आषाढ़ माह स्कंद षष्ठी 2025

इस वर्ष आषाढ़, शुक्ल षष्ठी को 30 जून, 2025,  सोमवार के दिन स्कंद षष्ठी का त्यौहार मनाया जाएगा. स्कंद षष्ठी के दिन भगवान स्कंद की पूजा की जाती है. भगवान स्कंद सभी प्रकार के कष्टों को दूर करने वाले होते हैं.

स्कन्द षष्ठी पूजा मुहूर्त समय

  • स्कंद षष्ठी प्रारम्भ – 30 जून को 09:24 को
  • स्कंद षष्ठी समाप्त – 01 जुलाई 10:20 को

    स्कंद षष्ठी तिथि को “कन्द षष्ठी” के नाम से भी पुकारा जाता है. भगवान कार्तिकेय का संबंध इस तिथि के साथ बहुत अधिक जुड़ा है. स्कंद भगवान के जन्म का समय षष्ठी तिथि से जोड़ा गया है. संपूर्ण भारत में ही स्कंद पूजा का बहुत महत्व रहा है पर दक्षिण भारत में स्कंद षष्ठी का पर्व और भी अधिक गहराई लिए होता है. मान्यता एवं कथाओं अनुसार भगवान का संबंध दक्षिण से बहुत गहरा रहा है, जिसके पिछे एक कथा अत्यंत ही प्रचलित रही है.

    स्कंद षष्ठी महात्म्य

    आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन स्कंद भगवान का पूजन व्रत इत्यादि रखने से त्रिदेवों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. इस व्रत के प्रभाव से संतान का सुख प्राप्त होता है. संतान को कोई कष्ट है तो इस दिन व्रत रखने और स्कंद भगवान का पूजन करने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं. स्कंद भगवान के पूजन के साथ ही भगवान शिव और माता पार्वती का पूजान भी किया जाना चाहिए.

    स्कंद षष्ठी पूजा द्वारा सफलता, सुख-समृद्धि प्राप्त होती है. हर दु:ख का निवारण हो जाता है, दरिद्रता मिट जाती है. इस व्रत को करने से क्रोध, लोभ, अहंकार, काम जैसी नकारात्मक चीजें जीवन से समाप्त होती हैं.

    भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र स्कंद को गणेश जी का बड़ा भाई माना गया है. जिस प्रकार चतुर्थी तिथि इनके भाई गणेश से संबंधित है उसी प्रकार षष्ठी स्कंद से जुड़ी है. इन दोनों की पूजा में 1 दिन का अंतर आता है जिसमें पंचमी तिथि आती है.

    स्कंद के लिए महीने की षष्ठी तिथि के लिए व्रत करने का भी विधान बताया गया है. स्कंद भगवान को कुमार भी कहा जाता है क्योंकि इनका यही स्वरुप सदैव बना रहता है. संपूर्ण भारत में ये त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. स्कंद भगवान का पूजन दिशाओं की शुभता है. वास्तु दोष भी समाप्त होते हैं. नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है.

    स्कंद भगवान कथा

    स्कंद षष्ठी के पर्व पर भगवान स्कंद की जन्म कथा को पढ़ा और सुना जाता है. इसके साथ ही भगवान की अन्य कथाओं को भी इस दिन पर सुना जाता है. प्राचीन ग्रंथों के अनुसार एक बार ऋषि नारद मुनि एक फल लेकर कैलाश गए दोनों गणेश और स्कंद मे फल को लेकर बहस हुई जिस कारण प्रतियोगिताा आरंभ होती है. कि जो पृथ्वी के तीन चक्कर सबसे पहले लगा लेगा उसे ही फल प्राप्त होगा. ऎसे में स्कंद अपने वाहन मोर पर बैठ कर यात्रा शुरू करते हैं वहीं दूसरी ओर गणेश जी ने अपने अपने माता-पिता देवी पार्वती और शिव के के चक्कर लगाकर फल को प्राप्त कर लेते हैं. जब स्कंद आते हैं तो उन्हें इस बात का पता चलता है कि ये सही निर्णय नहीं था. क्रोधित होकर वह उस स्थान से नाराज होकर दक्षिण की ओर चले जाते हैं.

    इसी कथा का एक दूसरा रुप इस प्रकार प्राप्त होता है की गणेश और स्कंद में से कौन श्रेष्ठ होगा और किसे भगवान शिव व माता पार्वती का सामीप्य प्राप्त होगा तो इसी प्रकार प्रतियोगिता आरंभ होती है और पृथ्वी के चक्कर लगाने के लिए स्कंद निकल पड़्ते हैं वहीं गणेश अपने वाहन मूषक के कारण इस प्रतियोगिता को जीत नहीं सकते थे क्योंकि मोर की उडा़न उनके मूषक की चाल से कई अधिक तीव्र होती है. ऎसे में वह अपनी बुद्धि का उपयोग करके भगवान शिव और पार्वती के ही चारों ओर चक्कर लगा लेते हैं. ऎसे में गणेश इस प्रतियोगिता में जीत जाते हैं. स्कंद इस बात को नही मानते तब गणेश कहते हैं की उनकी पृ्थ्वी एवं सृष्टि तो उनके माता-पिता ही हैं ऎसे में यदि उनके चक्कर लगा लिया जाए तो संपुर्ण पृथ्वी का चक्कर स्वयं ही पूर्ण हो जाता है. इस पर स्कंद असंतुष्ट एवं क्रोधित हो कर वहां से चले जाते हैं. इसी मान्यता के आधार पर कहा जाता है की दक्षिण भारत में स्कंद देव का पूजन बहुत ही बड़े स्तर पर होता है.

    स्कंद देव और तारकासुर संग्राम

    भगवान स्कंद का जन्म एक विशेष घटना को पूर्ण करने हेतु होता है. तारकासुर, एक अत्यंत ही शक्तिशालि दैत्य था. उसने देवों का राज्य प्राप्त करने उन पर विजय प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की और अपनी इस तपस्या के बल पर उसने ब्रह्मा जी से आशीर्वाद प्राप्त किया की वह किसी अन्य के हाथों न मारा जाए केवल शिव पुत्र ही उसका वध कर पाए.

    तारकासुर की शक्ति बहुत बढ़ जाती है और वह देवों को उन्के स्थान से निष्कासित कर देता है और उन पर अत्याचार करने लगता है. देव अपनी इस दशा से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मा जी की शरण जाते हैं पर ब्रह्मा उन्हें बताते हैं कि उसकी मृत्यु केवल भगवान शिव के पुत्र द्वारा ही संभव है इसलिए तुम सभी देवों को भगवान शिव से प्रार्थना करनी चाहिए. अत: में देवों के प्रयास द्वारा भगवन शिव का विवाह देवी पार्वती से होता है और स्कंद की उत्पत्ति होती है.

    स्कंद को देवताओं का सेनापति बनाया जाता है और एक बहुत ही बड़ा युद्ध देवताओं और असुरों के मध्य आरंभ होता है जिसमें स्कंद देव

    तारकासुर का वध करके देवताओं को उनका स्थान पुन: प्रदान करवाते हैं.

    स्कंद देव क्यों कहलाते हैं कुमार

    स्कंद भगवान को बाल रुप एवं युवा रूप में पुजा जाता है. कार्तिकेय को देवताओ से सदेव युवा रहने का वरदान प्राप्त हुआ था इसलिए वह कुमार भी कहलाते हैं. स्वामी कार्तिकेय सेनाधिपति भी हैं इसलिए किसी भी युद्ध एवं लड़ाई में विजय प्राप्ति के लिए भी इनकी पूजा करना शुभदायक होता है. सैन्यशक्ति की प्रतिष्ठा, विजय, व्यवस्था, अनुशासन इन्हीं से प्राप्त होते हैं.

    स्कंद षष्ठी पूजा और व्रत के नियम

    स्कंद षष्ठी पर स्कंद भगवान समेत उनके परिवार का भी पूजन होता है. भगवान शिव, पार्वती, गणेश समेत सभी को पूजा में स्थान देना चाहिए. मंदिर में स्कंद भगवान की स्थापना करनी चाहिए. स्कंद भगवान के समक्ष अखंड दीपक भी जलाए जाने चाहिए. स्कंद भगवान को स्नान करवाया जाता है. इस दिन स्कंद भगवान को केसर, दूध, मौसमी फल, मेवा इत्यादि अर्पित करना चाहिए. पूजा कथा के पश्चात प्रसाद का वितरण करना चाहिए.

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आषाढ़ गुप्त नवरात्रि 2025 – इसलिए मनाए जाते हैं गुप्त नवरात्रि

नवरात्रि का पर्व शक्ति की उपासना का पर्व रहा है. सृष्टि में मौजूद प्रकृति ही वह शक्ति है जो जीवन के संचालन में अपना योग्दान देती है. इसी प्रकृति का सानिध्य पाकर पुरुष का जीवन भी नए चरण एवं स्वरुप को पाता है और इसी क्रम में आने वाले नवरात्रि के 9 दिनों का अपना एक विशेष महत्व होता है. आषाढ़ मास में आने वाला यह गुप्त नवरात्रि पर्व सुखों और मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु एक वरदान होता है.

आषाढ़ गुप्त नवरात्रि शुभ मुहूर्त

इस वर्ष 26 जून 2025 को बृहस्पतिवार के दिन आषाढ़ गुप्त नवरात्रि का आरंभ होगा. प्रात:काल समय नवरात्रि का पूजन आरंभ होगा. इन गुप्त नवरात्रि के दिन दुर्गासप्तशती का पाठ करना चाहिए और दुर्गा के समस्त रुपों का स्मरण करना चाहिए. नवरात्रि के दिन प्रात:काल समय उठ कर माता का स्मरण करना चाहिए और माता के समक्ष घी का दीपक भी जलाना चाहिए एवं माता का पूजन आरंभ करना चाहिए.

नवरात्रि कितने होते हैं

नवरात्रि का त्यौहार माता दुर्गा को समर्पित है. इस समय के दौरान शक्ति के विभिन्न स्वरुपों का पूजन होता है. इस शक्ति उपासना में अनेकों नियमों का पालन होता है. इस में जप-तप नियमों का पालन करते हैं. नवरात्रि वर्ष में चार बार आते हैं, जिसमें से दो इस प्रकार से हैं जो बहुत विस्तार से मनाए जाते हैं. जिसे चैत्र मास के दौरान मनाया जाता है. दूसरा नवरात्रा शारदीय नवरात्रि के रुप में मनाया जाता है. यह दोनों बहुत ही व्यापक स्तर लोगों द्वारा मनाया जाते हैं.

दूसरे 2 नवरात्रि होते हैं गुप्त रुप से मनाया जाता है. सामान्य जन से अलग सिद्धि हेतु तंत्र हेतु मनाए जाते हैं. यह गुप्त नवरात्रि माघ के माह में और आषाढ़ मास में मनाया जाता है. ऎसे में ये दो समय में मनाए जाते हैं जिन्हें गुप्त नवरात्रि के रुप में मनाए जाते हैं. इन गुप्त नवरात्रि में सिद्धियों की प्राप्ति होती है.

शक्ति पूजा कथा

नवरात्रि समय शक्ति पूजन के बारे में अनेकों कथाएं प्राप्त होती हैं. इन कथाओं का आधार वेद-पुराण इत्यादि हैं. इस में एक कथा रामायण में भी प्राप्त होती है. जिसमें श्री राम द्वारा शक्ति का पूजन करना भी है. राम-रावण युद्ध में एक समय ऎसा आया जब श्री राम की सेना को हार का सामना देखना पड़ा तब उस स्थिति में श्री राम ने देवी का पूजन करके शक्ति को अपने लिए प्राप्त करने की पूजा आरंभ की.

राम ने जब शक्ति का आहवान किया तब उस पूजन में एक सौ आठ कमलों को देवी को अर्पित करते जाना था. ऎसे में राम अपनी पूजा में इन कमलों को एक-एक करके रखते जाते हैं. अंत समय पर जब एक कमल को देवी के समक्ष अर्पित करना होता है तो उस समय वह कमल नहीं होता है. इस पर श्री राम निराश हो उठते हैं परंतु उन्हें तभी इस बात का भी बोध होता है की उनकी माता उन्हें कमल नयन के नाम से पुकारा करती थीं. तो ऎसे में वह संकल्प को पूरा करने हेतु अपनी एक आंख को माता को अर्पित करने का विचार करते हैं.

वह अपने नेत्र को जैसे ही निकालने के लिए आगे बढ़ते हैं, उसी समय देवी प्रकट होकर दर्शन देती हैं और उनकी साधना के संकल्प से प्रसन्न होकर उन्हें ऎसा करने को मना करती हैं. श्री राम को विजय होने का आशीर्वाद प्रदान करती हैं. देवी के शक्ति पूजन द्वारा श्री राम जी को लंका विजय प्राप्त होती है और रावण का वध संभव हो पाता है.

महिषासुर मर्दिनी

वहीं एक अन्य कथा अनुसार महिषासुर नामक असुर का वध करने हेतु देवों ने देवी दुर्गा की रचना की. सभी देवों ने देवी के आगमन हेतु उन्हें अपनी-अपनी शक्ति प्रदान की एव्म इस प्रकार शक्ति का निर्माण हुआ, तब शक्ति के आगमन से महिषासुर संग्राम आरंभ होता है और महिषासुर का अंत संभव हो पाया. महिषासुर को मारने के उपरांत देवी को महिषासुर मर्दिनी के नाम से भी पुकारा गया.

गुप्त नवरात्रि में किया जाता है महाविद्याओं का पूजन

गुप्त नवरात्रि एक चरणबध प्रक्रिया होती है, जिसमें शक्ति का हर रंग प्रकट होता है. इस शक्ति पूजन में देवी काली, देवी तारा, देवी ललिता, देवी माँ भुवनेश्वरी, देवी त्रिपुर भैरवी, देवी छिन्नमस्तिका, देवी माँ धूमावती, देवी बगलामुखी, देवी मातंगी, देवी कमला. ये समस्त शक्तियां तंत्र साधना में प्रमुख रुप से पूजी जाती हैं.

गुप्त नवरात्र में दस महाविद्याओं के पूजन को प्रमुखता दी जाती है. यह शक्ति के दशरूप हैं. हर एक रुप अपने आप में संपूर्णता लिए होता है. जो सृष्टि के संचालन और उसमें मौजूद छुपे रहस्यों को समाए होता है. महाविद्या समस्त जीवों की पालन है. इनके द्वारा संकटों का नाश होता है. इन दस महाविद्याओं को तंत्र साधना में बहुत सामर्थ्यशील माना गया है.

आषाढ़ गुप्त नवरात्रि पर करें कैसे करें पूजा

देवी भागवत में इन गुप्त नवरात्रि के विषय में भी बताया गया है. इस समय पर तांत्रिक क्रियाएं एवं शक्ति साधना से संबंधित होते हैं इस समय के दौरान साधक को कठोर नियमों और आचरण का पालन किया जाता है. इस समय के शुद्धता एवं सात्विकता का पर बहुत ध्यान देना होता है. इस समय हुई कोई छोती सी गलती भी सारी साधना को विफल कर सकती है. ऎसे में जरुरी है की इस पूजा में सुचिता का पूरी तरह से ख्याल रखा जाए.

गुप्त नवरात्रि पूजा में सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए साधक को देह को शुद्ध करना होता है. मंत्रों के जाप के दौरान यह शुद्धिकरण संपन्न होता है. जिस स्थान पर पूजा आरंभ की जाती है उसी स्थान पर नियमित रुप से साधना करनी चाहिए. स्थान को बार-बार बदलना नहीं चाहिए. एक स्थान पर आसन पर बैठकर पूजा करनी चाहिये और जो आसन खुद के लिए उपयोग में लाएं उसे किसी ओर को उपयोग नहीं करना चाहिए. प्रत्येक दिन की सिद्धि में उसी स्वरुप को पूरी एकाग्रता और तन्मयता के साथ करना चाहिए.

आषाढ़ गुप्त नवरात्रि पर करें इस मंत्र का जाप

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी।

भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।

बगला सिद्ध विद्या च मातंगी कमलात्मिका

एता दशमहाविद्याः सिद्धविद्या प्रकीर्तिताः॥

देवी के प्रत्येक रुप का इस मंत्र में वर्णन किया गया है. यह मंत्र देवी को प्रसन्न करने का एक अत्यंत ही सहज और सरल माध्यम बनता है.

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श्रावण अमावस्या 2025 – सावन हरियाली अमावस्या इसलिए होती है खास

इस वर्ष 24 जुलाई 2025 को श्रावण अमावस्या मनाई जाएगी . सावन मास में मनाई जाने वाली अमावस्या “हरियाली अमावस्या” के नाम से भी पुकारी जाती है. इसके अलावा इसे चितलगी अमावस्‍या, चुक्कला अमावस्‍या, गटारी अमावस्‍या इत्यदि नामों से भी पुकारा जाता है.

सावन मास का समय एक ऎसा मौसम का बदलाव दिखाता है जिसमें प्रकृति की एक अलग ही छठा दिखाई देती है. इसी दौरान पर बरसात की भी अधिकता बहुत रहती है. ऎसे में इस समय के दौरान जो भी पर्व और व्रत इत्यादि आते हैं उनका इस समय के अनुरुप ही नाम और प्रभाव भी दिखाई देता है.

श्रावण अमावस्या तिथि शुभ मुहूर्त

  • अमावस्या तिथि – 24 जुलाई 2025, 
  • अमावस्या तिथि आरंभ – 23 जुलाई 2025 को 26:28 से
  • अमावस्या तिथि समाप्त – 24 जुलाई 2025 को 00:40 तक

श्रावण अमावस्या पर होती है प्रकृति पूजा

हरियाली अमावस्या त्यौहार को हरियाली के आगमन के रूप में मनाते हैं. इस दिन कृषक आने वाले वर्ष में कृषि कैसी रहेगी इस बात की आशंका जाते हैं. इस बात का पता उन्हें इस दिन से भी हो जाता है. पर यह एक अत्यंत ही पारंपरिक स्वरुप है जो लोक कहावतों के आधार पर चलता है. इस अमावस्या के दौरान प्रकृति में होने वाले शकुनों को भी देखा जाता है. इस अवसर पर पेड़ पौधों को लगाया जाता है.

वर्षो पुरानी परंपरा के अनुसार इस दिन हरियाली अमावस्या के दिन नए पौधे को लगाना भी शुभदायक होता है. हरियाली अमावस्या के दिन सभी वृक्ष पूजा करने की भी प्राचीन परंपरा चली आ रही है. इस दिन परंपरा अनुसार बड़ के वृक्ष, पीपल के वृक्ष और तुलसी के पौधे की पूजा की जाती है.

धार्मिक ग्रंथों में प्रकृति की हर वस्तु में ईश्वर का वास माना गया है, फिर चाहे नदी नदियों, पर्वतों, पेड़-पौधों में भी ईश्वर का वास बताया गया है. पीपल में त्रिदेवों का वास माना गया है, तुलसी का पूजन विष्णु का प्रतीक स्वरुप होगा. बड़ का वृक्ष भगवान शिव का स्वरुप बनता है. आंवले के वृक्ष में भगवान श्री लक्ष्मीनारायण का वास माना गया है.

सावन हरियाली अमावस्या पर मेलों का आयोजन

श्रावण हरियाली अमावस्या के अवसर देश भर में अनेक मेलों का आयोजन होता है. मुख्य रुप से धार्मिक स्थलों पर तो ये मेले विशेष रुप से लगाए जाते हैं. जिसमें सभी वर्ग के लोग शामिल होते हैं. एक-दूसरे को गुड़ इत्यादि को बांटा जाता है. इन मेल में धार्मिक पर्व का भी आयोजन होता है जैसे की हवन- अनुष्ठा, यज्ञों का आयोजन होता है. पवित्र नदियों पर स्नान की भी प्राचीन परंपरा भी धार्मिक मेलों में संपन्न होती है.

  • इस दिन अपने हल और कृषि यंत्रों का पूजन करने का रिवाज है.
  • सावन अमावस्या पर पितरों की आत्मा को शांति के लिए भी पूजा- हवन इत्यादि किया जाता है.
  • श्रावण अमावस्या के दिन पूजा पाठ करने व दान दक्षिणा देने का विशेष महत्व है.
  • पीपल तथा आंवले के वृक्ष की इस दिन पूजा की जाती है.

श्रावण अमावस्‍या का महत्‍व

अमावस्‍या या अमावस का हिन्‍दू मान्‍यताओं में धार्मिक और आध्‍यात्मिक महत्‍व सदैव ही रहा है. प्रत्येक मास की अमावस्‍या आती है, लेकिन श्रावण मास की अमावस्या भगवान शिव के प्रिय मास सावन में आती है. इस दिन विशेष रूप से पूजा-पाठ व दान-पुण्‍य किया जाता है. इस समय पर चारों ओर हरियाली होने की वजह से इसे हरियाली अमावस्‍या भी कहा जाता है. इस अमावस्‍या के दो दिन बाद हरियाली तीज आती है, जो सौभाग्य का कारक बनती है.

श्रावण अमावस्‍या की पूजन विधि

  • अमावस्‍या को पूर्वजों के लिए बेहद शुभ दिन माना जाता है. इस दिन प‍ितृ तर्पण कर अपने पूर्वजों की आत्‍मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है.
  • लोग अपने पूर्वजों के लिए पसंद का खाना बनाकर उसे ब्राह्मणों को खिलाते हैं. इस के अलाव इस भोजन को गाय, कौवा को भी खिलाया जाता है.
  • श्रावण अमावस्‍या के दिन लोग भगवान शिव की विशेष रूप से पूजा करते हैं.
  • इस अमावस्‍या के दिन शिव पूजन करने से घर में सुख, शांति और समृद्धि आती है.
  • श्रावण अमावस्‍या के दिन उपवास भी किया जाता है.
  • सुबह उठकर पवित्र नदियाों में स्‍नान कर स्‍वच्‍छ वस्‍त्र धारण करते हैं.
  • व्रत का संकल्‍प लेकर दिन पर निराहार रहते हैं.
  • संध्या समय सात्विक भोजन ग्रहण किया जाता है और उपवास खोला जाता है.
  • सच्‍चे और शुद्ध तन मन से व्रत करने पर धन-धान्य एवं वैभव की प्राप्ति होती है.
  • धर्म स्थलों एवं पवित्र नदियों में स्‍नान के पश्चात ब्राह्मणों, गरीबों और असमर्थ लोगों को यथाशक्ति दान-दक्षिणा दी जाती है.

सावन हरियाली अमावस्या उपाय

  • सावन की अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष के सामने तेल का दीपक जलाना चाहिए.
  • पीपल के वृक्षकी सात बार परिक्रमा करते हुए सूत लपेटना चाहिए.
  • पीपल के अलावा बरगद, केला, तुलसी, शमी आदि वृक्षों का पूजन करना चाहिए.
  • पीपल के पेड़ पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेवों का वास होता है. इसका पूजन करने से ग्रह शांति होती है.
  • आंवले के वृक्ष पर भगवान लक्ष्मीनारायण का वास होने से इस दिन पूजा करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है.
  • मालपुए का भोग बनाकर शिव्लिंग पर चढाने से सुख-समृद्धि प्राप्त होती है.
  • तुलसी के पास दीपक जलाने से वैवाहिक सुख की प्राप्ति होती है.
  • सावन की अमावस्या पर भगवान शिव को काले तिल चढ़ाने से दुख दूर होते हैं.
  • चीटियों को आटा और चीनी खिलाने से धन-धान्य की प्राप्ति होती है.
  • शिवलिंग पर चंदन का लेप लगाने से सौंदर्य मिलता है.
  • शिवलिंग अभिषेक से संतान सुख मिलता है.

सावन अमावस्या महत्व

सावन माह में आने वाली अमावस्या को नारद पुराण में बताया गया है की इस माह में शुरु हुई अमावस्या के दिन किया गया पूजा पाठ और वृक्ष रोपण करने से जीव की मुक्ति संभव हो पाती है. विवाह और संतान से संबंधित कष्ट दूर होते हैं. माता पार्वती का पूजन भगवान शिव के साथ संयुक्त रुप से करने से विवाह में आने वाली सभी बाधाएं दूर होती हैं. हर अमावस्या और पूर्णिमा का प्रभाव माह के अनुसार भी पड़ता है. ग्रह नक्षत्रों के हिसाब से विभिन्न राशियों के जातकों पर ही इसका प्रभाव देखने को मिलता है. ऎसे में जिन भी व्यक्तियों की कुंडली में काल सर्पदोष हो उनके लिए सावन माह की अमावस्या के दिन सर्प पूजन करना अत्यंत शुभदायक होता है.

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वरद चतुर्थी 2025 – सावन माह में ऎसे करें भगवान गणेश का पूजन

सावन माह में शुक्ल पक्ष के दौरान आने वाली चतुर्थी तिथि “वरद चतुर्थी” के नाम से मनाई जाती है. इस वर्ष 28 जुलाई 2025 को वरद चतुर्थी का व्रत संपन्न होगा. इस दिन भगवान श्री गणेश का पूजन होता है. वरद चतुर्थी का अर्थ हुआ भगवन श्री गणेश द्वारा आशीर्वाद देना. गणेश जी को अनेकों नामों से पुकारा जाता है. गणेश भगवान को विनायक, विध्नहर्ता जैसे नामों से भी पुकारा जाता है.

प्रत्येक माह की चतुर्थी तिथि भगवान गणेश से संबंधित है अत: हर माह के दौरान आने वाली चतुर्थी भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी जाती है. इस चतुर्थी को वरद विनायकी चतुर्थी के नाम से भी पुकारा जाता है. वरद चतुर्थी पर श्री गणेश का पूजन दोपहर समय पर एवं मध्याह्न समय पर करना अत्यंत ही शुभदायक होता है.

वरद चतुर्थी पूजा विधि

वरद चतुर्थी की पूजा मुख्य तौर पर दोपहर में की जाती है. इस समय पर पूजा का विशेष महत्व रहा है. वरद चतुर्थी पूजा स्थल पर भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. व्रत का संकल्प करना चाहिए. अक्षत, रोली, फूल माला, गंध, धूप आदि से गणेश जी को अर्पित करने चाहिए. गणेश जी दुर्वा अर्पित और लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए.

  • गणेश जी को दूर्वा अर्पित करते समय ऊँ गं गणपतयै नम: मंत्र का उच्चारण करना चाहिए.
  • कपूर, घी के दीपक से आरती करनी चाहिए.
  • भगवान को भोग लगाना चाहिए और उस प्रसाद को सभी में बांटना चाहिए.
  • व्रत में फलाहार का सेवन करते हुए संध्या समय गणेश जी की पुन: पूजा अर्चना करनी चाहिए. पूजा के पश्चात ब्राह्मण् को भोजन कराना चाहिए उसके बाद स्वयं भोजन ग्रहण करना चाहिए.

वरद चतुर्थी व्रत कथा

एक बार भगवान शिव और माता पार्वती जब हिमालय पर समय व्यतीत कर रहे होते हैं, तो माता पार्वती भगवान शिव से चौसर खेलने को कहती हैं. शिव भगवान माता को प्रसन्न करने हेतु चौसर खेलना आरंभ कर देते हैं. लेकिन दोनों के समक्ष हार और जीत का निर्णय हो पाना संभव नहीं था. क्योंकि उन दोनों के लिए हार जीत का फैसला कर पाने के लिए कोई तैयार नहीं होना चाहता था. ऎसे में भगवान ने एक सुझाव दिया और उन्होंने अपनी शक्ति द्वारा एक घास-फूस से बालक का निर्माण किया और उस बालक को चौसर में दोनों की हार चीज का निर्णय करने का फैसला करने का अधिकार दिया.

खेल में पाता पार्वती जीतती हैं पर बालक से पूछा गया तो वह बालक ने कहा की भगवान शिव जीते. इस प्रकार के वचन सुन माता पार्वती गुस्सा हो उठती हैं और उस पुतले रुपी बालक को सदैव कीचड़ में पड़े रहने का श्राप देती हैं. बालक के माफी मांगते हुए कहा की उसने ऎसा जानबुझ कर नही किया उसे क्षमा कर दिया जाए. बालक को रोता देखते माता पार्वती बहुत दुखी हुई और कहा की तुम्हारे श्राप की मुक्ति संभव है.

आज से एक साल बाद नाग कन्याएं चतुर्थी के दिन यहां पूजा के लिए आएंगी. उन नाग कन्याओं से तुम गणेश चतुर्थी का व्रत विधि पूछना और उस अनुरुप व्रत करने पर तुमारे कष्ट दूर हो जाएंगे. इस प्रकार एक वर्ष पश्चात वरद चतुर्थी के दिन नाग कन्याएं उस स्थान पर आती हैं और उस बालक को वरद चतुर्थी पूजा की विधि बताती है. बालक ने भी उस दिन वरद चतुर्थी का व्रत किया और उससे माता पार्वती के श्राप से मुक्ति प्राप्त होती है.

वरद चतुर्थी पर चंद्र पूजा करें लेकिन दर्शन नहीं

वरद चतुर्थी तिथि शुरू होने से लेकर खत्म होने तक चन्द्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए. मान्यता है की चतुर्थी तिथि के दिन चंद्र देव को नहीं देखना चाहिए. पौराणिक कथाओं के अनुसार चंद्रमा को भगवान श्री गणेश द्वारा श्राप दिया गया था की यदि कोई भी चतुर्थी तिथि के दिन चंद्रमा का दर्शन करेगा तो उसे कलंक लगेगा. ऎसे में इस कारण से चतुर्थी तिथि के दिन चंद्रमा के दर्शन को मना किया जाता है. कहा जाता है कि इस दोष का प्रभाव भगवान कृष्ण को भी झेलना पड़ा था. लेकिन इस में मुख्य रुप से भाद्रपद माह में जो चतुर्थी आती है उस तिथि को अधिक महत्व दिया जाता है.

भगवान कृष्ण पर स्यमन्तक नाम की मणि चोरी करने का झूठा आरोप लगा था. झूठे आरोप के कारण भगवान कृष्ण की स्थिति देख के, नारद ऋषि ने उन्हें बताया कि भगवान कृष्ण ने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्रमा को देखा था जिसकी वजह से उन्हें मिथ्या दोष का श्राप झेलना पड़ा है. नारद जी की सलाह द्वारा ही भगवान को चतुर्थी तिथि के दिन गणेश जी का पूजन करने की विधि प्राप्त होती है. तब भगवान कृष्ण ने मिथ्या दोष से मुक्ति के लिये वरद गणेश चतुर्थी के व्रत को किया और मिथ्या दोष से मुक्ति को प्राप्त होते हैं.

मिथ्या दोष निवारण मंत्र

चतुर्थी तिथि के प्रारम्भ और अन्त समय के आधार पर चन्द्र-दर्शन लगातार दो दिनों के लिये दर्शन वर्जित हो सकता है. धर्म ग्रंथ धर्मसिन्धु के नियमों के अनुसार इस चतुर्थी तिथि के दौरान चन्द्र दर्शन निषेध होता है. इसी नियम के अनुसार, चतुर्थी तिथि के चन्द्रास्त के पूर्व समाप्त होने के बाद भी, चतुर्थी तिथि में उदय हुए चन्द्रमा के दर्शन चन्द्र के अस्त होने तक इसे नहीं देखने की बात कही गयी है.

किसी कारण से चंद्र दर्शन हो जाते हैं तो इस दर्शन के कारण होने वाले मिथ्या दोष से मुक्ति पाने के लिए मंत्र का जाप भी बताया गया है जो श्री कृष्ण ने भी किया था. इस दिए गए मन्त्र का जाप करना उत्तम होता है-

“सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मारोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः॥”

इस दिन की चतुर्थी तिथि को कलंक चतुर्थी के नाम से जाना जाता है. लेकिन अन्य चतुर्थी पर इस का इतना प्रभाव नहीं पड़ता है. अगर किसी कारण से गणेश चतुर्थी के दिन चन्द्रमा के दर्शन हो जाएं तो मिथ्या दोष से बचाव के लिए उपाय भी बताए गए हैं जिसमें गणेश जी का पूजन व गणेश मंत्र जाप द्वारा इस दोष की शांति हो जाती है.

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साल 2025 में इस तारीख को पड़ रही है सोमवती अमावस्या

सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या तिथि सोमवती अमावस्या कहलाती है. इस तिथि में सोमवार का दिन और अमावस्या तिथि का संयोग होने के कारण यह दिन एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण दिन बनता है. इस समय पर उपवास और पूजा नियम को करने से नकारात्मकता दूर होती है और जीवन में सकारात्मकता आती है.

इस वर्ष सोमवती अमावस्या नहीं है

सोमवती अमावस्या में करें ये काम

  • सोमवती अमावस्या के दिन भगवान शिव का पूजन अवश्य करना चाहिए.
  • शिवलिंग पर कच्चे दूध-गंगाजल से अभिषेक करना चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के दिन उगते सूर्य को जल से अर्घ्य प्रदान करना चाहिये.
  • सोमवती अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष की पूजा करनी चाहिए.
  • पीपल के वृक्ष पर कच्चा दूध चढ़ाना चाहिए और सफेद रंग का सूत लपेटना चाहिए.
  • पीपल पर दीपक जलाना चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये और सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा भी देनी चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के दिन किसी गरीब को खाने की वस्तुएं एवं वस्त्र इत्यादि देने चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के दिन तिलों का दान करना चाहिए.
  • शुद्ध एवं सात्विक रुप से दिन का पालन करना चाहिए.
  • ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए.

सोमवती अमावस्या में क्या नहीं करें

  • सोमवती अमावस्या के दिन नमक के सेवन से बचना चाहिए.
  • इस दिन शराब का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के अंडा- मांस का सेवन नही करना चाहिए.
  • इस दिन किसी भी प्रकार के अनैतिक कार्यों को नहीं करना चाहिये.
  • किसी की निंदा, झूठ बोलना चुगली करना इत्यादि नही करना चाहिए.
  • सोमवती अमावस्या के दिन रति संबंधों से दूर रहना चाहिए.

सोमवती अमावस्या पर शिव पूजा

सोमवार का दिन भगवान शिव के पूजन का विशेष समय होता है. इस दिन अमावस्या का दिन होने पर इस दिन शिवलिंग का अभिषेक होता है और शिव पुराण का पाठ होता है. प्रात:काल उठ कर शिवलिंग पर गंगाजल से अभिषेक किया जाता है. उसके पश्चात शिवलिंग पर पंचामृत एवं अन्य भिन्न भिन्न प्रकार की वस्तुओं को भगवान शिव पर अर्पित किया जाता है. शिवलिंग पूजन में श्वेत रंग के वस्त्र एवं सफेद रंग का सूत शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है. सोमवती अमावस्या पर शिव पूजन करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है और जीवन में शुभता का आगमन होता है.

सोमवती अमावस्या पर करें पितृओं को याद

सोमवती अमावस्या के दिन एक महत्वपूर्ण परंपरा है लोगों का अपने पितरों के प्रति धन्यवाद एवं उनके प्रति सम्मान प्रकट करने का. धार्मिक कथाओं के अनुसार जब यह शरीर से प्राण निकलते हैं तब एक अलग यात्रा का आरंभ होता है. प्राण को एक अलग संसार की ओर राह दिखाई देता है. एक स्तर से दूसरे स्तर की ओर मार्गदर्शन निश्चित होता जाता है.

अपने सगे संबंधियों की मृत्यु के बाद उन उस यात्रा को सफल करने एवं उन्हें एक निश्चित मार्ग को दिखाने का कार्य हमारे द्वारा किए गए ये धार्मिक कृत्य होते हैं जिसे श्राद्ध कार्य के नाम से पुकारा जाता है. आत्माओं के प्रति कृतज्ञता पूर्वक याद करते हैं और उनके निमित्त अनेक प्रकार के धार्मिक कृत्य एवं दान इत्यादि कार्य किए जाते हैं.

इस कार्य में ब्राह्मणों को खाना खिलाया जाता है और उनसे पितृों की शांति के लिए पूजा करवाई जाती है. इसके अतिरिक्त गाय या कौवे को खाने की चीजें खिलाई जाती हैं. ऎसे में जिसको याद करके जब हम कुछ करते है तो उसका फल हमें मिलता है.

पितृओं की याद में भूखे लोगों को भोजन कराने से आशीर्वाद प्राप्त होता है. यदि किसी कारण से आप खाना अथवा पूजा पाठ जैसी चीजों को न भी कर पाएं लेकिन इस दिन यदि अपने पितृओं को श्रद्धा से याद करते उनके प्रति नमस्कार एवं प्रेम प्रकट करते हैं , गरीबों के प्रति दया भाव रखते हैं. जितना भी सामर्थ्य हो उस प्रकार जो भी शुद्ध चित मन से कार्य किया जाए उससे पितृ अवश्य प्रसन्न होते हैं.

सोमवती अमावस्या पर तर्पण का महत्व

सोमवती अमावस्या पर अपने पूर्वजों के निमित किया गया जल-तिल अथवा भोजन का अर्पण करना ही तर्पण होता है. तर्पण में अपने पूर्वजों को अर्थात पुरखों को याद किया जाता है. सोमवती अमावस्या के दिन दिवंगत आत्माओं का स्मरण करते हैं व उनकी शांति के लिए प्रार्थना एवं कामना की जाती है. तर्पण को सामान्य रुप से व्यक्ति अपने पितरों को याद करते हुए उनके लिए किए गए तर्पण कार्य को इस प्रकार भी कर सकता है – व्यक्ति अपने हाथ में अथवा किसी पात्र में तिल, अक्षत और जल लेकर पितरों को याद करते हुए तीन बार “पूर्वजों आप तृप्त हो जाएं, इन शब्दों को कहते हुए तिल, अक्षत व जल को छोड़ देना चाहिए.

सोमवती अमावस्या कथा

 

सोमवती अमावस्या कथा इस प्रकार है – प्राचीन काल में एक नगर में एक गरीब ब्रह्मण परिवार रहा करता था, उन ब्राह्मण की एक पुत्री भी थी . ब्राह्मण की पुत्री एक योग्य एवं बेहद ही संस्कारी कन्या थी. जब वह कन्या बड़ी हुई तो उसके पिता को उसके विवाह की चिंता सताने लगी. गरीब होने के कारण अपनी पुत्री के विवाह योग्य वर को प्राप्त नहीं कर पाते हैं. एक दिन ब्रह्मण के घर एक साधू महाराज आते हैं. ब्राह्मण कन्या उन साधू की बहुत सेवा भाव करती है. साधु उस कन्या के व्यवहार एवं आदर भाव से प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद देते हैं. ब्राह्मण दंपत्ति अपनी कन्या के विवाह की बात साधु के सामने रखते हैं. साधु कन्या के हाथ को देखते हैं, किंतु उसके हाथ में विवाह रेखा ही नहीं होती है ऎसे में दंपति साधु से उसके लिए उपाय पुछते हैं.

साधु उन्हें बताते हैं की एक दूर गाँव में सोना नाम की एक स्त्री अपने बेटे-बहू के साथ रहती है, वह स्त्री बहुत ही पतिव्रता एवं धर्म परायण है. अगर आपकी लड़की उस स्त्री की सेवा करे और वह स्त्री यदि लड़की को सिंदूर दान करें तो लड़की का विवाह संभव हो सकता है. ब्राह्मण दंपति साधु के कहे अनुसार कन्या को उस धोबिन स्त्री के पास सेवा के लिए भेज देते हैं . ब्राह्मण कन्या, सोना धोबिन को साधु की बात बताती है और उसे उनके पास रहने देने को कहती है. स्त्री उस लड़की को अपने यहां रख लेती है. ब्राह्मण कन्या के सेवा भाव से प्रसन्न हो वह उसे सुहागन होने का आशिर्वाद देती हैं और सिंदूर भेंट करती है. इस प्रकार ब्राह्मण कन्या का विवाह संपन्न हो पाता है.

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सूर्य ग्रहण 2025 : सूर्यग्रहण ऎसा होगा ग्रहण का आप पर प्रभाव

29 मार्च और 21 सितंबर 2025 को लगने वाला सूर्य ग्रहण कई तरह से अपना प्रभाव डालने वाला होगा. इस ग्रहण का प्रभाव दक्षिणी पूर्वी यूरोप, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका कुछ कुछ क्षेत्रों, प्रशांत और हिन्द महासागर एवं मध्य पूर्वी एशिया के कुछ क्षेत्रों में दिखाई देगा.

सूर्य ग्रहण का प्रभाव

यह सूर्य ग्रहण नक्षत्र में आरंभ होगा और राशि में होगा. ऎसे में इन नक्षत्र और राशि के जातकों पर इस ग्रहण का अधिक प्रभाव दिखाई देगा. इसलिए इन नक्षत्र और राशि के जातकों को ग्रहण समय के दौरान दान और मंत्र जाप करना चाहिये. आदित्यहृदय स्त्रोत का पाठ व सूर्य के नामों का जाप करना सभी राशि के लोगों के लिए उत्तम होगा.

सूर्य ग्रहण के दौरान क्या करें

सूर्य ग्रहण के समय कुछ खास बातों का ध्यान रखना चाहिये. क्योंकि इस समय के दौरान वातावरण प्रभावित होता है ऎसे में इसका प्रभाव सभी पर होता है. सूर्य ग्रहण के लगने से पहले ही भोजन की वस्तुओं में तुलसी अथवा दुर्वा को डाल देना चाहिये. खाने की चीजों में तुलसी अथवा दूर्वा को डाल देने से किसी भी प्रकार की खराबी भोजन में नहीं आती है.

  • सूर्य ग्रहण के दौरान महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना चाहिए.
  • सूर्य ग्रहण के समय किसी भी गुरु मंत्र अथवा अन्य मंत्रों का जाप करना अत्यंत शुभदायक होता है.
  • कालसर्प दोष की शांति अथवा राहु केतु के पाप प्रभावों से मुक्ति पाने के लिए ग्रहण समय भगवन शिव के पंचाक्षरी मंत्र का जाप करना चाहिये.
  • इस समय के दौरान मंत्र जाप करना अत्यंत प्रभावशाली उपाय होता है. इससे मंत्र सिद्धी भी प्राप्त होती है.
  • गर्भवती महिला को इस समय के दौराना किसी भी प्रकार के कार्य को करने से बचना चाहिये. काटना, सिलना जैसे काम नहीं करने चाहिये.
  • ग्रहण के दौरान स्नान करना चाहिये अथवा ग्रहण समाप्ति के बाद भी स्नान करना चाहिये.
  • गंगा जल का सेवन करना चाहिए.
  • दान इत्यादि करना चाहिये.

सूर्य ग्रहण के दौरान क्या ना करें

  • सूर्य ग्रहण के दौरान भोजन इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • यौन संबंधों एवं प्रेम इत्यादि से बचना चाहिए.
  • सूर्य ग्रहण के समय सोना नहीं चाहिए.
  • मंदिर अथवा देवताओं की मूर्ति का स्पर्श नहीं करना चाहिये.

सूर्य ग्रहण वैज्ञानिक आधार

सूर्य ग्रहण एक वैज्ञानिक खगोलीय घटना होती है. सूर्यग्रहण के समय चंद्रमा सूर्य और पृथवी एक ही सीध में आ जाते हैं. जब चंद्रमा ग्रह सूर्य और पृथ्वी के मध्य होता है तो इस कारण से सूर्य की रोशनी कुछ समय के लिए बाधित हो जाती है जिसे सूर्य ग्रहण कहा जाता है.

सूर्य ग्रहण पौराणिक कथा

सूर्य ग्रहण एक वैज्ञानिक आधार से अलग धार्मिक महत्व भी रखता है. इस संदर्भ से संबंधित एक अत्यंत ही पौराणिक कथा प्राप्त होती है जिसका वर्णन भागवत, विष्णु पुराण एवं महाभारत में भी प्राप्त होता है. इस कथा का आरंभ समुद्र मंथन से होता है.

कथा इस प्रकार है कि- श्री विष्णु के भक्त प्र्ह्लाद के वंश में एक अन्य विष्णु भक्त राजा बलि होता है. राजा बली के शासन में दैत्यों असरों की शक्ति अत्यंत ही बढ़ जाती है. दैत्य अपनी शक्ति के प्रभाव से समस्त लोकों पर अपना आधिपत्य स्थपैत करने की चेष्ठा रखते हैं.

वहीं दूसरी ओर ऋषि दुर्वासा श्राप के कारण देवता श्रीहीन और शक्ति से वंचित होने लगते हैं. ऎसे में राजा बलि का शासन संपूर्ण लोकों पर स्थापित होता है. इन्द्र व अन्य देवता अपनी शक्ति को पाने हेतु ब्रह्मा जी के पास जाते हैं जहां वह देवताओं को विष्णु की शरण में जाने को कहते हैं. तब इंद्र इत्यादि देव श्री विष्णु भगवान का आहवान करते हैं.

श्री विष्णु भगवान उस समय देवताओं को दैत्यों के साथ मित्रता करके समुद्र मंथन का सुझाव देते हैं ,जिसके द्वारा देवों को अमृत की प्राप्ति हो सकती है और वह पुन: अपना राज्य स्थापित कर सकते हैं. तब देवता राजा बली के पास जाकर मैत्री भाव दर्शाते हैं और समुद्र से अमृत प्राप्ति करने और अन्य रत्नों की प्राप्ति का लालच देते हैं. इस पर राजा बली देवताओं के साथ मिलकर समुद्र मंथन के लिए तैयार हो जाते हैं.

समुद्र मंथन के लिये मन्दराचल पर्वत को चुना जाता है और वासुकी नाग को रस्सी बनाया जाता है. श्री विष्णु भगवान पर्वत को स्थर करने हेतु कछुए का अवतार लेते हैं और तब कच्छप की पीठ पर मन्दराचल पर्वत को रख कर समुद्र मंथन होता है इस समुद्र मंथन के दौरान चौथह रत्न प्राप्त होते हैं. बारी बारी से सभी रत्नों को दैत्य ओर देवताओं के मध्य बांटा जाता है और अंत मे अमृत की प्राप्ति होती है.

धन्वन्तरि अमृत का कलश लेकर प्रकट होते हैं लेकिन दैत्य अपनी ताकत से उस अमृत के कलश को धन्वंतरी से ले लेते हैं. ऎसे में शक्तिहीन देवता इस घटना से निराश हो उठते हैं. तब श्री विष्णु भगवान पुन: देवताओं की सहायता के लिए मोहिनी अवतार लेते हैं. मोहिनी रूप को देखकर दैत्य उसके प्रति आकर्षित हो उठते हैं. दैत्यों की इस दशा का लाभ उठाकर मोहिनी उनसे अमृत कलश ले लेती है और और स्वयं उन्हें अमृत पान कराने की बात कहती है. ऎसे में सभी दैत्य इस बात से सहमत हो जाते हैं. तब देवताओं और दैत्य दोनों अलग-अलग बैठ जाते हैं.

मोहिनी के रुप से प्रभावित दैत्य अमृत पान भूल जाते हैं और मोहिनी देवताओं को ही अमृत पान कराने लगती है. ऎसे में देवताओं की इस छल को राहु नामक दैत्य जान जाता है और वह धोखे से देवता का रुप बना कर देवों की श्रेणी में बैठ जाता है. परंतु सूर्य और चंद्रमा उसे पहचान लेते हैं पर तब तक बहुत देर हो जाती है क्योंकि राहु के मुख में अमृत जा चुका होता है.

सूर्य और चंद्रमा के इतना कहते ही की वह देव नही दैत्य है भगवान श्री विष्णु सुदर्शन चक्र से उसका धड़ शरीर से अलग कर देते हें. किन्तु अमृत पान कर लेने के कारण राहु अमर हो जाता है और इसके प्रभाव से उसका सिर राहु और धड़ केतु कहलाया. इसी कारण राहु ने सूर्य और चंद्रमा को अपना सदैव ग्रहण लगाया, जिसे सूर्य ग्रहण और चंद्रमा ग्रहण कहा जाता है.

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विवस्वत सप्तमी 2025

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को विवस्वत सप्तमी के रुप में मनाई जाती है. इस वर्ष 2025 में विवस्वत सप्तमी तिथि 02 जुलाई को मनाई जाएगी.

इस दिन सूर्य देव की उपासना का विशेष महत्व बताया जाता है. सूर्य के अनेकों नाम हैं जिनमें से एक नाम विवस्वत भी कहलाता है. प्रत्येक वर्ष की सप्तमी में सुर्य के पूजन की तिथि के लिए भी अत्यंत शुभदायक मानी गई है. ऎसे में आषाढ़ मास की सप्तमी के दिन भी सूर्य पूजन का विधान रहा है.

विवस्वत सप्तमी कथा

वैवस्वत मनु के समय ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार होता है. इस पर कथा भी प्राप्त होती है. इस कथा को सुनने वाले परीक्षित थे. परीक्षित को शुकदेव जी ने सत्यव्रत की कथा सुनाते हैं – सत्यव्रत नाम के एक बड़े उदार राजा थे वह नित्य धर्म अनुरुप आचरण करते थे. एक बार अपनी तपस्या के दौरान वह जब कृतमाला नदी में खड़े होकर तर्पण का कार्य कर रहे होते हैं तभी उस समय के दौरान उनके हाथ में एक मछली आ जाती है. सत्यव्रत ने अपने हाथों में आई उस मछली को जैसे ही जल में छोड़ने का प्रयास किया उस मछली ने सत्यव्रत को ऎसा नहीं करने का आग्रह किया. मछली की वेदना सुन कर राजा सत्यव्रत ने उसके जीवन की रक्षा करने का प्रण किया. मछली को अपने कमण्डल पात्र के जल में रख दिया और उसे अपने साथ ले आए.

लेकिन एक दिन में ही वह मछली आकार में इतनी बढ़ जाती है कि उस कमण्डल पात्र में समा ही नहीं पाती है. ऎसे में मछली राजा से पुन: आग्रह करती है की वह उसे यहां से निकाल कर किसी ओर स्थान में रखें. राजा सत्यव्रत ने मछली को उस पात्र से निकालकर एक बड़े पानी से भरे घड़े में डाल दिया. पर राजा के देखते ही देखते वह मछली उस घड़े में भी नहीं समा पाई और आकार में अधिक बढ़ गई. वह राजा से फिर से अपने लिए किसी सुखद स्थान की मांग करती है. इसके बाद राज ने उस मछली को घड़े से निकाल कर सरोवर में डाल देते हैं. मछली का आकार वहां भी बढ़ जाता है और सरोवर में भी पूरी नहीं आ पाती है. ऎसे में राजा सत्यव्रत उसे अनेक बड़े-बड़े सरोवरों में डालते हैं लेकिन मछली का आकार किसी भी सरोवर में नहीं समा पाता है. अंत में राजा उस मछली को समुद्र में डाल देते हैं.

पर मछली समुद्र से भी विशाल हो जाती है. अंत में राजा को उस मछली को प्रणाम करते हुए कहते हैं की – “मैने आज तक ऎसा जीव नहीं देखा आप कोई सामान्य जीव नहीं हैं कृप्या करके आप मुझे अपना भेद बताएं और मुझे दर्शन दीजिये”. सत्यव्रत की निष्ठा को देख भगवान श्री विष्णु उसे दर्शन देते हैं ओर कहते हैं की आज से ठीक सात दिन बाद पृथ्वी पूर्ण रुप से जल मग्न हो जाएगी अर्थात जल में डूब जाएगी इसलिए मै तुम्हें यह कार्य सौंपने आया हूं की तुम ऋषियों मुनियों और सभी महत्वपूर्ण वस्तुओं जीवों वनस्पतियों को अपने साथ लेकर तैयार कर लीजिये. आज से सातवें दिन बाद तीनों लोक प्रलय के समुद्र में डूबने लगेंगे. तब तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी उस नौका में तुम समस्त प्राणियों, वस्तुओं और सप्तर्षियों के साथ लेकर उस नौका में चढ़ जाना.तब मैं इसी मछली रूप में वहा आ उपस्थित हो जाउंगा. तब तुम वासुकि नाग के द्वारा उस नाव को मेरे सींग में बांध देना. इतना कहकर श्री विष्णु अंतर्ध्यान हो जाते हैं.

प्रभु के कहे वचन अनुसार ही सत्यव्रत ने वही किया है. तब सातवें दिन प्रलय आती है और सत्यव्रत ऋषियों समेत नौका में बैठा जाते हैं और मछली स्वरुप जब विष्णु भगवान मछली का रुप लिए वहां आते हैं तो वह उनके सींग पर उस ना व को बांध देते हैं और नाव में ही बैठकर प्रलय का अंत होता है.

यही सत्यव्रत वर्तमान में महाकल्प में विवस्वान या वैवस्वत (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुए और वैवस्वत मनु के नाम से भी जाने गए. सूर्यपुत्र वैवस्वत मनु ही मनु स्‍मृति के रचयिता है. नव ग्रहों के राजा सूर्य देव की उपासना की परंपरा में विवस्वत सप्तमी का भी बहुत महत्व है. प्राचीन काल से ही इस दिन सूर्य के इस स्वरुप का पूजन होता आता रहा है.

विवस्वत सप्तमी पूजा

विवस्वत सप्तमी के दिन सूर्यदेव का पूजन करने से सभी सुख और परेशानियां समाप्त होती हैं. स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए इस दिन अवश्य ही सूर्य देव का पूजन बहुत ही सकारात्मक होता है. सरकार की ओर से यदि कोई परेशानी मिल रही है या फिर कोई प्रोपर्टी से संबंधित अगर कोई मामला हो तो वह भी इस स्थिति में दूर हो सकता है.

  • विवस्वत सप्तमी के दिन सूर्य उदय से पुर्व उठ्ना चाहिये .
  • स्नान करने के बाद सूर्य देव को जल अर्पित करना चाहिये.
  • सूर्य को ज्ल देते समय जल में रोली, अक्षत और चीनी व लाल फूल जल में डालकर अर्घ्य देना चाहिये.
  • ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नम:’ मंत्र का जाप करना चाहिये.
  • इस दिन सिफ मीठी वस्तुओं का सेवन करना चाहिए.
  • हलवा बनाकर सूर्य देव को भोग लगाना चाहिए.
  • आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ एवं सूर्याष्टक का पाठ करना चाहिए.

विवस्वत सप्तमी महत्व

विवस्वत के संदर्भ को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित होती हैं. वैदिक साहित्य में मनु को विवस्वत् का पुत्र माना गया है, एवं इसे ‘वैवस्वत’ नाम दिया गया है. सूर्य का संबंध इसके साथ जुड़ने कारण ही इस दिन सूर्य उपासना का भी बहत मह्त्व रहा है. इस दिन विवस्वत मनु का पूजन होता है. इस दिन मनु कथा का श्रवण किया जाता है. वैवस्वत मनु के नेतृत्व में सृष्टि का सूत्रपात होता है. इसी से श्रुति और स्मृति की परम्परा चल पड़ी. विवस्वत से ही सूर्य वंश का आरंभ होता है जिसमें श्री राम का जन्म हुआ जो विष्णु के अवतार स्वरुप पृथ्वी पर आते हैं.

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करवीर व्रत 2025 – सूर्य पूजा से होगा सभी दुखों का नाश

सूर्य की पूजा एवं साधना का पर्व है करवीर व्रत. प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास की शुक्ल प्रतिपदा के दिन करवीर व्रत संपन्न होता है और सूर्य की पूजा की जाती है. इस वर्ष 28 मई 2025 को करवीर व्रत किया जाएगा. हिन्दु धर्म में सूर्य देव को आत्मा का स्वरुप माना गया है. वह साक्षात प्रकृति के पालक माने जाते हैं. जिनकी अपार शक्ति, गति और ऊर्जा संसार का हर व्यक्ति को सकारात्मक फल देता है.

सूर्य देव वनस्पति की जीवन शक्ति हैं. धार्मिक मान्यताओं अनुसार सूर्य देव समस्त इच्छाओं की पूर्ति करने वाले हैं. सूर्य का पूजन करने व सूर्य को जल देने के लिए नदी, जलाशय में खड़े होकर हाथों की अंजली बना कर अथवा पात्र में भर कर जल से अर्घ्य दिया देना चाहिए. करवीर व्रत अत्यंत ही उत्तम व्रतों की श्रेणी में आता है.

सूर्य की शक्ति पाने का अवसर

करवीर व्रत एक प्रकार से जीवन में शक्ति और प्रकाश के साथ हमारे जीवन को जोड़ने का पर्व भी है. इस दिन सूर्य के देव के नामों का स्मरण करना चाहिये. कलश में गुड़ अथवा गेहूं भर कर दान करना अत्यंत शुभ प्रभावदायक होता है. सूर्य देव का पूजन करने से हमे सूर्य का आशीर्वाद प्राप्त होता है . करवीर व्रत का प्रभाव तुरंत फल देने वाला होता है. वेदों में सूर्य की उपासना के बारे में विस्तार पूर्वक वर्णन प्राप्त होता है. वेदो में सूर्य की स्तुति के अनेक सूक्त प्राप्त होते हैं. ऋगवेद में मौजूद इन स्तुति से सूर्य देव की महिमा का वर्णन स्पष्ट होता है –

“आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च ।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥

तिस्रो द्यावः सवितुर्द्वा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट् ।

आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत् ॥

सूर्य देव की पूजा को ऋगवेद में बताया गया है. सूर्य का एक नाम करवीर भी है. ऎसे में जीवन में कर्म का सिद्धांत भी इस दिन से मिलता है. सूर्य देव का पूजन अत्यंत ही सरल और प्रभावशाली भी होता है. सूर्य के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. सूर्य इस लोक में अपनी किरणों से जीव का संचार करता है. शारीरिक व मानसिक सभी कष्टों का निवारक भी बनता है. वनस्पतियों एवं जीवों के जीवन का मुख्य आधार होता है. ऐसे में शास्त्रों में सूर्य की उपासना का उल्लेख बहुत ही विस्तार रुप से प्राप्त होता है.

करवीर व्रत के दिन सूर्य की पूजा के लिए सबसे जरुरी बात यह है की सूर्योदय से पूर्व उठना चाहिये. उसके बाद स्नान नियमित कार्यों से उक्त होकर साफ स्वच्छ वस्त्र पहनने चाहिये. सूर्य नमस्कार करना चाहिये. सूर्य को तांबे के लोटे में जल से अर्घ्य देना चाहिये. जल देने से सूर्य की जो किरणें हमारे ऊपर पड़ती हैं वह हमारे शरीर के सभी रोगों को दूर करने में सहायक बनती हैं. सूर्य को जल चढ़ाने में लाल चंदन, चावल, लाल पुष्प डाल कर इस जल को अर्पित करना चाहिये.

इस दिन मीठी वस्तुओं का ही सेवन किया जाना उत्तम होता है. गुड़ एवं लाल रंग के वस्त्र का दान करना चाहिये.

करवीर व्रत से संबंधित अन्य पौराणिक मान्यताएं

करवीर व्रत के संदर्भ में कुछ अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं. इन में से कुछ का संबंध देवी शक्ति से जोड़ा गया है.यह कथा इस प्रकार है की कौलासुर नाम का एक दैत्य था. उसकी शक्ति बहुत अधिक बढ़ गयी थी उसने हर तरफ अत्याचार फैला रखा था.

अपनी शक्ति को और भी बढ़ाने के लिए उसने कठोर तपस्या की थी और उसे संपूर्ण विजय का आशीर्वाद प्राप्त होता है. लेकिन इसके साथ ही उसने वरदान प्राप्त किया कि वह केवल स्त्री द्वारा ही मारा जा सके. अपने वरदान के प्राप्ति के पश्चात उसने तीनों लोकों में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास आरंभ किया. ऎसे में देवों एवं समस्त लोकों की सुरक्षा हेतु विष्णु स्वयं महालक्ष्मी रूप में प्रकट होते हैं और सिंह पर आरूढ़ होकर उस राक्षस को युद्ध में परास्त किया. कोलासुर ने अपनी मृत्यु से पूर्व श्री शक्ति देवी से वर याचना की कि उस क्षेत्र को उसका नाम प्राप्त हो और देवी वहीं स्थित हों. ऎसे में देवी ने वर दिया और स्वयं भी वहीं पर स्थित हो जाती हैं. कोलासुर का वध करने के पश्चात देवी को कोलासुरा मर्दिनी के नाम से भी पुकारा जाता है.

करवीर पूजा में कनेर वृक्ष का पूजन

करवीर पूजन में कनेर के वृक्ष का पूजन करने का भी विधान बताया गया है. कनेर वृक्ष के पुष्प को भगवान शिव के पूजन में भी मुख्य रुप से उपयोग किया जाता है. कनेर वृक्ष का पूजन करने के लिए प्रातकाल स्नान इत्यादि से निवृत होकर कनेर वृक्ष का पूजन करना चाहिये.

कनेर के वृक्ष पर जल अर्पित करना चाहिये. वृक्ष को लाल रंग के धागे से बांधा जाता है. लाल रंग का वस्त्र अर्पित किया जाता है. कनेर के समीप घी का दीपक जलाना चाहिये और धूप, पुष्प इत्यादि से पूजा करनी चाहिये. कनेर वृक्ष के पुष्पों को भगवान शिव पर भी चढ़ाना चाहिये. यदि संभव हो सके तो आज के दिन कनेर वृक्ष को लगाने से सौभाग्य में वृद्धि होती है.

करवीर पूजा महात्म्य

करवीर नाम को सूर्य और श्री लक्ष्मी देवी शक्ति के साथ संबंधित माना गया है. पद्मपुराण, देवी पुराण इत्यादि में इस शब्द का संबंध देखने को मिलता है.इस दिन किया गया भक्ति साधना एवं दान इत्यादि का कार्य बहुत ही शुभफलदायक होता है. करवीर पूजा में वृक्ष पूजा का भी विशेष महत्व दिया गया है.

करवीर व्रत की महत्ता के विषय में बताया गया है की इस व्रत को देवी सावित्री, दमयंती और सत्यभामा ने भी किया था. इस व्रत के प्रभाव से उन्हें जीवन में संकटों की समाप्ति होती है और सौभाग्य में वृद्धि होती है.

करवीर व्रत के पूजा उपासनअ एवं व्रत का पालन किया जाता है. इस दिन सूर्य पूजन, कनेर वृक्ष पूजन एवं लक्ष्मी पूजन करने के उपरांत ब्राह्मणों को सामर्थ्य अनुसार भोजन एवं दक्षिणा प्रदान करनी चाहिये. इस व्रत को करने से सूर्य लोक की प्राप्ति होती है, संतान सुख प्राप्त होता है और जीवन में किसी भी प्रकार का रोग परेशान नहीं करता है, आरोग्य की प्राप्ति होती है.

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ज्येष्ठ पूर्णिमा 2025, जानें कब है ज्येष्ठ पूर्णिमा-शुभ मुहूर्त

शास्त्रों में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दौरान किये जाने वाले बहुत से यम-नियम आदि का उल्लेख मिलता है, ज्येष्ठ पूर्णिमा के दौरान दिये गए नियमों का पालन करना चाहिए और उन नियमों का पालन करने से जीवन में आती है शुभता और मनोकामनाएं होती हैं पूर्ण.

2025 में ज्येष्ठ पूर्णिमा व्रत

इस वर्ष ज्येष्ठ पूर्णिमा का पर्व  11 जून 2025 को मनाया जाएगा. शास्त्रों में ज्येष्ठ पूर्णिमा का बहुत महत्व होता है. इसी दिन कलश भर कर शहद का दान करने का विधान भी है. इस दिन ये कार्य करने से व्यक्ति के जीवन में खुशियां आती हैं और प्रेम भाव बना रहता है.

पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ – जून 10, 2025 को 11:35 ए एम बजे
पूर्णिमा तिथि समाप्त – जून 11, 2025 को 01:13 पी एम बजे

ज्येष्ठ पूर्णिमा पर करे सत्यनारायण कथा

ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन सत्यनारायण कथा एवं पूजा की जाती है. इस दिन भगवान नारायण का पूजन होता है. इस पूजा में श्री विष्णु भगवान के स्त्य स्वरुप का पूजन होता है. इस कथा के दिन व्रत का भी विधान बताया गया है. सत्यनारायण कथा और पूजन से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.

सत्यनारायण कथा ओर व्रत में सुबह या शाम के समय सत्यनारायण भगवान के समक्ष घी का दीपक जलाया जाता है. आटे का चूरमा बनाते हैं ओर तुलसी दल को अर्पित किया जाता है. सत्यनारायण भगवान को फल फूल इत्यादि वस्तुएं भोग स्वरुप भेंट की जाती है.

ज्येष्ठ पूर्णिमा वट सावित्री व्रत

ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन वट सावित्री व्रत को किया जाता है और वट सावित्री पूजन होता है. यह दिन इन दो शुभ योगों के बनने से यह दिन अत्यंत ही शुभ फलदायी बन जाता है. इस दिन व्रत और पूजा करना सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति कराने वाला होता है. स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन से संबंधित पूजा एवं वट सावित्री व्रत की महिमा को बताया गया है.

वट वृक्ष का पूजन – इस दिन वट वृक्ष का पूजन होता है. वट वृक्ष पूजन में वृक्ष की परिक्रमा की जाती है. इस ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन वट वृक्ष की पूजा करने से त्रिदेवों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. सुहागन स्त्रियों के अतिरिक्त कुंवारी कन्याएं भी इसका पूजन कर सकती हैं. इस दिन इस वट का पूजन करने से सुहागिनों को सदा सौभाग्यवती होने का सुख प्राप्त होता है और संतान के सुख की प्राप्ति होती है. आज के समय में भी ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन गांवों-शहरों में हर सभी लोग इस दिन को उत्साह के साथ मनाते हैं. जहां वट वृक्ष स्थापित होता है वहां स्त्रियां परंपरागत रुप से इस वृक्ष का पूजन करती हैं.

वट वृक्ष की पूजा में वृक्ष की परिक्रमा की जाती है. तीन, पांच या सात बार इसकी परिक्रमा करते हैं. इसके साथ ही परिक्रमा करते समय कच्चे सूत-धागे को पेड़ पर लपेटा जाता है. इसके साथ ही चंदन, अक्षत, रोली इत्यादि से तिलक किया जाता है. वट के पेड पर फूल, सुहाग की सामग्री, इत्यादि भी अर्पित की जाती है. साथ ही पूरी ओर अन्य प्रकार के पकवानों का भोग भी चढ़ाया जाता है. वृक्ष के समक्ष दीपक भी जलाया जाता है और इस वृक्ष पर जल अर्पित किया जाता है.

ज्येष्ठ पूर्णिमा और सत्यवान-सावित्री कथा

सावित्री एक अत्यंत ही पतिव्रता स्त्री थी. सावित्री अपने पति धर्म के लिए यमराज से भी नहीं डरती है और अपने पति के प्राणों की रक्षा करती है. पौराणिक कथा अनुसार सावित्री का विवाह सत्यवान से हुआ था. सावित्री का विवाह सत्यवान से होता है. सत्यवान की अपल्प आयु के बारे में जब सावित्री को पता चलता है तो वह अत्यंत दुखी होती है. देवऋषि नारद द्वारा जब सत्यवान की मृत्यु के समय का सावित्री को पता चलता है तो वह उसी दिन से व्रत एवं भगवान से प्रार्थना आरंभ कर देती है. नारद बताई गई तिथि के दिन वह अपने पति सत्यवान के साथ लकडी काटने के लिये चल पड़ती है.

सत्यवान जब लकडी काटने के लिये पेड़ पर चढ़ता है तो उसके सिर में पीडा होने लगती है और वह नीचे गिर जाता है. पति की मृत्यु का समय निकटा आता जान वह देखती है की यमराज उसके पति के समीप आ खड़े होते हैं और सत्यवान के प्राण लेकर आगे चल पड़ते हैं. सावित्री भी यमराज के पीछे पीछे चल पड़ती है. यमराज उसे समझाते हैं लेकिन वह उन्हीं के साथ चलती चली जाती है. ऎसे में वह उसके पतिधर्म और निष्ठा भाव को देख उसे वर मांगने को कहते हैं.

सावित्री अपने सास-ससुर नेत्रों की ज्योति मांगती है. यमराज उसे कहते हैं की तेरा मनोरथ पूर्ण होगा अब तुम घर चली जाओ . सावित्री मना कर देती है. धर्मराज यमराज उसे उसे पुन: वर मांगने को कहते हैं ऎसे में वह अपने सास ससुर के खोये हुए राज्य को फिर से देने को कहती है. यमराज उसका वरदान पूरा कर देते हैं और सावित्री को वापस चले जाने को कहते हैं.

सावित्री कहती है की पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है. यमराज कहते हैं पति के जीवन के बदले वह जो चाहेगी उसे मिल सकता है. सावित्री तब पुत्रवती होने का आशीर्वाद मांगती है और यमराज उसे आशीर्वाद दे देते हैं. ऎसे में सावित्री यमराज से कहती है की बिना पति के उसे पुत्र कैसे हो सकते हैं और तब यमराज उसके समक्ष हार जाते हैं ओर सत्यवान का जीन पुन: वापिस कर देते हैं इस प्रकार सावित्री और सत्यवान अपने घर जाकर सुख पूर्वक अपना जीवनयापन करते हैं.

ज्येष्ठ पूर्णिमा का महात्म्य

ज्येष्ठ पूर्णिमा के दौरान किये जाने वाले कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण कार्य तुलसीदल से श्री विष्णु पूजन किया जाता है. इससे जीवन में तरक्की के साथ ही अच्छा स्वास्थ्य भी प्राप्त होता है. घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहती है स्थापित होती है. तुलसी पूजा के साथ ही मंदिर में तुलसी का पौधा लगाना भी शुभ माना गया है.

ज्येष्ठ पूर्णिमा के दौरान जप, तप, हवन के अलावा स्नान और दान का भी विशेष महत्व होता है. इस दौरान भक्त शुद्ध चित से जप, तप, हवन, स्नान, दान आदि शुभकार्य करता है, उसका अक्षयफल प्राप्त होता है. ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करना चाहिए और भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए. स्नान करने से व्यक्ति को अश्वमेघ यज्ञ के समान फल मिलता है, ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन मिट्टी का घड़ा, पानी, पंखे इत्यादि दान करने का भी विधान है.

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रम्भा तृतीया व्रत 2025 – क्यों मनाई जाती है रम्भा तृतीया ?

ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को रंभा तृतीया के रुप में मनाया जाता है. इस वर्ष 29 मई    2025 के दिन रम्भा तृतीया का उत्सव मनाया जाएगा. इस दिन अप्सरा रम्भा की पूजा की जाती है. धर्म शास्त्रों में वेद पुराणों में अप्सराओं का वर्णन प्राप्त होता है. देवलोक में अप्सारों का वास होता है.

अप्सरा रम्भा समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से उत्पन्न हुई थी, ऎसे में इस दिन देवी रंभा की पूजा की जाती है. स्त्रियों द्वारा सौभाग्य एवं सुख की प्राप्ति के लिए इस दिन व्रत भी किया जाता है. इस व्रत को रखने से स्त्रियों का सुहाग बना रहता है, कन्याओं को योग्य वर की प्राप्ति होती है. अच्छे वर की कामना से इस व्रत को रखती हैं, रम्भा तृतीया का व्रत शीघ्र फलदायी माना जाता है.

अप्सराओं का पौराणिक संदर्भ

अप्सराओं का संबंध स्वर्ग एवं देवलोक से होता है. स्वर्ग में मौजूद पुण्य कर्म, दिव्य सुख, समृद्धि और भोगविलास प्राप्त होते हैं. इन्हीं में अप्सराओं का होना जो दर्शाता है रुपवान स्त्री को जो अपने सौंदर्य से किसी को भी मोहित कर लेने की क्षमता रखती हैं. अप्सराओं के पास दिव्य शक्तियां होती है जिनसे यह किसी को भी सम्मोहित कर लेनी की क्षमता रखती हैं.

अथर्वेद एवं यजुर्वेद में भी अप्सरा के संदर्भ में विचार प्रकट होते हैं. शतपथ ब्राह्मण में इन्हें चित्रित किया गया है. ऋग्वेद में उर्वशी प्रसिद्ध अप्सरा का वर्णन प्राप्त होता है. इसके अतिरिक्त पुराणों में भी तपस्या में लगे हुए ऋषि मुनियों की त्पस्या को भंग करने के लिए किस प्रकार इंद्र अप्सराओं का आहवान करते हैं . कुछ विशेष अप्सराओं में रंभा, उर्वशी, तिलोत्तमा, मेनका आदि के नाम सुनने को मिलते हैं.

ऊर्वशी श्राप से मुक्त हो गई और पुरुरवा, विश्वामित्र एवं मेनका की कथा, तिलोतमा एवं रंभा की कथाएं बहुत प्रचलित रही हैं. इन्हीं में रंभा का स्थान भी अग्रीण है. अप्सराएँ अपने सौंदर्य, प्रभाव एवं शक्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं.

समुद्र मंथन रम्भा उत्पति कथा

दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर स्थापित था. इन्द्र सहित देवतागण भी बलि से भयभीत हो उठे. ऎसे में देवों के स्थान को पुन: स्थापित करने के लिए ब्रह्मा जी देवों समेत श्री विष्णु जी के पास जाते हैं. भगवान श्री विष्णु के आग्रह पर समुद्र मंथन आरंभ होता है. जो दैत्यों और देवों के संयुक्त प्रयास से आगे बढ़ता है. क्षीर सागर को मथ कर उसमें से प्राप्त अमृत का सेवन करने से ही देव अपनी शक्ति पुन: प्राप्त कर सकते थे.

ऎसे में समुद्र मंथन के लिये मन्दराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को नेती बनाया जाता है. भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रख लेते हैं और उसे आधार देते हैं . इस प्रकार समुद्र मंथन के दौरान बहुत सी वस्तुएं प्राप्त होती हैं. इनमें रम्भा नामक अप्सरा और कल्पवृक्ष भी निकलता है. इन दोनों को देवलोक में स्थान प्राप्त होता है. इसी में अमृत का आगमन होता है और जिसको प्राप्त करके देवता अपनी शक्ति पुन: प्राप्त करते हैं और इन्द्र ने दैत्यराज बालि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक पुन: प्राप्त किया.

अमृत मंथन में निकले चौदह रत्नों में रंभा का आगमन समुद्र मंथन से होने के कारण यह अत्यंत ही पूजनिय हैं और समस्त लोकों में इनका गुणगान होता है. समुद्र मंथन के ये चौदह रत्नों का वर्णन इस प्रकार है –

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः।

गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः।

रम्भा तीज कथा

रंभा तीज के उपल्क्ष्य पर सुहागन स्त्रियां मुख्य रुप से इस दिन अपने पति की लम्बी आयु के लिए और अविवाहित कन्याएं सुयोग्य वर की प्राप्ति के लिए इस व्रत को करती हैं. रम्भा को श्री लक्ष्मी का रुप माना गया है और साथ ही शक्ति का स्वरुप भी ऎसे में इस दिन रम्भा का पूजन करके भक्त को यह सभी कुछ प्राप्त होता है.

रम्भा तृतीया पर कथा इस प्रकार है की प्राचीन समय मे एक ब्राह्मण दंपति सुख पूर्वक जीवन यापन कर रहे होते हैं. व्ह दोनों ही श्री लक्ष्मी जी का पूजन किया करते थे. पर एक दिन ब्राह्मण को किसी कारण से नगर से बाहर जाना पड़ता है वह अपनी स्त्री को समझा कर अपने कार्य के लिए नगर से बाहर निकल पड़ता है. इधर ब्राह्मणी बहुत दुखी रहने लगती है पति के बहुत दिनों तक नहीं लौट आने के कारण वह बहुत शोक और निराशा में घिर जाती है. एक रात्रि उसे स्वप्न आता है की उसके पति की दुर्घटना हो गयी है. वह स्वप्न से जाग कर विलाप करने लगती है. तभी उसका दुख सुन कर देवी लक्ष्मी एक वृद्ध स्त्री का भेष बना कर वहां आती हैं और उससे दुख का कारण पुछती है. ब्राह्मणी सारी बात उस वृद्ध स्त्री को बताती हैं.

तब वृद्ध स्त्री उसे ज्येष्ठ मास में आने वाली रम्भा तृतीया का व्रत करने को कहती है. ब्राह्मणी उस स्त्री के कहे अनुसार रम्भा तृतीया के दिन व्रत एवं पूजा करती है ओर व्रत के प्रभाव से उसका पति सकुशल पुन: घर लौट आता है. जिस प्रकार रम्भा तीज के प्रभाव से ब्राह्मणी के सौभाग्य की रक्षा होती है, उसी प्रकार सभी के सुहाग की रक्षा हो.

अप्सरा रम्भा से संबंधित कुछ कथाएं

रम्भा का वर्णन रामायण काल में भी प्राप्त होता है. रम्भा तीनों लोकों में प्रसिद्ध अप्सरा थी. कुबेर के पुत्र नलकुबेर की पत्नी के रूप में भी रम्भा का वर्णन प्राप्त होता है. रावण द्वारा रम्भा के साथ गलत व्यवहार के कारण रम्भा ने रावण को श्राप भी देती है.

एक कथा अनुसार विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने के लिए जब रम्भा आती हैं तो विश्वामित्र रम्भा को शिला रुप में बन जाने का श्राप देते हैं. फिर एक ब्राह्मण द्वारा रम्भा को शाप से मुक्त प्राप्त होती है.

रम्भा तृतीया पूजन महत्व

रम्भा तीज के दिन दिन विवाहित स्त्रियां गेहूं, अनाज और फूल के साथ चूड़ियों के जोड़े की भी पूजा करती हैं।.अविवाहित कन्याएं अपनी पसंद के वर की कामना की पूर्ति के लिए इस व्रत को रखती हैं. रम्भा तृतीया के दिन पूजा उपासना करने से आकर्षक सुन्दरतम वस्त्र, अलंकार और सौंदर्य प्रसाधनों की प्राप्ति होती है. काया निरोगी रहती है और यौवन बना रहता है.

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