पिशाचमोचन श्राद्ध 2025 | Pishach Mochan Shraddha 2025 | Pishach Mochan Shraddha

पिशाचमोचन श्राद्ध के दिन पिशाच (प्रेत) योनि में गये हुए पूर्वजों के निमित्त तर्पण आदि करने का विधान बताया गया है. 7 सितंबर  2025 को पिशाचमोचन श्राद्ध किया जाना है. इस तिथि पर अकाल मृत्यु को प्राप्त पितरों का श्राद्ध करने का विशेष महत्व होता है. इस अवसर पर शांति के उपाय करने से प्रेत योनि व जिन्हें भूत-प्रेत से भय व्याप्त हो उन्हें पितर दोष से मुक्ति मिलती है. इस दोष की शांति हेतु शास्त्रों में पिशाचमोचन श्राद्ध को महत्वपुर्ण माना गया है. मार्गशीर्ष माह में आने वाला पिशाच मोचन श्राद्ध काफी महत्वपूर्ण होता है. श्राद्ध के अनेक विधि-विधान बताए गए हैं जिनके द्वारा इनकी शांति व मुक्त्ति संभव होती है.

पिशाचमोचन श्राद्ध विधान | Rituals to Perform Pishach Mohan Shraddha

इस दिन व्रत, स्नान, दान, जप, होम और पितरों के लिए भोजन, वस्त्र आदि देना उतम रहता है. शास्त्रों के हिसाब से इस दिन प्रात:काल में स्नान करके संकल्प करें और उपवास करना चाहिए. कुश अमावस्या के दिन किसी पात्र में जल भर कर कुशा के पास दक्षिण दिशा कि ओर अपना मुख करके बैठ जाएं तथा अपने सभी पितरों को जल दें, अपने घर परिवार, स्वास्थ आदि की शुभता की प्रार्थना करनी चाहिए. तिलक, आचमन के उपरांत पीतल या ताँबे के बर्तन में पानी लेकर उसमें दूध, दही, घी, शहद, कुमकुम, अक्षत, तिल, कुश रखते हैं.

हाथ में शुद्ध जल लेकर संकल्प में उक्त व्यक्ति का नाम लिया जाता है जिसके लिए पिशाचमोचन श्राद्ध किया जा रहा होता है. फिर नाम लेते हुए जल को भूमि में छोड़ दिया जाता है.इस प्रकार आगे कि विधि संपूर्ण कि जाती है. तर्पण करने के उपरांत शुद्ध जल लेकर सर्व प्रेतात्माओं की सदगति हेतु यह तर्पणकार्य भगवान को अर्पण करते हें व पितर की शांति की कामना करते हैं. पीपल के वृक्ष पर भी जलार्पण किया जाता है तथा भगवत कथा का श्रवण करते हुए शांति की कामना की जाती है.

पिशाच मोचन श्राद्ध महत्व | Significance of Pishach Mochan Shraddha

पिशाच मोचन श्राद्ध कर्म द्वारा व्यक्ति अपने पितरों को शांति प्रदान करता है तथा उन्हें प्रेत योनि से मुक्ति दिलाता है. धार्मिक मान्यताओं अनुसार यदि व्यक्ति अपने पितरों की मुक्ति एवं शांति हेतु यदि श्राद्ध कर्म एवं तर्पण न करे तो उसे पितृदोष भुगतना पड़ता है और उसके जीवन में अनेक कष्ट उत्पन्न होने लगते हैं. जो अकाल मृत्यु व किसी दुर्घटना में मारे जाते हैं उनके लिए यह श्राद्ध महत्वपूर्ण माना जाता है. इस प्रकार इस दिन श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हुए जीव मुक्ति पाता है.

यह समय पितरों को अभीष्ट सिद्धि देने वाला होता है. इसलिए इस दिन में किया गया श्राद्ध अक्षय होता है और पितर इससे संतुष्ट होते हैं. इस तिथि को करने से वे प्रसन्न होते हैं सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. इस दिन तीर्थ, स्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण और पापों से  छुटकारा मिलता है. इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. भगवान विष्णु की आराधना की जाती है जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है.

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गीता जयंती 2025 | Geeta Jayanti 2025 | Gita Jayanti | Geeta Jayanti Festival

गीता जयंती एक प्रमुख पर्व है हिंदु पौरांणिक ग्रथों में गीता का स्थान सर्वोपरि रहा है. 01 दिसंबर 2025 के दिन गीता जयंती का महोत्सव मनाया जाएगा. गीता ग्रंथ का प्रादुर्भाव मार्गशीर्ष मास में शुक्लपक्ष की एकादशी को कुरुक्षेत्र में हुआ था. महाभारत समय श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को ज्ञान का मार्ग दिखाते हुए गीता का आगमन होता है. इस ग्रंथ में छोटे-छोटे अठारह अध्यायों में संचित ज्ञान मनुष्यमात्र के लिए बहुमूल्य रहा है.

अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर कर्म का महत्व स्थापित किया इस प्रकार अनेक कार्यों को करते हुए एक महान युग परवर्तक के रूप में सभी का मार्ग दर्शन किया.मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती के साथ साथ मोक्षदा एकादशी भी कहा जाता है. मोक्षदा एकादशी का व्रत करने वाले व्यक्ति को एकादशी के नाम के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के योग बनते हैं.

इसी दिन गीता जयन्ती होने से श्रीमदभगवद गीता की सुगन्धित फूलों द्वारा पूजा, कर गीता का पाठ करना चाहिए. विधिपूर्वक गीता व भगवान विष्णु की पूजा करने पर यथा शक्ति दानादि करने से पापों से मुक्ति मिलती है तथा शुभ फलों की प्राप्ति होती है. गीता जयंती के दिन श्री विष्णु जी का पूजन करने से उपवासक को आत्मिक शांति व ज्ञान की प्राप्ति होती है व मोक्ष मार्ग प्रश्स्त होता है.

गीता जयंती कथा | Geeta Jayanti Katha

कर्म की अवधारणा को अभिव्यक्त करती गीता चिरकाल से आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितना तब रही. विचारों को तर्क दृष्टी के द्वारा बहुत ही सरल एवं प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत किया गया है संसार के गुढ़ ज्ञान तथा आत्मा के महत्व पर विस्तृत एवं विशद वर्णन प्राप्त होता है.

गीता में अर्जुन के मन में उठने वाले विभिन्न सवालों के रहस्यों को सुलझाते हुए श्री कृष्ण ने उन्हें सही एवं गलत मार्ग का निर्देश प्रदान करते हैं. संसार में मनुष्य कर्मों के बंधन से जुड़ा है और इस आधार पर उसे इन कर्मों के दो पथों में से किसी एक का चयन करना होता है. इसके साथ ही परमात्मा तत्त्व का विशद वर्णन करते हुए अर्जुन की शंकाओं का समाधान करते हैं व गीता का आधार बनते हैं.

गीता जयंती महत्व | Geeta Jayanti Importance

गीता आत्मा एवं परमात्मा के स्वरूप को व्यक्त करती है. कृष्ण के उपदेशों को प्राप्त कर अर्जुन उस परम ज्ञान की प्राप्ति करते हैं जो उनकी समस्त शंकाओं को दूर कर उन्हें कर्म की ओर प्रवृत करने में सहायक होती है. गीता के विचारों से मनुष्य को उचित बोध कि प्राप्ति होती है यह आत्मा तत्व का निर्धारण करता है उसकी प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है. आज के समय में इस ज्ञान की प्राप्ति से अनेक विकारों से मुक्त हुआ जा सकता है.

आज जब मनुष्य भोग विलास, भौतिक सुखों, काम वासनाओं में जकडा़ हुआ है और एक दूसरे का अनिष्ट करने में लगा है तब इस ज्ञान का प्रादुर्भाव उसे समस्त अंधकारों से मुक्त कर सकता है क्योंकी जब तक मानव इंद्रियों की दासता में है, भौतिक आकर्षणों से घिरा हुआ है, तथा भय, राग, द्वेष एवं क्रोध से मुक्त नहीं है तब तक उसे शांति एवं मुक्ति का मार्ग प्राप्त नहीं हो सकता.

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भौम प्रदोष व्रत| Bhaum Pradosh Fast |Bhauma Pradosh Vrat 2025

प्रत्येक चन्द्र मास की त्रयोदशी तिथि के दिन प्रदोष व्रत रखने का विधान है. यह व्रत कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों को किया जाता है. सूर्यास्त के बाद के बाद का कुछ समय प्रदोष काल के नाम से जाना जाता है. स्थान विशेष के अनुसार यह बदलता रहता है. सामान्यत: सूर्यास्त से लेकर रात्रि आरम्भ तक के मध्य की अवधि को प्रदोष काल में लिया जा सकता है.

भक्त को भगवान श्री भोलेनाथ पर अटूट श्रद्धा विश्वास हो, उन भक्तों को मंगलवार के दिन में पडने वाले प्रदोष व्रत का नियम पूर्वक पालन कर उपवास करना चाहिए. यह व्रत उपवासक को धर्म, मोक्ष से जोडने वाला और अर्थ, काम के बंधनों से मुक्त करने वाला होता है. इस व्रत में भगवान शिव की पूजन किया जाता है. भगवान शिव कि जो आराधना करने वाले व्यक्तियों की गरीबी, मृत्यु, दु:ख और ऋणों से मुक्ति मिलती है.

भौम प्रदोष व्रत महत्व | Significance of Bhaum Pradosh Fast

शास्त्रों के अनुसार भौम प्रदोष व्रत को रखने से गोदान देने के समान पुण्य फल प्राप्त होता है. भौम प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य सामने आता है कि जो व्यक्ति भौम प्रदोष का व्रत रख, शिव आराधना करता है उसे शिव कृपा प्राप्त होती है. इस व्रत को रखने से मोक्ष मार्ग पर आगे बढता है. उसे उतम लोक की प्राप्ति होती है. मंगलवार के दिन भौम प्रदोष व्रत होता है. इस दिन के व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थय लाभ प्राप्त होता है. साधक की सभी कामना की पूर्ति होने की संभावना बनती है.

प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता है. सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख-शान्ति के लिये व संतान प्राप्ति की कामना हेतु भी यह व्रत शुभ फलदायक होता है. उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किये जाते है, तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृद्धि होती है.

भौम प्रदोष पूजन | Bhaum Pradosh Pujan

प्रदोष व्रत करने के लिये उपवसक को इस दिन प्रात: सूर्य उदय से पूर्व उठना चाहिए. नित्यकर्मों से निवृत होकर, भगवान श्री भोले नाथ का स्मरण करें. इस व्रत में आहार नहीं लिया जाता है. पूरे दिन उपावस रखने के बाद सूर्यास्त से एक घंटा पहले, स्नान आदि कर श्वेत वस्त्र धारण किये जाते हैं.

ईशान कोण की दिशा में एकान्त स्थल को पूजा करने के लिये प्रयोग करना विशेष शुभ रहता है. पूजन स्थल को गंगाजल या स्वच्छ जल से शुद्ध करने के बाद, मंडप तैयार किया जाता है. इस मंडप में पद्म पुष्प की आकृति पांच रंगों का उपयोग करते हुए बनाई जाती है.

प्रदोष व्रत कि आराधना करने के लिये कुशा के आसन का प्रयोग किया जाता है. इस प्रकार पूजन क्रिया की तैयारियां कर उतर-पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठे और भगवान शंकर का पूजन करना चाहिए. पूजन में भगवान शिव के मंत्र का जाप करते हुए शिव को जल का अर्ध्य देना चाहिए. हवन समाप्त होने के बाद भगवान भोलेनाथ की आरती की जाती है. और शान्ति पाठ किया जाता है. अंत: में दो ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है तथा अपने सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा देकर आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है.

भगवान शिव की पूजा एवं उपवास- व्रत के विशेष काल और दिन रुप में जाना जाने वाला यह प्रदोष काल बहुत ही उत्तम समय होता है. इस समय कि गई भगवान शिव की पूजा से अमोघ फल की प्राप्ति होती है. प्रदोष काल में की गई पूजा एवं व्रत सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला माना गया है.

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विष्णु सप्तमी 2025 | Vishnu Saptami 2025 | Vishnu Saptami Vrat

विष्णु सप्तमी व्रत मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष कि सप्तमी तिथि के दिन किया जाता है. इस वर्ष विष्णु सप्तमी 27 नवंबर 2025 को मनाई जानी है. भारतीय संस्कृति में ,मार्गशीर्ष मास का अपना एक विशेष महत्व होता है, इस मास में सांसारिक विषयों से ध्यान हटाकर आध्यात्मिक से रिश्ता जोडा जाता है. आत्मा का नियंत्रक ग्रह सूर्य धर्म के कारक होकर आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होते हैं. 

मार्गशीर्ष मास की हर तिथि अपना विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व रखती है. ऐसा माना जाता है कि विष्णु सप्तमी के दिन उपवास रखकर भगवान विष्णु का पूजन करने से समस्त कार्य सफल होते हैं. विष्णु पुराण में शुक्लपक्ष की विष्णु सप्तमी तिथि को आरोग्यदायिनी कहा गया है. इस तिथि में सूर्यनारायण का पूजन करने से रोग-मुक्ति मिलती है.

विष्णु सप्तमी पूजन | Vishnu Saptami Pujan

सप्तमी का व्रत अपना विशेष महत्व रखता है. सप्तमी का व्रत करने वाले को प्रात:काल में स्नान और नित्यक्रम क्रियाओं से निवृत होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. इसके बाद प्रात:काल में श्री विष्णु और भगवान शिव की पूजा अर्चना करनी चाहिए. और सप्तमी व्रत का संकल्प लेना चाहिए. निराहार व्रत कर, दोपहर को चौक पूरकर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेध, सुपारी तथा नारियल आदि से फिर से शिव- पार्वती की पूजा करनी चाहिए.

सप्तमी तिथि के व्रत में नैवेद्ध के रुप में खीर-पूरी तथा गुड के पुए बनाये जाते है. रक्षा की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ को लाळ रंगा का डोरा अर्पित किया जाता है. श्री भोलेनाथ को यह डोरा समर्पित करने के बाद इसे स्वयं धारण कर इस व्रत की कथा सुननी चाहिए. व्रत की कथा सुनने के बाद सांय काल में भगवान विष्णु की पूजा धूप, दीप, फल, फूल और सुगन्ध से करते हुए नैवैध का भोग भगवान को लगाना चाहिए. और भगवान कि आरती करनी चाहिए.

विष्णु सप्तमी महत्व | Significance of Vishnu Saptami

भगवान विष्णु सृष्टि के पालनहार हैं सर्वव्यापक भगवान श्री विष्णु समस्त संसार में व्याप्त हैं कण-कण में उन्हीं का वास है उन्हीं से जीवन का संचार संभव हो पाता है संपूर्ण विश्व श्री विष्णु की शक्ति से ही संचालित है वे निर्गुण, निराकार तथा सगुण साकार सभी रूपों में व्याप्त हैं. विष्णु भगवान का स्वरूप बहुत ही विशाल एवं विस्तृत है उनके रूप को वेदों पुराणों में बहुत ही सुंदर तरीके से दर्शाया गया है भक्तों द्वारा उनके रूप का वर्णन तो देखते ही बनता है.

शेषनाग पर विराजमान भगवान विष्णु अपने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए होते हैं पिताम्बर को धारण किए हुए उनकी आभा से समस्त लोक प्रकाशमान हैं, कौस्तुभमणि को धारण करने वाले, कमल नेत्र वाले भगवान श्री विष्णु देवी लक्ष्मी के साथ बैकुंठ धाम में निवास करते हैं. भगवान श्री विष्णु ही परमार्थ तत्व हैं तथा ब्रह्मा एवं शिव सहित समस्त सृष्टि के आदि कारण हैं.

अत: विष्णु सप्तमी व्रत करते हुए जो भी प्रभु विष्णु का ध्यान मन करता है वह समस्त भव सागरों को पार करके विष्णु धाम को पाता है. भगवान श्री विष्णु अत्यन्त दयालु तथा जीवों पर करुणा-वृष्टि करने वाले हैं उनकी शरण में जाकर श्री विष्णु के नामों का कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण तथा उनका पूजन करने से समस्त पाप-ताप नष्ट हो जाते हैं. “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” महामंत्र के जाप से सभी के कष्ट दूर होते हैं उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है.

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मोक्षदा एकादशी 2025 | Mokshda Ekadashi 2025 | Mokshada Ekadasi Vrat

मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मोक्षदा एकादशी के रुप में जाना जाता है. वर्ष 2025 में मोक्षदा एकादशी 01 दिसंबर को मनाई जाएगी. मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी अनेकों पापों को नष्ट करने वाली है. मोक्षदा एकादशी को दक्षिण भारत में वैकुण्ठ एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के प्रारम्भ होने से पूर्व अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था.

इस दिन श्री कृष्ण व गीता का पूजन शुभ फलदायक होता है. ब्राह्राण भोजन कराकर दान आदि कार्य करने से विशेष फल प्राप्त होते है. यह एकादशी मोक्षदा के नाम से प्रसिद्ध है. इस दिन भगवान श्री दामोदर की पूजा, धूप, दीप नैवेद्ध आदि से भक्ति पूर्वक करनी चाहिए.

मोक्षदा एकादशी पूजन | Moksha Ekadashi Pujan

व्रत के दिन स्नान करने के बाद ही मंदिर में पूजा करने के लिये जाना चाहिए. मंदिर या घर में श्री विष्णु पाठ करना चाहिए और भगवान के सामने व्रत का संकल्प लेना चाहिए. इस व्रत का समापन द्वादशी तिथि के दिन ब्राह्माणों को दान-दक्षिणा देने के बाद ही होता है. व्रत की रात्रि में जागरण करने से व्रत से मिलने वाले शुभ फलों में वृद्धि होती है. मोक्षदा एकादशी व्रत को करने से व्यक्ति के पूर्वज जो नरक में चले गये है, उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है.

मोक्षदा एकादशी महत्व |Significance of Moksha Ekadashi

इसकी कथा इस प्रकार है. प्राचीन गोकुल नगर में वैखानस नाम का एक राजा राज्य करता था. उसके राज्य में चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्माण रहते थे. एक रात्रि को स्वप्न में राजा ने अपने पिता को नर्क मे पडा देखा, अपने पिता को इस प्रकार देख कर उसे बहुत दु:ख हुआ.

वह ब्राह्माणों के सामने अपनी स्वप्न के बारे कहता है कि पिता को इस प्रकार देख कर मुझे सभी ऎश्वर्य व्यर्थ महसूस हो रही है. आप लोग मुझे किसी प्रकार का उपाय बताएं, जिससे मेरे पिता को मुक्ति प्राप्त हो सके. राजा के ऎसे वचन सुनकर ब्राह्माण कहते हैं कि हे राजन, यहां समीप ही एक भूत-भविष्य के ज्ञाता एक “पर्वत” नाम के मुनि है. आप उनके पास जाईए, वही आपको इसके बारे में बतायेगें.

राजा ऎसा सुनकर मुनि के आश्रम पर गए़ उस आश्रम में अनेकों मुनि शान्त होकर तपस्या कर रहे थे. राजा ने जाकर ऋषि को प्रणाम करके सारी बत उन्हें बताई राजा की बात सुनकर मुनि ने आंखे बंद कर ली और कुछ देर बाद मुनि बोले कि आपके पिता ने अपने पिछले जन्म में एक दुष्कर्म किया था. उसी पाप कर्म के फल से तुम्हारा पिता नर्क में गए है.

यह सुनकर राजा ने अपने पिता के उद्वार की प्रार्थना ऋषि से की. मुनि राजा की विनती पर बोले की मार्गशीर्ष मसके शुक्ल पक्ष में जो एकादशी होती है. उस एकादशि का आप उपवास करें. उस एकादशी के पुन्य के प्रभाव से ही आपके पिता को मुक्ति मिलेगी. मुनि के वचनों को सुनकर उसने अपने परिवार सहित मोक्षदा एकादशी का उपवास किया. उस उपवास के पुण्य को राजा ने अपने पिता को दे दिया. उस पुन्य के प्रभाव से राजा के पिता को मुक्ति मिल गई और वह स्वर्ग में जाते हुए अपने पुत्र से बोले, हे पुत्र तुम्हारा कल्याण हों, यह कहकर वे स्वर्ग चले गए.

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दत्तात्रेय जयंती 2025 | Dattatreya Jayanti 2025 | Dattatreya Jayanti | Lord Dattatreya

मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को दत्तात्रेय जयंती के रूप में भी मनाई जाती है. इस वर्ष 04 दिसंबर 2025 को मनाई जाएगी. मान्यता अनुसार इस दिन भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ था. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान दत्तात्रेय को ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का स्वरूप माना जाता है. दत्तात्रेय में ईश्वर एवं गुरु दोनों रूप समाहित हैं जिस कारण इन्हें श्री गुरुदेवदत्त भी कहा जाता है.

मान्यता अनुसार दत्तात्रेय का जन्म मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को प्रदोषकाल में हुआ था. श्रीमद्भगावत ग्रंथों के अनुसार दत्तात्रेय जी ने चौबीस गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी. भगवान दत्त के नाम पर दत्त संप्रदाय का उदय हुआ  दक्षिण भारत में इनके अनेक प्रसिद्ध मंदिर भी हैं. मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को भगवान दत्तात्रेय के निमित्त व्रत करने एवं उनके दर्शन-पूजन करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

दत्तात्रेय स्वरूप | Dattatreya Appearance

दत्तात्रेय जयन्ती प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष माह की पूर्णिमा को मनाई जाती है. दत्तात्रेय के संबंध में प्रचलित है कि इनके तीन सिर हैं और छ: भुजाएँ हैं. इनके भीतर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों का ही संयुक्त रुप से अंश मौजूद है. इस दिन दत्तात्रेय जी के बालरुप की पूजा की जाती है. धर्म ग्रंथों के अनुसार एक बार तीनों देवियों पार्वती, लक्ष्मी तथा सावित्री जी को अपने पतिव्रत धर्म पर बहुत घमण्ड होता है अत: नारद जी को जब इनके घमण्ड के बारे में पता चला तो वह इनका घमण्ड चूर करने के लिए बारी-बारी से तीनों देवियों की परीक्षा लेते हैं जिसके परिणाम स्वरूप दत्तात्रेय का प्रादुर्भाव होता है.

दत्तात्रेय जयंती कथा | Dattatreya Jayanti Katha

नारद जी देवियों का गर्व चूर करने के लिए बारी-बारी से तीनों देवियों के पास जाते हैं और देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म का गुणगान करते हैं. लगे. देवी ईर्ष्या से भर उठी और नारद जी के जाने के पश्चात भगवान शंकर से अनुसूया का सतीत्व भंग करने की जिद करने लगी. सर्वप्रथम नारद जी पार्वती जी के पास पहुंचे और अत्रि ऋषि की पत्नी देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म का गुणगान करने लगे.

देवीयों को सती अनुसूया की प्रशंसा सुनना कतई भी रास नहीं आया. घमण्ड के कारण वह जलने-भुनने लगी. नारद जी के चले जाने के बाद वह देवी अनुसूया के पतिव्रत धर्म को भंग करने की बात करने लगी. ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों को अपनी पत्नियो के सामने हार माननी पडी़ और वह तीनों ही देवी अनुसूया की कुटिया के सामने एक साथ भिखारी के वेश में जाकर खडे़ हो गए. जब देवी अनुसूया इन्हें भिक्षा देने लगी तब इन्होंने भिक्षा लेने से मना कर दिया और भोजन करने की इच्छा प्रकट की.

देवी अनुसूया ने अतिथि सत्कार को अपना धर्म मानते हुए उनकी बात मान ली और उनके लिए प्रेम भाव से भोजन की थाली परोस लाई. लेकिन तीनों देवों ने भोजन करने से इन्कार करते हुए कहा कि जब तक आप नग्न होकर भोजन नहीं परोसेगी तब तक हम भोजन नहीं करेगें. देवी अनुसूया यह सुनते ही पहले तो स्तब्ध रह गई और गुस्से से भर उठी. लेकिन अपने पतिव्रत धर्म के बल पर उन्होंने तीनो की मंशा जान ली.

उसके बाद देवी ने ऋषि अत्रि के चरणों का जल तीनों देवों पर छिड़क दिया. जल छिड़कते ही तीनों ने बालरुप धारण कर लिया. बालरुप में तीनों को भरपेट भोजन कराया. देवी अनुसूया उन्हें पालने में लिटाकर अपने प्रेम तथा वात्सल्य से उन्हें पालने लगी. धीरे-धीरे दिन बीतने लगे. जब काफी दिन बीतने पर भी ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश घर नही लौटे तब तीनों देवियों को अपने पतियों की चिन्ता सताने लगी.

देवियों को अपनी भूल पर पछतावा होने लगा. वह तीनों ही माता अनुसूया से क्षमा मांगने लगी. तीनों ने उनके पतिव्रत धर्म के समक्ष अपना सिर झुकाया. माता अनुसूया ने कहा कि इन तीनों ने मेरा दूध पीया है, इसलिए इन्हें बालरुप में ही रहना ही होगा. यह सुनकर तीनों देवों ने अपने – अपने अंश को मिलाकर एक नया अंश पैदा किया. इसका नाम दत्तात्रेय रखा गया. इनके तीन सिर तथा छ: हाथ बने. तीनों देवों को एकसाथ बालरुप में दत्तात्रेय के अंश में पाने के बाद माता अनुसूया ने अपने पति अत्रि ऋषि के चरणों का जल तीनों देवो पर छिड़का और उन्हें पूर्ववत रुप प्रदान कर दिया.

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मार्गशीर्ष अमावस 2025 | Margashirsha Amavasya | Margashirsha Amavasya 2025

मार्गशीर्ष का महीना श्रद्धा एवं भक्ति से पूर्ण होता है. मार्गशीर्ष अमावस इस वर्ष 19 नवंबर 2025 को रहेगी. इस माह में श्रीकृष्ण भक्ति का विशेष महत्व होता है और पितरों की पूजा भी कि जाती है इस दिन पितर पूजा द्वारा पितरों को शांति मिलती है और पितर दोष का निवारण भी होता है. मार्गशीर्ष अमावस्या तिथि प्रत्येक धर्म कार्य के लिए अक्षय फल देने वाली बतायी गयी है. पर पितरों की शान्ति के लिये अमावस्या व्रत पूजन का विशेष महत्व है. जो लोग अपने पितरों की मोक्ष प्राप्ति, सदगति के लिये कुछ करना चाहते है उन्हें इस माह की अमावस्या को उपवास रख, पूजन कार्य करना चाहिए.

शास्त्रों के अनुसार देवों से पहले पितरों को प्रसन्न करना चाहिए. जिन व्यक्तियों की कुण्डली में पितृ दोष हो, संतान हीन योग बन रहा हो या फिर नवम भाव में राहू नीच के होकर स्थित हो, उन व्यक्तियों को यह उपवास अवश्य रखना चाहिए. इस उपवास को करने से मनोवांछित उद्देश्य़ की प्राप्ति होती है. विष्णु पुराण के अनुसार श्रद्धा भाव से अमावस्या का उपवास रखने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, पशु-पक्षी और समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होकर प्रसन्न होते हैं.

गीता में स्वयं भगवान ने कहा है कि महीनों मे ‘मैं मार्गशीर्ष माह हूँ’ तथा सत युग में देवों ने मार्ग-शीर्ष मास की प्रथम तिथि को ही वर्ष का प्रारम्भ किया था. मार्गशीर्ष अमावस के दिन पवित्र नदियों में स्नान का विशेष महत्व बताया गया है. स्नान के समय नमो नारायणाय या गायत्री मंत्र का उच्चारण करना फलदायी होता है.  मार्गशीर्ष माह में पूरे महीने प्रात:काल समय में भजन मण्डलियाँ, भजन, कीर्तन करती हुई निकलती हैं.

मार्गशीर्ष अमावस महत्व | Margashirsha Amavasya Significance

जिस प्रकार कार्तिक ,माघ, वैशाख आदि महीने गंगा स्नान के लिए अति शुभ एवं उत्तम माने गए हैं. उसी प्रकार मार्गशीर्ष माह में भी गंगा स्नान का विशेष फल प्राप्त होता है. मार्गशीर्ष माह की अमावस का आध्यात्मिक महत्व खूब रहा है. जिस दिन मार्गशिर्ष माह में अमावस तिथि हो, उस दिन स्नान दान और तर्पण का विशेष महत्व रहता है. अमावस तिथि के दिन व्रत करते हुए श्रीसत्यनारायण भगवान की पूजा और कथा की जाती है जो अमोघ फलदायी होती है. इस दिन नदियों या सरोवरों में स्नान करने तथा साम‌र्थ्य के अनुसार दान करने से सभी पाप क्षय हो जाते हैं तथा पुण्य कि प्राप्ति होती है.

अगहन माह | Agahan Maas

समस्त महिनों में मार्गशीर्ष श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है. मार्गशीर्ष माह के संदर्भ में कहा गया है कि इस माह का संबंध मृगशिरा नक्षत्र से होता है. ज्योतिष अनुसार इस माह की पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र से युक्त होती है जिस कारण से इस मास को मार्गशीर्ष मास कहा जाता है. इसके अतिरिक्त इस महीने को मगसर, अगहन या अग्रहायण माह भी कहा जाता है. मार्गशीर्ष के महीने में स्नान एवं दान का विशेष महत्व होता है. श्रीकृष्ण ने गोपियां को मार्गशीर्ष माह की महत्ता बताई थी तथा उन्होंने कहा था कि मार्गशीर्ष के महीने में यमुना स्नान से मैं सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ अत: इस माह में नदी स्नान का विशेष महत्व माना गया है.

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पौष संक्रांति 2025 | Poush Sankranti 2025 | Poush sankranti puja

पौष संक्रांति पर सूर्य  धनु राशि में प्रवेश करेंगे. पौष संक्रांति पर सूर्य  धनु राशि में प्रवेश करेंगे. पौष संक्रांति का आरंभ 16 दिसंबर 2025, को होगी.

हिन्दुओं के पवित्र पौष माह में आने वाली संक्रांति के दिन गंगा-यमुना स्नान का बहुत महत्व होता है. पौष संक्रांति पर चारों ओर वातावरण भक्तिमय होता है. श्रद्धालु व भक्त जन प्रात:काल ही नदी व तालाबों में स्नान करने पहुंच जाते हैं. श्रद्धालु स्नान करते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देते हैं.

मान्यता है कि ऐसा करने से स्वयं की शुद्धि होती है, साथ ही पुण्य का लाभ भी मिलता है. इस दिन गायत्री महामंत्र का श्रद्धा से उच्चारण किया जाना चाहिए तथा सूर्य मंत्र का जाप भी करना उत्तम होता है. इससे बुद्धि और विवेक की प्राप्ति होती है. संक्रांति का आरंभ सूर्य की परिक्रमा से किया जाता है. सूर्य जिस राशि में प्रवेश कर्ता है उसी दिन को  संक्रांति कहते हैं. संक्रांति के दिन मिष्ठा बनाकर भगवान को भोग लगाया जाता है ओर यह भोग प्रसाद रुप में परिवार के सभी सदस्यों में बांटा जाता है.

पौष संक्रांति पूजन | Poush Sankranti Pujan

पौष संक्रांति के अवसर पर भगवान सत्यनारायण जी कि कथा की जाती है, भगवान विष्णु की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंचामृत, सुपारी, पान, तिल,  मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग किया जाता है. सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, शहद, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है, इसके साथ ही साथ प्रसाद बनाया जाता है और भोग लगता है. सत्य-नारायण की कथा के बाद उनका पूजन होता है, इसके बाद देवी लक्ष्मी, महादेव और ब्रह्मा जी की आरती कि जाती है और चरणामृत लेकर प्रसाद बांटा जाता है.

 

पौष संक्रांति महत्व | Paush Sankranti Importance

पौष संक्रांति के पावन पर्व पर गंगा समेत अनेक पवित्र नदियों में स्नान किया जाता है. हरिद्वार समेत अनेक स्थानों पर लोग आस्था की डुबकी लगाते हैं और पापों से मुक्त होते हैं. पौष संक्रांति के स्नान पर पुण्य की कामना से स्नान का बहुत महत्व होता है. इस अवसर पर किए गए दान का अमोघ फल प्राप्त होता है, यह एक बहुत पवित्र अवसर माना जाता है जो सभी संकटों को दूर करके मनोकामनाओं की पूर्ति करता है.

पौष संक्रान्ति, के दिन तीर्थस्नान, जप-पाठ, दान आदि का विशेष महत्व रहता है. संक्रान्ति, पूर्णिमा और चन्द्र ग्रहण तीनों ही समय में यथा शक्ति दान कार्य करने चाहिए. जो जन तीर्थ स्थलों में नहीं जा पाएं, उन्हें अपने घर में ही स्नान, दान कार्य कर लेने चाहिए. इसके अतिरिक्त इस मास में विष्णु के सहस्त्र नामों का पाठ भी करना चाहिए संक्रांति तथा एकादशी तिथि, अमावस्या तिथि और पूर्णिमा के दिन ब्राह्माणों को भोजन तथा फल, वस्त्र, मिष्ठानादि का दक्षिणा सहित यथाशक्ति दान कर, एक समय भोजन करना चाहिए. इस प्रकार नियम पूर्वक यह धर्म कार्य करने से विशेष पुण्य फलों की प्राप्ति होती है.

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उत्पन्ना एकादशी 2025 | Utpanna Ekadashi 2025 | Utpanna Ekadasi Vrat

मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष के दिन उत्पन्ना एकादशी का व्रत किया जाता है. वर्ष 2025 के दिन उत्पन्ना एकादशी व्रत 15 नवंबर का रहेगा . यह व्रत पूर्ण नियम, श्रद्धा व विश्वास के साथ रखा जाता है, इसे व्रत के प्रभावस्वरूप धर्म एवं मोक्ष फलों की प्राप्ति होती है. मान्यता है कि इस व्रत के फलस्वरुप मिलने वाले फल अश्वमेघ यज्ञ, कठिन तपस्या, तीर्थों में स्नान-दान आदि से मिलने वाले फलों से भी अधिक होते है.

यह उपवास, उपवासक का मन निर्मल करता है, शरीर को स्वस्थ करता है, हृदय शुद्ध करता है तथा भक्त को सदमार्ग की ओर प्रेरित करता है. व्रत का पुण्य जीव का उद्धार करता है. एकादशी के व्रतों में उत्पन्ना एकादशी व्रत को मुख्य स्थान प्राप्त है. इस दिन भगवान श्री विष्णु जी की पूजा करने का विधान है. इस दिन ब्रह्रा मुहूर्त समय में भगवान का पुष्प, धूप, दीप, अक्षत से पूजन करना चाहिए. इस व्रत में केवल फलों का ही भोग लगाया जाता है.

उपवास में तामसिक वस्तुओं का सेवन करना निषेध माना जाता है. वस्तुओं में मांस, मदिरा, प्याज व मसूर दाल है. ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए व्रत का संकल्प करना चाहिए. प्रात:काल समस्त दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर स्नान करने के पश्चात सूर्य देव को जलअर्पण करके भगवान विष्णु जी का ध्यान करना चाहिए. इसके पश्चात धूप, दीप, नैवेद्ध से भगवान का पूजन करना चाहिए.

रात्री समय दीपदान करना चाहिए यह सत्कर्म भक्ति पूर्वक करने चाहिए. उस रात को नींद का त्याग करना चाहिए और रात्रि में भजन सत्संग आदि शुभ कर्म करने चाहिए. उस दिन श्रद्वापूर्वक ब्राह्माणों को दक्षिणा देनी चाहिए और प्रभु से अपनी गलतियों की क्षमा मांगनी चाहिए. और अगर संभव हों, तो इस मास के दोनों पक्षों की एकादशी के व्रतों को करना चाहिए.

उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा | Utpanna Ekadasi Vrat Katha

सतयुग में एक महा भयंकर दैत्य मुर हुआ करता था. दैत्य  मुर ने इन्द्र आदि देवताओं पर विजय प्राप्त कर उन्हें, उनके स्थान से भगा दिया. तब इन्द्र तथा अन्य देवता क्षीर सागर भगवान श्री विष्णु के पास जाते हैं. देवताओं सहित सभी ने श्री विष्णु जी से दैत्य के अत्याचारों से मुक्त होने के लिये विनती की. इन्द्र देव के वचन सुनकर भगवान श्री विष्णु बोले -देवताओं मै तुम्हारे शत्रुओं का शीघ्र ही संकार करूंगा.

जब दैत्यों ने भगवान श्री विष्णु जी को युद्ध भूमि में देखा तो उन पर अस्त्रों-शस्त्रों का प्रहार करने लगे. भगवान श्री विष्णु मुर को मारने के लिये जिन-जिन शास्त्रों का प्रयोग करते वे सभी उसके तेज से नष्ट होकर उस पर पुष्पों के समान गिरने लगे़ भगवान श्री विष्णु उस दैत्य के साथ सहस्त्र वर्षों तक युद्ध करते रहे़ परन्तु उस दैत्य को न जीत सके. अंत में विष्णु जी शान्त होकर विश्राम करने की इच्छा से बद्रियाकाश्रम में एक लम्बी गुफा में वे शयन करने के लिये चले गये.

दैत्य भी उस गुफा में चला गया, कि आज मैं श्री विष्णु को मार कर अपने सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लूंगा. उस समय गुफा में एक अत्यन्त सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई़ और दैत्य के सामने आकर युद्ध करने लगी. दोनों में देर तक युद्ध हुआ. उस कन्या ने उसको धक्का मारकर मूर्छित कर दिया और उठने पर उस दैत्य का सिर काट दिया और वह दैत्य मृत्यु को प्राप्त हुआ.

उसी समय श्री विष्णु जी की निद्रा टूटी तो उस दैत्य को किसने मारा वे ऎसा विचार करने लगे. इस पर उक्त कन्या ने उन्हें कहा कि दैत्य आपको मारने के लिये तैयार था. तब मैने आपके शरीर से उत्पन्न होकर इसका वध किया है. भगवान श्री विष्णु ने उस कन्या का नाम एकादशी रखा क्योकि वह एकादशी के दिन श्री विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुई थी इसलिए इस दिन को उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है.

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भैरवाष्टमी पूजा 2025 | Bhairav Ashtami Puja | Kaal Bhairav Ashtami

इस वर्ष 12 नवंबर, 2025 के दिन भैरवाष्टमी मनाई जाएगी. काल भैरव अष्टमी तंत्र साधना के लिए अति उत्तम मानी जाती है. कहते हैं कि भगवान का ही एक रुप है भैरव साधना भक्त के सभी संकटों को दूर करने वाली होती है. यह अत्यंत कठिन साधनाओं में से एक होती है जिसमें मन की सात्विकता और एकाग्रता का पूरा ख्याल रखना होता है. पौराणिक मान्यताओं के आधार स्वरूप मार्गशीर्ष कृष्ष्ण पक्ष अष्टमी के दिन भगवान शिव, भैरव रूप में प्रकट हुए थे अत: इसी उपलक्ष्य में इस तिथि को व्रत व पूजा का विशेष विधान है.

भैरवाष्टमी या कालाष्टमी के दिन पूजा उपासना द्वारा सभी शत्रुओं और पापी शक्तियों का नाश होता है और सभी प्रकार के पाप, ताप एवं कष्ट दूर हो जाते हैं. भैरवाष्टमी के दिन व्रत एवं षोड्षोपचार पूजन करना अत्यंत शुभ एवं फलदायक माना जाता है. इस दिन श्री कालभैरव जी का दर्शन-पूजन शुभ फल देने वाला होता है.

भैरव जी की पूजा उपासना मनोवांछित फल देने वाली होती है. यह दिन साधक भैरव जी की पूजा अर्चना करके तंत्र-मंत्र की विद्याओं को पाने में समर्थ होता है. यही सृष्टि की रचना, पालन और संहारक हैं. इनका आश्रय प्राप्त करके भक्त निर्भय हो जाता है तथा सभी कष्टों से मुक्त रहता है.

भैरवाष्टमी पूजन | Bhairav Ashtami Pujan

भगवान शिव के इस रुप की उपासना षोड्षोपचार पूजन सहित करनी चाहिए. रात्री समय जागरण करना चाहिए व इनके मंत्रों का जाप करते रहना चाहिए. भजन कीर्तन करते हुए भैरव कथा व आरती की जाती है. इनकी प्रसन्नता हेतु इस दिन काले कुत्ते को भोजन कराना शुभ माना जाता है. मान्यता अनुसार इस दिन भैरव जी की पूजा व व्रत करने से समस्त विघ्न समाप्त हो जाते हैं, भूत, पिशाच एवं काल भी दूर रहता है.

भैरव उपासना क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त करती है. भैरव देव जी के राजस, तामस एवं सात्विक तीनों प्रकार के साधना तंत्र प्राप्त होते हैं. भैरव साधना स्तंभन, वशीकरण, उच्चाटन और सम्मोहन जैसी तांत्रिक क्रियाओं के दुष्प्रभाव को नष्ट करने के लिए कि जाती है. इनकी साधना करने से सभी प्रकार की तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव नष्ट हो जाते हैं

भैरव साधना महत्व | Importance of Bhairav Sadhana

इन्हीं से भय का नाश होता है और इन्हीं में त्रिशक्ति समाहित हैं. हिंदू देवताओं में भैरव जी का बहुत ही महत्व है यह दिशाओं के रकक्षक और काशी के संरक्षक कहे जाते हैं. कहते हैं कि भगवान शिव से ही भैरव जी की उत्पत्ति हुई. यह कई रुपों में विराजमान हैं बटुक भैरव और काल भैरव यही हैं. इन्हें रुद्र, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहारक भी कहा जाता है. भैरव को भैरवनाथ भी कहा जाता है और नाथ सम्प्रदाय में इनकी पूजा का विशेष महत्व रहा है.

भैरव आराधना से शत्रु से मुक्ति, संकट, कोर्ट-कचहरी के मुकदमों में विजय प्राप्त होती है, व्यक्ति में साहस का संचार होता है. इनकी आराधना से ही शनि का प्रकोप शांत होता है, रविवार और मंगलवार के दिन इनकी पूजा बहुत फलदायी है. भैरव साधना और आराधना से पूर्व अनैतिक कृत्य आदि से दूर रहना चाहिए पवित्र होकर ही सात्विक आराधना की जाती है तभी फलदायक होती है. भैरव तंत्र में भैरव पद या भैरवी पद प्राप्त करने के लिए भगवान शिव ने देवी के समक्ष अनेक विधियों का उल्लेख किया जिनके माध्यम से उक्त अवस्था को प्राप्त हुआ जा सकता है.

भैरव जी शिव और दुर्गा के भक्त हैं व इनका चरित्र बहुत ही सौम्य, सात्विक और साहसिक माना गया है न की डर उत्पन्न करने वाला इनका कार्य है सुरक्षा करना और कमजोरों को साहस देना व समाज को सही मार्ग देना. काशी में स्थित भैरव मंदिर सर्वश्रेष्ठ स्थान पाता है. इसके अलावा शक्तिपीठों के पास स्थित भैरव मंदिरों का महत्व माना गया है माना जाता है कि इन्हें स्वयं भगवान शिव ने स्थापित किया था.

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