कब है फाल्गुन पूर्णिमा 2024 : व्रत कथा व पूजा विधि

फाल्गुन पूर्णिमा एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व एवं समय होता है जो धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्वरुप में उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है. इस वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा का पर्व 25 मार्च 2024 के दिन मनाया जाएगा. फाल्गुन माह में आने वाली इस पूर्णिमा के दिन विशेष पूजा-पाठ एवं अन्य धार्मिक कार्यों को करने के नियम बनाए गए हैं, जो दर्शाते हैं की किस प्रकार प्रकृति और मनुष्य के मध्य एक अत्यंत ही घनिष्ठ संबंध है. फाल्गुन पूर्णिमा के समय को धार्मिक अनुष्ठान कार्यों को किया जाता है.

फाल्गुन पूर्णिमा 12 पूर्णिमाओं मे सबसे आखिर में आने वाली पूर्णिमा है. हिन्दू नव वर्ष का आखिरी माह फाल्गुन माह होता है, और इसमें आने वाली पूर्णिमा भी बहुत महत्वपूर्ण होती है. फाल्गुन पूर्णिमा के दिन चंद्रमा का पूर्ण स्वरुप एवं उसकी ऊर्जा का संचार भी तीव्र गति से होता है. ऎसे में बनाए गए अनुष्ठान एवं पूजन से हम उस सभी चीजों के मध्य स्वयं के तालमेल को बिठा सकते हैं.

फाल्गुन पूर्णिमा व्रत

पूर्णिमा तिथि में चंद्रमा आकाश में अपनी संपूर्ण कलाओं से पूर्ण होता दिखाई देता है. हिन्दू धर्म में प्रत्येक पूर्णिमा का अपना अलग महत्व होता है और हर पूर्णिमा का पूजन में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता भी दिखाई दे सकती है. लेकिन इसकी महत्ता सदैव एक स्वरुप में विद्यमान होती है. इस तिथि पर पूजा-पाठ, दान, पवित्र नदियों एवं धर्म स्थलों पर स्नान-दान का अत्यंत शुभदायक बताया गया है. यह जीवन और प्रकृति के साथ हमारे संबंधों की घनिष्ठा को भी पूर्णता देता है. पूर्णिमा तिथि के दिन गंगा व यमुना नदि के तीर्थस्थलों पर स्नान और दान करना मोक्षदायी एवं पुण्यदायी माना गया है.

इस दिन भगवान श्री विष्णु का पूजन किया जाता है. फाल्गुन पूर्णिमा की कथा होली पर्व को भी दर्शाती है. यह कथा राक्षस हरिण्यकश्यपु और प्रह्लाद से संबंध रखती है. इस कथा अनुसार हरिण्यकश्यपु अपने पुत्र प्रह्लाद को मृत्युदण्ड देना चाहता है, क्योंकि उसका पुत्र श्री विष्णु का भक्त था और हरिण्यकश्यपु को ये बात सहन नहीं थी. वह श्री विष्णु को अपना शत्रु मानता था और जो भी श्री विष्णु की भक्ति करता उन्हें वह कष्ट व यातनाएं देता था. ऎसे में जब उसका पुत्र प्रह्लाद श्री विष्णु की भक्ति करता है तो वह अपने पुत्र से नफरत करने लगता है, और अनेक प्रकार के कष्ट देता है. पर श्री विष्णु की कृपा से प्रह्लाद को कोई कष्ट नहीं होता है.

इस कारण हरिण्यकश्यपु अपनी बहन होलिका को ब्रह्मा से मिले वरदान का लाभ उठाने को कहता है. होलिका को वरदान मिला था की वह अग्नि में नहीं जल सकती उसका अग्नि कुछ खराब नहीं कर सकती है. ऎसे में राक्षसी होलिका, प्रह्लाद को जलाने के लिए अग्नि में बैठ जाती है. पर श्री हरि की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहता है और होलिका जल जाती है.

इसलिए प्राचीन समय से ही फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका दहन व पूजन किया जाता है. फाल्गुन पूर्णिमा के दिन लकड़ी-उपलों से होलिका का निर्माण किया जाता है. शुभ मुहूर्त समय के दौरान होलिका दहन किया जाता है और पूजन संपन्न होता है.

फाल्गुन पूर्णिमा पूजन विधि

  • धर्मशास्त्रों के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा के दिन तीर्थस्थल पर जाकर स्नान करना चाहिए यदि यह संभव नहीं हो सके तो नहाने के पानी में कुछ बूंदें गंगा जल की डालकर घर पर भी स्नान किया जा सकता है.
  • प्रातःकाल संकल्प लेकर पूर्ण विधि-विधान से चंद्रमा का ध्यान एवं पूजन करना चाहिए.
  • चंद्रमा की पूजा करते समय चंद्र मंत्र “ऊँ श्रीं श्रीं चन्द्रमसे नम:” का जाप करना चाहिए.
  • भगवान शिव का पूजन एवं शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिए.
  • माता पार्वती का पूजन भी करना चाहिए यह अत्यंत शुभफलदायी माना जाता है.
  • पूर्णिमा तिथि में चन्द्रमा की पूजा करनी चाहिए क्योंकि इससे सभी सुखों एवं मानसिक शांति की प्राप्त होती है.

पूर्णिमा समय : चंद्रमा के पूजन का विशेष समय

फाल्गुन पूर्णिमा के समय चंद्र देवता का पूजन मुख्य रुप से होता है. मान्यता है की फाल्गुन माह में चंद्रमा के जन्म को भी जोड़ा गया है. चंद्रमा के देवता भगवान शिव को कहा गया है. भगवान शिव ने अपने मस्तक पर चंद्रमा को धारण किया है. जिसे हम इन उक्तियों से भी समझ सकते हैं :-

“नमामि शशिनं भक्त्या, शंभोर्मुकुटभूषणम्।”

इसलिए चंद्रमा के पूजन में भगवान शिव के पूजन का भी विशेष रुप से महत्व बताया गया है. चंद्रमा का गोत्र अत्रि तथा दिशा वायव्य बतायी गयी है. चंद्रमा को सोमवार के दिन से जोड़ा जाता है अर्थात सोमवार के दिन चंद्रमा का पूजन विशेष होता है इसके साथ ही पूर्णीमा के दिन यदि सोमवार हो तो यह भी अत्यंत शुभ योग होता है.

चंद्रमा जल तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं. इसलिए कहा गया है कि पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार भाटा अत्यंत विशाल रुप में होता है. पूर्णिमा के दिन ही मनुष्य के मन मस्तिष्क पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है. मनुष्य की चेतना का प्रवाह अधिक गति से आगे बढ़ता है. हमारे शरीर पर इसके प्रभाव का मुख्य कारण इसलिए भी है की हमारे शरीर में जल की मात्रा अत्यधिक होती है, यह चंद्रमा के प्रभाव में आने के कारण इस तिथि समय अत्यंत विस्तृत होती जाती है.

इस समय पर अगर हम विशेष रुप से चंद्रमा की पूजा उपासना करते हैं तो हमारे भीतर मौजूद नकारात्मकता और अंधकार दूर होता है. मानसिक रुप से हमें मजबूती प्राप्त होती है. ज्योतिष की अवधारणा अनुसार भी पूर्णिमा तिथि समय पूजन चंद्र देव का पूजन किया जाए तो चंद्रमा के अशुभ प्रभाव दूर होते हैं और मानसिक शक्ति को भी बल मिलता है. ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा शुभ और एक सौम्य ग्रह माना जाता है. स्त्री तत्व का प्रतिनिधित्व करता है. चंद्रमा में ही अमृत का वास भी माना गया है और औषधियों पर भी चंद्रमा का प्रभाव लक्षित होता है. ऎसे में चंद्रमा के महत्व को केवल वैज्ञानिक रुप में ही नहीं दर्शाया गया है अपितु यह हमारी आध्यात्मिक चेतना और जीवन पर भी इसके स्वरुप को आसानी से समझा जा सकता है.

फाल्गुन पूर्णिमा उत्सव होली

हिंदू पंचांग अनुसार, फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होली का त्यौहार भी संपन्न होता है. रंगों से भरपूर ये त्यौहार जीवन की निराशा को दूर करते हुए नव जीवन के रंगों में रंगने का संदेश देता है. बुराई पर अच्छाई की विजय का संकेत बनता ये त्यौहार फाल्गुन पूर्णिमा के रंग को बढ़ा देता है. मस्ती और उल्लास से भरपूर ये समय सभी के जीवन को प्रभावित करता है.

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2024 कब होता है माघ स्नान का आरंभ और समाप्ति ? : मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है माघ स्नान

इस वर्ष माघ स्नान का आरंभ 25 जनवरी 2024 से होगा और इसकी समाप्ति 24 फरवरी 2024 को होगी. माघ माह अपने आरंभ से ही पर्व व उत्सवों के आगमन की झलक देने लगता है. यह वह समय होता है जब प्रकृति की छटा और खूबसूरती अपने नव रंग में मौजूद होती है. इस समय पर कई उत्सव और व्रत आते हैं. माघ माह का आरंभ माघ स्नान के आरंभ के साथ शुरु होता है. इस पूरे माह में ही स्नान की महत्ता को अत्यंत ही प्रभावशाली स्वरुप में दर्शाया गया है. इसी के साथ जब माघ माह का अंत समीप आता है तो इस माह के आखिरी दिन में स्नान की समाप्ति होती है.

माघ माह के स्नान की समाप्ति में धर्म स्थलों पर मेले और धार्मिक कृत्यों का आयोजन किया जाता है. इस माघ माह में मौसम भी अपने एक अलग रंग में होता है. सर्दियों की कड़कड़ाती सुबह में भी श्रद्धालु भक्त माघ स्नान करते हैं. गंगा, यमुना इत्यादि पवित्र नदियों में आस्था की डूबकी लगाते हैं. उनकी यही आस्था और विश्वास में उनके लिए मोक्ष का मार्ग प्रश्स्त करती है. जीवन की उस यात्रा पर उनके पथ को प्रकाशित भी करती है. यही उन भक्तों की आस्था है जो उन्हें माघ के कठोर मौसम में भी इतनी शक्ति और बल प्रदान करती है.

माघ स्नान में स्नान और दान की महत्ता

भारतीय पंचाग एवं ज्योतिषीय गणना में माघ माह की शुरुआत पौष पूर्णिमा के बाद से होती है और पौष पूर्णिमा के दिन से ही माघ स्नान का भी आरंभ हो जाता है. इस पूरे माह के मध्य एकादशी, बसंत पंचमी, मौनी अमावस्या, तिल चतुर्थी और गुप्त नवरात्रि इत्यादि अत्यंत महत्वपूर्ण दिवस भी आते हैं.

माघ माह का हर दिन अत्यंत प्रभावी होता है. मान्यता है की इस संपूर्ण माह के दौरान समस्त धरा का जल गंगा समान होता है. ऎसे में इस माह के दौरान प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में स्नान की विशेष महत्ता होती है. पुराणों में भी इस माह के विषय में विस्तार रुप से उल्लेख मिलता है. कहा जाता है की त्रिदेवों के साथ अन्य देवता भी इस माघ माह के आने पर प्रयाग के संगम स्थल पर आते हैं. यहां निवास भी करते हैं. इसके अतिरिक्त एक अन्य तथ्य के अनुसार अगर आप माघ मास में तीन बार संगम के स्थल पर जाकर स्नान कर लेते हैं तो उसका फल व्यक्ति को हजारों अश्वमेध यज्ञ को करने के समान ही प्राप्त होता है.

इस माह में स्नान के साथ साथ दान की महत्ता को भी वर्णित किया गया है. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इस माह के समय में किए गए दान का फल और श्री हरि की कृपा को पाने के लिए यह उत्तम समय बताया गया है. इस समय पर आने वाली षटतिला एकादशी ओर जया एकादशी के दिन पूजन स्नान एवं दान करने से व्यक्ति को विष्णु लोक की प्राप्ति होती है. महाभारत में एक स्थान पर इस माह की महत्ता को बहुत ही विस्तारित रुप से बताया गया है. इस समय पर श्री विष्णु के पूजन द्वारा क्या फल प्राप्त होता है और इस माह के दौरान आने वाली अमावस्या और पूर्णिमा के दौरान किए गए दान की क्या प्रमुखता है इस सबके बारे में विस्तार रुप में हमें इसमें प्राप्त होता है.

माघ माह में तिल का दान देता है मोक्ष

तिल दान का महत्व भी इस दौरान अत्यंत फलदायी और पापों का नाश करने वाला होता है. इस समय पर आने वाली षटतिला एकादशी तो स्वयं ही इसके भेद को दर्शाती है. इस दिन योग्य ब्राह्मणों को तिल का दान किया जाता है. तिल से संबंधित भोजन को गरीबों में बांटना भी उत्तम माना गया है.

तिल के दान को पाप नाश करने वाला माना गया है. इसके साथ ही व्यक्ति नर्क की यातना नहीं भोगता है. व्यक्ति को अपने पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. तिल के दान के साथ ही साथ तिल को आहार रुप में खाने के लिए भी उपयोगी बताया गया है. तिल चतुर्थी का समय हो, तिल एकादशी हो या तिल द्वादशी हो इन सभी उत्सवों को तिल के साथ जोड़ा गया है, अत: इन सभी पर्वों के दौरान तिलों से बने खाद्य पदार्थों को बनाया जाता है. इन तिलों का भोग भगवान को लगाते हैं ओर खुद भी इसे प्रसाद स्वरुप खाया जाता है. इसी के साथ-साथ गरीब लोगों में भी तिल से बने लड़्डू, खीर, रेवडी़ इत्यादि वस्तुओं को बांटा जाता है.

ऎसे में तिल केवल धार्मिक स्वरुप ही नही अपितु वैज्ञानिक स्वरुप में भी अपनी उपयोगिता को दर्शाता है, क्योंकि तिल का सेवन गर्म तासिर देने वाला होता है. ऎसे में माघ माह के समय पर पड़ने वाली सर्दी से बचने में भी तिलों का सेवन अत्यंत उपयोगी होता है. तिल खाने से शरीर को ऊर्जा मिलती है और शरीर सक्रिय रहता है. इसलिए कहा जा सकता है की हिन्दू धर्म उन चीजों पर आधारित है जो तर्क की कसौटी पर खरे उतरते हैं. इसलिए तिलों का उपयोग इस समय पर हर रुप में करने की एक अत्यंत प्रभावशाली विचारधारा रही है.


माघ माह में प्रमुख स्नान और समय

माघ माह में वैसे तो हर दिन के स्नान को विशेष कहा गया है. पर इस माह के दोरान कुछ ऎसी विशेष तिथियां भी आती हैं जो इस समय को और भी अधिक प्रभावशाली बना देता है.


पौष पूर्णिमा –

पौष पूर्णिमा के साथ ही इस दिवस का आरंभ होता है. इस समय के दौरान जगह-जगह पर अनुष्ठानों यज्ञ किए जाते हैं. माघ स्नान के आरंभ की मुख्य तिथि होती है पौष पूर्णिमा.

मकर संक्रांति –

माघ माह का दूसरा विशेष स्नान मकर संक्रान्ति के दिन होता है. इस दिन पवित्र नदियों में धर्म स्थलों पर भक्त स्नान करते हैं.

मौनी अमावस्या –

माघ माह की मौनी अमावस्या का समय भी स्नान के लिए विशेष होता है. इस दिन मौन रहकर साधना की जाती है.

बसंत पंचमी –

माघ स्नान में बसंत पंचमी के दिन सरस्वती माँ का जन्म दिवस मनाया जाता है. इस दिन भी पवित्र नदियों में स्नान की महत्ता बतायी गई है.

माघी पूर्णिमा –

माघ पूर्णिमा के दिन माघ स्नान की समाप्ति होती है. इस तिथि के साथ ही संपूर्ण माघ माह में किए गए कार्यों और पूजा-पाठ, अनुष्ठानों इत्यादि का उत्साह के साथ समापन होता है और फाल्गुन माह की तैयारियों का आरंभ होता है.

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फाल्गुन अमावस्या 2024 : कब है और क्या है पूजा विधि

फाल्गुन अमावस्या का पर्व फाल्गुन माह की 30वीं तिथि के दिन मनाया जाता है. फाल्गुन अमावस्या में गंगा एवं पवित्र नदियों में स्नान इत्यादि का महत्व रहा है. इस अमावस्या के दौरान श्राद्धालु श्रद्धा के साथ दान और पूजा पाठ से संबंधित कार्य भी करते हैं.

फाल्गुन अमावस्या के दौरान पितरों के लिए भी मुख्य रुप से तर्पण का कार्य किया जाता है. हिन्दू पंचांग के अनुसार माह अंतिम माह होता इस अंतिम अमावस्य के दौरान विशेष रुप से जप एवं तप करने की महत्ता को बताया गया है.

इस वर्ष फाल्गुन अमावस्या 10 मार्च 2024 को रविवार के दिन मनाई जाएगी. यह अमावस्या तर्पण कार्यो के लिये सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है. इस दिन चाहें तो व्रत भी किया जा सकता है जिसका शुभ फल आपके कर्मों को शुभता प्रदान करने वाला होता है.

फाल्गुन अमावस्या को शिव उपासना करनी चाहिए. भगवान शिव की उपासना अकाल मृत्य, भय, पीड़ा और रोग निवारण में प्रभावी मानी गई है. इस दिन पूजा करने से कठिनाईयों एवं उलझनों से छुटकारा प्राप्त होता है. शास्त्रों में इसे अश्वत्थ प्रदक्षिणा व्रत कहा गया है इस दिन पिपल के वृक्ष की पूजा करने व पीपल के पेड तले तेल का दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए, इसी के साथ शनि देव की पूजा करनी चाहिए. इस दिन मंत्र जाप करना विशेष रुप से कल्याणकारी होता है.

इस के अतिरिक्त पीपल के वृक्ष की 108 परिक्रमा करने और श्री विष्णु का पूजन करने का नियम है. पीपल जिसमें त्रिदेवों का वास माना जाता है. इस दिन पीपल के वक्ष की जड़ को दूध अर्पित करना चाहिए एवं इसका पूजन करना अत्यंत शुभ एवं फलदायी कहा जाता है.

फाल्गुन अमावस्या पर पीपल पूजा

फाल्गुन अमावस्या पर पीपल के वृक्ष की पूजा बहुत फलदायी कही गई है. पीपल के वृक्ष की जड़ में दूध, जल, को अर्पित करते हुए पुष्प, अक्षत, चन्दन इत्यादि से पूजा करनी चाहिए और पेड़ के चारों ओर 108 बार धागा लपेट कर परिक्रमा पूर्ण करनी चाहिए. पीपल की प्रदक्षिणा करने के बाद अपने सामर्थ्य अनुसार दान-दक्षिणा देना शुभ होता है. इन पूजा उपायों से पितृदोष, ग्रहदोष और शनिदोष का बुरा प्रभाव समाप्त होता है तथा परिवार में शांति का आगमन होता है.

स्नान दान की फाल्गुन अमावस

फाल्गुन अमावस्या के दिन स्नान, दान करने का विशेष महत्व कहा गया है. फाल्गुन अमावस्या के दिन मौन रहने का सर्वश्रेष्ठ फल कहा गया है. देव ऋषि व्यास के अनुसार इस तिथि में मौन रहकर स्नान-ध्यान करने से सहस्त्र गौ दान के समान पुण्य का फल प्राप्त होता है. इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी विशेष महत्व समझा जाता है. इस दिन कुरुक्षेत्र के ब्रह्मा सरोवर में डूबकी लगाने का भी फल कहा गया है. इस स्थान पर सोमवती अमावस्या के दिन स्नान और दन करने से अक्षय फलों की प्राप्ति होती है.

देश भर में इस दिन सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक की अवधि में पवित्र नदियों पर स्नान करने वालों का तांता सा लगा रहेगा. स्नान के साथ भक्तजन भाल पर तिलक लगवाते है. यह कार्य करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है. सोमवती अमावस्या का व्रत करने वाली स्त्रियों को व्रत की कथा अवश्य सुननी चाहिए.

कहा जाता है कि महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्व समझाते हुए कहा था कि, इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने वाला मनुष्य सभी दुखों से मुक्त होकर सुख को पाता है. ऐसा भी माना जाता है कि स्नान करने से पितरों कि आत्माओं को शांति प्राप्त होती है और पितरों का आर्शीवाद भी मिलता है.

फाल्गुन अमावस्या पूजा

  • अमावस्या के दिन गंगा स्नान करना चाहिए अगर यह संभव न हो तो स्नान के दोरान नहाने के पानी में गंगाचल की कुछ बूम्दे डाल कर स्नान करना चाहिए.
  • स्नान करने के उपरांत भगवान सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए एवं सूर्य मंत्र का पाठ करना चाहिए.
  • इसके पश्चार मंदिर में भगवान श्री गणेशजी की पूजा करनी चाहिए.
  • भगवान शिव और श्री विष्णु भगवान का स्मरण एवं पूजन करना चाहिए.
  • यदि व्रत करना हो तो व्रत का संकल्प लेना चाहिए और अगर व्रत न रख सकें तो सामान्य रुप से पूजन किया जा सकता है.
  • भगवान श्री विष्णु की को पीले रंग के फूल अर्पित करने चाहिए.
  • केसर, चंदन इत्यादि को भगवान को लगाना चाहिए.
  • घी का दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए.
  • सुगंधित इत्र अर्पित करने चाहिए और तिलक लगाना चाहिए.
  • इसके बाद धूप और दीप जलाएं और आरती करनी चाहिए.
  • आरती के बाद परिक्रमा करें. अब नेवैद्य अर्पित करें.
  • प्रसाद में पंचामृत चढ़ाना चाहिए और लड्डओं का या गुड़ का भोग लगाएं.
  • पितरों को याद करते हुए उनके लिए भोजन की वस्तुएं एवं फल इत्यादि को भेंट करना चाहिए.

ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और सामर्थ्य अनुसार पितरों के निमित दान उन्हें भेंट करना चाहिए. संध्या समय के दौरान भी दीप अवश्य जलाना चाहिए एवं पूजा पाठ करना चाहिए.

फाल्गुन अमावस्या महात्म्य

फाल्गुनी अमावस्या में भ्गवान विष्णु का स्मरण एवं भागवत कथा का पाठ करना उत्तम माना गया है. इस दिन किए गए दान और पूण्य का अक्षय फल प्राप्त होता है. संतान के सुख एवं परिवार की सुख समृद्धि के लिए भी इस दिन किया गया व्रत एवं पूजन अत्यंत लाभकारी माना गया है. परिवार में यदि किसी कारण से पितृ दोष की स्थिति उत्पन्न होती है या किसी जातक की कुण्डली में पितर दोष का निर्माण होता है, तो उस स्थिति में इस अमावस्या के दिन विशेष रुप से पूजन एवं उपवास का पालन करने से दोष की शांति होती है.

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जया एकादशी 2024 : जानिये इसकी पूजा विधि और कथा

माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी “जया एकादशी” कहलाती है. माघ माह में आने वाली इस एकादशी में भगवान श्री विष्णु के पूजन का विधान है. एकादशी तिथि को भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है. इस दिन व्रत और पूजा नियम द्वारा प्रत्येक मनुष्य भगवान श्री विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है. 20 फरवरी 2024 को जया एकादशी का व्रत रखा जाएगा.

माघ, शुक्ल जया एकादशी
जया एकादशी प्रारम्भ – 08:49 ए एम, 19 फरवरी 
जया एकादशी समाप्त – 09:55 ए एम, 20 फरवरी 

वैष्णवों में एकादशी को अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना गया है. इसी के साथ हिन्दू धर्म के लिए एकादशी तिथि एवं इसका व्रत अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है. नारदपुराण में एकादशी तिथि के विषय में बताया गया है, कि किस प्रकार एकादशी व्रत सभी पापों को समाप्त करने वाला है और भगवान श्री विष्णु का सानिध्य प्राप्त करने का एक अत्यंत सहज सरल साधन है. एकादशी व्रत के के दिन सुबह स्नान करने के बाद पुष्प, धूप आदि से भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए.

जया एकादशी कथा

जया एकादशी की कथा को पढ़ना और सुनना अत्यंत ही उत्तम होता है. पद्मपुराण में वर्णित जया एकादशी महिमा की एक कथा का आधा फल इस व्रत कथा को सुनने मात्र से ही प्राप्त हो जाता है. आईये जानते हैं जया एकादशी कथा और उसकी महिमा के बारे में विस्तार से.

जया एकादशी के विषय में जानने की इच्छा रखते हुए युधिष्ठिर भगवान मधूसूदन( श्री कृष्ण) से कथा सुनाने को कहते हैं. युधिष्ठिर कहते हैं की हे भगवान माघ शुक्ल पक्ष को आने वाली एकादशी किस नाम से जानी जाती है और इस एकादशी व्रत करने की विधि क्या है. आप इस एकादशी के माहात्म्य को हमारे समक्ष प्रकट करने की कृपा करिये.

आप ही समस्त विश्व में व्याप्त है. आपका न आदि है न अंत, आप सभी प्राणियों के प्राण का आधार है. आप ही जीवों को उत्पन्न करने वाले, पालन करने और अंत में नाश करके संसार के बंधन से मुक्त करने वाले हैं. ऎसे में आप हम पर भी अपनी कृपा दृष्टि डालते हुए संसार का उद्धार करने वाली इस एकादशी के बारे में विस्तार से कहें. हम इस कथा को सुनने के लिए आतुर हैं.

युधिष्ठिर के इन वचनों को सुनकर भगवान श्री कृष्ण प्रसन्न भाव से उन्हें एकादशी व्रत की महिमा के विषय में बताते हुए कहते हैं कि- हे कुन्ति पुत्र माघ माह के शुक्ल पक्ष को आने वाली एकादशी, जया एकादशी होती है. अपने नाम के अनुरुप ही इस एकादशी को करने पर व्यक्ति को समस्त कार्यों में जय की प्राप्ति होती है. व्यक्ति अपने कार्यों को सफल कर पाता है.

इस जया एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति को ब्रह्म हत्या के पाप से भी मुक्ति प्राप्त हो जाती है. मनुष्य अपने पापों से मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त करता है. इस एकादशी के प्रभाव से कष्टदायक योनियों से मुक्ति पाता है. जया एकादशी व्रत को विधि-विधान से करने पर मनुष्य मेरे सानिध्य एवं परमधाम को पाने का अधिकारी बनता है.

जया एकादशी कथा इस प्रकार है- एक समय स्वर्ग के देवता देवराज इंद्र नंदन वन में अप्सराओं व गंधर्वों के साथ विहार कर रहे थे. वहां पर पुष्पवती नामक गंधर्व कन्या, माल्यवान नामक गंधर्व पर मोहित हो जाती है. माल्यवान भी पुष्पवती के रुप सौंदर्य से आकर्षित हो जाता है. दोनों एक दूसरे के प्रेम में वशीभूत होने के कारण अपने संगीत एवं गान कार्य को सही से नहीं कर पाने के कारण इंद्र के कोप के भागी बनते हैं.

उनके सही प्रकार के गान और स्वर ताल के बिगड़ जाने के कारण इंद्र का ध्यान भंग हो जाता है और वह क्रोध में आकर उन्हें श्राप दे देते हैं. इंद्र ने उन दोनों गंधर्वों को स्त्री-पुरुष के रूप में मृत्यु लोक में जाकर पिशाच योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया. इंद्र के श्राप के प्रभाव स्वरुप वह दोनों दु:खी मन से हिमालय के क्षेत्र में जाकर अपना जीवन बिताने लगते हैं. वह अत्यंत कष्ट में जीवन व्यतीत करने लगते हैं. किसी भी वस्तु का उन्हें आभास भी नहीं हो पाता है, रुप, स्पर्श गंध इत्यादि का उन्हें बोध ही नहीं रह पाता है.

अपने कष्टों से दुखी वह हर पल अपनी इस योनी से मुक्ति के मार्ग की अभिलाषा रखते हुए जीवन बिता रहे होते हैं. तब माघ मास में शुक्ल पक्ष की जया नामक एकादशी का दिन भी आता है. उस दिन उन दोनों को पूरा दिन भोजन नही मिल पाता है. बिना भोजन किए वह संपूर्ण दिन व्यतीत कर देते हैं. भूख से व्याकुल हुए रात्रि समय उन्हें निंद्रा भी प्राप्त नहीं हो पाती है. उस दिन जया एकादशी के उपवास और रात्रि जागरण का फल उन्हें प्राप्त होता है और अगले दिन उसके प्रभाव स्वरुप वह पिशाच योनी से मुक्ति प्राप्त करते हैं.

इस प्रकार श्रीकृष्ण, कथा संपन्न करते हैं. वह युधिष्ठिर से कहते हैं कि जो भी इस एकादशी के व्रत को करता है और इस कथा को सुनता है उसके समस्त पापों का नाश होता है. जया एकादशी के व्रत से भूत-प्रेत-पिशाच आदि योनियों से मुक्ति प्राप्त होती है. इस एकादशी के व्रत में पूजा, दान, यज्ञ, जाप का अत्यंत महत्व होता है. अत: जो मनुष्य जया एकादशी का व्रत करते हैं वे अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं.

जया एकादशी व्रत विधि

  • जया एकादशी का व्रत करने के लिए. दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रत के नियमों का ध्यान रखना चाहिए.
  • दशमी तिथि से ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए समस्त तामसिक वस्तुओं का त्याग करना चाहिए.
  • अगले दिन एकादशी तिथि समय सुबह स्नान करने के बाद पुष्प, धूप आदि से भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए.
  • इस दिन शुद्ध चित्त मन से भगवान श्री विष्णु का पूजन करना चाहिए.
  • दिन भर व्रत रखना चाहिए. अगर निराहार नहीं रह सकते हैं तो फलाहार का सेवन करना चाहिए.
  • ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादश मंत्र का जाप करना चाहिए.
  • विष्णु के सहस्रनामों का स्मरण करना चाहिए.
  • सामर्थ्य अनुसार दान करना चाहिए.

इसी प्रकार रात्रि के समय में भी व्रत रखते हुए श्री विष्णु भगवान का भजन किर्तन करते हुए जागरण करना चाहिए. अगले दिन द्वादशी को प्रात:काल समय ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए और स्वयं भी भोजन करके व्रत संपन्न करना चाहिए.

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ईशान व्रत और इसका महत्व 2024

ईशान व्रत अपने नाम के अनुरुप भगवान शिव से संबंधित है क्योंकि भगवान शिव का एक अन्य नाम ईशान भी है. इसी के साथ वास्तुशास्त्र में भी ईशान संबंधित दिशा की शुभता सर्वव्यापी है यह दिशा आपके लिए शुभता और सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह भी बनती है. इस व्रत में शिवलिंग की पूजा की जाती है और मुख्य रुप से शिवलिंग के बाँयी ओर विष्णु हों और दाँयी ओर सूर्य देव को स्थापित किया जाता है तब पूजन आरंभ होता है.

इस वर्ष ईशान व्रत उत्सव 23 जनवरी 2024 को मंगलवार के दिन मनाया जाएगा.

इस व्रत में दान का अत्यंत महत्व होता है. और गाय का दान इस व्रत में मुख्य रुप से बताया गया है. परंतु आज के संदर्भ में ये संभव हो नहीं सकता तो इस के लिए यदि किसी ब्राह्मण को दक्षिणा उस दान के तुल्य ही दे दी जाए तो भी इसका फल अवश्य प्राप्त होता है. इसके अतिरिक्त यदि किसी धातु जिसमें पीतल, चांदी या स्वर्ण से बनी गाय का जोड़ा दान दिया जाए तो भी इसका बहुत महत्व रहा है. इस व्रत को एक लम्बे समय किया जाने का विधान है, लगभग 5 वर्षों तक करने की बात कही जाती है.

ईशान व्रत कब आता है

ईशान व्रत को पौष माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन किया जाता है. इस व्रत के विषय में कई अन्य बातें भी प्रचलित हैं, जिसके अनुसार पौष माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी होने और उसके अगले दिन पूर्णिमा तिथि के दिन गुरुवार(बृहस्पतिवार) का दिन होना बहुत अच्छा माना जाता है. इस समय पर व्रत को करना अत्यंत शुभ फलदायी होता है.

एक अन्य मत के अनुसार ईशान व्रत को तब करना चाहिए जब पौष माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के अगले दिन पूर्णिमा तिथि को पुष्य नक्षत्र भी हो. इस समय पर भी ईशान व्रत की महिमा अत्यधिक बढ़ जाती है.

ईशान व्रत पूजा विधि

ईशान व्रत को करने वाले साधक को चाहिए कि वह चतुर्दशी तिथि को स्नानादि करके व्रत का संकल्प धारण करे. दिन भर भगवान शिव का का स्मरण करते हुए उपवास करें. दूसरे दिन पुष्य नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने पर शुभासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए. यज्ञ वेदी का निर्माण करना चाहिए इसके साथ ही अपने समक्ष वेदी पर साफ उज्जवल सफेद वस्त्र बिछाना चाहिए. उसमे चारों दिशाओं मे अक्षत रखना चाहिए. उसके बाद चारों के बीच मे भी एक थोड़ा अक्षत का रखना चाहिए. पूर्व दिशा वाले अक्षत की ढेरी में भगवान विष्णु का, दक्षिण दिशा वाले स्थान मे सूर्य का, पश्चिम दिशा वाले मे ब्रह्मा का, उत्तर दिशा वाले स्थान मे रुद्र का और बीच वाले मे ईशान का आवाहन करना चाहिए. धूप, दीप ,गंध, अक्षत आदि से सभी का विधिवत पूजन करना चाहिए. यदि स्वयं संभव न हो सके तो किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा इस पूजन को करवाना चाहिए.

पूजन करने के पश्चात ब्राह्मणों को सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा अवश्य प्रदान करनी चाहिए. धर्म ग्रंथों के अनुसार ईशान व्रत में ब्राह्मण को दान स्वरुप एक गाय तथा एक बैल देना चाहिए. उसके पश्चात भोजन और दक्षिणा से सन्तुष्ट करना चाहिए. इस प्रकार ईशान व्रत को पाँच वर्ष तक करना अत्यंत शुभफलदायी माना गया है. पौष शुक्ल चतुर्दशी-पूर्णिमा को व्रत करने पर पहले साल में एक गाय एक बैल का दान करना चाहिए, दूसरे वर्ष दो गाय एक बैल का दान करना चाहिए. तीसरे वर्ष तीन गाय एक बैल का दान करना चाहिए. चौथे वर्ष चार गाय एक बैल का दान करना चाहिए और पाँचवे वर्ष पाँच गाय एक बैल का दान करना श्रेयस्कर माना गया है.

ईशान व्रत माहात्म्य

ईशान व्रत की महिमा का प्रभाव समस्त दिशाओं को आलोकित करने वाला है. इस दिन पूजन एवं यज्ञ जैसे कार्य करने से अमोघ फलों की प्राप्ति होती है. इस व्रत का आह्वान करने से घर में सब प्रकार का सुख और लक्ष्मी की वृद्धि होती है. यह घर की नकारात्मकता को दूर करने वाला होता है.

ईशान व्रत में भगवान शिव के ईशान रुप का पूजन होता है. शिवलिंग का पूजन विधि-विधान से किया जाता है. यज्ञवेदी का निर्माण एवं देवों की स्थापना एवं आहवान किया जाता है. इस व्रत के द्वारा भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है.

सूर्य देव का पूजन भी इस ईशान पूजन में मुख्य रुप से होता है. भगवान सूर्य जगत को आलौकित करने वाले हैं. आत्मा को प्रकाशित करते हैं. अंधकार को समाप्त करके समस्त दिशाओं में अपनी शुभता को फैलाने वाले होते हैं. भगवान सूर्य को खखोल्क नामक से भी जाना जाता है. खखोल्क उनका प्रभामंण्डल है. भगवान सूर्य का पूजन व्याधियों को दूर करने वाला होता है. मोक्ष चाहने वालों के लिए मुक्ति का मार्ग दिखाता है. खखोल्क नामक मंत्र का इस समय पर जाप करने से सभी कष्टों की शांति होती है. यह मंत्र सदैव उच्चारण और स्मरण करने योग्य होता है. “ॐ नमः खखोल्काय” नामक मंत्र के स्मरण मात्र से ही सभी रोगों का नाश होता है. ईशान व्रत के समय पर इस मंत्र का जाप अत्यंत उत्तम होता है.

भगवान विष्णु का पूजन भी ईशान व्रत में किया जाता है. भगवान विष्णु का स्मरण करके व्रत को संपन्न किया जाता है. व्रत में भगवान विष्णु के मंत्र जाप एवं उनका आहवान किया जाता है. इस प्रकार समस्त देवों का पूजन करने से दिशाओं की शांति और शुभता आती है.

ईशान व्रत का पूजन और व्रत करने से व्यक्ति को सैकडौं गुना फल मिलता है. इसी प्रकार अगर व्यक्ति किसी भी प्रकार के वास्तु दोष से प्रभावित हो तो उसके लिए ईशान व्रत करना अत्यंत शुभ फलदायी होता है. व्रत के अनुष्ठान को किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा कराया जाना चाहिए और सभी नियमों का पालन करते हुए यह पूजन संपन्न करना चाहिए.

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प्रदोष व्रत क्या होता है और कितने होते हैं प्रदोष व्रत

प्रदोष व्रत मुख्य रुप से भगवान शिव के स्वरुप को दर्शाता है. इस व्रत को मुख्य रुप से भगवान शिव की कृपा पाने हेतु किया जाता है. प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन प्रदोष व्रत का पालन किया जाता है. प्रदोष व्रत की महिमा सभी के लिए अत्यंत ही प्रभावशाली है. इस व्रत की महिमा ऎसी है जैसे अमूल्य मोतियों में “पारस” का होना. प्रदोष व्रत जो भी धारण करता है उस व्यक्ति के जीवन के सभी कष्ट दूर होते हैं और दुखों का नाश होता है.

प्रदोष व्रत कथा

प्रदोष व्रत के नाम से अनेक कथाएं प्रचलित हैं, जिसमें से एक कथा अनुसार चंद्रमा को जब श्रापवश क्षय रोग होता है तब इसके कारण चंद्रमा की रोशनी(प्रकाश) का नाश होने लगता है. ऎसे में चंद्र देव भगवान शिव की भक्ति करते हैं और इनसे अपने कष्ट को दूर करने की प्रार्थना करते हैं. भगवान शिव, चंद्रमा की भक्ति से प्रसन्न होकर उनके कष्ट का निवारण करके उन्हें श्राप से मुक्ति प्रदान करते हैं, और जिस दिन चंद्रमा को इस कष्ट से मुक्ति प्राप्त होती है. वह त्रयोदशी तिथि का समय होता है. भगवान शिव नेण त्रयोदशी के दिन चंद्रमा को पुन: जीवन अर्थात उनका प्रकाश प्रदान किया अत: इसीलिए इस दिन को प्रदोष कहा जाने लगा.

प्रत्येक माह में प्रदोष व्रत दो होते हैं एक शुक्ल पक्ष में आने वाला और दूसरा कृष्ण पक्ष में आने वाला. त्रयोदशी जिसे “तेरस” भी कहा जाता है. इस तिथि को प्रदोष व्रत संपन्न होता है. प्रदोष काल में उपवास करना रात्रि जागरण करना चाहिए. यह सभी दोषों का नाश करता है.

प्रदोष व्रत पूजा विधि

प्रदोष व्रत को करने वालों को द्वादशी की रात्रि से ही शुद्धता, सात्विकता एवं ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए. अगले दिन त्रयोदशी तिथि को प्रात:काल स्नान आदि से निवृत होकर भगवान शिव का ध्यान करना चाहिए. शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिए, “ऊं नम: शिवाय” मंत्र का जाप जितना संभव हो सके करना चाहिए. यदि उपवास कर सकें तो उपवास का संकल्प करके पूरा दिन निराहार रहना चाहिए. उसके पश्चात सूर्यास्त के बाद स्नान करके और शुभ मुहूर्त में भगवान शिव का विधि विधान के साथ पूजन करना चाहिए.

प्रदोष पूजा को घर या मन्दिर जहां चाहे कर सकते हैं. पूजा करते समय उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए और भगवान शिव का पुष्प, बेलपत्र, पंचामृत, अक्षत, भांग, धतूरा, सफेद चंदन, दूध, धूप आदि से पूजन करना चाहिए. जलाभिषेक करना चाहिए व शिव मंत्रों एवं शिव चालिसा का पाठ करना चाहिए. भजन आरती पश्चात भगवान को भोग लगाना चाहिए और प्रसाद को सभी लोगों में बांटना चाहिए. इस प्रकार विधि विधान के साथ पूजा करने के उपरांत ब्राह्मणों को भोजन खिलाना चाहिए और उन्हें दान दक्षिणा देकर उनसे आशिर्वाद प्राप्त करना चाहिए.

प्रदोष व्रत महत्व

हर माह के दोनों पक्षों की त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत रखा जाता है. इसी के साथ किसी खास दिन पर जब प्रदोष व्रत होता है तो उस दिन के साथ इस व्रत का संयोग ओर भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है. इसमें मुख्य रुप से सोमवार के दिन पड़ने वाला प्रदोष व्रत सोम प्रदोष व्रत के नाम से जाना जाता है. मंगलवार के दिन पड़ने वाला प्रदोष व्रत भौम प्रदोष व्रत के रुप में जाना जाता है. शनिवार के दिन शनि प्रदोष व्रत और रविवार के दिन पड़ने वाले प्रदोष व्रत को रवि प्रदोष के रुप में जाना जाता है.

ऎसे में अलग-अलग दिन पड़ने वाले प्रदोष की महिमा भी उसी के अनुरुप होती है. इसी प्रकार अन्य वार को आने वाला प्रदोष का भी अपना अलग महत्व है. पर इन कुछ दिनों में प्रदोष व्रत होने पर इसकी महिमा और अधिक बढ़ जाने वाली बतायी गई है.

आईये जानें किस वार को कौन सा प्रदोष व्रत आता है और क्या है उस प्रदोष व्रत की महिमा :-

सोम प्रदोष व्रत

सोमवार जो भगवान शिव और चंद्र देव का दिन माना गया है, तो इस दिन प्रदोष व्रत का आना अत्यंत ही शुभदायक और कई गुना शुभ फलों को देने वाला होता है. यह सोने पर सुहागा की उक्ति को चरितार्थ करने वाला होता है. सोमवार को त्रयोदशी तिथि आने पर प्रदोष व्रत रखने से मानसिक सुख प्राप्त होता है, अगर चंद्रमा कुण्डली में खराब हो तो इस दिन व्रत का नियम अपनाने पर चंद्र दोष समाप्त होता है. सौभाग्य एवं परिवार के सुख की प्राप्ति होती है.

भौम प्रदोष व्रत

मंगलवार के दिन प्रदोषव्रत का आगमन संतान के सुख को देने वाला और मंगल दोष से उत्पन्न कष्टों की निवृत्ति प्रदान करने वाला होता है. इस दिन व्रत रखने पर स्वास्थ्य संबंधी कष्ट दूर होते हैं. क्रोध की शांति होति है और धैर्य साहस की प्राप्ति होती है. प्रदोष व्रत विधिपूर्वक करने से आर्थिक घाटे से मुक्ति मिलती है. कर्ज से यदि परेशानी है तो वह भी समाप्त होती है. रक्त से संबंधी स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्ति के लिए भौम प्रदोष व्रत अत्यंत लाभदायी होता है.

बुध प्रदोष व्रत

बुधवार के दिन आने वाले प्रदोष व्रत को सौम्य प्रदोष, सौम्यवारा प्रदोष, बुध प्रदोष कहा जाता है. इस दिन व्रत करने से बौद्धिकता में वृद्धि होती है. वाणी में शुभता आती है. जिन जातकों की कुण्डली में बुध ग्रह के कारण परेशानी है या वाणी दोष इत्यादि कोई विकार परेशान करता है तो उसके लिए बुधवार के दिन प्रदोष व्रत करने से शुभ लाभ प्राप्त होते हैं, बुध की शुभता प्राप्त होती है. छोटे बच्चों का मन अगर पढा़ई में नहीं लग रहा होता है तो माता-पिता को चाहिए की बुध प्रदोष व्रत का पालन करें इससे लाभ प्राप्त होगा.

गुरु प्रदोष व्रत

बृहस्पतिवार/गुरुवारा के दिन प्रदोष व्रत होने पर गुरु के शुभ फलों को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं. बढ़े बुजुर्गों के आशीर्वाद स्वरुप यह व्रत जातक को संतान और सौभाग्य की प्राप्ति कराता है. व्यक्ति को ज्ञानवान बनाता है और आध्यात्मक चेतना देता है.

शुक्र प्रदोष व्रत

शुक्रवार के दिन प्रदोष व्रत होने पर इसे भृगुवारा प्रदोष व्रत के नाम से भी पुकारा जाता है. इस दिन व्रत का पालन करने पर आर्थिक कठिनाईयों से मुक्ति प्राप्त होती है. व्यक्ति के जीवन में शुभता एवं सौम्यता का वास होता है. इस व्रत का पालन करने पर सौभाग्य में वृद्धि होती है और प्रेम की प्राप्ति होती है.

शनि प्रदोष व्रत

शनिवार के दिन त्रयोदशी तिथि होने पर शनि प्रदोष व्रत होता है. शनि प्रदोष व्रत का पालन करने से शनि देव का आशीर्वाद प्राप्त होता है. कुंडली में मौजूद शनि दोष या शनि की साढे़साती अथवा ढैय्या से मिलने वाले कष्ट भी दूर होते हैं. शनि प्रदोष व्रत द्वारा पापों का नाश होता है. हमारे कर्मों का फल देने वाले शनिमहाराज की कृपा प्राप्त होती है. कार्यक्षेत्र और व्यवसाय में लाभ पाने के लिए भी शनि प्रदोष व्रत अत्यंत असरकारी होता है.

रवि प्रदोष व्रत

त्रयोदशी तिथि के दिन रविवार होने पर रवि प्रदोष व्रत होता है. इस दिन को भानुवारा प्रदोष व्रत के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन भगवान शिव की अराधना के साथ-साथ सूर्य देव की उपासना भी करनी अत्यंत शुभ फलदायी होती है. ये व्रत करने से आपको जीवन में यश ओर कीर्ति की प्राप्ति होती है. राज्य एवं सरकार से लाभ भी मिलता है. यदि किसी कारण से सरकार की ओर से कष्ट हो रहा हो या पिता से अलगाव अथवा सुख की कमी हो तो, इस रवि प्रदोष व्रत को करने से सुखद फलों की प्राप्ति होती है. कुण्डली में अगर किसी भी प्रकार का सूर्य संबंधी दोष होने पर इस व्रत को करना अत्यंत लाभदायी होता है.

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जानिये मासिक दुर्गा अष्टमी पूजा विधि और कथा विस्तार से

देवी दुर्गा अष्टमी तिथि की अधिकारी हैं और ये तिथि उन्हें अत्यंत प्रिय है. ऎसे में हर माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मासिक दुर्गा अष्टमी के रुप में मनाया जाता है. इस दिन देवी दुर्गा का भक्ति भाव के साथ पूजन किया जाता है. दुर्गा अष्टमी के दिन प्रात:काल समय पर दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर माता के पूजन अर्चन की तैयारी की जाती है. माँ के समक्ष दीपक प्रज्जवलित किया जाता है तथा नारियल, पान, लौंग, अक्षत, कुमकुम इत्यादि से पूजन होता है. देवी दुर्गा को विभिन्न प्रकार के फल, फूल मिष्ठान इत्यादि भी चढा़ए जाते हैं.

हिन्दू धर्म में दुर्गाष्टमी को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है. वैसे तो अष्टमी तिथि शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष दोनों ही पक्षों में पड़ती है. लेकिन शुक्ल पक्ष की अष्टमी को दुर्गा अष्टमी के रुप में मनाया जाता है. इस दिन पूजा एवं उपवास किया जाता है. इस दिन व्रत इत्यादि नियमों को रखकर देवी दुर्गा की सच्चे मन से आराधना करने पर भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

दुर्गाष्टमी की पूजा विधि

अष्टमी तिथि के दिन विधि विधान के साथ माता की पूजा करने का बहुत महत्व है. मान्यता है की अष्टमी तिथि के दिन माता का पूजन एवं व्रत इत्यादि करने से भक्तों के सभी कष्ट दूर होते हैं और किसी भी प्रकार के बंधन में आप फंसे हुए हैं तो दुर्गा अष्टमी के दिन माता का पूजन करने से बंधनों से मुक्ति प्राप्त होती है.

  • दुर्गाष्टमी के दिन प्रात:काल स्नान इत्यादि कार्य संपन्न करने के बाद साफ-स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए.
  • शुद्ध मन से माँ का ध्यान करना चाहिए.
  • पूजा स्थल पर माता की प्रतिमा को सुंदर वस्त्रों एवं आभूषणों से सजाना चाहिए. यदि प्रतिमा नहीं हो तो माता की फोटो पर लाल चुनरी चढ़ानी चाहिए और माता को कुमकुम लगाना चाहिए.
  • माता के वस्त्र एवं आसन इत्यादि के लिए लाल रंग का वस्त्र (कपड़ा) उपयोग में लाना ही अत्यंत शुभ होता है.
  • मां दुर्गा को सिंदूर, अक्षत एवं लाल फूल, लौंग, इलायची इत्यादि चढ़ाना चाहिए.
  • माता के समक्ष पानी से भरा कलश एवं उस कलश पर नारियल स्थापित करना चाहिए.
  • मां दुर्गा को फल और मिठाई भी प्रसाद के रुप में चढ़ाने चाहिए.
  • पूजा स्थल पर माता के समक्ष धूप एवं अखण्ड जोत जलानी चाहिए जो पूरा दिन वहां जलती रहे.
  • माता के समक्ष दुर्गा चालीसा, एवं दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए.
  • माता की आरती करने के पश्चात अंत में दोनों हाथ जोड़कर मा दुर्गा के समक्ष पूजा इत्यादि में कोई कमी या गलती हुई है तो उसकी क्षमा मांगनी चाहिए और माँ से प्रार्थना करनी चाहिए की वे हमारे समस्त कष्टों को दूर करें और अपनी स्नेह दृष्टि सदैव हम पर बनाए रखें.

    दुर्गा अष्टमी कथा

    माँ दुर्गा प्रमुख देवी हैं जिन्हें शक्ति का स्वरुप भी माना जाता है. शाक्त परंपरा में देवी की पूजा का विधान है. माता दुर्गा प्रकृति हैं, उसमें निहित शक्ति हैं. संसार की समस्त क्रियाओं में इनका वास माना गया है. भगवान शिव ने देवी को अपने लिए एक आधार माना है. वह स्वयं को शक्ति के बिना अधूरा मानते हैं. देवी दुर्गा के अनेकों रुपों का वर्णन मिलता है. माँ के विभिन्न रुपों ने सृष्टि को सदैव पोषित किया है और किसी भी प्रकार के संकट आने पर उससे मुक्त भी कराया है.

    एक अत्यंत प्रसिद्ध पौराणिक कथा अनुसार महिषासुर नामक अत्यंत प्रतापी दैत्य का प्रकोप चारों ओर फैला हुआ था ऎसे में देवों ने अपनी रक्षा हेतु त्रिदेवों का आहवान किया तब त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने मिलकर शक्ति स्वरूपा देवी दुर्गा का स्वरुप साकार किया और सभी देवों नें अपने अपने अस्त्र एवं शस्त्र शक्ति को प्रदान किए. उसके पश्चात माँ दुर्गा ने महिषासुर के साथ एक अत्यंत भयानक युद्ध लड़ा और उस दैत्य महिषासुर का अंत करके उसके कष्ट से सभी को मुक्ति प्रदान करवाई.

    दुर्गा अष्टमी में करें कन्या पूजन

    दुर्गा अष्टमी के दिन यदि कन्याओं का पूजन किया जाए तो यह भी अत्यंत उत्तम कार्य होता है. इस दिन पूजा उपासना के पश्चात देवी के स्वरूप में छोटी कन्याओं को खाने की वस्तुओं एवं दक्षिणा इत्यादि देनी चाहिए. कन्याओं को आसन पर बिठा कर उनका पूजन करके उन्हें प्रेम पूर्वक भोजन कराना चाहिए. उन्हें लाल चुनरी और शृंगार कुमकुम भेंट देना चाहिए. अपने सामर्थ्य अनुसार कन्या पूजन करने के उपरांत कन्याओं से आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए और उन्हें प्रसन्न करते हुए विदा करना चाहिए.

    दुर्गा अष्टमी पर करें इन मंत्रों का जाप

    देवी दुर्गा इस संसार की सर्वोच्च शक्ति हैं. वह समस्त जगत को आलोकित करने वाली शक्ति हैं. उनके द्वारा ही विश्व का संचालन संभव हो पाता है. ऎसे में दुर्गा अष्टमी के दिन यदि माता के मंत्रों का जाप श्रद्धा और विश्वास के साथ किया जाए तो सभी को माता का आशीर्वाद प्राप्त होता है. भक्तों के सभी कष्टों एवं उनकी विघ्न बाधाओं को दूर करने वाली आदि शक्ति की उपासना में मंत्रों के महत्व को अत्यंत असरदायक बताया गया है.

    इसी के साथ यदि जन्म कुण्डली में बनने वाले अशुभ योगों को दूर करने के लिए दुर्गा की उपासना की जाए और देवी दुर्गा के मंत्र जाप किए जाएं तो उसके द्वारा राहत प्राप्त होती है.

    दुर्गा सप्तशति मंत्र

    सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
    शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते।।

    ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
    दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।।

    या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता ।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता ।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता ।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता ।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    या देवी सर्वभूतेषु शांतिरूपेण संस्थिता ।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

    अंत में “‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै” नामक मंत्र का जाप करने से समस्त शत्रुओं का नाश होता है और हर प्रकार की बाधा से मुक्ति प्राप्त होती है.

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    क्यों मनाई जाती है भीष्माष्टमी और जाने इसका पौराणिक महत्व 2024

    भीष्म अष्टमी का पर्व माघ माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को किया जाता है. इस वर्ष भीष्माष्टमी 17 फरवरी 2024 को शनिवार के दिन मनाई जाएगी. यह व्रत भीष्म पितामह के निमित्त किया जाता है. इस दिन महाभारत की कथा के भीष्म पर्व का पठन किया जाता है, साथ ही भगवान श्री कृष्ण का पूजन भी होता है. पौराणिक मान्यता अनुसार भीष्म अष्टमी के दिन ही भीष्म पितामह ने अपने शरीर का त्याग किया था. अत: उनके निर्वाण दिवस के रुप में भी इस दिन को मनाया जाता है.

    भीष्माष्टमी कथा

    भीष्माष्टमी से संबंधित कथा में महाभारत काल का समय ही व्याप्त है, जिसमें महाभारत के युद्ध एवं भीष्म पितामह के जीवन चरित्र का वर्णन मिलता है. महाभारत कथा के अनुसार भीष्म पितामह का असली नाम देवव्रत था. वह हस्तिनापुर के राजा शांतनु के पुत्र थे और उनकी माता गंगा थी.

    महाभारत के युद्ध में अपने वचन में बंधे होने के कारण अपनी इच्छा के विरुद्ध पितामह भीष्म को पांडवों के विरुद्ध युद्ध करना पडा था. इस युद्ध में भीष्म पितामह को हरा पाना किसी भी योद्धा के बस की बात नहीं थी. ऎसे में श्री कृष्ण पांडवों को युद्ध समय शिखंडी को पितामह के सामने खड़ा करने और युद्ध करने की सलाह देते हैं. पितामह शिखंडी पर शस्त्र नही उठाने का वचन लिए होते हैं, क्योंकि शिखंडी में स्त्री व पुरुष दोनों के गुण थे और भीष्म पितामग स्त्री के समक्ष शस्त्र नहीं उठाने के लिए वचनबद्ध थे.

    ऎसे में पांडव युद्ध समय पर भीष्म पितामह के सामने शिखंडी को खड़ा कर देते हैं, ऎसे में भीष्म पितामह अपने शस्त्र का उपयोग नहीं करते हैं और शस्त्र न उठाने के अपने वचन कारण वह पांडवों के द्वारा छोड़े गए बांणों से घायल होकर बाणों की शैय्या पर लेट जाते हैं. 18 दिनों तक बाणों शैया पर पडे रहे, किंतु उन्होंने अपनी शरीर का त्याग नहीं किया क्योंकि उन्हें सूर्य के उतरायण होने की प्रतिक्षा थी. जैसे ही सूर्य उत्तरायण होते हैं वह अपनी देह का त्याग करते हैं. जीवन की अनेक विपरीत परिस्थितियों में भी भीष्म पितामह ने अपनी हर प्रतिज्ञा को निभाया. अपने हर वचन को निभाने के कारण ही वे देवव्रत से भीष्म कहलाए.

    भीष्म पितामह की जीवन गाथा

    भीष्म पितामह का जन्म का नाम देवव्रत था. इनके जन्म कथा अनुसार इनके पिता हस्तिनापुर के राजा शांतनु थे. एक बार राजा शांतनु, गंगा के तट पर जा पहुंचते हैं, जहां उनकी भेंट एक अत्यंत सुन्दर स्त्री से होती है. उस रुपवती स्त्री के प्रति मोह एवं प्रेम से आकर्षित होकर वे उनसे उसका परिचय पूछते हैं और अपनी पत्नी बनने का प्रस्ताव रखते हैं.

    वह स्त्री उन्हें अपना नाम गंगा बताती है और उनके विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करते हुए एक शर्त भी रखती है, की राजा आजीवन उसे किसी कार्य को करने से रोकेंगे नहीं और कोई प्रश्न भी नहीं पूछेंगे. राजा शांतनु गंगा की यह शर्त स्वीकार कर लेते हैं और इस प्रकार दोनो विवाह के बंधन में बंध जाते हैं.

    गंगा से राजा शान्तनु को पुत्र प्राप्त होता है, लेकिन गंगा पुत्र को जन्म के पश्चात नदी में ले जाकर प्रवाहित कर देती है. अपने दिए हुए वचन से विवश होने के कारण शांतनु, गंगा से कोई प्रश्न नहीं करते हैं . इसी प्रकार एक-एक करके जब सात पुत्रों का वियोग झेलने के बाद, गंगा राजा शांतनु की आठवीं संतान को भी नदी में बहाने के लिए जाने लगती है तो अपने वचन को तोड़ते हुए वह गंगा से अपने पुत्र को नदी में बहाने से रोक देते हैं.

    राजा शांतनु के वचन के टूट जाने की बात को कहते हुए गंगा अपने पुत्र को अपने साथ लेकर चली जाती हैं. महाराज शान्तनु एक लम्बा समय व्यतीत हो जाने के पश्चात गंगा के किनारे जाते हैं और गंगा से उनके पुत्र को देखने का आग्रह करते हैं. गंगा उनका आग्रह सुन पुत्र को राजा शांतनु को सौंप देती है. राजा शान्तनु अपने पुत्र देवव्रत को पाकर प्रसन्न चित्त से हस्तिनापुर चले जाते हैं और देवव्रत को युवराज घोषित करते हैं.

    देव व्रत से भीष्म बनने की कथा

    एक बार राजा शांतनु की भेंट मत्स्यगंधा से होती है जो हरिदास केवट की पुत्री होती है. शांतनु मत्स्यगंधा से विवाह करने की इच्छा प्रकट करते हैं. इसके लिए वह मत्स्यगंधा के पिता हरिदास के पास विवाह का प्रस्ताव लेकर जाते हैं.

    लेकिन हरिदास इस विवाह के लिए अपनी आज्ञा नहीं देते. वह इस कारण इस विवाह की स्वीकृति नहीं देते हैं क्योंकि राजा शांतनु का पुत्र देवव्रत उनका ज्येष्ठ पुत्र और उसकी होने वाली संताने ही राज्य की अधिकारी बनेंगी और मत्स्यगंधा कि संतानों को कभी राज्य का अधिकार प्राप्त नही हो सकेगा.

    राजा के सामने वह शर्त रखते हैं की उनकी पुत्री की संताने ही राज्य की उत्तराधिकारी होंगी देवव्रत नही़. किंतु राजा शांतनु इस शर्त को नहीं मानते हैं. लेकिन राजा शांतनु मत्स्यगंधा को भूल नहीं पाते हैं और उसके वियोग में व्याकुल रहने लगते हैं. पिता की ऎसी दशा का जब देव व्रत को बोध होता है तो वह आजीवन विवाह न करने की शपथ लेते हैं. अपने इस कठोर व भीष्म वचन के कारण ही देवव्रत को भीष्म नाम प्राप्त होता है.

    पुत्र की इस पितृभक्ति और त्याग को जानकर राजा शांतनु को देवव्रत को इच्छा मृत्यु का आशीर्वाद देते हैं और कहते हैं की जब तक तुम नहीं चाहोगे तुम्हें मृत्यु प्राप्त नहीं हो सकेगी.

    भीष्माष्टमी पर की पूजा विधि

    • भीष्म अष्टमी के दिन नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान के पश्चात भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए.
    • सूर्य देव का पूजन करना चाहिए.
    • तिल, जल और कुशा से भीष्म पितामह के निमित्त तर्पण करना चाहिए.
    • तर्पण का कार्य अगर खुद न हो पाए तो किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा इसे कराया जा सकता है.
    • ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देनी चाहिए.
    • इस दिन अपने पूर्वजों का तर्पण करने का भी विधान बताया गया है.

    इस दिन भीष्माष्टमी कथा का श्रवण करना चाहिए. मान्यता है कि इस दिन विधि विधान के साथ पूजन इत्यादि करने से व्यक्ति के कष्ट दूर होते हैं पितृरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. इस पूजन से पितृ दोष से भी मुक्ति प्राप्त होती है.

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    जानिये सुजन्म द्वादशी के व्रत की महिमा और पूजन विधि 2024

    सुजन्म द्वादशी का उत्सव पौष माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन मनाया जाता है. यह पर्व पुत्रदा एकादशी के अगले दिन द्वादशी तिथि पर आरंभ होता है. इस दिन भगवान विष्णु के पूजन का विधान है. एक अन्य मान्यता अनुसार इस व्रत का महत्व तब और भी अधिक बढ़ जाता है जब इस तिथि के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र भी पड़ रहा हो, तो उस समय पर इस दिन व्रत एवं पूजा इत्यादि समस्त कार्यों को करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है. 

    पौष मास की द्वादशी के दिन श्री विष्णु के नारायण स्वरुप की पूजा एवं “नमो: नारायण” नाम का जाप करना चाहिए. श्री विष्णु भगवान के नारायण रुप की पूजा ही मुख्य रुप से इस दिन की जाती है.

    सुजन्म द्वादशी माहात्म्य

    सुजन्म द्वादशी के विषय में प्राप्त होता है कि सब प्रकार के उपवासों में जो सबसे श्रेष्‍ठ, महान फल देने वाला और कल्‍याण का सर्वोत्तम साधन हो, वह सुजन्म द्वादशी व्रत है. इस द्वादशी तिथि के दिन जो भक्त स्‍नान आदि से पवित्र होकर श्री नारायण का भक्‍तिपूर्वक नाम लेता है, व्रत धारण करता है. और तीनों प्रहर श्री नारायण की पूजा में उपासना में लीन रहता है. वह भक्त साधक सम्‍पूर्ण यज्ञों का फल पाकर श्री नारायण के धाम को पाता है. उसके समस्त पापों एवं दोषों का नाश होता है.

    भगवान श्री विष्णु को एकादशी और द्वादशी दोनों ही तिथि में समान रुप से पूजा जाता है. यह दोनों तिथियों का संबंध भगवान श्री विष्णु से बताया गया है. यह दोनों ही तिथियां भगवान श्री विष्णु को अत्यंत प्रिय हैं और इन दोनों ही समय पर विधि-विधान से किया गया पूजन अत्यंत फलदायी होता है.

    धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान श्री विष्णु भगवान का आशीर्वाद पाने हेतु भक्त को उचित रुप से इन तिथियों के दिन पूजन करना चाहिए. यदि किसी कारणवश एकादशी उपवास एवं पूजन न हो सके तो, भक्त केवल सुजन्म द्वादशी को व्रत एवं पूजन धारण करें तो इस से भी भगवान श्री हरि की कृपा प्राप्त होती है. कहा भी गया है की – “पौष मास की सुजन्म द्वादशी के दिन को व्रत एवं पूजन करने व श्री नारायण नाम का जाप करने मात्र से ही भक्त को अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है.”

    प्रत्येक वर्ष सुजन्म द्वादशी का व्रत करना एवं बारह वर्ष तक इस व्रत को धारण करने के उपरांत भक्त को भगवान श्री विष्णु का परमलोक प्राप्त होता है. भक्त के सभी कष्ट दूर होते हैं और रोग एवं व्याधियों से मुक्ति प्राप्त होती है. जो भी भक्त द्वादशी तिथि को शुद्ध चित मन से प्रेमपूर्वक श्री विष्णु भगवान की पूजा करता है, चन्दन, तुलसी, धूप-दीप , पुष्‍प, फल इत्यादि से भगवान नारायण का पूजन करता है वह भगवान श्री विष्णु का सानिध्य प्राप्त करता है. उस पर सदैव प्रभु की कृपा दृष्टि रहती है.

    सुजन्म द्वादशी पूजा विधि

    • द्वादशी तिथि के दिन प्रात:काल नारायण भगवान का स्मरण करते हुए दिन का आरंभ करना चाहिए.
    • नित्य दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर, पानी में गंगाजल डालकर स्नान करना चाहिए.
    • षोडशउपचार द्वारा भगवान नारायण का पूजन करना चाहिए.
    • श्री नारायण भगवान का आवाहन करना चाहिए. उनकी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए.
    • चंदन, अक्षत, तुलसीदल व पुष्प को श्री नारायण बोलते हुए भगवान को अर्पित करने चाहिए.
    • भगवान की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करवाना चाहिए, जिसमे दूध, दही, घी, शहद तथा चीनी शक्कर इत्यादि का उपयोग करके स्नान करवाना चाहिए. इसके पश्चात प्रतिमा को पोंछने कर सुन्दर वस्त्र पहनाने चाहिए.
    • भगवान श्री विष्णु को दीप, गंध , पुष्प अर्पित करना, धूप दिखानी चाहिए.
    • भगवान की आरती करने के पश्चात भगवान को भोग लगाना चाहिए और अपनी सभी गलतियों की जो जाने-अंजाने हुई हों क्षमा मांगनी चाहिए और भगवान से घर-परिवार के शुभ मंगल की कामना करनी चाहिए.
    • भगवान के नैवेद्य को सभी जनों में बांटना चाहिए. सामर्थ्य अनुसार यदि हो सके तो ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए व दान-दक्षिणा इत्यादि भेंट करनी चाहिए.

    सुजन्म द्वादशी व्रत में एकादशी से ही व्रत का आरंभ करना श्रेयस्कर होता है. अगर संभव न हो सके तो द्वादशी को व्रत आरंभ करें. पूरे दिन उपवास रखने के बाद रात को जागरण कीर्तन करना चाहिए तथा और दूसरे दिन स्नान करने के पश्चात ब्राह्मणों को फल और भोजन करवा कर उन्हें क्षमता अनुसार दान देना चाहिए. अंत में स्वयं भोजन करना चाहिए. जो भी पूरे विधि-विधान से सुजन्म द्वादशी का व्रत करता है वह भगवान के समीप निवास पाता है. विष्णु लोक को पाने का अधिकारी बनता है. इस व्रत की महिमा से व्रती के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह सभी सांसारिक सुखों को भोग कर पाता है.

    सुजन्म द्वादशी मंत्र

    सुजन्म द्वादशी के दिन भगवान श्री नारायण के मंत्र का जाप करना अत्यंत शुभ फलदायी होता है. श्री नारायण का स्वरूप शांत और आनंदमयी है. वह जगत का पालन करने वाले हैं. भगवान का स्मरण करने से भक्तों के जीवन के समस्त संकटों का नाश होता है और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है. इस दिन इन मंत्रों से भगवान का पूजन करना चाहिए.

     

     

    • “ॐ नारायणाय नम:”

     

     

    • “ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।”

     

     

    • “ॐ नमो नारायण। श्री मन नारायण नारायण हरि हरि। “

     

    द्वादशी व्रत का महत्व

    भागवद एवं विष्णु पुराण इत्यादि धर्म ग्रंथों में द्वादशी के पूजन का विशेष महत्व बताया गया है. भगवान श्री कृष्ण स्वयं द्वादशी व्रत का माहात्म्य कहते हैं. भगवान श्रीकृष्ण से जब सुजन्म द्वादशी व्रत के फल को जानने का प्रयास किया जाता है तब भगवन अपने भक्तों को इस दिन की शुभता एवं महत्ता के बारे में बताते हुए कहते हैं कि “हे भक्तवतस्ल द्वादशी का व्रत सभी तरह के व्रतों में श्रेष्ठ और कल्याणकारी होता है. द्वादशी तिथि की जो महिमा नारद को बतलाई वही मैं तुम से कहता हूं अत: तुम ध्यान पूर्वक इस वचन को सुनो. जो मनुष्य द्वादशी के दिन मेरी आराधना करता है वह सैकेडौं यज्ञों को करने के समान फल पाता है, भक्त की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. जिस प्रकार मुझे एकादशी प्रिय है उसी प्रकार द्वादशी भी मुझे अत्यंत प्रिय है.

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    जानिए क्या है खरमास 2024 और क्यों वर्जित होते हैं शुभ मांगलिक काम खरमास में

    खरमास को मांगलिक कार्यों विशेषकर विवाह के परिपेक्ष में शुभ नहीं माना जाता है. इस कारण इस समय अवधि को त्यागने की बात कही जाती है. आईये जानते हैं की खर मास होता क्या होता है. सूर्य का धनु राशि में गोचर समय खर मास कहलाता है. खर मास का आरंभ दिसंबर के मध्य से आरंभ होकर जनवरी के आरंभिक मध्य भाग तक रहता है.

    साल 2024 में खर मास का आरंभ 15 दिसंबर 22:10 से होगा और इसकी समाप्ति 14 जनवरी 2025 को होगी.

    इस संक्रान्ति समय अग्नि का वास अधिक उग्र होता है. ये समय क्रोध से भरे कार्यों एवं वाद विवाद के लिए उपयोगी होता है. इस समय के दौरान जलवायु, प्रकृति एवं मनुष्य के व्यवहार एवं आचरण में भी बदलाव देखने को मिलता है.

    सूर्य संक्रान्ति क्या होती है?

    सूर्य हर एक माह पश्चात राशि बदलते हैं. जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में में प्रवेश करते हैं तो इस समय को सूर्य संक्रान्ति कहते हैं अथवा सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण का समय कहलाता है. ऎसे में जब सूर्य वृश्चिक राशि से निकल कर धनु राशि में प्रवेश करते हैं तो ये समय धनु संक्रान्ति कहलाता है. धनु संक्रान्ति को खर मास संक्रान्ति भी कहा जाता है.

    खरमास का महत्व

    सूर्य अग्नि तत्व से युक्त हैं और वहीं धनु राशि भी अग्नि तत्व वाली राशि है, ऎसे में सूर्य का इस राशि में प्रवेश दो अग्नितत्वों का संयोग उग्रता बढ़ाने वाला होता है. ऎसे में धनु राशि बृहस्पति की मूल त्रिकोण राशि है और इस राशि में सूर्य का संयोग होने पर सभी पर इसका असर देखने को मिलता है.

    पौराणिक आख्यान :

    खर मास के संदर्भ में कुछ पौराणिक मत भी प्रचलित है इसमें एक कथा अनुसार बताया गया है कि जब सूर्य देव अपने रथ पर बैठकर ब्रह्मांड की परिक्रमा कर रहे थे, तब उस समय रथ के बंघे घोड़े प्यास से व्याकुल हो उठे. पर सूर्य का रथ रुक नहीं सकता था. ऎसे में अपने घोड़ों की ऎसी स्थिति देख व्याकुल हो जाते हैं किन्तु रथ न रोक पाने की विवशता भी उन्हें कुछ कर पाने में सक्षम नहीं करती है.

    ऎसे में एक स्थान पर उन्हें पानी का एक कुण्ड दिखाई देता है, जिस के पास दो खर अर्थात गधे खड़े हुए होते हैं. ऎसे में उन्हें युक्ति सूझती है और वे अपने घोड़ों को उस कुण्ड के पास खोल देते हैं और उन खरों को अपने रथ में बांध देते हैं. इस तरह रथ के रुके बिना वह ब्रह्माण्ड की यात्रा करते हैं और पुन: जब उस स्थान पर पहुंचते हैं तो खरों को खोल कर घोड़ों को रथ में फिर से बांध कर अपना कार्य आगे बढ़ाते हैं. इस कारण इस मास को खर मास का नाम दिया गया.

    इसी प्रकार मान्यता अनुसार खर, अपनी मन्द गति से पूरे पौष मास में यात्रा करते रहे और सूर्य का तेज बहुत ही कमज़ोर होकर धरती पर आता है और इसी कारण पूरे पौष मास के अन्तर्गत पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में सूर्य का प्रभाव कमजोर हो जाता है.

    ज्योतिषीय कारण :

    सूर्य की धनु संक्रांति के कारण मलमास भी होता है. सूर्य जब गुरु की राशि धनु एवं मीन में होते हैं तो ये दोनों राशियां सूर्य के लिए शुभ अवस्था वाली नहीं मानी जाती हैं. इसका मुख्य कारण गुरु की राशि में सूर्य कमज़ोर स्थिति में होते हैं. वर्ष में दो बार सूर्य बृहस्पति की राशियों में गोचर करते हैं. एक वह लगभग 16 दिसंबर से 15 जनवरी धनु संक्रान्ति और दूसरा 14 मार्च से 13 अप्रैल मीन संक्रान्ति का समय होता है. इन माह के दौरान विवाह, यज्ञोपवीत, कर्ण छेदन, गृह प्रवेश, वास्तु निर्माण कार्य नहीं किए जाते हैं. इस समय के दौरान प्रभु स्मरण और भजन का महत्व होता है.

    खर मास में क्या काम वर्जित हैं

    खर मास को ज्योतिषीय गणना के अनुसार शुभता का समय नहीं माना जाता है. खर मास में क्रोध और उग्रता की अधिकता होती है. साथ ही इस समय के दौरान सभी में विरोधाभास और वैचारिक मतभेद के साथ मानसिक बेचैनी भी अधिक देखने को मिलती है. ऎसे में कुछ शुभ कार्यों को इस समय करने की मनाही बताई गई है.

    • खरमास में शादी-विवाह के कार्य नहीं करने की सलाह दी जाती है. इस समय विवाह इत्यादि होने पर संबंधों में मधुरता की कमी आ सकती है और किसी न किसी कारण सुख का अभाव बना रहता है.
    • इस खर मास के दौरान कोई मकान इत्यादि खरीदना या कोई संपत्ति की खरीद करना शुभता वाला नहीं माना जाता है.
    • इस मास के दौरान नया वाहन भी नहीं खरीदना चाहिए. अगर इस समय पर कोई वाहन इत्यादि की खरीद की जाती है तो उक्त वाहन से संबंधित कष्टों को झेलना पड़ सकता है.

    खर मास में किए जाने वाले कार्य

    • खर मास में सूर्य का गुरु की राशि में गोचर होने के कारण ये समय पूजा-पाठ के लिए उपयोगी होता है. इस समय मंत्र जाप इत्यदि काम करना उत्तम माना गया है. अनुष्ठान से जुड़े काम इस समय किए जा सकते हैं.
    • इस समय के दौरान पितरों से संबंधित श्राद्ध कार्य करना भी अनुकूल माना गया है.
    • दान इत्यादि करना इस मास में शुभ फल दायक बताया गया है.
    • खर मास के दौरान जल का दान भी बहुत महत्व रखता है इस समय के दौरान पवित्र नदियों में स्नान का महत्व बताया जाता है. इस समय पर ब्रह्म मूहूर्त समय किए गए स्नान को शरीर के लिए बहुत उपयोगी माना गया है.

    खरमास का एक विशेष प्रभाव ज्योतिष में दिखाई देता है. यह ज्योतिष की गणनाओं में कई प्रकार से उपयोग में आता है. मुहूर्त इत्यादि के लिए इस मास का विशेष ध्यान रखा जाता है.

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