चैत्र माह स्कंद षष्ठी व्रत 2024 : जानिये पूजा विधि और महत्व के बारे में विस्तार से

हिन्दू पंचांग अनुसार चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को स्कंद षष्ठी के रुप में मनाया जाता है. इस वर्ष  13 अप्रैल 2024 को शनिवार के दिन स्कन्द षष्ठी पर्व मनाया जाएगा स्कंद भगवान को अनेकों नाम जैसे कार्तिकेय, मुरुगन व सुब्रहमन्यम इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है. दक्षिण भारत में इस पर्व को विशेष रुप से मनाने की परंपरा रही है.

दक्षिण भारत में इस पर्व के अवसर पर विशेष पूजा अर्चना एवं झांकियों का आयोजन भी होता है. स्कन्द देव को भगवान शिव और देवी पार्वती का पुत्र बताया गया है. यह गणेश के भाई हैं. भगवान स्कन्द को देवताओं का सेनापति कहा गया है.

षष्ठी तिथि भगवान स्कन्द को समर्पित हैं. मान्यता है की स्कंद भगवान का जन्म इसी तिथि में हुआ था इसलिए कारण से भी इनके जन्म दिवस के रुप में भी इस तिथि को मनाया जाता है. स्कंद षष्ठी के दिन श्रद्धालु भक्ति भाव से स्कंद देव का पूजन अर्चन करते हैं और व्रत एवं उपवास रखते हैं.

कब रखते हैं स्कंद षष्ठी व्रत

स्कंद षष्ठी का पूजन एवं व्रत के संदर्भ में बहुत से मत प्रचलित हैं. धर्मसिन्धु और निर्णयसिन्धु ग्रंथों के अनुसार सूर्योदय और सूर्यास्त के मध्य में अगर पंचमी तिथि समाप्त होती हो या षष्ठी तिथि का आरंभ हो रहा हो, इन दोनों तिथि के आपस में संयुक्त हो जाने के कारण इस दिन को स्कन्द षष्ठी व्रत के लिए चयन करना उपयुक्त माना गया है.

षष्ठी तिथि का पंचमी तिथि के साथ मिल जाना स्कंद षष्ठी व्रत के लिए बहुत ही शुभ माना गया है. ऎसे समय में व्रत करने का नियम बताया गया है. इसी कारण से कई बार स्कन्द षष्ठी का व्रत पंचमी तिथि के दिन भी रखा जाता रहा है.

स्कंद षष्ठी कथा

स्कंद भगवान की कथा इस प्रकार की है – तारकासुर नामक राक्षस को वरदान प्राप्त था की उसे कोई मार नही सकता है, केवल शिव पुत्र ही उसका संहार कर सकता है. इस वरदान का लाभ उठाते हुए वह हर ओर से निर्भय होकर लोगों पर अत्याचार शुरु कर देता है. तारकासुर का प्रकोप जब चारों ओर बढ़ने लगा. वह देवताओं पर अधिकार करने और इंद्र का स्थान पाने के लिए उत्तेजित होता है, तब उस समय इंद्र समेत सभी देवता त्रिदेवों से रक्षा की गुहार लगाते हैं.

विष्णु भगवान उनकी मदद का आश्वासन देते हैं और उनके प्रयासों द्वारा भगवान शिव का विवाह माता पार्वती से संपन्न होता है. भगवान शिव और माता पार्वती अपनी शक्ति द्वारा एक दिव्य पुंज का निर्माण करते हैं, जिसे अग्नि देव अपने साथ ले जाते हैं. ऎसे में उस पुंज का ताप अग्नि सहन न कर पाने के कारण गंगा में फैंक देते हैं. गंगा भी इस तेज को सहन करमे में अक्षम होती है. गंगा उस पुंज को शरवण वन में लाकर स्थापित कर देती हैं जिसके कारण उस दिव्य पुंज से सुंदर बालक का जन्म होता है. उस वन में छह कृतिकाओं की दृष्टि जब शिशु पर पड़ती है तब वह उन्हें अपना लेती हैं और उनका पालन करने लगती हैं. कृतिकाओं द्वारा पालन होने पर ये कार्तिकेय कहलाये.

कार्तिकेय को देवताओं का सेनापति बनाया जाता है. उसके पश्चात वह तारकासुर पर हमला बोलते हैं और उसे परास्त करते हैं. तारकासुर के वध के पश्चात सभी उपद्रव शांत होते हैं और देवता पुन: शांति से अपना कार्य आरंभ करते हैं.

स्कंद भगवान का दक्षिण से संबंध

वैसे तो संपूर्ण भारत में ही स्कंद भगवान का पूजन होता है लेकिन दक्षिण भारत से स्कंद भगवान का महत्व बहुत अधिक जुड़ा हुआ है. दक्षिण भारत में इन्हें अनेकों नामों से पूजा जाता है और इनके अनेकों मंदिर भी वहां मौजूद हैं. इसके संदर्भ में एक कथा बहुत अधिक प्रचलित है जो उनके दक्षिण के साथ के संबंध को दर्शाती है.

जिसके अनुसार एक बार भगवान कार्तिकेय अपनी माता पार्वती जी और पिता भगवान शिव व भाई श्रीगणेश से नाराज होकर कैलाश पर्वत से मल्लिकार्जुन चले जाते हैं जो दक्षिण की ओर हैं. ऎसे में दक्षिण उनका निवास स्थान बनता है. वास्तु में दक्षिण दिशा का संबंध भी स्कंद (कार्तिकेय) भगवान से ही जुड़ा रहा है.

स्कंद षष्ठी पूजा कैसे करें

स्कन्द षष्ठी के दिन कुमार कार्तिकेय की पूजा की जाती है. इस पूजा में इनके समस्त परिवार का पूजन भी होता है. विधि पूर्वक पूजा करने करने से कष्टों का निवारण होता है. कोई संघर्ष हो या शत्रुओं से विजय पानी हो, इस समय स्कंद भगवान का पूजन करने से व्यक्ति को अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है.

भगवान स्कंद जो कुमार हैं, बाल रुप में हैं इसलिये इनका पूजन करना संतान के सुख में वृद्धि करने वाला होता है. बच्चों की रक्षा एवं उन्हें रोग से बचाव के लिए स्कंद षष्ठी की पूजा करना बहुत अनुकूल माना गया है.

  • स्कंद षष्ठी के दिन स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए और स्कंद कुमार (कार्तिकेय) के नाम का स्मरण करना चाहिए.
  • कार्तिकेय भगवान के पूजन में पूजा स्थल पर कार्तिक्ये की मूर्ति अथवा चित्र रखना चाहिए इसके साथ ही इनके साथ भगवान शिव, माता गौरी, भगवान गणेश की प्रतिमा या तस्वीर भी स्थापित करनी चाहिये.
  • भगवान कार्तिकेय को अक्षत्, हल्दी, चंदन से तिलक लगाना चाहिए.
  • साथ में स्थापित सभी को देवों को तिलक लगाना चाहिए.
  • भगवान के समक्ष पानी का कलश भर के स्थापित करना चाहिए और एक नारियल भी उस कलश पर रखना चाहिए.
  • पंचामृत, फल, मेवे, पुष्प इत्यादि भगवान को अर्पित करने चाहिए.
  • गाय के घी का दीपक जलाना चाहिए.
  • भगवान को इत्र और फूल माना चढ़ानी चाहिये.
  • स्कंद षष्ठी महात्म्य का पाठ करना चाहिए.
  • स्कंद भगवान आरती करनी चाहिए और भोग लगाना चाहिए.
  • भगवान के भोग को प्रसाद सभी में बांटना चाहिए और खुद भी ग्रहण करना चाहिए.

विधि प्रकार से भगवान स्कंद कुमार कार्तिकेय का पूजन करने से कष्ट दूर होते हैं और परिवार में सुख समृद्धि का वास होता है.

स्कंद षष्ठी महत्व और इसमें किये जाने वाले कार्य

धर्म शास्त्रों में स्कंद षष्ठी तिथि को संतान प्राप्ति के लिए अत्यंत उत्तम माना गया है. इस दिन भगवान कार्तिकेय का पूजन करने से नि:संतान दंपति को भी संतान का सुख प्राप्त होता है. ज्योतिष शास्त्र अनुसार यदि जन्म कुण्डली में मंगल ग्रह से अशुभ फल मिल रहे हैं तो मंगल ग्रह की अशुभता से बचने के लिए कार्तिकेय भगवान का पूजन करना अत्यंत शुभ फल देने वाला होता है. व्यक्ति को स्कंद भगवान का पूजन करने से अकाल मृत्यु के भय से मुक्ति मिलती है.

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लक्ष्मी सीता अष्टमी व्रत : विवाह सुख और आर्थिक उन्नती देता है

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को लक्ष्मी सीता अष्टमी रूप में पूजा जाता है. देवी लक्ष्मी को सीता का स्वरुप ही माना गया है दोनों का स्वरुप एक ही है ऎसे में ये दिन लक्ष्मी-सीता अष्टमी के पूजन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. लक्ष्मी सीता अष्टमी के दिन इन दोनों रुपों का पूजन हो सर्वप्रथम देवी लक्ष्मी का पूजन एवं उसके पश्चात सीता माता का पूजन करना चाहिए.

लक्ष्मी सीता अष्टमी का पौराणिक महत्व

देवी लक्ष्मी का एक रुप सीता भी है, और इस पर्व को सीता लक्ष्मी अष्टमी के रुप में भी मनाया जाता है. देवी लक्ष्मी के स्वरुप में सीता का जीवन एवं उनके संघर्ष का स्वरुप. यह पर्व सभी के समक्ष एक ऎसे आदर्श की स्थापना करता है जो सदैव के लिए पूजनिय और अविस्मरणीय बन गया है.

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, फाल्गुन माह की कृष्ण एवं शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को सीता जी के पृथ्वी पर आने के समय से जोड़ा गया है. देवी-देवताओं के अवतारों रुप में जब माता सीता के चित्रण को समझने की कोशिश करते हैं तो सर्वप्रथम उनके जन्म समय को समझने की भी आवश्यकता होती है. वेदों में हमें इस बात का अधिक पता नहीं चलता है लेकिन यदि हम पुराणों की बात करें तो उसमें हमें सीता जन्म से संबंधित अनेक कथाएं मिलती हैं वहीं जब हम लोक जीवन से जुड़ी कथाओं को देखें तो यहां भी हमें उनकी जन्म कथा के विभिन्न रुप दिखाई देते हैं.

सीता जिसे पृथ्वी से उत्पन्न माना गया और इसी कारण उन्हें ये नाम भी प्राप्त होता है. माता सीता का चरित्र हमें राम कथा में प्राप्त होता है. रामचरितमानस, श्री राम और सीता जी के जीवन पर आधारित पौराणीक ग्रंथ है. माता सीता को मिथिला नरेश राजा जनक की पुत्री बताया गया है. जनक की पुत्री होने के कारण इन्हे जानकी एवं जनकसुता इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है. मिथिला कुमारी होने के कारण इन्हें मैथिली नाम भी प्राप्त हुआ. इनका विवाह अयोध्या के नरेश राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्री राम के साथ हुआ था. उसके पश्चात जीवन में आने वाले अनेक उतार-चढा़वों को झेलते हुए इनका जीवन व्यतित हुआ. जिस प्रकार देवी सीता भूमि से उत्पन्न हुई मानी जाती हैं उसी प्रकार अपने अंत समय में भी देवी सीता पृथ्वी में ही समा जाती हैं. त्रेतायुग में इन्हें देवी सीता को माँ लक्ष्मी का अवतार माना गया है.

लक्ष्मी सीता अष्टमी पूजन कब और क्यों किया जाता है.

लक्ष्मी-सीता अष्टमी पर्व को इनके जन्म समय को भी इस समय से जोड़ा जाने के कारण यह दिवस अत्यंत उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है. प्रत्येक वर्ष इस दिन देवी सीता व देवी लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है. इस उपलक्ष पर मंदिरों में भजन एवं कीर्तन होते हैं.

लक्ष्मी सीता अष्टमी पूजन विधि

लक्ष्मी सीता अष्टमी के दिन कैसे करें पूजन और किन चीजों को भोग के लिए उपयोग में लाएं, आईये जानते हैं इस दिन के व्रत एवं पूजन की विधि विस्तार से –

सीता पूजन विधि

  • सीता-लक्ष्मी अष्टमी के दिन प्रात:काल स्नान इत्यादि कार्यों से निवृत होकर सर्वप्रथम माता सीता का स्मरण करना चाहिए.
  • देवी सीता और श्री राम जी को प्रणाम करते हुए मंदिर में उनके समक्ष दीप प्रज्जवलित करना चाहिए. व्रत करने का संकल्प लेना चाहिए.
  • पूजा में पीले रंग के वस्त्र एवं फूलों का उपयोग करना अधिक शुभ होता है. अगर पीला रंग नही हो तो जो भी आपके सामर्थ्य में है उस अनुरुप भी पूजन किया जा सकता है.
  • माता सीता के समक्ष सोलह श्रृंगार का सामान भेंट करना चाहिए. माता को सुहाग की समस्त वस्तुएं अर्पित करनी चाहिए.
  • सीता माता की आरती करनी चाहिए. श्री जानकी रामाभ्यां नमः मंत्र का 108 बार जाप करें.
  • भोग में पीली चीजों को चढ़ाएं और उसके बाद मां सीता की आरती करनी चाहिए. दूध-गुड़ से बने पदार्थों का भोग लगाना चाहिए.
  • लक्ष्मी पूजन विधि

  • देवी सीता के पूजन उपरांत देवी लक्ष्मी जी का पूजन करना चाहिए.
  • पूजन में देवी लक्ष्मी जी व श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए.
  • पूजन में पानी का कलश भर कर रखना चाहिए.
  • दूध, खीर, देवा माता को अर्पित करना चाहिए.
  • श्री लक्ष्मी एवं श्री विष्णु भगवान को वस्त्र व आभूषण अर्पित करने चाहिये.
  • अक्षत(चावल), कुमकुम, धूपबत्ती, घी का दीपक जलाएं व अष्टगंध से पूजन करना चाहिए.
  • देवी लक्ष्मी को गुलाब अथवा कमलपुष्प भेंट करना चाहिए.
  • पुष्पमाला और सुगंधित इत्र अर्पित करना चाहिए. देवी लक्ष्मी जी की आरती करनी चाहिए “ऊँ महालक्ष्मयै नमः” मंत्र का जप करना चाहिए.
  • प्रसाद में मिष्ठान एवं खीर, नारियल, पंचामृत इत्यादि का भोग लगाना चाहिए.
  • माता सीता और माता लक्ष्मी जी के पूजन के पश्चात भोग को प्रसाद रुप में सभी को बांटना चाहिए व परिवार समेत ग्रहण करना चाहिए.
  • सौभाग्य की वृद्धि करता है लक्ष्मी-सीता अष्टमी पूजन

    सीता-लक्ष्मी अष्टमी पूजन करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है. सभी आयु वर्ग की स्त्रियों के लिए एवं सुहागिन स्त्रियों के लिए यह दिन विशेष रुप से अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. सीता-लक्ष्मी अष्टमी का पूजन एवं व्रत करने से स्त्री को अच्छे वर की प्राप्ति होती है.

    सुहागिन स्त्रियों द्वारा इस दिन व्रत पूजन करने से उनके पति की आयु लंबी होती है और वह सदा सुहागिन होने का आशीर्वाद भी पाती हैं. इस दिन व्रत एवं सीता-लक्ष्मी जी का पूजन करने से संतान सुख एवं दांपत्य जीवन के सुख की प्राप्ति होती है. यदि वैवाहिक जीवन में किसी भी प्रकार की परेशानियां आ रही हैं तो इस दिन व्रत का संकल्प लेकर पूजा करने से सभी परेशानियां का अंत होता है. किसी कारण से विवाह नहीं हो पा रहा है तो इस दिन व्रत करने से मनचाहे वर की प्राप्ति का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है.

    सीता-लक्ष्मी अष्टमी का पूजन एवं व्रत वैवाहिक जीवन के कष्टों को दूर करने में अत्यंत ही प्रभावशाली उपाय बनता है.

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    जानें, कब और क्‍यों मनाते हैं गुड़ी पड़वा

    चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को गुड़ी पड़वा का त्यौहार मनाया जाता है. इस वर्ष 09 अप्रैल 2024 को मंगलवार के दिन गुड़ी पड़वा का पर्व मनाया जाएगा. गुड़ी पड़वा को हिन्दू नव संवत्सर का आरंभ समय माना जाता है. सामान्य शब्दों में कहा जाए तो यह नए साल की शुरुआत होती है. जिस तरह अंग्रेजी कैलेंडर में जनवरी 1 से नया साल शुरु होता है, उसी तरह से हिन्दू पंचांग अनुसार यह गुड़ी पड़वा नए साल का आरंभ होता है. इसे अलग अलग नामों से जाना जाता है. उत्तर भारत में इस दिन से चैत्र नवरात्र आरंभ होते हैं. आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में इस दिन को युगादि, उगादि नाम से में मनाया जाता है.

    महाराष्ट्र में यह दिन गुड़ी पड़वा कहलाता है. इस दिन घरों को इत्यादि की अच्छे से साफ-सफाई करके सजाया जाता है. रंगोली एवं तोरण से घरों को सजाया जाता है और विशेष पकवान बनाए जाते हैं. सभी लोग अपने ईष्ट देव का पूजन करते हैं. इस पर्व को बड़े ही उत्साह और विश्वास के साथ इस पर्व को मनाया जाता है.

    गुड़ी पड़वा का धार्मिक और वैज्ञानिक मत

    गुड़ी पड़वा का समय प्रकृति के बदलाव और नव चेतना के आगमन का समय होता है. इस समय पर प्रकृति में मौसम में बहुत से बदलाव देखने को मिलते हैं. इस समय के दौरन खान पान और हमारे रहन-सहन में भी बदलाव दिखाई देता है. अत: ये संक्रमण का समय भी होता है, जो बदलाव को भी दर्शाता है. इसलिए इस समय के दौरान साफ सफाई, आहार विचार सभी में एक सामंजस्यता का होना और जरुरी भी होता है.

    धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सृष्टि का निर्माण भी इसी समय के दौरान हुआ था. ब्रह्मा जी जिन्हें सृष्टि का निर्माता कहा गया है, उन्होंने इस दिन के समय पर सृष्टि की रचना आरंभ करी. इस लिए इस दिन के दौरन विशेष यज्ञ एवं धार्मिक अनुष्ठान भी किये जाते हैं. महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के दिन लोग घरों की छतों पर गुड़ी लगाते हैं.

    गुड़ी का शाब्दिक अर्थ झंड़े या पताका से लिया जाता है. मान्यता है की गुड़ी इसे लगाने से परिवार के संकट दूर होते हैं और कार्यों में सफलता भी प्राप्त होती है, लगाने की परंपरा है.

    गुड़ी पड़वा से जुड़ी कथा-

    भारत में मनाए जाने वाले सभी उत्सव, व्रत त्यौहार इत्यादि का संबंध किसी न किसी रुप से जुड़ा देखा गया है. इन सभी पर्वों के साथ कोई न कोई महत्वपूर्ण तथ्य अवश्य होते हैं. यह सिर्फ धार्मिक रुप से ही नहीं बल्कि भौगोलिक रुप से व तर्क की कसौटी पर उतरने वाले होते हैं. इसी संदर्भ में गुड़ी पड़वा के साथ बहुत सी कथाओं को जोड़ा गया है. हर कहीं किसी न किसी रुप में इस दिन के साथ कोई न कोई महत्वपूर्ण बात देखने को मिलती है.

    इस पर्व से संबंधित एक कथा इस प्रकार की रही है शालिवाहन नामक एक राजा हुए जिनके पिता का राज्य उनके सामंतों द्वारा छिन लिया गया. सामंतों ने उन के परिवार पर हमला बोल दिया और शालिवाहन को मारने का प्रयास किया. शालिवाहन अपने प्राणों की रक्षा हेतु वहां से भाग जाते हैं और भागते-भागते वे किसी जंगल में कुम्हार के घर पर आश्रय पाते हैं. कुम्हार ने उन्हें अपने घर रखा और उनका पालन किया.

    कुम्हार के द्वारा लालन पालन होने के कारण उन्हें कुम्हार माना जाने लगा पर वह क्षत्रिय थे. कहा जाता है कि शालिवाहन को देवताओं से वरदान मिला था की वह किसी भी निर्जीव मूरत में प्राण डाल सकते थे. धीरे-धीरे समय बीतता गया और एक दिन जब शालिवाहन को अपने परिवार और राज्य का ज्ञान हुआ तो वह उसे प्राप्त करने के लिए सामंतों के साथ लड़ाई करने की तैयारी करते हैं.

    शालिवाहन के पास युद्ध लड़ने के लिए न कोई सेना थी और न ही धन, तब उन्हें अपनी उस वरदान का बोध हुआ और उन्होंने मिट्टी की सेना बनाई जिसमें उन्होंने हाथी, घोड़े, सैनिक सभी हथियार बनाए. युद्ध समये आने पर शालीवाहन ने मिट्टी की सेना पर पानी के छीटें डालकर उन्हें जीवित कर दिया और युद्ध जीतकर अपना राज्य पुन: प्राप्त किया. इस के साथ ही शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन किया गया.

    एक अन्य कथा अनुसार इस दिन भगवान राम ने बाली को मार कर सुग्रीव को उसका राज्य दिलवाया और वहां की प्रजा को बाली के अत्याचारों से मुक्त किया था. बाली के अत्याचारों से मुक्त होने पर वहां के लोगों ने उत्सव मनाया और अपने घरों पर ध्वजाएं(गुडी़) फहराई. इसी प्रसंग में आज भी लोग घर के आंगन व छतों पर गुड़ी लगाते हैं.

    गुड़ी पड़वा पूजा

    गुड़ी पड़वा के कुछ दिन पहले से ही लोग तैयारियां शुरु कर देते हैं. लोग घर की साफ सफाई में लग जाते हैं. घरों को अनेकों सुंदर चीजों से सजाया जाता है. ब्रह्मा जी का पूजन किया जाता है. गुड़ी पड़वा के दिन घर पर ध्वज लगाए जाते हैं. यह धवज हर काम में सफलता दिलाने का प्रतीक बनते हैं. घर के मुख्य द्वार पर स्वास्तिक एवं मांगलिक चिन्ह बनाए या लगाए जाते हैं. लोग पारंपरिक वस्त्र पहनते हैं. भगवान सूर्य देव की पूजा की जाती है. /p>

    घर के मुख्य द्वार पर तोरण व आम के पत्तों से बनाया गया बंदवार बनाकार लगाया जाता है. इस दिन उबटन और तेल लगा कर स्नान करने की परंपरा रही है. इस दिन बनाए गए भोजन का सेवन करने से शरीर को लाभ मिलता है.

    गुड़ी पड़वा के दिन का महत्व

    गुड़ी पड़वा का दिन भारत के अलग-अलग स्थानों पर, जाकर अपने एक अलग रुप में दिखाई देता है. इन सभी में एक बात मुख्य या कहें समान ही होती है कि इस दिन को नवीनता के आरंभ के रुप में ही देखा जाता है. कथा कहानियां, लोक परंपराओं या फिर प्रमाणिकता के आधार पर ही इसे देखें तो भी इस सभी विचारों का ताना-बाना आपसे में बंधा हुआ है.

    इस बंधन का मूल अर्थ है इसकी जीवन के प्रति नवीनता और चेतना का आगमन. गुड़ी पड़वा के दिन से ही दुर्गा पूजा का आरंभ होना और हिन्दू पंचांग काल गणना का आरंभ होना. यह बातें बताती हैं कि प्रकृति और काल का स्वरुप एक दूसरे से जुड़ा हुआ है.

    • गुड़ी पड़वा ब्रह्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि का निर्माण हुआ.
    • गुड़ी पड़वा के दिन ही श्रीराम का राज्‍याभिषेक किया गया था.
    • गुड़ी पड़वा के दिन चैत्र नवरात्र व्रत का आरंभ होता है.
    • गुड़ी पड़वा समय ही विक्रमादित्‍य द्वारा विक्रमी संवत का आरंभ हुआ था.
    • गुड़ी पड़वा के दिन ही शालिवाहन शक संवत जो भारत सरकार का राष्‍ट्रीय पंचांग भी है का आरंभ हुआ.
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    शीतला सप्तमी : ऎसे करें शीतला माता की पूजा

    शीतला सप्तमी और शीतला अष्टमी का पर्व माता शीतला के पूजन से संबंधित है. शीतला सप्तमी का व्रत संतान प्राप्ति एवं संतान के सुख के लिए किया जाता है. शीतला माता के व्रत में एवं इनके पूजन में बासी एवं ठंडा भोजन करने का नियम होता है. इस दिन माता शीतला को ठंडा भोजन ही भोग स्वरुप लगाया जाता है. माता शीतला अपने नाम के अनुरुप ही शीतल हैं, ऎसे में इनका पूजन करने से जीवन में मची कोई भी उथल-पुथल एवं अशांती दूर हो जाती है और शांति शीतलता का वास होता है.

    शीतला सप्तमी पूजन इन बातों का रखें ख्याल

  • शीतला माता के पूजन में किसी भी गरम चीज का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • शीतला माता के व्रत रखने पर ठंडे जल से ही नहाना चाहिए.
  • एक दिन पहले बनाया हुआ भोजन करना चाहिए.
  • भोजन ठंडा ही करना उसे गरम नहीं करना चाहिए.
  • इस दिन चूल्हा नहीं जलाते हैं, चूल्हे की पूजा की जाती है.
  • शीतला सप्तमी व्रत करता है चेचक रोग का नाश

    बच्चों में होने वाली एक बीमारी जिसे खसरा(चेचक) या आम बोलचल की भाषा में माता आ जाना कहा जाता है. इस बीमारी की शांति के लिए मुख्य रुप से शीतला माता की पूजा करने का विधान बताया जाता है. ऎसे में आज भी हम ग्रामीण क्षेत्रों में इस रोग के समय माता शीतला के पूजन को विशेष रुप से देख सकते हैं. शहरों में भी बहुत से लोग बच्चों में अगर इस रोग का प्रभाव देखते हैं तो शीतला माता का पूजन करते हैं व मंदिर में जाकर माता की शांति करते हैं.

    शीतला सप्तमी कथा

    शीतला सप्तमी का व्रत संतान की सुरक्षा एवं आरोह्य प्राप्ति के लिए किया जाता है. इस दिन व्रत रखने के साथ ही शीतला सप्तमी कथा भी करनी चाहिए. शीतला सप्तमी कथा को सुनने और पढ़ने से शुभ फलों में वृद्धि होती है.

    शीतला सप्तमी कथा इस प्रकार है : – एक गांव में एक वृद्ध स्त्री अपनी बहुओं के साथ रहती है थी और सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर रही होती है. एक बार शीतला सप्तमी का दिन आता है. वृद्ध स्त्री और उसकी दोनों बहुएं शीतला सप्तमी का व्रत रखती हैं. वृद्ध स्त्री खाना बना कर रख देती हैं क्योंकि माता के व्रत में शीतल व बासी भोजन करना होता है. लेकिन उसकी दोनों बहुओं को कुछ समय पूर्व ही संतान प्राप्ति हुई होती है, इस कारण बहुओं को था की उन्हें शीतला सप्तमी के दिन बासी ओर ठंडा भोजन करना पड़ेगा. बासी भोजन करने से उनकी संतानों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है. इस कारण वह भोजन ग्रहण करना नहीं चाहती थीं.

    शीतला माता की पूजा करने बाद बहुओं ने बासी भोजन का सेवन नहीं किया और अपने लिए खाना बना कर खा लिया. जब सास ने उनसे खाने को कहा तो उन दोनों ने बहाना बना कर सास को झूठ बोल दिया की वह दोनों घर का काम खत्म करने के बाद भोजन कर लेंगी. बहुओं की बात सुन सास बासी भोजन खा लेती है. बहुएं माता का भोजन नहीं खाती हैं.

    बहुओं के इस कार्य से शीतला माता उनसे रुष्ट हो जाती हैं. माता के क्रोध के परिणाम स्वरुप बहुओं के बच्चों की मृत्यु हो जाती है. अपनी संतान की ऎसी दशा देख वह बुरी तरह से रोने लगती हैं, अपनी सास को सारी सच्चाई बता देती हैं. सास को जब इस बात का पता चलता है तो वह अपनी बहुओं को घर से निकाल देती है. बहुएं अपनी मृत संतानों को अपने साथ लेकर वहां से चली जाती हैं.

    रास्ते में दोनों एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठ जाती हैं. वहीं पर ओरी और शीतला नामक दो बहनें मिलती हैं. वह दोनों अपने सिर पर पड़े कीड़ों से दुखी हो रखी होती हैं. बहुओं को उन पर दया आती है और वह उनकी मदद करती हैं. शरीर पर से पिड़ा दूर होने पर दोनों को सकून मिलता है और वह बहुओं को पुत्रवती होने का आशीर्वाद देती हैं.

    बहुएं पहचान जाती हैं की वह बहने शीतला माता है, दोनों बहुओं ने माता से क्षमा याचना की तो माता को उन पर दया आती है और वह उन्हें माफ कर देती हैं. संतान के पुन: जीवित होने का वरदान देती हैं. शीतला माता के वरदान से बच्चे जीवित हो जाते हैं और बहुएं अपनी संतान को लेकर अपने घर जाकर सास और गांव के लोगों को इस चमत्कार के बारे में बताती हैं. सभी लोग शीतला माता की जयकार करते हैं और माता का पूजन भक्ति भाव से करने लगते हैं.

    शीतला माता पूजन विधि

    शीतला माता के पूजन में जो भी विधि विधान होते हैं उन सभी का ध्यान पूर्वक पालन करना चाहिए. शीतला माता के पूजन में किसी भी प्रकार की गलती इत्यादि से बचना चाहिए. यदि अनजाने में कोई गलती हो जाती है तो उसका प्रायश्चित अवश्य करना चाहिए.

  • शीतला सप्तमी से एक दिन पहले ही माता के लिए भोग बना कर तैयार करना होता है.
  • शीतला माता के भोग में मीठा ओलिया जो चावल से बनता है, खाजा जो मैदा या आटे से बनता है, चूरमा, शक्कर पारे, मगद लड्डू, चक्की, पुए, पकौड़ी, राबड़ी, बाजरे या आटे से बनी रोटी, पूड़ी, सब्जी इत्यादि को एक दिन पहले ही बना कर रख लेना चाहिए.
  • माता के लिए जो भी प्रसाद रुप में बनाए गे भोग को पूजा से पहले बिलकुल भी नहीं खाना चाहिए.
  • शीतला सप्तमी के पूजन में उपयोग होने वाली सामग्री के लिए नौ सिकोरे जिसे कंडवार भी कहा जाता है (यह मिट्टी का बना एक छोटे कटोरे की तरह का बर्तन होता है), एक कुल्हड़ और एक दिया खरीद के रख लेना चाहिए.
  • शीतला सप्तमी वाले दिन प्रात:काल उठ कर नहा धोकर साफ शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए.
  • पूजन के लिए एक थाली में सिकोरे लगा दीजिये और इनमें थोड़ा दही, रबड़ी, चावल से बना ओलिया, पुआ, रोटी, पकौड़ी, नमक पारे, शक्कर पारे, भीगो कर रखी हुई मोठ, बाजरा इत्यादि जो भी बनाया गया हो इसमें रख दीजिये. अब एक दूसरी थाली लीजिये और उसमें चावल, रोली, मोली, हल्दी, मेहंदी, काजल, माता के लिए वस्त्र व सिक्का रखना चाहिए.
  • पानी का कलश भर कर रख लीजिये.
  • एक आटे का दीपक भी बनाना चाहिए और इसमें घी में डूबी हुई बाती रख देनी चाहिए. इस दीपक को बिना जलाए ही शीतला माता को अर्पित करना चाहिए.
  • अब पूजा के लिए तैयार की गई थाली को, कंडवारों पर रोली, हल्दी लगानी चाहिए.
  • परिवार के सभी सदस्यों को तिलक लगाना चाहिए.
  • हाथ जोड़ कर माता से प्रार्थना करनी चाहिए की “हे शीतला माता हमारी भूल चूक को माफ करना और शीतल रहते हुए हमारे जीवन में भी सुख और शीतलता प्रदान करना.
  • शीतला माता का पूजन मंदिर में करना चाहिए अगर मंदिर जाना संभव न हो पाए तो घर पर भी पूजन किया जा सकता है.
  • शीतला माता को शीतल जल से स्नान कराना चाहिए.
  • स्नान करा लेने के पश्चात रोली और हल्दी से उन्हें टीका करना चाहिए.
  • शीतला माता को शृंगार का सामा मेहंदी, मोली, काजल इत्यादि अर्पित करना चाहिए.
  • गुलरियां जिसे बड़बुले, बडबुल भी कहते हैं, यह गाय के गोबर से बनाया जाता है. इसकी माला बनाई जाती है जिसे शीतला माता को चढ़ाया जाता है.
  • शीतला माता की आरती एवं लोक गीत आदि गा कर मां का पूजन करना चाहिए.
  • पूजा की समाप्ति में माता को जल चढ़ाना चाहिए और माता पर चढ़ाए हुए जल को किसी बर्तन में रख लीजिये और उस जल को अपने ऊपर व घर पर छीड़कना चाहिए.
  • घर पर जहां पानी रखा जाता है उस स्थान का भी पूजन करना चाहिए. शीतला माता की पूजा संपन्न कर लेने के पश्चात ठंडे भोजन जिसे बसौड़ा भी कहते हैं. उसका सेवन करना चाहिए व घर के बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद लेना चाहिए.
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    कैसे और कब शुरु करें सोमवार व्रत: सोमवार व्रत में इन बातों का रखें ध्यान

    सोमवार के दिन भगवान शिव और सोम देव के निमित्त जो व्रत किया जाता है, उसे सोमवार के व्रत के नाम से जान जाता है. सोमवार के व्रत में भगवान शिव का विशेष रुप से पूजन होता है. इस व्रत के दौरान भगवान शिव का अभिषेक एवं रात्रि के समय चंदरमा का पूजन एवं रात्रि जागरण करने का विधान रहा है.

    सोमवार व्रत कितने प्रकार का होता है

    सोमवार का व्रत तीन प्रकार का होता है. इसमें से सामान्य रुप में सोमवार के दिन रखा जाने वाला व्रत, दूसरा सोम प्रदोष व्रत और तीसरा सोलह सोमवार का व्रत. यह तीनों व्रतों का अपना अपना अलग-अलग महत्व होता है. इन सभी व्रतों में थोड़ी बहुत भिन्नता हो सकती है. पर पूजन विधि में बहुत हद तक समानता और सरलता ही होती है.

    सोमवार व्रत कितने रखे जाएं और कब शुरु करें

    सोमवार के व्रत का आरंभ करने के लिए माघ माह, फाल्गुन माह और सावन माह के शुक्ल पक्ष के सोमवार अत्यंत शुभ माने जाते हैं. सोमवार व्रत की संख्या को आप अपने अनुसार रख सकते हैं, लेकिन किसी भी व्रत का अपना महत्व और अपना प्रभाव होता है. कुछ सोमवार के व्रत 16 सोमवार, 7 सोमवार, 5 सोमवार तक रखे जाए हैं.

    सोलह सोमवार व्रत –

    सोलह सोमवार व्रत को रखते हुए नियमों का विशेष ध्यान रखा जाता है. मुख्य रुप से ये व्रत सौभाग्य और मनपसंद जीवन साथी की प्राप्ति के लिए किया जाता है. किसी का दांपत्य जीवन परेशानियों से निकल रहा है तो इस व्रत को करने से जीवन में आने वाली कठिनाईयां तो दूर होती ही हैं, साथी ही वैवाहिक जीवन में सुख भी आता है.

    सोम प्रदोष व्रत –

    सोम प्रदोष अत्यंत ही शुभ होता है. इस व्रत को करने से संतान सुख एवं योग्य संतान की प्राप्ति होती है. इस व्रत के दौरान प्रदोष समय शिव पूजन का अत्यंत महत्व माना गया है.

    सामान्य सोमवार व्रत –

    सोमवार के व्रत जिसे आप बिना किसी संख्या के जब चाहें और जितना चाहें रख सकते हैं. आप इन तीनों श्रेणी के व्रत आप जीवन भर रख सकते हैं. इन व्रतों को संपूर्ण भक्ति और विश्वास के साथ करने से जीवन में सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है.

    सोमवार व्रत रखते समय सावधानियां

  • सोमवार का व्रत करते समय आपको प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व उठना चाहिए.
  • शिव जी को केतकी के फूल नहीं चढ़ाने चाहिए.
  • शिव जी को तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए.
  • कुमकुम या सिंदूर उपयोग नहीं करना चाहिए.
  • सोमवार व्रत की विधि

  • सोमवार व्रत करने से पूर्व व्रत का संकल्प लेना चाहिए.
  • सोमवार के दिन प्रातः काल स्नान इत्यादि कार्यों से निवृत होकर भगवान शिव का स्मरण करें.
  • सोमवार के दिन शिवलिंग का पूजन अवश्य करना चाहिए.
  • शिवलिंग पूजन में शिवलिंग पर गाय के दूध और जल से अभिषेक करना चाहिए.
  • शिवलिंग पर बेल पत्र चढ़ाना चाहिए.
  • शिव-गौरी की पूजा करनी चाहिए.
  • भगवान शिव पर सूत लपेटना चाहिए एवं माता पार्वती को लाल रंग की चुनरी चढ़ानी चाहिए.
  • शिवलिंग के समक्ष धूप दीप जलाकर आरती करनी चाहिए.
  • शिव पूजा में भगवान शिव के पंचाक्षरी मंत्र का जाप करना चाहिए.
  • शिव पूजन पश्चात सोमवार व्रत की कथा सुननी चाहिए.
  • संध्या समय शिव पूजन करने के पश्चात भोजन करना चाहिए.
  • सोमवार के व्रत में मीठी वस्तुओं का ही सेवन करना अत्यंत शुभ होता है.
  • साधारण रूप से सोमवार का व्रत दिन के तीसरे पहर तक होता है.
  • सोमवार व्रत का ज्योतिष दृष्टि से महत्व

    सोमवार के व्रत का ज्योतिष की दृष्टि से भी अत्यंत महत्व रहा है. सोमवार के दिन को चंद्रमा से जोड़ा जाता है. सोमवार के दिन चंद्रमा के पूजन का भी विशेष महत्व होता है. चंद्र ग्रह का कुंडली में खराब होना या पाप प्रभाव में होने पर चंद्रमा से मिलने वाले बुरे फलों से बचने के लिए सोमवार का व्रत करना बहुत ही शुभ माना गया है.

    सोमवार के दिन शिव पूजा और चंद्र ग्रह की पूजन दोनों ही बातें एक दूसरे की पूर्क बन जाती हैं. चंद्रमा को भगवान शिव ने अपने मस्तक पर धारण किया है. ऎसे में शिवलिंग की पूजा से चंद्रमा का पूजन भी स्वत: ही हो जाता है.

    सोमवार व्रत कथा

    एक समय श्री भूतनाथ महादेव जी मृत्युलोक में भ्रमण की इच्छा से माता पार्वती के साथ विदर्भ देश की अमरावती नगरी जो कि सभी सुखों से परिपूर्ण थी वहां पधारे. वहां के राजा द्वारा एक अत्यंत सुन्दर शिव मंदिर था, जहां वे रहने लगे. एक बार पार्वती जी ने चौसर खलने की इच्छा की. तभी मंदिर में पुजारी के प्रवेश करने पर माता जी ने पूछा कि इस बाज़ी में किसकी जीत होगी? तो ब्राह्मण ने कहा कि महादेव जी की. लेकिन पार्वती जी जीत गयी. तब ब्राह्मण को उन्होंने झूठ बोलने के अपराध में कोढ़ी होने का श्राप दिया.

    कई दिनों के पश्चात देवलोक की अपसराएं, उस मंदिर में पधारीं, और उसे देखकर कारण पूछा. पुजारी ने निःसंकोच सब बताया. तब अप्सराओं ने पुजारी को सोलह सोमवार के व्रत की महिमा और व्रत विधि बताकर व्रत का पालन करने को कहती हैं. इस व्रत से शिवजी की कृपा से सारे मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं. फिर अप्सराएं स्वर्ग को चली जाती हैं. ब्राह्मण ने सोमवार का व्रत करने का निश्चिय किया और वह व्रत के प्रभाव से रोगमुक्त होकर जीवन व्यतीत करने लगा.

    कुछ दिन उपरांत शिव पार्वती जी के पधारने पर, पार्वती जी ने उसके रोगमुक्त होने का करण पूछा. तब ब्राह्मण ने सारी कथा बतायी. तब पार्वती जी अपने रुठे पुत्र कार्तिकेय को वापिस पाने के लिए यही व्रत किया, और उनकी मनोकामना पूर्ण हुई. उनके रूठे पुत्र कार्तिकेय जी माता के आज्ञाकारी हुए. परन्तु कार्तिकेय जी ने अपने विचार परिवर्तन का कारण पूछा. तब पार्वती जी ने वही कथा उन्हें भी बतायी. तब स्वामी कार्तिकेय जी ने भी यही व्रत किया.

    व्रत के प्रभाव से उन्हें अपने मित्र से पुन: मिलाप का मौका मिला. जब मित्र ने इस विषय में पूछा तो कार्तिकेय जी ने उन्हें व्रत के बारे में कहा. उनके मित्र ब्राह्मण ने पूछ कर यही व्रत किया. फिर वह ब्राह्मण जब विवाह की इच्छा से और एक राज्य में जाता है और वहां की राज्कुमारी के स्वयंवर के यहां स्वयंवर में गया. वहां राजा ने संकल्प लिया था, कि हथिनी एक माला, जिस वर के गले में डालेगी, वह अपनी पुत्री उसी से विवाह करेगा. वहां शिव कृपा से हथिनी ने माला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी.

    राजा ने उससे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया. उस कन्या के पूछने पर ब्राह्मण ने उसे कथा बतायी. तब उस कन्या ने भी वही व्रत कर एक सुंदर पुत्र पाया. बाद में उस पुत्र ने भी यही व्रत किया और एक वृद्ध राजा का राज्य पाया.

    सोमवार व्रत उद्यापन

    सोमवार के व्रत का उद्यापन करते समय उद्यापन वाले सोमवार के दिन स्नान के बाद साफ स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए यदि श्वेत वस्त्रों का उपयोग करीं तो वह और भी अच्छा होता है. पूजा के लिए एक वेदी का निर्माण करें, इसे फूलों से और केले के पत्तों से सजाना चाहिए.

    इस स्थान पर भगवान शिव, माता पार्वती, चंद्रदेव एवं समस्त शिव परिवार को स्थापित करना चाहिए. धूप दीप से पूजन करें एवं फूल माला अर्पित करें. भगवान को चूरमा और पंचामृत का भोग लगाना चाहिए. ब्राह्मण को भोजन खिलाएं और दक्षिणा प्रदान करके अपना व्रत पूर्ण करना चाहिए.

    यदि सामान्य रुप से पूजन करना चाहिए तो शिव मंदिर में शिवलिंग पर जल, दूध, दही, शहद, घी, गंगाजल का पंचामृत से अभिषेक करना चाहिए. शिवलिंग पर बिल्व पत्र, धतूरा चढ़ाना चाहिए. उसके पश्चात जल से शिवलिंग का अभिषेक करना चाहिए. धूप-दीप से पूजन उपरांत भगवान शिव को जनेऊ व धोतीऔर माता पार्वती को लाल चुनरी और शृंगार का सामान भेंट करना चाहिए. मंत्र एवं आरती के पश्चात एक या दो ब्राह्मणों को भोजन करना चाहिए अथवा उन्हें भोजन का सामान व दक्षिणा प्रदान करने के उपरांत अपना व्रत खोलना चाहिए. उद्यापन के दिन भी आपको एक समय ही भोजन करना है और सभी नियमों का पालन करते हुए उद्यापन संपूर्ण करना चाहिए.

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    लक्ष्मी नारायण व्रत और जानिये इसकी पूजा विधि कथा विस्तार से

    लक्ष्मी नारायण व्रत में देवी श्री लक्ष्मी और भगवान नारायण की संयुक्त रुप पूजा की जाती है. इस पूजा को करने से घर में धन संपदा की कभी कमी नहीं आती है. श्री लक्ष्मी नारायण व्रत दरिद्रता को दूर करने का एक अचूक उपाय भी बनता है. इस दिन घर में पूजा पाठ के साथ साथ हवन इत्यादि अनुष्ठान भी करने से संपन्नता के द्वार खुलते हैं.

    लक्ष्मी नारायण पूजा कब करें

    लक्ष्मी नारायण व्रत एवं पूजन को करने के लिए सबसे उपयुक्त समय पूर्णिमा तिथि का दिन माना गया है. इसके अलावा इस व्रत को शुक्रवार के दिन या फिर रविवार के दिन भी किया जाता है. लक्ष्मी नारायण व्रत के विषय में पौराणिक ग्रंथों में विस्तार रुप से कथा एवं महत्व प्राप्त होता है.

    लक्ष्मी नारायण की पूजा विधि

    इस व्रत के बारे में नारद जी ने शौनक ऋषि से पूछा, तो इसके विषय में बताते हुए वह उनसे कहते हैं – हे महर्षि नारद पूर्णिमा तिथि के दिन शुद्ध सात्विक आचरण का नियम रखते हुए इस व्रत का आरंभ करना चाहिए. प्रत:काल स्नान आदि से निवृत होकर शुद्ध साफ सफेदवस्त्र धारण करने चाहिए.

  • लक्ष्मी नारायण पूजा विधि में मंदिर में देवी लक्ष्मी और विष्णु भगवान की प्रतिमा अथवा चित्र को स्थापित करना चाहिए.
  • लक्ष्मी नारायण की प्रतिमा को जल एवं पंचामृत से स्नान कराना चाहिए.
  • श्री लक्ष्मी और नारायण भगवान को वस्त्र एवं आभूषण पहनाने चाहिए. फूलों की माला पहनानी चाहिए. सुगंधित इत्र चढा़ना चाहिए.
  • देवी लक्ष्मी को कुमकुम का तिलक लगाना चाहिए और श्री विष्णु भगवान को चंदन का तिलक लगाना चाहिए.
  • लक्ष्मी नारायण के सम्मुख घी का दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए. धूप, फूल से पूजा करनी चाहिए.
  • लक्ष्मी नारायण की आरती करनी चाहिए. आरती के बाद भगवान को भोग अर्पित करना चाहिए.
  • लक्ष्मी-नारायण पूजन समय ‘‘ऊँ लक्ष्मी नारायणाभ्यां नमः ’’ मंत्र का जाप भी करना चाहिए.
  • लक्ष्मी नारायण व्रत एवं पूजा करने से समस्त सुखों की प्राप्ति होती है. इस व्रत का प्रभाव व्यक्ति को बैकुंठ धाम की प्राप्ति कराने वाला होता है. व्रत एवं पूजन में रात्रि जागरण का भी बहुत महत्व होता है. व्रत के अगले दिन सुबह के समय ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए एवं दक्षिणा इत्यादि देकर इस व्रत का संकल्प पूरा करना चाहिए. इस व्रत में तिल के दान का भी अत्यंत महत्व बताया गया है. तिल से होम करना भी शुभ होता है. इस प्रकार सामर्थ्य अनुसार लक्ष्मी नारायण व्रत पूजन करना चाहिए.

    लक्ष्मी नारायण पूजा में क्या नहीं करना चाहिए

  • लक्ष्मी नारायण पूजा में कुछ बातों का मुख्य रुप से ध्यान रखना चाहिए. इस व्रत का अथवा पूजन का संकल्पन करने पर किसी भी प्रकार के तामसिक भोजन एवं मांस मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • किसी भी प्रकार के नशे के सेवन से दूरी बना कर रखनी चाहिए.
  • ब्रहमचर्य का पालन करना चाहिए.
  • अपने आचरण में छल-कपट, लड़ाई-झगड़े और झूट इत्यादि जैसी बुरी आदतों से दूरी बना कर रखनी चाहिए.
  • लक्ष्मी नारायण कथा

    लक्ष्मी नारायण कथा अनुसार एक बार जब दोनों की महत्ता में से कौन अधिक महत्वपूर्ण है, इस पर बहस बढ़ जाती है. तब नारायण भगवान इस तथ्य को समझाने के लिए एक परीक्षा का आयोजन करते हैं. भगवान नारायण ब्राह्मण का भेष बना कर एक गाँव में जाते हैं, और वहां के मुखिया से कहते हैं की वह उस स्थान पर श्री नारायण का पूजन करना चाहते हैं. गांव के मुखिया उनकी बात मान कर उन्हें एक निवास स्थान देते हैं. उनके लिए कथा के स्थान का बंदोबस्त भी करते हैं.

    गांव के सभी लोग उस कथा मे प्रतिदिन शामिल होने लगते हैं, ऎसे में लक्ष्मी जी अपनी स्थिति को नजरअंदाज होते देखती हैं तो वह भी भेष बदल कर एक वृद्ध स्त्री के रुप में वहां पहुंच जाती है. एक स्त्री जो कथा में जाने के लिए घर से निकल रही होती है उससे पानी मांगती हैं. ऎसे में स्त्री उन्हें पानी पीने को देती है, पर जैसे ही वृद्ध स्त्री उसे उसका बरतन वापिस करती हैं तो वह स्वर्ण धातु का हो जाता है.

    इस चमत्कार को देख कर वह गांव के सभी लोगों को इस बात के बारे में बताती है, सभी लोग कथा से उठ कर उस चमत्कार को देखने के लिए वहां चले जाते हैं. धन के लोभ का स्वरुप के कारण नारायण उस स्थान से चले जाने के लिए प्रस्थान करते हैं, तो लक्ष्मी वहां आकर उन्हें अपनी महत्ता को स्वीकार करने की बात कहती हैं. श्री नारायण मान जाते हैं की लक्ष्मी उनसे अधिक महत्व रखती हैं और वहां से चले जाते हैं.

    ऎसे में लक्ष्मी जी उनके जाने से दुखी होकर जाने लगती हैं तो गांव के लोग उन्हें रोकने लगते हैं. इस प्रकार वह उन्हें कहती हैं की जहां नारायण कथा पूजन का वास नहीं होता है, वहां लक्ष्मी का भी कोई स्थान नही हो सकता है. जिस स्थान पर लक्ष्मी और नारायण दोनों का पूजन होगा वहीं मैं स्थापित हो सकती हूं. इस प्रकार लक्ष्मी जी नारायण जी के समक्ष इस बात को कहती हैं की आप के बिना मैं कुछ नहीं और मेरे बिना आप. हम दोनों एक दूसरे का स्वरुप ही हैं. ऎसे में जो भी भक्त लक्ष्मी नारायण रुप का एक साथ पूजन करते हैं उन्हें सदैव प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

    लक्ष्मी नारायण व्रत के लाभ

    वैभव और धन संपदा की प्राप्ति

    लक्ष्मी नारायण व्रत एवं पूजन करने से घर में हर प्रकार की समृद्धि बढ़ती है. यदि कोई व्यक्ति कर्ज इत्यादि से पीड़ीत है तो उसे इस व्रत को जरुर करना चाहिए. इस व्रत को करने से संयुक्त पूजन से सुख-संपत्ति, धन, वैभव और समृद्धि का वरदान मिलता है. अगर किसी व्यक्ति की कुंडली में केमद्रूम योग बनता है तो उनके लिए ये पूजा बहुत ही शुभ फल देने वाली बनती है.

    नौकरी और कारोबार में लाभ मिलता है

    लक्ष्मी नारायण व्रत को करने से व्यापार में लाभ मिलता है. व्यापारियों के लिए इस व्रत को करने से उन्हें देवी लक्ष्मी के आशीर्वाद की प्राप्ति होती है और उनके व्यवसाय में वृद्धि भी होती है. जो लोग नौकरी में स्थायित्व चाहते हैं ओर अपने काम में प्रमोशन की इच्छा रखते हैं उनके लिए भी इस व्रत को करने से लाभ मिलता है.

    सौभाग्य की प्राप्ति जीवनसाथी का सुख

    लक्ष्मी नारायण व्रत करने से सौभाग्य में वृद्धि होती है. स्त्रियों के मांगल्य सुख में वृद्धि होती है. अगर विवाह होने में कोई परेशानी हो रही हो तो इस व्रत को अवश्य करना चाहिए. यह वैवाहिक सुख को देने वाला होता है. लंबी उम्र, अच्छी सेहत और आध्यात्मिक विकास का आशीर्वाद भी मिलता है.अगर आपकी कोई विशेष कामना है तो उसी को ध्यान में रखकर पूजन का संकल्प लें. संकल्प लेकर सही विधि से पूजन और उसका समापन करें, कामना पूरी होगी.

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    अन्नपूर्णा अष्टमी व्रत 2024 : नही रहती कभी धन धान्य की कमी

    अन्नपूर्णा अष्टमी का पर्व फाल्गुन माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है. माता पार्वती के अनेक रुपों में से एक रुप माँ अन्न पूर्णा का भी है. जिसमें माता को अन्न की देवी भी कहा गया है. माँ अन्नपूर्णा समस्त प्राणियों के जीवन का आधार हैं. देवी के शक्ति के स्वरुप का दूसरा रंग उनके वात्सल्य स्वरुप में अन्नपूर्णा मां का है.

    अन्नपूर्णाआष्टमी कथा

    मां जगदम्बा ने किस प्रकार अन्नपूर्णा का रुप धारण किया इस के पिछे अनेकों कथाएं प्रचलित हैं जिन्में से एक पौराणिक कथा अनुसार जब भगवान शिव और माता पार्वती विचारों की एक प्रकिया में थे तो एक दूसरे के समक्ष तर्क पूर्ण वार्तालाप कर रहे होते हैं. इस समय में भगवान शिव ने पार्वती को कहा की सृष्टि में जो कुछ भी उपस्थित है वह माया के आवरण का स्वरुप ही है. अत: भौतिकता ओर भोजन की उपयोगिता का होना कोई महत्वपूर्ण नही है. महादेव वैरागी हैं और वह माया से मुक्त है, किंन्तु सृष्टि तो उस माया के आवरण से मुक्त नहीं है. ऎसे में भगवान को इस तथ्य का बोध कराने हेतु माता पार्वती सृष्टि से लुप्त हो जाती हैं.

    देवी के लुप्त होते ही संसार में कुछ भी व्याप्त नही रहता है. भौतिक स्वरुप समाप्त हो जाता है, सृष्टि बंजर हो जाती है और प्राणियों में हाहाकार मच जाता है. प्राणी भूख से व्याकुल होने लगते हैं. ऎसे में सृष्टि का ये स्वरुप देख कर भगवान शिव उस तथ्य की महत्ता को समझते हैं कि किस प्रकार सृष्टि के लिए भौतिकता का होना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है उन जीवों के लिए जो इसके बिना रह नहीं सकते हैं. सृष्टि का ये स्वरुप देख देवी पार्वती अन्नपूर्णा रुप में काशी में प्रकट होती हैं और रसोई स्थापित कर अपने हाथों से प्राणियों को भोजन देती हैं. देवी के अन्नपूर्णा रुप को पाकर समस्य सृष्टि पुन: सौंदर्य से पूर्ण एवं पुष्ट होती है.

    पौराणिक मान्यता है कि काशी में अन्न की कमी होने पर भगवान शिव भी विचलित हो जाते हैं और देवी अन्नपूर्णा के समक्ष भिक्षा मांगते हैं और वरदान स्वरुप अन्नपूर्णा ने उन्हें वरदान दिया की उनकी शरण में आने वाले को कभी धन-धान्य से वंचित नहीं होगा और सदैव मेरा आशीर्वाद उन्हें प्राप्त होगा.

    काशी में स्थिति अन्न पूर्णा मंदिर

    मान्यता है कि देवी अन्नपूर्णा काशी में ही सर्वप्रथम प्रकट हुई थी अत: काशी में उनके नाम का एक भव्य मंदिर भी स्थापित है. इस मंदिर में प्रतिवर्ष फाल्गुन अष्टमी के दिन मेले और विशेष पूजा का विधान होता है. इस दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होते हैं और देवी अन्नपूर्णा का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.

    एक मान्यता अनुसार देवी अन्नपूर्णा संसार का भरण-पोषण करती हैं. महादेव से विवाह करने के पश्चात जब देवी पार्वती उनके साथ काशी में निवास करने की बात करती हैं तो महादेव उन्हें अपने साथ काशी ले चलते हैं. किंतु काशी का स्वरुप शमशान होना नहीं भाया तो काशी में अन्नपूर्णा के रुप में देवी ने खुद को स्थापित किया और काशी अन्नपूर्णा का देवी धाम भी है. काशीखण्ड में इस बात का वर्णन मिलता है की भगवान शिव गृहस्थ हैं और देवी भवानी उनकी गृहस्थी को चलाने वाली हैं. मान्यता भी है की काशी में कोई भूखा नहीं सोता है. देवी अन्नपूर्णा ही सभी की भूख को शांत करती हैं.

    अन्नपूर्णा अष्टमी पूजा विधि

    अन्नपूर्णा अष्टमी के दिन देवी की पूजा की जाती है. ऐसी मान्यता है कि अन्नपूर्णा अष्टमी की पूजा करने से हर प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति होती है. इस दिन देवी अन्नपूर्णा के समक्ष कलश स्थापित करना चाहिए. अन्नपूर्णा अष्टमी के दिन प्रातः काल स्नान करने के पश्चात शुद्ध मन से स्वच्छ वस्त्र धारण करके पूजा आरम्भ करनी चाहिए. देवी अन्नपूर्णा को लाल चुनरी चढ़ानी चाहिए.

    देवी की पूजा द्वारा भक्तों के सभी पापों का नाश होता है. देवी के समक्ष घी के दीपक को जलाना चाहिए और उन्हें रोली लगानी चाहिए. देवी का ध्यान करते हुए अन्नपूर्णा पूजन सम्पन्न करना चाहिए. आरती करने के उपरांत भोग भेंट करना चाहिए. अन्नपूर्णा के दिन कन्या पूजन करना चाहिए कन्याओं को श्रृंगार वस्तुएं भेंट करनी चाहिए व उनकीअन्नपूर्णा के रूप में पूजा की जानी चाहिए. सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए. भोजन में छोले, पूड़ी, हलवा और खीर का भोग अवश्य लगवाना चाहिए. अन्न पूर्णा अष्टमी पूजन से मनोकामानाएं पूर्ण होती है.

    शंकराचार्य द्वारा देवी भवानी अन्नपूर्णा पूजन एवं स्त्रोत रचना

    आदि गुरु शंकराचार्य ने अपनी भक्ति से देवी अन्नपूर्णा को प्रसन्न किया था. एक कथा है की जब एक बार शंकराचार्य काशी में पहुंचे तो वहां उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा. वह देह से बहुत ही कमजोर हो गए थे. ऎसे में एक दिन देवी अन्नपूर्णा ने एक स्त्री का वेश धारण कर वहां पहुंची और बड़े से मटके को वहां रख कर कुछ देर विश्राम करने के बाद जब चलने लगती हैं तो शंकराचार्य से उस मटके को उठाने में सहायता करने का आग्रह करती हैं.

    तब शंकराचार्य उनसे कहते हैं कि उनमें बिलकुल भी शक्ति नहीं जिस कारण वह उनकी सहायता कर पाएं. ऎसे में स्त्री वेष में मौजूद देवी अन्नपूर्णा उन्हें कहती हैं यदि तुमने शक्ति की उपासना की होती तो तुम को अवश्य ही शक्ति की प्राप्ति होती. यह सुन शंकराचार्य को आत्मबोध होता है. और वह देवी की उपासना करने में मग्न हो जाते हैं. इसमें उन्हके द्वारा अन्नपूर्णा अष्टमी स्त्रोत की रचना भी करी और उन्हें पुन: शक्ति की प्राप्ति होती है.

    नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौंदर्यरत्नाकरी।

    निर्धूताखिल-घोरपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी।

    प्रालेयाचल-वंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी।

    भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपुर्णेश्वरी।।

    अन्नपूर्णे सदा पूर्णे शंकरप्राणवल्लभे।

    ज्ञान वैराग्य-सिद्ध्‌यर्थं भिक्षां देहिं च पार्वति।।

    माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः।

    बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्‌ II

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    गोविन्द द्वादशी व्रत से दूर होंगे सभी दुख : जानें गोविंद द्वादशी व्रत कथा और पूजा विधि

    द्वादशी तिथि का महत्व भगवान श्री विष्णु की उपासना से संबंधित होता है. जिस प्रकार एकादशी प्रत्येक माह में आती हैं, उसी प्रकार द्वादशी भी प्रत्येक माह में आती हैं और प्रत्येक माह की द्वादशी श्री विष्णु के किसी न किसी नाम से संबंधित होती है. मान्यता है की यदि एकादशी का व्रत न रख पाएं तो द्वादशी का व्रत रख लेने से उसी के समान फलों की प्राप्ति भी होती है.

    फाल्गुन माह में आने वाली द्वादशी को “गोविंद द्वादशी” नाम से जाना जाता है. गोविंद द्वादशी के शुभ प्रभाव से व्यक्ति के कष्ट एवं व्याधियों का नाश होता है. इस द्वादशी का पूजन एवं व्रत इत्यादि करने से “अतिरात्र याग” नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है. यह वेदों में वर्णित अनुष्ठान के अंतर्गत आने वाला फल होता है.

    फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के दूसरे दिन गोविन्द द्वादशी का व्रत करने का विधान बताया गया है. इस द्वादशी पूजा में सदाचार, शुद्ध आचार और पवित्रता का अत्यंत ध्यान रखना चाहिए. गोविंद द्वादशी तिथि में अगर तिथि वृद्धि के कारण 2 दिनों तक प्रदोष काल में भी यह व्याप्त रहे तो ऎसे में दूसरे दिन के प्रदोष काल में ही मनाया जा सकता है.

    गोविंद द्वादशी का पूजन एवं उपवास नियम धारण करने से व्यक्ति को सुख की प्राप्ति होती है. मानसिक शांति प्राप्ति होती है. आरोग्य को बढ़ाने वाला है, सुख से परिपूर्ण करने वाला है. गोविन्द द्वादशी करने से समस्त रोगादि की शांति भी होती है.

    गोविन्द द्वादशी पूजा विधि

    • गोविंद द्वादशी तिथि के दिन भगवान गोविंद का स्मरण करते हुए दिन का आरंभ करना चाहिए.
    • दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर, पूजा का संकल्प करना चाहिए.
    • गोविंद का पूजन करना चाहिए. भगवान श्री विष्णु प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए.
    • चंदन, अक्षत, तुलसी दल व पुष्प को श्री गोविंद व श्री हरी बोलते हुए भगवान को अर्पित करने चाहिए.
    • भगवान की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करवाना चाहिए. इसके पश्चात प्रतिमा को पोंछन कर सुन्दर वस्त्र पहनाने चाहिए.
    • भगवान श्री गोविंद को दीप, गंध , पुष्प अर्पित करना, धूप दिखानी चाहिए.
    • आरती करने के पश्चात भगवान को भोग लगाना चाहिए.
    • भगवान के भोग को प्रसाद रुप में को सभी में बांटना चाहिए. सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए व दान-दक्षिणा इत्यादि भेंट करनी चाहिए.

    गोविंद द्वादशी व्रत में एकादशी से ही व्रत का आरंभ करना श्रेयस्कर होता है. अगर संभव न हो सके तो द्वादशी को व्रत आरंभ करें. पूरे दिन उपवास रखने के बाद रात को जागरण कीर्तन करना चाहिए और दूसरे दिन स्नान करने के पश्चात ब्राह्मणों को फल और भोजन करवा कर उन्हें अपनी क्षमता अनुसार दान देना चाहिए. जो पूरे विधि-विधान से गोविंद द्वादशी का व्रत करता है वह बैकुंठ को पाता है. इस व्रत की महिमा से व्रती के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह सभी सांसारिक सुखों को भोग कर पाता है.

    गोविंद द्वादशी मंत्र

    गोविंद द्वादशी के दिन भगवान श्री विष्णु के मंत्र का जाप करना अत्यंत शुभ फलदायी होता है. श्री गोविंद का स्वरूप शांत और आनंदमयी है. वह जगत का पालन करने वाले हैं. भगवान का स्मरण करने से भक्तों के जीवन के समस्त संकटों का नाश होता है और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है. इस दिन इन मंत्रों से भगवान का पूजन करना चाहिए.

    “ॐ नारायणाय नम:”
    “ॐ श्री विष्णवे च विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥
    “ॐ नमो नारायण। श्री मन नारायण नारायण हरि हरि। “

    गोविंद द्वादशी कथा महात्म्य

    गोविंद द्वादशी के दिन श्री विष्णु भगवान की कथाओं का श्रवण अवश्य करना चाहिए. इस दिन गीता का पाठ करने से व्यक्ति बंधन से मुक्ति पाता है. इसी प्रकार श्रीमद भागवत को पढ़ने अथवा श्रवण द्वारा भक्त को शुभ फलों की प्राप्ति होती है. गोविंद द्वादशी के दिन श्री विष्णु के बाल स्वरुप का पूजन करने से संतान का सुख प्राप्त होता है.

    गोविंद द्वादशी के दिन ही नृसिंह द्वादशी का पर्व भी मनाया जाता है. भगवान विष्णु के बारह अवतारों में से एक नृसिंह अवतार भी है. भगवान श्री हरि विष्णु का यह अवतार आधा मनुष्य व आधा शेर के रुप में रहता है. भगवान श्री विष्णु ने ये अवतार दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु को मारने हेतु लिया था.

    पौराणिक कथा अनुसार कश्यप ऋषि की पत्नी दिति से उन्हें हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु नाम दो पुत्र प्राप्त होते हैं. दिति दैत्यों की माता थी अत: उनके पुत्र दैत्य हुए. हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु दोनों ही असुर प्रवृत्ति के थे. पृथ्वी की रक्षा करने के लिए जब श्री विष्णु भगवान ने वराह अवतार लेकर हरिण्याक्ष का वध कर दिया, तो अपने भाई की मृत्यु का प्रतिशोद्ध लेने के लिए हिरण्यकशिपु श्री विष्णु का प्रबल विरोधी बन जाता है और जो भी व्यक्ति श्री विष्णु की भक्ति करता है वह उसे मृत्यदण्ड देता है. हिरण्यकशिपु ने अपनी कठोर तपस्या ब्रह्मा जी से अजेय होने का वरदान प्राप्त करता है.

    अपनी शक्ति का गलत उपयोग कर हिरण्यकशिपु स्वर्ग पर भी अधिकार स्थापित कर लेता है. हिरण्यकशिपु को एक पुत्र प्राप्त होता है जिसका नाम प्रह्लाद होता है. प्रह्लाद श्री विष्णु का परम भक्त होता है. जब पिता हिरण्यकशिपु को अपने पुत्र प्रह्लाद की श्री विष्णु के प्रति भक्ति को देख वह उसे मृत्यदण्ड देता है, लेकिन हर बार श्री विष्णु की कृपा से प्रह्लाद बच जाता है.

    एक बार भरी सभा में जब प्रह्लाद भगवान श्री विष्णु के सर्वशक्तिमान होने और हर कण में उनके होने की बात कहता है, तो हिरण्यकशिपु क्रोधित हो उससे पूछता है की यदि तेरा भगवान इस खम्बे में है तो उसे बुला कर दिखा. तब प्रह्लाद अपनी भक्ति से भगवान को याद करता है और श्री विष्णु भगवान खम्बे की चीरते हुए नृसिंह अवतार में प्रकट होते हैं ओर हिरण्यकशिपु का वध कर देते हैं. भगवान नृसिंह, प्रह्लाद को वरदान देते हैं कि आज के दिन जो मेरा स्मरण, एवं पूजन करेगा उस भक्त की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी.

    इस प्रकार गोविंद द्वादशी का दिन ही भगवान श्री नृसिंह पूजन के लिए भी बहुत ही शुभ माना गया है. गोविंद द्वादशी के दिन श्री विष्णु भगवान का पूजन एवं कीर्तन एवं रात्रि जागरण करने से समस्त सुखों की प्राप्ति है एवं कष्टों व रोगों का नाश होता है.

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    जानिए, कैसे करें बृहस्पतिवार का व्रत और जाने सभी काम की बातें

    हिन्दू पंचांग अनुसार सभी सात वारों में एक दिन बृहस्पतिवार का होता है और प्राचीन काल से ही प्रत्येक दिन का कोई न कोई धार्मिक महत्व भी रहा है. बृहस्पतिवार को बृहस्पति देव जिन्हें गुरु भी कहा जाता है उनसे जोड़ा गया है. इसी के साथ इस दिन श्री विष्णु भगवान का पूजन भी विशेष माना गया है. ऎसे में नवग्रहों में बृहस्पति देव को प्रसन्न करने व विष्णु भगवान का आशीर्वाद पाने के लिए यह दिन बहुत ही खास होता है.

    कब और कैसे शुरु करना चाहिए बृहस्पतिवार व्रत

  • बृहस्पतिवार के व्रत का आरंभ करने के लिए सदैव शुक्ल पक्ष के बृहस्पतिवार का ही चयन करना उपयोगी होता है. धार्मिक मान्यता एवं धार्मिक ग्रंथों के अनुसार शुक्ल पक्ष के दिन से ही व्रतों का आरंभ उचित बताया गया है.
  • शुक्ल पक्ष के बृहस्पतिवार के दिन अनुराधा नक्षत्र भी पड़ रहा हो तो यह अत्यंत ही उत्तम परिस्थिति बनती है.
  • दिन और नक्षत्र की शुभता के साथ कुछ अन्य बातें भी ध्यान में रखी जा सकती हैं जो व्रत के शुभ फलों को पाने में सहायक बन सकती हैं.
  • बृहस्पतिवार के दिन गुरुपुष्य योग बन रहा हो.
  • बृहस्पतिवार के दिन किसी भी प्रकार का दुर्योग नहीं हो.
  • बृहस्पतिवार के दिन आपकी गुरु अस्त या निर्बल नहीं हो.
  • उत्तरायण का समय इस व्रत के आरंभ के लिए अत्यंत शुभस्थ होता है.
  • बृहस्पतिवार के व्रत कितने रखे जाएं

    किसी भी व्रत को रखने से पूर्व यह भी जरुर निश्चित करना चाहिए की कितने दिन इन व्रतों को किया जाए. व्रत के लिए संकल्प जरुर करें क्योंकि किसी भी कार्य में संकल्प की आवश्यकता जरुरी है. ऎसे में आप व्रत को पांच, सात ग्यारह, सोलह इत्यादि संख्या में रख सकते हैं.

    सामान्यत: सात बृहस्पति तक इस व्रत को किया जाता है. इसके अलावा आपने जो भी मन्नत मांगने या जिस भी उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्रत को रखा गया है, उतने समय तक भी इस व्रत को रखा जा सकता है. इस व्रत को संपूर्ण जीवन अर्थात सदैव के लिए भी किया जा सकता है.

    क्यों रखते हैं बृहस्पतिवार व्रत

    व्रत एवं उपवास का उद्देश्य धार्मिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण रहा है. साथ ही इसे वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत उपयोगी माना गया है. वैदिक काल से ही इन व्रत एवं उपवास का अत्यंत ही असरदायक प्रभाव देखा गया है. ऎसे में जब हम बृहस्पतिवार व्रत को करते हैं, तो इस व्रत के पिछे सर्वप्रथम उद्देश्य बृहस्पति के शुभ गुणों की प्राप्ति करना ही होता है.आपके जीवन में ज्ञान और बौद्धिकता का संचार शुभ रुपों में हो सके और आप अपने जीवन को एक बेहतर रुप से जी पाएं यही इस व्रत का उद्देश्य है.

    बृहस्पतिवार व्रत शुभ प्रभाव एवं लाभ

    बृहस्पतिवार का व्रत रखने से जीवन में सभी सुखों का आगमन होता है. इस व्रत के प्रभाव से किसी भी व्यक्ति के जीवन में चली आ रही परेशानियों का अंत होता है. व्यक्ति की सोच में सकारात्मकता आती है. नकारात्मकता एवं नकारात्मक ऊर्जा भी दूर होती है. परिवार में सुख और स्त्रियों के सौभाग्य में वृद्धि करता है. छात्रों को शिक्षा में सफलता दिलाता है और उनकी बुद्धि को भी तीव्र बनाता है.

    इस व्रत के प्रभाव से संतान के सुख की प्राप्ति होती है. निसंतान दंपतियों के लिए ये व्रत अत्यंत ही शुभ फल देने वाला बताया गया है. इस व्रत के करने से व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि होती है और वह सामाजिक स्तर पर एक उत्तम स्थान भी पाता है.

    अगर कुण्डली में बृहस्पति ग्रह छठे, आठवें या बारहवें भाव में बैठे हों या फिर इन भावों का स्वामी हों और उसकी दशा अंतर्दशा में व्यक्ति के ऊपर अशुभ प्रभाव पड़ता है. इस से बचने के लिए बृहस्पतिवार का व्रत करने से, अशुभ प्रभाव कम होने लगते हैं.

    ज्योतिष में बृहस्पति का प्रभाव

    वैदिक ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पति को बहुत ही शुभ ग्रह माना गया है. बृहस्पति की जन्म कुंली में शुभ दृष्टि ओर उसके प्रभाव से व्यक्ति के जीवन के अनेकों कष्ट दूर होते हैं विपत्तियों से बचाव होता है. किसी भी व्यक्ति की कुंडली में अगर बृहस्पति शुभ नहीं है या किसी कारण कमजोर है या फिर पाप प्रभाव में होने पर बृहस्पतिवार के व्रत करने से ये अशुभ प्रभाव दूर होने लगते हैं.

    ऎसे में बृहस्पति के अशुभ फल मिलने को रोकने के लिए ये व्र्त करना बहुत ही असरदायक होता है. बृहस्पति ग्रह की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए इस व्रत को करने से अशुभता दूर होने लगती है. ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पति को स्त्री की कुंडली में पति के सुख का कारक भी माना गया है ऎसे में जिस कन्या की कुंडली यदि बृहस्पति के कमजोर या पाप प्रभव में होने के कारण विवाह सुख में बाधा आ रही हो तो उन्हें इस व्रत को अवश्य करना चाहिए. इसी के साथ बृहस्पति संतान, नौकरी, शिक्षा से जुड़े कामों में शुभ लाभ पाने के लिए बृहस्पतिवार के व्रत को करना अच्छा माना जाता है.

    बृहस्पतिवार व्रत में क्या नहीं करना चाहिए

  • बृहस्पतिवार के व्रत के दिन स्नान करें लेकिन साबुन का उपयोग नहीं करना चाहिए.
  • बृहस्पतिवार के व्रत वाले दिन केला नहीं खाना चाहिए. केले का उपयोग भगवान को अर्पित की जाने वाली सामग्री में तो कर सकते हैं लेकिन खाने में नहीं.
  • गुरूवार के दिन वस्त्र नहीं धोने चाहिए.
  • बृहस्पतिवर के दिन नाखून, बाल नहीं कटवाने चाहिए और दाढ़ी नहीं बनानी चाहिए.
  • नहाते समय बाल नहीं नहीं धोने चाहिए.
  • शरीर अथवा सिर में तेल नहीं लगाना चाहिए.
  • भोजन में तामसिक भोजन जैसे की मांस इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए.
  • किसी प्रकार के व्यसन अथवा नशे था मदिरा का उपयोग नहीं करना चाहिए.
  • बृहस्पतिवार के दिन क्या-क्या करना चाहिए

  • बृहस्पतिवार के दिन सुबह समय जल में चुटकी भर हल्दी और गंगाजल मिला कर स्नान करना चाहिए.
  • बृहस्पतिवार के दिन व्रत का संकल्प एवं पूजा सुबह-सुबह ही करनी चाहिए. सूर्योदय काल समय अनुकूल होता है पूजा के लिए.
  • घरे के बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद जरुर लेना चाहिए.
  • पूजा में पीले रंग के वस्त्र एवं वस्तुओं का औपयोग करना चाहिए.
  • बृहस्पतिवर के दिन केले के पेड़ का पूजन जरुर करना चाहिए.
  • बृहस्पतिदेव एवं श्री विष्णु भगवान की पूजा में पीले फूल, पीला चंदन, चने की दाल, गुड़ का उपयोग करना श्रेस्कर होता है.
  • मंदिर में पीले रंग की वस्तु ब्राह्मण को दान करनी चाहिए.
  • सामर्थ्य अनुसार इस दिन गरीबों को खाने की वस्तुएं दान देनी चाहिए.
  • बृहस्पतिवार व्रत कथा व पूजा विधि

    बृहस्पतिवार के प्रात:काल स्नान पश्चात भगवान श्री विष्णु एवं बृहस्पति देव का स्मर्ण करना चाहिए वह पूजन करना चाहिए. पूजा में पीली वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए. वस्त्र भी यदि पीले धारण कर सकें तो वह भी अच्छा होता है. भगवान को भोग में मीठे पीले चावल, बेसन का हलवा, गुड़-चना का उपयोग करना चाहिए. भगवान को पीले फूल, चने की दाल, मुनक्का, पीली मिठाई, पीले चावल और हल्दी अर्पित करनी चाहिए.

    बृहस्पतिवार के व्रत वाले दिन प्रात:कल समय ही केले के वृ्क्ष की पूजा भी करनि चाहिए. केले के पेड़ पर जल चढ़ाना चाहिए और चने की दाल, कच्ची हल्दी, गुड़ और मुनक्का को केले के पेड़ पर चढ़ाना चाहिए. केले के पेड़ के सामने धूप-दीप जलाकर, आरती करनी चाहिए और व्रत करने का संकल्प लेना चाहिए. पूजा करने के बाद भगवान बृहस्पति(गुरु) की कथा को पढ़ना या सुनना चाहिए. बृहस्पतिवार(गुरूवार) के व्रत में एक समय भोजन करने का विधान होता है और भोजन में मीठी वस्तुओं का सेवन करना चाहिए.

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    क्यों और कब मनाई जाती है विनायक चतुर्थी ? ऎसे करें चतुर्थी पूजा

    हिन्दू पंचांग अनुसार प्रत्येक माह दो पक्षों में कृष्ण पक्ष एवं शुकल पक्ष में विभाजित है. ऎसे में इन दोनों ही पक्षों में चतुर्थी तिथि आती है. कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी के नाम से जाना जाता है और शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी के नाम से जाना जाता है. इन बातों में मुख्य बात यह है की इन दोनों ही पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी के नाम से ही अधिकांशत: पुकारा और जाना जाता है.

    चतुर्थी तिथि भगवान गणेश को अत्यंत प्रिय है. इस चतुर्थी को भगवान गणेश के जन्म समय से भी जोड़ा गया है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भी चतुर्थी तिथि के संदर्भ में अनेकों कथाएं मिलती हैं जो श्री गणेश जी के साथ इस तिथि के संबंध की प्रगाढ़ता और महिमा को दर्शाती है. प्रतेक माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन विनायक चतुर्थी का व्रत होता है पर इसी के साथ इन सभी में भाद्रपद माह में आने वाली जो चतुर्थी होती है उस गणेश चतुर्थी को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है. इस गणेश चतुर्थी को भगवान श्री गणेश के जन्मोत्सव के रुप में संपूर्ण भारत में बहुत ही उल्लास और श्रृद्धा के साथ मनाया जाता है.

    विनायक चतुर्थी कथा

    विनायक जिस का एक अर्थ बिना नायक के होना भी होता है. भगवान श्री गणेश को माता पार्वती ने स्वयं ही निर्मित किया था इसलिए गणेश को एक नाम विनायक जो बिना पुरुष(नायक) की सहायता के उत्पन्न होते हैं. इसके पीछे की कथा को समझने के लिए हम पैराणिका आख्यानों द्वारा इसे जान सकते हैं. कथा इस प्रकार है की कैलाश में स्थिति माता पार्वती स्नान करने के से पूर्व उबटन तैयार करती हैं और उसे अपने शरीर पर लगा लेती हैं, थोड़ी देर बाद उस उबटन को हटाते हुए वह उस उबटन से एक बच्चे की प्रतिमा बना देती हैं और उसमें प्राण डाल कर उसे जीवन देती हैं.

    उस बालक को माता पार्वती ने अपनी सुरक्षा हेतु द्वार पर खड़े होने का आदेश दिया और कहा की जब तक मैं स्नान करके वापस न आ जाएं वह बालक किसी को भी अंदर न आने दे. ऎसा कह कर माता पार्वती स्नान के लिए अंदर चली जाती है.

    जब भगवान शिव वहां आते हैं तो वह बालक भगवान शिव को अंदर प्रवेश करने से रोक देता है. भ्गवान शिव के अनेको प्रयत्न एवं समझाने के बाद भी जब वह बालक भगवान शिव को अंदर जाने नहीं देता, तो भगवान शिव क्रोध से भर जाते हैं ओर बालक को दण्ड देते हैं उसके सिर को काट देते हैं. माता पार्वती उस बालक की ये दशा देख कर अत्यंत विचलित हो जाती दुख एवं क्रोधवश वह उस बालक को पुन: ठीक करने के लिए भगवान शिव से भी प्रतिशोध लेने की लिए तैयार हो जाती हैं. भगवान शिव को जब सारी बातों का पता चलता है तो वह गणों को आदेश देते हैं की उन्हें अभी इसी समय जाएं ओर जो प्रथम जीव उन्हें प्राप्त हो या जिस किसी का भी सिर प्राप्त होता है लेकर आएं.

    भगवान शिव का आदेश सुन सभी गण सिर की खोज में आगे बढ़ते हैं, जहां उन्हें सबसे पहले एक हाथी दिखाई देता है जिस का सिर वह ले आते हैं. भगवान शिव उस सिर को बाल के शरीर से जोड़ कर उसे जीवन प्रदान करते हैं और विनायक नाम देते हैं और अपने गणों का नायक नियुक्त करते हैं जिस कारण वह बालक गणेश कहलाया.

    भाद्रपद माह की विनायक चतुर्थी का महत्‍व

    भादो अर्थात भाद्रपद माह के दौरान आने वाली शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी या गणेश चतुर्थी के नाम से जाना जाता है. इस चतुर्थी का आरंभ एवं अंत दस दिनों के दौरान भक्ति भाव के साथ मनाया जाता है. महाराष्‍ट्र में तो इसकी धूम विश्व भर को चौंका देने वाली होती है. इस पर्व के दौरन पर घर हो या मंदिर या पंडाल जगह -जगह पर भगवान श्री गणेश की स्थापना की जाती है. भगवान श्री गणेश का जन्‍मोत्सव पूरे दस दिनों तक चलता है और अनंत चतुर्दशी पर इसका समापन होता है.

    गणेश चतुर्थी की पूजन विधि

    हिन्‍दू धर्म में भगवान गणेश को आदि देव के रुप में पूजा जाता है. किसी भी कार्य का आरंभ श्री गणेश जी की पूजा पश्चात ही शुरु होता है. गणेश चतुर्थी के दिन विशेष रुप से भगवान श्री गणेश का पूजन करने से सभी सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है. आईये जान्ते हैं चतुर्थी पूजन विधि के बारे में विस्तार से :-

  • शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान इत्यादि नित्य कार्यों से निवृत होकर भगवान श्री गणेश का स्मरण करना चाहिए.
  • पूजा का संकल्‍प लेते हुए, मंदिर एवं धर्म स्थल पर भगवान गणेश जी के सामने घी का दीपक जलाना चाहिए.
  • फिर गणेश जी का ध्‍यान करने के बाद गणेश परिवार का स्मरण एवं पूजन करना चाहिए.
  • यदि गणेश जी की प्रतिमा हो तो उसे स्‍नान कराना चाहिए. स्नान के लिए पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद और चीनी के मिश्रण) का उपयोग करना चाहिए इसके पश्चात जल से स्‍नान कराना चाहिए.
  • अब श्री गणेश जी को साफ स्वच्छा वस्‍त्र पहनाएं. वस्‍त्र नहीं हैं तो आप उन्‍हें लाल धागा (कलावा) जिसे हाथों में बांधा जाता है वह भी अर्पित कर सकते हैं.
  • गणपति की प्रतिमा पर सिंदूर, चंदन, फूलों की माला चढा़नी चाहिए इसके बाद भगवान को फूल अर्पित करने चाहिए.
  • यदि प्रतिमा न हो तो श्री गणेश जी की तस्वीर का उपयोग करते हुए उन्हें तिलक लगाना चाहिए और फूल माला चढ़ानी चाहिए.
  • श्री गणेश जी के समक्ष सुगंधित धूप जलाएं, भगवान श्री गणेश को लडडू, मिठाई, मेवे और फल इत्यादि अर्पित करने चाहिए. नारियल और दक्षिण भेंट करनी चाहिए.
  • गणेश भगवान के मंत्र का जाप करना चाहिए. उसके बाद आरती शुरु करनी चाहिए. आरती समाप्ति के बाद फूल अर्पित करें ओर भ्गवान गणेश को मोदक का भोग लगाना चाहिए.
  • पूजा समाप्ति पर भगवान गणेश जी से अपनी गलतियों की क्षमा मांगनी चाहिए और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए. भगवान के प्रसाद को समस्त परिवार जनों में बांटना चाहिए और स्वयं भी ग्रहण करना चाहिए. इस प्रकार चतुर्थी के दिन विधि पूर्वक भगवान श्री गणेश का पूजन करने से सभी कष्ट दूर होते हैं और जीवन में आने वाली बाधाओं से मुक्ति प्राप्त होती है.

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