शुक्रवार व्रत विधि | Friday Vrat (Santoshi Mata Vrat Katha in Hindi) Friday Fast Story in Hindi – Shukrawar Vrata Katha – Aarti

वार व्रत करने का उद्देश्य नवग्रहों की शान्ति करना है, वार व्रत इसलिये भी श्रेष्ठ माना गया है. क्योकि यह व्रत सप्ताह में एक नियत दिन पर रखा जा सकता है. वार व्रत प्राय: जन्मकुण्डली में होने वाले ग्रह दोषों और अशुभ ग्रहों की दशाओं के प्रभाव को कम करने के लिये वार व्रत किया जाता है. वार व्रतों के करने की दूसरी वजह अलग- अलग वारों के देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिये वार व्रत किया जाता है. जैसे: मंगलवार को श्री हनुमान, शुक्रवार को देवी की कृपा से सुख-संमृ्द्धि की कामना से वार व्रत किया जाता है. 

शुक्रवार का व्रत भगवान शुक्र के साथ साथ संतोषी माता तथा वैभव लक्ष्मी देवी का भी पूजन किया जाता है. तीनों व्रतों को करने की विधि अलग- अलग है 

शुक्रवार व्रत विधि | Friday Fasting Method

शुक्रवार का व्रत धन, विवाह, संतान, भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिये किया जाता है. इस व्रत को किसी भी मास के शुक्ल के प्रथम शुक्रवार के दिन किया जाता है.   

शुक्रवार व्रत विधि (संतोषी माता) | Santoshi Mata Fast Method 

इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठें, ओर घर कि सफाई करने के बाद पूरे घर में गंगा जल छिडक कर शुद्ध कर लें. इसके पश्चात स्नान आदि से निवृ्त होकर, घर के ईशान कोण दिशा में एक एकान्त स्थान पर माता  संतोषी माता की मूर्ति या चित्र स्थापित करें, पूर्ण पूजन सामग्री तथा किसी बड़े पात्र में शुद्ध जल भरकर रखें. जल भरे पात्र पर गुड़ और चने से भरकर दूसरा पात्र रखें, संतोषी माता की विधि-विधान से पूजा करें. 

इसके पश्चात संतोषी माता की कथा सुनें. तत्पश्चात आरती कर सभी को गुड़-चने का प्रसाद बाँटें. अंत में बड़े पात्र में भरे जल को घर में जगह-जगह छिड़क दें तथा शेष जल को तुलसी के पौधे में डाल दें. इसी प्रकार 16 शुक्रवार का नियमित उपवास रखें. अंतिम शुक्रवार को व्रत का विसर्जन करें. विसर्जन के दिन उपरोक्त विधि से संतोषी माता की पूजा कर 8 बालकों को खीर-पुरी का भोजन कराएँ तथा दक्षिणा व केले का प्रसाद देकर उन्हें विदा करें. अंत में स्वयं भोजन ग्रहण करें.

संतोषी माता के व्रत के दिन क्या न करें? | What Not to do during Santoshi Mata Vrat 

इस दिन व्रत करने वाले स्त्री-पुरुष खट्टी चीज का न ही स्पर्श करें और न ही खाएँ।. गुड़ और चने का प्रसाद स्वयं भी अवश्य खाना चाहिए. भोजन में कोई खट्टी चीज, अचार और खट्टा फल नहीं खाना चाहिए. व्रत करने वाले के परिवार के लोग भी उस दिन कोई खट्टी चीज नहीं खाएँ.

शुक्रवार व्रतकथा | Santoshi Mata Vrat Katha

एक बुढ़िया थी. उसका एक ही पुत्र था. बुढ़िया पुत्र के विवाह के बाद बहू से घर के सारे काम करवाती, परंतु उसे ठीक से खाना नहीं देती थी. यह सब लड़का देखता पर माँ से कुछ भी नहीं कह पाता. बहू दिनभर काम में लगी रहती- उपले थापती, रोटी-रसोई करती, बर्तन साफ करती, कपड़े धोती और इसी में उसका सारा समय बीत जाता.

काफी सोच-विचारकर एक दिन लड़का माँ से बोला- `माँ, मैं परदेस जा रहा हूँ.´ माँ को बेटे की बात पसंद आ गई तथा उसे जाने की आज्ञा दे दी. इसके बाद वह अपनी पत्नी के पास जाकर बोला- `मैं परदेस जा रहा हूँ. अपनी कुछ निशानी दे दे.´ बहू बोली- `मेरे पास तो निशानी देने योग्य कुछ भी नहीं है. यह कहकर वह पति के चरणों में गिरकर रोने लगी. इससे पति के जूतों पर गोबर से सने हाथों से छाप बन गई.

पुत्र के जाने बाद सास के अत्याचार बढ़ते गए. एक दिन बहू दु:खी हो मंदिर चली गई. वहाँ उसने देखा कि बहुत-सी स्त्रियाँ पूजा कर रही थीं. उसने स्त्रियों से व्रत के बारे में जानकारी ली तो वे बोलीं कि हम संतोषी माता का व्रत कर रही हैं. इससे सभी प्रकार के कष्टों का नाश होता है.

स्त्रियों ने बताया- शुक्रवार को नहा-धोकर एक लोटे में शुद्ध जल ले गुड़-चने का प्रसाद लेना तथा सच्चे मन से माँ का पूजन करना चाहिए. खटाई भूल कर भी मत खाना और न ही किसी को देना. एक वक्त भोजन करना.

व्रत विधान सुनकर अब वह प्रति शुक्रवार को संयम से व्रत करने लगी. माता की कृपा से कुछ दिनों के बाद पति का पत्र आया. कुछ दिनों बाद पैसा भी आ गया। उसने प्रसन्न मन से फिर व्रत किया तथा मंदिर में जा अन्य स्त्रियों से बोली- `संतोषी माँ की कृपा से हमें पति का पत्र तथा रुपया आया है.´ अन्य सभी स्त्रियाँ भी श्रद्धा से व्रत करने लगीं. बहू ने कहा- `हे माँ! जब मेरा पति घर आ जाएगा तो मैं तुम्हारे व्रत का उद्यापन करूँगी.´

अब एक रात संतोषी माँ ने उसके पति को स्वप्न दिया और कहा कि तुम अपने घर क्यों नहीं जाते? तो वह कहने लगा- सेठ का सारा सामान अभी बिका नहीं. रुपया भी अभी नहीं आया है. उसने सेठ को स्वप्न की सारी बात कही तथा घर जाने की इजाजत माँगी. पर सेठ ने इनकार कर दिया. माँ की कृपा से कई व्यापारी आए, सोना-चाँदी तथा अन्य सामान खरीदकर ले गए. कर्ज़दार भी रुपया लौटा गए. अब तो साहूकार ने उसे घर जाने की इजाजत दे दी.

घर आकर पुत्र ने अपनी माँ व पत्नी को बहुत सारे रुपए दिए. पत्नी ने कहा कि मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है. उसने सभी को न्योता दे उद्यापन की सारी तैयारी की. पड़ोस की एक स्त्री उसे सुखी देख ईष्र्या करने लगी थी. उसने अपने बच्चों को सिखा दिया कि तुम भोजन के समय खटाई जरूर माँगना.

उद्यापन के समय खाना खाते-खाते बच्चे खटाई के लिए मचल उठे. तो बहू ने पैसा देकर उन्हें बहलाया। बच्चे दुकान से उन पैसों की इमली-खटाई खरीदकर खाने लगे. तो बहू पर माता ने कोप किया. राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले जाने लगे. तो किसी ने बताया कि उद्यापन में बच्चों ने पैसों की इमली खटाई खाई है तो बहू ने पुन: व्रत के उद्यापन का संकल्प किया.

संकल्प के बाद वह मंदिर से निकली तो राह में पति आता दिखाई दिया. पति बोला- इतना धन जो कमाया है, उसका टैक्स राजा ने माँगा था. अगले शुक्रवार को उसने फिर विधिवत व्रत का उद्यापन किया. इससे संतोषी माँ प्रसन्न हुईं. नौमाह बाद चाँद-सा सुंदर पुत्र हुआ. अब सास, बहू तथा बेटा माँ की कृपा से आनंद से रहने लगे.

संतोषी माता व्रत फल | Results of Thursday Fast

संतोषी माता की अनुकम्पा से व्रत करने वाले स्त्री-पुरुषों की सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं. परीक्षा में सफलता, न्यायालय में विजय, व्यवसाय में लाभ और घर में सुख-समृद्धि का पुण्यफल प्राप्त होता है. अविवाहित लड़कियों को सुयोग्य वर शीघ्र मिलता है. 

माता संतोषी की आरती | Aarti of Santoshi Mata 

भोग लगाओ मैया योगेश्वरी भोग लगाओ मैया भुवनेश्वरी ।
भोग लगाओ माता अन्नपूर्णेश्वरी मधुर पदार्थ मन भाए ॥

थाल सजाऊं खाजा खीर प्रेम सहित विनती करूं धर धीर ।
तुम माता करुणा गंभीर भक्त चना गुड़ प्रिय पाए ॥

शुक्रवार तेरो दिन प्यारो कथा में पधारो दुःख टारो ।
भाव मन में तेरो न्यारो मन मानै दुःख प्रगटाए ॥

तेरा तुझको दे रहे, करो कृतारथ मात ।
भोग लग मां कर कृपा, कर परिपूरन काज ॥

करो क्षमा मेरी भूल को तुम हो मां सर्वज्ञ ॥
सब बिधि अर्पित मात हूं, मैं बिल्कुल अल्पज्ञ ॥

कुछ न मांगूं आपसे दो हित को पहचान ।
मां संतोषी आप हैं दया-स्नेह की खान ॥

॥ बोलो संतोषी माता की जय ॥

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माता वैभव लक्ष्मी व्रत विधि | Mata Vaibhav Lakshmi Vrat Method – Vaibhav Laxmi Fast – Vaibhav Lakshmi Pooja (Mantra) | Vaibhav Lakshmi Vratam

माता लक्ष्मी की कृ्पा पाने के लिये शुक्रवार के दिन माता वैभव लक्ष्मी का व्रत किया जाता है. शुक्रवार के दिन माता संतोषी का व्रत भी किया जाता है. दोनों व्रत एक ही दिनवार में किये जाते है. परन्तु दोनों व्रतों को करने का विधि-विधान अलग- अलग है. और दोनों के व्रत का उद्देश्य भी भिन्न है. आईये माता वैभव लक्ष्मी के व्रत को करने की विधि जानें. 

माता वैभव लक्ष्मी के व्रत की यह खूबी है कि, इस व्रत को स्त्री और पुरुष दोनों में से कोई भी कर सकता है. इस व्रत कि एक और विशेषता है कि इस व्रत को करने से उपवासक को धन और सुख-समृ्द्धि दोनों की प्राप्ति होती है. घर-परिवार में स्थिर लक्ष्मी का वास बनाये रखने में यह व्रत विशेष रुप से शुभ माना जाता है.   

अगर कोई व्यक्ति माता वैभव लक्ष्मी का व्रत करने के साथ साथ लक्ष्मी श्री यंत्र को स्थापित कर उसकी भी नियमित रुप से पूजा-उपासना करता है, तो उसके व्यापार में वृ्द्धि ओर धन में बढोतरी होती है. व्यापारिक क्षेत्रों में दिन दुगुणी रात चौगुणी वृ्द्धि करने में माता वैभव लक्ष्मी व्रत और लक्ष्मी श्री यंत्र कि पूजा विश्लेष लाभकारी रहती है.  इस व्रत को करने का उद्देश्य दौलतमंद होना है. श्री लक्ष्मी जी की पूजा में विशेष रुप से श्वेत वस्तुओं का प्रयोग करना शुभ कहा गया है. पूजा में श्वेत वस्तुओं का प्रयोग करने से माता शीघ्र प्रसन्न होती है.  

इस व्रत को करते समय शास्त्रों में कहे गये व्रत के सभी नियमों का पालन करना चाहिए.  और व्रत का पालन भी पूर्ण विधि-विधान से करना चाहिए. व्रत करते समय ध्यान देने योग्य कुछ सामान्य नियम निम्नलिखित है.   

इस व्रत को यूं तो स्त्री और पुरुष दोनों ही कर सकते है. इसमें भी कन्याओं से अधिक सुहागिन स्त्रियों को इस व्रत के शुभ फल प्राप्त होने के विषय में कहा गया है. इस व्रत को प्रारम्भ करने के बाद नियमित रुप से 11 या 21 शुक्रवारों तक करना चाहिए. 

व्रत का प्रारम्भ करते समय व्रतों की संख्या का संकल्प अवश्य लेना चाहिए. और संख्या पूरी होने पर व्रत का उद्धापन अवश्य करना चाहिए. उध्यापन न करने पर व्रत का फल समाप्त होता है.  

व्रत के दिन माता लक्ष्मी जी की पूजा उपासना करने के साथ साथ पूरे दिन माता का ध्यान और स्मरण करना चाहिए. व्रत के दिन की अवधि में दिन के समय में सोना नहीं चाहिए. और न ही अपने दैनिक कार्य छोडने चाहिए. आलसी भाव को स्वयं से दूर रखना चाहिए. आलसी व्यक्तियों के पास लक्ष्मी जी कभी नहीं आती है. 

साथ ही प्रात: जल्दी उठकर पूरे घर की सफाई करनी चाहिए. जिस घर में साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता है, उस घर-स्थान में देवी लक्ष्मी निवास नहीं करती है.   

लक्ष्मी पूजा में दक्षिणा और पूजा में रखने के लिये धन के रुप में सिक्कों का प्रयोग करना चाहिए. नोटों का प्रयोग करना शुभ नहीं माना जाता है.      

माता वैभव लक्ष्मी व्रत विधि – Vaibhav Lakshmi Fast Mrthod : 

व्रत को शुरु करने से पहले प्रात:काल में शीघ्र उठकर, नित्यक्रियाओं से निवृ्त होकर,. पूरे घर की सफाई कर, घर को गंगा जल से शुद्ध करना चाहिए. और उसके बाद ईशान कोण की दिशा में माता लक्ष्मी कि चांदी की प्रतिमा या तस्वीर लगानी चाहिए. साथ ही श्री यंत्र भी स्थापित करना चाहिए श्री यंत्र को सामने रख कर उसे प्रणाम करना चाहिए. और अष्टलक्ष्मियों का नाम लेते हुए, उन्हें प्रणाम करना चहिए.  अष्टलक्ष्मी नाम इस प्रकार है. 1 श्री धनलक्ष्मी व वैभव लक्ष्मी, गजलक्ष्मी, अधिलक्ष्मी, विजयालक्ष्मी,ऎश्वर्यलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी आदि. इसके पश्चात मंत्र बोलना चाहिए.  

मंत्र – Mantra :   

या रक्ताम्बुजवासिनी विलासिनी चण्डांशु तेजस्विनी ।
या रक्ता रुधिराम्बरा हरिसखी या श्री मनोल्हादिनी ॥
या रत्‍नाकरमन्थनात्प्रगटिता विष्णोस्वया गेहिनी ।
सा मां पातु मनोरमा भगवती लक्ष्मीश्‍च पद्‌मावती ॥

जो उपवासक मंत्र बोलने में असमर्थ हों, वे इसका अर्थ बोल सकते है.

उपरोक्त मंत्र का अर्थ | Meaning of the Mantra : 

जो लाल कमल में रहती है, जो अपूर्व कांतिवाली है, जो असह्य तेजवाली है, जो पूर्ण रूप से लाल है, जिसने रक्‍तरूप वस्त्र पहने है, जो भगवान विष्णु को अति प्रिय है, जो लक्ष्मी मन को आनंद देती है, जो समुद्रमंथन से प्रकत हुई है, जो विष्णु भगवान की पत्‍नी है, जो कमल से जन्मी है और जो अतिशय पूज्य है, वैसी हे लक्ष्मी देवी! आप मेरी रक्षा करें.

इसके बाद पूरे दिन व्रत कर दोपहर के समय चाहें, तो फलाहार करना चाहिए और रात्रि में एक बार भोजन करना चाहिए. सायं काल में सूर्यास्त होने के बाद प्रदोषकाल समय स्थिर लग्न समय में माता लक्ष्मी का व्रत समाप्त करना चाहिए.

पूजा करने के बाद मात वैभव लक्ष्मी जी कि व्रत कथा का श्रवण करना चाहिए. व्रत के दिन खीर से माता को भोग लगाना चाहिए. और धूप, दीप, गंध

और श्वेत फूलों से माता की पूजा करनी चाहिए. सभी को खीर का प्रसाद बांटकर स्वयं खीर जरूर ग्रहण करनी चाहिए.

वैभव लक्ष्मी व्रतम | Vaibhava Lakshmi Vratam 

भारत के दक्षिण भारतीय प्रदेशों में इस व्रत को वैभवा लक्ष्मी व्रतम के नाम से जाना जाता है. यह व्रत विशेष रुप से दक्षिण भारत में प्रचलित है. हिन्दू धर्म में महालक्ष्मी की पूजा विशेष रुप से की जाती है. महालक्ष्मी देवी अर्थ की देवि हे. बिना अर्थ के व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ रहता है. वैसे तो लक्ष्मी पूजा प्रतिदिन की जानी चाहिए. परन्तु जब वैभव लक्ष्मी व्रत को करने के साथ-साथ घर में देवी लक्ष्मी की पूजा -उपासना की जाती है, तो वह निसंदेह सफल होती है. आज के युग में जिनके पास धन है. वही सभी सुख-सुविधाओं से युक्त है.  

कई बार तो धनी होने पर ही व्यक्ति को योग्य माना जाता है. धनी व्यक्तियों को समाज में जो मान -सम्मान प्राप्त है, वह आज किसी से छुपा नहीं है.

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प्रश्न कुण्डली तथा जन्म कुण्डली में अंतर| Different Between Prashna Kundali And Janam Kundli

प्रश्न कुण्डली | Prashna Kundli

(1) क्रियमाण कर्म को दर्शाती है. क्रियमाण कर्म वह हैं जो इस जीवन में किये गए हैं.
(2) यह कुण्डली केवल एक विषय से संबंधित होती है.

जन्म कुण्डली | Janam Kundali

(1) प्रारब्ध को दर्शाती है.
(2) कई विषयों के बारे में बताती है.

यदि प्रश्नकर्त्ता का प्रश्न सही है और उसने प्रश्न मजाक में नहीं किया है तब जन्म कुण्डली और प्रश्न कुण्डली में आपस में संबंध अवश्य ही स्थापित होता है. यदि कोई व्यक्ति टेलीफोण पर प्रश्न कर रहा है तब जिस स्थान पर ज्योतिषी है उस स्थान की कुण्डली बनाई जाएगी.

प्रश्न कुण्डली बनाने से पहले आप राशियों के गुण – धर्म के बारे में जानकारी हासिल कर लें. जो निम्नलिखित हैं :-

राशियों के गुण स्वरुप | Nature of Signs

* चर राशियाँ 1, 4, 7, 10 – परिवर्तनशील राशियाँ हैं.
* स्थिर राशियाँ 2, 5, 8, 11 – किसी भी कार्य की यथा स्थिति दिखाती हैं.
* द्वि-स्वभाव राशियाँ 3, 6, 9, 12 – कार्यसिद्धि में विलम्ब दिखाती हैं. कई विद्वान द्वि-स्वभाव राशियों के पहले 15   अंश स्थिर राशियों की भाँति मानते हैं और बाद के 15 अंश चर राशियों की तरह मानते हैं.

शीर्षोदय राशियाँ – 3, 5, 6, 7, 8, 11 यह राशियाँ शीघ्र कार्य सिद्धि कराती हैं. इन राशियों का आगे का भाग पहले कार्य करता है इसलिए यह शीर्षोदय कहलाती हैं.

पृष्ठोदय राशियाँ – 1, 2, 4, 9, 10 राशियाँ कार्य सिद्धि में विलम्ब दिखाती हैं. कार्य भंग होते हैं. इन राशियों का पिछला भाग पहले उठता है इसलिए इन्हें पृष्ठोदय राशियाँ कहते हैं. 

उभयोदय राशियाँ – 12 राशि है. यह शुभ मानी गई है. यदि यह राशियाँ शुभ दृष्ट है तब कार्य शीघ्र बनता है. यदि यह राशियाँ पाप अथवा अशुभ ग्रहों से दृष्ट है तब कार्य बनने में विलम्ब आएंगें.

राशियों के बली होने का समय | Time of Strengthning of Signs

5, 6, 7, 8, 11 राशियाँ दिवाबली राशियाँ हैं. यह घटना का होना दिन में बताती हैं.

1, 2, 3, 4, 9, 10 राशियाँ रात्रिबली राशियाँ हैं. यह घटना का होना रात में बताती हैं.

12 राशि संध्याबली राशि कहलाती है यह घटना का होना संध्या समय में बताती हैं.

राशियों के तत्व | Element of Signs

अग्नि तत्व 1, 5, 9

पृथ्वी तत्व 2, 6, 10

वायु तत्व 3, 7, 11

जल तत्व 4, 8, 12 

राशियों की दिशा | Direction of Signs

1, 5, 9 – पूर्व दिशा

2, 6, 10 – दक्षिण दिशा

3, 7, 11 – पश्चिम दिशा

4, 8, 12 – उत्तर दिशा

राशियों की जाति | Category of Sign

1, 5, 9 – क्षत्रिय

2, 6, 10 – वैश्य

3, 7, 11 – शूद्र

4, 8, 12 – ब्राह्मण

प्रश्न कुण्डली में खोये व्यक्ति के सन्दर्भ में यदि प्रश्न पूछा गया है तो राशियों के निवास स्थान के बारे में जानकारी होनी आवश्यक है क्योंकि उन राशियों के गुण-धर्म के आधार पर खोये व्यक्ति के निवास का अन्दाजा लगाया जाता है.

राशि             राशि का रंग         राशि का निवास स्थान

मेष             लाल             चारागाह, धातुयुक्त भूमि, अग्नितत्व, फैक्टरी.

वृष             श्वेत             गौशाला, खेती योग्य भूमि, दूध-दही जहाँ रखा हो.

मिथुन         हरा            जुआ-घर, क्लब, मनोरंजन स्थल, खेल-कूद के स्थान, घूमने-फिरने की जगह.

कर्क             गुलाबी         तालाब, कुंआ, महिलाओं के घूमने-फिरने का स्थान, महिलाओं का  मनोरंजन स्थल.     
        
सिंह             धूम्र             दुर्गम स्थल, वन, गुफा, स्टोर कक्ष.

कन्या         मिश्रित         फसलयुक्त भूमि, अस्पताल, मनोरंजक स्थल, बगीचा.

तुला             काला            बाजार, बडा़ शहर, बहुमंजिली इमारतें, शेयर मार्केट, घर में जहाँ पैसा रखा हो.

वृश्चिक         केसरिया         बिल, विषयुक्त स्थान, गुप्त स्थान.

धनु             सुनहरी पीला                    अश्वगाह, फौजी कैम्प, जिस स्थान पर हथियार रखते हैं.

मकर             कबूतरी           वन, नदी, बहता हुआ पानी, हरियाली वाले स्थान.

कुम्भ         कत्थई            कुम्हार का स्थान, बर्तन रखने का स्थान, धोखे-छल का कारोबार.

मीन             सफेद             समुद्र, तीर्थ स्थान, देव भूमि.

 अपनी प्रश्न कुण्डली स्वयं जाँचने के लिए आप हमारी साईट पर क्लिक करें : प्रश्न कुण्डली

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मण्डूक दशा की गणना | Calculation of Mandook Dasha

आपने पिछले अध्याय में पढा़ कि जब केन्द्र में राहु/केतु के अतिरिक्त चार या चार से अधिक ग्रह केन्द्र में स्थित हों तब मण्डूक दशा लगती है. इस दशा का क्रम निर्धारित करने के लिए यह देखा जाता है कि लग्न में कौन-सी राशि आ रही है. लग्न में यदि सम राशि आती है तब दशा का क्रम सप्तम भाव से आरम्भ होगा. दशा का क्रम अपसव्य होगा. सप्तम भाव में जो राशि होगी उस राशि की महादशा सबसे पहले शुरु होगी. 

यदि लग्न में विषम राशि आती है तब दशा का आरम्भ लग्न से ही होगा. दशाक्रम सव्य होगा. लग्न में जो राशि आएगी उस राशि की प्रथम महादशा होगी. 

उदाहरण कुण्डली एक में लग्न में विषम संख्या आ रही है. इस कारण दशा का क्रम लग्न से आरम्भ होगा. सबसे पहली दशा सिंह राशि की होगी और दशा क्रम सव्य होगा. सिंह राशि के बाद दूसरी दशा वृश्चिक राशि की होगी. फिर कुम्भ राशि की दशा होगी. उसके बाद अंतिम केन्द्र अर्थात वृष राशि की दशा होगी. 

चारों केन्द्रों की दशा खतम होने के बाद अगले केन्द्रों की दशा आरम्भ होगी. अब कन्या राशि की दशा आरम्भ होगी. कन्या के बाद धनु राशि की दशा होगी. उसके बाद मीन राशि की दशा शुरु होगी. सबसे अंत में मिथुन राशि की दशा आरम्भ होगी. 

सबसे अंत में अंतिम केन्द्रों की दशा आरम्भ होगी. अब तुला से दशा क्रम आरम्भ होगा. तुला के बाद मकर राशि की दशा होगी. मकर के बाद मेश राशि अंत में कर्क राशि की दशा होगी. इसे तालिका द्वारा समझा जा सकता है. 

सिंह लग्न – दशा क्रम सव्य | Leo sign – Dasha Sequence – Clockwise

सिंह राशि,वृश्चिक, कुम्भ, वृष, कन्या, धनु, मीन, मिथुन, तुला, मकर, मेष और कर्क राशि. 

उदाहरण कुण्डली दो में लग्न में सम राशि है तो दशा क्रम सप्तम भाव से आरम्भ होगा. दशा का क्रम अपसव्य होगा. इस दशा को तालिका द्वारा समझा जा सकता है. 

कर्क लग्न – दशा क्रम अपसव्य | Cancer ascendant – Dasha Sequence – Anti-clockwise

प्रथम दशा मकर राशि, तुला राशि, कर्क राशि, मेष राशि, धनु राशि, कन्या राशि, मिथुन राशि, मीन राशि, वृश्चिक राशि, सिंह राशि, वृष राशि और कुम्भ राशि. 

अन्तर्दशा क्रम | Antardasha Sequence

यदि महादशा क्रम सव्य है तो अन्तर्दशा क्रम भी सव्य होगा. यदि महादशा क्रम अपसव्य है तब अन्तर्दशा क्रम भी अपसव्य होगा.       

जैमिनी ज्योतिष की मण्डूक दशा | Mandook Dasha of Jaimini Jyotish

जैमिनी ज्योतिष में मण्डूक का अर्थ है – मेंढ़क. मेढ़क अपने स्थान से जब उछलता है तब चार गुना कूद लगाता है. वह उछल – उछलकर चलता है. जैमिनी की यह दशा जिस भाव से आरम्भ होती है वहाँ से चार भाव आगे से अगली महादशा आरम्भ होती है. इस दशा का आरम्भ हमेशा केन्द्र से होता है.  पहले चारों केन्द्रों की दशा होगी. उसके बाद उससे अगले चार केन्द्रों की दशा होगी. जैमिनी की मण्डूक दशा कुछ विशेष कुण्डलियों पर ही लगती हैं लेकिन बाकी सभी नियम जैसे जैमिनी कारक, पद, राशियों की दृष्टियाँ जैमिनी दशाओं में एक जैसे ही रहेगें. उन्ही के आधार पर फलित किया जाएगा. 

मण्डूक दशा के लिए कुछ विशेष नियम निर्धारित किए गए हैं. यह दशा सभी कुण्डलियों पर लागू नहीं होती है. यह दशा केवल उन कुण्डलियों पर लागू होती है जिन कुण्डलियों में केन्द्र में चार या चार से अधिक ग्रह स्थित हों. इन ग्रहों में राहु/केतु को शामिल नहीं किया गया है. समझाने के लिए हम एक उदाहरण कुण्डली लेगें. कुण्डली है :

उदाहरण कुण्डली – 1

जन्म तिथि – 7/9/1972

जन्म समय – 05:05 घण्टे

जन्म स्थान – दिल्ली 

इस कुण्डली में सिंह लग्न उदय हो रहा है. लग्न में ही चार ग्रह – सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध स्थित हैं और दशम भाव में शनि स्थित है. इस प्रकार मण्डूक दशा की पहली शर्त इस उदाहरण कुण्डली में पूरी हो रही है. इस कुण्डली में केन्द्र में ही चार से अधिक ग्रह स्थित हैं. 

उदाहरण कुण्डली – 2 

जन्म तिथि – 23/4/1976

जन्म समय – 13:20 घण्टे 

जन्म स्थान – दिल्ली

इस उदाहरण कुण्डली में कर्क लग्न उदय हो रहा है. लग्न में शनि स्थित है. दशम भाव में गुरु, बुध तथा सूर्य स्थित हैं. इस प्रकार लग्न से केन्द्र में चार ग्रह स्थित होने से इस कुण्डली में मण्डूक दशा का प्रयोग किया जा सकता है. इस उदाहरण कुण्डली में राहु/ केतु भी केन्द्र में स्थित हैं लेकिन नियमानुसार राहु/केतु को छोड़कर यदि अन्य चार ग्रह कुण्डली में स्थित हों तब मण्डूक दशा से फलित करना चाहिए. इस कुण्डली में राहु/केतु के अतिरिक्त चार ग्रह केन्द्रों में स्थित हैं. 

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जानिए, लालडी़ अथवा सूर्यमणि उपरत्न कौन धारण करे?

ऋग्वेद के प्रथम श्लोक में ही रत्नों के बारे में जिक्र किया गया है. इसके अतिरिक्त रत्नों के महत्व के बारे में अग्नि पुराण, देवी भागवद, महाभारत आदि कई पुराणों में लिखा गया है. कुण्डली के दोषों को दूर करने के लिए हर व्यक्ति रत्नों का सहारा लेता है. आर्थिक तथा शारीरिक रुप से बली होने के लिए व्यक्ति विशेष के द्वारा रत्न धारण किए जाते हैं. रत्नों को धारण करने से व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास बढ़ता है.

नौ ग्रहों के मुख्य रत्न नौ ही हैं परन्तु सभी प्रमुख नौ रत्नों के कई उपरत्न हैं. इन उपरत्नों की संख्या बहुत अधिक है. सभी का अपना महत्व है. जो व्यक्ति आर्थिक परेशानी के कारण बहुमूल्य रत्नों को खरीदने में असमर्थ हैं वह उपरत्नों को धारण कर सकते हैं. इनका प्रभाव भी मुख्य रत्नों के अनुसार, लेकिन उनसे थोडा़ सा ही कम, मिलता है. परन्तु उपरत्नों से बल अवश्य मिलता है. जिनकी कुण्डलियों में सूर्य शुभ भावों का स्वामी है परन्तु अशुभ भावों में स्थित है, वह लालडी़ उपरत्न धारण कर सकते हैं. लालडी़ उपरत्न के अन्य नाम स्पाइनल, सूर्यमणि हैं.

सूर्य को इस सृष्टि की आत्मा रुप में जाना जाता है. सृष्टि के संचालन में सूर्य का महत्व सर्वोपरी है. इस संसार में सूर्य का प्रकाश जीवन ही नहीं प्रकृत्ति को भी संचार देता है. सूर्य के महत्व के विषय में हमें वेदों में बहुत विस्तार रुप में मिलता है. ऋगवेद में सूर्य की उपासना एवं उसके महत्व को दर्शाया गया है. सूर्य संचालक रुप में सभी को आगे बढ़ाता है. उपनिषदों में सूर्य को ब्रह्म का स्वरुप माना गया है. यदि हम बात करें चाक्षुउपनिषद के बारे में तो ये उपनिषद सिर्फ सूर्य पर आधारित है. इस उपनिषद में सूर्य के प्रभाव से नेत्रों की सुरक्षा का मंत्र प्राप्त होता है. 12 सूर्य जिन्हें 12 आदित्य भी कहा जाता है इनका वर्णन वेद और उपनिषद मिलता है.

ऎसे में जब जन्म कुन्डली में सूर्य की स्थिति कमजोर हो तो उस स्थिति में सूर्य को मजबूती देने के लिए सूर्य के रत्न का उपयोग उत्तम होता है. सूर्य की शुभ स्थिति और उसके ऊर्जा को पाने के लिए रत्न की भूमिका बहुत प्रभावशाली बनती है. सूर्य के लिए रुबी रत्न को उपयोग है. इसके अतिरिक्त सूर्य का उपरत्न सूर्यमणि भी है. जो रुबी धारण नहीं कर पाते उनके लिए सूर्यमणि का उपयोग बहुत उपयोगी होता है.

लालडी़ अथवा सूर्यमणि उपरत्न

लालडी़ इसे सूर्यमणि भी कहते हैं. यह माणिक्य का उपरत्न है. सूर्य के इस उपरत्न का रंग लाल होने के कारण यह लालडी़ कहलाता है. यह उपरत्न रक्त जैसा लाल तथा कृष्ण वर्ण जैसी आभा लिए होता है. देखने में कांतियुक्त तथा पारदर्शी होता है. इस रत्न की आभा बहुत सुंदर होने के कारण इसका उपयोग आभूषणों में भी किया जाता है. इस रत्न की आभा और रंगत के कारण इसका मूल्य कम या अधिक हो सकता है. ये रत्न सूर्य के मुख्य रत्न रुबी से सस्ता होने के कारण भी लोकप्रिय है.

लालडी़ कौन पहन सकता है

जिन व्यक्तियों की कुण्डली में सूर्य शुभ भावों का स्वामी होकर निर्बल अवस्था में स्थित है उन्हें माणिक्य रत्न पहनने का परामर्श दिया जाता है. लेकिन माणिक्य रत्न कीमती रत्न है. हर व्यक्ति इसे धारण करने में समर्थ नहीं है. जिन व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति सूर्य का रत्न माणिक्य खरीदने की नहीं है वह माणिक्य के स्थान पर लालडी़ उपरत्न धारण कर सकते है. लालडी़ रत्न धारण करने से भी सूर्य को बल प्राप्त होता है. कुण्डली में सूर्य लग्न, चतुर्थ, पंचम, नवम तथा दशम भावों का स्वामी है और निर्बल अवस्था अथवा अशुभ भावों में स्थित है तब सूर्य का उपरत्न लालडी़ धारण किया जा सकता है.

लालडी़ के साथ कौन सा रत्न ना पहने

हीरा और नीलम रत्न अथवा इनके उपरत्नों के साथ लालडी़ उपरत्न को धारण नहीं करना चाहिए.

सूर्यमणि रत्न के फायदे

सूर्य ग्रह राजा अथवा सरकार से मिलने वाले लाभ देखे जाते हैं. सूर्य पिता है ऎसे में कुण्डली में भी सूर्य की स्थिति पिता के साथ संबंधों को दर्शाती है. व्यक्ति के भीतर कितनी पवित्रता है उसकी आत्मा की उज्जवलता है वह सिर्फ सूर्य से ही प्राप्त होती है. सूर्य का जन्म कुण्डली में उज्जवल स्वरुप जातक को सभी स्तरों पर बेहतर और मजबूत स्थान देने में मददगार बनता है. इन सभी बातों में शुभता और सफलता की प्राप्ति हमें सिर्फ सूर्य की जन्म कुण्डली में मजबूत स्थिति से ही प्राप्त हो सकती है.

यदि जातक रोगी है और उसे स्वास्थ्य लाभ चाहिए तो उसके लिए सूर्य का उपरत्न धारण कर लेना बहुत असरदार रह सकता है. ये रत्न सरकारी राजकीय क्षेत्र में सफलता पाने के लिए बहुत उपयोगी होता है. ये रत्न उच्चाधिकारियों के साथ आपके संबंधों को बेहतर बना कर रखने में भी सहायक बन सकता. शरीर में रक्तचाप की अनियमितता को दूर करता है, हड्डियों और दिल से जुड़ी बिमारियों में, किसी भी प्रकार के चर्म रोग को दूर करने में भी इसका उपयोग फायदेमंद होता है. इसके अतिरिक्त मानसिक बेचैनी और भ्रम को दूर करने में भी यह लाभकारी होता है.

सूर्यमणि उपरत्न धारण करने की विधि

यह सूर्य का रत्न है इस कारण इसे सूर्य के दिन में पहनने की सलाह दी जाती है. सूर्य का दिन अर्थात रविवार के दिन इसे पहनना चाहिए. रविवार के दिन शुक्ल पक्ष की तिथि के समय, प्रात:काल सूर्योदय के समय पर इसे उपयोग में लाएं.

इस रत्न को शुभ मुहूर्त में सोने की या पीतल की धातु में जड़वा कर इसे उपयोग में लाएं. इसे आप गले में चेन के रुप में, अंगूठी में जड़वा कर, या किसी भी रुप में पहन सकते हैं. इस रत्न को इस प्रकार पहने की यह आपके शरीर का स्पर्श अवश्य कर पाए.

इस रत्न को पहने से पहले इसे कच्चे दूध, गंगाजल में डूबोकर रखें और फिर इसे सूर्य मंत्र – ऊँ घृणिः सूर्याय नमः अथवा ऊँ सूर्याय नम: इत्यादि का जाप करते हुए पहनना चाहिए.

अगर आप अपने लिये शुभ-अशुभ रत्नों के बारे में पूरी जानकारी चाहते हैं तो आप astrobix.com की रत्न रिपोर्ट बनवायें. इसमें आपके कैरियर, आर्थिक मामले, परिवार, भाग्य, संतान आदि के लिये शुभ रत्न पहनने कि विधी व अन्य जानकारी के साथ दिये गये हैं:

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ज्योतिष के इतिहास में भास्कराचार्य का योगदान

ज्योतिष की इतिहास की पृष्ठभूमि में वराहमिहिर और ब्रह्मागुप्त के बाद भास्कराचार्य के समान प्रभावशाली, सर्वगुणसम्पन्न दूसरा ज्योतिषशास्त्री नहीं हुआ है. इन्होने ज्योतिष की प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता से घर में ही प्राप्त की. भास्कराचार्य भारत के महान विद्वानों की श्रेणी में आते हैं जिनके ज्ञान और योग्यता को उनके कार्यों द्वारा जाना गया. (wccannabis.co)

भारत की विभूतियों में भास्कराचार्य का योगदान अमूल्य निधि की भांति ही है. भास्कराचार्य जी, गणित के विशेषज्ञ थे और साथ ही ज्योतिष के जानकार भी थे. इनके द्वारा बनाए गए नियमों को गणित और ज्योतिषशात्र में समस्याओं के हल करने के लिए उपयोग किया जाता है.

गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को उन्होंने अपने विचारों द्वारा इस प्रकार व्यक्त किया है – पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है, इस कारण आकाशीय पिण्ड पृथ्वी पर गिरते हैं’. इस सिद्धांत से यह स्पष्ट हुआ की पृथ्वी में मौजूद चुम्बकिए शक्ति द्वारा ही घटित होना संभव हो पाता है.

भास्कराचार्य के विषय में उनके द्वारा रचित ग्रंथों से ही महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है. भास्कराचार्य ब्राह्मण थे और इनका गौत्र शांडिल्य बताया गया है. इनका जन्म सह्याद्रि क्षेत्र के विज्जलविड नामक स्थान पर बताया जाता है. भास्कराचार्य से जुड़े शिलालेखों के विषय में भी पता चलता है जिनमें इनके जीवन के बारे में जानकारी मिलती है. इनमें से कुछ शिलालेखों द्वारा पता चलता है की भास्कराचार्य के पिता भी बहुत प्रकाण्ड पंडित और गणित के जानकार थे. अपने पिता से ही इन्हें गणित और ज्योतिष की शिक्षा प्राप्त हुई. भास्कराचार्य जी को भारत के मध्यकालीन समय का एक बहुत ही योग्य एवं श्रेष्ठ गणितज्ञ व ज्योतिषी कहा गया.

भास्काराचार्य रचित ज्योतिष ग्रन्थ

भास्काराचार्य जी ने ब्रह्मास्फूट सिद्धान्त को आधार मानते हुए, एक शास्त्र की रचना की, जो सिद्धान्तशिरोमणि के नाम से जाना जाता है. इनके द्वारा लिखे गए अन्य शास्त्र, लीलावती (Lilavati), बीजगणित, करणकुतूहल (Karana-kutuhala) और सर्वोतोभद्र ग्रन्थ (Sarvatobhadra Granth) है.

इनके द्वारा लिखे गए शस्त्रों से उ़स समय के सभी शास्त्री सहमति रखते थें. प्राचीन शास्त्रियों के साथ गणित के नियमों का संशोधन और बीजसंस्कार नाम की पुस्तक की रचना की. भास्काराचार्य जी न केवल एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थें, बल्कि वे उत्तम श्रेणी के कवियों में से एक थे.

ज्योतिष् गणित में इन्होनें जिन मुख्य विषयों का विश्लेषण किया, उसमें सूर्यग्रहण का गणित स्पष्ट, क्रान्ति, चन्द्रकला साधन, मुहूर्तचिन्तामणि (Muhurtha Chintamani) और पीयूषधारा (Piyushdhara) नाम के टीका शास्त्रों में भी इनके द्वारा लिखे गये शास्त्रों का वर्णन मिलता है. यह माना जाता है, कि इन्होनें फलित पर एक पुस्तक की रचना की थी. परन्तु आज वह पुस्तक उपलब्ध नहीं है.

भास्काराचार्य और लीलावती गणित की स्थापना

भास्कराचार्य द्वारा लिखा गगा सिद्धांतशिरोमणी ग्रंथ है जिसका एक भाग लीलावती भी है. कहा जाता है कि इस ग्रंथ का नाम भास्कराचाय जी ने अपनी बेटी लीलावती के नाम पर रखा था. लीलावती गंथ में गणित के बहुत से नियमों और ज्योतिष से संबंधित अनेकों जानकारियों का उल्लेख मिलता है. ज्योतिष का एक महत्त्वपूर्ण भाग होता है गणित अत: इस गणित द्वारा ज्योतिष की अनेक बारीक गूढ़ रहस्यों को समझने में इस ग्रंथ ने बहुत सहायता प्रदान की है. इस महत्वपूर्ण रचना संस्कृत भाषा में मिलती है और काव्यात्मक शैली में श्लोकबद्ध है. सिद्धांतशिरोमणि के चार भाग हैं जिनमें लीलावती, बीजगणित, गोलाध्याय और ग्रहगणित आता है. लीलावती में अंकगणित का उल्लेख मिलता है.

लीलावती के विवाह के संदर्भ की कथा भी मिलती है जिसमें भास्कराचार्य को ज्ञात होता है की पुत्री को विवाह सुख नहीं मिल पाएगा. लेकिन वह अपनेज्ञान के आधार पर एक ऎसे मुहूर्त को प्राप्त करते हैं जिसमें विवाह किए जाने पर विवाह का सुख सदैव बना रहता है. किन्तु शायद भाग्य ने कुछ ओर ही निर्धारित कर रखा था अत: जब विवाह का समय आता है तो शुभ समय का पता नही चल पाता है और शुभ समय निकल जाने के कारण विवाह का सुख बाधित हो जाता है. इस कारण पुत्री के दुख को दूर करने के लिए वह अपनी पुत्री को गणित का ज्ञान देते हैं ओर जिससे प्रेरित हो कर लीलावती की रचना होती है.

भास्काराचार्य का योगदान

भास्कराचार्य ने बीजगणित को बहुत समृद्ध किया. उन्होंने जो संख्याएं नहीं निकाली जा सकती हैं उनके बारे में बताया, वर्ग एवं सारणियों का निर्माण किया. शून्य के विषय में विचार दिए, जिसमें शून्य की प्रकृति क्या होती है और शून्य का गुण क्या है इसके बारे में बताया. भास्कराचार्य ने कहा की जब कोई संख्या शून्य से विभक्त होती है तो अनंत हो जाती है और किसी संख्या और अनंत का जोड़ भी अंनत ही होगा. भास्कराचार्य जी ने दशमलव प्रणाली की विस्तार रुप में व्याख्या की.

गणिताध्याय नामक रचना में इन्होंने ग्रहों की गति को दर्शाया, इसके साथ ही काल गणना, दिशा का ज्ञान और स्थान से संबंधी कई रहस्यों को सुलझाने का प्रयास किया. इस में ग्रहों के उदय और अस्त होने की स्थिति, सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण संबंधित गणित का आधार प्रस्तुत किया. गोलाध्याय नामक रचना में ग्रहों की गति के सिधांत हैं और खगोल से जुड़े बातें हैं. इसके साथ ही ग्रहों के लिए उपयोग होने वाले यंत्रों का भी उल्लेख मिलता है.

कर्ण कौतुहल में ग्रहण के बारे में विचार मिलता है. चंद्र ग्रहण के बारे में कहते हैं कि चंद्रमा की छाया से सूर्य ग्रह होता है और पृथ्वी की छाया से चंद्र ग्रहण होता है. इसी प्रकार के अनेकों ज्योतिषीय और गणितिय नियम और सिद्धांतों को उन्होंने सिद्ध किया.

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जानिए तृतीया तिथि का महत्व

| Tritiya Tithi | Tritiya Meaning | What is Tithi in Hindu Calender | How is Tithi Calculated

तृतीया तिथि की स्वामिनी गौरी तिथि है. इस तिथि में जन्म लेने वाले व्यक्ति का माता गौरी की पूजा करना कल्याणकारी रहता है. इस तिथि को जया तिथि के अन्तर्गत रखा गया है. अपने नाम के अनुरुप ये तिथि कार्यों में विजय प्रदान कराने वाली होती है. ऎसे में इस तिथि के दिन किसी पर या किसी काम में आपको जीत हासिल करनी हो तो उसके लिए इस तिथि का चयन बेहद अनुकूल माना जा सकता है. इस तिथि में सैन्य, शक्ति संग्रह, कोर्ट-कचहरी के मामले निपटाना, शस्त्र खरीदना, वाहन खरीदना जैसे काम करना अच्छा माना जाता है.

तृतीया वार तिथि योग

तिथियों से सुयोग, कुयोग, शुभ-अशुभ मुहूर्त का निर्माण होता है. तृतीया तिथि बुधवार के दिन हो तो मृत्यु योग बनता है. यह योग चन्द्र के दोनों पक्षों में बनता है. इसके अतिरिक्त किसी भी पक्ष में मंगलवार के दिन तृतीया तिथि हो तो सिद्ध योग बनाता है. इस योग में सभी कार्य करने शुभ होते है. बुधवार के साथ मिलकर यह तिथि दग्ध योग बनाती है. दग्ध योग में सभी शुभ कार्य करने वर्जित होते है.

तृतीया तिथि में शिव पूजन निषिद्ध होता है

दोनों पक्षों की तृतीया तिथि में भगवान शिव का पूजन नहीं करना चाहिए. यह माना जाता है, कि इस तिथि में भगवान शिव क्रीडा कर रहे होते है.

तृतीया तिथि व्यक्ति गुण

जिस व्यक्ति का जन्म तृतीया तिथि में हुआ हो, वह व्यक्ति सफलता के लिए प्रयासरहित होता है. मेहनत न करने के कारण उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर होती है तथा ऎसा व्यक्ति दूसरों से द्वेष रखने वाला होता है. जातक कुछ आलसी प्रवृत्ति का भी हो सकता है. कई बार अपने ही प्रयासों की कमी के कारण मिलने वाले लाभ को पाने से भी वंचित रह जाता है.

इस तिथि में जन्मा जातक अपने विचारों पर बहुत अधिक नहीं टिक पाता है. किसी न किसी कारण से मन में बदलाव लगा ही रहता है. ऎसे में जातक को यदि किसी ऎसे व्यक्ति का साथ मिल पाता है जो उसे सही गलत के प्रति सजग कर सके तो जातक जीवन में सफलता पा सकने में सक्षम हो सकता है.

आर्थिक क्षेत्र में संघर्ष बना रहता है, इसका मुख्य कारण जातक की दूसरों पर अत्यधिक निर्भरता होना भी होता है. वह स्वयं बहुत अधिक संघर्ष की कोशिश नहीं करता आसान रास्ते खोजता है. ऎसे में कई बार कम चीजों पर भी निर्भर रहना सिख जाता है. जातक को घूमने फिरने का शौक कम ही होता है. जातक एक सफल प्रेमी होता है. अपने परिवार के प्रति भी लगाव रखता है.

तृतीया तिथि पर्व

तृतीया तिथि समय भी बहुत से पर्व मनाए जाते हैं. कज्जली तृतीया, गौरी तृतीया (हरितालिका तृतीया), सौभाग्य सुंदरी इत्यादि बहुत से व्रत और पर्वों का आयोजन किसी न किसी माह की तृतीया तिथि के दिन संपन्न होता है. तृतीया तिथि के दिन मनाए जाने वाले कुछ मुख्य त्यौहार इस प्रकार हैं.

अक्षय तृतीया –

वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती के रुप में मना जाता है. इस दिन को एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुहूर्त के रुप में भी मान्यता प्राप्त है. इसी कारण इस दिन बिना मुहूर्त निकाले विवाह, गृह प्रवेश इत्यादि शुभ मांगलिक कार्य किए जा सकते हैं. इसके साथ ही इस दिन स्नान, दान, जप, होम आदि करने से अक्षय फलों की प्राप्ति होती है.

गणगौर तृतीया –

चैत्र शुक्ल तृतीया को किया जाता है. यह त्यौहार मुख्य रुप से सौभाग्य की कामना के लिए किया जाता है. इस दिन विवाहित स्त्रियां पति की मंगल कामना के लिए व्रत भी रखते हैं. इस दिन भगवान शिव-पार्वती की मूर्तियों को स्थापित करके पूजन किया जाता है. इस दिन देवी-देवताओं को झूले में झुलाने का भी विधि-विधान रहा है.

केदारनाथ बद्रीनाथ यात्रा का आरंभ –

वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि के दिन ही गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बदीनाथ यात्रा का आरंभ हो जाता है. इस दिन केदारनाथ और बदीनाथ मंदिर के कपाट खुल जाते हैं और चारधाम की यात्रा का आरंभ होता है.

रम्भा तृतीया –

ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया के दिन रम्भा तृतीया मनाई जाती है इसे रंभा तीज व्रत भी कहते हैं. इस दिन व्रत और पूजन विवाहित स्त्रीयां अपने पति की लम्बी आयु और संतान प्राप्ति एवं संतान के सुख हेतु करती हैं. अविवाहित कन्याएं योग्य जीवन साथी को पाने की इच्छा से ये व्रत करती हैं.

तीज –

श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को तीज उत्सव मनाया जाता है. तीज के समय प्रकृति में भी सुंदर छठा दिखाई देती है. इस त्यौहार में पेड़ों पर झूले डाले जाते हैं और झूले जाते हैं. महिलाएं इस दिन विशेष रुप से व्रत रखती हैं. इसे हरियाली तीज के नाम से जाना जाता है.

वराह जयंती –

भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को वाराह जयंती के रुप में मनाई जाती है. भगवान विष्णु के 10 अवतारों में से 1 है वराह अवतार. वाराह अवतार में भगवान विष्णु पृथ्वी को बचाते हैं. हरिण्याक्ष का वध करने हेतु भगवान श्री विष्णु वराह अवतार के रूप में प्रकट होते हैं.

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अश्विनी नक्षत्र का महत्व और विशेषताएं

ज्योतिष शास्त्र में वर्णित 27 नक्षत्रों में से अश्विनी नक्षत्र पहला नक्षत्र है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह केतु है. इस नक्षत्र को गण्डमूल नक्षत्रों की श्रेणी में रखा गया है. केतु एक रहस्यमयी ग्रह है. अश्विनी नक्षत्र, सूर्य पुत्र अश्विनी कुमार है. इस नक्षत्र का अर्थ अश्व पुत्र है. नक्षत्र के देव अश्विनी हैं. इस नक्षत्र के प्रभाव में गूढ़ विधा का प्रभाव देखने को मिलता है. इस नक्षत्र में जन्मा जातक आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यदि प्रयास करे तो उन्नती पा सकता है. ये नक्षत्र अश्विनी कुमारों से संबंध रखता है इस कारण इस नक्षत्र में जन्मा जातक अपने भाई बंधुओं से प्रेम करने वाला भी होता है.

अश्विनी नक्षत्र की पहचान

नक्षत्र मण्डल में असंख्य तारे हैं. बहुत से तारे समूहों में स्थित है. प्रमुख समूहों को एक नाम दिया गया है. अश्विनी नक्षत्र में तीन तारों का समूह है. यह तीन तारे मिलकर घोडे़ के मुँह के समान आकृति बनाते हैं. इसलिए इसे तुरगमुख के समान भी कहा जाता है. सभी विद्वान इस नक्षत्र के तारों की संख्या तीन ही मानते हैं. यह नक्षत्र जनवरी माह के आरम्भ में सूर्यास्त के बाद ठीक सिर के ऊपर दिखाई देता है.

अश्विनी नक्षत्र वृक्ष

प्रत्येक नक्षत्र के साथ वृक्ष भी संबंधित होता है. जिस प्रकार ग्रहों से जुड़े वृक्ष होते हैं उसी प्रकार नक्षत्र से भी जुड़ा वृक्ष होता है. इसी कारण जब कोई नक्षत्र किसी भी कारण से परेशानी या तनाव का कारण बनता है तो उसकी शांति के लिए नक्षत्रों के मंत्र, दान, पूजा, एवं उसके वृक्ष का दान व वृक्ष को लगाने की सलाह भी दी जाती है. या उस वृक्ष अथवा पौधे का किसी किसी न किसी रुप में उपयोग भी बताया गया है. नक्षत्रों एवं उनसे संबंधित पौधों के विषय में पुराणों में भी वर्णन प्राप्त होता है. इन धर्म ग्रंथों के आधार पर बताया गया है की जितने भी नक्षत्र हैं उन नक्षत्रों का अंश वृक्ष एवं पौधों की रुप में पृथ्वी पर भी उत्पन्न हुआ है. ऎसे में नक्षत्र पूजा में जिस नक्षत्र का जो भी संबंधित पौधा उसकी पूजा के लिए उपयोग में लाया जाना शुभ माना जाता है.

यदि कोई जातक अपने जन्म नक्षत्र से जुड़े वृक्ष की सेवा करता है तो उसे इसका शुभ फल प्राप्त होता है. जन्म नक्षत्र वृक्ष को लगने और उसके पालन करने से व्यक्ति को उस नक्षत्र से संबंधित बुरे प्रभाव नहीं मिलते हैं और नक्षत्र की शुभ ऊर्जा जातक को प्राप्त होती है. इसके अतिरिक्त इन नक्षत्रों की लकडी़ से हवन इत्यादि करना अनुकूल होता है.

अश्विनी नक्षत्र का वृक्ष आँवला है. कई विद्वानों का मत है कि यदि अश्विनी नक्षत्र, जन्म नक्षत्र होकर पीड़ित अवस्था में है तब व्यक्ति को आँवले के वृक्ष की पूजा करनी चाहिए. इसके अलावा कुछ के अनुसार अश्विनी नक्षत्र का वृक्ष कुचिला है. इस वृक्ष की पूजा करना अश्विनी नक्षत्र के जातकों के लिए उपयुक्त होता है. कुचिला के बीज कुछ जहरीले हैं. इस कारण ये वृक्ष आसानी से मिल नहीं पाता है. कुचिला को ‘कुचला’, जहर, कजरा इत्यादि नामों से भी जाना जाता है.

मंद या मन्दाक्ष लोचन नक्षत्र

अश्विन नक्षत्र को मंद या मन्दाक्ष लोचन नक्षत्र भी कहा जाता है. इस नक्षत्र में खोयी हुई वस्तु उत्तर या दक्षिण दिशा में खो सकती है और यदि इस दिशा की ओर खोजा जाए तो मिलने की संभावना भी बढ़ जाती है.

अश्विनी नक्षत्र लघु (क्षिप्र) होता है

अश्विनी नक्षत्र को लघु नक्षत्र भी कहा जाता है. ऎसे में इस नक्षत्र में वह काम करना अच्छा माना जाता है जो थोड़े समय के लिए ही किए जाएं. जैसे की कोई दवा बनाना. इस नक्षत्र में यदि दवा बनाई जाए तो वह बहुत फायदेमंद होती है और रोगी पर जल्द असर करने वाली भी होती है. स्त्री-पुरष के मैत्री संबंध अथवा प्रेम का इजहार करना भी इस नक्षत्र में किए जाने अच्छे होते हैं. सौंदर्य के कार्य अथवा सजना सवरना इस नक्षत्र में किया जाना अच्छा होता है. इसी तरह किसी प्रकार की शिल्पकारी या चित्र इत्यादि बनाना या फिर खेल कूद में भाग लेना भी इस नक्षत्र में शुभदायक होता है.

अश्विनी नक्षत्र – व्यक्तित्व विशेषताएँ

इस नक्षत्र में पैदा हुए जातक बुद्धिमान होते हैं. किसी बात को ध्यान से सुनना, सुनकर समझना तथा समझकर तभी उस पर अमल करते हैं. सुनी हुई बातों पर आँख मूँदकर विश्वास ना करके स्वयं विचार कर तथ्यों का अन्वेषण करते हैं. सभी कार्यों को कुशलता तथा शीघ्रता से निपटाने वाले होते हैं. अपनी बातों से दूसरों को प्रभावित करने वाले होते हैं. सत्यवादी होते हैं. इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति स्वभाव से रहस्यमयी होते हैं. इस नक्षत्र में जन्मे व्यक्ति स्वतंत्र स्वभाव के होते हैं. वह स्वतंत्र रुप से चिन्तन करना अधिक पसन्द करते हैं.

इस नक्षत्र के व्यक्तियों की चाल भी तेज होती है. यह नफासत पसन्द अर्थात दिखावा पसन्द व्यक्ति होते हैं. अपने मान-सम्मान का विशेष रुप से ध्यान रखते हैं. यह अन्याय को सहन नहीं करते हैं. इसके खिलाफ बुलन्द आवाज उठाते हैं. अश्विनी नक्षत्र के देवता अश्विनी कुमार हैं इसलिए इस नक्षत्र के जातकों को जडी़-बूटियों, प्राकृतिक चिकित्सा तथा परम्परागत चिकित्सा पद्धति में रुचि होती है.

अश्विनी नक्षत्र कैरियर

इस नक्षत्र के व्यक्तियों को जीवन में आर्थिक दृष्टि से किसी प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है. यह अधिकाँशत: सरकारी नौकरी में होते हैं. सरकार अथवा सरकारी आदमी इनके कार्यों से विशेष रुप से प्रसन्न रहती हैं. इस नक्षत्र के व्यक्ति यदि अपना व्यवसाय करते हैं तो बडे़ लोगों से सम्पर्क बनाना, इनका शौक होता है. यह अपने ग्राहकों में से केवल सलीकेदार लोगों को ही अधिक पसन्द करते हैं. यह घोड़ों के व्यापारी हो सकते हैं. घोड़ों के प्रशिक्षक हो सकते हैं. घुड़दौड़ कराने वाले व्यक्ति हो सकते हैं. वर्तमान समय में वाहनों से संबंधित कार्य करने वाले व्यक्ति हो सकते हैं. सौन्दर्य साधनों का व्यवसाय करते हैं. विज्ञापन जगत से जुड़कर कार्य कर सकते हैं. चिकित्सक हो सकते हैं.

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सोमवार व्रत | Somvar Vrat Katha in Hindi – Monday Vrat Procedure (Monday Vrata Aarti) – Monday Fast in Hindi

सोमवार क व्रत भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है. सोमवार व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती की आराधना की जाती है. इस व्रत को स्त्री- पुरुष दोनों कर सकते है. इस व्रत को भी अन्य व्रतों कि तरह पूर्ण विधि-विधान से करना कल्याणकारी रहता है. शास्त्रों के अनुसार सोमवार के व्रत की अवधि सूर्योदस्य से लेकर सूर्यास्त तक के मध्य की होती है. इस व्रत में क्योकि रात्रि में भोजन किया जा सकता है, इसलिये इस व्रत को नक्तव्रत भी कहा जाता है.

सोमवार व्रत का प्रारम्भ | Starting Monday Fast

सोमवार के व्रत का प्रारम्भ शुक्ल पक्ष की प्रथम सोमवार या फिर श्रावण मास के प्रथम सोमवार से करना शुभ होता है. इस व्रत का विधि-विधान भी श्रावण मास में भगवान भोलेनाथ के लिये किये जाने व्रतों के समान ही है. श्रावण मास में पार्थिव शिवलिंग की पूजा विशेष रुप से की जाती है. 

अगर कोई श्रावण मास में सोमवार का व्रत प्रारम्भ नहीं कर पाता है, तो वह चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार, वैशाख मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार या फिर मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार से शुरु किये जा सकते है. इन सभी में भी श्रावण मास को सबसे अधिक शुभ कहा गया है. श्रावण मास भगवान शिव को सबसे अधिक प्रिय है. इस मास में सोमवार व्रत प्रारम्भ करनें से उपवासक के सभी पापों का नाश होता है.

सोमवर व्रत का महत्व | Importance of Monday Fasting 

सोमवार के व्रत के विषय में एक पौराणिक मान्यता है कि इस व्रत को माता पार्वती ने पति रुप में भगवान शिव को प्राप्त करने के लिये इस व्रत को सबसे पहले किया था. इस व्रत के शुभ फलों के फलस्वरुप ही भगवान शिव उन्हें पति रुप में प्राप्त किया था, उस समय से इस व्रत को मनोवांछित पति की कामना पूर्ति के लिये भी कन्याओं के द्वारा किया जाता है.

शिव की आराधना और आशिर्वाद प्राप्त करने के लिये उपवास करने का विशेष महत्व कहा गया है. मुख्य रुप से यह व्रत परिवार और समाज को समर्पित है. इसके अतिरिक्त यह व्रत प्रेम, आपसी विश्वास, भाई चारे और मेलजोल के साथ जीवन जीने का संदेश देता है.  शिव व्रतों में सोलह सोमवार के व्रत को सबसे उतम माना गया है. 

यह व्रत क्योंकि स्त्री और पुरुष दोनों रख रख सकते है. इस व्रत को अविवाहित कन्याएं वैवाहिक जीवन की सुख-शान्ति के लिये करती है, तो सोलह सोमवार का व्रत सौभाग्यवती स्त्री अपने पति की लम्बी आयु, संतान रक्षा के साथ-साथ अपने भाई की सुख-समृ्द्धि के लिये भी करती है. पुरुष इस व्रत को संतान प्राप्ति, धन-धान्य और प्रतिष्ठा के लिये कर सकते है. 

सोमवार व्रत करने की विधि | Monday Fasting Method 

ऊपर बताये गये किसी शुभ माह समय में इस व्रत का प्रारम्भ किया जा सकता है. व इस व्रत को एक पांच साल अथवा सोलह सोमवार पूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ करना चाहिए. उपवास करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह उपवास के दिन प्रात:काल में उठकर नित्यक्रियाओं से निवृ्त होकर स्नान के जल में जल में कुछ काले तिल डाल कर स्नान करें. 

स्नान करने के बाद गंगा जल या पवित्र जल से पूरे घर में छिडकाव करें. घर के ईशाण कोण में एक शांत स्थान में भगवान शिव की मूर्ति या चित्र स्थापित करें, और  “ऊँ नम: शिवाय:” मंत्र का जाप करते हुए श्वेत फूलों, चंदन, चावल, पंचामृ्त, सुपारी, फल, गंगाजल से शिव पार्वती के समक्ष इस व्रत का संकल्प लें. संकल्प करते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए.  

‘मम क्षेमस्थैर्यविजयारोग्यैश्वर्याभिवृद्धयर्थं सोमव्रतं करिष्ये’

संकल्प और पूजन करने के बाद व्रत की कथा सुननी चाहिए. इसके बाद आरती कर प्रसाद का वितरण करना चाहिए. इस समय भोजन में नमक का प्रयोग करने से बचना चाहिए.  

व्रत के उद्ध्यापन में सफेद वस्तुओं का दान करना चाहिए. जैसे: चावल, सफेद वस्त्र, बर्फी, दूध, दही, चांदी आदि का दान इस व्रत में करना शुभ होता है. यह व्रत मानसिक शान्ति के लिये भी किया जाता है. पूरे दिन उपवास कर भगवान शिव के मंदिर में भगवान शिव के दर्शन करने चाहिए. और सूर्यास्त होने पर भोग के रुप में दूध से बनी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए. 

भगवान भोले नाथ को भोग लगा कर, धूप, दीप और सुगण्ध से पूजन कर चन्द्र देव को अर्ध्य देते हुए ऊपर दिये गये मंत्र का स्मरण करना चाहिए. तथा सोलह सोमवार के व्रत पूरे हो जाने पर उद्ध्यापन के दिन ब्राह्माण तथा बच्चों को खीर पूरी मिष्ठान आदि भोजन करा कर यथाशक्ति दान देना चाहिए. सूर्यास्त होने पर शिव का पूजन प्रदोष काल में करना सबसे अधिक शुभ होता है. 

सोमवार व्रत के फल | Result of Monday Vrat 

सोमवार व्रत का नियमित रुप से पालन करने से भगवान श्विव और देवी पार्वती की अनुकम्पा बनी रहती है. जीव्न धन-धान्य से भरा रहता है. और व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिलती है.  

सोमवार व्रत का ज्योतिषिय महत्व | Astrological Importance of Somvar Vrat

शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों की कुण्डली में चन्द्र पीडित हों, या फिर चन्द्र अपने शुभ फल देने में असमर्थ हों, उन व्यक्तियों को चन्द्र ग्रह की शान्ति के लिये, सोमवार के व्रत का पालन करना चाहिए. निराशावाद व मानसिक सुखों में वृ्द्धि के लिये भी इस व्रत को करना लाभकारी रहता है. चन्द्र ग्रह के देव भगवान शिव है. क्योकि भगवान शिव ने चन्द्र को अपने सिर पर धारण किया हुआ है. 

और सभी ग्रहों में चन्द्र ही एक ऎसा ग्रह है तो पृ्थ्वी के सबसे निकट होने के कारण हमारे जीवन, हमारे मन को सबसे अधिक प्रभावित करता है. इसलिये जिन व्यक्तियों की जन्म राशि, जन्म नक्षत्र चन्द्र की हों, उन व्यक्तियों को सोमवार के व्रत अवश्य लाभ देते है. माता के स्वास्थय व मातृ सुख को प्राप्त करने के लिये भी इस व्रत को किया जा सकता है.   

सोमवार व्रत कथा | Monday Fast Katha

एक समय श्री भूतनाथ महादेव जी मृत्युलोक में विवाह की इच्छा करके माता पार्वती के साथ पधारे। विदर्भ देश की अमरावती नगरी जो कि सभी सुखों से परिपूर्ण थी वहां पधारे. वहां के राजा द्वारा एक अत्यंत सुन्दर शिव मंदिर था, जहां वे रहने लगे.

एक बार पार्वती जी ने चौसर खलने की इच्छा की. तभी मंदिर में पुजारी के प्रवेश करन्बे पर माताजी ने पूछा कि इस बाज़ी में किसकी जीत होगी? तो ब्राह्मण ने कहा कि महादेव जी की. लेकिन पार्वती जी जीत गयीं. तब ब्राह्मण को उन्होंने झूठ बोलने के अपराध में कोढ़ी होने का श्राप दिया.

कई दिनों के पश्चात देवलोक की अपसराएं, उस मंदिर में पधारीं, और उसे देखकर कारण पूछा. पुजारी ने निःसंकोच सब बताया. तब अप्सराओं ने ढाढस बंधाया, और सोलह सोमवार के व्रत्र रखने को बताया. विधि पूछने पर उन्होंने विधि भी उपरोक्तानुसार बतायी. इससे शिवजी की कृपा से सारे मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं.फ़िर अप्सराएं स्वर्ग को चलीं गयीं. ब्राह्मण ने सोमवारों का व्रत कर के रोगमुक्त होकर जीवन व्यतीत किया. 

कुछ दिन उपरांत शिव पार्वती जी के पधारने पर, पार्वती जी ने उसके रोगमुक्त होने का करण पूछा. तब ब्राह्मण ने सारी कथा बतायी. तब पार्वती जी ने भी यही व्रत किया, और उनकी मनोकामना पूर्ण हुई. उनके रूठे पुत्र कार्तिकेय जी माता के आज्ञाकारी हुए. परन्तु कार्तिकेय जी ने अपने विचार परिवर्तन का कारण पूछा. तब पार्वती जी ने वही कथा उन्हें भी बतायी. तब स्वामी कार्तिकेय जी ने भी यही व्रत किया.

उनकी भी इच्छा पूर्ण हुई. उनसे उनके मित्र ब्राह्मण ने पूछ कर यही व्रत किया. फ़िर वह ब्राह्मण विदेश गया और एक राज के यहां स्वयंवर में गया. वहां राजा ने प्रण किया था, कि एक हथिनी एक माला, जिस के गले में डालेगी ,वह अपनी पुत्री उसी से विवाह करेगा. वहां शिव कृपा से हथिनी ने माला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी. 

राजा ने उससे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया. उस कन्या के पूछने पर ब्राह्मण ने उसे कथा बतायी. तब उस कन्या ने भी वही व्रत कर एक सुंदर पुत्र पाया. बाद में उस पुत्र ने भी यही व्रत किया और एक वृद्ध राजा का राज्य पाया.

भोलेनाथ महादेव की आरती | Aarti of Lord Shiva in Hindi: 

जय शिव ओंकारा, भज शिव ओंकारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव अद्र्धागी धारा॥ ॐ हर हर हर महादेव॥
एकानन, चतुरानन, पंचानन राजै।
हंसासन, गरुडासन, वृषवाहन साजै॥ ॐ हर हर ..
दो भुज चारु चतुर्भुज, दशभुज ते सोहे।
तीनों रूप निरखता, त्रिभुवन-जन मोहे॥ ॐ हर हर ..
अक्षमाला, वनमाला, रुण्डमाला धारी।
त्रिपुरारी, कंसारी, करमाला धारी॥ ॐ हर हर ..
श्वेताम्बर, पीताम्बर, बाघाम्बर अंगे।
सनकादिक, गरुडादिक, भूतादिक संगे॥ ॐ हर हर ..
कर मध्ये सुकमण्डलु, चक्र शूलधारी।
सुखकारी, दुखहारी, जग पालनकारी॥ ॐ हर हर ..
ब्रह्माविष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका। ॐ हर हर ..
त्रिगुणस्वामिकी आरती जो कोई नर गावै।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवान्छित फल पावै॥ ॐ हर हर ..

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जानिए चंद्रमा से बनने वाले दुर्धरा योग का प्रभाव

जन्म कुण्डली में दुर्धरा (दुरुधरा) योग का निर्माण चंद्रमा की स्थिति के आधार पर तय होता है. जब कुण्डली में सूर्य के सिवाय, चन्द्र के दोनो और अथवा द्वितीय व द्वादश भाव में ग्रह हों, तो इससे दुरुधरा योग बनता है. यह योग चंद्रमा की स्थिति को विभिन्न ग्रहों के प्रभाव के साथ जोड़कर देखा जाता है. चंद्रमा जो सबसे अधिक गतिशील ग्रह है उस पर जब अन्य ग्रहों का प्रभाव पड़ता है तो वह किस प्रकार व्यक्ति को प्रभावित करता है इसे समझ पाना कठिन नहीं होता है.

चंद्रमा एक अति चंचल ग्रह माना गया है. हमारे मन को भी इस चंद्रमा के प्रभाव से देखा जाता है. मन का दुख और सुख चंद्रमा की कलाओं से प्रभावित होता है. इस योग वाले व्यक्ति को जन्म से ही सब सुख-सुविधाएं, प्राप्त होती है. उसके पास धन-संपति वाहन और नौकर चाकर होते है. वह स्वभाव से उदार चित्त, स्पष्ट बात कहने वाला, दान-पुण्य करने वाला और धर्मात्मा होता है.

दुर्धरा योग को एक शुभ योग की श्रेणी में रखा गया है. इसके फल भी व्यक्ति को शांति और शुभता देने में सक्षम होते हैं. दुरुधरा योग में सूर्य को छोड़ कर अन्य सभी ग्रहों का प्रभाव पड़ता है और ग्रहों के गुणों के आधार पर ही प्रभाव भी देता है.

मंगल-बुध दुरुधरा योग

दुरुधरा योग जब कुण्डली में मंगल-बुध से बनता है तो यह स्थिति व्यक्ति को इन दोनों की युति स्वरुप फल देती है. मंगल और बुध का संबंध एक अनुकूल संबंध नही होता है. यह एक प्रकार के विरोधाभास की स्थिति को भी दर्शाता है. इन दोनों के प्रभाव से दुरुधरा योग बना हो तो, जातक प्रपंच करने वाला हो सकता है, वह छोटी-छोटी चीजों को भी कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढा़ कर प्रस्तुत कर सकता है. असत्यवादी और व्यर्थ के झूठ बोलने का आदि भी हो सकता है, जिस झूठ को बोलने की आवश्यकता भी नहीं होगी पर अपनी आदत स्वरुप वह ऎसा नहीं कर पाएगा, पूर्ण धनी होता है पर आर्थिक क्षेत्र में लाभ नहीं उठा पाएगा. चतुर होगा और अपने काम को निकलवाने की योजनाएं बनाने में लगा रहेगा. हठी, गुणवान, लोभी व अपने कुल का नाम रोशन करने वाला.

मंगल-गुरु दुर्धरा योग

मंगल-गुरु से दुरुधरा योग हो तो व्यक्ति अपने कार्यो के कारण विख्यात रहता है. यह स्थिति जातक को अपने संघर्ष से ही आगे बढ़ने देती है. जातक खुद के बल पर ही सफल हो पाता है उसे दूसरों का सहयोग अधिक नहीं मिल पाता है. उसमें कपट भावना पाई जा सकती है. धन के प्रति महत्वकांक्षी होते हैं और इसके लिए हर संभव प्रयास भी करते हैं. उनकी सफलता को पाने की भूख उसके शत्रुओं में बढोतरी कर सकती है. इसके साथ ही वह क्रोधी होता है. जातक में जिद्द भी होती है और अपनी बात को मनवाने की हर तरह से कोशिश भी करता है. धन संचय में उसे विशेष रुचि होती है.

मंगल-शुक्र दुर्धरा योग

किसी व्यक्ति की कुण्डली में मंगल-शुक्र से दुरुधरा योग बन रहा हो तो व्यक्ति का जीवन साथी सुन्दर होता है. इस योग में व्यक्ति की इच्छाओं में वृद्धि रहती है. व्यक्ति विपरितलिंगी पर भी बहुत अधिक आकर्षित होता है. जातक अपने काम में कलात्मकता लाने की कोशिश करता है. उसे विवादों में रहना पसन्द होता है. साथ ही वह और लडाई आदि विषयों के प्रति उत्साही रहता है. वह लोगों के मध्य आकर्षण का केन्द्र भी बनता है.

मंगल -शनि दुर्धरा योग

मंगल और शनि के प्रभाव से बना यह योग व्यक्ति को आद्यात्मिक दृष्टिकोण देता है. ऎसा व्यक्ति कामी हो सकता है तो काम के प्रति अनिच्छा भी रख सकता है. धन इकठा करने वाला, व्यवहारिक अधिक होता है. किसी गलत चीजों के प्रति जल्द ही आकर्षित हो सकता है. व्यसनों से घिर सकता है, क्रोधी व अनेक शत्रुओं वाला होता है.

बुध-गुरु दुर्धरा योग

बुध-गुरु दुरुधरा योग एक शुभता प्रदान करने वाला होता है पर जातक की विचारधारा में स्थिति के कारण बदलाव भी होता है. व्यक्ति धार्मिक होता है, शास्त्रों का जानकार भी होता है. यह दोनों ही ग्रह बौद्धिकता और ज्ञान को प्रभावित करती है इसी कारण जातक के भीतर एक बेहतर वक्ता होने के गुण भी मौजूद होते हैं, सभी वस्तुओं से सुखी, त्यागी और विख्यात होता है.

बुध-शनि दुर्धरा योग्

इस योग का व्यक्ति प्रियवक्ता, सुन्दर, तेजस्वी, पुण्यवान, सुखी, तथा राजनीति में काम करने के लिए उत्साहित होता है. व्यक्ति अपने काम को निकलवाने की योग्यता रखता है. जातक चालबाजियों को करता है और ऎसी योजनाओं को बनाने में आगे रहता है जिससे उसे लाभ मिले. आध्यात्मिक ऊर्जा भी जातक को प्राप्त होती है.

बुध-शुक्र दुरुधरा योग

बुध और शुक्र से बनने वाला यह योग व्यक्ति देश-विदेश घूमने वाला, निर्लोभी, विद्वान, दूसरों से पूज्य, कई बार जातक स्वजन विरोधी भी होता है. व्यक्ति में कला और रचनात्मक चीजों के प्रति लगाव होता है. इस योग के प्रभाव से व्यक्ति अपनी नितियों और कार्यशैली से दूसरों को प्रभावित कर सकता है.

गुरु-शुक्र दुरुधरा योग

गुरु और शुक्र से दुरुधरा योग हो तो वह व्यक्ति धैर्यवान, मेधावी, स्थिर स्वभाव, नीति जानने वाला होता है. उसकी ख्याती अपने प्रदेश में होती है. इसके अतिरिक्त उसके सरकारी क्षेत्र में कार्य करने के योग बनते है. इस दोनों के प्रभाव से जातक के भीतर महत्वकांक्षाओं की भी अधिकता हो सकती है. अपने मन के कार्यों को करने की आदत दूसरों को उसके विरुद्ध भी बना सकती है.

गुरु-शनि दुरुधरा योग

इस के प्रभाव से जातक के भीतर ऎसा ज्ञान होता जिससे वह अपने साथ-साथ दूसरों का भी मार्गदर्शन कर सकता है. व्यक्ति सुखी, नीतिज्ञ, विज्ञानी, विद्वान, कार्यो को करने में समर्थ, पुत्रवान, धनवान और रुपवान होता है. जातक सामाजिक स्तर पर प्रभावशाली व्यक्ति बन सकता है. मानसिक रुप से अधिक सोच विचार करने वाला हो सकता है.

शुक्र-शनि दुरुधरा योग

ऎसे व्यक्ति का जीवन साथी व्यसनी होता है. कुलीन, सब कार्यो में निपुण होता है. विपरीत लिंग का प्रिय, धनवान, सरकारी क्षेत्रों से सम्मान प्राप्त करने वाला होता है. इस स्थिति के प्रभाव के कारण जातक के भीतर अंतरविरोध अधिक होता है. व्यक्ति के भीतर शुभता और सौम्यता मौजूद होती है.

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