#उप पद लग्न - Up Pad Lagna
जैमिनी ज्योतिष में द्वादशेश, द्वादश भाव से जितने भाव आगे स्थित हो, उस भाव से उतने ही भाव आगे गिनने पर जो भाव आए वह भाव उप-पद कहलाता है.

#ग्रहों की नैसर्गिक मित्रता - [Natural Friendship of the Planets]
ग्रहों की नैसर्गिक मित्रता की तालिका


इस मैत्री में कोई परिवर्तन नहीं होता. इसलिये इसे नैसर्गिक मित्रता कहते हैं.

#नक्त योग - Nakta Yog
वर्ष कुण्डली में यदि लग्नेश और कार्येश में परस्पर दृ्ष्टि न हो और उन दोनों के बीच में दीप्तांशों के अन्तर्गत कोई ऎसा शीघ्रगामी ग्रह हो, जो लग्नेश व कार्येश दोनों को देखता हो तब इस प्रकार वह एक ग्रह के तेज को लेकर दूसरे को दे देता है. एक तरह से वह मध्यस्थता का कार्य करता है. यह योग नक्त योग कहलाता है. इस योग के बनने से व्यक्ति का कार्य किसी दूसरे की मध्यस्थता करने से बन जाएगा.

#नक्षत्र जिनमें ग्रह बली होते हैं - [Nakshtra, In which Planets are Strong]
नक्षत्र जिनमें ग्रह बलवान होते हैं

ग्रह - नक्षत्र

सूर्य - आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा

चन्द्र - मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी

मंगल - हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा

बुध - अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल

गुरु - धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्र

शुक्र - कृ्तिका, रोहिणी, मृ्गशिरा

शनि - पूर्वाषाढा,उत्तराषाढा़, अभिजित, श्रवण

#नन्दा तिथि - Nanda Tithi
शुक्ल पक्ष व कृ्ष्ण पक्ष की प्रथमा तिथि

दोनों पक्षों की षष्ठी तिथि

दोनों पक्षों की एकादशी तिथि.

ये सब नन्दा तिथि कहलाती है. नन्दा तिथि में वस्त्र, गीत-संगीत, उत्सव, कृ्षि, गृ्ह संबंन्धी कार्य और किसी शिल्प का अभ्यास आदि शुभ कार्य कर सकते हैं.

#नपुंसक नक्षत्र - Napunsak Nakshatra
कई विद्वान मूल, मृ्गशिरा और शतभिषा नक्षत्र को नपुंसक नक्षत्र मानते हैं. मतान्तर से केवल स्त्री नक्षत्र और पुरुष नक्षत्र ही होते हैं.

#नरु योग - Naru Yog
यदि वर्ष कुण्डली में लग्न का स्वामी चौथे भाव में हो तथा अष्टम भाव का स्वामी द्वादश भाव में हो तो नरु योग बनता है. जिस वर्ष यह योग बनता है वह वर्ष जातक के लिए अनुकूल होता है. जातक विदेश यात्रा करता है. इस यात्रा से जातक को आर्थिक लाभ की प्राप्ति होती है. पूरा वर्ष जातक का सुख तथा आनन्द से बीतता है.

#पंचक नक्षत्र - Panchak Nakshatra
धनिष्ठा नक्षत्र का उत्तरार्ध, शतभिषा नक्षत्र, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र, रेवती नक्षत्र ये पाँच नक्षत्र पंचक कहलाते है. पंचक का अर्थ है - पाँच का समूह् . सरल शब्दों मे कहे तो कुम्भ व मीन राशि में जब चन्द्र्मा होता है तब पंचक रहते है. इन्हीं को कहीं-कहीं पर धनिष्ठा पंचक भी कहा जाता है.

पंचक में दक्षिण दिशा की यात्रा

ईंधन इकट्ठा करना

शवदाह करना

चारपाई बनवाना या घर पर

छत आदि डालना वर्जित है.

आधुनिक समय में बेड आदि नहीं खरीदना चाहिए. ये सब काम वर्जित है.

राजमार्त्तण्ड में बताया गया है कि पंचक में वर्जित कार्य यदि धनिष्ठा नक्षत्र में किए जाए तो अग्निभय होता है, शतभिषा नक्षत्र में किए जाए तो कलह होता है. पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में रोग होता है. उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में जुर्माना होता है. रेवती नक्षत्र में धनहानि होती है.

मुहुर्तगणपति के अनुसार ऊपर बताए गए कामों के अतिरिक्त स्तम्भ बनवाना या स्तम्भ खडा़ करवाना भी वर्जित है.

गर्ग मुनि ने कहा है कि शुभ या अशुभ जो भी कार्य पंचकों में किया जाता है वह पाँच गुना करना पड़ता है. इसीलिए शवदाह का अवसर होने पर शव के साथ चार या पाँच अन्य पुतले आटे या कुशा से बनाकर अर्थी पर ही रख दिए जाते है.

#पंचधा मैत्री - Panchadha Maitri
नैसर्गिक मित्रता और तात्कालिक मित्रता को मिलाकर पंचधा मैत्री चक्र बनता है. यदि कोई भी ग्रह आपस में नैसर्गिक मित्र है और तात्कालिक मित्रता चक्र में भी मित्र हैं तो दोनो अतिमित्र बन जाएंगे. यदि ग्रह नैसर्गिक मित्र है परन्तु तात्कालिक शत्रु है तो पंचधा मैत्री चक्र में शत्रु बन जाएंगे. यदि ग्रह नैसर्गिक शत्रु है और तात्कालिक भी शत्रु है तब पंचधा मैत्री चक्र में अतिशत्रु बन जाएंगे. यदि एक में मित्र है और दूसरे में शत्रु तब पंचधा मैत्री चक्र में सम हो जाएंगे.

#पंचम भाव - Pancham Bhav[Fifth House]
इस भाव को पुत्र भाव भी कहते हैं. इस भाव के अन्य नाम सुत, बुद्धि, प्रभाव, आत्मज, मंत्र, विवेक, शक्ति, उदर, राजांक, सचिव, सर, पुत्र, प्रतिभा, असु, जठर, श्रुति, स्मृ्ति, तनय, पाक, त्रिकोण, पणफर आदि हैं. इस भाव से संतान का विचार किया जाता है. गर्भ की स्थिति, पिता का ज्ञान, जातक की विद्या, बुद्धि, बुद्धि का विस्तार, स्मरण शक्ति, बुद्धि की तीक्ष्णता, विवेचन शक्ति आदि का विचार इस भाव से किया जाता है. नीति, विनय, व्यवस्था, प्रबन्ध, सलाह, गुप्त मंत्रणा, रक्षा, गोपनीयता, शील स्वभाव, चतुरता, ज्ञान, मेधा शक्ति, आत्मविद्या, बड़प्पन, पठन-अध्ययन, मन की प्रसन्नता, श्रम, वाणी आदि इस भाव से देखे जाते हैं.

पंचम भाव से वंश वृ्द्धि, कला, आतिथ्य, देव भक्ति, यंत्र और मत्र की सिद्धि, जातक के पुण्य कर्म आदि का विचार होता है. जातक को लॉटरी या सट्टे में यश मिलेगा या अपयश इस का विचार भी इस भाव से किया जाता है. अन्नदान भोजन, शिल्प आदि का विचार भी यहीं से होता है. यह उदर स्थान है. उदर अर्थात पेट का विचार इस भाव से करते हैं. जातक की शिक्षा का स्तर इस भाव से पता चलता है.

इस भाव में ह्र्दय और उदर के बीच का भाग आता है. इस भाव से भी ह्रदय का विचार किया जाता है. इसका प्रभाव पीठ पर भी होता है. यदि यह भाव पीड़ित है तब ह्र्दय रोग, पेट के रोग, संतान प्राप्ति में समस्या और शिक्षा में भी बाधा आ सकती है.

#पंचमांश - Panchamaansh
यह वर्ग जातक की आध्यात्मिक प्रवृ्त्ति के बारे में जानकारी देता है. यह वर्ग पूर्व जन्म के पुन्य एवं संचित कर्मों की जानकारी देता है जो इस जीवन में जातक को प्रारब्ध के रुप में भोगने को मिलते हैं. यह वर्ग साधना एवं पूजा के प्रति जातक के सम्मान को भी प्रदर्शित करता है.

30 डिग्री को 6 बराबर भागों में बांटा जाता है. अगर ग्रह चर राशि में स्थित हो तो गिनती उसी राशि से शुरु करेगें. अगर ग्रह स्थिर राशि में है तो उससे पाँचवें भाव से गिनती शुरु करेगें. अगर ग्रह द्विस्वभाव राशि में हैं तो उस राशि से नौवीं राशि से गिनती करेगें.

माना चन्द्रमा मेष राशि में 14 डिग्री 16 मिनट का जन्म कुण्डली में है. पंचमांश कुण्डली में चन्द्रमा तीसरे पंचमांश में स्थित है तथा चर राशि में है इसलिये गिनती वहीं से अर्थात मेष से शुरु करेगें. मेष से गिनती करने पर चन्द्रमा मिथुन राशि में आता है. इस प्रकार पंचमांश कुण्डली में चन्द्र मिथुन में है.

अगर यही चन्द्र स्थिर राशि, वृ्ष में होता है तो वृ्ष राशि से पाँचवीं राशि कन्या राशि होती है, तो हम कन्या राशि से गिनती करते और पंचमांश कुण्डली में चन्द्र वृ्श्चिक राशि में आता. इस प्रकार द्विस्वभाव राशि के लिए भी गणना की जाएगी.

#पंचवर्गीय बल - Panch Vargiya Bal
वर्ष कुण्डली में पांच प्रकार के बलों का अध्ययन किया जाता है. जिनका बल गणितीय आधार पर निकला जाता है. वह पांच बल निम्नलिखित हैं:-

क्षेत्र बल

उच्च बल

हद्दा बल

द्रेष्काण बल

नवांश बल

#पंचांग - Panchang
ज्योतिष में पंचांग का अपना महत्व है. पंचांग का अर्थ है :- पांच अंग. पांच अंगों से मिलकर पंचांग बना है.ये पांच अंग हैं :-

तिथि

वार

नक्षत्र

योग

करण

पंचांग में मुहुर्त आदि से सम्बन्धित सभी प्रकार की जानकारी दी होती है.

#पंचाधिकारी - Panchadhikari
वर्ष कुण्डली में हर वर्ष पंचाधिकारी पांच ग्रह बनते हैं. जो निम्नलिखित हैं:-

जन्म लग्नपति

वर्ष लग्नपति

मुंथाधिपति या मुंथेश

राशिपति

त्रिराशिपति


#पंचोत्तरी दशा - Panchottari Dasha
यदि जन्म लग्न कर्क हो, गुरु कर्क राशि में हो या कर्क राशि के द्वादशांश में हो तथा कर्क राशि का ही द्वादशांश हो तो यह दशा लागू होगी. इस दशा में राहु/केतु को नहीं रखा गया है. कुल सात ग्रहों की दशा होती है. 'यह दशा 105 वर्षों' की होती है.

अनुराधा नक्षत्र से जन्म नक्षत्र तक गिनें जो संख्या आती है उसे 7 से भाग से दें, शेष संख्या दशा क्रम होगी. माना मृ्गशिरा है तो अनुराधा से गणना करने पर 16 आया. 16 को 7 से भाग करने पर 2 शेष आया तो बुध महादशा में जन्म है.



#पक्ष - Paksh
चन्द्र मास में 2 पक्ष होते है. जब सूर्यास्त के उपरान्त कुछ समय तक अन्धेरी रात आ जाती है या रात भर अंधेरा रहे उसे कृ्ष्ण पक्ष कहते हैं. जब सूर्यास्त के उपरान्त कुछ समय तक या रात भर चन्द्र का प्रकाश रहे तब उसे शुक्ल प़क्ष कहते हैं.

#पक्ष और तिथि शुद्धि - Paksha And Tithi Shuddhi
विवाह मुहुर्त में पक्ष और तिथि शुद्धि

ज्योतिष ग्रन्थों में कृ्ष्ण पक्ष व शुक्ल पक्ष में से शुक्ल पक्ष को समस्त कार्यों के लिए शुभ माना गया हैं. कृ्ष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि तक शुभ कार्य किए जा सकते हैं. कई ग्रन्थों में दशमी तिथि तक कार्य कर सकते हैं. तिथियों को ग्रन्थों में ज्यादा महत्व नहीं दिया गया है. परन्तु रिक्ता तिथि को त्यागना चाहिए. तिथियों में भी चतुर्दशी, अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा त्याज्य होती है.

#पक्षरन्ध्र तिथि या छिद्रा तिथियाँ - Paksha Randhra Tithi
शुक्ल पक्ष तथा कृ्ष्ण पक्ष अर्थात दोनों पक्षों की चतुर्थी तिथि, षष्ठी तिथि, अष्टमी तिथि, नवमी तिथि, द्वादशी तिथि, चतुर्दशी तिथियाँ पक्षरन्ध्र तिथियाँ या छिद्रा तिथियाँ कहलाती हैं.

इन तिथियों में शुभ कार्य वर्जित है.

#पद - Pad
जैमिनी ज्योतिष में किसी भाव का स्वामी अपने भाव से जितना दूर है उतने ही भाव दूर उस भाव से संबंधित पद होगा. जैसे लग्नेश लग्न से चार भाव आगे चतुर्थ भाव में स्थित है तो चौथे भाव से चार भाव दूर सप्तम भाव में लग्न पद या पहला पद होगा. इसी तरह सभी भावों का पद क्रम से निकालेगें.

पहले पद को पद लग्न या आरूढ़ या आरूढ़ लग्न कहा जाता है. 7वें पद को दारा पद कहते है. 12वें पद को उप पद कहा जाता है. उप पद का भविष्य कथन में विशेष महत्व है.

#परदारा सहम - Pardara Saham
दिन व रात्रि वर्ष प्रवेश हेतु :- शुक्र - सूर्य + लग्न

#पराशरी राजयोग - Parashari Rajyog
राजयोग कुण्डली में जब किसी भाव में केन्द्र और त्रिकोण भाव के स्वामी एक साथ स्थित हों या एक-दूसरे पर दृ्ष्टि डाल रहें हों या एक-दूसरे से राशि परिवर्तन कर रहें हैं तब राजयोग बनता हैं. राजयोग में शामिल ग्रह की दशा - अन्तर्दशा आने पर जातक को पूरे फल अनुकूल मिलते हैं. अगर राजयोग में शामिल ग्रह खराब भावों में हैं तब फल मिलने में कमी रह सकती है.

#परिघ योग - Parigh Yog
जातक विद्वेषी, धनी, राजा का प्रिय होता है. मंत्र और शास्त्रों का ज्ञाता होता है. झूठ बोलने वाला, दयाहीन होता है. चतुर, निर्भय, शत्रुजित, दानी, भोगी, कवि, वाचाल होता है. कम भोजन करने वाला और कुल की उन्नति करने वाला होता है.

#पात दोष - Paat Dosh
पात दोष :- इसका दूसरा नाम “चण्डीश चण्डायुध “ भी है. इसका संबंध पंचांग में बताए गये साध्य, हर्षण, शूल, वैधृ्ति, व्यातिपात व गण्ड योगों से है. इन योगों का जो अन्त समय पंचांग में लिखा हो, उस समय जो नक्षत्र (चन्द्र नक्षत्र या दिन नक्षत्र) होगा, वह पात दोष से दूषित होगा.

हम यह भी कह सकते हैं कि जिन नक्षत्रों में उपरोक्त योग समाप्त होते हैं वह नक्षत्र पात दोष से पीड़ित होते हैं.दिए गए योग सूर्य और चन्द्रमा की एक-दूसरे से दूरी के आधार पर बनते हैं. इसलिए पात दोष को विवाह के समय सूर्य तथा चन्द्रमा द्वारा अधिष्ठित नक्षत्रों के आधार पर बताया जा सकता है.

#पातिक मास Paatik Maas [Paatik Month]
चन्द्र जब एक आरोह पात से दूसरे आरोह पात की ओर गतिशील होता है, तब इस गति में लगने वाले समय या गति काल को ‘पातिक मास’ कहते हैं. यह अवधि 27 दिन, 5 घण्टे, 5 मिनट और 35.5 सैकण्ड की होती है. इस काल में राहु के पीछे खिसक जाने के कारण पातिक मास ‘नाक्षात्रिक मास से कुछ छोटा होता है.

#पात्यायनी दशा - Patyayani Dasha
पात्यायनी दशा में राहु /केतु को छोड़कर अन्य सात ग्रहों और लग्न को लिया जाता है. इस दशा में राशियों को छोड़कर ग्रहों तथा लग्न के अंश व कला लिए जाते हैं. केवल भोगांश की गणना होती है राशियों की नहीं. लग्न तथा ग्रहों के भोगांश को कृशांश के रुप में जाना जाता है. भोगांश के स्थान पर कृ्शांश शब्द का प्रयोग किया जाता है.

पात्यायनी दशा में सभी सातों ग्रहों व लग्न के कृशांश को क्रम से लिखा जाता है. सबसे पहले सबसे कम ग्रह के भोगांश अर्थात कृशांश लिखे जाते हैं. बाकी फिर बढ़ते हुए क्रम से लिखे जाते हैं. सबसे अंत में सबसे अधिक ग्रह के कृ्शांश को लिखा जाता है.

#पितृ सहम - Pitri Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- शनि - सूर्य + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- सूर्य - शनि + लग्न

#पीड़ित ग्रह - Pidit Grah
जब कोई ग्रह, ग्रह युद्ध में शामिल हो या ग्रह युद्ध में हारा हुआ हो, राहु/केतु अक्ष पर हो, उल्कापात वाला ग्रह, शुभ ग्रह पाप युक्त या ग्रहण योग में शामिल हो तब वह ग्रह पीड़ित अवस्था में होता है.

#पुण्य सहम - Punya Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- चन्द्र - सूर्य + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- सूर्य - चन्द्र + लग्न

#पुत्र कारक - Putra Karaka
जैमिनी ज्योतिष में जिस ग्रह के मातृ कारक के उपरान्त कम अंश हों उसे संतान भाव का कारक अर्थात पुत्र कारक कहते हैं. पराशरी सिद्धांत से कुंडली में संतान भाव का नैसर्गिक कारक बृ्हस्पति है. पुत्र कारक, पंचम भाव का कारक ग्रह है.इससे संतान तथा शिक्षा दोनों का अध्ययन किया जाता है.

#पुनर्वसु नक्षत्र - Punarvasu Nakshatra
मुख्य रुप से दो चमकीले तारे पुरुष तथा प्रकृ्ति पुनर्वसु नक्षत्र को दर्शाते हैं. इनके नीचे दो तारे और हैं, ये चारों मिलकर आयताकार भवन का आभास देते हैं. मुख्य तारा पुरुष क्रान्ति वृ्त्त से 6 अंश 41 कला 2 विकला उत्तर तथा विषुवत रेखा से 28 अंश 2 कला उत्तर में हैं. इस नक्षत्र को गुरु की ऊर्जा का स्त्रोत माना जाता है. निरायन सूर्य 5 जुलाई को इस नक्षत्र में प्रवेश करता है. फरवरी के अंत में रात्रि 9 बजे से 11 बजे तक यह पुनर्वसु नक्षत्र शिरोबिन्दु पर रहता है.

पुनर्वसु का स्वामी गुरु रहने से इसे शुभ नक्षत्र माना जाता है. पुनर्वसु का अर्थ है पुन: धनी होना. प्राचीन सभ्यता में पुरुष और प्रकृ्ति तारे को ही मिथुन राशि में स्त्री-पुरुष के जोडे़ के रुप में मान्यता मिली है.

पुनर्वसु शब्द पुन: + वसु से बना है. इसका अर्थ है पुन: धन मान व यश की प्राप्ति. वसु का अन्य अर्थ विष्णु या शिव भी है. पुनर्वसु का अर्थ दुबारा से वसु बन जाना है. पुनर्वसु का प्रतीक चिह्न बाणों से भरा तरकस है. बाण , इच्छा, लक्ष्य, प्रयास व गतिशीलता का प्रतीक है. बाणों का अर्थ गति भी है. अनुसंधान, अन्वेषण, खोज, तीर्थ यात्रा, पर्यटन का संबंध पुनर्वसु से माना जाता है.

इस नक्षत्र की अधिष्ठात्री देवि अदिति है. इसे सूर्य व इन्द्रादि देवताओं की जननी होने का सौभाग्य मिला है. पुनर्वसु या वस्तु की प्रपन्न शक्ति का अर्थ है शक्ति व ऊर्जा की पुन: प्राप्ति. बाण का लक्ष्य बेध कर पुन: तरकश में लौटना कुछ ऎसा है जैसे जल वर्षण के बाद बादल वापस लौट जाते हैं. मन व मस्तिष्क का संतुलन, दूसरों को सुख देने की प्रवृ्ति, परस्पर स्नेह व सहयोग का महत्व इस नक्षत्र का विशेष गुण है.

पुनर्वसु को शान्त नक्षत्र माना जाता है. यह चर नक्षत्र है. व गतिशीलता इसका स्वभाव है. पुनर्वसु नक्षत्र की वैश्य जाति है अर्थात व्यापारी, उद्योगपति आदि. इस नक्षत्र के प्रथम तीन चरण वैश्य ग्रह बुध की मिथुन राशि में होने से इसे वैश्य नक्षत्र माना गया है. इस नक्षत्र को पुरुष नक्षत्र माना गया है क्योंकि इसका स्वामी ग्रह गुरु पुरुष ग्रह है.

पुनर्वसु नक्षत्र के अन्तर्गत हमारे शरीर की उँगलियाँ व नसिका आती हैं. यह नक्षत्र वात नक्षत्र वात प्रधान नक्षत्र है. विद्वानों की मान्यता है कि पुनर्वसु आकाश तत्व प्रधान है जहाँ वायु प्रवाह अबाध गति से होता है. पुनर्वसु नक्षत्र की मिथुन राशि का स्वामी बुध भी वात प्रधान ग्रह है. इस नक्षत्र की दिशा पश्चिम, उत्तर तथा उत्तर-पूर्व में बने चाप को माना जाता है.

पुनर्वसु सत्वगुणी नक्षत्र है. इस नक्षत्र का उत्कृ्ष्ट भाग जल तत्व प्रधान राशि कर्क में पड़ने से इसे जल तत्व नक्षत्र माना जाता है. पुनर्वसु आरोग्य लाभ व बल वृ्द्धि या पोषण कर्ता है जो जल तत्व के कार्य माने जाते हैं. पुनर्वसु को देव गण नक्षत्र माना गया है. यह तीर्यक या समतल नक्षत्र भी है. यह नक्षत्र ना तो अधिक विकसित है ना ही संकुचित है अपितु सम रहता है. यह चर नक्षत्र है. अत: पुनर्वसु नक्षत्र वाला जातक विभिन्न स्तर पर निरन्तर सक्रिय व गतिशील रहता है.

पौष मास का पूर्वार्ध पुनर्वसु नक्षत्र का मास है. जो प्राय: दिसम्बर के उत्तरार्ध में पड़ता है. शुक्ल व कृ्ष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि का संबंध पुनर्वसु नक्षत्र से जोडा़ गया है. पुनर्वसु नक्षत्र का स्वामी ग्रह गुरु बहुत शुभ व सात्विक ग्रह है. इस नक्षत्र के पहले तीन चरन बुध की राशि में आते हैं तथा अंतिम एक चरण चन्द्रमा की राशि में होने से इस नक्षत्र पर बुध की गतिशीलता, हँसमुख स्वभाव, मिलनसार व बुद्धि कौशल की छाप पड़ती है तो दूसरी ओर चन्द्रमा की संवेदनशीलता, भावुकता का प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई देता है.

पुनर्वसु नक्षत्र की मार्जार योनि है. पुनर्वसु नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर के है. दूसरे चरण का अक्षर को है. तीसरे चरण का अक्षर 'ह' है. चतुर्थ चरण का अक्षर हि या ही है. इस नक्षत्र को महर्षि कृ्त का वंशज माना जाता है. कृ्त का अर्थ है प्रोत्साहन देने वाला, उत्साह बढा़ने वाला, मनोबल बढ़ाने वाला.

त्रेता युग में भगवान राम का जन्म पुनर्वसु नक्षत्र व पुनर्वसु लग्न में हुआ था. पहले उन्होने पत्नी व राज्य को खोया फिर पुन: प्राप्त कर लिया. अपने नाम के अनुसार पुनर्वसु नक्षत्र ने काम किया - पुन: प्राप्ति.

#पुरुष नक्षत्र - Purusha Nakshatra[Male Nakshatra]
अश्विनी नक्षत्र, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, अनुराधा, श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र पुरुष नक्षत्र कहलाते हैं. कई अन्य मत से पुष्य, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा़, उत्तराषाढा़, श्रवण, स्वाति, विशाखा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र पुरुष नक्षत्र हैं और बाकी बचे सभी नक्षत्र स्त्री नक्षत्र हैं. इन विद्वानों के अनुसार नपुंसक नक्षत्र नहीं होते हैं. स्त्री-पुरुष की कुण्डली मिलान में यदि दोनों के नक्षत्र एक ही वर्ग में पडे़ तब स्थिति अनुकूल रहती है.

#पुष्य नक्षत्र - Pushya Nakshatra
आकाश में पुष्य नक्षत्र की स्थिति कर्क राशि में 3 डिग्री 20 मिनट से 16 डिग्री 40 मिनट तक होती है. यह क्रान्ति वृ्त्त से 0 अंश 4 कला 37 विकला उत्तर तथा विषुवत वृ्त्त से 18 अंश 9 कला 59 विकला उत्तर में है. इस नक्षत्र में तीन तारे तीर के आगे का तिकोन सरीखे जान पड़ते हैं. बाण का शीर्ष बिन्दु या पैनी नोंक का तारा पुष्य क्रान्ति वृ्त्त पर पड़ता है.

पुष्य को ऋग्वेद में तिष्य अर्थात शुभ या माँगलिक तारा भी कहते हैं. सूर्य जुलाई के तृ्तीय सप्ताह में पुष्य नक्षत्र में गोचर करता है. उस समय यह नक्षत्र पूर्व में उदय होता है. मार्च महीने में रात्रि 9 बजे से 11 बजे तक पुष्य नक्षत्र अपने शिरोबिन्दु पर होता है. पौष मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र में रहता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि है.

पुष्य का अर्थ है पोषण करने वाला, ऊर्जा व शक्ति प्रदान करने वाला. मतान्तर से पुष्य को पुष्प का बिगडा़ रुप मानते हैं. पुष्य का प्राचीन नाम तिष्य शुभ, सुंदर तथा सुख संपदा देने वालाहै. विद्वान इस नक्षत्र को बहुत शुभ और कल्याणकारी मानते हैं. विद्वान इस नक्षत्र का प्रतीक चिह्न गाय का थन मानते हैं. उनके विचार से गाय का दूध पृ्थ्वी लोक का अमृ्त है. पुष्य नक्षत्र गाय के थन से निकले ताजे दूध सरीखा पोषणकारी, लाभप्रद व देह और मन को प्रसन्नता देने वाला होता है.

गाय में सभी देवताओं का निवास माना जाता है. कर्क राशि के स्वामी चन्द्रमा को भी माता का प्रतीक माना जाता है. अत: इस नक्षत्र में मातृ्त्व के सभी गुण माने जाते हैं. पुष्य नक्षत्र उत्पादन क्षमता, उत्पादकता, संरक्षणता, संवर्धन व समृ्द्धि का प्रतीक माना जाता है. कुछ विद्वान तीन तारों में चक्र की गोलाई देखते हैं. वे चक्र को प्रगति 'रथ' का चक्का मानते हैं.

देव गुरु बृ्हस्पति को पुष्य नक्षत्र का अधिष्ठाता देवता माना गया है. किसी भी नक्षत्र पर उसके देवता का प्रभाव नक्षत्रपति की तुलना में अधिक होता है. इसलिए पुष्य नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि है परन्तु नक्षत्र का ग्रह बृ्हस्पति होने से इस नक्षत्र में गुरु के गुण अधिक दिखाई देते हैं. पुष्य नक्षत्र का व्यवहार प्राचीन ऋषियों ने नारी जैसा शांत, गंभीर व सत्यनिष्ठ माना है. इस नक्षत्र की जाति क्षत्रिय जाति है. पुष्य नक्षत्र का संबंध राजनीति व सत्ता सुख से होने के कारण, इसे क्षत्रिय जाति माना गया है. देवगुरु बृ्हस्पति राजनीति व कूटनीति के आचार्य हैं इसलिए पुष्य नक्षत्र का क्षत्रिय होना सही है.

पुष्य नक्षत्र पुरुष नक्षत्र है. भले ही इसमें नारीत्व के गुण, संवेदनशीलता व ममता कुछ अधिक मात्रा में हों. इस नक्षत्र का अधिष्ठाता देवता गुरु पुरुष देवता है. इस नक्षत्र में शरीर का मुख व चेहरा आता है. चेहरे के भावों का पुष्य से विशेष संबंध है. यह नक्षत्र पित्त प्रकृ्ति का है. इस नक्षत्र की दिशा पश्चिम, पश्चिम-उत्तर तथा उत्तर दिशा है. इस बात का भी ध्यान रखेम कि कर्क राशि की दिशा उत्त्तर तो नक्षत्रपति शनि को पश्चिम दिशा का स्वामी माना जाता है.

पुष्य नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि हिने से विद्वानों ने इसे तमोगुण प्रधान माना है. अत: यह तामसिक नक्षत्र है. पुष्य जल तत्व प्रधान नक्षत्र है. यह चन्द्रमा की राशि कर्क में स्थित है. चन्द्रमा व कर्क राशि दोनों ही जल तत्व प्रधान हैं. पुन: नक्षत्र का देवता गुरु भी स्थूल व कफ़ प्रधान होने से जल तत्व की प्रधानता को दर्शाता है. विद्वानों ने पुष्य नक्षत्र को देवगण माना है.

पुष्य नक्षत्र उर्ध्वमुखी होने से जातक महत्वाकांक्षी व प्रगतिशील होता है. पौष चन्द्र मास का उत्तरार्ध, जो जनवरी मास में पड़ता है, को पुष्य नक्षत्र का मास माना जाता है. शुक्ल व कृ्ष्ण पक्ष की दशमी का संबंध पुष्य नक्षत्र से माना जाता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि व राशि स्वामी चन्द्र होने से जातक कर्तव्यनिष्ठ, दायित्व निर्वाह में कुशल व परिश्रमी होता है. इस नक्षत्र को जन समुदाय को प्रभावित करने वाला ऩात्र माना गया है.

पुष्य नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'हू' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'हे' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'हो' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'ड' है. पुष्य नक्षत्र की योनि मेष है. पुष्य नक्षत्र को ऋषि मरीचि का वंशज माना गया है.

#पूर्ण इत्थशाल - Purna Itthashal
वर्ष कुण्डली में यदि लग्नेश और कार्येश के मध्य इत्थशाल हो तथा लग्नेश-कार्येश के मध्य अक्षांश अंतर एक अंश या उससे कम हो तो पूर्ण इत्थशाल होता है.

#पूर्णा तिथि - Purna Tithi
शुक्ल पक्ष व कृ्ष्ण पक्ष की पंचमी तिथि, दशमी तिथि, पूर्णिमा व अमावस्या तिथियाँ पूर्णा तिथि कहलाती हैं.

पूर्णा तिथि में विवाह, यज्ञोपवीत, आवागमन या यात्राएं, किसी उच्च पद के लिए अभिषेक तथा शांति पाठ आदि कर्म कर सकते हैं.

इन कार्यों में अमावस्या तिथि को नही लेना है.

#पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र - Purvaphalguni Nakshatra
पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र सिंह राशि में 13 अंश 20 कला से 26 अंश 40 कला तक रहता है. यह क्रान्ति वृ्त्त से 14 अंश 20 कला उत्तर तथा विषुवत रेखा से 20 अंश 32 कला 25 विकला उत्तर में हैं. सिंह राशि भचक्र की चमकदार राशि है. इसका मुख्य तारा मघा से उत्तर पूर्व की ओर है जिसके ठीक नीचे एक तारा ओर है. अगस्त मास के अन्त में सूर्य पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में गोचर करने से, प्राय: पूर्व दिशा में पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र उदित होता है. अप्रैल के अन्त में यह मघा के साथ शिरो बिन्दु पर दिखाई देता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह शुक्र होता है.

फाल्गुनी का अर्थ है लाल रंग या रक्त वर्ण तथा पूर्वा का अर्थ है पहले या प्रथम. पूर्वा फाल्गुनी लाल रंग से जुडे़ साहस, उत्साह, ऊर्जा, बल पराक्रम, क्रोध, हिंसा सभी गुणों को अपने में समेटे हुए है. इस नक्षत्र का प्रतीक चिह्न किसी चारपाई या दिवान अथवा तख्त के आगे वाले दो पाँव पूर्वा फाल्गुनी के प्रतीक चिह्न हैं. कुछ विद्वान इसे विश्राम का नक्षत्र मानते हैं. दिवान की मात्र दो टाँगें अल्प अवधि का विश्राम या विश्राम का आरम्भ दर्शाती है. इसे ऊर्जा का नवीनीकरण भी मान सकते हैं.

भग को पूर्वाफाल्गुनी का अधिष्ठाता देवता माना जाता है. भग को भोर का तारा भी कहा जाता है. भग शब्द भोग, ऎश्वर्य, सुख व आनन्द के लिए प्रयुक्त होता है. पूर्वाफाल्गुनी का सम्बंध शिव लिंग की उपासना से है. पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का गुण काम करने से उपजी थकान को मिटाने के लिए, विश्राम या मनोरंजन, इस नक्षत्र का गुण है. यह नक्षत्र भाग-दौड़ भरी जिन्दगी के बीच फुरसत के क्षणों को दर्शाता है. सूर्य की अग्नि तत्व राशि में स्थित पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र को क्रूर, अधोमुखी माना है.

पूर्वा फाल्गुनी को क्रूर नक्षत्र जरूर मानते हैं पर यह एक संतुलित नक्षत्र है. इस् नक्षत्र में विश्राम व रचनात्मक, कार्य और विश्राम तथा क्रूरता व सौम्यता का अदभुत संतुलन दिखता है. विद्वानों ने इस नक्षत्र को ब्राह्मण जाति का नक्षत्र माना है. यह नक्षत्र सत्व गुण प्रधान सूर्य की राशि में है. शुक्राचार्य इस नक्षत्र के स्वामी है तो शुक्र के कारण यह दु:ख, निराशा व अभावों में भी अपनी राह बनाने में सक्षम होता है.

पूर्वाफाल्गुनी को स्त्री नक्षत्र माना जाता है. राशीश सूर्य तथा अधिष्ठाता देवता भग पुरुष होने पर भी इस नक्षत्र को स्त्री संज्ञक माना जाता है. विद्वानों की मान्यता है कि सुख, वैभव, लिप्सा, स्त्रियोचित गुण हैं. शुक्र को भी चन्द्रमा की तरह अनेक विद्वानों ने स्त्री ग्रह माना है. प्रजनन अंग, ओष्ठ व दाहिने हाथ को पूर्वाफाल्गुनी का अंग माना जाता है. यह नक्षत्र सूर्य की अग्नि तत्व राशि सिंह में होने से पित्त प्रधान माना है. कुछ विद्वान कामाग्नि को भी अग्नि व पित्त प्रधान मानते हैं.

दक्षिण-पूर्व व पूर्व को जोड़ने वाली चाप को पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र की दिशा माना जाता है. शुक की भोग लिप्सा के कारण पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र को रजोगुणी या राजसिक नक्षत्र माना गया है. यह जल प्रधान नक्षत्र है. मतान्तर से पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का संबंध नूतन सृ्ष्टि की रचना व संतान उत्पत्ति से है. शुक्राणु की गति वीर्य के द्र्व्य के रुप में ही संभव है.

पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र को विद्वानो ने मनुष्य गण माना है. यह अधोमुखी नक्षत्र होने से बीजारोपण, उत्खनन व तालाब आदि की खुदाई के लिए श्रेष्ठ है. यह उग्र प्रकृ्ति का नक्षत्र है. पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र सोए हुए सिंह जैसे होता है जिसे बिना कारण छेडा़ जाए तो परिणाम भयानक होगा.

फाल्गुन मास का पूर्वार्द्ध जो फरवरी के चौथे सप्ताह में पड़ता है, को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का मास माना जाता है. शुक्ल व कृ्ष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को पूर्वाफाल्गुनी से संबंधित तिथि माना जाता है. पूर्वाफाल्गुनी को मूषक योनि का नक्षत्र माना जाता है. इस नक्षत्र को अत्रि मुनि का वंशज माना जाता है. अत्रि मुनि की सृ्ष्टि व प्रलय में सक्रिय योगदान देने वाले ऋषियों में गणना होती है. ये ऋषि महाप्रलय के समय भी नवनिर्माण की इच्छा से जीवन को बीज रुप में सहेज कर रखते हैं. पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र भी अत्रि मुनि की सृ्जनात्मक प्रकृ्ति को दर्शाता है.

पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'मो' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'टा; है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'टी' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'टु' है.


#पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र - Purvabhadrapad Nakshatra
आकाश में कुंभ राशि में 20 अंश से मीन राशि में 3 अंश 20 कला तक पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र रहता है. क्रान्ति वृ्त्त से 19 अंश 24 कला 22 विकला उत्तर में और विषुवत रेखा से 15 अंश 11 कला 21 विकला उत्तर में पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र स्थित है. इस नक्षत्र के तीन चरण कुंभ राशि में है और एक अंतिम चरण मीन राशि में पड़ता है.

पूर्वाभाद्रपद में दो तारे क्रन्तिवृ्त्त से समकोण बनाने के कारण उत्तर-दक्षिण कहलाते हैं. इन तारों की पूर्व दिशा में दो तारे उत्तरा भाद्रपद के हैं. ये चारों तारे मिलकरीक चौकी य चतुर्भुज बनाते हैं. ये तारे हयशिर तारा मंडल के सदस्य हैं. प्राचीन ऋषियों ने पूर्वाभाद्रपद को शैया के आगे वाले दो पाए तो उत्तराभाद्रपद के तारों को शैया के पिछले तारे स्वीकारा है. मार्च के पहले सप्ताह में प्रात: सूर्योदय के समय पूर्वाभाद्रपद को पूर्व दिशा में उदय होते देखा जाता है.

निरायन सूर्य 4 मार्च के लगभग पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र में प्रवेश करता है. अक्तुबर मास में रात 9 बजे से 11 बजे के बीच चतुर्भुज के रुप में इसे उत्तरी आकाश में शिरो बिन्दु पर देखा जा सकता है. भाद्रपद मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा कभी पूर्वा भाद्रपद तो कभी उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में होता है. पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का स्वामी ग्रह गुरु होता है.

पूर्वाभाद्रपद का अर्थ है पहला भाग्यशाली पावों वाला नक्षत्र. भद्र या भाद्र का अर्थ है सज्जन, शुभ, कल्याणकारी या भाग्य वृ्द्धि करने वाला. पद का अर्थ है चरण, कदम, पाँव. पूर्वा पहले वाला या प्रथम. उत्तरा बाद वाला या पीछे वाला या दूसरे क्रमांक पर स्थित. जिसके पाँव शुभ है अर्थात जिसका आगमन कल्याण व शुभता बढा़ता हो ऎसा नक्षत्र. पुर्वाभाद्रपद के अन्य नाम हैं - अजपाद अर्थात अजन्मा, भग्वान विष्णु के कल्याणकारी चरण.

पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का प्रतीक चिह्न चार तारों से बनी पलंग की आकृ्ति को माना जाता है जो निद्रा सुख नहीं अपितु महानिद्रा का स्थान माना जाता है. विद्वानों का मत है कि इस नक्षत्र में ही भचक्र की अंतिम राशि मीन का आरम्भ हुआ है. मीन का संबंध मोक्ष से है. अत: पूर्वाभाद्रपद के दो तारों को मृ्त्यु शैया के, पहले वाले, दो पाँव मानना उचित है. अन्य कुछ विद्वानों का मत है कि द्वादश भाव सुख, वैभव और लौकिक भोगों के साथ शयन सुख का भी कारक है.

पूर्वाभाद्रपद के दो तारों से बनी रेखा को कुछ विद्वानों ने सूर्य की एक किरण माना है. कभी ऎसा जातक कष्ट, पीडा़ व निराशा के अंधकार से घिर कर जब अपनी मृ्त्यु की कामना करता है, उस समय सर्वशक्तिमान प्रभु की कृ्पा का आभास ज्योति की किरण के रुप में होता है. पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के प्रतीक पलंग के दो पाए, दो चेहरे, तलवार व किरण इस बात को दर्शाते हैं कि मनुष्य को प्रभु तक पहुँचने के लिए एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है.

पूर्वाभाद्रपद के देवता का नाम "अज एकपाद" है. कुछ विद्वानों ने इसे एक पैर वाला बकरा तो अन्य ने एक पैर वाला अजन्मा माना है. विद्वानों का तर्क है कि मीन राशि का संबंध काल पुरुष के चरणों से है. पूर्वाभाद्रपद का मात्र एक चरण मीन राशि में है तो इसे एक पाद कहना सही ही है. कुछ विद्वान कहते हैं कि भचक्र की अंतिम राशि, संसार की अंतिम अवस्था या प्रलय को दर्शाती है. प्रलयंकर शिव, जब रौद्र रुप लेकर तांडव करते हैं तो एक टाँग पर ही अपनी देह को संतुलित करते हैं. अत: यह "अज एकपाद" देवता प्रलयंकर शिव ही हैं.

वैदिक ऋषियों ने पूर्वाभाद्रपद को निष्क्रिय या अकर्मण्य नक्षत्र माना है. अपने लक्ष्य निर्धारण व कार्य योजना बनाने में इसे कुछ ज्यादा ही समय लगता है. इस ऩक्षत्र को ब्राह्मण जाति का माना गया है. क्योंकि यह देवगुरु बृ्हस्पति का नक्षत्र है. इस नक्षत्र को पुरुष संज्ञक नक्षत्र माना गया है. क्योंकि इस नक्षत्र का अधिपति ग्रह गुरु पुरुष ग्रह ही है.

विद्वानों ने पूर्वाभाद्रपद को देह का बायाँ भाग माना है. अंतड़ियाँ, पेट, जाँघें, टाँग व पदतल का बायीं ओर वाला भाग इस नक्षत्र के अधिकार क्षेत्र में आते हैं. अन्य मत से मात्र पेट के वाम पार्श्व तथा अन्य बायीं जाँघ को इस नक्षत्र का कारकत्व मानते हैं. यह नक्षत्र वायु दोष या वात पीडा़ देने वाला नक्षत्र है. पूर्वाभाद्रपद की दक्षिण - पूर्व दिशा अग्नि कोण से पश्चिम दिशा को जोड़ कर बनी चाप को माना जाता है. मतान्तर से उत्तर पश्चिम वायव्य कोण को इस नक्षत्र की दिशा माना गया है.

विद्वानों ने पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र को सात्विक नक्षत्र माना है. इस नक्षत्र को आकाश तत्व माना गया है. क्योंकि नक्षत्रपति गुरु का संबंध आकाश से है. पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र को मनुष्य गण माना गया है. इसे अधोमुखी नक्षत्र माना गया है. इसे उग्र या क्रूर ऩात्र भी कहा जाता है.

भाद्रपद मास में कृ्ष्ण पक्ष की प्रथमा से नवमी तिथि तक पड़ने वाले भाद्र मास के पहले नौ दिन पूर्वाभाद्रपद का मास माना जाता है. शुक्ल व कृ्ष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को इस नक्षत्र की तिथि माना गया है. पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र को ब्रह्मर्षि वसिष्ठ जी का वंशज माना जाता है. वसिष्ठ का अर्थ है धनी, मानी और प्रतिष्ठित व्यक्ति.

पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के प्रथम चरण का नामाक्षर 'से' है. द्वितीय चरण का नामाक्षर 'सो' है. तीसरे चरण का नामाक्षर 'दा' है. चतुर्थ चरण का नामाक्षर 'दी' है. विद्वानों ने इस नक्षत्र को सिंह योनि का माना है. पूर्वाभाद्रपद गुरु का अंतिम नक्षत्र है.


#पूर्वाषाढा़ नक्षत्र - Purvashadha Nakshatra
पूर्वाषाढा़ नक्षत्र, धनु राशि में 13 अंश 20 कला से 26 अंश 40 कला तक रहता है. क्रान्तिवृ्त्त से 6 अंश 28 कला 18 विकला दक्षिण में तथा विषुवत रेखा से 29 अंश 49 कला 47 विकला दक्षिण में स्थित है. प्राचीन विद्वानों ने इस नक्षत्र के दो तारे माने हैम. जो हाथी के दाँत जैसे दिखाई देते हैं. आधुनिक खगोलशास्त्री इसे तीन तारों का समूह मानते हैं. ये आकाश गंगा के समीप धनु राशि में स्थित हैं.

दिसम्बर के अंत में पूर्वाषाढा़ नक्षत्र सूर्योदय के समय पुर्वी क्षितिज पर उदय होता है. सितम्बर में रात्रि 9 बजे से 11 बजे के मध्य यह पुर्वाषाढा़ नक्षत्र दक्षिणी आकाश के शिरोबिन्दु पर बिच्छू से पूर्व में दिखाई देते हैं. आषाढ़ मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा कभी पुर्वा तो कभी उत्तराषाढा़ नक्षत्र में दिखाई देता है. पूर्वाषाढा़ का स्वामी ग्रह शुक्र है.

पूर्वाषाढा़ का अर्थ है पहले वाला पुर्व अपराजेय, अजित जिसे जीत पाना असंभव हो. कुछ विद्वान अषाढ़ का अर्थ ढाक की लकडी़ व उससे बना दंड को मानते हैं. कुव विद्वान इस नक्षत्र का प्रतीक चिह्न हाथ के पंखे को मानते हैं. यह पंखा सुदूर पूर्वी देश, जापान में रुप सज्जा व प्रतिष्ठा का प्रतीक है. दूसरी बात पंखा झलने से गर्मी मिटती है. देह व मन को शीतलता मिलती है.

कहीं पूर्वाषाढा़ को छाज या सूप माना जाता है. जिस प्रकार सुप द्वारा अनाज व भूसे को अलग कर दोनों को संभाल कर रखा जाता है और छिलके को उडा़ देते हैं, उसी प्रकार यह नक्षत्र छिपी प्रतिभा को उजागर करता है. यह बाधाओं को दूर कर या बाहर के आवरण को भंग कर, अन्दर छिपे उपयोगी भाग को प्रगत करता है.

इस नक्षत्र के लिए विद्वानों ने अप: देवी को अधिष्ठात्री देवी माना है. अप: शब्द जल के लिए प्रयोग होता है.जल जीवन के लिए आवश्यक है. मानव जाति का विकास जल के समीप वाले स्थानों पर ही हुआ है. जिस प्रकार जल बादल में रहता है उसी प्रकार पूर्वाषाढा़ नक्षत्र भी अपना कार्य गुप्त रुप व रहस्यपूर्ण ढ़ग से करता है. पूर्वाषाढा़ नक्षत्र की अप: देवी हमारे मन में होने वाले मंथन की प्रतीक है. मन के मंथन से शुभ व अशुभ विचार कालान्तर में पाप व पुण्य कर्म बन जाते हैं.

पूर्वाषाढा़ नक्षत्र संतुलित नक्षत्र है. इसके स्वामी गुरु व शुक्र कभी भी अतिवादी या दुराग्रही नहीं होते. देवगुरु व दैत्य गुरु का आचरण प्राय: मर्यादा के अनुकूल व आदर्श आचरण होता है. इस नक्षत्र की जाति ब्राह्मण जाति है. क्योंकि इसका संबंध दो विप्र ग्रह गुरु व शुक्र से है. इस नक्षत्र को स्त्री नक्षत्र कहा जाता है. इसके अधिष्ठाता देव स्त्री है. अप: देवी या वरुणानी तथा स्त्री ग्रह शुक्र के साथ संबंध इसे स्त्री ऩक्षत्र बनाता है.

जंघा व पीठ गर्दन से नीचे कमर तक का हिस्सा को पूर्वाषाढा़ का अंग माना गया है. अग्नि प्रधान धनु राशि में होने से यह नक्षत्र पित्त प्रधान माना जाता है. इस नक्षत्र की दिशा ईशानकोण या उत्तर पुर्व से अग्निकोण अर्थात दक्षिण पूर्व दिशा को जोड़ने वाली चाप माना गया है. कुछ अन्य विद्वान दक्षिण पश्चिम व पश्चिम दिशा वाली चाप को पूर्वाषाढा़ की दिशा मानते हैं.

पूर्वाषाढा़ को राजसिक नक्षत्र माना जाता है. इसका स्वामी ग्रह शुक्र लौकिक सुख देने वाला होता है. इस नक्षत्र को वायु तत्व नक्षत्र माना जाता है. धनु राशि की अग्नि को जलाए रखने के लिए हवा करना जरुरी होता है. पुर्वाषाढा़ नक्षत्र को मनुष्य गण माना गया है. इसमें अच्छे बुरे दोनों गुण पाए जाते हैं. यह अधोमुखी नक्षत्र है. इस नक्षत्र को उग्र नक्षत्र भी माना जाता है.

पूर्वाषाढा़ नक्षत्र का संबंध आषाढ़ मास के पूर्वार्ध से माना जाता है. यह अधिकतर जून मास में पड़ता है. दोनों पक्षों की त्रयोदशी तिथि को पूर्वाषाढा़ नक्षत्र की तिथि माना जाता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह शुक्र होता है. शनि के अतिरिक्त अन्य सभी ग्रह पूर्वाषाढा़ नक्षत्र में शुभ फल देते हैं. इस नक्षत्र को वानर योनि माना जाता है.

पूर्वाषाढा़ नक्षत्र के प्रथम चरण का नामाक्षर 'भू' है. द्वितीय चरण का नामाक्षर 'धा' है. तृ्तीय चरण का नामाक्षर 'फा' है. चतुर्थ चरण का नामा़क्षर 'ढा़' है. पूर्वाषाढा़ नक्षत्र को महर्षि पुलह का वंशज माना जाता है. पुलह का अर्थ है अंतरिक्ष से जोड़ने वाला. जिस प्रकार बादल आकाश में रहकर भी जल बरसाते हैं और पृ्थ्वी को हरा - भरा बनाते हैं, उसी प्रकार पूर्वाषाढा़ नक्षत्र भी जगत का कल्याण करता हैं व जल बरसाने से जीवन प्रदान करता है.

#प्रकार - Prakaar[Boundary]
कोट चक्र के तीसरे वर्ग या भाग को प्रकार कहा गया है. जो नक्षत्र मध्य भाग और बाह्य भाग के बीच में पड़ते हैं उन्हें प्रकार कहा गया है. इस भाग में जन्म नक्षत्र से 2रा, 6ठा, 9वां, 13वां, 16वां, 20वां, 23वां, और 27वां नक्षत्र पड़ते हैं.

#प्रथम भाव - Pratham Bhav[First House]
>इस भाव को लग्न भाव भी कहते हैं. इस भाव के अन्य नाम होरा, तनु भाव, जन्म, आत्मा, केन्द्र, उदय, देह, शीर्ष, कंटक आदि हैं. इस भाव से शरीर संबंधी सभी विचार किए जाते हैं. शरीर का रंग - रुप, गोरा या काला आदि वर्ण का विचार होता है. शरीर दुर्बल होगा या पुष्ट होगा अर्थात शारीरिक गठन लग्न से देखा जाता है. आकृ्ति, शरीर पर कोई तिल या मस्सा आदि चिन्ह भी इसी भाव से देखे जाते हैं. शरीर लघु होगा या दीर्घ प्रथम भाव से पता चलता है.

व्यक्ति का आचरण तेज होगा या नहीं, स्वभाव शांत होगा या क्रूर होगा, व्यक्ति के गुण, शीलता आदि का विचार भी प्रथम भाव से होता है. यश, कीर्ति, पराक्रम, साहस, अहंकार, अज्ञान, निन्दा आदि भी इसी भाव से देखी जाती हैं. शरीर का शुभाशुभ, बाल अवस्था, यौवन अवस्था आदि को भी इस भाव से देखा जाता है. जातक की आयु, उसका स्वास्थ्य आदि भी इस भाव से देखते हैं. जातक की जाति या कुल, सम्पति आदि का विचार भी इसी भाव से. जातक का प्रवास आदि भी इस भाव से. जातक का मस्तक और माता - पिता की देह आदि का विचार भी इस भाव से होता है.

#प्रस्थार चक्र - Prasthaar Chakra
अष्टकवर्ग में सबसे पहले प्रस्तार चक्र की तालिका बनाई जाती है. प्रस्तार चक्र की तालिका में सभी बारह भावों की आठ कक्षाओं में भिन्न-भिन्न ग्रहों द्वारा दिए गए शुभ बिन्दुओं के योग को तालिका के रुप में दिखाया जाता है. राहु/केतु को छोड़कर सभी सातों ग्रह और लग्न के लिए अलग-अलग प्रस्तार चक्र बनता है.

सभी सातों ग्रह और लग्न के शुभ बिन्दुओं को दुबारा तालिकाबद्ध किया जाता है. जिसे हम भिन्नाष्टक वर्ग कहते हैं. इसे जन्म कुण्डली के जैसे बनाया जाता है. लग्न, जन्म लग्न की राशि से शुरु होता है और सभी बिन्दुओं के जोड़ को क्रम से कुण्डली में रखा जाता है.

#प्राकृ्तिक उपग्रह - Prakritik Upgrah[Natural Satellites]
कोई भी प्राकृ्तिक पिण्ड जो किसी भी ग्रह के चारों ओर एक निश्चित कक्षा में परिक्रमा करते हों, प्राकृ्तिक उपग्रह कहलाते हैं. जैसे चन्द्रमा पृ्थ्वी का प्राकृ्तिक उपग्रह है. हमारे सौर मण्डल में अलग - अलग आकारों के 60 उपग्रह हैं. इनमें सात उपग्रह बडे़ आकार के हैं. पृ्थ्वी का चन्द्रमा, बृ्हस्पति के चार उपग्रह, एक-एक उपग्रह शनि और नेपच्यून के हैं.

#प्रीति योग - Preeti Yog
इस योग में जन्म लेने वाला जातक स्त्रियों का प्यारा, तत्वज्ञानी, उत्साही, वाचाल, सम्पतिवान, प्रसन्नचित्त, दानी, विनोदी, स्त्री के वश, उद्यमी होता है.

#प्रीति सहम - Priti Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- शनि - पुण्य सहम + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- पुण्य सहम - शनि + लग्न

#फलाशी योग - Phalashi Yog
यदि वर्ष कुण्डली में 2,6,7,8,12वें भावों में पाप ग्रह हों तथा शुभ ग्रह नीच राशि में हों, शत्रु राशि में हों या अस्त हो फलासी योग बनता है.

जिस वर्ष यह योग बनता है वह वर्ष जातक के लिए दु:खदायी तथा कठिनाइयों से भरा होता है. घर में चोरी होने की संभावना बनती है. सम्पत्ति का नुकसान हो सकता है. घर में कलह होता है. पूरे वर्ष स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं रहती हैं.

#फलूशा योग - Phalusha Yog
यदि वर्ष कुण्डली के लग्न और एकादश भाव में सभी पाप ग्रह हों तथा 5,6,7वें भाव में सभी शुभ ग्रह हों तब फलूशा योग बनता है.

जिस वर्ष कुण्डली में यह योग बनता है वह वर्ष जातक के लिए प्रतिकूल वर्ष होता है. जातक को दु:खों का सामना करना पड़ता है. जातक को व्यापार में हानि हो सकती है. धन हानि तथा नौकरी में पद हानि हो सकती है.

#भद्रा का वास - Places of Bhadra
जब चन्द्रमा कुम्भ व मीन राशि में हो तो भद्रा का वास मृ्त्यु लोक में होता है.

जब चन्द्रमा मेष, वृ्ष, मिथुन व वृ्श्चिक राशियों में हो तब भद्रा का वास स्वर्ग में होता है.

चन्द्रमा जब कन्या, धनु, तुला व मकर राशियों में होता है तब भद्रा का वास पाताल लोक में होता है.

जिस लोक में भद्रा का वास होता है उसी लोक के अनुसार इसका फल शुभ व अशुभ भी होता है.

अन्य जगह कम अशुभ होगा.

#सहमों की संख्या - Number of Saham
प्राचीन लेखकों ने 25 से 30 सहमों का वर्णन किया गया है. नीलकण्ठ द्वारा 50 सहमों का उल्लेख किया गया है. केशव द्वारा 21 सहमों का वर्णन किया गया है. इस प्रकार सहमों की कोई निश्चित संख्या नहीं है. सभी ग्रंथों में इनकी संख्याओं में भिन्नता मिलती है.

#एकाधिपत्य शोधन के नियम - Rules of Ekadhipatya Shodhan
(1) यदि किसी ग्रह की दोनों राशि में से किसी एक राशि में पहले से ही शून्य अंक हैं तब उस ग्रह की राशियों का एकाधिपत्य शोधन नहीं होगा.

(2) यदि किसी भी ग्रह की दोनों राशियों में राहु/केतु के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रह स्थित है तब उन राशियों का एकाधिपत्य शोधन नहीं होगा. राहु/केतु को हम छाया ग्रह मानते हैं. यदि किसी भी ग्रह की राशि में अन्य कोई ग्रह नहीं है केवल राहु या केतु स्थित है तब उन राशियों का एकाधिपत्य शोधन होगा.

किसी भी राशि में ग्रह का स्थित होना उस राशि को बली बनाता है इसलिए उस राशि का एकाधिपत्य शोधन नहीं होता है.

(3) किसी ग्रह की दोनों राशियों में से एक राशि में ग्रह है और किसी भी राशि में शून्य अंक नहीं है तब उस स्थिति में तीन प्रकार से शोधन हो सकता है.

(A) जिस राशि में ग्रह नहीं है उस राशि के बिन्दु की संख्या, जिस राशि में ग्रह हैं उस राशि के बिन्दुओं की संख्या से अधिक हो सकती है. ऎसे में ग्रह रहित राशि की संख्या को और ग्रह सहित राशि की संख्या के बराबर कर देते हैं.

(B) ग्रह रहित राशि के बिन्दुओं की संख्या, ग्रह सहित राशि के समान हो सकती है.

(C) ग्रह रहित राशि के बिन्दुओं की संख्या, ग्रह सहित राशि के समान हो सकती है.

नियम B और C की स्थितियों में ग्रह सहित राशि की संख्या में शोधन नहीं होगा जिससे उस संख्या में कोई बदलाव नहीं आएगा परन्तु ग्रह रहित राशि के बिन्दुओं की संख्या शून्य हो सकती है.

(4) यदि किसी ग्रह की दोनों राशियों में कोई ग्रह नहीं है और किसी भी राशि में बिन्दुओं की संख्या शून्य नहीं है तब शोधन निम्न प्रकार से होता है :-

(अ) दोनों राशियों की संख्या समान है तब दोनों ही राशियों की संख्या शून्य हो जाएगी.

(ब) यदि दोनों राशियों की संख्या समान नहीं है तब बडी़ संख्या को छोटी संख्या के बराबर कर देगें. इस प्रकार दोनों राशियों में समान संख्या हो जाएगी.

#जैमिनी राजयोग - Rajyog In Jaimini Astrology
जैमिनी पद्धति के राजयोग पराशरी से भिन्न होते हैं. ये योग निम्न हैं :-

आत्मकारक और अमात्यकारक एक साथ या उनकी परस्पर दृ्ष्टि हो.

आत्मकारक और पुत्रकारक एक साथ हों या उनकी परस्पर दृ्ष्टि हो.

आत्मकारक और पंचमेश एक साथ या उनकी परस्पर दृ्ष्टि हो.

आत्मकारक और दाराकारक एक साथ या परस्पर दृ्ष्टि हो.

अमात्यकारक और पुत्रकारक एक साथ या परस्पर दृ्ष्टि हो. अमात्यकारक और पंचमेश एक साथ या परस्पर दृ्ष्टि हो.

अमात्यकारक और दाराकारक एक साथ या परस्पर दृ्ष्टि हो.

पुत्रकारक और पंचमेश एक साथ या परस्पर दृ्ष्टि हो.

पुत्रकारक और दाराकारक एक साथ या परस्पर दृ्ष्टि हो.

पंचमेश और दाराकारक एक साथ या परस्पर दृ्ष्टि हो.

#पुत्र सहम - Putra Saham
दिन तथा रात दोनों का वर्ष प्रवेश :- बृहस्पति - चन्द्र + लग्न

#रद्द योग - Radda Yog
यदि इत्थशाल करने वाले दोनों ही ग्रह निर्बल हों, अस्त हों, नीच राशि में हों, शत्रु राशि में हों, क्रूर ग्रहों के साथ हों या षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश से युति या सम्बन्ध रखते हों तब रद्द योग बनता है.

यदि दोनों ग्रहों मे से एक भी ग्रह निर्बल या क्षीण हो तब भी रद्द योग होता है.

#रवि योग नक्षत्र - Ravi Yog Nakshatra
सूर्य गोचर के समय जिस नक्षत्र में है, उससे चन्द्र्मा का नक्षत्र जब 4,9,6,10,13,20 वाँ पडे़ तब उस दिन रवियोग होता है.

रवि योग हजारों दोषों को दूर करता है.

#राज्य सहम - Rajya Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- शनि - सूर्य + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- सूर्य - शनि + लग्न

#राशि अंत इत्थशाल - Rashi Ant Itthashal
वर्ष कुण्डली में शीघ्र गति ग्रह राशि में 29 अंश का अथवा उससे अधिक हो तथा मंद गति ग्रह इस ग्रह से द्वितीय भाव में हो तो जिस समय शीघ्र गति युक्त ग्रह मंद गति युक्त की राशि में प्रवेश करेगा तथा दीप्तांश, अक्षांश अंतर से अधिक होगा तो राशि अंत इत्थशाल कहलाता है.

#राशिपति - Rashipati
यदि वर्ष प्रवेश दिन में हुआ है तो सूर्य जिस राशि में होगा उस राशि का स्वामी उस वर्ष का राशिपति होता है. यदि वर्ष प्रवेश रात में हुआ है तब चन्द्रमा जिस राशि में स्थित है उस राशि का स्वामी राशिपति कहलाता है.

#राशियाँ - Rashiya [Signs]
भचक्र या राशिचक्र के 360 डिग्री के बारह बराबर भाग करने पर तीस-तीस डिग्री की बारह राशियाँ प्राप्त होंगी. सूर्य और चन्द्रमा को छोड़कर हर ग्रह को दो राशियों का स्वामित्व प्राप्त है. सूर्य और चन्द्र को एक-एक राशि का स्वामित्व मिला है.

#राशियाँ - Rashiyan[Signs]
भचक्र या राशिचक्र में 12 राशियाँ है. हर राशि का कुल क्षेत्र 30 डिग्री का है अर्थात 360 डिग्री के 12 समान हिस्से हैं. सभी राशियों का अपना एक स्वामी ग्रह है. हर राशि का अपना गुण,धर्म,स्वभाव आदि है.

#राशियों का रुप वर्णन - Rashiyo ka Roop Varnan
राशि - रूप

मेष - मेंढे़ के समान आकृ्ति

वृ्ष - वृ्षभ या बैल के समान आकृ्ति

मिथुन - स्त्री-पुरुष का जोडा़

कर्क - केकडे़ के समान

सिंह - शेर के समान

कन्या - कन्या के समान आकृ्ति

तुला - तराजू के समान आकृ्ति

वृ्श्चिक - बिच्छू के समान

धनु - ऊपरी भाग मनुष्य जैसा, निचला भाग घोडे़ जैसा. हाथ में धनुष बाण

मकर - ऊपर का भाग सींग वाले बकरे के मुँह के समान, नीचे का भाग मगरमच्छ जैसा

कुंभ - घडे़ का आकार

मीन - दो मछलियाँ, जिनकी पूछें भिन्न-भिन्न दिशाओं में है.

#राहु और केतु - Rahu And Ketu
हिन्दु ज्योतिष में राहु व केतु को ग्रह माना गया है. ये दोनों भौतिक पिण्ड न होकर क्रान्ति वृ्त्त पर संवेदनशील बिन्दु हैं जिन्हें गणितीय क्रिया से प्राप्त किया जाता है. इनका पृ्थ्वी के जीवन पर अत्यधिक प्रभाव माना गया है.


चन्द्रमा अपनी कक्षा में दक्षिण से उत्तर की ओर गति करता हुआ क्रान्तिवृ्त्त को काटता है, यही कटाव बिन्दु राहु है. ठीक इससे 180 डिग्री पर चन्द्रमा उत्तर से दक्षिण की ओर जाते हुए क्रान्तिवृ्त्त को दुबारा काटता है और यह कटाव बिन्दु केतु है. चन्द्र कक्षा क्रान्तिवृ्त पर झुकी हुई है, इस वजह से क्रान्तिवृ्त्त को काटते समय प्रत्येक बार सूर्य, पृ्थ्वी व चन्द्रमा एक सरल रेखा में नहीं पड़ते.

राहु व केतु मात्र संवेदनशील बिन्दु हैं. इनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है व इसी कारण इन्हें छाया ग्रह कहा गया है. आकाश में इनका स्थिर बिन्दु नहीं है. इनकी औसत वार्षिक गति 19 डिग्री 30 मिनट है तथा ये अपनी कक्षा में 18 वर्ष 6 मास में पृ्थ्वी की एक परिक्रमा करते है. इनकी गति वक्री होती है. हिन्दु ज्योतिष में राहु व केतु की वास्तविक स्थिति पर विचार करते हैं पर इनके दृ्ष्टिकोण पर विवाद है.

#राहु ग्रह - Rahu Grah[Rahu]
राहु के अन्य नाम तम, असुर, अग, सैंहिकेय, स्वर्भानु, विघुंतुद, सर्प, फणि आदि हैं. इसकी जाति चंडाल है. म्लेच्छ है. इसका रंग कृ्ष्ण है. देवता राक्षस है. अधिपति सर्प है. राहु ग्रह की नैऋत दिशा है. यह नैसर्गिक पाप ग्रह है. इसके अंदर सीसा खनिज आता है. इसका स्थान सांप की बाम्बी होता है. इसका वस्त्र रंग - बिरंगी गुदड़ी है. वस्त्र नीला विचित्र रंग का है. यह ग्रह धातु रुप है. इसकी दृ्ष्टि नीचे की ओर है.

राहु तमोगुणी ग्रह है. इस ग्रह का समय संध्या काल है. इसकी वात प्रकृ्ति है. इसका आकार लम्बा है. शरीर भयानक है. राहु का स्वरुप आलसी है, मोटे नाखून व दुर्बल है. आयु 100 वर्ष है. इसका रत्न गोमेद है. यह पृ्ष्ठोदय ग्रह है. यह पर्वतों पर विचरता है. इसका देश अम्बर है. यह स्थिर ग्रह है. शालवृ्क्ष इसके अन्तर्गत आते हैं. वात रोग इससे हो सकते हैं.

शनि के बाद सबसे तिरस्कृ्त ग्रह राहु है. दादा- दादी, का कारक ग्रह है. उत्तर कालामृ्त में राहु को नाना - नानी का भी प्रतीक है. विदेशी लोग, इन्जीनियर, राजनीतिज्ञ, विमान परिचारिका, वायुयान परिचालक और विविध नये तकनीकी व अर्धतकनीकी व्यवसाय राहु के अधिकार क्षेत्र में आते हैं.

#रिक्ता तिथि - Rikta Tithi
शुक्ल पक्ष व कृ्ष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि

नवमी तिथि तथा चतुर्दशी तिथि को रिक्ता तिथि कहते हैं.

रिक्ता तिथि में शत्रुओं का दमन या कैद करना, शस्त्र प्रयोग, शल्य क्रिया तथा अग्नि लगाना आदि कर्म किए जा सकते हैं.

#रिहा योग - Riha Yog
वर्ष कुण्डली के लग्न में सूर्य, बुध और राहु की युति हो तथा इन पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि ना हो तो उस वर्ष रिहा योग बनता है. जिस वर्ष यह योग बनता है, उस वर्ष में जातक को आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है. धन हानि, स्वजन से शौक तथा स्वयं भी भय ग्रस्त रहता है. उस वर्ष जातक को सफलता प्राप्त नहीं होती.

#रुद्र - Rudra
जैमिनी ज्योतिष में लग्न से द्वितीयेश तथा अष्टमेश में से जो बली होगा वही ग्रह रुद्र बनेगा. ब्रह्मा बनने में शनि ग्रह को शामिल नहीं किया जाता है परन्तु यहाँ रूद्र बनने के लिए शनि ग्रह को भी शामिल किया गया है.

#रेवती नक्षत्र - Revati Nakshatra
रेवती नक्षत्र मीन राशि के 16 अंश 40 कला से लेकर 30 अंश तक रहता है. क्रान्तिवृ्त्त से 0 अंश 12 कला 48 विकला दक्षिण में तथा विषुवत रेखा से 7 अंश 33 कला 34 विकला उत्तर में है. इस नक्षत्र में 32 तारें हैं जो मृ्दंग की आकृ्ति में हैं. इसका योग तारा मंद कांति होने से क्रान्तिवृ्त्त के समीप धुँधला दिखाई देता है.

निरायन सूर्य 30 मार्च को रेवती नक्षत्र में प्रवेश करता है. अत: अप्रैल के प्रथम सप्ताह में सूर्योदय के समय इसे पूर्वी क्षितिज पर देखा जा सकता है. नवम्बर - दिसम्बर में रात 9बजे से 11 बजे के बीच इसे शिरो बिन्दु पर देखा जा सकता है. तीसरे तृ्तीयाँश का अन्तिम नक्षत्र होने से रेअवती भी मूल संज्ञक ऩात्र माना जाता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह बुध है.

रेवती का अर्थ है धनाढ़्य या धनी-मानी व प्रतिष्ठित. इस नक्षत्र का संबंध द्वैत या दुविधा से है. रेवती नक्षत्र के तारे मुरज, मृ्दंग या ढो़ल की आकृ्ति बनाते हैं. विद्वानों ने पूषा (सूर्य का एक नाम) को रेवती नक्षत्र का देवता माना है. यह प्रकाश का देवता व स्वामी है. रेवती नक्षत्र सर्वाधिक शुभ व कल्याणकारी है.

रेवती को शूद्र जाति का नक्षत्र माना गया है. रेवती नक्षत्र जातक सेवा सहायता को ही प्रभु की उपासना मानता है. रेवती नक्षत्र को स्त्री संज्ञक माना जाता है. पाँव, टखना,उदर, जाँघ व पेट के बीच का दबा हुआ भाग तथा घुटने का संबंध रेवती ऩात्र से माना जाता है. पाँव, टखने को मीन राशि का अंग माना जाता है.

रेवती नक्षत्र की दिशा उत्तर तथा उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) को माना जाता है. यह सात्विक नक्षत्र है. इस नक्षत्र को आकाश तत्व भी माना जाता है. इस नक्षत्र को देव गण माना गया है. यह सम्मुख या तिर्यक नक्षत्र माना गया है. रेवती को सौम्य या मृ्दु नक्षत्र माना जाता है.

भाद्रपद मास के अन्तिम नौ दिन, जो सितम्बर मास में पड़ते हैं का संबंध रेवती नक्षत्र से माना जता है. प्रत्येक मास की पूर्णिमा को रेवती की तिथि माना जाता है. रेवती के प्रथम चरण का नामाक्षर 'दे' है. दूसरे चरण का अक्षर 'दो' है. तीसरे चरण का अक्षर 'चा' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'ची' है.

रेवती नक्षत्र की योनि गज योनि है. रेवती नक्षत्र को महर्षि क्रतु का वंशज माना गया है. कृ्त आत्मन का अर्थ है संयमी, स्थिर व स्वस्थ चित्त, पवित्र मन वाला.

#रोग सहम - Rog Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- लग्न - चन्द्र + लग्न

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- चन्द्र - लग्न - लग्न

#रोहिणी नक्षत्र - [Rohini Nakshatra]
रोहिणी नक्षत्र का वृ्ष राशि में 10 डिग्री से 23 डिग्री 20 मिनट तक का क्षेत्र है. रोहिणी को चन्द्रमा की अमृ्त शक्ति का बीज माना गया है. यह लाल रंग का बहुत चमकीला तारा है. यह क्रान्ति वृ्त्त से 5 अंश 28 कला 3 विकला दक्षिण में है. इस नक्षत्र में रोहिणी के चार तारे और हैं. ये पाँचों तारे मिलकर शकट या बैलगाडी़ की आकृ्ति बनाते है. रोहिणी में प्रजापति ब्रह्मा का वास माना जाता है.

"रोह" का अर्थ वृ्द्धि, विकास या उच्चता पाना होता है. रोहण शब्द का प्रयोग सवारी करने के लिये होता है. अपने उच्च स्थान या उच्च राशि की ओर बढ़ने की क्रिया आरोहण कहलाती है. रोहिणी शब्द स्त्री संज्ञक है. रोहिणी दक्ष कन्या व चन्द्रमा की अत्यंत प्रिय संगिनी है. रोहिणी को विधि या विरंचि भी कहा जाता है. रोहिणी नक्षत्र का प्रतीक चिह्न दो बैलों द्वारा खींची जाने वाली बैलगाड़ी या शकट को माना गया है. प्राचीन संस्कृ्ति में बैल को धर्म व शक्ति माना गया है.

रोहिणी नक्षत्र का संबंध कृ्षि उत्पादन, पशुपालन, व आर्थिक गतिविधियों से है. रोहिणी नक्षत्र को उद्योग वाणिज्य की धुरी कहा जा सकता है. ब्रह्मा या सृ्ष्टिकर्ता को रोहिणी नक्षत्र का अधिदेवता माना गया है. रोहिणी नक्षत्र का संबंध प्रजापति ब्रह्मा से होना, धरती पर नक्षत्रों के प्रभाव को और महत्व को दर्शाता है. रोहिणी नक्षत्र का स्वभाव और कार्यशैली का संबंध विद्वानों ने कृ्षि तथा सभ्यता के विकास से जोडा़ है. इसलिये रोहिणी का संबंध हर प्रकार के विकास से है. प्रकृ्ति से प्राप्त होने वाले पदार्थ रोहिणी का मूल स्वभाव है.

रोहिणी नक्षत्र दृ्ढ़ निश्चयी व अपने लक्ष्य के प्रति निष्ठावान होता है. परिवार व समाज के नियमों व मूल्यों का वह सम्मान करता है. रोहिणी नक्षत्र जातक को परंपरावादी कह सकते हैं परन्तु वह पुरातनपंथी नही होता. नए विचार व परिवर्तन का स्वागत करता है. सृ्ष्टि रचना में रोहण शक्ति के लिये रोहिणी नक्षत्र की उत्पत्ति हुई है. विद्वानों ने रोहिणी नक्षत्र को संतुलित नक्षत्र कहा हैं. संतुलित और व्यवस्थित ढ़ग से काम करना रोहिणी नक्षत्र का विशिष्ट गुण है.

रोहिणी नक्षत्र की जाति शुद्र है. यह नक्षत्र स्त्री नक्षत्र है. इसका संबंध शुक्र व च्न्द्रमा दो स्त्री संज्ञक ग्रहों से हुआ है. रोहिणी में नारी शक्ति का दर्शन भरपूर मात्रा में मिलता है. रोहिणी नक्षत्र कुण्डली के चतुर्थ भाव माता व सुख का प्रतिनिधि ग्रह है. रोहिणी का संबंध धरती से है और प्राय: सभी प्राचीन सभ्यताओं में धरती को माता का दर्जा दिया गया है. यह रोहिणी के स्त्री स्वभाव की पुष्टि करता है.

रोहिणी नक्षत्र के अन्तर्गत माथा, टखना, घुटने के नीचे टाँग की ऊपर की हड्डी, टाँग की माँस - पेशियों को लिया गया है. रोहिणी को चन्द्र और शुक्र के कारण कफ़ प्रकृ्ति का माना गया है. इस नक्षत्र को रजोगुणी नक्षत्र माना गया है क्योंकि रोहिणी नक्षत्र का स्वामी चन्द्रमा व राशीश शुक्र दोनों ही रजोगुणी ग्रह हैं. यह नक्षत्र भूमि तत्व है नक्षत्र है क्योंकि यह कृ्षि उत्पादन व खनिज उद्योग से जुडा़ है. यह नक्षत्र वृ्ष राशि में हैं और वृ्ष राशि भूतत्व राशि है.

गण मैत्री में रोहिणी को मनुष्य गण माना जाता है. इस नक्षत्र को ऊर्ध्व मुख या ऊर्ध्व दृ्ष्टि कहा गया है. कारण यह है कि रोहिणी का अर्थ है ऊपर की ओर बढ़्ने वाली वस्तुएं. इसे ध्रुव स्थिर नक्षत्र भी कहते हैं. कार्तिक मास का उत्तरार्ध रोहिणी नक्षत्र का मास माना गया है. ये प्राय: नवम्बर में पड़ता है. शुक्ल और कृ्ष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि का संबंध रोहिणी से जोडा़ गया है.

रोहिणी नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर 'ओ' है. द्वितीय चरण का अक्षर 'व' है. तृ्तीय चरण का अक्षर 'वि' है. चतुर्थ चरण का अक्षर 'वू' है. इस नक्षत्र की योनि सर्प है. इस नक्षत्र के गोत्र का संबंध अत्रि मुनि से है.

#शतभिषा नक्षत्र - Shatabhisha Nakshatra
शतभिषा नक्षत्र कुम्भ राशि में 6 अंश 40 कला से 20 अंश तक रहता है. क्रान्तिवृ्त्त से 0 अंश 23 कला 11 विकला दक्षिण तथा विषुवत रेखा से 7 अंश 35 कला 44 विकला दक्षिण में स्थित है. यह सौ तारों का समूह है. कुछ विद्वान इसे एक तारे वाला समूह मानते हैं.

निरायन सूर्य 19 फरवरी को शतभिषा नक्षत्र में प्रवेश करता है. उस अवधि में सूर्योदय के समय इस नक्षत्र को पूर्वी क्षितिज पर देखा जा सकता है. यह नक्षत्र अक्तुबर मास में रात 9 बजे से 11 बजे के बीच दक्षिणी आकाश के शिरोबिन्दु पर होता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह राहु है. शतभिषा नक्षत्र में राहु पूर्ण बली व होता है. शतभिषा नक्षत्र सारा ही कुम्भ राशि में पड़ता है.

शतभिषा या शतभिषक का अर्थ है सौ चिकित्सक, सौ औषधियाँ या सौ उपचार कर्ता. जीवन में जो रोग दुख: कष्ट या पीडा़ है, उसे मिटाने के लिए औषधि व उपकरण् से सजा सौ चिकित्सकों के दल की रचना हुई है. इसे अन्य कुछ विद्वानों ने शततारा भी कहा है. जिसका अर्थ है सौ तारों वाला नक्षत्र. वैदिक ऋषियों ने सौ ताराओं को इस नक्षत्र के साथ जोड़कर सम्मानित किया है. तथा इसे शततारक के नाम से पुकारा गया.

विद्वानों ने शतभिषा को वृ्त्ताकार माना है. ऎसा वृ्त्त जो भीतर से रिक्त या शून्य है. कुछ विद्वान इसे चमत्कारी कडा़ तो अन्य इसे सृ्ष्टि में व्याप्त अनन्त शून्य का प्रतिनिधि मानते हैं. उनका मत है कि शून्य रूपी आकाश में सभी ग्रह व नक्षत्र होने पर भी आकाश शून्य ही है. वैसे भी एक वृ्त्त जीवन चक्र, भचक्र या सृ्ष्टि चक्र , जन्म, वृ्द्धि, विकास, जर्जरता व नाश को दर्शाता है.

सौ तारों के प्रतीक सौ वैद्य ही इस नक्षत्र के स्वामी है जो सभी प्रकार के दोष, दुर्बलता व रोगों का शमन करते हैं. किन्तु विद्वानों ने जल के प्रधान देवता वरुण को शतभिषा नक्षत्र का देवता माना है. शतभिषा नक्षत्र के चित्र में वरुण को एक हाथ में सोमरस से भरा पात्र तथा दूसरे हाथ में जडी़ बूटियों को दिखाया गया है. सोम रस बल, उर्जा व यौन शक्ति देता है तो जडी़ बूटियों से रोग मिटाकर पुन: स्वस्थ बनाने में सहायता मिलती है.

कहीं पर वरुण के हाथ में अमृ्त पात्र बताया जाता है. मतान्तर से वरूण को जल व जीवन संतान सुख का कारक का देवता माना गया है. जलीय या औषध द्रव्य से, रोगी की देह में प्राण शक्ति, उत्साह, उमंग व नए जीवन का संचार ही वरूण देव का कर्म है. यह नक्षत्र कुम्भ राशि में पड़ने से भगवान शिव के अधिकार क्षेत्र में पड़ता है. अत: शतभिषा नक्षत्र में रहस्यपूर्ण ध्यान व समाधि, परोपकार, विनाश य विध्वंस जैसे गुण पाए जाते है.

गोपनीयता या रहस्यपूर्ण व्यवहार, शतभिषा को अन्य सभी नक्षत्रों से अलग पहचान देता है. विद्वानों ने शतभिषा नक्षत्र का प्रभाव जनसंपर्क माध्यमों रेडियो, दूरदर्शन, समाचार पत्र आदि पर माना है. शतभिषा नक्षत्र एक क्रियाशील या सक्रिय नक्षत्र है. इसकी चर प्रवृ्ति इसे ऊर्जावान व चेष्टावान बनाए रखती है. कुम्भ राशि को विद्युत या बिजली से संबंधित राशि माना जाता है. बादलों में बिजली की कड़क, गर्जन व जल वर्षण का संबंध शतभिषा से भी है.

शतभिषा नक्षत्र को विद्वानों ने कसाई जाति का माना है. इस नक्षत्र को नपुंसक नक्षत्र माना गया है. शतभिषा का अंग जबडा़ माना गया है. इसका संबंध खान-पान, बोल-चाल के अतिरिक्त हास्य व अट्टहास से भी है. कुछ विद्वान इस नक्षत्र का अंग दायीं जाँघ व घुटने को मानते हैं. दायाँ घुटना कुम्भ राशि का अंग है. इस ऩात्र को वात दोष या वायु विकार देने वाला माना गया है. क्योंकि ऩक्षत्रपति व राशीश शनि दोनो ही वायु तत्व प्रधान ग्रह है.

शतभिषा का संबंध वायव्य या पश्चिमोत्तर दिशा से माना गया है. अन्य विद्वान दक्षिण पश्चिम नैऋत्य दिशा से दक्षिण पूर्व अग्नि कोण की दिशा की चाप पर शतभिषा नक्षत्र का प्रभाव मानते हैं. शतभिषा को विद्वानों ने तमोगुणी या तामसिक नक्षत्र माना है. इससे जुडे़ दोनों ग्रह तमोगुणी है. यह आकाश तत्व नक्षत्र है. शतभिषा को राक्षस गण का माना गया है. यह ऊर्ध्वमुखी नक्षत्र है.

श्रवण मास के अंतिम 9 दिन का संबंध शतभिषा नक्षत्र से माना गया है. श्रवण मास की यह अवधि प्राय: अगस्त में आती है. चतुर्दशी तिथि रिक्ता तिथि का संबंध शतभिषा से माना जाता है. दोनो पक्ष की चतुर्दशी तिथि शतभिषा नक्षत्र की तिथि है.

शतभिषा नक्षत्र के प्रथम चरण का नामाक्षर 'गो' है. द्वितीय चरण का नामाक्षर 'सा' है तृ्तीय चरण का नामाक्षर ' सी' है. चतुर्थ चरण का नामाक्षर 'सू' है.विद्वानों ने शतभिषा नक्षत्र की अश्व योनि मानी है. इस नक्षत्र का आकाश तत्व आकाश की विद्युतीय तरंगों से प्रभावित होता है.

इस नक्षत्र को महर्षि अत्रि का वंशज माना जाता है. अ + त्रि अर्थात त्रिऎषणाओं लोकैषणा, वित्तेषणा, पुत्रेषणा से मुक्त तीन दोष - काम, क्रोध, लोभ पर विजय पाने वाला. "अत्र" का अर्थ है - यहाँ. कुछ विद्वान राक्षसों के विनाश को अत्रि मुनि का विशिष्ट गुण मानते हैं.

#शनि की साढे़साती - Sadhesati of Saturn
कुण्डली में चन्द्र राशि से 12वें भाव, चन्द्र और चन्द्र राशि से द्वितीय भाव में शनि का गोचर होता है तब उसे शनि की साढे़सती कहते हैं. साढे़सती का अर्थ है साढे़ सात साल. शनि एक राशि में ढ़ाई वर्ष रहता है तो तीन भावों में कुल साढे़ सात वर्ष का समय लगता है. इसलिए इसे साढे़सती का नाम दिया गया है.

अगर हम गणितीय तरीके से साढे़सती की व्याख्या करें तो चन्द्रमा के अंशों (Degree) से 45 अंश पहले और 45 अंश बाद तक शनि के गोचर को साढे़सती कहते हैं.

#शनि ग्रह - Shani Grah[Saturn]
इस ग्रह के अन्य नाम छायात्मज, पंगु, यम, अर्कपुत्र, कोण, असित, सौरि, नील, क्रुर, कृ्शांग, कपिलाक्ष, दीर्घ, छायासूनु, तरणि, तनय, आर्कि, मन्द आदि हैं. शनि ग्रह की जाति या वर्ण शुद्र है. रंग नील वर्ण है. शनि ग्रह के देवता ब्रह्मा हैं. अधिपति यम है. इस ग्रह की पश्चिम दिशा है. नैसर्गिक पाप ग्रह है. शरीर का स्नायु तंत्र इसके अदधिकार में आता है. खनिज में लोहा और शीशा का कारक है. शनि ग्रह का स्थान पुंज, पृ्थ्वी का चपटा भाग है. इसका वस्त्र जीर्ण है.

इस ग्रह की शिशिर ऋतु है. इसका स्वाद कसैला है. यह धातु रुप है. इसकी दृ्ष्टि नीचे की ओर है. यह तमोगुणी ग्रह है. यह आकाश तत्व ग्रह है. यह नपुंसक ग्रह है. इस ग्रह का संध्या समय होता है. प्रकृ्ति वात है. आकार लम्बा है. शरीर लम्बा व दुर्बल है. नेत्र पीले हैं. बाल सख्त व कडे़ हैं. स्वरुप मलिन है. अवस्था बूढी़ है. शनि ग्रह से दु:खों का विचार करते हैं.

इसका गुण बुद्धिमान है. आयु 100 वर्ष है. इसका रत्न नीलम है. यह पृ्ष्ठोदय ग्रह है. चतुष्पद है. यह पर्वतों पर विचरता है. इसे सेवक की पदवी प्राप्त है. सौराष्ट्र देश इसके अधिकार में हैं. गंगा से हिमालय तक का प्रदेश भी इसके अधिकार में आता है. यह बांई ओर चिन्ह करता है. टाँग पर चिन्ह करते हैं. इसका लोक नरक है. यह एक स्थिर ग्रह है. कटीले, बेकाम, कमजोर वृ्क्ष इसके अधिकार में आते हैं. शरीर का घुटने से पिण्डली तक का भाग शनि के अंदर आता है.

पाँच इन्द्रियों में से स्पर्श इसके अधिकार में आता है. वात से होने वाले रोग हो सकते हैं. शनि ग्रह दिन के अंत में बली होता है. शनि वृ्द्ध व्यक्ति, परिवार का नौकर, पुराना व जीर्ण - शीर्ण घर विशेष तौर पर ईंटों से बना हुआ. निम्न वर्ग के लोगों का कारक ग्रह है.

#शास्त्र सहम - Shastra Saham
दिन का वर्ष प्रवेश :- बृ्हस्पति - शनि + बुध

रात्रि का वर्ष प्रवेश :- शनि - बृ्हस्पति + बुध

#षष्टांश - Shashtansha
इसे षृ्ष्टांश भी कहते है. यह वर्ग जन्म कुण्डली में छठे भाव से संबंध रखता है. इस वर्ग से स्वास्थ्य, बिमारी के प्रति अवरोधक शक्ति, ऋण, झगडे़ आदि के बारे में जानकारी मिलती है. यह वर्ग जातक को रोगों से सतर्क करने के लिये प्रयोग किया जा सकता है.

30 डिग्री के 6 बराबर भाग किये जाते है. एक भाग 5 डिग्री का होता है. यदि ग्रह विषम राशि में है जन्म कुण्डली में तो गणना मेष राशि से करते है. अगर जन्म कुण्डली में ग्रह सम राशि में है तो गणना तुला राशि से करेगें.

#षष्टियांश - Shashtiyansha
इस वर्ग से जीवन के सामान्य शुभ या अशुभ फल देखे जाते हैं. 30 डिग्री के 60 बराबर भाग किये जाते हैं. प्रत्येक भाग 0 डिग्री 30 मिनट का होता है. ग्रह जिस राशि में है उसे छोड़ कर बाकि बचे हुए भोगांश को 2 से गुणा करके पूरे अंश को 12 से भाग दें, जो शेष बचे उसमें 1 जोडे़. अब जो संख्या प्राप्त हुई है उतनी संख्या ग्रह की स्थिति से गिनें.

#षष्ठ भाव - Shashtha Bhav[Sixth Bhav]
यह रिपु भाव भी कहलाता है. इस भाव के अन्य नाम रोग, क्षत, अरि, व्यसन, विघ्न, ऋण, अस्त्र, शत्रु, ज्ञाति, आजि, दुष्कृ्त्य, अघ, भीति, अवज्ञा, द्वेष, त्रिक, अपोक्लिम, उपचय भाव हैं. इस भाव से शत्रुओं का समूह, रोग, अरिष्ट, जातक की हानि, धन की हानि आदि का विचार किया जाता है. निराशा, दु:ख व शौक, क्लेश, बाधाएँ, मानसिक चिंता इस भाव से देखी जाती हैं. इस भाव से शंका, व्यक्ति द्वारा किये अशुभ कर्म, नशें की आदत, हर तरह के व्यसन इस भाव से देखे जाते हैं.

विस्फोटक, चोट आदि इस भाव से. चोर भय, बल सुख, मौसी का शुभाशुभ, सौतेली माता आदि का विचार भी इस भाव से किया जाता है. दूसरे का आश्रय, गाय, भैंस, ऊँट आदि चौपाया पशुओं का विचार भी इस भाव से किया जाता है. षट रस भोजन का स्वाद, चटनी का स्वाद भी इस भाव में आता है. नौकर, अपने नीचे काम करने वाले व्यक्तियों का विचार भी इस भाव से किया जाता है. ऋण या कर्ज, कार्यों में रुकावट, पाप कर्म आदि इस भाव से देखते हैं.

छठे भाव से पेट का बाकी हिस्सा अर्थात नाभि से नीच का भाग देखा जाता है. इस भाव से पेट के अन्दर की आँतें विचारते हैं. इसका प्रभाव क्षेत्र आँतों, पेट, नाभि और गुर्दों पर रहता है. इस भाव के पीड़ित होने पर पेट के रोग और गुर्दे के रोग हो सकते हैं. मुख्य रुप से इस भाव से हर तरह के शत्रुओं का विचार किया जाता है चाहे शत्रु प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष हो.

इस भाव से मुकदमें, लड़ाई, झगडे़ आदि का विचार करते हैं. इस भाव से प्रतिस्पर्धा का भी विचार किया जाता है. यदि यह भाव बली है तो जातक हर प्रतिस्पर्धा का मुकाबला डटकर कर सकता है चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो. इस भाव से जातक की नौकरी का भी विचार किया जाता है.

#संग्रह चन्द्र दोष - Sangrah Chandra Dosh
विवाह लग्न में चन्द्रमा सूर्य युत हो तो दरिद्रता

मंगल युत हो तो मृ्त्यु

बुध युक्त हो तो शुभ

गुरु युक्त हो तो सुख

शुक्र युक्त हो तो पति का परस्त्रीसंबंध

शनियुक्त हो तो वैराग्य अर्थात सांसारिक जिम्मेवारियों के प्रति उदासीनता होती है.

राहु/केतु युक्त चन्द्रमा पाप युत ग्रह से ही अशुभ हो गया है.

विवाह लग्न में चन्द्रमा, सूर्य-मंगल, शनि, राहु या केतु किसी भी पाप ग्रह से युक्त नहीं होना चाहिए. चन्द्रमा अकेला व बलवान हो तभी अच्छा होता है. मतान्तर से शुभयुक्त होने पर भी कोई न कोई दोष होता है.

#संयुति मास - Sanyuti Maas [Sanyuti Month]
सूर्य, चन्द्र और पृ्थ्वी की दो क्रमिक एक जैसी स्थितियाँ ( संयुति या वियुति ) की अवधि को संयुति मास कहते हैं. एक औसत संयुति मास की अवधि 29 दिन, 12 घण्टे, 44 मिनट और 2.9 सैकण्ड होती है.

#संस्कार - Sanskar
शास्त्रों के अनुसार जिस विधि से पुरुष को संस्कृ्त किया जाए, वह संस्कार कहलाता है. संस्कार की विधि जिस दिन सम्पन्न की जाए, वह दिन भी शुद्ध होना चाहिए. प्राचीन ग्रंथों में सोलह संस्कार प्रसिद्ध हैं. लेकिन कई अन्य मतों से 48 संस्कार तक बताए गए हैं. जिनमें से बहुत से संस्कार लुप्त होते जा रहें हैं. वर्तमान समय में कुल षोडश संस्कार प्रसिद्ध हैं. उनमें से भी कुछ कम हो रहें हैं.

#सप्तम भाव - Saptam Bhav[Seventh House]
इस भाव को कलत्र भाव भी कहते हैं. इस भाव के अन्य नाम जाया, चित्तोत्थ, काम, मदन, दधि, सूप, यामिश, जामित्र, मद, अस्त, अध्वन, लोक, मार्ग, भार्या, पति, स्मर, भर्ता, स्त्री, पत्नी, केन्द्र, कंटक हैं. इस भाव से जीवन साथी का विचार किया जाता है. परंपरागत रुप से विवाह परन्तु वर्तमान समय के अनुसार एक साथ रहना इसलिए पत्नी, प्रेमिका, यौन जीवन आदि का सप्तम भाव से विचार किया जाता है. जीवन साथी के रंग - रुप के बारे में जानकारी इसी भाव से मिलती है. काम - क्रीड़ा, श्रृंगार, स्त्री सौभाग्य, स्त्री कलह आदि का विचार सप्तम भाव से देखा जाता है.

व्यभिचार, युद्ध का मैदान, जय कष्ट, वाद- विवाद आदि का विचार करते हैं. इस भाव से हर क्षेत्र की साझेदारी का विचार करते हैं, साझेदारी पत्नी के साथ है या व्यापार में किसी अन्य के साथ है. वर्तमान समय में व्यापार भी इस भाव से विचारा जाता है. विदेश और विदेश में आवास आदि भी इस भाव के अंतर्गत आते हैं. इस भाव से पद प्राप्ति, नष्ट धन की प्राप्ति या गुम हुए धन की प्राप्ति आदि का विचार भी इस भाव से होता है. चोरी की वस्तु, खोई वस्तु, आदि का विचार इस भाव से होता है.

इस भाव से स्त्रियों का माँगल्य, मरे हुए व्यक्ति का धन, वसीयत या बीमा कंपनी से प्राप्त धन आदि का विचार किया जाता है. सप्तम भाव द्वितीय मारक स्थान है. इस भाव में स्थित और इस भाव के स्वामी ग्रह को मारकेश कहा गया है. इस भाव से मृ्त्यु का विचार, कैद, जहर से मृ्त्यु, ऊँचाई से गिरना आदि का विचार किया जाता है.

सप्तम भाव से गुदा, गुह्य, मूत्रेन्द्रिय आदि का विचार करते हैं. इस भाव के पीड़ित होने पर मूत्रेन्द्रियों से संबंधित रोग हो सकते हैं.

#सप्तविंशांश - Saptvinshansh
इस वर्ग से जातक के बल एवं दुर्बलता आदि का ज्ञान प्राप्त होता है. इस वर्ग से शारीरिक शक्ति, रोग अवरोधक शक्ति आदि की भी जानकारी मिलती है. प्रत्येक राशि को 1 डिग्री 6 मिनट 40 सैकण्ड के 27 बराबर भागों में विभक्त किया जाता है.

अग्नि तत्व राशि में स्थित ग्रह की गणना मेष राशि से होगी. पृ्थ्वी तत्व राशि में स्थित ग्रह की गणना कर्क राशि से होगी. वायु तत्व राशि में स्थित ग्रह की गणना तुला राशि से होगी. जल तत्व में स्थित ग्रह की गणना मकर राशि से शुरु होकर लगातार की जाती है.

#सप्तांश - Saptansha
इस वर्ग से संतान के बारे में, संतति की संभावना के बारे में एवं संपन्नता इत्यादि के बारे में जानकारी मिलती है. प्रत्येक राशि को 4 डिग्री 17 मिनट 8.57 सैकण्ड के 7 भागों में बराबर बांटा जाता है. एक भाग को सप्तांश कहते है.

अगर जन्म कुण्डली में ग्रह विषम राशि में है तो गणना वहीं से शुरु होगी जहाँ वह स्थित है. अगर ग्रह जन्म कुण्डली में सम राशि में है तो गणना उस राशि से सातवीँ राशि से शुरु होगी.

यह बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ग है संतान प्राप्ति के संदर्भ में, जो कि संतान संबंधी अच्छी जानकारी प्रदान करता है. कई मत ऎसे भी है जो पुरुष की अपेक्षा स्त्री के सप्तांश वर्ग को संतति के विषय में अच्छा मानते है. उनका मत है कि स्त्री के सप्तांश से जानकारी ज्यादा अच्छी मिलती है.

#सम्पात बिन्दु - Sampat Bindu
क्रान्तिपथ और आकाशीय विषुवत रेखा दो बिन्दुओं पर एक-दूसरे को काटते हैं. इस स्थान से ग्रहों का भोगांश और विषुवांश नापा जाता है. इन बिन्दुओं को संपात बिन्दु कहते है. सूर्य जब संपात बिन्दु पर आता है तो दिन-रात बराबर होते है. पहले बिन्दु पर सूर्य 21 मार्च को आता है. पहले बिन्दु को बसंत संपात कहते है. क्योंकि इसी समय बसन्त ऋतु भी होती है. इसके उपरान्त सूर्य उत्तर गोलार्द्ध की ओर जाने लगता है. पाश्चात्य ज्योतिष में बसन्त संपात बिन्दु से राशिचक्र का प्रारम्भ माना जाता है. मेष राशि वहाँ से शुरु मानी जाती है.

भारतीय पद्धति में मेष राशि का प्रारम्भ चित्रा तारे के विपरीत या चित्रा तारे से 180 डिग्री दूरी से मेष राशि का प्रारम्भ माना जाता है.

क्रान्तिपथ और आकाशीय विषुवत रेखा के एक-दूसरे को काटने के दूसरे स्थान को दक्षिण संपात या शरद संपात कहते है. 23 सितम्बर के लगभग सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की क्रान्तिसीमा पर से लौट कर जिस संपात बिन्दु पर आता है उसे सायन तुला भी कहते है. सूर्य लौटकर विषुवत वृ्त्त पर आ जाता है और दिन-रात बराबर होते है. इसके उपरान्त सूर्य की दक्षिण की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है. इसके बाद ही शरद ऋतु आरम्भ हो जाती है.

सूर्य उत्तर गोल में सायन मेष से सायन तुला तक रहता है और दक्षिण गोल में सायन तुला से सायन मेष तक रहता है.

बसन्त संपात बिन्दु से जो राशिचक्र प्रारम्भ माना जाता है उसे परिवर्तनशील राशिचक्र कहते है. जो राशिचक्र एक स्थिर बिन्दु से प्रारम्भ होता है उसे स्थिर राशिचक्र कहते है. भारतीय ज्योतिष में स्थिर राशिचक्र का प्रयोग होता है.

#सर्वार्थ सिद्धि नक्षत्र - Sarvartha Siddhi Nakshatra
प्रत्येक वार को विशेष नक्षत्र पड़ने से सर्वार्थ सिद्धि योग बनता है. ये सभी कामों में शुभ हैं कभी-कभी विवाह मुहुर्त में छोड़ देना पड़ता है. इन नक्षत्रों में अनुबन्ध करना, क्रय-विक्रय करना, यात्रा या मुकदमा करना,भूमि, सवारी, वस्त्र, आभूषण आदि का क्रय करना इत्यादि कृ्त्य किए जा सकते हैं.


#सर्वाष्टक वर्ग शोधन - Sarvashtaka Varga Shodhan
सर्वाष्टक वर्ग में भी भिन्नाष्टक वर्ग की तरह शोधन करके शोध्य पिण्ड प्राप्त किए जाते हैं. भिन्नाष्टक वर्ग में त्रिकोण शोधन सीधे किया जाता है परन्तु सर्वाष्टकवर्ग में पहले मण्डल शोधन किया जाता है. सर्वाष्टकवर्ग में तीन प्रकार से शोधन किया जाता है. पहला मण्डल शोधन, दूसरा त्रिकोण शोधन और तीसरा एकाधिपत्य शोधन करते हैं. भिन्नाष्टकवर्ग में केवल दो त्रिकोण शोधन और एकाधिपत्य शोधन किया जाता है.

#सर्वाष्टकवर्ग - Sarvashtak Varga
लग्न और सात ग्रहों का अलग-अलग अष्टकवर्ग या भिन्नाष्टक वर्ग के शुभ बिन्दुओं का कुल योग करके एक कुण्डली में उनको लिख दिया जाता है. आठों अष्टकवर्ग के सभी 12 भावों का अलग-2 योग करके एक कुण्डली में लिख दिया जाता है. इसे सर्वाष्टक वर्ग कहा जाता है. माना आठों अष्टकवर्ग के लग्न का कुल योग 27 है तो 27 को हम सर्वाष्टकवर्ग के लग्न में लिख देगें. बाकी भावों की राशियों के शुभ बिन्दुओं का भी योग करके लिखेंगे. इस प्रकार से हमें सर्वाष्टकवर्ग सारणी प्राप्त होती है.

अष्टकवर्ग की उपयोगिता गोचर में अधिक होती है. यदि किसी राशि में शुभ बिन्दु कम हैं तो उस राशि में पाप ग्रहों के गोचर के समय उस भाव से अनुकूल फल मिलने में कमी रह सकती है. यदि किसी भाव में बिन्दु सामान्य से अधिक हैं तो उस भाव से संबंधित फल अच्छे मिलेंगे.

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#सर्वाष्टकवर्ग - Sarvashtakavarga
लग्न और सात ग्रहों का अलग-अलग अष्टकवर्ग या भिन्नाष्टक वर्ग के शुभ बिन्दुओं का कुल योग करके एक कुण्डली में उनको लिख दिया जाता है. आठों अष्टकवर्ग के सभी 12 भावों का अलग -2 योग करके एक कुण्डली में लिख दिया जाता है. इसे सर्वाष्टक वर्ग कहा जाता है. माना आठों अष्टकवर्ग के लग्न का कुल योग 27 है तो 27 को हम सर्वाष्टकवर्ग के लग्न में लिख देगें. बाकी भावों की राशियों के शुभ बिन्दुओं का भी योग करके लिखेंगे. इस प्रकार से हमें सर्वाष्टकवर्ग सारणी प्राप्त होती है.

अष्टकवर्ग की उपयोगिता गोचर में अधिक होती है. यदि किसी राशि में शुभ बिन्दु कम हैं तो उस राशि में पाप ग्रहों के गोचर के समय उस भाव से अनुकूल फल मिलने में कमी रह सकती है. यदि किसी भाव में बिन्दु सामान्य से अधिक हैं तो उस भाव से संबंधित फल अच्छे मिलेंगे.

अष्टकवर्ग की उपयोगिता गोचर में अधिक है.

#सव्य लग्न - Savya Lagna
जैमिनी ज्योतिष में लग्न में आई मेष, सिंह, कन्या, तुला, कुम्भ, और मीन राशियाँ सव्य लग्न वर्ग की राशियाँ कहलाती हैं.

#सहम - Saham
सहम से अभिप्राय वर्ष कुण्डली में सूक्ष्मग्राही बिन्दु हैं. वर्ष कुण्डली में सहमों की गणना ग्रहों के रेखांश को जोड़ कर या कभी रेखाँश को घटा कर की जाती है. सहमों का अध्ययन ज्योतिष के सामान्य सिद्धांतों के अनुसार ही किया जाता है.

वर्ष कुण्डली में शुभ सहम बन रहे है और शुभ प्रभाव में हैं तब उस सहम से संबंधित शुभ फल उस वर्ष में मिलेगें. यदि वर्ष कुण्डली में अशुभ सहम, अशुभ प्रभाव में तथा कुण्डली के जिस भाव से संबंध बना रहे हैं उन भावों से संबंधित फलों में उस वर्ष में कमी रहेगी.

उपरोक्त योगों का फल तभी प्राप्त होगा जब जन्म कुण्डली में भी उस घटना का होना निश्चित है. जैसे यदि जन्म कुण्डली में विवाह के योग नहीं हैं तब यदि वर्ष कुण्डली में विवाह सहम बन भी रहा हो तो भी फल नहीं मिलेगें. वर्ष कुण्डली के फल तभी फलित होगें यदि जन्म कुण्डली में संबंधित योग बन रहे हों.

#साढे़साती - Sadhesati
कुण्डली में चन्द्र राशि से एक भाव पहले और एक भाव बाद तक शनि का गोचर ही शनि की साढे़साती कहलाता है. साढे़साती में शनि साढे़ सात साल तक तीन भावों में गोचर करता है. एक भाव में शनि ढा़ई वर्ष तक रहता है और शनि को तीन भावों को पार करने में साढे़ सात साल का समय लग जाता है. इसी कारण चन्द्रमा के ऊपर से शनि के भ्रमण को साढे़साती कहते हैं.

गणितीय विधि के आधार पर चन्द्रमा की डिग्री से 45 डिग्री पहले और 45 डिग्री बाद तक शनि का गोचर ही साढे़साती कहलाता है. यह कुल 90 डिग्री का गोचर होता है. जिसे पूरा करने में शनि को साढे़ सात वर्ष का समय लग जाता है.

#साधारण या मिश्र नक्षत्र - Sadharan or Mishra Nakshatra
विशाखा नक्षत्र और कृ्त्तिका नक्षत्र ये साधारण या मिश्र नक्षत्र कहलाते है. इन नक्षत्रों में उग्र नक्षत्र के सारे काम भी किए जा सकते है.

#साध्य योग - Sadhya Yog
इस योग में जन्मा बालक इन्द्रियजित व चतुर होता है. गौरव युक्त, मंत्रों की सिद्धि करने वाला होता है. जो भी कार्य करता है सभी में सफलता मिलती है. अच्छी पत्नी व सम्पति बहुत होती है. धार्मिक व यज्ञ प्रेमी होता है.

#सायन मास Saayan Maas [Month of Saayan]
चन्द्र को दो बार बसन्त विषुव से गुजरने में लगने वाला समय ‘सायन मास’ कहलाता है. सायन मास की वर्तमान अवधि 27 दिन, 7 घण्टे, 43 मिनट और 4.7 सैकण्ड है.

#सायन वर्ष Saayan Varsh [Saayan Year]
सूर्य को एक बसन्त विषुव से दूसरे बसन्त विषुव तक पहुँचने में जितना समय लगता है, वह ‘सायन वर्ष’ कहलाता है. इस वर्ष की अवधि 365 दिन, 5 घण्टे, 48 मिनट और 45.2 सैकण्ड की होती है.

#सार्पशीर्ष नक्षत्र - Sarpasheersh Nakshatra
सूर्य व चन्द्रमा जब एक राशि में रहें और उस समय यदि अनुराधा नक्षत्र हो तब उस अनुराधा नक्षत्र का तीसरा व चौथा चरण सार्पशीर्ष नक्षत्र कहलाता है. यह स्थिति मार्गशीर्ष मास में ही सम्भव है. यह जन्म व शुभ कार्यों में सर्वथा वर्जित है.

#सावन दिन - Savan Din
हिन्दु ज्योतिष में एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का समय ‘सावन दिन’ कहलाता है.

#सावन मास Saavan Maas [Solar Month]
30 सावन दिन का एक Saavan Maas Solar Month सावन मास होता है. सूर्य के उदय से दूसरे उदय तक के समय को एक सावन दिन कहते है. इस प्रकार 30 दिन का एक सावन मास होता है सावन दिन एक नाक्षत्र दिन से बडा़ होता है. सावन दिन का मान समान नहीं होता, इस कारण मध्यम सावन दिन का मान लिया जता है और उसी का समय घडि़यों से जाना जाता है.

#सावन वर्ष - Saavan Varsh [Solar Year]
एक सावन वर्ष में 360 दिन होते हैं. 360 दिनों में 30 दिन के 12 महीने होते हैं. यह वह समय है जिसमें पृथ्वी सूर्य के चारों और एक चक्र पूरा करती है.

#सौर मास - Saur maas [Solar Month]
सूर्य मास का निर्धारण सूर्य के राशि में प्रवेश से होता है. हिन्दु ज्योतिष में सूर्य मास के प्रारंभ् के कई नियम है जैसे सूर्योदय का नियम, सूर्यास्त का नियम, मध्य रात्रि का नियम आदि. हिन्दु ज्योतिष में निरयण पद्धति के अनुसार सौर मास का प्रारंभ सूर्य के राशि प्रवेश से होता है तथा इसे सक्रांति कहते है.

#सौर् वर्ष Saur varsh [Solar Year]
सूर्य को मेष राशि के प्रारम्भ से लेकर मीन राशि के अन्त तक जाने में जो समय लगता है वह सौर वर्ष कहलाता है.

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उप पद लग्न | ग्रहों की नैसर्गिक मित्रता | नक्त योग | नक्षत्र जिनमें ग्रह बली होते हैं | नन्दा तिथि | नपुंसक नक्षत्र | नरु योग | नवम भाव | नवांश | नवांश बल | पंचक नक्षत्र | पंचधा मैत्री | पंचम भाव | पंचमांश | पंचवर्गीय बल | पंचांग | पंचाधिकारी | पंचोत्तरी दशा | पक्ष | पक्ष और तिथि शुद्धि | पक्षरन्ध्र तिथि या छिद्रा तिथियाँ | पद | परदारा सहम | पराशरी राजयोग | पात दोष | पातिक मास | पात्यायनी दशा | पितृ सहम | पीड़ित ग्रह | पुण्य सहम | पुत्र कारक | पुनर्वसु नक्षत्र | पुरुष नक्षत्र | पुष्य नक्षत्र | पूर्ण इत्थशाल | पूर्णा तिथि | पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र | पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र | पूर्वाषाढा़ नक्षत्र | प्रकार | प्रथम भाव | प्रस्थार चक्र | प्राकृ्तिक उपग्रह | प्रीति योग | प्रीति सहम | फलाशी योग | फलूशा योग | भद्रा का वास | सहमों की संख्या | एकाधिपत्य शोधन के नियम | जैमिनी राजयोग | पुत्र सहम | रद्द योग | रवि योग नक्षत्र | राज्य सहम | राशि अंत इत्थशाल | राशिपति | राशियाँ | राशियाँ | राशियों का रुप वर्णन | राहु और केतु | राहु ग्रह | रिक्ता तिथि | रिहा योग | रुद्र | रेवती नक्षत्र | रोग सहम | रोहिणी नक्षत्र | शतभिषा नक्षत्र | शनि की साढे़साती | शनि ग्रह | शास्त्र सहम | षष्टांश | षष्टियांश | षष्ठ भा | संग्रह चन्द्र दोष | संयुति मास | संस्कार | सप्तम भाव | सप्तविंशांश | सप्तांश | सम्पात बिन्दु | सर्वार्थ सिद्धि नक्षत्र | सर्वाष्टक वर्ग शोधन | सर्वाष्टकवर्ग | सर्वाष्टकवर्ग | सव्य लग्न | सहम | साढे़साती | साधारण या मिश्र नक्षत्र | साध्य योग | सायन मास | सायन वर्ष | सार्पशीर्ष नक्षत्र | सावन दिन | सावन मास | सावन वर्ष | सौर मास | सौर् वर्ष