जानिये द्रेष्काण कुण्डली और चतुर्थांश कुण्डली के बारे में विस्तार से

ज्योतिष में जन्म कुण्डली के अतिरिक्त बहुत सी वर्ग कुण्डलियां भी होती हैं. ये वर्ग कुण्डलियां जातक के जीवन के किसी न किसी क्षेत्र को बारीकी से जांचने के लिए उपयोग की जाती है. वर्ग कुण्डली से धन, संतान, स्वास्थ्य, जीवन साथी इत्यादि के विषय में अलग-अलग रुप से विचार किया जाता है.

इन वर्ग कुण्डलियों में जो द्रेष्काण कुण्डली है, वह भाई बहनों के सुख एवं रोग इत्यादि को समझने के लिए उपयोग में लाई जाती है. इसके अतिरिक्त दूसरी चतुर्थांश वर्ग कुण्डली घर और धन संपदा के लिए देखी जाती है.

द्रेष्काण कुण्डली

द्रेष्काण कुण्डली जातक के भाई-बहनों का अध्ययन करने के लिए उपयोग में लाई जाती है. इसी के साथ इस द्रेष्काण कुण्डली को रोग इत्यादि के लिए भी देखा जाता है. इस वर्ग कुण्डली में 30 अंश को तीन बराबर भागों में बाँटा जाता है.

0 से 10 अंश.

10 से 20 अंश

20 से 30 अंश

पहला द्रेष्काण

जन्म कुण्डली में 0 से 10 अंश के बीच में कोई ग्रह है तो वह द्रेष्काण कुण्डली में उसी राशि में लिखा जाएगा जिस राशि में वह जन्म कुण्डली में है. माना जन्म कुण्डली में कोई ग्रह वृष राशि में 0 से 10 अंश पर स्थित है तो द्रेष्काण कुण्डली में भी वह ग्रह वृषभ कुण्डली में जाएगा.

पहला द्रेष्काण नारद कहलाता है, इस के प्रभाव स्वरुप जातक में भी ऋषि नारद जैसे गुणों का प्रभाव देखने को मिलता है. लग्न या लग्न के स्वामी अगर पहले द्रेष्काण में हो तो जातक में सभी प्रकार की बातों एवं ज्ञान को बटोरने की इच्छा होती है. वह सूचना का संग्रह करना जानता है. अपने ज्ञान को दूसरों के साथ बांटने की भी बेहतर योग्यता होती है. जातक में दूसरों का कल्याण करने की भावना भी होती है. जातक के मन में अधिक समय तक बात रह भी नहीं पाती हैं. वह बातों का धनी होता है कई बार चुगलखोर भी हो सकता है. इस द्रेष्काण में जन्मा जातक सहनशील और धैर्यवान होता है. कार्य करने में निपुण और प्रतिभाशाली होता है.

दूसरा द्रेष्काण

जन्म कुण्डली में10 से 20 अंश के मध्य कोई ग्रह स्थित है तो वह अपनी राशि से पाँचवीं राशि में जाएगा. माना सूर्य जन्म कुण्डली में 17 अंश का धनु राशि में स्थित है. धनु राशि से पांचवीं राशि देखी जाएगी कौन सी है. धनु राशि से पाँचवीं राशि मेष राशि है. द्रेष्काण कुण्डली में सूर्य मेष राशि में लिखा जाएगा. द्रेष्काण कुण्डली का लग्न भी इसी तरह से निर्धारित किया जाएगा.

दूसरा द्रेष्काण अगस्त कहलाता है. इस द्रेष्काण में जन्मा जातक ज्ञानी और प्रतिभावान होता है. अगस्त द्रेष्काण के लग्न या लग्नेश में जन्मा जातक प्रतिभावान और मेधावी होता है. उसमें कार्यों को कर सकने की कुशलता भी होती है. अपने कामों को पूरा कर लेने की योजनाओं को पूरा करने की अच्छी योग्यता भी होती है. जातक अपने लक्ष्यों के प्रति एकाग्रचित भी होता है. अपने निर्णय को पूरा करने की लगन और जनून भी जातक में होता है.

तीसरा द्रेष्काण

जन्म कुण्डली में 20 से 30 अंश के मध्य कोई ग्रह स्थित है तो द्रेष्काण कुण्डली में वह ग्रह अपनी राशि से नवम राशि में जाएगा. माना शनि जन्म कुण्डली में मीन राशि में स्थित है. मीन राशि से नवम राशि वृश्चिक राशि होती है तो शनि द्रेष्काण कुण्डली में वृश्चिक राशि में लिखे जाएंगे.

जन्म कुण्डली का तीसरा द्रेष्काण दुर्वासा कहलाता है. किसी भी जातक के लग्न या लग्नेश के तीसरे द्रेष्काण में होने पर व्यक्ति में क्रोध की अधिकता होती है. वह अपने मनोकूल काम करना अधिक पसंद करता है. काम में अपनी निष्ठ का पालन करता है और चाहता है की बिना किसी गलती के अपने काम को पूर्ण रुप से उचित प्रकार से कर सके. भावनाओं में बहने वाला कुछ लापरवाह और कठिन परिस्थितियों में जीवन जीने वाला भी हो सकता है.

चतुर्थांश कुण्डली या D-4 | Chaturthansha Kundali or D-4

इस कुण्डली से जातक की चल-अचल सम्पत्ति तथा भाग्य का अनुमान लगाया जाता है. इस वर्ग को चतुर्थांश या पदमांश भी कहते हैं. इस वर्ग कुण्डली को बनाने के लिए 30 अंश के 4 बराबर भाग किए जाते हैं. एक भाग 7 अंश 30 मिनट का होता है.

जन्म कुण्डली में ग्रह यदि पहले चतुर्थांश में स्थित है तो वह उसी राशि में चतुर्थांश कुण्डली में जाएगा.

ग्रह दूसरे चतुर्थांश में स्थित है तो वह जिस राशि में स्थित है, उससे चौथी राशि में जाएगा.

ग्रह यदि तीसरे चतुर्थांश में स्थित है तो वह जिस राशि में है उससे सातवीं राशि में जाएगा.

ग्रह यदि चौथे चतुर्थांश में स्थित है तो वह जिस राशि में स्थित है उससे दसवीं राशि में जाएगा.

माना जन्म कुण्डली में कोई ग्रह या लग्न वृष राशि में पहले चतुर्थांश में स्थित है तो वह चतुर्थांश कुण्डली में वृष राशि में ही जाएगा. यदि वृष राशि में कोई ग्रह या लग्न दूसरे चतुर्थांश में स्थित है तो वह चतुर्थांश कुण्डली में सिंह राशि में जाएगा. यदि कोई ग्रह या लग्न जन्म कुण्डली में तीसरे चतुर्थांश में स्थित है तो बुध या लग्न चतुर्थांश कुण्डली में वृश्चिक राशि में जाएगा. यदि कोई ग्रह या लग्न जन्म कुण्डली में चौथे चतुर्थांश में वृष राशि स्थित है तो वह चतुर्थांश कुण्डली में कुम्भ राशि में जाएगा.

आइए आपको चतुर्थांश कुण्डली का वर्गीकरण करना बताएँ :-

पहला चतुर्थांश

0 से 7 अंश 30 मिनट तक पहला चतुर्थांश होता है इस चतुर्थांश को सनक कहा जाता है. इस चतुर्थांश में जन्मा जातक सभी को आदर देने वाला और उदारता से भरपूर होता है. व्यक्ति अपने कार्यों से दूसरों के मध्य लोकप्रियता पाता है. लोगों के सहयोग से जीवन में सफलता भी पाता है.

दूसरा चतुर्थांश

7 अंश 30 मिनट से 15 अंश तक दूसरा चतुर्थांश होगा. इस चतुर्थांश को सनन्दन कहा जाता है. इस चतुर्थांश का प्रभाव व्यक्ति को आनंदित बनाता है. जातक दूसरों का दुख दूर करने वाला होता है. जातक अपनी मुस्कान को दूसरों के चेहर पर भी लाने की कोशिश रहती है.

तीसरा चतुर्थांश

15 अंश से 22 अंश 30 मिनट तक तीसरा चतुर्थांश होगा. यह चतुर्थांश सनत कुमार बच्चे के जैसा और निष्कपट व्यवहार वाला होता है. दूसरों को सहज रुप से आकर्षित करता है. जातक लक्ष्यों को पाने में बहुत तेज होता है और यही उसका गुण होता है.

चौथा चतुर्थांश

22 अंश 30 मिनट से 30 अंश तक चौथा चतुर्थांश होगा. इस चतुर्थांश को सनातन के नाम से जाना जाता है. य्दि जातक का लग्न अथवा लग्नेश अगर इस अंतिम चतुर्थांश में हो तो व्यक्ति दृढ़ निश्चयी होता है. ऎसे कामों को करने वाला जिनमें स्थिरता होनी आवश्यक होती है.

Posted in jyotish, planets, Varga Kundali, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

तुला राशि क्या है. । Libra Sign Meaning | Libra – An Introduction | Which is the lucky stone for the Libra people

तुला राशि के व्यक्ति आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी होते है. जीवन की कठिन परिस्थितियों को भी सहजता से लेते है. उनमें सिद्धान्तों पर रहकर कार्य करने का गुण देखा जा सकता है. इस राशि का व्यक्ति स्वभाव से सुलझा हुआ होता है. तथा उसमें कूटनितिज्ञता देखी जा सकती है. तुला राशि के व्यक्तियों की यह विशेषता है, कि इस राशि के व्यकि निर्णय लेने से विषय पर खूब सोच-विचार कर लेना उचित समझते है. आईये तुला राशि का विस्तृ्त परिचय लेते है.  

तुला राशि के स्वामी कौन है. | Who is the Lord of the Libra sign

तुला राशि के स्वामी शुक्र ग्रह है. 

तुला राशि का चिन्ह कौन सा है. | What is the Symbol of the Libra Sign .

तुला राशि का चिन्ह तराजू है.

तुला राशि के लिए कौन से ग्रह शुभ फल देते है. | Which planets are considered auspicious for the Libra sign

तुला राशि के लिए शुक्र, मंगल, बुध, शनि शुभ फल देने वाले ग्रह है.  

तुला राशि के लिए कौन से ग्रह अशुभ फल देते है.  | Which Planets are inauspicious for the Libra sign 

तुला राशि के लिए सूर्य, चन्द्रमा, गुरु अशुभ फल देते है.  

तुला राशि के लिए कौन सा ग्रह सम फल देता है.| Which are Neutral planets for the Libra sign

इस राशि के लिए कोई ग्रह ऎसा नहीं है, जो सम फल देता है. 

तुला राशि के लिए मारक ग्रह कौन सा है.| Which  are the Marak planets for the Libra sign

तुला राशि के लिए गुरु, शुक्र व मंगल मारक ग्रह है. 

तुला राशि के लिए बाधक स्थान कौन सा है. | Which is the Badhak Bhava for the Libra sign

तुला राशि के लिए एकादश भाव बाधक स्थान होता है. 

तुला राशि के लिए बाधक भाव का स्वामी कौन सा ग्रह होता है. | Which planet is Badhkesh for the Libra sign

तुला राशि के लिए बाधक भाव का स्वामी सूर्य है. 

तुला राशि के लिए कौन सा ग्रह योगकारक ग्रह है.| Which planet is YogaKaraka for the Libra sign 

तुला रासि के लिए शनि योगकारक ग्रह है. 

तुला राशि में कौन सा ग्रह उच्च का होता है. | Which Planet of the Libra sign, is placed in exalted position

तुला राशि में शनि 20 अंश पर होने पर उच्च का होता है. 

तुला राशि में कौन सा ग्रह नीच राशि प्राप्त करता है. | Which planet is debilitated in Libra  sign

तुला राशि में सूर्य 10 अंश पर नीच राशि का होता है. 

तुला राशि किस ग्रह की मूलत्रिकोण राशि है. | This sign is which Planet’s Multrikon.

तुला राशि शुक्र ग्रह की मूलत्रिकोण राशि है, इस राशि में शुक्र 0 अंश से 15 अंश के मध्य होने पर अपनी मूलत्रिकोण राशि में होते है. 

तुला राशि में चन्द्र किस अंश पर शुभ फल देने वाला होता है. | Moon is considered to be auspicious at which degree for Libra. 

तुला राशि में चन्द्र 24 अंश का होने पर शुभ फल देता है. 

तुला राशि में चन्द्र कौन से अंशो पर अशुभ फल देने वाला ग्रह होता है. | Moon is considered to be inauspicious at which degree for Libra. 

तुला राशि में चन्द्र 4अंश और 26 अंशों पर अशुभ अंशो पर होता है.  

तुला राशि के व्यक्तियों के लिए किस इत्र का प्रयोग करना शुभ रहता है. | Which fragrance is auspicious for the Libra sign

तुला राशि के व्यक्तियों को गलबनम इत्र का प्रयोग करना शुभ रहता है. 

तुला राशि के लिए शुभ अंक कौन से है.|  Which are the Lucky numbers for the Libra sign

राशि के लिए 1, 2, 4, 7 अंक शुभ होते है. 

तुला राशि के लिए कौन सा वार शुभ है. | Which are the lucky days for the Libra people

तुला राशि के लिए रविवार, सोमवार, शनिवार, मंगलवार, बुधवार शुभ है. 

तुला राशि के लिए कौन सा रत्न शुभ है. | Which is the lucky stone for the Libra people

तुला राशि के लिए हीरा, नीलम शुभ है. 

तुला राशि के व्यक्तियों को किस दिन का उपवास करना चाहिए. | On which day should the Libra people fast

तुला राशि के लिए मंगलवार के व्रत करना शुभ रहता है.  

Posted in gemstones, jyotish, vedic astrology | Tagged , , , | Leave a comment

कार्यसिद्धि के नियम | Rules for Success of Prashna

प्रश्न की पहचान के लिए कई नियम आपको पिछले अध्याय में बताए गए हैं. इस अध्याय में भी कुछ और नियमों की चर्चा की जाएगी. सबसे पहले हम षटपंचाशिका के नियमों की चर्चा करेंगें. यह नियम हैं :-

(1) जिस ग्रह का नवाँश लग्न में है वह ग्रह अपने नवाँश में बैठकर लग्न, पंचम अथवा नवम भाव को देखे तो धातु चिन्ता होगी. 

(2) जिस ग्रह का लग्न में नवाँश है, वह ग्रह किसी और ग्रह के नवाँश में बैठकर लग्न, पंचम अथवा नवम भाव को देखे तो जीव चिन्ता होगी. 

(3) जिस ग्रह का नवाँश लग्न में नहीं है वह ग्रह अपने नवाँश में ना हो और लग्न, पंचम अथवा नवम भावों से संबंध बना रहा हो तो मूल चिन्ता होगी. 

उपरोक्त नियम षटपंचाशिका के आधार पर हैं. वर्तमान समय के अनुसार भी कुछ नियम प्रश्न की पहचान के लिए निर्धारित किए गए हैं. वह नियम हैं :- 

(1) चन्द्रमा का नक्षत्रेश अर्थात प्रश्न कुण्डली के चन्द्रमा का नक्षत्र स्वामी जिस भाव में स्थित है, उस भाव या उस ग्रह से संबंधित प्रश्न होगा. (ग्रह के कारकत्व के अनुसार प्रश्न होगा) प्रश्न कुण्डली के लग्नेश के नक्षत्र के अनुसार भी प्रश्न का विश्लेषण कर सकते हैं. 

(2) जो ग्रह लग्न को निकटतम पराशरी दृष्टि से देखता हो उस ग्रह के कारकत्व से संबंधित प्रश्न होगा. 

(3) प्रश्न कुण्डली में जिस ग्रह का लग्नेश के साथ निकटतम इत्थशाल हो उस ग्रह से संबंधित प्रश्न अथवा चिन्ता हो सकती है. चन्द्रमा का निकटतम इत्थशाल भी देख लेना चाहिए. 

(4) प्रश्न कुण्डली के लग्न में जिन ग्रहों के अंश लग्न अथवा चन्द्रमा के अत्यधिक नजदीक हो उनसे संबंधित प्रश्न भी हो सकता है. 

जैसे प्रश्न कुण्डली में यदि लग्नेश का इत्थशाल सप्तम भाव अथवा पंचम भाव से हो रहा है तो प्रश्नकर्त्ता का प्रश्न जीवनसाथी अथवा संतान से संबंधित हो सकता है. इसके अतिरिक्त सप्तम तथा पंचम भाव के कारकत्वों के अनुसार और अन्य बातों का विचार भी किया जा सकता है. 

कार्यसिद्धि के आरम्भिक नियम | Initial Rules for Success of Prashna

प्रश्न कुण्डली में किसी भी प्रश्न का जवाब प्रश्नकर्त्ता को तुरन्त मिल जाता है. जिस भी क्षेत्र से प्रश्न का संबंध हो उस क्षेत्र से संबंधित कार्य बनेगा अथवा नहीं बनेगा उसके लिए कुछ नियम मोटे तौर पर बनाए गए हैं जिन्हें समझना आपके लिए आरम्भिक स्तर पर आवश्यक है. आने वाले पाठों में आपको प्रश्न कुण्डली के सिद्ध होने के नियमों को विस्तार से समझाया जाएगा. 

(1) यदि प्रश्न कुण्डली का शीर्षोदय लग्न(3, 5, 6, 7, 8 अथवा 11) हो और यह शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तब कार्यसिद्धि अवश्य होगी. 

(2) प्रश्न कुण्डली का पृष्ठोदय लग्न (1, 2, 4, 9 अथवा 10 ) हो और यह लग्न पाप दृष्ट हो तब कार्य सिद्धि नहीं होगी. 

(3) प्रश्न कुण्डली में यदि चन्द्रमा शुभ भाव में है, शुभ दृष्ट है तब कार्यसिद्धि होगी. 

(4) प्रश्न कुण्डली में यदि लग्न शुभ दृष्ट है और लग्न शुभ ग्रहों के प्रभाव में है तब कार्यसिद्धि होगी. 

(5) प्रश्न कुण्डली की नवाँश कुण्डली भी शुभ ग्रहों के प्रभाव में तथा शुभ दृष्ट हो तब कार्यसिद्धि होगी. 

(6) प्रश्न कुण्डली में कार्य भाव का स्वामी अर्थात कार्येश लग्न में स्थित है और शुभ दृष्ट है तब कार्य की सिद्धि होगी. 

(7) कुण्डली में लग्नेश, प्रश्न संबंधित भाव को देखे और प्रश्न संबंधित भावेश लग्न को देखे तब कार्य की सिद्धि होगी. 

(8) प्रश्न कुण्डली में लग्नेश तथा भावेश की युति हो अथवा दोनों की परस्पर दृष्टि हो तो कार्य सिद्धि होगी. 

(9) प्रश्न कुण्डली में केन्द्र तथा त्रिकोण भावों में शुभ ग्रह हों और 3,6,11 भावों में अशुभ ग्रह हों तब कार्य की सिद्धि होगी. 

(10) लग्नेश तथा भावेश में ताजिक योग का कोई शुभ योग बन जाए तो कार्यसिद्धि होगी. 

उपरोक्त नियम में से यदि कोई नियम लगता है तो उसके साथ ताजिक के योगों को भी अवश्य देखें कि वह कार्यसिद्धि के लिए अनुकूल हैं अथवा नहीं. यदि नियमानुसार कार्यसिद्धि हो रही है लेकिन ताजिक के खराब योग भी बन रहें हैं तब कार्यसिद्धि नहीं होगी. 

अपनी प्रश्न कुण्डली स्वयं जाँचने के लिए आप हमारी साईट पर क्लिक करें : प्रश्न कुण्डली

Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

3rd भाव-धन भाव क्या है.| Prakrama Bhava Meaning | Third House in Horoscope | 3rd House in Indian Astrology

तृ्तीय भाव पराक्रम भाव भी कहलाता है. इस भाव के अन्य कुछ नाम अपिक्लिम भाव, उपचय भाव, त्रिषडय भाव है. तृ्तीय भाव से व्यक्ति की ताकत, साहस, दीर्घायु, छोटे भाई, दृ्ढता, छोटी यात्राएं, लेखन, सम्बन्ध, दिमागी उलझने, आनन्द, बाजू, नौकर, अच्छे गुण, बडे कार्य, पडोसी, दलाली, कमीशन, क्षमता, स्मरणशक्ति, साक्षात्कार, मानसिक रुझान, भौतिक प्रगति,  छोटा दिमाग, पढाई में रुचि, पत्र लेखन करता है. व 

परिवर्तन, समझौता , बस, ट्राम, रेलवे पेपर, मुनीम, तोल-मोल, साईकल, गणित, सम्पादक, खबर देने वाला, संदेशवाहक, पत्रकार, पुत्रकालय, सम्पति का बंटवारा, छपाईखाना, सम्पर्क, डाकघर, पत्र पेटी, दूरभाष, टेलीग्राफ, दूरदर्शन, टेलीविजन, हवाईपत्र, वास्तुकार, ज्योतिष, लेखक पद, पत्रकारिता, पत्राचार, प्रकाशन आदि विषयों का विश्लेषण किया जाता है. 

तीसरे भाव कौन सी वस्तुओं का कारक भाव है. | What are the characteristics of Third House.  

तीसरे भाव की कारक वस्तुओं में मंगल इस भाव से भाई, साहस, हिंसा और दीर्घायु देता है. शनि दुर्दशा और लम्बी आयु देता है. शुक्र परिवार, बुध संपर्क व संचार, पडोसी, रेलवे परिवहन, पडोसी देशों का कारक भाव है. 

स्थूल रुप में तीसरे भाव से क्या देखा जाता है. |  What does the house of Third House explains physically. 

स्थूल रुप में तीसरे भाव से भाईयों का विश्लेषण किया जाता है. 

सूक्ष्म रुप में तीसरे भाव का प्रकट करता है. | What does the House of Third House accurately explains

सूक्ष्म रुप में तीसरे भाव से व्यक्ति का साहस भाव देखा जाता है.  

तीसरे भाव से कौन से सगे-सम्बन्धी देखे जा सकते है. | Third House represents which  relationships. 

तीसरे भाव से छोटे भाई-बहन, नाना के भाई, पडोसी, माता का बडा भाई, मां का चाचा, पिता के ममेरे भाई आदि रिश्तेदार देखे जाते है. 

तीसरा भाव शरीर के कौन से अंगों का प्रतिनिधित्व करता है. | Third House is the Karak House of which body parts. 

तीसरा भाव गलाल, गरदन, भुजाएं, छाती का ऊपरी भाग, कान, स्नायु प्रणाली, थाइमस ग्रन्थी, वासनली, खाद्यानली का प्रतिनिधित्व करता है. द्रेष्कोण के अनुसार यह भाव दायें कान, दायें बाजू, जननांग का दायें भाव की व्याख्या करता है. 

तृ्तीयेश का अन्य भाव के स्वामियों के साथ परिवर्तन होने पर कौन से योग बनते है. |  3rd Lord Privartan Yoga results 

तृ्तीयेश और चतुर्थेश का परिवर्तन योग खलयोग बनाता है. यह योग व्यक्ति उत्तम श्रेणी का नेता बनाती है. इस योग के व्यक्ति को सेना या पुलिस में नौकरी मिलती है. निवास स्थान में परिवर्तन हो सकता है. माता के साथ रहने का सुख कम ही प्राप्त हो पाता है. व व्यक्ति की शिक्षा भी बाधित होती है. 

तृ्तीयेश और पंचमेश से बनने वाला परिवर्तन योग भी एक अन्य प्रकार का खल योग है, यह खल योग व्यक्ति को बुद्धिमता कि कमी देता है. इस योग के व्यक्ति की संतान स्वतन्त्र  प्रकृ्ति की होती है. व्यक्ति की संतान को अत्यधिक धन की प्राप्ति होती है. वह अपनी मेहनत से धन अर्जित करने में सफल होती है. और अपने माता-पिता की देखभाल कम करती है. साथ ही व्यक्ति की संतान को साहसिक विषयों में रुचि होती है. 

तृतीयेश और षष्टेश का परिवर्तन होने पर यह योग मामाओं के कल्याण के लिए अनुकुल नहीं रहता है. व्यक्ति की आय धीरे-धीरे बढती है. नौकरी में अच्छी स्थिति, भाई एक खिलाडी हो सकता है. 

तृ्तीयेश और सप्तमेश का भाव परिवर्तन होने पर एक प्रकार का खलयोग बनता है. यह खलयोग व्यक्ति को बुरे स्वभाव वाला जीवन साथी दिला सकता है. इस योग के व्यक्ति का जीवन साथी साहसी होता है. और ऎसे व्यक्ति को अपने जीवन साथी को खोना पड सकता है. 

तृ्तीयेश और अष्टमेश के परिवर्तन से बनने वाला योग व्यक्ति की दीर्घायु होती है. व ऎसे व्यक्ति को कानों की परेशानियां लगी रहती है. यह योग व्यक्ति के साह्स में कमी करता है. 

तृ्तीयेश और नवमेश का परिवर्तन होने पर भी एक प्रकार का खल योग बनता है. इस योग में दोनों भावों कें स्वामी अपने भाव को देखते होने चाहिए. ऎसे में कुण्डली का तीसरा व नवम दोनों ही भाव बली हो जाते है. और दोनों ही भावों के फल व्यक्ति को पूर्ण रुप से प्राप्त होते है.  

तृ्तीयेश और दशमेश में परिवर्तन योग बनने वाला यह खलयोग, व्यक्ति को आजीविका के क्षेत्र में उन्नति देता है. उसे आजीविका में भाईयों का सहयोग प्राप्त होता है. साथ ही इस योग का व्यक्ति साहसपूर्ण निर्णय लेने में कुशल होता है. और जोखिम लेना उसके स्वभाव का विशेष अंग होता है. 

तृ्तीयेश और एकादशेश का परिवर्तन योग बन रहा हो, तो व्यक्ति को भाई-बहनों के द्वारा धन -सम्पति प्राप्त होती है. उसके संबन्ध अपने बडे भाईयों से मधुर रहते है. यह भी एक प्रकार का खलयोग है.  

तृ्तीयेश और द्वादशेश परिवर्तन योग में शामिल हो तब, व्यक्ति को अत्यधिक विदेशी यात्राएं करने के अवसर प्राप्त होते है. वह व्यक्ति अपने भाई-बहनों पर अत्यधिक व्यय करता है.  

Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , , | Leave a comment

जानिए पूर्वमध्यकाल में फलित ज्योतिष का इतिहास और विकास

पूर्वमध्यकाल अर्थात ई. 501 से 1000 तक का काल ज्योतिष के क्षेत्र में उन्नति और विकास का काल था. इस काल के ज्योतिषियों ने रेखागणित, अंकगणित और फलित ज्योतिष पर अध्ययन कर, अनेक शास्त्रों की रचना की. इस काल में फलित ज्योतिष पर लिखे गये साहित्य में राशि, होरा, द्रेष्कोण, नवांश, त्रिशांश, कालबल, चेष्ठाबल, दशा- अन्तर्दशा, अष्टकवर्ग, राजयोग, ग्रहों की चाल, उनका स्वभाव, अस्त, नक्षत्र, अंगविज्ञान, स्वप्नविज्ञान, शकुन व प्रश्न विज्ञान प्रमुख विषय थे.

ज्योतिष में फलित ज्योतिष का स्वरुप ही आदिकाल के बाद पूर्व मध्यकाल में दिखाई देता है. फलित जिसमें व्यक्ति के जीवन में उसके कर्मों और उसके भाग्य की बात की जाने लगी थी. इस समय पर ज्योतिष शास्त्र में अनेक आचार्यों ने अपनी ओर से बहुत से प्रयास किए थे. इस समय पर नए नियम भी आए और जो भी तर्क सामने रखे गए वह सत्य पर आधारित दिखई दिए.

ज्योतिष का इतिहास जितना पुराना है उतनी ही इसकी विश्वसनियता में भी मजबूती है. वेद के आगमन के साथ ही ज्योतिष का संबंध रहा है. ज्योतिश शास्त्र एक अत्यंत प्राचीन विद्या है जो मनुष्य के भूत भविष्य एवं वर्तमान की पहेलियों को सुलझाने में बहुत सहायक है. ज्योतिष का निर्माण करने वाले ऋषि-मुनि त्रिकालदृष्टा रहे हैं. ऎसे में उन्होंने जो भी काल गणना का उपयोग किया उसके द्वारा उन्होंने जीवन के रहस्यों को भी समझा.

ज्योतिषां सूर्यादिग्रहणां बोधक शास्त्र इसका अर्थ हुआ की सूर्य आदि ग्रहों और काल का बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है. ज्योतिष शास्त्र से लोगों को सूर्योदय, ग्रहण, ग्रहों की स्थिति ऋतुओं की जानकारी मौसम की जानकारी इत्यादि बातों का ज्ञान कराया गया. पंचांग का निर्माण इत्यदै बातों पर जोर दिया गया.

ज्योतिष के अंतर्गत ही गणित का भी उल्लेख मिलता है. ज्योतिष के तीन भेद बताए गए हैं जिनमें होरा सिद्धांत और संहिता मुख्य हैं.

होरा –

इसके अंतर्गत व्यक्ति के सुख-दुख, अच्छे-बुरे, भाग्योदय इत्यादि के बारे में पता चलता है. इसे जातक शास्त्र भी कहते हैं. जन्म के समय ग्रहों की स्थिति के अनुसार जातक को मिलने वाले फलों का निर्धारण किया जाता है. इसमें जन्म कुण्डली के 12 भावों के फलों का निर्धारण होता है. मानव जीवन में भाग्य की स्थिति को इसके द्वारा समझा जा सकता है.

सिद्धांत –

इसमें कल की गणना, सौर चंद्र मासों की गणना मुख्य है यह एक प्रकार से गणित का ही विषय होता है, इसे गणित सिद्धांत भी कहा जाता है. प्राचीन काल में इसकी परिभाषा केवल सिद्धांत गणित के रुप में मानी जाती थी.

संहिता –

इसके अंतर्गत भू शोधन, दिशाओं का शोधन, गृह प्रवेश, मूहुर्त विचार, मांगलिक कार्यों का कब होना, शगुन विचार इत्यादि बातें होती हैं. संहिता शास्त्र का का आगमन आदिकाल में हो गया था, इस समय इसका तेजी से विकास होता है.

501-1000 पूर्वमध्यकालिन रेखागणित

ज्योतिष के आरंभ का काल कब से माना जाए इस पर कोई एक निश्चित तथ्य सामने नही आ सकता है. ज्योतिष शास्त्र मनुष्य और सृ्ष्टि के रहस्य को समझने में हमारी मदद करता है. आदिकाल जिसे ज्योतिष का उदय काल जहा गया. इस समय में वेद, आरण्य काल और ब्राह्मण ग्रंथों में ज्योतिष के विषय में पता चलता है. इसी समय पर छ: वेदांग प्रकट होते हैं – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्ति, ज्योतिष और छंद.

इस काल में ज्योतिष साहित्य ग्रहों, नक्षत्रों की विद्या से आगे बढ़ता है और इसके अंतर्गत धार्मिक, समाजिक राजनैतिक विषय भी समाहित होते जाते हैं. इसी समय पर वेदांग ज्योतिष का आरंभ हुआ जिसके दो भाग थे ऋगवेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष.

गुणज निकालना, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घनमूल, घन, भिन्न समच्छेद, त्रैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, क्षेत्रव्यवहार. रेखागणित के अनेक सिद्धान्तों का प्रयोग इस काल में हुआ था. इस काल के ज्योतिषाचार्यों ने यूनान और ग्रीस के सम्पर्क से अन्य अनेक सिद्धान्त बनायें. इन नियमों में निम्न प्रमुख थे.

समकोण त्रिभुज में कर्ण का वर्ग दोनों भुजाओं के जोड के बराबर होता है.

दिये गये दो वर्गो का योग अथवा अन्तर के समान वर्ग बनते है.

आयत को वर्ग बनाना या फिर वर्ग को आयत बनाना.

शंकु का घनफल निकालना.

वृत परिधि नियम.

ये नियम एक प्रकार के स्टीक निर्णय पर पहुंचने के लिए बहुत ही उपयोगी भी सिद्ध होते हैं.

पूर्वमध्यकाल में ज्योतिष

इसके अतिरिक्त इस काल के ज्योतिषी आयुर्दायु, संहिता ज्योतिष में ग्रहों का स्वभाव, ग्रहों का उदय ओर अस्त होना, ग्रहो का मार्ग, सप्तर्षियों की चाल, नक्षत्र चाल, वायु, उल्का, भूकम्प, सभी प्रकार के शुभाशुभ योगों का विवेचन इस काल में हो चुका था. इस युग का फलित केवल पंचाग तक ही सीमित था.

इस काल में ब्रह्मागुप्त ने ब्रह्मास्फुट सिद्धान्त की रचना की. पूर्वमध्यकाल में भारतीय ज्योतिष में अक्षांश, देशान्तर, संस्कार, और सिद्धान्त व संहिता ज्योतिष के अंगों का विश्लेषण किया है.

इसी काल के 505 वर्ष में ज्योतिष के जाने माने शास्त्री वराहमिहिर का जन्म हुआ. वराहमिहिर का योगदान ज्योतिष के क्षेत्र में सराहनीय रहा है. इस काल में बृ्हज्जातक, लघुजातक, विवाह-पटल, योगयात्रा और समास-संहिता की रचना की. पूर्वमध्य काल के अन्य ज्योतिषियों में कल्याणवर्मा, ब्रह्मागुप्त, मुंजाल, महावीराचार्य, भट्टोत्पल व चन्द्रसेन प्रमुख थे.

पूर्व मध्यकाल में ज्योतिष शास्त्र उन्नती में था इस समय के दौरान वारहमिहिर जैसे ज्योतिष के जानकारों ने इसे बहुत आगे तक बढ़ाया. इस सम्य पर ज्योतिष के तीन अंग सिद्धांत, होरा और संहिता पर बहुत अधिक काम किया गया. साथ ही कई नए विषयों का आगमन भी होता है. फलित ज्योतिष में बहुत से प्रयोग हुए और साथ ही ज्योतिष का विस्तार बहुत बड़े स्तर पर हुआ. इस समय पर ग्रहों और गणित के क्षेत्र में सिद्धांत, तंत्र और करण इन तीन बातों का भी प्रचार हुआ. इस समय पर ग्रह गणित अपने चरम पर था. नव ग्रहों की स्थिति से जातक के जीवन के रहस्यों को समझा गया और साथ ही विश्व के कल्याण एवं धर्म की वैज्ञानिकता भी इस समय मजबूती के साथ सभी के सामने आती हैं.

इसी दौरान ही भारत का संपर्क जब अन्य लोगों के साथ हुआ तो बहुत सी नई जानकारियां इकट्ठी हुई और उनके द्वारा ज्योतिष और विज्ञान का संबंध भी मजभूत होता गया है.

Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , , | Leave a comment

उत्तराषाढा नक्षत्र विशेषताएं | Characteristics of Uttara Ashadha Nakshatra | Uttarashadha Nakshtra Career

उत्तराषाढा नक्षत्र 21 वां नक्षत्र है, तथा इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्तियों में कृ्तज्ञता की भावना विशेष रुप से पाई जाती है. इस नक्षत्र के व्यक्ति धार्मिक आस्था के होते है. इन्हें धर्म क्रियाओं में विशेष आस्था होती है. संतान पक्ष की ओर से इस नक्षत्र के व्यक्ति को सुख और सहयोग दोनों प्राप्त होते है.

उत्तराषाढा जन्म नक्षत्र व्यक्तित्व | Uttara Ashadha Nakshatra Characterstic

उत्तराषाढा जन्म नक्षत्र के व्यक्ति का जीवन साथी सुन्दर और सुयोग्य होता है. और इस नक्षत्र समय में जन्म लेने वाला व्यक्ति स्वयं भी आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी होता है. ऎसा व्यक्ति अपनी वेशभूषा को अत्यधिक महत्व देता है. बोलने में ये लोग मधुरता का प्रयोग करते है. तथा इनके घर से दूर विदेश या प्रवास स्थान में रहने की संभावनाएं अधिक बनती है. 

इसके साथ ही इन्हें घूमने और पर्यटन का शौक भी होता है. घूमने फिरने के लिए ये प्राकृतिक स्थानों में जाना पसन्द करते है. वन और पहाडी क्षेत्रों में घूमना इन्हें विशेष रुप से पसन्द होता है. अपने घूमने के शौक के कारण ये धार्मिक स्थलों की यात्राएं भी करते है.

उत्तरा आषाढा नक्षत्र कैरियर | Uttara Ashadha Nakshtra Career

इस नक्षत्र के व्यक्तियों को शिल्पकला अर्थात उद्योग आदि से संबन्धित कलाओं में कार्य करना रुचिकर लग सकता है. इसी वजह से ये लोग वास्तुकार, मिस्त्री, नक्शा बनाने वाले. इंजिनियर अथवा भवन निर्माता बन सकते है. उत्तराषाढा नक्षत्र में जन्में व्यक्ति का वैवाहिक जीवन सुखमय रहता है. इनके अनेक मित्र होते है. तथा मित्रों का सहयोग भी इन्हें प्राप्त होता है. धर्म से जुडे अन्य व्यक्तियों की सेवा करना भी इन्हें पसन्द होता है. इसके अलावा ये दान-पुन्य के कार्यो में भी रुचि लेते है.

उत्तरा आषाढा नक्षत्र पहचान | Uttara Ashadha Nakshatra Recognition

आकाश में उत्तरा आषाढा नक्षत्र उतर-दक्षिण दिशा में अप्रैल माह में दिखाई देता है. इस नक्षत्र मंच के समान आकार का होता है.

नक्षत्रों में उत्तराषाढा नक्षत्र का स्थान | Uttara Ashadha Nakshatra Position among other Nakshatras

उत्तराषाढा नक्षत्र का स्वामी सूर्य ग्रह है. यह नक्षत्र गुरु की धनु राशि के अन्तर्गत आता है. इसलिए इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति सूर्य ग्रह और गुरु दोनों ग्रहों के विशेषताओं से प्रभावित रहते है. उत्तराषाढा नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति की कुण्डली में अगर मंगल और सूर्य दोनों शुभ स्थिति में बैठे हों तो व्यक्ति अच्छा प्रशासक बनने के साथ साथ उतम नेता भी होता है.

इस नक्षत्र का स्वामी सूर्य ग्रह है, तथा सूर्य व्यक्ति की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है. सूर्य और गुरु दोनों ही कुण्डली में बली स्थिति में हो तो व्यक्ति को उच्च प्रशासनिक सेवाओं में स्थान प्राप्त होता है. ऎसे व्यक्ति में अहंम की भावना हो सकती है. तथा ऎसा व्यक्ति जीवन में सख्त नियमों का पालन करने वाला हो सकता है. उसे अनुशासन पसन्द जीवन व्यतीत करना अच्छा लग सकता है.

व्यक्ति की कुण्डली में गुरु अथवा सूर्य अगर मंगल के साथ स्थित हों तो व्यक्ति राजनिति के क्षेत्र में जाकर कार्य करने का प्रयास करता है. ये दोनों ग्रह बुध के साथ हो तो व्यक्ति लेखक बन सकता है. उसमें उत्तम वक्ता बनने के गुण भी होते है. साथ ही ऎसा व्यक्ति अगर वकालत के क्षेत्र में जायें तो उसे नाम के साथ साथ धन की प्राप्ति भी होती है. परन्तु इन योगों में ध्यान देने योग्य बात यह है, कि कुण्डली में सूर्य और गुरु दोनों शुभ होने चाहिए.

उत्तराषाढा नक्षत्र शुभ मुहूर्त | Uttara Ashadha Nakshatra Subh Muhurat

उत्तराषाढा नक्षत्र समय में अगर कोई व्यक्ति अपनी विद्या प्रारम्भ करता है, अथवा शिक्षा क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए देवी सरस्वती का पूजन करता है, तो उसकी शिक्षा उत्तम रहने के योग बनते है.

अगर आपना जन्म नक्षत्र और अपनी जन्म कुण्डली जानना चाहते है, तो आप astrobix.com की कुण्डली वैदिक रिपोर्ट प्राप्त कर सकते है. इसमें जन्म लग्न, जन्म नक्षत्र, जन्म कुण्डली और ग्रह अंशो सहित है : आपकी कुण्डली: वैदिक रिपोर्ट

Posted in jyotish, nakshatra, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

विष्टि करण किसे कहते है और इसका जीवन पर प्रभाव

पंचांग का एक महत्वपूर्ण विषय है करण. पंचांग के पांच अंगों में करण भी विशिष्ट अंग होता है. करण कुल 11 हैं और प्रत्येक तिथि दो करणों से मिलकर बनी होती है. इस प्रकार कुल 11 करण होते हैं. इनमें से बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि करण ये करण चर करण कहलाते है, और अन्य शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न स्थिर या ध्रुव करण कहलाते हैं.

पंचांग में करण का प्रभाव और इसका विस्तार पूर्वक विवेचन करना भी अत्यंत आवश्यक होता है. कुछ करण शुभ होते हैं तो कुछ अशुभ होते हैं. किसी भी योग के निर्माण में इन को भी ध्यान में रखा जाता है. योग की शुभता और अशुभता का प्रभाव जातक पर और मुहूर्त पर सभी पर पड़ता है. एक शुभ करण शुभता को बढाता है तो एक अशुभ करण शुभता में कमी लाकर अशुभ प्रभाव देता है.

विष्टि करण

करणों में विष्टि करण को अच्छा करण नहीं माना जाता है. इसके प्रभाव में शुभता में कमी आती है. विष्टि को भद्रा के नाम से भी जाना गया है. अपने नाम के अनुरुप ही ये फल भी देता है. करण तिथि का आधा भाग होता है. ये चर और स्थित करण में विभाजित हैं. विष्टि 7वें स्थान में आने वाला करण है. विष्टि करण में शुभ कार्य को नहीं किया जाता है. शुभ काम इस समय पर टाल देने की सलाह दी जाती है. ज्योतिष के अनुसार भद्रा तीनों लोकों में विचरण करती है. जब यह मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी में होती है, तब सभी शुभ कार्यों में बाधा पहुंचाने वाली अथवा उनकी शुभता को अनिष्ट में बदल देने का काम कर सकती है.

मुहुर्त निर्माण में विष्टि करण का महत्व

जब किसी शुभ मुहुर्त को बनाने की प्रक्रिया शुरु होती है तो, इस क्रम में सभी शुभ बातों का ध्यान रखा जाता है. जैसे की शुभ तिथि का होना, शुभ समय का होना, शुभ नक्षत्र होना, शुभ वार का होना और शुभ करण का होना. इन सभी की शुभ स्थिति के परिणाम स्वरुप ही हम एक शुभ मुहूर्त का निर्माण कर पाते हैं. ऎसे में जब किसी शुभ समय के निर्माण में विष्टि करक आ रहा हो तो इसका त्याग करना ही बेहतर होता है.

विष्टि करण में कौन से काम निषेध होते हैं

विष्टि करण में शुभ मांगलिक कार्यों को नही किया जाता है. इस में विवाह संस्कार, गृह प्रवेश, नौकरी ज्वाइनिंग जैसे शुभ कामों को नही किया जाता है. गृह निर्माण आरंभ, कोई शुभ यात्रा, कोई नया काम आरंभ करना, किसी से मित्रता करना और जो भी कोई अच्छा मांगलिक काम करते समय विष्टि करण को त्यागने की ही बात होती है. इस समय पर किए हुए कामों में किसी न किसी कारण से व्यवधान पड़ जाते हैं.

विष्टि करण में किए जाने वाले कार्य

भद्रा समय में कठोर कर्म को अनुकूल कहा जाता है. इसमें अनिष्टकारी काम ही बेहतर माने जाते हैं. युद्ध जैसे काम, किसी पर प्रहार करने के काम, कैद में रखना या किसी को सताना, जहर देने का काम या किसी पर मुकदमा करना या चलाना अपने विरोधी को प्रताडि़त करना इत्यादि काम इसमें कर सकते हैं.

विष्टिकरण प्रभाव और काम

विष्टि करण में जन्म लेने वाला व्यक्ति गलत कार्यो में शीघ्र शामिल हो सकता है. अनुचित कार्य करने के कारण उसे कई बार मान-हानि का सामना भी करना पडता है. धन के प्रति अत्यधिक महत्वकांक्षी होने के कारण संभवत: वह व्यक्ति यह कार्य करता है.

इस करण में जन्म लेने के कारण वह विपरीतलिंग विषयों में अधिक रुचि ले सकता है. इसके कारण उसका स्वयं का वैवाहिक जीवन प्रभावित हो सकता है. दवाईयों का निर्माण और दवाईयों से जुडा व्यापार कार्य करने से व्यक्ति को आजिविका प्राप्त होने के योग बनते है. इस योग का व्यक्ति प्रयास करने पर चिकित्सा जगत में उतम धन और मान कमा सकता है. जिस तिथि में विष्टि करण चल रहा हो, वह तिथि भद्रा तिथि कहलाती है. विष्टिकरण भद्रा तिथि कहलाता है. भद्रा तिथि में शुभ कार्य करने वर्जित है.

विष्टि करण में जन्मा जातक

इस करण में जन्मा जातक, कुछ कठोर भाषी और निड़र होता है. स्वास्थ्य के लिहाज से उसे परेशानियां अधिक रह सकती हैं. ज्योतिषशास्त्र में विष्टि करण शुभ नहीं माना जाता है. इस करण में जन्मा जातक इस करण के अशुभ प्रभाव से प्रभावित अवश्य होता है. व्यक्ति अपने कामों में गलत बातों की ओर जल्द ही आकर्षित होता है. उसके काम के कारण दूसरे लोग आशंकित अधिक रहते हैं. व्यर्थ के विवाद में फंसना अपने स्वभाव के कारण दूसरों के साथ द्वेष मोल लेना जातक के व्यवहार में दिखाई देता है. लोगों के साथ बहुत अधिक घुलना-मिलना व्यक्ति को पसंद नहीं आता है.

जातक का आचरण भी प्रभावित रहता है. दूसरों की वस्तु को पाने के लिए ललायित रहता है. अपने विरोधी से बदलना लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है.

Posted in astrology yogas, jyotish, muhurat, panchang, vedic astrology | Tagged , , , | Leave a comment

राशि बल | Rashi Bala

जैमिनी स्थिर दशा में सबसे पहले राशि बल का आंकलन किया जाता है. राशि बल को निकालने के लिए तीन प्रकार के बलों को निकाला जाता है. फिर उन तीनों का कुल जोड़ राशि बल कहलाता है. यह तीन बल हैं :- चर बल, स्थिर बल तथा दृष्टि बल. सबसे पहले चर बल की गणना की जाएगी. 

(1) चर बल | Char Bala

जैमिनी ज्योतिष में राशियों के बल को मुख्य आधार माना जाता है. प्रत्येक राशि का अपना विशेष स्वभाव होता है. जैसा कि आपने पिछले अध्यायों में पढा़ है कि बारह राशियों को तीन वर्गों में बाँटा गया है. चर राशि, स्थिर राशि तथा द्वि-स्वभाव राशि. मेष, कर्क,तुला तथा मकर राशि चर राशियाँ हैं. वृष, सिंह,वृश्चिक तथा कुम्भ राशियाँ स्थिर राशियाँ हैं. मिथुन,कन्या,धनु तथा मीन राशियाँ द्वि-स्वभाव राशियाँ हैं. चर बल में राशियों को अंक प्राप्त होते हैं. 

जैमिनी ज्योतिष में तीनों वर्गों की राशियों के लिए कुछ अंक निर्धारित किए गए हैं. वह निम्नलिखित हैं :- 

* चर राशियाँ को 20 षष्टियाँश अंक मिलेगें. 

* स्थिर राशियों को 40 षष्टियाँश अंक मिलेगें. 

* द्वि-स्वभाव राशियों को 60 षष्टियाँश अंक मिलेगें.  

उपरोक्त अंकों के आधार पर द्वि-स्वभाव राशियों को सबसे अधिक अंक मिलते हैं. इस प्रकार यह राशियाँ सबसे अधिक बली हो जाती हैं. 

(2) स्थिर बल | Sthir Bala

राशि बल निकालने की दूसरी कडी़ स्थिर बल है. इस बल को निकालने के लिए राशियों में बैठे ग्रह को देखा जाता है. जिस राशि में कोई ग्रह स्थित है तो उस राशि को 10 अंक प्रप्त हो जाएंगें. यदि किसी राशि में दो ग्रह बैठे हैं तब उस राशि को 20 अंक प्राप्त हो जाएंगें. जिस राशि में कोई ग्रह नहीं है उस राशि को शून्य अंक प्राप्त होगा. जैसे चर दशा के पाठ दो की उदाहरण कुण्डली में कुम्भ राशि में पाँच ग्रह हैं तो कुम्भ राशि को 50 अंक प्राप्त होगें और जिन राशियों में कोई ग्रह नहीं है उन राशियों को शून्य अंक मिलेगें. 

(3) दृष्टि बल | Dristhi Bala

राशि बल में का अंतिम बल दृष्टि बल कहलाता है. आपने देखा कि अभी तक राशियों के आधार पर बल प्राप्त हो रहा था लेकिन दृष्टि बल में ग्रहों की दृष्टियों के आधार पर बल की गणना की जाती है. जैमिनी पद्धति से फलित करते समय एक बात का विशेष ध्यान रखें कि जैमिनी में राशियों की दृष्टि लेनी है. दृष्टि बल में जो राशि अपने स्वामी से दृष्ट होती है उसे 60 अंक मिलते हैं अथवा राशि स्वामी अपनी ही राशि में स्थित है तब भी उस राशि को 60 अंक मिलते हैं. चर दशा के पाठ दो में चन्द्रमा वृश्चिक राशि में स्थित है और वृश्चिक राशि की दृष्टि कर्क राशि पर पड़ रही है. कर्क राशि अपने स्वामी ग्रह चन्द्रमा से दृष्ट भी हो गई है. इसलिए कुण्डली में कर्क राशि को 60 अंक प्राप्त होगें. 

दृष्टि बल में ग्रहों की दृष्टि के अनुसार तथा ग्रहों की अपनी ही राशि में स्थिति के अनुसार अंक प्राप्त होते हैं. इसके अतिरिक्त जिन राशियों में बुध और गुरु ग्रह बैठे हैं उन राशियों को भी 60 अतिरिक्त अंक मिलते हैं. जिन राशियों पर बुध तथा गुरु ग्रह की दृष्टि पड़ती है उन राशियों को भी 60 अंक और मिलते हैं. 

उपरोक्त नियम को एक बार संक्षेप में फिर से समझते हैं. दृष्टि बल में जो ग्रह अपनी राशि में स्थित होता है अथवा जिस राशि का स्वामी अपनी राशि को देखता है उस राशि को 60 अंक प्राप्त होते हैं. इसके अतिरिक्त बुध तथा गुरु जिस राशि में स्थित होते हैं उन राशियों को 60-60 अंक मिलते हैं. बुध तथा गुरु जिन राशियों को देखते हैं उन राशियों को भी 60-60 अतिरिक्त अंक मिलते हैं. 

माना किसी कुण्डली में बुध मेष राशि में स्थित है और गुरु कन्या राशि में स्थित है. बुध मेष राशि में स्थित होकर अपनी  निकटवर्ती राशि वृष को दृष्टि नहीं देगा. बाकी अन्य तीन स्थिर राशियों सिंह, वृश्चिक तथा कुम्भ पर दृष्टि डालेगा. इस प्रकार इन तीनों स्थिर राशियों को भी 60 अंक मिलेगें. बुध मेष में स्थित है तो मेष राशि को भी 60 अंक मिलेगें. यही नियम गुरु ग्रह के लिए भी लागू होगा. माना गुरु ग्रह कन्या राशि में स्थित है तो कन्या राशि को तो 60 अंक मिलेगें ही साथ ही कन्या राशि की दृष्टि अन्य तीनों द्वि-स्वभाव राशियों(मिथुन,धनु तथा मीन राशि) पर होने से तीनों को 60-60 अतिरिक्त अंक प्राप्त होगें. 

चर बल, स्थिर बल तथा दृष्टि बल का कुल योग करेगें. 

फ्री कुंडली मिलान के लिए आप हमारी वेबसाइट पर जा सकते हैं, हमारी वेबसाइट का लिंक है : कुंडली मिलान

Posted in jyotish, vedic astrology | Tagged , , | Leave a comment

देव गण में जन्मा जातक होता है भाग्यशाली

विवाह करने से पूर्व वर-वधू की कुण्डलियों का मिलान करते समय आठ प्रकार के मिलान किये जाते है. इस मिलान को अष्टकूट मिलान के नाम से जाना जाता है. इन्हीं अष्टकूट मिलान में से एक गण मिलान है. इस मिलान में वर वधु के व्यवहार और उनके जीवन जीने के नजरिये को समझा जाता है. ये मिलान बताता है की दो लोग किस प्रकार मेल जोले से अपना जीवन यापन कर सकेंगे या नही. दोनों के मध्य कैसा संबंध बनेगा इस गण मिलान से पता चलाया जा सकता है.

गण मिलान में नक्षत्रों का विचार होता है. इस मिलान में लड़के और लड़की के नक्षत्र गणना द्वारा ये मिलान संभव हो पाता है. गण मिलान करते समय सभी व्यक्तियों को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है. जिसमें देव, मनुष्य और राक्षस है. देव गण से अभिप्राय सत्वगुण संपन्न व्यक्ति से है. मनुष्य गण राजसिक प्रकृति के अन्तर्गत आते है. राक्षस गण तामसिक प्रकृति के व्यक्ति है. तीनों श्रेणियों में गणों का वर्गीकरणी वर-वधू के जन्म नक्षत्र के आधार पर किया जाता है. इस मिलान को कुल 6 अंक दिए जाते है.

देव गण नक्षत्र

जिन व्यक्तियों का जन्म अश्चिनी, मृगशिरा, रेवती, हस्त, पुष्य, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण, स्वाती नक्षत्र में हुआ हो, उस व्यक्ति को देवगण की श्रेणी में आता है. ये सभी नक्षत्र मृदु नक्षत्र, लघु नक्षत्र और चर नक्षत्र होते हैं. इन नक्षत्रों की सौम्यता और शुभता ही इन्हें देव गण का स्थान देती है.

देव गण नक्षत्र एक प्रकार के सकारात्मक स्थिति को दर्शाते हैं ये स्थिति को बेहतर और रचनात्मक रुप से दूसरों के समक्ष ला सकते हैं पर बहुत अधिक बदलाव की इच्छा नही रह पाती है. एक प्रकार से सीधे मार्ग का चुनाव यही देव गण हमें प्रदान करता है.

देव गण में मौजूद नक्षत्रों में किए जाने वाले काम

इन नक्षत्रों में जातक के कार्यों में एक प्रकार की गतिशीलता का प्रभाव रहता है. इन नक्षत्रों में किए गए काम भी समान्य रुप से चलते रहते हैं. देव गण के नक्षत्रों में व्यक्ति मैत्री भाव निभाने की योग्यता रखता है. इस नक्षत्र के प्रभाव से अनुकूलता से भरा वातावरण भी मिलना आसान होता है.

इन देव नक्षत्र में व्यक्ति अपने कार्य को आगे ले जाने के लिए बहुत ही सक्षम होता है. किसी भी काम काज को करने में एक सकारात्मक रवैया अपना सकता है. मेल जोल की संभावना इन में दिखाई देती है. इस नक्षत्र में औषधि बनाए जाने पर उस औषधि का प्रभाव भी बेहद लाभ दायक बन जाता है.

इस नक्षत्र में की जाने वाली देव पूजा भी कई गुना फल देने में सक्षम होती है. इस समय पर किए गए उपायों का भी प्रभावशालि रुप से असर देने में सक्षम होता है.

देव गण नक्षत्र में जन्मा जातक

किसी जातक का जन्म यदि देव गण नक्षत्र में हुआ हो तो जातक इस गण के प्रभाव से शुभता और सौम्यता को पाता है. इस गण के प्रभाव से जातक ज्ञान प्राप्ति करने के लिए लगातार प्रयास भी करना चाहता है. व्यक्ति अपने अनुभवों को दूसरों के साथ बाम्टने वाला भी होता है. काम काज में लोगों के साथ ताल मेल बिठाने अपनी योजनाओं में कामयाब भी रहता है. खेलना और मनोरंजन के कामों में अधिक रुचि ले सकता है. चित्रकारी, शिल्पकारी,आदि कार्य करना लाभकारी होता है

इसमें चर नक्षत्रों के काम भी किये जा सकते है. इन नक्षत्रों में जन्मा जातक स्वतंत्र विचारों वाला लेकिन नियमों पर चलने वाला होता है. काम काज में व्यक्ति का नजरिया काफी प्रभावशाली होता है. कई मामलों पर दूसरों पर निर्भर भी हो सकता है. कई बार व्यक्ति अपनी सोच के साथ जब चल नहीं पाता है तो दूसरों के अनुरुप खुद को ढालने की भी कोशिश करता है.

देवगण नक्षत्र फल

देवगण नक्षत्र में के फलों में एक सकारात्मकता का भाव अधिक होता है. इस गण के प्रभाव में जन्म लेने वाला व्यक्ति सुंदर, दानी, बुद्धिमान, सरल स्वभाव, अल्पहारी और महान विद्वान होता है. जब देव गण नक्षत्र के जातक को अपने ही समान गण के साथी की प्राप्ति होती है तो दोनों के मध्य के बेहतर गठजोड़ होने की संभावना बनती है. अपने रिश्ते में दोनों ही पक्ष कोशिश करेंगे की किसी प्रकार से शांत भाव से समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करेंगे. एक दूसरे के साथ समान गण के होने पर वैचारिक मतभेदों की संभावना में भी कमी आती है.

गण मिलान कैसे करें

गण मिलान करते समय वर-वधू का एक समान गण होना सर्वोत्तम शुभ माना जाता है. एक समान गण होने पर पति-पत्नी दोनों में स्नेह और समन्वय बना रहता है. अगर किसी व्यक्ति का गणकूट देव-गण है, तो उसका विवाह देव-गण की कन्या या वर के साथ किया जा सकता है.

इसके अलावा देव-गण वर- या वधू का विवाह मनुष्य गण वर-या वधू के साथ भी किया जा सकता है. यह मिलान सामान्य मिलान की श्रेणी में रखा जाता है. कुन्डली मिलान में इस पर भी वर वधु का सामान्य गण मिलान हो जाता है.

इसके बाद भी एक मिलान होता है, जो देवगण और राक्षस गण वर या वधू का हो सकता है. इस प्रकार का मिलान होने पर इस मिलान को कोई अंक नहीं दिया जाता है. इस स्थिति में गण दोष माना जाता है. यह स्थिति शून्य देती है जिसमें किसी भी प्रकार की शुभता नही आ पाती है. इस स्थिति का त्याग करना ही उचित होता है.

गण दोष उपाय क्या है

किसी भी प्रकार में गण दोष का परिहार भी दिया गया है. अगर लड़के और लड़की की कुण्डली में राशि के स्वामियों में मित्रता हो तो इस दोष का परिहार हो जाता है. अगर कुण्डली में नाडी़ दोष नहीं है तो ऎसे में भी गण दोष का परिहार मान्य होता है.

गण दोष के प्रभाव से बचाव के लिए स्त्रियां भगवान शंकर और माता पार्वती की उपासना करें. इसके अतिरिक्त नीचे दिए गए म्म्त्र जाप भी इस दोष की शांति में बहुत सहायक बनते हैं –

“हे गौरि! शंक्डरार्धाड्रि यथा त्वं शंकरप्रिया।
तथा मां कुरू कल्याणि! कान्त कान्तां सुदुर्लभाम्।।”

पुरुष जातक के लिए निम्न मंत्र का जाप करना उत्तम होता है. दिए गए मंत्र का जाप 45 दिन तक लगातार करने से सुखी दांपत्य जीवन की प्राप्ति होती है –

“पत्नीं मनोरमां देहि मनो वृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसार सागस्य कुलोद् भवाम “

Posted in astrology yogas, jyotish, nakshatra, planets, vedic astrology | Tagged , , , , , , , | Leave a comment

कुण्डली में अगर बने हल-श्रंगाटक(श्रृंगाटक)-वापी योग तो बन सकते हैं धनवान

ज्योतिष में नभस योग का बहुत महत्व रहा है. इन योगों के सहयोग द्वारा जातक के जीवन में होने वाली घटनाओं ओर भाग्य का निर्धारण में भी बहुत अधिक सहायक बनते हैं. नभस योग कुण्डली में बनने वाले अन्य योगों से अलग होते हैं. यह माना जाता है, कि नभस योगों की संख्या कुल 3600 है. जिनमें से 1800 योगों को सिद्धान्तों के आधार पर 32 योगों में वर्गीकृत किया गया है. इन योगों को किसी ग्रह के स्वामीत्व या उसकी दशा अवधि के आधार पर नहीं देखा जाता है. इन योगों से मिलना वाला फल स्वतन्त्र रुप से देखा जाता है.

नभस योगों में शुभ और अशुभ दोनों ही तरह के योग आते हैं. यह योग जातक की कुण्डली और उसके भाग्य में होने वाली संभावनाओं को दर्शाते हैं जैसे की जातक अपने जीवन में किस प्रकार आगे बढ़ सकता है, उसे अपने संघर्ष से किस प्रकार सफलता मिल सकती है, इसके साथ ही आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक रुप से जातक कैसी स्थितियां झेल सकता है.

हल योग क्या होता है

हल योग होने पर व्यक्ति की कुण्डली में सभी ग्रह कुण्डली में लग्न से धन भाव और एक दूसरे से धन भावों में स्थित होते है. हल के आकार के रुप में यह जन्म कुण्डली में बनता है. यह योग नभस योगों में से है, अत: इसका नाम ग्रहों की स्थिति के अनुसार बनने वाली आकृति के अनुसार इस योग का नाम रखा गया है. हल योग का प्रभाव जातक को मेहनती बनाता है.

हल योग कैसे बनता है

जब त्रिकोण की आकृति में स्थित हों, अर्थात लग्न से 2, 6, 10 भाव अथवा 3, 7, 11 अथवा 4, 8, 12 भावों में हो, तो हल योग बनता है. अपने नाम के अनुरुप ही हल योग के प्रभाव से व्यक्ति को प्रोपर्टी से लाभ मिल सकता है. इस योग से युक्त व्यक्ति भूमि और भूमि से जुडे क्षेत्रों से आय प्राप्त करने में सफल रहता है. इसके साथ ही उसे कृषि क्षेत्रों से लाभ प्राप्त होते है.

इस योग वाले व्यक्ति को खनन के कार्यों से आजीविका की प्राप्ति हो सकती है. वह शारीरिक परिश्रम के कार्य करने में कुशल होता है. इस योग वाला व्यक्ति भूमि से जुडे कार्यो को कुशलता से कर सकता है. इसलिए ऎसे व्यक्तियों को भूमि के क्रय-विक्रय से संबन्धित कार्य करना लाभकारी रहता है.

इस योग में जातक मेहनती होता है. वह अपने प्रयास द्वारा जीवन की कठिनाईयों को दूर करने के लिए हमेशा प्रयत्नशील भी रहता है. जातक को अपने कार्यक्षेत्र में अपनी मेहनत से ही आगे बढ़ता है. वह अच्छा मित्र हो सकता है.

श्रंगाटक योग

श्रंगाटक योग कुण्डली के त्रिकोण भावों के सहयोग से बनने वाला योग है. ज्योतिष शास्त्र में त्रिकोण भावों को कुण्डली के सबसे शुभ भाव कहा गया है. इन भावों में अधिक से अधिक शुभ ग्रह होना, व्यक्ति के जीवन की घटनाओं में शुभता लाते है. इस योग का नाम श्रंगाटक योग इसलिए रखा गया है, क्योंकि जब ग्रह तीनों त्रिकोण भावों में होते है, तो वे कुण्डली के गले में पडे हार का आभास देते है. इन भावों से कुण्डली के सौन्दर्य में वृद्धि होती है.

इस योग के प्रभाव से जातक को अपने जीवन के बहुत से क्षेत्रों में सफलता पाने के अच्छे मौके मिलते हैं. काम के क्षेत्र में यात्राओं के भी मौके मिलते हैं. जातक देश-विदेश की यात्राओं पर जाने का मौका भी पाता है. व्यक्ति को कई उच्च वरिष्ठ लोगों के साथ मेल जोले के अवसर मिलते हैं.

इस योग के प्रभाव से व्यक्ति कला के क्षेत्र में भी नाम कमाने की योग्यता रखता है. जातक के लिए रचनात्मक क्षेत्र से जुड़ा हुआ काम भी सफलता दिलाने में सहायक बनता है. परिवार की ओर से सहयोग और सुख की प्राप्ति भी होती है और मित्रों का साथ भी मिलता है.

श्रंगाटक योग कैसे बनता है

जब कुण्डली में सभी ग्रह लग्न, पंचम व नवम भाव में हो तो यह योग बनता है. यह योग व्यक्ति को सरकारी क्षेत्रों से आय प्राप्त करता है. इस योग से युक्त व्यक्ति को सेना में कार्य करने के अवसर प्राप्त होता है. उस व्यक्ति में साहस और वीरता सामान्य से अधिक पाई जाती है. यह योग शुभ स्थानों में बनने के कारण ही इतना शुभ प्रभाव देने में सक्षम होता है. कुछ मामलों में यह योग में शुभता की कमी ग्रहों के बल से दिखाई देता है.

वापी योग – नभस योग

वापी योग में केन्द्र भाव ग्रहों से रिक्त होते है. केन्द्रों में किसी ग्रह के न होने के कारण व्यक्ति आन्तरिक रुप से कमजोर होता है. जीवन के उतार-चढाव की स्थिति उसे शीघ्र प्रभावित करती है. ऎसे व्यक्ति में संघर्ष करने की क्षमता कम ही पाई जाती है.

यह योग शुभता में कमी को दर्शाता है. केन्द्र स्थानों का खाली होना एक प्रकार की सकारात्मकता में कमी को देने वाला होता है. इस योग के प्रभाव से जातक को जीवन में संघर्ष अधिक करना पड़ सकता है. काम के क्षेत्र में लगातार किए जाने वाले प्र्यास ही सफलता दिला सकते हैं. रोग और शत्रुओं का प्रभाव भी जीवन में बहुत अधिक असर डालने वाला होता है.

वापी योग कैसे बनता है

जब कुण्डली में सभी ग्रह केन्द्र स्थानों के अलावा अन्य स्थानों अथवा पणफर 2, 5, 8, 11 और अपोक्लिम भावों 3, 6, 9, 12 भावों में हो तो वापी योग बनता है. वापी योग व्यक्ति को कला प्रिय बनाता है, व्यक्ति को धन संचय में रुचि होती है. तथा ऎसा व्यक्ति सदैव धन प्राप्ति के प्रयास के लिए तत्पर रहता है. इस योग से युक्त व्यक्ति अपने क्षेत्र में उच्च पद पर आसीन होता है. व्यक्ति को सभी सुख- सुविधाएं प्राप्त होने के योग बनते है.

इस योग से बंधन की स्थिति भी दिखाई देती है. परिवार की ओर से संघर्ष भी मिलता है, समय पर किसी का साथ नहीं मिल पाता है. परिवार की जिम्मेदारी भी जातक पर होती है. जीवन में अचानक से होने वाली घटनाओं का प्रभाव भी बहुत अधिक होता है. व्यक्ति कई बार अपनी शिक्षा या अपने आर्थिक क्षेत्र में व्यवधान के कारण आगे नहीं बढ़ पाता है. पैतृक संपत्ति का सुख भी नही मिल पाता है.

Posted in astrology yogas, jyotish, vedic astrology | Tagged , , , | Leave a comment