वत्स द्वादशी 2024 | Vatsa Dwadashi

भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को वत्स द्वादशी के रुप में मनाया जाता है. 30 अगस्त 2024 को मनाया जाएगा, वत्स द्वादशी को बछवास, ओक दुआस या बलि दुआदशी के नाम से भी पुकारा जाता है. वत्स द्वादशी के रूप मे पुत्र सुख की कामना एवं संतान की लम्बी आयु की इच्छा समाहित होती है. वर्तमान में यह पर्व राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में ही देखने में आता है. समय की धूल ने इस पर्व के उल्लास को ढक दिया है. वत्सद्वादशी में परिवार की महिलाएं गाय व बछडे का पूजन करती है. इसके पश्चात माताएं गऊ व गाय के बच्चे की पूजा करने के बाद अपने बच्चों को प्रसाद के रुप में सूखा नारियल देती है. यह पर्व विशेष रुप से माता का अपने बच्चों कि सुख-शान्ति से जुडा हुआ है.

वत्स द्वादशी कथा एवं पूजन | Vatsa Dwadashi Katha and Puja

वत्स द्वादशी उत्साह से मनाई जाती है इस दिन माताएं अपने बच्चों की लंबी उम्र एवं सुख सौभाग्य की कामना करती हैं. बछड़े वाली गाय की पूजा कर कथा सुनी जाती है फिर बच्चों को नेग तथा श्रीफल का प्रसाद रुप में देती हैं. इस दिन घरों में चाक़ू का काटा नहीं बनाया जाता इस दिन विशेष रुप से चने, मूंग, कढ़ी आदि पकवान बनाए जाते हैं तथा व्रत में इन्हीं का भोग लगाया जाता है.

इस दिन गायों तथा उनके बछडो़ की सेवा की जाती है. सुबह नित्यकर्म से निवृत होकर गाय तथा बछडे़ का पूजन किया जाता है. आधुनिक समय में कई लोगों के घरों में गाय नहीं होती है. वह किसी दूसरे के घर की गाय का पूजन कर सकते हैं. यदि घर के आसपास भी गाय और बछडा़ नहीं मिले तब गीली मिट्टी से गाय तथा बछडे़ को बनाए और उनकी पूजा करें. इस व्रत में गाय के दूध से बनी खाद्य वस्तुओं का उपयोग नहीं किया है;

वत्स द्वादशी पूजा विधि | Vatsa Dwadashi Puja Vidhi

सुबह स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें. इस दिन दूध देने वाली गाय को बछडे़ सहित स्नान कराते हैं. फिर उन दोनों को नया वस्त्र ओढा़या जाता है. दोनों के गले में फूलों की माला पहनाते हैं. दोनों के माथे पर चंदन का तिलक करते हैं. सींगों को मढा़ जाता है.

तांबे के पात्र में सुगंध, अक्षत, तिल, जल तथा फूलों को मिलाकर दिए गए मंत्र का उच्चारण करते हुए गौ का प्रक्षालन करना चाहिए. गाय को उड़द से बने भोज्य पदार्थ खिलाने चाहिए. गाय माता का पूजन करने के बाद वत्स द्वादशी की कथा सुनी जाती है. सारा दिन व्रत रखकर रात्रि में अपने इष्टदेव तथा गौमाता की आरती की जाती है. उसके बाद भोजन ग्रहण किया जाता है.

वत्स द्वादशी व्रत का महत्व | Significance of Vatsa Dwadashi

वत्स द्वादशी का यह व्रत संतान प्राप्ति एवं उसके सुखी जीवन की कामाना के लिए किया जाने वाला व्रत है यह व्रत विशेष रुप से स्त्रियों का पर्व होता है यह व्रत पुत्र संतान की कामना के लिये किया जाता है और इसे पुत्रवती स्त्रियाँ करती हैं. इस दिन अंकुरित मोठ, मूँग, तथा चने आदि को भोजन में उपयोग किया जाता है और प्रसाद रुप में इन्हें ही चढाया जाता है. इस दिन द्विदलीय अन्न का प्रयोग किया जाते है इस दलीय अन्न तथा चाकू द्वारा काटा गया कोई भी पदार्थ वर्जित होता है.

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गुग्गा नवमी 2024 | Guga Navami

विक्रमी संवत के माह भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की नवमी को गुग्गा नवमी मनाई जाती है. गुग्गा नवमी इस वर्ष 27 अगस्त 2024 को मनाई जाएगी. गुग्गा नवमी के दिन नागों की पूजा करते हैं मान्यता है कि गुग्गा देवता की पूजा करने से सांपों से रक्षा होती है. गुग्गा देवता को सांपों का देवता भी माना जाता है. गुग्गा देवता की पूजा श्रावण मास की पूर्णिमा यानी रक्षाबंधन से आरंभ हो जाती है, यह पूजा-पाठ नौ दिनों तक यानी नवमी तक चलती है इसलिए इसे गुग्गा नवमी कहा जाता है.

गुग्गा जन्म कथा | Guga Navami Janam Katha

गुग्गा नवमी के विषय में एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार गुग्गा मारु देश का राजा था और उनकी मां  बाछला, गुरु गोरखनाथ जी की परम भक्त थीं. एक दिन बाबा गोरखनाथ अपने शिष्यों समेत बछाला के राज्य में आते हैं. रानी को जब इस बात का पता चलता हे तो वह बहुत प्रसन्न होती है इधर बाबा गोरखनाथ अपने शिष्य सिद्ध धनेरिया को नगर में जाकर फेरी लगाने का आदेश देते हैं. गुरु का आदेश पाकर शिष्‍य नगर में भिक्षाटन करने के लिए निकल पड़ता है भिक्षा मांगते हुए वह राजमहल में जा पहुंचता है तो रानी योगी बहुत सारा धन प्रदान करती हैं लेकिन शिष्य वह लेने से मना कर देता है और थोडा़ सा अनाज मांगता है.

रानी अपने अहंकारवश उससे कहती है की राजमहल के गोदामों में तो आनाज का भंडार लगा हुआ है तुम इस अनाज को किसमें ले जाना चाहोगे तो योगी शिष्य अपना भिक्षापात्र आगे बढ़ा देता है. आश्चर्यजनक रुप से सारा आनाज उसके भिक्षा पात्र में समा जाता है और राज्य का गोदाम खाली हो जाता है किंतु योगी का पात्र भरता ही नहीं तब रानी उन योगीजन की शक्ति के समक्ष नतमस्तक हो जाती है और उनसे क्षमा याचना की गुहार लगाती है.

रानी योगी के समक्ष अपने दुख को व्यक्त करती है और अपनी कोई संतान न होने का दुख बताती है. शिष्य योगी, रानी को अपने गुरु से मिलने को कहता है जिससे उसे पुत्र प्राप्ति का वरदान प्राप्त हो सकता है. यह बात सुनकर रानी अगली सुबह जब वह गुरु के आश्रम जाने को तैयार होती है तभी उसकी बहन काछला वहां पहुंचकर उसका सारा भेद ले लेती है और गुरु गोरखनाथ के पास पहले पहुंचकर उससे दोनो फल ग्रहण कर लेती है.

परंतु जब रानी उनके पास फल के लिए जाती है तो गुरू सारा भेद जानने पर पुन: गोरखनाथ रानी को फल प्रदान करते हैं और आशिर्वाद देते हें कि उसका पुत्र वीर तथा नागों को वश में करने वाला तथा सिद्धों का शिरोमणि होगा. इस प्रकार रानी को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है उस बालक का नाम गुग्गा रखा जाता है.

गुग्गा नवमी कथा | Guga Navami Katha

कुछ समय पश्चात जब गुग्गा के विवाह के लिए गौड़ बंगाल के राजा मालप की बेटी सुरियल को चुना गया परंतु राजा ने अपनी बेटी की शादी गुग्गा से करवाने से मना कर दिया इस बात से दुखी गुग्गा अपने गुरु गोरखनाथ जी के पास जाता है और उन्हें सारी घटना बताता है. बाबा गोरखनाथ ने अपने शिष्य को दुखी देख उसकी सहायता हेतु वासुकी नाग से राजा की कन्या को विषप्रहार करवाते हैं.

राजा के वैद्य उस विष का तोड़ नहीं जान पाते अंत वेश बदले वासुकी नाग राजा से कहते हैं कि यदि वह गुग्गा मंत्र का जाप करे तो शायद विष का प्रभाव समाप्त हो जाए राजा गुगमल मंत्र का प्रयोग विष उतारने के लिए करते हैं देखते ही देखते राजा की बेटी सुरियल विष के प्रभाव से मुक्त हो जाती है और राजा अपने कथन अनुसार अपनी पुत्री का विवाह गुगमल से करवा देता है.

गुग्गा नवमी पूजा | Guga Navami Pooja

गुग्गा नवमी पर्व आठ दिन तक मनाया जाता है और नवें दिन गुग्गा नवमी को गुग्गा मंदिर में पूजा अर्चना की जाती है और प्रसाद के रूप रोट और चावल-आटा चढ़ाते हैं. भक्त लोग कथा का श्रवण करते हैं तथा नाग देता की पूजा अर्चना करते हैं. इस अवसर पर गुग्गा कथा को गाने वाली मंडलियां घर-घर जाकर गुग्गा का गुण गान करती हैं. पंजाब और हरियाणा समेत हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में इस पर्व को बहुत श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाया जाता है. गुग्गा नवमी की ऐसी मान्यता है पूजा स्थल की मिट्टी को घर पर रखने से सर्प भय से मुक्ति मिलती है.

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कैलाश मानसरोवर यात्रा 2024| Kailash Mansarovar Yatra 2024 | Kailash Mansarovar Yatra

कैलाश मानसरोवर को भगवान शिव का प्रिय स्थान कहा गया है. इसे भगवान शिव-पार्वती का घर माना जाता है. पौराणिक आख्यानों के अनुसार यह स्थल शिव का स्थायी निवास होने के कारण से यह स्थान सर्वश्रेष्ठ पाता है. मानसरोवर को ‘कैलाश मानसरोवर तीर्थ’ के नाम से जाना जाता है. हर साल कैलाश-मानसरोवर की यात्रा करने, हज़ारों श्रद्धालु, साधु-संत और दार्शनिक यहाँ जाते हैं. इस स्थान की पवित्रता और महत्ता बहुत अधिक मानी गई है.

यह स्थल भी बेहद दुर्गम स्थान पर स्थित है. मानसरोवर को दूसरा कैलाश पर्वत कहा गया है. भगवान शिव के निवास स्थल के नाम से प्रख्यात यह स्थल अपनी अपरम्पार महिमा के लिये प्रसिद्ध है. यह पर्वत कुल मिलाकर 48 किलोमीटर में फैला हुआ है. कैलाश मानसरोवर की यात्रा अत्यधिक कठिन यात्राएं में से एक यात्रा मानी जाती है. इस यात्रा का सबसे अधिक कठिन मार्ग भारत के पडोसी देश चीन से होकर जाता है. यहां की यात्रा के विषय में यह कहा जाता है, कि इस यात्रा पर वही लोग जाते हैं, जिसे भगवान भोलेनाथ स्वयं बुलाते हैं. कैलाश मानसरोवर यात्रा की अवधि 28 दिन की होती है.

इसमें भारतीय सभ्यता की झलक प्रतिबिंबित होती है. कैलाश पर्वत हिन्दू धर्म में अपना विशिष्ट स्थान रखता  कैलाश पर्वत को ‘गणपर्वत और रजतगिरि’ भी कहा जाता है. मान्यता है कि यह पर्वत स्वयंभू है. कैलाश पर्वत के दक्षिण भाग को नीलम, पूर्व भाग को क्रिस्टल, पश्चिम को रूबी और उत्तर को स्वर्ण रूप में माना जाता है.  इसके शिखर की आकृति विराट शिवलिंग की भांति है. पर्वतों के मध्य यह स्थान सदैव बर्फ़ से आच्छादित रहता है. यह चार धर्मों तिब्बती धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और हिन्दू धर्म का आध्यात्मिक केन्द्र है. कैलाश पर्वत की चार दिशाओं से चार नदियों का उद्गम होता है ब्रह्मपुत्र, सिंधु नदी, सतलुज और करनाली.

कैलाश मानसरोवर का पौराणिक महत्व | Puranic Importance of Kailash Mansarovar

पुराणों के अनुसार मानसरोवर झील की उत्पत्ति भगीरथ की तपस्या से भगवान शिव के प्रसन्न होने पर हुई थी. इस स्थान से जुड़े विभिन्न मत और लोक-कथाएँ इसकी प्रमाणिकता को प्रदर्शित करती हैं, मानसरोवर झील तिब्बत में स्थित एक झील है, शास्त्रों में इस स्थान को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित हैं कुछ के अनुसार ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डल के जल से इस मानसरोवर की स्थापना की तथा कुछ के अनुसार देवी सती का हाथ इसी स्थान पर गिरा था, जिससे यह झील तैयार हुई. कैलाश मानसरोवर स्थल स्वर्ग से कम नहीं है. इस स्थल के विषय में यह मान्यता है, कि जो व्यक्ति इस स्थल का पानी पी लेता है. उसके लिये भगवान शिव के बनाये स्वर्ग में प्रवेश मिल जाता है. यह स्थान माता के 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है.

कैलाश मानसरोवर मंदिर समुद्र स्थल से 4 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है. इतनी ऊंचाई पर होने के कारण यहां के गौरी नामक कुण्ड में सदैव बर्फ जमी रहती है. इस मंदिर के दर्शनों को आने वाले तीर्थयात्री इस कुंड में  स्नान करना शुभ मानते है. यहां भगवान शिव बर्फ के शिवलिंग के रुप में विराजित है.

राक्षस ताल | Rakshas Tal

इस धार्मिक स्थल की यात्रा करने वाले यात्रियों में न केवल हिन्दू धर्म के श्रद्वालु आते है, बल्कि यहां पर बौद्ध व अन्य धर्म के व्यक्ति भी कैलाश मानसरोवर में स्थित भगवान शिव के दर्शनों के लिये आते है, इसी स्थान पर एक ताल है, जो राक्षस ताल के नाम से विख्यात है. इस ताल से जुडी एक पौराणिक कथा प्रचलित है, कि यहां पर रावण ने भगवान शिव कि आराधना की थी. रावण राक्षस कुल के थे इसी कारण इस ताल का नाम “राक्षस ताल” पडा है.

कैलाश मानसरोवर यात्रा का मार्ग | Kailash Mansarovar Yatra Path

कैलाश मानसरोवर के विषय में कहा जाता है, कि देव ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना इसी स्थान पर की थी. यहां पर गंगा नदी कैलाश पर्वत से निकलते हुए चार नदियों का रुप लेती है जिसके उसके चार नाम हो जाते है.  भारत से कैलाश मानसरोवर की यात्रा का मार्ग हल्द्वानी, कौसानी, बागेश्वर, धारचूला, तवाघाट, पांगू,  सिरखा, गाला माल्पा, बुधि, गुंजी, कालापानी, लिपू लेख दर्रा, तकलाकोट, तारचेन  डेराफुक और अंत में श्री कैलास आता है. मानसरोवर की यात्रा का दृश्य बडा ही मनोरम है. यहां पर प्रकृति का रंग गहरा नीला और बेहद बर्फीला हो जाता है. कैलाश मानसरोवर की यात्रा करने वाले श्रद्वालु यहां आकर कैलाश जी की परिक्रमा अवश्य करते है. कैलाश की परिक्रम करने के बाद मानसरोवर की परिक्रमा की जाती है. यहां के सौन्दर्य को देख कर सभी को इस तथ्य पर विश्वास हो गया कि इस स्थान को ब्रह्माण्ड का मध्य स्थान क्यों कहा जाता है.

कैलाश मानसरोवर परिक्रमा | Kailash Mansarovar Parikrama

कैलाश पर्वत परिक्रमा मार्ग लगभग ‘15500 से 19500’ फुट की ऊंचाई पर स्थित है. इसकी परिक्रमा कैलाश की सबसे निचली चोटी तारचेन से शुरू होती है मानसरोवर से 45 किलोमीटर दूर यह स्थान तारचेन कैलाश  परिक्रमा का आधार होता है. तारचेन से यात्री यमद्वार पहुंचते हैं तथा ब्रह्मपुत्र नदी को पार करते हुए डेरापुफ पहुंचा जाता है इस चोटी को ‘हिमरत्न’ भी कहा जाता है. डेरापुफ में विश्राम के पश्चात यात्री कठिन खड़ी ऊंचाई पर स्थित ड्रोल्मा की तरफ बढते हैं. तकलाकोट और मांधाता पर्वत के बाद गुर्लला का दर्रा के मध्य में  मानसरोवर और राक्षस ताल दिखाई पड़ते हैं. ड्रोल्मापास तथा मानसरोवर पर शिव की पूजा करते हैं

दर्रा समाप्त होने पर तीर्थपुरी नामक स्थान है जहाँ गर्म पानी के झरने हैं इसके आगे डोलमाला और देवीखिंड स्थान है, ड्रोल्मा से नीचे बर्फ़ से सदा ढकी रहने वाली ल्हादू घाटी में स्थित गौरीकुंड है , तीर्थयात्री इस कुंड के पवित्र जल में स्नान करते हैं. कहते हैं कि इस स्थान माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी जिस कारण इस स्थान को गौरी कुड के नाम से पुकारा जाने लगा और सबसे ऊंची चोटी डेशफू गोम्पा पर इस यात्रा का समापन होता है.

कैलाश मानसरोवर यात्रा महत्व | Importance of Kailash Mansarovar Yatra

कैलाश मानसरोवर यात्रा दुर्गम स्थलों से होते हुए पूरी होती है काफी ऊचांई पर होने के कारण बर्फ से ढका यह स्थान श्रद्धालुओं की आस्था की परिक्षा लेता प्रतीत होता है. परंतु इस सबके बावजूद यहां आने वाले श्रद्धालु तीर्थयात्रियों की संख्या मे हर वर्ष इजाफा होता है. यह रमणीय स्थल जहां पर पर्वतों से निकलती नदियां, छोटे-छोट बहते झरने अद्वितीय दृश्य प्रस्तुत करते हैं तथा तीर्थयात्रा के आनंद को बढ़ाते हैं. इस तीर्थस्थलों की सुन्दरता का वर्णन पुराणों में किया गया है. वृहत पुराण में इसके विषय में लिखा हुआ है कि भगवान शिव को यह स्थल अत्यधिक प्रिय रहा है. पौराणिक कथाओं में भी हिमालय की गोद मे समाए इस पवित्र स्थल का विस्तृत वर्णन मिलता है.

यह संसार की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं मे से एक यह संसार का सबसे बडा बर्फीला क्षेत्र भी है इतना होते हुए भी हर वर्ष यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है इसके अतिरिक्त बुद्धिजीवी व पर्यटक भी इस रोमांचकारी रमणिय स्थान पर आते रहते हैं इस आदि कैलाश पर आना आत्मा को शांति प्रदान करता. कैलाश के बारे में महाभारत और रामायण के साथ अनेक पुराणों में इसका वर्णन मिलता है. यहां लगभग प्रत्येक पर्वत पर एक तीर्थ स्थल है यहां के प्रत्येक रास्ते, जंगल और चोटी से एक कहानी जुडी हुई है.वास्तव में यह स्थान तीर्थ यात्रा पर आने वाले व सभी के लिए एक आदर्श जगह है.

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अजा एकादशी 2024 । Aja Ekadashi Vrat Katha

भाद्रपद कृष्ण पक्ष की एकादशी अजा या कामिका एकादशी के नाम से जानी जाती है. इस दिन की एकादशी के दिन भगवान श्री विष्णु जी की पूजा का विधान होता है. इस वर्ष अजा एकादशी 29 अगस्त 2024 को मनाई जाएगी. इस दिन रात्रि जागरण तथा व्रत करने से व्यक्ति के सभी पाप दूर होते है.

अजा एकादशी का व्रत करने के लिये व्रत संबन्धी कई बातों का ध्यान रखना चाहिए.

दशमी तिथि की रात्रि में मसूर की दाल खाने से बचना चाहिए. इससे व्रत के शुभ फलों में कमी होती है. चने नहीं खाने चाहिए, करोदों का भोजन नहीं करना चाहिए, शाक आदि भोजन करने से भी व्रत के फलों में कमी होती है, इस दिन शहद का सेवन करने एकादशी व्रत के फल कम होते है. व्रत के दिन और दशमी तिथि के दिन पूर्ण ब्रह्माचार्य का पालन करना चाहिए.

अजा एकादशी व्रत पूजा | Aja Ekadashi Vrat Pooja

अजा एकादशी का व्रत करने के लिए उपरोक्त बातों का ध्यान रखने के बाद व्यक्ति को एकाद्शी तिथि के दिन शीघ्र उठना चाहिए. उठने के बाद नित्यक्रिया से मुक्त होने के बाद, सारे घर की सफाई करनी चाहिए और इसके बाद तिल और मिट्टी के लेप का प्रयोग करते हुए, कुशा से स्नान करना चाहिए. स्नान आदि कार्य करने के बाद, भगवान श्री विष्णु जी की पूजा करनी चाहिए.

भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करने के लिये एक शुद्ध स्थान पर धान्य रखने चाहिए. धान्यों के ऊपर कुम्भ स्थापित किया जाता है. कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से सजाया जाता है. और स्थापना करने के बाद कुम्भ की पूजा की जाती है. इसके पश्चात कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी की प्रतिमा स्थापित कि जाती है प्रतिमा के समक्ष व्रत का संकल्प लिया जाता है. संकल्प लेने के पश्चात धूप, दीप और पुष्प से भगवान श्री विष्णु जी की जाती है.

अजा एकादशी कथा Aja Ekadashi Katha

अज एकादशी की कथा राजा हरिशचन्द्र से जुडी़ हुई है. राजा हरिशचन्द्र अत्यन्त वीर प्रतापी और सत्यवादी ताजा थे. उसने अपनी सत्यता एवं वचन पूर्ति हेतु पत्नी और पुत्र को बेच देता है और स्वयं भी एक चाण्डाल का सेवक बन जाते हैं. इस संकट से मुक्ति पाने का उपाय गौतम ऋषि उन्हें देखते हैं. महर्षि ने राजा को अजा एकादशी व्रत के विषय में बताया. गौतम ऋषि के कथन सुनकर राजा मुनि के कहे अनुसार विधि-पूर्वक व्रत करते हैं.

इसी व्रत के प्रभाव से राजा के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं. व्रत के प्रभाव से उसको पुन: राज्य मिल गया. अन्त समय में वह अपने परिवार सहित स्वर्ग लोक को गया. यह सब अजा एकाद्शी के व्रत का प्रभाव था. जो मनुष्य इस व्रत को विधि-विधान पूर्वक करते है. तथा रात्रि में जागरण करते है. उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते है. और अन्त में स्वर्ग जाते है. इस एकादशी की कथा के श्रवण मात्र से ही अश्वमेघ यज्ञ के समान फल मिलता है.

अजा एकादशी व्रत का महत्व | Importance of Aja Ekadashi Fast

समस्त उपवासों में अजा एकादशी के व्रत श्रेष्ठतम कहे गए हैं. एकादशी व्रत को रखने वाले व्यक्ति को अपने चित, इंद्रियों, आहार और व्यवहार पर संयम रखना होता है. अजा एकादशी व्रत का उपवास व्यक्ति को अर्थ-काम से ऊपर उठकर मोक्ष और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है. यह व्रत प्राचीन समय से यथावत चला आ रहा है. इस व्रत का आधार पौराणिक, वैज्ञानिक और संतुलित जीवन है. इस उपवास के विषय में यह मान्यता है कि इस उपवास के फलस्वरुप मिलने वाले फल अश्वमेघ यज्ञ, कठिन तपस्या, तीर्थों में स्नान-दान आदि से मिलने वाले फलों से भी अधिक होते है. यह उपवास, मन निर्मल करता है, ह्रदय शुद्ध करता है तथा सदमार्ग की ओर प्रेरित करता है.

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कृष्ण जन्माष्टमी जन्मोत्सव | Krishna Janmashtami Mahautsava | Krishna Janmashtami Festival

भगवान विष्णु ने संसार में धर्म की स्थापना व अधर्म के नाश हेतु अनेकों अवतार लिए इन्हीं में से एक अवतार द्वापर युग में भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में लिया. श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रात्रि में हुआ था. अत: इस पावन तिथि को प्रत्येक वर्ष भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रुप में संपूर्ण भारत वर्ष में बहुत ही धूम-धाम व आस्था के साथ मनाया जाता है. भगवान श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन प्रेरणा स्वरुप रहा है जो जीवन के अनेकों सूत्रों को बताता है और यही  अमूल्य सूत्र  जीबन को दिशा और मुक्ति का मार्ग दिखलाते हैं.

जन्माष्टमी की धूम | Janmashtami Festival

कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव पावन अवसर पर मंदिरों को फूलों, बिजली की झालरों तथा रंगबिरंगी झंड़ियों से आकषर्क ढंग से सजाया जाता है. विभिन्न स्थानों पर कई मंदिर समितियों द्वारा कृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर खुले मैदानों को विशेष पंडालों से सजाया जाता है जिनमें झांकियों और गीत संगीत के साथ भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है. मंदिरों में कुछ दिनों पहले से ही कृष्ण जन्मोत्सव का कार्यक्रम आरंभ हो जाता है.

भगवान कृष्ण के जन्मोत्सव के अवसर पर भजन संध्या आयोजित होती हैं  तथा भगवान की लीलाओं से संबधित विभिन्न प्रकार की झांकियों का भी प्रदर्शन किया जाता है. इस अवसर पर मटकी फोड़ प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं. आम तौर पर तिथि और नक्षत्र को लेकर भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव दो दिन मनाया जाता है जिसे उपासक अपने अपने योग के अनुसार इस पर्व को मनाते हैं. कृष्ण जन्माष्टमी का त्यौहार भारत के अतिरिक्त विश्व के कई अनेक हिस्सों में भी धूम धाम से मनाया जाता है.

जन्माष्टमी व्रत का महत्व | Significance of Fast on Janmashtami

जन्माष्टमी के संदर्भ में इस बात पर विशेष रुप से बल दिया गया है कि इस व्रत को किस दिन मनाया जाए.

जन्माष्टमी में अष्टमी को दो प्रकारों से व्यक्त किया गया है. जिसमें से प्रथम को जन्माष्टमी और अन्य को जयंती कहा जाता है. स्कन्दपुराण के अनुसार कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत एक अत्यंत महत्वपूर्ण व्रत होता है यदि दिन या रात्रि में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करना चाहिए.

कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाना चाहिए तथा व्रत का पालन करना चाहिए. विष्णु पुराण के अनुसार कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद माह में हो तो इसे जयंती कहा जाएगा. वसिष्ठ संहिता के कथन अनुसार अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में पूर्ण न भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में व्रत करना चाहिए.

स्कन्द पुराण के एक अन्य कथन अनुसार जो व्यक्ति जन्माष्टमी व्रत को करते हैं. उनके पास लक्ष्मी का वास होता है. विष्णु पुराण के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से अनेक जन्मों के पापों का क्षय होता है. भृगु संहिता अनुसार जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करना चाहिए.

कृष्ण जन्माष्टमीको और कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे कृष्णाष्टमी, सातम आठम, गोकुलाष्टमी तथा अष्टमी रोहिणी इत्यादि किंवदंतीयों के अनुसार है कि श्री कृष्ण का जन्म रात्री के समय कारागार में हुआ था जहां कंस ने उनके माता-पिता को बंदी बनाकर एक कारागृह में रखा था. जन्म के तुरंत पश्चात उनके पिता वासुदेव ने उनको उसी रात्रि एक टोकरी में रखकर अपने मित्र नंद और यशोदा के घर पहुंचाया था.

जन्माष्टमी व्रत को अपना कर भक्त समस्त संकटों से मुक्ति पाता है. इसी प्रकार एक अन्य ग्रंथ ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए तथा भविष्यपुराण में कहा गया है कि जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह राक्षस के समान होता है.

मोहरात्रि | Mohratri

श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि भी कहा गया है. इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से मुक्ति प्राप्त होती है. जन्माष्टमी का व्रत करने से  पुण्य की प्राप्ति होती है. श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव सम्पूर्ण विश्व को आनंद-मंगल का संदेश देता है. जन्माष्टमी के दिन कई स्वादिष्ट व्यंजन भी बनाए जाते हैं.

इस दिन दूध और दूध से बने व्यंजनों का सेवन किया जाता है. भगवान कृष्ण को दूध और मक्खन अति प्रिय था. अत: जन्माष्टमी के दिन खीर और पेडे़, माखन, मिस्री जैसे मीठे व्यंजन बनाए और खाए जाते हैं. जन्माष्टमी का व्रत, मध्य रात्रि को श्रीकृष्ण भगवान के जन्म के पश्चात भगवान के प्रसाद को ग्रहण करने के साथ ही पूर्ण होता है.

मटकी फोडने का दही-हांडी समारोह | Dahi – Handi Festival

जन्‍माष्‍टमी के अवसर पर मन्दिरों व घरों को सुन्‍दर ढंग से सजाया जाता है. इस त्‍यौहार को कृष्‍णाष्‍टमी अथवा गोकुलाष्‍टमी के नाम से भी जाना जाता है. इस त्‍यौहार के दौरान भजन किर्तन गाए जाते हैं व नृत्‍य एवं रास लीलाओं का आयोजन किया जाता है. इसके साथ ही साथ दही-हांडी जैसे आयोजन भी होते हैं. जिसमें एक मिट्टी के बर्तन में दही, मक्खन इत्यादि रख दिए जाते हैं.

मटकी को काफी ऊँचाई पर लटका दिया जाता है जिसे फोडाना होता है. इसे दही हांडी आयोजन कहते हैं और जो भी इस मटकी को तोड़कर उसमें रखी सामग्री को प्राप्त कर लेता है उसे ईनाम दिया जाता है. महाराष्‍ट्र में जन्‍माष्‍टमी के दौरान मटकी फोड़ने का आयोजन होता है. महाराष्ट्र में चारों ओर इस तरह के अनेक आयोजन एवं प्रतियोगिताओं का देखा जा सकता है.

जन्माष्टमी महत्व | Importance of Janmashtami

गीता की अवधारण द्वारा भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब जब धर्म का नाश होता है तब तब मैं स्वयं इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ और अधर्म का नाश करके धर्म कि स्थापना करता हूँ. अत: जब असुर एवं राक्षसी प्रवृतियों द्वारा पाप का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर इन पापों का शमन करते हैं. भगवान विष्णु इन समस्त अवतारों में से एक महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का रहा. भगवान स्वयं जिस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे उस पवित्र तिथि को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं.

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श्रावणी पूर्णिमा का महत्व | Importance of Shravana Purnima

श्रावण माह की पूर्णिमा बहुत ही शुभ व पवित्र दिन माना जाता है. ग्रंथों में इन दिनों किए गए तप और दान का महत्व उल्लेखित है. इस दिन रक्षा बंधन का पवित्र त्यौहार मनाया जाता है इसके साथ ही साथ श्रावणी उपक्रम श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को आरम्भ होता है. श्रावणी कर्म का विशेष महत्त्व है इस दिनयज्ञोपवीत के पूजन तथा उपनयन संस्कार का भी विधान है.

ब्राह्मण वर्ग अपनी कर्म शुद्धि के लिए उपक्रम करते हैं. हिन्दू धर्म में सावन माह की पूर्णिमा बहुत ही पवित्र व शुभ दिन माना जाता है सावन पूर्णिमा की तिथि धार्मिक दृष्टि के साथ ही साथ व्यावहारिक रूप से भी बहुत ही महत्व रखती है. सावन माह भगवान शिव की पूजा उपासना का महीना माना जाता है. सावन में हर दिन भगवान शिव की विशेष पूजा करने का विधान है.

इस प्रकार की गई पूजा से भगवान शिव शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों की सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं. इस माह की पूर्णिमा तिथि इस मास का अंतिम दिन माना जाता है  अत: इस दिन शिव पूजा व जल अभिषेक से पूरे माह की शिव भक्ति का पुण्य प्राप्त होता है.

कजरी पूर्णिमा | Kajari Purnima

कजरी पूर्णिमा का पर्व भी श्रावण पूर्णिमा के दिन ही पड़ता है यह पर्व विशेषत: मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के कुछ जगहों में मनाया जाता है. श्रावण अमावस्या के नौंवे दिन से इस उत्सव तैयारीयां आरंभ हो जाती हैं. कजरी नवमी के दिन महिलाएँ पेड़ के पत्तों के पात्रों में मिट्टी भरकर लाती हैं जिसमें जौ बोया जाता है.

कजरी पूर्णिमा के दिन महिलाएँ इन जौ पात्रों को सिर पर रखकर पास के किसी तालाब या नदी में विसर्जित करने के लिए ले जाती हैं .इस नवमी की पूजा करके स्त्रीयाँ कजरी बोती है. गीत गाती है तथा कथा कहती है. महिलाएँ इस दिन व्रत रखकर अपने पुत्र की लंबी आयु और उसके सुख की कामना करती हैं.

श्रावण पूर्णिमा को भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक नामों से जाना जाता है और उसके अनुसार पर्व रुप में मनाया जाता है जैसे उत्तर भारत में रक्षा बंधन के पर्व रुप में, दक्षिण भारत में नारयली पूर्णिमा व अवनी अवित्तम, मध्य भारत में कजरी पूनम तथा गुजरात में पवित्रोपना के रूप में मनाया जाता है.

रक्षाबंधन | Rakshabandhan

रक्षाबंधन का त्यौहार भी श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है इसे सावनी या सलूनो भी कहते हैं. रक्षाबंधन, राखी या रक्षासूत्र का रूप है राखी सामान्यतः बहनें भाई को बांधती हैं इस दिन बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं उनकी आरती उतारती हैं तथा इसके बदले में भाई अपनी बहन को रक्षा का वचन देता है और उपहार स्वरूप उसे भेंट भी देता है.

इसके अतिरिक्त ब्राहमणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा संबंधियों को जैसे पुत्री द्वारा पिता को भी रक्षासूत्र या राखी बांधी जाती है. इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है, उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीनयज्ञोपवीत धारण किया जाता है. वृत्तिवान ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं.

श्रावणी पूर्णिमा पर अमरनाथ यात्रा का समापन | End of Amarnath Yatra on Sawana Purnima

पुराणों के अनुसार गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर श्री अमरनाथ की पवित्र छडी यात्रा का शुभारंभ होता है और यह यात्रा श्रावण पूर्णिमा को संपन्न होती है. कांवडियों द्वारा श्रावण पूर्णिमा के दिन ही शिवलिंग पर जल चढया जाता है और उनकी कांवड़ यात्रा संपन्न होती है. इस दिन शिव जी का पूजन होता है पवित्रोपना के तहत रूई की बत्तियाँ पंचग्वया में डुबाकर भगवान शिव को अर्पित की जाती हैं.

श्रावण पूर्णिमा महत्व | Significance of Sawan Poornima

श्रावण पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ होता है अत: इस दिन पूजा उपासना करने से चंद्रदोष से मुक्ति मिलती है, श्रावणी पूर्णिमा का दिन दान, पुण्य के लिए महत्वपूर्ण होता है अत: इस दिन स्नान के बाद गाय आदि को चारा खिलाना, चिंटियों, मछलियों आदि को दाना खिलाना चाहिए इस दिन गोदान का बहुत महत्व होता है.

श्रावणी पर्व के दिन जनेऊ पहनने वाला हर धर्मावलंबी मन, वचन और कर्म की पवित्रता का संकल्प लेकर जनेऊ बदलते हैं ब्राह्मणों को यथाशक्ति दान दे और भोजन कराया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु और लक्ष्मी की पूजा का विधान होता है. विष्णु-लक्ष्मी के दर्शन से सुख, धन और समृद्धि कि प्राप्ति होती है. इस पावन दिन पर भगवान शिव, विष्णु, महालक्ष्मीव हनुमान को रक्षासूत्र अर्पित करना चाहिए.

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कृष्ण जन्माष्टमी 2024 | Krishna Janmashtami Festival

जन्माष्टमी अर्थात कृष्ण जन्मोत्सव इस वर्ष जन्माष्टमी का त्यौहार 26 अगस्त  2024 को मनाया जाएगा. जन्माष्टमी जिसके आगमन से पहले ही उसकी तैयारियां जोर शोर से आरंभ हो जाती है पूरे भारत वर्ष में इस त्यौहार का उत्साह देखने योग्य होता है. चारों का वातावरण भगवान श्री कृष्ण के रंग में डूबा हुआ होता है. जन्माष्टमी पूर्ण आस्था एवं श्रद्ध के साथ मनाया जाता है.

जन्माष्टमी  मुहूर्त 

कृष्ण जन्माष्टमी सोमवार के दिन मनाई जाएगी.  25 अगस्त, 2024 को रविवार के दिन अष्टमी तिथि आरंभ होगी 27:40 से और 26 अगस्त 2024 को 26:20 पर अष्टमी तिथि समाप्त होगी. 

पौराणिक धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के ने पृथ्वी को पापियों से मुक्त करने हेतु कृष्ण रुप में अवतार लिया, भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी और वासुदेव के पुत्ररूप में हुआ था. जन्माष्टमी को स्मार्त और वैष्णव संप्रदाय के लोग अपने अनुसार अलग-अलग ढंग से मनाते हैं. श्रीमद्भागवत को प्रमाण मानकर स्मार्त संप्रदाय के मानने वाले चंद्रोदय व्यापनी अष्टमी अर्थात रोहिणी नक्षत्र में जन्माष्टमी मनाते हैं तथा वैष्णव मानने वाले उदयकाल व्यापनी अष्टमी एवं उदयकाल रोहिणी नक्षत्र को जन्माष्टमी का त्यौहार मनाते हैं.

जन्माष्टमी के विभिन्न रंग रुप | Different Celebrations of Janmashtami

यह त्यौहार विभिन्न रुपों में मान्या जाता है कहीं रंगों की होली होती है तो कहीं फूलों और इत्र की सुगंन्ध का उत्सव होता तो कहीं दही हांडी फोड़ने का जोश और कहीं इस मौके पर भगवान कृष्ण के जीवन की मोहक छवियां देखने को मिलती हैं  मंदिरों को विशेष रुप से सजाया जाता है. भक्त इस अवसर पर व्रत एवं उपवास का पालन करते हैं इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती हैं भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है तथा कृष्ण रासलीलाओं का आयोजन होता है.

जन्माष्टमी के शुभ अवसर समय भगवा कृष्ण के दर्शनों के लिएए दूर दूर से श्रद्धालु मथुरा पहुंचते हैं. श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर ब्रज कृष्णमय हो जाता है. मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है. मथुरा के सभी मंदिरों को रंग-बिरंगी लाइटों व फूलों से सजाया जाता है. मथुरा में जन्माष्टमी पर आयोजित होने वाले श्रीकृष्ण जन्मोत्सव को देखने के लिए देश से ही नहीं बल्कि विदेशों से लाखों की संख्या में कृष्ण भक्त पंहुचते हैं  भगवान के विग्रह पर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर लोग उसका एक दूसरे पर छिडकाव करते हैं. इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती है तथा भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है और रासलीला का आयोजन किया जाता है.

जन्माष्टमी व्रत पूजा विधि | Janmashtami Fast Worship

शास्त्रों के अनुसार इस दिन व्रत का पालन करने से भक्त को मोक्ष की प्राप्ति होती है यह व्रत कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है. श्री कृष्ण जी की पूजा आराधना का यह पावन पर्व सभी को कृष्ण भक्ति से परिपूर्ण कर देता है. इस दिन व्रत-उपवास करने का विधान है. यह व्रत सनातन-धर्मावलंबियों के लिए अनिवार्य माना जाता है. इस दिन उपवास रखे जाते हैं तथा कृष्ण भक्ति के गीतों का श्रवण किया जाता है. घर के पूजागृह तथा मंदिरों में श्रीकृष्ण-लीला की झांकियां सजाई जाती हैं. जन्माष्टमी पर्व के दिन प्रात:काल उठ कर नित्य कर्मों से निवृत्त होकर पवित्र नदियों में, पोखरों में या घर पर ही स्नान इत्यादि करके जन्माष्टमी व्रत का संकल्प लिया जाता है.

पंचामृत व गंगा जल से माता देवकी और भगवान श्रीकृष्ण की सोने, चांदी, तांबा, पीतल, मिट्टी की मूर्ति या चित्र पालने में स्थापित करते हैं तथा भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति नए वस्त्र धारण कराते हैं. बालगोपाल की प्रतिमा को पालने में बिठाते हैं तथा सोलह उपचारों से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करते है. पूजन में देवकी, वासुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी आदि के नामों का उच्चारण करते हैं तथा उनकी मूर्तियां भी स्थापित करके पूजन करते हैं. भगवान श्रीकृष्ण को शंख में जल भरकर, कुश, फूल, गंध डालकर अर्घ्य देते हैं. पंचामृत में तुलसी डालकर व माखन मिश्री का भोग लगाते हैं.

रात्रि समय भागवद्गीता का पाठ तथा कृष्ण लीला का श्रवण एवं मनन करना चाहिए. भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति अथवा शालिग्राम का दूध, दही, शहद, यमुना जल आदि से अभिषेक किया जाता है तथा भगवान श्री कृष्ण जी का षोडशोपचार विधि से पूजन किया जाता है. भगवान का श्रृंगार करके उन्हें झूला झुलाया जाता है. श्रद्धालु भक्त मध्यरात्रि तक पूर्ण उपवास रखते हैं. जन्माष्टमी की रात्रि में जागरण, कीर्तन किए जाते हैं व अर्धरात्रि के समय शंख तथा घंटों के नाद से श्रीकृष्ण-जन्मोत्सव को संपन्न किया जाता है.

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सावन में तीज महोत्सव 2024 | Teej Festival in the month of Shravan

सावन की शुक्ल पक्ष की तृतीया को तीज महोत्सव के रुप में मनाया जाता है. यह तीज पर्व सिंधारा, हरियाली तीज, मधुस्रवा तृतीय या छोटी तीज के नाम से भी जाना जाता है. इस वर्ष यह त्यौहार 07 अगस्त 2024, के दिन मनाया जाएगा. तीज विशेष रुप से महिलाओं का त्यौहार होता है. तीज का संपूर्ण रंग प्रकृत्ति के रंग में मिलकर अपनी अनुपम छठा बिखेरता है. तीज के आगम पर हाट ओर बाजार सजने लगते हैं, प्रकृत्ति भी अपने सौंदर्य में लिपटी मानो इसी समय का इंतजार कर रही होती है.

चारों और तीज की रौनक देखते ही बनती है. बच्चियों से लेकर युवा और बुजुर्ग महिलाएं सभी इस उत्सव की तैयारियों में लग जाती हैं. नव विवाहिताएं यह उत्सव अपने मायके में मनाती है,  महिलाएं इस दिन व्रत रखती हैं इस व्रत को अविवाहित कन्याएं योग्य वर को पाने के लिए करती हैं तथा विवाहित महिलाएं अपने सुखी दांपत्य के लिए करती हैं. देश के पूर्वी इलाकों में लोग इसे हरियाली तीज के नाम से जानते हैं. इस समय प्रकृति की इस छटा को देखकर मन पुलकित हो जाता है जगह-जगह झूले पड़ते हैं और स्त्रियों के समूह गीत गा-गाकर झूला झूलते हैं.

तीज व्रत पूजन | Teej Fast Worship

तीज का पौराणिक धार्मिक महत्व रहा है, मान्यता है कि देवी पार्वती भगवान शिव को पति रुप में प्राप्त करने के लिए सावन माह में व्रत रखती हैं. देवी की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान शिव उन्हें अपनी वामांगी होने का आशिर्वाद प्रदान करते हैं. अत: इसी कारण से विवाहित महिलाएं इस व्रत को अपने सुखी विवाहित जीवन की कामना के लिए करती हैं. इस दिन स्त्रियां माँ पार्वती का पूजन – आह्वान करती हैं.

समस्त उत्तर भारत एवं के भारत के अनेक भागों में बहुत जोश और उल्लास के साथ मनाया जाता है. इन दिनों घर-घर झूले पडते है, सावन में सुन्दर सुन्दर पकवान गुंजिया घेवर फ़ैनी आदि विवाहिता बेटियों को सिंधारा रूप में भेजा जाता है तथा बायना छूकर सासू को दिया जाता है. तीज पर मेंहदी लगाने का विशेष महत्व है इस दिन माता पार्वती की पूजा की जाती है मान्यता है कि इस श्रावण शुक्ल तृतीया (तीज) के दिन देवी पार्वती वर्षों की तपस्या साधना के बाद भगवान शिव को प्राप्त करती हैं. समस्त उत्तर भारत में तीज पर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है.

तीज का आगमन वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही आरंभ हो जाता है. सावन के महीने के आते ही आसमान काले मेघों से आच्छ्दित हो जाता है और वर्षा की बौछर पड़ते ही हर वस्तु नवरूप को प्राप्त करती है. ऎसे में भारतीय लोक जीवन में हरियाली तीज या कजली तीज महोत्सव मनाया जाता है. इस अवसर पर विवाह के पश्चात पहला सावन आने पर नव विवाहिता को ससुराल से मायके बुला लिया जाता है. विवाहिता स्त्रियों को उनके ससुराल पक्ष की ओर से सिंधारा भिजवाया जाता है जिसमें वस्त्र, आभूषण, श्रृंगार का सामान, मेहंदी और मिठाई इत्यादि सामान भेजा जाता है.

तीज पर मेलों का आयोजन | Fairs during Teej Festival

तीज पर अनेक मेलों का आयोजन भी होता है. तीज के साथ ही रक्षा बंधन का आगमन होने की आहट भी सुनाई देने लगती है इसलिए ऎसे समय पर सभी ओर छोटे बडे़ अनेक मेलों का आयोजन किया जाता है. मेलों में मेहंदी लगाने और झूले झूलने की व्यवस्था भी होती है. युवतियाँ हाथों में मेंहदी रचाती हैं तथा लोक गीतों को गाते हुए झूले झूलती हैं. महिलाएं हाथों पर विभिन्न प्रकार से बेलबूटे बनाकर मेंहदी रचाती हैं तो कुछ पैरों में आलता भी लगाती हैं. तीज के दिन खुले स्थान पर बड़े–बड़े वृक्षों की शाखाओं पर, घर की छत की कड़ों या बरामदे में कड़ों में झूले पड़ जाते हैं, हरियाली तीज के दिन अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं.

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रक्षाबंधन का शुभ मुहूर्त 2024 | Raksha Bandhan Shubh Muhurat | Raksha Bandhan Muhurat 2024

रक्षा बंधन का त्यौहार भाई बहन के प्रेम का प्रतीक होकर चारों ओर अपनी छटा को बिखेरता सा प्रतीत होता है. सात्विक एवं पवित्रता का सौंदर्य लिए यह त्यौहार सभी जन के हृदय को अपनी खुश्बू से महकाता है. इतना पवित्र पर्व यदि शुभ मुहूर्त में किया जाए तो इसकी शुभता और भी अधिक बढ़ जाती है.

राखी में भद्रा का महत्व 

धर्म ग्रंथों में सभी त्यौहार एवं उत्सवों को मनाने के लिए कुछ विशेष समय का निर्धारण किया गया है जिन्हें शुभ मुहूर्त समय कहा जाता है, इन शुभ समय पर मनाए जाने पर त्यौहार में शुभता आती है तथा अनिष्ट का भाव भी नही रहता.इसी प्रकार रक्षा का बंधन के शुभ मुहूर्त का समय भी शास्त्रों में निहित है, शास्त्रों के अनुसार भद्रा समय में श्रावणी और फाल्गुणी दोनों ही नक्षत्र समय अवधि में राक्षा बंधन नहीं करना चाहिए. इस समय राखी बांधने का कार्य करना मना है और त्याज्य होता है. मान्यता के अनुसार श्रावण नक्षत्र में राजा अथवा फाल्गुणी नक्षत्र में राखी बांधने से प्रजा का अहित होता है. इसी का कारण है कि राखी बांधते समय, समय की शुभता का विशेष रुप से ध्यान रखा जाता है.

राखी बांधने का शुभ मुहूर्त 

इस वर्ष 2024 में रक्षा बंधन का त्यौहार 19 अगस्त को मनाया जाएगा. पूर्णिमा तिथि आरम्भ 18 अगस्त को आरंभ होगी और 19 अगस्त तक व्याप्त रहेगी. भद्रा दोपहर काल ही रहेगी इसके बाद मुक्त समय होने रक्षाबंधन संपन्न किया जाएगा,  यदि यह कार्य करना हो तो मुख त्यागकर इसे पुच्छ में इसे करना चाहिए.

इस वर्ष 2024 में रक्षा बंधन का त्यौहार 19 अगस्त, को मनाया जाएगा. पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 18 अगस्त 2024 को 27:06 से आरंभ होगा और 19 अगस्त रात्रि 23:56 तक व्याप्त रहेगी.

19 अगस्त को भद्रा दोपहर 13:31 तक रहेगी. रक्षा बंधन समय भद्रा विचार किया जाता है. भद्रा मुक्त समय होने से रक्षाबंधन संपन्न करना अनुकूल होता है. यदि भद्रा काल में यह कार्य करना हो तो भद्रा मुख को त्यागकर भद्रा पुच्छ काल में इसे करना चाहिए. 19 अगस्त को भद्रा समय दोपहर तक रहेगी.

भद्रा पुच्छ का समय सुबह 09:51 से 10:54 तक,भद्रा मुख का समय 10:54 से 12:38 तक होगा

अन्य विचारकों के मतानुसार 

धर्मशास्त्र के अनुसार किसी त्यौहार एवं उत्सव समय में चौघड़िए तथा ग्रहों के शुभ समय एवं अशुभ समयों को जाना जाता है. रक्षाबंधन के समय में भद्रा काल का त्याग करने की बात कही जाती है, तथा निर्दिष्ट निषेध समय दिया जाता है, अत: वह समय शुभ कार्य के लिए त्याज्य होता है. पौराणिक मान्यता के आधार पर देखें तो भद्रा का उचित नहीं माना जाता क्योंकि जब भद्रा का वास किसी उत्सव समय को स्पर्श करता है तो उसके समय को उपयोग में नहीं लाया जाता है भद्रा में नक्षत्र व तिथि के अनुक्रम तथा पंचक के पूर्वाद्ध नक्षत्र के मान व गणना से इसका समय में बदल सकता है.

मान्यतानुसार भद्रायुक्त काल का वह समय छोड़ देना चाहिए, जिसमें भद्रा के मुख तथा पृच्छ का विचार हो रहा हो, रक्षाबंधन का पर्व भद्रा रहित अपराह्न व्यापिनी पूर्णिमा में करने का विधान है. यदि पहले दिन अपराह्न काल भद्रा व्याप्त हो तथा दूसरे दिन उदयकालिक पूर्णिमा तिथि तीन मुहूर्त्त से अधिक हो तो उसी उदयकालिक पूर्णिमा के दोपहर समय में रक्षाबंधन मनाना चाहिए. इस दृष्टि से भद्रा के उक्त समय को छोड़कर रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जा सकता है.

रक्षा के सूत्र के लिए उचित मुहूर्त्त का इंतजार सभी की चाह है पर सबसे खास बात है राखी के साथ कुमकुम रोलौ, हल्दी, चावल, दीपक, अगरबती, मिठाई का उपयोग किया जाता है. कुमकुम हल्दी से भाई का टीका करके चावल का टीका लगाया जाता है और भाई की कलाई पर राखी बांधी जाती है.

अन्य त्यौहारों की तरह इस त्यौहार पर भी उपहार और पकवान अपना विशेष महत्व रखते है.इस दिन पुरोहित तथा आचार्य सुबह सुबह अपने यजमानों के घर पहुंचकर उन्हें राखी बांधते है, और बदले में धन वस्त्र, दक्षिणा स्वीकार करते है. राखी बांधते समय बहनें निम्न मंत्र का उच्चारण करें, इससे भाईयों की आयु में वृ्द्धि होती है.

“येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: I तेन त्वांमनुबध्नामि, रक्षे मा चल मा चल II”

रक्षा बंधन का पर्व जिस व्यक्ति को मनाना है, उसे उस दिन प्रात: काल में स्नान आदि कार्यों से निवृ्त होकर, शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए. इसके बाद अपने इष्ट देव की पूजा करने के बाद राखी की भी पूजा करें साथ ही पितृरों को याद करें व अपने बडों का आशिर्वाद ग्रहण करें.

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तुलसीदास जयंती 2024 | Tulsidas Jayanti | Tulsidas Biography

सम्पूर्ण भारतवर्ष में गोस्वामी तुलसीदास के स्मरण में तुलसी जयंती मनाई जाती है. श्रावण मास की सप्तमी के दिन तुलसीदास की जयंती मनाई जाती है. इस वर्ष यह 11 अगस्त 2024 के दिन गोस्वामी तुलसीदास जयंती मनाई जाएगी. गोस्वामी तुलसीदास ने सगुण भक्ति की रामभक्ति धारा को ऐसा प्रवाहित किया कि वह धारा आज भी प्रवाहित हो रही है. गोस्वामी तुलसीदास ने रामभक्ति के द्वारा न केवल अपना ही जीवन कृतार्थ किया वरन सभी को श्रीराम के आदर्शों से बांधने का प्रयास किया. वाल्मीकि जी की रचना ‘रामायण’ को आधार मानकर गोस्वामी तुलसीदास ने लोक भाषा में राम कथा की रचना की

तुलसीदास जीवन वृत्त | Tulsidas Biography

तुलसीदास जी जिनका नाम आते ही प्रभु राम का स्वरुप भी सामने उभर आता है. तुलसीदास जी रामचरित मानस के रचियेता तथा उस भक्ति को पाने वाले जो अनेक जन्मों को धारण करने के पश्चात भी नहीं मिल पाती उसी अदभूत स्वरुप को पाने वाले तुलसीदास जी सभी के लिए सम्माननीय एवं पूजनीय रहे. तुलसीदास जी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश के बाँदा ज़िला के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था. इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था.

तुलसीदास जी ने अपने बाल्यकाल में अनेक दुख सहे युवा होने पर इनका विवाह रत्नावली से हुआ, अपनी पत्नी रत्नावली से इन्हें अत्याधिक प्रेम था परंतु अपने इसी प्रेम के कारण उन्हें एक बार अपनी पत्नी रत्नावली की फटकार ” लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ” अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ता। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत बीता।। ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी और तुलसी जी राम जी की भक्ति में ऎसे डूबे कि उनके अनन्य भक्त बन गए. बाद में इन्होंने गुरु बाबा नरहरिदास से दीक्षा प्राप्त की.

तुलसीदास जी का अधिकाँश जीवन चित्रकूट, काशी और अयोध्या में व्यतीत हुआ. तुलसी दास जी अनेक स्थानों पर भ्रमण करते रहे उन्होंने अनेक कृतियों की रचना हैं, तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों में रामचरित मानस, कवितावली, जानकीमंगल, विनयपत्रिका, गीतावली, हनुमान चालीसा, बरवै रामायण इत्यादि रचनाएं प्रमुख हैं.

तुलसीदास जी की मुख्य रचनाएँ | Major Compositions of Tulsidas

तुलसीदास जी संस्क्रत भाषा के विद्वान थे अपने जीवनकाल में उन्होंने ने अनेक ग्रंथों की रचना की तुलसीदास जी रचित श्री रामचरितमानस को बहुत भक्तिभाव से पढ़ा जाता है, रामचरितमानस जिसमें तुलसीदास जी ने भगवान राम के चरित्र का अत्यंत मनोहर एवं भक्तिपूर्ण चित्रण किया है. दोहावली में तुलसीदास जी ने दोहा और सोरठा का उपयोग करते हुए अत्यंत भावप्रधान एवं नैतिक बातों को बताया है. कवितावली इसमें श्री राम के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में किया गया है.

रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड मौजूद हैं. गीतावली सात काण्डों वाली एक और रचना है जिसमें में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का अत्यंत भावपूर्ण वर्णन किया गया है. इसके अतिरिक्त विनय पत्रिका कृष्ण गीतावली तथा बरवै रामायण, हनुमान बाहुक,  रामलला नहछू, जानकी मंगल, रामज्ञा प्रश्न और संकट मोचन जैसी कृत्तियों को रचा जो तुलसीदास जी की छोटी रचनाएँ रहीं. रामचरितमानस के बाद हनुमान चालीसा तुलसीदास जी की अत्यन्त लोकप्रिय साहित्य रचना है. जिसे सभी भक्त बहुत भक्ति भाव के साथ सुनते हैं.

तुलसीदास जी समाज के पथप्रदर्शक | Tulsidas as a community guide

तुलसीदास जी ने उस समय में समाज में फैली अनेक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया अपनी रचनाओं द्वारा उन्होंने विधर्मी बातों, पंथवाद और सामाज में उत्पन्न बुराईयों की आलोचना की उन्होंने साकार उपासना, गो-ब्राह्मण रक्षा, सगुणवाद एवं प्राचीन संस्कृति के सम्मान को उपर उठाने का प्रयास किया वह रामराज्य की परिकल्पना करते थे. इधर उनके इस कार्यों के द्वारा समाज के कुछ लोग उनसे ईर्ष्या करने लगे तथा उनकी रचनाओं को नष्ट करने के प्रयास भी किए किंतु कोई भी उनकी कृत्तियों को हानि नहीं पहुंचा सका.

आज भी भारत के कोने-कोने में रामलीलाओं का मंचन होता है. उनकी इनकी जयंती के उपलक्ष्य में देश के कोने कोने में रामचरित मानस तथा उनके निर्मित ग्रंथों का पाठ किया जाता है. तुलसीदास जी ने अपना अंतिम समय काशी में व्यतित किया और वहीं विख्यात घाट असीघाट पर संवत‌ 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया के दिन अपने प्रभु श्री राम जी के नाम का स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग किया.

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