वैशाखी पर्व- जलियांवाला बाग शहीद समृ्ति दिवस (Vaisakhi- Jalianwala Bagh Martyrs' Memory Day)
वैशाखी का पर्व एक और जहां किसान और फसलों से जुडा हुआ है. वहीं, दूसरी ओर यह ब्रिटिश शासन के दौरान "जलियांवाला कांड" के समृ्ति दिवस के रुप में भी मनाया जाता है. 14 अप्रैल के दिन जलियांवाला कांड में सैंकडों लोगों को एक साथ गोलियों से भुन दिया गया था. इस कांद में मरने वाले व्यक्तियों में निहत्थे पुरुष, महिलाएं थे. यह घटना मानव इतिहास में सदैव क्रूरतम दिवस के रुप में याद की जाती है. इस दिन से पूर्व और इसके बाद शायद ही ऎसा कोई अन्य उदाहरण मिले, जिसमें एक साथ इतने साथ लोगों को मार दिया गया था.
"जलियांवाला कांड" का स्मृ्ति दिवस
शहीदों को याद करते समय हम सभी भारतीयों को न केवल उन सभी शहिदों को याद करना है, जिन्होनें सामने आकर स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान दिया. बल्कि उन शहीदों की शहादत भी कम महत्व नहीं रखती, जिन्हें जलायांवाला कांड में एक बिर्टिश जनरल ने अपनी गोलियों से भून दिया था. वैशाखी का पर्व मात्र जश्न मनाने का ही नहीं है, अपितु उन शहीदों को भी याद करने का है, जिनकी शहादत से आज हम भारतीय होने पर गौरव का अनुभव करते है. जलियांवाला कांड में जनरल डायर की दरिन्दगी की कहानी आज भी यह बाग अपनी जुबानी बयांन करता है. जलियांवाला बाग जैसे स्थल भी किसी धार्मिक स्थल या तीर्थ से कम नहीं है. इस कांड में मरने वालों को इस दिन सभी को मिलकर प्रणाम करना चाहिए.
आज जलियांवाला बाग कांड की घटना को हुए कई साल बीत चुके है. घटना वर्तमान से ऎतिहासिक घटना में बदल चुकी है. इस कांड में गोलियों से मरने वाले व्यक्तियों की संख्या इतनी अधिक थी, की मरने वालों की वास्तविक संख्या की जानकारी आज तक भी नहीं हो पाई है. आज भी केवल अनुमान ही लगाये जा रहे है. समय के साथ बाग के विकास पर करोडों रुपये खर्च हो रहे है, और हर साल यहां नेतागण आकर श्रद्धांजलि भी देते है. पर उस दिन जो नृ्संहार यहां हुआ था, उसके लहू के रंग फिके नहीं हुए है.
13 अप्रैल 1919 की घटना को समझने के लिये हमें, उस दिन इतिहास में वापस जाना पडेगा. इस ब्रिटिश रिपोर्ट के अनुसार इस दिन मरने वाले व्यक्तियों की संख्या करीब 1000 से अधिक थी, और करीब इतने ही व्यक्ति यहां घायल हुए थे, यह रिपोर्ट गोलियों की गिनती के आधार पर बनाई गई है. इस रिपोर्ट में उन व्यक्तियों के विषय में कुछ नहीं कहा गया है, जो भगदड में कुचल कर मरे, और कुंएं में छलांग लगाकर मरे उनके विषय में कुछ नहीं कहा गया है.
13 अप्रैल 1919 "उधमसिंह का संकल्प दिवस"
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में 1919 का 13 अप्रैल का दिन आंसुओं से लिखा गया है. जनरल डायर ने अम्रतसर के जलियाँवाला बाग में हो रही सभा में जब भारतीयों पर अंधाधुध गोलियां चलाकर सैंकडों लोगों को मौत के घाट उतार दिया, तो सभी ने इस घटना कि भ्रत्सना की. इस घटना में माताओं के बच्चे, बूढे और देश के मरने वाले युवा सभी शामिल थे.
इस घटना ने स्वतन्त्रता सैनानी ऊधमसिंह को झकझोर कर रख दिया और उन्होंने अंग्रेजों से इस घटना में मरने वालों का बदला लेने का संकल्प लिया. इस दिन को ऊधमसिंह के "संकल्प दिवस" के रुप में भी मनाया जाता है. ऊधमसिंह हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींच रखने वाले रहे है. धार्मिक एकता को स्पष्ट करने के लिये इन्होनें अपना नाम "राम मौहम्मद आजाद सिंह" रखा और इस बर्बर घटना के लिये जनरल डायर को जिम्मेदार मानते हुए, उसे मारने का संकल्प लिया.
ऊधमसिंह जनरल डायर को मारक इस घटना का बदला लेना चाहते थें. अपने इस मिशन को अंजाम देने देने के लिए ऊधमसिंह ने विभिन्न नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की. सन 1934 में ऊधमसिंह लंदन पहुँचे और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे. वहाँ उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली.
जलियाँवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी जहाँ माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था. ऊधमसिंह उस दिन समय से ही बैठक स्थल पर पहुँच गए. अपनी रिवाल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली। इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया, जिससे डायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपाया जा सके.
बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ दाग दीं. दो गोलियाँ डायर को लगीं, जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई. गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी घायल हो गए. ऊधमसिंह ने वहाँ से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी. उन पर मुकदमा चला. अदालत में जब उनसे पूछा गया कि वह डायर के अन्य साथियों को भी मार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया.
ऊधमसिंह ने जवाब दिया कि वहाँ पर कई महिलाएँ भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है. 4 जून 1940 को ऊधमसिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फाँसी दे दी गई. इस तरह यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया. इस प्रकार यह दिवस ऊधमसिंह के संकल्प दिवस के रुप में भी मनाया जाता है.