कुक्के सुब्रमण्या मंदिर – Kukke Subramanya Mandir – Kukke Subramanya Story – Kukke Subramanya Temple

भारत के प्राचीन तीर्थ स्थानों में से एक कुक्के सुब्रमण्या मंदिर कर्नाटक राज्य के दक्षिणा कन्नड़ जिले मैंगलोर के पास के सुल्लिया तालुक के सुब्रमण्या के एक छोटे से गांव में स्थित है. यहां भगवान सुब्रमण्या को पूजा जाता है जो सभी नागों के स्वामी माने गए हैं. इस मंदिर के दर्शनों के लिए यहां भक्तों का तांता लगा रहता है सभी लोग यहां होने वाली पूजा में शामिल होने की चाह रखते हुए श्रद्धा भाव से इस पवित्र स्थान पर पहुंचते हैं.

कुक्के सुब्रमण्या मंदिर पौराणिक संदर्भ | Mythological significance of Kukke Subramanya Temple

कुक्के सुब्रमण्या जी के विषय मे उल्लेख मिलते हैं काव्यों में यह संदर्भ आता है कि गरूड़ द्वारा डरने पर परमात्मा सर्प वासुकी और अन्य सर्प भगवान सुब्रमण्य के तहत सुरक्षा महसूस करते हैं. ऐसी अनेक कथाएं एवं मान्यताएं यहां मौजूद हैं जो भक्तों की अगाध श्रद्धा भक्ति को दर्शाती हैं भक्त यहां आकर अपनी मनोकामनाओं को पूर्ण होता पाते हैं इस स्थान का आलौकिक दिव्य तेज सभी के भीतर भक्ति का संचार करता है.

कुक्के सुब्रमण्या मंदिर दर्शन | Kukke Subramanya Temple- Darshan

मंदिर में भगवान के पवित्र दर्शन के पहले यात्रियों को कुमारधारा नदी पार कर और उसमें एक पवित्र स्नान करना पड़ता है. मंदिर में भक्त पीछे के द्वार से प्रवेश करते हैं और मूर्ति के सामने जाने से पहले उसकी प्रदक्षिणा करते हैं. गर्भगृह और बरामदा प्रवेश द्वार के मध्य में गरूड़ स्तंभ है मौजूद होता है. माना जाता है कि इस स्तम्भ में वासुकी जी निवास करते हैं. इस स्तंभ को चांदी से ढका हुआ है. माना जाता है कि इस स्तंभ में निवास करने वाले वासुकी जी की सांसों उत्पन्न जहर के अग्नि प्रवाह से भक्तों को बचाने के लिए ही इसे चाँदी एवं आभूषणों से मढ़ा गया है.

श्रद्धालु लोग स्तंभ के चारों ओर खड़े होकर पूजा करते हैं. इस स्तंभ के आगे एक बडा़ सा भवन आता है जो बाहरी भवन होता है और फिर एक अन्य भवन पश्चात भगवान श्री सुब्रमण्यम जी का गर्भगृह है. गर्भगृह के केंद्र में एक आसन स्थित है उस मंच पर श्री सुब्रमण्या की मूर्ति स्थापित है और फिर वासुकी की मूर्ति और कुछ ही नीचे शेषा की मूर्ति भी विराजमान हैं यहीं नित्य रुप से देव पूजा कि जाती है. जिसमें शामिल होने के लिए देश विदेश से लाखों श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं.

सर्प दोष पूजा | Sarp-dosh Puja

इस मंदिर में सर्प दोष को दूर करने हेतु पूजा कि जाती है जिसे सर्प सम्सकारा/सर्पा दोषा पूजा के नाम से जाना जाता है. मान्यता अनुसार यदि कोई व्यक्ति सर्प दोष से पीडि़त हो या श्रापित हो तो इस दोषों से मुक्ति के लिए यहां पर कराई गई पूजा से उसे सर्प दोष से मुक्ति प्राप्त होती है. कर्नाटक और केरल में नाग देवता में पूर्ण आस्था होने के कारण इस पूजा का बहुत महत्व होता है.

इस महत्वपूर्ण मंदिर तक पहुंचने के लिए बंगलूर सड़क के मार्ग से कुक्के सुब्रमण्या पहुंचा जा सकता है. इन दो स्थानों से मंदिर पर जाने के लिए विशेष बसों का परिचालन किया गया है. इसके अतिरिक्त हवाई जहाज और रेल यात्रा द्वारा भी यहां पर पहुँचा जा सकता है.

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श्रावण संक्रांति । सावन संक्रांति 2024 | Sravana Sankranti

श्रावण संक्रांति में सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करेंगे. श्रावण संक्रान्ति का समय 16 जुलाई 2024 को आरंभ होगा. संक्रांति के पुण्य काल समय दान, जप, पूजा पाठ इत्यादि का विशेष महत्व होता है इस समय पर किए गए दान पुण्य का कई गुना फल प्राप्त होता है. ऐसे में शंकर भगवान की पूजा का विशेष महत्व माना गया है.

सूर्य का एक राशि से दूसरा राशि में प्रवेश ‘संक्रांति’ कहलाता है. सूर्य का कर्क राशि में प्रवेश ही ‘कर्क संक्रांति या श्रावण संक्रांति’ कहलाता है. सूर्य  के ‘उत्तरायण ‘ होने को ‘मकर संक्रांति ‘ तथा ‘दक्षिणायन’ होने को ‘कर्क संक्रांति’ कहते हैं.  ‘श्रावण’से ‘पौष’ मास तक सूर्य का उत्तरी छोर से दक्षिणी छोर तक जाना ‘ दक्षिणायन’ होता है. कर्क संक्रांति में दिन छोटे और रातें लंबी हो जाती हैं. शात्रों एवं धर्म के अनुसार ‘उत्तरायण’ का समय देवतायओं का दिन तथा ‘दक्षिणायन ‘देवताओं की रात्री होती है. इस प्रकार, वैदिक काल से ‘उत्तरायण’ को ‘देवयान’ तथा ‘ दक्षिणायन’ के ‘पितृयान’ कहा जाता रहा है.

कर्क संक्रांति पूजन | Karka (Cancer) Sakranti Pujan

कर्क संक्रांति समय काल में सूर्य पितरों का अधिपति माना जाता है. इस काल में षोड़श कर्म और अन्य मांगलिक कर्मों के आतिरिक्त अन्य कर्म ही मान्य होते हैं. श्रवण मास में विशेष रुप से श्री भगवान भोले नाथ की पूजा- अर्चना कि जाती है. इस माह में भगवान भोलेनाथ की पूजा करने से पुण्य फलों में वृ्द्धि होती है.

इस मास में प्रतिदिन श्री शिवमहापुराण व शिव स्तोस्त्रों का विधिपूर्वक पाठ करके दुध, गंगा-जल, बिल्बपत्र, फल इत्यादि सहित शिवलिंग का पूजन करना चाहिए. इसके साथ ही इस मास में “ऊँ नम: शिवाय:” मंत्र का जाप करते हुए शिव पूजन करना लाभकारी रहता है. इस मास के प्रत्येक मंगलवार को श्री मंगलागौरी का व्रत, पूजान इतियादि विधिपूर्वक करने से स्त्रियों को विवाह, संतान व सौभाग्य में वृद्धि होती है.

सावन संक्रांति महत्व | Sawana Sakranti Significance

सावन संक्रांति अर्थात कर्क संक्रांति से वर्षा ऋतु का आगमन हो जाता है. देवताओं की रात्रि प्रारम्भ हो जाती है और चातुर्मास या चौमासा का भी आरंभ इसी समय से हो जाता है. यह समय व्यवहार की दृष्टि से अत्यधिक संयम का होता है क्योंकि इसी समय तामसिक प्रवृतियां अधिक सक्रिय होती हैं. व्यक्ति का हृदय भी गलत मार्ग की ओर अधिक अग्रसर होता है अत: संयम का पालन करके विचारों में शुद्धता का समावेश करके ही व्यक्ति अपने जीवन को शुद्ध मार्ग पर ले जा सकने में सक्षम हो पाता है.

इस समय उचित आहार विहार पर विशेष बल दिया जाता है. इस समय में शहद का प्रयोग विशेष तौर पर करना लाभकारी माना जाता है. अयन की संक्रांति में व्रत, दान कर्म एवं स्नान करने मात्र से ही प्राणी संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है. कर्क संक्रांति को ‘दक्षिणायन’ भी कहा जाता है इस संक्रांति में व्यक्ति को सूर्य स्मरण, आदित्य स्तोत्र एवं सूर्य मंत्र इत्यादि का पाठ व पूजन करना चाहिए जिसे अभिष्ट फलों की प्राप्ति होती है. संक्रांति में की गयी सूर्य उपासना से दोषों का शमन होता है. संक्रांति में भगवान विष्णु का चिंतन-मनन शुभ फल प्रदान करता है.

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च्यवन ऋषि | Sage Chyavana | Rishi Chyavana | Chyavana Maharshi

महान ऋषि भृगु के पुत्र थे च्यवन ऋषि, इनकी माता का नाम पुलोमा था. ऋषि च्यवन को महान ऋषियों की श्रेणी में रखा जाता है इनके विचारों एवं सिद्धांतों द्वारा ज्योतिष में अनेक महत्वपूर्ण बातों आगमन हुआ इस कारण यह ज्योतिष गुरू रुप में भी प्रसिद्ध हुए तथा इनके द्वारा रचित ग्रंथों से ज्योतिष तथा जीवन के सही मार्गदर्शन का बोध हुआ.

च्यवन ऋषि जन्म कथा | Sage Chyavana Birth strory

ऋषि भृगु की पत्नी का नाम पुलोमा था एक बार जब भृगु ऋषि अपनी पत्नी के पास नहीं होते हैं तब राक्षस पुलोमन, उनकी पत्नी पुलोमा जबरन अपने साथ ले जाने के लिए आता है वह पुलोमन को बलपूर्वक ले जाने लगता है उस समय पुलोमा गर्भवती होती हैं और इस कारण इस संघर्ष में शिशु गर्भ से बाहर गिर जाते है और बालक के तेज से राक्षस पुलोमन भस्म हो जाता है,  तथा पुलोमा पुन: अपने निवास स्थान भृगु ऋषि के पास आ जाती हैं .गर्भ से गिर जाने के कारण इनका नाम च्यवन पड़ा.

च्यवन ऋषि से संबंधित मुख्य घटनाएँ | Significant incidents of Sage Chayanvana’s Life

ऋषि च्यवन और सुकन्या । Chyavana and Sukanya

जन्म से ही च्यवन विद्वान और ज्ञानी थे वह एक महान ॠषि थे. इनके पुत्र का नाम और्व और इनका विवाह  आरुषी से हुआ था जिससे इन्हें और्व नामक पुत्र प्राप्त हुआ. इनकी अन्य विवाह राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से भी हुआ था. ऋषि च्यवन ने बहुत कठोर तपस्या की थी  वह  लंबे समय तक निश्चल रहकर एक ही स्थान पर बैठे रहे. जैसे जैसे समय बीतता गया और उनका शरीर घास और लताओं से ढक गया तथा चीटियों ने उनकी देह पर अपना निवास बना लिया वह दिखने में मिट्टी का टिला सा जान पड़ते थे.

इस तरह बहुत समय गुज़र गया एक दिन राजा शर्याति की पुत्रि सुकन्या अपनी सखियों के साथ टहलती हुई च्यवन मुनि के स्थान जा पहुँची वहां पर मिट्टी के टीले में चमकते दो छिद्रों को देखकर चकित रह गई और कौतुहल वश देह को बांबी समझ उन छिद्रों को कुरेदने लगती हैं. उनके इस कृत्य से ऋषि की आंखों से रक्त की धारा निकलने लगती है और ऋषि च्यवन अंधे हो जाते हैं और क्रोधित होकर वह शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे देते हैं. राजा शर्याति ने इस घटना से दुखी होकर उनसे विनय निवेदन करते हैं क्षमायाचना स्वरुप वह अपनी पुत्री को उनके सुपुर्द कर देते हैं इस प्रकार सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हो जाता है.

ऋषि च्यवन और अश्चिनीकुमार | Sage Chyavana and Ashvins

सुकन्या बहुत पतिव्रता थी वह च्यवन ऋषि की सेवा दिन रात लगी रहती. एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में , देवों के वैद्य अश्‍वनीकुमारआ आते हैं. सुकन्या उचित प्रकार से उनका आदर-सत्कार एवं पूजन करती है. उसके इस आदर भाव व पतिव्रत से से प्रसन्न अश्‍वनीकुमार उसे आशीर्वाद प्रदान करते हैं वह च्यवन ऋषि को उनका यौवन व आंखों की ज्योती प्रदान करते हैं आँखों की ज्योती और नव यौवन पाकर च्यवन मुनि बहुत प्रसन्न होते हैं वह अश्चिनीकुमारों को सौमपान का अधिकार दिलवाने का वचन देते हैं.

यह सुनकर अश्विनी कुमार प्रसन्न होकर और उन दोनों को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले जाते हैं. शर्याति जब च्यवन ऋषि के युवा हो जाने के बारे में सुनते हैं तो बहुत प्रसन्न होते हैं व उनसे मिलने जाते हैं. ऋषि च्यवन,  राजा से कहकर एक यज्ञ का आयोजन कराते हैं. जहां वह यज्ञ का कुछ भाग अश्विनी कुमारों को प्रदान करते हैं. तब देवराज इन्द्र आपत्ति जताते हैं और अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देने से मना करते हैं

परंतु च्यवन ऋषि, इन्द्र की बातों को अनसुना कर देते हैं इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार करने लगते हैं किंतु  ऋषि च्यवन अपने तपोबल से वज्र को रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न करते हैं. वह राक्षस इन्द्र को मारने के लिए दौडता है इन्द्र ने भयभीत होकर अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लेते हें और च्यवन ऋषि से क्षमा मांगते हैं च्यवन ऋषि का क्रोध शांत होता है और वह उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को कष्ट से मुक्ति प्रदान करते हैं.

च्यवन मुनी और राजा कुशिक । Chyavana and Kushika

एक बार च्यवन मुनि ने कुशिक वंश को पूर्ण रुप से समाप्त करना चाहा इसलिए वह राजा कुशिक के यहाँ अतिथि रूप में जाते हैं और इक्कीस दिनों तक उनकी कडी परीक्षा लेते हैं लगे. राजा-रानी उनकी सेवा में लग गये। इस प्रकार के अनेक कृत्य होने पर भी जब राजा कुशिक तथा रानी अपने कर्म से विचलित नही हुए तो च्यवन उनके सेवाभाव से बहुत प्रसन्न होते हैं और उन्हें एक अद्भुत स्वर्णमहल प्रदान करते हैं तथा वरदान स्वरूप उन्हें महापराक्रमी क्षत्रिय धर्मा वंशज(परशुराम) के उत्पन्न होने का वर देते हैं तथा वह कहते हैं की राजा कुशिक की तीसरी पीढ़ी से कौशिक वंश  प्रारंभ होगा और तुम्हारे वंश गाधि को विश्वामित्र नामक ब्राह्मण-पुत्र की प्राप्ति होगी जो ब्राह्मण क पद प्राप्त करेगा. इतना कहकर ऋषि ने उन दोनों से विदा लेते हैं.

ऋषि च्यवन द्वारा रचित ग्रंथ । Books written by Sage Chayavana

च्यवन मुनी द्वारा अनेक ग्रंथों की रचना हुई. उनके द्वारा रचित च्यवन स्मृति में उन्होंने विभिन्न तथ्यों के महत्व को दर्शाया. इसमें उन्होंने गोदान के महत्व के विषय में लिखा इसके साथ ही बुरे कार्यों से बचने का मार्ग एवं प्रायश्चि का विधान भी बताया. भास्कर संहिता में इन्होंने सूर्य उपासना और दिव्य चिकित्सा से युक्त “जीवदान तंत्र” भी रचा है जो एक महत्वपूर्ण मंत्र है. अनेक महान राजाओं ने इनके निर्णयों को अपने धर्म कर्म में शामिल किया.

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चैत्र संक्रांति 2024 | Chaitra Sankranti 2024 Celebrations

चैत्र संक्रांति में सूर्य, 14 मार्च 2024 , के दिन, मीन राशि में प्रवेश करेंगे. चैत्र संक्रांति में स्नान, दान, जप इत्यादि का विशेष पुण्य काल सांय काल बाद से आरंभ हो जाएगा.

इस पुण्य काल में दान- स्नान आदि कार्य करने अति शुभ माने जाते हैं. तीर्थ या धार्मिक स्थलों में स्नान करने के लिये पुण्य काल को लिया जा सकता है. सूर्य संक्रांति का पर्व सूर्य की आराधना-उपासना का पावन पर्व होता है, जो तन-मन और आत्मा को शक्ति प्रदान करता है. भारत में संक्रांति का यह पावन पर्व बड़े ही उल्लास के साथ मनाया जाता है.

चैत्र संक्रांति उपासना पर्व | Chaitra Sankranti Fast Festival

संक्रांति वक्त ईष्ट या भगवान की पूजा, ध्यान और पवित्र कर्म करना बहुत शुभ होता है. इस समय ज्ञान, शांति, निरोग और सुंदर शरीर प्राप्त होता है. भगवान का स्मरण इस काल में बहुत पुण्य देता है. इस समय वातावरण और वायु भी स्वच्छ होती है. ऐसे में देव उपासना, ध्यान, योग, पूजा तन, मन और बुद्धि को पुष्ट करते हैं. हिन्दू माह चैत्र संक्रांति का दिन धार्मिक और लोक मान्यताओं में बहुत ही शुभ माना जाता है. जिसका कारण धर्मग्रंथों और मान्यताओं से जुड़े तथ्य और शुभ अवसरों का संयोग है, इनका संबंध अलग-अलग युग-काल से रहा है.

इस दिन को धार्मिक दृष्टि से ही पवित्र एवं शुभ नहीं माना जाता बल्कि व्यावहारिक रूप से भी उत्तम माना गया है. इस दिन हम मन, विचार और कर्म में सृजन का भाव रखें और विनाशक प्रवृत्तियों को छोड़े. जीवन में सत्य को उतारें एवं सात्विक जीवन व्यतीत करें. जीवन धर्म यानी मन, वचन और कर्म में सत्य और पवित्र भावों का समायोजन करके कोई भी व्यक्ति सुख, पद और प्रतिष्ठा से वंचित नहीं रहता.

चैत्र संक्रांति महत्व | Significance of Chaitra Sankranti

पर्वो को मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. इन पर्वो में कई प्रकार की शास्त्रोक्त विधि संबंधी प्रार्थनाएं सम्मिलित हैं. इसी में चैत्र संक्रांति एक बहुत ही मंगलकारी पर्व है और यह लगभग देश के सभी प्रांतों में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है. यह सांस्कृतिक पर्व बहुत ही उत्साह, धर्म निष्ठा और आनंद के साथ मनाया जाता है.

इस माह में सूर्य की गति उत्तरायण की ओर बढ़ रही होती है. उत्तरायण काल में सूर्य उत्तर की ओर उदय होता दिखता है और उसमें दिन का समय बढ़ता जाता है. इस शुभ दिन का आरंभ प्राय: स्नान और सूर्य उपासना से आरंभ होता है. ऐसी धारणा है कि ऐसा करने से स्वयं की तो शुद्धि होती ही है, साथ ही पुण्य का लाभ भी मिलता है.

इस दिन गायत्री महामंत्र का श्रद्धा से उच्चारण किया जाना चाहिए क्योंकि गायत्री मंत्र सूर्य को समर्पित है, जिससे बुद्धि और विवेक की प्राप्ति होती है. व्यक्ति अपने सामर्थ्य अनुसार इस दिन दान- पुण्य आदि करते हैं. घर परिवार के बड़े बुजुर्ग सदस्य इस दिन अन्न, वस्त्र और धन आदि का दान करते हैं. घरों में ख़ास व्यजंन एवं मिष्ठान आदि बनाए जाते हैं.

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ऋषि दुर्वासा | Durvasa | Rishi Durvasa | Durvasa Biography | Durvasa Muni

ऋषि मुनियों की परंपरा में दुर्वासा ऋषि का अग्रीण स्थान रहा है इतिहास के आदिकालीन महान ऋषियों में यह प्रमुख स्थान रखते हैं, ऋषि दुर्वासा सतयुग, त्रैता एवं द्वापर युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी महर्षि माने गए हैं हिंदुओं के एक महान ऋषि हैं जो अपने क्रोध के लिए जाने जाते रहे ऋषि दुर्वासा को भगवान शिव का अवतार माना जाता है. अपने ज्ञान एवं तपोबल के कारण उन्हें सभी से सम्मान प्राप्त हुआ सभी उन्हें आदरणीय मानते थे परंतु उनके क्रोध के कारण सभी उनसे भयभीत भी रहते थे वह छोटी- छोटी बातों पर श्राप दे दिया करते थे किंतु जल्द ही शांत भी हो जाते थे तथा अपने शाप को दूर करने का उपाय भी स्वयं ही बता देते थे.

ऋषि दुर्वासा जन्म कथा | Birth story of Saint Durvasa

ऋषि दुर्वासा जी भगवान शिव के अंश से आविर्भूत हुए माने जाते हैं. इनके पिता महर्षि आत्रि और माता सती अनुसूइया जी थीं .महर्षि अत्रि जी ब्रह्मा के मानस पुत्र थे और उनकी पत्नी अनुसूया जी पतिव्रता थी जिस कारण एक बार उनके पातिव्रत धर्म की परीक्षा लेने हेतु देवी सरस्वती, लक्ष्मी ओर पर्वती जी अपने पतियों को उनके पास जाकर उनके सतीत्व की परीक्षा लेने को विवश करती हैं अत: ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही पत्नियों के अनुरोध पर अनसूयाजी के समक्ष प्रकट होते हैं.

परंतु सती अनुसूइया जी के तपोबल के आगे वह हार जाते हैं और शिशु रूप में तीनों देव माता के पुत्र बन कर रहने लगेते हैं बाद में देव देवियों के अनुरोध पर अनसूया जी उन्हें मुक्त कर देती हैं और देव उन्हें वरदान देते हैं कि वह उन्हें पुत्रों के रूप में प्राप्त होंगे अत: ब्रह्मा जी चंद्रमा के रूप में, विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और शिव जी दुर्वासा के रूप में उपस्थित होते हैं

एक अन्य कथा अनुसार कहा जाता है कि एक बार महर्षि अत्रि जी ने संतान की प्राप्ति के लिए ब्रह्मा जी से प्रार्थना करते हैं अत: भगवान ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार अपनी पत्नी सती अनुसूइया सहित वह ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना के लिए कठोर तपस्या करते हैं. इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश् उन्हें दर्शन देते हैं और उन्हें वरदान देते हैं कि वह तीनों उनके पुत्र रूप में जन्म लेंगे.

कुछ समय पश्चात त्रिदेवों के अंश स्वरूप महर्षि अत्री के घर में तीन बच्चों का जन्म होता है जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले पुत्र होते हैं. इन तीनों पुत्रों के रूप में ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा का जन्म हुआ, विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्त जी का जन्म हुआ तथा भगवान शिव के अंश से महान ऋषि दुर्वासा  का जन्म होता है

ऋषि दुर्वासा का स्वभाव | General Character of Saint Durvasa

ऋषि दुर्वासा जी जीवन-भर भक्तों की परीक्षा लेते रहे अपने महा ज्ञानी स्वरूप होने तथा सभी सिद्धियों के ज्ञान के बावजूद भी ऋषि दुर्वासा जी अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं कर पाते थे जो उनकी सबसे बड़ी कमी भी रही. उन्हें कभी-कभी अकारण ही भयंकर क्रोध भी आ जाता था. अपने क्रोध के लिए प्रचलित मुनि दुर्वासा जी किसी को भी श्राप दे देते थे. उन्होंने शकुन्तला को श्राप दिया और जिस कारण शकुंतला को अनेक कष्ट सहन करने पड़े. इसी प्रकार उनके क्रोध से कोई भी नहीं बच पाया आम जन से लेकर राजा, देवता , दैत्य, असुर सभी उनके इस क्रोध के भागी बने.

ऋषि दुर्वासा के जीवन की प्रमुख घटनाएँ | Significant incidents of Saint Durvasa’s life

दुर्वासा ऋषि जी ने अपनी साधना एवं तपस्या द्वारा अनेक सिद्धियों को प्राप्त किया था अष्टांग योग का अवलम्बन कर उन्हें अनेक महत्वपुर्ण उपलब्धियां प्राप्त हुई थीं उनके जीवन में अनेकों ऎसी घटनाएं रहीं हैं जो सदियों तक अविस्मरणिय रहीं हैं और जिनके होने से कई घटना क्रमों की उत्पत्ति हुई

ऋषि दुर्वासा और कुंती | Saint Durvasa and Kunti

एक बार कुंती के अतिथ्य सत्कार से प्रसन्न होकर वह उसे एक मंत्र प्रदान करते हैं जिसके द्वारा वह किसी भी देव का आहवान करके उस देव के अंश को जन्म दे सकती थी. इसी वरदान स्वरुप कुंती को कर्ण जैसे पुत्र समेत पांच पांडव प्राप्त हुए और जिनकी उत्पत्ति ने इतिहास में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए.

दुर्वासा और कृष्ण | Saint Durvasa and Lord Krishna

एक बार दुर्वासा कृष्ण के स्वभाव की परीक्षा लेते हैं की प्रकार से उन्हें विचलित करने का प्रयास करते हैं पर कृष्ण हर अवस्था में शांत स्वभाव व्यक्त करते हैं और एक दिन ऋषि उन्हें अपनी जूठी खीर को शरीर पर मलने को कहते हैं. उनके आदेशनुसार कृष्ण अपने पूरे शरीर पर खीर लगा लेते हैं तो दुर्वासा प्रसन्न होकर कृष्ण को वरदान देते हैं कि सृष्टि का जितना प्रेम अन्न में होगा उतना ही तुम में भी होगा

दुर्वासा और राजा अंबरीष |Saint Durvasa and Kind Ambarisha

एक बारा दुर्वासा ऋषि महाराज अम्बरीष के राजभवन में पधारते हैं उस दिन राजा अंबरीष निर्जला एकादशी उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे. पूजा पाठ करने के पश्चात राजा ने ऋषि दुर्वासा को प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन करते हैं ताकी वह अपना वर्त पूर्ण कर सकें परंतु ऋषि दुर्वासा यमुना स्नान करके ही कुछ ग्रहण करने की बात कहते हैं ओर चले जाते हैं. इधर पारण का समय समाप्त हो रहा होता है. अत: ब्राह्मणों के परामर्श पर राजा चरणामृत ग्रहण कर पारण करते हैं.

इस पर जब ऋषि दुर्वासा वहां पहुंच जाते हैं और जब उन्हें इस बात का बोध होता है तो उन्हें बहुत क्रोध आता है और वह राजा अम्बरीश को भस्म करने के लिए अपनी जटा से क्रत्या राक्षसी उत्पन्न करते हैं किंतु राजा बिना विचलित हुए भगवान विष्णु का स्मरण करने लगते हैं और वह राक्षसी जैसे ही उन पर आक्रमण करती है तो स्वत: ही अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र उसे भस्म कर देता है और दुर्वासा ऋषि को मारने के लिए सक्रिय हो जाता है.

अपनी रक्षार्थ दुर्वासाजी वहां से भागने लगते हैं परंतु उन्हें कहीं भी शरण नहीं मिलती तब वह शिवजी के पास जाते हैं भगवान शिव उन्हें विष्णु के पास भेजते हैं तब विष्णु जी उनसे कहते हैं कि यदि वह अपनी रक्षा करना चाहते हैं तो राजा अम्बरीष से क्षमा मांगें. इस पर ऋषि दुर्वासा अंबरीष के पास जाते हैं तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगते हैं महर्षि दुर्वासा की यह दशा देखकर अंबरीष सुदर्शन चक्र की स्तुति कर उसे लौट जाने को कहते हैं इस प्रकार दुर्वासा ऋषि राजा के इस व्यवहार से अत्यंत प्रसन्न हो उन्हें आशीर्वाद देते हैं. इस तरह से अनेकों घटनाएँ है जिनसे हमें ऋषि दुर्वासा के जीवन का ज्ञान होता है और अनेक शिक्षाऐं भी प्राप्त होती है.

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ज्येष्ठ संक्रांति 2024 | Jyeshtha Sankranti

ज्येष्ठ संक्रांति में सूर्य वृष राशि में प्रवेश करेंगे यह संक्रांति 15 मई, 2024 को आरंभ होगी.  इस पुण्य काल के समय दान, स्नान एवं जप करने से अमोघ फलों की प्राप्ति होती है. इस मास में संक्रान्ति, गंगा दशहरा व निर्जला एकादशी आदि पर्व मुख्य रुप से रहेंगें.

ज्येष्ठ संक्रान्ति के दिन व्रत-उपवास रख कर घडा, गेहूं, चावल, सतु, अनाज व दूध -चीनी, फल, वस्त्र, छाता, पंखा आदि अन्य गर्मियों में प्रयोग होने वाली वस्तुओ का दक्षिणा सहित दान करने का विशेष महत्व होता है. व्रत के दिन भगवान श्री विष्णु का पूजन व “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय ” मंत्र व विष्णु सहस्त्र नाम आदि स्त्रोतों का जप-पाठ करना शुभ रहता है.

ज्येष्ठ संक्रांति पूजन | Rituals to perform Jyeshtha Sakranti Puja

ज्योतिषियों के अनुसार संक्रांति के दिन स्नान इत्यादि से निवृत होकर सामर्थ्य अनुसार दान करने से शारीरिक, धार्मिक व अन्य लाभ तथा पुण्य प्राप्त होते हैं. इसके अतिरिक्त पूजन में अष्ठदल का कमल बनाकर उसमें सूर्यदेव का चित्र स्थापित करके भगवान का पूजन करना चाहिए. व्रत-पूजन-कथा करने से इस दिन पुन्यों की प्राप्ति होती है. ज्येष्ठ मास की संक्रांति का व्रत करते समय भगवान की मूर्ति के सामने व्रत का संकल्प लिया जाता है.

व्रत का संकल्प लेने के बाद व्रत प्रारम्भ करना चाहिए. और फल-फूल, अक्षत, चन्दन, जल आदि से प्रभ की उपासना करनी चाहिए. ब्राह्माणों को भोजन कराना चाहिए और दान इत्यादि देकर विदा करना चाहिए. ज्येष्ठ संक्रांति पर्व में कई प्रकार की शास्त्रोक्त विधि संबंधी प्रार्थनाएं सम्मिलित हैं. ज्येष्ठ  संक्रांति एक बहुत ही मंगलकारी पर्व है.

ज्येष्ठ संक्रांति महत्व | Significance of Jyestha Sakranti

ज्येष्ठ का महीना हिन्दू पंचांग का तीसरा माहीना होता है और इसी माह में मनाई जाती हैं ज्येष्ठ संक्रांति. ज्येष्ठ माह गर्मी का माह है, इस महीने में गर्मी अपने चरम पर होती है. इस कारण ज्येष्ठ माह में जल का महत्त्व बढ जाता है और ज्येष्ट संक्रांति के अवसर पर जल की पूजा की जाती है. प्राचीन समय में ऋषि मुनियों ने इस ज्येष्ठ संक्रांति में जल के महत्व का उल्लेख किया.

पवित्र गंगा नदी को ज्येष्ठ भी कहा जाता है क्योंकि गंगा अपने गुणों में अन्य नदियों से ज्येष्ठ अर्थात बडी है. संक्रांति के अवसर पर प्रात: काल शुभ मुहूर्त में स्नान करना उत्तम माना जाता है. कुछ लोग गंगा अन्य पवित्र नदियों में स्नान करने जाते हैं और जो लोग नहीं जा पाते वे घरों में ही पानी में गंगा जल मिलाकर स्नान कर ज्येष्ठ संक्रांति का पुण्य प्राप्त करते हैं.

संक्रांति का पर्व प्रकृति परिवर्तन के साथ शरीर का संतुलन बनाए रखने की ओर भी इशारा करता है. संक्रांति पर्व हमें धार्मिक अनुष्ठान करते हुए प्रकृति से जुड़े रहने का शुभम संदेश देता है. इस पर्व की धूम गांव, नगर, शहर हर जगह दिखाई देती है. प्रत्येक दिवस किसी न किसी देवता की उपासना से जुड़ा होने से उत्सव का आनंद लोगों को मिलता ही रहता है. इसी क्रम में इस विशेष ज्येष्ठ संक्रांति पर्व पर होने वाले धार्मिक उत्सव में जनमानस एक-साथ मिलकर आनंद के साथ इसे मनाता है.

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आषाढ़ संक्रांति 2024 | Ashadh Sankranti 2024

आषाढ़ संक्रांति में सूर्य मिथुन राशि में प्रेवश करेंगे. आषाढ़ संक्रान्ति 15 जून 2024 को मनाई जाएगी.
संक्रांति पुण्य काल समय में दान-धर्म,कर्म के कार्य किये जाते हैं. जिनसे शुभ फलों की प्राप्ति होती है.

आषाढ संक्रांति के दिन किया गया दान अन्य शुभ दिनों की तुलना में दस गुना अधिक पुण्य देने वाला होता है. धर्म शास्त्रों में इस दिन देव उपासना व साधना का विशेष महत्व बताया गया है. संक्रांति जीवन में अच्छे बदलाव व उत्तम फलों पाने लिए एक खास समय होता है. यह विशेष घड़ी अध्यात्म ही नहीं बल्कि दैनिक व्यावहारिक नज़रिए से भी लाभदायक है. संक्रांति की पुण्य योग से इस शुभ तत्वों की प्राप्ती संभव है.

आषाढ संक्रांति पूजन | Rituals to perform Ashaadh Sakranti Puja

आषाढ संक्रांति व्रत का पालन, पूजन, पाठ, दानादि का विशेष महत्व शास्त्रों में वर्णित है. संक्रांति व्रत में प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर चौकी पर नवीन वस्त्र बिछाकर उसमें भगवान सूर्य की मूर्ति स्थापित करके गणेश आदि देवताओं का पूजन करके सूर्य नारायण भगवान का षोडशोपचार पूजन के साथ आहवान करना चाहिए. ऐसा करने से संपूर्ण पापों का नाश हो जाता है. सुख-संपत्ति, आरोग्य, बल, तेज, ज्ञानादि की प्राप्ति होती है.

आषाढ संक्रान्ति, के दिन तीर्थस्नान, जप-पाठ, दान आदि का विशेष महत्व रहता है. संक्रान्ति, पूर्णिमा और चन्द्र ग्रहण तीनों ही समय में यथा शक्ति दान कार्य करने चाहिए. जो जन तीर्थ स्थलों में नहीं जा पाएं, उन्हें अपने घर में ही स्नान, दान कार्य कर लेने चाहिए. आषाढ मास में भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिये ब्रह्मचारी रहते हुए नित्यप्रति भगवान लक्ष्मी नारायण की पूजा अर्जना करना पुण्य फल देता है.

इसके अतिरिक्त इस मास में विष्णु के सहस्त्र नामों का पाठ भी करना चाहिए संक्रांति तथा एकादशी तिथि, अमावस्या तिथि और पूर्णिमा के दिन ब्राह्माणों को भोजन तथा छाता, खडाऊँ, आँवले, आम, खरबूजे आदि फल, वस्त्र, मिष्ठानादि का दक्षिणा सहित यथाशक्ति दान कर, एक समय भोजन करना चाहिए. इस प्रकार नियम पूर्वक यह धर्म कार्य करने से विशेष पुण्य फलों की प्राप्ति होती है.

आषाढ़ संक्रांति महत्व | Significance of Ashaadh Sakranti

आषाढ संक्रांति लगभग देश के सभी हिस्सों में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है. यह सांस्कृतिक पर्व बहुत ही उत्साह, धर्मनिष्ठा के साथ मनाया जाता है.  इस शुभ दिन का आरंभ प्राय: स्नान और सूर्य उपासना से आरंभ होता है.  ऐसी धारणा है कि ऐसा करने से स्वयं की तो शुद्धि होती ही है, साथ ही पुण्य का लाभ भी मिलता है. इस दिन गायत्री महामंत्र का श्रद्धा से उच्चारण किया जाना चाहिए तथा सूर्य मंत्र का जाप भी करना उत्तम होता है. इससे बुद्धि और विवेक की प्राप्ति होती है.

संक्रांति का आरंभ सूर्य की परिक्रमा से किया जाता है.  सूर्य जिस राशि में प्रवेश कर्ता है उसी दिन को  संक्रांति कहते हैं. संक्रांति के दिन मिष्ठा बनाकर भगवान को भोग लगाया जाता है ओर यह भोग प्रसाद रुप में परिवार के सभी सदस्यों में बांटा जाता है. इस समय नये धान्य का प्रसाद सूर्य को समर्पित किया जाता है यह एक महत्वपूर्ण त्यौहार है जो सामंजस्य और समानता का प्रतीक है. यह समय देवताओं का दिन कहा जाता है अत: इस समय समस्त शुभ एवं मांगलिक कार्यों का आयोजन भी किया जाता है.

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याज्ञवल्क्य जयंती 2024 | Yajnavalkya Jayanti | Yagyavalakya Jayanti

याज्ञवल्क्य जयंती भारतीय ऋषियों की परंपरा के अग्रीण ऋषि हुए हैं वह ब्रह्मज्ञानी थे, महान अध्यात्म वक्ता योगी, मंत्र दृष्टा हुए, इन्हीं के जन्म दिवस को याज्ञवल्क्य जयंती जयंती के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है. इस वर्ष 14 मार्च  2024 को याज्ञवल्क्य जयंती मनाई जाएगी याज्ञवल्क्य जी को पुराणों में ब्रह्मा जी का अवतार माना गया है इस कारण इन्हें ब्रह्मर्षि कहा जाता है और श्रीमद्भागवत में उन्हें देवरात के पुत्र कहा गया है. भगवान सूर्य की प्रत्यक्ष कृपा से इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई

याज्ञवल्क्य जीवन वर्णन | Life Story of Yagyavalakya

याज्ञवल्क्य ऋषि वैशम्पायन के शिष्य थे तथा राजा जनक के कार्यों में एक सलाहकार एवं गुरू रूप में उनके साथ रहे याज्ञवल्क्य, को योगीश्वर याज्ञवल्क्य के नाम से भी जाना गया है. मैत्रेयी और गार्गी इनकी पत्नियाँ थी. वैदिक मन्त्र द्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्यों में ऋषि याज्ञवल्क्य का प्रमुख स्थान रहा है. याज्ञवल्क्य महर्षि वैशम्पायन के शिष्य थे.

एक बार गुरु वैशम्पायन जी से इनका विवाद हो जाता है जिस कारण गुरू उनसे अप्रसन्न हो उन्हें अपने शिष्य होने के पद से तथा अपने द्वारा दिए गए ज्ञान को वापस लौटाने के लिए कहते हैं. गुरू की आज्ञा सुनकर याज्ञवल्क्य ने अपने सारी विद्या को उगल दिया जिसे, वैशंपायन के अन्य शिष्यों ने तीतर बनकर चुग लिया यजुर्वेद की यही शाखा , तैत्तिरीय शाखा के नाम से विख्यात हुई थी.

ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य जी गुरू का ज्ञान देकर ज्ञान रहित हो जाते हैं इसलिए पुन: ज्ञान की प्राप्ति हेतु वह सूर्य देव की उपासना करने लगते हैं तथा उनसे ज्ञान प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं. सूर्यदेव,  याज्ञवल्क्य की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन देते हैं तथा वरदान स्वरूप यजुर्वेद के गूढ़ मंत्रों का ज्ञान देते हैं.

सूर्य देव के वरदान स्वरूप ऋषि याज्ञवल्क्य शुक्ल यजुर्वेद या वाजसनेयी संहिता के आचार्य  बनते हैं और

वाजसनेय के नाम से जाने जाते हैं. मध्य दिन के समय ज्ञान प्राप्त होने से ‘माध्यन्दिन’ शाखा का उदय हुआ एवं शुक्ल यजुर्वेद संहिता के मुख्य मन्त्र द्रष्टा ऋषि याज्ञवल्क्य हुए इस प्रकार शुक्ल यजुर्वेद हमें ऋर्षि याज्ञवल्क्य जी द्वारा प्राप्त हुआ है.

ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा रचित ग्रंथ | Scriptures written by Brahmarishi Yagyavalakya

याज्ञवल्क्य जी द्वारा रचित ग्रंथों की श्रेणी में सर्वप्रथम ग्रंथ शुक्ल यजुर्वेद संहिता प्राप्त होता है इसके 40 अध्यायों में पद्यात्मक मंत्र तथा गद्यात्मक यजुर्वेद भाग का संग्रह है अधिकांश लोग इस वेद शाखा से ही संबद्ध हैं.

ऋषि याज्ञवल्क्य जी द्वारा रचित अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ शतपथ ब्राह्मण की रचना है. इस ग्रंथ में दर्श, पौर्णमास इष्टियों का वर्णन है, पशुबंध, सोमयज्ञों का वर्णन है,

बृहदारणयकोपनिषद भी महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा ही हमें प्राप्त हुआ है. याज्ञवल्क्य, वैशंपायन, शाकटायन आदि की परंपरा में हुए, याज्ञवल्क्य स्मृति प्रसिद्ध है, मनुस्मृति के उपरांत इन्हीं की स्मृति का महत्व है.  इन ग्रंथों के द्वारा याज्ञवल्क्य का महान व्यक्तित्व प्रतिष्ठित होता है, ऋषि याज्ञवल्क्य एक तेजस्वी युग दार्शनिक थे.

याज्ञवल्क्य जयंती महत्व | Importance of Yagyavalakya Jayanti

ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य जयंती के अवसर पर पूरे भारतवर्ष में प्रार्थना, पूजा एवं सभाओं क आयोजन किया जाता है. साथ ही में उनके द्वारा रचित ग्रंथों का पाठ एवं वर्णन होता है, इनके समस्त गुणों एवं उपदेशों को अपनाकर सभी अपना मार्ग दर्शन पाते हैं.  इनके द्वारा रचित ग्रंथों में उनके विज्ञ का बोध होता है वैदिक साहित्य में शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा के वह दृष्टा हुए.

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आरुणि ऋषि | Sage Aruni | Rishi Aruni | Rishi Upmanyu | Uddalaka Aruni

ऋषि आरूणि एक योग्य और कर्तव्य निष्ठ महर्षि थे, जिनकी गुरू भक्ति के समक्ष सभी सभी नतमस्तक हुए. ऋषि आरूणि का उल्लेख आरूणकोपनिषद एवं कठउपनिषद में भी देखा गया है. उपनिषद में इनके चरित्र का बहुत विज्ञ रूप प्राप्त होता है. इसलिए अरुणि जी को एक महान उपनिषद् ऋषि भी कहा जाता है. अरुणि ऋषि जी या उद्दालक या उद्दालक अरुणि के नाम से भी जाने जाते हैं इन्हें उपमन्यु के साथ साथ एक और नाम ‘वेद’ अरुणि भी प्राप्त है. यह ऋषि धौम्य के शिष्य थे.

गुरू भक्त आरुणि | Guru Bhakt Aruni

ऋषि धौम्य, वन में आश्रम बनाकर रहा करते थे यह विद्वान वेदों के ज्ञाता और अनेक विद्याओं में कुशल और पारंगत थे. उनके पास बहुत से बालक शिक्षा ग्रहण करने आते थे इन्हीं सभी शिष्यों में से एक आरुणि नाम का एक शिष्य भी था. वह एक आज्ञाकारी शिष्य था तथा सदा अपने गुरु धौम्य के आदेशों का पालन किया करता था. पढने में सामान्य ही था किंतु आज्ञाकारी बहुत था. उसके इसी गुणों के कारण वह अपने गुरु का योग्य शिष्य था.

उसकी गुरू भक्ति के संदर्भ में एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार जब एक बार घनघोर वर्षा होने लगी तो आश्रम में चारों ओर जल का भराव होने लगा. आश्रम के पास जो खेत थे वह भी जल में डुबने लगे. यह दशा देखकर ऋषि धोम्य को चिन्ता होने लगी की यदि खेतों में अधिक जल भर गया तो फ़सल नष्ट हो जाएंगी इस कारण बहुत नुकसान होगा तब वह अपने शिष्य आरुणि को खेतों में जाने को कहते हैं ताकी वह देख सके की वहां पानी जमा तो नहीं हो रहा या खेतों पर लगाई बाड़ तो नहीं टूट गइ यदि ऐसा हो गया है तो वह उस जाकर बंद कर दे.

ऋषि धौम्य का आदेश पाकर आरुणि खेतों की ओर निकल पड़ते हैं वह चारों ओर नज़र देखते हैं तभी एक जगह वह एक मेंड़ को टूटा देखते हैं जिस कारण पानी बड़े वेग से खेतों में आने लगता है. आरुणि उस नाले या मेंड़ को रोकने का प्रयास करते हैं परंतु बहुत परिश्रम करने पर भी वह नाला ठीक नहीं हो पाता. तब आरुणि को एक उपाय सूझता है और वह स्वंय उस स्थान पर लेट जाते हैं इस कारण जल का बहाव रुक जाता है, धीरे-धीरे वर्षा कम होने लगी.

इस प्रकार वह जल को रोक देता है. रात होने लगती है व शिष्य के न लौटने पर ऋषि धौम्य को चिंता सताने लगती है तब ऋषि धौम्य अपने कुछ शिष्यों को साथ लेकर आरुणि को खोजने के लिए खेतों की ओर चल देते हैं. खेत पर उसे ढूंढने पहुंचे तो देखते हैं कि आरुणि पानी को रोके मेड़ के पास लेटा हुआ है उसे देखते ही गुरुजी भावविभोर हो जाते हैं.

वह उसे उठाकर गले से लगा लेते हैं. वह उसे कहते हैं कि तुम एक आदर्श शिष्य के रूप में सदा याद किए जाओगे तथा मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हुँ कि तुम दिव्य बुद्धि प्राप्त करोगे तथा सभी शास्त्रों में निपुण होगे. आज से तुम्हारा नाम उद्दालक के रूप में प्रसिद्ध होगा जिसका अर्थ है जल से निकला या उत्पन्न हुआ. इस कारण आरुणि ऋषि को उद्दालक के नाम से जाना गया तथा बिना पढ़े ही इन्हें सारी विद्याएं प्राप्त हो गईं.

ऋषि उद्दालक अरुणी संबंधी अन्य तथ्य | Other Information related to Saint Uddalak Aruni

कठ उपनिषद में उद्दालक अरुणि के विषय में बताया गया है कि वह एक महान ऋषि थे जिन्हें  वाजश्रवस के नाम से भी जाना जाता था यह अनेक यज्ञ एवं दान पुण्य किया करते थे. वहीं दूसरी ओर Chāndogya उपनिषद के अनुसार, उद्दालक अरुणि का बेटा था और इसलिए उद्दालक अरुणी के रूप में जाने गए.

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मंगलनाथ मंदिर | Mangalnath Mandir | Shri Mangalnath Mandir | Mangalnath Temple | Mangal Dev

मंगलनाथ मंदिर भारत की प्रमुख धार्मिक नगरी उज्जैन में स्थित है जहाँ के पावन सानिध्य को पाकर सभी धन्य हो जाते हैं जहाँ जाकर सभी के पाप स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं. उज्जैन के प्रमुख मंदिरों में से एक यह मंदिर भक्तों की सभी विपदाओं को हर लेता है पुराणों के अनुसार उज्जैन को मंगल की जननी भी कहा जाता है. इसी कारण इस मंदिर का विशेष महत्व रखता है पूरे भारत से लोग यहां पर आकर मंगल देव की पूजा अराधना करते हैं तथा जिनकी कुंडली में मंगल भारी होता है वह मंगल शांति हेतु यहाँ पहुँचते हैं.

उज्जैन का यह मंगलनाथ मंदिर सभी से अलग है. वैसे तो देश भर में कई मंगल भगवान के अनेकों मंदिर हैं, परंतु यह मंगल नाथ मंदिर अपना एक अलग महत्व रखता है. मंगल का जन्म यहाँ होने के कारण ही इस स्थान को मंगल की जननी कहा गया और इस कारण यहाँ पर आकर मंगल की पूजा का विशेष विधान होता है. सभी लोग जिनके लिए मंगल की शांति की पूजा बताई जाती है उसे इस स्थान में आकर इस पूजा को करना चाहिए जिसका फल की गुना प्राप्त होता है तथा जल्द ही मिलता है.

मंगलनाथ मंदिर उज्जैन की क्षिप्रा नदी के किनारे स्थित है मंगलनाथ मंदिर जो भक्तों के लिए एक पवित्र धाम है यहां आना भक्तों के लिए एक अविस्मर्णीय सुखद यात्रा जैसा है. मत्स्य पुराण तथा स्कंध पुराण आदि में मंगल देव के विषय में विस्तार पूर्वक उल्लेख किया गया है जिसके अनुसार उज्जैन में ही मंगल भगवान की उत्पत्ति हुई थी तथा मंगल नाथ मंदिर ही वह स्थान है जहाँ देव का जन्म स्थान है जिस कारण से यह मंदिर दैवीय गुणों से युक्त माना जाता है.

मंगल भगवान का स्वरुप | Appearance of Lord Mangal

मंगल भगवान का स्थान नव ग्रहों में आता है यह अंगारका और खुज नाम से भी जाना जाता है. वैदिक पौराणिक कथाओं के अनुसार मंगल ग्रह शक्ति, वीरता और साहस के परिचायक है तथा धर्म रक्षक माने जाते हैं. मंगल देव को चार हाथ वाले त्रिशूल और गदा धारण किए दर्शाया भगवान मंगल की पूजा से मंगल शाँति प्राप्त होती है तथा कर्ज से मुक्ति धन लाभ प्राप्त होता है मंगल के रत्न रूप में मूंगा धारण किया जाता मंगल देव  दक्षिण दिशा के संरक्षक माने जाते हैं.

मंगल भगवान जन्म कथा | Birth Story of Lord Mangal

मंगल देव के जन्म की कथा के बारे में पुराणों उल्लेख मिलता है. जिसके अनुसार अंधकासुर नामक एक राक्षस था उसने भगवान शिव की उपासना की तथा वर्षों तक उनकी तपस्या में लीन रहा भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद प्रदान करते हैं अंधकासुर भगवान से वरदान मांगता है कि मेरी रक्त बूंदे जहां भी गिरें वहीं पर मैं फिर से जन्म लेता रहूं.

इस पर भगवान उसे यही वरदान प्रदान करते हैं इस वरदान को पाकर  दैत्य अंधकासुर चारों ओर तबाही फैला देता है शिव के वरदान स्वरूप कोई भी उसे हरा नहीँ पाता जिस कारण सभी लोग प्रभु से पार्थना करते हैं की वो उन्हें इस संकट से आन उबारें तब भगवान शिव अंधकासुर से युद्ध करते हैं इस बीच भयंकर युद्ध होता है दोनों के बीच भीषण युद्ध होता है  भगवान शिव जितनी बार भी अपने त्रिशूल से उसे मारते हैं वह अगले ही पुन: जीवित हो जाता है उसका रक्त गिराते ही अनेक अंधकासुर उत्पन्न हो जाते हैं इस लम्बे युद्ध को करते करते भगवान शिव थक जाते हैं और उनके शरीर से पसीने की कुछ बूंदें उज्जैन की भूमि पर गिरती हैं और उन बुंदों के गिरने से पृथ्वी दो भागों में बंट जाती है जिसमें से मंगल देव का जन्म होता है. और इस बीच दैत्य का सारा रक्त मंगल में समा जाता है जिससे उसका अंत होता है.

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