अन्नपूर्णा अष्टमी व्रत 2025 : नही रहती कभी धन धान्य की कमी

अन्नपूर्णा अष्टमी का पर्व फाल्गुन माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है. माता पार्वती के अनेक रुपों में से एक रुप माँ अन्न पूर्णा का भी है. जिसमें माता को अन्न की देवी भी कहा गया है. माँ अन्नपूर्णा समस्त प्राणियों के जीवन का आधार हैं. देवी के शक्ति के स्वरुप का दूसरा रंग उनके वात्सल्य स्वरुप में अन्नपूर्णा मां का है.

अन्नपूर्णाआष्टमी कथा

मां जगदम्बा ने किस प्रकार अन्नपूर्णा का रुप धारण किया इस के पिछे अनेकों कथाएं प्रचलित हैं जिन्में से एक पौराणिक कथा अनुसार जब भगवान शिव और माता पार्वती विचारों की एक प्रकिया में थे तो एक दूसरे के समक्ष तर्क पूर्ण वार्तालाप कर रहे होते हैं. इस समय में भगवान शिव ने पार्वती को कहा की सृष्टि में जो कुछ भी उपस्थित है वह माया के आवरण का स्वरुप ही है. अत: भौतिकता ओर भोजन की उपयोगिता का होना कोई महत्वपूर्ण नही है. महादेव वैरागी हैं और वह माया से मुक्त है, किंन्तु सृष्टि तो उस माया के आवरण से मुक्त नहीं है. ऎसे में भगवान को इस तथ्य का बोध कराने हेतु माता पार्वती सृष्टि से लुप्त हो जाती हैं.

देवी के लुप्त होते ही संसार में कुछ भी व्याप्त नही रहता है. भौतिक स्वरुप समाप्त हो जाता है, सृष्टि बंजर हो जाती है और प्राणियों में हाहाकार मच जाता है. प्राणी भूख से व्याकुल होने लगते हैं. ऎसे में सृष्टि का ये स्वरुप देख कर भगवान शिव उस तथ्य की महत्ता को समझते हैं कि किस प्रकार सृष्टि के लिए भौतिकता का होना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है उन जीवों के लिए जो इसके बिना रह नहीं सकते हैं. सृष्टि का ये स्वरुप देख देवी पार्वती अन्नपूर्णा रुप में काशी में प्रकट होती हैं और रसोई स्थापित कर अपने हाथों से प्राणियों को भोजन देती हैं. देवी के अन्नपूर्णा रुप को पाकर समस्य सृष्टि पुन: सौंदर्य से पूर्ण एवं पुष्ट होती है.

पौराणिक मान्यता है कि काशी में अन्न की कमी होने पर भगवान शिव भी विचलित हो जाते हैं और देवी अन्नपूर्णा के समक्ष भिक्षा मांगते हैं और वरदान स्वरुप अन्नपूर्णा ने उन्हें वरदान दिया की उनकी शरण में आने वाले को कभी धन-धान्य से वंचित नहीं होगा और सदैव मेरा आशीर्वाद उन्हें प्राप्त होगा.

काशी में स्थिति अन्न पूर्णा मंदिर

मान्यता है कि देवी अन्नपूर्णा काशी में ही सर्वप्रथम प्रकट हुई थी अत: काशी में उनके नाम का एक भव्य मंदिर भी स्थापित है. इस मंदिर में प्रतिवर्ष फाल्गुन अष्टमी के दिन मेले और विशेष पूजा का विधान होता है. इस दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं और देवी अन्नपूर्णा का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.

एक मान्यता अनुसार देवी अन्नपूर्णा संसार का भरण-पोषण करती हैं. महादेव से विवाह करने के पश्चात जब देवी पार्वती उनके साथ काशी में निवास करने की बात करती हैं तो महादेव उन्हें अपने साथ काशी ले चलते हैं. किंतु काशी का स्वरुप शमशान होना नहीं भाया तो काशी में अन्नपूर्णा के रुप में देवी ने खुद को स्थापित किया और काशी अन्नपूर्णा का देवी धाम भी है. काशीखण्ड में इस बात का वर्णन मिलता है की भगवान शिव गृहस्थ हैं और देवी भवानी उनकी गृहस्थी को चलाने वाली हैं. मान्यता भी है की काशी में कोई भूखा नहीं सोता है. देवी अन्नपूर्णा ही सभी की भूख को शांत करती हैं.

अन्नपूर्णा अष्टमी पूजा विधि

अन्नपूर्णा अष्टमी के दिन देवी की पूजा की जाती है. ऐसी मान्यता है कि अन्नपूर्णा अष्टमी की पूजा करने से हर प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति होती है. इस दिन देवी अन्नपूर्णा के समक्ष कलश स्थापित करना चाहिए. अन्नपूर्णा अष्टमी के दिन प्रातः काल स्नान करने के पश्चात शुद्ध मन से स्वच्छ वस्त्र धारण करके पूजा आरम्भ करनी चाहिए. देवी अन्नपूर्णा को लाल चुनरी चढ़ानी चाहिए.

देवी की पूजा द्वारा भक्तों के सभी पापों का नाश होता है. देवी के समक्ष घी के दीपक को जलाना चाहिए और उन्हें रोली लगानी चाहिए. देवी का ध्यान करते हुए अन्नपूर्णा पूजन सम्पन्न करना चाहिए. आरती करने के उपरांत भोग भेंट करना चाहिए. अन्नपूर्णा के दिन कन्या पूजन करना चाहिए कन्याओं को श्रृंगार वस्तुएं भेंट करनी चाहिए व उनकीअन्नपूर्णा के रूप में पूजा की जानी चाहिए. सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए. भोजन में छोले, पूड़ी, हलवा और खीर का भोग अवश्य लगवाना चाहिए. अन्न पूर्णा अष्टमी पूजन से मनोकामानाएं पूर्ण होती है.

शंकराचार्य द्वारा देवी भवानी अन्नपूर्णा पूजन एवं स्त्रोत रचना

आदि गुरु शंकराचार्य ने अपनी भक्ति से देवी अन्नपूर्णा को प्रसन्न किया था. एक कथा है की जब एक बार शंकराचार्य काशी में पहुंचे तो वहां उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा. वह देह से बहुत ही कमजोर हो गए थे. ऎसे में एक दिन देवी अन्नपूर्णा ने एक स्त्री का वेश धारण कर वहां पहुंची और बड़े से मटके को वहां रख कर कुछ देर विश्राम करने के बाद जब चलने लगती हैं तो शंकराचार्य से उस मटके को उठाने में सहायता करने का आग्रह करती हैं.

तब शंकराचार्य उनसे कहते हैं कि उनमें बिलकुल भी शक्ति नहीं जिस कारण वह उनकी सहायता कर पाएं. ऎसे में स्त्री वेष में मौजूद देवी अन्नपूर्णा उन्हें कहती हैं यदि तुमने शक्ति की उपासना की होती तो तुम को अवश्य ही शक्ति की प्राप्ति होती. यह सुन शंकराचार्य को आत्मबोध होता है. और वह देवी की उपासना करने में मग्न हो जाते हैं. इसमें उन्हके द्वारा अन्नपूर्णा अष्टमी स्त्रोत की रचना भी करी और उन्हें पुन: शक्ति की प्राप्ति होती है.

नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौंदर्यरत्नाकरी।

निर्धूताखिल-घोरपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी।

प्रालेयाचल-वंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी।

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपुर्णेश्वरी।।

अन्नपूर्णे सदा पूर्णे शंकरप्राणवल्लभे।

ज्ञान वैराग्य-सिद्ध्‌यर्थं भिक्षां देहिं च पार्वति।।

माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः।

बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्‌ II

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गोविन्द द्वादशी व्रत से दूर होंगे सभी दुख : जानें गोविंद द्वादशी व्रत कथा और पूजा विधि

द्वादशी तिथि का महत्व भगवान श्री विष्णु की उपासना से संबंधित होता है. जिस प्रकार एकादशी प्रत्येक माह में आती हैं, उसी प्रकार द्वादशी भी प्रत्येक माह में आती हैं और प्रत्येक माह की द्वादशी श्री विष्णु के किसी न किसी नाम से संबंधित होती है. मान्यता है की यदि एकादशी का व्रत न रख पाएं तो द्वादशी का व्रत रख लेने से उसी के समान फलों की प्राप्ति भी होती है.

फाल्गुन माह में आने वाली द्वादशी को “गोविंद द्वादशी” नाम से जाना जाता है. गोविंद द्वादशी के शुभ प्रभाव से व्यक्ति के कष्ट एवं व्याधियों का नाश होता है. इस द्वादशी का पूजन एवं व्रत इत्यादि करने से “अतिरात्र याग” नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है. यह वेदों में वर्णित अनुष्ठान के अंतर्गत आने वाला फल होता है.

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के दूसरे दिन गोविन्द द्वादशी का व्रत करने का विधान बताया गया है. इस द्वादशी पूजा में सदाचार, शुद्ध आचार और पवित्रता का अत्यंत ध्यान रखना चाहिए. गोविंद द्वादशी तिथि में अगर तिथि वृद्धि के कारण 2 दिनों तक प्रदोष काल में भी यह व्याप्त रहे तो ऎसे में दूसरे दिन के प्रदोष काल में ही मनाया जा सकता है.

गोविंद द्वादशी का पूजन एवं उपवास नियम धारण करने से व्यक्ति को सुख की प्राप्ति होती है. मानसिक शांति प्राप्ति होती है. आरोग्य को बढ़ाने वाला है, सुख से परिपूर्ण करने वाला है. गोविन्द द्वादशी करने से समस्त रोगादि की शांति भी होती है.

गोविन्द द्वादशी पूजा विधि

  • गोविंद द्वादशी तिथि के दिन भगवान गोविंद का स्मरण करते हुए दिन का आरंभ करना चाहिए.
  • दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर, पूजा का संकल्प करना चाहिए.
  • गोविंद का पूजन करना चाहिए. भगवान श्री विष्णु प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए.
  • चंदन, अक्षत, तुलसी दल व पुष्प को श्री गोविंद व श्री हरी बोलते हुए भगवान को अर्पित करने चाहिए.
  • भगवान की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करवाना चाहिए. इसके पश्चात प्रतिमा को पोंछन कर सुन्दर वस्त्र पहनाने चाहिए.
  • भगवान श्री गोविंद को दीप, गंध , पुष्प अर्पित करना, धूप दिखानी चाहिए.
  • आरती करने के पश्चात भगवान को भोग लगाना चाहिए.
  • भगवान के भोग को प्रसाद रुप में को सभी में बांटना चाहिए. सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए व दान-दक्षिणा इत्यादि भेंट करनी चाहिए.

गोविंद द्वादशी व्रत में एकादशी से ही व्रत का आरंभ करना श्रेयस्कर होता है. अगर संभव न हो सके तो द्वादशी को व्रत आरंभ करें. पूरे दिन उपवास रखने के बाद रात को जागरण कीर्तन करना चाहिए और दूसरे दिन स्नान करने के पश्चात ब्राह्मणों को फल और भोजन करवा कर उन्हें अपनी क्षमता अनुसार दान देना चाहिए. जो पूरे विधि-विधान से गोविंद द्वादशी का व्रत करता है वह बैकुंठ को पाता है. इस व्रत की महिमा से व्रती के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह सभी सांसारिक सुखों को भोग कर पाता है.

गोविंद द्वादशी मंत्र

गोविंद द्वादशी के दिन भगवान श्री विष्णु के मंत्र का जाप करना अत्यंत शुभ फलदायी होता है. श्री गोविंद का स्वरूप शांत और आनंदमयी है. वह जगत का पालन करने वाले हैं. भगवान का स्मरण करने से भक्तों के जीवन के समस्त संकटों का नाश होता है और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है. इस दिन इन मंत्रों से भगवान का पूजन करना चाहिए.

“ॐ नारायणाय नम:”
“ॐ श्री विष्णवे च विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥
“ॐ नमो नारायण। श्री मन नारायण नारायण हरि हरि। “

गोविंद द्वादशी कथा महात्म्य

गोविंद द्वादशी के दिन श्री विष्णु भगवान की कथाओं का श्रवण अवश्य करना चाहिए. इस दिन गीता का पाठ करने से व्यक्ति बंधन से मुक्ति पाता है. इसी प्रकार श्रीमद भागवत को पढ़ने अथवा श्रवण द्वारा भक्त को शुभ फलों की प्राप्ति होती है. गोविंद द्वादशी के दिन श्री विष्णु के बाल स्वरुप का पूजन करने से संतान का सुख प्राप्त होता है.

गोविंद द्वादशी के दिन ही नृसिंह द्वादशी का पर्व भी मनाया जाता है. भगवान विष्णु के बारह अवतारों में से एक नृसिंह अवतार भी है. भगवान श्री हरि विष्णु का यह अवतार आधा मनुष्य व आधा शेर के रुप में रहता है. भगवान श्री विष्णु ने ये अवतार दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु को मारने हेतु लिया था.

पौराणिक कथा अनुसार कश्यप ऋषि की पत्नी दिति से उन्हें हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु नाम दो पुत्र प्राप्त होते हैं. दिति दैत्यों की माता थी अत: उनके पुत्र दैत्य हुए. हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु दोनों ही असुर प्रवृत्ति के थे. पृथ्वी की रक्षा करने के लिए जब श्री विष्णु भगवान ने वराह अवतार लेकर हरिण्याक्ष का वध कर दिया, तो अपने भाई की मृत्यु का प्रतिशोद्ध लेने के लिए हिरण्यकशिपु श्री विष्णु का प्रबल विरोधी बन जाता है और जो भी व्यक्ति श्री विष्णु की भक्ति करता है वह उसे मृत्यदण्ड देता है. हिरण्यकशिपु ने अपनी कठोर तपस्या ब्रह्मा जी से अजेय होने का वरदान प्राप्त करता है.

अपनी शक्ति का गलत उपयोग कर हिरण्यकशिपु स्वर्ग पर भी अधिकार स्थापित कर लेता है. हिरण्यकशिपु को एक पुत्र प्राप्त होता है जिसका नाम प्रह्लाद होता है. प्रह्लाद श्री विष्णु का परम भक्त होता है. जब पिता हिरण्यकशिपु को अपने पुत्र प्रह्लाद की श्री विष्णु के प्रति भक्ति को देख वह उसे मृत्यदण्ड देता है, लेकिन हर बार श्री विष्णु की कृपा से प्रह्लाद बच जाता है.

एक बार भरी सभा में जब प्रह्लाद भगवान श्री विष्णु के सर्वशक्तिमान होने और हर कण में उनके होने की बात कहता है, तो हिरण्यकशिपु क्रोधित हो उससे पूछता है की यदि तेरा भगवान इस खम्बे में है तो उसे बुला कर दिखा. तब प्रह्लाद अपनी भक्ति से भगवान को याद करता है और श्री विष्णु भगवान खम्बे की चीरते हुए नृसिंह अवतार में प्रकट होते हैं ओर हिरण्यकशिपु का वध कर देते हैं. भगवान नृसिंह, प्रह्लाद को वरदान देते हैं कि आज के दिन जो मेरा स्मरण, एवं पूजन करेगा उस भक्त की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी.

इस प्रकार गोविंद द्वादशी का दिन ही भगवान श्री नृसिंह पूजन के लिए भी बहुत ही शुभ माना गया है. गोविंद द्वादशी के दिन श्री विष्णु भगवान का पूजन एवं कीर्तन एवं रात्रि जागरण करने से समस्त सुखों की प्राप्ति है एवं कष्टों व रोगों का नाश होता है.

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जानिए, कैसे करें बृहस्पतिवार का व्रत और जाने सभी काम की बातें

हिन्दू पंचांग अनुसार सभी सात वारों में एक दिन बृहस्पतिवार का होता है और प्राचीन काल से ही प्रत्येक दिन का कोई न कोई धार्मिक महत्व भी रहा है. बृहस्पतिवार को बृहस्पति देव जिन्हें गुरु भी कहा जाता है उनसे जोड़ा गया है. इसी के साथ इस दिन श्री विष्णु भगवान का पूजन भी विशेष माना गया है. ऎसे में नवग्रहों में बृहस्पति देव को प्रसन्न करने व विष्णु भगवान का आशीर्वाद पाने के लिए यह दिन बहुत ही खास होता है.

कब और कैसे शुरु करना चाहिए बृहस्पतिवार व्रत

  • बृहस्पतिवार के व्रत का आरंभ करने के लिए सदैव शुक्ल पक्ष के बृहस्पतिवार का ही चयन करना उपयोगी होता है. धार्मिक मान्यता एवं धार्मिक ग्रंथों के अनुसार शुक्ल पक्ष के दिन से ही व्रतों का आरंभ उचित बताया गया है.
  • शुक्ल पक्ष के बृहस्पतिवार के दिन अनुराधा नक्षत्र भी पड़ रहा हो तो यह अत्यंत ही उत्तम परिस्थिति बनती है.
  • दिन और नक्षत्र की शुभता के साथ कुछ अन्य बातें भी ध्यान में रखी जा सकती हैं जो व्रत के शुभ फलों को पाने में सहायक बन सकती हैं.
  • बृहस्पतिवार के दिन गुरुपुष्य योग बन रहा हो.
  • बृहस्पतिवार के दिन किसी भी प्रकार का दुर्योग नहीं हो.
  • बृहस्पतिवार के दिन आपकी गुरु अस्त या निर्बल नहीं हो.
  • उत्तरायण का समय इस व्रत के आरंभ के लिए अत्यंत शुभस्थ होता है.
  • बृहस्पतिवार के व्रत कितने रखे जाएं

    किसी भी व्रत को रखने से पूर्व यह भी जरुर निश्चित करना चाहिए की कितने दिन इन व्रतों को किया जाए. व्रत के लिए संकल्प जरुर करें क्योंकि किसी भी कार्य में संकल्प की आवश्यकता जरुरी है. ऎसे में आप व्रत को पांच, सात ग्यारह, सोलह इत्यादि संख्या में रख सकते हैं.

    सामान्यत: सात बृहस्पति तक इस व्रत को किया जाता है. इसके अलावा आपने जो भी मन्नत मांगने या जिस भी उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्रत को रखा गया है, उतने समय तक भी इस व्रत को रखा जा सकता है. इस व्रत को संपूर्ण जीवन अर्थात सदैव के लिए भी किया जा सकता है.

    क्यों रखते हैं बृहस्पतिवार व्रत

    व्रत एवं उपवास का उद्देश्य धार्मिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण रहा है. साथ ही इसे वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत उपयोगी माना गया है. वैदिक काल से ही इन व्रत एवं उपवास का अत्यंत ही असरदायक प्रभाव देखा गया है. ऎसे में जब हम बृहस्पतिवार व्रत को करते हैं, तो इस व्रत के पिछे सर्वप्रथम उद्देश्य बृहस्पति के शुभ गुणों की प्राप्ति करना ही होता है.आपके जीवन में ज्ञान और बौद्धिकता का संचार शुभ रुपों में हो सके और आप अपने जीवन को एक बेहतर रुप से जी पाएं यही इस व्रत का उद्देश्य है.

    बृहस्पतिवार व्रत शुभ प्रभाव एवं लाभ

    बृहस्पतिवार का व्रत रखने से जीवन में सभी सुखों का आगमन होता है. इस व्रत के प्रभाव से किसी भी व्यक्ति के जीवन में चली आ रही परेशानियों का अंत होता है. व्यक्ति की सोच में सकारात्मकता आती है. नकारात्मकता एवं नकारात्मक ऊर्जा भी दूर होती है. परिवार में सुख और स्त्रियों के सौभाग्य में वृद्धि करता है. छात्रों को शिक्षा में सफलता दिलाता है और उनकी बुद्धि को भी तीव्र बनाता है.

    इस व्रत के प्रभाव से संतान के सुख की प्राप्ति होती है. निसंतान दंपतियों के लिए ये व्रत अत्यंत ही शुभ फल देने वाला बताया गया है. इस व्रत के करने से व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि होती है और वह सामाजिक स्तर पर एक उत्तम स्थान भी पाता है.

    अगर कुण्डली में बृहस्पति ग्रह छठे, आठवें या बारहवें भाव में बैठे हों या फिर इन भावों का स्वामी हों और उसकी दशा अंतर्दशा में व्यक्ति के ऊपर अशुभ प्रभाव पड़ता है. इस से बचने के लिए बृहस्पतिवार का व्रत करने से, अशुभ प्रभाव कम होने लगते हैं.

    ज्योतिष में बृहस्पति का प्रभाव

    वैदिक ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पति को बहुत ही शुभ ग्रह माना गया है. बृहस्पति की जन्म कुंली में शुभ दृष्टि ओर उसके प्रभाव से व्यक्ति के जीवन के अनेकों कष्ट दूर होते हैं विपत्तियों से बचाव होता है. किसी भी व्यक्ति की कुंडली में अगर बृहस्पति शुभ नहीं है या किसी कारण कमजोर है या फिर पाप प्रभाव में होने पर बृहस्पतिवार के व्रत करने से ये अशुभ प्रभाव दूर होने लगते हैं.

    ऎसे में बृहस्पति के अशुभ फल मिलने को रोकने के लिए ये व्र्त करना बहुत ही असरदायक होता है. बृहस्पति ग्रह की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए इस व्रत को करने से अशुभता दूर होने लगती है. ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पति को स्त्री की कुंडली में पति के सुख का कारक भी माना गया है ऎसे में जिस कन्या की कुंडली यदि बृहस्पति के कमजोर या पाप प्रभव में होने के कारण विवाह सुख में बाधा आ रही हो तो उन्हें इस व्रत को अवश्य करना चाहिए. इसी के साथ बृहस्पति संतान, नौकरी, शिक्षा से जुड़े कामों में शुभ लाभ पाने के लिए बृहस्पतिवार के व्रत को करना अच्छा माना जाता है.

    बृहस्पतिवार व्रत में क्या नहीं करना चाहिए

  • बृहस्पतिवार के व्रत के दिन स्नान करें लेकिन साबुन का उपयोग नहीं करना चाहिए.
  • बृहस्पतिवार के व्रत वाले दिन केला नहीं खाना चाहिए. केले का उपयोग भगवान को अर्पित की जाने वाली सामग्री में तो कर सकते हैं लेकिन खाने में नहीं.
  • गुरूवार के दिन वस्त्र नहीं धोने चाहिए.
  • बृहस्पतिवर के दिन नाखून, बाल नहीं कटवाने चाहिए और दाढ़ी नहीं बनानी चाहिए.
  • नहाते समय बाल नहीं नहीं धोने चाहिए.
  • शरीर अथवा सिर में तेल नहीं लगाना चाहिए.
  • भोजन में तामसिक भोजन जैसे की मांस इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • किसी प्रकार के व्यसन अथवा नशे था मदिरा का उपयोग नहीं करना चाहिए.
  • बृहस्पतिवार के दिन क्या-क्या करना चाहिए

  • बृहस्पतिवार के दिन सुबह समय जल में चुटकी भर हल्दी और गंगाजल मिला कर स्नान करना चाहिए.
  • बृहस्पतिवार के दिन व्रत का संकल्प एवं पूजा सुबह-सुबह ही करनी चाहिए. सूर्योदय काल समय अनुकूल होता है पूजा के लिए.
  • घरे के बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद जरुर लेना चाहिए.
  • पूजा में पीले रंग के वस्त्र एवं वस्तुओं का औपयोग करना चाहिए.
  • बृहस्पतिवर के दिन केले के पेड़ का पूजन जरुर करना चाहिए.
  • बृहस्पतिदेव एवं श्री विष्णु भगवान की पूजा में पीले फूल, पीला चंदन, चने की दाल, गुड़ का उपयोग करना श्रेस्कर होता है.
  • मंदिर में पीले रंग की वस्तु ब्राह्मण को दान करनी चाहिए.
  • सामर्थ्य अनुसार इस दिन गरीबों को खाने की वस्तुएं दान देनी चाहिए.
  • बृहस्पतिवार व्रत कथा व पूजा विधि

    बृहस्पतिवार के प्रात:काल स्नान पश्चात भगवान श्री विष्णु एवं बृहस्पति देव का स्मर्ण करना चाहिए वह पूजन करना चाहिए. पूजा में पीली वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए. वस्त्र भी यदि पीले धारण कर सकें तो वह भी अच्छा होता है. भगवान को भोग में मीठे पीले चावल, बेसन का हलवा, गुड़-चना का उपयोग करना चाहिए. भगवान को पीले फूल, चने की दाल, मुनक्का, पीली मिठाई, पीले चावल और हल्दी अर्पित करनी चाहिए.

    बृहस्पतिवार के व्रत वाले दिन प्रात:कल समय ही केले के वृ्क्ष की पूजा भी करनि चाहिए. केले के पेड़ पर जल चढ़ाना चाहिए और चने की दाल, कच्ची हल्दी, गुड़ और मुनक्का को केले के पेड़ पर चढ़ाना चाहिए. केले के पेड़ के सामने धूप-दीप जलाकर, आरती करनी चाहिए और व्रत करने का संकल्प लेना चाहिए. पूजा करने के बाद भगवान बृहस्पति(गुरु) की कथा को पढ़ना या सुनना चाहिए. बृहस्पतिवार(गुरूवार) के व्रत में एक समय भोजन करने का विधान होता है और भोजन में मीठी वस्तुओं का सेवन करना चाहिए.

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    क्यों और कब मनाई जाती है विनायक चतुर्थी ? ऎसे करें चतुर्थी पूजा

    हिन्दू पंचांग अनुसार प्रत्येक माह दो पक्षों में कृष्ण पक्ष एवं शुकल पक्ष में विभाजित है. ऎसे में इन दोनों ही पक्षों में चतुर्थी तिथि आती है. कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी के नाम से जाना जाता है और शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी के नाम से जाना जाता है. इन बातों में मुख्य बात यह है की इन दोनों ही पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी के नाम से ही अधिकांशत: पुकारा और जाना जाता है.

    चतुर्थी तिथि भगवान गणेश को अत्यंत प्रिय है. इस चतुर्थी को भगवान गणेश के जन्म समय से भी जोड़ा गया है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भी चतुर्थी तिथि के संदर्भ में अनेकों कथाएं मिलती हैं जो श्री गणेश जी के साथ इस तिथि के संबंध की प्रगाढ़ता और महिमा को दर्शाती है. प्रतेक माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन विनायक चतुर्थी का व्रत होता है पर इसी के साथ इन सभी में भाद्रपद माह में आने वाली जो चतुर्थी होती है उस गणेश चतुर्थी को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है. इस गणेश चतुर्थी को भगवान श्री गणेश के जन्मोत्सव के रुप में संपूर्ण भारत में बहुत ही उल्लास और श्रृद्धा के साथ मनाया जाता है.

    विनायक चतुर्थी कथा

    विनायक जिस का एक अर्थ बिना नायक के होना भी होता है. भगवान श्री गणेश को माता पार्वती ने स्वयं ही निर्मित किया था इसलिए गणेश को एक नाम विनायक जो बिना पुरुष(नायक) की सहायता के उत्पन्न होते हैं. इसके पीछे की कथा को समझने के लिए हम पैराणिका आख्यानों द्वारा इसे जान सकते हैं. कथा इस प्रकार है की कैलाश में स्थिति माता पार्वती स्नान करने के से पूर्व उबटन तैयार करती हैं और उसे अपने शरीर पर लगा लेती हैं, थोड़ी देर बाद उस उबटन को हटाते हुए वह उस उबटन से एक बच्चे की प्रतिमा बना देती हैं और उसमें प्राण डाल कर उसे जीवन देती हैं.

    उस बालक को माता पार्वती ने अपनी सुरक्षा हेतु द्वार पर खड़े होने का आदेश दिया और कहा की जब तक मैं स्नान करके वापस न आ जाएं वह बालक किसी को भी अंदर न आने दे. ऎसा कह कर माता पार्वती स्नान के लिए अंदर चली जाती है.

    जब भगवान शिव वहां आते हैं तो वह बालक भगवान शिव को अंदर प्रवेश करने से रोक देता है. भ्गवान शिव के अनेको प्रयत्न एवं समझाने के बाद भी जब वह बालक भगवान शिव को अंदर जाने नहीं देता, तो भगवान शिव क्रोध से भर जाते हैं ओर बालक को दण्ड देते हैं उसके सिर को काट देते हैं. माता पार्वती उस बालक की ये दशा देख कर अत्यंत विचलित हो जाती दुख एवं क्रोधवश वह उस बालक को पुन: ठीक करने के लिए भगवान शिव से भी प्रतिशोध लेने की लिए तैयार हो जाती हैं. भगवान शिव को जब सारी बातों का पता चलता है तो वह गणों को आदेश देते हैं की उन्हें अभी इसी समय जाएं ओर जो प्रथम जीव उन्हें प्राप्त हो या जिस किसी का भी सिर प्राप्त होता है लेकर आएं.

    भगवान शिव का आदेश सुन सभी गण सिर की खोज में आगे बढ़ते हैं, जहां उन्हें सबसे पहले एक हाथी दिखाई देता है जिस का सिर वह ले आते हैं. भगवान शिव उस सिर को बाल के शरीर से जोड़ कर उसे जीवन प्रदान करते हैं और विनायक नाम देते हैं और अपने गणों का नायक नियुक्त करते हैं जिस कारण वह बालक गणेश कहलाया.

    भाद्रपद माह की विनायक चतुर्थी का महत्‍व

    भादो अर्थात भाद्रपद माह के दौरान आने वाली शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी या गणेश चतुर्थी के नाम से जाना जाता है. इस चतुर्थी का आरंभ एवं अंत दस दिनों के दौरान भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है. महाराष्‍ट्र में तो इसकी धूम विश्व भर को चौंका देने वाली होती है. इस पर्व के दौरन पर घर हो या मंदिर या पंडाल जगह -जगह पर भगवान श्री गणेश की स्थापना की जाती है. भगवान श्री गणेश का जन्‍मोत्सव पूरे दस दिनों तक चलता है और अनंत चतुर्दशी पर इसका समापन होता है.

    गणेश चतुर्थी की पूजन विधि

    हिन्‍दू धर्म में भगवान गणेश को आदि देव के रुप में पूजा जाता है. किसी भी कार्य का आरंभ श्री गणेश जी की पूजा पश्चात ही शुरु होता है. गणेश चतुर्थी के दिन विशेष रुप से भगवान श्री गणेश का पूजन करने से सभी सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है. आईये जान्ते हैं चतुर्थी पूजन विधि के बारे में विस्तार से :-

  • शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान इत्यादि नित्य कार्यों से निवृत होकर भगवान श्री गणेश का स्मरण करना चाहिए.
  • पूजा का संकल्‍प लेते हुए, मंदिर एवं धर्म स्थल पर भगवान गणेश जी के सामने घी का दीपक जलाना चाहिए.
  • फिर गणेश जी का ध्‍यान करने के बाद गणेश परिवार का स्मरण एवं पूजन करना चाहिए.
  • यदि गणेश जी की प्रतिमा हो तो उसे स्‍नान कराना चाहिए. स्नान के लिए पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद और चीनी के मिश्रण) का उपयोग करना चाहिए इसके पश्चात जल से स्‍नान कराना चाहिए.
  • अब श्री गणेश जी को साफ स्वच्छा वस्‍त्र पहनाएं. वस्‍त्र नहीं हैं तो आप उन्‍हें लाल धागा (कलावा) जिसे हाथों में बांधा जाता है वह भी अर्पित कर सकते हैं.
  • गणपति की प्रतिमा पर सिंदूर, चंदन, फूलों की माला चढा़नी चाहिए इसके बाद भगवान को फूल अर्पित करने चाहिए.
  • यदि प्रतिमा न हो तो श्री गणेश जी की तस्वीर का उपयोग करते हुए उन्हें तिलक लगाना चाहिए और फूल माला चढ़ानी चाहिए.
  • श्री गणेश जी के समक्ष सुगंधित धूप जलाएं, भगवान श्री गणेश को लडडू, मिठाई, मेवे और फल इत्यादि अर्पित करने चाहिए. नारियल और दक्षिण भेंट करनी चाहिए.
  • गणेश भगवान के मंत्र का जाप करना चाहिए. उसके बाद आरती शुरु करनी चाहिए. आरती समाप्ति के बाद फूल अर्पित करें ओर भ्गवान गणेश को मोदक का भोग लगाना चाहिए.
  • पूजा समाप्ति पर भगवान गणेश जी से अपनी गलतियों की क्षमा मांगनी चाहिए और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए. भगवान के प्रसाद को समस्त परिवार जनों में बांटना चाहिए और स्वयं भी ग्रहण करना चाहिए. इस प्रकार चतुर्थी के दिन विधि पूर्वक भगवान श्री गणेश का पूजन करने से सभी कष्ट दूर होते हैं और जीवन में आने वाली बाधाओं से मुक्ति प्राप्त होती है.

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    कब है फाल्गुन पूर्णिमा 2025 : व्रत कथा व पूजा विधि

    फाल्गुन पूर्णिमा एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व एवं समय होता है जो धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्वरुप में उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है. इस वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा का पर्व 14 मार्च 2025 के दिन मनाया जाएगा. फाल्गुन माह में आने वाली इस पूर्णिमा के दिन विशेष पूजा-पाठ एवं अन्य धार्मिक कार्यों को करने के नियम बनाए गए हैं, जो दर्शाते हैं की किस प्रकार प्रकृति और मनुष्य के मध्य एक अत्यंत ही घनिष्ठ संबंध है. फाल्गुन पूर्णिमा के समय को धार्मिक अनुष्ठान कार्यों को किया जाता है.

    फाल्गुन पूर्णिमा 12 पूर्णिमाओं मे सबसे आखिर में आने वाली पूर्णिमा है. हिन्दू नव वर्ष का आखिरी माह फाल्गुन माह होता है, और इसमें आने वाली पूर्णिमा भी बहुत महत्वपूर्ण होती है. फाल्गुन पूर्णिमा के दिन चंद्रमा का पूर्ण स्वरुप एवं उसकी ऊर्जा का संचार भी तीव्र गति से होता है. ऎसे में बनाए गए अनुष्ठान एवं पूजन से हम उस सभी चीजों के मध्य स्वयं के तालमेल को बिठा सकते हैं.

    फाल्गुन पूर्णिमा व्रत

    पूर्णिमा तिथि में चंद्रमा आकाश में अपनी संपूर्ण कलाओं से पूर्ण होता दिखाई देता है. हिन्दू धर्म में प्रत्येक पूर्णिमा का अपना अलग महत्व होता है और हर पूर्णिमा का पूजन में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता भी दिखाई दे सकती है. लेकिन इसकी महत्ता सदैव एक स्वरुप में विद्यमान होती है. इस तिथि पर पूजा-पाठ, दान, पवित्र नदियों एवं धर्म स्थलों पर स्नान-दान का अत्यंत शुभदायक बताया गया है. यह जीवन और प्रकृति के साथ हमारे संबंधों की घनिष्ठा को भी पूर्णता देता है. पूर्णिमा तिथि के दिन गंगा व यमुना नदि के तीर्थस्थलों पर स्नान और दान करना मोक्षदायी एवं पुण्यदायी माना गया है.

    इस दिन भगवान श्री विष्णु का पूजन किया जाता है. फाल्गुन पूर्णिमा की कथा होली पर्व को भी दर्शाती है. यह कथा राक्षस हरिण्यकश्यपु और प्रह्लाद से संबंध रखती है. इस कथा अनुसार हरिण्यकश्यपु अपने पुत्र प्रह्लाद को मृत्युदण्ड देना चाहता है, क्योंकि उसका पुत्र श्री विष्णु का भक्त था और हरिण्यकश्यपु को ये बात सहन नहीं थी. वह श्री विष्णु को अपना शत्रु मानता था और जो भी श्री विष्णु की भक्ति करता उन्हें वह कष्ट व यातनाएं देता था. ऎसे में जब उसका पुत्र प्रह्लाद श्री विष्णु की भक्ति करता है तो वह अपने पुत्र से नफरत करने लगता है, और अनेक प्रकार के कष्ट देता है. पर श्री विष्णु की कृपा से प्रह्लाद को कोई कष्ट नहीं होता है.

    इस कारण हरिण्यकश्यपु अपनी बहन होलिका को ब्रह्मा से मिले वरदान का लाभ उठाने को कहता है. होलिका को वरदान मिला था की वह अग्नि में नहीं जल सकती उसका अग्नि कुछ खराब नहीं कर सकती है. ऎसे में राक्षसी होलिका, प्रह्लाद को जलाने के लिए अग्नि में बैठ जाती है. पर श्री हरि की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहता है और होलिका जल जाती है.

    इसलिए प्राचीन समय से ही फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका दहन व पूजन किया जाता है. फाल्गुन पूर्णिमा के दिन लकड़ी-उपलों से होलिका का निर्माण किया जाता है. शुभ मुहूर्त समय के दौरान होलिका दहन किया जाता है और पूजन संपन्न होता है.

    फाल्गुन पूर्णिमा पूजन विधि

    • धर्मशास्त्रों के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा के दिन तीर्थस्थल पर जाकर स्नान करना चाहिए यदि यह संभव नहीं हो सके तो नहाने के पानी में कुछ बूंदें गंगा जल की डालकर घर पर भी स्नान किया जा सकता है.
    • प्रातःकाल संकल्प लेकर पूर्ण विधि-विधान से चंद्रमा का ध्यान एवं पूजन करना चाहिए.
    • चंद्रमा की पूजा करते समय चंद्र मंत्र “ऊँ श्रीं श्रीं चन्द्रमसे नम:” का जाप करना चाहिए.
    • भगवान शिव का पूजन एवं शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिए.
    • माता पार्वती का पूजन भी करना चाहिए यह अत्यंत शुभफलदायी माना जाता है.
    • पूर्णिमा तिथि में चन्द्रमा की पूजा करनी चाहिए क्योंकि इससे सभी सुखों एवं मानसिक शांति की प्राप्त होती है.

    पूर्णिमा समय : चंद्रमा के पूजन का विशेष समय

    फाल्गुन पूर्णिमा के समय चंद्र देवता का पूजन मुख्य रुप से होता है. मान्यता है की फाल्गुन माह में चंद्रमा के जन्म को भी जोड़ा गया है. चंद्रमा के देवता भगवान शिव को कहा गया है. भगवान शिव ने अपने मस्तक पर चंद्रमा को धारण किया है. जिसे हम इन उक्तियों से भी समझ सकते हैं :-

    “नमामि शशिनं भक्त्या, शंभोर्मुकुटभूषणम्।”

    इसलिए चंद्रमा के पूजन में भगवान शिव के पूजन का भी विशेष रुप से महत्व बताया गया है. चंद्रमा का गोत्र अत्रि तथा दिशा वायव्य बतायी गयी है. चंद्रमा को सोमवार के दिन से जोड़ा जाता है अर्थात सोमवार के दिन चंद्रमा का पूजन विशेष होता है इसके साथ ही पूर्णीमा के दिन यदि सोमवार हो तो यह भी अत्यंत शुभ योग होता है.

    चंद्रमा जल तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं. इसलिए कहा गया है कि पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार भाटा अत्यंत विशाल रुप में होता है. पूर्णिमा के दिन ही मनुष्य के मन मस्तिष्क पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है. मनुष्य की चेतना का प्रवाह अधिक गति से आगे बढ़ता है. हमारे शरीर पर इसके प्रभाव का मुख्य कारण इसलिए भी है की हमारे शरीर में जल की मात्रा अत्यधिक होती है, यह चंद्रमा के प्रभाव में आने के कारण इस तिथि समय अत्यंत विस्तृत होती जाती है.

    इस समय पर अगर हम विशेष रुप से चंद्रमा की पूजा उपासना करते हैं तो हमारे भीतर मौजूद नकारात्मकता और अंधकार दूर होता है. मानसिक रुप से हमें मजबूती प्राप्त होती है. ज्योतिष की अवधारणा अनुसार भी पूर्णिमा तिथि समय पूजन चंद्र देव का पूजन किया जाए तो चंद्रमा के अशुभ प्रभाव दूर होते हैं और मानसिक शक्ति को भी बल मिलता है. ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा शुभ और एक सौम्य ग्रह माना जाता है. स्त्री तत्व का प्रतिनिधित्व करता है. चंद्रमा में ही अमृत का वास भी माना गया है और औषधियों पर भी चंद्रमा का प्रभाव लक्षित होता है. ऎसे में चंद्रमा के महत्व को केवल वैज्ञानिक रुप में ही नहीं दर्शाया गया है अपितु यह हमारी आध्यात्मिक चेतना और जीवन पर भी इसके स्वरुप को आसानी से समझा जा सकता है.

    फाल्गुन पूर्णिमा उत्सव होली

    हिंदू पंचांग अनुसार, फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होली का त्यौहार भी संपन्न होता है. रंगों से भरपूर ये त्यौहार जीवन की निराशा को दूर करते हुए नव जीवन के रंगों में रंगने का संदेश देता है. बुराई पर अच्छाई की विजय का संकेत बनता ये त्यौहार फाल्गुन पूर्णिमा के रंग को बढ़ा देता है. मस्ती और उल्लास से भरपूर ये समय सभी के जीवन को प्रभावित करता है.

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    2025 कब होता है माघ स्नान का आरंभ और समाप्ति ? : मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है माघ स्नान

    इस वर्ष माघ स्नान का आरंभ 14 जनवरी 2025 से होगा और इसकी समाप्ति 12 फरवरी 2025 को होगी. माघ माह अपने आरंभ से ही पर्व व उत्सवों के आगमन की झलक देने लगता है. यह वह समय होता है जब प्रकृति की छटा और खूबसूरती अपने नव रंग में मौजूद होती है. इस समय पर कई उत्सव और व्रत आते हैं. माघ माह का आरंभ माघ स्नान के आरंभ के साथ शुरु होता है. इस पूरे माह में ही स्नान की महत्ता को अत्यंत ही प्रभावशाली स्वरुप में दर्शाया गया है. इसी के साथ जब माघ माह का अंत समीप आता है तो इस माह के आखिरी दिन में स्नान की समाप्ति होती है.

    माघ माह के स्नान की समाप्ति में धर्म स्थलों पर मेले और धार्मिक कृत्यों का आयोजन किया जाता है. इस माघ माह में मौसम भी अपने एक अलग रंग में होता है. सर्दियों की कड़कड़ाती सुबह में भी श्रद्धालु भक्त माघ स्नान करते हैं. गंगा, यमुना इत्यादि पवित्र नदियों में आस्था की डूबकी लगाते हैं. उनकी यही आस्था और विश्वास में उनके लिए मोक्ष का मार्ग प्रश्स्त करती है. जीवन की उस यात्रा पर उनके पथ को प्रकाशित भी करती है. यही उन भक्तों की आस्था है जो उन्हें माघ के कठोर मौसम में भी इतनी शक्ति और बल प्रदान करती है.

    माघ स्नान में स्नान और दान की महत्ता

    भारतीय पंचाग एवं ज्योतिषीय गणना में माघ माह की शुरुआत पौष पूर्णिमा के बाद से होती है और पौष पूर्णिमा के दिन से ही माघ स्नान का भी आरंभ हो जाता है. इस पूरे माह के मध्य एकादशी, बसंत पंचमी, मौनी अमावस्या, तिल चतुर्थी और गुप्त नवरात्रि इत्यादि अत्यंत महत्वपूर्ण दिवस भी आते हैं.

    माघ माह का हर दिन अत्यंत प्रभावी होता है. मान्यता है की इस संपूर्ण माह के दौरान समस्त धरा का जल गंगा समान होता है. ऎसे में इस माह के दौरान प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में स्नान की विशेष महत्ता होती है. पुराणों में भी इस माह के विषय में विस्तार रुप से उल्लेख मिलता है. कहा जाता है की त्रिदेवों के साथ अन्य देवता भी इस माघ माह के आने पर प्रयाग के संगम स्थल पर आते हैं. यहां निवास भी करते हैं. इसके अतिरिक्त एक अन्य तथ्य के अनुसार अगर आप माघ मास में तीन बार संगम के स्थल पर जाकर स्नान कर लेते हैं तो उसका फल व्यक्ति को हजारों अश्वमेध यज्ञ को करने के समान ही प्राप्त होता है.

    इस माह में स्नान के साथ साथ दान की महत्ता को भी वर्णित किया गया है. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इस माह के समय में किए गए दान का फल और श्री हरि की कृपा को पाने के लिए यह उत्तम समय बताया गया है. इस समय पर आने वाली षटतिला एकादशी ओर जया एकादशी के दिन पूजन स्नान एवं दान करने से व्यक्ति को विष्णु लोक की प्राप्ति होती है. महाभारत में एक स्थान पर इस माह की महत्ता को बहुत ही विस्तारित रुप से बताया गया है. इस समय पर श्री विष्णु के पूजन द्वारा क्या फल प्राप्त होता है और इस माह के दौरान आने वाली अमावस्या और पूर्णिमा के दौरान किए गए दान की क्या प्रमुखता है इस सबके बारे में विस्तार रुप में हमें इसमें प्राप्त होता है.

    माघ माह में तिल का दान देता है मोक्ष

    तिल दान का महत्व भी इस दौरान अत्यंत फलदायी और पापों का नाश करने वाला होता है. इस समय पर आने वाली षटतिला एकादशी तो स्वयं ही इसके भेद को दर्शाती है. इस दिन योग्य ब्राह्मणों को तिल का दान किया जाता है. तिल से संबंधित भोजन को गरीबों में बांटना भी उत्तम माना गया है.

    तिल के दान को पाप नाश करने वाला माना गया है. इसके साथ ही व्यक्ति नर्क की यातना नहीं भोगता है. व्यक्ति को अपने पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. तिल के दान के साथ ही साथ तिल को आहार रुप में खाने के लिए भी उपयोगी बताया गया है. तिल चतुर्थी का समय हो, तिल एकादशी हो या तिल द्वादशी हो इन सभी उत्सवों को तिल के साथ जोड़ा गया है, अत: इन सभी पर्वों के दौरान तिलों से बने खाद्य पदार्थों को बनाया जाता है. इन तिलों का भोग भगवान को लगाते हैं ओर खुद भी इसे प्रसाद स्वरुप खाया जाता है. इसी के साथ-साथ गरीब लोगों में भी तिल से बने लड़्डू, खीर, रेवडी़ इत्यादि वस्तुओं को बांटा जाता है.

    ऎसे में तिल केवल धार्मिक स्वरुप ही नही अपितु वैज्ञानिक स्वरुप में भी अपनी उपयोगिता को दर्शाता है, क्योंकि तिल का सेवन गर्म तासिर देने वाला होता है. ऎसे में माघ माह के समय पर पड़ने वाली सर्दी से बचने में भी तिलों का सेवन अत्यंत उपयोगी होता है. तिल खाने से शरीर को ऊर्जा मिलती है और शरीर सक्रिय रहता है. इसलिए कहा जा सकता है की हिन्दू धर्म उन चीजों पर आधारित है जो तर्क की कसौटी पर खरे उतरते हैं. इसलिए तिलों का उपयोग इस समय पर हर रुप में करने की एक अत्यंत प्रभावशाली विचारधारा रही है.


    माघ माह में प्रमुख स्नान और समय

    माघ माह में वैसे तो हर दिन के स्नान को विशेष कहा गया है. पर इस माह के दोरान कुछ ऎसी विशेष तिथियां भी आती हैं जो इस समय को और भी अधिक प्रभावशाली बना देता है.


    पौष पूर्णिमा –

    पौष पूर्णिमा के साथ ही इस दिवस का आरंभ होता है. इस समय के दौरान जगह-जगह पर अनुष्ठानों यज्ञ किए जाते हैं. माघ स्नान के आरंभ की मुख्य तिथि होती है पौष पूर्णिमा.

    मकर संक्रांति –

    माघ माह का दूसरा विशेष स्नान मकर संक्रान्ति के दिन होता है. इस दिन पवित्र नदियों में धर्म स्थलों पर भक्त स्नान करते हैं.

    मौनी अमावस्या –

    माघ माह की मौनी अमावस्या का समय भी स्नान के लिए विशेष होता है. इस दिन मौन रहकर साधना की जाती है.

    बसंत पंचमी –

    माघ स्नान में बसंत पंचमी के दिन सरस्वती माँ का जन्म दिवस मनाया जाता है. इस दिन भी पवित्र नदियों में स्नान की महत्ता बतायी गई है.

    माघी पूर्णिमा –

    माघ पूर्णिमा के दिन माघ स्नान की समाप्ति होती है. इस तिथि के साथ ही संपूर्ण माघ माह में किए गए कार्यों और पूजा-पाठ, अनुष्ठानों इत्यादि का उत्साह के साथ समापन होता है और फाल्गुन माह की तैयारियों का आरंभ होता है.

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    फाल्गुन अमावस्या 2025 : कब है और क्या है पूजा विधि

    फाल्गुन अमावस्या का पर्व फाल्गुन माह की 30वीं तिथि के दिन मनाया जाता है. फाल्गुन अमावस्या में गंगा एवं पवित्र नदियों में स्नान इत्यादि का महत्व रहा है. इस अमावस्या के दौरान श्राद्धालु श्रद्धा के साथ दान और पूजा पाठ से संबंधित कार्य भी करते हैं.

    फाल्गुन अमावस्या के दौरान पितरों के लिए भी मुख्य रुप से तर्पण का कार्य किया जाता है. हिन्दू पंचांग के अनुसार माह अंतिम माह होता इस अंतिम अमावस्य के दौरान विशेष रुप से जप एवं तप करने की महत्ता को बताया गया है.

    इस वर्ष फाल्गुन अमावस्या 27 फरवरी 2025 को बृहस्पतिवार के दिन मनाई जाएगी. यह अमावस्या तर्पण कार्यो के लिये सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है. इस दिन चाहें तो व्रत भी किया जा सकता है जिसका शुभ फल आपके कर्मों को शुभता प्रदान करने वाला होता है.

    फाल्गुन अमावस्या को शिव उपासना करनी चाहिए. भगवान शिव की उपासना अकाल मृत्य, भय, पीड़ा और रोग निवारण में प्रभावी मानी गई है. इस दिन पूजा करने से कठिनाईयों एवं उलझनों से छुटकारा प्राप्त होता है. शास्त्रों में इसे अश्वत्थ प्रदक्षिणा व्रत कहा गया है इस दिन पिपल के वृक्ष की पूजा करने व पीपल के पेड तले तेल का दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए, इसी के साथ शनि देव की पूजा करनी चाहिए. इस दिन मंत्र जाप करना विशेष रुप से कल्याणकारी होता है.

    इस के अतिरिक्त पीपल के वृक्ष की 108 परिक्रमा करने और श्री विष्णु का पूजन करने का नियम है. पीपल जिसमें त्रिदेवों का वास माना जाता है. इस दिन पीपल के वक्ष की जड़ को दूध अर्पित करना चाहिए एवं इसका पूजन करना अत्यंत शुभ एवं फलदायी कहा जाता है.

    फाल्गुन अमावस्या पर पीपल पूजा

    फाल्गुन अमावस्या पर पीपल के वृक्ष की पूजा बहुत फलदायी कही गई है. पीपल के वृक्ष की जड़ में दूध, जल, को अर्पित करते हुए पुष्प, अक्षत, चन्दन इत्यादि से पूजा करनी चाहिए और पेड़ के चारों ओर 108 बार धागा लपेट कर परिक्रमा पूर्ण करनी चाहिए. पीपल की प्रदक्षिणा करने के बाद अपने सामर्थ्य अनुसार दान-दक्षिणा देना शुभ होता है. इन पूजा उपायों से पितृदोष, ग्रहदोष और शनिदोष का बुरा प्रभाव समाप्त होता है तथा परिवार में शांति का आगमन होता है.

    स्नान दान की फाल्गुन अमावस

    फाल्गुन अमावस्या के दिन स्नान, दान करने का विशेष महत्व कहा गया है. फाल्गुन अमावस्या के दिन मौन रहने का सर्वश्रेष्ठ फल कहा गया है. देव ऋषि व्यास के अनुसार इस तिथि में मौन रहकर स्नान-ध्यान करने से सहस्त्र गौ दान के समान पुण्य का फल प्राप्त होता है. इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी विशेष महत्व समझा जाता है. इस दिन कुरुक्षेत्र के ब्रह्मा सरोवर में डूबकी लगाने का भी फल कहा गया है. इस स्थान पर सोमवती अमावस्या के दिन स्नान और दन करने से अक्षय फलों की प्राप्ति होती है.

    देश भर में इस दिन सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक की अवधि में पवित्र नदियों पर स्नान करने वालों का तांता सा लगा रहेगा. स्नान के साथ भक्तजन भाल पर तिलक लगवाते है. यह कार्य करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है. सोमवती अमावस्या का व्रत करने वाली स्त्रियों को व्रत की कथा अवश्य सुननी चाहिए.

    कहा जाता है कि महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्व समझाते हुए कहा था कि, इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने वाला मनुष्य सभी दुखों से मुक्त होकर सुख को पाता है. ऐसा भी माना जाता है कि स्नान करने से पितरों कि आत्माओं को शांति प्राप्त होती है और पितरों का आर्शीवाद भी मिलता है.

    फाल्गुन अमावस्या पूजा

    • अमावस्या के दिन गंगा स्नान करना चाहिए अगर यह संभव न हो तो स्नान के दोरान नहाने के पानी में गंगाचल की कुछ बूम्दे डाल कर स्नान करना चाहिए.
    • स्नान करने के उपरांत भगवान सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए एवं सूर्य मंत्र का पाठ करना चाहिए.
    • इसके पश्चार मंदिर में भगवान श्री गणेशजी की पूजा करनी चाहिए.
    • भगवान शिव और श्री विष्णु भगवान का स्मरण एवं पूजन करना चाहिए.
    • यदि व्रत करना हो तो व्रत का संकल्प लेना चाहिए और अगर व्रत न रख सकें तो सामान्य रुप से पूजन किया जा सकता है.
    • भगवान श्री विष्णु की को पीले रंग के फूल अर्पित करने चाहिए.
    • केसर, चंदन इत्यादि को भगवान को लगाना चाहिए.
    • घी का दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए.
    • सुगंधित इत्र अर्पित करने चाहिए और तिलक लगाना चाहिए.
    • इसके बाद धूप और दीप जलाएं और आरती करनी चाहिए.
    • आरती के बाद परिक्रमा करें. अब नेवैद्य अर्पित करें.
    • प्रसाद में पंचामृत चढ़ाना चाहिए और लड्डओं का या गुड़ का भोग लगाएं.
    • पितरों को याद करते हुए उनके लिए भोजन की वस्तुएं एवं फल इत्यादि को भेंट करना चाहिए.

    ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और सामर्थ्य अनुसार पितरों के निमित दान उन्हें भेंट करना चाहिए. संध्या समय के दौरान भी दीप अवश्य जलाना चाहिए एवं पूजा पाठ करना चाहिए.

    फाल्गुन अमावस्या महात्म्य

    फाल्गुनी अमावस्या में भ्गवान विष्णु का स्मरण एवं भागवत कथा का पाठ करना उत्तम माना गया है. इस दिन किए गए दान और पूण्य का अक्षय फल प्राप्त होता है. संतान के सुख एवं परिवार की सुख समृद्धि के लिए भी इस दिन किया गया व्रत एवं पूजन अत्यंत लाभकारी माना गया है. परिवार में यदि किसी कारण से पितृ दोष की स्थिति उत्पन्न होती है या किसी जातक की कुण्डली में पितर दोष का निर्माण होता है, तो उस स्थिति में इस अमावस्या के दिन विशेष रुप से पूजन एवं उपवास का पालन करने से दोष की शांति होती है.

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    जया एकादशी 2025 : जानिये इसकी पूजा विधि और कथा

    माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी “जया एकादशी” कहलाती है. माघ माह में आने वाली इस एकादशी में भगवान श्री विष्णु के पूजन का विधान है. एकादशी तिथि को भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है. इस दिन व्रत और पूजा नियम द्वारा प्रत्येक मनुष्य भगवान श्री विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है. 08 फरवरी 2025 को जया एकादशी का व्रत रखा जाएगा.

    माघ, शुक्ल जया एकादशी
    जया एकादशी प्रारम्भ – 09:27 पी एम, 07 फरवरी 
    जया एकादशी समाप्त – 08:15 पी एम, 08 फरवरी 

    वैष्णवों में एकादशी को अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना गया है. इसी के साथ हिन्दू धर्म के लिए एकादशी तिथि एवं इसका व्रत अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है. नारदपुराण में एकादशी तिथि के विषय में बताया गया है, कि किस प्रकार एकादशी व्रत सभी पापों को समाप्त करने वाला है और भगवान श्री विष्णु का सानिध्य प्राप्त करने का एक अत्यंत सहज सरल साधन है. एकादशी व्रत के के दिन सुबह स्नान करने के बाद पुष्प, धूप आदि से भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए.

    जया एकादशी कथा

    जया एकादशी की कथा को पढ़ना और सुनना अत्यंत ही उत्तम होता है. पद्मपुराण में वर्णित जया एकादशी महिमा की एक कथा का आधा फल इस व्रत कथा को सुनने मात्र से ही प्राप्त हो जाता है. आईये जानते हैं जया एकादशी कथा और उसकी महिमा के बारे में विस्तार से.

    जया एकादशी के विषय में जानने की इच्छा रखते हुए युधिष्ठिर भगवान मधूसूदन( श्री कृष्ण) से कथा सुनाने को कहते हैं. युधिष्ठिर कहते हैं की हे भगवान माघ शुक्ल पक्ष को आने वाली एकादशी किस नाम से जानी जाती है और इस एकादशी व्रत करने की विधि क्या है. आप इस एकादशी के माहात्म्य को हमारे समक्ष प्रकट करने की कृपा करिये.

    आप ही समस्त विश्व में व्याप्त है. आपका न आदि है न अंत, आप सभी प्राणियों के प्राण का आधार है. आप ही जीवों को उत्पन्न करने वाले, पालन करने और अंत में नाश करके संसार के बंधन से मुक्त करने वाले हैं. ऎसे में आप हम पर भी अपनी कृपा दृष्टि डालते हुए संसार का उद्धार करने वाली इस एकादशी के बारे में विस्तार से कहें. हम इस कथा को सुनने के लिए आतुर हैं.

    युधिष्ठिर के इन वचनों को सुनकर भगवान श्री कृष्ण प्रसन्न भाव से उन्हें एकादशी व्रत की महिमा के विषय में बताते हुए कहते हैं कि- हे कुन्ति पुत्र माघ माह के शुक्ल पक्ष को आने वाली एकादशी, जया एकादशी होती है. अपने नाम के अनुरुप ही इस एकादशी को करने पर व्यक्ति को समस्त कार्यों में जय की प्राप्ति होती है. व्यक्ति अपने कार्यों को सफल कर पाता है.

    इस जया एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति को ब्रह्म हत्या के पाप से भी मुक्ति प्राप्त हो जाती है. मनुष्य अपने पापों से मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त करता है. इस एकादशी के प्रभाव से कष्टदायक योनियों से मुक्ति पाता है. जया एकादशी व्रत को विधि-विधान से करने पर मनुष्य मेरे सानिध्य एवं परमधाम को पाने का अधिकारी बनता है.

    जया एकादशी कथा इस प्रकार है- एक समय स्वर्ग के देवता देवराज इंद्र नंदन वन में अप्सराओं व गंधर्वों के साथ विहार कर रहे थे. वहां पर पुष्पवती नामक गंधर्व कन्या, माल्यवान नामक गंधर्व पर मोहित हो जाती है. माल्यवान भी पुष्पवती के रुप सौंदर्य से आकर्षित हो जाता है. दोनों एक दूसरे के प्रेम में वशीभूत होने के कारण अपने संगीत एवं गान कार्य को सही से नहीं कर पाने के कारण इंद्र के कोप के भागी बनते हैं.

    उनके सही प्रकार के गान और स्वर ताल के बिगड़ जाने के कारण इंद्र का ध्यान भंग हो जाता है और वह क्रोध में आकर उन्हें श्राप दे देते हैं. इंद्र ने उन दोनों गंधर्वों को स्त्री-पुरुष के रूप में मृत्यु लोक में जाकर पिशाच योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया. इंद्र के श्राप के प्रभाव स्वरुप वह दोनों दु:खी मन से हिमालय के क्षेत्र में जाकर अपना जीवन बिताने लगते हैं. वह अत्यंत कष्ट में जीवन व्यतीत करने लगते हैं. किसी भी वस्तु का उन्हें आभास भी नहीं हो पाता है, रुप, स्पर्श गंध इत्यादि का उन्हें बोध ही नहीं रह पाता है.

    अपने कष्टों से दुखी वह हर पल अपनी इस योनी से मुक्ति के मार्ग की अभिलाषा रखते हुए जीवन बिता रहे होते हैं. तब माघ मास में शुक्ल पक्ष की जया नामक एकादशी का दिन भी आता है. उस दिन उन दोनों को पूरा दिन भोजन नही मिल पाता है. बिना भोजन किए वह संपूर्ण दिन व्यतीत कर देते हैं. भूख से व्याकुल हुए रात्रि समय उन्हें निंद्रा भी प्राप्त नहीं हो पाती है. उस दिन जया एकादशी के उपवास और रात्रि जागरण का फल उन्हें प्राप्त होता है और अगले दिन उसके प्रभाव स्वरुप वह पिशाच योनी से मुक्ति प्राप्त करते हैं.

    इस प्रकार श्रीकृष्ण, कथा संपन्न करते हैं. वह युधिष्ठिर से कहते हैं कि जो भी इस एकादशी के व्रत को करता है और इस कथा को सुनता है उसके समस्त पापों का नाश होता है. जया एकादशी के व्रत से भूत-प्रेत-पिशाच आदि योनियों से मुक्ति प्राप्त होती है. इस एकादशी के व्रत में पूजा, दान, यज्ञ, जाप का अत्यंत महत्व होता है. अत: जो मनुष्य जया एकादशी का व्रत करते हैं वे अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं.

    जया एकादशी व्रत विधि

    • जया एकादशी का व्रत करने के लिए. दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रत के नियमों का ध्यान रखना चाहिए.
    • दशमी तिथि से ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए समस्त तामसिक वस्तुओं का त्याग करना चाहिए.
    • अगले दिन एकादशी तिथि समय सुबह स्नान करने के बाद पुष्प, धूप आदि से भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए.
    • इस दिन शुद्ध चित्त मन से भगवान श्री विष्णु का पूजन करना चाहिए.
    • दिन भर व्रत रखना चाहिए. अगर निराहार नहीं रह सकते हैं तो फलाहार का सेवन करना चाहिए.
    • ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादश मंत्र का जाप करना चाहिए.
    • विष्णु के सहस्रनामों का स्मरण करना चाहिए.
    • सामर्थ्य अनुसार दान करना चाहिए.

    इसी प्रकार रात्रि के समय में भी व्रत रखते हुए श्री विष्णु भगवान का भजन किर्तन करते हुए जागरण करना चाहिए. अगले दिन द्वादशी को प्रात:काल समय ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए और स्वयं भी भोजन करके व्रत संपन्न करना चाहिए.

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    ईशान व्रत और इसका महत्व 2025

    ईशान व्रत अपने नाम के अनुरुप भगवान शिव से संबंधित है क्योंकि भगवान शिव का एक अन्य नाम ईशान भी है. इसी के साथ वास्तुशास्त्र में भी ईशान संबंधित दिशा की शुभता सर्वव्यापी है यह दिशा आपके लिए शुभता और सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह भी बनती है. इस व्रत में शिवलिंग की पूजा की जाती है और मुख्य रुप से शिवलिंग के बाँयी ओर विष्णु हों और दाँयी ओर सूर्य देव को स्थापित किया जाता है तब पूजन आरंभ होता है.

    इस व्रत में दान का अत्यंत महत्व होता है. और गाय का दान इस व्रत में मुख्य रुप से बताया गया है. परंतु आज के संदर्भ में ये संभव हो नहीं सकता तो इस के लिए यदि किसी ब्राह्मण को दक्षिणा उस दान के तुल्य ही दे दी जाए तो भी इसका फल अवश्य प्राप्त होता है. इसके अतिरिक्त यदि किसी धातु जिसमें पीतल, चांदी या स्वर्ण से बनी गाय का जोड़ा दान दिया जाए तो भी इसका बहुत महत्व रहा है. इस व्रत को एक लम्बे समय किया जाने का विधान है, लगभग 5 वर्षों तक करने की बात कही जाती है.

    ईशान व्रत कब आता है

    ईशान व्रत को पौष माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन किया जाता है. इस व्रत के विषय में कई अन्य बातें भी प्रचलित हैं, जिसके अनुसार पौष माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी होने और उसके अगले दिन पूर्णिमा तिथि के दिन गुरुवार(बृहस्पतिवार) का दिन होना बहुत अच्छा माना जाता है. इस समय पर व्रत को करना अत्यंत शुभ फलदायी होता है.

    एक अन्य मत के अनुसार ईशान व्रत को तब करना चाहिए जब पौष माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के अगले दिन पूर्णिमा तिथि को पुष्य नक्षत्र भी हो. इस समय पर भी ईशान व्रत की महिमा अत्यधिक बढ़ जाती है.

    ईशान व्रत पूजा विधि

    ईशान व्रत को करने वाले साधक को चाहिए कि वह चतुर्दशी तिथि को स्नानादि करके व्रत का संकल्प धारण करे. दिन भर भगवान शिव का का स्मरण करते हुए उपवास करें. दूसरे दिन पुष्य नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने पर शुभासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए. यज्ञ वेदी का निर्माण करना चाहिए इसके साथ ही अपने समक्ष वेदी पर साफ उज्जवल सफेद वस्त्र बिछाना चाहिए. उसमे चारों दिशाओं मे अक्षत रखना चाहिए. उसके बाद चारों के बीच मे भी एक थोड़ा अक्षत का रखना चाहिए. पूर्व दिशा वाले अक्षत की ढेरी में भगवान विष्णु का, दक्षिण दिशा वाले स्थान मे सूर्य का, पश्चिम दिशा वाले मे ब्रह्मा का, उत्तर दिशा वाले स्थान मे रुद्र का और बीच वाले मे ईशान का आवाहन करना चाहिए. धूप, दीप ,गंध, अक्षत आदि से सभी का विधिवत पूजन करना चाहिए. यदि स्वयं संभव न हो सके तो किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा इस पूजन को करवाना चाहिए.

    पूजन करने के पश्चात ब्राह्मणों को सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा अवश्य प्रदान करनी चाहिए. धर्म ग्रंथों के अनुसार ईशान व्रत में ब्राह्मण को दान स्वरुप एक गाय तथा एक बैल देना चाहिए. उसके पश्चात भोजन और दक्षिणा से सन्तुष्ट करना चाहिए. इस प्रकार ईशान व्रत को पाँच वर्ष तक करना अत्यंत शुभफलदायी माना गया है. पौष शुक्ल चतुर्दशी-पूर्णिमा को व्रत करने पर पहले साल में एक गाय एक बैल का दान करना चाहिए, दूसरे वर्ष दो गाय एक बैल का दान करना चाहिए. तीसरे वर्ष तीन गाय एक बैल का दान करना चाहिए. चौथे वर्ष चार गाय एक बैल का दान करना चाहिए और पाँचवे वर्ष पाँच गाय एक बैल का दान करना श्रेयस्कर माना गया है.

    ईशान व्रत माहात्म्य

    ईशान व्रत की महिमा का प्रभाव समस्त दिशाओं को आलोकित करने वाला है. इस दिन पूजन एवं यज्ञ जैसे कार्य करने से अमोघ फलों की प्राप्ति होती है. इस व्रत का आह्वान करने से घर में सब प्रकार का सुख और लक्ष्मी की वृद्धि होती है. यह घर की नकारात्मकता को दूर करने वाला होता है.

    ईशान व्रत में भगवान शिव के ईशान रुप का पूजन होता है. शिवलिंग का पूजन विधि-विधान से किया जाता है. यज्ञवेदी का निर्माण एवं देवों की स्थापना एवं आहवान किया जाता है. इस व्रत के द्वारा भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है.

    सूर्य देव का पूजन भी इस ईशान पूजन में मुख्य रुप से होता है. भगवान सूर्य जगत को आलौकित करने वाले हैं. आत्मा को प्रकाशित करते हैं. अंधकार को समाप्त करके समस्त दिशाओं में अपनी शुभता को फैलाने वाले होते हैं. भगवान सूर्य को खखोल्क नामक से भी जाना जाता है. खखोल्क उनका प्रभामंण्डल है. भगवान सूर्य का पूजन व्याधियों को दूर करने वाला होता है. मोक्ष चाहने वालों के लिए मुक्ति का मार्ग दिखाता है. खखोल्क नामक मंत्र का इस समय पर जाप करने से सभी कष्टों की शांति होती है. यह मंत्र सदैव उच्चारण और स्मरण करने योग्य होता है. “ॐ नमः खखोल्काय” नामक मंत्र के स्मरण मात्र से ही सभी रोगों का नाश होता है. ईशान व्रत के समय पर इस मंत्र का जाप अत्यंत उत्तम होता है.

    भगवान विष्णु का पूजन भी ईशान व्रत में किया जाता है. भगवान विष्णु का स्मरण करके व्रत को संपन्न किया जाता है. व्रत में भगवान विष्णु के मंत्र जाप एवं उनका आहवान किया जाता है. इस प्रकार समस्त देवों का पूजन करने से दिशाओं की शांति और शुभता आती है.

    ईशान व्रत का पूजन और व्रत करने से व्यक्ति को सैकडौं गुना फल मिलता है. इसी प्रकार अगर व्यक्ति किसी भी प्रकार के वास्तु दोष से प्रभावित हो तो उसके लिए ईशान व्रत करना अत्यंत शुभ फलदायी होता है. व्रत के अनुष्ठान को किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा कराया जाना चाहिए और सभी नियमों का पालन करते हुए यह पूजन संपन्न करना चाहिए.

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    प्रदोष व्रत क्या होता है और कितने होते हैं प्रदोष व्रत

    प्रदोष व्रत मुख्य रुप से भगवान शिव के स्वरुप को दर्शाता है. इस व्रत को मुख्य रुप से भगवान शिव की कृपा पाने हेतु किया जाता है. प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन प्रदोष व्रत का पालन किया जाता है. प्रदोष व्रत की महिमा सभी के लिए अत्यंत ही प्रभावशाली है. इस व्रत की महिमा ऎसी है जैसे अमूल्य मोतियों में “पारस” का होना. प्रदोष व्रत जो भी धारण करता है उस व्यक्ति के जीवन के सभी कष्ट दूर होते हैं और दुखों का नाश होता है.

    प्रदोष व्रत कथा

    प्रदोष व्रत के नाम से अनेक कथाएं प्रचलित हैं, जिसमें से एक कथा अनुसार चंद्रमा को जब श्रापवश क्षय रोग होता है तब इसके कारण चंद्रमा की रोशनी(प्रकाश) का नाश होने लगता है. ऎसे में चंद्र देव भगवान शिव की भक्ति करते हैं और इनसे अपने कष्ट को दूर करने की प्रार्थना करते हैं. भगवान शिव, चंद्रमा की भक्ति से प्रसन्न होकर उनके कष्ट का निवारण करके उन्हें श्राप से मुक्ति प्रदान करते हैं, और जिस दिन चंद्रमा को इस कष्ट से मुक्ति प्राप्त होती है. वह त्रयोदशी तिथि का समय होता है. भगवान शिव नेण त्रयोदशी के दिन चंद्रमा को पुन: जीवन अर्थात उनका प्रकाश प्रदान किया अत: इसीलिए इस दिन को प्रदोष कहा जाने लगा.

    प्रत्येक माह में प्रदोष व्रत दो होते हैं एक शुक्ल पक्ष में आने वाला और दूसरा कृष्ण पक्ष में आने वाला. त्रयोदशी जिसे “तेरस” भी कहा जाता है. इस तिथि को प्रदोष व्रत संपन्न होता है. प्रदोष काल में उपवास करना रात्रि जागरण करना चाहिए. यह सभी दोषों का नाश करता है.

    प्रदोष व्रत पूजा विधि

    प्रदोष व्रत को करने वालों को द्वादशी की रात्रि से ही शुद्धता, सात्विकता एवं ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए. अगले दिन त्रयोदशी तिथि को प्रात:काल स्नान आदि से निवृत होकर भगवान शिव का ध्यान करना चाहिए. शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिए, “ऊं नम: शिवाय” मंत्र का जाप जितना संभव हो सके करना चाहिए. यदि उपवास कर सकें तो उपवास का संकल्प करके पूरा दिन निराहार रहना चाहिए. उसके पश्चात सूर्यास्त के बाद स्नान करके और शुभ मुहूर्त में भगवान शिव का विधि विधान के साथ पूजन करना चाहिए.

    प्रदोष पूजा को घर या मन्दिर जहां चाहे कर सकते हैं. पूजा करते समय उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए और भगवान शिव का पुष्प, बेलपत्र, पंचामृत, अक्षत, भांग, धतूरा, सफेद चंदन, दूध, धूप आदि से पूजन करना चाहिए. जलाभिषेक करना चाहिए व शिव मंत्रों एवं शिव चालिसा का पाठ करना चाहिए. भजन आरती पश्चात भगवान को भोग लगाना चाहिए और प्रसाद को सभी लोगों में बांटना चाहिए. इस प्रकार विधि विधान के साथ पूजा करने के उपरांत ब्राह्मणों को भोजन खिलाना चाहिए और उन्हें दान दक्षिणा देकर उनसे आशिर्वाद प्राप्त करना चाहिए.

    प्रदोष व्रत महत्व

    हर माह के दोनों पक्षों की त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत रखा जाता है. इसी के साथ किसी खास दिन पर जब प्रदोष व्रत होता है तो उस दिन के साथ इस व्रत का संयोग ओर भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है. इसमें मुख्य रुप से सोमवार के दिन पड़ने वाला प्रदोष व्रत सोम प्रदोष व्रत के नाम से जाना जाता है. मंगलवार के दिन पड़ने वाला प्रदोष व्रत भौम प्रदोष व्रत के रुप में जाना जाता है. शनिवार के दिन शनि प्रदोष व्रत और रविवार के दिन पड़ने वाले प्रदोष व्रत को रवि प्रदोष के रुप में जाना जाता है.

    ऎसे में अलग-अलग दिन पड़ने वाले प्रदोष की महिमा भी उसी के अनुरुप होती है. इसी प्रकार अन्य वार को आने वाला प्रदोष का भी अपना अलग महत्व है. पर इन कुछ दिनों में प्रदोष व्रत होने पर इसकी महिमा और अधिक बढ़ जाने वाली बतायी गई है.

    आईये जानें किस वार को कौन सा प्रदोष व्रत आता है और क्या है उस प्रदोष व्रत की महिमा :-

    सोम प्रदोष व्रत

    सोमवार जो भगवान शिव और चंद्र देव का दिन माना गया है, तो इस दिन प्रदोष व्रत का आना अत्यंत ही शुभदायक और कई गुना शुभ फलों को देने वाला होता है. यह सोने पर सुहागा की उक्ति को चरितार्थ करने वाला होता है. सोमवार को त्रयोदशी तिथि आने पर प्रदोष व्रत रखने से मानसिक सुख प्राप्त होता है, अगर चंद्रमा कुण्डली में खराब हो तो इस दिन व्रत का नियम अपनाने पर चंद्र दोष समाप्त होता है. सौभाग्य एवं परिवार के सुख की प्राप्ति होती है.

    भौम प्रदोष व्रत

    मंगलवार के दिन प्रदोषव्रत का आगमन संतान के सुख को देने वाला और मंगल दोष से उत्पन्न कष्टों की निवृत्ति प्रदान करने वाला होता है. इस दिन व्रत रखने पर स्वास्थ्य संबंधी कष्ट दूर होते हैं. क्रोध की शांति होति है और धैर्य साहस की प्राप्ति होती है. प्रदोष व्रत विधिपूर्वक करने से आर्थिक घाटे से मुक्ति मिलती है. कर्ज से यदि परेशानी है तो वह भी समाप्त होती है. रक्त से संबंधी स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्ति के लिए भौम प्रदोष व्रत अत्यंत लाभदायी होता है.

    बुध प्रदोष व्रत

    बुधवार के दिन आने वाले प्रदोष व्रत को सौम्य प्रदोष, सौम्यवारा प्रदोष, बुध प्रदोष कहा जाता है. इस दिन व्रत करने से बौद्धिकता में वृद्धि होती है. वाणी में शुभता आती है. जिन जातकों की कुण्डली में बुध ग्रह के कारण परेशानी है या वाणी दोष इत्यादि कोई विकार परेशान करता है तो उसके लिए बुधवार के दिन प्रदोष व्रत करने से शुभ लाभ प्राप्त होते हैं, बुध की शुभता प्राप्त होती है. छोटे बच्चों का मन अगर पढा़ई में नहीं लग रहा होता है तो माता-पिता को चाहिए की बुध प्रदोष व्रत का पालन करें इससे लाभ प्राप्त होगा.

    गुरु प्रदोष व्रत

    बृहस्पतिवार/गुरुवारा के दिन प्रदोष व्रत होने पर गुरु के शुभ फलों को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं. बढ़े बुजुर्गों के आशीर्वाद स्वरुप यह व्रत जातक को संतान और सौभाग्य की प्राप्ति कराता है. व्यक्ति को ज्ञानवान बनाता है और आध्यात्मक चेतना देता है.

    शुक्र प्रदोष व्रत

    शुक्रवार के दिन प्रदोष व्रत होने पर इसे भृगुवारा प्रदोष व्रत के नाम से भी पुकारा जाता है. इस दिन व्रत का पालन करने पर आर्थिक कठिनाईयों से मुक्ति प्राप्त होती है. व्यक्ति के जीवन में शुभता एवं सौम्यता का वास होता है. इस व्रत का पालन करने पर सौभाग्य में वृद्धि होती है और प्रेम की प्राप्ति होती है.

    शनि प्रदोष व्रत

    शनिवार के दिन त्रयोदशी तिथि होने पर शनि प्रदोष व्रत होता है. शनि प्रदोष व्रत का पालन करने से शनि देव का आशीर्वाद प्राप्त होता है. कुंडली में मौजूद शनि दोष या शनि की साढे़साती अथवा ढैय्या से मिलने वाले कष्ट भी दूर होते हैं. शनि प्रदोष व्रत द्वारा पापों का नाश होता है. हमारे कर्मों का फल देने वाले शनिमहाराज की कृपा प्राप्त होती है. कार्यक्षेत्र और व्यवसाय में लाभ पाने के लिए भी शनि प्रदोष व्रत अत्यंत असरकारी होता है.

    रवि प्रदोष व्रत

    त्रयोदशी तिथि के दिन रविवार होने पर रवि प्रदोष व्रत होता है. इस दिन को भानुवारा प्रदोष व्रत के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन भगवान शिव की अराधना के साथ-साथ सूर्य देव की उपासना भी करनी अत्यंत शुभ फलदायी होती है. ये व्रत करने से आपको जीवन में यश ओर कीर्ति की प्राप्ति होती है. राज्य एवं सरकार से लाभ भी मिलता है. यदि किसी कारण से सरकार की ओर से कष्ट हो रहा हो या पिता से अलगाव अथवा सुख की कमी हो तो, इस रवि प्रदोष व्रत को करने से सुखद फलों की प्राप्ति होती है. कुण्डली में अगर किसी भी प्रकार का सूर्य संबंधी दोष होने पर इस व्रत को करना अत्यंत लाभदायी होता है.

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