क्या होते हैं कारक ग्रह और कैसे दिखाते हैं अपना असर ?
ज्योतिष में कई प्रकार की युतियां और संबंध बनते हैं जिनके बनने से कई प्रकार से कुण्डली का आंकलन करने में सहायता प्राप्त होती है. जातक के जीवन में इन सभी का प्रखर प्रभाव पड़ता है जिससे जीवन में अनेक उतार-चढाव उत्पन्न होते हैं. इसी प्रकार कुण्डली में परस्पर कारक ग्रह भी होते हैं जो घटनाओं और स्थितियों का निर्धारण करने और उनसे फल कथन करने में सहायक होते हैं.
जन्म कुण्डली में प्रथम,चतुर्थ, सप्तम और दसम भावों में ग्रह स्वराशि, मूलत्रिकोण या उच्चस्थ हो तो उन्हें परस्पर कारक ग्रह माना जाता है. इन परस्पर कारक ग्रहों से तात्पर्य होता है कि एक दूसरे के लिए यह अनुकूल होकर ग्रहों के फलों में शुभता देने वाले बनते हैं., तथा जातक को शुभता एवं जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा भी प्राप्त होती है.
कुण्डली के परस्पर कारक ग्रहों का स्वरूप | General Characteristics of Mutual Karak Planets in Kundali
कुण्डली में यदि परस्पर कारक ग्रह लग्न से केन्द्र भावों में होते हों तो यह स्थिति काफी अच्छी मानी जाती है. इस स्थिति का बहुत लाभ जातक को प्राप्त होता है. जातक के जीवन में आने वाले उतार-चढा़वों में भी कमी आती है और जातक को सुख की प्राप्ति भी हो पाती है.
कुछ ज्योतिषाचार्यों के अनुसार केन्द्र के स्थानों में बनने वाली यह स्थिति बहुत उत्कृष्ठ विकल्प मानी गई है तथा कुण्डली को मजबूती देने वाली बनती है. इस बात को हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि यदि कोई तुला लग्न की कुण्डली हो तो उसमें शनि लग्न में, मंगल चतुर्थ भाव में सूर्य सप्तम में और गुरू और चंद्र दशम भाव में कर्क राशि में हों तो वह परस्पर कारक ग्रह माने जाएंगे.
इस स्थिति से यह स्वत: ही स्पष्ट होता है कि यह स्थिति जातक के लिए कितनी लाभकारी रह सकती है और इससे जातक की कुण्डली को भी भरपूर बल मिल पाता है. उदाहरण में यह बात स्पष्ट होती है कि केन्द्र में होने की अपेक्षा लग्न से केन्द्र में होना विशेष फलदायी माना जाता है.
इसी प्रकार से विभिन्न लग्नों में भी यह स्थितियां बन सकती हैं, इस कारक योग के होने के अनेक विकल्प होते हैं अर्थात विशिष्ट फलदायक ग्रह कारक होते हैं. सभी चर लग्नों में केन्द्र राशियां सूर्य, बृहस्पति, शनि और मंगल की उच्च राशियां होती है.
स्थिर और द्विस्वभाव राशि लग्नों में ऎसी स्थिति नहीं होती है, इसलिए इनमें यह स्थिति नहीं बन पाती है. बृहज्जातक में राजयोग कारक ग्रहों की एक सारणी बनाई गई है जिनमें प्रमुख ग्रहों को शामिल किया गया है.
दूसरे प्रकार का कारक योग | Another Important Karak Yoga
कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और दशम भावों के अतिरिक्त कहीं भी उच्च राशि, स्वराशि, मूलत्रिकोण राशि, मित्रक्षेत्री राशि ग्रह हों या इन्हीं नवांशों में स्थित हों तो वह कारक माने जाते हैं. यदि वह परस्पर केन्द्रों में हों तो इन्हें और विशेष कारक माना जाएगा. जैसे की कुछ ज्योतिषीयों के अनुसार दशमस्थ उच्चराशि में स्थित सूर्य विशेष कारक माना जाता है इसी के साथ दशमस्थ कोई भी उच्चस्थ ग्रह विशेष कारक माना जाता है.
कुछ अन्य विशिष्ट कारक योग | Some Other Important Karak Yogas
कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ और दशम भावों में किसी भी राशि में स्थित हों परंतु नीच नहीं हों तो वह ग्रह भी सामान्य श्रेणी के कारक माने जाते हैं. कुछ ज्योतिषाचार्यों के अनुसार एकादश में स्थित ग्रह भी कारक होता है. परंतु इस बात पर सभी सहमत नहीं हो पाते. इस बात का उल्लेख बृहत्पराशर होरा शास्त्र से भी मिल चुका है कि कुण्डली में किसी भी स्थान में उच्चादिग्रह परस्पर केन्द्र में हों तो कारक हैं.
कारक ग्रहों का फल | Results from Karak Planets
कारक ग्रहों के मजबूत व बली होने पर जातक को हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है. कारक ग्रहों के उच्चता पूर्ण होने से व्यक्ति अग्रीण स्थिति को पाता है. यदि जातक साधारण घर में भी जन्मा हो परंतु उसके ग्रहों में बलता है तो वह उच्च स्थिति को अवश्य पा लेगा.