नवरात्रों में शक्ति पूजन | Worshipping Goddess Shakti in Navratri

मान्यता है कि देवता भी शक्ति हेतु मां दुर्गा की पूजा किया करते है. नवरात्रों में मां दुर्गा के नौ रुपों की पूजा की जाती है. मां दुर्गा को शक्ति कहा गया है. नवरात्रों में नौ दिन क्रमश शैलपुत्री, ब्रह्माचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्ययायनी, कालरात्रि, मां गौरी और सिद्धिदात्रि की पूजा की जाती है. देवी की शक्ति पूजा व्यक्ति को सभी संकटों से मुक्त करती है व विजय का आशिर्वाद प्रदान करती हैं.

नवरात्रों में माता की पूजा करने के लिये मां भगवती की प्रतिमा के सामने घट स्थापना की जाती है जिसमें जौ उगने के लिये रखे जाते है. इस के एक और पानी से भरा कलश स्थापित किया जाता है. कलश पर कच्चा नारियल रखा जाता है. कलश स्थापना के बाद मां भगवती की अंखंड ज्योति जलाई जाती है. यह ज्योति पूरे नौ नवरात्रे दिन रात जलती रहनी चाहिए. सबसे पहले भगवान श्री गणेश की पूजा की जाती है. उसके बाद श्री वरूण देव, श्री विष्णु देव की पूजा की जाती है. शिव, सूर्य, चन्द्रादि नवग्रह की पूजा भी की जाती है.

उपरोक्त देवताओं कि पूजा करने के बाद मां भगवती की पूजा की जाती है. नवरात्रों के दौरान प्रतिदिन उपवास रख कर दुर्गा सप्तशती और देवी का पाठ किया जाता है. इन दिनों में इन पाठों का विशेष महत्व है. माता दुर्गा को अनेक नामों से जाना जाता है. उसे ज्ञाना, क्रिया, नित्या, बलपर्दा, शुभ, निशुभं हरणी, महिषासुर मर्दनी, चंद-मुंड विनाशिनी, परमेश्वरी, ब्रह्मा, विष्णु और शिव को वरदान देने वाली भी कहा जाता है. इसके अतिरिक्त मंत्र का भी जाप किया जा सकता है.

नवरात्रों में नवग्रह यंत्र शांति पूजा | Navgrah Yantra Puja In Navratri

नवरात्रि के नौ दिनों में नौ ग्रहों की यंत्र शान्ति पूजा की जाती है. प्रतिपदा के दिन मंगल ग्रह की शान्ति हेतू पूजा की जाती है. द्वितीया तिथि के दिन राहू ग्रह की शान्ति पूजा की जाती है. तृ्तिया के दिन बृ्हस्पति के दिन, चतुर्थी के दिन शनि ग्रह, पंचमी के दिन बुध, षष्ठी के दिन केतु, सप्तमी के दिन शुक्र, अष्टमी के दिन सूर्य व नवमी के दिन चन्द्र देव की शान्ति पूजा की जाती है. यह शान्ति क्रिया शुरु करने से पहले कलश की स्थापना और माता की पूजा करनी चाहिए. पूजा के बाद लाल वस्त्र पर एक यंत्र बनाया जाता है. इस यंत्र में नौ खाने बनाये जाते है. पहले तीन खानों में उसमें बुध, शुक्र, चन्द्र, बीच में गुरु, सुर्य, मंगल और नीचे के खानों में केतु, शनि, राहू को स्थान दिया जाता है. इसके बाद नवग्रह बीच मंत्र की पूजा की जाती है. इसके बाद नवग्रह शात्नि संकल्प लिया जाता है. इसके बाद दिन अनुसार ग्रह के मंत्र का जा किया जाता है. दुर्गासप्तशती में सात सौ महामंत्र होने से इसे सप्तशती कहते है. सप्तशती उपासना से असाध्य रोग दूर होते है और आराधक की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है.

नवरात्र व्रत विधान | Navratri Fast Rituals

नवरात्रों की पूजा करते समय ध्यान देने योग्य यह विशेष बात है कि एक ही घर में तीन शक्तियों की पूजा नहीं करनी चाहिए. देगी को कनेर और सुगन्धित फूल प्रिय है. इसलिये पूजा के लिये इन्ही फूलों का प्रयोग करें, कलश स्थापना दिन में ही करें, मां की प्रतिमा को लाल वस्त्रों से ही सजायें. साधना करने वाले को लाल वस्त्र या गर्म आसन पर बैठकर पूजा करनी चाहिए.

नवरात्रों का व्रत करने वाले उपवासक को दिन में केवल एक बार सात्विक भोजन करना चाहिए. मांस, मदिरा का त्याग करना चाहिए. इसके अतिरिक्त नवरात्रों में बाल कटवाना, नाखून काटना आदि कार्य भी नहीं करने चाहिए. ब्रह्मचार्य का पूर्णत: पालन करना चाहिए. नवरात्रे की अष्टमी या नवमी के दिन दस साल से कम उम्र की नौ कन्याओं और एक लडके को भोजन करा कर साथ ही दक्षिणा देनी चाहिए.

लडके को भैरव का रुप माना जाता है. कंजनों को भोजन करवाने से एक दिन पूर्व रात्रि को हवन कराना विशेष शुभ माना जाता है. कंजकों को भोजन करवाने के बाद उगे हुए जौ और रेत को जल में विसर्जित कर दिया जाता है इस प्रकार नवरात्र व्रत पूजन का उद्यापन संपन्न होता है.

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नवरात्रों में गृह शांति के उपाय | Remedies for Grah Shanti in Navratri

नवरात्रों के समय गृह शांति  पूजा सभी बाधाओं को दूर करने का योग्य समय होता है. अध्यात्मिक साधना के लिए जो लोग इच्छुक होते हैं वह लोग इन दिनों साधना रत रहते है. ग्रहों से पीड़ित व्यक्ति इन दस दिनों में ग्रह शांति भी कर सकते हैं यह इसके लिए उत्तम समय होता है.

दुर्गा पूजा के साथ ग्रह शांति | Graha Shanti with Durga Puja

माता दुर्गा ही सभी तंत्र और मंत्र की आधार हैं.यह देवी कालरात्रि हैं, काली और कपालिनी हैं.सभी तंत्र और मंत्र, यंत्र इन्हीं से जन्म लेते हैं और इन्हीं में मिल जाते हैं.बिना मंत्र के इनकी साधना अपूर्ण मानी जाती है.ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पृथ्वी पर जो भी मनुष्य हैं वे किसी न किसी ग्रह से पीड़ित हैं, ग्रहों की पीड़ा से बचने का एक मात्र उपाय उनकी शांति हैं.ग्रहों की शांति के लिए भी यंत्र और मंत्र प्रभवकारी हैं.दुर्गा पूजा के दस दिनों में अगर इनकी सहायता से ग्रह शांति करें तो इसका लाभ जल्दी मिलता है.इन दिनों हम लोग माता दुर्गा के लिए कलश स्थापित करके नियमित मां की पूजा करते हैं.मां की पूजा के बाद अगर प्रत्येक दिन एक एक ग्रह की शांति करें तो न दिनों में न ग्रहों की शांति हो जाएगी और ग्रहों के अशुभ प्रभाव के कारण जो भी परेशानी आ रही है उनसे आपको राहत मिल सकती है।

नवग्रह शांति विधि | Navgraha Shanti Vidhi

नवरात्रों के न दिनों में नवग्रह शांति की विधि यह है कि प्रतिपदा के दिन आप मंगल ग्रह की शांति करें, द्वितीय के दिन राहु की, तृतीया के दिन बृहस्पति की, चतुर्थी के दिन शनि ग्रह की, पंचमी के दिन बुध ग्रह की, षष्ठी के दिन केतु की, सप्तमी के दिन शुक्र की, अष्टमी के दिन सूर्य की एवं नवमी के दिन चन्द्रमा की.ग्रह शांति की प्रक्रिया शुरू करने से पहले कलश स्थापन और दुर्गा मां की पूजा करनी चाहिए.माता की पूजा के बाद लाल रंग के वस्त्र पर एक यंत्र बनायें.इस यंत्र में तीन खाने बनाकर      ৠपर के तीन खानो में बुध, शुक्र, चन्मा स्थापित करें बीच में गुरू, सूर्य, मंगल और नीचे के तीन खाने में केतु, शनि, राहु को स्थान दें.यंत्र बनने के बाद नवग्रह बीज मंत्र से इस यंत्र की पूजा करे फिर नवग्रह शांति का संकल्प करें.

प्रतिपदा के दिन मंगल ग्रह की शांति होती है इसलिए मंगल ग्रह की फिर से पूजा करनी चाहिए.पूजा के बाद पंचमुखी रूद्राक्ष, मूंगा अथवा लाल अकीक की माला से 108 मंगल बीज मंत्र का जप करना चाहिए.जप के बाद मंगल कवच एवं अष्टोत्तरशतनाम का पाठ करना चाहिए.इसी प्रकार से राहु की शांति के लिए द्वितीया तिथि को राहु की पूजा के बाद राहु के बीज मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए फिर अष्टोत्तरशतनाम व कवच पाठ करना चाहिए.नवग्रह की शांति के लिए सभी ग्रह का विधान इसी प्रकार से रहेगा यानी सम्बन्धित ग्रह के बीज मंत्र से जप के बाद अष्टोत्तरशतनाम व कवच पाठ करें. दसवीं के दिन नवग्रह यंत्र की पूजा के बाद इसे घर में पूजा स्थल पर स्थापित कर देना चाहिए और नियमित इसकी पूजा करनी चाहिए.

ग्रह शांति माला | Graha Shanti Maala

जप माला सभी ग्रह के लिए अलग प्रयोग करना चाहिए जैसे राहु के लिए पंचमुखी रूद्राक्ष, पीले अकीक या सुनहले की माला.शनि के लिए पंचमुखी रूद्राक्ष या काले अकीक की माला, बुध के लिए हरे अकीक की माला या चारमुखी रूद्राक्ष की माला.केतु के लिए  न मुखी रूद्राक्ष की माला.अगर नमुखी रूद्राक्ष न मिले तो पंचमुखी रूद्राक्ष से भी जप किया जा सकता है.शुक्र के लिए स्फटिक, चन्दन, सफेद अकीक की माला.सूर्य की शांति के लिए लाल अकीक की माला, पंचमुखी रूद्राक्ष या रक्त चंदन की माला.चन्द्रमा की शांति के लिए मोती अथवा सफेद अकीक की माला का प्रयोग करना चाहिए.

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सरस्वती पूजन | Saraswati Puja | Goddess Saraswati Puja

सरस्वती वाणी एवं ज्ञान की देवी है. ज्ञान को संसार में सभी चीजों से श्रेष्ठ कहा गया है. इस आधार पर देवी सरस्वती सभी से श्रेष्ठ हैं. कहा जाता है कि जहां सरस्वती का वास होता है वहां लक्ष्मी एवं काली माता भी विराजमान रहती हैं. इसका प्रमाण है माता वैष्णो का दरबार जहॉ सरस्वती, लक्ष्मी, काली ये तीनों महाशक्तियां साथ में निवास करती हैं.

जिस प्रकार माता दुर्गा की पूजा का नवरात्रे में महत्व है उसी प्रकार इस अवसर पर सरस्वती पूजन का भी विशेष महत्व है. सरस्वती पूजा के दिन सरस्वती माता की पूजा एवं अर्चना करते हैं. सरस्वती माता कला की भी देवी मानी जाती हैं अत: कला क्षेत्र से जुड़े लोग भी माता सरस्वती की विधिवत पूजा करते हैं.

पौराणिक आधार | Mythological Importance

भगवान विष्णु के कथनानुसार ब्रह्मा जी ने सरस्वती देवी का आह्वान किया. सरस्वती माता के प्रकट होने पर ब्रह्मा जी ने उन्हें अपनी वीणा से सृष्टि में स्वर भरने का अनुरोध किया. माता सरस्वती ने जैसे ही वीणा के तारों को छुआ उससे ‘सा’ शब्द फूट पड़ा. यह शब्द संगीत के सप्तसुरों में प्रथम सुर है. इस ध्वनि से ब्रह्मा जी की मूक सृष्टि में ध्वनि का संचार होने लगा. हवाओं को, सागर को, पशु-पक्षियों एवं अन्य जीवों को वाणी मिल गयी.

नदियों से कलकल की ध्वनि फूटने लगी. इससे ब्रह्मा जी अति प्रसन्न हुए उन्होंने सरस्वती को वाणी की देवी के नाम से सम्बोधित करते हुए वागेश्वरी नाम दिया. माता सरस्वती का एक नाम यह भी है. सरस्वती माता के हाथों में वीणा होने के कारण इन्हें वीणापाणि भी कहा जाता है. सरस्वती माता की पूजा की प्रथा सदियों से चली आ रही है.

ज्ञान एवं वाणी के बिना संसार की कल्पना करना भी असंभव है. माता सरस्वती इनकी देवी हैं अत: मनुष्य ही नहीं, देवता एवं असुर भी माता की भक्ति भाव से पूजा करते हैं. सरस्वती पूजा के दिन लोग अपने-अपने घरों में माता की प्रतिमा अथवा तस्वीर की पूजा करते हैं. विभिन्न पूजा समितियों द्वारा भी सरस्वती पूजा के अवसर पर पूजा का भव्य आयोजन किया जाता है.

सरस्वती पूजा की विधि | Method of Saraswati Pooja

सरस्वती पूजा करते समय सबसे पहले सरस्वती माता की प्रतिमा अथवा तस्वीर को सामने रखना चाहिए. इसके बाद कलश स्थापित करके गणेश जी तथा नवग्रह की विधिवत पूजा करनी चाहिए. इसके बाद माता सरस्वती की पूजा करें. सरस्वती माता की पूजा करते समय उन्हें सबसे पहले आचमन एवं स्नान कराएं. इसके बाद माता को फूल एवं माला चढ़ाएं.

सरस्वती माता को सिन्दुर एवं अन्य श्रृंगार की वस्तुएं भी अर्पित करनी चाहिए. बसंत पंचमी के दिन सरस्वती माता के चरणों पर गुलाल भी अर्पित किया जाता है. देवी सरस्वती स्वेत वस्त्र धारण करती हैं अत: उन्हें श्वेत वस्त्र पहनाए जाते हैं, सरस्वती पूजन के अवसर पर माता सरस्वती को पीले रंग का फल अर्पित करने चाहिए. प्रसाद के रूप में मौसमी फलों को अर्पित करना चाहिए. इस दिन सरस्वती माता को मालपुए एवं खीर का भी भोग लगाया जाता है.

सरस्वती माता का हवन | Havan of Goddess Saraswati

सरस्वती पूजा करने बाद सरस्वती माता का आहवान करना चाहिए. इस आहवान के लिए हवन का आयोजन किया जाता है. हवन के लिए हवन कुण्ड अथवा भूमि पर सवा हाथ चारों तरफ नापकर एक निशान बना लेना चाहिए. इसे कुशा से साफ करके गंगा जल छिड़क कर पवित्र करने के बाद. आम की छोटी-छोटी लकडि़यों को अच्छी तरह बिछा लें और इस पर अग्नि प्रजज्वलित करें. हवन करते समय गणेश जी, नवग्र के नाम से हवन करें. इसके बाद सरस्वती माता के नाम से “ओम श्री सरस्वतयै नम: स्वहा” इस मंत्र से 108 बार हवन करना चाहिए. हवन के बाद सरस्वती माता की आरती करें और हवन का भभूत लगाएं.

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कार्तिक स्नान का महत्व | Significance of Kartik Snan | Kartik Snan 2025

वर्ष 2025 में 08 अक्तूबर से कार्तिक स्नान का आरंभ होगा. इस पूरे माह स्नान, दान, दीपदान, तुलसी विवाह, कार्तिक कथा का माहात्म्य आदि सुनते हैं. ऎसा करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है व पापों का शमन होता है. पुराणों के अनुसार जो व्यक्ति इस माह में स्नान, दान तथा व्रत करते हैं, उनके पापों का अन्त हो जाता है.

कार्तिक माह बहुत ही पवित्र माना जाता है. भारत के सभी तीर्थों के समान पुण्य फलों की प्राप्ति एक इस माह में मिलती है. इस माह में की पूजा तथा व्रत से ही तीर्थयात्रा के बराबर शुभ फलों की प्राप्ति हो जाती है. इस माह के महत्व के बारे में स्कन्द पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण आदि प्राचीन ग्रंथों में मिलता है. कार्तिक माह में किए स्नान का फल, एक हजार बार किए गंगा स्नान के समान, सौ बार माघ स्नान के समान.

वैशाख माह में नर्मदा नदी पर करोड़ बार स्नान के समान होता है. जो फल कुम्भ में प्रयाग में स्नान करने पर मिलता है, वही फल कार्तिक माह में किसी पवित्र नदी के तट पर स्नान करने से मिलता है. इस माह में गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए. भोजन दिन में एक समय ही करना चाहिए. जो व्यक्ति कार्तिक के पवित्र माह के नियमों का पालन करते हैं, वह वर्ष भर के सभी पापों से मुक्ति पाते हैं.

कार्तिक माह में स्नान व दान का महत्व | Significance of Snan and Daan in Kartik Month

धार्मिक कार्यों के लिए यह माह सर्वश्रेष्ठ माना गया है. आश्विन शुक्ल पक्ष से कार्तिक शुक्ल पक्ष तक पवित्र नदियों में स्नान – ध्यान करना श्रेष्ठ माना गया है. श्रद्धालु गंगा तथा यमुना में सुबह – सवेरे स्नान करते हैं. जो लोग नदियों में स्नान नहीं कर पाते हैं, वह सुबह अपने घर में स्नान व पूजा पाठ करते हैं. कार्तिक माह में शिव, चण्डी, सूर्य तथा अन्य देवों के मंदिरों में दीप जलाने तथा प्रकाश करने का बहुत महत्व माना गया है. इस माह में भगवान विष्णु का पुष्पों से अभिनन्दन करना चाहिए.

ऎसा करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान पुण्य फल मिलता है. कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि पर व्यक्ति को बिना स्नान किए नहीं रहना चाहिए. कर्तिक माह की षष्ठी को कार्तिकेय व्रत का अनुष्ठान किया जाता है स्वामी कार्तिकेय इसके देवता हैं. इस दिन अपनी क्षमतानुसार दान भी करना चाहिए. यह दान किसी भी जरुरतमंद व्यक्ति को दिया जा सकता है. कार्तिक माह में पुष्कर, कुरुक्षेत्र तथा वाराणसी तीर्थ स्थान स्नान तथा दान के लिए अति महत्वपूर्ण माने गए हैं.

कार्तिक स्नान पूजा | Kartik Snan Puja

सुबह स्नान करने के बाद राधा-कृष्ण का तुलसी, पीपल, आंवले आदि से पूजन करना चाहिए. सभी देवताओं की परिक्रमा करने का महत्व मान गया है. सांयकाल में भगवान विष्णु की पूजा तथा तुलसी की पूजा करें. संध्या समय में दीपदान भी करना चाहिए. ऎसा माना जाता है कि कार्तिक माह में सूर्य तथा चन्द्रमा की किरणों का प्रभाव मनुष्य पर अनुकूल पड़ता है. यह किरणें मनुष्य के मन तथा मस्तिष्क को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करती है. कार्तिक मास में राधा-कृष्ण, विष्णु भगवान तथा तुलसी पूजा का अत्यंत महत्व है. जो मनुष्य इस माह में इनकी पूजा करता है, उसे पुण्य फलों की प्राप्ति होती है.

श्रद्धालु व्यक्ति कार्तिक माह में तारा भोजन करते हैं. पूरे दिन भर व्रती निराहार रहकर रात्रि में तारों को अर्ध्य देकर भोजन करते हैं. व्रत के अंतिम दिन उद्यापन किया जाता है. प्रतिवर्ष कार्तिक माह आरम्भ होते ही पवित्र स्नान का भी शुभारम्भ हो जाता है. इस माह तड़के उठकर महिलाएं तथा पुरुष पवित्र स्नान के लिए जाते हैं. इस दिन गंगा स्नान, दीपदान आदि का बहुत महत्व है. इसके अतिरिक्त व्यक्ति अपनी क्षमतानुसार भी दानादि कर सकता है.

इस दिन दान का बहुत महत्व माना गया है. त्रिदेवों ने इस दिन को महापुनीत पर्व कहा है. इसे त्रिपुरी पूर्णिमा भी कहा जाता है. कार्तिक पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्र में स्थित हो और सूर्य विशाखा नक्षत्र में स्थित हो तब “पद्म योग” बनता है. इस योग अपना विशेष महत्व है.

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शरद पूर्णिमा 2025 | Sharad Purnima 2025 | Kojagiri Vrat | Sharad Purnima Fast

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा शरद पूर्णिमा के रुप में मनाई जाती है. वर्ष 2025 में शरद पूर्णिमा 06 अक्टूबर, को मनाई जाएगी. शरद पूर्णिमा को कोजोगार पूर्णिमा व्रत और रास पूर्णिमा भी कहा जाता है. कुछ क्षेत्रों में इस व्रत को कौमुदी व्रत भी कहा जाता है. इस दिन चन्द्रमा व भगवान विष्णु का पूजन, व्रत, कथा की जाती है. धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी दिन चन्द्र अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण होते हैं. इस दिन श्रीसूक्त, लक्ष्मीस्तोत्र का पाठ करके हवन करना चाहिए. इस विधि से कोजागर व्रत करने से माता लक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं तथा धन-धान्य, मान-प्रतिष्ठा आदि सभी सुख प्रदान करती हैं.

शरद पूर्णिमा व्रत विधि | Sharad Purnima Vrat Vidhi

शरद पूर्णिमा के शुभ अवसर पर प्रात:काल में व्रत कर अपने इष्ट देव का पूजन करना चाहिए. इन्द्र और महालक्ष्मी जी का पूजन करके घी के दीपक जलाकर उसकी गन्ध पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए.

ब्राह्माणों को खीर का भोजन कराना चाहिए और उन्हें दान दक्षिणा प्रदान करनी चाहिए. लक्ष्मी प्राप्ति के लिए इस व्रत को विशेष रुप से किया जाता है. इस दिन जागरण करने वाले की धन -संपत्ति में वृद्धि होती है.

इस व्रत को मुख्य रुप से स्त्रियों के द्वारा किया जाता है. उपवास करने वाली स्त्रियां इस दिन लकडी की चौकी पर सातिया बनाकर पानी का लोटा भरकर रखती है. एक गिलास में गेहूं भरकर उसके ऊपर रुपया रखा जाता है. और गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर कहानी सुनी जाती है. गिलास और रुपया कथा कहने वाली स्त्रियों को पैर छुकर दिये जाते है. रात को चन्द्रमा को अर्ध्य देना चाहिए और इसके बाद ही भोजन करना चाहिए.  मंदिर में खीर आदि दान करने का विधि-विधान है. विशेष रुप से इस दिन तरबूज के दो टुकडे करके रखे जाते है. साथ ही कोई भी एक ऋतु का फल रखा और खीर चन्द्रमा की चांदनी में रखा जाता है. ऎसा कहा जाता है, कि इस दिन चांद की चांदनी से अमृत बरसता है.

शरद पूर्णिमा का महत्व | Significance of Sharad Poornima

शरद पूर्णिमा के विषय में विख्यात है, कि इस दिन कोई व्यक्ति किसी अनुष्ठान को करे, तो उसका अनुष्ठान अवश्य सफल होता है. तीसरे पहर इस दिन व्रत कर हाथियों की आरती करने पर उतम फल मिलते है. इस दिन के संदर्भ में एक मान्यता प्रसिद्ध है, कि इस दिन भगवान श्री कृ्ष्ण ने गोपियों के साथ महारास रचा था. इस दिन चन्द्रमा कि किरणों से अमृत वर्षा होने की किवदंती प्रसिद्ध है. इसी कारण इस दिन खीर बनाकर रत भर चांदनी में रखकर अगले दिन प्रात: काल में खाने का विधि-विधान है.

आश्विन मास कि पूर्णिमा सबसे श्रेष्ठ मानी गई है. इस पूर्णिमा को आरोग्य हेतु फलदायक माना जाता है. मान्यता अनुसार पूर्ण चंद्रमा अमृत का स्रोत है अत: माना जाता है कि इस पूर्णिमा को चंद्रमा से अमृत की वर्षा होती है. शरद पूर्णिमा की रात्रि समय खीर को चंद्रमा कि चांदनी में रखकर उसे प्रसाद-स्वरूप ग्रहण किया जाता है. मान्यता अनुसार चंद्रमा की किरणों से अमृत वर्षा भोजन में समाहित हो जाती हैं जिसका सेवन करने से सभी प्रकार की बीमारियां आदि दूर हो जाती हैं. आयुर्वेद के ग्रंथों में भी इसकी चांदनी के औषधीय महत्व का वर्णन मिलता है  खीर को चांदनी के में रखकर अगले दिन इसका सेवन करने से असाध्य रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है.

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श्राद्ध- पितर दोष से मुक्ति का आधार | Shraddha – Base To Get Relief From Pitra Dosha

श्राद्ध अवसर पर पितृदोष शांति के उपाय करने से पितर दोष से मुक्ति मिलती है. पितृ दोष की शांति के लिए शास्त्रों में अनेक विधि-विधान बताए गए हैं जैसे कि किन कारणों से पितृ दोष होता है और पितृ दोष की शांति कैसे करें. मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष में चंद्रलोक पर पितरों का आधिपत्य रहता है और इस समय पृथ्वी का मार्ग प्रशस्त होता है. मत्स्य पुराण के अनुसार आश्विन माह में जब सूर्य कन्या राशि में रहता है, तब यमराज पितरों को अपने वंशजों से मिलने का अवसर देते हैं.

इस प्रकार पितर पृथ्वी लोक पर आकर अपने वंशजों के द्वार पर आते हैं. इसलिए श्राद्ध कर्म इस समय किए जाते हैं. श्राद्ध कर्म द्वारा व्यक्ति अपने पितरों को शांति प्रदान करता है तथा वंश को सुख एवं समृद्धि प्रदान कर पाता है. धार्मिक मान्यताओं अनुसार यदि व्यक्ति अपने पितरों की मुक्ति एवं शांति हेतु यदि श्राद्ध कर्म एवं तर्पण न करे तो उसे पितृदोष भुगतना पड़ता है और उसके जीवन में अनेक कष्ट उत्पन्न होने लगते हैं.

पितरों से अभिप्राय व्यक्ति के पूर्वजों से है, ऎसे सभी पूर्वज जो आज हमारे मध्य नहीं रहे या असमय मृत्यु को प्राप्त होने के कारण, जिन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं हुई है, उन सभी की शान्ति के लिये पितृ दोष निवारण उपाय किये जाते है . पूर्वज स्वयं पीडित होने के कारण, तथा पितृयोनि से मुक्त होना चाहते है, परन्तु जब आने वाली पीढी की ओर से उन्हें भूला दिया जाता है, तो पितृ दोष उत्पन्न होता है .

ज्योतिष के अनुसार कुण्डली के नवम भाव पर जब सूर्य और राहु की युति हो रही हो तो यह माना जाता है कि पितृ दोष योग बन रहा है. शास्त्र के अनुसार पितर दोष व्यक्ति की कुण्डली में एक ऎसा दोष है जो इन सब दु:खों को एक साथ देने की क्षमता रखता है.

पितृ दोष के कारण | Reasons For Pitra Dosha

पितृ दोष उत्पन्न होने के अनेक कारण हो सकते है जैसे पितरों का विधि विधान से श्राद्ध न किया जाता हो या धर्म कार्यो में पितरों को याद न किया जाता हो, परिवार में धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न न होती हो, धर्म के विपरीत परिवार में आचरण हो रहा हो.

पितृ दोष के कारण व्यक्ति का भाग्योदय देर से होता है, उसे अपनी योग्यता के अनुकूल पद की प्राप्ति के लिये संघर्ष करना पडता है. हिन्दू शास्त्रों में देव पूजन से पूर्व पितरों की पूजा करनी चाहिए. क्योकि देव कार्यो से अधिक पितृ कार्यो को महत्व दिया गया है . इसीलिये देवों को प्रसन्न करने से पहले पितरों को तृप्त करना चाहिए. पितर कार्यो के लिये सबसे उतम पितृ पक्ष अर्थात आश्चिन मास का कृ्ष्ण पक्ष समझा जाता है .

पितृदोष के प्रभाव | Effect Of Pitra dosha

मार्कण्डेय पुराण के अनुसार श्राद्ध करने से संतुष्ट पितर श्राद्ध कर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सभी प्रकार के सुखों का आशिर्वाद प्रदान करते हैं. परंतु श्राद्ध न करने से पितृगण असंतुष्ट व दुःखी होकर व्यक्ति को श्राप देते हैं, और पितृश्राप के कारण वह संतानहीन हो कष्टमय जीवन जीता है, व्यक्ति शारीरिक व मानसिक व्याधियों से घिरा रहता है. इसलिए अपने पितरों का पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध करना चाहिए. श्राद्ध पितरों के प्रति हमारे श्रद्धाभाव की अभिव्यक्ति होता है.

श्राद्ध से पितृ दोष शान्ति | Remedies For Pitra dosha

आश्विन मास के कृ्ष्ण पक्ष में श्राद्ध कर्म द्वारा पूर्वजों की मृ्त्यु तिथि अनुसार तिल, कुशा, पुष्प, अक्षत, शुद्ध जल या गंगा जल सहित पूजन, पिण्डदान, तर्पण आदि करने के बाद ब्राह्माणों को अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन, फल, वस्त्र, दक्षिणा आदि दान करने से पितृ दोष से मुक्ति प्राप्त कि जा सकती है.  श्राद्ध एक वैदिक कर्म है इसे पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति के साथ किया जाना चाहिए.

श्राद्ध समय आश्विन मास की अमावस्या को उपरोक्त कार्य पूर्ण विधि- विधान से करने से पितृ शान्ति मिलती है. यदि किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो वह लोग इस समय अमावस्या तिथि के दिन अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं. श्राद्ध समय सोमवती अमावस्या होने पर दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से पितर दोष से मुक्ति मिल सकती है.

महालय श्राद्ध भाद्रशुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक मनाया जाता है. इस अवधि में कोई नवीन एवं मांगलिक कार्य नहीं किये जाते. जो व्यक्ति अपने पितरों का श्राद्ध नहीं करते वे पितृण से मुक्त नहीं हो पाते हैं, फलतः उन्हें पितृ-दोष का कष्ट झेलना पड़ता है अतः व्यक्ति को अपनी सामर्थ्यानुसार श्राद्ध अवश्य करना चाहिए.

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गणेश महोत्सव 2025 | Ganesh Mahotsav 2025 | Ganesh Mahotsav

भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से आरंभ होने वाला गणेश महोत्सव अनंत चतुर्दशी तक चलता है. गणेशोत्सव सारे विश्व में बड़े ही हर्षोल्लास एवं आस्था के साथ मनाया जाता है. घर-घर में भगवान गणेशजी की पूजा होती है, लोग मोहल्लों, चौराहों, मंदिरों एवं घरों पर गणेशजी की स्थापना, आरती, पूजा करते हैं. अनंत चतुर्दशी के दिन गणेशजी की मूर्ति को विधि विधान के साथ विसर्जित करके उनसे अगले साल दोबारा आने की प्रार्थना की जाती है.

27 अगस्त से 06 सितंबर 2025 तक चलने वाले इस महोत्सव की धूम चारों ओर देखी जा सकती है. पूरे भारतवर्ष में गणेश चतुर्थी के मौके पर भगवान गणेश की भव्य प्रतिमाओं को स्थापित करके पूजा पाठ शुरू हो जाता है. गणेश प्रतिमा स्थापित कर दस दिवसीय अनुष्ठान का शुभारंभ होता है. भव्य पंडालों में स्थापित गणेश प्रतिमा के सामने दर्शनार्थियों का जमावड़ा लगा रहता है. दस दिनों तक भजन व आरती का क्रम जारी रहता है.

दस दिवसीय गणेशोत्सव | Das Divsiya Ganeshotsav

भगवान श्री गणेश जी का गणेशोत्सव प्रारंभ होते ही दस दिनों तक गणपति जी की महिमा का गुणगान घर-घर होने लगता है. शहर के कई प्रमुख स्थलों में पर परंपरागत रूप से भगवान की प्रतिष्ठापना की जाती है. हिन्दू धर्म में किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पूर्व भगवान श्री गणेश जी का आहवान ही किया जाता है तत्पश्चात अन्य धार्मिक कार्यक्रम आरंभ होते हैं.

गणपति आदिदेव हैं अपने भक्तों के समस्त संकटों को दूर करके उन्हें मुक्त करते हैं गणों के स्वामी होने के कारण इन्हें गणपति कहा जाता है. प्रथम पूज्य देव रूप में यह अपने भक्तों के पालनहार हैं. इनके बारह नामों:-एकदंत, सुमुख, लंबोदर, विनायक, कपिल, गजकर्णक, विकट, विघ्न-नाश, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र तथा गजानन तथा गणेश का स्मरण सुख एवं शांति प्रदान करने वाला होता है.

गणेश महोत्सव पूजन | Ganesh Mahotsav Puja

श्री गणेश जी भगवान ऋद्धि-सिद्धि के दाता, विघ्न विनाशक और इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं, कोई कार्य पूर्ण नहीं हो रहे हो वह भादौ की चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक विधि विधान से पूजन करें तो उसके सभी कार्य सिद्ध होते हैं. दूर्वा के बिना पूजा अधूरी होती है . गणपति पर तुलसी नहीं चढ़ाई जाती. शुभ मुहूर्त में श्रीगणेश स्थापना विधिवत संकल्प लेकर करनी चाहिए. पंचोपचार अथवा षोषणोपचार पूजन के साथ भगवान का विग्रह में आहवन करते हैं.

गंगा जल, पान, फूल, दूर्वा आदि से पूजन किया जाता है, भगवान गणेश पर सिंदूर चढ़ाने से वह प्रसन्न होते हैं. भगवान को लड्डूओं का भोग लगाना चाहिए श्रीगणेश स्रोत, श्रीगणेश मंत्र जाप आदि का पाठ करना चाहिए, नारद पुराण के अनुसार भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि पर पार्थिव गणेश की स्थापना को बताया गया है.

गणेश प्रतिमा की स्थापना | Establishment of Ganesha Idol

देश भर में परंपरागत रूप से भगवान की प्रतिष्ठापना की जाती है. घर एवं मंदिरों पर पूर्ति स्थापना का आयोजन होता है इस अवसर पर भक्तों का उत्साह देखते बनता है, मूर्तियों की खरीदारी जोरों पर होती है छोटी बडी हर प्रकार की मूर्तियां सभी के आकर्षण का केन्द्र बनती हैं. भगवान गणेश जी की भक्ति का स्वरुप इन दिनों समूचे वातावरण में घुला सा होता है लोगों का उत्साह चरम पर होता है. सभी भक्त दस दिनों के मेहमान को भक्ति भाव एवं सम्मान द्वारा घर पधारने का आग्रह करते हैं.

मान्यता है कि इन दस दिनों के दौरान यदि श्रद्धा एवं विधि-विधान के साथ गणेश जी की पूजा किया जाए तो व्यक्ति की सभी बाधाओं का अन्त हो जाता है ओर भगवान गणेश सौभाग्य, समृद्धि एवं सुख प्रदान करते हैं. वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ भगवान गणेश की मूर्ति को स्थापित किया जाता है. गणेश महोत्सव में धार्मिक अनुष्ठान और रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन जारी रहता है.

महाराष्ट्र में गणेश महोत्सव की धूम | Celebration Of Ganesh Mahotsav In Maharashtra

गणेश चतुर्थी वैसे तो पूरे देश में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन महाराष्ट्र में इस त्योहार का एक अलग ही रुप देखने को मिलता है. लोग पुष्प वर्षा कर स्वागत करते हैं, ढोल, बैंड बाजों के साथ निकली शोभायात्रा को देखने के लिए लोग हजारों की भीड़ में देखे जा सकते हैं. भगवान गणेश की भव्य मूर्तियां हर किसी को आकर्षित कर रही होती हैं. पंडित वैदिक अनुष्ठान, हवन आदि कर भगवान गणेश को महोत्सव में आमंत्रित करते हैं. करीब ग्यारह दिन तक चलने वाले महोत्सव में कई धार्मिक कार्यक्रम होते ही रहते हैं.

इस दौरान भगवान गणेश की विशेष पूजा के साथ साथ कथा वाचन एवं लीला मंचन भी होता है. पूरे महाराष्ट्र में इन दिनों भक्ति का सैलाब उमड़ पड़ता है गणपति बप्पा मोरिया के जयकारों से वातावरण गूंजने लगता है. सभी भक्त महोत्सव में शामिल होकर भगवान गणेश का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं. मुंबई की गलियां गणेश पंडालों से पट जाती हैं. मुंबई के लालबाग के राजा, सिद्धि विनायक इत्यादि प्रमुख हैं मुंबई में स्थापित होने वाली गणेश प्रतिमाओं में सबसे ज्यादा आकर्षण लालबाग के राजा नाम से स्थापित गणेश प्रतिमा का रहता है.

विदेशों में गणेश महोत्सव की धूम | Celebration Of Ganesh Mahotsav In Foreign Countries

श्री भगवान गणेश के प्रति भक्तों की आस्था विदेशों में भी कम नहीं है. ब्रिटेन में अप्रवासी भारतीय इस त्यौहार को पूरे रीतिरिवाज के साथ मनाते हैं. इसके अलावा अमरीका में भी गणेश चतुर्थी का आयोजन बड़े पैमाने पर किया जाता है. वहीं मारीशस में भी गणपति उत्सव बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस दिन मारीशस में अवकाश भी रहता है.

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महालया श्राद्ध । चतुर्दशी श्राद्ध | Mahalaya Shraddh | Chaturdashi Shraddh

यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्य तिथि होती है किंतु आश्विन मास की अमावस्या पितृ पक्ष के लिए उत्तम मानी जाती है. इस अमावस्या को सर्व पितृ विसर्जनी अमावस्या अथवा महालया के नाम से भी जाना जाता है. शास्त्रोक्त अनुसार इस दिन किया जाने वाला श्राद्ध सभी पितरों को प्राप्त होता है. जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर पाते वह कम से कम आश्विन मास में पितृगण की मरण तिथि के दिन यदि श्राद्ध अवश्य करें तो यह एक उत्तम कार्य होता है.

भाद्र शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा से पितरों का दिन आरम्भ हो जाता है. यह सर्व पितृ अमावस्या तक रहता है. जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध तर्पण आदि नहीं कर पाते या जिन्हें पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके श्राद्ध, तर्पण इत्यादि इसी अमावस्या के दिन किए जाते हैं. इसलिए अमावस्या के दिन पितर अपने पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से आते हैं यदि उन्हें वहाँ पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती, तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते हैं जिससे पितृदोष लगता है और इस कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है.

महालया का तापर्य महा यानी ‘उत्सव दिन’ और आलय यानी के घर अर्थात कृष्ण पक्ष में पितरों का निवास माना गया है इसलिए इस काल में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किए जाते हैं जो महालय भी कहलाता है. यदि कोई पितृदोष से पिडी़त हो  या  पितृदोष शांति के लिए अपने पितरों की मृत्यु तिथि मालूम न हो तो उसे सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितरों का श्राद्ध – तर्पण अवश्य करना चाहिए.

श्राद्ध नियम | Shraddh Principles

शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध के लिए कुछ महत्वपूर्ण नियमों का अनुमोदन किया गया है जिनके पालन श्राद्ध क्रिया को उचित प्रकार से किया जा सके और पितरों को शांति प्राप्त हो सके. यह नियम इस प्रकार कहे गए हैं कि:- दूसरे के निवास स्थान या भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिये. श्राद्ध में पितरों की तृप्ति के लिए ब्राह्मण द्वारा पूजा कर्म करवाए जाने चाहिए. ब्राह्मण का सत्कार न करने से वह श्राद्ध कर्म के सम्पूर्ण फल नष्ट हो जाते हैं.

श्राद्ध में सर्वप्रथम अग्नि को भाग अर्पित किया जाता है तत्पश्चात हवन करने के बाद पितरोंके निमित्त पिण्डदान किया जाता है, रजस्वला स्त्री, चाण्डाल और सुअर श्राद्ध के संपर्क में आने पर श्राद्ध का अन्न दूषित हो जाता है. श्राद्ध समय में वस्त्र का दान करना चाहिये. श्राद्ध समय तर्पण करते हुए दोनों हाथों से जल प्रदान करना चाहिए. रात्रि में श्राद्ध नहीं करना चाहिए इसके अतिरिक्त दोनों सन्ध्या में तथा पूर्वाह्णकाल में भी श्राद्ध नहीं करना चाहिए.

श्राद्ध में पिण्डदान | Pind Daan in Shraddh

श्राद्ध में पिण्डदान का बहुत महत्व होता है. बच्चों एवं सन्यासियों के लिए पिण्डदान नहीं किया जाता. श्राद्ध में बाह्य रूप से जो चावल का पिण्ड बनाया जाता, जो देह को त्याग चुके हैं वह पिण्ड रुप में होते हैं,यह इसीलिए किया जाता है कि पितर मंत्र एवं श्रद्धापूर्वक किये गये श्राद्ध की वस्तुओं को लेते हैं और तृप्त होते हैं.श्राद्ध के अनेक प्रकार होते हैं जिसमें नित्य श्राद्ध, काम्य श्राद्ध, एकोदिष्ट श्राद्ध, गोष्ठ श्राद्ध इत्यादि हैं.

चतुर्दशी श्राद्ध | Chaturdashi Shraddh

श्राद्ध श्राद्धपक्ष की तिथियों में होता है. हमारे पूर्वज जिस तिथि में इस संसार से गये हैं, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि को किया जाने वाला श्राद्ध सर्वश्रेष्ठ होता है. जिनकी मृत्यु की तिथि याद न हो, उनके श्राद्ध के लिए अमावस्या की तिथि उपयुक्त मानी गयी है इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हुए जीव समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं मघा नक्षत्र पितरों को अभीष्ट सिद्धि देने वाला होता है. इसलिए इस नक्षत्र के दिनों में किया गया श्राद्ध अक्षय होता है और पितर इससे संतुष्ट होते हैं.

आश्विन माह के कृष्णपक्ष यानी श्राद्धपक्ष की चतुर्दशी तिथि पर पितरों की प्रसन्नता के लिए चतुर्दशी का श्राद्ध किया जाता इस तिथि पर अकाल मृत्यु को प्राप्त पितरों का श्राद्ध करने का विशेष महत्व होता है

जिन पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को करने से वे प्रसन्न होते हैं चतुर्दशी तिथि पर श्राद्ध करने से सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

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दधीचि जयंती 2025 | Dadhichi Jayanti | Dadhichi Jayanti 2025

प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की अष्टमी को दाधीच जंयती मनाई जाती है. पौराणिक आख्यानों के अनुसार महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियो को दान में देकर देवताओं की रक्षा की थी. इस वर्ष 31 अगस्त 2025 को दधिचि जयंती मनाई जाएगी. महर्षि दधीचि जयंती पूरे देश मे श्राद्धा एवं उल्लास के साथ मनाई जाती है.

महर्षि दधीचि कथा | Saint Dadhichi Story

भारतीय प्राचीन ऋषि मुनि परंपरा के महत्वपूर्ण ऋषियों में से एक रहे ऋषि दधीचि जिन्होंने विश्व कल्याण हेतु अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. इसलिए इन महान आत्मत्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है. महर्षि दधीची के पिता महान ऋषि अथर्वा जी थे और इनकी माता का नाम शान्ति था. ऋषि दधीचि जी ने अपना संपूर्ण जीवन भगवान शिव की भक्ति में व्यतीत किया. उन्होंने कठोर तप द्वारा अपने शरीर को कठोर बना लिया था. अपनी कठोर तपस्या द्वारा तथा अटूट शिवभक्ति से ही यह सभी के लिए आदरणीय हुए.

महर्षि दधीचि और इंद्र | Saint Dadhichi and Indra

इन्हीं के तपसे एक बार भयभीत होकर इन्होंने सभी लोगों को हैरान कर दिया था. कथा इस प्रकार है एक बार महर्षि दधीचि ने बहुत कठोर तपस्या आरंभ कि उनकी इस तपस्या से सभी लोग भयभीत होने लगे इंद्र का सिंहांसन डोलने लग इनकी तपस्या के तेज़ से तीनों लोक आलोकित हो गये. इसी प्रकार सभी उनकी तपस्या से प्रभावित हुए बिना न रह सके. समस्त देवों के सथ इंद्र भी इस तपस्या से प्रभावित हुए और इन्द्र को लगा कि अपनी कठोर तपस्या के द्वारा दधीचि इन्द्र पद प्राप्त करना चाहते हैं.

अत: इंद्र ने महर्षि की तपस्या को भंग करने के लिए अपनी परम रूपवती अप्सरा को महर्षि दधीचि के समक्ष भेजा. अपसरा के अथक प्रयत्न के पश्चात भी महर्षि की तपस्या जारी रहती है. असफल अपसरा इन्द्र के पास लौट आती हैं  बाद में इंद्र को उनकी शक्ति का भान होता है तो वह ऋषि के समक्ष अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करते हैं.

वृत्रासुर और दधीचि का अस्थि दान | Donation of Ashes of Dadhichi and Vritrasur

एक बार वृत्रासुर के भय से इन्द्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगते हैं वह अपनी व्यथा ब्रह्मा जी को बताते हैं तो ब्रह्मा जी उन्हें ऋषि दधीचि के पास जाने की सलाह देते हैं क्योंकि इस संकट समय़ केवल दधीचि ही उनकी सहायता कर सकते थे. यदि वह अपनी अस्थियो का दान देते तो उनकी अस्थियो से बने शस्त्रों से वृत्रासुर मारा जा सकता है.

महर्षि दधीचि की अस्थियों मे ब्रहम्म तेज था जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता था. वृत्रासुर पर इंद्र के किसी भी कठोर-अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था तथा समस्त देवताओं के द्वारा चलाये गये अस्त्र-शस्त्र भी उसके अभेद्य दुर्ग को न भेद सके सभी अस्त्र-शस्त्र भी उस दैत्य के सामने व्यर्थ हो जाते हैं.

दधीचि का दान | Donation of Dadhichi

तब इंद्र ब्रह्मा जी के कहे अनुसार महर्षि दधीचि के पास जाते हैं “ क्योंकि ऋषि को शिव के वरदान स्वरुप मजबूत देह का वरदान प्राप्त था अत: उनकी हड्डीयों से निर्मित अस्त्र द्वारा ही वृतासुर को मारा जा सकता था” इंद्र महर्षि से प्रार्थना करते हुए उनसे उनकी हड्डियाँ दान स्वरुप मांगते हैं. महर्षि दधीचि उन्हें निस्वार्थ रुप से लोकहित के लिये मैं अपना शरीर प्रदान कर देते हैं.

इस प्रकार महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण होता है और जिसके  उपयोग द्वारा इंद्र देव ने वृत्रासुर का अंत किया. इस प्रकार परोपकारी ऋषि दधीचि के त्याग द्वारा तीनों लोकों की रक्षा होती है और इंद्र को उनका स्थान पुन: प्राप्त होता है.

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नन्दानवमी व्रत | Nandanvami Fast | Nandanvami Fast 2025

नंदा देवी की अराधना प्राचीन काल से ही होती चली आ रही है. नंदा को नवदुर्गाओं में से एक बताया गया है. भाद्रपद कृष्ण पक्ष की नवमी तथा शुक्ल पक्ष की नवमी को नन्दा कहा जाता है. साल में तीन अवधियों में दुर्गा पूजा की जाती है. भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की नवमी महानंदानवमी के रुप में जानी जाती है. अष्टमी को उपवास रखा जाता है तथा नवमी के दिन भगवान शिव और देवी नंदा की पूजा की जाती है. जागरण किया जाता है तथा भोग लगाया जाता है, नवमी के दिन चण्डिका पूजन से नंदानवमी व्रत संपूर्ण होता है.

नन्दानवमी पौराणिक महत्व | Nandanvami Puranic Importance

धर्म ग्रंथों एवं लोक कथाओं मे नन्दा देवी की के बखान का वर्णन किया गया है. नन्दा देवी की महिमा का वर्णन का प्रमाण धार्मिक ग्रंथों व पुराणों में मिलता है. मां भगवती की छ: अंगभूता देवियों में नंदा देवी को स्थान प्राप्त है. विष्णु पुराण अनुसार नौ दुर्गाओं का उल्लेख मिलता है जिनमें देवी महालक्ष्मी, हरसिद्धी, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती एवं नन्दा देवी प्रमुख हैं. इसी के साथ शिवपुराण में शक्ति रुप में नंदा देवी हिमालय में स्थपित व पूजित हैं. नंदादेवी देवी को शक्ति रूप व सौंदर्य से युक्त देवी मना जाता है.

नंदानवमी उत्सव | Nandanvami Festival

नवमी के दिन देवी मां नन्दा देवी की उपासना मुख्य रुप से कि जाती है. नंदा नवमी के उपलक्ष्य पर अनेक स्थानों पर नंदा देवी के सम्मान में मेलों का आयोजन किया जाता है. नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला प्रमुख हैं जुडे हुए हैं. अल्मोड़ा नगर में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में हर साल भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मेला लगता है जो बहुत ही भव्य एवं रौनक से भरा होता है यहां धार्मिक मान्यताओं की सुंदर झलक दिखती है.

नंदानवमी पूजन | Nandanvami Worship

नंदानवमी पूजन भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन किया जाता है. नन्दा देवी को पार्वती का रूप माना जाता है. नंदा देवी की कथा अनेक मान्यताओं से जुडी़ है. नंदानवमी के दिन माता का पूजन एवं स्त्रोत पाठ होता है. नंदानवमी पूजा दुर्गा पूजा का समय होता है जब मां दुर्गा का पुजन करके शक्ति और समृद्धि का आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है. नंदानवमी के उपलक्ष्य पर माता का जागरण और कथा श्रवण किया जाता है. नंदानवमी के उपलक्ष पर शुक्ल सप्तमी के दिन व्रत का आरंभ करते हुए अष्टमी के दिन व्रती रहते हुए देवी का पुष्पादि से पूजन करना चाहिए. अष्टमी की रात्रि में जागरण करे फिर नवमी के दिन कुमारी पूजन करें कन्याओं को भोजन कराना चाहिए तत्पश्चा माता का प्रसाद ग्रहण करके व्रत का समापन करना चाहिए.

नंदानवमी पर्व महत्व | Nandanvasi Festival Importance

नन्दा को पार्वती का रूप माना जाता है. कुछ अन्य मान्यताओं के अनुसार नन्दादेवी दक्ष प्रजापति की सात कन्याओं में से एक थीं व देवी का विवाह शिव के साथ होना माना जाता है. नन्दादेवी के विषय में विभिन्न लोक कथाएँ प्रचलित हैं एक कथा अनुसार नन्दा को नन्द महाराज की बेटी बताया जाता है, नन्द महाराज की यह बेटी कृष्ण जन्म से पूर्व कंस के हाथों से छूटकर आकाश में जा कर नागाधिराज हिमालय की पत्नी मैना की गोद में पहुँच गई. एक अन्य संदर्भ अनुसार नन्दादेवी का जन्म ॠषि हिमवंत व उनकी पत्नी मैना के घर हुआ था अत: विभिन्न धारणायें होते हुए भी नन्दादेवी एक दृढ़ आस्था का प्रतीक है.

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