सुखी जीवन पाने का उपाय | Remedies for a prosperous life

हमारे धर्म शास्त्रों में जीवन को सफल एवं सुखमय बनाने के लिए कई बातों का उल्लेख किया गया है. वेदों उपनिषदों एवं धर्म ग्रंथों में सुखी जीवन के कुछ सूत्र बताए गए हैं जिनपर चलकर मनुष्य़ जीवन में एक नई दिसा और सकारात्मक सोच को पाता है. कुछ ऎसे तथ्य हैं जिनका पालन करके प्राणी स्वयं एवं समाज का उद्धार कर सकता है जिसमें से एक रहस्य ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म में छुपा हुआ है जिसक अर्थ है चेतना ही ब्रह्म है वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप एवं अविनाशी है. सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द स्वरूप का स्वामी है उसी का ध्यान इस चेतना द्वारा ज्ञात होता है.

इसको जानने के लिए चित कि शुद्धता आवश्यक है,  ब्रह्म ज्ञान गम्यता से परे है, ब्रह्म का ध्यान करके ही हम ‘मोक्ष’ को प्राप्त कर सकते हैं, उसी का आधार प्राप्त करके सभी जीवों में चेतना का समावेश होता है, वह अखण्ड विग्रह रूप में चारों ओर व्याप्त होता है. वही हमारी शक्तियों हमारी किर्याओं पर नियंत्रण करने वाला है. उसी की प्रार्थना द्वारा चित और अहंकार पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है वह प्रज्ञान अर्थात चैतन्य विद्वान पुरुष है सभी में समाहित ब्रह्म मोक्ष का मार्ग है.

ॐ अहं ब्रह्मास्मि – ॐ अहं ब्रह्मास्मि महावाक्य का अर्थ ‘मैं ब्रह्म हूं’ से प्रकट होता है. जब जीव परमात्मा का अनुभव प्राप्त कर लेता है, और उससे साक्षात्कार कर बैठता है तब वह उसी ब्रह्म का रूप हो जाता है और साधक एवं ब्रह्म के मध्य द्वैत भाव समाप्त हो जाता है. इसी मै से वह उस त्याग को जान पाता है जो दूसरों के लिए उपकार की भावना लाता है ओर व्यक्ति को सभी के प्रति समर्पित करता है. भेद और भिन्नता का अंतर समापत हो जाता है, चाहे वह भाषा की वजह से हो, धर्म की वजह से हो या फिर सीमाओं के कारण हो

ॐ तत्त्वमसि –  इस ॐ तत्त्वमसि महावाक्य को स्पष्ट करते हुए यह अर्थ सामने आता है कि ब्रह्म तुम्हीं हो,  सृष्टि पूर्व, द्वैत रहित, नाम, रूप से रहित,केवल ब्रह्म ही विराजमान था और आज भी वही है आदि से अंत उसी की सत्ता उपस्थित रही है. इसी कारण ब्रह्म को ‘तत्त्वमसि’ कहा गया.  हर प्राणी में एक ही प्रकार का जीव है दूसरे जो तुम में है, वही मुझमें है कि इस धारणा की पूर्ण व्याख्या करता हे. ब्रह्म देह में रहते हुए भी उससे मुक्त है केवल आत्मा द्वारा उसका अनुभव होता है, वह संपूर्ण सृष्टि में होते हुए भी उससे दूर है.

ॐ अयमात्मा ब्रह्म –  ॐ अयमात्मा ब्रह्म महावाक्य का अर्थ है ‘यह आत्मा ब्रह्म है से दृष्ट होता है. देह का प्राण आत्मा ही है वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विराजमान है. सम्पूर्ण चर, अचर में तत्त्व-रूप में वह व्याप्त है, आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित ब्रह्म है. इस प्रकार इन तथ्यों के ज्ञान का बोध करके ही जीव अपने को मुक्त कर सकत अहै ओर जीवन तथा समाज में नई दिशा ला सकने में सक्षम हो सकता है. अत: इस सच्चिदानन्द ब्रह्म को, तपस्या एवं साधना ध्यान द्वारा प्राप्त किया जा सकता है तथा गुरू के निर्देश स्वरुप तप करके ब्रह्म को जाना जा सकता है. जो भी जीव इस ब्रह्म को जान लेते है वह मोक्ष को पाता है. इस प्रकार मनुष्य संपूर्ण सृष्टि स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो जाता है.

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शिव चतुर्दशी | Shiva Chaturdashi | Shiva Chaturdashi Vrat

हिंदु शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को शिवरात्रि का दिन माना जाता है.  धार्मिक मान्यताओं के आधार पर हिंदु पंचांग की चतुर्दशी तिथि के स्वामी भगवान शिव हैं. इसी के साथ पौराणिक मान्यताओं में दिव्य ज्योर्तिलिंग का प्राकट्य भी चतुर्दशी तिथि को ही माना गया है. इन्हीं सभी महत्वपूर्ण तथ्यों के आधार पर चतुर्दशी तिथि के दिन भगवान शंकर की पूजा तथा व्रत का विधान है. विधिपूर्वक व्रत रखने पर तथा शिवपूजन, शिव कथा, शिव स्तोत्रों का पाठ व “उँ नम: शिवाय” का पाठ करते हुए रात्रि जागरण करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त होता हैं. व्रत के दूसरे दिन ब्राह्माणों को यथाशक्ति वस्त्र-क्षीर सहित भोजन, दक्षिणादि प्रदान करके संतुष्ट किया जाता हैं.

शिव चतुर्दशी पूजा विधि | Shiva Chaturdashi Puja Vidhi

शिव चतुर्दशी में भगावन शंकर की पूजा उनके परिवार के सदस्यों सहित की जाती है. पूजा का आरम्भ भोलेनाथ के अभिषेक के साथ होता है. इस अभिषेक में जल, दूध, दही, शुद्ध घी, शहद, शक्कर या चीनी,गंगाजल तथा गन्ने के रसे आदि से स्नान कराया जाता है. अभिषेक कराने के बाद बेलपत्र, समीपत्र, कुशा तथा दूब आदि से शिवजी को प्रसन्न करते हैं. अंत में भांग, धतूरा तथा श्रीफल भोलेनाथ को भोग के रुप में चढा़या जाता है. शिव चतुर्दशी के दिन पूरा दिन निराहार रहकर इनके व्रत का पालन करना चाहिए.

रात्रि में स्वच्छ वस्त्र धारण कर शुद्ध आसन पर बैठकर भगवान भोलेनाथ का ध्यान करना चाहिए. उनके मंत्र की माला का जाप करना शुभफलदायी होता है. शिवभक्त अपनी श्रद्धा तथा भक्ति के अनुसार शिव की उपासना करते हैं. चारों ओर का वातावरण शिव भक्ति से ओत-प्रोत रहता है.शिव की भक्ति के महत्व का वर्णन ऋग्वेद में किया गया है. शिव चतुर्दशी में भगवान की पूजा करने में निम्न मंत्र जाप करने चाहिए.

  • “पंचाक्षरी मंत्र” का जाप करना चाहिए.
  • “ऊँ नम: शिवाय” मंत्र की प्रतिदिन एक माला करनी चाहिए.
  • महामृत्यंजय मंत्र की एक माला प्रतिदिन करनी चाहिए. इससे कष्टों से मुक्ति मिलती है.

इन मंत्रों के जाप से व्यक्ति रोग, भय, दुख आदि से मुक्ति पाता है. जातक दीर्घायु को पाता है. इन मंत्र जाप के साथ रुद्राभिषेक तथा अनुष्ठान आदि भी भक्तों द्वारा कराए जाते हैं.

शिवरात्री व्रत की महिमा | Importance of Shivaratri fast

इस व्रत के विषय में यह मान्यता है कि इस व्रत को जो जन करता है, उसे सभी भोगों की प्राप्ति के बाद, मोक्ष की प्राप्ति होती है. यह व्रत सभी पापों का क्षय करने वाला है. इस व्रत को लगातार करने के बाद विधि-विधान के अनुसार इसका उद्धापन कर देना चाहिए.
उपवास की पूजन सामग्री में जिन वस्तुओं को प्रयोग किया जाता हैं, उसमें पंचामृ्त (गंगाजल, दुध, दही, घी, शहद), सुगंधित फूल, शुद्ध वस्त्र, बिल्व पत्र, धूप, दीप, नैवेध, चंदन का लेप, ऋतुफल आदि. इस व्रत में चारों पहर में पूजन किया जाता है, प्रत्येक पहर की पूजा में “उँ नम: शिवाय” व ” शिवाय नम:” का जाप करते रहना चाहिए. अगर शिव मंदिर में यह जाप करना संभव न हों, तो घर की पूर्व दिशा में, किसी शान्त स्थान पर जाकर इस मंत्र का जाप किया जा सकता हैं. चारों पहर में किये जाने वाले इन मंत्र जापों से विशेष पुण्य प्राप्त होता है. इसके अतिरिक्त उपावस की अवधि में रुद्राभिषेक करने से भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न होते है.

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आध्यात्मिक चेतना से परब्रह्म ज्ञान | Knowledge of Param Brahma through spiritual consciousness

परब्रह्म सता को प्रदर्शित करता है शास्त्रों द्वारा उस अनंत, अव्यक्त तत्व को समझने का प्रयास किया गया है जिसे संन्यास धर्म का पालन करके प्राप्त किया जा सकता है. संन्यास के शुद्ध कर्मों द्वारा एवं योग साधना के मंत्रों अभिमंत्रित होकर ही उस परम तत्व के ज्ञान को जान सकते हैं केवल वाणी द्वारा ही हम इसे जान नहीं सकते. किंतु संन्यासी जो ब्रह्म को जानने कि जिज्ञासा को अपने भीतर लिए उसे पाने का संकल्प करते हुए मोक्ष के मार्ग में खुद को समर्पित करके ही परब्रह्म के सानिध्य को प्राप्त करने में सक्ष्म होता है.

ब्रह्म के विषय में मुख्य सिंद्धातों को बताया गया है उनकी शक्ति एवं उनकी सर्वव्याप्त सत्ता का उल्लेख किया गया है. परब्रह्म जो ब्रह्म से भी परे है समस्त सृष्टि ब्रह्म के अंतर्गत मानी गई है मन, विचार, ज्ञान  भाव ,वेद, शास्त्र मंत्र, आधुनिक विजान ज्योतिष आदि सभी कुछ इसी में समाहित हैं परब्रह्म के बारे में ज्ञान पाना एक असंभव सी बात है किसी भी माध्यम से इसकी परिभाषा नही हो सकती.

परब्रह्म गुणातीत, भावातीत, माया, प्रकृति और ब्रह्म से भी परे है, वह एक ही है अजन्मा, अव्यक्त, सनातन ज्ञानियों ने उसे ब्रह्म से भी परे एक सत्ता रूप में माना है जो शब्दों के द्वारा व्यक्त नही किया जा सकता. वेदों में उस परम तत्व की महिमा का विशद विवरण प्राप्त होता है उसे नेति नेति कह कर व्यक्त किया गया है जिसे वाणी द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता है. परब्रह्म ही समस्त जीव निर्जीव का अस्तित्व है यही एकमात्र परम कारण सर्वसमर्थ सर्वज्ञानी है.

वेदों में परब्रह्म की प्राप्ति का मार्ग दर्शाया गया है. ऋषियों के प्रश्न द्वारा परब्रह्म को जानने का प्रयास संभव हो पाया है इसमें ऋषियों के प्रश्नों के उत्तर स्वरूप परब्रह्म के विषय में बताने का प्रयास संभव हो पाया है.

ब्रह्म विद्या के ज्ञान को समझाने हेतु उस परम सत्ता का ज्ञान करना आवश्यक होता है जो सभी में व्याप्त है जिसके द्वारा सृष्टि का संचार संभव हो पाता है जो मुक्त प्रकाशवान चैतन्य एवं शाश्वत है.ब्रह्म एक सबसे उत्कृष्ट विद्या जिसे मैं आपके सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ. यह उत्कृष्ट ब्रह्म एक प्रकाश का क्षेत्र है जो सदैव फैलाता रहता है. वह राजाओं से परे जा रहा है गुणों मुक्त शुद्ध, अविनाशी और इंद्रियों की शक्ति को बनाए रखने वाला है .

वह आत्माओं के रूप में समूह का निर्माण करता है तथा उनकी दृष्टि को सीमित कर देता है जिससे व्यक्ति उसकी लीला को जान न पाए परब्रह्म स्वयं के शहर में अकेला है वह वहां रहकर कोई भी सांसारिक काम नहीं करता जैसे एक संन्यासी अपने को संसार की मोह माया से अलग रखता है.

संन्यासी का यह रूप ब्रह्म के साथ एकता का एहसास है. परब्रह्म एक कर्ता के रूप में कर्मों के फलों को देने वाला है वह एक किसान की तरह फल को काटने वाला है. वह बिना किसी से जुडे अपना कार्य करता जाता है जैसे एक संन्यासी बिना भेद भाव के एवं लगाव के अपने कार्य में रत रहता है उसी प्रकार परब्रह्म का रूप स्पष्ट होता है.

परब्रह्म की प्राप्ति हेतु संन्यास कर्म का विस्तृत विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है. सृष्टि से पूर्व परम सत्ता अकेली थी उसने इच्छा स्वरूप सृष्टि का निर्माण किया. वही सत्य है वह सूक्ष्म रूप में सभी में विराजमान है उसे जानने के लिए योग साधना कि जाती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि द्वारा उस परब्रह्म को जाना जा सकता है.

संन्यास धर्म के पालन द्वारा परब्रह्म के समीप पहुँचा जा सकता है. सत्य का अनुसरण करके शुद्ध मन से आंतरिक शिखा और बाह्य यज्ञोपवीत द्वारा परब्रह्म को जाना जा सकता है संन्यासी इसी ब्रह्म स्वरूप यज्ञोपवीत को बाहरी एवं भीतर रूप में दोनों प्रकार परब्रह्म को जानने की जिज्ञास को धारण करके परमात्मा के साक्ष्य को प्राप्त कर सकता है.

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देवशयनी एकादशी 2025 | Devshayani Ekadashi 2025

आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस वर्ष देवशनी एकादशी 06 जुलाई 2025 के दिन मनाई जानी है. इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ भी माना गया है. देवशयनी एकादशी को हरिशयनी एकादशी और पद्मनाभा के नाम से भी जाना जाता है सभी उपवासों में देवशयनी एकादशी व्रत श्रेष्ठतम कहा गया है. इस व्रत को करने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, तथा सभी पापों का नाश होता है. इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा अर्चना करने का महतव होता है क्योंकि इसी रात्रि से भगवान का शयन काल आरंभ हो जाता है जिसे चातुर्मास या चौमासा का प्रारंभ भी कहते हैं.

हरिशयनी एकादशी पौराणिक महत्व | Importance of Hari Shayani Ekadashi

देवशयनी या हरिशयनी एकादशी के विषय में पुराणों में विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है जिनके अनुसार इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक पाताल लोक में निवास करते है. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से श्री विष्णु उस लोक के लिये गमन करते है और इसके पश्चात चार माह के अतंराल बाद सूर्य के तुला राशि में प्रवेश करने पर विष्णु भगवान का शयन समाप्त होता है तथा इस दिन को देवोत्थानी एकादशी का दिन होता है. इन चार माहों में भगवान श्री विष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते है. इसलिये इन माह अवधियों में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है.

देवशयनी एकादशी पूजा विधि | Devshayani Ekadashi worship

देवशयनी एकादशी व्रत की शुरुआत दशमी तिथि की रात्रि से ही हो जाती है. दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए. अगले दिन प्रात: काल उठकर देनिका कार्यों से निवृत होकर व्रत का संकल्प करें भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोडशोपचार सहित पूजन करना चाहिए.  पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात भगवान की धूप, दीप, पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए.  भगवान को ताम्बूल, पुंगीफल अर्पित करने के बाद मन्त्र द्वारा स्तुति की जानी चाहिए. इसके अतिरिक्त शास्त्रों में व्रत के जो सामान्य नियम बताये गए है, उनका सख्ती से पालन करना चाहिए.

देवशयनी एकादशी व्रत कथा | Devshayani Ekadashi Fast story

प्रबोधनी एकादशी से संबन्धित एक पौराणिक कथा प्रचलित है. सूर्यवंशी मान्धाता नम का एक राजा था. वह सत्यवादी, महान, प्रतापी और चक्रवती था. वह अपनी प्रजा का पुत्र समान ध्यान रखता है. उसके राज्य में कभी भी अकाल नहीं पडता था. परंतु एक समय राजा के राज्य में अकाल पड गया अत्यन्त दु:खी प्रजा राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगी यह देख दु;खी होते हुए राजा इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन ढूंढने के उद्देश्य से सैनिकों के साथ जंगल की ओर चल दिए  घूमते-घूमते वे ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंच गयें. राजा ने उनके सम्मुख प्रणाम उन्हें अपनी समस्या बताते हैं. इस पर ऋषि उन्हें एकादशी व्रत करने को कहते हैं. ऋषि के कथन अनुसार राज एकादशी व्रत का पालन करते हैं ओर उन्हें अपने संकट से मुक्ति प्राप्त होती है.

इस व्रत को करने से समस्त रखते वाले व्यक्ति को अपने चित, इंद्रियों, आहार और व्यवहार पर संयम रखना होता है. एकादशी व्रत का उपवास व्यक्ति को अर्थ-काम से ऊपर उठकर मोक्ष और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है.

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ऋषि जमदग्नि | Saint Jamdagni | Maharshi Jamadagni

जमदग्नि ऋषि का जन्म भृगुवंशी ऋचीक के पुत्र के रुप में हुआ था. जमदग्नि जिनकी गणना ‘सप्तऋषियों’ में होती है इनकी पत्नी राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका थीं. भृगुवंशीय जमदग्नि ने अपनी तप्सया एवं साधना द्वारा उच्च स्थान को प्राप्त किय अथा उनके समक्ष सभी आदर भाव रखते थे. ऋषि जमदग्नि तपस्वी और तेजस्वी ऋषि थे. ऋषि जमदग्नि और रेणुका के पांच पुत्र रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्ववानस और परशुराम हुए.

पौराणिक कथाओं के अनुसार जब पृथ्वी पर हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का आतंक एवं अत्याचार बढ़ जाता है तब सभी लोग इन राजाओं द्वारा त्रस्त हो जाते हैं. ब्राह्मण एवं साधु असुरक्षित हो जाते हैं धर्म कर्म के कामों में यह राजा लोग व्यवधान उत्पन्न करने लगते हैं. ऐसे समय में भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ को करते हैं जिससे प्रसन्न होकर भगवान वरदान स्वरूप उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान देते हैं और उनकी पत्नी रेणुका से उन्हें पाँच पुत्र प्राप्त होते हैं जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम. इन सभी में परशुराम जी उन हैहयवंशी राजाओं का अंत करते हैं.

जमदग्नि और कार्तवीर्य अर्जुन | Jamdagni and Kartavirya Arjun

हैहयवंश का राजा कार्तवीर्य अर्जुन बहुत ही अत्याचारी राजा था. एक बार वह जमदग्नि ऋषि के आश्रम में जाता है. जहां पर वह कामधेनु गाय की विशेषता को देखकर उसे अपने साथ ले जाने का प्रयास करता है परंतु जमदग्नि कार्त्तवीर्य अर्जुन को कामधेनु गौ देने से मना कर देते हैं. इस पर वह राजा जमदग्नि ऋषि का वध कर देता है तथा कामधेनु गाय को अपने साथ ले जाता है.

अपने पिता की हत्या का बदला परशुराम कार्तवीर्य को मारकर लेते हैं और कामधेनु वापिस आश्रम में ले आते हैं. अपने पिता का अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न करने के उपरांत वह प्रण लेते हें कि पृथ्वी की क्षत्रियों से विहीन कर देंगे ओर इसके लिए वह समस्त पृथ्वी पर घूम-घूमकर इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार करते हैं.

जमदग्नि और रेणुका

ऋषि जमदग्नि जी की पत्नि रेणुका एक पतिव्रता एवं आज्ञाकारी स्त्री थी वह अपने पति के प्रती पूर्ण निष्ठावान थीं किंतु एक गलती के परिणाम स्वरुप दोनों के संबंधों में अलगाव की स्थिति उत्पन्न होगी जिस कारण ऋषि ने उन्हें मृत्यु का दण्ड दिया. प्राचीन कथा अनुसार एक बार रेणुका जल लेने गई लिए नदी पर जाती हैं. जहां पर गंधर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहे होते हैं उन्हें देख रेणुका उन पर आसक्त हो गई जाती हैं और जल लाने में विलंब हो जाने से यज्ञ का समय समाप्त हो जाता है. तब मुनि जमदग्नि ने अपनी योग शक्ति द्वारा पत्नी के मर्यादा विरोधी आचरण को देखकर अपने पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा देते हैं.

परंतु तीनों पुत्र मना कर देते हैं इस केवल परशुराम ऎसा करने को तैयार होते हैं तब जमदग्नि अपने तीनों पुत्रों को ने सबको संज्ञाहीन कर देते हैं और पिता की आज्ञा स्वरूप परशुराम माँ का वध कर देते हैं. परशुराम जी की पितृ भक्ति देख कर पिता जमदग्नि उसे वर माँगने को कहते हैं और परशुराम पिता से वरदान माँगते हैं कि वह उनकी माता को क्षमा कर उन्हें जीवित कर दें तथा सभी भाईयों को भी चेतना युक्त कर दें. इस प्रकार उनके वरदान स्वरूप उनकी माता एवं भाई दोबारा जीवन प्राप्त करते हैं.

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भौमवती अमावस्या 2025 | Bhaumvati Amavasya 2025 | Bhaumvati Amavasya

धर्म ग्रंथों के अनुसार मंगलवार को आने वाली अमावस्या को भौमवती अमावस्या कहा जाता है. भौमवती अमावस्या के समय पितृ तर्पण कार्यों को करने का विधान माना जाता है. अमावस्या को पितरों के निमित पिंडदान और तर्पण किया जाता है मान्यता है कि भौमवती अमावस्या के दिन पितरों के निमित पिंडदान और तर्पण करने से पितर देवताओं का आशीष मिलता है.



भौमवती अमावस्या के दिन स्नान, दान करने का विशेष महत्व कहा गया है. भौमवती अमावस्या के दिन दान करने का सर्वश्रेष्ठ फल कहा गया है. देव ऋषि व्यास के अनुसार इस तिथि में स्नान-ध्यान करने से सहस्त्र गौ दान के समान पुन्य फल प्राप्त होता है. इस के अतिरिक्त इस दिन पीपल की परिक्रमा कर, पीपल के पेड और श्री विष्णु का पूजन करने का नियम है.  दान-दक्षिणा देना शुभ होता है. भौमवती अमावस्या पर हजारों की संख्या में हरिद्वार, काशी जैसे तीर्थ स्थलों और पवित्र नदियों पर स्नान करने का विशेष महत्व होता है.


इस दिन कुरुक्षेत्र के ब्रह्मा सरोवर में डूबकी लगाने का भी बहुत अधिक पुण्य माना गया है. इस स्थान पर भौमवती अमावस्या के दिन स्नान और दान करने से अक्षय फलों की प्राप्ति होती है.  सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक की अवधि में पवित्र नदियों पर स्नान करने वालों का तांता सा लगा रहेगा. स्नान के साथ पवित्र श्लोकों की गुंज चारों ओर सुनाई देती है. यह सब कार्य करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है.



भौमवती अमावस्या का महत्व | Significance of Bhaumvati Amavasya

अमावस्या तिथि प्रत्येकचन्द्र मास मे आती है. चन्द्रमा के दो पक्ष होते है, जिसमें एक कृ्ष्ण पक्ष और एक शुक्ल पक्ष होता हे. कृ्ष्ण पक्ष समाप्त होने पर अमावस्या व शुक्ल पक्ष की समाप्ति पर पूर्णिमा आती है. यह पर्व तिथि है. इस दिन व्रत, स्नान, दान, जप, होम और पितरों के लिए भोजन, वस्त्र आदि देना उतम रहता है. ज्येष्ठ मास की अमावस्या का महत्व अन्य माह में आने वाली अमावस्याओं की तुलना में अधिक होता है. शास्त्रों के हिसाब से ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन प्रात:काल में स्नान करके संकल्प करें और पूजा करनी चाहिए.



भौमवती अमावस्या तिथि के दिन विशेष रुप से पितरों के लिये किए जाने वाले कार्य किये जाते है. इस दिन पितरों के लिये व्रत और अन्य कार्य करने से पितरों की आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है. शास्त्रों में में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है. इसलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण, दान-पुण्य का महत्व है. जब अमावस्या के दिन सोम, मंगलवार और गुरुवार के साथ जब अनुराधा, विशाखा और स्वाति नक्षत्र का योग बनता है, तो यह बहुत पवित्र योग माना गया है. इसी तरह शनिवार, और चतुर्दशी का योग भी विशेष फल देने वाला माना जाता है.



ऎसे योग होने पर अमावस्या के दिन तीर्थस्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण या कर्ज और पापों से मिली पीड़ाओं से छुटकारा मिलता है. इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. पुराणों में अमावस्या को कुछ विशेष व्रतों के विधान है जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है.

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जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा 2025 | Puri Rath Yatra 2025

आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा का शुभारंभ होता है. उड़ीसा में मनाया जायाने वाला यह सबसे भव्य पर्व होता है. पुरी के पवित्र शहर में इस जगन्नाथ यात्रा के इस भव्य समारोह में में भाग लेने के लिए प्रतिवर्ष दुनिया भर से लाखों श्रद्धालु यहां पर आते हैं. यह पर्व पूरे नौ दिन तक जोश एवं उत्साह के साथ चलता है.

भगवान जगन्नाथ का जी की मूर्ति को उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की छोटी मूर्तियाँ को रथ में ले जाया जाता है और धूम-धाम से इस रथ यात्रा का आरंभ होता है यह यात्रा पूरे भारत में विख्यात है. जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा का पर्व आषाढ मास में मनाया जाता है. इस पर्व पर तीन देवताओं की यात्रा निकाली जाती है. इस अवसर पर जगन्नाथ मंदिर से तीनों देवताओं के सजाये गये रथ खिंचते हुए दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित  गुंडिचा मंदिर तक ले जाते हैं और नवें दिन इन्हें वापस लाया जाता है.  इस अवसर पर सुभद्रा, बलराम और भगवान श्री कृ्ष्ण का पूजन नौं दिनों तक किया जाता है.

इन नौ दिनों में भगवान जगन्नाथ का गुणगान किया जाता है. एक प्राचीन मान्यता के अनुसार इस स्थान पर आदि शंकराचार्य जी ने गोवर्धन पीठ स्थापित किया था. प्राचीन काल से ही पुरी संतों और महात्मा के कारण अपना धार्मिक,  आध्यात्मिक महत्व रखता है. अनेक संत-महात्माओं के मठ यहां देखे जा सकते है. जगन्नाथ पुरी के विषय में यह मान्यता है, कि त्रेता युग में रामेश्वर धाम पावनकारी अर्थात कल्याणकारी रहें, द्वापर युग में द्वारिका और कलियुग में जगन्नाथपुरी धाम ही कल्याणकारी है. पुरी भारत के प्रमुख चार धामों में से एक धाम है.

जगन्नाथ रथ यात्रा वर्णन | Jagannath Yatra description

जगन्नाथ जी का यह रथ 45 फुट ऊंचा भगवान श्री जगन्नाथ जी का रथ होता है. भगवान जगन्नाथ का रथ सबसे अंत में होता है, और भगवान जगन्नाथ क्योकि भगवान श्री कृ्ष्ण के अवतार है, अतं: उन्हें पीतांबर अर्थात पीले रंगों से सजाया जाता है. पुरी यात्रा की ये मूर्तियां भारत के अन्य देवी-देवताओं कि तरह नहीं होती है.

रथ यात्रा में सबसे आगे भाई बलराम का रथ होता है, जिसकी उंचाई 44 फुट उंची रखी जाती है. यह रथ नीले रंग का प्रमुखता के साथ प्रयोग करते हुए सजाया जाता है. इसके बाद बहन सुभद्रा का रथ 43 फुट उंचा होता है. इस रथ को काले रंग का प्रयोग करते हुए सजाया जाता है. इस रथ को सुबह से ही सारे नगर के मुख्य मार्गों पर घुमा जाता है. और रथ मंद गति से आगे बढता है. सायंकाल में यह रथ मंदिर में पहुंचता है. और मूर्तियों को मंदिर में ले जाया जाता है.

यात्रा के दूसरे दिन तीनों मूर्तियों को सात दिन तक यही मंदिर में रखा जाता है, और सातों दिन इन मूर्तियों का दर्शन करने वाले श्रद्वालुओं का जमावडा इस मंदिर में लगा रहता है. कडी धूप में भी लाखों की संख्या में भक्त मंदिर में दर्शन के लिये आते रहते है. प्रतिदिन भगवान को भोग लगने के बाद प्रसाद के रुप में गोपाल भोग सभी भक्तों में वितरीत किया जाता है.

सात दिनों के बाद यात्रा की वापसी होती है. इस रथ यात्रा को बडी बडी रस्सियों से खींचते हुए ले जाया जाता है. यात्रा की वापसी  भगवान जगन्नाथ की अपनी जन्म भूमि से वापसी कहलाती है. इसे  बाहुडा कहा जाता है. इस रस्सी को खिंचने या हाथ लगाना अत्यंत शुभ माना जाता है.

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चातुर्मास । चातुर्मास्य | Chaturmas | Chaturmasya

चतुर्मास के चार महीने भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते है इसलिए ये समय भक्तों, साधु संतों सभी के लिए अमूल्य होता है. यह चार महीनों में होनेवाला एक वैदिक यज्ञ है जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है जिसे चौमासा भी कहा जाता है. कात्यायन श्रौतसूत्र में इसके महत्व के बारे में बताया गया है. फाल्गुन से इस का आरंभ होने की बात कही गई है इसका आरंभ फाल्गुन, चैत्र या वैशाख की पूर्णिमा से हो सकता है और अषाढ़ शुक्ल द्वादसी या पूर्णिमा पर इसका उद्यापन करने का विधान है. इस अवसर पर चार पर्व हैं वैश्वदेव, वरुणघास, शाकमेघ और सुनाशीरीय. पुराणों में इस व्रत के महत्व के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है.

वर्षाकाल के चार माह में सभी के लिए साधना पूजा पाठ करने के बारे में कहा गया है. सभी संत एवं ऋषि मुनि इस समय में इस चौमासा व्रत का पालन करते हुए देखे जा सकते हैं. इस दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तामसिक वस्तुओं का त्याग किया जाता है, चार माह जमीन पर सोते हैं और चातुर्मास के दौरान भगवान विष्णु की आराधना कि जाती है. इसके अलावा उपवास और विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ किया जाना शुभ फल प्रदान करने वाला होता है. चातुर्मास के चार महीनों को शुभ माना जाता है. इसके बाद चातुर्मास का समापन देव उठनी ग्यारस पर होता है और इसी के साथ चातुर्मास का माह भी समाप्त हो जाता है.

चातुर्मास व्रत एवं पूजा पाठ | Chaturmas rituals for fast and puja

इस समय के दौरान भोजन में किसी भी प्रकार का तामसिक प्रवृति का भोजन नहीं होना चाहिए. भोजन में नमक का प्रयोग करने से व्रत के शुभ फलों में कमी होती है, व्यक्ति को भूमि पर शयन करना चाहिए, जौ, मांस, गेहूं तथा मूंग की दान का सेवन करने से बचना चाहिए. इस अवधि के दौरान सत्य का आचरण करते हुए दूसरों को दु:ख देने वाले शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए.

इसके अतिरिक्त शास्त्रों में व्रत के जो सामान्य नियम बताये गए है, उनका सख्ती से पालन करना चाहिए.  सुबह जल्दी उठना चाहिए. नित्यक्रियाओं को करने के बाद, स्नान करना चाहिए. स्नान अगर किसी तीर्थ स्थान या पवित्र नदी में किया जाता है, तो वह विशेष रुप से शुभ रहता है. किसी कारण वश अगर यह संभव न हो, तो इस दिन घर में ही स्नान कर सकता है. स्नान करने के लिये भी मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए. यह विष्णु भगवान् का व्रत है अतः ‘नमो- नारायण’ या ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र’ के जप करने से सभी कष्टों से मुक्ति प्राप्त होती है.

स्नान कार्य करने के बाद भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए. पूजन करने के लिए धान्य के ऊपर कुम्भ रख कर, कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से बांधना चाहिए. इसके बाद कुम्भ की पूजा करनी चाहिए. जिसे कुम्भ स्थापना के नाम से जाना जाता है. कुम्भ के ऊपर भगवान की प्रतिमा या तस्वीर रख कर पूजा करनी चाहिए. ये सभी क्रियाएं करने के बाद धूप, दीप और पुष्प से पूजा करनी चाहीए. इस समय पूजा पाठ करने से भगवान श्री विष्णु प्रसन्न होते है. अत: मोक्ष की प्राप्ति होती है.

चातुर्मास महत्व | Significance of Chaturmas

पुराणों में ऎसा उल्लेख है, कि इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक पाताल लोक में निवास करते है. आषाढ मास से कार्तिक मास के मध्य के समय को चातुर्मास कहते है. इन चार माहों में भगवान श्री विष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते है. इसलिये इन माह अवधियों में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है. इस अवधि में कृषि और विवाहादि सभी शुभ कार्य नहीं होते. इन दिनों में तपस्वी एक स्थान पर रहकर ही तप करते है. धार्मिक यात्राओं में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है. ब्रज के विषय में यह मान्यता है, कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर तीर्थ ब्रज में निवास करते है.

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योगिनी एकादशी व्रत 2025 | Yogini Ekadashi Fast 2025

आषाढ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन योगिनी एकादशी व्रत का विधान है. इस वर्ष 22 जून 2025 के दिन योगिनी एकादशी का व्रत किया जाना है. इस शुभ दिन के उपलक्ष्य पर विष्णु भगवान जी की पूजा उपासना की जाती है. इस एकादशी के दिन पीपल के पेड की पूजा करने का भी विशेष महत्व होता है.

योगिनी एकादशी व्रत पूजा विधि | Rituals for Yogini Ekadashi Fast Puja

इस एकादशी का महत्व तीनों लोकों में प्रसिद्ध है. इस व्रत को करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा मुक्ति प्राप्त होती है. योगिनी एकादशी व्रत करने से पहले की रात्रि में ही व्रत एक नियम शुरु हो जाते हैं. यह व्रत दशमी तिथि कि रात्रि से शुरु होकर द्वादशी तिथि के प्रात:काल में दान कार्यो के बाद समाप्त होता है.

एकादशी तिथि के दिन प्रात: स्नान आदि कार्यो के बाद, व्रत का संकल्प लिया जाता है. स्नान करने के लिये मिट्टी का प्रयोग करना शुभ रहता है. इसके अतिरिक्त स्नान के लिये तिल के लेप का प्रयोग भी किया जा सकता है. स्नान करने के बाद कुम्भ स्थापना की जाती है, कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी कि प्रतिमा रख कर पूजा की जाती है. और धूप, दीप से पूजन किया जाता है. व्रत की रात्रि में जागरण करना चाहिए. दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रती को तामसिक भोजन का त्याग कर देना चाहिए और इसके अतिरिक्त व्रत के दिन नमक युक्त भोजन भी नहीं किया जाता है. इसलिये दशमी तिथि की रात्रि में नमक का सेवन नहीं करना चाहिए.

योगिनी एकादशी व्रत कथा | Yogini Ekadashi Fast Katha

योगिनी एकादशी के संदर्भ में एक पौराणिक कथा जुडी़ हुई है जिसके अनुसार अलकापुरी नाम की नगरी में एक कुबेर नाम का राजा राज्य करता था. वह भगवान शिव का अनन्य भक्त था. वह भगवान शिव पर हमेशा ताजे फूल अर्पित किया करता था. जो माली उसके लिए पुष्प लाया करता था उसका नाम हेम था हेम माली अपनी पत्नि विशालाक्षी के साथ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था. एक दिन हेममाली पूजा कार्य में न लग कर, अपनी स्त्री के साथ रमण करने लगा. जब राजा कुबेर को उसकी राह देखते -देखते दोपहर हो गई. तो उसने क्रोधपूर्वक अपने सेवकों को हेममाली का पता लगाने की आज्ञा दी.

जब सेवकों ने उसका पता लगा लिया, तो वह कुबेर के पास जाकर कहने लगे, हे राजन, वह माली अभी तक अपनी स्त्री के साथ रमण कर रहा है. सेवकों की बात सुनकर कुबेर ने हेममाली को बुलाने की आज्ञा दी. जब हेममाली राजा कुबेर के सम्मुख पहुंचा तो कुबेर ने उसे श्राप दिया कि तू स्त्री का वियोग भोगेगा मृत्यु लोक में जाकर कोढी हो जायेगा. कुबेर के श्राप से वह उसी क्षण स्वर्ग से पृथ्वी लोक पर आ गिरा और कोढी हो गया. स्त्री से बिछुड कर मृ्त्युलोक में आकर उसने महा दु;ख भोगे.

परन्तु शिव जी की भक्ति के प्रभाव से उनकी बुद्धि मलीन न हुइ और पिछले जन्म के कर्मों का स्मरण करते हुए. वह हिमालय पर्वत की तरफ चल दिया. वहां पर चलते -चलते उसे एक ऋषि मिले. ऋषि के आश्रम में पहुंच गया. हेममाली ने उन्हें प्रणाम किया और विनय पूर्वक उनसे प्रार्थना की हेममाली की व्यथा सुनकर ऋषि ने कहा की मैं तुम्हारे उद्वार में तुम्हारी सहायता करूंगा. तुम आषाढ मास के कृ्ष्ण पक्ष की योगिनी नामक एकादशी का विधि-पूर्वक व्रत करो इस व्रत को करने से तुम्हारे सभी पाप नष्ट हो जाएंगे. मुनि के वचनों के अनुसार हेममाली ने योगिनी एकादशी का व्रत किया. व्रत के प्रभाव से वह फिर से अपने पुराने रुप में वापस आ गया और अपनी स्त्री के साथ प्रसन्न पूर्वक रहने लगा.

योगिनी एकादशी व्रत का महत्व | Significance of Yogini Ekadashi

योगिनी व्रत की कथा श्रवण का फल अट्ठासी सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन कराने के समान माना गया है. इस व्रत से समस्त पाप दूर होते है. भगवान नारायण की मूर्ति को स्नान कराकर पुष्प, धूप, दीप से आरती उतारनी चाहिए तथा भोग लगाना चाहिए. इस दिन गरीब ब्राह्माणों को दान देना कल्याणकारी माना जाता है.

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बहुला गणेश चतुर्थी 2025 | Bahula Ganesh Chaturthi 2025

प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को भगवान श्रीगणेश चतुर्थी व्रत किए जाने का विधान रहा है. भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को बहुला गणेश चतुर्थी के नाम से जाना जाता है. इस वर्ष बहुला चतुर्थी का त्यौहार 12 अगस्त 2025 को मनाया जाएगा. मान्यता है कि इसी तिथि का संबंध भगवान गणेश जी के जन्म से है तथा यह तिथि भगवान गणेश जी को अत्यंत प्रिय है. ज्योतिष में भी श्रीगणेश को चतुर्थी का स्वामी कहा गया है.

गणेश अवतरण कथा | Ganesh Birth Story

शिवपुराण अनुसार भगवान गणेश जी के जन्म लेने की कथा का वर्णन प्राप्त होता है जिसके अनुसार देवी पार्वती जब स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक का निर्माण करती हैं और उसे अपना द्वारपाल बनाती हैं वह उनसे कहती हैं ‘हे पुत्र तुम द्वार पर पहरा दो मैं भीतर जाकर स्नान कर रही हूँ अत: जब तक मैं स्नान न कर लूं, तब तक तुम किसी भी पुरुष को भीतर नहीं आने देना.

जब भगवान शिवजी आए तो गणेशजी ने उन्हें द्वार पर रोक लिया और उन्हें भितर न जाने दिया इससे शिवजी बहुत क्रोधित हुए और बालक गणेश का सिर धड़ से अलग कर देते हैं, इससे भगवती दुखी व क्रुद्ध हो उठीं अत: उनके दुख को दूर करने के लिए शिवजी के निर्देश अनुसार उनके गण उत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आते हैं और शिव भगवान ने गज के उस मस्तक को बालक के धड़ पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर देते हैं.

पार्वती जी हर्षातिरेक हो कर पुत्र गणेश को हृदय से लगा लेती हैं तथा उन्हें सभी देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद देती हैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्य होने का वरदान देते हैं. चतुर्थी को व्रत करने वाले के सभी विघ्न दूर हो जाते हैं सिद्धियां प्राप्त होती हैं,

गणेश चतुर्थी पूजन विधि | Ganesh Chaturthi Puja Vidhi

किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पूर्व सर्वप्रथम भगवान श्री गणेश जी की स्मरण किया जाता है जिस कारण इन्हें विघ्नेश्वर, विघ्न हर्ता कहा जाता है. भगवान गणेश समस्त देवी देवताओं में सबसे पहले पूजे जाने वाले देवता हैं. इनकी उपासना करने से सभी विघ्नों का नाश होता है तथा सुख-समृद्ध व ज्ञान की प्राप्ति होती है.

गणेश पूजा के दौरान गणेशजी की प्रतिमा पर चंदन मिश्रण, केसरिया मिश्रण, इत्र, हल्दी, कुमकुम, अबीर, गुलाल, फूलों की माला खासकर गेंदे के फूलों की माला और बेल पत्र को चढ़ाया जाता है, धूपबत्ती जलाये जाते है और नारियल, फल और तांबूल भी अर्पित किया जाता है. पूजा के अंत में भक्त भगवान गणेश, देवी लक्ष्मी और विष्णु भगवान की आरती की जाती है और प्रसाद को भगवान सभी लोगों में बांट कर स्वयं भी ग्रहण करना चाहिए.

गणेश भक्त बडी श्रद्धा के साथ चतुर्थी के दिन व्रत रखते हैं. चतुर्थी की रात्रि में चन्द्रमा को अ‌र्घ्यदेकर, गणेश-पूजन करने के बाद फलाहार ग्रहण किया जाता है.  इसके व्रत से सभी संकट-विघ्न दूर होते हैं.  चतुर्थी का संयोग गणेश जी की उपासना में अत्यन्त शुभ एवं सिद्धिदायक होता है. चतुर्थी का माहात्म्य यह है कि इस दिन विधिवत् व्रत करने से श्रीगणेश तत्काल प्रसन्न हो जाते हैं. चतुर्थी का व्रत विधिवत करने से व्रत का सम्पूर्ण पुण्य प्राप्त हो जाता है.

इस दिन विधि अनुसार व्रत करने से वर्ष पर्यन्त चतुर्थी व्रत करने का फल प्राप्त होता है. चतुर्थी के शुभ फलों द्वारा व्यक्ति के किसी भी कार्य में कोई विघ्न नहीं आता उसे संसार के समस्त सुख प्राप्त होते हैं भगवान गणेश उस पर सदैव कृपा करते है

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