाती है. कहीं-कहीं साथ में कढी़-चावल भी बनाए जाते हैं.

गोवर्धन पूजा | Govardhan Puja

इसी दिन रात्रि समय में गोवर्धन पूजा भी की जाती है. गोवर्धन पूजा में गोबर से गोवर्धन बनाया जाता है और उसे भोग लगाया जाता है. उसके बाद धूप-दीप से पूजन किया जाता है. फिर घर के सभी सदस्य इस गोवर्धन की परिक्रमा करते हैं.

विश्वकर्मा दिवस | Vishwakarma Divas

इसी दिन विश्वकर्मा दिवस भी मनाया जाता है. इस दिन मजदूर वर्ग अपने औजारों की पूजा करते हैं. फैक्टरी तथा सभी कारखाने इस दिन बन्द रहते हैं.

भैया दूज | Bhai Dooj

दिवाली का पर्व भैया दूज या यम द्वित्तीया के दिन समाप्त होता है. यह त्यौहार कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वित्तीया को मनाया जाता है. इस दिन बहनें अपने भाइयों को तिलक करती हैं और मिठाई खिलाती हैं. भाई बदले में बहन को उपहार देते हैं.

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दशहरे के विभिन्न रुप | Various forms of Dussehra | Other facts associated with Dussehra

रामलीला | Ramlila

दशहरा पर्व से पूर्व नौ दिनों तक कई स्थानों पर रामलीलाओं का आयोजन किया जाता है. इसमें राम-सीता के जीवन की झाँकियां दिखाई जाती है. इस दौरान बड़े मेलों का आयोजन किया जाता है. रामलीला नाटक का मंचन देश के विभिन्न क्षेत्रों में भी होता है और दशहरे वाले दिन रावण का संहार किया जाता है. देश भर में इस दिन विभिन्न जगहों पर रावण, कुम्भकरण तथा मेघनाथ के बडे-बडे पुतले लगाए जाते हैं और शाम को श्रीराम के वेशधारी युवक अपनी सेना के साथ पहुंच कर रावण का संहार करते हैं.

सीमोल्लंघन | Simollanghan

क्षत्रिय लोग इसे अपना एक महत्वपूर्ण त्यौहार मानते हैं. वह मानते हैं की शत्रु से युद्ध का प्रसंग न होने पर भी इस काल में राजाओं को अपनी सीमा का उल्लंघन अवश्य करना चाहिए. एक बार राजा युधिष्ठिर के पूछने पर श्री कृष्ण जी उन्हें इसका महत्व बताते हुए कहा था कि विजयदशमी के दिन राजा को अपने दासों व हाथी- घोड़ों को सजाना चाहिए तथा धूम-धाम के साथ मंगलाचार करना चाहिए.

राजा अपने पुरोहित के साथ पूर्व दिशा में प्रस्थान कर अपने राज्य की सीमा से बाहर जाए और वहां वास्तु पूजा करके अष्ट-दिग्पालों तथा पार्थ देवता का पूजन करे. शत्रु की प्रतिमा अथवा पुतला बनाकर उसकी छाती में बाण लगाए और पुरोहित वैदिक मंत्रों का उचारण करे. सभी कार्यों को पूर्ण करके पुन: अपने राज्य में लौट आए. इस प्रकार जो भी राजा इस विधि से विजय पूजा करता है वह सदैव अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करता है.

शमी पूजन | Shami Puja

विजयादशमी या दशहरे के दिन शमी पूजन एवं अश्मंतक के वृक्ष का पूजन करना चाहिए. इस पूजा के साथ एक कथा जुड़ी हुई है जो इस प्रकार है की माता पार्वती जी शमी वृक्ष की महत्ता के बारे में भगवान शिव जी से पूछती हैं तब शिव भगवान उनसे कहते हैं कि अज्ञात वास के समय अर्जुन ने अपने शस्त्रों को शमी के वृक्ष की कोटर या खोह में रख दिया था और राजा विराट के राज्य में वृहन्ना के वेश में रहने लगते हैं.

बाद में विराट के पुत्र की सहायता हेतु अर्जुन शमी के वृक्ष पर से अपने धनुष बाण उठाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं. इस प्रकार शमी वृक्ष ने अर्जुन के शस्त्रों की रक्षा की थी. इसके अतिरिक्त रामजी ने जब लंका पर चढाई की तब शमी वृक्ष ने उनसे कहा था की आपकी विजय अवश्य होगी, इसलिए विजयकाल में शमी वृक्ष की भी पूजा का विशेष विधान है. शमीवृक्ष यदि उपलब्ध न हो, तो अश्मंतक वृक्ष का पूजन करते हैं. शमी वृक्ष पूजन करके इसकी पत्तियों को स्वर्ण पत्तियों के रूप में एक-दूसरे को प्रदान किया जाता है.

शस्त्रपूजन | Shastra Puja

दशहरा के दिन शस्त्रपूजन कर देवताओं की शक्ति का आवाहन किया जाता है, इस दिन प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में प्रतिदिन उपयोग मे आने वाली वस्तुओं का पूजन करता है. यह त्योहार क्षत्रियों का मुख्य पर्व है इसमें वह अपराजिता देवी की पूजा करते हैं. यह पूजन भी सर्वसुख देने वाला होता है.

दशहरा के दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है. प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे. इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं. दशहरा का पर्व समस्त पापों काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, अहंकार, हिंसा आदि के त्याग की प्रेरणा प्रदान करता है.

अपराजिता पूजन | Aparajita Puja

विजयदशमी है को अपराजिता पूजा के नाम से भी जाना जाता है. अपराजिता संपूर्ण ब्रह्मांड की शक्तिदायिनी और ऊर्जा हैं,  अपराजिता पूजन नाम के अनुरूप ही पहचान देता है. यह विष्णु को प्रिय है और प्रत्येक परिस्थिति में विजय प्रदान करने वाली होती है. तंत्र शास्त्र में युद्ध अथवा मुकदमेबाजी के मामले में यह बहउत प्रभावशाली पूजन होता है. शास्त्रों में इसका बहुत महत्व बताया गया है.

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पापाकुंशा एकादशी 2025 | Papankusha Ekadashi 2025 | Papankusha Ekadashi

पापाकुंशा एकादशी व्रत आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन किया जाता है. पापाकुंशा एकादशी के दिन मनोवांछित फल कि प्राप्ति के लिये श्री विष्णु भगवान कि पूजा की जाती है. इस वर्ष 03 अक्तूबर 2025 को यह व्रत किया जाएगा. एकादशी के पूजने से व्यक्ति को स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है. भगवान विष्णु का भक्ति भाव से पूजन आदि करके भोग लगाया जाता है.

पापाकुंशा एकादशी हजार अश्वमेघ और सौ सूर्ययज्ञ करने के समान फल प्रदान करने वाली होती है. इस एकादशी व्रत के समान अन्य कोई व्रत नहीं है. इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति इस एकादशी की रात्रि में जागरण करता है वह स्वर्ग का भागी बनता है. इस एकादशी के दिन दान करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है. श्रद्धालु भक्तों के लिए एकादशी के दिन व्रत करना प्रभु भक्ति के मार्ग में प्रगति करने का माध्यम बनता है.

पापाकुंशा एकादशी व्रत विधि | Papankusha Ekadashi Vrat Katha

एकादशी व्रत में श्री विष्णु जी का पूजन करने के लिए वह धूप, दीप, नारियल और पुष्प का प्रयोग किया जाता है.  एकादशी तिथि के दिन सुबह उठकर स्नान आदि कार्य करने के बाद व्रत का संकल्प लेना चाहिए. संकल्प लेने के बाद घट स्थापना की जाती है और उसके ऊपर श्री विष्णु जी की मूर्ति रखी जाती है.

इसके साथ भगवान विष्णु का स्मरण एवं उनकी कथा का श्रवण किया जाता है. इस व्रत को करने वाले को विष्णु के सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए. इस व्रत का समापन एकादशी तिथि में नहीं होता है. बल्कि द्वादशी तिथि की प्रात: में ब्राह्माणों को अन्न का दान और दक्षिणा देने के बाद ही यह व्रत समाप्त होता है.

पापांकुशा एकादशी व्रत कथा | Papankusha Ekadashi Vrat Katha

पापांकुशा एकादशी व्रत की कथा अनुसार विन्ध्यपर्वत पर महा क्रुर और अत्यधिक क्रोधन नामक एक बहेलिया रहता था. जीवन के अंतिम समय पर यमराज ने उसे अपने दरबार में लाने की आज्ञा दी. दूतोण ने यह बात उसे समय से पूर्व ही बता दी.

मृत्युभय से डरकर वह अंगिरा ऋषि के आश्रम में गया और यमलोक में जाना न पडे इसकी विनती करने लगा. अंगिरा ऋषि ने उसे आश्चिन मास कि शुक्ल पक्ष कि एकादशी के दिन श्री विष्णु जी का पूजन करने की सलाह देते हैं. इस एकादशी का पूजन और व्रत करने से वह अपने सभी पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक को गया.

पापांकुशा एकादशी महत्व | Papankusha Ekadashi Importance

पापांकुशा एकादशी व्रत में यथासंभव दान व दक्षिणा देनी चाहिए. पूर्ण श्रद्धा के साथ यह व्रत करने से समस्त पापों से छुटकारा प्राप्त होता है. शास्त्रों में एकादशी के दिन की महत्ता को पूर्ण रुप से प्रतिपादित किया गया है. इस दिन उपवास रखने से पुण्य फलों की प्राप्ति होती है. जो लोग पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याह्न या संध्या काल में एक समय भोजन करके एकादशी व्रत करने की बात कही गई है.

एकादशी जीवों के परम लक्ष्य, भगवद भक्ति, को प्राप्त करने में सहायक होती है. यह दिन प्रभु की पूर्ण श्रद्धा से सेवा करने के लिए अति शुभकारी एवं फलदायक माना गया है. इस दिन व्यक्ति इच्छाओं से मुक्त हो कर यदि शुद्ध मन से भगवान की भक्तिमयी सेवा करता है तो वह अवश्य ही प्रभु की कृपापात्र बनता है.

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महागौरी पूजन | Maha Gauri Puja | Eighth Day of Navratri | Mahagauri Puja Muhurat

नवरात्रों के आठवें दिन महागौरी की पूजा अर्चना की जाती है. माँ महागौरी की पूजा से भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं तथा देवी का भक्त जीवन में पवित्र और अक्षय पुण्यों को प्राप्त करता है.

महागौरी आदी शक्ति हैं इनके तेज से संपूर्ण विश्व प्रकाश-मान होता है, इनकी शक्ति अमोघ फल प्रदान करने वाली हैं, देवी गौरी ने देवों की प्रार्थना व भक्तों के उद्धार हेतु शुम्भ निशुम्भ का अंत किया व सृष्टि को दैत्यों के प्रकोप से मुक्त कराया. यही शिवा और शाम्भवी के नाम से भी पूजित होती हैं. इनका पूजन सौभाग्य में वृद्धि करने वाला होता है.

महागौरी का पौराणिक महत्व | Mythological Importance of Mahagauri

भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी, जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है. देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान, अत्यंत ओजपूर्ण होता है, उनकी छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है, उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं. गौर वर्ण की होने के कारण इन्हें गौरी नाम प्राप्त हुआ.

महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं.देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..” देवी गौरी भक्तों की प्रार्थना सुनकर वरदान देती हैं. जो देवी गौरी की पूजा करते हैं उनका जीवन सुखमय रहता है देवी उनके पापों को जला देती हैं और शुद्ध अंत:करण देती हैं. मां अपने भक्तों को अक्षय आनंद और तेज प्रदान करती हैं.

महागौरी पूजा विधि | Maha Gauri Puja Vidhi

नवरात्रे में अष्टमी के दिन का विशेष महत्व होता है. कुछ लोग इस दिन नवरात्रों का समापन करते हं तो कुछ लोग नवमी के दिन. जो लोग अष्टमी पूजन करते हैं उनके लिए गौरी पूजा बहुत महत्वपूर्ण होती है. इस दिन देवी गौरी की पूजा का विधान पूर्ण रुप से भक्ति भाव से भरा होता है. अष्टमी के दिन भी देवी की पंचोपचार सहित पूजा करें. देवी का ध्यान करने के लिए  “सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि। सेव्यामाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥”.मंत्र का उच्चारण करना चाहिए.

फल, फूलों की मालाएं, लड्डू, पान, सुपारी, इलायची, लोंग इत्यादि वस्तुओं सहित पूजा करनी चाहिए.  महागौरी की प्रतिमा को जल, दूध, दही से स्नान करा, वस्त्र आदि पहनाकर रोली, चन्दन, सिन्दुर, मेंहन्दी व काजल इत्यादि श्रंगार की वस्तुएं भेंट करते हैं. महागौरी की मूर्ति को लाल रंग के कपडे से लिपेट कर उन्हें चौकी पर रखा जाता है. सबसे पहले श्री गणेश जी का पूजन किया जाता है. पूजन में श्री गणेश पर जल, रोली, मौली, चन्दन, सिन्दूर, सुपारी, लोंग, पान,चावल, फूल, इलायची, बेलपत्र, फल, मेवा और दक्षिणा चढाते हैं. इसके पश्चात कलश का पूजन भी किया जाता है.

महागौरी मंत्र | Maha Gauri Mantra

श्वेते वृषे समरूढा श्वेताम्बराधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।

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उपांग ललिता व्रत 2025 | Upang Lalita Vrat | Upang Lalita Panchami 2025

आदि शक्ति माँ ललिता दस महाविद्याओं में से एक हैं, उपांग ललिता का व्रत भक्तजनों के लिए शुभ फलदायक होता है. इस वर्ष उपांग ललिता व्रत 26 सितंबर 2025 के दिन किया जाएगा. इस दिन उपांग ललिता की पूजा भक्ति-भाव सहित करने से देवी मां की कृपा व आशिर्वाद प्राप्त होता है. जीवन में सदैव सुख व समृद्धि बनी रहती है. पौराणिक आख्यानों के अनुसार आदिशक्ति त्रिपुर सुंदरी जगत जननी ललिता माता के  दर्शन से समस्त कष्टों का निवारण स्वत: ही हो जाता है.

उपांग ललिता | Upang Lalita

उपांग ललिता शक्ति का वर्णन पुराणों में प्राप्त होता है. जिसके अनुसार पिता दक्ष द्वारा अपमान से आहत होकर जब दक्ष पुत्री सती ने अपने प्राण उत्सर्ग कर देती हैं. सती के वियोग में भगवान शिव उनका पार्थिव शव अपने कंधों में उठाए चारों दिशाओं में घूमने लगते हैं. इस महाविपत्ति को यह देख भगवान विष्णु चक्र द्वारा सती की देह को विभाजित कर देते हैं. तत्पश्चात भगवान शंकर को हृदय में धारण करने पर इन्हें ललिता के नाम से पुकारा जाने लगा.

ललिता माँ का प्रादुर्भाव तब होता है जब ब्रह्मा जी द्वारा छोडे गये चक्र से पाताल समाप्त होने लगा. इस स्थिति से विचलित होकर ऋषि-मुनि भी घबरा जाते हैं और संपूर्ण पृथ्वी धीरे-धीरे जलमग्न होने लगती है. तब सभी ऋषि माता ललिता देवी की उपासना करने लगते हैं. उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवी जी प्रकट होती हैं तथा इस विनाशकारी चक्र को थाम लेती हैं. सृष्टि पुन: नवजीवन को पाती है.

उपांग ललिता पंचमी | Upang Lalita Panchmi

उपांग ललिता व्रत समस्त सुखों को प्रदान करने वाला होता है. देवी की पूजा भक्त को शक्ति प्रदान करती है. इस अवसर पर देवी के समस्त मंदिरों पर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है. अनेक जगहों भव्य मेलों का आयोजन किया जाता है, हज़ारों श्रद्धालु श्रद्धा और हर्षोल्लासपूर्वक इस दिन को मनाते हैं. उपांग ललिता के अवसर पर मां की पूजा-आराधना का कुछ विशेष ही महत्व होता है.

यह पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है. पौराणिक मान्यतानुसार इस दिन देवी ललिता राक्षस को मारने के लिए अवतरण लेती हैं. इस दिन भक्तगण षोडषोपचार विधि से मां ललिता का पूजन करते है. इस दिन मां ललिता के साथ साथ स्कंदमाता और शिव शंकर की भी शास्त्रानुसार पूजा की जाती है.

उपांग ललिता पूजन | Upang Lalita Pujan

शक्तिस्वरूपा देवी ललिता को समर्पित उपांग ललिता पंचमी आश्विन मास के शुक्ल पक्ष को पांचवे नवरात्र के दिन मनाई जाती है. इस शुभ दिन भक्तगण व्रत एवं उपवास का पालन करते हैं, यह दिन उपांग ललिता व्रत के नाम से जाना जाता है. देवी ललिता जी का ध्यान रुप बहुत ही उज्जवल व प्रकाश मान है. माता की पूजा श्रद्धा एवं सच्चे मन से की जाती है.

कालिकापुराण के अनुसार देवी की दो भुजाएं हैं, यह गौर वर्ण की, रक्तिम कमल पर विराजित हैं. ललिता देवी की पूजा से समृद्धि की प्राप्त होती है. दक्षिणमार्गी शाक्तों के मतानुसार देवी ललिता को चण्डी का स्थान प्राप्त है.  इनकी पूजा पद्धति देवी चण्डी के समान ही है ललितासहस्रनाम, ललितात्रिशती का पाठ किया जाता है.

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वाल्मीकि जयंती 2025 | Maharishi Valmiki Jayanti 2025 | Valmiki Jayanti

महर्षि वाल्मीकि प्राचीन वैदिक काल के महान ऋषियों कि श्रेणीमें प्रमुख स्थान प्राप्त करते हैं. इन्होंने संस्कृत मे महान ग्रंथ रामायण महान ग्रंथ की रचना कि थी इनके द्वारा रचित रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाती है. हिंदु धर्म की महान कृति रामायण महाकाव्य श्रीराम के जीवन और उनसे संबंधित घटनाओं पर आधारित है. जो जीवन के विभिन्न कर्तव्यों से परिचित करवाता है.

‘रामायण’ के रचयिता के रूप में वाल्मीकि जी की प्रसिद्धि है. इनके पिता महर्षि कश्यप के पुत्र वरुण या आदित्य माने गए हैं.  एक बार ध्यान में बैठे हुए इनके शरीर को दीमकों ने अपना ढूह (बाँबी) बनाकर ढक लिया था। साधना पूरी करके जब ये दीमक-ढूह से जिसे वाल्मीकि कहते हैं, से बाहर निकले तो इन्हें वाल्मीकि कहा जाने लगा.

महर्षि वाल्मीकी का जीवन चरित्र | Life Story of Saint Valmiki

महर्षि बनने से पूर्व वाल्मीकि रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे तथा परिवार के पालन हेतु दस्युकर्म करते थे एक बार उन्हें निर्जन वन में नारद मुनि मिले तो रत्नाकर ने उन्हें लूटने का प्रयास किया तब नारद जी ने रत्नाकर से पूछा कि तुम यह निम्न कार्य किस लिये करते हो, इस पर रत्नाकर ने जवाब दिया कि अपने परिवार को पालने के लिये. इस पर नारद ने प्रश्न किया कि तुम जो भी अपराध करते हो और जिस परिवार के पालन के लिए तुम इतने अपराध करते हो, क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार होगें यह जानकर वह स्तब्ध रह जाता है

नारदमुनि ने कहा कि हे रत्नाकर यदि तुम्हारे परिवार वाले इस कार्य में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर क्यों उनके लिये यह पाप करते हो इस बात को सुनकर उसने नारद के चरण पकड़ लिए और डाकू का जीवन छोड़कर तपस्या में लीन हो गए और जब नारद जी ने इन्हें सत्य के ज्ञान से परिचित करवाया तो उन्हें राम-नाम के जप का उपदेश भी दिया था, परंतु वह राम-नाम का उच्चारण नहीं कर पाते तब नारद जी ने विचार करके  उनसे मरा-मरा जपने के लिये कहा और  मरा रटते-रटते यही ‘राम’ हो गया और निरन्तर जप करते-करते हुए वह ऋषि वाल्मीकि बन गए.

वाल्मीकि रामायण | Valmiki Ramayana

एक बार महर्षि वाल्मीकि नदी के किनारे क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे , वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी  एक व्याध ने क्रौंच पक्षी के एक जोड़े में से एक को मार दिया,नर पक्षी की मृत्यु से व्यथित मादा पक्षी विलाप करने लगती है. उसके इस विलाप को सुन कर वालमीकि के मुख से स्वत: ही मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।  यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्।।  नामक  श्लोक फूट पड़ाः और जो महाकाव्य रामायण का आधार बना

महर्षि वाल्मीकि जयंती महोत्सव | Celebration of Saint Valmiki Jayanti

देश भर में महर्षि बाल्मीकि की जयंती को श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है. इस अवसर पर शोभा यात्राओं का आयोजन भी होता है.महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित पावन ग्रंथ रामायण में प्रेम, त्याग, तप व यश की भावनाओं को महत्व दिया गया है वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना करके हर किसी को सद मार्ग पर चलने की राह दिखाई.

इस अवसर पर वाल्मीकि मंदिर में पूजा अर्चना भी की जाती है तथा शोभा यात्रा के दौरान मार्ग में जगह-जगह लोगों इसमें बडे़ उत्साह के साथ भाग लेते हैं. झांकियों के आगे उत्साही युवक झूम-झूम कर महर्षि वाल्मीकि के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं. इस अवसर पर उनके जीवन पर आधारित झाकियां निकाली जाती हैं व राम भजन होता है. महर्षि वाल्मीकि को याद करते हुए महर्षि वाल्मीकि जयंती की पूर्व संध्या पर उनके चित्र पर माल्यार्पण करके उनको श्रद्धासुमन अर्पित किए जाते हैं.

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दशहरा शुभ मुहूर्त 2025 | Dussehra Auspicious Muhurat 2025 | Vijayadasami Muhurat 2025

विजयादशमी अर्थात दशहरा की धूम संपूर्ण भारत-वर्ष में देखी जाती है. सत्यता का प्रतीक दशहरा अनेक महत्वपूर्ण संदेशों को देते हुए भारत के कोने-कोने में जोश एवं उल्लास के साथ मनाया जाता है. विजय दशमी का पर्व आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है. दशहरा या विजयादशमी असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है. अधर्म एवं बुराई को समाप्त करके धर्म की स्थापना और शांति का प्रतीक है. विजयदशमी के उपलक्ष पर भारत के कोने-कोने में रामलीला की झाँकियों का मंचन किया जाता है. क्षत्रियों के यहाँ शस्त्रों की पूजा होती है, इस दिन नीलकंठ का दर्शन बहुत शुभ माना जाता है. दशहरा या विजया दशमी नवरात्रि के पश्चात दसवें दिन मनाया जाता है.

दशहरा एक अबूझ मुहूर्त है. दशहरे के दिन नए व्यापार या कार्य की शुरुआत करना अति शुभ होता है. यह अत्यंत शुभ तिथियों में से एक है, इस दिन वाहन, इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम, स्वर्ण, आभूषण नए वस्त्र इत्यादि खरीदना शुभ होता है. दशहरे के दिन नीलकंठ भगवान के दर्शन करना अति शुभ माना जाता है. दशहरा के दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है. प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे. इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं. दशहरा का पर्व समस्त पापों काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, अहंकार, हिंसा आदि के त्याग की प्रेरणा प्रदान करता है.

दशहरा पूजन | Dussehra Pujan

दशहरे के दिन सुबह दैनिक कर्म से निवृत होने के पश्चात स्नान आदि करके स्वच्छ वस्त्र धारण किए जाते हैं. घर के छोटे-बडे़ सभी सदस्य सुबह नहा-धोकर पूजा करने के लिए तैयार हो जाते हैं. उसके बाद गाय के गोबर से दस गोले अर्थात कण्डे बनाए जाते हैं. इन कण्डो पर दही लगाई जाती है. दशहरे के पहले दिन जौ उगाए जाते हैं. वह जौ दसवें दिन यानी दशहरे के दिन इन कण्डों के ऊपर रखे जाते हैं. उसके बाद धूप-दीप जलाकर, अक्षत से रावण की पूजा की जाती है. कई स्थानों पर लड़कों के सिर तथा कान पर यह जौ रखने का रिवाज भी दशहरे के दिन होता है. भगवान राम की झाँकियों पर भी यह जौ चढा़ए जाते हैं.

विजयादशमी मुहूर्त | Vijayadasami Muhurat

इस दिन राम ने रावण का वध किया था. रामायण के अनुसार राम तथा सीता जी के वनवास के दौरान रावण, राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लंका ले जाता है. तब भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीता जी को रावण के बंधन से मुक्त कराने हेतु राम ने भाई लक्ष्मण, भक्त हनुमान एवं वानरों की सेना के साथ मिलकर रावण के साथ एक बड़ा युद्ध करते हैं. युद्ध के दौरान श्री राम जी नौ दिनों तक युद्ध की देवी मां दुर्गा जी की पूजा करते हैं तथा दशमी के दिन रावण का वध करते हैं और सीता जी को बंधन से मुक्त कराते हैं.

इसलिए विजयदशमी एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन है. इस दिन रावण, उसके भाई कुम्भकरण और पुत्र मेघनाद के पुतले जगह-जगह में जलाए जाते हैं. सुबह के समय पूजा करने के बाद संध्या समय में जब “विजय” नामक तारा उदय होता है तब रावण का दाह संस्कार पुतले के रुप में किया जाता है. रावण के पुतले जलाने का कार्य सूर्यास्त से पहले समाप्त किया जाता है, क्योंकि भारतीय संस्कृति में हिन्दु धर्म के अनुसार सूर्यास्त के बाद दाह संस्कार नहीं किया जाता है.

विजयदशमी पूजा | Vijayadashami Puja

विजय दशमी या दशहरे के त्यौहार पर अनेक संस्कारों, अनेक संस्करणों को पूर्ण किया जाता है इस त्यौहार के अंतर्गत अनेक प्रकार के रीति-रिवाज़ों का प्रचलन है. जैसे कृषि -महोत्सव या क्षात्र-महोत्सव, सीमोल्लंघन का परिणाम दिग्विजय तक पहुंचा, शमीपूजन, अपराजितापूजन एवं शस्त्रपूजन जैसी कुछ महत्वपूर्ण धार्मिक कृतियां की जाती हैं. दशहरे का एक सांस्कृतिक महत्व भी रहा है. इस समय भारत वर्ष में किसान फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है और उसी शुभ उमंग के अवसर पर वह उसका पूजन करता है. समस्त भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है.

महाराष्ट्र में इस अवसर को सिलंगण के नाम से मनाया जाता है. सायंकाल के समय पर सभी ग्रामीण जन सुंदर-सुंदर नव परिधानों से सुसज्जित होकर गाँव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्तों के रूप में ‘स्वर्ण’ लूटकर अपने गांव वापस आते हैं. फिर उस स्वर्ण का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है. भगवान श्री राम जी ने इसी दिन लंका पर विजय प्राप्त की थी. ज्योतिर्निबन्ध में कहा गया है कि आश्विन शुक्ल दशमी के दिन संध्या तारा उदय होने के समय विजय नामक काल होता है जो समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाला होता है. इस त्यौहार के संबंध में एक कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है.

एक बार कि बात है माता पार्वती जी ने भगवान शिव से विजयादशमी त्यौहार के विषय में तथा इस पर्व का क्या फल प्राप्त होता है जानना चाहा. पार्वती जी के कथन को सुन भगवान भोलेनाथ उनसे कहते हैं कि आश्व्नि शुक्ला दशमी को संध्या समय में तारा उदय होने के समय विजय नामक काल होता है. यह सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला होता है और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने हेतु इसी समय प्रस्थान करने से विजय की प्राप्ति होती है. यदि इस दिन श्रवण नक्षत्र बने तो यह और भी शुभ होता है. भगवान श्री राम जी ने इसी विजय काल समय लंका पर चढ़ाई की थी व विजय प्राप्त की थी इस कारण यह दिन बहुत पवित्र माना जाता है

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