2025 जानें कब शुरु होगा वैशाख मास स्नान और क्या है इसकी महिमा

वैशाख मास में स्नान, पूजन विधि और जाने इसकी महिमा विस्तार से

चैत्र माह की पूर्णिमा और हनुमान जयंती के साथ ही वैशाख माह के स्नान पर्व की परंपरा आरंभ हो जाती है. हिन्दू पंचाग अनुसार प्रत्येक माह किसी न किसी रुप में बहुत ही प्रभावशाली रुप से असर डालने वाला होता है. वैशाख मास में श्री विष्णु भगवान का पूजन एवं गंगा स्नान की महत्ता बहुत अधिक रही है. इस माह के आरंभ से ही वैशाख माह स्नान का आरंभ होता है. इस पर्व के दौरान पवित्र नदियों एवं धर्म स्थलों पर लोगों का आना आरंभ होने लगता है. इस माह का प्रत्येक दिन किसी न किसी रुप में पूजा-पाठ और जप-तप के संदर्भ में बहुत ही शुभदायक होता है.

शास्त्रों के अनुसार बैशाख प्रतिपदा से ही गर्मी शुरू हो जाती है, और वहीं देश के अलग-अलग स्थानों पर इस उत्सव को अलग-अलग नामों से मनाया जाता है. पंजाब में वैशाखी का पर्व होता है. बंगाल में पहला वैशाख, असम में बिहु बिशु जैसे नाम होते है. ओडिशा में “पाना” संक्रांति इत्यादि नामों से मनाया जाता है.

इस समय पर शुरु होगा वैशाख मास

इस वर्ष वैसाख स्नान का आरंभ 12 अप्रैल से शुरू होकर 12 मई तक रहेगा. वैशाख माह की लंबी अवधि फलदायी होती है. इसी के साथ प्रयागराज व हरिद्वार में इस मौके पर भक्तों का जमावड़ा होता है. बैसाख मास पर कई महत्वपूर्ण पर्व भी आते हैं, जिनके समय वैशाख स्नान की उत्तम तिथि भी होती है. इस समय पर स्नान का महत्व कई गुना बढ़ जाता है.

वैशाख मास की शुरुआत अप्रैल और मई के मध्य में होती है. कहा गया है कि विशाखा नक्षत्र से सम्बन्ध होने के कारण इस माह को वैशाख नाम प्राप्त हुआ है. इस समय के दौरान जीवन को सुखी और समृद्ध करने के अनेकों अवसर मिलते हैं. इस शुभ समय पर जितना भजन किर्तन एवं दान किया जाए व कई गुना शुभता देने में सहायक बनता है. इस वैशाख मास में भगवान श्री विष्णु , देवी की उपासना का विधान है. श्री बांके बिहारी जी के चरणों के दर्शन भी इसी मास में होते हैं.

वैशाख माह का आरंभ और महत्व

वैशाख माह की प्रतिपदा से ही इस माह के शुभ दिनों का आरंभ होता है. इस दिन पवित्र नदियों अथवा जलाशयों इत्यादि मे स्नान किया जाता है. अगर यह सब संभव न हो पाए तो घर पर ही नहाने के पानी में गंगाजल मिला कर स्नान किया जा सकता है. साफ स्वच्छ वस्त्र धारण करते हुए श्री विष्णु भगवान का स्मरण किया जाता है. तुलसी का पौधा भी लगाया जाता है और संपूर्ण माह इसकी पूजा होती है. इसके साथ ही रात्रि जागरण भजन कार्य होते हैं.

पूजा-अर्चना के लिए श्रद्धालुओं एवं भक्तों की भीड़ सभी देवालयों एवं धर्म स्थलों पर भी लगनी आरंभ हो जाती है. वैशाख माह की सुबह से ही पूजा का सिलसिला शुरू हो जाता है और जो रात्रि भर तक जारी रहता है. इस समय भगवान को भोग स्वरुप मौसम के अनुरुप फल एवं खाद्य पदार्थ अर्पित किए जाते हैं. पानी का दान इस समय पर बहुत ही प्रभावशाली माना गया है. “जल ही जीवन है” और वैशाख माह में इसकी महत्ता भी स्पष्ट रुप से देखने को मिलती है. जल के दान को अत्यंत ही पुण्यदायी माना जाता है.

मान्यता है कि वैशाख मास में जल का दान करने से देव और पूर्वज प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद प्रदान करते हैं. इस दिन से पूरे माह प्रतिदिन मंदिरों में विभिन्न प्रकार के भोज्य पदाथों एवं फलों के भोग लगाने की परंपरा रही है.

वैशाख मास में तुलसी पूजा महत्व

इस माह के दौरान तुलसी पूजन को अत्यंत शुभ माना गया है. इस मास के आरंभ में तुलसी को जल से नियमित रुप से सींचा जाता है. तुलसी के पौधे को लगाते हैं और नियमित रुप से सुबह और संध्या के समय पर तुलसी पूजन होता है. तुलसी जी की पूजा में तुलसी कथा एवं तुलसी आरती की जाती है. तुलसी के समक्ष दीप प्रज्जवलित किया जाता है. इसके सथ ही शालिग्राम का भी पूजन किया जाता है. तुलसी पूजा में तुलसी की माला से जाप भी होता है. श्री विष्णु भगवान का नाम स्मरण भी इस समय पर होता है.

वैशाख मास में होता है दीप दान

वैशाख मास में दीप दान करने की भी बहुत महत्ता होती है.इस दीप दान को जलाश्यों के समीप नदियों में एवं विभिन्न पेड़ पौधों के समक्ष किया जाता है. दीपदान को गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियों पर किया जाता है. घरों पर भी मुख्य दरवाजों पर दीपक जलाए जाते हैं. तुलसी, पीपल, वट वृक्ष पर भी दीपक जलाने की परंपरा बहुत प्राचीन समय से चली आती रही है. दीप-दान को प्रात:काल समय और शाम के समय पर किया जाता है. दीप दान के समक्ष मान्यता है की इसके प्रकाश के समक्ष जीवन के सभी अंधकार दूर होते हैं. जीवन में सकारात्मकता का प्रवाह बनता है.

वैशाख स्नान की मुख्य तिथियां

कुछ मुख्य तिथियों के दिन स्नान का महत्वपूर्ण समय रहेगा.स्कन्दपुराण में वैशाख मास की महिमा के विषय में बताया गया है. इसमे वैष्णव खण्ड के अनुसार वैशाख मास में किया गया प्रत्येक शुभ कार्य अत्यंत ही प्रभावशाली फल देने में सक्ष्म होता है. इस मास की तृतीया तिथि, दशमी, एकादशी द्वादशी त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा तिथि बहुत पवित्र और शुभदायी होती हैं. इन तिथियों में स्नान एवं दान ज्प तप करने पर सब पापों का नाश होता है. अगर किसी कारणवश वैशाख मास क्के पूरे समय पर स्नान, व्रत, पूजा के नियम आदि न कर पाए हों तो ऎसे में इन तीन तिथियों में भी उक्त सभी कार्यों को कर लिया जाए तो संपूर्ण फलों की प्राप्ति होती है.

  • वैशाख मास मे शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा स्नान किया जाता है.
  • वैशाख मास में भगवान बुद्ध और परशुराम का जन्म समय की तिथि वैशाख स्नान के लिए अत्यंत शुभ मानी जाती है.
  • इस महीने में भगवान ब्रह्मा ने तिलों का निर्माण किया था अतः तिलों का विशेष प्रयोग भी होता है.
  • वैशाख माह में अक्षय तृतीया तिथि के दिन स्नान की विशेष महत्ता बतायी गयी है.
  • वैशाख माह की शुक्ल पक्ष और कृष्ण प्क्ष की एकादशी तिथि के दिन भी स्नान की विशेष परंपरा है.
  • वैशाख पूर्णिमा तिथि के दिन भी स्नान का अत्यंत शुभ प्रभाव माना गया है.
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अशोकाष्टमी 2025: अशोका अष्टमी कथा और पूजा विधि

अशोका अष्टमी का पर्व चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है. इस वर्ष 2025 में 05 अप्रैल  सोमवार के दिन अशोकाष्टमी के दिन अशोक वृक्ष की पूजा का विधान है. इस दिन अशोक वृक्ष एवं भगवान शिव का पूजन होता है. भगवान शिव को अशोक वृक्ष प्रिय है. इस कारण से इस दिन अशोक के वृक्ष के साथ ही भगवान शिव के निमित्त भी व्रत किया जाता है.

क्यों करते हैं अशोका अष्टमी पूजन

भारत वर्ष में अनेकों ऎसे पर्व मनाए जाए हैं जिनमें हम प्रकृति का पूजन विशेष रुप से किया करते हैं. शास्त्रों में सृष्टि की समस्त वस्तु में उस ईश्वर का वास ही माना गया जो सभी में मौजूद है, ऎसे में वृक्षों का पूजन भी इस संस्कृति के साथ बहुत ही घनिष्ट रुप में जुड़ा हुआ है.

सभी पेड़ पौधों का अपना महत्व है, ये हमारे जीवन रक्षक होने के साथ ही धन संपदा में भी बढ़ोतरी करते हैं. ऎसे में अशोक वृक्ष भी हमारे जीवन में सुख और शांति को देने वाला बनता है. ऎसे में प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने का दूसरा रुप ही अशोका अष्टमी का पर्व है.

मान्यता और धारणाओं के अनुसार अशोक वृक्ष को भगवान शिव से उत्पन्न माना गया है. इस वृक्ष का पूजन करने से भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है. सोमवार के दिन अशोक वृक्ष की जड़ में दूध चढ़ाने और वृक्ष पर सूत लपेटने से मनवांछित फल प्राप्त होते हैं. अशोक वृक्ष का पूजन धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों ही रुपों में महत्व रखता है.

अशोकोष्टमी कथा

अशोक वृक्ष का संबंध हमें पौराणिक कथाओं से भी प्राप्त होता है. रामायण में माता सीता लंका में जिस स्थान पर रहीं उस स्थान पर अशोक का वृक्ष भी था. माता सीता का अशोक वृक्ष के नीचे बैठे होना और हनुमान द्वारा उन्हें मुद्रिका दिखा कर कहना की “वह श्री राम की ओर से उनके लिए संदेश लेकर आए हैं”. यह सुन कर माता सीता का सारा शोक समाप्त होता है. ऎसे में इस वृक्ष के नीचे बैठ कर ही मातअ सीता के दुख का वो क्षण तब समाप्त हो जाता है जब उन्हें अपने पति श्री राम के संदेश का पता चलता है.

अशोक वृक्ष के संबंध में एक अन्य कथा प्राप्त होती है जिसमें बताया गया है की अशोक वृक्ष की उत्पत्ति रुद्राक्ष की ही तरह भगवान शिव के आंसू से हुई है. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार रावण ने जब अपने कष्ट से मुक्ति पाने के लिए भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु शिव तांडव स्त्रोत गाया तब शिव भगवान ने तांडव आरंभ किया ऎसे में सृष्टि पर कोई संकट न आ पड़े इसके लिए सभी देव श्री विष्णु भगवान के पास जाकर प्रार्थना करते हैं. उस समय भगवान शिव की आंखों से दो आंसू गिरते हैं एक आंसू से रुद्राक्ष की उत्पति हुई और दूसरे से अशोक वृक्ष की उत्पत्ति होती है. भगवान के आंसू से निर्मित यह दोनों ही वृक्षों से सभी कष्टों का निवारण होता है.

अशोकाष्टमी व्रत एवं पूजा विधि

  • अशोका अष्टमी के दिन प्रात:काल उठ कर शुद्ध जल से स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए.
  • शिवलिंग पर अभिषेक करना चाहिए.
  • शिवलिंग पर अशोक के पत्तों को चढ़ाना चाहिए.
  • अशोक वृक्ष पर जल अर्पित करना चाहिए.
  • कच्चे दूध में गंगाजल डाल कर इसे अशोक वृक्ष की जड़ में डाल कना चाहिए.
  • सूत अथवा लाल धागे को सात बार अशोक वृक्ष लपेटना चाहिए.
  • अशोक वृक्ष की परिक्रमा करनी चाहिए.
  • कुमकुम अक्षत से वृक्ष पर लागाना चाहिए.
  • अशोक वृक्ष के समक्ष घी का चौमुखी दीपक जलाना चाहिए.
  • वृक्ष की धूप दीप से आरती करनी चाहिए.
  • वहीं बैठ कर रामायण के एक अध्याय का पाठ करना चाहिए.
  • अशोक वृक्ष पर थोड़ा सा मिष्ठान भी अर्पित करना चाहिए.
  • अशोकाष्टमी के दिन व्रत करने, अशोक वृक्ष की पूजा करने से दुखों क नाश होता है.
  • इस दिन पानी में अशोक के पत्ते डाल कर पीने से शरीर के सभी रोग दूर होते हैं.

अशोका अष्टमी का व्रत एवं पूजन करने से व्यक्ति के जीवन के दुख कलेश दूर होते हैं. कष्टों से छुटकारा मिल जाता है.

गरुण पुराण में अशोका अष्टमी की महिमा

“अशोककलिका ह्यष्टौ ये पिबन्ति पुनर्वसौ ।

चैत्रे मासि सिताष्टम्यां न ते शोकमवाप्नुयुः ॥ “

गरुण पुराण में भी अशोक वृक्ष के बारे में बहुत ही सुंदर वर्णन प्राप्त होता है. इसके अनुसार चैत्र माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन पुनर्वसु नक्षत्र हो तो इस दिन अशोका अष्टमी का व्रत बहुत ही शुभ दायक होता है. इस दिन व्रत करने से सभी शोक दूर हो जाते हैं.

अशोकाष्टमी व्रत के दिन अशोक की मञ्जरी की आठ कलियों का सेवन करने से सभी शोक दूर होते हैं. अशोक की मंजरियों का सेवन करते समय इस मंत्र का उचारण करना चाहिए –

“त्वामशोक हराभीष्ट मधुमाससमुद्भव ।

पिबामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु ।।”

अशोक का वास्तुशास्त्र में उपयोग

अशोक का वृक्ष को एक बहुत ही शुभ और सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर वृक्ष माना गया है. इस वृक्ष को यदि घर में उत्तर दिशा में लगाया जाए तो यह घर की नकारात्मकता को दूर कर देता है.

घर में अगर किसी भी प्रकार का वास्तु दोष हो तो अशोक वृक्ष को लगाने से दोष दूर होता है. घर में सकारात्मक ऊर्जा बहने लगती है.

अशोक के वृक्ष को घर पर लगाने से सुख व समृद्धि का आगमन होता है.

अशोक वृक्ष घर पर होने से अकाल मृत्यु का भय भी समाप्त होता है.

स्त्रियों यदि अशोक वृक्ष की छाया में बैंठें तो उनकी शारीरिक व मानसिक ऊर्जा को बल प्राप्त होता है.

अशोक का पूजन करने से दांपत्य जीवन सुखद रहता है.

इस प्रकार अशोकाष्टमी का न सिर्फ आध्यात्मिक स्वरुप में ही अपना महत्व नहीं रखता है, अपितु यह संपूर्ण स्वरुप में मानव जीवन को प्रभावित करने में भी सक्षम होता है. किसी भी वृक्ष के प्रति आदर भाव प्रकृति के प्रति हमारा सम्मान ही है. जो प्रकृति हमें जीवन प्रदान करती है यदि हम उसके प्रति समर्पण का भाव रख सकें तो मनुष्य जीवन के लिए यह प्रगति और शांति के मार्ग को ही प्रशस्त करने में सहायक होता है. अपनी आने वाली पिढ़ियों को हम इन संस्कारों द्वारा प्रकृति और मनुष्य के जीवन का संबंध समझा सकने में सफल होंगे और एक शुभ वातावरण दे सकते हैं.

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मत्स्य जयंती: जाने क्यों लिया भगवान विष्णु ने मछली का अवतार

चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मत्स्य जयंती के पर्व के रुप में मनाया जाता है. इस वर्ष 31 मार्च 2025 को सोमवार के दिन मत्स्य जयंती मनाई जाएगी. मत्स्य जयंती पर श्री विष्णु भगवान का अभिषेक होता है, पूजा अर्चना की जाती है और विभिन प्रकार के भोग लगाए जाते हैं.

विष्णु भगवान का मत्स्य अवतार

भगवान विष्णु जी के मुख्य रुपों में से एक अवतार मत्स्य अवतार का है. मत्स्य अवतार भगवान का प्रथम अवतार भी माना जाता है. इस अवतार में श्री विष्णु भगवान ने मछली का रुप धरके सृष्टि को विनाश से बचाया था. भगवान के इस अवतार में जलीय अवतार लेने पर कई प्रकार की कथाएं प्रचलित है. इन कथाओं में सृष्टि के संचालन और प्रकृति के संतुलन की ओर ध्यान जाता है. इसके साथ ही मत्स्य जयंती जिस स्वरुप को दर्शाती है, वह यही है कि जीवन के सभी क्षेत्रों में मानवता ही परम धर्म कहलाता है. निर्बलों की सुरक्षा करना ही श्रेष्ठ धर्म है.

भगवान का ये अवतार मनुष्य के जीवन की एक नई यात्रा को दर्शाती है. इस दिन को हिन्दूओं में बहुत उत्साह और भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है. श्री विष्णु भगवान की पूजा होती है और मंदिरों में भागवत इत्यादि कथाओं को पाठ भी होता है. मत्स्य जयंती के उपलक्ष्य पर धर्म स्थलों का दर्शन करने एवं पवित्र नदियों में स्नान की भी विशेष परंपरा रही है.

मत्स्य जयंती पूजा मुहूर्त 2025

मत्स्य जयंती चैत्र माह की तृतीया तिथि के दिन मनाते हैं. सूर्योदय कालीन तृतीया तिथि के दिन व्रत एवं पूजन किया जाना चाहिए.

  • तृतीया तिथि प्रारम्भ – 31 मार्च 2025 को 09:12 मिनट पर होगा.
  • तृतीया तिथि समाप्त – 01 अप्रैल 2025 को 26:333 मिनिट तक रहेगी.
  • मत्स्य जयन्ती पूजा मुहूर्त – 31 मार्च 2025 को 09:12 मिनट से 15:04 मिनट तक रहेगा.
  • मत्स्य जयंती की पूजा विधि

    • मत्स्य जयंती के दिन प्रात:काल सूर्योदय समय पवित्र नदियों में स्नान करना चाहिए.
    • यदि नदियों में स्नान न कर पाएं तो घर पर ही शुद्ध जल से स्नान करें.
    • सूर्योदय समय सूर्य को अर्घ्य प्रदान करें.
    • श्री विष्णु का ध्यान करना चाहिए और “श्री नमो नारायण” मंत्र का जाप करना चाहिए.
    • पूजा स्थान पर चौकी रखें उसे गंगाजल से शुद्ध करके उस पर पीला कपड़ा बिछाएं. इस पर भगवान विष्णु की मत्स्य अवतार की मूर्ति या प्रतिमा स्थापित करें.
    • भगवान विष्णु को चंदन केसर का तिलक करना चाहिए.
    • फूलों की माला चढ़ानी चाहिए.
    • पूजा में पंचामृत, फल, मेवे इत्यादि भगवान को अर्पित करने चाहिए.
    • धूप व घी से बना दीपक जलाकर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए.
    • मत्स्य अवतार की कथा पढ़नी या सुननी चाहिए.
    • भागवत अथवा मत्स्य पुराण का पाठ करना चाहिए.
    • भगवान श्री विष्णु की धूप व दीप से आरती उतारनी चाहिए.
    • आरती के पश्चात भगवान को भोग लगाना चाहिए. भगवान को भोग स्वरुप खीर, मिठाई इत्यादि का उपयोग करना चाहिए.
    • इसके बाद भगवान के प्रसाद को परिवार में सभी को दीजिये और खुद भी खाना चाहिए. मतस्य जयंती के दिन ब्राह्मणों को भोजन करना एवं दान दक्षिणा देना अत्यंत शुभदाक होता है.

    मत्स्य जयंती पर करें ये काम

    • मत्स्य जयंती के दिन ॐ मत्स्यरूपाय नमः” मंत्र का जाप करना चाहिए.
    • आटे से बनी छोती-छोटी गोलियां बना कर इन्हें जलाशय या नदियों में मछली को खिलाने के लिए डालना चाहिए.
    • इस दिन सात अनाज दान करने चाहिए.
    • मंदिर में हरिवंशपुराण का दान करना चाहिए.

    मत्स्य जयंती कथा

    मत्स्य जयंती की कथा का उल्लेख पुराणों में प्राप्त होता है. भगवान विष्णु का पहला अवतार मत्स्य अवतार था. पृथ्वी पर जब प्रलय आने में कुछ समय बाकी बचा होता है उस समय भगवान विष्णु, मत्स्य अवतार लेकर पृथ्वी को बचाते हैं.

    मत्स्य जयंती की कथा इस प्रकार है – सत्यव्रत मनु भगवान श्री विष्णु के अनन्य भक्त थे. एक दिन सत्यव्रत मनु भगवान के पूजन हेतु नदी पर पूजन और तर्पण करने के लिए जाते हैं और वहां पर, एक छोटी सी मछली उनके कमंडल में आ गिरती है. मनु बहुत ही धर्मपरायण, दयावान एवं परोपकारी राजा थे, वह उस छोटी सी मछली को अपने निवास स्थान में ले आते हैं. पर वह मछली इतनी बड़ी हो जाती है कि उसे उसे तालाब में छोड़ना पड़ता है. जैसे ही उस मछली को तालाब में डाला जाता है, उस मछली का आकार इतना बड़ा हो जाता है की वह उस तालाब में समा नही पाती है. तब राज मनु उस मछली को तालाब से निकालकर नदी में डाल देते हैं, किंतु वह मछली नदी से भी बड़ी हो जाती है. अब मनु उस मछली को समुद्र में डाल देते हैं, तो वह मछली समुद्र से भी बड़ी हो जाती है.

    मछली का यह रुप देख कर मनु को आश्चर्य होता है और वह समझ जाते हैं की यह कोई साधारण मछली नही है. तब वह उस मछली को नमस्कार करते हुए कहते हैं की कृप्या वो इस सारे भेद का ज्ञान उसे दे की वह कौन है. उस क्षण मछली में से भगवान विष्णु प्रकट होते हैं और उन्हें कहते हैं की आज से ठीक सात दिन बाद प्रलय आएगी ओर पृथ्वी जलमग्न हो जाएगी सभी प्राणियों का अंत हो जाएगा. इसलिए मैने ये अवतार लिया है और तुम्हें सृष्टि के संचालन को आगे बढ़ाने के लिए चुना है.

    श्री विष्णु, मनु से कहते हैं की तुम एक बहुत बड़ी नाव तैयार करो और सप्त ऋषियों सहित सभी प्राणियों को लेकर उसमें सभी आवश्यक वस्तुएं इकट्ठा करो, जिनके उपयोग से पुन: इस सृष्टि का संचालन हो पाए. मनु, भगवान कहे अनुसार सारी तैयारी कर लेते हैं. ठीक सात दिन बाद प्रलय का समय आता है. भगवान विष्णु, मछली रुप में सत्यव्रत मनु के पास आते हैं और नाव को उन पर बांध लेने को कहते हैं. जब तक प्रलय काल समाप्त नहीं होता है तब तक भगवान मत्स्य अवतार लिए जल में ही रहते हैं.

    मत्स्य अवतार में भगवान विष्णु चारो वेदों को अपने पास रखते हैं ओर जब पुन: सृष्टि का निर्माण शुरु होता है तो वेद ब्रह्मा जी को देकर सृष्टि का आरंभ करते हैं. इस प्रकार मत्स्य अवतार लेकर भगवान पृथ्वी को बचाते हैं ओर सभी जीवों का कल्याण करते हैं.

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    चैत्र मास नाग पंचमी 2025 : जानिए क्यों मनायी जाती है नाग पंचमी

    प्रत्येक माह की पंचमी तिथि के देव नाग माने जाते हैं. ऎसे में प्रत्येक माह में आने वाली पंचमी तिथि का संबंध किसी न किसी नाग से होता है. इस लिए पंचमी तिथि के दिन नाग देव के पूजन का विधान रहा है. हिन्दू पंचांग अनुसार चैत्र माह में आने वाली पंचमी तिथि को विशेष रुप से नाग पंचमी का पर्व मनाया जाता है.

    इस वर्ष 2 अप्रैल 2025 को बुधवार के दिन नाग पंचमी पर्व मनाया जाएगा. हिन्दू धर्म में नाग को धन धान्य और वंश वृद्धि से जोड़ा गया है. इसलिए नाग की पूजा व उनका सम्मान करने से व्यक्ति के जीवन में सुख संपन्नता का वास होता है और उसके वंश की वृद्धि होती है.

    चैत्र माह में आने वाली शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन, नाग पूजा में नाग को जोड़े के रुप में पूजा जाता है. इस दिन भगवान शिव का पूजन एवं जलाभिषेक करना बहुत ही शुभ होता है. इस दिन किए गए पूजा पाठ से शुभ कर्म की वृद्धि होती है और पापों का नाश होता है.

    क्यों मनाते हैं नाग पंचमी

    नागों का संबंध पैराणिक काल से ही सनातन धर्म के साथ रहा है. हिन्दू धर्म में पशु पक्षिओं को भी प्रेम व भक्ति भाव की दृष्टि से देखा जाता रहा है. इसी विचार में एक पर्व जुड़ता है, जिसे नाग पंचमी के त्यौहार के रुप में मनाया जाता है. नाग को हिन्दूओं के महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रथों में स्थान प्राप्त है. वैदिक काल से ही नागों के संबंध में हमें कई कथाएं और पौराणिक आख्यान भी प्राप्त होते हैं.

    नाग को विशेष रुप का दर्जा प्रदान किया गया है. श्री विष्णु भगवान शेष नाग पर विराजमान होते हैं. वहीं भगवान शिव सर्प को अपने गले में धारण किए हैं. कुंडलिनी शक्ति जो हम सभी में विराजमान है. उसे सोए हुए सर्प के स्वरुप में दर्शाया गया है. यह शरीर में मौजूद वह ज्ञान है जिसे कुंडलिनी जागरण करने पर ही प्राप्त किया जा सकता है. ऎसे में हमारे आंतरिक ज्ञान का संबंध भी नाग के स्वरुप से जोड़ा गया है.

    नाग पंचमी व्रत व पूजन विधि

    • नाग पंचमी के दिन प्रात:काल स्नान करने के उपरांत शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए.
    • नाग पंचमी के दिन अनन्त, वासुकि, पद्म, महापद्म, तक्षक, कुलीर, कर्कट और शंख नामक आठ नागों के नामों का स्मरण करना चाहिए.
    • नाग पंचमी के दिन यदि संभव हो सके तो व्रत रखना चाहिए और फलाहार का सेवन करना चाहिए.
    • नाग और नागिन की पूजा में इनका चित्र अथवा मिट्टी, चांदी, सोना इत्यादि से बने नाग देव का स्थापित करने चाहिए.
    • पूजन के लिए लाल रंग का आसन तैयार करना चाहिए और उस पर नाग देव को स्थापित करना चाहिए.
    • नाग देव के अभिषेक के लिए कच्चा दूध, घी, चीनी, दही और गंगा जल मिलाकर इससे नाग देव को स्नान कराना चाहिए.
    • हल्दी, रोली, चावल से तिलक करना चाहिए.
    • फूल माला चढ़ानी चाहिए और नाग देव की पूजा करनी चाहिए.
    • पूजा के बाद सर्प देवता की आरती उतारनी चाहिए.
    • नाग पंचमी के दिन नाग देव की कथा अवश्य सुननी चाहिए.
    • नाग देव को भोग लगाना चाहिए और उस भोग को प्रसाद रुप में सभी लोगों में बांटना चाहिए.

    नाग पंचमी के दिन करें इन मंत्रों से पूजा

    नाग पंचमी के दिन इन मंत्रों का जाप करने से जीवन में सर्प दोष से मुक्ति प्राप्त होती है और काल सर्प दोष की शांति भी होती है. प्रत्येक माह में आने वाली पंचमी के दिन नीचे दिये गए मंत्र जाप से लाभ मिलता है: –

    चैत्र माह में ॐ शंखपालाय नम:, वैशाख माह में ॐ तक्षकाय नम: , ज्येष्ठ माह में ॐ पिंगलाय नम: , आषाढ़ माह में ॐ कालिदाय नम:, श्रावण माह में ॐ अनंतर्पिणी नम:, भाद्रपद माह में ॐ वासुकी नम:, आश्विन माह में ॐ शेषाय नम:, कार्तिक माह में ॐ पद्माय नम:, मार्गशीर्ष माह में ॐ कम्बलाय नम:, पौष माह में ॐ अश्वतराय नम:, माघ माह में ॐ कर्कोटकाय नम: और फाल्गुन माह में ॐ घृतराष्ट्राय नम: मंत्र का जाप करना चाहिए. इन प्रमुख मंत्रों से प्रत्येक माह में पंचंमी के दिन नाग पूजन करना अत्यंत शुभ होता है.

    नाग पंचमी कथा

    नाग पंचमी से संबंधित अनेकों कथाएं मिलती हैं. जो नागों के जन्म एवं उनकी मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को दर्शाती हैं. एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा परीक्षित के पुत्र जन्मजेय ने अपने पिता परीक्षित की मृत्यु का बदला लेने के लिए संपूर्ण सर्प जाती का नाश करने के लिए सर्प नाशक यज्ञ का अनुष्ठान आरंभ करते हैं.

    राजा जन्मजेय के पिता राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक नामक सांप के काटने से हुई थी. सर्पों से बदला लेने और वंश के विनाश के लिए जनमेजय द्वारा चलाए गए यज्ञ में अनेकों सापों की मृत्यु होने लगी. ऎसे में तब तक्षक अपने प्राणों की रक्षा के लिए इंद्र के पास चला जाता है और इंद्र उसकी रक्षा करने का उसे आश्वासन देते हैं. यज्ञ में जब ब्राह्मणों द्वारा तक्षक का आहवान होता है तो वह नहीं आता. ऎसे में जनमेजय ऋषियों को कहते हैं कि अगर इंद्र तक्षक को नहीं त्यागता है तो इंद्र का आहवान किया जाए. ऎसे में ऋषियों ने इंद्र का आहवान किया.

    तब इंद्र ने डर से तक्षक को छोड़ दिया और तक्षक अग्निकुंड के पास आ गया. ऎसे में उसी समय पर ऋषि आस्तीक ने आकर जनमेजय के क्रोध को शांत किया और उनसे तक्षक को मुक्त करने और सर्प नाशक यज्ञ को समाप्त करने की प्रार्थना की. जनमेजय ऋषि आस्तिक के वचनों से शांत होते हैं और तक्षक नाग को जीवनदान प्राप्त होता है.

    माना जाता है की जिस दिन इस यज्ञ को रोका गया उस दिन पंचमी तिथि थी. इस कारण इस दिन को नाग पंचमी के पर्व के रुप में भी मनाया जाता है. इसी प्रकार अन्य बहुत सी कहानियां नाग पंचमी के महत्व को अलग-अलग रुपों से दर्शाती हैं.

    क्यों है नागों का पौराणिक व धार्मिक महत्व

    पुराणों में नागों के विषय में विस्तार रुप से उल्लेख प्राप्त होता है. नागों को कश्यप ऋषि की संतानें कहा गया है. इसके अनुसार ब्रह्मा जी के पुत्र ऋषि कश्यप की चार पत्नियाँ थी जिनमें से एक पत्नी कुर्दू थीं जिनसे नागों की उत्पत्ति हुई. नागों के नामों में मुख्य रुप से अनन्त, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापदम, शंखपाल और कुलिक नामों का जिक्र मिलता है. अगर किसी की जन्म कुंडली में काल सर्प दोष बनता है, तो वह इन्हीं आठ नागों के प्रभाव का परिणाम होता है.

    नाग पंचमी में करें कालसर्प दोष शांति पूजा

    कुंडली में कालसर्प योग के बनने के कारण जीवन में रुकावटें बहुत आती हैं. किसी न किसी कारण प्रयास बार-बार विफल होते जाते हैं. पारिवारिक सुख की कमी भी जीवन में लगातार बनी रहती है. ऎसे में काल सर्प दोष की शांति के लिए नाग पंचमी का पर्व अत्यंत ही मुख्य समय होता है.

    काल सर्प दोष कुण्डली में बनने वाला एक खराब योग होता है. यह किसी व्यक्ति की कुण्डली में तब बनता है जब सूर्य, चंद्र, बुध, मंगल, गुरु, शुक्र और शनि सभी ग्रह राहु और केतू के बीच आ जाते हैं तो काल सर्प योग का निर्माण होता है. कुंडली में बनने वाले अन्य सर्प दोष का निर्माण भी इन्हीं के द्वारा होता है.

    इसके साथ ही काल सर्प शांति की पूजा में नाग पंचमी के दिन शिव मंदिर में नाग पूजन के साथ भगवान शिव का पूजन भी होता है. इस पूजन में रुद्राभिषेक और महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करना चाहिए. शिवजी एवं नाग देव को दूध चढ़ाना चाहिए.

    कालसर्प शांत के लिए सबसे उपयुक्त दिन नाग पंचमी का ही होता है. इस दिन यदि विधि विधान के साथ नागों का पूजन किया जाए तो कुंडली में बनने वाले इस योग की शांति होती है.

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    चैत्र माह स्कंद षष्ठी व्रत 2025 : जानिये पूजा विधि और महत्व के बारे में विस्तार से

    हिन्दू पंचांग अनुसार चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को स्कंद षष्ठी के रुप में मनाया जाता है. इस वर्ष  03 अप्रैल 2025 को गुरुवार के दिन स्कन्द षष्ठी पर्व मनाया जाएगा स्कंद भगवान को अनेकों नाम जैसे कार्तिकेय, मुरुगन व सुब्रहमन्यम इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है. दक्षिण भारत में इस पर्व को विशेष रुप से मनाने की परंपरा रही है.

    दक्षिण भारत में इस पर्व के अवसर पर विशेष पूजा अर्चना एवं झांकियों का आयोजन भी होता है. स्कन्द देव को भगवान शिव और देवी पार्वती का पुत्र बताया गया है. यह गणेश के भाई हैं. भगवान स्कन्द को देवताओं का सेनापति कहा गया है.

    षष्ठी तिथि भगवान स्कन्द को समर्पित हैं. मान्यता है की स्कंद भगवान का जन्म इसी तिथि में हुआ था इसलिए कारण से भी इनके जन्म दिवस के रुप में भी इस तिथि को मनाया जाता है. स्कंद षष्ठी के दिन श्रद्धालु भक्ति भाव से स्कंद देव का पूजन अर्चन करते हैं और व्रत एवं उपवास रखते हैं.

    कब रखते हैं स्कंद षष्ठी व्रत

    स्कंद षष्ठी का पूजन एवं व्रत के संदर्भ में बहुत से मत प्रचलित हैं. धर्मसिन्धु और निर्णयसिन्धु ग्रंथों के अनुसार सूर्योदय और सूर्यास्त के मध्य में अगर पंचमी तिथि समाप्त होती हो या षष्ठी तिथि का आरंभ हो रहा हो, इन दोनों तिथि के आपस में संयुक्त हो जाने के कारण इस दिन को स्कन्द षष्ठी व्रत के लिए चयन करना उपयुक्त माना गया है.

    षष्ठी तिथि का पंचमी तिथि के साथ मिल जाना स्कंद षष्ठी व्रत के लिए बहुत ही शुभ माना गया है. ऎसे समय में व्रत करने का नियम बताया गया है. इसी कारण से कई बार स्कन्द षष्ठी का व्रत पंचमी तिथि के दिन भी रखा जाता रहा है.

    स्कंद षष्ठी कथा

    स्कंद भगवान की कथा इस प्रकार की है – तारकासुर नामक राक्षस को वरदान प्राप्त था की उसे कोई मार नही सकता है, केवल शिव पुत्र ही उसका संहार कर सकता है. इस वरदान का लाभ उठाते हुए वह हर ओर से निर्भय होकर लोगों पर अत्याचार शुरु कर देता है. तारकासुर का प्रकोप जब चारों ओर बढ़ने लगा. वह देवताओं पर अधिकार करने और इंद्र का स्थान पाने के लिए उत्तेजित होता है, तब उस समय इंद्र समेत सभी देवता त्रिदेवों से रक्षा की गुहार लगाते हैं.

    विष्णु भगवान उनकी मदद का आश्वासन देते हैं और उनके प्रयासों द्वारा भगवान शिव का विवाह माता पार्वती से संपन्न होता है. भगवान शिव और माता पार्वती अपनी शक्ति द्वारा एक दिव्य पुंज का निर्माण करते हैं, जिसे अग्नि देव अपने साथ ले जाते हैं. ऎसे में उस पुंज का ताप अग्नि सहन न कर पाने के कारण गंगा में फैंक देते हैं. गंगा भी इस तेज को सहन करमे में अक्षम होती है. गंगा उस पुंज को शरवण वन में लाकर स्थापित कर देती हैं जिसके कारण उस दिव्य पुंज से सुंदर बालक का जन्म होता है. उस वन में छह कृतिकाओं की दृष्टि जब शिशु पर पड़ती है तब वह उन्हें अपना लेती हैं और उनका पालन करने लगती हैं. कृतिकाओं द्वारा पालन होने पर ये कार्तिकेय कहलाये.

    कार्तिकेय को देवताओं का सेनापति बनाया जाता है. उसके पश्चात वह तारकासुर पर हमला बोलते हैं और उसे परास्त करते हैं. तारकासुर के वध के पश्चात सभी उपद्रव शांत होते हैं और देवता पुन: शांति से अपना कार्य आरंभ करते हैं.

    स्कंद भगवान का दक्षिण से संबंध

    वैसे तो संपूर्ण भारत में ही स्कंद भगवान का पूजन होता है लेकिन दक्षिण भारत से स्कंद भगवान का महत्व बहुत अधिक जुड़ा हुआ है. दक्षिण भारत में इन्हें अनेकों नामों से पूजा जाता है और इनके अनेकों मंदिर भी वहां मौजूद हैं. इसके संदर्भ में एक कथा बहुत अधिक प्रचलित है जो उनके दक्षिण के साथ के संबंध को दर्शाती है.

    जिसके अनुसार एक बार भगवान कार्तिकेय अपनी माता पार्वती जी और पिता भगवान शिव व भाई श्रीगणेश से नाराज होकर कैलाश पर्वत से मल्लिकार्जुन चले जाते हैं जो दक्षिण की ओर हैं. ऎसे में दक्षिण उनका निवास स्थान बनता है. वास्तु में दक्षिण दिशा का संबंध भी स्कंद (कार्तिकेय) भगवान से ही जुड़ा रहा है.

    स्कंद षष्ठी पूजा कैसे करें

    स्कन्द षष्ठी के दिन कुमार कार्तिकेय की पूजा की जाती है. इस पूजा में इनके समस्त परिवार का पूजन भी होता है. विधि पूर्वक पूजा करने करने से कष्टों का निवारण होता है. कोई संघर्ष हो या शत्रुओं से विजय पानी हो, इस समय स्कंद भगवान का पूजन करने से व्यक्ति को अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है.

    भगवान स्कंद जो कुमार हैं, बाल रुप में हैं इसलिये इनका पूजन करना संतान के सुख में वृद्धि करने वाला होता है. बच्चों की रक्षा एवं उन्हें रोग से बचाव के लिए स्कंद षष्ठी की पूजा करना बहुत अनुकूल माना गया है.

    • स्कंद षष्ठी के दिन स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए और स्कंद कुमार (कार्तिकेय) के नाम का स्मरण करना चाहिए.
    • कार्तिकेय भगवान के पूजन में पूजा स्थल पर कार्तिक्ये की मूर्ति अथवा चित्र रखना चाहिए इसके साथ ही इनके साथ भगवान शिव, माता गौरी, भगवान गणेश की प्रतिमा या तस्वीर भी स्थापित करनी चाहिये.
    • भगवान कार्तिकेय को अक्षत्, हल्दी, चंदन से तिलक लगाना चाहिए.
    • साथ में स्थापित सभी को देवों को तिलक लगाना चाहिए.
    • भगवान के समक्ष पानी का कलश भर के स्थापित करना चाहिए और एक नारियल भी उस कलश पर रखना चाहिए.
    • पंचामृत, फल, मेवे, पुष्प इत्यादि भगवान को अर्पित करने चाहिए.
    • गाय के घी का दीपक जलाना चाहिए.
    • भगवान को इत्र और फूल माना चढ़ानी चाहिये.
    • स्कंद षष्ठी महात्म्य का पाठ करना चाहिए.
    • स्कंद भगवान आरती करनी चाहिए और भोग लगाना चाहिए.
    • भगवान के भोग को प्रसाद सभी में बांटना चाहिए और खुद भी ग्रहण करना चाहिए.

    विधि प्रकार से भगवान स्कंद कुमार कार्तिकेय का पूजन करने से कष्ट दूर होते हैं और परिवार में सुख समृद्धि का वास होता है.

    स्कंद षष्ठी महत्व और इसमें किये जाने वाले कार्य

    धर्म शास्त्रों में स्कंद षष्ठी तिथि को संतान प्राप्ति के लिए अत्यंत उत्तम माना गया है. इस दिन भगवान कार्तिकेय का पूजन करने से नि:संतान दंपति को भी संतान का सुख प्राप्त होता है. ज्योतिष शास्त्र अनुसार यदि जन्म कुण्डली में मंगल ग्रह से अशुभ फल मिल रहे हैं तो मंगल ग्रह की अशुभता से बचने के लिए कार्तिकेय भगवान का पूजन करना अत्यंत शुभ फल देने वाला होता है. व्यक्ति को स्कंद भगवान का पूजन करने से अकाल मृत्यु के भय से मुक्ति मिलती है.

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    लक्ष्मी सीता अष्टमी व्रत : विवाह सुख और आर्थिक उन्नती देता है

    फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को लक्ष्मी सीता अष्टमी रूप में पूजा जाता है. देवी लक्ष्मी को सीता का स्वरुप ही माना गया है दोनों का स्वरुप एक ही है ऎसे में ये दिन लक्ष्मी-सीता अष्टमी के पूजन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. लक्ष्मी सीता अष्टमी के दिन इन दोनों रुपों का पूजन हो सर्वप्रथम देवी लक्ष्मी का पूजन एवं उसके पश्चात सीता माता का पूजन करना चाहिए.

    लक्ष्मी सीता अष्टमी का पौराणिक महत्व

    देवी लक्ष्मी का एक रुप सीता भी है, और इस पर्व को सीता लक्ष्मी अष्टमी के रुप में भी मनाया जाता है. देवी लक्ष्मी के स्वरुप में सीता का जीवन एवं उनके संघर्ष का स्वरुप. यह पर्व सभी के समक्ष एक ऎसे आदर्श की स्थापना करता है जो सदैव के लिए पूजनिय और अविस्मरणीय बन गया है.

    धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, फाल्गुन माह की कृष्ण एवं शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को सीता जी के पृथ्वी पर आने के समय से जोड़ा गया है. देवी-देवताओं के अवतारों रुप में जब माता सीता के चित्रण को समझने की कोशिश करते हैं तो सर्वप्रथम उनके जन्म समय को समझने की भी आवश्यकता होती है. वेदों में हमें इस बात का अधिक पता नहीं चलता है लेकिन यदि हम पुराणों की बात करें तो उसमें हमें सीता जन्म से संबंधित अनेक कथाएं मिलती हैं वहीं जब हम लोक जीवन से जुड़ी कथाओं को देखें तो यहां भी हमें उनकी जन्म कथा के विभिन्न रुप दिखाई देते हैं.

    सीता जिसे पृथ्वी से उत्पन्न माना गया और इसी कारण उन्हें ये नाम भी प्राप्त होता है. माता सीता का चरित्र हमें राम कथा में प्राप्त होता है. रामचरितमानस, श्री राम और सीता जी के जीवन पर आधारित पौराणीक ग्रंथ है. माता सीता को मिथिला नरेश राजा जनक की पुत्री बताया गया है. जनक की पुत्री होने के कारण इन्हे जानकी एवं जनकसुता इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है. मिथिला कुमारी होने के कारण इन्हें मैथिली नाम भी प्राप्त हुआ. इनका विवाह अयोध्या के नरेश राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्री राम के साथ हुआ था. उसके पश्चात जीवन में आने वाले अनेक उतार-चढा़वों को झेलते हुए इनका जीवन व्यतित हुआ. जिस प्रकार देवी सीता भूमि से उत्पन्न हुई मानी जाती हैं उसी प्रकार अपने अंत समय में भी देवी सीता पृथ्वी में ही समा जाती हैं. त्रेतायुग में इन्हें देवी सीता को माँ लक्ष्मी का अवतार माना गया है.

    लक्ष्मी सीता अष्टमी पूजन कब और क्यों किया जाता है.

    लक्ष्मी-सीता अष्टमी पर्व को इनके जन्म समय को भी इस समय से जोड़ा जाने के कारण यह दिवस अत्यंत उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है. प्रत्येक वर्ष इस दिन देवी सीता व देवी लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है. इस उपलक्ष पर मंदिरों में भजन एवं कीर्तन होते हैं.

    लक्ष्मी सीता अष्टमी पूजन विधि

    लक्ष्मी सीता अष्टमी के दिन कैसे करें पूजन और किन चीजों को भोग के लिए उपयोग में लाएं, आईये जानते हैं इस दिन के व्रत एवं पूजन की विधि विस्तार से –

    सीता पूजन विधि

  • सीता-लक्ष्मी अष्टमी के दिन प्रात:काल स्नान इत्यादि कार्यों से निवृत होकर सर्वप्रथम माता सीता का स्मरण करना चाहिए.
  • देवी सीता और श्री राम जी को प्रणाम करते हुए मंदिर में उनके समक्ष दीप प्रज्जवलित करना चाहिए. व्रत करने का संकल्प लेना चाहिए.
  • पूजा में पीले रंग के वस्त्र एवं फूलों का उपयोग करना अधिक शुभ होता है. अगर पीला रंग नही हो तो जो भी आपके सामर्थ्य में है उस अनुरुप भी पूजन किया जा सकता है.
  • माता सीता के समक्ष सोलह श्रृंगार का सामान भेंट करना चाहिए. माता को सुहाग की समस्त वस्तुएं अर्पित करनी चाहिए.
  • सीता माता की आरती करनी चाहिए. श्री जानकी रामाभ्यां नमः मंत्र का 108 बार जाप करें.
  • भोग में पीली चीजों को चढ़ाएं और उसके बाद मां सीता की आरती करनी चाहिए. दूध-गुड़ से बने पदार्थों का भोग लगाना चाहिए.
  • लक्ष्मी पूजन विधि

  • देवी सीता के पूजन उपरांत देवी लक्ष्मी जी का पूजन करना चाहिए.
  • पूजन में देवी लक्ष्मी जी व श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए.
  • पूजन में पानी का कलश भर कर रखना चाहिए.
  • दूध, खीर, देवा माता को अर्पित करना चाहिए.
  • श्री लक्ष्मी एवं श्री विष्णु भगवान को वस्त्र व आभूषण अर्पित करने चाहिये.
  • अक्षत(चावल), कुमकुम, धूपबत्ती, घी का दीपक जलाएं व अष्टगंध से पूजन करना चाहिए.
  • देवी लक्ष्मी को गुलाब अथवा कमलपुष्प भेंट करना चाहिए.
  • पुष्पमाला और सुगंधित इत्र अर्पित करना चाहिए. देवी लक्ष्मी जी की आरती करनी चाहिए “ऊँ महालक्ष्मयै नमः” मंत्र का जप करना चाहिए.
  • प्रसाद में मिष्ठान एवं खीर, नारियल, पंचामृत इत्यादि का भोग लगाना चाहिए.
  • माता सीता और माता लक्ष्मी जी के पूजन के पश्चात भोग को प्रसाद रुप में सभी को बांटना चाहिए व परिवार समेत ग्रहण करना चाहिए.
  • सौभाग्य की वृद्धि करता है लक्ष्मी-सीता अष्टमी पूजन

    सीता-लक्ष्मी अष्टमी पूजन करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है. सभी आयु वर्ग की स्त्रियों के लिए एवं सुहागिन स्त्रियों के लिए यह दिन विशेष रुप से अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. सीता-लक्ष्मी अष्टमी का पूजन एवं व्रत करने से स्त्री को अच्छे वर की प्राप्ति होती है.

    सुहागिन स्त्रियों द्वारा इस दिन व्रत पूजन करने से उनके पति की आयु लंबी होती है और वह सदा सुहागिन होने का आशीर्वाद भी पाती हैं. इस दिन व्रत एवं सीता-लक्ष्मी जी का पूजन करने से संतान सुख एवं दांपत्य जीवन के सुख की प्राप्ति होती है. यदि वैवाहिक जीवन में किसी भी प्रकार की परेशानियां आ रही हैं तो इस दिन व्रत का संकल्प लेकर पूजा करने से सभी परेशानियां का अंत होता है. किसी कारण से विवाह नहीं हो पा रहा है तो इस दिन व्रत करने से मनचाहे वर की प्राप्ति का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है.

    सीता-लक्ष्मी अष्टमी का पूजन एवं व्रत वैवाहिक जीवन के कष्टों को दूर करने में अत्यंत ही प्रभावशाली उपाय बनता है.

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    जानें, कब और क्‍यों मनाते हैं गुड़ी पड़वा

    चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को गुड़ी पड़वा का त्यौहार मनाया जाता है. इस वर्ष 30 मार्च 2025 को मंगलवार के दिन गुड़ी पड़वा का पर्व मनाया जाएगा. गुड़ी पड़वा को हिन्दू नव संवत्सर का आरंभ समय माना जाता है. सामान्य शब्दों में कहा जाए तो यह नए साल की शुरुआत होती है. जिस तरह अंग्रेजी कैलेंडर में जनवरी 1 से नया साल शुरु होता है, उसी तरह से हिन्दू पंचांग अनुसार यह गुड़ी पड़वा नए साल का आरंभ होता है. इसे अलग अलग नामों से जाना जाता है. उत्तर भारत में इस दिन से चैत्र नवरात्र आरंभ होते हैं. आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में इस दिन को युगादि, उगादि नाम से में मनाया जाता है.

    महाराष्ट्र में यह दिन गुड़ी पड़वा कहलाता है. इस दिन घरों को इत्यादि की अच्छे से साफ-सफाई करके सजाया जाता है. रंगोली एवं तोरण से घरों को सजाया जाता है और विशेष पकवान बनाए जाते हैं. सभी लोग अपने ईष्ट देव का पूजन करते हैं. इस पर्व को बड़े ही उत्साह और विश्वास के साथ इस पर्व को मनाया जाता है.

    गुड़ी पड़वा का धार्मिक और वैज्ञानिक मत

    गुड़ी पड़वा का समय प्रकृति के बदलाव और नव चेतना के आगमन का समय होता है. इस समय पर प्रकृति में मौसम में बहुत से बदलाव देखने को मिलते हैं. इस समय के दौरन खान पान और हमारे रहन-सहन में भी बदलाव दिखाई देता है. अत: ये संक्रमण का समय भी होता है, जो बदलाव को भी दर्शाता है. इसलिए इस समय के दौरान साफ सफाई, आहार विचार सभी में एक सामंजस्यता का होना और जरुरी भी होता है.

    धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सृष्टि का निर्माण भी इसी समय के दौरान हुआ था. ब्रह्मा जी जिन्हें सृष्टि का निर्माता कहा गया है, उन्होंने इस दिन के समय पर सृष्टि की रचना आरंभ करी. इस लिए इस दिन के दौरन विशेष यज्ञ एवं धार्मिक अनुष्ठान भी किये जाते हैं. महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के दिन लोग घरों की छतों पर गुड़ी लगाते हैं.

    गुड़ी का शाब्दिक अर्थ झंड़े या पताका से लिया जाता है. मान्यता है की गुड़ी इसे लगाने से परिवार के संकट दूर होते हैं और कार्यों में सफलता भी प्राप्त होती है, लगाने की परंपरा है.

    गुड़ी पड़वा से जुड़ी कथा-

    भारत में मनाए जाने वाले सभी उत्सव, व्रत त्यौहार इत्यादि का संबंध किसी न किसी रुप से जुड़ा देखा गया है. इन सभी पर्वों के साथ कोई न कोई महत्वपूर्ण तथ्य अवश्य होते हैं. यह सिर्फ धार्मिक रुप से ही नहीं बल्कि भौगोलिक रुप से व तर्क की कसौटी पर उतरने वाले होते हैं. इसी संदर्भ में गुड़ी पड़वा के साथ बहुत सी कथाओं को जोड़ा गया है. हर कहीं किसी न किसी रुप में इस दिन के साथ कोई न कोई महत्वपूर्ण बात देखने को मिलती है.

    इस पर्व से संबंधित एक कथा इस प्रकार की रही है शालिवाहन नामक एक राजा हुए जिनके पिता का राज्य उनके सामंतों द्वारा छिन लिया गया. सामंतों ने उन के परिवार पर हमला बोल दिया और शालिवाहन को मारने का प्रयास किया. शालिवाहन अपने प्राणों की रक्षा हेतु वहां से भाग जाते हैं और भागते-भागते वे किसी जंगल में कुम्हार के घर पर आश्रय पाते हैं. कुम्हार ने उन्हें अपने घर रखा और उनका पालन किया.

    कुम्हार के द्वारा लालन पालन होने के कारण उन्हें कुम्हार माना जाने लगा पर वह क्षत्रिय थे. कहा जाता है कि शालिवाहन को देवताओं से वरदान मिला था की वह किसी भी निर्जीव मूरत में प्राण डाल सकते थे. धीरे-धीरे समय बीतता गया और एक दिन जब शालिवाहन को अपने परिवार और राज्य का ज्ञान हुआ तो वह उसे प्राप्त करने के लिए सामंतों के साथ लड़ाई करने की तैयारी करते हैं.

    शालिवाहन के पास युद्ध लड़ने के लिए न कोई सेना थी और न ही धन, तब उन्हें अपनी उस वरदान का बोध हुआ और उन्होंने मिट्टी की सेना बनाई जिसमें उन्होंने हाथी, घोड़े, सैनिक सभी हथियार बनाए. युद्ध समये आने पर शालीवाहन ने मिट्टी की सेना पर पानी के छीटें डालकर उन्हें जीवित कर दिया और युद्ध जीतकर अपना राज्य पुन: प्राप्त किया. इस के साथ ही शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन किया गया.

    एक अन्य कथा अनुसार इस दिन भगवान राम ने बाली को मार कर सुग्रीव को उसका राज्य दिलवाया और वहां की प्रजा को बाली के अत्याचारों से मुक्त किया था. बाली के अत्याचारों से मुक्त होने पर वहां के लोगों ने उत्सव मनाया और अपने घरों पर ध्वजाएं(गुडी़) फहराई. इसी प्रसंग में आज भी लोग घर के आंगन व छतों पर गुड़ी लगाते हैं.

    गुड़ी पड़वा पूजा

    गुड़ी पड़वा के कुछ दिन पहले से ही लोग तैयारियां शुरु कर देते हैं. लोग घर की साफ सफाई में लग जाते हैं. घरों को अनेकों सुंदर चीजों से सजाया जाता है. ब्रह्मा जी का पूजन किया जाता है. गुड़ी पड़वा के दिन घर पर ध्वज लगाए जाते हैं. यह धवज हर काम में सफलता दिलाने का प्रतीक बनते हैं. घर के मुख्य द्वार पर स्वास्तिक एवं मांगलिक चिन्ह बनाए या लगाए जाते हैं. लोग पारंपरिक वस्त्र पहनते हैं. भगवान सूर्य देव की पूजा की जाती है. /p>

    घर के मुख्य द्वार पर तोरण व आम के पत्तों से बनाया गया बंदवार बनाकार लगाया जाता है. इस दिन उबटन और तेल लगा कर स्नान करने की परंपरा रही है. इस दिन बनाए गए भोजन का सेवन करने से शरीर को लाभ मिलता है.

    गुड़ी पड़वा के दिन का महत्व

    गुड़ी पड़वा का दिन भारत के अलग-अलग स्थानों पर, जाकर अपने एक अलग रुप में दिखाई देता है. इन सभी में एक बात मुख्य या कहें समान ही होती है कि इस दिन को नवीनता के आरंभ के रुप में ही देखा जाता है. कथा कहानियां, लोक परंपराओं या फिर प्रमाणिकता के आधार पर ही इसे देखें तो भी इस सभी विचारों का ताना-बाना आपसे में बंधा हुआ है.

    इस बंधन का मूल अर्थ है इसकी जीवन के प्रति नवीनता और चेतना का आगमन. गुड़ी पड़वा के दिन से ही दुर्गा पूजा का आरंभ होना और हिन्दू पंचांग काल गणना का आरंभ होना. यह बातें बताती हैं कि प्रकृति और काल का स्वरुप एक दूसरे से जुड़ा हुआ है.

    • गुड़ी पड़वा ब्रह्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि का निर्माण हुआ.
    • गुड़ी पड़वा के दिन ही श्रीराम का राज्‍याभिषेक किया गया था.
    • गुड़ी पड़वा के दिन चैत्र नवरात्र व्रत का आरंभ होता है.
    • गुड़ी पड़वा समय ही विक्रमादित्‍य द्वारा विक्रमी संवत का आरंभ हुआ था.
    • गुड़ी पड़वा के दिन ही शालिवाहन शक संवत जो भारत सरकार का राष्‍ट्रीय पंचांग भी है का आरंभ हुआ.
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    शीतला सप्तमी : ऎसे करें शीतला माता की पूजा

    शीतला सप्तमी और शीतला अष्टमी का पर्व माता शीतला के पूजन से संबंधित है. शीतला सप्तमी का व्रत संतान प्राप्ति एवं संतान के सुख के लिए किया जाता है. शीतला माता के व्रत में एवं इनके पूजन में बासी एवं ठंडा भोजन करने का नियम होता है. इस दिन माता शीतला को ठंडा भोजन ही भोग स्वरुप लगाया जाता है. माता शीतला अपने नाम के अनुरुप ही शीतल हैं, ऎसे में इनका पूजन करने से जीवन में मची कोई भी उथल-पुथल एवं अशांती दूर हो जाती है और शांति शीतलता का वास होता है.

    शीतला सप्तमी पूजन इन बातों का रखें ख्याल

  • शीतला माता के पूजन में किसी भी गरम चीज का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • शीतला माता के व्रत रखने पर ठंडे जल से ही नहाना चाहिए.
  • एक दिन पहले बनाया हुआ भोजन करना चाहिए.
  • भोजन ठंडा ही करना उसे गरम नहीं करना चाहिए.
  • इस दिन चूल्हा नहीं जलाते हैं, चूल्हे की पूजा की जाती है.
  • शीतला सप्तमी व्रत करता है चेचक रोग का नाश

    बच्चों में होने वाली एक बीमारी जिसे खसरा(चेचक) या आम बोलचल की भाषा में माता आ जाना कहा जाता है. इस बीमारी की शांति के लिए मुख्य रुप से शीतला माता की पूजा करने का विधान बताया जाता है. ऎसे में आज भी हम ग्रामीण क्षेत्रों में इस रोग के समय माता शीतला के पूजन को विशेष रुप से देख सकते हैं. शहरों में भी बहुत से लोग बच्चों में अगर इस रोग का प्रभाव देखते हैं तो शीतला माता का पूजन करते हैं व मंदिर में जाकर माता की शांति करते हैं.

    शीतला सप्तमी कथा

    शीतला सप्तमी का व्रत संतान की सुरक्षा एवं आरोह्य प्राप्ति के लिए किया जाता है. इस दिन व्रत रखने के साथ ही शीतला सप्तमी कथा भी करनी चाहिए. शीतला सप्तमी कथा को सुनने और पढ़ने से शुभ फलों में वृद्धि होती है.

    शीतला सप्तमी कथा इस प्रकार है : – एक गांव में एक वृद्ध स्त्री अपनी बहुओं के साथ रहती है थी और सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर रही होती है. एक बार शीतला सप्तमी का दिन आता है. वृद्ध स्त्री और उसकी दोनों बहुएं शीतला सप्तमी का व्रत रखती हैं. वृद्ध स्त्री खाना बना कर रख देती हैं क्योंकि माता के व्रत में शीतल व बासी भोजन करना होता है. लेकिन उसकी दोनों बहुओं को कुछ समय पूर्व ही संतान प्राप्ति हुई होती है, इस कारण बहुओं को था की उन्हें शीतला सप्तमी के दिन बासी ओर ठंडा भोजन करना पड़ेगा. बासी भोजन करने से उनकी संतानों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है. इस कारण वह भोजन ग्रहण करना नहीं चाहती थीं.

    शीतला माता की पूजा करने बाद बहुओं ने बासी भोजन का सेवन नहीं किया और अपने लिए खाना बना कर खा लिया. जब सास ने उनसे खाने को कहा तो उन दोनों ने बहाना बना कर सास को झूठ बोल दिया की वह दोनों घर का काम खत्म करने के बाद भोजन कर लेंगी. बहुओं की बात सुन सास बासी भोजन खा लेती है. बहुएं माता का भोजन नहीं खाती हैं.

    बहुओं के इस कार्य से शीतला माता उनसे रुष्ट हो जाती हैं. माता के क्रोध के परिणाम स्वरुप बहुओं के बच्चों की मृत्यु हो जाती है. अपनी संतान की ऎसी दशा देख वह बुरी तरह से रोने लगती हैं, अपनी सास को सारी सच्चाई बता देती हैं. सास को जब इस बात का पता चलता है तो वह अपनी बहुओं को घर से निकाल देती है. बहुएं अपनी मृत संतानों को अपने साथ लेकर वहां से चली जाती हैं.

    रास्ते में दोनों एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठ जाती हैं. वहीं पर ओरी और शीतला नामक दो बहनें मिलती हैं. वह दोनों अपने सिर पर पड़े कीड़ों से दुखी हो रखी होती हैं. बहुओं को उन पर दया आती है और वह उनकी मदद करती हैं. शरीर पर से पिड़ा दूर होने पर दोनों को सकून मिलता है और वह बहुओं को पुत्रवती होने का आशीर्वाद देती हैं.

    बहुएं पहचान जाती हैं की वह बहने शीतला माता है, दोनों बहुओं ने माता से क्षमा याचना की तो माता को उन पर दया आती है और वह उन्हें माफ कर देती हैं. संतान के पुन: जीवित होने का वरदान देती हैं. शीतला माता के वरदान से बच्चे जीवित हो जाते हैं और बहुएं अपनी संतान को लेकर अपने घर जाकर सास और गांव के लोगों को इस चमत्कार के बारे में बताती हैं. सभी लोग शीतला माता की जयकार करते हैं और माता का पूजन भक्ति भाव से करने लगते हैं.

    शीतला माता पूजन विधि

    शीतला माता के पूजन में जो भी विधि विधान होते हैं उन सभी का ध्यान पूर्वक पालन करना चाहिए. शीतला माता के पूजन में किसी भी प्रकार की गलती इत्यादि से बचना चाहिए. यदि अनजाने में कोई गलती हो जाती है तो उसका प्रायश्चित अवश्य करना चाहिए.

  • शीतला सप्तमी से एक दिन पहले ही माता के लिए भोग बना कर तैयार करना होता है.
  • शीतला माता के भोग में मीठा ओलिया जो चावल से बनता है, खाजा जो मैदा या आटे से बनता है, चूरमा, शक्कर पारे, मगद लड्डू, चक्की, पुए, पकौड़ी, राबड़ी, बाजरे या आटे से बनी रोटी, पूड़ी, सब्जी इत्यादि को एक दिन पहले ही बना कर रख लेना चाहिए.
  • माता के लिए जो भी प्रसाद रुप में बनाए गे भोग को पूजा से पहले बिलकुल भी नहीं खाना चाहिए.
  • शीतला सप्तमी के पूजन में उपयोग होने वाली सामग्री के लिए नौ सिकोरे जिसे कंडवार भी कहा जाता है (यह मिट्टी का बना एक छोटे कटोरे की तरह का बर्तन होता है), एक कुल्हड़ और एक दिया खरीद के रख लेना चाहिए.
  • शीतला सप्तमी वाले दिन प्रात:काल उठ कर नहा धोकर साफ शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए.
  • पूजन के लिए एक थाली में सिकोरे लगा दीजिये और इनमें थोड़ा दही, रबड़ी, चावल से बना ओलिया, पुआ, रोटी, पकौड़ी, नमक पारे, शक्कर पारे, भीगो कर रखी हुई मोठ, बाजरा इत्यादि जो भी बनाया गया हो इसमें रख दीजिये. अब एक दूसरी थाली लीजिये और उसमें चावल, रोली, मोली, हल्दी, मेहंदी, काजल, माता के लिए वस्त्र व सिक्का रखना चाहिए.
  • पानी का कलश भर कर रख लीजिये.
  • एक आटे का दीपक भी बनाना चाहिए और इसमें घी में डूबी हुई बाती रख देनी चाहिए. इस दीपक को बिना जलाए ही शीतला माता को अर्पित करना चाहिए.
  • अब पूजा के लिए तैयार की गई थाली को, कंडवारों पर रोली, हल्दी लगानी चाहिए.
  • परिवार के सभी सदस्यों को तिलक लगाना चाहिए.
  • हाथ जोड़ कर माता से प्रार्थना करनी चाहिए की “हे शीतला माता हमारी भूल चूक को माफ करना और शीतल रहते हुए हमारे जीवन में भी सुख और शीतलता प्रदान करना.
  • शीतला माता का पूजन मंदिर में करना चाहिए अगर मंदिर जाना संभव न हो पाए तो घर पर भी पूजन किया जा सकता है.
  • शीतला माता को शीतल जल से स्नान कराना चाहिए.
  • स्नान करा लेने के पश्चात रोली और हल्दी से उन्हें टीका करना चाहिए.
  • शीतला माता को शृंगार का सामा मेहंदी, मोली, काजल इत्यादि अर्पित करना चाहिए.
  • गुलरियां जिसे बड़बुले, बडबुल भी कहते हैं, यह गाय के गोबर से बनाया जाता है. इसकी माला बनाई जाती है जिसे शीतला माता को चढ़ाया जाता है.
  • शीतला माता की आरती एवं लोक गीत आदि गा कर मां का पूजन करना चाहिए.
  • पूजा की समाप्ति में माता को जल चढ़ाना चाहिए और माता पर चढ़ाए हुए जल को किसी बर्तन में रख लीजिये और उस जल को अपने ऊपर व घर पर छीड़कना चाहिए.
  • घर पर जहां पानी रखा जाता है उस स्थान का भी पूजन करना चाहिए. शीतला माता की पूजा संपन्न कर लेने के पश्चात ठंडे भोजन जिसे बसौड़ा भी कहते हैं. उसका सेवन करना चाहिए व घर के बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद लेना चाहिए.
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    कैसे और कब शुरु करें सोमवार व्रत: सोमवार व्रत में इन बातों का रखें ध्यान

    सोमवार के दिन भगवान शिव और सोम देव के निमित्त जो व्रत किया जाता है, उसे सोमवार के व्रत के नाम से जान जाता है. सोमवार के व्रत में भगवान शिव का विशेष रुप से पूजन होता है. इस व्रत के दौरान भगवान शिव का अभिषेक एवं रात्रि के समय चंदरमा का पूजन एवं रात्रि जागरण करने का विधान रहा है.

    सोमवार व्रत कितने प्रकार का होता है

    सोमवार का व्रत तीन प्रकार का होता है. इसमें से सामान्य रुप में सोमवार के दिन रखा जाने वाला व्रत, दूसरा सोम प्रदोष व्रत और तीसरा सोलह सोमवार का व्रत. यह तीनों व्रतों का अपना अपना अलग-अलग महत्व होता है. इन सभी व्रतों में थोड़ी बहुत भिन्नता हो सकती है. पर पूजन विधि में बहुत हद तक समानता और सरलता ही होती है.

    सोमवार व्रत कितने रखे जाएं और कब शुरु करें

    सोमवार के व्रत का आरंभ करने के लिए माघ माह, फाल्गुन माह और सावन माह के शुक्ल पक्ष के सोमवार अत्यंत शुभ माने जाते हैं. सोमवार व्रत की संख्या को आप अपने अनुसार रख सकते हैं, लेकिन किसी भी व्रत का अपना महत्व और अपना प्रभाव होता है. कुछ सोमवार के व्रत 16 सोमवार, 7 सोमवार, 5 सोमवार तक रखे जाए हैं.

    सोलह सोमवार व्रत –

    सोलह सोमवार व्रत को रखते हुए नियमों का विशेष ध्यान रखा जाता है. मुख्य रुप से ये व्रत सौभाग्य और मनपसंद जीवन साथी की प्राप्ति के लिए किया जाता है. किसी का दांपत्य जीवन परेशानियों से निकल रहा है तो इस व्रत को करने से जीवन में आने वाली कठिनाईयां तो दूर होती ही हैं, साथी ही वैवाहिक जीवन में सुख भी आता है.

    सोम प्रदोष व्रत –

    सोम प्रदोष अत्यंत ही शुभ होता है. इस व्रत को करने से संतान सुख एवं योग्य संतान की प्राप्ति होती है. इस व्रत के दौरान प्रदोष समय शिव पूजन का अत्यंत महत्व माना गया है.

    सामान्य सोमवार व्रत –

    सोमवार के व्रत जिसे आप बिना किसी संख्या के जब चाहें और जितना चाहें रख सकते हैं. आप इन तीनों श्रेणी के व्रत आप जीवन भर रख सकते हैं. इन व्रतों को संपूर्ण भक्ति और विश्वास के साथ करने से जीवन में सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है.

    सोमवार व्रत रखते समय सावधानियां

  • सोमवार का व्रत करते समय आपको प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व उठना चाहिए.
  • शिव जी को केतकी के फूल नहीं चढ़ाने चाहिए.
  • शिव जी को तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए.
  • कुमकुम या सिंदूर उपयोग नहीं करना चाहिए.
  • सोमवार व्रत की विधि

  • सोमवार व्रत करने से पूर्व व्रत का संकल्प लेना चाहिए.
  • सोमवार के दिन प्रातः काल स्नान इत्यादि कार्यों से निवृत होकर भगवान शिव का स्मरण करें.
  • सोमवार के दिन शिवलिंग का पूजन अवश्य करना चाहिए.
  • शिवलिंग पूजन में शिवलिंग पर गाय के दूध और जल से अभिषेक करना चाहिए.
  • शिवलिंग पर बेल पत्र चढ़ाना चाहिए.
  • शिव-गौरी की पूजा करनी चाहिए.
  • भगवान शिव पर सूत लपेटना चाहिए एवं माता पार्वती को लाल रंग की चुनरी चढ़ानी चाहिए.
  • शिवलिंग के समक्ष धूप दीप जलाकर आरती करनी चाहिए.
  • शिव पूजा में भगवान शिव के पंचाक्षरी मंत्र का जाप करना चाहिए.
  • शिव पूजन पश्चात सोमवार व्रत की कथा सुननी चाहिए.
  • संध्या समय शिव पूजन करने के पश्चात भोजन करना चाहिए.
  • सोमवार के व्रत में मीठी वस्तुओं का ही सेवन करना अत्यंत शुभ होता है.
  • साधारण रूप से सोमवार का व्रत दिन के तीसरे पहर तक होता है.
  • सोमवार व्रत का ज्योतिष दृष्टि से महत्व

    सोमवार के व्रत का ज्योतिष की दृष्टि से भी अत्यंत महत्व रहा है. सोमवार के दिन को चंद्रमा से जोड़ा जाता है. सोमवार के दिन चंद्रमा के पूजन का भी विशेष महत्व होता है. चंद्र ग्रह का कुंडली में खराब होना या पाप प्रभाव में होने पर चंद्रमा से मिलने वाले बुरे फलों से बचने के लिए सोमवार का व्रत करना बहुत ही शुभ माना गया है.

    सोमवार के दिन शिव पूजा और चंद्र ग्रह की पूजन दोनों ही बातें एक दूसरे की पूर्क बन जाती हैं. चंद्रमा को भगवान शिव ने अपने मस्तक पर धारण किया है. ऎसे में शिवलिंग की पूजा से चंद्रमा का पूजन भी स्वत: ही हो जाता है.

    सोमवार व्रत कथा

    एक समय श्री भूतनाथ महादेव जी मृत्युलोक में भ्रमण की इच्छा से माता पार्वती के साथ विदर्भ देश की अमरावती नगरी जो कि सभी सुखों से परिपूर्ण थी वहां पधारे. वहां के राजा द्वारा एक अत्यंत सुन्दर शिव मंदिर था, जहां वे रहने लगे. एक बार पार्वती जी ने चौसर खलने की इच्छा की. तभी मंदिर में पुजारी के प्रवेश करने पर माता जी ने पूछा कि इस बाज़ी में किसकी जीत होगी? तो ब्राह्मण ने कहा कि महादेव जी की. लेकिन पार्वती जी जीत गयी. तब ब्राह्मण को उन्होंने झूठ बोलने के अपराध में कोढ़ी होने का श्राप दिया.

    कई दिनों के पश्चात देवलोक की अपसराएं, उस मंदिर में पधारीं, और उसे देखकर कारण पूछा. पुजारी ने निःसंकोच सब बताया. तब अप्सराओं ने पुजारी को सोलह सोमवार के व्रत की महिमा और व्रत विधि बताकर व्रत का पालन करने को कहती हैं. इस व्रत से शिवजी की कृपा से सारे मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं. फिर अप्सराएं स्वर्ग को चली जाती हैं. ब्राह्मण ने सोमवार का व्रत करने का निश्चिय किया और वह व्रत के प्रभाव से रोगमुक्त होकर जीवन व्यतीत करने लगा.

    कुछ दिन उपरांत शिव पार्वती जी के पधारने पर, पार्वती जी ने उसके रोगमुक्त होने का करण पूछा. तब ब्राह्मण ने सारी कथा बतायी. तब पार्वती जी अपने रुठे पुत्र कार्तिकेय को वापिस पाने के लिए यही व्रत किया, और उनकी मनोकामना पूर्ण हुई. उनके रूठे पुत्र कार्तिकेय जी माता के आज्ञाकारी हुए. परन्तु कार्तिकेय जी ने अपने विचार परिवर्तन का कारण पूछा. तब पार्वती जी ने वही कथा उन्हें भी बतायी. तब स्वामी कार्तिकेय जी ने भी यही व्रत किया.

    व्रत के प्रभाव से उन्हें अपने मित्र से पुन: मिलाप का मौका मिला. जब मित्र ने इस विषय में पूछा तो कार्तिकेय जी ने उन्हें व्रत के बारे में कहा. उनके मित्र ब्राह्मण ने पूछ कर यही व्रत किया. फिर वह ब्राह्मण जब विवाह की इच्छा से और एक राज्य में जाता है और वहां की राज्कुमारी के स्वयंवर के यहां स्वयंवर में गया. वहां राजा ने संकल्प लिया था, कि हथिनी एक माला, जिस वर के गले में डालेगी, वह अपनी पुत्री उसी से विवाह करेगा. वहां शिव कृपा से हथिनी ने माला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी.

    राजा ने उससे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया. उस कन्या के पूछने पर ब्राह्मण ने उसे कथा बतायी. तब उस कन्या ने भी वही व्रत कर एक सुंदर पुत्र पाया. बाद में उस पुत्र ने भी यही व्रत किया और एक वृद्ध राजा का राज्य पाया.

    सोमवार व्रत उद्यापन

    सोमवार के व्रत का उद्यापन करते समय उद्यापन वाले सोमवार के दिन स्नान के बाद साफ स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए यदि श्वेत वस्त्रों का उपयोग करीं तो वह और भी अच्छा होता है. पूजा के लिए एक वेदी का निर्माण करें, इसे फूलों से और केले के पत्तों से सजाना चाहिए.

    इस स्थान पर भगवान शिव, माता पार्वती, चंद्रदेव एवं समस्त शिव परिवार को स्थापित करना चाहिए. धूप दीप से पूजन करें एवं फूल माला अर्पित करें. भगवान को चूरमा और पंचामृत का भोग लगाना चाहिए. ब्राह्मण को भोजन खिलाएं और दक्षिणा प्रदान करके अपना व्रत पूर्ण करना चाहिए.

    यदि सामान्य रुप से पूजन करना चाहिए तो शिव मंदिर में शिवलिंग पर जल, दूध, दही, शहद, घी, गंगाजल का पंचामृत से अभिषेक करना चाहिए. शिवलिंग पर बिल्व पत्र, धतूरा चढ़ाना चाहिए. उसके पश्चात जल से शिवलिंग का अभिषेक करना चाहिए. धूप-दीप से पूजन उपरांत भगवान शिव को जनेऊ व धोतीऔर माता पार्वती को लाल चुनरी और शृंगार का सामान भेंट करना चाहिए. मंत्र एवं आरती के पश्चात एक या दो ब्राह्मणों को भोजन करना चाहिए अथवा उन्हें भोजन का सामान व दक्षिणा प्रदान करने के उपरांत अपना व्रत खोलना चाहिए. उद्यापन के दिन भी आपको एक समय ही भोजन करना है और सभी नियमों का पालन करते हुए उद्यापन संपूर्ण करना चाहिए.

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    लक्ष्मी नारायण व्रत और जानिये इसकी पूजा विधि कथा विस्तार से

    लक्ष्मी नारायण व्रत में देवी श्री लक्ष्मी और भगवान नारायण की संयुक्त रुप पूजा की जाती है. इस पूजा को करने से घर में धन संपदा की कभी कमी नहीं आती है. श्री लक्ष्मी नारायण व्रत दरिद्रता को दूर करने का एक अचूक उपाय भी बनता है. इस दिन घर में पूजा पाठ के साथ साथ हवन इत्यादि अनुष्ठान भी करने से संपन्नता के द्वार खुलते हैं.

    लक्ष्मी नारायण पूजा कब करें

    लक्ष्मी नारायण व्रत एवं पूजन को करने के लिए सबसे उपयुक्त समय पूर्णिमा तिथि का दिन माना गया है. इसके अलावा इस व्रत को शुक्रवार के दिन या फिर रविवार के दिन भी किया जाता है. लक्ष्मी नारायण व्रत के विषय में पौराणिक ग्रंथों में विस्तार रुप से कथा एवं महत्व प्राप्त होता है.

    लक्ष्मी नारायण की पूजा विधि

    इस व्रत के बारे में नारद जी ने शौनक ऋषि से पूछा, तो इसके विषय में बताते हुए वह उनसे कहते हैं – हे महर्षि नारद पूर्णिमा तिथि के दिन शुद्ध सात्विक आचरण का नियम रखते हुए इस व्रत का आरंभ करना चाहिए. प्रत:काल स्नान आदि से निवृत होकर शुद्ध साफ सफेदवस्त्र धारण करने चाहिए.

  • लक्ष्मी नारायण पूजा विधि में मंदिर में देवी लक्ष्मी और विष्णु भगवान की प्रतिमा अथवा चित्र को स्थापित करना चाहिए.
  • लक्ष्मी नारायण की प्रतिमा को जल एवं पंचामृत से स्नान कराना चाहिए.
  • श्री लक्ष्मी और नारायण भगवान को वस्त्र एवं आभूषण पहनाने चाहिए. फूलों की माला पहनानी चाहिए. सुगंधित इत्र चढा़ना चाहिए.
  • देवी लक्ष्मी को कुमकुम का तिलक लगाना चाहिए और श्री विष्णु भगवान को चंदन का तिलक लगाना चाहिए.
  • लक्ष्मी नारायण के सम्मुख घी का दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए. धूप, फूल से पूजा करनी चाहिए.
  • लक्ष्मी नारायण की आरती करनी चाहिए. आरती के बाद भगवान को भोग अर्पित करना चाहिए.
  • लक्ष्मी-नारायण पूजन समय ‘‘ऊँ लक्ष्मी नारायणाभ्यां नमः ’’ मंत्र का जाप भी करना चाहिए.
  • लक्ष्मी नारायण व्रत एवं पूजा करने से समस्त सुखों की प्राप्ति होती है. इस व्रत का प्रभाव व्यक्ति को बैकुंठ धाम की प्राप्ति कराने वाला होता है. व्रत एवं पूजन में रात्रि जागरण का भी बहुत महत्व होता है. व्रत के अगले दिन सुबह के समय ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए एवं दक्षिणा इत्यादि देकर इस व्रत का संकल्प पूरा करना चाहिए. इस व्रत में तिल के दान का भी अत्यंत महत्व बताया गया है. तिल से होम करना भी शुभ होता है. इस प्रकार सामर्थ्य अनुसार लक्ष्मी नारायण व्रत पूजन करना चाहिए.

    लक्ष्मी नारायण पूजा में क्या नहीं करना चाहिए

  • लक्ष्मी नारायण पूजा में कुछ बातों का मुख्य रुप से ध्यान रखना चाहिए. इस व्रत का अथवा पूजन का संकल्पन करने पर किसी भी प्रकार के तामसिक भोजन एवं मांस मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • किसी भी प्रकार के नशे के सेवन से दूरी बना कर रखनी चाहिए.
  • ब्रहमचर्य का पालन करना चाहिए.
  • अपने आचरण में छल-कपट, लड़ाई-झगड़े और झूट इत्यादि जैसी बुरी आदतों से दूरी बना कर रखनी चाहिए.
  • लक्ष्मी नारायण कथा

    लक्ष्मी नारायण कथा अनुसार एक बार जब दोनों की महत्ता में से कौन अधिक महत्वपूर्ण है, इस पर बहस बढ़ जाती है. तब नारायण भगवान इस तथ्य को समझाने के लिए एक परीक्षा का आयोजन करते हैं. भगवान नारायण ब्राह्मण का भेष बना कर एक गाँव में जाते हैं, और वहां के मुखिया से कहते हैं की वह उस स्थान पर श्री नारायण का पूजन करना चाहते हैं. गांव के मुखिया उनकी बात मान कर उन्हें एक निवास स्थान देते हैं. उनके लिए कथा के स्थान का बंदोबस्त भी करते हैं.

    गांव के सभी लोग उस कथा मे प्रतिदिन शामिल होने लगते हैं, ऎसे में लक्ष्मी जी अपनी स्थिति को नजरअंदाज होते देखती हैं तो वह भी भेष बदल कर एक वृद्ध स्त्री के रुप में वहां पहुंच जाती है. एक स्त्री जो कथा में जाने के लिए घर से निकल रही होती है उससे पानी मांगती हैं. ऎसे में स्त्री उन्हें पानी पीने को देती है, पर जैसे ही वृद्ध स्त्री उसे उसका बरतन वापिस करती हैं तो वह स्वर्ण धातु का हो जाता है.

    इस चमत्कार को देख कर वह गांव के सभी लोगों को इस बात के बारे में बताती है, सभी लोग कथा से उठ कर उस चमत्कार को देखने के लिए वहां चले जाते हैं. धन के लोभ का स्वरुप के कारण नारायण उस स्थान से चले जाने के लिए प्रस्थान करते हैं, तो लक्ष्मी वहां आकर उन्हें अपनी महत्ता को स्वीकार करने की बात कहती हैं. श्री नारायण मान जाते हैं की लक्ष्मी उनसे अधिक महत्व रखती हैं और वहां से चले जाते हैं.

    ऎसे में लक्ष्मी जी उनके जाने से दुखी होकर जाने लगती हैं तो गांव के लोग उन्हें रोकने लगते हैं. इस प्रकार वह उन्हें कहती हैं की जहां नारायण कथा पूजन का वास नहीं होता है, वहां लक्ष्मी का भी कोई स्थान नही हो सकता है. जिस स्थान पर लक्ष्मी और नारायण दोनों का पूजन होगा वहीं मैं स्थापित हो सकती हूं. इस प्रकार लक्ष्मी जी नारायण जी के समक्ष इस बात को कहती हैं की आप के बिना मैं कुछ नहीं और मेरे बिना आप. हम दोनों एक दूसरे का स्वरुप ही हैं. ऎसे में जो भी भक्त लक्ष्मी नारायण रुप का एक साथ पूजन करते हैं उन्हें सदैव प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

    लक्ष्मी नारायण व्रत के लाभ

    वैभव और धन संपदा की प्राप्ति

    लक्ष्मी नारायण व्रत एवं पूजन करने से घर में हर प्रकार की समृद्धि बढ़ती है. यदि कोई व्यक्ति कर्ज इत्यादि से पीड़ीत है तो उसे इस व्रत को जरुर करना चाहिए. इस व्रत को करने से संयुक्त पूजन से सुख-संपत्ति, धन, वैभव और समृद्धि का वरदान मिलता है. अगर किसी व्यक्ति की कुंडली में केमद्रूम योग बनता है तो उनके लिए ये पूजा बहुत ही शुभ फल देने वाली बनती है.

    नौकरी और कारोबार में लाभ मिलता है

    लक्ष्मी नारायण व्रत को करने से व्यापार में लाभ मिलता है. व्यापारियों के लिए इस व्रत को करने से उन्हें देवी लक्ष्मी के आशीर्वाद की प्राप्ति होती है और उनके व्यवसाय में वृद्धि भी होती है. जो लोग नौकरी में स्थायित्व चाहते हैं ओर अपने काम में प्रमोशन की इच्छा रखते हैं उनके लिए भी इस व्रत को करने से लाभ मिलता है.

    सौभाग्य की प्राप्ति जीवनसाथी का सुख

    लक्ष्मी नारायण व्रत करने से सौभाग्य में वृद्धि होती है. स्त्रियों के मांगल्य सुख में वृद्धि होती है. अगर विवाह होने में कोई परेशानी हो रही हो तो इस व्रत को अवश्य करना चाहिए. यह वैवाहिक सुख को देने वाला होता है. लंबी उम्र, अच्छी सेहत और आध्यात्मिक विकास का आशीर्वाद भी मिलता है.अगर आपकी कोई विशेष कामना है तो उसी को ध्यान में रखकर पूजन का संकल्प लें. संकल्प लेकर सही विधि से पूजन और उसका समापन करें, कामना पूरी होगी.

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