श्रावण पुत्रदा एकादशी : कुंडली के पंचम भाव को बनाती है शुभ

व्रत त्यौहारों का मनाया जाना सनातन परंपरा में किसी न किसी कारण के शुभ फलों को देने वाला होता है. व्रत त्यौहारों का संबंध ज्योतिष के साथ जुड़ा हुआ माना गया है. ज्योतिष अनुसार कुछ विशेष भावों की शुभता में व्रत एवं पर्व बेहद विशेष भुमिका का निर्धारण करते हैं. इसी में एक पर्व है जिसे सावन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन मनाया जाता है.

इस एकादशी को संतान सुख के लिए बेहद उत्तम माना गया है. इस एकादशी के शुभ फलों में पुत्र संतति, वंश वृद्धि के साथ अनेक प्रकार के दोषों की शांति संभव होती है. तो चलिये जान लेते हैं कि कैसे सावन माह की ये एकादशी देती है विशेष फल और कैसे ज्योतिष अनुसार कुंडली के भाव फल होते हैं जागृत. 

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ज्योतिष अनुसार पुत्रदा एकादशी महत्व 

ज्योतिष अनुसार जब कुंडली में किसी भाव के फलों की प्राप्ति में बाधाएं होती हैम तब उस स्थिति में किस जाने वाले उपाय बेहद कारगर सिद्ध होते हैं. जन्म कुंडली का पंचम भाव संतान सुख से जुड़ा हुआ है. जब कुंडली में इस भाव की स्थिति कमजोर होती है. भाव के कमजोर होने पर अनुकूल परिणाम मिलने में देरी का सामना करना पड़ता है. इस स्थिति से बचाव के लिए श्रावण पुत्रदा एकादशी बेहद कारगर सिद्ध होती है. भविष्य पुराण में इस दिन के महत्व के बारे में बताया गया है, श्रावण पुत्रदा एकादशी दिन बहुत ही शुभ होता है इस दिन व्रत रखने एवं पूजा द्वारा संतान से संबंधित कष्ट दूर होते हैं.  

श्रावण पुत्रदा एकादशी 2025 तिथि और समय

श्रावण पुत्रदा एकादशी की तिथि 05 अगस्त 2025 (मंगलवार) है

श्रावण पुत्रदा एकादशी तिथि प्रारंभ – 04 अगस्त, 2025 (सोमवार) को सुबह 11:42 बजे

श्रावण पुत्रदा एकादशी तिथि समाप्त – 05 अगस्त, 2025 (मंगलवार) को दोपहर 13:13 बजे

श्रावण पुत्रदा एकादशी क्या है?

श्रावण पुत्रदा एकादशी साल की 24 एकादशियों में से एक है. यह एकादशी हर साल श्रावण मास में शुक्ल पक्ष के 11वें दिन आती है.  श्रावण पुत्रदा एकादशी को पवित्रोपना एकादशी और पवित्रा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. साल में दो उत्तरदा एकादशी होती हैं, एक पौष मास (दिसंबर-जनवरी) के शुक्ल पक्ष में आती है. यह एक ऐसा व्रत है जिसे पति-पत्नी दोनों रखते हैं.

श्रावण पुत्रदा एकादशी की कथा और महत्व

हम समझ गए हैं कि श्रावण पुत्रदा एकादशी क्या है. अब हम आगे बढ़ेंगे और व्रत कथा या शुभ एकादशी की कहानी के बारे में जानेंगे. क्या हुआ था? इस दिन का क्या महत्व है? हम इसके बारे में आगे सब कुछ जानेंगे. चलिए शुरू करते हैं.

श्रावण पुत्रदा एकादशी लोमेश ऋषी और महिजीत कथा 

श्रावण एकादशी के संदर्भ में लोमेश ऋषी और राजा महिजीत की कथा प्रचलित हैं इस कथा के अनुसार अपनी शक्ति और धन के बावजूद, राजा महीजित को संतान नहीं हुई और उन्होंने कई संतों और ऋषियों से मदद मांगी, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. अंत में, ऋषि लोमेश ने दिव्य दर्शन के माध्यम से बताया कि राजा व्यापारी के रूप में अपने पिछले जन्म के पाप के कारण निःसंतान था. पूर्व जन्म में राजा व्यापारी था और उसने स्वार्थवश एक गाय और उसके बछड़े को डराकर तालाब का पानी नहीं पीने दिया स्वयं सारा पानी पी लिया था. इस कृत्य के कारण उसे अगले जन्म में निःसंतान होने का श्राप मिलता है, लेकिन उसके अन्य अच्छे कर्मों ने उसे राजा के रूप में पुनर्जन्म की प्राप्ति भी होती है किंतु संतान हीनता का दुख भी मिलता है. ऋषी लोमेश की बातों को सुनकर उसने इस श्राप से मुक्ति का उपाय पूजा तब लोमेश ऋषी ने राजा को श्रावण पुत्रदा एकादशी के व्रत करने की बात कही. 

ऋषि की बातों को सुनकर राजा और रानी को भगवान विष्णु की पूजा करने के लिए श्रावण एकादशी पर व्रत रखा. एकादशी का पालन किया, प्रार्थना की, उपवास किया, मंत्रों का जाप किया और दान किया. परिणामस्वरूप, उन्हें एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई जो उनके राज्य का उत्तराधिकारी बना.

जन्म कुंडली का पंचम भाव होता है प्रबल 

श्रावण पुत्रदा एकादशी के दिन किए गए व्रत पूजन अनुष्ठानों से संतान भाव को प्रबलता मिलती है. यह एक शक्तिशाली पंचम भाव को दिखाता है और  इस एकादशी का व्रतअनुष्ठा किया जाता है, तो यह संतान प्राप्ति की इच्छा को पूरा करता है. श्रावण पुत्रदा एकादशी का व्रत आमतौर पर पति और पत्नी दोनों ही रख सकते हैं. इस दिन व्रत रखने से पिछले पाप भी दूर होते हैं और भक्त को मोक्ष प्राप्त करने के लिए अच्छे कर्म करने का अवसर मिलता है.

श्रावण पुत्रदा एकादशी देता है जन्म कुंडली के संतान योग को शुभता मिलती है. श्रावण पुत्रदा एकादशी का व्रत उन के लिए बहुत फायदेमंद है जो संतान के रूप में पुत्र चाहते हैं. यह भक्तों की इच्छाओं को पूरा करता है, और यह उन दंपत्तियों के लिए अत्यधिक शुभदायक और अनुकूल है जो गर्भधारण करने में परेशानी का सामना कर रहे हैं. या संतान होने में किसी न किसी कारण से देरी का असर झेल रहे हैं. यह व्यक्ति के पिछले पाप कर्मों को भी दूर कर देता है. पितर दोषों की शांति भी इस के द्वारा संभव होती है.

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आदि अमावस्या : क्यों और कब मनाई जाती है आदि अमावस्या जानें इसका महत्व

पंचांग गणना अनुसार प्रत्येक माह में अमावस्या का आगमन होता है. यह अमावसाय तिथि कृ्ष्ण पक्ष के अंतिम दिन में मनाई जाती है जिसके पश्चात शुक्ल पक्ष का आरंभ होता है. अमावस्या को कई नामों से पुकारा जाता है. जिस माह में जो अमावस्या आती है उसे उस नाम से पुकारते हैं. जैसे श्रावण माह में आने वाली अमावस्या तिथि को सावन अमावस्या के नाम से पुकारा जाता है उसी प्रकार तमिल संप्रदाय द्वारा आदि अमावस्या, तमिल महीने के आदि माह में आने वाली अमावस्या होती है जिसे माह के नाम से आदि अमावस्या कहा जाता है. 

अमावस्या तिथि का महत्व हर समुदाय के लिए विशेष रहा है. यह वह समय होता है जब कुछ विशेष नियमों का पालन भी किया जाता है. इस दिन को श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है. आदि अमावस्या में लोग अपने पूर्वजों का सम्मान करने और उनसे आशीर्वाद लेने के लिए अत्यधिक शुभ मानते हैं.  तमिल महीना आदि, जो जुलाई के मध्य से अगस्त के मध्य तक चलता है, आध्यात्मिक महत्व का समय है, और आदि अमावस्या इसके भीतर एक विशेष क्षण को चिह्नित करती है. 

आदि अमावस्या 2025 की तिथि और समय

वर्ष 2025 में आदि अमावस्या 24 जुलाई, गुरुवार मनाई जाएगी. इस पवित्र दिन की शुरुआत को 23 जुलाई को 26:29 बजे शुरू होगी और 24 जुलाई को 24:41 बजे समाप्त होगी. इस अवधि को पारंपरिक रूप से पूजा मंत्रों  और प्रार्थनाओं के साथ मनाया जाता है.

तमिल महिनों के नाम 

थाई, माछी, मासी, पंगुनी, चिट्ठी (चिट्ठिराई), वैकासी, आनी, आदि, आवनी, पुरात्तासी, अइप्पासी, कार्तिकाई, मार्कजी़(मरकज़ी)

इन सभी महिनों में आने वाली अमावस्याओं को इन नामों से भी पुकारा जाता है. 

आदि अमावस्या का ज्योतिष अनुसार महत्व 

आदि अमावस्या के दिन को ज्योतिष अनुसार भी काफी विशेष माना गया है. इस दिन, सूर्य और चंद्रमा एक ही राशि में होते हैं. सूर्य पिता और आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है, और चंद्रमा माता और मन का प्रतिनिधित्व करता है. इस कारण ये दोनों ग्रह पूर्वजों के रुप में माता-पिता का प्रतिनिधित्व करते हुए भक्तों को उनकी आध्यात्मिक यात्रा पर मार्गदर्शन करते हैं. माना जाता है कि यह भक्ति के साथ साथ प्रार्थनाओं और भक्ति की शक्ति को बढ़ाता है, जिससे यह पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने और उनका आशीर्वाद लेने का एक आदर्श समय बन जाता है. 

आदि अमावस्या का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व रहा है. तमिल संस्कृति और हिंदू समुदाय में आदि अमावस का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व बहुत अधिक रहता है. यह अमावस्या का दिन अपने पूर्वजों के सम्मान के लिए पितृ तर्पण करने के लिए शुभ होता है. 

पितृ दोष शांति : आदि अमावस्या को पितरों के पूजन के लिए काफी विशेष माना गया है. इस दिन पितरों का पूजन पितृ दोष की शांति रहती है. पितृ तर्पण में पूर्वजों को भोजन, जल और प्रार्थना अर्पित करते हैं. माना जाता है कि य्ह दिन पूर्वजों को जन्म और मृत्यु के चक्र से मोक्ष प्राप्त करने में सहायता करता है. पूर्वजों को याद करने और उनका सम्मान करने का कार्य इस विश्वास पर आधारित है कि उनके आशीर्वाद से जीवित लोगों को समृद्धि, स्वास्थ्य और आध्यात्मिक विकास मिल सकता है. एक ही राशि में सूर्य और चंद्रमा का होना माता-पिता के मिलन का प्रतीक है, जो इसे आध्यात्मिक अभ्यास करने के लिए एक अत्यंत शक्तिशाली समय बनाता है. यह प्रार्थनाओं और भक्तों को लाभ पहुंचाता है, जो इसे पूर्वजों का आशीर्वाद लेने के लिए एक आदर्श समय बनाता है.

आदि अमावस्या जीवित लोगों को अपने दिवंगत पूर्वजों से जुड़ने का अवसर प्रदान करती है. इस समय के दौरान, यह माना जाता है कि भौतिक दुनिया आध्यात्मिक क्षेत्र के करीब होती है. यह समय पूजा अनुष्ठान को अधिक शक्ति प्रदान करता है. इस दिन किए जाने वाले पूजा कार्यों में गलत काम के लिए क्षमा मांगने और वंश वृद्धि का आशिर्वाद देता है. आदि अमावस्या पर पूजा दान स्नान के कामों को करने से जीवन में सौभाग्य, समृद्धि और आशीर्वाद मिलता है. इस के द्वारा परिवार के लिए सकारात्मक ऊर्जा और आशीर्वाद प्राप्त होता है. इसके अलावा, आदि अमावस्या अतीत, वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के परस्पर संबंध की याद दिलाती है. यह भक्तों को पारिवारिक बंधनों को बनाए रखने और उन्हें संजोने तथा इन परंपराओं को भावी पीढ़ियों तक पहुँचाने के लिए प्रोत्साहित करती है.

आदि अमावस्या से जुड़ी खास बातें 

आदि अमावस्या की शुरुआत भक्तों द्वारा सुबह जल्दी उठकर स्नान और ध्यान जैसे कार्यों से शरीर और मन को शुद्ध करना शामिल होती है. इसके बाद, पूजा करने के साथ साथ प्रभु का आशीर्वाद लेने के लिए मंदिरों में जाते हैं. इस दिन दान-पुण्य के कार्य भी महत्वपूर्ण होते हैं. इस दिन जरूरतमंदों को  भोजन, कपड़े और अन्य आवश्यक वस्तुएं दान करना विशेष होता है. 

आदि अमावस्या के समय तर्पण से संबंधित कार्य किए जाते हैं, जो विशेष रूप से मृत पूर्वजों की आत्माओं के प्रति सम्मान हेतु होते हैं. इस दिन तर्पण के कार्यों को नदियों, समुद्रों, तालाबों या झीलों जैसे प्राकृतिक जल निकायों के पास किए जाने का विशेष विधान माना गया है. पूर्वजों को तिल और पानी चढ़ाते हैं, ये तर्पण आत्माओं को तृप्त करने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए प्रतीकात्मक कार्य हैं. तर्पण के दौरान मंत्रों का अनुष्ठानिक जाप भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह पूर्वजों की उपस्थिति का आह्वान करता है और उन्हें मुक्ति की ओर ले जाता है.

उपवास और पूजा: व्रत पूजा उपवास आदि अमावस्या के नियमों का महत्वपूर्ण पहलू है. इस दिन भक्त पूजा एवं उपवास के नियमों को चुनते हैं, इस दौरान केवल एक बार भोजन करते हैं या भोजन से पूरी तरह परहेज़ करते हैं. आत्म-अनुशासन और भक्ति के इस कार्य को मन और शरीर को शुद्ध करने के तरीके के रूप में देखा जाता है. इस दिन मंदिरों और घरों में विशेष पूजा की जाती है. इस पूजा हवन इत्यादि में मंत्रोच्चार और देवताओं और पूर्वजों को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद शामिल होते हैं. दक्षिण भारत में, रामेश्वरम में अग्नि तीर्थम और कन्याकुमारी में त्रिवेणी संगमम जैसे पवित्र स्थल आस्था का मुख्य केन्द्र होते हैं. 

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क्यों मनाया जाता है दस दिनों तक गणेश उत्सव ?

भगवान गणेश के जन्म का उत्सव भाद्रपद माह के दौरान कई दिनों तक मनाया जाता है. यह उत्सव भाद्रपद मास की चतुर्थी से प्रारंभ होकर भाद्रपद मास की अनंत चतुर्दशी तक चलता है. दस दिनों तक मनाए जाने वाले इस उतस्व के पीछे धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व काफी विशेष रहा है. इसके अलावा गणेश जन्मोत्सव का हिंदू धर्म में बहुत महत्व है. वैसे तो हर माह की चतुर्थी पर यह पूजा होती है लेकिन भाद्रपद माह के दौरान इसकी अलग ही रौनक दिखाई देती है ओर यह दस दिनों तक चलने वाला पर्व बन जाता है.

इस वर्ष गणेश उत्सव 27 अगस्त 2025 को बुधवार से आरंभ होगा और 06 सितंबर 2025 को शनिवार के दिन समाप्त होगा.

गणेश महोत्सव की धूम हर ओर देखी जा सकती है. इस महत्वपूर्ण त्योहार के पिछे कुछ विशेष तथ्यों का वर्णन धर्म कथाओं में मिलता है. इस समय दौरान पंडाल सजाए जाते हैं और गणपति मूर्ति स्थापना के साथ ही गणेश जी का आह्वान किया जाता है. भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को सिद्धिविनायक व्रत श्रद्धा और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. दस दिनों तक चलने वाला यह त्यौहार अपने साथ कई विशेष तिथियों को लाता है को इस पर्व के दौरान आती हैं. इस इन सभी दस दिनों में प्रत्येक तिथि के दिन पर्व मनाया जाता है. 

गणेश उत्सव की कथा और महत्व 

श्री गणेश का जन्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन हुआ था. गणपति महोत्सव का यह उत्सव चतुर्थी से शुरू होकर अनंत चतुर्दशी तक चलता है. शास्त्रों के अनुसार इस व्रत का फल बहुत विशेष होता है. भगवान श्री गणेश को जीवन में विघ्नहर्ता कहा जाता है.  श्री गणेश सभी की मनोकामनाएं पूरी करते हैं. गणेशजी को सभी देवताओं में सबसे अधिक महत्व दिया गया है. कोई भी नया काम शुरू करने से पहले भगवान श्री गणेश को याद किया जाता है.  इसलिए उनके जन्मदिन को व्रत रखकर श्री गणेश जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है. 

गणपति जन्म

दस दिनों तक चलने के पीछे पौराणिक कथा इस प्रकार है हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान गणेश का जन्म देवी पार्वती ने स्नान के लिए इस्तेमाल किए गए चंदन के लेप से हुआ था.   स्नान करते समय अपने निवास के प्रवेश द्वार की रक्षा करने के लिए कहा. इस बीच, पार्वती के पति भगवान शिव घर लौट आए और गणेश ने उन्हें दरवाजे पर रोक दिया. शिव ने गणेश को अपने पुत्र के रूप में नहीं पहचाना और उन्हें अंदर आने से मना करने पर क्रोधित हो गए. उन्होंने अपने त्रिशूल से गणेश का सिर काट दिया और घर में प्रवेश कर गए.

अपने पुत्र का निर्जीव शरीर देखकर पार्वती अत्यंत दुखी एवं क्रोधित होती हैं तब भगवान शिव को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने अपने अनुयायियों से एक ऐसे बच्चे को ढूंढने को कहा जिसकी मां उनकी ओर नहीं देख रही थी और उसका सिर उनके पास ले आएं. उन्हें एक हाथी का बच्चा मिला तत्ब वह उसका सिर ले आए फिर शंकर जी ने हाथी का सिर गणेश के शरीर से जोड़ दिया और उन्हें पुनर्जीवित कर दिया. उन्होंने यह भी घोषणा की कि गणेश किसी भी अन्य देवता या किसी भी शुभ अवसर से पहले पूजे जाने वाले पहले देवता होंगे. गणेश के जन्म और पुनरुद्धार की कथा उन कारणों में से एक है. 

महाभारत रचना और गणपति विसर्जन महिमा

वहीं एक अन्य कथा का संबंध भी मिलता है  शास्त्रों के अनुसार इस उत्सव के लिए अनंत चतुर्दशी के दिन गणेश विसर्जन किया जाता है. इसके पीछे एक पौराणिक कहानी है जिसके अनुसार वेद व्यास जी ने महाभारत ग्रंथ लिखने के लिए भगवान गणेश को आग्रह करते हैं वेद व्यास जी कथा सुनाते हैं और गणेश जी लिखते जाते हैं. कथा सुनाते समय वेद व्यास जी ने अपनी आंखें बंद कर लीं। वह 10 दिनों तक कथा सुनाते रहे और गणपति बप्पा उसे लिखते रहे. दस दिन बाद जब वेद व्यास जी की आंखें खुलीं तो उन्होंने देखा कि गणपति जी के शरीर का तापमान बहुत बढ़ जाता है तब उनकी इस बेचैनी को दूर करने तथा उनके शरीर को ठंडा करने के लिए वेद व्यास जी ने उन्हें पानी में डुबा दिया, जिससे उनका शरीर ठंडा हो गया. कहा जाता है कि तभी से यह मान्यता चली आ रही है कि भगवान गणेश को शीतलता प्रदान करने के लिए ही गणेश विसर्जन किया जाता है.

इन कथाओं का संदर्भ भगवान की निष्ठा को स्वयं के भीतर अपनाने का भी है. जिस प्रकार भगवान के अपने हर कार्य को पूर्णता के साथ किया उसी प्रकार जीवन में किए गार्यों को हमें भी उसी पूर्णता से करने की आवश्यकता होती है. यह दस दिन आध्यात्मिक ऊर्जा को पूर्ण करने का समय होते हैं. 

भाद्रपद माह में पड़ने वाली चतुर्थी का व्रत विशेष शुभ माना जाता है. इस दिन सुबह जल्दी उठना चाहिए. सूर्योदय से पहले उठकर स्नान और अन्य दैनिक कार्यों से निवृत्त होकरपूजा का रंभ किया जाता है. भगवान गणेश की पूजा करने के साथ ही  ॐ गं गणपतये नमः का जाप करना शुभ होता है. भगवान श्रीगणेश की पूजा धूप, दूर्वा, दीप, पुष्प, नैवेध और जल आदि से करनी चाहिए. पूजा में मोदक एवं लड्डुओं से पूजा करनी चाहिए. श्रीगणेश को लाल वस्त्र धारण कराना चाहिए और लाल वस्त्र का दान करना चाहिए.

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भाद्रपद माह में मनाई जाती है वामन एकादशी जानें पूजा और महत्व 2025

वामन एकादशी : भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को वामन एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस एकादशी का व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. यह व्रत भगवान के वामन रुप के साथ राजा बली के त्याग की कथा का भी होता है.  इस तिथि पर वामन देव की पूजा अवश्य करनी चाहिए, वहीं राजा बली का पूजन भी किया जाता है.

इस वर्ष 03 सितंबर 2025 को बुधवार के दिन मनाई जाएगी.

भादों मास की एकादशी को वामन एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस दिन यज्ञोपवीत धारण किए हुए वामन की मूर्ति स्थापित करके अर्ध दान, फल, फूल चढ़ाने और व्रत करने से व्यक्ति का कल्याण होता है.

 एक अन्य मत के अनुसार यह व्रत भादों मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को पड़ने वाली एकादशी को किया जाता है. एकादशी के दिन रखे जाने वाले व्रत को पद्मा एकादशी के नाम से जाना जाता है. जबकि एक अन्य मत यह कहता है कि चूंकि यह एकदशी व्रत है, इसलिए इस व्रत को केवल एकादशी तिथि पर ही करना चाहिए. इस दिन वामन एकादशी का व्रत रखा जा सकता है, इस व्रत को करना विशेष लाभकारी रहेगा.

वामन एकादशी मंत्र 

वामन एकादशी का पूजन करने के साथ इस दिन मंत्र जाप का भी महत्व होता है. इस दिन पूजा विधि विधान के साथ करने के साथ ही पूजा के बाद 52 पेड़े और 52 दक्षिणा चढ़ाई जाती है. इस दिन ब्राह्मणों का पूजन किया जाता है. वामन भगवान ने ब्राह्मण का रुप ही लिया था इसी कारण से इन ब्राह्मण पूजा के साथ साथ उनको दक्षिणा देने से ही पूजा का शुभ फल प्राप्त होता है. इस शुभ दिन पर ब्राह्मण को एक कटोरा चावल, एक कटोरा मीठा जल, एक कटोरा चीनी और एक कटोरा दही दान किया जाता है. इस दिन व्रत का उद्यापन भी करना चाहिए. उद्यापन के समय ब्राह्मणों को छाता, खड़ाऊं और दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए. इस व्रत को करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है.

देवेश्चराय देवाय, देव संभूति करिणे.

प्रभावे सर्व देवानां वामनाय नमो नमः.

वामन एकादशी व्रत कथा

त्रेतायुग में बलि नाम का एक राक्षस था. वह भक्त, दानी, सत्यवादी और ब्राह्मणों का सेवक था. इसके अलावा वह सदैव यज्ञ-तप आदि भी करता रहता था. अपनी भक्ति के कारण वह इंद्र के स्थान पर स्वर्ग पर शासन करने लगा. इंद्र और अन्य देवता यह सहन नहीं कर सके और भगवान के पास जाकर प्रार्थना करने लगे. अंततः भगवान श्री विष्णु ने वामन अवतार लिया.

बौने ब्राह्मण का भेष बना कर वह राजा बली के यज्ञ की ओर जाते हैं और उसने राजा बलि से प्रार्थना करते हैं कि हे राजन, कृपया मुझे तीन पग भूमि दीजिए. इससे तुम्हें तीन सार्वजनिक दानों का फल मिलेगा. राजा बलि ने यह छोटा सा अनुरोध स्वीकार कर लेते हैं और राजा भूमि देने को तैयार हो गया. ऐसे में भगवान श्री विष्णु ने अपना आकार बड़ा कर लिया. पहला कदम था ज़मीन, दूसरा था ब्राह्मण और तीसरा कदम रखने से पहले उसने सोचा कि अपने पैर कहां रखूं क्योंकि समस्त जगत को उन्होंने नाम लिया था तब राजा बलि जान जाते हैं की वह भगवान श्री विशःनू तो और उनके वचन सुनकर राजा बलि ने अपना सिर नीचे कर लिया. और भगवान विष्णु ने तीसरा पैर राजा बलि के सिर पर रख दिया. ऐसे में भक्त राजा बलि पाताल लोक चला गया.

जब राजा बलि ने पाताल लोक में गुहार लगाई तो भगवान विष्णु ने कहा कि मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूंगा. तभी से भादों के शुक्ल पक्ष की परिवर्तिनी नामक एकादशी के दिन मेरी एक मूर्ति राजा बलि के पास रहती है. और वह क्षीरसागर में शेषनाग पर शयन करती रहती हैं. इस एकादशी के दिन भगवान श्री विष्णु शयन करते समय करवट बदलते हैं. इस दिन त्रिलोकी स्वामी भगवान श्री विष्णु की पूजा की जाती है. इस दिन चावल और दही के साथ चांदी भी दान करने का विशेष विधान है.

वामन एकादशी व्रत का फल 

वामन एकादशी भादों के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहा जाता है. इस एकादशी को जयंती एकादशी भी कहा जाता है. इस एकादशी का व्रत करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं. इस जयंती एकादशी का व्रत करने से घोर पापियों का उद्धार हो जाता है. यदि कोई व्यक्ति परिवर्ती एकादशी के दिन भगवान श्री विष्णु जी की कई बार पूजा करता है. उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है.

इस एकादशी के फल के बारे में कोई संदेह नहीं है कि जो व्यक्ति इस एकादशी के दिन वामन रूप की पूजा करता है, वह ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों की पूजा करता है. इस एकादशी का व्रत करने के बाद उसे इस संसार में कुछ भी करने को नहीं बचता. वामन एकादशी के दिन के बारे में मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री विष्णु अपना करवट बदलते हैं. इसी कारण से इस एकादशी को परिवर्तिनी एकादशी भी कहा जाता है.

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ललिता सप्तमी पर करें राशि अनुसार पूजन 2025

ललिता को महात्रिपुरसुंदरी, षोडाशी और कामेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है, यह देवी का सर्वोच्च रूप है. देवी का कोई अन्य रूप ललिता या तांत्रिक पार्वती जितना महत्वपूर्ण नहीं है. इन्हें श्री महाविद्या के नाम से भी जाना जाता है. देवी ललिता को राजराजेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है, उनका वर्णन अत्यंत सुंदर है. देवी के माथे पर कस्तूरी का तिलक है, पलकें ऐसी प्रतीत होती थीं मानो वे प्रेम के देवता के घर का द्वार हों, और उसकी आँखें ऐसी थीं जैसे मछली उसके चेहरे की झील में खेल रही हो. उसकी नाक तारों से भी अधिक चमकने वाली नथों से सुसज्जित थी, कान सूर्य और चंद्रमा को नगों से सजाए हुए थे, गाल पद्मराग के दर्पण के समान हैं.देवी की वाणी बहुत अधिक मधुर है  और उनकी मुस्कान इतनी सुंदर थी कि स्वयं शिव भी उनसे अपनी नज़रें नहीं हटा पाते थे. देवी का विवाह भगवान कामेश्वर से हुआ है. 

ललिता सुंदरी कथा 

भगवान शिव का विवाह दक्ष की पुत्री सती से हुआ था. किंतु दक्ष को शिच से कभी भी प्रिति नहीं रही. वह विष्णु के उपासक थे और शिव के प्रति उन्हें सदैव नफरत ही रहती थी. दक्ष और परमशिव की आपस में नहीं बनती थी और परिणामस्वरूप दक्ष ने अपने द्वारा आयोजित एक महान अग्नि यज्ञ में परमशिव को आमंत्रित नहीं किया. किंतु पिता के प्रति पुत्रि सती का मोह ऎसा था कि शिव के विरोध के बावजूद सती उस समारोह में शामिल होने गईं. दक्ष ने तब उस सभा में सती के पति का अपमान किया और तब इस अपमान को सती सहन न कर पाईं उन्होंने अग्नि में कूदकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली. परिणामस्वरूप, परमशिव के आदेश पर, दक्ष को मार दिया गया और बाद में एक बकरी के सिर के साथ पुनर्जीवित किया गया. इस घटना ने परमशिव को व्यथित कर दिया और वे गहरे ध्यान में चले गये. सती ने पहाड़ों के राजा हिमावत और उनकी पत्नी अप्सरा मैना की बेटी के रूप में पुनर्जन्म लिया और तब देवी का एक नाम पार्वती भी था. 

योग और शक्ति में आदि पराशक्ति कौन है 

आदि पराशक्ति ललिता महा त्रिपुरा सुंदरी हैं जो महा कामेश्वर शिव की पत्नी हैं. और शक्तिसिम के श्रीकुल के अनुसार पार्वती पूर्ण रूप से आदि पराशक्ति ललिता का पूर्ण रूप है. काली कुल के अनुसार काली आदि पराशक्ति हैं जो महाकाल शिव की पत्नी हैं और पार्वती पूर्णतः दक्षिणा काली का रूप हैं. शक्तिवाद के अनुसार शिवपत्नी ही आदि पराशक्ति हैं. और पार्वती पूर्णतया आदि पराशक्ति का स्वरूप हैं.  

मेष राशि 

मेष राशि वालों को ललिता सप्तमी के दिन विशेष पूजा करनी चाहिए. ललिता चालीसा का पाठ करना चाहिए. माता दयालु हैं और उनमें वात्सल्य की भावना है. जो मेष राशि वालों को सफलता का आशीर्वाद देगा और उनकी बाधाओं को हरेगा.

वृषभ राशि 

वृषभ राशि के लोगों को ललिता स्वरूप की पूजा से विशेष फल मिलेगा. वृषभ राशि वाले लोगों को ललिता सहस्रनाम का पाठ करना चाहिए. जो जनकल्याणकारी भी है. इसका पाठ करने से अविवाहित कन्याओं को पूजन से उत्तम वर की प्राप्ति होती है.

मिथुन राशि

मिथुन राशि के जातकों को महादेवी यंत्र स्थापित करके देवी ललिता की पूजा करनी चाहिए और प्रतिदिन ललिता कवच का पाठ भी करना चाहिए. मां ललिता ज्ञान प्रदाता हैं और ज्ञान में आने वाली बाधाओं को दूर करती हैं और मां का आशीर्वाद हमेशा बना रहता है.

कर्क राशि 

कर्क राशि के लोगों को ललिता की पूजा करनी चाहिए. साथ में ललिता लक्ष्मी स्त्रोत का पाठ करें. देवी वरद मुद्रा में अभय दान प्रदान करती है. इस समय साधना करने से धन के भंडार भरे रहते हैं और व्यापार, नौकरी आदि में सफलता मिलती है.

सिंह राशि 

सिंह राशि के लिए देवी ललिता की पूजा करनी चाहिए. इस दिन में देवी मंत्रों का जाप करना चाहिए. ऐसा माना जाता है कि देवी मां की हंसी से ब्रह्मांड अस्तित्व में आया. देवी को भक्ति प्रिय हैं, इसलिए भक्त को ललिता सप्तमी पर देवी के चरणों में नारियल बलि चढ़ानी चाहिए. माता का आशीर्वाद बना रहेगा.

कन्या राशि 

कन्या राशि के जातकों को ललिता माता की पूजा करनी चाहिए. इस दिन मां ललिता लक्ष्मी के मंत्रों का जाप करना चाहिए. इस समय मां ज्ञान देती हैं और ज्ञान के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करती हैं. इन दिनों में विद्यार्थियों के लिए देवी की साधना अत्यंत फलदायी होती है.

तुला राशि 

तुला राशि के जातकों को देवी ललिता की पूजा से विशेष फल की प्राप्ति होती है. देवी ललिता चालीसा या स्त्रोत का पाठ करें. जो उनके लिए फायदेमंद होगा. साथ ही इस पूजा से कुंवारी कन्याओं को उत्तम वर की प्राप्ति होती है.

वृश्चिक राशि 

वृश्चिक राशि वाले लोगों को ललिता की पूजा उत्तम फल देगी. और ललिता मंत्र का जाप करना चाहिए. जिससे उन्हें धन, संतान और पारिवारिक सुख मिलेगा. ललिता माता की कृपा बनी रहती है.  

धनु राशि 

धनु राशि वाले लोगों को मां ललिता की पूजा करनी चाहिए. यथाशक्ति माता के मंत्रों का अनुष्ठान जाप करना चाहिए. उनकी मुस्कान ब्रह्म ध्वनि का प्रतीक है, जो अपनी ध्वनि से साधक के भय और बाधाओं को समूल नष्ट कर देती है. इस समय इनकी पूजा करने से किसी भी प्रकार के शत्रु से मुक्ति मिलती है.

मकर राशि 

मकर राशि के लोगों के लिए देवी ललिता की पूजा सर्वोत्तम मानी गई है. इस दिन ललिता निर्वाण मंत्र का जाप करना चाहिए. देवी अंधेरे में भक्तों का मार्गदर्शन करती है और प्राकृतिक आपदाओं से बचाती है और दुश्मन को भी नष्ट कर देती है. इन दिनों में इनकी साधना विशेष फल देगी.

कुंभ राशि

कुंभ राशि वाले लोगों के लिए देवी ललिता की पूजा विशेष लाभकारी है. इन दिनों में देवी कवच का पाठ करें. वह भक्तों को प्राकृतिक आपदाओं से बचाती हैं. माता का पूजन करने भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं.

मीन राशि

मीन राशि के लोगों को मां ललिता की पूजा करनी चाहिए. यथासंभव माता मंत्र का जाप हरिद्रा की माला से करना चाहिए. माता ब्रह्मनाद का प्रतीक है, जो अपनी ध्वनि से साधक के भय और बाधाओं को समूल नष्ट कर देती है. इस दिन में देवी मां की पूजा करना बहुत लाभकारी रहेगा.

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भाद्रपद माह में गणेश महोत्सव का ऎतिहासिक और पौराणिक महत्व

गणेश उत्सव का पर्व भादो माह में मनाया जाने वाला एक विशेष त्यौहार है.  यह उत्सव भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से प्रारंभ होकर अनंत चतुर्दशी तक चलता है. गणेशोत्सव का त्यौहार उत्साह और आस्था के साथ मनाया जाता है. इस समय पर भगवान गणेश की स्थापना का विशेष आयोजन होता है और अनंत चतुर्दशी के दिन भगवान गणेश की मूर्ति का विधि-विधान से विसर्जन कर दिया जाता है. इस तरह से हर वर्ष बप्पा के आगमन से लेकर उनकी विदाई तक का संपुर्ण दस दिवसीय यह उत्सव भक्तों के भीतर आस्था एवं जोश को भर देने वाला होता है. 

भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की गणेश चतुर्थी के अवसर पर भगवान गणेश की भव्य मूर्ति स्थापित कर पूजा-अर्चना शुरू हो जाती है. इस 10 दिनों तक चलने वाले धार्मिक अनुष्ठान की शुरुआत गणेश प्रतिमा की स्थापना के साथ होती है. घर हों या गलि मुह्ह्ले या बड़े बड़े भव्य पंडाल सभी में गणेश जी की प्रतिमाओं को स्थापित किया जाने का विधान प्राचीन काल से ही चल आ रहा है. 

गणेश उत्सव का पौराणिक महत्व 

नारद पुराण के अनुसार पार्थिव गणेश की स्थापना भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को बताई गई है इस दिन गंगाजल, पान, फूल, दूर्वा आदि से पूजा की जाती है. भगवान गणेश को दूब चढ़ाने से वह शीघ्र प्रसन्न होते हैं. भगवान को लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए, श्रीगणेश स्त्रोत का पाठ करना चाहिए, श्रीगणेश मंत्र का जाप करना चाहिए . गणपति आदिदेव हैं, वे अपने भक्तों के सभी कष्टों को दूर कर उन्हें मुक्त कर देते हैं. गणों के स्वामी होने के कारण उन्हें गणपति कहा जाता है. प्रथम पूज्य देव के रूप में वे अपने भक्तों के रक्षक हैं. उनके बारह नामों- एकदंत, सुमुख, लंबोदर, विनायक, कपिल, गजकर्णक, विकट, विघ्न-नाश, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र और गजानन तथा गणेश का स्मरण सुख और शांति प्रदान करता है. 

सांस्कृतिक एवं पारंपरिक रूप से भक्त भक्ति भाव के साथ गणपति की स्थापना करते हैं. इस मौके पर भक्तों का उत्साह देखते ही बनता है. ऐसा माना जाता है कि अगर इन दस दिनों में भगवान गणेश की भक्ति और विधि-विधान से पूजा की जाए तो व्यक्ति की सभी बाधाएं समाप्त हो जाती हैं और भगवान गणेश सौभाग्य, समृद्धि और खुशियां प्रदान करते हैं. वैदिक मंत्रोच्चार के साथ भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित की गई. गणेश महोत्सव के दौरान धार्मिक अनुष्ठान और रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है.

 गणेश चतुर्थी ऎतिहासिक घटना क्रम

अंग्रेजों ने इतने कठोर कानून बनाएं जिसके चलते सभा एवं कोई आयोजन कर पाना असंभव हो गया. इन कानूनों के कारण लोग एक साथ एक जगह पर एकत्रित नहीं हो पाते थे. समूह बनाकर कोई कार्य या प्रदर्शन नहीं कर सकते थे. और यदि कोई अंग्रेज अधिकारी उन्हें एक साथ देख लेता तो उसे इतनी कड़ी सजा दी जाती थी. अब आजादी के नायकों ने इस डर को भारतीयों में से निकालने के लिए एक बार पुन: गणेश उत्सव की शुरुआत की क्योंकि धार्मिक गतिविधियों का विरोध अंग्रेज सरकार के लिए भी आसान नहीं हो सकता था.  लोगों में अंग्रेजों का डर खत्म करने और इस कानून का विरोध करने के लिए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव की दोबारा शुरुआत की. और इसकी शुरुआत पुणे के शनिवारवाड़ा में गणेश उत्सव के आयोजन से हुई. लगभग 1894 के बाद इसे सामूहिक रूप से मनाया जाने लगा. हजारों लोगों की भीड़ जुटी ब्रिटिश पुलिस कानून के अनुसार पुलिस केवल किसी राजनीतिक समारोह में एकत्र हुई भीड़ को ही गिरफ्तार कर सकती है, किसी धार्मिक समारोह में एकत्र हुई भीड़ को नहीं.

इस प्रकार पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव मनाया गया. इस उत्सव का एक उद्देशय यह भी था कि भारत को अंग्रेजों से आज़ाद कराया जा सके. गणपति जी हमें इतनी शक्ति दें कि हम आजादी ला सकें. इसके बाद, गणपति उत्सव धीरे-धीरे पुणे के पास के बड़े शहरों जैसे अहमदनगर, मुंबई, नागपुर आदि में फैल गया. उत्सव में लाखों लोगों की भीड़ जुटती थी और आमंत्रित नेता उनमें देशभक्ति की भावना जगाते थे. इस प्रकार का प्रयास सफल रहा और लोगों के मन में देश के प्रति भावनाएं जागी और इस पर्व ने स्वतंत्रता आंदोलन में लोगों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.  

शिवाजी काल समय में गणेश उत्सव 

गणेश उत्सव अपनी पौराणिकता के साथ साथ इतिहास की विशेष घटनाओं और बदलावों के साथ भी जुड़ा हुआ पर्व है. प्राचीन भारत में सातवाहन राज्य एवं चालुक्य राजवंशों जैसे अन्य राजवंशों ने भी इस पर्व को मनाया है जिसका उल्ल्खे साक्ष्यों में प्राप्त होता है. गणेश उत्सव मनाने का उल्लेख काफी पुराने समय से जुड़ता है मराठा शासक छत्रपति शिवाजी महाराज ने गणेश उत्सव को राष्ट्रीय धर्म और संस्कृति से जोड़कर एक अलग रंग देने का कार्य करते हैं. यह इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दर्शाता है जिसे आज भी उसी रंग में मौजूद देखा जा सकता है. शिवाजी महाराज के बाद मराठा शासकों ने गणेश उत्सव को बड़े पैमाने पर मनाना जारी रखा. ब्रिटिश काल में यह त्योहार केवल हिंदू घरों तक ही सीमित था लेकिन फिर आजादी के नायकों ने इसे आगे बढ़ाने में योगदान दिया. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव को फिर से शुरू किया और गणपति उत्सव का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्त करना था. बन गया. इस प्रकार गणेश उत्सव का त्यौहार न केवल पौराणिक बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण रहा है.

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वराह जयंती के दिन जरूर करें राशि अनुसार उपाय मिलेगा सफलता का आशीर्वाद

 भगवान वराह भगवान विष्णु के अवतार हैं और इस शुभ दिन पर उनके भक्तों द्वारा उनकी पूजा की जाती है. यह त्यौहार बहुत महत्व रखता है विशेष रुप से दक्षिण भारत में इस पर्व का महत्व काफी खास माना गया है. इस्थ शुभ दिन पर भक्त भगवान विष्णु से आशीर्वाद पाने के लिए पवित्र स्नान करते हैं दान कार्यों को करते हैं तथा धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं.

वराह जयंती का समय बेहद शुभ एवं पवित्र समय होता है. इस दिन सभी भक्त भगवान की पूजा में अपना संपुर्ण दिवस व्यतीत करते हैं.  भक्त जल्दी उठते हैं और पवित्र स्नान करते हैं. इस समय के दोरान श्री विष्णु के वराह स्वरुप का पूजन करने का विधान होता है अत: विष्णु जी की वराह मूर्ति  एवं चित्र को स्थापित किया जाता है और पूजन कार्य संपन्न होते हैं. वराह जयंती के दिन श्री वाराह को एक धातु के बर्तन जो कलश के समान होता है उसमें स्थापित करते हैं तथा फिर पूजा की जाती है. 

भगवान वराह ने समुद्र में जाकर पृथ्वी को पुन: स्थापित किया था अत: इस पूजन में इस कलश को ही उस समुद्र एवं अवतरण की क्रिया के स्वरुप देखा जाता है. भगवान को कलश में रख कर इसे जल से भर दिया जाता है. इस दिन किए जाने वाले इस धार्मिक कार्य को बेहद आवश्यक एवं पवित्र अनुष्ठान के रुप में देखा जाता है. कलश में आम  के पत्तों  और नारियल को रखा जाता है और इसे फिर ब्राह्मण को दान कर दिया जाता है. इस पूजा कार्य के द्वारा व्यक्ति को शुभ फलों की प्राप्ति होती है. 

भगवान विष्णु के भक्तों के बीच वराह जयंती का बहुत महत्व है. वराह भगवान विष्णु का दूसरा रूप है. वराह का अर्थ है सूअर और भगवान विष्णु सत युग के दौरान इस रूप में प्रकट हुए थे. वह सृष्टि बचाने के लिए इस रूप में पृथ्वी पर आए और पृथ्वी को अपने दांतों से पकड़ लिया. भक्त भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा करते हैं और आशीर्वाद मांगते हैं. जो व्यक्ति इस विशेष दिन पर भगवान विष्णु की पूजा करता है उसे सभी सुख-समृद्धि प्राप्त होती है. सभी भगवान विष्णु भक्त इस शुभ दिन पर उपवास रखते हैं और मंदिरों में जाकर और भगवान को भोग प्रसाद चढ़ाकर इसे मनाते हैं. यह दिन मुख्य रूप से दक्षिण भारत के राज्यों में मनाया जाता है.

मेष राशि 

मेष राशि वालों के लिए वराह जयंती के दिन भगवान श्री विष्णु की पूजा हेतु कुछ विशेष चीजों को शामिल करना चाहिए. भगवान को लाल या पीले रंगों का शृंगार इस समय पर करने से मंगल ग्रह की शुभता प्राप्त होती है. इसी के साथ अगर कुंडली में मंगल ग्रह की शुभता पाना चाहते हैं तो इस समय पर भगवान को मूंगा रत्न अर्पित करना चाहिए तथा इस रत्न को बाद में किसी ब्राह्मण को देना चाहिए. 

वृष राशि 

वृष राशि के लिए भगवान वराह का पूजन अधिक विशेष माना गया है. इस दिन पर श्वेत वस्त्रों पर चंदन से श्री का निर्माण करते हुए अर्पित करना चाहिए. इस दिन पर भगवान का पूजन करने से शुक्र ग्रह को बल प्राप्त होता है. यदि कुंडली में शुक्र प्रभावित होता है तो ऎसे में इस उपाय द्वारा शीघ्र लाभ मिलता है. जीवन में सुख समृद्धि का प्रभाव सदैव बना रहता है.   

मिथुन राशि 

मिथुन राशि भगवान विष्णु की प्रिय राशि है इनके स्वामी बुध भगवान के परम भक्तों की श्रेणी में स्थान पाते हैं. ऎसे में यह शुभ अवसर भगवान की कृपा एवं जीवन में आने व्यवधानों से मुक्ति के लिए खास होता है. बुध की शुभता एवं पूजा के लाभ के लिए हरे रंग के वस्त्र अवश्य अर्पित करें. भगवान को पन्ना अर्पित करने से बौद्धिकता की शुभता प्राप्त होती है. 

कर्क राशि 

कर्क राशि के लिए श्री विष्णु कृपा पाना सहज होता है जल तत्व युक्त इस राशि और चंद स्वामित्व के कारण कर्क वालों के लिए भगवान वराह का पूजन मानसिक बल प्रदान करने वाला होता है. भगवान ने जिस प्रकार जल को संतुलन दिया पृथ्वी को जल से ऊपर लाकर स्थापित किया उसी प्रकार कर्क राशि वालों को इस दिन दूध और जल के मिश्रण से भरा कलश पूजा स्थान में रखने के पश्चात किसी ब्राह्मण को दान करना चाहिए. ऎसा करने से व्यक्ति को जीवन में प्रेम एवं सुख भविष्य की प्राप्ति होती है.

सिंह राशि 

सिंह राशि के साथ श्री विष्णु का विशेष संबंध रहा है. सूर्य सिंह राशि का स्वामी है और ऎसे में सूर्य की शुभता के लिए वराह पूजन के दिन पीतल का दान बेहद अच्छा माना गया है. प्रात:काल पीपतल से बने कलश में चावल और भगवान वराह की प्रतिमा का दान करना शुभ होता है. इसके अलावा इस दिन पर भगवान को लाल पुष्प एवं जल से स्नान कराना चाहिए. 

कन्या राशि 

कन्या राशि के लिए भगवान वराह के पूजन में घी से निर्मित पंचमुखी दिपक अवश्य प्रज्जवलित करना चाहिए. इस दिन पर पंच चीजों से निर्मित पंचामृत द्वारा श्री विष्णु का अभिषेक भी करना चाहिए. इन शुभ कार्यों को करने से व्यक्ति को अपने भाग्य में प्रगति की प्राप्ति होती है. 

तुला राशि 

तुला राशि वालों के लिए भगवान वराह के पूजन सफेद सूत से निर्मित जनेऊ अर्पित करना चाहिए. शुक्र इस राशि के स्वामी हैं ऎसे में तुला राशि वालों भगवान वराह के सफेद चंदन लगाना चाहिए ऎसा करने से जीवन में सकारात्मक ऊर्जा आपके भीतर अधिक तेजी से प्रवाहित होती है. 

वृश्चिक राशि 

वृश्चिक राशि के लिए भगवान वराह की पूजा में तुलसी और कच्ची भूमि की मिट्टी को स्थान देना चाहिए. मंगल को भूमि का कारक माना गया है और भगवान वराह ने अपने इस अवतार द्वारा पृथ्वी को कष्टों से मुक्ति प्रदान की अत: ऎसे में इन दो वस्तुओं को पूजा स्थान में रखने से शुभ फलों की प्राप्त होती है. 

धनु राशि 

धनु राशि के लिए वराह भगवान के पूजन में अष्टगंध का उपयोग करना शुभ माना गया है. अष्ट प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति इस दिन पर होती है. वराह देव को पीले पुष्पों की माला अर्पित करनी चाहिए. इस दिन वराह स्त्रोत का पाठ 11 बार करने से व्यक्ति की स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है. 

मकर राशि 

मकर राशि वालों के लिए भगवान वराह का पूजन करना ग्रह शांति के साथ सुखों को प्रदान करता है. भगवान वराह के पूजन में नीले रंगों के पुष्पों का उपयोग करना शुभ होता है. इस दिन इलायची ओर लौंग को भगवान के भोग में अवश्य शामिल करना चाहिए. 

कुंभ राशि

कुंभ राशि वालों के वराह भगवान का पूजन लाल चंदन की माला से करना चाहिए. भगवान वराह के मंत्र “ऊँ नमो: भगवते वराहरूपाय भुभुर्वः स्वः स्यात्पते भूपतित्वं देह्येतद्दपय स्वाहा” का जाप करना चाहिए इन मंत्रों को 1100 मंत्रों के साथ संपूर्ण करने से सिद्धियों की प्राप्ति होती है.

मीन राशि 

मीन राशि वालों को वराह की पूजा में शंख और कमल का उपयोग अवश्य करना चाहिए. माना जाता है कि भगवान वराह की इस विधि से पूजा करने से साधक को भूमि, भवन आदि का सुख प्राप्त होता है.इस दिन श्रीमद्भगवद गीता का पाठ करने से भी अनंत पुण्य फल मिलता है.

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वराह जयंती : जब श्री विष्णु ने किया ब्रह्मा के वरदान का अंत

वराह अवतार भगवान विष्णु का एक और अवतार है और भाद्रपद माह के दौरान वराह जयंती मनाई जाती हैश्री विष्णु के रुप वराह को प्रसन्न करने के लिए भक्त इस दिन व्रत एवं पूजा इत्यादि से उनकी पूजा करते हैं. भगवान वराह भगवान विष्णु के तीसरे अवतार हैं. इस दिन भगवान वराह की पूजा करने से भक्त को धन, भाग्य और खुशियां मिलती हैं. हिंदू पौराणिक कथाओं में यह माना जाता है कि भगवान वराह की पूजा करने से व्यक्ति को अपार धन और अच्छा स्वास्थ्य मिलता है. भगवान विष्णु, जिन्होंने आधे मानव और आधे सूअर के रूप में  जन्म लिया था.

 राक्षसों को हराने के लिए उन्होंने इस अवतार को धारण किया और तीनों लोकों को उन राक्षसों से मुक्त किया था. माना जाता है कि इस दिन भक्ति भाव से किया गया भगवान वराह का पूजन समस्त बुराईयों को दूर करने वाला होता है. जीवन में खुशियों का आगमन होता है. भक्त इस दिन भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, जो माघ और भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि  को आता है. श्री विष्णु, जिन्हें हिंदू पौराणिक कथाओं में सभी लोकों के रक्षक के रूप में जाना जाता है, देश भर में उन भक्तों द्वारा पूजा की जाती है जो उनके विभिन्न अवतारों में विश्वास रखते हैं.

दक्षिण भारत में वराह जयंती पर्व  

वैसे तो संपूर्ण भारत में ही इस उत्सव को मनाया जाता है लेकिन वराह जयंती का त्योहार मुख्य रूप से दक्षिण भारत में काफी व्यापक रुप से मनाया जाता देखा जा सकता है. इस शुभ समय के दिन भक्त के स्नान करने के बाद सुबह-सुबह प्रार्थना करने हेतु भगवान श्री विष्णु के मंदिरों में जाते हैं. घर पर पूजा स्थल पर भगवान का पूजन किया जाता है. इस दिन को मनाने के लिए अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं. भक्तों इस समय पर पूरे दिन उपवास रखते हैं. रात में भगवान विष्णु के विभिन्न स्वरूपों की कहानियों का पाठ करते हुए जागरण का आयोजन करना शुभ होता है. जो भक्त वराह जयंती का व्रत रखते हैं, उन्हें एक कलश में भगवान वराह की मूर्ति स्थापित करनी चाहिए, उसके बाद विसर्जन करना चाहिए. एक बार पूजा हो जाने के बाद मूर्ति को किसी ब्राह्मण या आचार्य को दान कर देना चाहिए.

वराह जयंती पूजन अनुष्ठान 

भगवान वराह की मूर्ति को मंदिर में स्थापित करते हैं. मंदिर में कलश में जल भर कर रखा जाता है. कलश पर नारियल रखा जाता है जिसे पूजा के बाद ब्राह्मण को दान कर दिया जाता है. श्रद्धालु इस दिन श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ करते हैं. जो लोग वराह जयंती का व्रत रखते हैं वह भक्ति भाव के साथ इस दिन को मनाते हैं तथा दान इत्यादि कार्यों को करत एहुए पुण्यफल पाते हैं. ऐसा माना जाता है कि इस दिन किया गया दान एवं धार्मिक पूजा पाठ भक्तों को शुभता प्रदान करने वाला होता है. पूजन द्वारा भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

उनके सबसे प्रसिद्ध अवतारों में से एक, वराह रूप को पृथ्वी पर भगवान विष्णु का तीसरा अवतार माना जाता है. वराह जयंती श्री विष्णु के जन्म का उत्सव मनाने वाला त्योहार है, जो सदैव पृथ्वी को कष्टों से मुक्त करते हैं. अधर्म का नाश करके धर्म एवं सदभाव को स्थापित करते हैं. त्रिदेवों में से सबसे शक्तिशाली देवताओं में से एक है.धर्म कथाएं कहती है कि  सृष्टि को दो शक्तिशाली राक्षसों के संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने वराह के रूप में जन्म लिया था, जिन्होंने तीनों लोकों पर आतंक मचा रखा होता है. 

वराह जयंती कथा

दिति ने दो राक्षसों को जन्म दिया. हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु अद्भुत शक्तियों के साथ पैदा हुए थे. उनके जन्म के समय संपूर्ण ब्रह्माण्ड भयभीत हो गया था. पृथ्वी हिलने लगती है. महासागरों में विशाल ज्वार उठने लगते हैं. नक्षत्र उलटे जाते हैं. तीनों लोकों का परिदृश्य अपने आप में भयानक होने लगता है. दोनों भाई जल्द ही मजबूत और विशाल शरीर वाले हो गये. दोनों ने कठिन तपस्या की और भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करने में सफल रहे. उन्होंने असीमित शक्तियां मांगीं और कहा कि कोई भी उन्हें किसी भी युद्ध में हरा न सके. भगवान ब्रह्मा ने उनकी इच्छा पूरी की और स्वर्ग वापस चले गये. वे दोनों शक्तिशाली हो गए और अपनी ताकत साबित करने के लिए तीनों लोकों के लोगों को परेशान करने लगे.

तीनों लोकों को प्राप्त करने के बाद, वे दोनों वरुण देव के राज्य “विभारी नगरी” को जीतने के लिए गए. सबसे पहले, वरुण देव उनकी शर्तों को सुनकर क्रोधित हो गए. लेकिन बाद में उन्होंने अपनी उग्रता को दबाते हुए उनसे कहा, “हो सकता है कि आप शक्तिशाली हों और आपके पास अद्भुत शक्तियां हों, लेकिन भगवान विष्णु सभी में श्रेष्ठ हैं. वह वही है जो तुम्हें हरा सकता है”. यह सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु को हराने के विचार से उनकी खोज में निकल पड़ा.

इसी बीच देवर्षि नारद को पता चला कि भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया है और पृथ्वी को रसातल से मुक्त कराने जा रहे हैं तब हिरण्याक्ष भी भगवान विष्णु के पीछे-पीछे चला और उसने उन्हें अपने दांतों से पृथ्वी को पकड़े हुए देखा. हिरण्याक्ष ने अपशब्द कहकर भगवान विष्णु को रोकने का प्रयास किया. इस प्रकार, वह भगवान विष्णु को उससे युद्ध करने के लिए उकसाने की कोशिश कर रहा था.

सबसे पहले, भगवान विष्णु ने उसके अपमानजनक व्यवहार को नजरअंदाज कर दिया और अपनी यात्रा जारी रखी. हिरणायक्ष और अधिक क्रोधित हो गया और कायर, पशु, पापी आदि शब्द कहकर प्रभु को और भी अधिक गालियां देने लगा. फिर भी भगवान विष्णु ने शांत रहकर पृथ्वी को समुद्र की सतह पर स्थापित किया. जिससे उनका कार्य पूरा हो सके. जब हिरण्याक्ष ने देखा कि उसकी बातें किसी भी तरह से भगवान विष्णु को उत्तेजित नहीं कर पा रही हैं, तो उसने उन पर हमला करने के लिए अपना हथियार निकाला. भगवान विष्णु ने उसके हाथ से हथियार छीनकर दूर फेंक दिया. दोनों ने कुछ देर तक आपस में युद्ध किया जिसमें हिरण्याक्ष भगवान विष्णु के हाथों मारा गया. इस प्रकार पृथ्वी पर पाप का अंत होता है तथा धर्म को पुन: फलने फुलने का अवसर प्राप्त होता है. 

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जानें क्यों मनाई जाती है तीन साल बाद विभुवन संकष्टी चतुर्थी

गणेश चतुर्थी भगवान गणेश के भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण त्योहार होता है. इसे विशेष गणेश चतुर्थी व्रतों में से एक के रूप में भी बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है. इसे अत्यधिक भक्ति के साथ मनाया जाता है. यह पर्व अधिकमास के दौरान मनाया जाता है,  इस दिन भगवान गणेश के भक्त विभिन्न रूपों की पूजा करते हैं, मंत्र जाप करते हुए पूजा द्वारा विशेष फलों की प्राप्ति होती है.   

भगवान गणेश को हिंदू संस्कृति में सौभाग्य लाने वाले देवता के रूप में अत्यधिक माना जाता है, गणेश चतुर्थी, जो हर चंद्र माह में कृष्ण पक्ष के चौथे दिन मनाई जाती है, वह दिन है जब हिंदू ग्रंथों के अनुसार आदि देव महादेव द्वारा श्री भगवान गणेश को सर्वोच्च प्रथम पूज्य घोषित किया गया था, हिंदुओं में यह मान्यता है कि गणेश चतुर्थी का व्रत रखने से व्यक्ति के जीवन से सभी बाधाएं दूर हो सकती हैं, संकष्टी चतुर्थी पूजा और व्रत के महत्व का वर्णन भविष्यत और नरसिम्हा पुराण में किया गया है और कहा जाता है कि संकष्टी चतुर्थी का महत्व स्वयं भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था,

विभुवन संकष्टी चतुर्थी का पौराणिक रहस्य 

इस चतुर्थी के विषय में कई कथाएं एवं मान्यताओं को सुना व देखा जा सकता है. यह बेहद लम्बे समय के बाद आने वाली चतुर्थी होती है. तीन साल बाद आने के कारण चतुर्थी बेहद शुभ और महत्वपूर्ण मानी जाती है. इस दिन की गई श्रीगणेश पूजा के द्वारा कई लाभ प्राप्त होते हैं. व्रत करने वाले भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं. इसके अलावा किसी भी प्रकार के कलंक से भी मुक्ति मिल पाना संभव होता है. 

ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार चतुर्थी तिथि का स्वामी श्री गणेश जी को माना गया है. इसके साथ ही श्री पुराणों में गणेश जी के अवतरण की तिथि भी चतुर्थी ही है इसके चलते यह समय बहुत ही विशिष्ट बन जाता है. इसलिए गणेश चतुर्थी का त्योहार इतने उत्साह के साथ मनाया जाता है. अधिकमास में आने वाली संकष्टी चतुर्थी बहुत ही विशेष योगों से निर्मित होती है.  यह जिस मास में आती है उसके अनुसार इसका फल मिलता है.  भगवान शिव के भक्ति मय माह में श्रावण मास में पड़ने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को विभुवन चतुर्थी के रूप में मनाया जाएगा. यह चतुर्थी इस समय के दोरान अत्यंत ही सकारात्मक फल देने वाली होती है. शिव परिवार की पूजा इस समय पर करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती है. इसे आने में तीन वर्ष का समय लगता है और अधिकमास में आती है तो इसका प्रभाव मोक्ष प्रदान करने के समान माना गया है. 

विभुवन संकष्टी चतुर्थी पूजा विधि

गणेश चतुर्थी का यह व्रत जब आता है तो उस दिन हवन, यज्ञ जैसे कार्यों को धार्मिक अनुष्ठा के रुप में किया जाता है. यह दिन उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है. भगवान श्रीगणेश की पूजा और स्मरण करते हुए इस दिन मंत्र जाप करना सभी कष्टों को दूर करने का एकमात्र अचूक उपाय है बन जाता है. चतुर्थी तिथि गणेश जी को अत्यंत प्रिय है और अधिकमास की विभुवन चतुर्थी जीवन में शुभ कर्मों को देने वाली होती है. 

गणेश चतुर्थी का व्रत करने से पूर्व संकल्प लेना चाहिए. ऎसा करने से गणेश जी की कृपा से संकट टल जाते हैं. व्यक्ति के जीवन में आर्थिक समृद्धि का आगमन होता है. यह चतुर्थी का पूजन संतान का सुख प्रदान करने वाला होता है. विघ्नहर्ता विभुवन चतुर्थी की पूजा सभी कष्टों को दूर करने वाली है.चतुर्थी के दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद साफ कपड़े पहनने चाहिए. श्री गणेश भगवान का स्मरण करना चाहिए. पूजा और व्रत का संकल्प लेना चाहिए. पूजा स्थल पर भगवान श्रीगणेश जी का आहवान करते हुए उनकी तस्वीर को पूजा स्थान पर रखना चाहिए. वहीं पर कलश में जल भरकर स्थापित करना चाहिए. भगवान श्रीगणेश जी की पूजा करनी चाहिए. शाम के समय धूप-दीप, पुष्प, अक्षत, रोली आदि से पूजन करना चाहिए. भगवान श्रीगणेश जी को पूजा में लड्डुओं का भोग अवश्य लगाना चाहिए. भोग को प्रसाद के रूप में सभी में बांट देना चाहिए.

गणेश चतुर्थी पर विघ्नहर्ता गणेश की पूजा करने से सभी समस्याओं का समाधान होता है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं. परिवार में आर्थिक समृद्धि आती है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चतुर्थी तिथि को भगवान श्री दीन गणेश की जन्म तिथि भी माना जाता है. इसलिए भगवान श्रीगणेश का आशीर्वाद पाने के लिए इस दिन विशेष रूप से भगवान गणेश की पूजा करने की परंपरा है. गणेश चतुर्थी शुभता और खुशियां लाने वाली है.

विभुवन संकष्टी चतुर्थी का महत्व

विभुवन संकष्टी चतुर्थी से संबंधित कई कथाएं प्राप्त होती हैं जिसमें से एक का संबंध महाभारत काल से माना गया है तथा अन्य का संबंध श्री विष्णु लक्ष्मी विवाह से बताया गया है. पौराणिक कथा के अनुसार, जब कौरव वनवास के समय पांडवों को शांति से नहीं रहने देते हैं. तब पांडव अत्यंत कष्टों का सामना करते हैं अपनी पहचन को छिपा पाना उनके लिए आसान नहीं होता है. ऎसे में  द्रौपदी इस संकट से बचने का उपाय वेद व्यास की से पूछती है तब व्यास जी उन्हें विभुवन संकष्टी चतुर्थी का व्रत विधिपूर्वक अनुष्ठान करने के लिए कहते हैं. पांडवों के भक्ति भाव के साथ किए गए इस पूजन से गणेश जी का आशीर्वाद उन्हें मिलता है और उनके कष्ट दूर हो जाते हैं. 

एक अन्य कथा अनुसार भगवान विष्णु माता लक्ष्मी जी से विवाह करने के लिए जाने लगे तो बारात में गणेश जी को शामिल नहीं किया जाता है और उन्हें घर की देखभाल के लिए रहने को कहा जाता है.  तब नारद जी गणेश जी से कहते हैं की ऎसा नहीं होना चाहिए आपको भी साथ में लेकर चलना चाहिए था किंतु आपके स्वरुप के चलते ऎसा नहीं हो पाया. तब गणेश जी ने अपने वाहन मूषक द्वारा समस्त पृथ्वी को खोखला कर देने का आदेश दिया. पृथ्वी के खोखला होने से विष्नू जी का रथ उसमें अटक गया है और पहिया निकल नहीं पाता है.  रथ का पहिया निकालने के लिए सारथी को कहा गया तब उसने रथ के पहिये को छूकर गणेश जी महाराज की जय बोलते हुए पहिया निकाल दिया. यह देख सब चकित रह गए. इसलिए कहा जाता है कि जब कार्य की शुरुआत में गणेश जी का स्मरण नहीं किया जाता है तो कार्य सिद्ध नहीं हो पाता है. तब सभी अपनी गलती का एहसास हुआ और गणेश जी को बुलाया गया और माफी मांगी गई फिर भगवान विष्णु का विवाह लक्ष्मी जी से संपन्न हो पाया. 

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