मलमास में आने वाली गणेश चतुर्थी क्यों है इतनी विशेष

गणेश चतुर्थी, का समय भगवान श्री गणेश के जन्म का समय माना जाता है. यह हर माह में मनाई जाती है लेकिन जब मलमास आता है तो यह चतुर्थी पूजन बहुत अधिक महत्वपूर्ण होता है. इस दिन पर व्रत उपवास एवं अन्य प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों को किया जाता है. श्री गणेश जी का पूजन किया जाता है. गणेश चतुर्थी का समय पंचांग अनुसार चतुर्थी तिथि के दिन पर किया जाता है. चतुर्थी थिति प्रत्येक माह में दो बार आती है. एक बार यह तिथि कृष्ण पक्ष में आती है तो दूसरी शुक्ल पक्ष के दौरान आती है. इन दोनों तिथियों के अनुसार विनायक और संकष्टी चतुर्थी का पर्व मनाया जाता है. 

शुक्ल पक्ष के समय आने वाली चतुर्थी के दिन विनायक चतुर्थी पर्व को मनाते हैं और कृष्ण पक्ष में आने वाली तिथि पर संकष्टी गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जाता है. गणेश जी को हाथी के सिर वाले भगवान के रूप में भी पूजा जाता है. कुछ भी नया शुरू करने से पहले, लोग हमेशा सबसे पहले उनकी पूजा करते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि वह ज्ञान, स्थिरता और समृद्धि के देवता हैं. और विग्नों को दूर कर देने वाले हैं गणों के नायक हैं तथा सिद्धियों को प्रदान करने वाले देव हैं.

गणेश चतुर्थी कथा एवं मान्यता 

भगवान गणेश के जन्मोत्सव को ‘गणेश चतुर्थी’ के नाम से जाना जाता है. भगवान गणेश हिंदू धर्म में प्रमुख देवताओं में से एक हैं और भारत में लगभग हर हिंदू परिवार और दुनिया के अन्य हिस्सों में रहने वाले हिंदुओं द्वारा उनकी पूजा की जाती है. भगवान गणेश ऐसे देवता हैं जो ज्ञान प्रदान करते हैं, बुराइयों से बचाते हैं, अपने भक्तों के जीवन को सकारात्मकता और खुशियों से भर देते हैं और अपने भक्तों के जीवन से सभी बाधाओं को दूर करते हैं. भगवान गणेश ऐसे भगवान हैं जो किसी भी अन्य भगवान से प्रथम पूजनीय हैं. इसी संदर्भ में जीवन में कोई नया उद्यम या एक नई यात्रा शुरू करने से पहले, भगवान गणेश की पूजा की जाती है. इस प्रकार भगवान गणेश का जन्म सभी हिंदुओं द्वारा अत्यधिक उत्साह, खुशी और भक्ति के साथ मनाया जाता है.

गणेश चतुर्थी कथा एवं शास्त्र उल्लेख 

गणेश चतुर्थी को विनायक एवं संकष्टी चतुर्थी नाम से भी जाना जाता है, सबसे प्रसिद्ध त्योहारों में से एक है जो प्रिय भगवान, भगवान गणेश के सम्मान में मनाया जाता है. गणेश चतुर्थी के संदर्भ में अनेक किंवदंतियाँ लोकप्रिय रही हैं जो गणेश चतुर्थी उत्सव के महत्व एवं इस दिन को मनाने के विषय में महत्वपूर्ण बातें बताती है. धर्मग्रंथों के अनुसार, भगवान गणेश के जन्म और उनकी दिव्यता की कहानी बहुत विशेष है. शास्त्रों के अनुसार एक बार ऐसा हुआ कि माता पार्वती स्नान करने में व्यस्त थीं और वह नहीं चाहती थीं कि उन्हें कोई परेशान करे, इसलिए उन्होंने अपने शरीर पर लगाए गए हल्दी के लेप से मानव रूप में एक बालक को निर्मित किया और उस देह में जान डाल दी और उसे घर के द्वार की रक्षा करने के लिए कहा. 

देवी ने निर्देश दिया कि वह किसी को भी दरवाजे से गुजरने न दे. कुछ देर में भगवान शिव निवास पर आते हैं और देखा कि एक अज्ञात बालक द्वार पर इधर-उधर चक्कर लगा रहा है. जैसे ही भगवान शिव ने प्रवेश करने का प्रयास किया, बालक ने उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया. शिव ने बालक को सूचित किया कि वह स्थान उनका है, लेकिन बालक अपनी जिद पर अड़ा रहा. उसने भगवान शिव का मार्ग अवरुद्ध कर दिया और भगवान को द्वार से गुजरने नहीं दिया. बालक के दंभ और जिद को देखते हुए क्रोधित होकर, भगवान ने उसका सिर काट दिया, यह जानने के बाद माता पार्वती क्रोधित हो गईं, उनका क्रोध, दुख और भावनाएं उमड़ पड़ीं, वह इतनी क्रोधित थीं कि हर रचना को नष्ट करने के लिए आगे बढ़ने लगीं. यह देखने पर, भगवान ने उनका क्रोध शांत करने का उपाय पूछा जिस पर पार्वती ने उत्तर दिया कि इस ब्रह्मांड में पूरी सृष्टि को उनके क्रोध से तभी बचाया जा सकता है, जब बालक को पुन: जीवित किया जाए. 

भगवान शिव ने अपने गणों को छोटे बालक के सिर की तलाश में जाने का आदेश दिया और जो प्रथम वस्तु उन्हें दिखाई दे उसी का सिर वह लेकर आएं. गण सिर खोजने में चल पड़े उत्तर दिशा की ओर बढ़ते हुए गण एक विशाल हाथी का सिर लेकर लौट आये. भगवान ब्रह्मा ने बच्चे के शरीर पर इस विशाल गजानन के चेहरे को जोड़ दिया और इस प्रकार भगवान गणेश अस्तित्व में आए.इस तरह भगवान के जन्मोत्सव से गणेश उत्सव की शुरुआत हुई जिसे गणेश चतुर्थी के रुप में मनाया जाता है. 

मलमास में गणेश चतुर्थी पूजा महत्व 

मलमास का समय एक विशेष समय होता है यह काल गणना के क्रम पर असर डालता है. इस समय पर किया जाने वाला पूजन इसी कारण बहुत विशिष्ट होता है. इस समय किया जाने वाला पूजन व्यक्ति को सकारात्मक ऊर्जाओं से भर देने वाला होता है. इस समय पर गणेश पूजन के साथ श्री हरि का पूजन करना उत्तम माना गया है. गणेश चतुर्थी पूजा घर को सात्विक ऊर्जा से भर देने वाला समय होता है. सभी नकारात्मक ऊर्जाओं को दूर कर देने वाला समय होता है. इस समय पूरा वातावरण दिव्य ऊर्जाओं से भर जाता है. गणेश मंत्रों का जाप, गणेश आरती द्वारा इस पर्व को मनाया जाता है. 

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अधिकमास दुर्गाष्टमी, दुर्गा पूजन का विशेष समय

हिंदू वैदिक कैलेंडर के अनुसार, हर महीने शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दौरान मासिक दुर्गाष्टमी का व्रत रखा जाता है. लेकिन अधिक मास के समय आने वाली मासिक दुर्गाष्टमी सभी से खास होती है. अधिकमास में दुर्गा अष्टमी के शुभ दिन पर देवी दुर्गा के भक्त उनकी पूजा करते हैं और दिन भर उपवास रखते हैं. अधिकमास महाष्टमी के रुप में जानी जाती है. यह सबसे महत्वपूर्ण दुर्गाष्टमी है जो नवरात्रों की अष्टमी के जैसा फल प्रदान करती है. इस अष्टमी का महत्व इस कारण से भी बढ़ जाता है क्योंकि यह हर साल नहीं आती है. अधिकमास जब आता है तब मासिक दुर्गाष्टमी को अधिकमास दुर्गा अष्टमी के नाम से भी जाना जाता है. 

अधिक मास दुर्गाष्टमी के दिन किया जाने वाला पूजन भक्तों को सुख एवं समृद्धि दिलाता है. यह समय विजय एवं शक्ति की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ होता है. नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्ति प्राप्त होती है. जीवन में शुभ फलों का आगमन होता है. ग्रह दशाओं की शुभता के लिए भी यह दिन अत्यंत उत्तम होता है. इस दिन देवी का पूजन करने से ग्रह दोष शांत होते हैम. 

अधिक मास दुर्गाष्टमी पूजा विधि 

अधिक मास अष्टमी पूजा एवं व्रत को करने वाले व्यक्ति को सुबह जल्दी उठना चाहिए. नित्यकर्म निपटाने के बाद घर को साफ-सुथरा कर शुद्ध कर लेना चाहिए. इस दिन सामान्यतः खीर, चूरमा, दाल, हलवा आदि बनाया जाता है. इसके बाद व्रत का संकल्प लिया जाता है. घर के एक कोने में देवी और कुलदेवता की तस्वीर लगानी चाहिए. पूजा स्थल के दोनों ओर सिन्दूर से यम और त्रिशूल का चित्र बनाया जाता है. पूजा में कलश स्थापित करते हैं. कलश के चारों ओर मौली बांधी जाती है और स्वस्तिक बनाया जाता है. पूजा पूर्व दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए. पूजा करने वाले व्यक्ति का मुख दक्षिण दिशा की ओर नहीं होना चाहिए. पूजा में घी का दीपक जलाना चाहिए. हाथ में जल, चावल, फूल और पैसे लेकर अष्टमी पूजा व्रत का संकल्प लिया जाता है. इसके बाद भगवान गणेश को स्मरण करते हुए पूजन आरंभ होता है. 

पूजा में देवी को अर्ध्य, मोली और वस्त्र अर्पित किये जाते हैं. रोली और चावल से तिलक लगाया जाता है. पूजा में फूल और अगरबत्ती का प्रयोग किया जाता है. अष्टमी भोग बनाने के लिए कई तरह की चीजों का उपयोग किया जाता है. पूजा के बाद भोग लगाया जाता है. देवी को सुपारी चढ़ाई जाती है. देवी को लौंग और इलायची भी भेंट की जाती है. इस प्रकार पूजा करते हुए कन्याओं को मीठा खिलाया जाता है.  व्रत के दौरान व्यक्ति को साफ जगह पर सोना चाहिए और खुद को साफ-सुथरा रखना चाहिए. शाम के समय दीपक जलाना चाहिए और व्रत कथा पढ़नी चाहिए.

अधिकमास दुर्गाष्टमी महत्व 

देवी दुर्गा दिव्य शक्ति एवं प्रकृति हैं और वह सभी सृजन, संरक्षण और विनाश का आधार हैं.  दुर्गा या देवी दुर्गा का अवतरण राक्षस महिषासुर को हराने के लिए भगवान शिव, भगवान विष्णु और भगवान ब्रह्मा समेत देवताओं नें मिलकर किया था. संस्कृत में दुर्गा नाम का अर्थ अजेय है. उनकी पूजा सफलता, साहस और समृद्धि के लिए की जाती है और यह शक्ति, नैतिकता और सुरक्षा का प्रतीक है देवी दुर्गा सदाचार की रक्षा करने वाली और पाप का नाश करने वाली हैं. उन्हें ब्रह्मांड की माता के रूप में जाना जाता है, जिसमें भक्तों को सभी प्रकार की विनाशकारी शक्तियों से बचाने की अनंत शक्ति है. माँ दुर्गा को सती, गौरी, अम्बा, अम्बिका, पार्वती, शक्ति, भवानी, भद्रकाली और कालिका के नाम से भी जाना जाता है. वह महामाया का प्रतीक है जहां महा का अर्थ है महान और माया का अर्थ है भ्रम.

मासिक दुर्गा अष्टमी के त्योहार का हिंदुओं में बहुत महत्व है. हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, सभी राक्षसों का वध करने के बाद मां कालरात्रि देवी दुर्गा के सामान्य रूप में प्रकट हुईं और सभी देवताओं ने देवी दुर्गा की पूजा की. माँ दुर्गा को ब्रह्मांड की माता और वह शक्ति के रूप में जाना जाता है जो ब्रह्मांड के निर्माण और विनाश दोनों में निहित हैं. देवी दुर्गा की दस भुजाएँ हैं, जो भक्तों की रक्षा के लिए विभिन्न प्रकार के हथियार रखती हैं. दुर्गा अष्टमी का दिन महिषासुर, चंड मुंड, शुंभ निशुंभ और रक्तबीज नामक राक्षसों पर देवी दुर्गा की जीत के रूप में मनाया जाता है.भक्त देवी की पूजा करते हैं, और उन्हें समृद्धि, खुशी, धन और स्वास्थ्य का आशीर्वाद मिलता है. 

अधिकमास दुर्गा अष्टमी पूजन लाभ 

अधिकमास में आने वाली मासिक दुर्गा अष्टमी को लेकर की जाने वाली पूजा का विशेष महत्व बताया गया है. इस समय पर संधि पूजा का महत्व भी होता है. ऐसा माना जाता है कि तंत्र साधना में विश्वास रखने वालों के लिए यह पूजा बहुत फलदायी होती है. जिस मनोकामना को ध्यान में रखकर यह पूजा की जाती है उसका फल शीघ्र प्राप्त होता है.देवी को वस्त्र, अन्य वस्तुएं आदि अर्पित की जाती हैं जिनमें चूड़ियाँ, आभूषण, धोती, काजल, बिंदी आदि शामिल हैं और, विवाहित महिलाओं द्वारा उपयोग किए जाने वाले अन्य आभूषण भी देवी को अर्पित किए जाने चाहिए. प्रतिदिन परिवार के सदस्यों को आरती में भाग लेना चाहिए. इस समय पर दुर्गा सप्तशती पाठ का करना चाहिए. और अष्टमी के दिन माता को भोग लगाना चाहिए. अगले दिन व्रत का पारण करना चाहिए. 

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अधिकमास की पद्मिनी एकादशी व्रत देता है विशेष फल

अधिक मास के दौरान आने वाली एकादशी पदमनी एकादशी के रुप में जानी जाती है. इस एकादशी का समय को सभी प्रकार के शुभ लाभ प्रदान करने वाली एकादशी माना गया है. इस  एकदशी के विषय में एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि मुझे पद्मिनी मास की एकादशियों का फल बताएं, भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि एकदशी पापों का नाश करने वाली और सभी मानवीय इच्छाओं को पूरा करने वाली है. है

पद्मिनी एकादशी पूजा विधि 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पद्मिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु को तुलसी एवं तिल का भोग लगाना शुभ माना जाता है. एकादशी तिथि भगवान विष्णु के भक्तों के लिए सबसे पवित्र दिनों में से एक है. भक्त इस दिन भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और भगवान को प्रसन्न करने के लिए उपवास रखते हैं. एक चंद्र मास में दो बार एकादशी तिथियां आती हैं जो कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में होती हैं लेकिन इस एकादशी को चंद्र मास की प्राप्ति नहीं होती है इस कारण सभी एकादशियों में यह अलग मानी जाती हैं.

ऐसी ही महत्वपूर्ण एकादशियों में से एक पद्मिनी मलमास में आती है. पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, पद्मिनी एकादशी के शुभ दिन पर भगवान विष्णु के व्रत और पूजा का विशेष धार्मिक महत्व है. इस दिन की पूजा को सैकड़ों वर्षों की तपस्या, दान आदि के बराबर माना जाता है. एकादशी के लिए रात्रि में भोजन न करते हुए, व्यसनों से दूर रहना चाहिए. भगवान के चिंतन में लीन रहकर भगवान का भजन करना चाहिए. अगले दिन सुबह दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर एकादशी व्रत का संकल्प करना चाहिए. 

सुबह स्नान करने के बाद हाथ में जल लें और निर्जला एकादशी व्रत और पूजा का संकल्प लेना चाहिए. इसके बाद पूजा स्थान पर भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करनी चाहिए. अब भगवान विष्णु का पंचामृत से अभिषेक करना चाहिए. फिर उन्हें पीले फूल, अक्षत, चंदन, हल्दी, पान का पत्ता, सुपारी, चीनी, फल, धूप, दीप, गंध, वस्त्र आदि चढ़ानी चाहिए. इस दौरान “भगवते वासुदेवाय नम: मंत्र का जाप करना चाहिए.

पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, पद्मिनी एकादशी के शुभ दिन पर भगवान विष्णु के व्रत और पूजा का विशेष धार्मिक महत्व है. इस दिन की पूजा को सैकड़ों वर्षों की तपस्या, दान आदि के बराबर माना जाता है.

कथा इस प्रकार है अवंतीपुरी में शिवशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था. उनके पांच बेटे थे जिनमें से सबसे छोटा बेटा अपनी व्यसनों के कारण पाप करने लगा और उसके पिता और परिवार ने उसे त्याग दिया. अपने बुरे कर्मों के कारण निर्वासित होकर वह भटकता रहा. भूख से व्याकुल होकर वह त्रिवेणी में स्नान करके भोजन की तलाश में लग जाता है. मलमास में आश्रम में बहुत से लोग, साधु-महात्मा एकत्रित होकर एकादशी की कथा सुनते हैं. ब्राह्मण ने आश्रम में सबके साथ मिलकर पद्मिनी एकादशी की कथा सुनकर विधिपूर्वक व्रत का पारण किया. तब उसे इस व्रत से पापों का नाश होता है और पुण्य की प्राप्ति होती है, इसलिए एकादशी महात्म्य का एक या आधा श्लोक भी पढ़ने से लाखों पापों से मुक्ति मिल जाती है. इस कारण से यह एकादशी बेहद विषेश होती है. 

पद्मिनी एकादशी महात्म्य

जो लोग सदैव भक्तिपूर्वक भगवान पुरुषोत्तम का नाम जपते हैं, जो श्री नारायण हरि की पूजा में लगे रहते हैं, वे कलियुग में धन्य हैं. ऐसा कहकर देवी लक्ष्मी उस ब्राह्मण को वरदान देती हैं. तब वह ब्राह्मण भी भगवान श्री विष्णु की भक्ति में लीन हो जाता है और अपने पापों से विमुख होकर एक सम्मानित और धनवान व्यक्ति बनकर अपने घर की ओर चला जाता है.च्वह ब्राह्मण जो अपने पिता के घर में सभी सुखों को प्राप्त करता है, अंततः भगवान विष्णु के लोक को प्राप्त होता है. इस प्रकार जो भक्त पद्मिनी एकादशी का उत्तम व्रत करता है और इसके माहात्म्य को सुनता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और धर्म-अर्थ-काम मोक्ष के चार पुरुषार्थों को प्राप्त करता है.

पद्मिनी एकादशी पूजा नियम 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पद्मिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु को तिल का भोग लगाना शुभ माना जाता है. इस दिन भक्तों को भगवान विष्णु को तिल से बनी मिठाई का भोग लगाना चाहिए. इस दिन स्नान और दान करना बहुत महत्वपूर्ण होता है. इस दिन पूजा करने वालों को पद्मिनी एकादशी से संबंधित व्रत कथा पढ़नी या सुननी चाहिए. 

भगवान को प्रसन्न करने के लिए हवन कर सकते हैं. पद्मिनी एकादशी और सभी एकादशियों पर भगवान विष्णु की पूजा करते समय तुलसी दल या तुलसी का पत्ता चढ़ाना नहीं भूलना चाहिए. ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु की कोई भी पूजा तुलसी के बिना अधूरी मानी जाती है. एकादशी के दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ देवी लक्ष्मी की भी पूजा करनी चाहिए.

एकादशी के दिन भक्तों को तिल से बने खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए. अगर आप पद्मिनी एकादशी का व्रत नहीं भी रख रहे हैं तो भी इस दिन चावल और बैंगन का सेवन नहीं करना चाहिए. पद्मिनी एकादशी के दिन घर में मांसाहारी या तामसिक भोजन नही खाना चाहिए.  साथ ही खाना पकाने में लहसुन-प्याज का इस्तेमाल नही करना चाहिए. 

एकादशी व्रत अनुष्ठान 

इस एकादशियों की प्रथा अन्य एकादशियों से काफी भिन्न होती है. इस दिन पूर्ण व्रत रखा जाता है.  इस व्रत की अवधि लगभग 24 घंटे की होती है. यह एकादशी के सूर्योदय से प्रारंभ होकर अगले दिन के सूर्योदय तक रहता है. एकादशी की तैयारी एकादशी से एक दिन पहले यानी की शुरू हो जाती है. दशमी के दिन. भक्त शाम की प्रार्थना करते हैं और बिना चावल के भोजन करते हैं. आप ध्यान दें कि इस भोजन में चावल वर्जित होते हैं. अन्य एकादशियों की तरह, भगवान विष्णु की प्रार्थना की जाती है जिनके लिए एकादशी पवित्र है. एकादशी के अवसर पर, भक्त अनाज, कपड़े, जल आदि का दान भी करते हैं. एकादशी का उल्लेख मार्कण्डेय पुराण और विष्णु पुराण में भी मिलता है. कहा जाता है कि जो लोग इस दिन व्रत रखते हैं उन्हें भगवान विष्णु का आशीर्वाद मिलता है.

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गुरु प्रदोष व्रत : सभी प्रकार के दोषों से मुक्ति प्रदान करता है गुरु प्रदोष व्रत

बृहस्पतिवार के दिन आने वाला प्रदोष व्रत गुरु प्रदोष व्रत के रुप में जाना जाता है. प्रत्येक माह आने वाला प्रदोष व्रत भगवान शिव की पूजा का समय होता है. प्रदोष व्रत का फल जीवन को समस्त प्रकार के दोषों से मुक्त करने हेतु तथा सुखमय जीवन को प्रदान करने वाला होता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गुरु प्रदोष त्रयोदशी व्रत करने वाले को सहस्त्रों गाय दान करने के बराबर पुण्य मिलता है.

प्रदोष व्रत 2024
18 जुलाई, 2024, बृहस्पतिवार
गुरु प्रदोष व्रत
08:44 पी एम से 09:23 पी एम

01 अगस्त, 2024, बृहस्पतिवार
गुरु प्रदोष व्रत
07:12 पी एम से 09:18 पी एम

28 नवम्बर, 2024, बृहस्पतिवार
गुरु प्रदोष व्रत
05:24 पी एम से 08:06 पी एम

गुरु प्रदोष व्रत का लाभ कई रुपों में भक्तों को प्राप्त होता है. इसका असर गुरु के किसी भी प्रकार के दोष को भी समाप्त करता है. यदि कुंडली में गुरु दोष प्रभाव है तो गुरु प्रदोष पूजा विशेष लाभदायक बनती है. साथ ही यह सभी प्रकार के कष्टों और पापों का नाश करने वाली है. वहीं जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस व्रत की कथा पढ़ता और सुनता है, उसे वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है.  

कब रखा जाता है गुरु प्रदोष व्रत 

प्रशोह व्रत जिस दिन पड़ता है उसी अनुसर उसे नाम प्राप्त होता है. यदि यह बृहस्पतिवार के दिन आता है तो उस दिन के नाम अनुसार इसे गुरु प्रदोष व्रत या गुरु प्रदोषम व्रत के रुप में जाना जाता है. त्रयोदशी तिथि के सायंकाल के समय को प्रदोष काल कहा जाता है. धार्मिक ग्रंथों मेम् प्रदोष व्रत को शुभ माना गया है. भक्त बड़े उत्साह के साथ यह व्रत त्योहार के रुप में मनाते हैं. माना जाता है कि ऐसा करने से भगवान शिव का आशीर्वाद मिलता है. जब यह व्रत गुरुवार के दिन पड़ता है तो इसे गुरु प्रदोष कहा जाता है. मान्यता है कि गुरु प्रदोष त्रयोदशी व्रत करने वाले को भोलेनाथ का आशीष प्राप्त होता है, पुण्य मिलता है.

साथ ही यह सभी प्रकार के कष्टों और पापों का नाश करने वाली है. वहीं जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस व्रत की कथा पढ़ता और सुनता है, उसे वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है.  पंचांग के अनुसार प्रदोष काल यानी शाम 7.00 बजे से 9.20 बजे के बीच भगवान शिव की पूजा करने से विशेष लाभ मिलता है. इसके साथ ही इस दिन पूजन पूरी रात रहता है. ज्योतिष शास्त्र में इन दोनों संयोगों को धार्मिक कार्यों के लिए बेहद शुभ माना गया है.

गुरु प्रदोष व्रत मंत्र 

गुरु प्रदोष व्रत के दौरान गुरु मंत्र एवं गुरु स्त्रोत का पाठ करना चाहिए. गुरु मंत्रों में गुरु गायत्री मंत्र का पाठ करने के साथ साथ गुरु स्त्रोत करना उत्तम प्रभाव दायक होता है. 

ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्माय धीमहि ।

  तन्नो गुरुः प्रचोदयात ॥​​ गुरु गायत्री मन्त्र द्वारा देवगुरु बृहस्पति की उपासना और ध्यान करने से बृहस्पति देव अति प्रसन्न होते है। बृहस्पति देव के आशीर्वाद से स …

गुरु स्तोत्र 

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 1 ॥

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 2 ॥

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परम्ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 3 ॥

स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं यत्किञ्चित्सचराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 4 ॥

चिन्मयं व्यापियत्सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 5 ॥

सर्वश्रुति शिरोरत्नः विराजित पदाम्बुजः। वेदान्ताम्बुज सूर्योयस्तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 6 ॥

चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरंजनं। नादबिंदु कलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 7 ॥

ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः । भुक्ति मुक्ति प्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 8 ॥

अनेकजन्म सम्प्राप्त कर्मबन्धविदाहिने । आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 9 ॥

शोषणं भवसिन्धोश्च ज्ञापनं  सार सम्पदः । गुरोः पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 10 ॥

न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः । न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 11 ॥

मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः । मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 12 ॥

गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम् । गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 13 ॥

यत्सत्येन जगत्सर्वं यत्प्रकाशेन भ्रान्तियत। यदानन्देन नंदैन्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 14 ॥

नित्यशुद्धं निराभासं निराकारं निरंजनं। नित्यबोधं चिदानन्दम गुरुर्ब्रह्मानमाम्यहम ॥ 15 ॥

ध्यानमूलं गुरोमूर्ति पूजा मूलं गुरोरपदं। मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोर्कृपा ॥ 16 ॥

नमामि श्रीगुरुपादपल्लवम्। स्मरामि श्रीगुरुनाम निर्मलम्। 

पश्यामि श्रीगुरु रूप सुन्दरम्। श्रृणोमि श्रीगुरु कीर्ति अद्भुतम् ॥ 17 ॥

गुरु प्रदोष व्रत कथा

प्रदोष व्रत हर महीने में दो बार मनाया जाता है. यह व्रत शुक्ल और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को रखा जाता है. जब यह व्रत गुरुवार के दिन पड़ता है तो इसे गुरु प्रदोष व्रत कहा जाता है. प्रदोष व्रत की पूजा के बाद इसकी कथा को सुनना एवं पढ़ना आवश्यक होता है. आइए जानते हैं गुरु प्रदोष व्रत की कथा. गुरु प्रदोष व्रत अत्यंत शुभ एवं मंगलकारी माना जाता है.

गुरु प्रदोष कथा इस प्रकार है कि एक बार इंद्र और वृत्रासुर के बीच भयंकर युद्ध हुआ. उस समय देवताओं ने राक्षसी सेना को परास्त कर नष्ट कर दिया. अपनी सेना का विनाश देखकर राक्षस वृत्रासुर बहुत क्रोधित हुआ और स्वयं युद्ध के लिए तैयार हो गया. मायावी असुर ने आसुरी माया से भयंकर विकराल रूप धारण कर लिया. उसके रूप को देखकर इंद्रादि देवताओं ने बृहस्पतिजी का आह्वान किया, गुरु ने कहा- हे देवेन्द्र! वृत्रासुर महान तपस्वी है, उसने घोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया था. पूर्वकाल में यह चित्ररथ नाम का राजा था, सुरम्य वन ही उसका राज्य था, उस वन में ऋषि-महात्मा रमण करते थे.

यह भगवान के दर्शन की अनुपम भूमि है. एक बार चित्ररथ स्वेच्छा से कैलाश पर्वत पर गये. भगवान के स्वरूप और वाम भाग में विराजमान जगदम्बा को देखकर चित्ररथ हँसे और हाथ जोड़कर शिव शंकर से बोले- हे प्रभु! हम लोग माया से मोहित हो जाते हैं और विषयों में फंसने के कारण स्त्री के वश में रहते हैं, परंतु देवताओं के लोक में ऐसा कहीं नहीं देखा गया कि कोई स्त्री के साथ सभा में बैठा हो. चित्ररथ के ऐसे वचन सुनकर देवी पार्वती क्रोधित हो गईं और चित्ररथ की ओर देखकर बोलीं- हे दुष्ट, तूने सर्वव्यापी महेश्वर के साथ-साथ मेरी भी हंसी उड़ाई, तुझे अपने कर्मों का फल भोगना होगा.

तुम राक्षस रूप धारण करके विमान से नीचे गिर जाओ, मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम अब पृथ्वी पर चले जाओ. जब जगदम्बा भवानी ने चित्ररथ को श्राप दिया तो वह तत्काल विमान से गिर पड़ा और राक्षस योनि धारण कर महासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ. तवष्टा नामक ऋषि ने घोर तपस्या से उसे उत्पन्न किया और अब वही वृत्रासुर शिव की भक्ति में ब्रह्मचारी रहा. इसलिए तुम उसे जीत नहीं सकते इसलिए मेरी सलाह से तुम यह गुरु प्रदोष व्रत करो ताकि तुम उस शक्तिशाली राक्षस पर विजय पा सको. गुरुदेव के वचन सुनकर सभी देवता प्रसन्न हुए और गुरुवार के दिन त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत विधि-विधान से किया. जिससे वृत्रासुर की पराजय हुई और देवता तथा मनुष्य प्रसन्न हुए.   

गुरु प्रदोष व्रत महत्व

हिंदू धर्म में प्रदोष व्रत का विशेष महत्व माना गया है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस व्रत को करने से भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं और साधक की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं. इस खास दिन पर भगवान शिव के साथ माता पार्वती की पूजा का भी विधान है. मान्यता है कि ऐसा करने से दांपत्य जीवन में सुख-समृद्धि आती है और परिवार में दुखों का नाश होता है. इसके साथ ही प्रदोष व्रत करने से कई प्रकार के ग्रह दोषों से भी मुक्ति मिलती है.

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अशून्य शयन व्रत, जानें पूजा विधि और महत्व 2024

शास्त्रों के अनुसार, चतुर्मास के दौरान भगवान विष्णु शयन करते हैं और इस अशून्य शयन व्रत के माध्यम से शयन उत्सव मनाया जाता है. यह व्रत भगवान शिव के पूजन का भी समय होता है, इस कारण से इस समय पर भगवान श्री विष्णु एवं भगवान भोलेनाथ दोनों का ही संयुक्त रुप से भक्तों को आशीर्वाद प्राप्त होता है. इस पर्व को शयन उत्सव के रुप में मनाया जाता है. दांपत्य गृहस्थ जीवन के सुख के लिए इस व्रत की महिमा बहुत ही विशेष रही है.यह व्रत चतुर्मास के चार महीनों के दौरान प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है. इस व्रत को करने से पति-पत्नी का साथ जीवनभर बना रहता है और रिश्ता मजबूत होता है. प्रेम और दांपत्य जीवन के सुख का विशेष लाभ प्रदान करता है यह व्रत. 

यह व्रत दांपत्य जीवन में सौभाग्य को प्रदान करता है. अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिए तथा उसके साथ सुख पूर्ण जीवन के लिए इस व्रत को किया जाता है. शास्त्रों के अनुसार पति-पत्नी के रिश्ते को बेहतर बनाने के लिए अशून्य शयन द्वितीया का यह व्रत बहुत महत्वपूर्ण है. इस व्रत को पुरूषों द्वारा करने का विधान बेहद विशेष है. जिस प्रकार स्त्रियों के लिए अनेकों व्रत हैं सुखी वैवाहिक जीवन की कामना हेतु उसी प्रकार इस व्रत को पुरुषों के द्वारा करने पर सुखी वैवाहिक जीवन का सौभाग्य प्राप्त होने का उल्लेख भी प्राप्त होता है.

अशून्य शयन व्रत पूजन 

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, अशून्य शयन व्रत द्वितीया तिथि को चंद्रोदय के समय चंद्रमा को अर्घ्य देकर किया जाता है. रात्रि में चंद्रमा के पूजन के साथ इसको पूर्ण करेंगे. इस व्रत में लक्ष्मी और श्री हरि विष्णु जी की पूजा करने का विधान है. शास्त्रों के अनुसार, चतुर्मास के दौरान भगवान विष्णु शयन करते हैं और इस अशून्य शयन व्रत के माध्यम से शयन उत्सव मनाया जाता है.  

अशून्य शयन व्रत में शाम को चंद्रोदय होने पर चंद्रमा को अक्षत, कुमकुम, दही, दूध, फल एवं मिष्ठान इत्यादि से अर्घ्य दिया जाता है और अर्घ्य देने के बाद व्रत का पारण किया जाता है. व्रत के अगले दिन ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है तथा उन्हें कुछ उपहार एवं दक्षिणा देकर इस व्रत को संपन्न किया जाता है. व्रत में किए जाने वाले नियमों का पालन करते हुए वैवाहिक जीवन में प्रेम और मधुरता बनी रहती है.

दांपत्य जीवन के लिए लाभदायक 

अगर व्यक्ति अपने वैवाहिक जीवन को मजबूत बनाना चाहता है तो इस दिन अशून्यशयन व्रत को अवश्य धारण करे. सुखी परिवार एवं संतान सुख हेतु यह व्रत अत्यंत ही शुभ होता है. इस दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद शिव एवं विष्णु पूजन करना चाहिए. इस दिन भगवान को चंदन एवं केसर से तिलक करना शुभ होता है. मां लक्ष्मी और विष्णु जी को तिलक अवश्य करना चाहिए. अपने मनोकूल जीवनसाथी पाने की कना हेतु अथवा अपने प्राप्त जीवन  के साथ सुखमय जीवन की अभिलाषा की पूर्ति हेतु इस दिन दान एवं अशून्यशयन व्रत का अनुष्ठान अत्यंत ही कारगर कार्य होते हैं. शून्य शयन व्रत के दौरान भगवान शिव एवं माता पार्वती का पूजन भी करना चाहिए ऎसा करने से दांपत्य जीवन में शुभता बनी रहती है. 

यह व्रत पुरुष अपनी पत्नी की लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य के लिए करते हैं.  ‘अशून्य शयन व्रत’ को पांच महीनों सावन माह, भाद्रपद माह, आश्विन माह, कार्तिक माह और अगहन माह में किया जाता है.इस व्रत में लक्ष्मी और श्रीहरि यानी विष्णु जी की पूजा का विधान है. दरअसल, शास्त्रों के अनुसार चतुर्मास के दौरान भगवान विष्णु शयन करते हैं और इस अशून्य शयन व्रत के माध्यम से शयन उत्सव मनाया जाता है. ऐसा कहा जाता है कि जो कोई भी इस व्रत को रखता है, उसके वैवाहिक जीवन में कभी दूरी नहीं आती है. साथ ही परिवार में सुख, शांति और सद्भाव बना रहता है. अत: गृहस्थ पति को यह व्रत अवश्य करना चाहिए. 

अशून्य शयन व्रत पूजन महत्व

यह व्रत श्रावण मास से शुरू होकर चतुर्मास के चार महीनों के दौरान प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया और भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है, इस व्रत का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से किया है. अशुन्य शयन का अर्थ है बिस्तर पर अकेले न सोना. जिस तरह महिलाएं अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ का व्रत रखती हैं, उसी तरह पुरुष भी अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिए यह व्रत रखते हैं, अशुन्य शयन द्वितीया का यह व्रत पति-पत्नी के रिश्ते को बेहतर बनाने के लिए है.इस व्रत में लक्ष्मी और श्री हरि यानी विष्णु जी की पूजा का विधान है. 

मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि जो भी व्यक्ति इस व्रत को करता है उसके वैवाहिक जीवन में कभी दूरियां नहीं आती और परिवार में सुख, शांति और सद्भाव बना रहता है. वैसे तो यह पुरुषों के लिए ही कहा गया है, लेकिन अगर पति-पत्नी दोनों एक साथ व्रत करें तो और भी अच्छा है. सुबह जल्दी उठना चाहिए और अपने सभी दैनिक कार्य निपटा लेने के पश्चात पूजन की तैयारियां आरंभ करनी चाहिए. साफ कपड़े धारण करने चाहिए  पहनें, पूजा घर को साफ और शुद्ध करें, लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु की शय्या की पूजा करें. भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए. जिस प्रकार आपका विश्राम शैय्या लक्ष्मी जी से कभी खाली नहीं होता, उसी प्रकार मेरी शैय्या भी मेरी पत्नी से खाली नहीं होनी चाहिए, मुझे अपने साथी से कभी अलग नहीं होना चाहिए.

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अधिक मास सावन शिवरात्रि ।Adhik Maas Shivratri

सावन माह की शिवरात्रि को सावन शिवरात्रि के रुप में जाना जाता है. श्रावण माह के दौरान आने वाली शिवरात्रि के दिन ही भगवान शिव के अभिषेक से संबंधित कार्य संपन्न होते है. इस साल सावन माह में अधिकमास शिवरात्रि का समय भी होगा, लेकिन आने वाली शुद्ध श्रावण शिवरात्रि पर ही अभिषेक से संबंधित प्रथाएं संपूर्ण होंगी. इस समय पर अधिक मास शिवरात्रि का समय 14 अगस्त को होगा. 

हर साल सावन माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दौरान शिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है. पर इस बार 2023 में सावन में अधिक मास शिवरात्रि का समय भी होगा. अधिक मास शिवरात्रि का प्राचीन शास्त्रों में विशेष महत्व है. ऐसा माना जाता है कि शिवरात्रि के समय पर भगवान शिव इस दिन पृथ्वी पर ज्योर्तिलिंग के रूप में दिखाई दिए. अब इस समय अधिक मास में शिवरात्रि का होना यह श्री विष्णु पूजन के लिए महत्वपूर्ण होगा क्योंकि अधिक मास के समय को श्री विष्णु का स्वामित्व प्राप्त है, ऎसे में शिव के प्रिय मास में अधिक मास होने से यह समय श्री विष्णु पूजन के लिए भी महत्व रखेगा. 

अधिक मास शिवरात्रि पूजा   

अधिक मास शिवरात्रि पूजन में शास्त्रों के अनुसार, इस दिन भक्तों को प्रात:काल से ही पूजन आरंभ कर देना चाहिए. दिन के सभी चार चरणों में भगवान शिव के नाम का जाप करते हुए पूजन करना चाहिए. प्रभु की पूजा करने से प्रभु को प्रसन्न किया जाता है और भक्त अपनी सभी इच्छाओं को पूरा करने में सक्षम है. यह उपवास प्रदोष निशिथ काल में देखा जाना चाहिए. एक व्यक्ति जो इस उपवास को व्यवस्थित तरीके से देखने में असमर्थ है, उसे रात या आधी रात की शुरुआत में शिव पुजन करना चाहिए. यदि वह रात्रि पूजन संभव नहीं है तो संध्या को भगवान शिव की पूजा करना शुभ माना जाता है.

महा शिवरात्रि की रात को बहुत शुभ माना जाता है. महा शिवरात्रि की रात में शिव मंत्रों का जाप करना सिद्धि प्रदान करने वाला होता है. इस समय शिव लिंग पूजा फलदायी परिणाम देने वाली होती है. इस दिन पर अधिकमास होने के कारण प्रात:काल समय श्री विष्णु पूजन करना चाहिए तथा भक्तों को भगवान के नामों का जाप करना चाहिए. इस समय शिव एवं विष्णु पूजन करना भक्त की सभी इच्छाओं को पूरा करता है.  

अधिक मास पर राशि अनुसार उपाय 

मेष राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन मेष राशि वालों को भगवान शिव को लाल फूल चढ़ाने और महा मृत्युंजय मंत्र का जाप करने से लाभ हो सकता है. यह भी सुझाव दिया जाता है कि वे अच्छे स्वास्थ्य और सफलता प्राप्त करने के लिए इस दिन उपवास करें.

वृषभ राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन वृषभ राशि वालों को भगवान शिव को सफेद फूल चढ़ाने और रुद्राभिषेक पूजा करने से लाभ हो सकता है. यह भी सुझाव दिया जाता है कि वे अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए ओम नमः शिवाय मंत्र का जाप करें.

मिथुन राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन मिथुन राशि के जातकों को महामृत्युंजय हवन करने और भगवान शिव को हरे फल चढ़ाने से लाभ हो सकता है. यह भी सुझाव दिया जाता है कि वे अच्छे स्वास्थ्य और सफलता के लिए ओम नमः शिवाय मंत्र का जाप करें.

कर्क राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन कर्क राशि के जातकों को भगवान शिव को दूध और सफेद फूल चढ़ाने और महा मृत्युंजय पूजा करने से लाभ हो सकता है. यह भी सुझाव दिया जाता है कि वे अच्छे स्वास्थ्य और सफलता के लिए इस दिन उपवास करें.

सिंह राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन सिंह राशि के जातकों को रुद्राभिषेक पूजा करने और भगवान शिव को लाल फूल चढ़ाने से लाभ हो सकता है. यह भी सुझाव दिया जाता है कि वे अच्छे स्वास्थ्य और सफलता के लिए महा मृत्युंजय मंत्र का जाप करें.

कन्या राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन कन्या राशि के  लोगों को भगवान शिव को दूध और सफेद फूल चढ़ाने और पवित्र रुद्राभिषेक पूजा करने से शुभ लाभ मिलते हैं. इसके अलावा, ऊँ नमः शिवाय मंत्र के जाप के द्वारा जीवन में अच्छे स्वास्थ्य का आशीर्वाद मिलता है. समृद्धि को बढ़ावा मिलता है. 

तुला राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन तुला राशि वालों के लिए, भगवान शिव को नाजुक सफेद फूल चढ़ाने और पवित्र महामृत्युंजय पूजा करने से संभावित लाभ के अवसर पैदा हो सकते हैं. इसके अतिरिक्त, ओम नमः शिवाय मंत्र के जाप की शांत तरंगें संभावित रूप से उनके जीवन में अच्छे स्वास्थ्य और सफलता की लहर ला सकती हैं.

वृश्चिक राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन वृश्चिक व्यक्तियों के लिए, एक शुभ दिन पवित्र रुद्राभिषेक पूजा करने और भगवान शिव को जीवंत लाल फूल चढ़ाने से संभावित लाभ मिल सकता है. इसके अलावा, एक दिन का उपवास उनके जीवन में अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि की संभावना को बढ़ा सकता है.

धनु राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन धनु राशि के तहत पैदा होने वाली साहसी और साहसी आत्माएं संभावित रूप से भगवान शिव को चमकीले पीले फूल चढ़ाकर और महामृत्युंजय पूजा करके आशीर्वाद आमंत्रित कर सकती हैं. सफलता और अच्छे स्वास्थ्य की संभावना को और बढ़ाने के लिए, यह सुझाव दिया जाता है कि वे ओम नमः शिवाय मंत्र का जाप करें – एक शक्तिशाली आह्वान जो उन्हें उनकी आकांक्षाओं की ओर बढ़ने में मदद कर सकता है.

मकर राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन मकर राशि के लोग पवित्र रुद्राभिषेक पूजा करके और भगवान शिव को शांत नीले फूल चढ़ाकर संभावित लाभ प्राप्त कर सकते हैं. इसके अलावा, इस दिन उपवास करना संभावित रूप से उनके जीवन में अच्छे स्वास्थ्य और सफलता को प्रकट करने के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम कर सकता है – जो उनके अनुशासित और दृढ़ स्वभाव का एक प्रमाण है.

कुंभ राशि

अधिक मास शिवरात्रि के दिन कुंभ राशि के व्यक्तियों के लिए, भगवान शिव को शुद्ध सफेद फूल चढ़ाने और महामृत्युंजय पूजा करने से संभावित लाभ का अवसर मिल सकता है. ओम नमः शिवाय मंत्र का जाप उन्हें सीमाओं से मुक्त होने और उनके जीवन में अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि की लहर लाने में मदद करने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में काम कर सकता है.

मीन राशि 

अधिक मास शिवरात्रि के दिन मीन राशि के लोग पवित्र रुद्राभिषेकम पूजा करके और भगवान शिव को चमकीले पीले फूल चढ़ाकर संभावित रूप से लाभ प्राप्त कर सकते हैं. इसके अलावा, इस दिन उपवास करने से उन्हें अपने जीवन में अच्छे स्वास्थ्य और सफलता की संभावना को उजागर करने में मदद मिल सकती है. 

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व्यास पूर्णिमा 2024 : वेदों के निर्माता वेद व्यास के जन्मोत्सव के रुप में मनाई जाती है व्यास पूर्णिमा

व्यास पूर्णिमा का समय वेद व्यास जयंती के रुप में हर साल अषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि पर मनाया जाता है.

इस वर्ष 21 जुलाई 2024 को रविवार के दिन मनाई जाएगी व्यास पूर्णिमा

भारतीय संस्कृति में वेदों का बेहद विशेष स्थान और इन्हीं के रचियता के रुप में वेद व्यास जी को जाना जाता है. कुछ विचारकों के अनुसार वेद व्यास एक परंपरा रही है भारती संस्कृति में तो धर्म शास्त्रों के अनुसार वेद व्यास जी के पिता महर्षि पराशर एवं माता सत्यवती हैं. इनका जन्म जिन परिस्थितियों में हुआ उसी अनुसर इन्हें नाम प्राप्त हुआ कृष्णद्वैपायन वेदव्यास. महाभारत की रचना भी इन्हीं के द्वारा संभव हो पाई और गणेश जी का सहयोग प्राप्त करके महाभारत ग्रंथ संपन्न हो पाया. महर्षि व्यास का संपूर्ण व्यकित्व की बेहद विशाल है जिसमें भारतीय सभ्यता समाहित दिखाई देती है. 

वेद व्यास पूर्णिमा का पौराणिक महत्व 

वेद व्यास जी का स्वरूप हमें किसी भी रूप में मिल सकता है और इस दिन अपने मन में विराजमान व्यास के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने से हमारे सभी दुर्गुण समाप्त होते चले जाते हैं. व्यास पूर्णिमा को व्यास पूजा के रुप में मनाया जाता है. वेद व्यास जी के कार्यों की शृंखला ही भारतीय संस्कृति की गंगा है, जो वैदिक काल से ही बहती चली आ रही है और आज भी निरंतर प्रवाहित होती चली जा रही है. व्यास की स्तुति में ग्रंथों में कई तथ्य प्राप्त होते हैं और पौराणिक रुप से इनका संदर्भ हमें वेदों से प्राप्त होता है. 

व्यास पूर्णिमा कब और क्यों मनाई जाती है?

आषाढ़ माह में पड़ने वाली पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है. यह त्यौहार प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में शामिल है. इस दिन व्यास वेद व्यास का जन्म हुआ था, इसलिए इस दिन को व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. व्यास जी का स्थान वेदों की रचना और महाभारत की रचना से संबंधित रहा है. धर्म ग्रंथों में वेद व्यास जी को सर्वोत्तम स्थान प्राप्त है. इसके वेद व्यास जी के रुप में धर्म को मजबूती मिलती है. इन्हीं के ज्ञान को प्रबुद्ध लोगों ने जन-जन तक पहुंचाया. मनुष्य और शांति और प्रेम के साथ जीवन जीने की बात की. आज भी भारत में व्यास जी की पूजा श्रद्धा और भक्ति से की जाती रही है. व्यास पूर्णिमा के दिन आषाढ़ी पूर्णिमा का व्रत रखा जाता है. इस दिन धार्मिक स्थलों और पवित्र नदियों में स्नान के लिए श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगता है. व्यास पूर्णिमा के दिन सौभाग्य की कामना के लिए कोकिला व्रत भी रखा जाता है.

वेदांत दर्शन के संस्थापक 

इस दिन देशभर के शैक्षणिक संस्थानों, धार्मिक स्थलों पर व्यास पूर्णिमा की एक अलग ही छाप देखने को मिलती है. इस दिन कई तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. व्यास परब्रह्म के समान हैं सर्वोच्च ज्ञान प्रदान करने वाला मार्गदर्शक भी है. व्यास का स्थान सर्वोत्तम है, भारती संस्कृति में वेद व्यास को विशेष महत्व दिया गया है, हिंदू धर्म में व्यास का स्थान इतना पवित्र रहा है कि देवता भी उसके सामने झुके बिना नहीं रह पाते. वेदांत दर्शन और अद्वैतवाद की स्थापना करने वाले संत वेद व्यास ही थे. उनका जन्म संत पराशर के पुत्र के रूप में हुआ था. उनकी पत्नी का नाम आरुणि था, जिसने उनके पुत्र शुकदेव को जन्म दिया. व्यास पूर्णिमा के दिन को वेद व्यास जयंती के रूप में भी मनाया जाता है.वेद व्यास द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में पैदा हुए और उन्होंने वेदों के कई अलग-अलग हिस्से लिखे. ऐसा माना जाता है कि पहले द्वापर युग के दौरान, ब्रह्मा वेद व्यास थे, उसके बाद प्रजापति, शुक्राचार्य, बृहस्पति, इंद्र, धनंजय, सूर्य, मृत्यु, अश्वत्थामा आदि थे. ऐसा माना जाता है कि कुल मिलाकर 28 देवता और अन्य थे जो वेद व्यास थे. वेद व्यास ने भी अठारह पुराण लिखे.

व्यास पूर्णिमा पौराणिक कथा

वेद व्यास के बारे में प्राचीन ग्रंथों में कई अलग-अलग कहानियों का उल्लेख किया गया है. कुछ लोग तो उन्हें भगवान विष्णु का स्वरूप भी मानते हैं. उनकी जन्म कथा के अनुसार उनका जन्म संत पराशर और सत्यवती के पुत्र के रूप में हुआ था. सत्यवती नाव चलाती थी और उसे मछली की गंध आती थी. इसलिए, उन्हें मत्स्यगंधा के नाम से भी जाना जाता था. एक बार, संत पराशर ने यमुना नदी से यात्रा करने के लिए अपनी नाव का उपयोग किया. वह उसकी सुंदरता से मंत्रमुग्ध हो गया और उससे शादी करने के लिए कहा.

सत्यवती ने उत्तर देते हुए कहा कि संत पराशर भगवान ब्रह्मा के पुत्र थे और वह सिर्फ एक साधारण इंसान थीं और इसलिए, सगाई नहीं होगी. संत पराशर ने उससे चिंता न करने को कहा और अंततः सत्यवती ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. संत पराशर ने अपनी शक्ति से धुंध और कोहरा उत्पन्न किया. उन्होंने सत्यवती को आशीर्वाद दिया कि उसके शरीर से मछली की दुर्गंध मीठी सुगंध में बदल जाएगी.

नदी के तट के निकट एक द्वीप पर सत्यवती के घर एक बालक का जन्म हुआ. छोटा बच्चा तुरंत एक युवा लड़के में बदल गया और उसने सत्यवती से कहा कि जब भी वह उसे याद करेगी वह सत्यवती के सामने आ जाएगा. उन्होंने द्वीप छोड़ दिया और अपनी तपस्या करने के लिए चले गये. व्यास जी का रंग पीला था जिसके कारण उन्हें भगवान कृष्ण का स्वरूप माना जाता था. उनका जन्म यमुना नदी के एक द्वीप पर हुआ था और इसलिए, उन्हें द्वैपायन के नाम से भी जाना जाता था. वेदों के लिए विभिन्न ग्रंथ लिखने के कारण उन्हें वेद व्यास के नाम से जाना जाता था.

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अधिक मास 2023: श्रावण अधिक मास

अधिक मास एक विशेष अवधि है जो धार्मिक दृष्टि के साथ-साथ धार्मिक गतिविधियों के लिए भी महत्वपूर्ण है. काल गणना की उचित व्याख्या के लिए इस समयावधि को अपनाया जाता है. जिस प्रकार समय गणना के उचित क्रम के लिए लीप वर्ष का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार हिंदू धर्मग्रंथों ने पंचांग गणना के लिए अधिक मास की अवधारणा को अपनाया है. हर तीन साल में आने वाले इस समय को अधिक मास के नाम से जाना जाता है, जो अपने नाम के अनुरूप माह में बढ़ोत्तरी के अर्थ को दिखाता है. अधिक मास में संक्रांति न होने के कारण इसे मलमास कहा गया. 

साल 2023 में अधिक माह का समय 18 जुलाई से 16 अगस्त तक रहेगा. इस वर्ष अधिक मास का समय श्रावण माह के दौरान रहेगा, जिसके कारण सावन माह को श्रावण अधिक माह के नाम से भी जाना जाएगा. इस समय दो श्रावण पूर्णिमा और दो श्रावण अमावस्या भी मिलेंगी.

अधिक मास श्री विष्णु पूजन का समय 

अधिक मास के समय को विष्णु पूजन के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है. यह जिस भी मह में आता है उस माह के दौरान विष्णु पूजन अवश्य होता है. इस वर्ष सावन माह के दौरान आने पर यह समय जहां शिव पूजा के लिए विशिष्ट होता है उसी के साथ इस समय पर श्री हरि पूजन भी विशेष रहने वाला है. 

यह माह देवताओं, पितरों आदि की पूजा और शुभ कार्यों के लिए उत्तम माना जाता है. जब लोग उनकी निंदा करने लगे. तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा मैं तो इन्हें अपना ही मानता हूं.   

अहमेत यथा लोके प्रथिथा पुरूषोत्तम.

तथयामपि लोकेषु प्रथिथाः पुरूषोत्तमः॥

भागवत पुराण के अनुसार पुरूषोत्तम या मलमास में किए गए सभी शुभ कार्यों का अनंत गुना फल मिलता है. इस माह में श्रीमद्भागवत कथा सुनने का भी विशेष महत्व है. इस माह में तीर्थ स्थानों पर गंगा स्नान का भी महत्व है. जिस प्रकार हल से खेत में बोया हुआ बीज करोड़ों गुना बढ़कर बढ़ता है, उसी प्रकार मेरे पुरूषोत्तम मास में किये गये पुण्य भी लाखों गुना अधिक होते हैं.

इस महीने में कोई भी शुभ कार्य नहीं होता है, इसलिए यह सभी प्रकार के सांसारिक और भौतिक सुखों से अलग होकर भगवान का ध्यान करने का समय है. मलमास या अधिक मास का स्वामी भगवान विष्णु को माना जाता है. पुरूषोत्तम भगवान विष्णु में से एक हैं. इसलिए अधिक मास को पुरूषोत्तम मास भी कहा जाता है.

अधिकमास कथा के अनुसार जब इस माह को किसी भी नाम की प्राप्ति नहीं होती है तब उस समय पर यह श्री विष्णु की शरण में जाता है ओर अधिक मास को भगवान अपना नाम प्रदान करते हैं. इसी कारण इस माह को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है. इस कारण से इस माह के समय श्री विष्णु जी का पूजन विशेष रुप से जुड़ा हुआ है.   

अधिक मास की गणना नियम 

अधिक मास के संदर्भ में कई ग्रंथ इसकी व्याख्या करते हैं. ब्राह्मण ग्रंथों, तैतरीय संहिता, ऋग्वेद, अथर्ववेद इत्यादि ग्रंथों में अधिक मास का विवरण प्राप्त होता है. यह समय खगोलिय गणना को उपयुक्त रुप से समझने के लिए किया जाता है. इस गणना के अनुसार सूर्य लगभग 30.44 दिनों में एक राशि पूरी करता है और यह सूर्य का सौर मास है. इसी प्रकार, बारह महीनों का समय, जो लगभग 365.25 दिन है, एक सौर वर्ष है, और चंद्र माह 29.53 दिनों का है, इसलिए चंद्र वर्ष 354.36 दिनों के करीब है. इस तरह दोनों के कैलेंडर वर्ष में लगभग 10/11 दिनों का अंतर होता है और तीन साल में यह अंतर बहुत अधिक बढ़ जाता है जो एक महीने के करीब का हो जाता है. ऎसे में इसकाल गणना के अंतर को दूर करने के लिए हर तीसरे वर्ष एक माह अधिक का नियम बनाया गया है. जिसके द्वारा सभी व्रत त्यौहार एवं अन्य प्रकार के कार्यों की अवधि निश्चित रुप से हमें प्राप्त हो सके तथा पंचांग गणना भी उचित रुप से हमे प्राप्त हो. 

अधिक मास किन किन नामों से जाना जाता है 

अधिक मास को कई नामों से पुकारा जाता है. यह जिस भी माह में आता है उसे उसी माह के नाम से संबोधित किया जाता है, इसके अलावा इसे पुरूषोत्तम या मल मास, अधिमास, मलिम्लुच, संसर्प, अनाहस्पति मास के नाम से भी जाना जाता है. सौर वर्ष और चंद्र वर्ष के बीच उचित समन्वय के लिए ही हर तीसरे वर्ष को अधिक मास के रूप में बढ़ाया जाता है.

ज्योतिष अनुसार अधिक मास में किए जाने वाले कार्य

ज्योतिष गणना के अनुसार हर तीसरे साल एक अतिरिक्त महीना आता है और इस महीने को बहुत खास माना जाता है. इस माह में पूजा-पाठ के कार्यों को करने का अधिक महत्व है. इस दौरान विवाह संस्कार, गृह प्रवेश, गृह निर्माण या अन्य शुभ कार्य करना वर्जित होता है, इसके विपरीत इस दौरान भगवान की पूजा, नाम स्मरण और ध्यान आदि करना सर्वोत्तम फलदायी माना जाता है. अधिक मास के दौरान श्री विष्णु जी की पूजा करने का विशेष विधान है क्योंकि इस माह को भगवान श्री विष्णु के एक नाम पुरूषोत्तम मास के नाम से भी जाना जाता है. इसलिए इस समय विष्णु पूजा करने से भक्तों को पूजा का शीघ्र फल मिलता है.

इस माह में किए गए जप, तप और दान का भी विशेष महत्व बताया गया है. सूर्य की बारह संक्रांतियों के आधार पर हमारे चंद्रमा पर आधारित बारह मास कहे गए हैं और अधिक मास या मल मास हर तीन साल के अंतराल पर आता है. इस माह में मांगलिक कार्य वर्जित माने गए हैं, लेकिन धार्मिक कार्य फलदायी होते हैं. समय के अंतर की असमानता को दूर करने के लिए अधिक मास और क्षय मास का नियम बनाया गया है.

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तेलुगु हनुमान जयंती 2024: क्यों मनाते हैं इस हनुमान दीक्षा को

भगवान हनुमान के जन्म से संबंधित कई कथाएं प्रचलित रही हैं. धर्म ग्रंथों में हनुमान जन्मोत्सव के विषय में कई उल्लेख प्राप्त होते हैं.  हनुमान जी के जन्म दिवस और तिथि का एक साथ मिलना एक विशेष संयोग माना जाता है. विशेष योग में की गई बजरंगबली की पूजा विशेष फलदायी होती है. हनुमान जयंती विशेष रूप से दक्षिण भारत में मनाई जाती है, वहीं मान्यता है कि चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन हनुमान जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है. जबकि ऐसा माना जाता है कि हनुमान जी का जन्म नरक चतुर्दशी यानी कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन हुआ था अत: उत्तर भारत में इस दिन को मनाया जाता है हनुमान जी के जन्म को लेकर विद्वानों में अलग-अलग मत हैं हनुमान जी के अवतार के संबंध में कुछ विशेष तिथियों का वर्णन प्राप्त होता है. 

हनुमान हैं रुद्र अवतार 

हनुमान को भगवान शिव के अवतार स्वरुप स्थान प्राप्त है. हनुमान जी भगवान शिव के आठ रुद्रावतारों में से एक हैं. शास्त्रों का मत है कि भगवान राम की सहायता हेतु हनुमान जी का अवतरण पृथ्वी पर होता है. धर्म कथाओं के अनुसार पुंजिकस्थल नाम की अप्सरा ने कुंजर नामक वानर की पुत्री “अंजना” के रूप में वानर की योनि में जन्म लिया. अंजना इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर सकती थी. उनका विवाह केसरी नामक वानर से हुआ था. प्रत्येक क्षेत्र का हनुमान जयंती मनाने का अपना अनूठा तरीका और कारण है. तेलुगु हनुमान जयंती को आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में महत्वपूर्ण धार्मिक कार्य के रुप में देखा जाता है. 

हनुमान जयंती के संदर्भ में सबसे अधिक विचार धर्म ग्रंथों में प्राप्त होते हैं तथा लोक किवदंतियों में भी इन का उल्लेख प्राप्त होता है. जिस प्रकार श्री राम चंद्र जी के जन्मोत्सव का समय रामनवमी के रुप में मनाया जाता है उसी प्रकार उनके प्रिय भक्त हनुमान जीब का जन्म उत्सव हनुमान जयंती के रुप में मनाए जाने का विधान रहा है. आइये जानते हैं जयंती के समय में होने वाले इन भेदों के बारे में विस्तार से : – 

हनुमान जयंती और विभिन्न तिथियों का महत 

चैत्र एकादशी समय 

हनुमान जी के जन्म से संबंधित एक विचार मिलता है जो बताता है की हनुमान का जन्म समय एकादशी तिथि से जुड़ा रहा है. इसे चैत्र माह की एकादशी तिथि के साथ बताया गया है. इस श्लोक के अनुसार हनुमान जी इस दिन को अवतरण लेते हैं : – 

“चैत्रे मासे सिते पक्षे हरिदिन्यां मघाभिदे |

नक्षत्रे स समुत्पन्नौ हनुमान रिपुसूदनः ||”

श्लोक अनुसार भगवान हनुमान जी का जन्म समय चैत्र शुक्ल की एकादशी को हुआ था. इस तिथि का समय अत्यंत ही शुभ फलों को प्रदान करने वाला भी होता है क्योंकि एकादशी का समय भगवान श्री विष्णु के पूजन का भी समय होता है अत: यह समय हनुमान जी के जन्मोत्सव के साथ ही भगवान श्री हरि पूजन का भी विशेष समय होता है. 

 चैत्र पूर्णिमा समय 

हनुमान जी के जन्म से संबंधित एक अत्यंत प्रचलित विचार यह रहा है की भगवान का जन्म चैत्र माह की पूर्णिमा तिथि को हुआ है. धार्मिक ग्रंथों में मौजूद श्लोक एवं ग्रंथों से हम इस विचार को देख पाते हैं. इस समय को देश भर में काफी व्यापक रुप से मनाया भी जाता रहा :- 

“महाचैत्री पूर्णीमाया समुत्पन्नौ अन्जनीसुतः |

वदन्ति कल्पभेदेन बुधा इत्यादि केचन ||” 

कार्तिक चतुर्दशी समय 

हनुमान जन्मोत्सव का समय कार्तिक माह में आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से रहा है. यह समय भगवान हनुमान के जन्म की तिथि के रुप में प्रचलित रही है. चैत्र पूर्णिमा की ही भांति यह दिन भी व्यापक रुप से देश भर में उत्सव रुप में दिखाई देता है. इस श्लोक का संबंध रामायण से प्राप्त होता है. जिसके अनुसार विद्वान इस तिथि को अत्यधिक ग्राह्य मानते हैं. 

“ऊर्जे कृष्णचतुर्दश्यां भौमे स्वात्यां कपीश्वरः |

मेष लग्ने अन्जनागर्भात प्रादुर्भूतः स्वयं शिवा |”

वैशाख कृष्ण दशमी (ज्येष्ठ कृष्ण दशमी) समय 

एक अन्य मत का संबंध पंचांग में दो माह के समय अनुसार बनता है जिसमें पूर्णिमांत और अमांत के कारण इस अंतर की प्राप्ति होती है. आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना क्षेत्रों में हनुमान जयंती का समय वैशाख कृष्ण दशमी का माना गया है जो उत्तर भारत पंचांग के अनुसर ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि का समय होता है. अत: इस समय को भी भगवान हनुमान के जन्मोत्सव के रुप में वहां बेहद उत्साह एवं भक्ति के साथ मनाया जाता है. 

इस दिन हुई थी भेंट श्री राम की हनुमान जी से

तेलगू पंचांग के अनुसार ये वो समय है जब हनुमान जी की प्रभु राम के साथ प्रथम भेंट होती है. हनुमान जी श्री रम के अनन्य भक्त हैं. राम का स्थान हनुमान के लिए सदैव ही अविस्मरणीय रहा है. अपने प्रिय सखा एवं भ्रात के रुप में श्री राम जी को हनुमान जी का सहयोग मिला. हनुमान जी की सहायता से ही वे राम ओर सीता का मिलन भी संभव हो पाता है. इस कारण से यह एक लम्बा समय होता है साधना का भक्तों के लिए अपनी साधना के जब अंतिम पड़ाव पर भक्त होते हैं तो इसके कारण जीवन में शुभता प्राप्त होती है. इस लम्बी हनुमान साधना को भक्त बहुत शृद्धा के साथ पूर्ण करते हैं. जिस प्रकार हनुमान जी को पाकर श्री राम जी के कार्य सिद्ध होते हैं उसी प्रकार भक्त भी हनुमान जी के लिए इस कठोर साधना को करते हुए अपनी भक्ति को प्रकट करते हैं.

आंध्र और तेलगाना क्षेत्रों से जुड़ा पर्व 

आंध्र एवं तेलंगाना क्षेत्र में इस पर्व का विशेष महत्व रहा है यह यहां का लोकप्रिय पर्व भी है. इस समय पर शोभायात्राएं भी निकाली जाती है जिसमें शृद्धालु बढ़ चढ़ कर भाग लेते दिखाई दे सकते हैं. भक्त अपनी साधना काल के दौरान हनुमान की के मंदिरों की यात्रा भी करते हैं. इस समय को आंजनेय साधना के रुप में भी जाना जाता है. भगवान की इस साधना में व्रत उपवास एवं ब्रह्मचर्य का पालन कड़ाई के साथ किया जाता है. इस समय पर व्रत रखने वाला अथवा उपासक नरंगी, लाल रंगों को धारण करते हैं. इस समय हनुमान जी के मंत्र जाप एवं नियमित साधना को किया जाता है. 

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भालचंद्र गणेश चतुर्थी व्रत : जानें क्यों कहलाते हैं श्री गणेश भालचंद

चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को भालचंद्र संकष्टि चतुर्थी के रुप में मनाया जाता है. भगवान गणेश को बाधाओं को दूर करने वाले, कला और विज्ञान के संरक्षक के रुप में स्थान प्राप्त है.  बुद्धि और ज्ञान को प्रदान करने वाले देव हैं. अपने सभी रुपों में वह किसी न किसी रुप में ज्ञान को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं. भगवान गणेश गणपति और विनायक के रूप में भी जाने जाते हैं. हिंदू धर्म में सर्व प्रथम पूज्य देव के रुप में यह विराजमान हैं. किसी भी शुभ कार्य का आरंभ श्री गणेश के आहवान द्वारा ही संपन्न होता है. श्री गणेश भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र हैं और भगवान कार्तिकेय, देवी लक्ष्मी और सरस्वती के भाई स्वरुप हैं. 

बुद्धी, सिद्धि और ऋद्धि नाम के तीन गुणों को प्रदान करने वाले देव होने के नाते यह क्रमशः ज्ञान, आध्यात्मिकता और समृद्धि के रूप में जाने जाते हैं. भगवान वान गणेश स्वयं बुद्धी के अवतार हैं. अन्य दो गुणों को देवी के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है और उन्हें भगवान गणेश की पत्नी माना जाता है. श्री गणेश जी के वैवाहिक जीवन पर अलग-अलग मत हैं, किंतु गुणों के मध्य को भेद व्याप्त नही होता है. शिव पुराण के अनुसार, भगवान गणेश के दो पुत्र थे जिनका नाम शुभ और लाभ रखा गया था. शुभ और लाभ क्रमशः शुभता और लाभ के अवतार हैं. शुभ देवी रिद्धि के पुत्र थे और लाभ देवी सिद्धि के पुत्र थे.गणेश के प्रतिनिधित्व समय के साथ बदलते व्यापक बदलाव और विशिष्ट स्थिति को दिखाता है. श्री गणेश जी को राक्षसों के खिलाफ युद्ध करते हुए, बाल रुप में माता पार्वती के साथ स्नेह रुप में तथा पिता के समक्ष साहस से खड़े होते हुए और भाई के समक्ष बुद्धि को महत्वपूर्ण दिखाते हुए देखा जा सकता है 

भालचंद्र गणेश चतुर्थी कथा 

श्री गणेश जी का चतुर्थी तिथि से गहरा संबंध है. यह उनके जन्म समय की तिथि है. इस कारण से इस तिथि के समय गणेश जी का पूजन करने का विधान भी रहा है. हाथी की सूंड, एक मानव शरीर और एक गोल पेट का स्वरुप उनके ज्ञान के हर स्वरुप का भाग बनता है. श्री गणेश भगवान अपने हाथों में एक पाश और कुल्हाड़ी लिए हैं. श्रीगणेश के निचले हाथों में से एक अभय मुद्रा में दिखाया गया है जबकि दूसरे हाथ में उनके पास मोदक से भरा कटोरा है. गणेश जी की सूंड का बाईं ओर मोड़ना एक विशेषता है. भगवान गणेश का वाहन एक चूहा है. 

गणेश चतुर्थी के दिन श्री गणेश भगवान की भालचंद्र के रूप में पूजा की जाती है. वह सभी प्रकार की परेशानियों को दूर करने वाले देव हैं. भालचन्द्र का अर्थ है जिसके मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित हो. गणेश के इस रूप के बारे में गणेश पुराण में एक कहानी है, एक बार चंद्रमा ने आदिदेव गणपति का मजाक उड़ाया, जिसके कारण गणेश ने उन्हें श्राप दिया कि आप अपनी संदरता को सदैव धारण नहीं कर पाएंगे यह सुंदरता भी कमजोर हो जाएगी. और आप किसी के सामने नहीं आ पाएंगे जो आपको देखेगा वह श्राप से प्रभवैत होगा. चंद्रमा को तब अपनी भूल का एहसास होता है. वह श्री गणेश से अपने कृत्य हेतु क्षमायाचना करते हैं. इस प्रकार देवताओं के अनुरोध पर गणेश जी ने अपने श्राप को भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष चतुर्थी तक ही सीमित रखा. गणेश जी ने कहा भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को ही तुम अदृश्य रहोगे, जबकि प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष चतुर्थी को मेरे साथ तुम्हारी पूजा होगी. तुम मेरे माथे पर विराजमान रहोगी. इस प्रकार चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करके गजानन भालचन्द्र बन गये.

भगवान गणेश को अगर प्रसन्न किया जाता है, तो वे सफलता, समृद्धि प्रदान करते हैं तथा विपत्ति से सुरक्षा करते हैं. हर धार्मिक मांगलिक अवसर पर उनकी पूजा की जाती है और विशेष रूप से प्रार्थना द्वारा उनका आह्वान किया जाता है.

भगवान गणेश का स्वरुप एवं महत्व 

सात चक्रा में श्री गणेश को मूलाधार चक्र के मुख्य देवता माना गया है. श्री गणेश केतु का स्वामित्व पाते हैं . इसलिए, पहले उन्हें पूजने पर समस्त प्रकार की नकारात्मकता शांत हो जाती है. मूलाधार चक्र रीढ़ की हड्डी के नीचे स्थित है. यह व्यक्ति की सबसे बुनियादी प्रवृत्ति को दर्शाता है. इसलिए ध्यात्मिक यात्रा तभी शुरू होती है जब श्री गणेश को साकार किया जाता है. श्री गणेश जी का हाथी का सिर भौतिक शक्ति और समृद्धि का भी प्रतिनिधित्व करता है. अपने बड़े आकार के कारण शत्रुओं पर भी हावि रहता है. हाथी को जंगल के अन्य सभी प्राणियों से कम डर लगता है. और इस प्रकार, शक्ति का प्रतीक. इसका अस्तित्व समृद्धि का प्रतीक बनाता है. श्री गणेश भगवान उन लोगों को आशीर्वाद देते हैं जो छिपे हुए सत्य को जने के लिए प्रेरित होते हैं. भगवान श्री गणेश भक्तों के मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं और अशुद्धियों को नष्ट करने वाले होते हैं.भक्त के मन को ज्ञान से प्रकाशित कर देते हैं भक्त के जीवन में शांति, समृद्धि और खुशी प्रदान करते हैं.

अत: गणेश चतुर्थी के दिन भगवान का पूजन करने से जीवन में शुभता का वास होता है. व्यक्ति अपने कार्यों में सफलता को पाता है. 

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