पदमा एकादशी । पद्मा एकादशी | Padma Ekadashi | Padma Ekadashi 2024

भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की एकादशी पदमा एकादशी कही जाती है. इस वर्ष 14 सितंबर 2024 को पदमा एकादशी का पर्व मनाया जाएगा. इस दिन भगवान श्री विष्णु के वामन रुप कि पूजा की जाती है. इस व्रत को करने से व्यक्ति के सुख, सौभाग्य में बढोतरी होती है. इस एकादशी के विषय में एक मान्यता है, कि इस दिन माता यशोदा ने भगवान श्री कृष्ण के वस्त्र धोये थे. इसी कारण से इस एकादशी को “जलझूलनी एकादशी” भी कहा जाता है.

मंदिरों में इस दिन भगवान श्री विष्णु को पालकी में बिठाकर शोभा यात्रा निकाली जाती है. गांग के बाहर जाकर उनको स्नान कराया जाता है. इस अवसर पर भगवान श्री विष्णु के दर्शन करने के लिये लोग सैलाब की तरह उमड पडते है. इस एकादशी के दिन व्रत कर भगवान श्री विष्णु जी की पूजा की जाती है.

जलझूलनी एकादशी पूजा | Jal Jhulni Ekadashi Puja

इस व्रत में धूप, दीप,नेवैद्ध और पुष्प आदि से पूजा करने की विधि-विधान है. एक तिथि के व्रत में सात कुम्भ स्थापित किये जाते है. सातों कुम्भों में सात प्रकार के अलग- अलग धान्य भरे जाते है. इन सात अनाजों में गेहूं, उडद, मूंग, चना, जौं, चावल और मसूर है. एकादशी तिथि से पूर्व की तिथि अर्थात दशमी तिथि के दिन इनमें से किसी धान्य का सेवन नहीं करना चाहिए.

कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी की मूर्ति रख पूजा की जाती है. इस व्रत को करने के बाद रात्रि में श्री विष्णु जी के पाठ का जागरण करना चाहिए यह व्रत दशमी तिथि से शुरु होकर, द्वादशी तिथि तक जाता है. इसलिये इस व्रत की अवधि सामान्य व्रतों की तुलना में कुछ लम्बी होती है. एकादशी तिथि के दिन पूरे दिन व्रत कर अगले दिन द्वादशी तिथि के प्रात:काल में अन्न से भरा घडा ब्राह्माण को दान में दिया जाता है.

डोल ग्यारस | Dol Gyaras

राजस्थान में जलझूलनी एकादशी को डोल ग्यारस एकादशी भी कहा जाता है. इस अवसर पर यहां भगवान गणेश ओर माता गौरी की पूजा एवं स्थापना की जाती है. इस अवसर पर यहां पर कई मेलों का आयोजन किया जाता है.इस अवसर पर देवी-देवताओं को नदी-तालाब के किनारे ले जाकर इनकी पूजा की जाती है. संध्या समय में इन मूर्तियों को वापस ले आया जाता है. अलग- अलग शोभा यात्राएं निकाली जाती है. जिसमें भक्तजन भजन, कीर्तन, गीत गाते हुए प्रसन्न मुद्रा में खुशी मनाते हैं.

पद्मा एकादशी महात्म्य | Significance of Padma Ekadashi

कथा इस प्रकार है सूर्यवंश में मान्धाता नामक चक्रवर्ती राजा हुए उनके राज्य में सुख संपदा की कोई कमी नहीं थी, प्रजा सुख से जीवन्म व्यतीत कर रही थी परंतु एक समय उनके राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई प्रजा दुख से व्याकुल थी तब महाराज भगवान नारायण की शरण में जाते हैं और उनसे अपनी प्रजा के दुख दूर करने की प्रार्थना करते हैं. राजा भादों के शुक्लपक्ष की ‘एकादशी’ का व्रत करता है.

इस प्रकार व्रत के प्रभाव स्वरुप राज्य में वर्षा होने लगती है और सभी के कष्ट दूर हो जाते हैं राज्य में पुन: खुशियों का वातावरण छा जाता है. इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए ‘पदमा एकादशी’ के दिन सामर्थ्य अनुसार दान करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है, जलझूलनी एकादशी के दिन जो व्यक्ति व्रत करता है, उसे भूमि दान करने और गोदान करने के पश्चात मिलने वाले पुण्यफलों से अधिक शुभ फलों की प्राप्ति होती है.

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अनंत चतुर्दशी 2024 | Anant Chaturdashi 2024 | Anant Chaturdashi Vrat

भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी के रुप में मनाई जाती है. इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करते हैं और संकटों से रक्षा करने वाला अनन्तसूत्रबांधा जाता है.

अनंत चतुर्दशी मुहूर्त्त | Anant Chaturdashi Muhurat

भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी कहा जाता है. भाद्र शुक्ल चतुर्दशी को अनन्त व्रत किया जाता है. धर्म ग्रंथों के अनुसार यह तिथि सूर्योदय काल में तीन मुहूर्त्त अर्थात 6 घडी़ ग्रह करनी चाहिए यह मुख्य पक्ष होता है. शास्त्रानुसार यह तिथि पूर्वाहरण व्याएवं मध्याह्न व्यापिनी लेनी चाहिए और यह गौण पक्ष होता है. दोनों ही परिस्थितियों में भाद्र शुक्ल चतुर्दशी अर्थात अनंत चौदश 17 सितम्बर 2024 को अनन्त व्रत, पूजन और सूत्र बंधन के लिए शास्त्र सम्मत उपयुक्त है. इसके अतिरिक्त यह तिथि सूर्योदय के बाद कम से कम दो मुहूर्त्त अर्थात चार घडी़ विद्यमान हो तो भी ग्रह कि जा सकती है.

अनंत चतुर्दशी  कथा | Anant Chaturdashi Story

अनंत चतुर्दशी के दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्तसूत्रबांधा जाता है. मान्यता है कि  जाता है कि जब पाण्डव सारा राज-पाट हारकर वनवास के दुख भोग रहे होते हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण उन्हें अनन्त चतुर्दशी व्रत करने को कहते हैं. श्री कृष्ण के कथन अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से इस व्रत का पालन करते हैं तथा अनन्तसूत्रधारण किया जिसके फलस्वरुप पाण्डवों को अपने समस्त कष्टों से मुक्ति प्राप्त होती है.

अनंत चतुर्दशी पूजा विधि | Anant Chaturdashi Worship

अनंत चतुर्दशी के पूजन में व्रतकर्ता को प्रात:स्नान करके व्रत का संकल्प करना चाहिए  पूजा घर में कलश स्थापित करना चाहिए,  कलश पर भगवान विष्णु का चित्र स्थापित करनी चाहिए इसके पश्चात धागा लें जिस पर चौदह गांठें लगाएं इस प्रकार अनन्तसूत्र(डोरा) तैयार हो जाने पर इसे प्रभु के समक्ष रखें इसके बाद भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्र की षोडशोपचार-विधिसे पूजा करनी चाहिए तथा ॐ अनन्तायनम: मंत्र क जाप करना चाहिए. पूजा के पश्चात अनन्तसूत्र मंत्र पढकर स्त्री और पुरुष दोनों को अपने हाथों में अनंत सूत्र बांधना चाहिए और पूजा के बाद व्रत-कथा का श्रवन करें. अनंतसूत्र बांधने लेने के बाद ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए और स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करना चाहिए.

अनंत चतुर्दशी कथा इस प्रकार है सत्ययुग में सुमन्तुनाम के एक मुनि थे सुमन्तु मुनि ने अपनी कन्या का विवाह कौण्डिन्यमुनि से कर देते हैं. उनकी पत्नी शीला अनन्त-व्रत का पालन किया करती थी अत: विवाह उपरांत भी वह अनंत भगवान का पूजन करती है और अनन्तसूत्र बांधती हैं व्रत के प्रभाव से उनका घर धन-धान्य से पूर्ण हो जाता है सदैव सुख सम्पन्नता बनी रहती है. परंतु एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के हाथ में बंधे अनन्तसूत्रपर पडती है सूत्र देखकर उन्हें यह अनुकूल नहीं लगता और वह अपनी पत्नी से इसे अपने हाथ से उतार देने को कहते हैं.

शीला ने विनम्रतापूर्वक उन्हें कहती है कि यह अनंत भगवान का सूत्र है जिसके प्रभाव से उन्हें सुख और ऎश्वर्य की प्राप्ति हुई है परंतु अपने मद में चूर ऋषि उस धागे का अपमान करते हैं और उसे जला देते हैं. इस अपराध के परिणाम स्वरुप उनका सारा सुख समाप्त हो जाता है, दीन-हीन कौण्डिन्य ऋषि अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय करते हैं और अनन्त भगवान से क्षमा याचना करते हैं. वह प्रायश्चित हेतु चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करते हैं, उनके श्रद्ध पूर्वक किए गए व्रत पालन द्वारा भगवान अनंत प्रसन्न हो उन्हें क्षमा कर देते हैं और ऋषि को पुन: ऎश्वर्य एवं सुख की प्राप्ती होती है.

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संतान सप्तमी व्रत | Santan Saptami Vrat | Santan Saptami Fast | Santan Saptami 2024

संतान सप्तमी व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष कि सप्तमी तिथि के दिन किया जाता है. इस वर्ष 10 सितंबर 2024 के दिन मुक्ताभरण संतान सप्तमी व्रत किया जाएगा. यह व्रत विशेष रुप से संतान प्राप्ति, संतान रक्षा और संतान की उन्नति के लिये किया जाता है. इस व्रत में भगवान शिव एवं माता गौरी की पूजा का विधान होता है. भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी का व्रत अपना विशेष महत्व रखता है.

सप्तमी व्रत विधि | Saptami Fast Procedure

सप्तमी का व्रत माताओं के द्वारा किया अपनी संतान के लिये किया जाता है इस व्रत को करने वाली माता को प्रात:काल में स्नान और नित्यक्रम क्रियाओं से निवृ्त होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. इसके बाद प्रात काल में श्री विष्णु और भगवान शिव की पूजा अर्चना करनी चाहिए. और सप्तमी व्रत का संकल्प लेना चाहिए.

निराहार व्रत कर, दोपहर को चौक पूरकर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेध, सुपारी तथा नारियल आदि से फिर से शिव- पार्वती की पूजा करनी चाहिए.सप्तमी तिथि के व्रत में नैवेद्ध के रुप में खीर-पूरी तथा गुड के पुए बनाये जाते है. संतान की रक्षा की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ को कलावा अर्पित किया जाता है तथा बाद में इसे स्वयं धारण कर इस व्रत की कथा सुननी चाहिए.

संतान सप्तमी व्रत कथा | Santan Saptami Fast Story

सप्तमी व्रत की कथा से संबन्धित एक पौराणिक कथा प्रचलित है. इस कथा के अनुसार एक बार श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि किसी समय मथुरा में लोमश ऋषि आए थे. मेरे माता-पिता देवकी तथा वसुदेव ने भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की तो ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए उन्हें ‘संतान सप्तमी’ का व्रत करने को कहा.

लोमश ऋषि ने उन्हें व्रत का पूजन-विधान बताकर व्रतकथा भी बताते हैं:- नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा था उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था. उसके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था. उसकी पत्नी का नाम रूपवती था. रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था. एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं. वहाँ अन्य स्त्रियाँ भी स्नान कर रही थीं. उन स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया. तब रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती ने उन स्त्रियों से पूजन का नाम तथा विधि पूछी.

उन स्त्रियों में से एक ने बताया- यह व्रत संतान देने वाला है. उस व्रत की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवन-पर्यन्त इस व्रत को करने का संकल्प किया और शिवजी के नाम का डोरा बाँध लिया. किन्तु घर पहुँचने पर वे संकल्प को भूल गईं. फलतः मृत्यु के पश्चात रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं.

कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में आईं. चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया. इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था. भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ. इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया.

व्रत भूलने के कारण ही रानी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित रही. भूषणा ने व्रत को याद रखा था. इसलिए उसके गर्भ से सुन्दर तथा स्वस्थ आठ पुत्रों ने जन्म लिया. रानी ईश्वरी के पुत्रशोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई. उसे देखते ही रानी के मन में इर इर्ष्या पैदा हो गई और उसने उसके बच्चों को मारने का प्रयास किया किन्तु बालक न मर सके.उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताई और फिर क्षमायाचना करके उससे पूछा- किस कारण तुम्हारे बच्चे नहीं मर पाए. भूषणा ने उसे पूर्वजन्म की बात स्मरण कराई और उसी के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी न मरवा सकीं. यह सब सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा. तब व्रत के प्रभाव से रानी पुनः गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया. उसी समय से पुत्र-प्राप्ति और संतान की रक्षा के लिए यह व्रत प्रचलित है.

संतान सप्तमी व्रत पूजन | Santan Saptami fast Worship

व्रत की कथा सुनने के बाद सांय काल में भगवान शिव- पार्वती की पूजा दूप, दीप, फल, फूल और सुगन्ध से करते हुए नैवैध का भोग भगवान को लगाना चाहिए और भगवान श्विव कि आरती करनी चाहिए.

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राधाष्टमी पर्व महोत्सव | Radha Ashtami Festival | Radha Ashtami 2024

भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को राधाष्टमी के नाम से मनाया जाता है. इस वर्ष यह 11 सितंबर 2024, को मनाया जाएगा. राधाष्टमी के दिन श्रद्धालु बरसाना की ऊँची पहाडी़ पर पर स्थित गहवर वन की परिक्रमा करते हैं. इस दिन रात-दिन बरसाना में बहुत रौनक रहती है. विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. धार्मिक गीतों तथा कीर्तन के साथ उत्सव का आरम्भ होता है.

राधाष्टमी कथा | Radha Ashtami Story

राधाष्टमी कथा, राधा जी के जन्म से संबंधित है. राधाजी, वृषभानु गोप की पुत्री थी.  राधाजी की माता का नाम कीर्ति था. पद्मपुराण में राधाजी को राजा वृषभानु की पुत्री बताया गया है. इस ग्रंथ के अनुसार जब राजा यज्ञ के लिए भूमि साफ कर रहे थे तब भूमि कन्या के रुप में इन्हें राधाजी मिली थी. राजा ने इस कन्या को अपनी पुत्री मानकर इसका लालन-पालन किया.

इसके साथ ही यह कथा भी मिलती है कि भगवान विष्णु ने कृष्ण अवतार में जन्म लेते समय अपने परिवार के अन्य सदस्यों से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा था, तब विष्णु जी की पत्नी लक्ष्मी जी, राधा के रुप में पृथ्वी पर आई थी. ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधाजी, श्रीकृष्ण की सखी थी. लेकिन उनका विवाह रापाण या रायाण नाम के व्यक्ति के साथ सम्पन्न हुआ था. ऎसा कहा जाता है कि राधाजी अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी. राधाजी को श्रीकृष्ण की प्रेमिका माना जाता है.

राधाष्टमी पूजन | Radha Ashtami Worship

राधाष्टमी के दिन शुद्ध मन से व्रत का पालन किय अजाता है. राधाजी की मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराते हैं स्नान कराने के पश्चात उनका श्रृंगार किया जाता है. राधा जी की सोने या किसी अन्य धातु से बनी हुई सुंदर मूर्ति को विग्रह में स्थापित करते हैं. मध्यान्ह के समय श्रद्धा तथा भक्ति से राधाजी की आराधना कि जाती है. धूप-दीप आदि से आरती करने के बाद  अंत में भोग लगाया जाता है. कई ग्रंथों में राधाष्टमी के दिन राधा-कृष्ण की संयुक्त रुप से पूजा की बात कही गई है.

इसके अनुसार सबसे पहले राधाजी को पंचामृत से स्नान कराना चाहिए और उनका विधिवत रुप से श्रृंगार करना चाहिए. इस दिन मंदिरों में 27 पेड़ों की पत्तियों और 27 ही कुंओं का जल इकठ्ठा करना चाहिए. सवा मन दूध, दही, शुद्ध घी तथा बूरा और औषधियों से मूल शांति करानी चाहिए. अंत में कई मन पंचामृत से वैदिक मम्त्रों के साथ “श्यामाश्याम” का अभिषेक किया जाता है. नारद पुराण के अनुसार ‘राधाष्टमी’ का व्रत करनेवाले भक्तगण ब्रज के दुर्लभ रहस्य को जान लेते है. जो व्यक्ति इस व्रत को विधिवत तरीके से करते हैं वह सभी पापों से मुक्ति पाते हैं.

ब्रज और बरसाना में राधाष्टमी | Radha Ashtami in Braj and Barsana

ब्रज और बरसाना में जन्माष्टमी की तरह राधाष्टमी भी एक बड़े त्यौहार के रूप में मनाई जाती है. वृंदावन में भी यह उत्सव बडे़ ही उत्साह के साथ मनाया जाता है. मथुरा, वृन्दावन, बरसाना, रावल और मांट के राधा रानी मंदिरों इस दिन को उत्सव के रुप में मनाया जाता है.  वृन्दावन के ‘राधा बल्लभ मंदिर’ में राधा जन्म की खुशी में गोस्वामी समाज के लोग भक्ति में झूम उठते हैं. मंदिर का परिसर “राधा प्यारी ने जन्म लिया है, कुंवर किशोरी ने जन्म लिया है” के सामूहिक स्वरों से गूंज उठता है.

मंदिर में बनी हौदियों में हल्दी मिश्रित दही को इकठ्ठा किया जाता है और इस हल्दी मिली दही को गोस्वामियों पर उड़ेला जाता है. इस पर वह और अधिक झूमने लगते हैं और नृत्य करने लगते हैं.राधाजी के भोग के लिए मंदिर के पट बन्द होने के बाद, बधाई गायन के होता है. इसके बाद दर्शन खुलते ही दधिकाना शुरु हो जाता है. इसका समापन आरती के बाद होता है.

राधाष्टमी महत्व | Importance of Radha Ashtami

वेद तथा पुराणादि में राशाजी का ‘कृष्ण वल्लभा’ कहकर गुणगान किया गया है, वही कृष्णप्रिया हैं. राधाजन्माष्टमी कथा का श्रवण करने से भक्त सुखी, धनी और सर्वगुणसंपन्न बनता है, भक्तिपूर्वक श्री राधाजी का मंत्र जाप एवं स्मरण मोक्ष प्रदान करता है. श्रीमद देवी भागवत श्री राधा जी कि पूजा की अनिवार्यता का निरूपण करते हुए कहा है कि श्री राधा की पूजा न की जाए तो भक्त श्री कृष्ण की पूजा का अधिकार भी नहीं रखता. श्री राधा भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं.

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सूर्य षष्ठी व्रत 2024 | Surya Shasti Vrat | Surya Sashti Vrat 2024

सूर्य षष्ठी व्रत भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है. सूर्य षष्ठी व्रत 09 सितंबर 2024 को मनाया जाना है. यह पर्व भगवान सूर्य देव की आराधना एवं पूजा से संबंधित है. इस दिन भगवान सूर्य की पूजा के साथ साथ गायत्रि मंत्र का स्मरण भी होता है. सूर्य का बहुत महत्व है. जीवों तथा वनस्पति को पोषण देने वाला सूर्य हैं.

अत: इस दिन सूर्य भगवान की आराधना जो श्रद्धालु विधिवत तरीके से करते हैं उन्हें पुत्र, आरोग्य और धन की प्राप्ति होती है. सूर्य देव की शक्ति का उल्लेख वेदों में, पुराणों में और योग शास्त्र आदि में विस्तार से किया गया है. सूर्य की उपासना सर्वदा शुभ फलदायी होती है. अत: सूर्य षष्ठी के दिन जो भी व्यक्ति सूर्यदेव की उपासना करता है वह सदा दुख एवं संताप से मुक्त रहते हैं.

सूर्य षष्ठी व्रत विधि | Surya Shasti Vrat Vidhi

सूर्य षष्ठी के दिन सूर्योदय पूर्व दैनिक कर्म से निवृत होकर घर या घर के समीप बने किसी जलाशय, नदी, नहर में स्नान करना चाहिए.  स्नान करने के पश्चात उगते हुए सूर्य की आराधना करनी चाहिए. भगवान सूर्य को जलाशय, नदी अथवा नहर के समीप खडे़ होकर अर्ध्य देना चाहिए. शुद्ध घी से दीपक जलाना चाहिए. कपूर, धूप, लाल पुष्प आदि से भगवान सूर्य का पूजन करना चाहिए.

उसके बाद दिन भर भगवान सूर्य का मनन करना चाहिए. इस दिन अपाहिजों, गरीबों तथा ब्राह्मणों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिए. दान के तौर पर वस्त्र, खाना तथा अन्य उपयोगी वस्तुएं जरुरतमंद व्यक्तियों को दें सकते हैं. भाद्रपद शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन भगवान सूर्य के निमित्त रखे जाने वाले व्रत में सुबह सूर्योदय से पूर्व उठकर बहते हुए जल में स्नान करना चाहिए.

स्नान करने के पश्चात सात प्रकार के फलों, चावल, तिल, दूर्वा, चंदन आदि को जल में मिलाकर उगते हुए भगवान सूर्य को जल देना चाहिए. सूर्य को भक्ति तथा विश्वास के साथ प्रणाम करना चाहिए. उसके पश्चात सूर्य मंत्र का जाप 108 बार करना चाहिए. सूर्य मंत्र है :- “ऊँ घृणि सूर्याय नम:” अथवा “ऊँ सूर्याय नम:” इसके अतिरिक्त “आदित्य हृदय स्तोत्र” का पाठ भी किया जाना चाहिए.

सूर्य षष्ठी का महत्व | Importance of Surya Shashti Vrat

इस दिन श्रद्धालुओं द्वारा भगवान सूर्य का व्रत रखा जाता है. सूर्य को प्राचीन ग्रंथों में आत्मा एवं जीवन शक्ति के साथ साथ आरोग्यकारक माने गए हैं.  पुत्र प्राप्ति के लिए भी इस व्रत का महत्व माना गया है. इस व्रत को श्रद्धा तथा विश्वास से रखने पर पिता-पुत्र में प्रेम बना रहता है.सूर्य की रोशनी के बिना संसार में कुछ भी नहीं होगा सूर्य की किरणें जीवन का संचार करती हैं प्राणियों में शक्ति एवं प्रकाश उजागर करती हैं. सूर्य की उपासना से शरीर निरोग रहता है.

सूर्य षष्ठी को जो व्यक्ति सूर्य की उपासना तथा व्रत करते हैं उनकी समस्त व्याधियां दूर होने लगती हैं. सूर्य चिकित्सा का उपयोग आयुर्वेदिक पद्धति तथा प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में किया जाता है. शारिरिक दुर्बलता, हड्डियों की कमजोरी या जोडो़ में दर्द जैसी तकलीफें सूर्य की किरणों द्वारा ठीक हो सकती हैं. सूर्य की ओर मुख करके सूर्य स्तुति करने से शारीरिक चर्मरोग आदि नष्ट हो जाते हैं.

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वामन द्वादशी | Vaman Dwadashi Fast | Vaman Jayanti 2024

भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी को वामन द्वादशी के रुप में मनाया जाता है. इस वर्ष वामन जयंती, 15 सितंबर 2024 को मनाई जाएगी. धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी शुभ तिथि को श्रवण नक्षत्र के अभिजित मुहूर्त में भगवान श्री विष्णु ने एक अन्य रुप भगवान वामन का अवतार लिया था. इस दिन प्रात:काल भक्त श्री हरि का स्मरण करते हुए नियमानुसार विधि विधान के साथ पूजा कर्म करते हैं.

वामन द्वादशी पूजा | Vaman Dwadashi Puja

इस शुभ दिन में सभी मंदिरों में विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है भगवान श्री विष्णु जी का स्मरण करते हुए उनके अवतारों एवं लीलाओं का श्रवण होता है. विभिन्न स्थानों पर भागवत कथा का पाठ किया जाता है तथा वामन अवतार की कथा सुनी एवं सुनाई जाती है. इस पर्व के उपलक्ष्य पर भगवान वामन का पंचोपचार अथवा षोडषोपचार पूजन करने के पश्चात चावल, दही इत्यादि वस्तुओं का दान करना उत्तम माना गया है. संध्या समय व्रती भगवान वामन का पूजन करना चाहिए और व्रत कथा सुननी चाहिए तथा समस्त परिवार वालों को भगवान का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए. इस दिन व्रत एवं पूजन करने से भगवान वामन प्रसन्न होते हैं और भक्तों की समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं.

वामन द्वादशी कथा | Vaman Dwadashi Katha

वामन अवतार भगवान विष्णु का महत्वपूर्ण अवतार माना जाता है. श्रीमद्भगवद पुराण में वामन अवतार का उल्लेख मिलता है. वामन अवतार कथा अनुसार देव और दैत्यों के युद्ध में देव पराजित होने लगते हैं. असुर सेना अमरावती पर आक्रमण करने लगती है. तब इन्द्र भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं. भगवान विष्णु उनकी सहायता करने का आश्वासन देते हैं और भगवान विष्णु वामन रुप में माता अदिति के गर्भ से उत्पन्न होने का वचन देते हैं. दैत्यराज बलि द्वारा देवों के पराभव के बाद कश्यप जी के कहने से माता अदिति पयोव्रत का अनुष्ठान करती हैं जो पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता है. तब भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन अदिति के गर्भ से प्रकट हो अवतार लेते हैं तथा ब्राह्मण-ब्रह्मचारी का रूप धारण करते हैं.

वामन अवतार और बलि प्रसंग | Vaman Incarnation and Bali Prasang

महर्षि कश्यप ऋषियों के साथ उनका उपनयन संस्कार करते हैं वामन बटुक को महर्षि पुलह ने यज्ञोपवीत, अगस्त्य ने मृगचर्म, मरीचि ने पलाश दण्ड, आंगिरस ने वस्त्र, सूर्य ने छत्र, भृगु ने खड़ाऊं, गुरु देव जनेऊ तथा कमण्डल, अदिति ने कोपीन, सरस्वती ने रुद्राक्ष माला तथा कुबेर ने भिक्षा पात्र प्रदान किए तत्पश्चात भगवान वामन पिता से आज्ञा लेकर बलि के पास जाते हैं राजा बली नर्मदा के उत्तर-तट पर अन्तिम अश्वमेध यज्ञ कर रहे होते हैं.

वामन अवतार ले, ब्राह्माण वेश धर कर, राजा बलि के यहां भिक्षा मांगने पहुंते हैं. वामन रुप में श्री विष्णु ने भिक्षा में तीन पग भूमि मांगते हैं, राजा बलि अपने वचन पर अडिग रहते हुए, श्री विष्णु को तीन पग भूमि दान में दे देते हैं. वामन रुप में भगवान ने एक पग में स्वर्ग ओर दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया और अभी तीसरा पैर रखना शेष था. ऎसे मे राजा बलि अपना वचन निभाते हुए अपना सिर भगवान के आगे रख देते हैं और वामन भगवान के पैर रखते ही, राजा बलि परलोक पहुंच जाते हैं. बलि के द्वारा वचन का पालन करने पर, भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न्द होते हैं और बलि को पाताललोक का स्वामी बना देते हैं इस तरह भगवान वामन देवताओं की सहायता कर उन्हें पुन: स्वर्ग का अधिकारी बनाते हैं.

वामन द्वादशी व्रत फल | Vaman Dwadashi Fast results

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार अगर इस दिन श्रावण नक्षत्र हो तो इस व्रत की महत्ता और भी बढ़ जाती है. भक्तों को इस दिन उपवास करके वामन भगवान की स्वर्ण प्रतिमा बनवाकर पंचोपचार सहित उनकी पूजा करनी चाहिए. जो भक्ति श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक वामन भगवान की पूजा करते हैं वामन भगवान उनको सभी कष्टों से उसी प्रकार मुक्ति दिलाते हैं जैसे उन्होंने देवताओं को राजा बलि के कष्ट से मुक्त किया था. विधि-विधान पूर्वक व्रत करने से सुख, आनंद, मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है.

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ललिता षष्ठी व्रत 2024 | Lalita Shashti Vrat

भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को यह पर्व मनाया जाता है. 09 सितंबर 2024 को यह व्रत मनाया जाएगा. इस व्रत का कथन भगवान श्री कृष्ण जी ने स्वयं किया है. भगवन कहते हैं कि भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को किया गया यह व्रत शुभ सौभाग्य एवं योग्य संतान को प्रदान करने वाला होता है. हिन्दू पंचांग अनुसार शक्तिस्वरूपा देवी ललिता को समर्पित ललिता षष्ठी शुक्ल पक्ष के सुअवसर पर भक्तगण व्रत रखते हैं.

यह पर्व लगभग पूरे भारतवर्ष में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन यह व्रत अनेक स्थानों पर अलग-अलग रुपों में मनाया जाता है. इस दिन भक्तगण षोडषोपचार विधि से मां ललिता का पूजन करते है. संतान के सुख एवं उसकी लंबी आयु की कामना हेतु इस व्रत का बहुत महत्व है.

ललिता षष्ठी व्रत पूजन | Lalita Shashti Vrat Pujan

प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करके घर के ईशान कोण में पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठकर व्रत के लिए आवश्यक सामग्री जैसे भगवान शालिग्राम जी का विग्रह, कार्तिकेय का चित्र, माता गौरी और शिव भगवान की मूर्तियों सहीत सभी को एक स्थान पर रखकर पूजन की तैयारी करनी चाहिए. तांबे का लोटा, नारियल, कुंकुम, अक्षत, हल्दी, चंदन, अबीर, गुलाल, दीपक, घी, इत्र, पुष्प, दूध, जल, मौसमी फल, मेवा, मौली, आसन इत्यादि द्वारा पूजा करनी चाहिए.

पूजन में समस्त सामग्री भगवान को अर्पित करके “ओम ह्रीं षष्ठी देव्यै स्वाहा” मंत्र से षष्ठी देवी का पूजन करना चाहिए. अंत में प्रार्थना करें कि सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको नमस्कार है, आप मुझे अचल सुहाग दीजिए और मुझे संतान सुख से पूर्ण किजिए. यह व्रत पुत्रवती स्त्रियों को विशेष तौर पर करना चाहिए. इस दिन को विभिन्न रुपों में मनाए जाने के कारण इसकी पूजा में विविधता का समावेश देखा जा सकता है.

ललिता षष्ठी व्रत महत्व | Lalita Devi Fast Importance

यह व्रत प्रत्येक स्त्रियों द्वारा अपने पति की रक्षा और आरोग्य जीवन तथा संतान सुख के लिए रखा जाता है. ललिता व्रत के दिन पति एवं संतान के दीर्घजीवन और सुखद दांपत्य जीवन के लिए प्रार्थना की जाती है तथा मेवा मिष्टान्न और मालपुआ एवं खीर इत्यादि का प्रसाद वितरित किया जाता है. कई जगहों पर इस दिन चंदन से विष्णु पूजन एवं गौरी पार्वती और शिवजी की पूजा का भी चलन है.

ललिता षष्ठी के व्रत को संतान षष्ठी व्रत भी कहा जाता है. इस व्रत से संतान प्राप्ति होती है और संतान की पीड़ाओं का शमन होता है. यह व्रत शीघ्र फलदायक और शुभत्व प्रदान करने वाला होता है. यह व्रत विधिपूर्वक करने से संतान की प्राप्ति होती है. यदि संतान को किसी प्रकार का कष्ट अथवा रोग पीड़ा हो तो इस व्रत को करने से बचाव होता है.

इस दिन मां ललिता के साथ साथ स्कंदमाता और शिव शंकर की भी पूजा की जाती है. इस दिन का व्रत भक्तजनों के लिए बहुत ही फलदायक होता है. मान्यता है कि इस दिन मां ललिता देवी की पूजा भक्ति-भाव सहित करने से देवी मां की कृपा एवं आशिर्वाद प्राप्त होता है तथा भक्त का जीवन सदैव सुख शांति एवं समृद्धि से व्यतीत होता है.

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श्री महालक्ष्मी व्रत | Sri Mahalaxmi Vrat | Mahalaxmi Vrat 2024 | Mahalaxmi Fast

श्री महालक्ष्मी व्रत का प्रारम्भ भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन से होता है. वर्ष 2024 में 11 सितंबर को यह व्रत संपन्न होगा. यह व्रत राधा अष्टमी के ही दिन किया जाता है. इस व्रत में लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है.

श्री महालक्ष्मी व्रत पूजन | Sri Mahalakshmi Vrat Pujan

सबसे पहले प्रात:काल में स्नान आदि कार्यो से निवृत होकर, व्रत का संकल्प लिया जाता है. व्रत का संकल्प लेते समय निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाता है.

करिष्यsहं महालक्ष्मि व्रतमें त्वत्परायणा ।
तदविध्नेन में यातु समप्तिं स्वत्प्रसादत: ।।

हाथ की कलाई में बना हुआ डोरा बांधा जाता है, जिसमें 16 गांठे लगी होनी चाहिए. पूजन सामग्री में चन्दन, ताल, पत्र, पुष्प माला, अक्षत, दूर्वा, लाल सूत, सुपारी, नारियल तथा नाना प्रकार के भोग रखे जाते है. नये सूत 16-16 की संख्या में 16  बार रखा जाता है. इसके बाद निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाता है.

व्रत पूरा हो जाने पर वस्त्र से एक मंडप बनाया जाता है. उसमें लक्ष्मी जी की प्रतिमा रखी जाती है. श्री लक्ष्मी को पंचामृत से स्नान कराया जाता है और फिर उसका सोलह प्रकार से पूजन किया जाता है. इसके पश्चात ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है और दान- दक्षिणा दी जाती है.

इसके बाद चार ब्राह्माण और 16 ब्राह्माणियों को भोजन करना चाहिए. इस प्रकार यह व्रत पूरा होता है. इस प्रकार जो इस व्रत को करता है उसे अष्ट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है. सोलहवें दिन इस व्रत का उद्धयापन किया जाता है.  जो व्यक्ति किसी कारण से इस व्रत को 16 दिनों तक न कर पायें, वह तीन दिन तक भी इस व्रत को कर सकता है. व्रत के तीन दोनों में प्रथम दिन, व्रत का आंठवा दिन एवं व्रत के सोलहवें दिन का प्रयोग किया जा सकता है. इस व्रत को लगातार सोलह वर्षों तक करने से विशेष शुभ फल प्राप्त होते हैं. इस व्रत में अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए. केवल फल, दूध, मिठाई का सेवन किया जा सकता है.

महालक्ष्मी व्रत कथा | Mahalakshmi Vrat Katha

प्राचीन समय की बात है, कि एक बार एक गांव में एक गरीब ब्राह्माण रहता था. वह ब्राह्माण नियमित रुप से श्री विष्णु का पूजन किया करता था. उसकी पूजा-भक्ति से प्रसन्न होकर उसे भगवान श्री विष्णु ने दर्शन दिये़. और ब्राह्माण से अपनी मनोकामना मांगने के लिये कहा, ब्राह्माण ने लक्ष्मी जी का निवास अपने घर में होने की इच्छा जाहिर की. यह सुनकर श्री विष्णु जी ने लक्ष्मी जी की प्राप्ति का मार्ग ब्राह्माण को बता दिया, मंदिर के सामने एक स्त्री आती है,जो यहां आकर उपले थापती है, तुम उसे अपने घर आने का आमंत्रण देना. वह स्त्री ही देवी लक्ष्मी है.

देवी लक्ष्मी जी के तुम्हारे घर आने के बार तुम्हारा घर धन और धान्य से भर जायेगा. यह कहकर श्री विष्णु जी चले गये. अगले दिन वह सुबह चार बचए ही वह मंदिर के सामने बैठ गया. लक्ष्मी जी उपले थापने के लिये आईं, तो ब्राह्माण ने उनसे अपने घर आने का निवेदन किया. ब्राह्माण की बात सुनकर लक्ष्मी जी समझ गई, कि यह सब विष्णु जी के कहने से हुआ है. लक्ष्मी जी ने ब्राह्माण से कहा की तुम महालक्ष्मी व्रत करो, 16 दिनों तक व्रत करने और सोलहवें दिन रात्रि को चन्द्रमा को अर्ध्य देने से तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा.

ब्राह्माण ने देवी के कहे अनुसार व्रत और पूजन किया और देवी को उत्तर दिशा की ओर मुंह करके पुकारा, लक्ष्मी जी ने अपना वचन पूरा किया. उस दिन से यह व्रत इस दिन, उपरोक्त विधि से पूरी श्रद्वा से किया जाता है.

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ऋषि पंचमी व्रत 2024 | Rishi Panchami Fast 2024

भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी ऋषि पंचमी के रुप में मनाई जाती है. इस व्रष ऋषि पंचमी व्रत 08 सितंबर 2024 के दिन किया जाना है. ऋषि पंचमी का व्रत सभी के लिए फल दायक होता है. इस व्रत को श्रद्धा व भक्ति के साथ मनाया जाता है. आज के दिन ऋषियों का पूर्ण विधि-विधान से पूजन कर कथा श्रवण करने का बहुत महत्व होता है. यह व्रत पापों का नाश करने वाला व श्रेष्ठ फलदायी है. यह व्रत और ऋषियों के प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता, समर्पण एवं सम्मान की भावना को प्रदर्शित करने का महत्वपूर्ण आधार बनता है.

ऋषि पंचमी पूजन | Rishi Panchami Puja Rituals

पूर्वकाल में यह व्रत समस्त वर्णों के पुरुषों के लिए बताया गया था, किन्तु समय के साथ साथ अब यह अधिकांशत: स्त्रियों द्वारा किया जाता है. इस दिन पवित्र नदीयों में स्नान का भी बहुत महत्व होता है. सप्तऋषियों की प्रतिमाओं को स्थापित करके उन्हें पंचामृत में स्नान करना चाहिए. तत्पश्चात उन पर चन्दन का लेप लगाना चाहिए, फूलों एवं सुगन्धित पदार्थों, धूप, दीप, इत्यादि अर्पण करने चाहिए तथा श्वेत वस्त्रों, यज्ञोपवीतों और नैवेद्य से पूजा और मन्त्र जाप करना चाहिए.

ऋषि पंचमी कथा प्रथम | Rishi Panchami Katha

एक समय विदर्भ देश में उत्तक नाम का ब्राह्मण अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ निवास करता था. उसके परिवार में एक पुत्र व एक पुत्री थी. ब्राह्मण ने अपनी पुत्री का विवाह अच्छे ब्राह्मण कुल में कर देता है परंतु काल के प्रभाव स्वरुप कन्या का पति अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है, और वह  विधवा हो जाती है तथा अपने पिता के घर लौट आती है. एक दिन आधी रात में लड़की के शरीर में कीड़े उत्पन्न होने लगते है़

अपनी कन्या के शरीर पर कीड़े देखकर माता पिता दुख से व्यथित हो जाते हैं और पुत्री को उत्तक ॠषि के पास ले जाते हैं. अपनी पुत्री की इस हालत के विषय में जानने की प्रयास करते हैं. उत्तक ऋषि अपने ज्ञान से उस कन्या के पूर्व जन्म का पूर्ण विवरण उसके माता पिता को बताते हैं और कहते हैं कि कन्या पूर्व जन्म में ब्राह्मणी थी और इसने एक बार रजस्वला होने पर भी घर बर्तन इत्यादि छू लिये थे और काम करने लगी बस इसी पाप के कारण इसके शरीर पर कीड़े पड़ गये हैं.

शास्त्रों के अनुसार रजस्वला स्त्री का कार्य करना निषेध है परंतु इसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया और इसे इसका दण्ड भोगना पड़ रहा है. ऋषि कहते हैं कि यदि यह कन्या ऋषि पंचमी का व्रत करे और श्रद्धा भाव के साथ पूजा तथा क्षमा प्रार्थना करे तो उसे अपने पापों से मुक्ति प्राप्त हो जाएगी.  इस प्रकार कन्या द्वारा ऋषि पंचमी का व्रत करने से उसे अपने पाप से मुक्ति प्राप्त होती है.

एक अन्य कथा के अनुसार यह कथा श्री कृष्ण ने युधिष्ठर को सुनाई थी. कथा अनुसार जब वृजासुर का वध करने के कारण इन्द्र को ब्रह्म हत्या का महान पाप लगा तो उसने इस पाप से मुक्ति पाने के लिए ब्रह्मा जी से प्रार्थना की. ब्रह्मा जी ने उस पर कृपा करके उस पाप को चार बांट दिया था जिसमें प्रथम भाग अग्नि की ज्वाला में, दूसरा नदियों के लिए वर्ष के जल में, तीसरे पर्वतों में और चौथे भाग को स्त्री के रज में विभाजित करके इंद्र को शाप से मुक्ति प्रदान करवाई थी. इसलिए उस पाप को शुद्धि के लिए ही हर स्त्री को ॠषि पंचमी का व्रत करना चाहिए.

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दक्षिणावर्ती शंख | Dakshinavarti Shankh | Dakshinavarti Shankh Puja

शास्त्रों के अनुसार दक्षिणावर्ती शंख का हिंदु पूजा पद्धती में महत्वपूर्ण स्थान है दक्षिणावर्ती शंख देवी लक्ष्मी के स्वरुप को दर्शाता है. दक्षिणावर्ती शंख ऎश्वर्य एवं समृद्धि का प्रतीक है. इस शंख का पूजन एवं ध्यान व्यक्ति को धन संपदा से संपन्न बनाता है. व्यवसाय में सफलता दिलाता है, इस शंख में जल भर कर सूर्य को जल चढाने से नेत्र संबंधि रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है तथा रात्रि में इस शंख में जल भर कर सुबह इसके जल को संपूर्ण घर में छिड़कने से सुख शंति बनी रहती है तथा कोई भी बाधा परेशान नहीं करती.

दक्षिणावर्ती शंख महत्व | Importance of Dakshinavarti Shankh

शंख बहुत प्रकार के होते हैं ,परंतु प्रचलन में मुख्य रूप से दो प्रकार के शंख हैं इसमें प्रथम वामवर्ती शंख , दूसरा दक्षिणावर्ती शंख महत्वपूर्ण होते हैं. वामवर्ती शंख बांयी ओर को खुला होता है तथा दक्षिणावर्ती शंख दायीं ओर खुला होता है. तंत्र शास्त्र में वामवर्ती शंख की अपेक्षा दक्षिणावर्ती शंख को विशेष महत्त्व दिया जाता है. दक्षिणावर्ती शंख मुख बंद होता है इसलिए यह शंख बजाया नहीं जाता केवल पूजा कार्य में ही इसका उपयोग होता है इस शंख के कई लाभ देखे जा सकते हैं.

दक्षिणावर्ती शंख लाभ | Benefits of Dakshinavarti Shankh

दक्षिणावर्ती शंख को शुभ फलदायी है यह बहुत पवित्र, विष्णु-प्रिय और लक्ष्मी सहोदर माना जाता है, मान्यता अनुसार यदि घर में दक्षिणावर्ती शंख रहता है तो श्री-समृद्धि सदैव बनी रहती है. इस शंख को घर पर रखने से दुस्वप्नों से मुक्ति मिलती है. इस शंख को व्यापार स्थल पर रखने से व्यापार में वृद्धि होती है. पारिवारिक वातावरण शांत बनता है.

दक्षिणावर्ती शंख स्थापना | Establishing Dakshinavarti Shankh

दक्षिणावर्ती शंख को स्थापित करने से पूर्व इसका शुद्धिकरण करना चाहिए, बुधवार एवं बृहस्पतिवार के दिन किसी शुभ- मुहूत्त में इसे पंचामृत, दूध, गंगाजल से स्नान कराकर धूप-दीप से पूजा करके चांदी के आसन पर लाल कपडे़ के ऊपर प्रतिष्ठित करना चाहिए. इस शंख का खुला भाग आकाश की ओर तथा मुख वाला भाग अपनी और रखना चाहिए. अक्षत एवं रोली द्वारा इस शंख को भरना चाहिए. शंख पर स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर इसे चंदन, पुष्प, धूप दीप से पंचोपचार करके स्थापित करना चाहिए.

दक्षिणावर्ती शंख पूजन | Worship of Dakshinavarti Shankh

>स्थापना पश्चात दक्षिणावर्ती शंख का नियमित पूजन एवं दर्शन करना चाहिए. शीघ्र फल प्राप्ति के लिए स्फटिक या कमलगट्टे की माला द्वारा

“ऊँ ह्रीं श्रीं नम: श्रीधरकरस्थाय पयोनिधिजातायं
लक्ष्मीसहोदराय फलप्रदाय फलप्रदाय
श्री दक्षिणावर्त्त शंखाय श्रीं ह्रीं नम:।”

मंत्र का जाप करना चाहिए. यह शंख  दरिद्रता से मुक्ति, यश और कीर्ति वृद्धि, संतान प्राप्ति तथा शत्रु भय से मुक्ति प्रदान करता है.

तंत्र साधना में दक्षिणावर्ती शंख | Dakshinavarti Shankh and Tantra

तांत्रिक प्रयोगों में भी दक्षिणावर्ती शंख का उपयोग किया जाता है, तंत्र शास्त्र के अनुसार दक्षिणावर्ती शंख में विधि पूर्वक जल रखने से कई प्रकार की बाधाएं शांत हो जाती है. सकारात्मक उर्जा का प्रवाह बनता है और नकारात्मक उर्जा दूर हो जाती है. इसमें शुद्ध जल भरकर, व्यक्ति, वस्तु अथवा स्थान पर छिड़कने से  तंत्र-मंत्र इत्यादि का प्रभाव समाप्त हो जाता है. भाग्य में वृद्धि होती है किसी भी प्रकार के टोने-टोटके इस शंख उपयोग द्वारा निष्फल हो जाते हैं, दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है इसलिए यह जहां भी स्थापित होता है वहां धन संबंधी समस्याएं भी समाप्त होती हैं.

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