सोम प्रदोष व्रत 2024, इस एक व्रत से पूर्ण होंगे सभी मनोरथ

प्रदोष तिथि के दिन सोमवार का दिन पड़ने पर सोम प्रदोष व्रत कहलाता है. सोम प्रदोष व्रत के दिन प्रात:काल समय भगवान शिव का पूजन होता है. प्रत्येक माह की दोनों पक्षों की त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत करने का विधान रहा है. ऎसे में हर एक प्रदोष समय किसी न किसी दिन के पड़ने पर प्रदोष व्रत को उस दिन के साथ जोड़ दिया जाता है.

2024 में कब होगा सोम प्रदोष व्रत

20 मई 2024

सोम प्रदोष व्रत करने से संपूर्ण कामनाएं पूरी होती हैं. व्यक्ति के सभी कार्य भी पूरे होते हैं. सोम प्रदोष व्रत के समय भक्त को भगवान शिव का संपूर्ण विधि विधान से पूजन करने समस्त कार्य सिद्ध होते हैं. शास्त्रों में प्रदोष व्रत को सर्वसुख प्रदान करने के अलावा परम कल्याणकारी व्रत कहा गया है. इस व्रत में भक्ति एवं शुद्ध चित्त के साथ पूजा अर्चना करनी चाहिए. सोमवार के दिन प्रदोष व्रत होने पर सुबह-सवेरे ब्रह्म मुहूर्त समय जागना चाहिये. के बाद स्नान इत्यादि अपने नित्य कार्यों से मुक्त होकर भगवान शिव का ध्यान करना चाहिये.

सोम प्रदोष व्रत कथा

सोमवार के दिन प्रदोष व्रत करने के साथ ही प्रदोष व्रत की कथा को सुनना भी बहुत ही शुभदायक होता है. सोम प्रदोष कथा को पढ़ने व सुनने से व्रत का फल बढ़ जाता है. सोम प्रदोष व्रत के विषय में कुछ पौराणिक कथाओं का उल्लेख प्राप्त होता है. जिसमें से एक कथा यहां दी जा रह है जो इस प्रकार है.

प्राचीन समय की बात है एक नगर में एक विधवा ब्राह्मण स्त्री निवास करती थी, उसके पति का स्वर्गवास बहुत पहले ही हो गया था. वह अकेली ही अपने पुत्र के साथ रहती और उनका अन्य कोई आश्रयदाता नहीं था. उसके पास पेट भरने के लिए भी कोई साधन या काम नहीं था. इसलिए वह भीक्षा द्वारा ही अपना और अपनी संतान का पालन करती थी. वह नियमित रुप से प्रातः काल समय ही अपने पुत्र के साथ भीख मांगने निकल पड़ती थी. भिक्षाटन ही उसके लिए एक मात्र विकल्प रह गया था और इसी से वह खुद का और अपने बेटे का पेट पालती थी.

अपनी इसी दिनचर्या में एक दिन भिक्षाटन के लिए निकली ब्राह्मणी, जब अपने घर की और वापस लौट रही होती है तो उस समय मार्ग में उसे एक बालक दिखाई पड़ता है. वह बालक घायल होता है और दर्द से तड़प रहा होता है. उस बालक को देख कर ब्राह्मणी के मन में दया आती है और वह उस बालक को अपने साथ घर ले आती है. उस बालका खूब ध्यान रखती है और अपनी सामर्थ्य अनुसार उसका उपचार भी करती है.

वह बालक विदर्भ देश का राजकुमार होता है. उसके शत्रुओं ने उसके देश पर हमला कर दिया होता है.शत्रु उसके राज्य को अपने अधिकार में लेकर उसके पिता को बंदी बना लेते हैं. किसी तरह राजकुमार बच निकलता है और दर-दर भटकने लगता है. इसी बीच ब्रह्मणी से उसकी भेंट होती है और वह उस ब्राह्मणी और उसके पुत्र के साथ रहने लगता है.

राजकुमार बिना अपनी पहचान बताए वहां लम्बे समय तक रहता है. एक बार एक अंशुमति नामक गंधर्व कन्या की दृष्टि उस राजकुमार पर पड़ती है. उस राजकुमार के रुप सौंदर्य व गुणों पर वह गंधर्व कन्या मोहित हो जाती है और उससे विवाह करने का निश्चय कर लेती है.

अंशुमति, राजकुमार के समक्ष अपने प्रेम का इजहार करती है. राजकुमार को अपने माता-पिता से मिलवाने के लिए बुलाती है. अंशुमति के माता-पिता को राजकुमार पसंद आ जाता है. कुछ दिनों बाद अंशुमति के माता-पिता को भगवान शिव स्वप्न में आकर उन्हें बेटी के विवाह करने का आदेश देते हैं. गंधर्व दंपति अपनी पुत्री के राजकुमार से विवाह की अनुमति प्रदान करते हैं. राजकुमार का अंशुमति के साथ विवाह संपन्न होता है.

गरीब ब्राह्मणी सदैव ही प्रदोष व्रत करने का नियम पालन करती थी. उसके इस प्रदोष व्रत के प्रभाव से गंधर्व राज की सहायता से राजकुमार अपने राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए निकल पड़ता है और शत्रुओं पर हमला करने उन्हें अपने राज्य से निकल देता है. राजकुमार को अपना राज्य पुन: प्राप्त होता है. अपने राज्य को पा लेने के बाद वह वहां का राजा बनता है और ब्राह्मणी के पुत्र को अपना राजमंत्रि नियुक्त करता है. प्रदोष व्रत के माहात्म्य से जैसे राजकुमार और ब्राह्मण-पुत्र के दिन फिरे, वैसे ही शंकर भगवान अपने सभी भक्तों के दिन भी फेरते हैं.

सोम प्रदोष व्रत से पाएं चंद्र ग्रह की शुभता

नव ग्रहों में चंद्रमा को एक महत्वपूर्ण एवं शीतलता से युक्त ग्रह माना गया है. चंद्रमा हमारे शरीर और मन मस्तिष्क पर प्रभावशाली रुप से असर डालता है. अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में चंद्रमा शुभ फल नहीं दे रहा है या निर्बल है, शुभ नहीं है, तो इस स्थिति में सोम प्रदोष व्रत अत्यंत ही प्रभावशाली उपाय होता है. चंद्र ग्रह की शांति में इस सोम प्रदोष व्रत का प्रभाव अवश्य फलिभूत होता है.

सोम प्रदोष व्रत उद्यापन विधि

सोम प्रदोष व्रत के बारे में धर्म शास्त्रों में बहुत कुछ लिखा गया है. इस व्रत की महिमा और इसे कैसे किया जाए इन सभी को लेकर पौराणिक धर्म शास्त्रों में कई नियम और विधान लिखे गए हैं. शिवपुराण व स्कंद पुराण इत्यादि में भी इसके बारे में विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है. इस व्रत के विधान में 11 या 26 प्रदोष व्रत करने के उपरांत इस व्रत का उद्यापन किया जा सकता है. व्रत के बाद उद्यापन के एक दिन पहले यानी प्रदोष व्रत से पूर्व द्वादशी तिथि के दिन से ही इस का आरंभ शुरु कर देना चाहिये. गणेश भगवान का पूजन करना चाहिये. षोडशोपचार विधि से पूजन करते हुए भगवान शिव का व माता पार्वती का पूजन व रात्रि जागरण किया जाता है.

त्रयोदशी प्रदोष दिन में उद्यापन के दिन सुबह सूर्योदय से पूर्व उठ कर स्नान इत्यादि के पश्चात साफ स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिये. चौकी पर लाल वस्त्र बिछा कर भगवान शिव व माता पार्वती की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये. विधि-विधान से पूजा करनी चाहिये और सोम प्रदोष व्रत की कथा पढ़नी व सुननी चाहिये. इसके पश्चात भगवान की आरती पश्चात भोग लगाना चाहिये. भोग को सभी में बांटना चाहिये. सामर्थ्य अनुसार एक, पांच या सात ब्राह्मणों को भोजन करा कर दान दक्षिणा प्रदान करनी चाहिये. इसके बाद परिवार समेत भोग खुद भी ग्रहण करना चाहिये.

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दमनक चतुर्थी 2024 : दमनक चतुर्थी कब और क्यों मनाई जाती है

भगवान गणेश जी को प्रसन्न करने के लिये दमनक चतुर्थी का पर्व मनाया जाता है. चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को यह पर्व मनाया जाता है. इस वर्ष 12 अप्रैल 2024 को दमनक चतुर्थी का उत्सव मनाया जाएगा. भगवान श्री गणेश जी को दमनक नाम से भी पुकारा जाता है. इस कारण से चैत्र माह के शुक्ल पक्ष कि चतुर्थी को गणेश दमनक चतुर्थी भी कहा जाता है.

भगवान श्री गणेश सभी संकटों का हरण करने वाले हैं, सभी दुख कलेश का नाश करने वाले है इसलिए इस दमनक चतुर्थी के दिन भगवान गणेश जी का व्रत एवं पूजन करने से सभी कष्टों का दमन होता है. शत्रुओं का नाश होता है.

दमनक चतुर्थी कथा

दमनक चतुर्थी से जुड़ी एक प्राचीन कथा भी है. इस कथा अनुसार एक नगर में राजा राज्य करता था. राजा के दो पत्नियां थी और उन दोनों के एक-एक पुत्र भी थे. एक रानि के पुत्र का नाम गणेश था और दूसरी रानी के पुत्र का नाम दमनक था. दोनों बच्चों का बहुत अच्छे से लालन-पालन होता है. परंतु एक प्रकार का अंतर दोनों के साथ रहता था. जब गणेश अपने ननिहाल जाता था तो उसके ननिहाल में सभी उसे बहुत प्रेम करते थे और उसका बहुत ख्याल रखा जाता था. लेकिन दूसरी ओर दमनक जब भी अपने ननिहाल जाता थो उसको वहां पर प्रेम नहीं मिलता था, उसके मामा और मामियां उससे घर के काम करवाते और उसके साथ बुरा व्यवहार किया करते थे.

जब दोनों बच्चे अपने ननिहाल से घर वापिस आते तब गणेश तो अपने साथ ढेर सारा सामान लाता था पर दमनक को उसके ननिहाल से कुछ भी नहीं मिलता था. वह खालिहाथ ही लौट आता था. इसी प्रकार दोनों अपने सुख दुख को भोगते हुए बड़े होते हैं. दोनों का विवाह होता है और दोनों अपनी बहुओं के साथ अपने-अपने ससुराल जाते हैं. गणेश के ससुराल में उसका बहुत सम्मान होता है और उसे बहुत से पकवान एवं मिठाइयां खिलाई जाती हैं.

दमनक जब अपने ससुराल जाता, तब उसके ससुराल वाले उसकी कोई खास खातिरदारी नहीं करते हैं और उसे सोने के लिए भी स्थान नहीं देते हैं और बहाने से उसे घोड़ों के सोने की जगह पर जाकर सोने को कहते हैं.

गणेश अपने ससुराल से तो बहुत कुछ सामान लेकर आता है लेकिन दमनक खालीहाथ ही वापिस आता है उसे कुछ भी नहीं मिलता है. उन दोनों की स्थिति को बुढिया को पता थी क्योंकि वह उन्हें बचपन से देखती आ रही थी. बुढि़या को दमनक की स्थिति पर बहुत दया आती थी वह इससे दुखी होती थी. एक बार शाम के समय भगवन शिव और माता पार्वती संसार की दुख सुख को जानने के लिए पृथ्वी पर आते हैं, तो वह बुढि़या उनके मार्ग में आकर उन्के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी हो जाती है. बुढि़या गणेश और दमनक के बारे में भगवान को सारा किस्सा बता देती है. वह भगवन से पूछती है की आखिर क्यों बचपन से ही कभी भी दमनक को अपने ननिहाल से सुख नहीं मिल पाया और अब युवा अवस्था में उसे ससुराल पक्ष से भी तिरस्कार ही सहन करना पड़ रहा है.

भगवान शिव तब उन्हें बताते हैं कि गणेश ने पिछले जन्म में जो ननिहाल से लेकर आता था उसे वह वापिस भी उन्हें कर देता था. किसीन भी तरह से या फिर मामा-मामी की संतानों को कुछ न कुछ देकर वापिस कर देता था. इसी तरह से ससुराल में भी उसने जो अपने पुर्व जन्म में लिया था वह उसने सभी कुछ वापिस भी दे दिया था. इसी कारण उसे आज भी अपने इस जन्म में अपने ननिहल ओर ससुरल पक्ष से बहुत सारा आदर और सम्मान प्राप्त होता है.

दूसरी ओर दमनक अपने पूर्व जन्म में जो भी अपने ननिहाल व ससुराल पक्ष से पाता है उसको कभी वापिस नहीं करता था. किसी न किसी कारण से या अपने काम काज के चलते वह उनको कुछ भी नही दे पाया ऎसे में इस जन्म में उसे ननिहाल और ससुराल पक्ष से कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ और उसके हर जग अपेक्षा ही होती रही है.

हमे हमेशा किसी से प्राप्त हुई वस्तु को अवश्य लौटाने की कोशिश जरुर करनी चाहिए किसी का हक या कोई भी वस्तु नहीं लेनी चाहिए. यदि किसी से प्रेम वश प्राप्त भी हो तो कोशिश करनी चाहिए की उसे किसी न किसी रुप में वापिस किया जा सके. भाई से प्राप्त हुई वस्तु को उसकी संतानों को, मामा से खाने पर मामा की संतानों को वह लौटा देना चाहिये, अगर ससुराल से कोई वस्तु खाते हैं तो उसे साले की संतान को लौटा देना चाहिये क्योंकि जिसका जो भी खाया है, उसको लौटा देने पर दोबारा और दुगना मिलता है. अगर वापिस किया जाए तो उसका भुगतान करना पड़ता है.

गणेश पूजन विधि

दमनक चतुर्थी के दिन भगवान श्री गणेश जी का पूजन किया जाता है. इस दिन प्रात:काल उठते हू भगवान श्री गणेश जी का स्मरण करना चाहिए और उनके 11 नामों का स्मरण अवश्य करें. . एकदंत, गजकर्ण, लंबोदर, कपिल, गजानन, विकट, विघ्नविनाशक, विनायक, भालचन्द्र, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष. भगवान के नाम स्मरण के पश्चात स्नान इत्यादि कार्यों से निवृत होकर पूजन का आरंभ करना चाहिए.

भगवान गणेश जी के सम्मुख बैठ कर ध्यान करें और पुष्प, रोली ,अक्षत आदि चीजों से पूजन करें और विशेष रूप से सिन्दूर चढ़ाएं तथा दूर्बा अर्पित करनी चाहिए. गणेश जी को लड्डू प्रिय हैं उन्हें यह चढ़ाने चाहिये. गणेश जी के मंत्र ॐ चतुराय नम: , ॐ गजाननाय नम: , ॐ विघ्रराजाय नम: ॐ प्रसन्नात्मने नम: का जाप करना चाहिए.

गणेश जी की मूर्ती को स्नान कराना चाहिये. गंगाजल और पंचामृत से स्नान कराकर शुद्ध जल से स्नान करवाना चाहिये. इसके बाद मंदिर में मूर्ति को स्थापित करना चाहिये. श्रद्धा पूर्वक भगवान के समक्ष पुष्प चढ़ाने चाहिये. चन्दन, रोली, सिन्दूर,अक्षत से भगवान का तिलक करना चाहिये. ,फूल माला पहनानी चाहिये.आभूषण एवं सुगन्धित पदार्थ अर्पित करने चाहिये. धूपबत्ती, कपूर, दीपक जलाने चाहिये. भगवान की कथा करनी चाहिये और उसके बाद आरती करके पूजन संपन्न करना चाहिये. आरती पश्चात भगवान को भोग लगाएं और अपने द्वारा भगवान से घर परिव एवं संसार के कल्याण की कामना करनी चाहिये.

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अनंग त्रयोदशी व्रत 2024 : प्यार में सफलता का मंत्र

चैत्र शुक्ल पक्ष को अनंग त्रयोदशी का उत्सव मनाया जाता है. इस वर्ष अनंग त्रयोदशी 21 अप्रैल 2024 में रविवार के दिन मनाया जाएगा. अनंग त्रयोदशी के दिन अनंग देव का पूजन होता है. अनंग का दूसरा नाम कामदेव है. इस दिन भगवान शिव का पूजन बहुत ही बड़े पैमाने पर संपन्न होता है.

चैत्रोत्सवे सकललोकमनोनिवासे।

कामं त्रयोदशतिथौ च वसन्तयुक्तम्।।

पत्न्या सहाच्र्य पुरुषप्रवरोथ योषि।

त्सौभाग्यरूपसुतसौख्ययुत: सदा स्यात्।।

चैत्र माह में अनंग उत्सव का आयोजन बहुत ही सुंदर एवं मनोहारी दिवस होता है. इस समय पर मौसम भी अपनी अनुपम छटा लिये होता है. इस दिन घरों के आंगन में रंगोली इत्यादि बनाई जाती है. त्रयोदशी तिथि का अवसर प्रदोष समय का भी होता है. इस दिन यह दोनों ही योग अत्यंत शुभ फलदायक होते हैं. अनंग त्रयोदशी का उपवास दाम्पत्य में प्रेम की वृद्धि करता है. गृहस्थ जीवन का सुख व संतान का सुख प्राप्त होता है.

पुराणों में भी दिन की महत्ता को दर्शाया गया है. इस दिन अनंग देव का पूजन करने से भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है. यह समय वसंत के सुंदर रंग से सजे इस उत्सव की शोभा अत्यंत ही प्रभावशाली है.

अनंग त्रयोदशी का व्रत स्त्री व पुरूष सभी किए लिए होता है. जो भी व्यक्ति जीवन में प्रेम से वंचित है उसके लिए यह व्रत अत्यंत ही शुभदायक होता है. भगवान शंकर की प्रिय तिथि होने के कारण और उन्ही के द्वारा अनंग को दिये गए वरदान स्वरुप यह दिवस अत्यंत ही महत्वपूर्ण हो जाता है. सौभाग्य की कामना के लिए स्त्रियों को इस व्रत का पालन अवश्य करना चाहिये. इस व्रत के प्रभाव से जीवन साथी की आयु भी लम्बी होती है और साथी का सुख भी प्राप्त होता है.

अनंग त्रयोदशी पूजा विधि

अनंग का एक अन्य नाम कामदेव हैं. अनंग अर्थात बिना अंग के, जब भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया तो रति द्वारा अनंग को जीवत करने का करुण वंदन सुन भगवान ने कामदेव को पुन: जीवन प्रदान किया. किंतु बिना देह के होने के कारण कामदेव का एक अन्य नाम अनंग कहलाया है. इस दिन शिव एवं देवी पार्वती जी का पूजन किया जाता है.

इस पूजन द्वारा सौभाग्य, सुख ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है. इसके साथ जीवन में प्रेम की कभी कमी नहीं रहती है. इस दिन पूजन करने से वैवाहिक संबंधों में सुधार होता है. प्रेम संबंध मजबूत होते हैं. इस दिन कामदेव और रति का भी पूजन होता है. इस त्रयोदशी का व्रत करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है.अनंग त्रयोदशी का पर्व महाराष्ट्र और गुजरात में बहुत व्यापक स्तर में मनाया जाता है.

इसके अलावा दिसंबर माह में आने वाली अनंग त्रयोदशी को मुख्य रूप से उत्तर भारत में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है. अनंग त्रयोदशी के दिन गंगाजल डालकर सर्वप्रथम सुबह स्नान करना चाहिए. साफ शुद्ध सफ़ेद कपड़े पहनने चाहिये. भगवान शिव का नाम जाप करना चाहिए. गणेश जी की पूजा करनी चाहिये और श्वेत रंग के पुष्प अर्पित करने चाहिये. इसके अलावा पंचामृत, लड्डू, मेवे व केले का भोग चढ़ाना चाहिये. शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिये. साथ ही दूध, दही, ईख का रस, घी और शहद से भी अभिषेक करना चाहिये. इसके साथ ही “ॐ नमः शिवाय” मंत्र का जाप करते रहना चाहिये.

भगवान शिव को सफेद रंग की वस्तुएं अर्पित करनी चाहिये. इसमें सफेद वस्त्र, मिठाई, बेलपत्र को चढ़ाना चाहिये. इस पूजन में तेरह की संख्या में वस्तु भी भेंट कर सकते हैं जिसमें तेरह सिक्के, बेलपत्र, लडडू, बताशे इत्यादि चढ़ाने चाहिये. पूजा में अशोक वृक्ष के पत्ते और फूल चढ़ाना बहुत शुभ होता है. साथ ही घी के दीपक को अशोक वृक्ष के समीप जलाना चाहिये. इस मंत्र का जाप करना चाहिये – “नमो रामाय कामाय कामदेवस्य मूर्तये। ब्रह्मविष्णुशिवेन्द्राणां नम: क्षेमकराय वै।।”

यदि संभव हो सके तो व्रत खना चाहिये इसमें फलाहार का सेवन किया जा सकता है. रात्रि जागरण करते हुए अगले दिन पारण करना चाहिये. इसमें ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिये और धन इत्यादि दक्षिणा स्वरुप भेंट देना चाहिये.

अनंग त्रयोदशी व्रत कथा

दक्ष प्रजापति के यज्ञ में सती के आत्मदाह के बाद, भगवान शिव बहुत व्यथित होते हैं. वह सती के शव को अपने कंधे पर उठा कर चल पड़ते हैं. ऎसे में सृष्टि के संचन पर अवरोध दिखाई पड़ने लगता है और विनाशकारी शक्तियां प्रबल होने गती हैं. भगवान शिव पर से सती के भ्रम को खत्म करने के लिए, भगवान विष्णु ने उसके शव को खंडित कर दिया और तब, भगवान शिव ध्यान में लग गए.

दूसरी तरफ दानव तारकासुर के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे. उसने देवलोक पर आक्रमण किया और देवराज इंद्र को पराजित कर दिया. सभी भगवान उनकी हालत से परेशान थे. इंद्र का राज्य छिन जाने पर वह देवताओं समेत मदद के लिए भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचे. भगवान ब्रह्मा ने इस पर विचार किया और कहा कि केवल भगवान शिव का पुत्र ही तारकासुर का वध कर सकता है. यह सुनकर सभी चिंतित हो गए क्योंकि भगवान शिव सती से अलग होने के शोक में ध्यान कर रहे थे. भगवान शिव को जगाना और उनका विवाह करवाना सभी देवताओं के लिए असंभव था.

कामदेव ने भगवान शिव को त्रिशूल से जगाने का फैसला किया. कामदेव सफल हुए और भगवान शिव की समाधि टूट गई. बदले में, कामदेव ने अपना शरीर खो दिया. क्योंकि भगवान के तीसरे नेत्र के खुलते ही कदेव का शरीर भस्म हो गया. जब सभी ने भगवान शिव को तारकासुर के बारे में बताया, तो उनका गुस्सा कम हो गया और उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ.

भगवान ने रति को बताया कि कामदेव अभी भी जीवित हैं लेकिन, शरीर रुप में नहीं है. भगवान शिव ने उसे त्रयोदशी तक प्रतीक्षा करने को कहा. उन्होंने कहा, जब विष्णु कृष्ण के रूप में जन्म लेंगे, तब कामदेव, कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेंगे. इस प्रकार कामदेव को पुन: जीवन प्राप्त होता है.

अनंग त्रयोदशी: कंदर्प ईश्वर दर्शन

कामदेव को कंदर्प के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन उज्जैन के कंदर्प ईश्वर के दर्शन करना बहुत पुण्यदायी माना जाता है. जो भक्त यहां आते हैं और भगवान शिव के दर्शन करते हैं, उन्हें देव लोक में स्थान मिलता है.

जब भगवान शिव ने प्रद्युम्न के रूप में कामदेव को वापस पाने के बारे में रति को बताया, तो उन्होंने यह भी कहा कि जो व्यक्ति अनंग त्रयोदशी का व्रत सुव्यवस्थित तरीके से करेगा, उसे सुखी वैवाहिक जीवन मिलता है उनके वैवाहिक जीवन में शांति, खुशी और धन का आगमन होता है. इस व्रत का पालन करने से संतान का सुख मिलता है.

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नारद जयंती 2024 : सफल होंगे सभी काम

नारद मुनि जी को ब्रह्मा जी का मानस पुत्र कहा जाता है. इस वर्ष नारद जयंती 25 मई 2024 को शनिवार के दिन मनाई जाएगी. इस नारद जयंती के उपलक्ष्य पर देश भर में कई तरह के धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है.

नारद मुनी को सदैव भ्रमण शील होने का वरदान मिल हुआ था. इसलिए वह कभी भी एक स्थान पर अधिक समय नहीं रहते. ज्येष्ठ माह के कृष्‍ण पक्ष की द्व‍ितीया को नारद जयंती के रुप में मनाई जाती है. हिन्‍दू शास्‍त्रों के अनुसार नारद को ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माना गया है. नारद को देवताओं का ऋष‍ि माना जाता है. इसी वजह से उन्‍हें देवर्षि भी कहा जाता है. मान्‍यता है कि नारद तीनों लोकों में विचरण करते रहते हैं.

देवर्षि नारद व लोक कल्याण भावना

नारद मुनि भगवान श्री विष्णु के भक्त और सदैव नारायण नारायण नाम का स्मरण करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहते हैं. देवर्षि नारद भक्ति और शक्ति का अदभुत समन्वय रहे हैं. यह सदैव लोक कल्याण के प्रचार और प्रसार को अविरल गति से प्रवाहित करने वाले एक महत्वपूर्ण ऋषि भी हैं.

शास्त्रों के अनुरुप सृष्टि में एक लोक से दूसरे लोक में विचरण करते हुए नारद मुनि सभी के कष्टों को प्रभु के समक्ष रखते हैं. सभी जन की सहायता करते हैं. देवर्षि नारद देव और दैत्यों सभी में पूजनीय स्थान प्राप्त करते हैं. सभी वर्ग इनका उचित सम्मान करते हैं. क्योंकि ये किसी एक पक्ष की बात नहीं करते हैं, अपितु सभी वर्गों को साथ में लेकर चलने की इनकी अवधारणा ही इन्हें सभी का पूजनीय भी बनाती है.

वेद एवं पुराण में ऋषि नारद जी के संदर्भ में अनेकों कथाएं प्राप्त होती है. हर स्थान में इनका होना उल्लेखनिय भूमिका दर्शाता है. शिवपुराण हो या विष्णु पुराण, भागवद में श्री विष्णु स्वयं को नारद कहते हैं. रामायण के संदर्भ में भी इन्हीं की भूमिका सदैव प्रमुख रही. देवर्षि नारद धर्म को एक बहुत ही श्रेष्ठ प्रचार रुप में जाना गया है.

नारद मुनि का वीणा गान और ग्रंथों के निर्माता

नारद मुनी के पास उनका प्रमुख संगीत वाद्य वीणा है.इस वीणा द्वारा वह सभी जनों के दुखों को दूर करते हैं. इस वीणा गान में वह सदैव नारायण का पाठ करते नजर आते हैं. अपनी वीण के मधुर स्वर से वह सभी के कष्टों को दूर करने में वह सदैव ही अग्रीण रहे.

नारद जी को ब्रह्मा से संगीत की शिक्षा प्राप्त हुई थी. नारद अनेक कलाओं और विद्याओं में निपुण रहे. नारद मुनी को त्रिकालदर्शी भी बताया जाता है. ब्रह्मऋषि नारद जी को शास्त्रों का रचियता, आचार्य, भक्ति से परिपूर्ण, वेदों का जानकार माना गया. संगीत शास्त्र में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है.

नारद मुनि द्वारा किये गए कार्य

नारद मुनी के अनेकों कार्यों का वर्णन मिलता है जो सृष्टि के संचालन में महत्व रखता है. श्री लक्ष्मी का विवाह विष्णु के साथ होना, भगवान शिव का देवी पार्वती से विवाह संपन्न कराना, उर्वशी और पुरुरवा का संबंध स्थापित करना. महादेव द्वारा जलंधर का विनाश करवाना. वाल्मीकि को रामायण की रचना निर्माण की प्रेरणा देना. व्यासजी से भागवत की रचना करवाना. इत्यादि अनेकों कार्यों को उन्हीं के द्वारा संपन्न होता है.

हरिवंश पुराण अनुसार जी दक्ष प्रजापति के हजारों पुत्रों बार-बार संसार से मुक्ति एवं निवृत्ति देने में नारद जी की अहम भूमिका रही. उन्हीं के वचनों को सुनकर दक्ष के पुत्रों ने सृष्टि को त्याग दिया. मैत्रायी संहिता में नारद को आचार्य के रूप में स्थापित किया गया है.

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चैत्र पूर्णिमा 2024 : शुभ संयोग, जानें इसकी महिमा और पूजा कथा विधि की विस्तारपूर्वक

चैत्र माह की पूर्णिमा तिथि को चैत्र पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है. चैत्र की पूर्णिमा को चैती पूर्णिमा, चैत पूर्णिमा, चैती पूनम आदि नामों से पुकारा जाता है. इस वर्ष 23 अप्रैल 2024 को चैत्र पूर्णिमा का त्यौहार मनाया जाएगा. चैत्र पूर्णिमा का दिन हिन्दु पंचांग में एक बहुत ही खास दिन होता है. इस दिन पवित्र नदियों में स्नान और धर्म स्थलों में जाकर दान पुण्य एवं पूजा पाठ करने का बहुत ही शुभ एवं अमोघ फलदायक प्रभाव माना जाता है.

चैत्र पूर्णिमा: हनुमान जन्मोत्सव

चैत्र पूर्णिमा के शुभ दिन में सभी ओर माहौल भक्तिमय सा होता है. दक्षिण भारत में इस दिन को भगवान हनुमान जी के जन्म उत्सव के रुप में मनाते हैं. हनुमान जयंति कि तिथि के संबंध में दो मत बहुत अधिक प्रचलित हैं एक मत अनुसार चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन हनुमा जयंती मनाई जाती है और दूसरे मत अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन हनुमान जयंती मनाई जाती है.

चैत्र पूर्णिमा को हनुमान जयंती का विचार दक्षिण भारत में अधिक मान्य रहा है. जबकि उत्तर भारत में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमान दिवस की मान्यता रही है. दोनों ही मतों के अनुसार श्री हनुमान भगवान जी का जन्म महानिशा काल समय हुआ था. इसलिए ये दोनों ही मत प्रचलित एवं मान्य रहे हैं.

चैत्र पूर्णिमा के दिन सत्यनारायण कथा पूजन

चैत्र पूर्णिमा के दिन भगवान श्री सत्यनारायण जी का पूजन एवं कथा करने से बहुत शुभ एवं सकारात्मक फल प्राप्त होते हैं. इस दिन भगवान सत्यनारायण की कथा का पठन-पाठन होता है. सत्यनारायण कथा, हवन एवं यज्ञ किया जाता है.

चैत्र पूर्णिमा : चंद्रमा का पूजन

चैत्र पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के पूजन का विशेष महत्व होता है. पूर्णिमा तिथि के दौरान चंद्रमा अपनी संपूर्ण कलाओं से युक्त होता है. धार्मिक मान्यताओं एवं शास्त्रों में पूर्णिमा तिथि के दिन चंद्रमा का पूजन करने से सुख और सौभाग्य की प्राप्ति होती है. इस दिन चंद्रमा की किरणों से अमृत तुल्य रोशनी पृथ्वी पर पहुंचती है. जिसका सेवन सभी को करना चाहिए. चंद्रमा के प्रकाश की शीतलता इस दिन अत्यधिक होती है. विशेष अनुष्ठानों एवं मंत्र सिद्धि के लिए भी पूर्णिमा तिथि को बहुत ही प्रभावशाली समय माना गया है. मानसिक शांति एवं एकाग्रता की प्राप्ति के लिए पूर्णिमा तिथि के दिन चंद्रमा का पूजन अवश्य करना चाहिए.

चैत्र पूर्णिमा के दिन रात्रि के समय कच्चे दूध-जल और चीनी का मिश्रण बना कर चंद्र देव को चढ़ाना चाहिए. ॐ सों सोमाय नम: मंत्र का जाप करते हुए जल अर्पित करना चाहिए. इसके साथ ही चंद्रमा की आरती और चंद्रमा के मंत्र जाप करते हुए पूजन करना चाहिए. चंद्रमा की रोशनी में कुछ समय ध्यान लगाना चाहिए. जिन लोगों की कुण्डली में चंद्र ग्रह से संबंधित कोई परेशानी उत्पन्न होती है या जिन बच्चों में एकाग्रता का अभाव है उन्हें इस दिन विशेष रुप से चंद्र देव का पूजन करना चाहिए. खीर का भोग पूर्णिमा के दिन चंद्र देव को अवश्य लगाना चाहिए और खीर को गरीबों में बांटना चाहिये.

चैत्र पूर्णिमा : वैशाख स्नान का आरंभ

चैत्र पूर्णिमा के दिन से ही वैशाख स्नान का आरंभ भी होता है. चैत्र पूर्णिमा के बाद वैशाख माह का आरंभ होता है. अत: पूर्णिमा तिथि के साथ ही वैशाख माह में किए जाने वाले धार्मिक कृत्यों में से एक वैशाख स्नान के शुरुआत का समय होता है. इस दिन से वैशाख माह महात्म्य का आरंभ होता है. पूरे एक माह चलने वाले धार्मिक क्रिया कलापों एवं दान, जप तप इत्यादि को इसी चैत्र पूर्णिमा के दिन से शुरु कर दिया जाता है.

वैशाख माह की जो भी उपयोगिता है और जो भी काम इस दौरान करने चाहिये उन सभी के नियमों की शुरुआत इसी चैत्र पूर्णिमा के दिन से मानी जाती है. चैत्र शुक्ल पूर्णिमा से वैशाख मास स्नान आरंभ हो जाता है. यह पूरे माह तक चलता है. स्कंदपुराण में वैशाख मास के समय स्नान के महत्व को बहुत ही सुंदर रुप् से वर्णित किया गया है. वहीं भगवन श्री कृष्ण स्वयं वैशाख माह की महत्ता को भी बताते हैं. जो भी व्यक्ति चैत्र पूर्णिमा के दिन से पूरे वैशाख मास तक स्नान, व्रत, जप तप एवं दान का कार्य करते हैं उन्हें भगवान विष्णु का कृपा प्राप्त होती है. अंत में व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है.

चैत्र पूर्णिमा में दीप दान का महत्व

चैत्र पूर्णिमा की रात्रि में दीप दान का भी बहुत महत्व रहता है. इस दिन रात में असंख्य दीपों को जला कर पवित्र नदियों में प्रवाहित करने से कामनाएं पूर्ण होती है. घरों एवं मंदिरों में दीपक जलाए जाते हैं.

चैत्र पूर्णिमा के दिन ब्रज में होता है महारास

चैत्र पूर्णिमा के दिन पौराणिक मान्यता यह भी है की इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने ब्रज भूमि पर महारास का आयोजन किया था. भगवान कृष्ण ने राधा जी ओर गोपियों के साथ रास रचाया था, अत: आज भी इस दिन के शुभ अवसर को मथुरा व ब्रज क्षेत्र में उल्लास और उत्साह के साथ मनाया जाता है. भगवान कृष्ण की ये रासलीला आत्मा का परमात्मा के साथ एकाकार और ब्रह्म की अनुभूति को दर्शाने वाली होती है. सभी कुछ प्रभु में लिन होता है और सभी के स्वरुप में प्र्भु का स्वरुप लक्षित होता है. यही इस रासलीला का सार भी है. मथुरा, वृंदावन बृज आदि सभी प्रमुख स्थानों पर इस दिन विशेष पूजा एवं भोग का आयोजन होता है और भागवत इत्यादि का पाठ भी किया जाता है.

चैत्र पूर्णिमा पर देश भर में धूम धाम से मनाते हैं

चैत्र पूर्णिमा को संपूर्ण भारत वर्ष में उत्साह के साथ मानाया जाता है. इस उत्सव को अनेक चैती पूर्णिमा, हनुमान जी के जन्मोत्सव ओर अनेक रुपों में मनाते हैं. दक्षिण भारत में इस दिन को हनुमाना जी जन्म दिवस के रुप में मनाते हैं. चैत्र पूर्णिमा के दिन श्री सत्यनारायण कथा का आयोजन भी किया जाता है. मंदिरों एवं घरों में लोग भजन एवं किर्तन करते हैं. जगह-जगह पर भंडारों का आयोजन भी होता है.

चैत्र पूर्णिमा के अवसर पर देश भर में भव्य मेलों का आयोजन भी होता है. पवित्र नदियों एवं घाटों को सजाया जाता है. इस समय पर में कई संस्कृतियों को एकाकार देखने को मिलता है. लाखों लोग पवित्र नदियों तालाबों एवं घाटों पर जाकर स्नान एवं पूजा पाठ इत्यादि कार्य भी करते हैं. ग्रामीण क्षेत्र में इस दिन विशेष रुप से उत्साह देखा जाता है. क्योंकि कृषक वर्ग इस समय पर चना, सरसों, मटर इत्यादि फसलें तैयार कर लेता है और किसान के घर में इससे धन धान्य का आगमन भी होता है. अपनी खेती से संबंधित नई वस्तुओं को भी खरीदने का सामर्थ्य रख पाते हैं इसलिए उनके जीवन शैली में इस दिन का अत्यंत ही महत्व रहता है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन श्रद्धा एव विश्वास से मांगी गईं मुरादें भी पूरी होती हैं.

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बुद्ध पूर्णिमा 2024 – कथा और पूजा विधि

भगवान बुध के जन्म दिवस को बुद्ध पूर्णिमा के रुप में मनाए जाने की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. इस वर्ष बुध पूर्णिमा 23 मई 2024 को बृहस्पतिवार के दिन मनाई जाएगी. बुद्ध पूर्णिमा को “बुद्ध जयन्ती” और “वैसाक” और “वैशाख पूर्णिमा” नामों से भी पुकारा जाता है.

बुध पूर्णिमा केवल बौद्ध धर्म के मानने वालों के लिए ही पूजनिय नहीं है, अपितु यह हिंदू धर्म में भी बहुत ही पूजनिय समय है. इसका मुख्य कारण यह है की भगवान बुध को भगवान विष्णु के अवतार रुप में देखा जाता है. भगवान बुद्ध, बौद्ध धर्म के संस्थापक रहे. बौध धर्म विश्वभर में फैला हुआ है. बौद्ध धर्म को मानने वालों की संख्या भी लाखों में है.

बुद्ध पूर्णिमा पूजन विधि

बौद्ध धर्म के अनुयायियों के अतिरिक्त हिन्दू धर्म को मानने वाले भी बहुत उत्साह के साथ मनाते हैं. ऎसे में वैशाख माह की पूर्णिमा बौद्ध धर्माम्बियों और हिन्दूओं के लिए सबसे पवित्र एवं विशेष पर्व होता है. देश भर में इस शुभ समय पर विशेष समारोह और कार्यक्रम आयोजित होते हैं.

  • श्रीलंकाई इस दिन को ‘वेसाक’ उत्सव के रूप में मनाते हैं जो ‘वैशाख’ शब्द का अपभ्रंश है.
  • इस दिन घरों में दीपक जलाए जाते हैं.
  • मंदिरों और घरों को सजाया जाता है.
  • प्रार्थनाएँ और सभाएं आयोजित होती हैं.
  • बौद्ध धर्मग्रंथों का निरंतर पाठ किया जाता है.
  • गरीबों को भोजन व वस्त्र बांटे जाते हैं ओर खाने की वस्तुओं को बांटा जाता है.

भगवान गौतम बुद्ध का जन्म समय और उनसे संबंधित कथाएं

बुद्ध जन्म कथा

गौतम बुद्ध का जन्म समय 563 ईसा पूर्व का माना गया है. बुद्ध जो सिद्धार्थ थे और एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन है. बुद्ध का जन्म लुंबिनी में इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय कुल के राजा शुद्धोधन के घर में होता है. इनकी माता का नाम महामाया था. बुद्ध के जन्म के सातवें दिन बाद इनकी माता का निधन हो जाता है. इसके पश्चात इनका लालन पालन महाप्रजापती गौतमी ने किया.

बुद्ध के जन्म का नाम सिद्धार्थ था पर जब इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, तो यह बुद्ध बने. अपनी अथक साधना के पश्चात बोध गया जो बिहार में स्थित है, उस स्थान पर बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त होता और तब से उनका नाम सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध पड़ा और वह भगवान बुद्ध कहलाए.

गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण इन्हें गौतम भी कहा गया. कहा जाता है की सिद्धार के जन्म समय एक ऋषि ने यह भविष्यवाणी की थी की या तो यह यह बालक महान राजा बनेगा या फिर एक महान तपस्वी जो विश्व का कल्याण करने वाला और मार्गदर्शक होगा. जब पिता ने इस बात को सुना और अन्य ज्योतिष विद्वानों ने भी इसी बात की पुष्टि करी तब राजा शुद्दोधन बहुत चिंतित हुए और उन्होंने सिद्धार्थ को राज भवन की सीमा के भीतर ही रखने का निर्णय किया.

आरंभिक जीवन

सिद्धार्थ गौतम की आरंभिक शिक्षा पूर्ण रुप से हुई. उन्हें वेद और उपनिषद का ज्ञान मिला, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा उन्होंने प्राप्त की. सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा के साथ विवाह हुआ. पिता शुद्दोधन द्वारा सिद्धार्थ को सभी प्रकार की सुख सिविधाएं प्रदान की गई थीं. उन्हें जीवन में किसी भी दुख का सामना करना पड़े ऎसी कोई भी स्थिति इनके समक्ष कभी भी घटित न हो पाए, इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता था. वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में सिद्धार्थ अपनी पत्नी यशोधरा के साथ रहे, जहां उन्हें पुत्र संतान की प्राप्ति हुई जिसका नाम राहुल रखा गया.

इन सभी चीजों के बावजूद भी सिद्धार्थ के मन में सदैव एक अस्थिरता मौजुद रहती थी. उनमें करुणा और दया की अनुभूति बहुत गहन थी. वह सभी पर एक प्रकार का भाव रखते थे. जीवन और उसके अस्तित्व के प्रति उनके मन में हमेशा ही चिंतन चलता रहता था.

सिद्धार्थ से बुद्ध बनने तक का सफर

सिद्धार्थ के बुद्ध बनने का सफर बहुत से पड़ावों से होकर गुजरता है. अपने जीवन के आरंभिक समय के दौरान सिद्धार्थ को उनके पिता शुद्धोधन ने उन सभी चीजों से बचाने का प्रयास किया जो सिद्धार्थ के मन को विरक्ति की ओर ले जा सकती थीं.

सिद्धार्थ के लिए सभी सुखों का भरपूर प्रबंध था. यहां तक की मौसम के अनुरुप उनके लिए महलों की व्यवस्था भी थी. महलों में दास-दासियां सदैव वहां उपस्थित रहती थीं. हर तरफ लुभावनी सौंदर्य से युक्ति वस्तुओं की भरमार थी. किसी भी प्रकार के दुख का वहां स्थान नहीं था. यहां तक की जीवन की अवस्थाओं वृद्धा अवस्था, रोग, या मृत्यु जैसी कोई बात भी वहां नहीं थी.

परंतु सिद्धार्थ का मन किसी न किसी रुप में भटकाव को भी अनुभव करता है. कहा जाता है की एक बार सिद्धार्थ अपने भवन की सीमा से परे भ्रमण के लिए निकल पड़ते हैं. ऎसे में उन्हें मार्ग के किनारे पर एक वृद्ध व्यक्ति दिखाई देता है. अपने सेवक से उस वृद्ध की इस दशा के बारे में जब सिद्धार्थ पूछते हैं तो उन्हें पता चलता है की सभी व्यक्ति एक दिन वृद्ध अवश्य होते हैं. वहीं थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्हें एक रोगी व्यक्ति दिखाई देता है. तब उनका सेवक उन्हें बताता है की किसी न किसी कारण से व्यक्ति रोगी भी हो जाता है. वहीं थोड़ा ओर आगे निकले पर उन्हें शव यात्रा दिखाई देती है जिस के पीछे बहुत से लोग रोते बिलखते जा रहे होते हैं. सेवक के बताने पर की जीवन का अंत ही मृत्यु है और सभी को एक दिन मृत्यु अवश्य प्राप्त होती हैइसके बाद उन्हें एक संत दिखाई दिया जो. मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर रहते हुए प्रसन्नमन दिखाई दिया.

सिद्धार्थ के समक्ष यह सभी दृश्य उनके जीवन का संपूर्ण रंग बदल देते हैं. उसी समय उनके मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न हो जाता है. जीवन के सच्चे मर्म को समझने और सृष्टि के रहस्यों को समझने में आगे बढ़ते हुए सन्यास का मार्ग चुनते हैं.

अपनी पत्नी यशोधरा और छोटे बच्चे राहुल को छोड़ कर, राज्य का मोह त्याग कर सिद्धार्थ निकल पड़ते हैं. अकेले ही उस ज्ञान के लिए निकल पड़ते हैं जो उनके जीवन के मार्ग को सही दिशा दे सकने में समर्थ होता है. सिद्धार्थ ज्ञान को पाने के लिए कठिन तपस्या करते हैं, वह निराहार भी रहते हैं. बुद्ध के प्रथम गुरु आलार कलाम थे, जिनसे उन्होंने संन्यास में शिक्षा ग्रहण की.

एक लम्बे समय से सिद्धार्थ वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या कर रहे थे. तपस्या के प्रभाव से उनकी देह भी कमजोर हो गयी थी. उसी स्थान पर सुजाता नामक स्त्री से जब उन्हें खीर प्राप्त होती है तो वह खीर खाकर उपवास तोड़ते हैं. कहा जाता है की यह सुजाता कन्या अपनी मनोकामना के पूर्ण होने की खुशी में उस स्थान पर आती है, जहां सिद्धार्थ तपस्या कर रहे होते हैं. सिद्धार्थ को खीर देते समय वह कहती है की जिस प्रकार मेरी मनोकामना पूर्ण हुई उसी प्रकार आपकी इच्छा भी पूर्ण हो. उस रात्रि समय सिद्धार्थ को ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह बुद्ध कहलाते हैं.

भगवान बुध का ये स्वरुप यह दर्शाता है की जीवन में त्याग एवं इच्छाओं की समाप्ति ही मोक्ष के मार्ग की ओर ले जाने में सक्षम बन सकती है.

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2024 जानें कब शुरु होगा वैशाख मास स्नान और क्या है इसकी महिमा

वैशाख मास में स्नान, पूजन विधि और जाने इसकी महिमा विस्तार से

चैत्र माह की पूर्णिमा और हनुमान जयंती के साथ ही वैशाख माह के स्नान पर्व की परंपरा आरंभ हो जाती है. हिन्दू पंचाग अनुसार प्रत्येक माह किसी न किसी रुप में बहुत ही प्रभावशाली रुप से असर डालने वाला होता है. वैशाख मास में श्री विष्णु भगवान का पूजन एवं गंगा स्नान की महत्ता बहुत अधिक रही है. इस माह के आरंभ से ही वैशाख माह स्नान का आरंभ होता है. इस पर्व के दौरान पवित्र नदियों एवं धर्म स्थलों पर लोगों का आना आरंभ होने लगता है. इस माह का प्रत्येक दिन किसी न किसी रुप में पूजा-पाठ और जप-तप के संदर्भ में बहुत ही शुभदायक होता है.

शास्त्रों के अनुसार बैशाख प्रतिपदा से ही गर्मी शुरू हो जाती है, और वहीं देश के अलग-अलग स्थानों पर इस उत्सव को अलग-अलग नामों से मनाया जाता है. पंजाब में वैशाखी का पर्व होता है. बंगाल में पहला वैशाख, असम में बिहु बिशु जैसे नाम होते है. ओडिशा में “पाना” संक्रांति इत्यादि नामों से मनाया जाता है.

इस समय पर शुरु होगा वैशाख मास

इस वर्ष वैसाख स्नान का आरंभ 23 अप्रैल से शुरू होकर 23 मई तक रहेगा. वैशाख माह की लंबी अवधि फलदायी होती है. इसी के साथ प्रयागराज व हरिद्वार में इस मौके पर भक्तों का जमावड़ा होता है. बैसाख मास पर कई महत्वपूर्ण पर्व भी आते हैं, जिनके समय वैशाख स्नान की उत्तम तिथि भी होती है. इस समय पर स्नान का महत्व कई गुना बढ़ जाता है.

वैशाख मास की शुरुआत अप्रैल और मई के मध्य में होती है. कहा गया है कि विशाखा नक्षत्र से सम्बन्ध होने के कारण इस माह को वैशाख नाम प्राप्त हुआ है. इस समय के दौरान जीवन को सुखी और समृद्ध करने के अनेकों अवसर मिलते हैं. इस शुभ समय पर जितना भजन किर्तन एवं दान किया जाए व कई गुना शुभता देने में सहायक बनता है. इस वैशाख मास में भगवान श्री विष्णु , देवी की उपासना का विधान है. श्री बांके बिहारी जी के चरणों के दर्शन भी इसी मास में होते हैं.

वैशाख माह का आरंभ और महत्व

वैशाख माह की प्रतिपदा से ही इस माह के शुभ दिनों का आरंभ होता है. इस दिन पवित्र नदियों अथवा जलाशयों इत्यादि मे स्नान किया जाता है. अगर यह सब संभव न हो पाए तो घर पर ही नहाने के पानी में गंगाजल मिला कर स्नान किया जा सकता है. साफ स्वच्छ वस्त्र धारण करते हुए श्री विष्णु भगवान का स्मरण किया जाता है. तुलसी का पौधा भी लगाया जाता है और संपूर्ण माह इसकी पूजा होती है. इसके साथ ही रात्रि जागरण भजन कार्य होते हैं.

पूजा-अर्चना के लिए श्रद्धालुओं एवं भक्तों की भीड़ सभी देवालयों एवं धर्म स्थलों पर भी लगनी आरंभ हो जाती है. वैशाख माह की सुबह से ही पूजा का सिलसिला शुरू हो जाता है और जो रात्रि भर तक जारी रहता है. इस समय भगवान को भोग स्वरुप मौसम के अनुरुप फल एवं खाद्य पदार्थ अर्पित किए जाते हैं. पानी का दान इस समय पर बहुत ही प्रभावशाली माना गया है. “जल ही जीवन है” और वैशाख माह में इसकी महत्ता भी स्पष्ट रुप से देखने को मिलती है. जल के दान को अत्यंत ही पुण्यदायी माना जाता है.

मान्यता है कि वैशाख मास में जल का दान करने से देव और पूर्वज प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद प्रदान करते हैं. इस दिन से पूरे माह प्रतिदिन मंदिरों में विभिन्न प्रकार के भोज्य पदाथों एवं फलों के भोग लगाने की परंपरा रही है.

वैशाख मास में तुलसी पूजा महत्व

इस माह के दौरान तुलसी पूजन को अत्यंत शुभ माना गया है. इस मास के आरंभ में तुलसी को जल से नियमित रुप से सींचा जाता है. तुलसी के पौधे को लगाते हैं और नियमित रुप से सुबह और संध्या के समय पर तुलसी पूजन होता है. तुलसी जी की पूजा में तुलसी कथा एवं तुलसी आरती की जाती है. तुलसी के समक्ष दीप प्रज्जवलित किया जाता है. इसके सथ ही शालिग्राम का भी पूजन किया जाता है. तुलसी पूजा में तुलसी की माला से जाप भी होता है. श्री विष्णु भगवान का नाम स्मरण भी इस समय पर होता है.

वैशाख मास में होता है दीप दान

वैशाख मास में दीप दान करने की भी बहुत महत्ता होती है.इस दीप दान को जलाश्यों के समीप नदियों में एवं विभिन्न पेड़ पौधों के समक्ष किया जाता है. दीपदान को गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियों पर किया जाता है. घरों पर भी मुख्य दरवाजों पर दीपक जलाए जाते हैं. तुलसी, पीपल, वट वृक्ष पर भी दीपक जलाने की परंपरा बहुत प्राचीन समय से चली आती रही है. दीप-दान को प्रात:काल समय और शाम के समय पर किया जाता है. दीप दान के समक्ष मान्यता है की इसके प्रकाश के समक्ष जीवन के सभी अंधकार दूर होते हैं. जीवन में सकारात्मकता का प्रवाह बनता है.

वैशाख स्नान की मुख्य तिथियां

कुछ मुख्य तिथियों के दिन स्नान का महत्वपूर्ण समय रहेगा.स्कन्दपुराण में वैशाख मास की महिमा के विषय में बताया गया है. इसमे वैष्णव खण्ड के अनुसार वैशाख मास में किया गया प्रत्येक शुभ कार्य अत्यंत ही प्रभावशाली फल देने में सक्ष्म होता है. इस मास की तृतीया तिथि, दशमी, एकादशी द्वादशी त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा तिथि बहुत पवित्र और शुभदायी होती हैं. इन तिथियों में स्नान एवं दान ज्प तप करने पर सब पापों का नाश होता है. अगर किसी कारणवश वैशाख मास क्के पूरे समय पर स्नान, व्रत, पूजा के नियम आदि न कर पाए हों तो ऎसे में इन तीन तिथियों में भी उक्त सभी कार्यों को कर लिया जाए तो संपूर्ण फलों की प्राप्ति होती है.

  • वैशाख मास मे शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा स्नान किया जाता है.
  • वैशाख मास में भगवान बुद्ध और परशुराम का जन्म समय की तिथि वैशाख स्नान के लिए अत्यंत शुभ मानी जाती है.
  • इस महीने में भगवान ब्रह्मा ने तिलों का निर्माण किया था अतः तिलों का विशेष प्रयोग भी होता है.
  • वैशाख माह में अक्षय तृतीया तिथि के दिन स्नान की विशेष महत्ता बतायी गयी है.
  • वैशाख माह की शुक्ल पक्ष और कृष्ण प्क्ष की एकादशी तिथि के दिन भी स्नान की विशेष परंपरा है.
  • वैशाख पूर्णिमा तिथि के दिन भी स्नान का अत्यंत शुभ प्रभाव माना गया है.
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अशोकाष्टमी 2024: अशोका अष्टमी कथा और पूजा विधि

अशोका अष्टमी का पर्व चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है. इस वर्ष 2024 में 15 अप्रैल  सोमवार के दिन अशोकाष्टमी के दिन अशोक वृक्ष की पूजा का विधान है. इस दिन अशोक वृक्ष एवं भगवान शिव का पूजन होता है. भगवान शिव को अशोक वृक्ष प्रिय है. इस कारण से इस दिन अशोक के वृक्ष के साथ ही भगवान शिव के निमित्त भी व्रत किया जाता है.

क्यों करते हैं अशोका अष्टमी पूजन

भारत वर्ष में अनेकों ऎसे पर्व मनाए जाए हैं जिनमें हम प्रकृति का पूजन विशेष रुप से किया करते हैं. शास्त्रों में सृष्टि की समस्त वस्तु में उस ईश्वर का वास ही माना गया जो सभी में मौजूद है, ऎसे में वृक्षों का पूजन भी इस संस्कृति के साथ बहुत ही घनिष्ट रुप में जुड़ा हुआ है.

सभी पेड़ पौधों का अपना महत्व है, ये हमारे जीवन रक्षक होने के साथ ही धन संपदा में भी बढ़ोतरी करते हैं. ऎसे में अशोक वृक्ष भी हमारे जीवन में सुख और शांति को देने वाला बनता है. ऎसे में प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने का दूसरा रुप ही अशोका अष्टमी का पर्व है.

मान्यता और धारणाओं के अनुसार अशोक वृक्ष को भगवान शिव से उत्पन्न माना गया है. इस वृक्ष का पूजन करने से भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है. सोमवार के दिन अशोक वृक्ष की जड़ में दूध चढ़ाने और वृक्ष पर सूत लपेटने से मनवांछित फल प्राप्त होते हैं. अशोक वृक्ष का पूजन धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों ही रुपों में महत्व रखता है.

अशोकोष्टमी कथा

अशोक वृक्ष का संबंध हमें पौराणिक कथाओं से भी प्राप्त होता है. रामायण में माता सीता लंका में जिस स्थान पर रहीं उस स्थान पर अशोक का वृक्ष भी था. माता सीता का अशोक वृक्ष के नीचे बैठे होना और हनुमान द्वारा उन्हें मुद्रिका दिखा कर कहना की “वह श्री राम की ओर से उनके लिए संदेश लेकर आए हैं”. यह सुन कर माता सीता का सारा शोक समाप्त होता है. ऎसे में इस वृक्ष के नीचे बैठ कर ही मातअ सीता के दुख का वो क्षण तब समाप्त हो जाता है जब उन्हें अपने पति श्री राम के संदेश का पता चलता है.

अशोक वृक्ष के संबंध में एक अन्य कथा प्राप्त होती है जिसमें बताया गया है की अशोक वृक्ष की उत्पत्ति रुद्राक्ष की ही तरह भगवान शिव के आंसू से हुई है. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार रावण ने जब अपने कष्ट से मुक्ति पाने के लिए भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु शिव तांडव स्त्रोत गाया तब शिव भगवान ने तांडव आरंभ किया ऎसे में सृष्टि पर कोई संकट न आ पड़े इसके लिए सभी देव श्री विष्णु भगवान के पास जाकर प्रार्थना करते हैं. उस समय भगवान शिव की आंखों से दो आंसू गिरते हैं एक आंसू से रुद्राक्ष की उत्पति हुई और दूसरे से अशोक वृक्ष की उत्पत्ति होती है. भगवान के आंसू से निर्मित यह दोनों ही वृक्षों से सभी कष्टों का निवारण होता है.

अशोकाष्टमी व्रत एवं पूजा विधि

  • अशोका अष्टमी के दिन प्रात:काल उठ कर शुद्ध जल से स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए.
  • शिवलिंग पर अभिषेक करना चाहिए.
  • शिवलिंग पर अशोक के पत्तों को चढ़ाना चाहिए.
  • अशोक वृक्ष पर जल अर्पित करना चाहिए.
  • कच्चे दूध में गंगाजल डाल कर इसे अशोक वृक्ष की जड़ में डाल कना चाहिए.
  • सूत अथवा लाल धागे को सात बार अशोक वृक्ष लपेटना चाहिए.
  • अशोक वृक्ष की परिक्रमा करनी चाहिए.
  • कुमकुम अक्षत से वृक्ष पर लागाना चाहिए.
  • अशोक वृक्ष के समक्ष घी का चौमुखी दीपक जलाना चाहिए.
  • वृक्ष की धूप दीप से आरती करनी चाहिए.
  • वहीं बैठ कर रामायण के एक अध्याय का पाठ करना चाहिए.
  • अशोक वृक्ष पर थोड़ा सा मिष्ठान भी अर्पित करना चाहिए.
  • अशोकाष्टमी के दिन व्रत करने, अशोक वृक्ष की पूजा करने से दुखों क नाश होता है.
  • इस दिन पानी में अशोक के पत्ते डाल कर पीने से शरीर के सभी रोग दूर होते हैं.

अशोका अष्टमी का व्रत एवं पूजन करने से व्यक्ति के जीवन के दुख कलेश दूर होते हैं. कष्टों से छुटकारा मिल जाता है.

गरुण पुराण में अशोका अष्टमी की महिमा

“अशोककलिका ह्यष्टौ ये पिबन्ति पुनर्वसौ ।

चैत्रे मासि सिताष्टम्यां न ते शोकमवाप्नुयुः ॥ “

गरुण पुराण में भी अशोक वृक्ष के बारे में बहुत ही सुंदर वर्णन प्राप्त होता है. इसके अनुसार चैत्र माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन पुनर्वसु नक्षत्र हो तो इस दिन अशोका अष्टमी का व्रत बहुत ही शुभ दायक होता है. इस दिन व्रत करने से सभी शोक दूर हो जाते हैं.

अशोकाष्टमी व्रत के दिन अशोक की मञ्जरी की आठ कलियों का सेवन करने से सभी शोक दूर होते हैं. अशोक की मंजरियों का सेवन करते समय इस मंत्र का उचारण करना चाहिए –

“त्वामशोक हराभीष्ट मधुमाससमुद्भव ।

पिबामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु ।।”

अशोक का वास्तुशास्त्र में उपयोग

अशोक का वृक्ष को एक बहुत ही शुभ और सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर वृक्ष माना गया है. इस वृक्ष को यदि घर में उत्तर दिशा में लगाया जाए तो यह घर की नकारात्मकता को दूर कर देता है.

घर में अगर किसी भी प्रकार का वास्तु दोष हो तो अशोक वृक्ष को लगाने से दोष दूर होता है. घर में सकारात्मक ऊर्जा बहने लगती है.

अशोक के वृक्ष को घर पर लगाने से सुख व समृद्धि का आगमन होता है.

अशोक वृक्ष घर पर होने से अकाल मृत्यु का भय भी समाप्त होता है.

स्त्रियों यदि अशोक वृक्ष की छाया में बैंठें तो उनकी शारीरिक व मानसिक ऊर्जा को बल प्राप्त होता है.

अशोक का पूजन करने से दांपत्य जीवन सुखद रहता है.

इस प्रकार अशोकाष्टमी का न सिर्फ आध्यात्मिक स्वरुप में ही अपना महत्व नहीं रखता है, अपितु यह संपूर्ण स्वरुप में मानव जीवन को प्रभावित करने में भी सक्षम होता है. किसी भी वृक्ष के प्रति आदर भाव प्रकृति के प्रति हमारा सम्मान ही है. जो प्रकृति हमें जीवन प्रदान करती है यदि हम उसके प्रति समर्पण का भाव रख सकें तो मनुष्य जीवन के लिए यह प्रगति और शांति के मार्ग को ही प्रशस्त करने में सहायक होता है. अपनी आने वाली पिढ़ियों को हम इन संस्कारों द्वारा प्रकृति और मनुष्य के जीवन का संबंध समझा सकने में सफल होंगे और एक शुभ वातावरण दे सकते हैं.

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मत्स्य जयंती: जाने क्यों लिया भगवान विष्णु ने मछली का अवतार

चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मत्स्य जयंती के पर्व के रुप में मनाया जाता है. इस वर्ष 11 अप्रैल 2024 को बृहस्पतिवार के दिन मत्स्य जयंती मनाई जाएगी. मत्स्य जयंती पर श्री विष्णु भगवान का अभिषेक होता है, पूजा अर्चना की जाती है और विभिन प्रकार के भोग लगाए जाते हैं.

विष्णु भगवान का मत्स्य अवतार

भगवान विष्णु जी के मुख्य रुपों में से एक अवतार मत्स्य अवतार का है. मत्स्य अवतार भगवान का प्रथम अवतार भी माना जाता है. इस अवतार में श्री विष्णु भगवान ने मछली का रुप धरके सृष्टि को विनाश से बचाया था. भगवान के इस अवतार में जलीय अवतार लेने पर कई प्रकार की कथाएं प्रचलित है. इन कथाओं में सृष्टि के संचालन और प्रकृति के संतुलन की ओर ध्यान जाता है. इसके साथ ही मत्स्य जयंती जिस स्वरुप को दर्शाती है, वह यही है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में मानवता ही परम धर्म कहलाता है. निर्बलों की सुरक्षा करना ही श्रेष्ठ धर्म है.

भगवान का ये अवतार मनुष्य के जीवन की एक नई यात्रा को दर्शाती है. इस दिन को हिन्दूओं में बहुत उत्साह और भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है. श्री विष्णु भगवान की पूजा होती है और मंदिरों में भागवत इत्यादि कथाओं को पाठ भी होता है. मत्स्य जयंती के उपलक्ष्य पर धर्म स्थलों का दर्शन करने एवं पवित्र नदियों में स्नान की भी विशेष परंपरा रही है.

मत्स्य जयंती पूजा मुहूर्त 2024

मत्स्य जयंती चैत्र माह की तृतीया तिथि के दिन मनाते हैं. सूर्योदय कालीन तृतीया तिथि के दिन व्रत एवं पूजन किया जाना चाहिए.

  • तृतीया तिथि प्रारम्भ – 10 अप्रैल 2024 को 17:33 मिनट पर होगा.
  • तृतीया तिथि समाप्त – 11 अप्रैल 2024 को 15:04 मिनिट तक रहेगी.
  • मत्स्य जयन्ती पूजा मुहूर्त – 11 अप्रैल 2024 को 10:00 मिनट से 15:04 मिनट तक रहेगा.
  • मत्स्य जयंती की पूजा विधि

    • मत्स्य जयंती के दिन प्रात:काल सूर्योदय समय पवित्र नदियों में स्नान करना चाहिए.
    • यदि नदियों में स्नान न कर पाएं तो घर पर ही शुद्ध जल से स्नान करें.
    • सूर्योदय समय सूर्य को अर्घ्य प्रदान करें.
    • श्री विष्णु का ध्यान करना चाहिए और “श्री नमो नारायण” मंत्र का जाप करना चाहिए.
    • पूजा स्थान पर चौकी रखें उसे गंगाजल से शुद्ध करके उस पर पीला कपड़ा बिछाएं. इस पर भगवान विष्णु की मत्स्य अवतार की मूर्ति या प्रतिमा स्थापित करें.
    • भगवान विष्णु को चंदन केसर का तिलक करना चाहिए.
    • फूलों की माला चढ़ानी चाहिए.
    • पूजा में पंचामृत, फल, मेवे इत्यादि भगवान को अर्पित करने चाहिए.
    • धूप व घी से बना दीपक जलाकर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए.
    • मत्स्य अवतार की कथा पढ़नी या सुननी चाहिए.
    • भागवत अथवा मत्स्य पुराण का पाठ करना चाहिए.
    • भगवान श्री विष्णु की धूप व दीप से आरती उतारनी चाहिए.
    • आरती के पश्चात भगवान को भोग लगाना चाहिए. भगवान को भोग स्वरुप खीर, मिठाई इत्यादि का उपयोग करना चाहिए.
    • इसके बाद भगवान के प्रसाद को परिवार में सभी को दीजिये और खुद भी खाना चाहिए. मतस्य जयंती के दिन ब्राह्मणों को भोजन करना एवं दान दक्षिणा देना अत्यंत शुभदाक होता है.

    मत्स्य जयंती पर करें ये काम

    • मत्स्य जयंती के दिन ॐ मत्स्यरूपाय नमः” मंत्र का जाप करना चाहिए.
    • आटे से बनी छोती-छोटी गोलियां बना कर इन्हें जलाशय या नदियों में मछली को खिलाने के लिए डालना चाहिए.
    • इस दिन सात अनाज दान करने चाहिए.
    • मंदिर में हरिवंशपुराण का दान करना चाहिए.

    मत्स्य जयंती कथा

    मत्स्य जयंती की कथा का उल्लेख पुराणों में प्राप्त होता है. भगवान विष्णु का पहला अवतार मत्स्य अवतार था. पृथ्वी पर जब प्रलय आने में कुछ समय बाकी बचा होता है उस समय भगवान विष्णु, मत्स्य अवतार लेकर पृथ्वी को बचाते हैं.

    मत्स्य जयंती की कथा इस प्रकार है – सत्यव्रत मनु भगवान श्री विष्णु के अनन्य भक्त थे. एक दिन सत्यव्रत मनु भगवान के पूजन हेतु नदी पर पूजन और तर्पण करने के लिए जाते हैं और वहां पर, एक छोटी सी मछली उनके कमंडल में आ गिरती है. मनु बहुत ही धर्मपरायण, दयावान एवं परोपकारी राजा थे, वह उस छोटी सी मछली को अपने निवास स्थान में ले आते हैं. पर वह मछली इतनी बड़ी हो जाती है कि उसे उसे तालाब में छोड़ना पड़ता है. जैसे ही उस मछली को तालाब में डाला जाता है, उस मछली का आकार इतना बड़ा हो जाता है की वह उस तालाब में समा नही पाती है. तब राज मनु उस मछली को तालाब से निकालकर नदी में डाल देते हैं, किंतु वह मछली नदी से भी बड़ी हो जाती है. अब मनु उस मछली को समुद्र में डाल देते हैं, तो वह मछली समुद्र से भी बड़ी हो जाती है.

    मछली का यह रुप देख कर मनु को आश्चर्य होता है और वह समझ जाते हैं की यह कोई साधारण मछली नही है. तब वह उस मछली को नमस्कार करते हुए कहते हैं की कृप्या वो इस सारे भेद का ज्ञान उसे दे की वह कौन है. उस क्षण मछली में से भगवान विष्णु प्रकट होते हैं और उन्हें कहते हैं की आज से ठीक सात दिन बाद प्रलय आएगी ओर पृथ्वी जलमग्न हो जाएगी सभी प्राणियों का अंत हो जाएगा. इसलिए मैने ये अवतार लिया है और तुम्हें सृष्टि के संचालन को आगे बढ़ाने के लिए चुना है.

    श्री विष्णु, मनु से कहते हैं की तुम एक बहुत बड़ी नाव तैयार करो और सप्त ऋषियों सहित सभी प्राणियों को लेकर उसमें सभी आवश्यक वस्तुएं इकट्ठा करो, जिनके उपयोग से पुन: इस सृष्टि का संचालन हो पाए. मनु, भगवान कहे अनुसार सारी तैयारी कर लेते हैं. ठीक सात दिन बाद प्रलय का समय आता है. भगवान विष्णु, मछली रुप में सत्यव्रत मनु के पास आते हैं और नाव को उन पर बांध लेने को कहते हैं. जब तक प्रलय काल समाप्त नहीं होता है तब तक भगवान मत्स्य अवतार लिए जल में ही रहते हैं.

    मत्स्य अवतार में भगवान विष्णु चारो वेदों को अपने पास रखते हैं ओर जब पुन: सृष्टि का निर्माण शुरु होता है तो वेद ब्रह्मा जी को देकर सृष्टि का आरंभ करते हैं. इस प्रकार मत्स्य अवतार लेकर भगवान पृथ्वी को बचाते हैं ओर सभी जीवों का कल्याण करते हैं.

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    चैत्र मास नाग पंचमी 2024 : जानिए क्यों मनायी जाती है नाग पंचमी

    प्रत्येक माह की पंचमी तिथि के देव नाग माने जाते हैं. ऎसे में प्रत्येक माह में आने वाली पंचमी तिथि का संबंध किसी न किसी नाग से होता है. इस लिए पंचमी तिथि के दिन नाग देव के पूजन का विधान रहा है. हिन्दू पंचांग अनुसार चैत्र माह में आने वाली पंचमी तिथि को विशेष रुप से नाग पंचमी का पर्व मनाया जाता है. इस वर्ष 12/13 अप्रैल 2024 को शुक्रवार के दिन नाग पंचमी पर्व मनाया जाएगा. हिन्दू धर्म में नाग को धन धान्य और वंश वृद्धि से जोड़ा गया है. इसलिए नाग की पूजा व उनका सम्मान करने से व्यक्ति के जीवन में सुख संपन्नता का वास होता है और उसके वंश की वृद्धि होती है.

    चैत्र माह में आने वाली शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन, नाग पूजा में नाग को जोड़े के रुप में पूजा जाता है. इस दिन भगवान शिव का पूजन एवं जलाभिषेक करना बहुत ही शुभ होता है. इस दिन किए गए पूजा पाठ से शुभ कर्म की वृद्धि होती है और पापों का नाश होता है.

    क्यों मनाते हैं नाग पंचमी

    नागों का संबंध पैराणिक काल से ही सनातन धर्म के साथ रहा है. हिन्दू धर्म में पशु पक्षिओं को भी प्रेम व भक्ति भाव की दृष्टि से देखा जाता रहा है. इसी विचार में एक पर्व जुड़ता है, जिसे नाग पंचमी के त्यौहार के रुप में मनाया जाता है. नाग को हिन्दूओं के महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रथों में स्थान प्राप्त है. वैदिक काल से ही नागों के संबंध में हमें कई कथाएं और पौराणिक आख्यान भी प्राप्त होते हैं.

    नाग को विशेष रुप का दर्जा प्रदान किया गया है. श्री विष्णु भगवान शेष नाग पर विराजमान होते हैं. वहीं भगवान शिव सर्प को अपने गले में धारण किए हैं. कुंडलिनी शक्ति जो हम सभी में विराजमान है. उसे सोए हुए सर्प के स्वरुप में दर्शाया गया है. यह शरीर में मौजूद वह ज्ञान है जिसे कुंडलिनी जागरण करने पर ही प्राप्त किया जा सकता है. ऎसे में हमारे आंतरिक ज्ञान का संबंध भी नाग के स्वरुप से जोड़ा गया है.

    नाग पंचमी व्रत व पूजन विधि

    • नाग पंचमी के दिन प्रात:काल स्नान करने के उपरांत शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए.
    • नाग पंचमी के दिन अनन्त, वासुकि, पद्म, महापद्म, तक्षक, कुलीर, कर्कट और शंख नामक आठ नागों के नामों का स्मरण करना चाहिए.
    • नाग पंचमी के दिन यदि संभव हो सके तो व्रत रखना चाहिए और फलाहार का सेवन करना चाहिए.
    • नाग और नागिन की पूजा में इनका चित्र अथवा मिट्टी, चांदी, सोना इत्यादि से बने नाग देव का स्थापित करने चाहिए.
    • पूजन के लिए लाल रंग का आसन तैयार करना चाहिए और उस पर नाग देव को स्थापित करना चाहिए.
    • नाग देव के अभिषेक के लिए कच्चा दूध, घी, चीनी, दही और गंगा जल मिलाकर इससे नाग देव को स्नान कराना चाहिए.
    • हल्दी, रोली, चावल से तिलक करना चाहिए.
    • फूल माला चढ़ानी चाहिए और नाग देव की पूजा करनी चाहिए.
    • पूजा के बाद सर्प देवता की आरती उतारनी चाहिए.
    • नाग पंचमी के दिन नाग देव की कथा अवश्य सुननी चाहिए.
    • नाग देव को भोग लगाना चाहिए और उस भोग को प्रसाद रुप में सभी लोगों में बांटना चाहिए.

    नाग पंचमी के दिन करें इन मंत्रों से पूजा

    नाग पंचमी के दिन इन मंत्रों का जाप करने से जीवन में सर्प दोष से मुक्ति प्राप्त होती है और काल सर्प दोष की शांति भी होती है. प्रत्येक माह में आने वाली पंचमी के दिन नीचे दिये गए मंत्र जाप से लाभ मिलता है: –

    चैत्र माह में ॐ शंखपालाय नम:, वैशाख माह में ॐ तक्षकाय नम: , ज्येष्ठ माह में ॐ पिंगलाय नम: , आषाढ़ माह में ॐ कालिदाय नम:, श्रावण माह में ॐ अनंतर्पिणी नम:, भाद्रपद माह में ॐ वासुकी नम:, आश्विन माह में ॐ शेषाय नम:, कार्तिक माह में ॐ पद्माय नम:, मार्गशीर्ष माह में ॐ कम्बलाय नम:, पौष माह में ॐ अश्वतराय नम:, माघ माह में ॐ कर्कोटकाय नम: और फाल्गुन माह में ॐ घृतराष्ट्राय नम: मंत्र का जाप करना चाहिए. इन प्रमुख मंत्रों से प्रत्येक माह में पंचंमी के दिन नाग पूजन करना अत्यंत शुभ होता है.

    नाग पंचमी कथा

    नाग पंचमी से संबंधित अनेकों कथाएं मिलती हैं. जो नागों के जन्म एवं उनकी मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को दर्शाती हैं. एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा परीक्षित के पुत्र जन्मजेय ने अपने पिता परीक्षित की मृत्यु का बदला लेने के लिए संपूर्ण सर्प जाती का नाश करने के लिए सर्प नाशक यज्ञ का अनुष्ठान आरंभ करते हैं.

    राजा जन्मजेय के पिता राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक नामक सांप के काटने से हुई थी. सर्पों से बदला लेने और वंश के विनाश के लिए जनमेजय द्वारा चलाए गए यज्ञ में अनेकों सापों की मृत्यु होने लगी. ऎसे में तब तक्षक अपने प्राणों की रक्षा के लिए इंद्र के पास चला जाता है और इंद्र उसकी रक्षा करने का उसे आश्वासन देते हैं. यज्ञ में जब ब्राह्मणों द्वारा तक्षक का आहवान होता है तो वह नहीं आता. ऎसे में जनमेजय ऋषियों को कहते हैं कि अगर इंद्र तक्षक को नहीं त्यागता है तो इंद्र का आहवान किया जाए. ऎसे में ऋषियों ने इंद्र का आहवान किया.

    तब इंद्र ने डर से तक्षक को छोड़ दिया और तक्षक अग्निकुंड के पास आ गया. ऎसे में उसी समय पर ऋषि आस्तीक ने आकर जनमेजय के क्रोध को शांत किया और उनसे तक्षक को मुक्त करने और सर्प नाशक यज्ञ को समाप्त करने की प्रार्थना की. जनमेजय ऋषि आस्तिक के वचनों से शांत होते हैं और तक्षक नाग को जीवनदान प्राप्त होता है.

    माना जाता है की जिस दिन इस यज्ञ को रोका गया उस दिन पंचमी तिथि थी. इस कारण इस दिन को नाग पंचमी के पर्व के रुप में भी मनाया जाता है. इसी प्रकार अन्य बहुत सी कहानियां नाग पंचमी के महत्व को अलग-अलग रुपों से दर्शाती हैं.

    क्यों है नागों का पौराणिक व धार्मिक महत्व

    पुराणों में नागों के विषय में विस्तार रुप से उल्लेख प्राप्त होता है. नागों को कश्यप ऋषि की संतानें कहा गया है. इसके अनुसार ब्रह्मा जी के पुत्र ऋषि कश्यप की चार पत्नियाँ थी जिनमें से एक पत्नी कुर्दू थीं जिनसे नागों की उत्पत्ति हुई. नागों के नामों में मुख्य रुप से अनन्त, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापदम, शंखपाल और कुलिक नामों का जिक्र मिलता है. अगर किसी की जन्म कुंडली में काल सर्प दोष बनता है, तो वह इन्हीं आठ नागों के प्रभाव का परिणाम होता है.

    नाग पंचमी में करें कालसर्प दोष शांति पूजा

    कुंडली में कालसर्प योग के बनने के कारण जीवन में रुकावटें बहुत आती हैं. किसी न किसी कारण प्रयास बार-बार विफल होते जाते हैं. पारिवारिक सुख की कमी भी जीवन में लगातार बनी रहती है. ऎसे में काल सर्प दोष की शांति के लिए नाग पंचमी का पर्व अत्यंत ही मुख्य समय होता है.

    काल सर्प दोष कुण्डली में बनने वाला एक खराब योग होता है. यह किसी व्यक्ति की कुण्डली में तब बनता है जब सूर्य, चंद्र, बुध, मंगल, गुरु, शुक्र और शनि सभी ग्रह राहु और केतू के बीच आ जाते हैं तो काल सर्प योग का निर्माण होता है. कुंडली में बनने वाले अन्य सर्प दोष का निर्माण भी इन्हीं के द्वारा होता है.

    इसके साथ ही काल सर्प शांति की पूजा में नाग पंचमी के दिन शिव मंदिर में नाग पूजन के साथ भगवान शिव का पूजन भी होता है. इस पूजन में रुद्राभिषेक और महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करना चाहिए. शिवजी एवं नाग देव को दूध चढ़ाना चाहिए.

    कालसर्प शांत के लिए सबसे उपयुक्त दिन नाग पंचमी का ही होता है. इस दिन यदि विधि विधान के साथ नागों का पूजन किया जाए तो कुंडली में बनने वाले इस योग की शांति होती है.

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