जन्म के समय आकाशीय ग्रहों का नक्शा कुंडली कहलाता है. समय विशेष पर ग्रहों को कुंडली में अंकित किया जाता है. हर स्थान पर कुंडली बनाने का तरीका अलग होता है, लेकिन ग्रह नौ ही होते हैं और राशियाँ भी बारह ही होती हैं. भारतवर्ष में भी कई प्रकार की कुंडलियाँ बनाने का प्रचलन है. जैसे उत्तर भारतीय पद्धति, दक्षिणी भारतीय पद्धति और पूर्वीय भारतीय पद्धति, इन तीन प्रकार की कुंडलियों का निर्माण भारतवर्ष में किया जाता है.
उत्तर भारतीय पद्धति | North Indian System
उत्तर भारतीय पद्धति में भाव स्थिर रहते हैं अर्थात एक से बारह भाव तक स्थिर होते हैं पर लग्न उदय के साथ राशियाँ बदल जाती है. जिस समय जो लग्न उदय होता है उसे सदा पहले भाव में लिखा जाता है और उसके बाद बाकि सभी राशियों को क्रम से लिखा जाता है. राशियों को बाईं ओर क्रम से लिखा जाता है, माना पहले भाव में कर्क राशि है तब बाईं ओर दूसरे भाव में सिंह राशि और तीसरे भाव में कन्या और बाकि सभी इसी क्रम में चलती जाएगी.
दक्षिण भारतीय पद्धति | South Indian System
दक्षिण भारतीय पद्धति में प्रचलित कुंडली में राशियाँ स्थिर रहती है और भाव बदल जाते हैं. पूरी कुंडली में लग्न भाव कहीं भी आ सकता है जबकि उत्तर भारतीय पद्धति में ऎसा नहीं है. दोनो की कुंडली बनाने का तरीका भी भिन्न होता है. जिस भाव में लग्न राशि आती है उसे दो तिरछी रेखाएँ खींचकर चिन्हित कर दिया जाता है. लग्न को पहला भाव मानते हैं और बाकी भाव दाईं ओर आते हैं. इस पद्धति में राशि स्थिर होती है, इसलिए राशि संख्या को कुंडली में दिखाया नहीं जाता है.
पूर्व भारत की कुंडली | East Indian System
देश के पूर्वी भागों में प्रचलित कुंडली में उत्तर व दक्षिणी भारत दोनों का स्वरुप देखने को मिलता है, लेकिन कुंडली का प्रारुप अलग ही होता है. दक्षिण भारतीय पद्धति की तरह इसमें राशियाँ स्थिर होती हैं लेकिन राशियों को क्रम से उत्तर भारतीय पद्धति के अनुसार बाईं ओर से लिखा जाता है. भाव योजना लग्नानुसार बदल जाती है.
पाश्चात्य देशों की कुंडली | Kundalis in Western Countries
पाश्चात्य देशों में वृत्ताकार कुंडली बनाने का प्रचलन है. लग्न से आरंभ करने पर कुंडली बारह भावों में बंट जाती है. लग्न स्पष्ट को प्रथम भाव का आरंभ माना जाता है. लेकिन भारतीय पद्धति में लग्न स्पष्ट को प्रथम भाव का भाव मध्य माना जाता है. इसमें भावों को बांई ओर से क्रम से रखा जाता है.