स्वाधिष्ठान चक्र | Second Chakra । Sacral Chakr । Swadhisthana Chakra | Second Chakra Location | Chakra

स्वाधिष्ठान, चक्र जननेन्द्रियों या अधिष्ठान त्रिकास्थि में स्थित होता है. स्वाधिष्ठान को द्वितीय चक्र स्वाधिष्टान, सकराल, यौन, द्वितीय चक्र नामों से भी संबोधित किया जाता है. यह मूलाधार के पश्चात द्वितीय स्थान पाता है जिस कारण इसे द्वितीय (दूसरा) चक्र कहा जाता है. इसके जाग्रत होने पर आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास, अहंकार इत्यादि दुर्गणों का नाश होता है.

सहज ज्ञान – स्वाधिष्ठान चक्र | Swadhisthana Chakra

स्वाधिष्ठान या दूसरा चक्र, उपस्थ में स्थित होता है. यह चक्र छ: पंखुड़ियों वाला कमल होता है तथा यह कमल छ: नाड़ियों का मिलन स्थान भी है. इस स्थान पर छ ध्वनियां- वं, भं, मं, यं, रं, लं प्रवाहित होती रहती हैं.  इस चक्र का प्रभाव प्रजनन से संबंधित है. (sematext.com) स्वाधिष्ठान चक्र का तत्व जल है और यदि इस तत्व में मूलाधार का पृथ्वी तत्व विलीन हो तो कुटुम्ब बनाने तथा संबंधों कि कल्पना की उत्पत्ति आरंभ होने लगती है. 

स्वाधिष्ठान चक्र के कारण चित में नवीन भावनाओं उदय होने लगता है और यह चक्र भी अपान वायु के अधीन होता है तथा इसका सम्बंध चन्द्रमा से होता है. इस अधिष्ठान चक्र स्थान से ही प्रजनन संबंधी क्रियाएं सम्पन्न होती हैं. मनुष्य के शरीर अधिकतर भाग जल से निर्मित है अत: चित मनुष्य की भावनाओं के वेग को प्रभावित करता है. स्त्रियों में मासिकधर्म आदि चन्द्रमा से संबंधित है तथा इन कार्यो का नियंत्रण स्वाधिष्ठान चक्र द्वारा संभव होता है यह समस्त क्रियाएं स्वाधिष्ठान चक्र के द्वारा ही पूर्ण होती हैं. 

द्वितीय चक्र व्यक्ति के आंतरिक और बाहरी संसार में समानता स्थापित करने की कोशिश करता है तथा मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास होता है. हमारी प्रत्येक प्रकार की भावनाएँ इस चक्र से जुड़ीं हुई होती हैं, स्वाधिष्ठान चक्र किडनी, लीवर का नियंत्रण करना, मस्तिष्क को सोचने के शक्ति देना जैसे कार्य करता है. स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान लगाने से हृदय शांत होता है तथा धारणा व ध्यान की शक्ति प्राप्त होती है और आत्म ज्ञान का अनुभव प्राप्त होता है. 

स्वाधिष्ठान को मूत्र तंत्र और अधिवृक्क से संबंधित भी माना है. इस चक्र का प्रतीक छह पंखुड़ियों वाला नारंगी रंग का एक कमल है. स्वाधिष्ठान का कार्य – संबंध, हिंसा, भावनात्मक आवश्यकताएं, व्यसन लत और सुख है. शारीरिक रूप से स्वाधिष्ठान- प्रजनन, मा‍नसिक रचनात्मकता, खुशी और उत्सुकता को नियंत्रित करता है.

दूसरे चक्र संबंधी समस्याएं । Second Chakra Imbalance

शारीरिक समस्याएँ | Physical Problems

स्वाधिष्ठान चक्र के निर्बल एवं खराब होने पर अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है जैसे खून की कमी, शुष्क त्वचा, सोने पर बिस्तर गीला कर देना, खून में अस्थिरता, शरीर से दुर्गंध आना, खसरा, मधुमेह, किडनी और लीवर से सम्बंधित रोग, हर्निया, दाद या खाज, नपुंसकता, कामुक्ता की कमी, गुर्दे की समस्याएं, मासिक धर्म से संबंधित समस्याएँ, गर्भाशय मे समस्याएँ, पैरों में सुजन, पेशाब ग्रन्थि कि सम्स्याएँ, योनि मे विकार, शीघ्रपतन इत्यादि परेशानियों को देखा जा सकता है. 

मानसिक समस्याएँ | Emotional Problems

इसी प्रकार इस चक्र के कमजोर होने पर मानसिक एवं भावनात्मक परेशानियां भी उत्पन्न हो जाती हैं, जैसे कि शराब की लत लगना, अकेलापन, भावनात्मक कष्ट तथा अस्थिरता का भाव जागृत होना, भय, लालसा, विश्वास जैसी भावना का समाप्त होना, सृजनता कि कमी, आलस्य, निष्क्रिय होना, कामुक्ता की कमी, अकेलापन जैसे भाव बली होने लगते हैं.

रत्न तथा क्रिस्टल । Second Chakra Stones and Crystal

स्वाधिष्टान को मजबूत बनाने के लिए तथा इससे संबंधित समस्याओं से मुक्त होने के लिए कुछ रत्नों को धारण किया जा सकता है जैसे – हीरा, मोती, मून स्टोन, जैस्पर इत्यादि.

सुगन्ध | Second Chakra Aromatherapy

स्वादिष्ठान चक्र से संबंधित सुगंधें इस प्रकार हैं – रोज़मेरी, गुलाब, शहद, रात की रानी की खुश्बू है. इनका  इस्तेमाल करना फ़ायदेमंद होता है . 

स्वाधिष्ठान यौन इंन्द्रियों मे स्थापित होता है. 

स्वाधिष्टान का तत्व  – जल है. 

स्वाधिष्ठान का रंग – नारंगी है. 

स्वाधिष्ठान राग – तोडी और यमन हैं 

स्वाधिष्ठान चक्र मंत्र –  वम् है 

स्वाधिष्ठान चक्र बीजक्षार –  बं, भ, मं, यं, रं, लं हैं. 

स्वाधिष्ठान के गुण – निर्मल विद्या एवं निर्मल इच्छा चित्त हैं 

शरीर में स्थान – मूलाधार के ऊपर और नाभि के निचे,किडनी, यकृत में है. 

द्वितीय चक्र महत्व । Second Chakra Significance

स्वाधिष्ठान चक्र का स्वामी बृहस्पति है तथा धनु व मीन राशि होती हैं बृहस्पति संतान कारक ग्रह होता है इसलिए संतान की उत्पत्ति में इस चक्र की अहम भूमिका रहती है. यदि मनुष्य में बृहस्पति या धनु−मीन राशि पीड़ित हों तो इस चक्र संबंधी समस्या उत्पन्न हो सकती हैं तथा संतान संबंधी कष्ट या बृहस्पति, धनु, मीन राशि जिस भाव से संबंध बनाती हैं उस भाव संबंधी अंग में रोग भी हो सकता है. 

इस चक्र का रक्त वर्ण है, इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी शाकिनी हैं, छह – ब, भ,म, य, र, ल वर्ण दल हैं. इस चक्र के स्वामी देवता विष्णु भगवान हैं अत: इसके निर्बल होने पर विष्णु भगवान का मनन एवं विष्णु सहस्र नाम का पाठ करना लाभकारी होता है तथा संतान प्राप्त हेतु गोपाल सहस्त्र नाम का पाठ किया जा सकता है. स्वाधिष्ठान चक्र जल के अंतर्गत आता है. 

इसके छ कमल दलों पर काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अंहकार छ विकसित भाव वाली शिक्तयां वास करती हैं, यह  जीवन को प्रभावित करते हैं और व्यक्ति को हिंसक, क्रूर, कामी भाव में धकेलते हैं. इन विकारों के शमन से मोक्ष एवं मुक्ति प्राप्त होती है अत: साधक  को नियमित रूप से प्राण शोधन क्रिया एवं बीज मंत्र से स्वाधिष्ठान की साधना करनी चाहिए ऐसा करने से मन निर्मल होकर सार्वभौमिक सत्ता की ओर अग्रसर होता है और यहीं से समत्व के भाव की प्राप्ति होती है और वाणी मधुर बनती है. 

अपने शुभ रत्नों के बारे में जानने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें Gemstones
Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

जानिए, दशमी तिथि का महत्व और इसमें किए जाने वाले कार्य

सूर्य अपने अंशों से जब 12 अंश आगे जाता है, तो एक तिथि का निर्माण होता है. इसके अतिरिक्त सूर्य से चन्द्र जब 109 अंशों से लेकर 120 अंश के मध्य होता है. उस समय चन्द्र मास अनुसार शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि चल रही है. इसी प्रकार 289 अंश से लेकर 300 अंश तक कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि होती है. दशमी तिथि पूर्णा तिथियों में से एक है. पूर्णा तिथि में किए गए सभी कार्य पूर्ण होते है.

दशमी तिथि वार योग

दशमी तिथि जब शनिवार के दिन होती है, तो अमृत तिथि योग बनता है. तथा यहीं तिथि गुरुवार के दिन पडने पर सिद्धिदा योग बनता है. अमृत सिद्ध योग अपने नाम के अनुसार शुभ फल देता है. सिद्धि योग में किए गये सभी कार्य सिद्ध होते है.

यह माना जाता है, कि दशमी तिथि के दिन यमराज की पूजा करने पर व्यक्ति को आरोग्य और दीर्घायु प्राप्त होती है. दशमी तिथि. जातक को अकाल मृत्य के भय से भी मुक्ति दिलाने वाली होती है. दशमी की दिशा उत्तर बताई गयी है. इसके साथ ही इस दिन इस दिशा की यात्रा करना भी अनुकूल होता है. इस तिथि के दिन यम देव के निमित्त दीपदान के बारे में भी बताया गया है.

दशमी तिथि में किए जाने वाले कार्य

दशमी तिथि एक शुभ तिथि है इस कारण कार्यों में शुभता की इच्छा रखने वालों के लिए इस तिथि के दिन अपने इच्छित काम करने पर शुभ फल प्राप्त होते हैं. इस तिथि के दिन किसी नई किताब का या ग्रंथ का विमोचन करना शुभ होता है, किसी भी प्रकार की पद प्राप्ति के लिए शपथ ग्रहण करने का कार्यक्रम इस समय पर करना उत्तम होता है. किसी भी नए काम का उदघाटन या आरंभ इत्यादि के काम इस तिथि के दिन करना अच्छे माने जाते हैं. वाहन वस्त्र इत्यादि नई वस्तुओं की खरीद भी इस तिथि के दिन की जा सकती है.

दशमी तिथि व्यक्ति विशेषताएं

दशमी तिथि में जन्म लेने वाला व्यक्ति धर्म – अधर्म का ज्ञानी होता है. क्या करना धर्म नीति के अनुसार है, और करना धर्म के विरुद्ध है, वह बेहतर जानता है. उसमें देशभक्ति का गुण भी पाया जाता है तथा उस व्यक्ति का धर्म गतिविधियों में अधिकतर समय व्यतीत होता है. इस व्यक्ति में तेज होता है. और वह सुखी भी होता है.

सूर्य से चन्द्र का अन्तर जब 109° से 120° तक होता है, तब शुक्ल पक्ष की दशमी और 289° से 300° तक कृष्ण दशमी रहती है. दशमी तिथि में जन्मे जातक में जोश और उत्साह रहता है. वह अपने और दूसरों सभी के बारे में सोच विचार रखता है. काम को करने वाला थोड़ा हठी हो सकता है लेकिन उदार भी होता है.

परिवार और मित्रों का साथ पसंद करने वाला. आर्थिक रुप से संपन्न होते हैं, दुसरों की भलाई के कारण अपने धन को दूसरों पर व्यय करने के लिए तैयार रहते हैं. जातक प्रतिभावान होता है. यदि इनकी प्रतिभा को पहचान लिया जाए तो एक बहुत बेहतर उदारहण के तौर पर जाने जा सकते हैं. इनका आध्यात्मिक पक्ष भी मजबूत होता है. दया भावना वाले और धर्मकार्य करने के प्रति भी जागरुक होते हैं. परिवार की भलाई करने वाले और अपनी ओर से घर को बिखरने नही देना चाहते हैं.

दशमी में जन्मे जातक की प्रतिभा में कलात्मकता का भी अच्छा भाव होता है. रंगमंच एवं इसके अतिरिक्त किसी न किसी प्रकार की कला के प्रति भी ये जागरुक होते हैं.

दशमी तिथि का धार्मिक स्वरुप

इस ‘पूर्णा’ संज्ञक तिथि के स्वामी यम हैं, जिसका विशेष नाम ‘धर्मिणी’ है. दशमी तिथि पंचांग में एक बहुत ही महत्वपूर्ण तिथि है. इस तिथि की शुभता को हम बहुत से त्यौहारों में भी देख सकते हैं जैसे दशहरा जिसे विजयदशमी के रुप में मनाया जाता है, गंगा दशहरा इत्यादि त्यौहार दशमी को ही संपन्न होते हैं.

दशमी तिथि त्योहारों एवं लोगों की आस्था के साथ बहुत गहराई के साथ जुड़ी हुई है. इस तिथि का संबंध यमराज से होने के कारण कठोर भी है तो कहीं शुभ भी है.

दशमी तिथि का महत्व एकादशी व्रत में भी होता है. एकादशी के व्रत का आरंभ दशमी के दिन से शुरु होने वाले नियमों के साथ आता है. दशमी तिथि को कुछ नियमों का पालन करने की आवश्यकता होती है. एकादशी रखने वालों को दशमी तिथि के दिन से ही गरिष्ठ भोजन या कहें तामसिक भोजन का त्याग कर देना चाहिए. इस दिन मांस, प्याज, मसूर की दाल आदि का सेवन नहीं करना चाहिए. दशमी की रात के समय जातक को सात्विक और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्रभु भक्ति में ही लीन रहना चाहिए. किसी भी प्रकार के भौतिक सुख से दूर रहना चाहिए.

गंगा दशहरा

ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को गंगा दशहरा मनाया जाता है. दशमी तिथि के दिन ही माँ गंगा का धरती पर आई हैं. गंगा नदी के अवतरण के दिन को ही गंगा दशहरा के नाम से मनाया जाता है. इस दिन गंगा नदी में स्नान दान और पूजा पाठ का विशेष महत्व रहा है.

दशहरा पर्व

दशमी तिथि को दशहरा का त्यौहार भी बनाया जाता है. इसे विजयादशमी भी कहा जाता है. दशहरा संपूर्ण भारत में उत्साह और जोश के साथ मनाया जाता है. दशमी का यह पर्व आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है. यह अधर्म को समाप्त करके धर्म की स्थापना का प्रतीक है. दशहरा का यह पर्व आश्विनी नवरात्रि के पश्चात दसवें दिन मनाया जाता है. यह तिथि एक अबूझ मुहूर्त के रुप में भी जानी जाती है. जिसमें नए व्यापार या काम की शुरुआत शुभ होती है इसके साथ ही इस दिन वाहन, सोना, चांदी, आभूषण नए कपड़े इत्यादि खरीदना शुभ माना जाता है.

विशेष: अपने नाम के अनुरुप ही ये तिथि फल भी देती है. इच्छाओं और कार्यों को पूर्ण करने में इस तिथि का महत्वपूर्ण योगदान रहता है.

Posted in hindu calendar, jyotish, panchang, vedic astrology | Tagged , , , , | Leave a comment

बृहस्पतिवार व्रत कथा | Guruvar Vrat Katha in Hindi | Thursday Fast Story in Hindi – Brihaspati Deva Katha

बृहस्पतिवार (गुरुवार व्रत) कथा | Thursday Story

प्राचीन समय की बात है– एक बड़ा प्रतापी तथा दानी राजा था, वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पून करता था. यह उसकी रानी को अच्छा न लगता. न वह व्रत करती और न ही किसी को एक पैसा दान में देती. राजा को भी ऐसा करने से मना किया करती. एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले गए. 

घर पर रानी और दासी थी. उस समय गुरु वृहस्पति साधु का रुप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए. साधु ने रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज. मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ. आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे यह सारा धन नष्ट हो जाये और मैं आराम से रह सकूं. 

साधु रुपी वृहस्पति देव ने कहा, हे देवी. तुम बड़ी विचित्र हो. संतान और धन से भी कोई दुखी होता है, अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें. परन्तु साधु की इन बातों से रानी खुश नहीं हुई. उसने कहा, मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं, जिसे मैं दान दूं तथा जिसको संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये.

साधु ने कहा, यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना. वृहस्पतिवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहाँ धुलने डालना. इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जायेगा. इतना कहकर साधु बने वृहस्पतिदेव अंतर्धान हो गये.

साधु के कहे अनुसार करते हुए रानी को केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई. भोजन के लिये परिवार तरसने लगा. एक दिन राजा रानी से बोला, हे रानी. तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहां पर मुझे सभी जानते है. इसलिये मैं कोई छोटा कार्य नही कर सकता. ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया. वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता. इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा.

इधर, राजा के बिना रानी और दासी दुखी रहने लगीं. एक समय जब रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा, हे दासी. पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है. वह बड़ी धनवान है तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जाए.  

दासी रानी की बहन के पास गई. उस दिन वृहस्पतिवार था. रानी का बहन उस समय वृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी. दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया. जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई. उसे क्रोध भी आया. दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी. सुनकर, रानी ने अपने भाग्य को कोसा.

उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी. कथा सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर गई और कहने लगी, हे बहन. मैं वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी. तुम्हारी दासी गई परन्तु जब तक कथा होती है, तब तक न उठते है और न बोलते है, इसीलिये मैं नहीं बोली. कहो, दासी क्यों गई थी.

रानी बोली, बहन. हमारे घर अनाज नहीं था. ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आई. उसने दासियों समेत भूखा रहने की बात भी अपनी बहन को बता दी. रानी की बहन बोली, बहन देखो. वृहस्पतिदेव भगवान सबकी मनोकामना पूर्ण करते है. देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो. यह सुनकर दासी घर के अन्दर गई तो वहाँ उसे एक घड़ा अनाज का भरा मिल गया. उसे बड़ी हैरानी हुई क्योंकि उसे एक एक बर्तन देख लिया था.

उसने बाहर आकर रानी को बताया. दासी रानी से कहने लगी, हे रानी. जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते है, इसलिये क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाये, हम भी व्रत किया करेंगे. दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से वृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा. उसकी बहन ने बताया, वृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलायें. पीला भोजन करें तथा कथा सुनें. इससे गुरु भगवान प्रसन्न होते है, मनोकामना पूर्ण करते है. व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट आई.

रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वृहस्पतिदेव भगवान का पूजन जरुर करेंगें. सात रोज बाद जब वृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा. घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाईं तथा उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया. अब पीला भोजन कहाँ से आए. दोनों बड़ी दुखी हुई. परन्तु उन्होंने व्रत किया था इसलिये वृहस्पतिदेव भगवान प्रसन्न थे. एक साधारण व्यक्ति के रुप में वे दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आए और दासी को देकर बोले, हे दासी. यह भोजन तुम्हारे लिये और तुम्हारी रानी के लिये है, इसे तुम दोनों ग्रहण करना. दासी भोजन पाकर बहुत प्रसन्न हुई. उसने रानी को सारी बात बतायी.

उसके बाद से वे प्रत्येक वृहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगी. वृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास धन हो गया. परन्तु रानी फिर पहले की तरह आलस्य करने लगी. तब दासी बोली, देखो रानी. तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया. अब गुरु भगवान की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है. 

बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिये हमें दान-पुण्य करना चाहिये. अब तुम भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राहमणों को दान दो, कुआं-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण कराओ, मन्दिर-पाठशाला बनवाकर ज्ञान दान दो, कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाओ अर्थात् धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पित्तर प्रसन्न हों. दासी की बात मानकर रानी शुभ कर्म करने लगी. उसका यश फैलने लगा. 

एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगें, उनकी कोई खोज खबर भी नहीं है. उन्होंने श्रद्घापूर्वक गुरु (वृहस्पति) भगवान से प्रार्थना की कि राजा जहाँ कहीं भी हो, शीघ्र वापस आ जाएं.

उधर, राजा परदेश में बहुत दुखी रहने लगा. वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीनकर लाता और उसे शहर में बेचकर अपने दुखी जीवन को बड़ी कठिनता से व्यतीत करता. एक दिन दुखी हो, अपनी पुरानी बातों को याद करके वह रोने लगा और उदास हो गया.

उसी समय राजा के पास वृहस्पतिदेव साधु के वेष में आकर बोले, हे लकड़हारे. तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंता में बैठे हो, मुझे बतलाओ. यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया. साधु की वंदना कर राजा ने अपनी संपूर्ण कहानी सुना दी. महात्मा दयालु होते है. वे राजा से बोले, हे राजा तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई. अब तुम चिन्ता मत करो भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगें.  देखो, तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिवार का व्रत प्रारम्भ कर दिया है. 

अब तुम भी वृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो. फिर कथा कहो या सुनो. भगवान तुम्हारी सब कामनाओं को पूर्ण करेंगें. साधु की बात सुनकर राजा बोला, हे प्रभो. लकड़ी बेचकर तो इतना पैसा भई नहीं बचता, जिससे भोजन के उपरांत कुछ बचा सकूं. मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है. मेरे पास कोई साधन नही, जिससे उसका समाचार जान सकूं. फिर मैं कौन सी कहानी कहूं, यह भी मुझको मालूम नहीं है.

साधु ने कहा, हे राजा. मन में वृहस्पति भगवान के पूजन-व्रत का निश्चय करो. वे स्वयं तुम्हारे लिये कोई राह बना देंगे. वृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर में जाना. तुम्हें रोज से दुगुना धन मिलेगा जिससे तुम भलीभांति भोजन कर लोगे तथा वृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा. जो तुमने वृहस्पतिवार की कहानी के बारे में पूछा है, वह इस प्रकार है – 

वृहस्पतिदेव की कहानी – Story of Brihaspati Deva 

प्राचीनकाल में एक बहुत ही निर्धन ब्राहमण था. उसके कोई संन्तान न थी. वह नित्य पूजा-पाठ करता, उसकी स्त्री न स्नान करती और न किसी देवता का पूजन करती. इस कारण ब्राहमण देवता बहुत दुखी रहते थे.

भगवान की कृपा से ब्राहमण के यहां एक कन्या उत्पन्न हुई. कन्या बड़ी होने लगी. प्रातः स्नान करके वह भगवान विष्णु का जप करती. वृहस्पतिवार का व्रत भी करने लगी. पूजा पाठ समाप्त कर पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती. लौटते समय वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो उनको बीनकर घर ले आती. एक दिन वह बालिका सूप में उन सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि तभी उसकी मां ने देख लिया और कहा, कि हे बेटी. सोने के जौ को फटकने के लिये सोने का सूप भी तो होना चाहिये.

दूसरे दिन गुरुवार था. कन्या ने व्रत रखा और वृहस्पतिदेव से सोने का सूप देने की प्रार्थना की. वृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली. रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई पाठशाला चली गई. पाठशाला से लौटकर जब वह जौ बीन रही थी तो वृहस्पतिदेव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला. उसे वह घर ले आई और उससे जौ साफ करने लगी. परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा.

एक दिन की बात है, कन्या सोने के सूप में जब जौ साफ कर रही थी, उस समय उस नगर का राजकुमार वहां से निकला. कन्या के रुप और कार्य को देखकर वह उस पर मोहित हो गया. राजमहल आकर वह भोजन तथा जल त्यागकर उदास होकर लेट गया.

राजा को जब राजकुमार द्घारा अन्न-जल त्यागने का समाचार ज्ञात हुआ तो अपने मंत्रियों के साथ वह अपने पुत्र के पास गया और कारण पूछा. राजकुमार ने राजा को उस लड़की के घर का पता भी बता दिया. मंत्री उस लड़की के घर गया. मंत्री ने ब्राहमण के समक्ष राजा की ओर से निवेदन किया. कुछ ही दिन बाद ब्राहमण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ सम्पन्न हो गाया.

कन्या के घर से जाते ही ब्राहमण के घर में पहले की भांति गरीबी का निवास हो गया. एक दिन दुखी होकर ब्राहमण अपनी पुत्री से मिलने गये. बेटी ने पिता की अवस्था को देखा और अपनी माँ का हाल पूछा ब्राहमण ने सभी हाल कह सुनाया. कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया. लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया. ब्राहमण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल कहातो पुत्री बोली, हे पिताजी. 

आप माताजी को यहाँ लिवा लाओ. मैं उन्हें वह विधि बता दूंगी, जिससे गरीबी दूर हो जाए. ब्राहमण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुंचे तो पुत्री अपनी मां को समझाने लगी, हे मां, तुम प्रातःकाल स्नानादि करके विष्णु भगवन का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी. परन्तु उसकी मां ने उसकी एक भी बात नहीं मानी. वह प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री की बची झूठन को खा लेती थी.

एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया, उसने अपनी माँ को एक कोठरी में बंद कर दिया. प्रातः उसे स्नानादि कराके पूजा-पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्घि ठीक हो गई.

इसके बाद वह नियम से पूजा पाठ करने लगी और प्रत्येक वृहस्पतिवार को व्रत करने लगी.. इस व्रत के प्रभाव से मृत्यु के बाद वह स्वर्ग को गई. वह ब्राहमण भी सुखपूर्वक इस लोक का सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुआ. इस तरह कहानी कहकर साधु बने देवता वहाँ से लोप हो गये.

धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वृहस्पतिवार का दिन आया. राजा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया उसे उस दिन और दिनों से अधिक धन मिला. राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर वृहस्पतिवार का व्रत किया. उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए. परन्तु जब अगले गुरुवार का दिन आया तो वह वृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया इस कारण वृहस्पति भगवान नाराज हो गए.

उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया था तथा अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि सभी मेरे यहां भोजन करने आवें. किसी के घर चूल्हा न जले. इस आज्ञा को जो न मानेगा उसको फांसी दे दी जाएगी.

राजा की आज्ञानुसार राज्य के सभी वासी राजा के भोज में सम्मिलित हुए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा, इसलिये राजा उसको अपने साथ महल में ले गए. जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी, जिस पर उसका हारलटका हुआ था. उसे हार खूंटी पर लटका दिखाई नहीं दिया. रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इस लकड़हारे ने चुरा लिया है. उसी समय सैनिक बुलवाकर उसको जेल में डलवा दिया.

लकड़हारा जेल में विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्वजन्म के कर्म से मुझे यह दुख प्राप्त हुआ है और जंगल में मिले साधु को याद करने लगा. तत्काल वृहस्पतिदेव साधु के रुप में प्रकट हो गए और कहने लगे, अरे मूर्ख,  तूने वृहस्पति देवता की कथा नहीं की, उसी कारण तुझे यह दुख प्राप्त हुआ हैं. अब चिन्ता मत कर, वृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर तुझे चार पैसे पड़े मिलेंगे, उनसे तू वृहस्पतिवार की पूजा करना तो तेर सभी कष्ट दूर हो जायेंगे.

अगले वृहस्पतिवार उसे जेल के द्घार पर चार पैसे मिले. राजा ने पूजा का सामान मंगवाकर कथा कही और प्रसाद बाँटा. उसी रात्रि में वृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा. तूने जिसे जेल में बंद किया है, उसे कल छोड़ देना. वह निर्दोष है, राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा राजा के योग्य सुन्दर वस्त्र-आभूषण भेंट कर उसे विदा किया.

गुरुदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया. राजा जब नगर के निकट पहुँचा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत-सी धर्मशालाएं, मंदिर आदि बने हुए थे. राजा ने पूछा कि यह किसका बाग और धर्मशाला है, तब नगर के सब लोग कहने लगे कि यह सब रानी और दासी द्घारा बनवाये गए है. राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया कि उसकी अनुपस्थिति में रानी के पास धन कहां से आया होगा.

जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे है तो उसने अपनी दासी से कहा, हे दासी, देख, राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गये थे. वह हमारी ऐसी हालत देखकर लौट न जाएं, इसलिये तू दरवाजे पर खड़ी हो जा. रानी की आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई और जब राजा आए तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा लाई, तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगा, बताओ, यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है. तब रानी ने सारी कथा कह सुनाई. (messinascatering.com)

राजा ने निश्चय किया कि मैं रोजाना दिन में तीन बार कहानी कहा करुंगा और रोज व्रत किया करुंगा. अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कथा कहता.

एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आऊं. इस तरह का निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां चल दिया. मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिये जा रहे है. उन्हें रोककर राजा कहने लगा, अरे भाइयो. मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन लो, वे बोले, लो, हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है, परन्तु कुछ आदमी बोले, अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगें. राजा ने दाल निकाली और कथा कहनी शुरु कर दी. जब कथा आधी हुई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो राम-राम करके वह मुर्दा खड़ा हो गया.

राजा आगे बढ़ा. उसे चलते-चलते शाम हो गई. आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला. राजा ने उससे कथा सुनने का आग्रह किया, लेकिन वह नहीं माना. राजा आगे चल पड़ा. राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट में बहुत जो दर्द होने लगा.

उसी समय किसान की मां रोटी लेकर आई. उसने जब देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा. बेटे ने सभी हाल बता दिया. बुढ़िया दौड़-दौड़ी उस घुड़सवार के पास पहुँची और उससे बोली, मैं तेरी कथा सुनूंगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर ही चलकर कहना. राजा ने लौटकर बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गये तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया.

राजा अपनी बहन के घर पहुंच गया. बहन ने भाई की खूब मेहमानी की. दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जागा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे है. राजा ने अपनी बहन से जब पूछा, ऐसा कोई मनुष्य है, जिसने भोजन नहीं किया हो. जो मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन ले. बहन बोली, हे भैया यह देश ऐसा ही है यहाँ लोग पहले भोजन करते है, बाद में कोई अन्य काम करते है. फिर वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था.

उसे मालूम हुआ कि उसके यहां तीन दिन से किसीने भोजन नहीं किया है. रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिये कुम्हार से कहा. वह तैयार हो गया. राजा ने जाकर वृहस्पतिवार की कथा कही, जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया, अब तो राजा को प्रशंसा होने लगी. एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, हे बहन. मैं अब अपने घर जाउंगा, तुम भी तैयार हो जाओ. राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भाई के साथ जाने की आज्ञा मांगी.

सास बोली हां चली जा मगर अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई के कोई संतान नहीं होती है. बहन ने अपने भाई से कहा, हे भइया. मैं तो चलूंगी मगर कोई बालक नहीं जायेगा. अपनी बहन को भी छोड़कर दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया. राजा ने अपनी रानी से सारी कथा बताई और बिना भोजन किये वह शय्या पर लेट गया. रानी बोली, हे प्रभो, वृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें संतान अवश्य देंगें.

उसी रात वृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा, उठ, सभी सोच त्याग दे. तेरी रानी गर्भवती है. राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई, नवें महीन रानी के गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ, तब राजा बोला, हे रानी. स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, परन्तु बिना कहे नहीं रह सकती, जब मेरी बहन आये तो तुम उससे कुछ मत कहना.

रानी ने हां कर दी, जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई, रानी ने तब उसे आने का उलाहना दिया, जब भाई अपने साथ ला रहे थे, तब टाल गई, उनके साथ न आई और आज अपने आप ही भागी-भागी बिना बुलाए आ गई, तो राजा की बहन बोली, भाई, मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हारे घर औलाद कैसे होती.

वृहस्पतिदेव सभी कामनाएं पूर्ण करते है, जो सदभावनापूर्वक वृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, वृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते है, उनकी सदैव रक्षा करते है.

जो संसार में सदभावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे हृदय से करते है, उनकी सभी मनकामनाएं वैसे ही पूर्ण होती है, जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने वृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी इच्छाएं वृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की. अनजाने में भी वृहस्पतिदेव की उपेक्षा न करें, ऐसा करने से सुख-शांति नष्ट हो जाती है इसलिये सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिये, हृदय से उनका मनन करते हुये जयकारा बोलना चाहिये.

।। इति श्री वृहस्पतिवार व्रत कथा ।।

Posted in jyotish, rituals, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

ऋषि अत्रि का ज्योतिष में योगदान

ज्योतिष के इतिहास से जुडे 18 ऋषियों में से एक थे ऋषि अत्रि. एक मान्यता के अनुसार ऋषि अत्रि का जन्म ब्रह्मा जी के द्वारा हुआ था. भगवान श्री कृष्ण ऋषि अत्रि के वंशज माने जाते है. कई पीढीयों के बाद ऋषि अत्रि के कुल में ही भगवान श्री कृ्ष्ण का जन्म हुआ था. यह भी कहा जाता है, कि ब्रह्मा जी के सात मानस पुत्र उत्पन्न हुए थे, उसमें ऋषि पुलस्त्य, ऋषि पुलह, ऋषि वशिष्ठ, ऋषि कौशिक, ऋषि मारिचि, ऋषि क्रतु, ऋषि नारद है. इन महाऋषियों के ज्योतिष के प्राद्रुभाव में महत्वपूर्ण योगदान रहा है.

ब्रह्मा के मानस पुत्र

हिंदू धर्म के प्रमुख ऋषियों में से एक ऋषि अत्री एक महान कवि और विद्वान थे. अत्री मुनि नौ प्रजापतियों में से एक तथा ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे. अत्री एक गोत्र भी है जिस कारण इस गोत्र में जन्में व्यक्ति अत्री ऋषि के वंशज माने गए. ऋषि अत्री का स्थान सप्तऋषियों में लिया जाता है उनकी महानता एवं विद्वता से प्राचीन ग्रंथ भरे पडे़ हैं. संपूर्ण ऋग्वेद दस मण्डलों में से एक ऋग्वेद के पंचम मण्डल के मंत्र द्रष्टा महर्षि अत्रि हैं जिस कारण इसे आत्रेय मण्डल कहा जाता है.

ब्रह्मा जी के यही सात पुत्र आकाश में सप्तर्षि के रुप में विद्यमान है. इस संबन्ध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है. तारामंडल का प्रयोग दिन, तिथि, कुण्डली निर्माण, त्यौहार और मुहूर्त आदि कार्यो के लिए किया जाता है. व इन सभी का उपयोग भारत की कृषि के क्षेत्र में प्राचीन काल से होता रहा है.

ज्योतिष के इतिहास के ऋषि अत्रि का नाम जुडा होने के साथ साथ, देवी अनुसूया और रायायण से भी ऋषि अत्रि जुडे हुए है. भगवान राम और सीता जब इनसे मिलने के लिए ऋषि अत्रि के आश्रम जाते हैं तो वहां उनका साक्षात्कार देवी अनुसूया से भी होता है. वहीं देवी अनुसूया सीता जी को पतिधर्म की शिक्षा देती हैं ओर उन्हें भेंट स्वरुप दिव्यवस्त्र भी प्रदान करती हैं. इसी के अलावा महाभार्त में भी ऋषि अत्रि के विषय में ओर उनके गोत्र से संबंधित विचार भी मिलता है.

ज्योतिष में ऋषि अत्रि का योगदान

ऋषि अत्रि ने ज्योतिष में चिकित्सा ज्योतिष पर कार्य किया, इनके द्वारा लिखे गये. सिद्धांत आज चिकित्सा ज्योतिष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है. इसके साथ ही अत्री संहिता की रचना हुई, महर्षि अत्रि को मंत्र की रचना करने वाले और उसके भेद को जानने वाला भी कहा गया है. अपनी त्रिकाल दृष्टा शक्ति से इन्हेंने धार्मिक ग्रंथों की रचना भी की और साथ ही इनकी कथाओं द्वारा चरित्र का सुन्दर वर्णन किया गया है. महर्षि अत्रि को बौद्धिक, मानसिक ज्ञान, कठोर तप, उचित धर्म आचरण युक्त व्यवहार, प्रभु भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के जानकार के रुप में सदैव पूजा जाता रहा है.

ऋषि अत्रि द्वारा ज्योतिष में शुभ मुहुर्त एवं पूजा अर्चना की विधियों का भी उल्लेख मिलता है. ऋग्वेद के आत्रेय मण्डल, कल्याण सूक्त स्वस्ति-सूक्त इन्ही द्वारा रचे बताए गए हैं. इन के अंतर्गत महर्षि अत्रि ने पूजा पाठ एवं उत्सव किस प्रकार मनाए जाएं इन विषयों का वर्णन किया है. इन्होंने जिन सूक्तों का वर्णन किया है उन्हें आज भी मांगलिक कार्यों एवं किसी न किसी शुभ संस्कारों और अनुष्ठानों में उपयोग किया जाता रहा है.

अत्रि ऋषि का विवाह देवी अनुसूया जी के साथ हुआ था. देवी अनुसूया को पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली श्रेष्ठ नारियों में स्थान प्राप्त है. ऋषि अत्रि और अनुसूया ने अपनी साधना और तपस्या के बल पर त्रिदेवों को संतान रुप में प्राप्त किया. इन्हें विष्णु के अंश रुप में दत्तात्रेय, भगवान शिव के अंश रुप में दुर्वासा और ब्रह्माजी के अंश रुप में सोम की प्राप्ति होती है.

आयुर्वेद में योगदान

आयुर्वेद और प्राचीन चिकित्सा क्षेत्र सदैव ऋषि का आभारी रहेगा. इन्हें आयुर्वेद में अनेक योगों का निर्माण किया. पुराणों के अनुसार ऋषि अत्रि का जन्म ब्रह्मा जी के नेत्रों से हुआ माना जाता है. ऋर्षि अत्रि को चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपुर्ण उपलब्धी प्राप्त रही है.

प्राचीन धर्म ग्रंथों के अनुसार देवताओं के चिकित्स्क अश्विनी कुमारों ने ऋषि अत्रि को वरदान प्रदान किया. ऋगवेद में भी इस विषय के बारे में विस्तार पूर्वक एक कथा का उल्लेख भी मिलता है. कथा अनुसार एक बार ऋषि अत्रि पर दैत्यों द्वारा हमला होता है पर जिस समय दैत्य उन्हें मारने का प्रयास कर रहे होते हैं तो उस समय ऋषि अत्रि साधना में लिप्त होते हैं. अपनी आधना की ध्यान अवस्था में उन्हें अपने ऊपर हुए इस जानलेवा हमले का बोध नही होता है. ऎसे में उस समय पर अश्विनी कुमार इस घटना के समय वहां उपस्थित होते हैं और ऋषि अत्रि को उन दैत्यों से बचा लेते हैं.

इसके अतिरिक्त भी एक अन्य कथा है की अश्विनी कुमारों ने ऋषि अत्रि को यौवन प्राप्ति का वरदान देते हैं और उन्हें नव यौवन प्राप्त कैसे किया जाए इस विधि का भी ज्ञान देते हैं.

ऋषि अत्रि और उनका जीवन दर्शन

अत्री संहिता में बहुत से ऎसे विषयों पर विचार किया गया है जो मनुष्य के सामाजिक एवं आत्मिक उत्थान की बात करते हैं. व्यक्ति के नैतिक कर्तव्यों एवं उसके अधिकारों का का वर्णन भी इसमें मिलता है. इस संहिता में व्यक्ति को सहृदय और करुणा से युक्त और दूसरों का उपकार करने वाला कहा गया है. अपने परिवार मित्र के साथ कैसा व्यवहार किया जाए इन बातों का उल्लेख भी हमे इससे प्राप्त होता है.

Posted in jyotish, saint and sages, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

प्रथम भाव-लग्न भाव क्या है.| Lagna Bhava Meaning | First House in Horoscope | Ist House in Indian Astrology

भारतीय हिन्दू वैदिक ज्योतिष में प्रथम भाव को कई नामों से जाना जाता है. इस भाव को लग्न भाव, केन्द्र भाव व त्रिकोण भाव भी कहा जाता है.  लग्न भाव कुण्डली का बल होता है. और अन्य सभी भावों की तुलना में इसका सबसे अधिक महत्व है. लग्न और लग्नेश पर बाधकेश ग्रह का प्रभाव हो, तो व्यक्ति का स्वास्थय प्रभावित होता है. लग्न भाव में कोई अस्त ग्रह सामान्य उन्नति और वैवाहिक जीवन पर बुरा प्रभाव डालता है. 

उदय होने वाला लग्न जितना शुभ होगा, उतना ही व्यक्ति लम्बा जीवन व्यतीत करेगा. यह योग व्यक्ति को सुख-सम्मान प्राप्त करने में सहयोग करता है. और व्यक्ति को खुशहाल परिस्थितियों से घिरा रहेगा. इसके अलावा लग्न, लग्नेश से दृ्ष्ट हो तो व्यक्ति धनवानों में भी धनवान होता है. ऎसा व्यक्ति अपने कुल का दीपक होता है. 

लग्न भाव की विशेषताएं कौन सी है. | What are the characteristics of Ascendant’s House

लग्न भाव जिस व्यक्ति की कुण्डली है, उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है. इस भाव से स्वास्थय, दीर्घायु, खुशियां, शारीरिक बनावट, चरित्र, कद-काठी, प्रवृ्ति, शारीरिक गठन, जन्मजात स्वभाव, ज्ञान, आनन्द, समृ्द्धि, स्थिति, स्वभाव, आत्मसम्मान, व्यक्तित्व, तेज, स्फुर्ति, प्रयासों में सफलता, विफलता, समान्य रुप से व्यक्ति के स्वाभाविक गुण, प्रश्न करने वाला व्यक्ति, प्रसिद्धि, जीवन के प्रारम्भ, बचपन, बाल, आयु, वातावरन, भौतिक शरीर. 

प्रथम भाव की कारक वस्तुएं कौन सी है. | What are the Karaka things of First House 

प्रथम भाव में सूर्य होने पर व्यक्ति के स्वास्थय सुख में वृ्द्धि होती है. ऎसा व्यक्ति ओजस्वी, और दिर्घायु वाला होता है. इस भाव में चन्द्र शरीर का कारक होता है. मंगल प्रथम भाव में कपाल और खोपडी का कारक ग्रह है. 

प्रथम भाव का स्थूल रुप में क्या दर्शाता है. | What does the house of Ascendant explains physically. 

प्रथम भाव स्थूल रुप में भौतिक शरीर दर्शाता है. 

लग्न भाव से सूक्ष्म रुप में क्या दर्शाता है.  | What does the House of Ascendant accurately explains

प्रथम भाव सूक्ष्म रुप में स्वास्थय और शारीरिक गठन का विश्लेषण करता है. 

लग्न भाव कौन से रिश्तों का प्रतिनिधित्व करता है. | Ascendant’s house represents which  relationships. 

प्रथम भाव से रिश्तेदारों में सगे-सम्बन्धियों में नानी, दादी का विश्लेषण करने के लिए प्रयोग किया जाता है. 

लग्न भाव कौन से अंगों का कारक भाव है. । Ascendant’s House is the Karak House of which body parts. 

लग्न भाव से सिर, गरदन, वस्ति, बाल, त्वचा, चेहरे का उपरी भाग के विश्लेषण के लिए प्रयोग किया जाता है. द्रेष्कोण अंशों के अनुसार प्रथम भाव से सिर, गर्दन, बस्ति भाग का फलित करने के लिए प्रयोग किया जाता है.  

लग्न भाव कौन से अंगों का कारक भाव है. | When does Ascendant’s House is strong.

लग्न भाव में जब  शुभ ग्रह बैठे हो, तब वह बली होता है. या फिर लग्न भाव पर शुभ ग्रहों की दृ्ष्टि हो, या लग्न शुभ ग्रहों के मध्य स्थित हों. या फिर लग्न भाव को लग्नेश देखता हो. इनमें से कोई भी योग कुंण्डली में बन रहा हो, तो प्रथम भाव को बली माना जाता है.  

लग्न भाव कब निर्बल होता है. | When does Ascendant’s House is weak

लग्न भाव जब अशुभ ग्रहों के मध्य फंसा हो, तो लग्न भाव को निर्बल कहा जाता है. या फिर लग्न भाव में अशुभ ग्रह बैठें हो, या लग्न भाव को अशुभ ग्रह देखते हों, या फिर व्यक्ति का जन्म एक अशुभ नवांश या द्रेष्कोण में हुआ हो. उपरोक्त स्थितियों में लग्न भाव पीडित माना जाता है.  

लग्नेश कब बली होता है. | When does Lagnesh is strong

लग्नेश कुण्डली में जब स्वगृ्ही स्थित हो तब वह बली माना जाता है. या फिर लग्नेश मित्र ग्रह के साथ हो, तब बली कहा जाता है, लग्नेश का एकादश भाव में स्थित होना भी, लग्नेश को बली करता है. या लग्नेश शुभ ग्रहों के मध्य हों, उसपर शुभ ग्रहों की दृ्ष्टि हों, या वह उच्च राशि में स्थित हों, या फिर मित्र नवांश में हों, मित्र ग्रह के द्रेष्कोण में हों, या शुभ ग्रहों कि युति में हों, या मित्र ग्रह की राशि में हों, अथवा लग्नेश केन्द्र या त्रिकोण भाव में होना भी लग्नेश को बली बनाता है.  

लग्नेश कब निर्बल होता है.  | When does Lagnesh is weaker 

लग्नेश जब शत्रु राशि में, अशुभ ग्रहों की युति में हों, या लग्नेश तीसरे, छठे, आंठवें या बारहवें भाव में हों, अशुभ ग्रहों के मध्य स्थित हों, या फिर नीच राशिस्थ या अस्त हों, अथवा शत्रु नवांश या फिर द्रेष्कोण में हों, तो लग्नेश को निर्बल माना जाता है.  

Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

होरा की गणना तथा उपयोग | Calclation and Uses of Hora

जिस दिन और जिस समय जातक ने प्रश्न किया है उस दिन की होरा ज्ञात करेंगें. होरा जानने के बाद यह तय करेंगें कि प्रश्न के समय किस ग्रह की होरा चल रही थी. जिस ग्रह की होरा चल रही थी उस ग्रह से संबंधित बातों का विश्लेषण प्रश्न कुण्डली में किया जाता है. इससे भी प्रश्न की पहचान करने में सहायता मिलति है. प्रश्न के स्वरुप के बारे में जानकारी मिलती है.

होरा | Hora 

 जिस दिन जातक ने प्रश्न किया है उस दिन का सूर्योदय देखें कि कितने बजे हुआ है. उसे नोट कर लें. सूर्योदय से सूर्यास्त तक के 1-1 घण्टे के 12 हिस्से बनेगें. सूर्यास्त से सूर्योदय तक 12 हिस्से बनेंगें. इस प्रकार 24 होरा प्राप्त होगीं. जिस दिन की होरा जाननी है उस दिन की पहली होरा वार स्वामी की होगी और अगली होरा वार स्वामी से छठे वार की होगी. फिर अगली होरा उससे छठे वार स्वामी की होगी. इस तरह से 24 होराओं का क्रम बन जाएगा. आइए इसे उदाहरण से समझें. 

माना प्रश्न के दिन के समय सोमवार था और सूर्योदय सुबह 6 बजे होता है तो 6 से 7 बजे तक चन्द्रमा की होरा होगी. 7 से 8 बजे तक चन्द्रमा से छठे वार के स्वामी की होगी. चन्द्रमा से छठे वार का स्वामी शनि होता है. इस प्रकार बकी होरा भी क्रम से होगीं. आइए इसे तालिका से समझें.  

सुबह 6 से 7 चन्द्रमा की होरा

7 से 8 शनि की होरा

8 से 9 गुरु की होरा

9 से 10 मंगल की होरा

10 से 11 सूर्य की होरा

11 से 12 शुक्र की होरा

12 से 1 बुध की होरा

1 से 2 चन्द्रमा की होरा 

2 से 3 शनि की होरा

3 से 4 गुरु की होरा 

4 से 5 मंगल की होरा

5 से 6 सूर्य की होरा 

6 से 7 शुक्र की होरा 

जब आप होरा का निर्धारण करते हैं तब एक बात पर आप गौर करें कि होरा का क्रम ग्रहों के आकार के क्रम पर स्वत: ही निर्धारित हो जाता है. जैसे आप गुरु को देखें कि वह आकार में सबसे बडा़ ग्रह है. उसके बाद होरा स्वामी मंगल होता है. मंगल के बाद शनि और इस तरह से सभी ग्रह क्रम से अपने आकार के अनुसार चलते हैं. होरा स्वामी दो समूहों में बांटे गए हैं. पहले समूह में बुध, शुक्र तथा शनि आते हैं. दूसरे समूह में सूर्य, चन्द्रमा, मंगल तथा गुरु आते हैं. जब होरा का समूह प्रश्न के समय बदल रहा हो तब प्रश्न से संबंधित कोई मुख्य बदलव हो सकते हैं.  

* इस तरह से आप देखें कि प्रश्न के समय किस ग्रह की होरा चल रही है. जिस ग्रह की होरा चल रही है प्रश्नकर्त्ता का प्रश्न उस ग्रह से संबंधित हो सकता है. यदि होरेश अर्थात होरा स्वामी पीड़ित है तब कार्य सिद्धि में अड़चन आ सकती हैं.  

* जिस होरा में प्रश्न आता है उसके आप तीन बराबर भाग कर दें. एक होरा एक घण्टे की होती है. एक घण्टे को तीन बराबर भागों में बाँटे. प्रश्न का सही समय देखें कि कौन से भाग में आ रहा है. यदि प्रश्न होरा के पहले भाग में आ रहा है तो इसका अर्थ है प्रश्नकर्त्ता की समस्या अभी आरम्भ हुई है. यदि होरा के दूसरे भाग में आ रहा है तो समस्या अभी और चल सकती है. यदि होरा के तीसरे भाग में प्रश्न  आ रहा है तो इसका अर्थ है कि समस्या समाप्त होने वाली है. 

* होरा का प्रयोग प्रश्न की पहचान करने में किया जाता है. प्रश्न का निर्णय करने में कि होरा स्वामी किस स्थिति में है. प्रश्न की धातु, मूल तथा जीव चिन्ता के निर्धारण में भी होरा का प्रयोग किया जाता है. 

अपनी प्रश्न कुण्डली स्वयं जाँचने के लिए आप हमारी साईट पर क्लिक करें : प्रश्न कुण्डली

Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

क्या पुखराज रत्न मेरे लिये अनुकुल रहेगा? | Is Pukhraj Stone Good for Me (Can I Wear Yellow sapphire)

गुरु रत्न पुख्रराज, गुरुरत्न, पुष्पराग, गुरुवल्लभ, वचस्पति वल्लभ, पीतमणी के नाम से भी विख्यात है. इस रत्न को धारण करने पर व्यक्ति की आर्थिक स्थिति सुदृढ होती है. यह रत्न व्यक्ति को संतान, संपति और ऎश्वर्य के साथ साथ ज्ञान भी देता है. 

गुरु रत्न होने के कारण इस रत्न को व्यवसाय और धर्मपरायणता के लिये भी धारण किया जाता है. इस रत्न को धारण करने के अनेक शुभ फल है. जिनमें से कुछ इस प्रकार है, यह रत्न व्यक्ति के जीवन में शुभ घटनाओं की वृ्द्धि करता है, और विवेक और योग्यता का सहयोग व्यक्ति को दिलाता है.     

पुखराज रत्न कौन धारण करें? | Who Should Wear Pukhraj Ratan

पुखराज रत्न को आत्मशक्तिवर्धक कहा जाता है. इस रत्न को धारण करने से व्यक्ति के अनिष्टों में कमी होती है. गुरु ग्रह सभी ग्रहों में सबसे अधिक शुभ माने गये है. परन्तु फिर भी इनका रत्न धारण करने से पूर्व व्यक्ति को अपने लग्न के अनुसार रत्न की शुभता / अशुभता की जांच कर लेनी चाहिए.    

मेष लग्न- पुखराज रत्न | Pukhraj Stone for Aries Lagna

इस लग्न के लिए गुरु नवमेश यानी 9वें भाव व 12वें भाव के स्वामी होते है. ऎसे में वे इस लग्न के लिये शुभ ग्रह हो जाते है. अत: मेष लग्न के व्यक्तियों को पुखराज रत्न सदैव धारण करके रखना चाहिए.  इस रत्न को धारण करने से व्यक्ति का बुद्धिबल, योग्यता, ज्ञान, धन और उन्नती बढती है.    

वृ्षभ लग्न-पुखराज रत्न | Effect of Pukhraj Ratna on Taurus Lagna

वृ्षभ लग्न में गुरु अष्टम व एकादश भाव के स्वामी है. इस लग्न के व्यक्तियों को पुखराज रत्न केवल गुरु की महादशा में ही धारण करना चाहिए.  

मिथुन लग्न-पुखराज रत्न | Influence of Yellow Sapphire on Gemini Lagna

इस लग्न के लिये गुरु सप्तम व दशम भाव के स्वामी है. इस लग्न के व्यक्ति इस रत्न को धारण कर सकते है. इस रत्न को धारण् करने पर मिथुन लग्न के व्यक्तियों को सुख -समृ्द्धि देगा.   

कर्क लग्न-पुखराज रत्न | Impact of Pukhraj Stone on Cancer Lagna

कर्क लग्न के लिये गुरु छठे भाव व नवम भाव के स्वामी होते है. नवमेश होने के कारण इस लग्न के लिए विशेष शुभफलकारी हो जाते है. साथ ही ये लग्नेश चन्द्र के मित्र भी है. इन व्यक्तियों को यह रत्न सदैव धारण करके रखना चाही.  

सिंह लग्न-पुखराज रत्न | Pukhraj Ratna -Effect on Leo Lagna

सिंह लग्न में गुरु पंचम और अष्टम भाव के स्वामी होकर मध्यम स्तर के शुभ है. पंचम भाव त्रिकोण भाव है, इस स्थिति में इस ग्रह का रत्न पुखराज सिंह लग्न के व्यक्ति धारण कर शुभ फल प्राप्त कर सकते है. 

कन्या लग्न-पुखराज रत्न | Yellow Sapphire for Virgo Lagna

इस लग्न के लिये गुरु चतुर्थ व सप्तम भाव के स्वामी होते है. सप्तम भाव मारकेश स्थान भी है. फिर भी इस लग्न के लिये गुरु सामान्य से अधिक शुभ फल देता है. इसलिये इस लग्न के व्यक्ति इस रत्न को धारण कर सकते है. 

तुला लग्न-पुखराज रत्न | Influence of Pukhraj Stone for Libra Lagna

तुला लग्न में गुरु तीसरे व छठे भाव का स्वामी है. इस लग्न के व्यक्तियों को यह रत्न कभी भी धारण नहीं करना चाहिए.   

वृ्श्चिक लग्न-पुखराज रत्न | Yellow Sapphire – Effect on Scorpio Lagna

वृ्श्चिक लग्न के लिये गुरु दूसरे व पंचम भाव के स्वामी है. यह लग्नेश मंगल का मित्र भी है. इसलिये इस लग्न के व्यक्ति पुखराज धारण कर सकते है, इसके साथ ही इन्हें मूंगा भी धारण करना चाहिए.     

धनु लग्न-पुखराज रत्न | Influence of Pukhraj Stone on Sagittarius Lagna

इस लग्न के व्यक्तियों को पुखराज रत्न अवश्य धारण करना चाहिए. इस लग्न के लिये गुरु लग्न व चतुर्थ भाव के स्वामी होते है.     

मकर लग्न-पुखराज रत्न | Effect of Pukhraj Ratna on Capricorn Lagna

मकर लग्न के लिये गुरु तीसरे व द्वादश भाव के स्वामी होने के कारण अशुभ ग्रह हो जाते है. इस लग्न के व्यक्तियों को पुखराज रत्न धारण नहीं करना चाहिए.   

कुम्भ लग्न-पुखराज रत्न | Pukhraj Stone for Aquarius Lagna

कुम्भ लग्न के लिये गुरु दूसरे व एकादश भाव के स्वामी होते है. कुंभ लग्न का स्वामी शनि इनका मित्र भी नहीं है. इसलिये पुखराज रत्न को महादशा में या विशेष परिस्थितियों में धारण करना चाहिए.   

मीन लग्न-पुखराज रत्न | Benefits of Yellow Sapphire for Pisces Lagna

इस लग्न के लिये गुरु लग्नेश व दशमेश होने के कारण अत्यधिक शुभ ग्रह होते है. मीन लग्न के व्यक्तियों को पुखराज आजीवन धारण करके रखना चाहिए.   

पुखराज रत्न के साथ क्या पहने ? | What Should I Wear with Pukhraj Stone

पुखराज रत्न करने वाला व्यक्ति इस रत्न के साथ-साथ एक ही समय में मोती, मूंगा और माणिक्य व इनके उपरत्न धारण कर सकता है.

पुखराज रत्न के साथ क्या न पहने? | What not to Wear with Pukhraj Ratna

पुखराज रत्न धारण करने वाले व्यक्ति को इसे धारण करने के बाद या इस रत्न के साथ पन्ना, नीलम व हीरा धारण नहीं करना चाहिए. इसके अतिरिक्त इसके साथ इन रत्नों के उपरत्न धारण करना भी अनुकुल नहीं रहता है.    

अगर आप अपने लिये शुभ-अशुभ रत्नों के बारे में पूरी जानकारी चाहते हैं तो आप astrobix.com की रत्न रिपोर्ट बनवायें. इसमें आपके कैरियर, आर्थिक मामले, परिवार, भाग्य, संतान आदि के लिये शुभ रत्न पहनने कि विधी व अन्य जानकारी के साथ दिये गये हैं आपके लिये शुभ रत्न – astrobix.com

Posted in gemstones, jyotish, vedic astrology | Tagged , , , | Leave a comment

मंगलवार व्रत विधि -विधान । मंगलवार व्रत कैसे करें । Tuesday Fast

मंगलवार का व्रत सम्मान, बल, पुरुषार्थ और साहस में बढोतरी के लिये किया जाता है. इस व्रत को करने से उपवासक को सुख- समृ्द्धि की प्राप्ति होती है. यह व्रत उपवासक को राजकीय पद भी देता है. सम्मान और संतान की प्राप्ति के लिये मंगलवार का व्रत किया जाता है. इस व्रत की कथा का श्रवण करने से भी मंगल कामनाएं पूरी होने की संभावनाएं बन रही है. इस व्रत को करने से सभी पापों की मुक्ति होती है.    

मंगलवार का व्रत किसे करना चाहिए? । Who Should Observe Tuesday Fast 

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मंगलवार का व्रत उन व्यक्तियों को करना चाहिए, जिन व्यक्तियों की कुण्डली में मंगल पाप प्रभाव में हों या वह निर्बल होने के कारण अपने शुभ फल देने में असमर्थ हों, उन व्यक्तियों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए. यह व्रत क्योकिं मंगल ग्रह की शान्ति के लिये किया जाता है. जिस व्यक्ति के स्वभाव में उग्रता हो, या हिंसात्मक प्रवृ्ति हो, उन व्यक्तियोम को अपने गुस्से को शांत करने के लिये , मंगलवार का व्रत करना मन को शांत करता है. लडके इस व्रत को बुद्धि और बल विकास के लिये कर सकते है. मंगलवार का व्रत करने सें व्यवसाय में भी सफलता मिलती है.  

मंगलवार व्रत महत्व | Importance of Tuesday Vrata 

प्रत्येक व्रत का अलग-अलग महत्व और फल हैं,  व्रत करने से व्यक्ति अपने आराध्य देवी- देवताओं को प्रसन्न करने में सफल होता है, और साथ ही उसे सुख-शान्ति की प्राप्ति भी होती है. इस व्रत को करने से धन, पति, असाध्य रोगों से मुक्ति आदि के लिये भी किया जाता है. वास्तव में इस मोह रुपी संसार से मुक्ति प्राप्ति के लिये भी व्रत किये जाते है. 

मंगल अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में जन्म लग्न में स्थित होकर पीडित अवस्था में हों, तो इस व्रत को विशेष रुप से करना चाहीए. जिन व्यक्तियों की कुण्डली में मंगल की महादशा, प्रत्यन्तर दशा आदि गोचर में अनिष्टकारी हो तो, मंगल ग्रह की शात्नि के लिये उसे मंगलवार का व्रत करना चाहिए. मंगलवार का व्रत इसीलिये अति उतम कहा गया है. श्री हनुमान जी की उपासना करने से वाचिक, मानसिक व अन्य सभी पापों से मुक्ति मिलती है. तथा उपवासक को सुख, धन और यश लाभ प्राप्त होता है.  

मंगलवार व्रत विधि | Method of Tuesday Fast 

मंगलवार के व्रत के दिन सात्विक विचार का रहना आवश्यक है.  इस व्रत को भूत-प्रेतादि बाधाओं से मुक्ति के लिये भी किया जाता है.  और व्रत वाले दिन व्रत की कथा अवश्य सुननी चाहिए. इस व्रत वाले दिन कभी भी नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए.

मंगलवार का व्रत भगवान मंगल और पवनपुत्र हनुमानजी को प्रसन्न करने के लिये इस व्रत को किया जाता है. इस व्रत को लगातार 21 मंगलवार तक किया जाता है.  इस व्रत को करने से मंगलग्रह की शान्ति होती है. इस व्रत को करने से पहले व्यक्ति को एक दिन पहले ही इसके लिये मानसिक रुप से स्वयं को तैयार कर लेना चाहिए. और व्रत वाले दिन उसे सूर्योदय से पहले उठना चाहिए. प्रात: काल में नित्यक्रियाओं से निवृ्त होकर उसे स्नान आदि क्रियाएं कर लेनी चाहिए. उसके बाद पूरे घर में गंगा जल या शुद्ध जल छिडकर उसे शुद्ध कर लेना चाहिए. व्रत वाले दिन व्यक्ति को लाल रंग के वस्त्र धारण करने चाहिए.  

घर की ईशान कोण की दिशा में किसी एकांत स्थान पर हनुमानजी की मूर्ति या चित्र स्थापित करना चाहिए.  पूजन स्थान पर चार बत्तियों का दिपक जलाया जाता है. और व्रत का संकल्प लिया जाता है. इसके बाद लाल गंध, पुष्प, अक्षत आदि से विधिवत हनुमानजी की पूजा करनी चाहिए.  

श्री हनुमानजी की पूजा करते समय मंगल देवता के इक्कीस नामों का उच्चारण करना शुभ माना जाता है.

मंगल देवता के नाम इस प्रकार है | Names of Mangal God :  

1. मंगल 2. भूमिपुत्र  3. ऋणहर्ता 4. धनप्रदा  5.  स्थिरासन 6. महाकाय 7. सर्वकामार्थसाधक  8. लोहित 9. लोहिताज्ञ 10.  सामगानंकृपाकर 11.धरात्मज 12.  कुज 13. भौम  14.  भूमिजा 15. भूमिनन्दन  16.  अंगारक  17.  यम  18. सर्वरोगहारक 19.वृष्टिकर्ता 20.  पापहर्ता  21. सब काम फल दात

हनुमान जी का अर्ध्य निम्न मंत्र से किया जाता है :  

भूमिपुत्रो महातेजा: कुमारो रक्तवस्त्रक:।

गृहाणाघर्यं मया दत्तमृणशांतिं प्रयच्छ हे।

इसके पश्चात कथा कर, आरती और प्रसाद का वितरण किया जता है.  सभी को व्रत का प्रसाद बांटकर स्वयं प्रसाद ग्रहण किया जाता है.

मंगलवार के व्रत की आरती | Aarti 

आरती कीजै हनुमान लला की ।  दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ।।

जाके बल से गिरिवर कांपै ।  रोग-दोष जाके निकट न झांपै ।।

अंजनि पुत्र महा बलदाई ।  संतन के प्रभु सदा सहाई ।।

दे बीरा रघुनाथ पठाए ।  लंका जारि सिया सुधि लाये ।।

लंका सो कोट समुद्र सी खाई ।  जात पवनसुत बार न लाई ।।

लंका जारि असुर सब मारे ।  सियाराम जी के काज संवारे ।।

लक्ष्मण मूर्च्छित पड़े सकारे ।  लाय संजीवन प्राण उबारे ।।

पैठि पताल तोरि जमकारे ।  अहिरावण की भुजा उखारे ।।

बाईं भुजा असुर संहारे ।  दाईं भुजा संत जन तारे ।।

सुर नर मुनि आरती उतारें ।  जय जय जय हनुमान उचारें ।।

कंचन थार कपूर लौ छाई ।  आरति करत अंजना माई ।।

जो हनुमान जी की आरती गावे ।  बसि बैकुण्ठ परमपद पावे ।।

लंक विध्वंस किए रघुराई ।  तुलसिदास प्रभु कीरति गाई ।।

मंगलवार व्रत उद्ध्यापन | Conclusion of Tuesday Fast 

मंगलवार के इक्कीस व्रत करने के बाद इच्छा पूर्ति करने के लिये मंगलवार व्रत का उद्धापन किया जाता है. उद्ध्यापन करने के बाद इक्कीस ब्रहामणों को भोजन कराकर यथाशक्ति दान -दक्षिणा दी जाती है. 

Posted in jyotish, rituals, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

भेरी,पुष्कल,विरांची, शुभाचारी,कालसर्प,अखण्ड सम्राज्य योग | How is Bheri Yoga Formed | Pushkal Yoga | Viranchi Yoga | Shubhachari Yoga | Kalsarp Yoga | Akhandh Samrajya Yoga

भेरी योग

भेरी योग में लग्नेश, शुक्र, ग्रुरु एक-दूसरे से केन्द्र में और नवमेश बली हो या शुक्र, बुध के पहले, दुसरे, सातंवे या बारहवें भाव में युति और दशमेश बली. यह योग व्यक्ति को दीर्घायु बनाता है. यह योग स्वास्थय के पक्ष से अनुकुल योग है. सत्ता और राजनीति में सफल होने में यह योग सहयोग करता है. इस योग के व्यक्ति को विभिन्न स्त्रोतों से आय प्राप्त होती है. इस योग से युक्त व्यक्ति धार्मिक आस्था युक्त होता है. तथा वह स्वयं को सदैव प्रसन्न रखने का प्रयास रखता है.  

पुष्कल योग क्या है. | What is the Pushkal Yoga 

जब कुण्डली में बली चन्द्रेश की लग्न पर दृष्टि और लग्न में एक बली ग्रह हो तो पुष्कल योग बनता है.  पुष्कल योग व्यक्ति को धनवान बनाता है. व्यक्ति मीठा बोलने वाला होता है. इस योग के व्यक्ति को प्रसिद्ध और सम्मान दोनों प्राप्त होते है. तथा अपने कार्यो से उसे सरकारी क्षेत्रों से पुरुस्कार भी प्राप्त होता है.  

विरांची योग कैसे बनता है. | How is Formed Viranchi Yoga 

विरांची योग में पंचमेश होकर गुरु या शनि अपने मित्र या उच्च राशि का होकर केन्द्र या त्रिकोण में हो तो विरांची योग बनता है. विरांची योग जिस व्यक्ति की कुण्डली में होता है, वह व्यक्ति धार्मिक आस्था युक्त होता है. उस व्यक्ति में उदारता का भाव पाया जाता है. समाज सेवा के कार्यो को करने पर उसे सम्मान प्राप्त होता है. यह योग व्यक्ति के धन-वैभव में भी वृ्द्धि करता है.  

शुभाचारी योग कैसे बनता है. | How is Shubhachari Yoga Formed  

जब चन्द्रमा को छोडकर कोई अन्य शुभ ग्रह सूर्य से बारहवें भाव में हो, तो शुभाचारी योग बनता है. शुभाचारी योग व्यक्ति को अपने नाम के अनुरुप फल देता है. इस योग से युक्त व्यक्ति को शुभ आचरण करना पसन्द होता है. व्यक्ति के सुन्दर अंग होते है. वह सुवक्ता होता है. उसे ख्याति प्राप्त होती है. तथा ऎसा व्यक्ति धनवान भी होता है. 

कालसर्प योग कैसे बनता है. । How is Formed Kalsarp Yoga 

जब कुण्डली में सभी सातों ग्रह राहू-केतु के अक्ष के मध्य स्थित होते है. तो कालसर्प योग बनता है. इस योग को अशुभ योगों की श्रेणी में रखा गया है. इस योग के होने पर व्यक्ति बैचेन और जीवन के उतार चढावों से घिरा रहता है. उसके जीवन में  परेशानियां अधिक होती है. इस योग के बारे में यह भ्रांति गलत है, कि यह योग व्यक्ति की आयु पर प्रभाव डालता है. राहू-केतु की दशा आने पर या राहू-केतु लग्न, चन्द्रमा व सूर्य पर गोचर करते है, तब उसका प्रभाव अधिक होता है. यह जीवन में आकस्मिक उत्थान और गिरावट को बढाती है. इस प्रकार की घटनाएं विशेष रुप से राहू-केतु की दशा अवधि में होती है. 

कुण्डली में जब लग्न और लग्नेश पर शुभ दृष्टि इस योग को निरस्त कर देती है. यदि राहू विशाखा नक्षत्र में हो तो यह योग निष्क्रय हो जाता है. यह भी पाया गया है, कि काल सर्प योग के लिए ग्रहों को राहू और केतु के मध्य होना  चाहिए. तथा केतु और राहू के मध्य नहीं क्योकि जब लग्न के बाद केतु पहले आता है, तो राहू दूर होता है. तब यह कालामृ्त योग बन जाता है. कुण्डली में यदि केतु की युति किसी अन्य ग्रह से होती है, तो यह मंगलकारी स्थिति बिगड जाती है. 

अखण्ड सम्राज्य योग कैसे बनता है. | How is Formed Akhand Samrajya Yoga 

अखण्ड साम्राज्य योग में दूसरे या पांचवें भाव का स्वामी बली गुरु हों और ग्यारहवें भाव का स्वामी चन्द्रमा से केन्द्र में हो तो अखण्ड सम्राज्य योग बनता है. यह योग व्यक्ति को दीर्घायु वाला बनाता है, उसे जीवन में सभी सुखों का लाभ प्राप्त होता है.  अखन्ड सम्राज्य योग राजनैतिक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है.  

Posted in astrology yogas, jyotish, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

पितामह सिद्धान्त | Pitahma Siddhanta – History of Astrology | Pitahma Siddhanta Description

सिद्धान्त, संहिता और होरा शास्त्र ज्योतिष के तीन स्कन्ध ज्योतिष की तीन भाग है. इसमें भी सिद्वान्त ज्योतिष सर्वोपरि है. सिद्वान्त ज्योतिष को बनाने में पौराणिक काल के उपरोक्त 18 ऋषियों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था. इन सभी ऋषियों के शास्त्रों के नाम इन ऋषियों के नाम पर रखे गए है. इन्हीं में से एक शास्त्र पितामह सिद्धान्त है. इसे बनाने वाले ऋषि पितामह थे.   

पितामह सिद्धान्त ज्योतिष् के पौराणिक काल 8300 ईसा पूर्व से 3000 वर्ष ईसा के पूर्व तक माना जाता है. इस काल में ज्योतिष के क्षेत्र में अनेक ऋषियों ने विशेष कार्य किया. इन महान ऋषियों का नाम निम्न है.

सिद्धान्त ज्योतिष के 18 ऋषियों के नाम- Siddhanta Jyotish : Name of 18 Rishi

 

सूर्य: पितमहो व्यासो वशिष्ठोअत्रि पराशर: ।

कश्यपो नारदो गर्गो मरिचिमनु अंगिरा ।।

लोमश: पोलिशाशचैव च्यवनो यवनों मृगु: ।

शोनेको अष्टादशाश्चैते ज्योति: शास्त्र प्रवर्तका ।।

अर्थात वैदिक ज्योतिष को ऊंचाईयों पर ले जाने वाले ऋषियों में ऋषि सूर्य, ऋषि पितामह, ऋषि व्यास, ऋषि वशिष्ठ, ऋषि अत्रि, ऋषि पराशर, ऋषि कश्यप, ऋषि नारद, ऋषि गर्ग, ऋषि मरीचि, ऋषि मनु, ऋषि अंगीरश, ऋषि लोमश, ऋषि पोलिश, ऋषि चवन, ऋषि यवन, ऋषि भृ्गु, ऋषि शौनक आते हे.

पितामह सिद्वान्त वर्णन | Pitahma Siddhanta Description

पितामह सिद्वान्त को बनाने वाले ऋषि पितामह थे. पितामह सिद्धान्त एक खगोल संबन्धी शास्त्र है. इस शास्त्र में सूर्य की गति व चन्द्र संचार की गणनाओं का उल्लेख किया गया है. यह शास्त्र आज अधूरा ही उपलब्ध है.

Posted in jyotish, saint and sages, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment