जीव और ईश्वर का संबंध | Relationship between Humans and God
भारतीय वेद शास्त्रों में जीव और ईश्वर के संबंध को एक गहन रुप से परिभाषित किया गया है. धर्म ग्रंथों में आत्मा के ब्रह्म से मिलने और उसी में समा जाने के तथ्य को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि स्वयं को परब्रह्म का अंश अनुभव करने पर भी आत्मा उसे सहज रूप से देख नहीं पाती है, अभी भी उस पर आवरण तो व्याप्त ही होता है परंतु मोह का पूर्ण त्याग हो जाने पर ही आत्मा परमात्मा को प्राप्त कर पाती है और यही जीव का सार तत्व है.
ब्रह्म ज्ञान बोध | Lord Brahma’s knowledge
ब्रह्म ज्ञान बोध के लिए मोह का त्याग अतिआवश्यक है, प्रभु द्वारा ही माया का प्रादुर्भाव हुआ है और उन्हीं की साधना ध्यान द्वारा इस मोह को त्यागा जा सकता है, साधक अपने योगक्षेम द्वारा आत्मा को जान पाता है उसे इस ज्ञान मार्ग से ब्रह्म की प्राप्ति होती है परंतु अब भी कुछ बाकी रह जाता है इस शरीर का मोह एवं अहंकार दूर होने पर ही उसे ब्रह्म का सच्चा अनुभव होता है.
सामान्यत: जीव, साधक - अविनाशी एवं अविचल माया का ही ध्यान करते हैं जिसे प्रभु ने ही उत्पन किया है वही परमात्मा का अंश है परंतु साधक उस माया में सम्मिलित, व्याप्त परमात्मा का अनुभव नहीं कर पाता और न ही उस पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है जो उसके लिए आवश्यक है. वह उसे गौण पाता है जिस कारण उसे ब्रह्म के पूर्ण दर्शन नहीं हो पाते और उस साधक पर एक महीन आवरण छाया ही रहता है.
शुरूआत में चारों ओर शून्य अंधकार व्याप्त था परंतु सूर्य के प्रकाश रूप में वस्तुएं स्पष्ट हुई और चारों ओर ज्ञान उत्पन्न हुआ ब्रह्म जीव का विकास हुआ, सृष्टि की रचना की तब उसी के साथ माया का भी आगमन हुआ और इस माया ने सभी को अपनी ओर आकर्षित किया साधु, संन्यासियों द्वारा इसी के महत्व का उल्लेख किया गया और वेदों, उपनिषदों में इसी के बारे में कहा गया है.भृगु और भार्गव जैसे ऋषियों ने इस माया को जाना और ब्रह्म से साक्षात्कार किया.
वैदिक चिंतन | Vedas
सभी धर्म ग्रंथों में परमात्मा के स्वरूप को अनेक रूपों में प्रकट किया उसी के व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-विराट द्वैत एवं अद्वैत जैसे रूपों का बखान किया. सभी के ज्ञान मन्त्रों का मर्म ब्रह्म ही रहा है. परमात्मा को सृष्टि का कर्ता, ब्रह्मचारी, अडिग, संसार में समस्त श्रीवृद्धि को प्रदान करने वाला इस संसार को चलाने वाला तथा सृष्टि रूपी छकड़े को खींचने वाला कहा है जहां ब्रह्म ही सभी का निर्माता है.
सम्पूर्ण जड़ एवं चेतन तत्व ब्रह्म में ही समाए हुए हैं जैसे चारों ओर बहती हुई छोटी-छोटी नदियां मिलकर समुद्र में विलीन हो जाती हैं उनका अस्तित्व समुद्र होता है वैसे ही सम्पूर्ण सृष्टि उसी से निर्मित एवं ब्रह्म में ही विलीन होती है, जैसे पानी का बुलबुला पानी से उत्पन्न हो जल में ही समा जाता है उसी तरह से संपूर्ण जीव, पदार्थ ब्रह्म से ही जन्म लेते हैं तथा अंत में उसी में लय हो जाते हैं और साधक एवं ज्ञानीजन उसी ब्रह्म को जानते हैं जो भी ब्रह्मवेत्ता उस ब्रह्म को जानते हैं, वह उसी में लीन हो जाते हैं, उसमें लीन होकर वे अव्यक्त रूप से सुशोभित होते हैं.
माया के महत्व एवं उसके बारे में वेदों, उपनिषदों में भी बताया गया है उसी माया मोह को त्याग कर जीव, ब्रह्म का साक्षात्कार प्राप्त करता है, भौतिक सुख जो माया का रूप है उसे त्याग के ही विषय वासनाओं से मुक्त होकर ही परमात्मा को पाया जा सकता है शुद्ध आत्मिक चिंतन ही इस तथ्य से अवगत करा पाता है जिससे मोक्ष का मार्ग सरल हो जाता है जीवन के आवागन से मुक्ति प्राप्त होती है और प्रभु का आश्रय प्राप्त होता है.