वैशाख अमावस 2025, इन उपायों से मिलेगी पितृदोष से मुक्ति

वैशाख अमावस्या का पर्व वैशाख माह की अमावस्या तिथि के दिन मनाया जाता है. वैशाख अमावस्या के दिन पवित्र नदियों में स्नान करने व धर्म स्थलों पर जाकर दान-जप-तप इत्यादि करने का भी विशेष महत्व माना गया है.

वैशाख अमावस्या पूजा मुहूर्त

इस वर्ष वैशाख अमावस्या 27 अप्रैल 2025 के दिन मनाई जाएगी. अमावस्या का आरंभ 27 अप्रैल को आरंभ होगी और 28 अप्रैल 2025 को अमावस्या तिथि की समाप्ति होगी.

वैशाख अमावस्या में पूजा एवं उपासना पद्धति

वैशाख अमावस्या के दौरान कई प्रकार के कृत्य किये जाते हैं. इन में से प्रमुख कार्य अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान एवं उनके निम्मित तर्पण का कार्य करना है. अमावस्यअ के दिन प्रातः सूर्योदय के पूर्व उठ जाना चाहिये. यदि आप ऎसे स्थान पर रहते हैं जहां कोई नदी या सरोवर है तो वहां जाकर स्नान करना चाहिये. यदि ऎसा संभव न हो सके तो घर पर ही स्नान करना चाहिए. स्नान करते समय पानी में गंगाजल, हल्दी व तिल डालकर – स्नान करना चहिए.

स्नान करने के उपरांत श्री हरि का स्मरण करना चाहिये व अपने ईष्ट देव को नमस्कार करना चाहिए. अपने घर के वरिष्ठ सदस्यों बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए. सूर्य को तांबे के लोटे में जल अर्पित करना चाहिए. सूर्य देव को नमस्कार करने व अर्घ्य देन के पश्चात अपने पितरों को याद करना चाहिये.

  • जल में तिलों को प्रवाहित करना चाहिए या फिर दान करना चाहिए.
  • पितरों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण एवं उपवास करना चाहिये.
  • गरीब व अस्मर्थ लोगों को खाने की वस्तुएं दान करनी चाहिए.
  • वैशाख अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष की जड़ पर दूध एवं जल चढ़ाना चाहिए.
  • संध्या के समय पीपल के वृक्ष के नीचे सरसों के तेल का चौमुखी दीपक जलाना चाहिए.
  • ब्राह्मणों को भोजन एवं सामर्थ्य अनुरुप वस्त्र एवं धन इत्यादि दक्षिणा स्वरुप प्रदान करना चाहिये.

क्यों आवश्यक है वैशाख अमावस्या में पितृ कार्य और क्या है इसका लाभ ?

अमावस्या के दिन पितरों के निमित्त तर्पण के विषय में कहा गया है की जो भी व्यक्ति अपने पितरों के समक्ष तर्पण का कार्य नहीं करता है उसके पितरों को कष्ट प्राप्त होता है. व्यक्ति को पितृदोष भी लगता है. गरुण पुराण के अनुसार जब तक पितरों का श्राद्ध न किया जाए तब तक उनकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती है. ऎसे में अमावस्या के दिन पितृ तर्पण के कार्य को प्रधानता दी जाती है क्योंकि अमावस्या पितरों का दिन होता है. इस संदर्भ में एक पौराणिक कथा अनुसार भगवान श्रीराम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध एव तर्पण कार्य किया था. राम के द्वारा किये गए इस कार्य द्वारा ही उनके पिता दशरथ को मुक्ति प्राप्ति हुई और वे स्वर्ग लोक की ओर प्रस्थान कर पाते हैं.

इसके अतिरिक्त यदि किसी व्यक्ति की कुण्डली में पितृदोष का निर्माण होता है, परिवार में सदैव कलेश रहता है, संतान का सुख नही मिल पा रहा है, जीवन में हमेशा सुख और सफलता कोसों दूर रहते हैं, तो उस स्थिति में यदि अमावस्या के दिन अगर पितृदोष के उपाय किये जाएं तो यह बहुत कारगर सिद्ध होते हैं ओर व्यक्ति को बहुत सी सकारात्मकता प्राप्त होती है.

वैशाख अमावस्या कथा

वैशाख अमावस्या के साथ बहुत सी कथाएं संबंधित हैं जिनमें से एक कथा इस प्रकार है -प्राचीन समय की बात है, एक नगर में धर्मवर्ण नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था. वह ब्राहमण शुद्ध एवं सात्विक प्रवृत्ति का था. निर्धन होते हुए भी वह मन-कर्म एवं वचन द्वारा सदैव शुभ कर्मों को करने में लगा रहता था. उसके पास जो भी व्यक्ति आता ह उसकी सदैव मदद करता था. साधु संतों एवं ऋषिओं के प्रति वह सदैव नतमस्तक होता था. वह सत्संग में भी शामिल हुआ करता था.

एक बार किसी सत्संग में उसने यह बात सुनी की कलियुग में श्री विष्णु के स्मरण मात्र से ही व्यक्ति के समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं और हरी सुमिरन करने से समस्त शुभ फलों की प्राप्ति होती है. धर्मवर्ण के मन को यह बात घर कर गयी. उसने श्री हरी के स्मरण को मन में सदैव के लिए बसा लिया और वानप्रस्थ को अपना कर सांसारिक जीवन से मुक्त हो कर, सन्यास धारण किया. अपने भ्रमण काल के दौरान वह पितृलोक को जा पहुंचा. जहां वह देखता है की उसके पितरों को बहुत कष्ट मिल रहा होता है.

धर्मवर्ण जब अपने पितरों से इस कष्ट का कारण पूछता है, तो पितर बताते हैं कि उसके सांसारिक जीवन को त्याग देने व गृहस्थ का पालन न करने से उसके वंश की वृद्धि नहीं हो पाई और इस कारण पितृ कष्ट भोग रहे हैं. यदि धर्मवर्ण की संतान नहीं होगी तो कौन उसके पितरों के लिए पिंडदान का कार्य करेगा. हम यहां भटकते रह जाएंगे हमारी सदगति नहीं होगी. इसलिए हमारी मुक्ति हेतु तुम गृहस्थ जीवन का पालन करो और हमारी मुक्ति का मार्ग खोलो और आने वाली वैशाख अमावस्या के दिन विधि-विधान से हमारा पिंडदान करो. धर्मवर्ण को जब इन बातों का बोध होता है तो वह अपने पितरों को वचन देता है. वह सन्यास को त्याग कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते हुए सांसारिक कार्यों को पूरा करने लगता है. उसकी संतानों की उत्पति और वैशाख माह में किये गए पिण्डदान द्वारा उसके पितृ मुक्ति प्राप्त करते हैं.

वैशाख अमावस्या के दिन व्रत के दौरान रखें अपने खान पान का पूरा ध्यान

इस दिन अमावस्या के दिन यदि व्रत नियम धारण कर रहे हैं तो इसके लिए जरुरी है की शुद्धता एवं सात्विकता को अपने भीतर जरुर लाएं. यह वह समय है जब देह के साथ साथ मन का पवित्र होना भी अत्यंत आवश्यक होता है. धर्म शास्त्रों एमं मन, वचन और कर्म की शुद्धता को सदैव ही प्रमुखता दी गई है. इस पवित्रता में भी सबसे महत्वपूर्ण स्थान मन की पवित्रता को दिया गया है. मानसिक रुप से किया गया शुद्ध तप हमारे अंत:करण को शुद्ध करता है और हमारी आत्मा को भी पवित्रता से भर देता है. यदि व्रत न रख पाएं तो इस दिन जितना सात्विक आहार लिया जाए उतना ही शरीर में मौजूद अपवित्रता में कमी आती है. यह स्थिति तन एवं मन दोनों की शुद्धता को प्रभावित करने वाली होती है.

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वैशाख संक्रान्ति 2025

भारत में संक्रांति का पर्व बड़े ही उल्लास के साथ मनाया जाता है. किसी भी माह की सूर्य संक्रांति के दिन किया गया दान अन्य शुभ दिनों की तुलना में दस गुना पुण्य देता है. इसी श्रृंखला में आती है वैशाख माह की संक्रांति. इस वर्ष वैशाख संक्रांति के समय सूर्य, 14 अप्रैल, 2025, 21:15 मिनिट पर मेष राशि में प्रवेश करेंगे.

वैशाख संक्रांति पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में तुला लग्न में प्रवेश करेगी. इस संक्रान्ति के स्नान, दान आदि का पुण्य़काल होगा. इस मास में प्रतिदिन श्री विष्णु सहस्त्रनाम एवं “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का पाठ करने का विशेष महत्व होता है.

वैशाख संक्रान्ति पुण्य काल मुहूर्त
वैशाख संक्रान्ति सोमवार 14 अप्रैल, 2025 को 03:30 प्रवेश होगा 
वैशाख संक्रान्ति पुण्य काल सुबह से आरंभ होगा 

वैशाख संक्रांति को सतुआ संक्रांति भी कहा जाता है. इस दिन लोग जल से भरा घड़ा, पंखा और सत्तू दान करते और खाते हैं. वैशाख मास में नित्यप्रति प्रात: काल सूर्योदय से पूर्व शुद्ध जल में स्नान करने, तीर्थाटन करने, यथाशक्ति अनाज, वस्त्रों, फलादि का दान करने का विधान व महत्व कहा गया है. यह विधान करने वाले व्यक्ति के जीवन से रोग-शोक दूर होते है. आरोग्य, धन, सम्पदा इत्यादि सुखों की प्राप्ति होती है. यह तन-मन और आत्मा को शक्ति प्रदान करता है. इस समय पवित्र नदियों में स्नान और दर्शन सभी पुण्यदायक फल प्रदान करने वाला माना गया है.

वैशाख संक्रांति पूजा

संक्रांति व्रत का विशेष महत्व होता है. वर्ष में क्रमानुसार आने वाली प्रत्येक संक्रांति को व्रत उपवास आदि का पालन करना चाहिए. संक्रांति समय स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान की मूर्ति स्थापित करके गणेश एवं अन्य देवताओं का पूजन करके सूर्य नारायण भगवान का षोडशोपचार पूजन, संकल्पादि कृत्यों के साथ पूजन करना चाहिए. यह पूजा विधि क्रम का नाश करने में सहायक है. सुख-संपत्ति, आरोग्य, ज्ञानादि की प्राप्ति होती है और शत्रुओं का मान-मर्दन होता है.

संक्रांतियों में उपवास तथा स्नान करने मात्र से व्रती प्राणी संपूर्ण पापों से छुटकारा पा लेता है. धर्म ग्रंथों के अनुसार स्वयं ब्रह्माजी ने कहा है कि वैशाख संक्रांति भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाली है. वैशाख संक्रांति में केवल जलदान करके ही कई गुना शुभ फल प्राप्त किए जा सकते हैं.

वैशाख संक्रांति महत्व

हिन्दु पंचाग के अनुसार वैशाख मास वर्ष का दूसरा माह होता है. मान्यता है कि इस समय भगवान की पूजा, ध्यान और पवित्र कर्म करना बहुत शुभ होता है. भगवान का स्मरण इस काल में बहुत पुण्य देता है. वैशाखी संक्रांति के दिन तिलों से युक्त जल से व्रती लोग स्नान करते हैं. अग्नि में तिलों की आहुति देते हैं, मधु तथा तिलों से भरा हुआ पात्र दान में भी दिया जाता है. इसी प्रकार के महत्वपूर्ण विधि-विधान का विस्तृत विवरण धर्म ग्रंथों में दिया गया है.

हिन्दू पंचांग अनुसार वैसाख संक्रांति धार्मिक और लोक मान्यताओं में बहुत ही शुभ है. वैशाख संक्रांति में काशी कल्पवास, नित्य क्षिप्रा, स्नान-दान, दर्शन, सत्संग, धर्म ग्रंथों का स्मरण, संयम, नियम, उपवास आदि के संकल्प के साथ तीर्थवास का महत्त्व होता है. वैशाख संक्रांति के उपलक्ष पर प्रति वर्ष हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु महादेव का आशीर्वाद प्राप्त कर पुण्य कमाते हैं.

वैशाख संक्रांति पर रखें इन नियमों का ध्यान

वैशाख संक्रान्ति के समय पर कई सारे धार्मिक कृत्य किए जाते हैं. इस मास के दौरान मौसम में गर्माहट अधिक होने लगती है. इस स्थिति में मौसम के इस रुप और बदलाव को लेकर धार्मिक स्वरुप में भी कई नियम बताए गए हैं जो न केवल धर्म ही नहीं अपितु वैज्ञानिक तर्क की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं.

इस महीने में गरमी की मात्रा लगातार तीव्र होती जाती है और कई प्रकार के संक्रमण और रोग भी बढ़ने लगते हैं. इस लिये इस संक्रान्ति समय पर किए गए खान पान एवं पूजा पाठ से इन सभी समस्याओं से बचाव होता है.

संक्रांति पर किया जाता है जल का दान इस समय पर स्थान स्थान पर लोगों के लिए पानी की व्यवस्था की जाती है. जिससे सभी का कल्याण एव विकास संभव हो सके. इस मौसम में मसाले एवं तामसिक भोजन का त्याग करना चाहिए. अधिक तेल और मसाले वाली चीजों को खाने से बचना चाहिये.

इस मौसम में जितना संभव हो सके रसदार फलों का सेवन करना चाहिये व पानी की अधिक मात्रा को ग्रहण करना चाहिये. इस मौसम में सत्तू के उपयोग पर भी अधिक बल दिया जाता है. अपनी दिनचर्या में शुद्धता एवं सरलता का असर डालना चाहिये. इस मौसम में अधिक समय तक सोने से भी बचना चाहिये. दिन में सोने की समय सीमा को कम करने की कोशिश करनी चाहिये.

वैशाख संक्रांति में पूजा पाठ और नियम

वैशाख संक्रांति के दिन प्रात:काल उठ कर अपने ईष्ट का ध्यान करना चाहिये. प्रयत्न करना चाहिये कि सदैव ही इस माह में सूर्योदय के पूर्व उठ कर ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कार्य संपन्न कर लिया जाए. जल में तिल डाल कर भी स्नान किया जा सकता है. भगवान श्री हरि का नाम स्मरण करना चाहिये. गंगा नदी, सरोवर या शुद्ध जल से स्नान करने के बाद शुद्ध साफ वस्त्र धारण करके भगवान का पूजन करना चाहिये. शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिये. इसके बाद संक्रांति के महात्मय का भी पाठ करना चाहिये.

संक्रान्ति के समय सूर्य उपासना का महत्व बहुत होता है. इस समय सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, इसलिए इस समय के दौरान सूर्य पूजन करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. यह सौर मास का आरंभ समय भी होता है. सूर्य को जल चढ़ाना चाहिये और सूर्य की पूजा करनी चाहिये. आदित्यहृदय स्त्रोत का पाठ करना चाहिये और सूर्य के नामों को स्मरण करना चाहिये.

धर्म ग्रंथों का पाठ अवश्य करना चाहिये. संक्रांति समय भागवत कथा का पाठ करना चाहिये. भगवान को मौसम अनुकूल फल-फूल अर्पित करने चाहिये. संक्रान्ति के पुण्यकल समय दान एवं पूजा का कार्य अवश्य करना चाहिये.

वैशाख संक्रांति महात्म्य

संक्रांति अर्थात एक संचरण होना . प्रकृति के एक बदलाव का रुप संक्रांति भी है. इस अवसर पर सूर्य का राशि परिवरत्न होना सौर वर्ष के लिहाज से अत्यंत ही महत्वपूर्ण होता है. इसी के साथ ये बदलाव मौसम पर भी अपना असर अवश्य छोडता है. ऎसे में वैशाख संक्रांति का दिन सृष्टि में मौजूद सभी जीवों पर अपना प्रभाव भी डालता है. इसलिए इस दिन सूर्य उपासना का महत्व बहुत होता है और इस संक्रांति के दिन किये गए दान पुण्य का फल अंजाने में किये गए पापों की शांति करता है और साथ ही शारीरिक मानसिक आध्यात्मिक मजबूती देता है. पुराणों में संक्रांति के दिन किए गए दान और स्नान द्वारा सहस्त्रों यज्ञों के करने के समान फल प्राप्त होता है.

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वैशाख पूर्णिमा 2025 – करें इन कामों को मिलेगा मोक्ष

वैशाख पूर्णिमा का उत्सव रोशनी से भरपूर और हर दिशाओं को प्रकाशित करने वाला त्यौहार है. पूर्णिमा का समय “ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय ॥” इन पंक्तियों को चरितार्थ करने जैसा है. यह वह समय होता है जब अंधकार का पूर्ण नाश होता है और प्रकृति एवं जीवन में चारों ओर प्रकाश ही प्रवाहित होता है. पूर्णिमा का समय आध्यतमिक और वैज्ञानिक दोनों ही विचारों में एक अत्यंत ही प्रभावशाली समय होता है.

जहां वैज्ञानिक इस समय को प्रकृति के होने वाले बदलावों ओर चंद्रमा की आकर्षण शक्ति से जोड़ते हैं, वहीं धार्मिक स्तर पर भी यह समय चंद्रमा-प्रकृति और मनुष्य के संबंध में होने वाले बदलावों को भी दर्शाता है. ऎसे में इस समय की उपयोगिता और प्रभाव को समझने के लिए हमें किसी प्रकार के विरोधाभास पर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है.

वैशाख पूर्णिमा में करें चंद्रमा का पूजन

पूर्णिमा पूजन में चंद्रमा के पूजन को महत्व दिया गया शास्त्रों में वर्णित है कि पूर्णिमा समय चंद्रमा अपनी समस्त कलाओं से पूर्ण होता है. संपूर्ण रुप में होने पर सृष्टि को आलोकित करता है. चंद्रमा जल तत्व है ऎसे में उसका पृथ्वी पर सभी जीवों, वनस्पति इत्यादि चीजों पर भी असर पड़ता है. ऎसे में इस समय के दौरान हम पृथ्वी पर मौजूद जल पर भी इसका खास प्रभाव देखते ही है. जैसे की समुद्रों का पानी किस प्रकार इस समय के दौरान ज्वार भाटे की स्थिति में दिखाई देता है. ऎसे में जब शरीर की बात की जाए तो शरीर में भी अधिकांश हिस्सा जल का मौजूद होने के कारण यह भी प्रभावित होता है.

इस समय के दौरान जब हम अपनी उर्जा को ध्यान और साधना द्वारा संतुलित करने का प्रयास करते हैं तो यह हआरे लिए अत्यंत ही शुभदायक हो जाता है. इस समय के दौरान जब हम चंद्रमा का पूजन करते हैं तो यह उसकी ऊर्जा से साथ खुद को जोड़ने की प्रक्रिया होती है.

चंद्रमा के पूजन में रात्रि समय चंद्रमा को अर्घ्य प्रदान करना चाहिए. उसके समक्ष दीपक जलाने चाहिये. चंद्रमा की रोशनी में खड़े होकर “ ऊँ अमृतंग अन्गाये विधमहे कलारुपाय धीमहि, तन्नो सोम प्रचोदयात ।” मंत्र का जाप करना चाहिये. चंद्रमा का संबंध मानसिक रुप से सदैव ही रहा है. ऎसे में जब चंद्रमा की रोशनी में कुछ समय के लिए वहां खड़े होकर जब इन मंत्रों का उच्चारण किया जाए या फिर शांत होकर वहां बैठा भी जाए तो यह क्रिया शारीरिक संचार को बेहतर बनाने में बहुत सहयोग देती है.जीवन में दरिद्रता अथवा अकाल मृत्यु का भय भी समाप्त होता है.

वैशाख पूर्णिमा समय अन्य पर्व

वैशाख पूर्णिमा भगवान बुद्ध जन्म समय

वैशाख पूर्णिमा पर भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था. इस कारण इस तिथि का दिन और भी अधिक महत्वपूर्ण बन जाता है. यह समय बुद्ध को ज्ञान मता है जिसका प्रचार संसार भर में हुआ और आज विश्व भर में इस दिन को भगवान गौतम बुद्ध के जन्मदिवस के रुप में भी मनाया जाता है. भगवान बुध को श्री विष्णु भगवान के मुख्य अवतारों में से एक भी माना गया है. इस कारण भारतवर्ष में इस दिन को बुद्ध पूर्णिमा के रुप में भी उत्साह के साथ मनाया जाता है.

वैशाख पूर्णिमा के दिन छिन्नमस्तिका जयंती

इस दिन देवी छिन्नमस्तिका का पूजन भी होता है. इसी दिन शक्ति के इस रुप की जयंती मनाई जाती है. माता छिन्नमस्तिका का पूजन करके भक्त अपने सभी संकटों से मुक्ति पाता है. छिन्नमस्तिका जयंती के दिन सधना एवं सिद्धी की प्राप्ति का एक अत्यंत ही उत्तम दिन माना जाता है. इस अवसर पर शक्ति पिठों पर विशेष पूजा अर्चना होती है. ऎसे में वैशाख पूर्णिमा का दिन अत्यंत ही शुभ फलदायी बनता है.

प्रकृति का संचरण ग्रहों की शक्ति, भगवान के आशीर्वाद एवं शक्ति की संस्थापना द्वारा ही हो पाता है. ऎसे में यह एक अवसर इन संपूर्ण का संगम बन कर त्रिवेनी रुप लेता है और इस पावन अवसर के दिन यदि भक्त अपनी सामर्थ्य अनुसार जो कुछ भी जप-तप-दान इत्यादि करता है. उस सभी का इस सृष्टि पर एवं स्वयं उस पर गहरा प्रभाव पड़ता है.

वैशाख पूर्णिमा का महात्म्य

धर्म शास्त्रों एवं पौराणिक आख्यानों में पूर्णिमा तिथि के विषय में बहुत सी कथाएं और रहस्यों का पता चलता है. यह तिथि अत्यंत शुद्धता, पवित्रा और शुभ फल देने वाली मानी गई है. वैशाख मास की पूर्णिमा पर पूरे मास में चले आ रहे धार्मिक कृत्यों को यहीं पर आकर ठहराव मिलता है. यह समय वैशाख माह के समय जो भी त्यौहार हुए, वर मनाए गए और स्नान-दान के कार्य किये गए उन सभी का अंतिम स्वरुप इस पूर्णिमा पर आकर संपूर्ण होता है.

पौराणिक ग्रंथों के आधार पर कहा जाता है कि यदि संपूर्ण वैशाख माह के नियमादि न कर पाएं तो वैशाख पूर्णिमा के दिन पूजा उपासना एवं दान कार्य कर लेने से ही सहस्त्र गायों के दान करने जितना फल प्राप्त होता है. एक महीने से चला आ रहा वैशाख स्नान एवं विशेष धार्मिक अनुष्ठानों का समापन इस पूर्णिमा के अवसर पर होता है. इस समय पर दान और तप की महत्ता को भी दर्शाया गया है. सभी स्थानों जो भी आध्यात्मिक स्थल हैं वहां पर इस अवसर बहुत बड़े स्तर पर पूजा अर्चना एवं यज्ञ-हवन किए जाते हैं और वैशाख माह की समाप्ति का समय पूर्ण होता है.

स्कंद पुराण, भविष्य पुराण, इत्यादि में वैशाख पूर्णिमा और इस तिथि के बारे में भी बताया गया है. इस दिन गंगा में स्नान करने की बहुत ही महत्वता बताई गयी है. इसके अलावा पवित्र धार्मिक स्थलों प्रयाग राज त्रिवेणी में इस स्नान करने की बात कहीं गयी है. नदी सरोवरों में स्नान करने के पश्चात सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है उस के बाद दीपक जलाए जाते हैं और दान इत्यादि का विशेष महत्व बताया गया है. धर्मराज के निमित्त आज के दिन प्रसाद बांटा जाता है. ऎसा करना गौदान के समान फल देने वाला कहा गया है.

वैशाखी पूर्णिमा के दिन पर यदि कलश भर कर गुड़ अथवा तिलों का दान किया जाए तो वह दान पूर्व जन्मों के पापों का नाश करता है. अनजान में हुए गलत कर्मों से मुक्ति दिलाने वाला बनता है.

वैशाख पूर्णिमा के अवसर पर श्री विष्णु की प्रतिमा के सामने घी का चौमुखी दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए. इस्के अलावा गाय के घी से भरा हुआ पात्र, नारियल, तिल को पूजा में रखने से कष्टों का निवारण होता है. मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है. इस दिन तिल के तेल का दीपक तुलसी के पौधे के सामने भी जलाना चाहिए.

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चैत्र अमावस्या 2025

हिन्दू पंचांग अनुसार चैत्र माह की अमावस्या इस वर्ष 29 मार्च 2025 को मनाई जाएगी. चैत्र में आने वाली कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को उपवास एवं पितरों की शांति हेतु पूजा पाठ एवं दान इत्यादि किया जाता है. चैत्र अमावस्या पर धर्म स्थलों एवं पवित्र नदी में स्नान करने का भी बहुत धार्मिक महत्व माना गया है.

चैत्र अमावस्या से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें

चैत्र माह की अमावस्या एक बहुत ही महत्वपूर्ण तिथि होती है. इस के साथ ही उन कार्यों का आरंभ हो जाता है जो शक्ति प्राप्ति, तंत्र, मंत्र एवं आद्यात्मिक विकास के लिए सहायक बनते हैं. इस अमावस्या के दौरान जो भी साधक अपनी शक्ति एवं ऊर्जा में वृद्धि करने का प्रयास करता है उसके लिए आगे के रास्ते खुलते जाते हैं.

चैत्र अमावस्या में पूजा पाठ के साथ में तपस्या का एवं रात्रि जागरण का भी महत्व होता है. पर ध्यान देने योग्य बात यह होती है की इस रात्रि

जागरण को वहीं लोग करते हैं जो शक्ति उपासना एवं गृहस्थ से अलग होकर अपनी साधना को करते हैं.

अमावस्या तिथि को तंत्र की पूजा एवं मंत्र सिद्धि के लिए उपयोगी माना गया है. ऎसे में चैत्र अमावस्या के दिन किया गया तंत्र अनुष्ठान प्रभावशाली असर डालने वाला भी होता है. अमावस्या की रात्रि किसी भी खास तरह की सिद्धि को जागृत करने के लिए बहुत विशेष मानी जाती है.

चैत्र अमावस्या में किए जाने वाले कार्य

  • चैत्र अमावस्या के दिन प्रात:काल उठ कर स्नान कार्यों से मुक्त होकर भगवान सूर्य को जल चढ़ाना चाहिए.
  • दक्षिणाभिमुख होकर दिवंगत पितरों के लिए पितृ तर्पण करना चाहिए.
  • श्री विष्णु भगवान का पूजन करें और शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिए.
  • पितृस्तोत्र या पितृसूक्त का पाठ करना चाहिए.
  • पीपल के पेड़ पर कच्ची लस्सी, गंगा जल चढ़ाना चाहिए.
  • पीपल पर काले तिल, चीनी, चावल, जल तथा फूल चढ़ाने चाहिये.
  • गाय को रोती अथवा हरा चारा खिलाना चाहिए.
  • तुलसी का पूजन करना चाहिए और तुलसी पर लाल धागा बांधना चाहिए.
  • इस दिन संध्या समय घर के ईशान स्थान पर गाय के घी का दीपक जलाना चाहिए.
  • एक दीपक घर के मुख्य द्वार पर भी जलाना चाहिए.
  • आचरण में शुद्धता और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए.

चैत्र अमावस्या पर नहीं करें ये काम

  • अमावस्या पर मांस मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • तामसिक भोजन एवं शराब इत्यादि के सेवन से बचना चाहिए.
  • प्रेम प्रसंग से दूर रहना चाहिए.
  • सुनसान स्थान पर जाने से बचना चाहिए.
  • किसी के द्वारा दी गई सफेद चीज का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • साफ सफाई का ध्यान रखना चाहिए.

चैत्र अमावस्या पर करने वाले उपाय

चैत्र कृष्ण पक्ष की अमावस्या को कुछ स्थानों में भूत अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है. इस अमावस्या के दिन सुबह आटे की गोलियां बनाएं ओर किसी नदी या जलाश्य जिसमें मछलियां हों वहां डाल देनी चाहिए इस उपाय को करने से आपके जीवन में जो भी नकारात्मक हो वह दूर होती जाती है.

  • अमावस्या के दिन पक्षियों को अनाज डालना चाहिए.
  • चींटियों को चीनी व आटा खिलाना चाहिए.
  • गरीबों को वस्त्र भोजन इत्यादि चीजों का दान करना चाहिए.
  • जिन जातकों पर काल सर्प का प्रभाव बना हुआ हो उन लोगों के लिए इस दिन पूजा विशेष रुप से करनी चाहिए.
  • कालसर्प दोष की शांति के लिए शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिए. नाग देव की पूजा करनी चाहिए.
  • चांदी से बने नाग-नागिन जोड़े का पूजन करके इन्हें बहते हुए जल में प्रवाहित कर देने से काल सर्प शांति होती है.

चैत्र अमावस्या के दिन पितरों के लिए कैसे करें पूजा

गरुड़ पुराण के अनुसार इस अमावस्या का दिन पितरों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है.
किसी भी प्रकार के पितृदोष होने पर अगर अमावस्या तिथि के दिन पितरों का पूजन किया जाए व उनके लिए व्रत इत्यादि अनुष्ठान किया जाता है. मान्यता है कि अमावस्या तिथि के दिन पितर पृथ्वी आते हैं और इस दिन उनके निमित्त किया गया भोजन व दान पाकर वह अपने को वंश वृद्धि और सुख शांति का आशीर्वाद देते हैं.

सुबह के समय सूर्यदेव को जल चढ़ाते समय ‘ॐ पितृभ्य: नम:’ मंत्र का जाप करना चहिए.

पितरों के लिए दक्षिणाभिमुख होकर पितृ तर्पण करना चाहिए.

पितरों के लिए व्रत भी किया जा सकता है.

पितृस्तोत्र या पितृसूक्त का पाठ करना चाहिए.

‘ॐ पितृभ्य: नम:’ मंत्र का जाप करना चाहिए.

चैत्र अमावस्या का ज्योतिषिय महत्व

ज्योतिष के नजरिये से अमावस्या के दिन चंद्रमा को कमजोर माना गया है. इस दिन समय जन्म लेने वाले जातक की कुंडली में चंद्रमा का बल कमजोर रहता है और चंद्रमा के प्रभाव से मानसिक रुप से व्यक्ति में निर्णय लेने की क्षमता उचित रुप से काम नहीं कर पाती है. वह भावनाओं में जल्द बहने वाला और दूसरों की बातों में आने वाला होता है.

इस कारण इस दिन चंद्रमा की पूजा करने से कुंडली में मौजूद कमजोर चंद्रमा का दोष कम होता है. इसी के साथ इस दिन शिवलिंग पूजन करने और गरीबों को दूध से बने खाद्य पदार्थ खिलाये जाएं तो चंद्रमा की शुभता प्राप्त होती है. इसी कारण से पवित्र नदियों में स्नान और पूजा पाठ इत्यादि कार्यों को इस दिन विशेष रुप से करने कि सलाह दी जाती है जिससे की नकारात्मक ऊर्जा समाप्त हो और हम सभी के भीतर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना रहे.

चैत्र अमावस्या तिथि महत्व

पौराणिक धार्मिक मान्यता अनुसार अमावस्या तिथि के दिन यदि गंगा इत्यादि पवित्र नदियों में स्नान कियअ जाए तो व्यक्ति को कष्टों से मुक्ति मिलती है और पुण्य प्राप्त होता है. पवित्र नदी में स्नान करके पितृ तर्पण करना, सूर्य को अर्घ्य देना व इसके बाद ब्राह्म्णों को सामर्थ्य अनुसार भोजन कराने से पितरों को शांति मिलती है और पापों का नाश होता है. अमावस्या के दिन तिल का दान करना बहुत उपयोगी होता है.इसके अतिरिक्त गरीबों में खीर बांटना भी बहुत अच्छा माना जाता है.

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सोम प्रदोष व्रत 2025, इस एक व्रत से पूर्ण होंगे सभी मनोरथ

प्रदोष तिथि के दिन सोमवार का दिन पड़ने पर सोम प्रदोष व्रत कहलाता है. सोम प्रदोष व्रत के दिन प्रात:काल समय भगवान शिव का पूजन होता है. प्रत्येक माह की दोनों पक्षों की त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत करने का विधान रहा है. ऎसे में हर एक प्रदोष समय किसी न किसी दिन के पड़ने पर प्रदोष व्रत को उस दिन के साथ जोड़ दिया जाता है.

2025 में कब होगा सोम प्रदोष व्रत

27 जनवरी 2025
23 जून 2025
03 नवंबर 2025
17 नवंबर 2025

सोम प्रदोष व्रत करने से संपूर्ण कामनाएं पूरी होती हैं. व्यक्ति के सभी कार्य भी पूरे होते हैं. सोम प्रदोष व्रत के समय भक्त को भगवान शिव का संपूर्ण विधि विधान से पूजन करने समस्त कार्य सिद्ध होते हैं. शास्त्रों में प्रदोष व्रत को सर्वसुख प्रदान करने के अलावा परम कल्याणकारी व्रत कहा गया है. इस व्रत में भक्ति एवं शुद्ध चित्त के साथ पूजा अर्चना करनी चाहिए. सोमवार के दिन प्रदोष व्रत होने पर सुबह-सवेरे ब्रह्म मुहूर्त समय जागना चाहिये. के बाद स्नान इत्यादि अपने नित्य कार्यों से मुक्त होकर भगवान शिव का ध्यान करना चाहिये.

सोम प्रदोष व्रत कथा

सोमवार के दिन प्रदोष व्रत करने के साथ ही प्रदोष व्रत की कथा को सुनना भी बहुत ही शुभदायक होता है. सोम प्रदोष कथा को पढ़ने व सुनने से व्रत का फल बढ़ जाता है. सोम प्रदोष व्रत के विषय में कुछ पौराणिक कथाओं का उल्लेख प्राप्त होता है. जिसमें से एक कथा यहां दी जा रह है जो इस प्रकार है.

प्राचीन समय की बात है एक नगर में एक विधवा ब्राह्मण स्त्री निवास करती थी, उसके पति का स्वर्गवास बहुत पहले ही हो गया था. वह अकेली ही अपने पुत्र के साथ रहती और उनका अन्य कोई आश्रयदाता नहीं था. उसके पास पेट भरने के लिए भी कोई साधन या काम नहीं था. इसलिए वह भीक्षा द्वारा ही अपना और अपनी संतान का पालन करती थी. वह नियमित रुप से प्रातः काल समय ही अपने पुत्र के साथ भीख मांगने निकल पड़ती थी. भिक्षाटन ही उसके लिए एक मात्र विकल्प रह गया था और इसी से वह खुद का और अपने बेटे का पेट पालती थी.

अपनी इसी दिनचर्या में एक दिन भिक्षाटन के लिए निकली ब्राह्मणी, जब अपने घर की और वापस लौट रही होती है तो उस समय मार्ग में उसे एक बालक दिखाई पड़ता है. वह बालक घायल होता है और दर्द से तड़प रहा होता है. उस बालक को देख कर ब्राह्मणी के मन में दया आती है और वह उस बालक को अपने साथ घर ले आती है. उस बालका खूब ध्यान रखती है और अपनी सामर्थ्य अनुसार उसका उपचार भी करती है.

वह बालक विदर्भ देश का राजकुमार होता है. उसके शत्रुओं ने उसके देश पर हमला कर दिया होता है.शत्रु उसके राज्य को अपने अधिकार में लेकर उसके पिता को बंदी बना लेते हैं. किसी तरह राजकुमार बच निकलता है और दर-दर भटकने लगता है. इसी बीच ब्रह्मणी से उसकी भेंट होती है और वह उस ब्राह्मणी और उसके पुत्र के साथ रहने लगता है.

राजकुमार बिना अपनी पहचान बताए वहां लम्बे समय तक रहता है. एक बार एक अंशुमति नामक गंधर्व कन्या की दृष्टि उस राजकुमार पर पड़ती है. उस राजकुमार के रुप सौंदर्य व गुणों पर वह गंधर्व कन्या मोहित हो जाती है और उससे विवाह करने का निश्चय कर लेती है.

अंशुमति, राजकुमार के समक्ष अपने प्रेम का इजहार करती है. राजकुमार को अपने माता-पिता से मिलवाने के लिए बुलाती है. अंशुमति के माता-पिता को राजकुमार पसंद आ जाता है. कुछ दिनों बाद अंशुमति के माता-पिता को भगवान शिव स्वप्न में आकर उन्हें बेटी के विवाह करने का आदेश देते हैं. गंधर्व दंपति अपनी पुत्री के राजकुमार से विवाह की अनुमति प्रदान करते हैं. राजकुमार का अंशुमति के साथ विवाह संपन्न होता है.

गरीब ब्राह्मणी सदैव ही प्रदोष व्रत करने का नियम पालन करती थी. उसके इस प्रदोष व्रत के प्रभाव से गंधर्व राज की सहायता से राजकुमार अपने राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए निकल पड़ता है और शत्रुओं पर हमला करने उन्हें अपने राज्य से निकल देता है. राजकुमार को अपना राज्य पुन: प्राप्त होता है. अपने राज्य को पा लेने के बाद वह वहां का राजा बनता है और ब्राह्मणी के पुत्र को अपना राजमंत्रि नियुक्त करता है. प्रदोष व्रत के माहात्म्य से जैसे राजकुमार और ब्राह्मण-पुत्र के दिन फिरे, वैसे ही शंकर भगवान अपने सभी भक्तों के दिन भी फेरते हैं.

सोम प्रदोष व्रत से पाएं चंद्र ग्रह की शुभता

नव ग्रहों में चंद्रमा को एक महत्वपूर्ण एवं शीतलता से युक्त ग्रह माना गया है. चंद्रमा हमारे शरीर और मन मस्तिष्क पर प्रभावशाली रुप से असर डालता है. अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में चंद्रमा शुभ फल नहीं दे रहा है या निर्बल है, शुभ नहीं है, तो इस स्थिति में सोम प्रदोष व्रत अत्यंत ही प्रभावशाली उपाय होता है. चंद्र ग्रह की शांति में इस सोम प्रदोष व्रत का प्रभाव अवश्य फलिभूत होता है.

सोम प्रदोष व्रत उद्यापन विधि

सोम प्रदोष व्रत के बारे में धर्म शास्त्रों में बहुत कुछ लिखा गया है. इस व्रत की महिमा और इसे कैसे किया जाए इन सभी को लेकर पौराणिक धर्म शास्त्रों में कई नियम और विधान लिखे गए हैं. शिवपुराण व स्कंद पुराण इत्यादि में भी इसके बारे में विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है. इस व्रत के विधान में 11 या 26 प्रदोष व्रत करने के उपरांत इस व्रत का उद्यापन किया जा सकता है. व्रत के बाद उद्यापन के एक दिन पहले यानी प्रदोष व्रत से पूर्व द्वादशी तिथि के दिन से ही इस का आरंभ शुरु कर देना चाहिये. गणेश भगवान का पूजन करना चाहिये. षोडशोपचार विधि से पूजन करते हुए भगवान शिव का व माता पार्वती का पूजन व रात्रि जागरण किया जाता है.

त्रयोदशी प्रदोष दिन में उद्यापन के दिन सुबह सूर्योदय से पूर्व उठ कर स्नान इत्यादि के पश्चात साफ स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिये. चौकी पर लाल वस्त्र बिछा कर भगवान शिव व माता पार्वती की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये. विधि-विधान से पूजा करनी चाहिये और सोम प्रदोष व्रत की कथा पढ़नी व सुननी चाहिये. इसके पश्चात भगवान की आरती पश्चात भोग लगाना चाहिये. भोग को सभी में बांटना चाहिये. सामर्थ्य अनुसार एक, पांच या सात ब्राह्मणों को भोजन करा कर दान दक्षिणा प्रदान करनी चाहिये. इसके बाद परिवार समेत भोग खुद भी ग्रहण करना चाहिये.

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दमनक चतुर्थी 2025 : दमनक चतुर्थी कब और क्यों मनाई जाती है

भगवान गणेश जी को प्रसन्न करने के लिये दमनक चतुर्थी का पर्व मनाया जाता है. चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को यह पर्व मनाया जाता है. इस वर्ष 01 अप्रैल 2025 को दमनक चतुर्थी का उत्सव मनाया जाएगा. भगवान श्री गणेश जी को दमनक नाम से भी पुकारा जाता है. इस कारण से चैत्र माह के शुक्ल पक्ष कि चतुर्थी को गणेश दमनक चतुर्थी भी कहा जाता है.

भगवान श्री गणेश सभी संकटों का हरण करने वाले हैं, सभी दुख कलेश का नाश करने वाले है इसलिए इस दमनक चतुर्थी के दिन भगवान गणेश जी का व्रत एवं पूजन करने से सभी कष्टों का दमन होता है. शत्रुओं का नाश होता है.

दमनक चतुर्थी कथा

दमनक चतुर्थी से जुड़ी एक प्राचीन कथा भी है. इस कथा अनुसार एक नगर में राजा राज्य करता था. राजा के दो पत्नियां थी और उन दोनों के एक-एक पुत्र भी थे. एक रानि के पुत्र का नाम गणेश था और दूसरी रानी के पुत्र का नाम दमनक था. दोनों बच्चों का बहुत अच्छे से लालन-पालन होता है. परंतु एक प्रकार का अंतर दोनों के साथ रहता था. जब गणेश अपने ननिहाल जाता था तो उसके ननिहाल में सभी उसे बहुत प्रेम करते थे और उसका बहुत ख्याल रखा जाता था. लेकिन दूसरी ओर दमनक जब भी अपने ननिहाल जाता थो उसको वहां पर प्रेम नहीं मिलता था, उसके मामा और मामियां उससे घर के काम करवाते और उसके साथ बुरा व्यवहार किया करते थे.

जब दोनों बच्चे अपने ननिहाल से घर वापिस आते तब गणेश तो अपने साथ ढेर सारा सामान लाता था पर दमनक को उसके ननिहाल से कुछ भी नहीं मिलता था. वह खालिहाथ ही लौट आता था. इसी प्रकार दोनों अपने सुख दुख को भोगते हुए बड़े होते हैं. दोनों का विवाह होता है और दोनों अपनी बहुओं के साथ अपने-अपने ससुराल जाते हैं. गणेश के ससुराल में उसका बहुत सम्मान होता है और उसे बहुत से पकवान एवं मिठाइयां खिलाई जाती हैं.

दमनक जब अपने ससुराल जाता, तब उसके ससुराल वाले उसकी कोई खास खातिरदारी नहीं करते हैं और उसे सोने के लिए भी स्थान नहीं देते हैं और बहाने से उसे घोड़ों के सोने की जगह पर जाकर सोने को कहते हैं.

गणेश अपने ससुराल से तो बहुत कुछ सामान लेकर आता है लेकिन दमनक खालीहाथ ही वापिस आता है उसे कुछ भी नहीं मिलता है. उन दोनों की स्थिति को बुढिया को पता थी क्योंकि वह उन्हें बचपन से देखती आ रही थी. बुढि़या को दमनक की स्थिति पर बहुत दया आती थी वह इससे दुखी होती थी. एक बार शाम के समय भगवन शिव और माता पार्वती संसार की दुख सुख को जानने के लिए पृथ्वी पर आते हैं, तो वह बुढि़या उनके मार्ग में आकर उन्के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी हो जाती है. बुढि़या गणेश और दमनक के बारे में भगवान को सारा किस्सा बता देती है. वह भगवन से पूछती है की आखिर क्यों बचपन से ही कभी भी दमनक को अपने ननिहाल से सुख नहीं मिल पाया और अब युवा अवस्था में उसे ससुराल पक्ष से भी तिरस्कार ही सहन करना पड़ रहा है.

भगवान शिव तब उन्हें बताते हैं कि गणेश ने पिछले जन्म में जो ननिहाल से लेकर आता था उसे वह वापिस भी उन्हें कर देता था. किसीन भी तरह से या फिर मामा-मामी की संतानों को कुछ न कुछ देकर वापिस कर देता था. इसी तरह से ससुराल में भी उसने जो अपने पुर्व जन्म में लिया था वह उसने सभी कुछ वापिस भी दे दिया था. इसी कारण उसे आज भी अपने इस जन्म में अपने ननिहल ओर ससुरल पक्ष से बहुत सारा आदर और सम्मान प्राप्त होता है.

दूसरी ओर दमनक अपने पूर्व जन्म में जो भी अपने ननिहाल व ससुराल पक्ष से पाता है उसको कभी वापिस नहीं करता था. किसी न किसी कारण से या अपने काम काज के चलते वह उनको कुछ भी नही दे पाया ऎसे में इस जन्म में उसे ननिहाल और ससुराल पक्ष से कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ और उसके हर जग अपेक्षा ही होती रही है.

हमे हमेशा किसी से प्राप्त हुई वस्तु को अवश्य लौटाने की कोशिश जरुर करनी चाहिए किसी का हक या कोई भी वस्तु नहीं लेनी चाहिए. यदि किसी से प्रेम वश प्राप्त भी हो तो कोशिश करनी चाहिए की उसे किसी न किसी रुप में वापिस किया जा सके. भाई से प्राप्त हुई वस्तु को उसकी संतानों को, मामा से खाने पर मामा की संतानों को वह लौटा देना चाहिये, अगर ससुराल से कोई वस्तु खाते हैं तो उसे साले की संतान को लौटा देना चाहिये क्योंकि जिसका जो भी खाया है, उसको लौटा देने पर दोबारा और दुगना मिलता है. अगर वापिस किया जाए तो उसका भुगतान करना पड़ता है.

गणेश पूजन विधि

दमनक चतुर्थी के दिन भगवान श्री गणेश जी का पूजन किया जाता है. इस दिन प्रात:काल उठते हू भगवान श्री गणेश जी का स्मरण करना चाहिए और उनके 11 नामों का स्मरण अवश्य करें. . एकदंत, गजकर्ण, लंबोदर, कपिल, गजानन, विकट, विघ्नविनाशक, विनायक, भालचन्द्र, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष. भगवान के नाम स्मरण के पश्चात स्नान इत्यादि कार्यों से निवृत होकर पूजन का आरंभ करना चाहिए.

भगवान गणेश जी के सम्मुख बैठ कर ध्यान करें और पुष्प, रोली ,अक्षत आदि चीजों से पूजन करें और विशेष रूप से सिन्दूर चढ़ाएं तथा दूर्बा अर्पित करनी चाहिए. गणेश जी को लड्डू प्रिय हैं उन्हें यह चढ़ाने चाहिये. गणेश जी के मंत्र ॐ चतुराय नम: , ॐ गजाननाय नम: , ॐ विघ्रराजाय नम: ॐ प्रसन्नात्मने नम: का जाप करना चाहिए.

गणेश जी की मूर्ती को स्नान कराना चाहिये. गंगाजल और पंचामृत से स्नान कराकर शुद्ध जल से स्नान करवाना चाहिये. इसके बाद मंदिर में मूर्ति को स्थापित करना चाहिये. श्रद्धा पूर्वक भगवान के समक्ष पुष्प चढ़ाने चाहिये. चन्दन, रोली, सिन्दूर,अक्षत से भगवान का तिलक करना चाहिये. ,फूल माला पहनानी चाहिये.आभूषण एवं सुगन्धित पदार्थ अर्पित करने चाहिये. धूपबत्ती, कपूर, दीपक जलाने चाहिये. भगवान की कथा करनी चाहिये और उसके बाद आरती करके पूजन संपन्न करना चाहिये. आरती पश्चात भगवान को भोग लगाएं और अपने द्वारा भगवान से घर परिव एवं संसार के कल्याण की कामना करनी चाहिये.

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अनंग त्रयोदशी व्रत 2025 : प्यार में सफलता का मंत्र

चैत्र शुक्ल पक्ष को अनंग त्रयोदशी का उत्सव मनाया जाता है. इस वर्ष अनंग त्रयोदशी 10 अप्रैल 2025 में गुरुवार के दिन मनाया जाएगा. अनंग त्रयोदशी के दिन अनंग देव का पूजन होता है. अनंग का दूसरा नाम कामदेव है. इस दिन भगवान शिव का पूजन बहुत ही बड़े पैमाने पर संपन्न होता है.

चैत्रोत्सवे सकललोकमनोनिवासे।

कामं त्रयोदशतिथौ च वसन्तयुक्तम्।।

पत्न्या सहाच्र्य पुरुषप्रवरोथ योषि।

त्सौभाग्यरूपसुतसौख्ययुत: सदा स्यात्।।

चैत्र माह में अनंग उत्सव का आयोजन बहुत ही सुंदर एवं मनोहारी दिवस होता है. इस समय पर मौसम भी अपनी अनुपम छटा लिये होता है. इस दिन घरों के आंगन में रंगोली इत्यादि बनाई जाती है. त्रयोदशी तिथि का अवसर प्रदोष समय का भी होता है. इस दिन यह दोनों ही योग अत्यंत शुभ फलदायक होते हैं. अनंग त्रयोदशी का उपवास दाम्पत्य में प्रेम की वृद्धि करता है. गृहस्थ जीवन का सुख व संतान का सुख प्राप्त होता है.

पुराणों में भी दिन की महत्ता को दर्शाया गया है. इस दिन अनंग देव का पूजन करने से भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है. यह समय वसंत के सुंदर रंग से सजे इस उत्सव की शोभा अत्यंत ही प्रभावशाली है.

अनंग त्रयोदशी का व्रत स्त्री व पुरूष सभी किए लिए होता है. जो भी व्यक्ति जीवन में प्रेम से वंचित है उसके लिए यह व्रत अत्यंत ही शुभदायक होता है. भगवान शंकर की प्रिय तिथि होने के कारण और उन्ही के द्वारा अनंग को दिये गए वरदान स्वरुप यह दिवस अत्यंत ही महत्वपूर्ण हो जाता है. सौभाग्य की कामना के लिए स्त्रियों को इस व्रत का पालन अवश्य करना चाहिये. इस व्रत के प्रभाव से जीवन साथी की आयु भी लम्बी होती है और साथी का सुख भी प्राप्त होता है.

अनंग त्रयोदशी पूजा विधि

अनंग का एक अन्य नाम कामदेव हैं. अनंग अर्थात बिना अंग के, जब भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया तो रति द्वारा अनंग को जीवत करने का करुण वंदन सुन भगवान ने कामदेव को पुन: जीवन प्रदान किया. किंतु बिना देह के होने के कारण कामदेव का एक अन्य नाम अनंग कहलाया है. इस दिन शिव एवं देवी पार्वती जी का पूजन किया जाता है.

इस पूजन द्वारा सौभाग्य, सुख ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है. इसके साथ जीवन में प्रेम की कभी कमी नहीं रहती है. इस दिन पूजन करने से वैवाहिक संबंधों में सुधार होता है. प्रेम संबंध मजबूत होते हैं. इस दिन कामदेव और रति का भी पूजन होता है. इस त्रयोदशी का व्रत करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है.अनंग त्रयोदशी का पर्व महाराष्ट्र और गुजरात में बहुत व्यापक स्तर में मनाया जाता है.

इसके अलावा दिसंबर माह में आने वाली अनंग त्रयोदशी को मुख्य रूप से उत्तर भारत में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है. अनंग त्रयोदशी के दिन गंगाजल डालकर सर्वप्रथम सुबह स्नान करना चाहिए. साफ शुद्ध सफ़ेद कपड़े पहनने चाहिये. भगवान शिव का नाम जाप करना चाहिए. गणेश जी की पूजा करनी चाहिये और श्वेत रंग के पुष्प अर्पित करने चाहिये. इसके अलावा पंचामृत, लड्डू, मेवे व केले का भोग चढ़ाना चाहिये. शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिये. साथ ही दूध, दही, ईख का रस, घी और शहद से भी अभिषेक करना चाहिये. इसके साथ ही “ॐ नमः शिवाय” मंत्र का जाप करते रहना चाहिये.

भगवान शिव को सफेद रंग की वस्तुएं अर्पित करनी चाहिये. इसमें सफेद वस्त्र, मिठाई, बेलपत्र को चढ़ाना चाहिये. इस पूजन में तेरह की संख्या में वस्तु भी भेंट कर सकते हैं जिसमें तेरह सिक्के, बेलपत्र, लडडू, बताशे इत्यादि चढ़ाने चाहिये. पूजा में अशोक वृक्ष के पत्ते और फूल चढ़ाना बहुत शुभ होता है. साथ ही घी के दीपक को अशोक वृक्ष के समीप जलाना चाहिये. इस मंत्र का जाप करना चाहिये – “नमो रामाय कामाय कामदेवस्य मूर्तये। ब्रह्मविष्णुशिवेन्द्राणां नम: क्षेमकराय वै।।”

यदि संभव हो सके तो व्रत खना चाहिये इसमें फलाहार का सेवन किया जा सकता है. रात्रि जागरण करते हुए अगले दिन पारण करना चाहिये. इसमें ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिये और धन इत्यादि दक्षिणा स्वरुप भेंट देना चाहिये.

अनंग त्रयोदशी व्रत कथा

दक्ष प्रजापति के यज्ञ में सती के आत्मदाह के बाद, भगवान शिव बहुत व्यथित होते हैं. वह सती के शव को अपने कंधे पर उठा कर चल पड़ते हैं. ऎसे में सृष्टि के संचन पर अवरोध दिखाई पड़ने लगता है और विनाशकारी शक्तियां प्रबल होने गती हैं. भगवान शिव पर से सती के भ्रम को खत्म करने के लिए, भगवान विष्णु ने उसके शव को खंडित कर दिया और तब, भगवान शिव ध्यान में लग गए.

दूसरी तरफ दानव तारकासुर के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे. उसने देवलोक पर आक्रमण किया और देवराज इंद्र को पराजित कर दिया. सभी भगवान उनकी हालत से परेशान थे. इंद्र का राज्य छिन जाने पर वह देवताओं समेत मदद के लिए भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचे. भगवान ब्रह्मा ने इस पर विचार किया और कहा कि केवल भगवान शिव का पुत्र ही तारकासुर का वध कर सकता है. यह सुनकर सभी चिंतित हो गए क्योंकि भगवान शिव सती से अलग होने के शोक में ध्यान कर रहे थे. भगवान शिव को जगाना और उनका विवाह करवाना सभी देवताओं के लिए असंभव था.

कामदेव ने भगवान शिव को त्रिशूल से जगाने का फैसला किया. कामदेव सफल हुए और भगवान शिव की समाधि टूट गई. बदले में, कामदेव ने अपना शरीर खो दिया. क्योंकि भगवान के तीसरे नेत्र के खुलते ही कदेव का शरीर भस्म हो गया. जब सभी ने भगवान शिव को तारकासुर के बारे में बताया, तो उनका गुस्सा कम हो गया और उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ.

भगवान ने रति को बताया कि कामदेव अभी भी जीवित हैं लेकिन, शरीर रुप में नहीं है. भगवान शिव ने उसे त्रयोदशी तक प्रतीक्षा करने को कहा. उन्होंने कहा, जब विष्णु कृष्ण के रूप में जन्म लेंगे, तब कामदेव, कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेंगे. इस प्रकार कामदेव को पुन: जीवन प्राप्त होता है.

अनंग त्रयोदशी: कंदर्प ईश्वर दर्शन

कामदेव को कंदर्प के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन उज्जैन के कंदर्प ईश्वर के दर्शन करना बहुत पुण्यदायी माना जाता है. जो भक्त यहां आते हैं और भगवान शिव के दर्शन करते हैं, उन्हें देव लोक में स्थान मिलता है.

जब भगवान शिव ने प्रद्युम्न के रूप में कामदेव को वापस पाने के बारे में रति को बताया, तो उन्होंने यह भी कहा कि जो व्यक्ति अनंग त्रयोदशी का व्रत सुव्यवस्थित तरीके से करेगा, उसे सुखी वैवाहिक जीवन मिलता है उनके वैवाहिक जीवन में शांति, खुशी और धन का आगमन होता है. इस व्रत का पालन करने से संतान का सुख मिलता है.

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नारद जयंती 2025 : सफल होंगे सभी काम

नारद मुनि जी को ब्रह्मा जी का मानस पुत्र कहा जाता है. इस वर्ष नारद जयंती 13 मई 2025 को शनिवार के दिन मनाई जाएगी. इस नारद जयंती के उपलक्ष्य पर देश भर में कई तरह के धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है.

नारद मुनी को सदैव भ्रमण शील होने का वरदान मिल हुआ था. इसलिए वह कभी भी एक स्थान पर अधिक समय नहीं रहते. ज्येष्ठ माह के कृष्‍ण पक्ष की द्व‍ितीया को नारद जयंती के रुप में मनाई जाती है. हिन्‍दू शास्‍त्रों के अनुसार नारद को ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माना गया है. नारद को देवताओं का ऋष‍ि माना जाता है. इसी वजह से उन्‍हें देवर्षि भी कहा जाता है. मान्‍यता है कि नारद तीनों लोकों में विचरण करते रहते हैं.

देवर्षि नारद व लोक कल्याण भावना

नारद मुनि भगवान श्री विष्णु के भक्त और सदैव नारायण नारायण नाम का स्मरण करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहते हैं. देवर्षि नारद भक्ति और शक्ति का अदभुत समन्वय रहे हैं. यह सदैव लोक कल्याण के प्रचार और प्रसार को अविरल गति से प्रवाहित करने वाले एक महत्वपूर्ण ऋषि भी हैं.

शास्त्रों के अनुरुप सृष्टि में एक लोक से दूसरे लोक में विचरण करते हुए नारद मुनि सभी के कष्टों को प्रभु के समक्ष रखते हैं. सभी जन की सहायता करते हैं. देवर्षि नारद देव और दैत्यों सभी में पूजनीय स्थान प्राप्त करते हैं. सभी वर्ग इनका उचित सम्मान करते हैं. क्योंकि ये किसी एक पक्ष की बात नहीं करते हैं, अपितु सभी वर्गों को साथ में लेकर चलने की इनकी अवधारणा ही इन्हें सभी का पूजनीय भी बनाती है.

वेद एवं पुराण में ऋषि नारद जी के संदर्भ में अनेकों कथाएं प्राप्त होती है. हर स्थान में इनका होना उल्लेखनिय भूमिका दर्शाता है. शिवपुराण हो या विष्णु पुराण, भागवद में श्री विष्णु स्वयं को नारद कहते हैं. रामायण के संदर्भ में भी इन्हीं की भूमिका सदैव प्रमुख रही. देवर्षि नारद धर्म को एक बहुत ही श्रेष्ठ प्रचार रुप में जाना गया है.

नारद मुनि का वीणा गान और ग्रंथों के निर्माता

नारद मुनी के पास उनका प्रमुख संगीत वाद्य वीणा है.इस वीणा द्वारा वह सभी जनों के दुखों को दूर करते हैं. इस वीणा गान में वह सदैव नारायण का पाठ करते नजर आते हैं. अपनी वीण के मधुर स्वर से वह सभी के कष्टों को दूर करने में वह सदैव ही अग्रीण रहे.

नारद जी को ब्रह्मा से संगीत की शिक्षा प्राप्त हुई थी. नारद अनेक कलाओं और विद्याओं में निपुण रहे. नारद मुनी को त्रिकालदर्शी भी बताया जाता है. ब्रह्मऋषि नारद जी को शास्त्रों का रचियता, आचार्य, भक्ति से परिपूर्ण, वेदों का जानकार माना गया. संगीत शास्त्र में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है.

नारद मुनि द्वारा किये गए कार्य

नारद मुनी के अनेकों कार्यों का वर्णन मिलता है जो सृष्टि के संचालन में महत्व रखता है. श्री लक्ष्मी का विवाह विष्णु के साथ होना, भगवान शिव का देवी पार्वती से विवाह संपन्न कराना, उर्वशी और पुरुरवा का संबंध स्थापित करना. महादेव द्वारा जलंधर का विनाश करवाना. वाल्मीकि को रामायण की रचना निर्माण की प्रेरणा देना. व्यासजी से भागवत की रचना करवाना. इत्यादि अनेकों कार्यों को उन्हीं के द्वारा संपन्न होता है.

हरिवंश पुराण अनुसार जी दक्ष प्रजापति के हजारों पुत्रों बार-बार संसार से मुक्ति एवं निवृत्ति देने में नारद जी की अहम भूमिका रही. उन्हीं के वचनों को सुनकर दक्ष के पुत्रों ने सृष्टि को त्याग दिया. मैत्रायी संहिता में नारद को आचार्य के रूप में स्थापित किया गया है.

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चैत्र पूर्णिमा 2025 : शुभ संयोग, जानें इसकी महिमा और पूजा कथा विधि की विस्तारपूर्वक

चैत्र माह की पूर्णिमा तिथि को चैत्र पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है. चैत्र की पूर्णिमा को चैती पूर्णिमा, चैत पूर्णिमा, चैती पूनम आदि नामों से पुकारा जाता है. इस वर्ष 12 अप्रैल 2025 को चैत्र पूर्णिमा का त्यौहार मनाया जाएगा. चैत्र पूर्णिमा का दिन हिन्दु पंचांग में एक बहुत ही खास दिन होता है. इस दिन पवित्र नदियों में स्नान और धर्म स्थलों में जाकर दान पुण्य एवं पूजा पाठ करने का बहुत ही शुभ एवं अमोघ फलदायक प्रभाव माना जाता है.

चैत्र पूर्णिमा: हनुमान जन्मोत्सव

चैत्र पूर्णिमा के शुभ दिन में सभी ओर माहौल भक्तिमय सा होता है. दक्षिण भारत में इस दिन को भगवान हनुमान जी के जन्म उत्सव के रुप में मनाते हैं. हनुमान जयंति कि तिथि के संबंध में दो मत बहुत अधिक प्रचलित हैं एक मत अनुसार चैत्र शुक्ल पूर्णिमा के दिन हनुमा जयंती मनाई जाती है और दूसरे मत अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन हनुमान जयंती मनाई जाती है.

चैत्र पूर्णिमा को हनुमान जयंती का विचार दक्षिण भारत में अधिक मान्य रहा है. जबकि उत्तर भारत में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमान दिवस की मान्यता रही है. दोनों ही मतों के अनुसार श्री हनुमान भगवान जी का जन्म महानिशा काल समय हुआ था. इसलिए ये दोनों ही मत प्रचलित एवं मान्य रहे हैं.

चैत्र पूर्णिमा के दिन सत्यनारायण कथा पूजन

चैत्र पूर्णिमा के दिन भगवान श्री सत्यनारायण जी का पूजन एवं कथा करने से बहुत शुभ एवं सकारात्मक फल प्राप्त होते हैं. इस दिन भगवान सत्यनारायण की कथा का पठन-पाठन होता है. सत्यनारायण कथा, हवन एवं यज्ञ किया जाता है.

चैत्र पूर्णिमा : चंद्रमा का पूजन

चैत्र पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के पूजन का विशेष महत्व होता है. पूर्णिमा तिथि के दौरान चंद्रमा अपनी संपूर्ण कलाओं से युक्त होता है. धार्मिक मान्यताओं एवं शास्त्रों में पूर्णिमा तिथि के दिन चंद्रमा का पूजन करने से सुख और सौभाग्य की प्राप्ति होती है. इस दिन चंद्रमा की किरणों से अमृत तुल्य रोशनी पृथ्वी पर पहुंचती है. जिसका सेवन सभी को करना चाहिए. चंद्रमा के प्रकाश की शीतलता इस दिन अत्यधिक होती है. विशेष अनुष्ठानों एवं मंत्र सिद्धि के लिए भी पूर्णिमा तिथि को बहुत ही प्रभावशाली समय माना गया है. मानसिक शांति एवं एकाग्रता की प्राप्ति के लिए पूर्णिमा तिथि के दिन चंद्रमा का पूजन अवश्य करना चाहिए.

चैत्र पूर्णिमा के दिन रात्रि के समय कच्चे दूध-जल और चीनी का मिश्रण बना कर चंद्र देव को चढ़ाना चाहिए. ॐ सों सोमाय नम: मंत्र का जाप करते हुए जल अर्पित करना चाहिए. इसके साथ ही चंद्रमा की आरती और चंद्रमा के मंत्र जाप करते हुए पूजन करना चाहिए. चंद्रमा की रोशनी में कुछ समय ध्यान लगाना चाहिए. जिन लोगों की कुण्डली में चंद्र ग्रह से संबंधित कोई परेशानी उत्पन्न होती है या जिन बच्चों में एकाग्रता का अभाव है उन्हें इस दिन विशेष रुप से चंद्र देव का पूजन करना चाहिए. खीर का भोग पूर्णिमा के दिन चंद्र देव को अवश्य लगाना चाहिए और खीर को गरीबों में बांटना चाहिये.

चैत्र पूर्णिमा : वैशाख स्नान का आरंभ

चैत्र पूर्णिमा के दिन से ही वैशाख स्नान का आरंभ भी होता है. चैत्र पूर्णिमा के बाद वैशाख माह का आरंभ होता है. अत: पूर्णिमा तिथि के साथ ही वैशाख माह में किए जाने वाले धार्मिक कृत्यों में से एक वैशाख स्नान के शुरुआत का समय होता है. इस दिन से वैशाख माह महात्म्य का आरंभ होता है. पूरे एक माह चलने वाले धार्मिक क्रिया कलापों एवं दान, जप तप इत्यादि को इसी चैत्र पूर्णिमा के दिन से शुरु कर दिया जाता है.

वैशाख माह की जो भी उपयोगिता है और जो भी काम इस दौरान करने चाहिये उन सभी के नियमों की शुरुआत इसी चैत्र पूर्णिमा के दिन से मानी जाती है. चैत्र शुक्ल पूर्णिमा से वैशाख मास स्नान आरंभ हो जाता है. यह पूरे माह तक चलता है. स्कंदपुराण में वैशाख मास के समय स्नान के महत्व को बहुत ही सुंदर रुप् से वर्णित किया गया है. वहीं भगवन श्री कृष्ण स्वयं वैशाख माह की महत्ता को भी बताते हैं. जो भी व्यक्ति चैत्र पूर्णिमा के दिन से पूरे वैशाख मास तक स्नान, व्रत, जप तप एवं दान का कार्य करते हैं उन्हें भगवान विष्णु का कृपा प्राप्त होती है. अंत में व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है.

चैत्र पूर्णिमा में दीप दान का महत्व

चैत्र पूर्णिमा की रात्रि में दीप दान का भी बहुत महत्व रहता है. इस दिन रात में असंख्य दीपों को जला कर पवित्र नदियों में प्रवाहित करने से कामनाएं पूर्ण होती है. घरों एवं मंदिरों में दीपक जलाए जाते हैं.

चैत्र पूर्णिमा के दिन ब्रज में होता है महारास

चैत्र पूर्णिमा के दिन पौराणिक मान्यता यह भी है की इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने ब्रज भूमि पर महारास का आयोजन किया था. भगवान कृष्ण ने राधा जी ओर गोपियों के साथ रास रचाया था, अत: आज भी इस दिन के शुभ अवसर को मथुरा व ब्रज क्षेत्र में उल्लास और उत्साह के साथ मनाया जाता है. भगवान कृष्ण की ये रासलीला आत्मा का परमात्मा के साथ एकाकार और ब्रह्म की अनुभूति को दर्शाने वाली होती है. सभी कुछ प्रभु में लिन होता है और सभी के स्वरुप में प्र्भु का स्वरुप लक्षित होता है. यही इस रासलीला का सार भी है. मथुरा, वृंदावन बृज आदि सभी प्रमुख स्थानों पर इस दिन विशेष पूजा एवं भोग का आयोजन होता है और भागवत इत्यादि का पाठ भी किया जाता है.

चैत्र पूर्णिमा पर देश भर में धूम धाम से मनाते हैं

चैत्र पूर्णिमा को संपूर्ण भारत वर्ष में उत्साह के साथ मानाया जाता है. इस उत्सव को अनेक चैती पूर्णिमा, हनुमान जी के जन्मोत्सव ओर अनेक रुपों में मनाते हैं. दक्षिण भारत में इस दिन को हनुमाना जी जन्म दिवस के रुप में मनाते हैं. चैत्र पूर्णिमा के दिन श्री सत्यनारायण कथा का आयोजन भी किया जाता है. मंदिरों एवं घरों में लोग भजन एवं किर्तन करते हैं. जगह-जगह पर भंडारों का आयोजन भी होता है.

चैत्र पूर्णिमा के अवसर पर देश भर में भव्य मेलों का आयोजन भी होता है. पवित्र नदियों एवं घाटों को सजाया जाता है. इस समय पर में कई संस्कृतियों को एकाकार देखने को मिलता है. लाखों लोग पवित्र नदियों तालाबों एवं घाटों पर जाकर स्नान एवं पूजा पाठ इत्यादि कार्य भी करते हैं. ग्रामीण क्षेत्र में इस दिन विशेष रुप से उत्साह देखा जाता है. क्योंकि कृषक वर्ग इस समय पर चना, सरसों, मटर इत्यादि फसलें तैयार कर लेता है और किसान के घर में इससे धन धान्य का आगमन भी होता है. अपनी खेती से संबंधित नई वस्तुओं को भी खरीदने का सामर्थ्य रख पाते हैं इसलिए उनके जीवन शैली में इस दिन का अत्यंत ही महत्व रहता है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन श्रद्धा एव विश्वास से मांगी गईं मुरादें भी पूरी होती हैं.

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बुद्ध पूर्णिमा 2025 – कथा और पूजा विधि

भगवान बुध के जन्म दिवस को बुद्ध पूर्णिमा के रुप में मनाए जाने की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. इस वर्ष बुध पूर्णिमा 12 मई 2025 को सोमवार के दिन मनाई जाएगी. बुद्ध पूर्णिमा को “बुद्ध जयन्ती” और “वैसाक” और “वैशाख पूर्णिमा” नामों से भी पुकारा जाता है.

बुध पूर्णिमा केवल बौद्ध धर्म के मानने वालों के लिए ही पूजनिय नहीं है, अपितु यह हिंदू धर्म में भी बहुत ही पूजनिय समय है. इसका मुख्य कारण यह है की भगवान बुध को भगवान विष्णु के अवतार रुप में देखा जाता है. भगवान बुद्ध, बौद्ध धर्म के संस्थापक रहे. बौध धर्म विश्वभर में फैला हुआ है. बौद्ध धर्म को मानने वालों की संख्या भी लाखों में है.

बुद्ध पूर्णिमा पूजन विधि

बौद्ध धर्म के अनुयायियों के अतिरिक्त हिन्दू धर्म को मानने वाले भी बहुत उत्साह के साथ मनाते हैं. ऎसे में वैशाख माह की पूर्णिमा बौद्ध धर्माम्बियों और हिन्दूओं के लिए सबसे पवित्र एवं विशेष पर्व होता है. देश भर में इस शुभ समय पर विशेष समारोह और कार्यक्रम आयोजित होते हैं.

  • श्रीलंकाई इस दिन को ‘वेसाक’ उत्सव के रूप में मनाते हैं जो ‘वैशाख’ शब्द का अपभ्रंश है.
  • इस दिन घरों में दीपक जलाए जाते हैं.
  • मंदिरों और घरों को सजाया जाता है.
  • प्रार्थनाएँ और सभाएं आयोजित होती हैं.
  • बौद्ध धर्मग्रंथों का निरंतर पाठ किया जाता है.
  • गरीबों को भोजन व वस्त्र बांटे जाते हैं ओर खाने की वस्तुओं को बांटा जाता है.

भगवान गौतम बुद्ध का जन्म समय और उनसे संबंधित कथाएं

बुद्ध जन्म कथा

गौतम बुद्ध का जन्म समय 563 ईसा पूर्व का माना गया है. बुद्ध जो सिद्धार्थ थे और एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन है. बुद्ध का जन्म लुंबिनी में इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय कुल के राजा शुद्धोधन के घर में होता है. इनकी माता का नाम महामाया था. बुद्ध के जन्म के सातवें दिन बाद इनकी माता का निधन हो जाता है. इसके पश्चात इनका लालन पालन महाप्रजापती गौतमी ने किया.

बुद्ध के जन्म का नाम सिद्धार्थ था पर जब इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, तो यह बुद्ध बने. अपनी अथक साधना के पश्चात बोध गया जो बिहार में स्थित है, उस स्थान पर बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त होता और तब से उनका नाम सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध पड़ा और वह भगवान बुद्ध कहलाए.

गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण इन्हें गौतम भी कहा गया. कहा जाता है की सिद्धार के जन्म समय एक ऋषि ने यह भविष्यवाणी की थी की या तो यह यह बालक महान राजा बनेगा या फिर एक महान तपस्वी जो विश्व का कल्याण करने वाला और मार्गदर्शक होगा. जब पिता ने इस बात को सुना और अन्य ज्योतिष विद्वानों ने भी इसी बात की पुष्टि करी तब राजा शुद्दोधन बहुत चिंतित हुए और उन्होंने सिद्धार्थ को राज भवन की सीमा के भीतर ही रखने का निर्णय किया.

आरंभिक जीवन

सिद्धार्थ गौतम की आरंभिक शिक्षा पूर्ण रुप से हुई. उन्हें वेद और उपनिषद का ज्ञान मिला, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा उन्होंने प्राप्त की. सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा के साथ विवाह हुआ. पिता शुद्दोधन द्वारा सिद्धार्थ को सभी प्रकार की सुख सिविधाएं प्रदान की गई थीं. उन्हें जीवन में किसी भी दुख का सामना करना पड़े ऎसी कोई भी स्थिति इनके समक्ष कभी भी घटित न हो पाए, इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता था. वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में सिद्धार्थ अपनी पत्नी यशोधरा के साथ रहे, जहां उन्हें पुत्र संतान की प्राप्ति हुई जिसका नाम राहुल रखा गया.

इन सभी चीजों के बावजूद भी सिद्धार्थ के मन में सदैव एक अस्थिरता मौजुद रहती थी. उनमें करुणा और दया की अनुभूति बहुत गहन थी. वह सभी पर एक प्रकार का भाव रखते थे. जीवन और उसके अस्तित्व के प्रति उनके मन में हमेशा ही चिंतन चलता रहता था.

सिद्धार्थ से बुद्ध बनने तक का सफर

सिद्धार्थ के बुद्ध बनने का सफर बहुत से पड़ावों से होकर गुजरता है. अपने जीवन के आरंभिक समय के दौरान सिद्धार्थ को उनके पिता शुद्धोधन ने उन सभी चीजों से बचाने का प्रयास किया जो सिद्धार्थ के मन को विरक्ति की ओर ले जा सकती थीं.

सिद्धार्थ के लिए सभी सुखों का भरपूर प्रबंध था. यहां तक की मौसम के अनुरुप उनके लिए महलों की व्यवस्था भी थी. महलों में दास-दासियां सदैव वहां उपस्थित रहती थीं. हर तरफ लुभावनी सौंदर्य से युक्ति वस्तुओं की भरमार थी. किसी भी प्रकार के दुख का वहां स्थान नहीं था. यहां तक की जीवन की अवस्थाओं वृद्धा अवस्था, रोग, या मृत्यु जैसी कोई बात भी वहां नहीं थी.

परंतु सिद्धार्थ का मन किसी न किसी रुप में भटकाव को भी अनुभव करता है. कहा जाता है की एक बार सिद्धार्थ अपने भवन की सीमा से परे भ्रमण के लिए निकल पड़ते हैं. ऎसे में उन्हें मार्ग के किनारे पर एक वृद्ध व्यक्ति दिखाई देता है. अपने सेवक से उस वृद्ध की इस दशा के बारे में जब सिद्धार्थ पूछते हैं तो उन्हें पता चलता है की सभी व्यक्ति एक दिन वृद्ध अवश्य होते हैं. वहीं थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्हें एक रोगी व्यक्ति दिखाई देता है. तब उनका सेवक उन्हें बताता है की किसी न किसी कारण से व्यक्ति रोगी भी हो जाता है. वहीं थोड़ा ओर आगे निकले पर उन्हें शव यात्रा दिखाई देती है जिस के पीछे बहुत से लोग रोते बिलखते जा रहे होते हैं. सेवक के बताने पर की जीवन का अंत ही मृत्यु है और सभी को एक दिन मृत्यु अवश्य प्राप्त होती हैइसके बाद उन्हें एक संत दिखाई दिया जो. मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर रहते हुए प्रसन्नमन दिखाई दिया.

सिद्धार्थ के समक्ष यह सभी दृश्य उनके जीवन का संपूर्ण रंग बदल देते हैं. उसी समय उनके मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न हो जाता है. जीवन के सच्चे मर्म को समझने और सृष्टि के रहस्यों को समझने में आगे बढ़ते हुए सन्यास का मार्ग चुनते हैं.

अपनी पत्नी यशोधरा और छोटे बच्चे राहुल को छोड़ कर, राज्य का मोह त्याग कर सिद्धार्थ निकल पड़ते हैं. अकेले ही उस ज्ञान के लिए निकल पड़ते हैं जो उनके जीवन के मार्ग को सही दिशा दे सकने में समर्थ होता है. सिद्धार्थ ज्ञान को पाने के लिए कठिन तपस्या करते हैं, वह निराहार भी रहते हैं. बुद्ध के प्रथम गुरु आलार कलाम थे, जिनसे उन्होंने संन्यास में शिक्षा ग्रहण की.

एक लम्बे समय से सिद्धार्थ वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या कर रहे थे. तपस्या के प्रभाव से उनकी देह भी कमजोर हो गयी थी. उसी स्थान पर सुजाता नामक स्त्री से जब उन्हें खीर प्राप्त होती है तो वह खीर खाकर उपवास तोड़ते हैं. कहा जाता है की यह सुजाता कन्या अपनी मनोकामना के पूर्ण होने की खुशी में उस स्थान पर आती है, जहां सिद्धार्थ तपस्या कर रहे होते हैं. सिद्धार्थ को खीर देते समय वह कहती है की जिस प्रकार मेरी मनोकामना पूर्ण हुई उसी प्रकार आपकी इच्छा भी पूर्ण हो. उस रात्रि समय सिद्धार्थ को ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह बुद्ध कहलाते हैं.

भगवान बुध का ये स्वरुप यह दर्शाता है की जीवन में त्याग एवं इच्छाओं की समाप्ति ही मोक्ष के मार्ग की ओर ले जाने में सक्षम बन सकती है.

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