जानिए पूर्वमध्यकाल में फलित ज्योतिष का इतिहास और विकास
पूर्वमध्यकाल अर्थात ई. 501 से 1000 तक का काल ज्योतिष के क्षेत्र में उन्नति और विकास का काल था. इस काल के ज्योतिषियों ने रेखागणित, अंकगणित और फलित ज्योतिष पर अध्ययन कर, अनेक शास्त्रों की रचना की. इस काल में फलित ज्योतिष पर लिखे गये साहित्य में राशि, होरा, द्रेष्कोण, नवांश, त्रिशांश, कालबल, चेष्ठाबल, दशा- अन्तर्दशा, अष्टकवर्ग, राजयोग, ग्रहों की चाल, उनका स्वभाव, अस्त, नक्षत्र, अंगविज्ञान, स्वप्नविज्ञान, शकुन व प्रश्न विज्ञान प्रमुख विषय थे.
ज्योतिष में फलित ज्योतिष का स्वरुप ही आदिकाल के बाद पूर्व मध्यकाल में दिखाई देता है. फलित जिसमें व्यक्ति के जीवन में उसके कर्मों और उसके भाग्य की बात की जाने लगी थी. इस समय पर ज्योतिष शास्त्र में अनेक आचार्यों ने अपनी ओर से बहुत से प्रयास किए थे. इस समय पर नए नियम भी आए और जो भी तर्क सामने रखे गए वह सत्य पर आधारित दिखई दिए.
ज्योतिष का इतिहास जितना पुराना है उतनी ही इसकी विश्वसनियता में भी मजबूती है. वेद के आगमन के साथ ही ज्योतिष का संबंध रहा है. ज्योतिश शास्त्र एक अत्यंत प्राचीन विद्या है जो मनुष्य के भूत भविष्य एवं वर्तमान की पहेलियों को सुलझाने में बहुत सहायक है. ज्योतिष का निर्माण करने वाले ऋषि-मुनि त्रिकालदृष्टा रहे हैं. ऎसे में उन्होंने जो भी काल गणना का उपयोग किया उसके द्वारा उन्होंने जीवन के रहस्यों को भी समझा.
ज्योतिषां सूर्यादिग्रहणां बोधक शास्त्र इसका अर्थ हुआ की सूर्य आदि ग्रहों और काल का बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है. ज्योतिष शास्त्र से लोगों को सूर्योदय, ग्रहण, ग्रहों की स्थिति ऋतुओं की जानकारी मौसम की जानकारी इत्यादि बातों का ज्ञान कराया गया. पंचांग का निर्माण इत्यदै बातों पर जोर दिया गया.
ज्योतिष के अंतर्गत ही गणित का भी उल्लेख मिलता है. ज्योतिष के तीन भेद बताए गए हैं जिनमें होरा सिद्धांत और संहिता मुख्य हैं.
होरा -इसके अंतर्गत व्यक्ति के सुख-दुख, अच्छे-बुरे, भाग्योदय इत्यादि के बारे में पता चलता है. इसे जातक शास्त्र भी कहते हैं. जन्म के समय ग्रहों की स्थिति के अनुसार जातक को मिलने वाले फलों का निर्धारण किया जाता है. इसमें जन्म कुण्डली के 12 भावों के फलों का निर्धारण होता है. मानव जीवन में भाग्य की स्थिति को इसके द्वारा समझा जा सकता है.
सिद्धांत -इसमें कल की गणना, सौर चंद्र मासों की गणना मुख्य है यह एक प्रकार से गणित का ही विषय होता है, इसे गणित सिद्धांत भी कहा जाता है. प्राचीन काल में इसकी परिभाषा केवल सिद्धांत गणित के रुप में मानी जाती थी.
संहिता -इसके अंतर्गत भू शोधन, दिशाओं का शोधन, गृह प्रवेश, मूहुर्त विचार, मांगलिक कार्यों का कब होना, शगुन विचार इत्यादि बातें होती हैं. संहिता शास्त्र का का आगमन आदिकाल में हो गया था, इस समय इसका तेजी से विकास होता है.
501-1000 पूर्वमध्यकालिन रेखागणित
ज्योतिष के आरंभ का काल कब से माना जाए इस पर कोई एक निश्चित तथ्य सामने नही आ सकता है. ज्योतिष शास्त्र मनुष्य और सृ्ष्टि के रहस्य को समझने में हमारी मदद करता है. आदिकाल जिसे ज्योतिष का उदय काल जहा गया. इस समय में वेद, आरण्य काल और ब्राह्मण ग्रंथों में ज्योतिष के विषय में पता चलता है. इसी समय पर छ: वेदांग प्रकट होते हैं - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्ति, ज्योतिष और छंद.
इस काल में ज्योतिष साहित्य ग्रहों, नक्षत्रों की विद्या से आगे बढ़ता है और इसके अंतर्गत धार्मिक, समाजिक राजनैतिक विषय भी समाहित होते जाते हैं. इसी समय पर वेदांग ज्योतिष का आरंभ हुआ जिसके दो भाग थे ऋगवेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष.
गुणज निकालना, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घनमूल, घन, भिन्न समच्छेद, त्रैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, क्षेत्रव्यवहार. रेखागणित के अनेक सिद्धान्तों का प्रयोग इस काल में हुआ था. इस काल के ज्योतिषाचार्यों ने यूनान और ग्रीस के सम्पर्क से अन्य अनेक सिद्धान्त बनायें. इन नियमों में निम्न प्रमुख थे.
समकोण त्रिभुज में कर्ण का वर्ग दोनों भुजाओं के जोड के बराबर होता है.
दिये गये दो वर्गो का योग अथवा अन्तर के समान वर्ग बनते है.
आयत को वर्ग बनाना या फिर वर्ग को आयत बनाना.
शंकु का घनफल निकालना.
वृत परिधि नियम.
ये नियम एक प्रकार के स्टीक निर्णय पर पहुंचने के लिए बहुत ही उपयोगी भी सिद्ध होते हैं.
पूर्वमध्यकाल में ज्योतिष
इसके अतिरिक्त इस काल के ज्योतिषी आयुर्दायु, संहिता ज्योतिष में ग्रहों का स्वभाव, ग्रहों का उदय ओर अस्त होना, ग्रहो का मार्ग, सप्तर्षियों की चाल, नक्षत्र चाल, वायु, उल्का, भूकम्प, सभी प्रकार के शुभाशुभ योगों का विवेचन इस काल में हो चुका था. इस युग का फलित केवल पंचाग तक ही सीमित था.
इस काल में ब्रह्मागुप्त ने ब्रह्मास्फुट सिद्धान्त की रचना की. पूर्वमध्यकाल में भारतीय ज्योतिष में अक्षांश, देशान्तर, संस्कार, और सिद्धान्त व संहिता ज्योतिष के अंगों का विश्लेषण किया है.
इसी काल के 505 वर्ष में ज्योतिष के जाने माने शास्त्री वराहमिहिर का जन्म हुआ. वराहमिहिर का योगदान ज्योतिष के क्षेत्र में सराहनीय रहा है. इस काल में बृ्हज्जातक, लघुजातक, विवाह-पटल, योगयात्रा और समास-संहिता की रचना की. पूर्वमध्य काल के अन्य ज्योतिषियों में कल्याणवर्मा, ब्रह्मागुप्त, मुंजाल, महावीराचार्य, भट्टोत्पल व चन्द्रसेन प्रमुख थे.
पूर्व मध्यकाल में ज्योतिष शास्त्र उन्नती में था इस समय के दौरान वारहमिहिर जैसे ज्योतिष के जानकारों ने इसे बहुत आगे तक बढ़ाया. इस सम्य पर ज्योतिष के तीन अंग सिद्धांत, होरा और संहिता पर बहुत अधिक काम किया गया. साथ ही कई नए विषयों का आगमन भी होता है. फलित ज्योतिष में बहुत से प्रयोग हुए और साथ ही ज्योतिष का विस्तार बहुत बड़े स्तर पर हुआ. इस समय पर ग्रहों और गणित के क्षेत्र में सिद्धांत, तंत्र और करण इन तीन बातों का भी प्रचार हुआ. इस समय पर ग्रह गणित अपने चरम पर था. नव ग्रहों की स्थिति से जातक के जीवन के रहस्यों को समझा गया और साथ ही विश्व के कल्याण एवं धर्म की वैज्ञानिकता भी इस समय मजबूती के साथ सभी के सामने आती हैं.
इसी दौरान ही भारत का संपर्क जब अन्य लोगों के साथ हुआ तो बहुत सी नई जानकारियां इकट्ठी हुई और उनके द्वारा ज्योतिष और विज्ञान का संबंध भी मजभूत होता गया है.