गोपेश्वर धाम | Gopeshwar Dham | Gopeshwar Dham Uttarakhand | Gopeshwar Dham Yatra

उत्तराखण्ड के चमोली क्षेत्र में गोपेश्वर में स्थित एक प्राचीन हिन्दू मंदिर है. भगवान शिव को समर्पित यह धाम भारत के प्रमुख रमणीय स्थलों मे से एक है. इस पवित्र स्थल के दर्शन मात्र से ही समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं. गोपेश्वर धाम केदारनाथ मंदिर के बाद सबसे प्राचीन स्थलों की श्रेणी में आता है.

उत्तराखण्ड का यह स्थल चार धाम की यात्रा के दौरान देखा जा सकता है. इसके निर्माण और वास्तु का स्वरूप सभी को आकर्षित करता है. पौराणिक महत्व लिए गोपीनाथ मंदिर शैव मत के साधकों का प्रमुख तीर्थ स्थल है. गोपेश्वर आने वाले तीर्थ यात्री गोपीनाथ मंदिर के दर्शन करना नहीं भूलते.

गोपेश्वर धाम का पौराणिक स्वरुप | Mythological form of Gopeshwar Dham

गोपेश्वर में स्थित भोले नाथ के मंदिर  को लेकर विभिन्न धार्मिक पौराणिक महत्व भी जुडे हुए हैं. पुराणों मे इस जगह के बारे में ज्ञात होता है कि यह स्थल भगवान शिव की तपोस्थली बना था. यहां पर भगवान शिव ने अनेक वर्षों तक तपस्या की तथा भगवान शिव द्वारा कामदेव को इसी स्थान पर भस्म किया गया था. कहा जाता है कि सती के देह त्याग के पश्चात जब भगवान शिव तप में लीन हो गए थे.

तब ताड़कासुर नामक राक्षस ने तीनो लोकों में आतंक मचा रखा था. तथा कोई भी उसे हरा नहीं पाया तब ब्रह्मा के कथन अनुसार शिव का पुत्र ही इसे मार सकता है. सभी देवों ने भगवान शिव की आराधना करनी शुरू कर दी परंतु शिव अपनी तपस्या से नहीं जागे इस पर इंद्र ने कामदेव को यह कार्य सौंपा ताकी भगवान शिव तपस्या को समाप्त करके देवी पार्वती से विवाह कर लें और उनसे उत्पन्न पुत्र ताड़कासुर का वध कर सके.

इसी वजह से इंद्र ने कामदेव को शिव की तपस्या भंग करने भेजा और जब कामदेव ने भगवान शिव पर अपने काम तीरों से प्रहार किया तो भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई तथा शिव ने क्रोधित हो कामदेव को मारने के लिए अपना त्रिशूल फेंका तो वह त्रिशूल इस स्थान पर गढ़ गया जहां पर वर्तमान में गोपीनाथ जी का मंदिर स्थापित है. इसके अतिरिक्त एक अन्य कथा अनुसार यहां पर राजा सगर का शासन था.

कहते हैं कि उस समय एक विचित्र घटना घटी एक गाय जो प्रतिदिन इस स्थान पर आया करती थी तथा उसके स्तनों का दूध स्वत: ही यहां पर गिरने लगता जब राजा को इस बात का पता चला तो राजा ने सिपाहियों समेत उस गाय का पीछा किया संपूर्ण घटनाक्रम को देखकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जहां गाय के दूध की धारा स्वतः ही बह रही थी वहां पर एक शिव लिंग स्थापित था. इस पर राजा ने उस पवित्र स्थल पर मंदिर का निर्माण किया.

कुछ लोगों का कथन है कि जब राजा ने यहां मंदिर का निर्माण कार्य शुरू करवाया तो भूमि धँसने लगी तब राजा ने यहां पर भैरव की स्थापना की जिसके फलस्वरूप मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण हो सका इस कथन के सत्यता का प्रमाण मन्दिर के आस पास की धंसी हुई ज़मीन से ज्ञात होता है साथ ही मान्यता है की यहां आने वाले व्यक्ति को भैरव जी के दर्शन अवश्य करने चाहिए तभी भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

गोपेश्वर धाम महत्व | Significance of Gopeshwar Dham

चमोली के गोपेश्वर में स्थित य्ह स्थल लोगों कि आस्था एवं विश्वास का प्रमुख केन्द्र है इसमें एक बहुत बडा़ त्रिशुल स्थापित है. इस त्रिशूल की धातु का सही ज्ञान तो नहीं हो पाया है परंतु इतना अवश्य है कि यह अष्ट धातु का बना होगा. त्रिशुल आज भी सही सलामत खड़ा हुआ है इस त्रिशुल पर वहां के मौसम का तनिक भी प्रभाव नहीं पडा. और न ही इस त्रिशुल को उसके स्थान से हिलाया जा सका अभी भी वह उसी अवस्था स्थित में गढा़ हुआ है.

इस मंदिर में शिवलिंग, परशुराम, भैरव जी की प्रतिमाएं विराजमान हैं. मंदिर के निर्माण में भव्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है. मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है मंदिर से कुछ दूरी पर वैतरणी नामक कुंड स्थापित है जिसके पवित्र जल में स्नान करने का विशेष महत्व है. सभी तीर्थ यात्री इस पवित्र स्थल के दर्शन प्राप्त करके परम सुख को पाते हैं.

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ऋषि पराशर | Sage Parashara | Parasara Maharshi | Parasara Muni

ऋशि पराशर जी प्राचीन भारतीय ऋषि मुनि परंपरा की श्रेणी में एक महान ऋषि के रूप में सामने आते हैं. प्रमुख योग सिद्दियों के द्वारा तथा अनेक महान शक्तियों को प्राप्त करने वाले ऋषि पराशर महान तप और साधना भक्ति द्वारा जीवने के पथ प्रदर्शक के रुप में सामने आते हैं. ऋषि पराशर के पिता का देहांत इनके जन्म के पूर्व हो चुका था अतः इनका पालन पोषण इनके पितामह वसिष्ठ जी ने किया था. यही ऋषि पराशर वेद व्यास कृष्ण द्वैपायन के पिता थे. मुनि शक्ति के पुत्र तथा महर्षि वसिष्ठ के पौत्र हुए ऋषि पराशर. महान विभुतियों के घर जन्म लेने वाले पराशर इन्हीं के जैसे महान ऋषि हुए.

ऋषि पराशर कथा | Rishi Parasara Katha

ऋषि पराशर वैदिक सूक्तों के द्रष्टा और ग्रंथकार थे. इनका पालन पोषण एवं शिक्षा इनके पितामह जी के सानिध्य में हुई इस जब यह बडे़ हुए तो माता अदृश्यंती से इन्हें अपने पिता की मृत्यु का पता चला कि किस प्रकार राक्षस ने इनके पिता का और परिवार के अन्य जनों का वध किया यह घटना सुनकर वह बहुत क्रुद्ध हुए राक्षसों का नाश करने के लिए उद्यत हो उठे. उन्होंने राक्षसों के नाश के निमित्त राक्षस सत्र नामक यज्ञ आरंभ किया जिसमें अनेक निरपराध राक्षस भी मारे जाने लगे. इस प्रकार इस महा विनाश और दैत्यों के व्म्श ही समाप्त हो जाने को देखकर पुलस्त्य समेत अन्य ऋषियों ने पराशर ऋषि को समझाया महर्षि पुलस्त्य जी के कथन अनुसार ऋषि पराशर जी ने यज्ञ समाप्त किया और राक्षसों के विनाश करने का क्रम त्याग दिया.

महर्षि पराशर और वेद व्यास | Maharshi Parasara and Ved Vyas

महर्षि पराशर के पुत्र हुए ऋषि वेद व्यास जी इनके विषय में पौराणिक ग्रंथों में अनेक तथ्य प्राप्त होते हैं. इनके जन्म की कथा अनुसार यह ऋषि पराशर के पुत्र थे इनकी माता का नाम सत्यवती था. सत्यवती का नाम मत्स्यगंधा भी था क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध आती थी वह नाव खेने का कार्य करती थी. एक बार जब पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करते हैं तो पाराशर मुनि सत्यवती के रूप सौंदर्य पर आसक्त हो जाते हैं और उसके समक्ष प्रणय संबंध का निवेदन करते हैं.

परंतु सत्यवती उनसे कहती है कि हे  “मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या अत: यह संबंध उचित नहीं है तब पाराशर मुनि कहते हैं कि चिन्ता मत करो क्योंकि संबंध बनाने पर भी तुम्हें अपना कोमार्य नहीं खोना पड़ेगा और प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी इस पर सत्यवती मुनि के निवेदन को स्वीकार कर लेती है. ऋषि पराशर अपने योगबल द्वारा चारों ओर घने कोहरे को फैला देते हैं और सत्यवती के साथ प्रणय करते हैं. ऋषि सत्यवती को आशीर्वाद देते हैं कि उसके शरीर से आने वाली मछली की गंध, सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी.

वहीं नदी के द्विप पर ही सत्यवती को पुत्र की प्राप्ति होती है यह बालक वेद वेदांगों में पारंगत होता है. व्यास जी सांवले रंग के थे जिस कारण इन्हें कृष्ण कहा गया तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न होने के कारण यह ‘द्वैपायन’ कहलाये  और कालांतर में वेदों का भाष्य करने के कारण वह वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये. इस प्रकार पराशर जी के कुल में उत्पन्न हुई एक महान विभुति थे वेद व्यास जी.

पराशर द्वारा रचित ग्रंथ | Prakarana Granthas

पराशर ऋषि ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें से ज्योतिष के उपर लिखे गए उनके ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण रहे. इन्होंने फलित ज्योतिष सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया. कहा जाता है, कि कलयुग में पराशर के समान कोई ज्योतिष शास्त्री नहीं हुए. इसी संदर्भ में एक प्राचीन कथा प्रचलित है, कि एक बार महर्षि मैत्रेय ने आचार्य पराशर से विनती की कि, ज्योतिष के तीन अंगों के बारे में उन्हें ज्ञान प्रदान करें  है. इसमें होरा, गणित, और संहिता तीन अंग हुए जिसमें होरा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. होरा शास्त्र की रचना महर्षि पराशर के द्वारा हुई है.

ऋग्वेद के अनेक सूक्त इनके नाम पर हैं, इनके द्वारा रचित अनेक ग्रंथ ज्ञात होते हैं जिनमे से बृहत्पराशर होरा शास्त्र, लघुपाराशरी,  बृहत्पाराशरीय धर्मसंहिता, पराशरीय धर्मसंहिता स्मृति, पराशर संहिता वैद्यक , पराशरीय पुराणम, पराशरौदितं नीतिशास्त्रम,  पराशरोदितं, वास्तुशास्त्रम इत्यादि. कौटिल्य शास्त्र में भी महर्षि पराशर का वर्णन आता है. पराशर का नाम प्राचीन काल के शास्त्रियों में प्रसिद्ध रहे है. पराशर के द्वारा रचित बृहतपराशरहोरा शास्त्र में लिखा गया है.

इन अध्यायों में राशिस्वरुप, लग्न विश्लेषण, षोडशवर्ग, राशिदृ्ष्टि, भावविवेचन, द्वादश भावों का फल निर्देश, प्रकाशग्रह, ग्रहस्फूट, कारक,कारकांशफल,विविधयोग, रवियोग, राजयोग, दारिद्रयोग,आयुर्दाय, मारकयोग, दशाफल, विशेष नक्षत्र, कालचक्र, ग्रहों कि अन्तर्दशा, अष्टकवर्ग, त्रिकोणदशा, पिण्डसाधन, ग्रहशान्ति आदि का वर्णन किया गया है.से निवृत्त किया और पुराण प्रवक्ता होने का वर दिया ऋषि पराशर द्वारा दिए गए समस्त वक्ताओं में कुछ बातों का ध्यान अधिक देने की आवश्यकता है.

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अक्षय तृतीया 2024 | Akshaya Tritiya

अक्षय तृतीया पर्व को कई नामों से जाना जाता है. इसे अखतीज और वैशाख तीज भी कहा जाता है. इस वर्ष यह पर्व 10 मई 2024  के दिन मनाया जाएगा. इस पर्व को भारतवर्ष के खास त्यौहारों की श्रेणी में रखा जाता है. अक्षय तृतीया पर्व वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि के दिन मनाया जाता है. इस दिन स्नान, दान, जप, होम आदि अपने सामर्थ्य के अनुसार जितना भी किया जाएं, अक्षय रुप में प्राप्त होता है.

अक्षय तृतीया कई मायनों से बहुत ही महत्वपूर्ण समय होता है. इस दिन के साथ बहुत सारी कथाएं ओर किवदंतीया जुडी हुई हैं. ग्रीष्म ऋतु का आगमन, खेतों में फसलों का पकना और उस खुशि को मनाते खेतीहर व ग्रामीण लोग विभिन्न व्रत, पर्वों के साथ इस तिथि का पदार्पण होता है. धर्म की रक्षा हेतु भगवान श्री विष्णु के तीन शुभ रुपों का वतरण भी इसी अक्षय तृतीया के दिन ही हुए माने जाते हैं.

माना जाता है कि जिनके अटके हुए काम नहीं बन पाते हैं,या व्यापार में लगातार घाटा हो रहा है अथवा किसी कार्य के लिए कोई शुभ मुहुर्त नहीं मिल पा रह अहोतो उनके लिए कोई भी नई शुरुआत करने के लिए अक्षय तृतीया का दिन बेहद शुभ माना जाता है.  अक्षय तृतीया में सोना खरीदना बहुत शुभ माना गया है. इस दिन स्वर्णादि आभूषणों की ख़रीद-फरोख्त को भाग्य की शुभता से जोडा़ जाता है.

अक्षय तृतीया का पौराणिक महत्व | Historical significance of Akshaya Tritya

इस पर्व से अनेक पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं. इसके साथ महाभारत के दौरान पांडवों के भगवान श्रीकृष्ण से अक्षय पात्र लेने का उल्लेख आता है. इस दिन सुदामा और कुलेचा भगवान श्री कृष्ण के पास मुट्ठी – भर भुने चावल प्राप्त करते हैं. इस तिथि में भगवान के नर-नारायण, परशुराम, हयग्रीव रुप में अवतरित हुए थे. इसलिये इस दिन इन अवतारों की जयन्तियां मानकर इस दिन को उत्सव रुप में मनाया जाता है. एक पौराणिक मान्यता के अनुसार त्रेता युग की शुरुआत भी इसी दिन से हुई थी. इसी कारण से यह तिथि युग तिथि भी कहलाती है.

अक्षय तृतीया तिथि के दिन अगर दोपहर तक दूज रहे, तब भी अक्षय तृतीया इसी दिन मनाई जाती है. इस दिन सोमवार व रोहिणी नक्षत्र हो तो बहुत उत्तम है. जयन्तियों का उत्सव मनाना और पूजन इत्यादि कराना हों, तो विद्वान पंडित से कराएं. इसी दिन प्रसिद्ध तीर्थस्थल बद्रीनारायण के कपाट भी खुलते हैं.  वृन्दावन स्थित श्री बांके बिहारी जी के मन्दिर में केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं.

अक्षय तृतीया में दान पुण्य का महत्व | Significance of charity on Akshaya Tritya

अक्षय तृतीया में पूजा, जप-तप, दान स्नानादि शुभ कार्यों का विशेष महत्व तथा फल रहता है. इस दिन गंगा इत्यादि पवित्र नदियों और तीर्थों में स्नान करने का विशेष फल प्राप्त होता है. यज्ञ, होम, देव-पितृ तर्पण, जप, दान आदि कर्म करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है.

अक्षय तृ्तिया के दिन गर्मी की ऋतु में खाने-पीने, पहनने आदि के काम आने वाली और गर्मी को शान्त करने वाली सभी वस्तुओं का दान करना शुभ होता है. इस्के अतिरिक्त इस दिन जौ, गेहूं, चने, दही, चावल, खिचडी, ईश (गन्ना) का रस, ठण्डाई व दूध से बने हुए पदार्थ, सोना, कपडे, जल का घडा आदि दें. इस दिन पार्वती जी का पूजन भी करना शुभ रहता है.

अक्षत तृतीया व्रत एवं पूजा | Fast and rituals for Akshaya Tritya

अक्षय तृ्तीया का यह उतम दिन उपवास के लिए भी उतम माना गया है. इस दिन को व्रत-उत्सव और त्यौहार तीनों ही श्रेणी में शामिल किया जाता है. इसलिए इस दिन जो भी धर्म कार्य किए वे उतने ही उतम रहते है.

इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान इत्यादि नित्य कर्मों से निवृत होकर व्रत या उपवास का संकल्प करें. पूजा स्थान पर विष्णु भगवान की मूर्ति या चित्र स्थापित कर पूजन आरंभ करें भगवान विष्णु को पंचामृत से स्नान कराएं, तत्पश्चात उन्हें चंदन, पुष्पमाला अर्पित करें.

पूजा में में जौ या जौ का सत्तू, चावल, ककडी और चने की दाल अर्पित करें तथा इनसे भगवान विष्णु की पूजा करें. इसके साथ ही विष्णु की कथा एवं उनके विष्णु सस्त्रनाम का पाठ करें.  पूजा समाप्त होने के पश्चात भगवान को भोग लाएं ओर प्रसाद को सभी भक्त जनों में बांटे और स्वयं भी ग्रहण करें. सुख शांति तथा सौभाग्य समृद्धि हेतु इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती जी का पूजन भी किया जाता है.

लोकाचारे में इस दिन चावल, मूंग की खिचडी खाने का बडा रिवाज है. यह व्यंजन बनाने के लिये इमली के फल और गुड को अलग-2 भिगो दिया जाता है. और अच्छी तरह भीग जाने पर दोनों का रस बनाकर छान लेते है. इमली के बराबर का गुड मिलाया जाता है. इस दिन खेती करने वाले आने वाले वर्ष में खेती कैसी रहेगी. इसके कई तरह के शकुन निकालते है. इस दिन को नवन्न पर्व भी कहते हैं, इसलिए इस दिन बरतन, पात्र, मिष्ठान्न, तरबूजा, खरबूजा दूध दही चावल का दान भी किया जाता है

अक्षय तृतीया अभिजीत मुहुर्त | Auspicious time for Akshaya Tritya

धर्म शास्त्रों में इस पुण्य शुभ पर्व की कथाओं के बारे में बहुत कुछ विस्तार पूर्वक कहा गया है. इनके अनुसार यह दिन सौभाग्य और संपन्नता का सूचक होता है. दशहरा, धनतेरस, देवउठान एकादशी की तरह  अक्षय तृतीया  को अभिजीत, अबूझ मुहुर्त या सर्वसिद्धि मुहूर्त भी कहा जाता है. क्योंकि इस दिन किसी भी शुभ कार्य करने हेतु पंचांग देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती. अर्थात इस दिन किसी भी शुभ काम को करने के लिए आपको मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता  नहीं होती. अक्षय अर्थात कभी कम ना होना वाला इसलिए मान्यता अनुसार इस दिन किए गए कार्यों में शुभता प्राप्त होती है. भविष्य में उसके शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं.

पूरे भारत वर्ष में अक्षय तृतीया की खासी धूम रहती है. हए कोई इस शुभ मुहुर्त के इंतजार में रहता है ताकी इस समय किया गया कार्य उसके लिए अच्छे फल लेकर आए. मान्यता है कि इस दिन होने वाले काम का कभी क्षय नहीं होता अर्थात इस दिन किया जाने वाला कार्य कभी अशुभ फल देने वाला नहीं होता. इसलिए किसी भी नए कार्य की शुरुआत से लेकर महत्वपूर्ण चीजों की खरीदारी व विवाह जैसे कार्य भी इस दिन बेहिचक किए जाते हैं.

नया वाहन लेना या गृह प्रेवेश करना, आभूषण खरीदना इत्यादि जैसे कार्यों के लिए तो लोग इस तिथि का विशेष उपयोग करते हैं. मान्यता है कि यह दिन सभी का जीवन में अच्छे भाग्य और सफलता को लाता है. इसलिए लोग जमीन जायदाद संबंधी कार्य, शेयर मार्केट में निवेश रीयल एस्टेट के सौदे या कोई नया बिजनेस शुरू करने जैसे काम भी लोग इसी दिन करने की चाह रखते हैं.

अक्षय तृतीया महत्व | Significance of Akshaya Tritya

वैशाख शुक्ल पक्ष की तृ्तिया को अक्षय तृ्तिया के नाम से पुकारा जाता है इस तिथि के दिन महर्षि गुरु परशुराम का जन्म दिन होने के कारण इसे “परशुराम तीज” या “परशुराम जयंती” भी कहा जाता है. इस दिन गंगा स्नान का बडा भारी महत्व है. इस दिन स्वर्गीय आत्माओं की प्रसन्नाता के लिए कलश, पंखा, खडाऊँ, छाता,सत्तू, ककडी, खरबूजा आदि फल, शक्कर आदि पदार्थ ब्राह्माण को दान करने चाहिए. उसी दिन चारों धामों में श्री बद्रीनाथ नारायण धाम के पाट खुलते है. इस दिन भक्तजनों को श्री बद्री नारायण जी का चित्र सिंहासन पर रख के मिश्री तथा चने की भीगी दाल से भोग लगाना चाहिए. भारत में सभी शुभ कार्य मुहुर्त समय के अनुसार करने का प्रचलन है अत: इस जैसे अनेकों महत्वपूर्ण कार्यों के लिए इस शुभ तिथि का चयन किया जाता है, जिसे अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाता है.

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पजूनो पूनो व्रत | Pajuno Puno Vrat | Pajuno Puno Vrat | Puno Festival

चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन पजूनो पूनो व्रत का विधान है. इस शुभ तिथि के अवसर पर महिलाएं संतान की खुशहाली के लिए इस व्रत का पूजन एवं नियम पूर्ण श्रद्धा के साथ करती हैं. यहां पूजन पूनो से तात्पर्य यह है कि शुक्ल पक्ष की पंद्रहवीं या चंद्रमास की अंतिम तिथि को पूनो कहा जाता है और जब चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा आती है तो पूजन कुमार की पूजा कि जाती है. इस कारण से इस व्रत को पजूनो पूनो व्रत कहा गया है.

चैत्र पूर्णिमा के पवित्र दिन पजून कुमार जी की पूजा होती है. इस पर्व में पूजा-पाठ का बहुत महत्व होता है तथा इच्छा ओर सामर्थ के अनुसार महिलाएं व्रत भी रख सकती हैं. इस दिन की एक रोचक बात यह है कि कहते तो इसे पजूनो पूनो व्रत है परंतु इस दिन व्रत का विशेष विधान नहीं है बल्कि केवल पूजन का ही महत्व अधिक माना गया है. जिस घर में पुत्र संतान उत्पन्न हो उस घर में इस पूजा को किया जाता है.

पजूनो पूनो पूजा विधि | Pajuno Puno Pooja Vidhi

जिस घर में पुत्र का जन्म होता है वहां इस शुभ तिथि के दिन स्त्रियां विधि विधान के साथ पजूनो कुमार की पूजा करती हैं. पूजा में पाँच या सात मिट्टी से बनी मटकियाँ पूजी जाती हैं. इन मटकियों के साथ करवे को भी उपयोग में लाया जाता है. अब इन सभी मटकियों को चूने से रंगा जाता है या खड़िया मिट्टी से रंगा जाता है तथा इसके साथ ही करवे को भी हल्दी से रंग देते हैं. सभी मटकियों और करवे को रंगने के पश्चात इन्हें सुखाने के लिए रख देते हैं .

मटकियों तथा करवे के सूखने के बाद अब इन मटकियों तथा करवे पर पजून कुमार अर्थात बालक का चित्र बनाते हैं तथा इसके साथ ही पजूनो की दोनों माताओं का भी चित्र बनाया जाता है. चित्र बनाने के उपरांत मटकियों के मध्य में करवे को स्थापित किया जाता है तत्पश्चात इन मटकियों और करवे को विभिन्न पकवानों और मिठाईयों से भर दिया जाता है तथा पूजा आरंभ कि जाती है.

इस पूजन में भगवान गणेश, माता गौरी तथा नवग्रहों का विधि पूर्वक पूजन के साथ पजूनो कुमार एवं उनकी दोनो माताओं का पूजन किया जाता है. इसके साथ ही कथा सुनी जाती है. एक स्त्री कथा सुनाती है और बाकी स्त्रियां हाथों में चावल लेकर शांति एवं श्रद्धा पूर्वक कथा सुनती हैं.

कथा समाप्त होने पर मटकियों पर अक्षत छोड़कर नमन किया जाता है फिर मटकियों को हिला -हिलाकर उन्ही के स्थानों पर रख देते हैं. अब बालक, पजून कुमार की मटकी में से लड्डू निकालकर माँ की झोली में डाल देता है और मां बालक को लड्डू -पकवान इत्यादि देती है. घर के सभी सदस्यों को मटकियों का पकवान प्रसाद के रूप में बाँटा जाता है. प्रसाद देते समय ‘पजून के लड्डू वा पजून खायं, दौर -दौर वही कोठरी में जायं l l ‘को बार बार कहा जाता है.

इस प्रकार यह पूजा संतान की दीर्घायु और उसके सुखी जीवन के लिए की जाती है तथा माता और संतान का प्रेम भी घनिष्ठ होता है.

पजूनो पूनो कथा | Pajuno Puno Katha

पजूनो पूनो कथा इस प्रकार है – राजा वासुकी की दो पत्नियाँ थी. जिनमे से एक नाम सिकौली और दूसरी पत्नी का नाम रुपा था. राजा अपनी पत्नीयों के साथ सुख पूर्वक जीवन जी रहे थे. परंतु उन्हें एक ही दुख था कि उनके कोई संतान नहीं थी. सिकौली बड़ी थीं और रुपा छोटी थी. जहां सिकौली को अपनी सास और ननद का भरपूर प्रेम मिलता था वहीं रुपा को उसकी सास और ननद पसंद नहीं करती थी, लेकिन रूपा राजा को बहुत प्रिय थी इसलिए वह सास और ननद की नाराजगी से अधिक परेशान नहीं होती थी.

रुपा को संतान की बहुत इच्छा थी इसलिए वह बूढ़ी स्त्रियों से पुत्र – प्राप्ति का उपाय पूछती थी, तो वह बुजुर्ग स्त्रियाँ उसे बताती थी कि यदि सास-ननद का आशीर्वादप्राप्त हो तो उसे संतान सुख भी प्राप्त हो सकता है. किंतु रुपा की सास और ननद उससे नाराज ही रहती थीं. इसलिए उसने बुजुर्ग स्त्रियों से सलाह मांगी की वह कैसे अपनी सास और ननद का आशीर्वादप्राप्त कर सकती है तो उन बूढी स्त्रियों ने उसे एक तरकीब बताई जिसके अनुसार एक दिन रुपा ग्वालिन का वेश बनाकर सास – ननद के महल में दूध देने जाती है. दूध की मटकियाँ उनके पास रख कर वह उनके पाँव छूती हैं और सास-ननद उसके भेद को न जानकर ग्वालिन बनी रुपा को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे देती हैं.

कुछ समय पश्चात आशीर्वाद स्वरुप रूपा गर्भवती होती है और इस खुशखबरी को राजा को बताती है. रुपा इसका सारा भेद भी राजा को बता देती है लेकिन इसके साथ ही साथ वह राजा से यह भी कहती है कि हम यह बात किसी को नहीं बता सकते परंतु मै तो प्रसव के बारे में कुछ भी नहीं जानती अब सब कैसे होगा. राजा सारी बात सुनकर रुपा से कहता है कि ‘तुम चिन्ता न करो मै तुम्हारे महल में कुछ घंटियाँ बँधवा देता हूँ. इस तरह जब भी तुम्हे प्रसव पीड़ा आरंभ हो तो तुम इन डोरे से बंधी घंटियों को खींच देना और इनकी आवाज सुन मै तुरंत तुम्हारे पास आ जाउँगा. इस प्रकार सारे प्रबन्ध करके राजा अपने महल लौट जाता है.

रानी अपनी सुरक्षा के प्रबंध की जांच करने के बारे में सोचती है और नादानी वश उन घंटियों को बजा देती है. घंटियों की आवाज सुन राजा दरबार छोड़कर तुरंत रानी के पास पहुँच जाता है लेकिन वहां पहुँच कर जब राजा को स्थिति का पता चलता है तो उसे बहुत क्रोध आता है और वह नाराज होकर वहाँ फिर कभी न आने की बात कहकर लौट जाता है. अपनी गलती पर रानी को बहुत पश्चाताप होता है परंतु अब उसके पास कोई और सहायता नहीं होती तो वह मजबूर होकर सास और ननद के पास जाती है और उन्हें अपने मां बनने की बात कहती है.

सास और ननद उसकी बात सुन मन ही मन क्रोधित होती हैं, परंतु चेहरे पर शिकन लाए बिना उसके समक्ष अच्छा आचरण करती हुई उसकी मदद करने का आश्वासन देतीं हैं. वह रुपा से कहतीं हैं कि जब उसे प्रसव पीडा़ शुरू हो तो वह अपना सिर कोने में रख कर ओखली में बैठ जाए. रूपा अपनी सास और ननद की चाल से बेखबर हो उनके बताए हुए उपाय को ही करती है. इस प्रकार जब बच्चा पैदा होता है तो वह ओखली में गिर जाता है. बच्चे का रोना सुन सास -ननद वहाँ पहुँचती हैं और उनके साथ सिकौली रानी भी होती है. वह बच्चे को कचरे के ढेर पर फिकवा देती हैं और ओखली में कंकड -पत्थर डाल देती हैं और रुपा से कहती हैं कि उसने तो कंकड पत्थर पैदा किए हैं.

राजा को जब रुपा के प्रसव का पता चलता है तो वह तुरंत वहां पहुंच जाता है, लेकिन बच्चे के स्थान पर उन कंकड़ पत्थर को देखकर वह परेशान हो जाता है. राजा को अपनी माँ तथा बहन की चाल का पता चल जाता है पर वह कुछ भी नहीं कह पाता. जिस दिन बच्चे को जन्म होता है उस दिन चैत्र शुक्ला पूर्णिमा होती है. एक कुम्हार की निगाह उस कचरे के ढेर पर पडे़ बच्चे पर पड़ती है. वह उस बच्चे को अपने घर ले आता है जहां कुम्हार की पत्नी उसे अपनाकर उसका लालन पालन करती है.

बालक के बडा़ होने पर कुम्हार उसे खेलने के लिए मिट्टी का घडा बनाकर देता है. एक दिन  बालक उस घोडे़ के साथ खेलने लगता है और उसे नदी में डुबो कर पानी पीने को कहता है. बालक को ऎसा करते देख स्त्रियां उसे कहती हैं कि, मूर्ख क्या कभी मिटटी का घोड़ा भी पानी पीता है तो बालक उन्हें कहता है कि जब रानी कंकड़ पत्थर पैदा कर सकती है तो यह घोडा़ भी पानी क्यों नहीं पी सकता. उस बालक की बात सुन सभी स्त्रियां आश्चर्य से भर जाती हैं और उस बालक को रुपा का बच्चा कहने लगती हैं. जब सिकौली को इस बात का पता चलता है तो वह उस बच्चे को मरवाने का प्रयास करती हैं. राजा से उसे मारने को कहती है लेकिन राजा ऎसा करने से मना कर देता है परंतु रानी के हठ के समक्ष हार कर वह उस कुम्हार  परिवार को राज्य से बाहर निकाल देता है.

कुछ दिनों पश्चात वह बालक भेस बदलकर दरबार में आने लगता है. वहां उसे कोई पहचान नहीं पाता और वह उनके साथ घुल मिल जाता है. एक बार राज्य में अकाल पड़ जाता है. राज्य के ज्योतिष राजा को इस संकट की घडी़ से उबरने के लिए उपाय बताते हैं कि अगर राजा-रानी स्वयं रथ में बैल की तरह कन्धा देकर चलें ओर चैत्र -शुक्ल पूर्णिमा को उत्पन्न हुआ द्विजातीय बालक रथ को हाँके तो वर्षा अवश्य होगी और अकाल समाप्त हो जाएगा. यह सुनकर बालक राजा से कहता है कि वह चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन ही जन्मा है.

रथ चलाने की तैयारियाँ होती हैं इस बीच वह बालक रुपा के पास जाकर उसे कहता है कि इस समय जो भी काम होगा वह तुम अपनी जेठानी के बाद ही करना और हर काम में तुम उसे पहले करने देना. रूपा  बालक के कथन अनुसार ही कार्य करती है. रथ में कन्धा देने के समय वह पहले सिकौली रानी को आगे करती है. जब सुकौली रानी रथ को हाकने लगती है तो उसे बहुत कष्ट मिलता है. तेज धूप और मार्ग में बिछे कांटे उसे बहुत कष्ट देते हें.

जब रुपा की बारी आती है तो आसमान में बादल छाने लगते हैं और वर्षा होने लगती है. इस तरह रुपा को कोई भी कष्ट नहीं होता. बालक रूपा के चरण छुता है और सभी जान जाते हैं कि वह रानी का पुत्र पजून कुमार है. पजून कुमार महल में आता है और दादी के पास जाता है और उनसे कहता हे कि “दादी हम आये क्या आपके मन भाये” तो दादी कहती है – “बेटा नाती-पोते किसे बुरे लगते है”. तब पजून कुमार कहता है कि आपने मेरे मन की बात नहीं कही इसलिए मैं तुम्हे शाप देता हूँ तुम अगले जन्म में दहलीज बनो.

अब बालक बुआ के पास जाता है और उनसे कहता है बुआ, “हम आये क्या तुम्हारे मन भाये”. बुआ भी उसके मन अनुसार उत्तर नही देती तो वह बुआ को चौका लगाने वाला मिटटी का बर्तन हो जाने का शाप दे देता है. बालक अपनी सौतेली माँ सिकौली के पास जाता है और उनसे कहता है – “माँ हम आये ,क्या तुम्हारे मन भाए”. इस पर सौतेली माँ कहती है – “आये सो अच्छे आये ,जेठी के हो या लहूरि के, होते लड़के ही”. पजून को अब भी मन अनुसार उत्तर नहीं मिलता इसलिए वह सिकौली को घूंघची बनने का श्राप देता है.

आखिर में वह अपनी असली माँ रूपा के पास जाता है और कहता है – ‘माँ ! माँ  हम आये तुम्हारे मन भायेे या न भाये”. रूपा रानी बोली, बेटा आये आये ! हमने न पाले न पोसे, न खिलाये न पिलाये l हम क्या जाने कैसे आये ? तभी वह किशोर राजकुमार नवजात शिशु के रूप में बदलकर रोने लगता है.  माँ उसे गोद मे लेकर दूध पिलाने लगी. सभी बालक को पाकर प्रसन्नता से झूम उठते हैं और सारे राज्य में आनन्द की लहर दौड़ गई तभी से इसी दिन को पजूनो -पूनो का प्रचलन आरंभ हुआ.

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बैसाखी 2024 । Baisakhi Festival 2024

वैशाख माह में आने वाला एक महत्वपूर्ण त्यौहार है बैसाखी. इस वर्ष यह त्यौहार 14 अप्रैल 2024 को मनाया जाएगा. बैसाखी का आगमन प्रकृत्ति के परिवर्तन को दर्शाता है. सूर्य का मेष राशि में प्रवेश बैसाखी का आगमन है. बैसाखी पर्व विशेष रुप से किसानो का पर्व है. भारत के उत्तरी प्रदेशो विशेष कर पंजाब में इस दिन किसानो की गेहूँ की फसल पक कर तैयार हो जाती है. अपने खेतों में गेहूँ की भरी बालियां देख कर किसान फूले नही समाते. इस दिन किसान नाच गाकर भगवान को अपना धन्यवाद प्रकट करते है.

बैसाखी पर्व क्यों मनाया जाता है | Why is Baisakhi Celebrated?

बैसाखी पर्व एक लोक परंपरागत त्यौहार है. किसान खरीफ की फसल के पकने पर अपनी खुशी के इजहार के रुप मे बैसाखी पर्व मनाते है. खेतो में गेहूँ के अलावा और भी फसलें उगाई जाती हैं जैसे दाले, तिल और गन्ना यह सभी फसलें गेहूँ के साथ ही तैयार हो जाती है.

पंजाब में इस समय खेतों में हर तरफ गेहूँ की बाकी हवा के साथ लहराती हुई मन को मोह लेती है. अपने भरे हुये खेतों को देख कर तथा अपनी मेहनत के इस रूप को देख किसान फूले नही समाते. इस दिन किसान गेहूँ  की कुछ बालियां अग्नि देव के समक्ष अर्पण करते हैं तथा कुछ भाग प्रसाद के रुप सभी लोगों को दिया जाता है. इस पर्व पर पंजाब के लोग अपने रीति रिवाज  के अनुसार भांगडा तथा गिद्धा करते हैं. गेहूँ के बीजा रोपण के दिन से किसान उसके तैयार होने के लिये जी तोड मेहनत करते हैं. इस दिन अपनी तैयार फसल को काटकर किसान खुशी के रुप में बैसाखीपर्व मनाते हैं.

बैसाखी पर्व पंजाब की लोक संस्कृति को दर्शाता है | Baisakhi Celebration in Punjab

बैसाखी पर्व विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और इसके आस पास के प्रदेशों में मनाया जाने वाला प्रमुख त्यौहार है. यह पर्व यहां कुछ मुख्य बातों से जुड़ कर और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि एक तो यह खरीफ की फसल के पकने की खूशी लाता है और दूसरी ओर इसी दिन सिखों के दसवें गुरू गोविंदसिंह जी ने इस दिन खालसा पंथ की नींव रखी थी. इस के अतिरिक्त इस समय सर्दियों की समाप्ति और गर्मीयों का आरंभ भी होता है अत: इसी के आधार स्वरुप लोक परंपरा धर्म और प्रकृति के परिवर्तन से जुडा़ यह समय बैसाखी पर्व की महत्ता को दर्शता है.

बैसाखी का त्यौहार पर्व नये संवत की शुरुआत का दिन होता है | Beginning of New Year on Vaisakhi

अप्रैल माह के 13 या 14 तारीख को जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब वह समय हिदुओं के नव वर्ष का दिन होता है. इस दिन से नये संवत की शुरुआत होती है. इस दिन को संपूर्ण भारत में पर्व के रुप में मनाया जाता है. इस दिन लोग सुगंधित पकवान बनाकर एक दूसरे को बधाई देते हैं.

इस दिन दुर्गा माता जी तथा शंकर भगवान की पूजा होती है. कई जगह व्यापारी लोग आज के दिन नये वस्त्र धारण करके अपने बहीखातों का आरम्भ करते हैं. यह पर्व सभी शिक्षा संस्थानों में बडी़ धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन विद्यार्थीयों द्वारा कई रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते है और प्रतिभावान विद्यार्थीयों को पुरस्कार बांटे जाते हैं.

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रामनवमी 2024 : राम जन्म कथा सुनने से दूर होंगे सभी कष्ट

रामनवमी का त्यौहार चैत्र शुक्ल की नवमी मनाया जाता है. इस वर्ष यह त्यौहार 17 अप्रैल 2024 को मनाया जाएगा. रामनवमी के दिन ही चैत्र नवरात्र की समाप्ति भी हो जाती है. हिंदु धर्म शास्त्रों के अनुसार इस दिन भगवान श्री राम जी का जन्म हुआ था अत: इस शुभ तिथि को भक्त लोग रामनवमी के रुप में मनाते हैं. यह पर्व भारत में श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाता है. मान्यता के अनुसार इस दिन लोग पवित्र नदियों में स्नान करके पुण्य के भागीदार होते है.

रामनवमी पूजन | Rituals to worship Lord Ram

रामनवमी का पूजन शुद्ध और सात्विक रुप से भक्तों के लिए विशष महत्व रखता है इस दिन प्रात:कल स्नान इत्यादि से निवृत हो भगवान राम का स्मरण करते हुए भक्त लोग व्रत एवं उपवास का पालन करते हैं. इस दिन राम जी का भजन एवं पूजन किया जाता है. भक्त लोग मंदिरों इत्यादि में भगवान राम जी की कथा का श्रवण एवं किर्तन किया जाता है. इसके साथ ही साथ भंडारे और प्रसाद को भक्तों के समक्ष वितरित किया जाता है. भगवान राम का संपूर्ण जीवन ही लोक कल्याण को समर्पित रहा. उनकी कथा को सुन भक्तगण भाव विभोर हो जाते हैं व प्रभू के भजनों को भजते हुए रामनवमी का पर्व मनाते हैं.

राम जन्म की कथा | Birth story of Lord Ram

हिन्दु धर्म शास्त्रो के अनुसार त्रेतायुग में रावण के अत्याचारो को समाप्त करने तथा धर्म की पुन: स्थापना के लिये भगवान विष्णु ने मृत्यु लोक में श्री राम के रुप में अवतार लिया था. श्रीराम चन्द्र जी का जन्म चैत्र शुक्ल की नवमी के दिन राजा दशरथ के घर में हुआ था. उनके जन्म पश्चात संपूर्ण सृष्टि उन्हीं के रंग में रंगी दिखाई पड़ती थी.

चारों ओर आनंद का वातावरण छा गया था प्रकृति भी मानो प्रभु श्री राम का स्वागत करने मे ललायित हो रही थी. भगवान श्री राम का जन्म धरती पर राक्षसो के संहार के लिये हुआ था. त्रेता युग मे रावण तथा राक्षसो द्वारा मचाये आतंक को खत्म करने के लिये श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम के रुप में अवतरित हुये. इन्हे रघुकुल नंदन भी कहा जाता है.

रामनवमी का महत्व | Significance of Ramnavami

रामनवमी के त्यौहार का महत्व हिंदु धर्म सभयता में महत्वपूर्ण रहा है. इस पर्व के साथ ही मा दुर्गा के नवरात्रों का समापन भी जुडा़ है. इस तथ्य से हमें ज्ञात होता है कि भगवान श्री राम जी ने भी देवी दुर्गा की पूज अकी थी और उनके द्वारा कि गई शक्ति पूजा ने उन्हें धर्म युद्ध ने उन्हें विजय प्रदान की. इस प्रकार इन दो महत्वपूर्ण त्यौहारों का एक साथ होना पर्व की महत्ता को और भी अधिक बढा़ देता है. कहा जाता है कि इसी दिन गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना का आरंभ भी किया था.

रामनवमी का व्रत पापों का क्षय करने वाला और शुभ फल प्रदान करने वाला होता है. राम नवमी के उपलक्ष्य पर देश भर में पूजा पाठ और भजन किर्तनों का आयोजन होता है. देश के कोने कोने में रामनवमी पर्व की गूंज सुनाई पड़ती है. इस दिन लोग उपवास करके भजन कीर्तन से भगवान राम को याद करते है. राम जन्म भूमि अयोध्या में यह पर्व बडे हर्षो उल्लास के साथ मनाया जाता है. वहां सरयु नदी में स्नान करके सभी भक्त भगवान श्री राम जी का आशिर्वाद प्राप्त करते हैं.

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चैत्र नवरात्र 2024 | Chaitra Navratri 2024 | Chaitra Navratri Puja | Chaitra Navratri Fast

चैत्र शुक्ल पक्ष के नवरात्रों का आरंभ वर्ष 2024 में 09 अप्रैल 2024 मंगलवार के दिन से होगा. इसी दिन से हिंदु नवसंवत्सर अर्थात नए साल का आरंभ भी होता है. नवरात्र के नौ दिनों में देवी की पूजा के अलावा दुर्गा पाठ, पुराण पाठ, रामायण, सुखसागर, गीता, दुर्गा सप्तशती की आदि पाठ श्रद्धा से सहित किए जाते हैं.

नव दुर्गा रूप | Forms of Nav Durga

दुर्गा जी के नौ रूपों की पूजा का विधान हिंदु धर्म शास्त्रों में प्रमुख रूप से प्राप्त होता है. ब्रह्माण्ड की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण दुर्गा कहा गया है. शारदीय नवरात्र में इन सभी नव दुर्गाओं को प्रतिपदा से लेकर नवमी तक पूजा जाता है जो इस प्रकार हैं.

शैलपुत्री | Shailputri

दुर्गाजी का प्रथम स्वरूप शैलपुत्री है, यह नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं. शारदीय नवरात्र का पहला दिन शैल पुत्री की पूजा की जाती है, पहला नवरात्र, प्रथमा तिथि, 09 अप्रैल 2024 को होगा. पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण इन्हें शैलपुत्री कहा गया है,

ब्रह्मचारिणी | Brahamcharini.

नवदुर्गाओं में दुर्गा का द्वितीय रूप ब्रह्मचारिणी का है. दूसरा नवरात्र, द्वितीया तिथि  10  मार्च 2024, के दिन रहेगा. सफेद वस्त्र में लिपटी हुई, एक हाथ में अष्टदल की माला और दूसरे हाथ में कमंडल धारण किए हुए हैं, तप का आचरण करने के कारण इन्हें ब्रह्मचारिणी कहा जाता है.

चंद्रघंटा | Chandraghanta

माँ दुर्गा जी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है शक्ति के रूप में विराजमान, मस्तक पर चंद्रमा को धारण किए हुए है. देवी चंद्रघंटा को नवरात्र के तीसरे दिन पूजा जाता है. तीसरा नवरात्र, तृतीय तिथि, 11 अप्रैल 2024 के दिन रहेगा.

कूष्माण्डा | Kushmanda

मां दुर्गा की चौथी शक्ति कूष्माण्डा है ब्रह्माण को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा कहा गया. चौथा नवरात्र , चतुर्थी तिथि, 12 अप्रैल 2024, के दिन रहेगा. मां कूष्मांडा अपने भक्तों को सभी संकट, रोग, शोक का नाश करके आयु, यश, बुद्धि प्रदान करती हैं.

स्कंदमाता | Skanda Mata

दुर्गा की पांचवीं शक्ति को स्कंदमाता कहा गया है, कार्तिकेय (स्कंद) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है. पांचवां नवरात्र , पंचमी तिथि , 13 अप्रैल 2024, के दिन को रहेगा.

कात्यायनी | Kathyayini

दुर्गा के छटे स्वरूप का नाम कात्यायनी देवी है, महर्षि कात्यायन के घर पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण इन्हें कात्यायनी कहा गया है, छठा नवरात्रा, षष्ठी तिथि, 14 अप्रैल 2024, दिन को होगा. मां कात्यायनी की पूजा भक्ति करने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है.

कालरात्रि | Kaalratri

देवी दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि है मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में भयानक है, परंतु सदैव शुभ फल देने वाला होता है जिस कारण इन्हें शुभंकरी भी कहा जाता है. सातवां नवरात्र, सप्तमी तिथि, 15 अप्रैल 2024, को रहेगी.

महागौरी | Maha Gauri

मां दुर्गा की आठवीं शक्ति महागौरी हैं. इनकी शक्ति अमोघ और शीघ्र फलदायिनी है. कठोर तपस्या द्वारा इन्होंने पार्वती रूप में भगवान शिव को पाया. आठवां नवरात्र, अष्टमी तिथि, 16 अप्रैल 2024, दिन तक होगी.  इनकी भक्ति से भक्त के समस्त पाप विनष्ट हो जाते हैं.

सिद्धिदात्री | Siddhidatri

देवी दुर्गा का नौवां रूप सिद्धियात्री है, नौवां नवरात्र, नवमी तिथि , 17 अप्रैल 2024, को रहेगी. सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाली देवी सिद्धिदात्री भक्तों की हमेशा रक्षा करती हैं.

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महर्षि ऋभु | sage Ribhu | Saint Ribhu | Maharshi Ribhu

महर्षि ऋभु ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों में से एक हैं. ऋषि ऋभु ब्रह्मतत्त्वज्ञ तथा निवृत्तिपरायण भक्त हुए. इनकी क्षमता ने इन्हें एक  महान तपस्वी बनाया इनकी अगाध श्रद्धा ने ही इन्हें प्रभु के भक्त रुप दिया. इनका गुरुत्व प्राप्त करके इनके सभी शिष्य अपने क्षेत्रों में अग्रीण व्यक्ति बने. महर्षि ऋभु ने मन्त्र, योग और ज्ञान प्राप्त किया और अपने ज्ञान को सभी के समक्ष समान रुप से बांटा. ऋषि ऋभु विक्षेप तथा आवरण से रहित जीवन जीने में विश्वास करते थे.

महोपनिषद ने ऋभु जी का वर्णन प्राप्त होता है, महोपनिषद के पंचम अध्याय में ज्ञान एवं अज्ञान की सात भूमिकाओं को महर्षि ऋभु ने अपने संवादों द्वारा अपने पुत्र को बताया है वह कहते हैं हे पुत्र ज्ञान और अज्ञान के सात-सात चरण होते हैं. अहंकार का भाव अज्ञान का मूल स्वरूप है जिसमें यह मेरा है, मैं हूं के भाव उत्पन्न होते हैं, अज्ञान से ही जीव मोह, माया में ग्रस्त होकर आत्म स्वरूप से परे हो जाता है उसे जान नहीं पाता राग, द्वेषा भाव इसी से उत्पन्न होते हैं.

ज्ञान का प्रथम चरण शुभेच्छा से आरंभ होता हैं, सत्संग द्वारा सदाचार भावनाएं जाग्रत होती हैं तथा भोग विलास, विषय वासनाओं की आसक्ति क्षीण हो जाती है और वैराग्य उत्पन्न होता है मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है अत: ज्ञानी व्यक्ति शुभ कर्मों में लीन होकर सदाचरण का निर्वाह करते हैं और मोक्ष के भागी बनते हैं.

महर्षि ऋभु और शिष्य निदाघ | Story of the Sage Ribhu and His Disciple Nidagha

ऋषि पुलस्त्य के पुत्र निदाघ महर्षि ऋभु के शिष्य थे. महर्षि ऋभु से प्रभावित होकर ही ऋभु जी को अपना गुरु माना और गुरु के साथ निदाघ ने अनेक प्रकार की शिक्षा प्राप्त कि निदाघ ने इनकी पूर्ण तन्मयता से सेवा की इनकी गुरु भक्ति से प्रभावित हो ऋषि ऋभु ने निदाघ को तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया. अपने गुरू ऋभु से ज्ञान प्राप्त करके गुरु की आज्ञा अनुसार निदाघ ने विवाह करके अपनी पत्नी के साथ गृहस्थ का पालन करने लगे. कुछ समय पश्चात महर्षि ऋभु अपने शिष्य निदाघ से मिलने उसके आश्रम पहुंचे

महर्षि ऋभु जब निदाध के आश्रम पहुंचे, परंतु निदाघ उन्हें पहचान नहीं पाया. लेकिन ऋषि के तेज को देखकर वह समझ गया की वह अवश्य ही कोई महान ऋषि हैं और उनका स्वागत करता है. पत्नी शशिप्रभा के साथ मिलकर वह ऋषि की सेवा में निस्वार्थ भावना से लगे रहते हैं. उनका यथेष्ट सत्कार करते हैं. महर्षि ऋभु अपने शिष्य के इस व्यवहार से बहुत प्रसन्न होते हैं. परंतु अभी भी वह अपने शिष्य की परीक्षा लेने का विचार रखते हैं. अत: जब उनका शिष्य उन्हें भोजन परोसते हुए उनसे प्रश्न करता है कि क्या आप कहा से आ रहे हैं तो उसके इस प्रश्न पर वह उससे बहुत ही रुखे स्वर में जवाब देते हैं कि मैं कहीं आता, जाता नहीं हूं, यह आना-जाना तो देह का धर्म है.

ऋषि के इस अजीब उत्तर से निदाध हैरान हो जाता है परंतु फिर भी वह अपनी शालीनता बरकरार रखते है. इसी प्रकार अन्य प्रश्नों के उत्तर भी निदाघ को असंतुष्ट कर देते हैं और अतिथि के इस व्यवहार से निदाध का मन क्षुब्ध हो जाता है. तभी आचार्य उनसे कहते हैं कि, मेरे रूखे व्यवहार से तुम अपमानित एवं विचलित महसूस कर रहे हो इसका अर्थ तो यह हुआ कि तुम अभी भी अपने विचारों पर विजय पाने में सफल नहीं हो पाए हो और तुम्हे अभी और प्रयास की आवश्यकता है. निदाध ऋषि कि इस वाणी को सुन जान गया की यह व्यक्ति ओर कोई नही बल्कि उसके आचार्य महर्षि ऋभु हैं. वह उनसे क्षमा मांगता है और उनके चरणों में नतमस्तक होता है. महर्षि ऋभु उसे हृदय से लगा लेते हैं. इनकी कृपा से निदाघ आत्मनिष्ठ हो गये ।

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होली | Holi | Holi Festival 2024

इस वर्ष 2024 में 25 मार्च के दिन होली रंगोत्सव मनाया जाएगा. होली का त्योहर प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. होली से ठीक एक दिन पहले रात्रि को होलिका दहन होता है. उसके अगले दिन प्रात: से ही लोग रंग खेलना प्रारम्भ कर देते हैं. होली को धुलैण्डी के नाम से भी जाना जाता है.

होलिका दहन | Holika Dahan

इस वर्ष 24 मार्च को होलिका दहन किया जाएगा. प्रदोष व्यापिनी फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका दहन किया जाता है. होलिका दहन भद्रा रहित काल में संपन्न होता है. धर्म ग्रंथों के अनुसार प्रदोष काल के समय भद्रा हो तथा भद्रा आधी रात से पूर्व ही समाप्त हो रही हो तो भद्रा के बाद और अर्द्धरात्रि से पहले होलिका दहन करना चाहिए. परंतु यदि भद्रा आधी रात से पहले समाप्त न हो और अगले दिन प्रात:काल तक रहे और अगले दिन पूर्णिमा प्रदोषयुक्त भी न हो तब पहले दिन ही भद्रा का मुख छोड़कर प्रदोष काल में होलिका पूजन कर देना चाहिए.

होलाष्टक | Holashtak

होली के त्यौहार का आरंभ होलाष्टक से होता है, होलाष्टक को होली पर्व की सूचना लेकर आने वाला एक हरकारा कहा जाता सकता है. “होलाष्टक” के शाब्दिक अर्थ पर जायें, तो होला+ अष्टक अर्थात होली से पूर्व के आठ दिन, जो दिन होता है, वह होलाष्टक कहलाता है. सामान्य रुप से होली एक दिन का पर्व न होकर पूरे आठ दिनों का त्यौहार है. दुलैण्डी के दिन रंग और गुलाल के साथ इस पर्व का समापन होता है.

होली की शुरुआत होली पर्व होलाष्टक से प्रारम्भ होकर धुलैंण्डी तक रहती है. इसके कारण प्रकृ्ति में खुशी और उत्सव का माहौल रहता है.  होलाष्टक से होली के आने की दस्तक मिलती है, साथ ही इस दिन से होली उत्सव के साथ-साथ होलिका दहन की तैयारियाँ भी शुरु हो जाती है.

होलिका पूजन | Holi Puja

होलिका-दहन से पूर्व और भद्रा समय के पश्चात होली का पूजन किया जाना चाहिए. भद्रा के मुख का त्याग करके निशा मुख में होली का पूजन करना शुभफलदायक सिद्ध होता है. विधिवत रुप से होलिका का पूजन करने के बाद होलिका का दहन किया जाता है.

होली का पौराणिक महत्व | Significance of Holi

होली से संबन्धित कई कथाएं जुडी हुई है. होली की एक कथा जो सबसे अधिक प्रचलन में है, वह हिर्ण्यकश्यप व उसके पुत्र प्रह्लाद की है.जिसके अनुसार राजा हिर्ण्यकश्यप अहंकारवश और भगवान विष्णु से वैर द्वेष के कारण अपने पुत्र प्रह्लाद को जो भगवान विष्णु का परम भक्त था. उसे दण्ड स्वरुप आग में जलाने का आदेश दे देता है इसके लिये राजा नें अपनी बहन होलिका से कहा कि वह प्रह्लाद को जलती हुई आग में लेकर बैठ जाये. क्योंकि होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी.

होलिका प्रह्लाद को लेकर आग में बैठ जाती है. लेकिन आश्चर्य की बात थी की होलिका जल गई, और प्रह्लाद नारायण कृपा से बच जाता है. इस तरह बुराई की हार हुई और अच्छाई की विजय. इसलिए भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय की बात है कि हिमालय पुत्री पार्वती की यह मनोइच्छा थी, कि उनका विवाह केवल भगवान शिव से हो. परन्तु श्री भोले नाथ थे की सदैव गहरी समाधी में लीन रहते थे, ऎसे में भगवान शिव के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखना कठिन था. तब इस कार्य में कामदेव भगवान भोले नाथ की तपस्या को भंग करने का प्रयास करते हैं. अपनी तपस्या के भंग होने से शिवजी क्रोध में आ कर कामदेव को भस्म कर देते हैं. परंतु भाब में शांत होने पर और देवों के आग्रह पर वह कामदेव को क्षमा कर देते हैं.

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अर्बुदा देवी मन्दिर | Arbuda Devi Temple | Arbuda Devi Mandir | Arbuda Devi

राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित नीलगिरि की पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी पर बसे माउंट आबू पर्वत पर स्थित अर्बुदा देवी का प्राचीन मंदिर. यह मंदिर माता के प्रमुख शक्ति स्थलों में गिना जाता है. यह देवी यहाँ की अराध्य देवी हैं मां अबुर्दा देवी को यहां पर अधर देवी, अम्बिका देवी के नाम से पुकारा जाता है. अबुर्दा माता का मंदिर एक प्राकृतिक गुफा के रुप में निर्मित है, जहां माता की जोत निरंतर जलती रहती है जहां माता के दर्शन हो पाते हैं.

इस धार्मिक स्थल के पास ही मन्दाकिनी नदी बहती है और अन्य तीर्थ हैं भी हैं. मंदिर तक पहुंचने के लिए सीढ़ियों का रास्ता है इस मार्ग से गुजरते हुए अनेक मनोहर दृश्य दिखाई पड़ते हैं जो भक्तों एवं सैलानियों के हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ते हैं. यहाँ के नयनाभिराम दृश्य औरभक्ति का माहौल मन मोह लेता है.

अर्बुदा देवी मन्दिर पौराणिक संदर्भ | Mythological References of Arbuda Devi Temple

इस स्थान का विशिष्ट धार्मिक महत्व भी है जिसके अनुसार अर्बुद नामक सांप के नाम पर इसका नाम अर्बुदा पडा़. ऋषि वशिष्ठ ने अर्बुदा को वरदान दिया था कि तुम सभी देवी देवताओं के साथ यहां निवास करोगे. मान्यता है कि माता दुर्गा यहां अर्बुदा देवी के रूप में प्रकट हुई, इसलिये इसका नाम अर्बुदा पड गया.

देवी की इस पावन भूमी जहाँ जाकर सभी मनुष्य माता का सानिध्य प्राप्त करते हैं. यह एक ऐसा पवित्र स्थल जहाँ देवी कि महिमा देखने को मिलती है. जहाँ का पौराणिक इतिहास धार्मिक संदर्भ में बहुमूल्य है ऐसा स्थान जहाँ से विभिन्न धार्मिक उल्लेख प्राप्त होते हैं और जहाँ जाकर भक्त एक सुखद अनुभूति को प्राप्त करता है. इस स्थान से जुड़ा है यह ऐसा ही पवित्र धाम जो देवी के प्रमुख मंदिरों में अपना विशेष स्थान रखता है.

अबुर्दा देवी का यह मंदिर भारत के प्रमुख शक्ति मंदिरों में से एक है जहां आकर सभी श्रद्धालु अपनी समस्त चिंताओं से मुक्त हो माँ की शरण प्राप्त करता है. मंदिर में देवी की एक झलक पाने के लिए भारी भीड़ जमा होती है. माँ के दर्शनों को पाकर भक्त कृतार्थ हो जाता है तथा माँ के आशीर्वाद को ग्रहण करता है जिससे उसके सभी दुख व चिंताएं दूर हो जाती हैं.

अर्बुदा देवी मन्दिर महत्व | Significance of Arbuda Devi Temple

यह मंदिर मांउट आबू के प्रमुख पवित्र दर्शनीय स्थलों में से एक है. यहां का सौंदर्य इस बात से और भी निखर जाता है ओर बरबस ही लोग यहाँ खिंचे चले आते हैं. मंदिर का अनुपम सौंदर्य सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है जिस कारण हर व्यक्ति एक न एक बार तो इस मंदिर में आने की इच्छा रखता ही है. माँ के दर्शनों को पाकर श्रद्धालु अपनी सभी कष्टों को भूल जाते हैं व हर चिंता तथा संकट से मुक्त हो जाते हैं .

यहाँ चैत्र पूर्णिमा तथा विजयादशमी के अवसरों पर धार्मिक मेलों का आयोजन होता हैं जिसमें देश विदेश के अनेक लोग भाग लेने के लिए आते हैं. माँ के दरबार में हर समय माता की ज्योत प्रज्जवलित रहती है जो भक्तों में एक नयी ऊर्जा शक्ति का संचार करती है जिससे भक्तों में धार्मिक अनुभूति जागृत होती है तथा जीवन की कठिनाइयों से पार पाने की क्षमता आती है. यहां आने वाला भक्त जीवन के इन सबसे सुखद पलों को कभी भी नहीं भूल पाता और उसके मन में इस स्थान की सुखद अनुभूति हमेशा के लिए अपनी अमिट छाप छोड़ जाती है.

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