जानें क्यों मनाई जाती है तीन साल बाद विभुवन संकष्टी चतुर्थी

गणेश चतुर्थी भगवान गणेश के भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण त्योहार होता है. इसे विशेष गणेश चतुर्थी व्रतों में से एक के रूप में भी बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है. इसे अत्यधिक भक्ति के साथ मनाया जाता है. यह पर्व अधिकमास के दौरान मनाया जाता है,  इस दिन भगवान गणेश के भक्त विभिन्न रूपों की पूजा करते हैं, मंत्र जाप करते हुए पूजा द्वारा विशेष फलों की प्राप्ति होती है.   

भगवान गणेश को हिंदू संस्कृति में सौभाग्य लाने वाले देवता के रूप में अत्यधिक माना जाता है, गणेश चतुर्थी, जो हर चंद्र माह में कृष्ण पक्ष के चौथे दिन मनाई जाती है, वह दिन है जब हिंदू ग्रंथों के अनुसार आदि देव महादेव द्वारा श्री भगवान गणेश को सर्वोच्च प्रथम पूज्य घोषित किया गया था, हिंदुओं में यह मान्यता है कि गणेश चतुर्थी का व्रत रखने से व्यक्ति के जीवन से सभी बाधाएं दूर हो सकती हैं, संकष्टी चतुर्थी पूजा और व्रत के महत्व का वर्णन भविष्यत और नरसिम्हा पुराण में किया गया है और कहा जाता है कि संकष्टी चतुर्थी का महत्व स्वयं भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था,

विभुवन संकष्टी चतुर्थी का पौराणिक रहस्य 

इस चतुर्थी के विषय में कई कथाएं एवं मान्यताओं को सुना व देखा जा सकता है. यह बेहद लम्बे समय के बाद आने वाली चतुर्थी होती है. तीन साल बाद आने के कारण चतुर्थी बेहद शुभ और महत्वपूर्ण मानी जाती है. इस दिन की गई श्रीगणेश पूजा के द्वारा कई लाभ प्राप्त होते हैं. व्रत करने वाले भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं. इसके अलावा किसी भी प्रकार के कलंक से भी मुक्ति मिल पाना संभव होता है. 

ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार चतुर्थी तिथि का स्वामी श्री गणेश जी को माना गया है. इसके साथ ही श्री पुराणों में गणेश जी के अवतरण की तिथि भी चतुर्थी ही है इसके चलते यह समय बहुत ही विशिष्ट बन जाता है. इसलिए गणेश चतुर्थी का त्योहार इतने उत्साह के साथ मनाया जाता है. अधिकमास में आने वाली संकष्टी चतुर्थी बहुत ही विशेष योगों से निर्मित होती है.  यह जिस मास में आती है उसके अनुसार इसका फल मिलता है.  भगवान शिव के भक्ति मय माह में श्रावण मास में पड़ने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को विभुवन चतुर्थी के रूप में मनाया जाएगा. यह चतुर्थी इस समय के दोरान अत्यंत ही सकारात्मक फल देने वाली होती है. शिव परिवार की पूजा इस समय पर करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती है. इसे आने में तीन वर्ष का समय लगता है और अधिकमास में आती है तो इसका प्रभाव मोक्ष प्रदान करने के समान माना गया है. 

विभुवन संकष्टी चतुर्थी पूजा विधि

गणेश चतुर्थी का यह व्रत जब आता है तो उस दिन हवन, यज्ञ जैसे कार्यों को धार्मिक अनुष्ठा के रुप में किया जाता है. यह दिन उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है. भगवान श्रीगणेश की पूजा और स्मरण करते हुए इस दिन मंत्र जाप करना सभी कष्टों को दूर करने का एकमात्र अचूक उपाय है बन जाता है. चतुर्थी तिथि गणेश जी को अत्यंत प्रिय है और अधिकमास की विभुवन चतुर्थी जीवन में शुभ कर्मों को देने वाली होती है. 

गणेश चतुर्थी का व्रत करने से पूर्व संकल्प लेना चाहिए. ऎसा करने से गणेश जी की कृपा से संकट टल जाते हैं. व्यक्ति के जीवन में आर्थिक समृद्धि का आगमन होता है. यह चतुर्थी का पूजन संतान का सुख प्रदान करने वाला होता है. विघ्नहर्ता विभुवन चतुर्थी की पूजा सभी कष्टों को दूर करने वाली है.चतुर्थी के दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद साफ कपड़े पहनने चाहिए. श्री गणेश भगवान का स्मरण करना चाहिए. पूजा और व्रत का संकल्प लेना चाहिए. पूजा स्थल पर भगवान श्रीगणेश जी का आहवान करते हुए उनकी तस्वीर को पूजा स्थान पर रखना चाहिए. वहीं पर कलश में जल भरकर स्थापित करना चाहिए. भगवान श्रीगणेश जी की पूजा करनी चाहिए. शाम के समय धूप-दीप, पुष्प, अक्षत, रोली आदि से पूजन करना चाहिए. भगवान श्रीगणेश जी को पूजा में लड्डुओं का भोग अवश्य लगाना चाहिए. भोग को प्रसाद के रूप में सभी में बांट देना चाहिए.

गणेश चतुर्थी पर विघ्नहर्ता गणेश की पूजा करने से सभी समस्याओं का समाधान होता है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं. परिवार में आर्थिक समृद्धि आती है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चतुर्थी तिथि को भगवान श्री दीन गणेश की जन्म तिथि भी माना जाता है. इसलिए भगवान श्रीगणेश का आशीर्वाद पाने के लिए इस दिन विशेष रूप से भगवान गणेश की पूजा करने की परंपरा है. गणेश चतुर्थी शुभता और खुशियां लाने वाली है.

विभुवन संकष्टी चतुर्थी का महत्व

विभुवन संकष्टी चतुर्थी से संबंधित कई कथाएं प्राप्त होती हैं जिसमें से एक का संबंध महाभारत काल से माना गया है तथा अन्य का संबंध श्री विष्णु लक्ष्मी विवाह से बताया गया है. पौराणिक कथा के अनुसार, जब कौरव वनवास के समय पांडवों को शांति से नहीं रहने देते हैं. तब पांडव अत्यंत कष्टों का सामना करते हैं अपनी पहचन को छिपा पाना उनके लिए आसान नहीं होता है. ऎसे में  द्रौपदी इस संकट से बचने का उपाय वेद व्यास की से पूछती है तब व्यास जी उन्हें विभुवन संकष्टी चतुर्थी का व्रत विधिपूर्वक अनुष्ठान करने के लिए कहते हैं. पांडवों के भक्ति भाव के साथ किए गए इस पूजन से गणेश जी का आशीर्वाद उन्हें मिलता है और उनके कष्ट दूर हो जाते हैं. 

एक अन्य कथा अनुसार भगवान विष्णु माता लक्ष्मी जी से विवाह करने के लिए जाने लगे तो बारात में गणेश जी को शामिल नहीं किया जाता है और उन्हें घर की देखभाल के लिए रहने को कहा जाता है.  तब नारद जी गणेश जी से कहते हैं की ऎसा नहीं होना चाहिए आपको भी साथ में लेकर चलना चाहिए था किंतु आपके स्वरुप के चलते ऎसा नहीं हो पाया. तब गणेश जी ने अपने वाहन मूषक द्वारा समस्त पृथ्वी को खोखला कर देने का आदेश दिया. पृथ्वी के खोखला होने से विष्नू जी का रथ उसमें अटक गया है और पहिया निकल नहीं पाता है.  रथ का पहिया निकालने के लिए सारथी को कहा गया तब उसने रथ के पहिये को छूकर गणेश जी महाराज की जय बोलते हुए पहिया निकाल दिया. यह देख सब चकित रह गए. इसलिए कहा जाता है कि जब कार्य की शुरुआत में गणेश जी का स्मरण नहीं किया जाता है तो कार्य सिद्ध नहीं हो पाता है. तब सभी अपनी गलती का एहसास हुआ और गणेश जी को बुलाया गया और माफी मांगी गई फिर भगवान विष्णु का विवाह लक्ष्मी जी से संपन्न हो पाया. 

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रक्षा बंधन विशेष: राशि के अनुसार राखी का रंग

रक्षाबंधन का पर्व एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण त्यौहार है. यह सावन माह में आने वाली पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. श्रावण माह के सबसे प्रमुख त्यौहार की श्रेणी में इसका अग्रीण स्थान है. राखी भाई बहन के प्रम का प्रतीक है और साथ ही जीवन का अभिन्न अंग भी है. यह प्रेम ओर स्नेह का पर्व है. विश्वास एवं भरोसे का पर्व है. एक दूसरे की सुरक्षा एवं एक दूसरे के प्रति प्रेम को अभिव्यक्त करने का भी समय है.

09 अगस्त 2025 को शनिवार के दिन मनाया जाएगा रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जाएगा.

इस समय पर बहनें अपने भाईयों की कलाई पर प्रेम क अप्रतीक रक्षा सूत्र बांधती हैं तथा उनके जीवन की दीर्घायु की कामना करती हैं. भाई भी बहन के इस रक्षा सूत्र हेतु निष्ठा दर्शाते हैं तथा उनके प्रति समर्पण एवं सहयोग को पूरा करते हैं. इस पर्व के साथ अनेकों कथाएं हैं और साथ ही इस पर्व की महत्ता का प्रमाण भी इतिहास एवं धर्म में मौजूद है. 

रक्षा सूत्र की शुभता एवं उसकी शक्ति ऎसी होती है कि जिसके द्वारा व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व भी शुद्ध हो जाता है. रक्षा सूत्र को हिंदू धर्म में अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाता है. ऎसे में यदि राखी का रंग भाई की कलाई में उसके भाग्य को जगमग कर देने वाला हो जाए तो इसका संपुर्ण फल मिल जाना संभव होता है. राखी एक भाई की अपनी बहन के लिए सुरक्षा, स्नेह और प्यार का पवित्र धागा है. यह दिन, जिसे रक्षा बंधन के नाम से भी जाना जाता है, भारत में हिंदू माह श्रावण की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. राखी को लोहे की जंजीरों से भी अधिक मजबूत माना जाता है क्योंकि यह सबसे अनमोल रिश्ते को प्यार और विश्वास के अटूट रिश्ते में जोड़ती है.

राखी के रंगों और उपहारों से संबंधित कुछ बातों पर यदि ध्यान दिया जाए तो इसका लाभ जल्द से जल्द प्राप्त होता है. ऎसे में राखी के दिन यदि ज्योतिषिय सूत्रों को ध्यान में रखते हुए कुछ कार्य कर लिए जाएं तो इस दिन की विशेषता और भी अधिक बढ़ जाती है. तो चलिए जानते हैं की किस राशि के लिए कौन सी राखी कौन् से रंग भी बेहद ही शुभ हो सकती है. 

मेष राशि के लिए राखी

बात करते हैं भचक्र की सबसे पहली राशि मेष की. मेष राशि वालों के लिए राखी का रंग लाल होना बेहद शुभ होता है. इसके पिछे ज्योतिषिय कारण है की इन राशि वाले लोगों पर मंगल का असर सबसे अधिक पड़ता है और यह ग्रह इनके लिए शुभता लिए होता है. वहीम इन लोगों के लिए सफेद और पीले रंग भी बहुत शुभ माने जाते हैं. मेष राशि के स्वामी पर मंगल ग्रह का प्रभाव होने से अगर सिलवर, श्वेत, लाल तांबाई कलर इत्यादि की राखी चुन सकते हैं, राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

वृषभ राशि के लिए राखी 

वृषभ राशि वालों के लिए श्वेत रंग, सिल्वर रंग अच्छा होता है. इन लोगों के लिए सफेद रंग की राखी सबसे अच्छी होती है. वृषभ राशि के स्वामी शुक्र होते हैं और शुक्र एक सौम्य ग्रह भी है. इस राशि वालों के लिए इन रंगों के साथ ही फिरोजी रंग, नीला रंग भी बहुत ही शुभ माना जाता है. इस राखी को कलाई पर पहनने से शुभ फल प्राप्त होते हैं.  राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

मिथुन राशि के लिए राखी

मिथुन राशि पर बुध का प्रभाव होता है. ऎसे में रक्षाबंधन पर हरे रंग की राखी सबसे अच्छी पसंद हो सकती है. इसके अलावा फिरोजी रंग, सिल्वर रंग, नीले रंग इत्यादि को भी उपयोग में ला सकते हैं. इससे उसे सुख, समृद्धि और लंबी आयु का आशीर्वाद मिलता है. राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

कर्क राशि के लिए राखी 

कर्क राशि वालों के लिए श्वेत, लाल, पीले रंग की राखी अच्छी होती है. कर्क राशि के लोगों का स्वामी ग्रह चंद्रमा है, और उनका शुभ रंग श्वेत है. इन रंगों का उपयोग राखी में करने से रिश्ते में स्थिरता और आनंद प्राप्त होता है. नारंगी या पील अच्छी ऊर्जा का संचार करता है. राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

सिंह राशि के लिए राखी 

सिंह राशि  के लिए लाल, नारंगी, सुनहरी, पीला, कसरी, गुलाबी रंग  राखी के लिए अच्छा होता है. यह रंग जीवन में जादू की तरह काम करते हैं. जीवन खुशियों से भर जाता है. राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

कन्या राशि के लिए राखी 

कन्या राशि का स्वामी बुध है, हरे या सफेद रंग की या फिर रेशम के धागे वाली राखी शुभ होती है. राखी के लिए कुछ अन्य रंगों में नीला, श्वेत, चटकीला और सिल्वर रंग जो इस राशि वाले व्यक्ति पर सूट करता है. राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

तुला राशि के लिए राखी 

तुला राशि के लिए तो चमकीला सफ़ेद रंग, गुलाबी रंग, केसर रंग, नीला रंग सभी बहुत अच्छे रहते हैं. तुला के राशि स्वामी ग्रह शुक्र देव हैं. इन रंगों का राखी के लिए चयन जीवन में सुख-शांति को प्रदान करने वाला होता है. राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

वृश्चिक राशि के लिए राखी 

मंगल ग्रह वृश्चिक राशि का स्वामी होता है. इसलिए वृश्चिक राशि वालों के लिए लाल या गुलाबी रंग की राखी बहुत अच्छी मानी जाती है. राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे उनमें पीला, सिंदूरी रंग, चटक रंग शुभ रह सकता है. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

धनु राशि के लिए राखी 

धनु राशि के लिए कई तरह के रंगों की राखी उपयुक्त हो सकती है. इसमें पीला रंग होता है, केसरिया रंग होता है, श्वेत ओर लाल रंग भी होता है.  ज्ञान का ग्रह बृहस्पति इस राशि पर असर डालता है, इसलिए रक्षाबंधन पीले या सुनहरे रंग की राखी सबसे अच्छी रहती है. राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

मकर राशि के लिए राखी 

बहनें अपने भाइयों की कलाई पर गहरा नीला रंग चुन सकती हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस राशि के स्वामी शनि देव हैं. शनि का मकर राशि पर प्रभुत्व होता है. राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

कुंभ राशि के लिए राखी 

कुंभ राशि भी शनिदेव द्वारा प्रभावित होती है, इस राशि वालों के लिए नीला रंग, भूरा रंग, फिरोजी रंग, काफी अच्छा रहता है. भाई के लिए रुद्राक्ष राखी या गहरे रंग की राखी भी शुभ फल देने वाली मानी जाती है. यदि कलाई पर गहरे रंग का रक्षा सूत्र बांधा जाएगा तो उनके साथ आपका रिश्ता मजबूत हो जाएगा, राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

मीन राशि के लिए राखी 

मीन राशि के लिए पीले रंग, धानी रंग, केसरिया रंग की राखी अच्छी होती है क्योंकि बृहस्पति मीन राशि का स्वामी  ग्रह होता है, इससे वे प्रसन्न रहेंगे और उनके जीवन में शुभता आती है. राशि के आधार पर राखी के अन्य रंग जो उसके लिए उपयुक्त होंगे. राखी का रंग जीवन को रंगों से भर देने की क्षमता रखता है. इस रक्षा सूत्र में बेहद शक्ति होती है. जब राशि अनुसार राखी बांधते हैं तो 

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श्रावण अधिकमास अमावस्या : विशेष योग राशि उपाय

सावन माह में आने वाले अधिकमास के दौरान मनाई जाने वाली अमावस्या को श्रावण अधिकमास अमावस्या के नाम से जाना जाता है. श्रावण अधिक मास का होना सावन समय की अधिकता को बताता है. इस समय पर श्रावण माह में दो अमावस्या का योग बनता है. ऎसे में एक श्रावण शुद्ध मास की अमावस्या होती है और दूसरी सावन अधिकमास की अमावस्या के रुप में मनाई जाति है. श्रावण अधिक मास का योग होने के कारण यह समय श्राद्ध और तर्पण कार्यों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. 

श्रावण अधिकमास पितर कार्य महत्व 

श्रावण अधिक मास में आने वाली अमावस्या के दौरान विष्णु पूजन एवं भगवान शिव की पूजा का योग बनता है. अमावस्या तिथि का संबंध श्राद्ध कार्यों से संबंधित होता है. श्रावण अधिकमास  अमावस्या के दिन पितरों को जल और तिल अर्पित करने से उन्हें शांति मिलती है. श्रावण अधिक मास की अमावस्या के दिन श्राद्ध कर्म की वह अवस्था आती है जब यह तिथि सभी पितरों के लिए मान्य होती है. अधिक मास की अमावस्या के समय सभी पितृ अमावस्या और पितृ विसर्जनी कार्य किये जाते हैं. पितृ लोक से आये हुए पितर तृप्त होकर अपने लोक में लौट जाते हैं. अधिकमास की अमावस्या तीन वर्ष बाद आती है, इससे इसके महत्व में वृद्धि होती है. इस अमावस्या को श्रावण अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है. इस अमावस्या के साथ ही श्रावण अधिक मास का समापन हो जाता है. अमावस्या को पितृपक्ष की महत्वपूर्ण तिथि माना जाता है. इस कारण अधिकमास की अमावस्या के दिन किए गए उपाय विशेष फलदायी होते हैं. रोग, कष्ट आदि से परेशान होने पर इस दिन महामृत्युंजय का जाप और अनुष्ठान करने से रोग नष्ट हो जाते हैं.

श्रावण अधिकमास अमावस्या समय राशि संबंधित उपाय 

श्रावण अधिकमास अमावस्या के समय पर सभी राशि के व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले उपाय बेहद शुभदायक होते हैं. इस समय के दौरान यदि राशि संबंधित उपायों को किया जाए तो उनका फल कई गुना रुप में प्राप्त होता है. 

मेष राशि

ज्योतिष के अनुसार, मेष राशि वालों को चाहिए की अमावस्या के दिन लाल रंग का वस्त्र दान करें. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

वृषभ राशि

वृषभ राशि वाले लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से बच्चों को भोजन के साथ श्वेत वस्त्र उपहार स्वरुप भेंट करें. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

मिथुन राशि

मिथुन राशि के लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से पक्षियों को बाजरा खिलाना चाहिए. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

कर्क राशि

कर्क राशि के लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से साबुत मसुर दाल बहते हुए जल में प्रवाहित करनी चाहिए. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

सिंह राशि

सिंह राशि वाले लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से सूखे अनाज और वस्त्र दान करने चाहिए. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

कन्या राशि

कन्या राशि वाले लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से अनाथों को भोजन, वस्त्र आदि दान करना चाहिए. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

तुला राशि

तुला राशि वाले लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से दूध-चावल से बनी खीर और नमकीन दान करना चाहिर. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

वृश्चिक राशि

वृश्चिक राशि वाले लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से कंबल या गर्म वस्त्र दान करने चाहिए. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

धनु राशि

धनु राशि वाले लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से पक्षियों को दाना खिलाना चाहिए तथा गौशाला में चारा दान करना चाहिए. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

मकर राशि

मकर राशि वाले लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से दृष्टिहीन और दिव्यांग को कुछ वस्तुओं का दान करना चाहिए. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

कुंभ राशि

कुंभ राशि वाले लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से नारियल लेकर बहते जल में प्रवाहित करना चाहिए. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

मीन राशि

मीन राशि वाले लोगों को चाहिए की अमावस्या तिथि के दिन पितरों के नाम से खीर को मंदिर में दान करना चाहिए. इसके अलावा अमावस्या के दिन ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराया जाए. इस दिन किया जाने वाला दान पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस तिथि के दिन अपने पूर्वजों के नाम से गरीबों को भोजन करवाना भी शुभ होता है.  

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मलमास में आने वाली गणेश चतुर्थी क्यों है इतनी विशेष

गणेश चतुर्थी, का समय भगवान श्री गणेश के जन्म का समय माना जाता है. यह हर माह में मनाई जाती है लेकिन जब मलमास आता है तो यह चतुर्थी पूजन बहुत अधिक महत्वपूर्ण होता है. इस दिन पर व्रत उपवास एवं अन्य प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों को किया जाता है. श्री गणेश जी का पूजन किया जाता है. गणेश चतुर्थी का समय पंचांग अनुसार चतुर्थी तिथि के दिन पर किया जाता है. चतुर्थी थिति प्रत्येक माह में दो बार आती है. एक बार यह तिथि कृष्ण पक्ष में आती है तो दूसरी शुक्ल पक्ष के दौरान आती है. इन दोनों तिथियों के अनुसार विनायक और संकष्टी चतुर्थी का पर्व मनाया जाता है. 

शुक्ल पक्ष के समय आने वाली चतुर्थी के दिन विनायक चतुर्थी पर्व को मनाते हैं और कृष्ण पक्ष में आने वाली तिथि पर संकष्टी गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जाता है. गणेश जी को हाथी के सिर वाले भगवान के रूप में भी पूजा जाता है. कुछ भी नया शुरू करने से पहले, लोग हमेशा सबसे पहले उनकी पूजा करते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि वह ज्ञान, स्थिरता और समृद्धि के देवता हैं. और विग्नों को दूर कर देने वाले हैं गणों के नायक हैं तथा सिद्धियों को प्रदान करने वाले देव हैं.

गणेश चतुर्थी कथा एवं मान्यता 

भगवान गणेश के जन्मोत्सव को ‘गणेश चतुर्थी’ के नाम से जाना जाता है. भगवान गणेश हिंदू धर्म में प्रमुख देवताओं में से एक हैं और भारत में लगभग हर हिंदू परिवार और दुनिया के अन्य हिस्सों में रहने वाले हिंदुओं द्वारा उनकी पूजा की जाती है. भगवान गणेश ऐसे देवता हैं जो ज्ञान प्रदान करते हैं, बुराइयों से बचाते हैं, अपने भक्तों के जीवन को सकारात्मकता और खुशियों से भर देते हैं और अपने भक्तों के जीवन से सभी बाधाओं को दूर करते हैं. भगवान गणेश ऐसे भगवान हैं जो किसी भी अन्य भगवान से प्रथम पूजनीय हैं. इसी संदर्भ में जीवन में कोई नया उद्यम या एक नई यात्रा शुरू करने से पहले, भगवान गणेश की पूजा की जाती है. इस प्रकार भगवान गणेश का जन्म सभी हिंदुओं द्वारा अत्यधिक उत्साह, खुशी और भक्ति के साथ मनाया जाता है.

गणेश चतुर्थी कथा एवं शास्त्र उल्लेख 

गणेश चतुर्थी को विनायक एवं संकष्टी चतुर्थी नाम से भी जाना जाता है, सबसे प्रसिद्ध त्योहारों में से एक है जो प्रिय भगवान, भगवान गणेश के सम्मान में मनाया जाता है. गणेश चतुर्थी के संदर्भ में अनेक किंवदंतियाँ लोकप्रिय रही हैं जो गणेश चतुर्थी उत्सव के महत्व एवं इस दिन को मनाने के विषय में महत्वपूर्ण बातें बताती है. धर्मग्रंथों के अनुसार, भगवान गणेश के जन्म और उनकी दिव्यता की कहानी बहुत विशेष है. शास्त्रों के अनुसार एक बार ऐसा हुआ कि माता पार्वती स्नान करने में व्यस्त थीं और वह नहीं चाहती थीं कि उन्हें कोई परेशान करे, इसलिए उन्होंने अपने शरीर पर लगाए गए हल्दी के लेप से मानव रूप में एक बालक को निर्मित किया और उस देह में जान डाल दी और उसे घर के द्वार की रक्षा करने के लिए कहा. 

देवी ने निर्देश दिया कि वह किसी को भी दरवाजे से गुजरने न दे. कुछ देर में भगवान शिव निवास पर आते हैं और देखा कि एक अज्ञात बालक द्वार पर इधर-उधर चक्कर लगा रहा है. जैसे ही भगवान शिव ने प्रवेश करने का प्रयास किया, बालक ने उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया. शिव ने बालक को सूचित किया कि वह स्थान उनका है, लेकिन बालक अपनी जिद पर अड़ा रहा. उसने भगवान शिव का मार्ग अवरुद्ध कर दिया और भगवान को द्वार से गुजरने नहीं दिया. बालक के दंभ और जिद को देखते हुए क्रोधित होकर, भगवान ने उसका सिर काट दिया, यह जानने के बाद माता पार्वती क्रोधित हो गईं, उनका क्रोध, दुख और भावनाएं उमड़ पड़ीं, वह इतनी क्रोधित थीं कि हर रचना को नष्ट करने के लिए आगे बढ़ने लगीं. यह देखने पर, भगवान ने उनका क्रोध शांत करने का उपाय पूछा जिस पर पार्वती ने उत्तर दिया कि इस ब्रह्मांड में पूरी सृष्टि को उनके क्रोध से तभी बचाया जा सकता है, जब बालक को पुन: जीवित किया जाए. 

भगवान शिव ने अपने गणों को छोटे बालक के सिर की तलाश में जाने का आदेश दिया और जो प्रथम वस्तु उन्हें दिखाई दे उसी का सिर वह लेकर आएं. गण सिर खोजने में चल पड़े उत्तर दिशा की ओर बढ़ते हुए गण एक विशाल हाथी का सिर लेकर लौट आये. भगवान ब्रह्मा ने बच्चे के शरीर पर इस विशाल गजानन के चेहरे को जोड़ दिया और इस प्रकार भगवान गणेश अस्तित्व में आए.इस तरह भगवान के जन्मोत्सव से गणेश उत्सव की शुरुआत हुई जिसे गणेश चतुर्थी के रुप में मनाया जाता है. 

मलमास में गणेश चतुर्थी पूजा महत्व 

मलमास का समय एक विशेष समय होता है यह काल गणना के क्रम पर असर डालता है. इस समय पर किया जाने वाला पूजन इसी कारण बहुत विशिष्ट होता है. इस समय किया जाने वाला पूजन व्यक्ति को सकारात्मक ऊर्जाओं से भर देने वाला होता है. इस समय पर गणेश पूजन के साथ श्री हरि का पूजन करना उत्तम माना गया है. गणेश चतुर्थी पूजा घर को सात्विक ऊर्जा से भर देने वाला समय होता है. सभी नकारात्मक ऊर्जाओं को दूर कर देने वाला समय होता है. इस समय पूरा वातावरण दिव्य ऊर्जाओं से भर जाता है. गणेश मंत्रों का जाप, गणेश आरती द्वारा इस पर्व को मनाया जाता है. 

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अधिकमास दुर्गाष्टमी, दुर्गा पूजन का विशेष समय

हिंदू वैदिक कैलेंडर के अनुसार, हर महीने शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दौरान मासिक दुर्गाष्टमी का व्रत रखा जाता है. लेकिन अधिक मास के समय आने वाली मासिक दुर्गाष्टमी सभी से खास होती है. अधिकमास में दुर्गा अष्टमी के शुभ दिन पर देवी दुर्गा के भक्त उनकी पूजा करते हैं और दिन भर उपवास रखते हैं. अधिकमास महाष्टमी के रुप में जानी जाती है. यह सबसे महत्वपूर्ण दुर्गाष्टमी है जो नवरात्रों की अष्टमी के जैसा फल प्रदान करती है. इस अष्टमी का महत्व इस कारण से भी बढ़ जाता है क्योंकि यह हर साल नहीं आती है. अधिकमास जब आता है तब मासिक दुर्गाष्टमी को अधिकमास दुर्गा अष्टमी के नाम से भी जाना जाता है. 

अधिक मास दुर्गाष्टमी के दिन किया जाने वाला पूजन भक्तों को सुख एवं समृद्धि दिलाता है. यह समय विजय एवं शक्ति की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ होता है. नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्ति प्राप्त होती है. जीवन में शुभ फलों का आगमन होता है. ग्रह दशाओं की शुभता के लिए भी यह दिन अत्यंत उत्तम होता है. इस दिन देवी का पूजन करने से ग्रह दोष शांत होते हैम. 

अधिक मास दुर्गाष्टमी पूजा विधि 

अधिक मास अष्टमी पूजा एवं व्रत को करने वाले व्यक्ति को सुबह जल्दी उठना चाहिए. नित्यकर्म निपटाने के बाद घर को साफ-सुथरा कर शुद्ध कर लेना चाहिए. इस दिन सामान्यतः खीर, चूरमा, दाल, हलवा आदि बनाया जाता है. इसके बाद व्रत का संकल्प लिया जाता है. घर के एक कोने में देवी और कुलदेवता की तस्वीर लगानी चाहिए. पूजा स्थल के दोनों ओर सिन्दूर से यम और त्रिशूल का चित्र बनाया जाता है. पूजा में कलश स्थापित करते हैं. कलश के चारों ओर मौली बांधी जाती है और स्वस्तिक बनाया जाता है. पूजा पूर्व दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए. पूजा करने वाले व्यक्ति का मुख दक्षिण दिशा की ओर नहीं होना चाहिए. पूजा में घी का दीपक जलाना चाहिए. हाथ में जल, चावल, फूल और पैसे लेकर अष्टमी पूजा व्रत का संकल्प लिया जाता है. इसके बाद भगवान गणेश को स्मरण करते हुए पूजन आरंभ होता है. 

पूजा में देवी को अर्ध्य, मोली और वस्त्र अर्पित किये जाते हैं. रोली और चावल से तिलक लगाया जाता है. पूजा में फूल और अगरबत्ती का प्रयोग किया जाता है. अष्टमी भोग बनाने के लिए कई तरह की चीजों का उपयोग किया जाता है. पूजा के बाद भोग लगाया जाता है. देवी को सुपारी चढ़ाई जाती है. देवी को लौंग और इलायची भी भेंट की जाती है. इस प्रकार पूजा करते हुए कन्याओं को मीठा खिलाया जाता है.  व्रत के दौरान व्यक्ति को साफ जगह पर सोना चाहिए और खुद को साफ-सुथरा रखना चाहिए. शाम के समय दीपक जलाना चाहिए और व्रत कथा पढ़नी चाहिए.

अधिकमास दुर्गाष्टमी महत्व 

देवी दुर्गा दिव्य शक्ति एवं प्रकृति हैं और वह सभी सृजन, संरक्षण और विनाश का आधार हैं.  दुर्गा या देवी दुर्गा का अवतरण राक्षस महिषासुर को हराने के लिए भगवान शिव, भगवान विष्णु और भगवान ब्रह्मा समेत देवताओं नें मिलकर किया था. संस्कृत में दुर्गा नाम का अर्थ अजेय है. उनकी पूजा सफलता, साहस और समृद्धि के लिए की जाती है और यह शक्ति, नैतिकता और सुरक्षा का प्रतीक है देवी दुर्गा सदाचार की रक्षा करने वाली और पाप का नाश करने वाली हैं. उन्हें ब्रह्मांड की माता के रूप में जाना जाता है, जिसमें भक्तों को सभी प्रकार की विनाशकारी शक्तियों से बचाने की अनंत शक्ति है. माँ दुर्गा को सती, गौरी, अम्बा, अम्बिका, पार्वती, शक्ति, भवानी, भद्रकाली और कालिका के नाम से भी जाना जाता है. वह महामाया का प्रतीक है जहां महा का अर्थ है महान और माया का अर्थ है भ्रम.

मासिक दुर्गा अष्टमी के त्योहार का हिंदुओं में बहुत महत्व है. हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, सभी राक्षसों का वध करने के बाद मां कालरात्रि देवी दुर्गा के सामान्य रूप में प्रकट हुईं और सभी देवताओं ने देवी दुर्गा की पूजा की. माँ दुर्गा को ब्रह्मांड की माता और वह शक्ति के रूप में जाना जाता है जो ब्रह्मांड के निर्माण और विनाश दोनों में निहित हैं. देवी दुर्गा की दस भुजाएँ हैं, जो भक्तों की रक्षा के लिए विभिन्न प्रकार के हथियार रखती हैं. दुर्गा अष्टमी का दिन महिषासुर, चंड मुंड, शुंभ निशुंभ और रक्तबीज नामक राक्षसों पर देवी दुर्गा की जीत के रूप में मनाया जाता है.भक्त देवी की पूजा करते हैं, और उन्हें समृद्धि, खुशी, धन और स्वास्थ्य का आशीर्वाद मिलता है. 

अधिकमास दुर्गा अष्टमी पूजन लाभ 

अधिकमास में आने वाली मासिक दुर्गा अष्टमी को लेकर की जाने वाली पूजा का विशेष महत्व बताया गया है. इस समय पर संधि पूजा का महत्व भी होता है. ऐसा माना जाता है कि तंत्र साधना में विश्वास रखने वालों के लिए यह पूजा बहुत फलदायी होती है. जिस मनोकामना को ध्यान में रखकर यह पूजा की जाती है उसका फल शीघ्र प्राप्त होता है.देवी को वस्त्र, अन्य वस्तुएं आदि अर्पित की जाती हैं जिनमें चूड़ियाँ, आभूषण, धोती, काजल, बिंदी आदि शामिल हैं और, विवाहित महिलाओं द्वारा उपयोग किए जाने वाले अन्य आभूषण भी देवी को अर्पित किए जाने चाहिए. प्रतिदिन परिवार के सदस्यों को आरती में भाग लेना चाहिए. इस समय पर दुर्गा सप्तशती पाठ का करना चाहिए. और अष्टमी के दिन माता को भोग लगाना चाहिए. अगले दिन व्रत का पारण करना चाहिए. 

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अधिकमास की पद्मिनी एकादशी व्रत देता है विशेष फल

अधिक मास के दौरान आने वाली एकादशी पदमनी एकादशी के रुप में जानी जाती है. इस एकादशी का समय को सभी प्रकार के शुभ लाभ प्रदान करने वाली एकादशी माना गया है. इस  एकदशी के विषय में एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि मुझे पद्मिनी मास की एकादशियों का फल बताएं, भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि एकदशी पापों का नाश करने वाली और सभी मानवीय इच्छाओं को पूरा करने वाली है. है

पद्मिनी एकादशी पूजा विधि 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पद्मिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु को तुलसी एवं तिल का भोग लगाना शुभ माना जाता है. एकादशी तिथि भगवान विष्णु के भक्तों के लिए सबसे पवित्र दिनों में से एक है. भक्त इस दिन भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और भगवान को प्रसन्न करने के लिए उपवास रखते हैं. एक चंद्र मास में दो बार एकादशी तिथियां आती हैं जो कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में होती हैं लेकिन इस एकादशी को चंद्र मास की प्राप्ति नहीं होती है इस कारण सभी एकादशियों में यह अलग मानी जाती हैं.

ऐसी ही महत्वपूर्ण एकादशियों में से एक पद्मिनी मलमास में आती है. पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, पद्मिनी एकादशी के शुभ दिन पर भगवान विष्णु के व्रत और पूजा का विशेष धार्मिक महत्व है. इस दिन की पूजा को सैकड़ों वर्षों की तपस्या, दान आदि के बराबर माना जाता है. एकादशी के लिए रात्रि में भोजन न करते हुए, व्यसनों से दूर रहना चाहिए. भगवान के चिंतन में लीन रहकर भगवान का भजन करना चाहिए. अगले दिन सुबह दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर एकादशी व्रत का संकल्प करना चाहिए. 

सुबह स्नान करने के बाद हाथ में जल लें और निर्जला एकादशी व्रत और पूजा का संकल्प लेना चाहिए. इसके बाद पूजा स्थान पर भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करनी चाहिए. अब भगवान विष्णु का पंचामृत से अभिषेक करना चाहिए. फिर उन्हें पीले फूल, अक्षत, चंदन, हल्दी, पान का पत्ता, सुपारी, चीनी, फल, धूप, दीप, गंध, वस्त्र आदि चढ़ानी चाहिए. इस दौरान “भगवते वासुदेवाय नम: मंत्र का जाप करना चाहिए.

पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, पद्मिनी एकादशी के शुभ दिन पर भगवान विष्णु के व्रत और पूजा का विशेष धार्मिक महत्व है. इस दिन की पूजा को सैकड़ों वर्षों की तपस्या, दान आदि के बराबर माना जाता है.

कथा इस प्रकार है अवंतीपुरी में शिवशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था. उनके पांच बेटे थे जिनमें से सबसे छोटा बेटा अपनी व्यसनों के कारण पाप करने लगा और उसके पिता और परिवार ने उसे त्याग दिया. अपने बुरे कर्मों के कारण निर्वासित होकर वह भटकता रहा. भूख से व्याकुल होकर वह त्रिवेणी में स्नान करके भोजन की तलाश में लग जाता है. मलमास में आश्रम में बहुत से लोग, साधु-महात्मा एकत्रित होकर एकादशी की कथा सुनते हैं. ब्राह्मण ने आश्रम में सबके साथ मिलकर पद्मिनी एकादशी की कथा सुनकर विधिपूर्वक व्रत का पारण किया. तब उसे इस व्रत से पापों का नाश होता है और पुण्य की प्राप्ति होती है, इसलिए एकादशी महात्म्य का एक या आधा श्लोक भी पढ़ने से लाखों पापों से मुक्ति मिल जाती है. इस कारण से यह एकादशी बेहद विषेश होती है. 

पद्मिनी एकादशी महात्म्य

जो लोग सदैव भक्तिपूर्वक भगवान पुरुषोत्तम का नाम जपते हैं, जो श्री नारायण हरि की पूजा में लगे रहते हैं, वे कलियुग में धन्य हैं. ऐसा कहकर देवी लक्ष्मी उस ब्राह्मण को वरदान देती हैं. तब वह ब्राह्मण भी भगवान श्री विष्णु की भक्ति में लीन हो जाता है और अपने पापों से विमुख होकर एक सम्मानित और धनवान व्यक्ति बनकर अपने घर की ओर चला जाता है.च्वह ब्राह्मण जो अपने पिता के घर में सभी सुखों को प्राप्त करता है, अंततः भगवान विष्णु के लोक को प्राप्त होता है. इस प्रकार जो भक्त पद्मिनी एकादशी का उत्तम व्रत करता है और इसके माहात्म्य को सुनता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और धर्म-अर्थ-काम मोक्ष के चार पुरुषार्थों को प्राप्त करता है.

पद्मिनी एकादशी पूजा नियम 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पद्मिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु को तिल का भोग लगाना शुभ माना जाता है. इस दिन भक्तों को भगवान विष्णु को तिल से बनी मिठाई का भोग लगाना चाहिए. इस दिन स्नान और दान करना बहुत महत्वपूर्ण होता है. इस दिन पूजा करने वालों को पद्मिनी एकादशी से संबंधित व्रत कथा पढ़नी या सुननी चाहिए. 

भगवान को प्रसन्न करने के लिए हवन कर सकते हैं. पद्मिनी एकादशी और सभी एकादशियों पर भगवान विष्णु की पूजा करते समय तुलसी दल या तुलसी का पत्ता चढ़ाना नहीं भूलना चाहिए. ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु की कोई भी पूजा तुलसी के बिना अधूरी मानी जाती है. एकादशी के दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ देवी लक्ष्मी की भी पूजा करनी चाहिए.

एकादशी के दिन भक्तों को तिल से बने खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए. अगर आप पद्मिनी एकादशी का व्रत नहीं भी रख रहे हैं तो भी इस दिन चावल और बैंगन का सेवन नहीं करना चाहिए. पद्मिनी एकादशी के दिन घर में मांसाहारी या तामसिक भोजन नही खाना चाहिए.  साथ ही खाना पकाने में लहसुन-प्याज का इस्तेमाल नही करना चाहिए. 

एकादशी व्रत अनुष्ठान 

इस एकादशियों की प्रथा अन्य एकादशियों से काफी भिन्न होती है. इस दिन पूर्ण व्रत रखा जाता है.  इस व्रत की अवधि लगभग 24 घंटे की होती है. यह एकादशी के सूर्योदय से प्रारंभ होकर अगले दिन के सूर्योदय तक रहता है. एकादशी की तैयारी एकादशी से एक दिन पहले यानी की शुरू हो जाती है. दशमी के दिन. भक्त शाम की प्रार्थना करते हैं और बिना चावल के भोजन करते हैं. आप ध्यान दें कि इस भोजन में चावल वर्जित होते हैं. अन्य एकादशियों की तरह, भगवान विष्णु की प्रार्थना की जाती है जिनके लिए एकादशी पवित्र है. एकादशी के अवसर पर, भक्त अनाज, कपड़े, जल आदि का दान भी करते हैं. एकादशी का उल्लेख मार्कण्डेय पुराण और विष्णु पुराण में भी मिलता है. कहा जाता है कि जो लोग इस दिन व्रत रखते हैं उन्हें भगवान विष्णु का आशीर्वाद मिलता है.

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गुरु प्रदोष व्रत : सभी प्रकार के दोषों से मुक्ति प्रदान करता है गुरु प्रदोष व्रत

बृहस्पतिवार के दिन आने वाला प्रदोष व्रत गुरु प्रदोष व्रत के रुप में जाना जाता है. प्रत्येक माह आने वाला प्रदोष व्रत भगवान शिव की पूजा का समय होता है. प्रदोष व्रत का फल जीवन को समस्त प्रकार के दोषों से मुक्त करने हेतु तथा सुखमय जीवन को प्रदान करने वाला होता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गुरु प्रदोष त्रयोदशी व्रत करने वाले को सहस्त्रों गाय दान करने के बराबर पुण्य मिलता है.

गुरु प्रदोष व्रत 2025 लिस्ट
27 मार्च , 2025, बृहस्पतिवार
गुरु प्रदोष व्रत
08:44 पी एम से 09:23 पी एम

10 अप्रैल, 2025, बृहस्पतिवार
गुरु प्रदोष व्रत
07:12 पी एम से 09:18 पी एम

गुरु प्रदोष व्रत का लाभ कई रुपों में भक्तों को प्राप्त होता है. इसका असर गुरु के किसी भी प्रकार के दोष को भी समाप्त करता है. यदि कुंडली में गुरु दोष प्रभाव है तो गुरु प्रदोष पूजा विशेष लाभदायक बनती है. साथ ही यह सभी प्रकार के कष्टों और पापों का नाश करने वाली है. वहीं जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस व्रत की कथा पढ़ता और सुनता है, उसे वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है.  

कब रखा जाता है गुरु प्रदोष व्रत 

प्रशोह व्रत जिस दिन पड़ता है उसी अनुसर उसे नाम प्राप्त होता है. यदि यह बृहस्पतिवार के दिन आता है तो उस दिन के नाम अनुसार इसे गुरु प्रदोष व्रत या गुरु प्रदोषम व्रत के रुप में जाना जाता है. त्रयोदशी तिथि के सायंकाल के समय को प्रदोष काल कहा जाता है. धार्मिक ग्रंथों मेम् प्रदोष व्रत को शुभ माना गया है. भक्त बड़े उत्साह के साथ यह व्रत त्योहार के रुप में मनाते हैं. माना जाता है कि ऐसा करने से भगवान शिव का आशीर्वाद मिलता है. जब यह व्रत गुरुवार के दिन पड़ता है तो इसे गुरु प्रदोष कहा जाता है. मान्यता है कि गुरु प्रदोष त्रयोदशी व्रत करने वाले को भोलेनाथ का आशीष प्राप्त होता है, पुण्य मिलता है.

साथ ही यह सभी प्रकार के कष्टों और पापों का नाश करने वाली है. वहीं जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस व्रत की कथा पढ़ता और सुनता है, उसे वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है.  पंचांग के अनुसार प्रदोष काल यानी शाम 7.00 बजे से 9.20 बजे के बीच भगवान शिव की पूजा करने से विशेष लाभ मिलता है. इसके साथ ही इस दिन पूजन पूरी रात रहता है. ज्योतिष शास्त्र में इन दोनों संयोगों को धार्मिक कार्यों के लिए बेहद शुभ माना गया है.

गुरु प्रदोष व्रत मंत्र 

गुरु प्रदोष व्रत के दौरान गुरु मंत्र एवं गुरु स्त्रोत का पाठ करना चाहिए. गुरु मंत्रों में गुरु गायत्री मंत्र का पाठ करने के साथ साथ गुरु स्त्रोत करना उत्तम प्रभाव दायक होता है. 

ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्माय धीमहि ।

  तन्नो गुरुः प्रचोदयात ॥​​ गुरु गायत्री मन्त्र द्वारा देवगुरु बृहस्पति की उपासना और ध्यान करने से बृहस्पति देव अति प्रसन्न होते है। बृहस्पति देव के आशीर्वाद से स …

गुरु स्तोत्र 

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 1 ॥

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 2 ॥

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परम्ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 3 ॥

स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं यत्किञ्चित्सचराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 4 ॥

चिन्मयं व्यापियत्सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 5 ॥

सर्वश्रुति शिरोरत्नः विराजित पदाम्बुजः। वेदान्ताम्बुज सूर्योयस्तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 6 ॥

चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरंजनं। नादबिंदु कलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 7 ॥

ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः । भुक्ति मुक्ति प्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 8 ॥

अनेकजन्म सम्प्राप्त कर्मबन्धविदाहिने । आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 9 ॥

शोषणं भवसिन्धोश्च ज्ञापनं  सार सम्पदः । गुरोः पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 10 ॥

न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः । न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 11 ॥

मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः । मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 12 ॥

गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम् । गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 13 ॥

यत्सत्येन जगत्सर्वं यत्प्रकाशेन भ्रान्तियत। यदानन्देन नंदैन्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 14 ॥

नित्यशुद्धं निराभासं निराकारं निरंजनं। नित्यबोधं चिदानन्दम गुरुर्ब्रह्मानमाम्यहम ॥ 15 ॥

ध्यानमूलं गुरोमूर्ति पूजा मूलं गुरोरपदं। मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोर्कृपा ॥ 16 ॥

नमामि श्रीगुरुपादपल्लवम्। स्मरामि श्रीगुरुनाम निर्मलम्। 

पश्यामि श्रीगुरु रूप सुन्दरम्। श्रृणोमि श्रीगुरु कीर्ति अद्भुतम् ॥ 17 ॥

गुरु प्रदोष व्रत कथा

प्रदोष व्रत हर महीने में दो बार मनाया जाता है. यह व्रत शुक्ल और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को रखा जाता है. जब यह व्रत गुरुवार के दिन पड़ता है तो इसे गुरु प्रदोष व्रत कहा जाता है. प्रदोष व्रत की पूजा के बाद इसकी कथा को सुनना एवं पढ़ना आवश्यक होता है. आइए जानते हैं गुरु प्रदोष व्रत की कथा. गुरु प्रदोष व्रत अत्यंत शुभ एवं मंगलकारी माना जाता है.

गुरु प्रदोष कथा इस प्रकार है कि एक बार इंद्र और वृत्रासुर के बीच भयंकर युद्ध हुआ. उस समय देवताओं ने राक्षसी सेना को परास्त कर नष्ट कर दिया. अपनी सेना का विनाश देखकर राक्षस वृत्रासुर बहुत क्रोधित हुआ और स्वयं युद्ध के लिए तैयार हो गया. मायावी असुर ने आसुरी माया से भयंकर विकराल रूप धारण कर लिया. उसके रूप को देखकर इंद्रादि देवताओं ने बृहस्पतिजी का आह्वान किया, गुरु ने कहा- हे देवेन्द्र! वृत्रासुर महान तपस्वी है, उसने घोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया था. पूर्वकाल में यह चित्ररथ नाम का राजा था, सुरम्य वन ही उसका राज्य था, उस वन में ऋषि-महात्मा रमण करते थे.

यह भगवान के दर्शन की अनुपम भूमि है. एक बार चित्ररथ स्वेच्छा से कैलाश पर्वत पर गये. भगवान के स्वरूप और वाम भाग में विराजमान जगदम्बा को देखकर चित्ररथ हँसे और हाथ जोड़कर शिव शंकर से बोले- हे प्रभु! हम लोग माया से मोहित हो जाते हैं और विषयों में फंसने के कारण स्त्री के वश में रहते हैं, परंतु देवताओं के लोक में ऐसा कहीं नहीं देखा गया कि कोई स्त्री के साथ सभा में बैठा हो. चित्ररथ के ऐसे वचन सुनकर देवी पार्वती क्रोधित हो गईं और चित्ररथ की ओर देखकर बोलीं- हे दुष्ट, तूने सर्वव्यापी महेश्वर के साथ-साथ मेरी भी हंसी उड़ाई, तुझे अपने कर्मों का फल भोगना होगा.

तुम राक्षस रूप धारण करके विमान से नीचे गिर जाओ, मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम अब पृथ्वी पर चले जाओ. जब जगदम्बा भवानी ने चित्ररथ को श्राप दिया तो वह तत्काल विमान से गिर पड़ा और राक्षस योनि धारण कर महासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ. तवष्टा नामक ऋषि ने घोर तपस्या से उसे उत्पन्न किया और अब वही वृत्रासुर शिव की भक्ति में ब्रह्मचारी रहा. इसलिए तुम उसे जीत नहीं सकते इसलिए मेरी सलाह से तुम यह गुरु प्रदोष व्रत करो ताकि तुम उस शक्तिशाली राक्षस पर विजय पा सको. गुरुदेव के वचन सुनकर सभी देवता प्रसन्न हुए और गुरुवार के दिन त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत विधि-विधान से किया. जिससे वृत्रासुर की पराजय हुई और देवता तथा मनुष्य प्रसन्न हुए.   

गुरु प्रदोष व्रत महत्व

हिंदू धर्म में प्रदोष व्रत का विशेष महत्व माना गया है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस व्रत को करने से भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं और साधक की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं. इस खास दिन पर भगवान शिव के साथ माता पार्वती की पूजा का भी विधान है. मान्यता है कि ऐसा करने से दांपत्य जीवन में सुख-समृद्धि आती है और परिवार में दुखों का नाश होता है. इसके साथ ही प्रदोष व्रत करने से कई प्रकार के ग्रह दोषों से भी मुक्ति मिलती है.

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अशून्य शयन व्रत, जानें पूजा विधि और महत्व 2025

शास्त्रों के अनुसार, चतुर्मास के दौरान भगवान विष्णु शयन करते हैं और इस अशून्य शयन व्रत के माध्यम से शयन उत्सव मनाया जाता है. यह व्रत भगवान शिव के पूजन का भी समय होता है, इस कारण से इस समय पर भगवान श्री विष्णु एवं भगवान भोलेनाथ दोनों का ही संयुक्त रुप से भक्तों को आशीर्वाद प्राप्त होता है. इस पर्व को शयन उत्सव के रुप में मनाया जाता है. दांपत्य गृहस्थ जीवन के सुख के लिए इस व्रत की महिमा बहुत ही विशेष रही है.यह व्रत चतुर्मास के चार महीनों के दौरान प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है. इस व्रत को करने से पति-पत्नी का साथ जीवनभर बना रहता है और रिश्ता मजबूत होता है. प्रेम और दांपत्य जीवन के सुख का विशेष लाभ प्रदान करता है यह व्रत. 

यह व्रत दांपत्य जीवन में सौभाग्य को प्रदान करता है. अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिए तथा उसके साथ सुख पूर्ण जीवन के लिए इस व्रत को किया जाता है. शास्त्रों के अनुसार पति-पत्नी के रिश्ते को बेहतर बनाने के लिए अशून्य शयन द्वितीया का यह व्रत बहुत महत्वपूर्ण है. इस व्रत को पुरूषों द्वारा करने का विधान बेहद विशेष है. जिस प्रकार स्त्रियों के लिए अनेकों व्रत हैं सुखी वैवाहिक जीवन की कामना हेतु उसी प्रकार इस व्रत को पुरुषों के द्वारा करने पर सुखी वैवाहिक जीवन का सौभाग्य प्राप्त होने का उल्लेख भी प्राप्त होता है.

अशून्य शयन व्रत पूजन 

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, अशून्य शयन व्रत द्वितीया तिथि को चंद्रोदय के समय चंद्रमा को अर्घ्य देकर किया जाता है. रात्रि में चंद्रमा के पूजन के साथ इसको पूर्ण करेंगे. इस व्रत में लक्ष्मी और श्री हरि विष्णु जी की पूजा करने का विधान है. शास्त्रों के अनुसार, चतुर्मास के दौरान भगवान विष्णु शयन करते हैं और इस अशून्य शयन व्रत के माध्यम से शयन उत्सव मनाया जाता है.  

अशून्य शयन व्रत में शाम को चंद्रोदय होने पर चंद्रमा को अक्षत, कुमकुम, दही, दूध, फल एवं मिष्ठान इत्यादि से अर्घ्य दिया जाता है और अर्घ्य देने के बाद व्रत का पारण किया जाता है. व्रत के अगले दिन ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है तथा उन्हें कुछ उपहार एवं दक्षिणा देकर इस व्रत को संपन्न किया जाता है. व्रत में किए जाने वाले नियमों का पालन करते हुए वैवाहिक जीवन में प्रेम और मधुरता बनी रहती है.

दांपत्य जीवन के लिए लाभदायक 

अगर व्यक्ति अपने वैवाहिक जीवन को मजबूत बनाना चाहता है तो इस दिन अशून्यशयन व्रत को अवश्य धारण करे. सुखी परिवार एवं संतान सुख हेतु यह व्रत अत्यंत ही शुभ होता है. इस दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद शिव एवं विष्णु पूजन करना चाहिए. इस दिन भगवान को चंदन एवं केसर से तिलक करना शुभ होता है. मां लक्ष्मी और विष्णु जी को तिलक अवश्य करना चाहिए. अपने मनोकूल जीवनसाथी पाने की कना हेतु अथवा अपने प्राप्त जीवन  के साथ सुखमय जीवन की अभिलाषा की पूर्ति हेतु इस दिन दान एवं अशून्यशयन व्रत का अनुष्ठान अत्यंत ही कारगर कार्य होते हैं. शून्य शयन व्रत के दौरान भगवान शिव एवं माता पार्वती का पूजन भी करना चाहिए ऎसा करने से दांपत्य जीवन में शुभता बनी रहती है. 

यह व्रत पुरुष अपनी पत्नी की लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य के लिए करते हैं.  ‘अशून्य शयन व्रत’ को पांच महीनों सावन माह, भाद्रपद माह, आश्विन माह, कार्तिक माह और अगहन माह में किया जाता है.इस व्रत में लक्ष्मी और श्रीहरि यानी विष्णु जी की पूजा का विधान है. दरअसल, शास्त्रों के अनुसार चतुर्मास के दौरान भगवान विष्णु शयन करते हैं और इस अशून्य शयन व्रत के माध्यम से शयन उत्सव मनाया जाता है. ऐसा कहा जाता है कि जो कोई भी इस व्रत को रखता है, उसके वैवाहिक जीवन में कभी दूरी नहीं आती है. साथ ही परिवार में सुख, शांति और सद्भाव बना रहता है. अत: गृहस्थ पति को यह व्रत अवश्य करना चाहिए. 

अशून्य शयन व्रत पूजन महत्व

यह व्रत श्रावण मास से शुरू होकर चतुर्मास के चार महीनों के दौरान प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया और भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है, इस व्रत का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से किया है. अशुन्य शयन का अर्थ है बिस्तर पर अकेले न सोना. जिस तरह महिलाएं अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ का व्रत रखती हैं, उसी तरह पुरुष भी अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिए यह व्रत रखते हैं, अशुन्य शयन द्वितीया का यह व्रत पति-पत्नी के रिश्ते को बेहतर बनाने के लिए है.इस व्रत में लक्ष्मी और श्री हरि यानी विष्णु जी की पूजा का विधान है. 

मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि जो भी व्यक्ति इस व्रत को करता है उसके वैवाहिक जीवन में कभी दूरियां नहीं आती और परिवार में सुख, शांति और सद्भाव बना रहता है. वैसे तो यह पुरुषों के लिए ही कहा गया है, लेकिन अगर पति-पत्नी दोनों एक साथ व्रत करें तो और भी अच्छा है. सुबह जल्दी उठना चाहिए और अपने सभी दैनिक कार्य निपटा लेने के पश्चात पूजन की तैयारियां आरंभ करनी चाहिए. साफ कपड़े धारण करने चाहिए  पहनें, पूजा घर को साफ और शुद्ध करें, लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु की शय्या की पूजा करें. भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए. जिस प्रकार आपका विश्राम शैय्या लक्ष्मी जी से कभी खाली नहीं होता, उसी प्रकार मेरी शैय्या भी मेरी पत्नी से खाली नहीं होनी चाहिए, मुझे अपने साथी से कभी अलग नहीं होना चाहिए.

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अधिक मास सावन शिवरात्रि ।Adhik Maas Shivratri

सावन माह की शिवरात्रि को सावन शिवरात्रि के रुप में जाना जाता है. श्रावण माह के दौरान आने वाली शिवरात्रि के दिन ही भगवान शिव के अभिषेक से संबंधित कार्य संपन्न होते है. इस साल सावन माह में अधिकमास शिवरात्रि का समय भी होगा, लेकिन आने वाली शुद्ध श्रावण शिवरात्रि पर ही अभिषेक से संबंधित प्रथाएं संपूर्ण होंगी. इस समय पर अधिक मास शिवरात्रि का समय 14 अगस्त को होगा. 

हर साल सावन माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दौरान शिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है. पर इस बार 2023 में सावन में अधिक मास शिवरात्रि का समय भी होगा. अधिक मास शिवरात्रि का प्राचीन शास्त्रों में विशेष महत्व है. ऐसा माना जाता है कि शिवरात्रि के समय पर भगवान शिव इस दिन पृथ्वी पर ज्योर्तिलिंग के रूप में दिखाई दिए. अब इस समय अधिक मास में शिवरात्रि का होना यह श्री विष्णु पूजन के लिए महत्वपूर्ण होगा क्योंकि अधिक मास के समय को श्री विष्णु का स्वामित्व प्राप्त है, ऎसे में शिव के प्रिय मास में अधिक मास होने से यह समय श्री विष्णु पूजन के लिए भी महत्व रखेगा. 

अधिक मास शिवरात्रि पूजा   

अधिक मास शिवरात्रि पूजन में शास्त्रों के अनुसार, इस दिन भक्तों को प्रात:काल से ही पूजन आरंभ कर देना चाहिए. दिन के सभी चार चरणों में भगवान शिव के नाम का जाप करते हुए पूजन करना चाहिए. प्रभु की पूजा करने से प्रभु को प्रसन्न किया जाता है और भक्त अपनी सभी इच्छाओं को पूरा करने में सक्षम है. यह उपवास प्रदोष निशिथ काल में देखा जाना चाहिए. एक व्यक्ति जो इस उपवास को व्यवस्थित तरीके से देखने में असमर्थ है, उसे रात या आधी रात की शुरुआत में शिव पुजन करना चाहिए. यदि वह रात्रि पूजन संभव नहीं है तो संध्या को भगवान शिव की पूजा करना शुभ माना जाता है.

महा शिवरात्रि की रात को बहुत शुभ माना जाता है. महा शिवरात्रि की रात में शिव मंत्रों का जाप करना सिद्धि प्रदान करने वाला होता है. इस समय शिव लिंग पूजा फलदायी परिणाम देने वाली होती है. इस दिन पर अधिकमास होने के कारण प्रात:काल समय श्री विष्णु पूजन करना चाहिए तथा भक्तों को भगवान के नामों का जाप करना चाहिए. इस समय शिव एवं विष्णु पूजन करना भक्त की सभी इच्छाओं को पूरा करता है.  

अधिक मास पर राशि अनुसार उपाय 

मेष राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन मेष राशि वालों को भगवान शिव को लाल फूल चढ़ाने और महा मृत्युंजय मंत्र का जाप करने से लाभ हो सकता है. यह भी सुझाव दिया जाता है कि वे अच्छे स्वास्थ्य और सफलता प्राप्त करने के लिए इस दिन उपवास करें.

वृषभ राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन वृषभ राशि वालों को भगवान शिव को सफेद फूल चढ़ाने और रुद्राभिषेक पूजा करने से लाभ हो सकता है. यह भी सुझाव दिया जाता है कि वे अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए ओम नमः शिवाय मंत्र का जाप करें.

मिथुन राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन मिथुन राशि के जातकों को महामृत्युंजय हवन करने और भगवान शिव को हरे फल चढ़ाने से लाभ हो सकता है. यह भी सुझाव दिया जाता है कि वे अच्छे स्वास्थ्य और सफलता के लिए ओम नमः शिवाय मंत्र का जाप करें.

कर्क राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन कर्क राशि के जातकों को भगवान शिव को दूध और सफेद फूल चढ़ाने और महा मृत्युंजय पूजा करने से लाभ हो सकता है. यह भी सुझाव दिया जाता है कि वे अच्छे स्वास्थ्य और सफलता के लिए इस दिन उपवास करें.

सिंह राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन सिंह राशि के जातकों को रुद्राभिषेक पूजा करने और भगवान शिव को लाल फूल चढ़ाने से लाभ हो सकता है. यह भी सुझाव दिया जाता है कि वे अच्छे स्वास्थ्य और सफलता के लिए महा मृत्युंजय मंत्र का जाप करें.

कन्या राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन कन्या राशि के  लोगों को भगवान शिव को दूध और सफेद फूल चढ़ाने और पवित्र रुद्राभिषेक पूजा करने से शुभ लाभ मिलते हैं. इसके अलावा, ऊँ नमः शिवाय मंत्र के जाप के द्वारा जीवन में अच्छे स्वास्थ्य का आशीर्वाद मिलता है. समृद्धि को बढ़ावा मिलता है. 

तुला राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन तुला राशि वालों के लिए, भगवान शिव को नाजुक सफेद फूल चढ़ाने और पवित्र महामृत्युंजय पूजा करने से संभावित लाभ के अवसर पैदा हो सकते हैं. इसके अतिरिक्त, ओम नमः शिवाय मंत्र के जाप की शांत तरंगें संभावित रूप से उनके जीवन में अच्छे स्वास्थ्य और सफलता की लहर ला सकती हैं.

वृश्चिक राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन वृश्चिक व्यक्तियों के लिए, एक शुभ दिन पवित्र रुद्राभिषेक पूजा करने और भगवान शिव को जीवंत लाल फूल चढ़ाने से संभावित लाभ मिल सकता है. इसके अलावा, एक दिन का उपवास उनके जीवन में अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि की संभावना को बढ़ा सकता है.

धनु राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन धनु राशि के तहत पैदा होने वाली साहसी और साहसी आत्माएं संभावित रूप से भगवान शिव को चमकीले पीले फूल चढ़ाकर और महामृत्युंजय पूजा करके आशीर्वाद आमंत्रित कर सकती हैं. सफलता और अच्छे स्वास्थ्य की संभावना को और बढ़ाने के लिए, यह सुझाव दिया जाता है कि वे ओम नमः शिवाय मंत्र का जाप करें – एक शक्तिशाली आह्वान जो उन्हें उनकी आकांक्षाओं की ओर बढ़ने में मदद कर सकता है.

मकर राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन मकर राशि के लोग पवित्र रुद्राभिषेक पूजा करके और भगवान शिव को शांत नीले फूल चढ़ाकर संभावित लाभ प्राप्त कर सकते हैं. इसके अलावा, इस दिन उपवास करना संभावित रूप से उनके जीवन में अच्छे स्वास्थ्य और सफलता को प्रकट करने के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम कर सकता है – जो उनके अनुशासित और दृढ़ स्वभाव का एक प्रमाण है.

कुंभ राशि

अधिक मास शिवरात्रि के दिन कुंभ राशि के व्यक्तियों के लिए, भगवान शिव को शुद्ध सफेद फूल चढ़ाने और महामृत्युंजय पूजा करने से संभावित लाभ का अवसर मिल सकता है. ओम नमः शिवाय मंत्र का जाप उन्हें सीमाओं से मुक्त होने और उनके जीवन में अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि की लहर लाने में मदद करने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में काम कर सकता है.

मीन राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन मीन राशि के लोग पवित्र रुद्राभिषेकम पूजा करके और भगवान शिव को चमकीले पीले फूल चढ़ाकर संभावित रूप से लाभ प्राप्त कर सकते हैं. इसके अलावा, इस दिन उपवास करने से उन्हें अपने जीवन में अच्छे स्वास्थ्य और सफलता की संभावना को उजागर करने में मदद मिल सकती है. 

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व्यास पूर्णिमा 2025 : वेदों के निर्माता वेद व्यास के जन्मोत्सव के रुप में मनाई जाती है व्यास पूर्णिमा

व्यास पूर्णिमा का समय वेद व्यास जयंती के रुप में हर साल अषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि पर मनाया जाता है.

इस वर्ष 10 जुलाई 2025 को गुरुवार के दिन मनाई जाएगी व्यास पूर्णिमा

भारतीय संस्कृति में वेदों का बेहद विशेष स्थान और इन्हीं के रचियता के रुप में वेद व्यास जी को जाना जाता है. कुछ विचारकों के अनुसार वेद व्यास एक परंपरा रही है भारती संस्कृति में तो धर्म शास्त्रों के अनुसार वेद व्यास जी के पिता महर्षि पराशर एवं माता सत्यवती हैं. इनका जन्म जिन परिस्थितियों में हुआ उसी अनुसर इन्हें नाम प्राप्त हुआ कृष्णद्वैपायन वेदव्यास. महाभारत की रचना भी इन्हीं के द्वारा संभव हो पाई और गणेश जी का सहयोग प्राप्त करके महाभारत ग्रंथ संपन्न हो पाया. महर्षि व्यास का संपूर्ण व्यकित्व की बेहद विशाल है जिसमें भारतीय सभ्यता समाहित दिखाई देती है. 

वेद व्यास पूर्णिमा का पौराणिक महत्व 

वेद व्यास जी का स्वरूप हमें किसी भी रूप में मिल सकता है और इस दिन अपने मन में विराजमान व्यास के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने से हमारे सभी दुर्गुण समाप्त होते चले जाते हैं. व्यास पूर्णिमा को व्यास पूजा के रुप में मनाया जाता है. वेद व्यास जी के कार्यों की शृंखला ही भारतीय संस्कृति की गंगा है, जो वैदिक काल से ही बहती चली आ रही है और आज भी निरंतर प्रवाहित होती चली जा रही है. व्यास की स्तुति में ग्रंथों में कई तथ्य प्राप्त होते हैं और पौराणिक रुप से इनका संदर्भ हमें वेदों से प्राप्त होता है. 

व्यास पूर्णिमा कब और क्यों मनाई जाती है?

आषाढ़ माह में पड़ने वाली पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है. यह त्यौहार प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में शामिल है. इस दिन व्यास वेद व्यास का जन्म हुआ था, इसलिए इस दिन को व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. व्यास जी का स्थान वेदों की रचना और महाभारत की रचना से संबंधित रहा है. धर्म ग्रंथों में वेद व्यास जी को सर्वोत्तम स्थान प्राप्त है. इसके वेद व्यास जी के रुप में धर्म को मजबूती मिलती है. इन्हीं के ज्ञान को प्रबुद्ध लोगों ने जन-जन तक पहुंचाया. मनुष्य और शांति और प्रेम के साथ जीवन जीने की बात की. आज भी भारत में व्यास जी की पूजा श्रद्धा और भक्ति से की जाती रही है. व्यास पूर्णिमा के दिन आषाढ़ी पूर्णिमा का व्रत रखा जाता है. इस दिन धार्मिक स्थलों और पवित्र नदियों में स्नान के लिए श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगता है. व्यास पूर्णिमा के दिन सौभाग्य की कामना के लिए कोकिला व्रत भी रखा जाता है.

वेदांत दर्शन के संस्थापक 

इस दिन देशभर के शैक्षणिक संस्थानों, धार्मिक स्थलों पर व्यास पूर्णिमा की एक अलग ही छाप देखने को मिलती है. इस दिन कई तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. व्यास परब्रह्म के समान हैं सर्वोच्च ज्ञान प्रदान करने वाला मार्गदर्शक भी है. व्यास का स्थान सर्वोत्तम है, भारती संस्कृति में वेद व्यास को विशेष महत्व दिया गया है, हिंदू धर्म में व्यास का स्थान इतना पवित्र रहा है कि देवता भी उसके सामने झुके बिना नहीं रह पाते. वेदांत दर्शन और अद्वैतवाद की स्थापना करने वाले संत वेद व्यास ही थे. उनका जन्म संत पराशर के पुत्र के रूप में हुआ था. उनकी पत्नी का नाम आरुणि था, जिसने उनके पुत्र शुकदेव को जन्म दिया. व्यास पूर्णिमा के दिन को वेद व्यास जयंती के रूप में भी मनाया जाता है.वेद व्यास द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में पैदा हुए और उन्होंने वेदों के कई अलग-अलग हिस्से लिखे. ऐसा माना जाता है कि पहले द्वापर युग के दौरान, ब्रह्मा वेद व्यास थे, उसके बाद प्रजापति, शुक्राचार्य, बृहस्पति, इंद्र, धनंजय, सूर्य, मृत्यु, अश्वत्थामा आदि थे. ऐसा माना जाता है कि कुल मिलाकर 28 देवता और अन्य थे जो वेद व्यास थे. वेद व्यास ने भी अठारह पुराण लिखे.

व्यास पूर्णिमा पौराणिक कथा

वेद व्यास के बारे में प्राचीन ग्रंथों में कई अलग-अलग कहानियों का उल्लेख किया गया है. कुछ लोग तो उन्हें भगवान विष्णु का स्वरूप भी मानते हैं. उनकी जन्म कथा के अनुसार उनका जन्म संत पराशर और सत्यवती के पुत्र के रूप में हुआ था. सत्यवती नाव चलाती थी और उसे मछली की गंध आती थी. इसलिए, उन्हें मत्स्यगंधा के नाम से भी जाना जाता था. एक बार, संत पराशर ने यमुना नदी से यात्रा करने के लिए अपनी नाव का उपयोग किया. वह उसकी सुंदरता से मंत्रमुग्ध हो गया और उससे शादी करने के लिए कहा.

सत्यवती ने उत्तर देते हुए कहा कि संत पराशर भगवान ब्रह्मा के पुत्र थे और वह सिर्फ एक साधारण इंसान थीं और इसलिए, सगाई नहीं होगी. संत पराशर ने उससे चिंता न करने को कहा और अंततः सत्यवती ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. संत पराशर ने अपनी शक्ति से धुंध और कोहरा उत्पन्न किया. उन्होंने सत्यवती को आशीर्वाद दिया कि उसके शरीर से मछली की दुर्गंध मीठी सुगंध में बदल जाएगी.

नदी के तट के निकट एक द्वीप पर सत्यवती के घर एक बालक का जन्म हुआ. छोटा बच्चा तुरंत एक युवा लड़के में बदल गया और उसने सत्यवती से कहा कि जब भी वह उसे याद करेगी वह सत्यवती के सामने आ जाएगा. उन्होंने द्वीप छोड़ दिया और अपनी तपस्या करने के लिए चले गये. व्यास जी का रंग पीला था जिसके कारण उन्हें भगवान कृष्ण का स्वरूप माना जाता था. उनका जन्म यमुना नदी के एक द्वीप पर हुआ था और इसलिए, उन्हें द्वैपायन के नाम से भी जाना जाता था. वेदों के लिए विभिन्न ग्रंथ लिखने के कारण उन्हें वेद व्यास के नाम से जाना जाता था.

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