ज्येष्ठ अधिक मास पूर्णिमा । Jyeshtha Adhikmas Purnima Puja

हिन्दू पंचाग के अनुसार ज्येष्ठा मास हिन्दू वर्ष का तीसरा माह होता है. इस माह में विशेष रुप से गंगा नदी में स्नान और पूजन करने का विधि-विधान है. इस माह में आने वाले पर्वों में गंगा दशहरा और इस माह में आने वाली ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी और निर्जला एकादशी प्रमुख पर्व है. गंगा नदी का एक अन्य नाम ज्येष्ठा भी है. गंगा को गुणों के आधार पर सभी नदियों में सबसे उच्च स्थान दिया गया है.

इस वर्ष ज्येष्ठ मास अधिक मास होने के कारण इस पूर्णिमा का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है, इस समय व्रत एवं पूजा पाठ द्वारा व्यक्ति को सुख-सौभाग्य, धन-संतान कि प्राप्ति होती है. ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार इस माह की कृष्ण्पक्ष की सप्तमी को कृतिका नक्षत्र के योग में दान तथा विष्णु पूजा करने से विशेष फलों की प्राप्ति होती है.

सत्यनारायण कथा एवं पूजन

ज्येष्ठ अधिक मास पूर्णिमा के अवसर पर भगवान सत्य नारायण जी कि कथा की जाती है. भगवान विष्णु की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंचामृत, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग किया जाता है. सत्यनारायण की पूजा के लिए दूध, शहद, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है, इसके साथ ही साथ गेहूँ के आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर चूरमे का प्रसाद बनाया जाता है और इस का भोग लगाया जाता है.

सत्यनारायण की कथा के बाद उनका पूजन होता है, इसके बाद देवी लक्ष्मी, महादेव और ब्रह्मा जी की आरती कि जाती है और चरणामृत लेकर प्रसाद सभी को दिया जाता है. पूर्णिमा में प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व किसी पवित्र नदी, पोखर, कुआं या घर पर ही स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए. अधिक मास में ब्राह्मण को भोजन कराना, दक्षिणा देनी चाहिए. ज्येष्ठ अधिक मास पूर्णिमा के दिन स्नान करने वाले पर भगवान विष्णु कि असीम कृपा रहती है.

अधिक मास पूर्णिमा व्रत का महत्व | Importance of Adhikmas Purnima

जो व्यक्ति मलमास में पूर्णिमा के व्रत का पालन करते हैं उन्हें भूमि पर ही सोना चाहिए. एक समय केवल सादा तथा सात्विक भोजन करना चाहिए. इस मास में व्रत रखते हुए भगवान पुरुषोत्तम अर्थात विष्णु जी का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहिए तथा मंत्र जाप करना चाहिए. श्रीपुरुषोत्तम माहात्म्य की कथा का पठन अथवा श्रवण करना चाहिए. श्री रामायण का पाठ या रुद्राभिषेक का पाठ करना चाहिए. साथ ही श्रीविष्णु स्तोत्र का पाठ करना शुभ होता है.

अधिक मास पूर्णिमा के दिन श्रद्धा भक्ति से व्रत तथा उपवास रखना चाहिए. इस दिन पूजा – पाठ का अत्यधिक माहात्म्य माना गया है. मलमास मे प्रारंभ के दिन दानादि शुभ कर्म करने का फल अत्यधिक मिलता है. जो व्यक्ति इस दिन व्रत तथा पूजा आदि कर्म करता है वह सीधा गोलोक में पहुंचता है और भगवान कृष्ण के चरणों में स्थान पाता है.

व्रत उद्यापन

इस समय स्नान, दान तथा जप आदि का अत्यधिक महत्व होता है. पूर्णिमा की समाप्ति पर व्रत का उद्यापन करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और अपनी श्रद्धानुसार दानादि करना चाहिए. इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बात यह है कि मलमास माहात्म्य की कथा का पाठ श्रद्धापूर्वक प्रात: एक सुनिश्चित समय पर करना चाहिए. इसमें धार्मिक व पौराणिक ग्रंथों के दान आदि का भी महत्व माना गया है. वस्त्रदान, अन्नदान, गुड़ और घी से बनी वस्तुओं का दान करना अत्यधिक शुभ माना गया है. यह माह बहुत गर्म माह होता है ऐसे में इस माह में जल का दान अत्यंत उत्तम फल प्रदान करने वाला होता है.

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चैत्र नवरात्र में शक्ति पूजा का महत्व 2025

चैत्र माह की प्रतिपदा का आरंभ नव वर्ष के आरंभ के साथ साथ दुर्गा पूजा के आरंभ का भी समय होता है. इस वर्ष  30 मार्च 2025 को चैत्र नवरात्रों के आरंभ से ही विक्रम संवत का आरंभ होगा और इसी के साथ ही प्रतिपदा से नवरात्रों का भी आरंभ होगा. चैत्र नवरात्र का समय देवी दुर्गा के विभिन्न रुपों की पूजा का समय होता है जिसे हम शक्ति पूजा भी कहते हैं. इसी शक्ति पूजा को राम ने भी सफलता एवं युद्ध में विजय प्राप्ति के लिए देवी के इन रुपों को पूजा और उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई. यही इन नौ दिनों की पूजा का प्रभाव होता है.

जो भी व्यक्ति पूर्ण निष्ठा और सत्य भावना के साथ इन दिनों मॉं के सभी रुपों की पूजा करते हैं उन्हें अपने क्षेत्र में सकारात्मक परिणामों की प्राप्ति अवश्य होती है. चैत्र नवरात्रों के आगमन द्वारा नए वर्ष का आरंभ हो जाता है. इस समय को आधार बनाकर ज्योतिष की गणनाएं भी की जाती हैं.

नवरात्रि में दुर्गा सप्तशती

नवरात्र में शक्ति पूजा के अंतर्गत दुर्गा सप्तशती का बहुत महत्व माना जाता है. इस समय पर सप्तशती के पठन पाठन को शीघ्र फल प्रदान करने वाला माना जाता है. दुर्गा सप्तशती के पाठ का श्रवण मनन करना बहुत ही लाभदायक होता है साथ ही इस समय के दौरान की जाने वाली इस पाठ पूजा में साधक को पूर्ण रुप से सात्विकता और शुद्धता का ध्यान रखने की सलाह दी जाती है.

चैत्र नवरात्र पूजन का आरंभ घट स्थापना से शुरू हो जाता है. शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन प्रात: स्नान इत्यादि से निवृत हो कर संकल्प किया जाता है. व्रत का संकल्प लेने के पश्चात मिट्टी की वेदी बनाकर जौ बौया जाता है. इसी वेदी पर घट स्थापित किया जाता है. घट के ऊपर कुल देवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन किया जाता है. पाठ पूजन के समय दीप अखंड जलता रहना चाहिए.

दुर्गा सप्तशती पाठ पूजन में साधना करने वाले को प्रात:काल स्नान करके, आसन शुद्धि पश्चात आसन ग्रहण करके माता के पूजन की समस्त सामग्री को एकत्रत करके ध्यान पश्चात पूजा को आरंभ करना चाहिए. यदि साधक इस पाठ को पूरा न कर सके तो इनमें दिए गए कुछ मंत्रों के पाठन कर लेने से ही समस्त अध्यायों के पाठन जितना ही फल प्राप्त होता है.

नवरात्र में कन्या पूजन

नवरात्रि के इन नौ दिनों में माता के नव रुपों की पूजा उपासना की जाती है. माँ दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धदात्री देवी की पूजा का विधान है होता है जिसमें अष्टमी और नवमी के दिन पर विशेश रुप से कन्या पूजन होता है. इस पूजन में 10-9 वर्ष से कम उम्र की कन्याओं को पूजा जाता है उन्हें माता का भोग लगाया जाता है तथा विशेष उपहार भी प्रदान किए जाते हैं.

नवरात्रि पूजा विधान

नौ दिनों की इन महत्वपूर्ण रात्रि में देवी दुर्गा जी को मंत्र एवं तंत्र द्वारा प्रसन्न किया जाता है. पूजा के साथ इन दिनों में तंत्र और मंत्र के कार्य भी किये जाते है. बिना मंत्र के कोई भी साधाना अपूर्ण मानी जाती है. शास्त्रों के अनुसार हर व्यक्ति को सुख -शान्ति पाने के लिये किसी न किसी ग्रह की उपासना करनी ही चाहिए. माता के इन नौ दिनों में ग्रहों की शांति करना विशेष लाभ देता है. इन दिनों में मंत्र जाप करने से मनोकामना शीघ्र पूरी होती है. नवरात्रे के पहले दिन माता दुर्गा के कलश की स्थापना कर पूजा प्रारम्भ की जाती है.

इन दिनों में माता को प्रसन्न करने के लिए बहुत प्रकार से पूजा का विधान रहता है और इन पूजा में माता के सभी रुपों के लिए विभिन्न नियमों एवं कार्यों को संपन्न करके शक्ति का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

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हनुमान जयंती (दक्षिण भारत) 2025। चैत्र माह हनुमान जयंती 2025

इस वर्ष 12 मार्च 2025 को शनिवार के दिन मनाई जाएगी. चैत्र पूर्णिमा और हनुमान जयंती के शुभ अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान और दान इत्यादि करने का विधान बताया गया है. चैत्र पूर्णिमा और जयंती के अवसर पर रामायण का पाठ, भजन-किर्तन संध्या जैसे धार्मिक कृत किए जाते हैं.

हनुमान जयंती पर प्रचलित दो मत

हनुमान जयंती तिथि के विषय में दो मत बहुत प्रचलित हैं. प्रथम यह कि चैत्र पूर्णिमा के दिन यह जयंती मनाई जाती है, इस मत का संबंध दक्षिण भारत से रहा है चैत्र पूर्णिमा के दिन दक्षिण भारत में विशेष रूप से हनुमान जयंती पर्व का आयोजन होता है.

दूसरे मतानुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन इस जयंती को मानाया जाता है. इस दिन उत्तर भारत में हनुमान जयंती पर विशेष रूप से पूजा अर्जना और दान पूण्य किया जाता है. अत: इन दोनों ही मतों के अनुसर हनुमान जयंती भक्ति भाव के साथ मनाई जाती है.

हनुमान जयंती व्रत विधि

हनुमान जी की पूजा अर्चना में ब्रह्मचर्य और शुद्धता का बहुत ध्यान रखना होता है. व्रत का पालन करने वाले को चाहिए की वह व्रत की पूर्व रात्रि को ब्रह्मचर्य का पालन आरंभ करे और पृथ्वी पर ही शयन करे. प्रात: काल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर अपने नित्य कर्मों से निवृत होकर श्री राम-सीता जी और हनुमान जी का स्मरण करना चाहिए. हनुमान जी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करते हुए षोडशोपचार पूजन करना चाहिए. हनुमाजी पर सिंदूर एवं चोला चढा़ना चाहिए. प्रसाद रूप में गुड़, चना, बेसन के लड्डू का भोग लगाना चाहिए.

ऊँ हनुमते नम: मंत्र का उच्चारण करते रहना चाहिए इस दिन रामायण एवं सुंदरकाण्ड का पाठ करना चाहिए व संभव हो सके तो श्री हनुमान चालिसा के सुंदर काण्ड के अखण्ड पाठ का आयोजन करना चाहिए. हनुमान जी का जन्म दिवस उनके भक्तों के लिए परम पुण्य दिवस है. इस दिन हनुमान जी की प्रसन्नता हेतु उन्हें तेल और सिन्दुर चढ़ाया जाता है. हनुमान जी को मोदक बहुत पसंद है अत: इन्हें मोदक का भी भोग लगाना चाहिए. हनुमान जयन्ती पर हनुमान चालीसा, हनुमानाष्टक, बजरंग वाण एवं रामायण का पाठ करने से हनुमान जी की कृपा प्राप्त होती है.

हनुमान जन्म कथा

हनुमान जी के जन्म के विषय में कथा प्रचलित है कि देवी अंजना और केसरी की कोई संतान नहीं थी. इससे दु:खी होकर यह दोनों मतंग मुनि के पास पहुंचे. मुनि के बताये निर्देश के अनुसार दोनों 12 वर्षों तक वायु पीकर तपस्या करते रहे. इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर वायु देव ने पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया. कथा है कि इसी समय अयोध्या में पुत्र प्राप्ति की कामना से दशरथ जी अपनी पत्नियों के साथ पुत्रेष्टि यज्ञ कर रहे थे.

उसे यज्ञ से जो फल प्राप्त हुआ दशरथ जी ने अपनी तीनों रानियों में बाँट दिया. इसी फल का एक अंश लेकर एक पक्षी उस स्थान पर पहुंचा जहां अंजना और केसरी तपस्या कर रहे थे. पक्षी ने फल का वह अंश अंजना की हथेली में गिरा दिया. इस फल को खाने से अंजना भी गर्भवती हो गई और चैत्र शुक्ल नवमी तिथि को अंजना के घर वायु देव के वरदान के फलरूप में रूद्र के ग्यारहवें अवतार हनुमान जी का जन्म हुआ.

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गणेश तिल चतुर्थी 2025 : पूजा विधि और शुभ समय

01 फरवरी 2025 के दिन मनाई जानी है. गणेश तिल चतुर्थी का व्रत हिन्दु कैलेण्डर के अनुसार माघ मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रखा जाता है. इस दिन तिल दान करने का महत्व होता है. इस दिन गणेश भगवान को तिल के लड्डुओं का भोग लगाया जाता है. भगवान गणेश का स्थान सभी देवी-देवताओं में सर्वोपरि है. गणेश जी को सभी संकटों को दूर करने वाला तथा विघ्नहर्ता माना जाता है. जो भगवान गणेश की पूजा-अर्चना नियमित रूप से करते हैं उनके घर में सुख व समृद्धि बढ़ती है.

गणेश तिल चतुर्थी व्रत विधि | Ganesha Til Chaturthi Vrat Vidhi

इस दिन सुबह स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. उसके उपरान्त एक स्वच्छ आसन पर बैठकर भगवान गणेश की पूजा करनी चाहिए. पूजा के दौरान भगवान गणेश की धूप-दीप आदि से आराधना करनी चाहिए. विधिवत तरीके से भगवान गणेश की पूजा करनी चाहिए. फल,फूल, अक्षत, रौली,मौली, पंचामृत से स्नान आदि कराने के पश्चात भगवान गणेश को तिल से बनी वस्तुओं या तिल तथा गुड़ से बने लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए.

इस दिन व्रत रखने वाले व्यक्ति को लाल वस्त्र धारण करने चाहिए. पूजा करते समय पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए. विधिवत तरीके से भगवान गणेश की पूजा करने के बाद उसी समय गणेश जी के मंत्र  “उँ गणेशाय नम:” का जाप 108 बार करना चाहिए. इसी के साथ गणेश गायत्री मंत्र –

एकदंताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
महाकर्णाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।
गजाननाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात्।।

का जाप करते हुए पूजन करना चाहिए. संध्या समय में कथा सुनने के पश्चात गणेश जी की आरती करनी चाहिए. इससे आपको मानसिक शान्ति मिलने के साथ आपके घर-परिवार के सुख व समृद्धि में वृद्धि होगी.

गणेश तिल चतुर्थी व्रत दान | Ganesha Til Chaturthi Vrat Donations

इस दिन जो व्यक्ति भगवान गणेश का तिल चतुर्थी का व्रत रखते हैं और जो व्यक्ति व्रत नहीं रखते हैं वह सभी अपनी सामर्थ्य के अनुसार गरीब लोगों को दान कर सकते हैं. इस दिन गरीब लोगों को गर्म वस्त्र, कम्बल, कपडे़ आदि दान कर सकते हैं. भगवान गणेश को तिल तथा गुड़ के लड्डुओं का भोग लगाने के बाद प्रसाद को गरीब लोगों में बांटना चाहिए. लड्डुओं के अतिरिक्त अन्य खाद्य वस्तुओं को भी गरीब लोगों में बांटा जा सकता है.

इस दिन दान का भी विशेष महत्व धर्म ग्रंथों में दिया गया है जिसके अनुसार जो व्यक्ति व्रत के साथ-साथ दान भी करता है उसकी हर मनोकामना पूरी होती है. माघ मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रखा जाने वाला व्रत गणेश तिल चतुर्थी के नाम से जाना जाता है. इस दिन संध्या समय में गणेश चतुर्थी की व्रत कथा को सुना जाता है कथा अनुसार भगवान शिव ने गणेश जी को आशीर्वाद दिया कि चतुर्थी के दिन जो तुम्हारा पूजन करेगा और रात्रि में चन्द्रमा को अर्ध्य देगा उसके तीनों ताप – दैहिक ताप, दैविक ताप तथा भौतिक ताप दूर होगें. व्यक्ति को सभी प्रकार के दु:खों से मुक्ति मिलेगी व सभी प्रकार के भौतिक सुखों की प्राप्ति होगी.

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तिल द्वादशी व्रत पूजा 2025 | Til Dwadashi Vrat Puja | Til Dwadashi Fast

तिल द्वादशी व्रत माघ माह की द्वादशी को किया जाता है. 09 फरवरी 2025 को तिल द्वादशी मनाई जाएगी. इस दिन तिल से भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है. पवित्र नदियों में स्नान व दान करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है. प्रात:काल नित्यकर्म से निवृत होकर भगवान विष्णु जी का पूजन किया जाता है.


प्रातः काल संकल्प के साथ षोड़शोपचार या पंचोपचार विधि से ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः का जाप करते हुए पूजन किया जाना चाहिए. तिल द्वादशी के दिन सुबह स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करके सूर्य देव को नमस्कार करना चाहिए. तांबे के पात्र में सुगंध, अक्षत, तिल, जल तथा फूलों को मिलाकर सूर्य मंत्र का उच्चारण करते हुए अर्घ्य देना चाहिए.


इस व्रत को भगवान श्री कृष्ण स्वयं का स्वरूप कहा है, जो व्यक्ति को जन्मांतरों के बंधन से मुक्त कर देता है और वैकुंठ प्राप्ति का साधक बनता है. यह व्रत समर्पित है श्री विष्णु जी को और उनकी कृपा प्राप्त करने हेतु इसे किया जाता है. तिल द्वादशी व्रत सभी प्रकार का सुख वैभव देने वाला और कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाला है. मन के अंधकार को दूर करते हुए यह जीवन में प्रकाश का संचार करता है. इस व्रत में ब्राह्मण को तिलों का दान, पितृ तर्पण, हवन, यज्ञ, आदि का बहुत ही महत्व है.


तिल द्वादशी का महत्व | Importance of Til Dwadashi Fast

तिल द्वादशी का व्रत के दिन स्वच्छ आसन पर बैठकर भगवान मधुसुदन की पूजा करें, पूजा के दौरान भगवान को धूप व दीप दिखाकर तत्पश्चात फल, फूल, चावल, रौली, मौली, पंचामृत से स्नान आदि कराने के पश्चात भगवान को तिल से बनी वस्तुओं या तिल तथा गुड़ से बने प्रसाद का भोग लगाना चाहिए. इस दिन व्रत रखने वाले व्यक्ति को पीले वस्त्र धारण करने चाहिए.


पूजा करते समय पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए, भगवान विष्णु की पूजा करने के बाद मंत्र जाप 108 बार करना चाहिए. संध्या समय कथा सुनने के पश्चात भगवन की आरती उतारें. इस दिन जो व्यक्ति तिल द्वादशी का व्रत रखते हैं और जो व्यक्ति व्रत नहीं रखते हैं वह सभी अपनी क्षमता के अनुसार गरीब लोगों को दान अवश्य करें तो शुभ फलों को पाते हैं. इस प्रकार विधिवत भगवान श्री विष्णु का पूजन करने से मानसिक शान्ति मिलने के साथ आपके घर-परिवार के सुख व समृद्धि में वृद्धि होती है.


तिल द्वादशी का व्रत, जिसमें पूजा, सदाचार, शुद्ध आचार-विचार पवित्रता आदि का विशेष महत्व है. यह व्रत धन, धान्य व सुख से परिपूर्ण करने वाला है रोगों को नष्ट कर आरोग्य को बढ़ाने वाला हैं जिसे तिल द्वादशी के नाम से जाना जाता है.


तिल द्वादशी को श्रद्धा व उल्लास के साथ किया जाता है. इसके व्रत से मानव जीवन के समस्त रोगादि छूट जाते है और अंत मे वैकुंठ धाम की प्राप्ति होती है. द्वादशी का व्रत एकादशी की भाँति पवित्रता व शांत चित से श्रद्धा पूर्ण किया जाता है. यह व्रत मनोवांछित फलों को देने वाला और भक्तों के कार्य सिद्ध करने वाला होता है.

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दिवाली का त्यौहार 2025 | Diwali Festival 2025 | Deepavali Celebration 2025

धनतेरस | Dhanteras

धनतेरस का पर्व 18 अक्टूबर  2025 के दिन मनाया जाएगा. हिंदुओं के महत्वपूर्ण त्यौहार दिवाली का आरंभ धनतेरस के शुभ दिन से हो जाता है. धनतेरस से आरंभ होते हुए नरक चतुर्दशी, दीवाली, गोवर्धन पूजा और भाईदूज तक यह त्यौहार उत्साह के साथ मनाया जाता है. धनत्रयोदशी या धनतेरस के दिन संध्या समय घर के मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाए जाते हैं. पौराणिक मान्यताओं अनुसार धनतेरस के दिन ही समुद्र-मन्थन के दौरान भगवान धन्वंतरि जी का प्रादुर्भाव हुआ था, धन्वंतरी जी अपने साथ अमृत कलश और आयुर्वेद लेकर आए थे. भगवान धनवंतरि चिकित्सा के देवता तथा देवताओं के वैद्य और माने गए हैं.

धन त्रयोदशी के दिन घरों को लीप पोतकर कर स्वच्छ किया जाता है, रंगोली बना संध्या समय दीपक प्रज्जवलित करके माँ लक्ष्मी जी का आवाहन करते हैं. धनतेरस के दिन स्वर्ण, चांदी, गहने, बर्तन इत्यादि ख़रीदना शुभ माना जाता है. मान्यता अनुसार इस दिन खरीदारी करने से घर में सुख समृद्धी बनी रहती है. इस दिन आयुर्वेद के ग्रन्थों का भी पूजन किया जाता है.

नरक चतुर्दशी | Narak Chaturthi

नरक चतुर्दशी पूजन 20 अक्टूबर 2025 के दिन किया जाएगा. नरक चतुर्दशी को छोटी दीपावली भी कहा जाता है. नरक चतुर्दशी का पूजन कर अकाल मृत्यु से मुक्ति तथा उत्तम स्वास्थ्य हेतु यमराज जी की पूजा उपासना की जाती है. दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली नरक चतुर्दशी के दिन संध्या के पश्चात दीपक प्रज्जवलित किए जाते हैं. नरक चतुर्दशी को रूप चतुर्दशी भी कहते हैं, इस दिन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए ऎसा करने से रूप सौंदर्य की प्राप्ति होती है.

नरक चतुर्दशी के दिन सुबह के समय आटा, तेल और हल्दी को मिलाकर उबटन तैयार किया जाता है. इस उबटन को शरीर पर लगाकर, अपामार्ग की पत्तियों को जल में डालकर स्नान करते हैं. इस दिन विशेष पूजा की जाती है, पूजन पश्चात दीयों को घर के अलग अलग स्थानों पर रखते हैं तथा गणेश एवं लक्ष्मी के आगे धूप दीप जलाते हैं, इसके पश्चात संध्या समय दीपदान करते हैं यह दीपदान यम देवता, यमराज के लिए किया जाता है. विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त सभी पापों से मुक्त होकर आत्मिक शांति का अनुभव करता है तथा ईष्टदेव का आशिर्वाद पाता है.

दिवाली | Diwali

इस वर्ष दिपावली का त्यौहार 21 अक्टूबर  2025 को हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाएगा. दिवाली का त्यौहार कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है. इस पंच दिवसीय पर्व को सभी वर्गों के लोग अत्यंत हर्ष व उत्साह के साथ मनाते हैं. कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया तक चलने वाला दीपावली का त्यौहार सुख समृद्धि की वृद्धि, व्यापार वृद्धि तथा समस्त सुखों की प्राप्ति कराने वाला होता है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्या को ही लक्ष्मी जी समुद्र मंथन के समय प्रकट हुई थीं अत: दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन का विधान है, इनके साथ गणेश जी की पूजा भी की जाती है.

दीपावली के दिन नई लेखनी, पेन तथा बही खातों का पूजन भी किया जाता है. मान्यता है कि दीपावली के दिन देवी लक्ष्मी जी पृथ्वी पर विचरण करती हैं, इसीलिए लक्ष्मी जी के स्वागत हेतु दीपों को प्रज्जवलित किया जाता है. कोने-कोने में दीपक रखे जाते हैं, ताकि किसी भी जगह अंधेरा न हो. इस दिन दीपदान विशेष महत्व रखता है. इस दिन को महानिशीथ काल भी कहा जाता है अत: इस अंधेरे को हटाते हुए प्रकाश का आगमन जीवन में स्थायित्व सुख एवं समृद्धि को लाता है दीपदान शुभ फलों में वृद्धि करने वाला होता है.

गोवर्धन पूजा | Govardhan Puja

गोवर्धन(अन्नकूट पूजन) 22 अक्टूबर 2025 के दिन संपन्न होगा. कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन पूजा का पर्व मनाया जाता है. दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा की जाती है. कृष्ण की भक्ति व प्रकृत्ति के प्रति उपासना व सम्मान को दर्शाता यह पर्व जीवन की सकारात्मकता से साक्षात्कार कराता है. इस विशेष दिन मन्दिरों में अन्नकूट किया जाता है तथा संध्या समय गोबर के गोवर्धन बनाकर पूजा की जाती है. इस दिन अग्नि देव, वरुण, इन्द्र, इत्यादि देवताओं की पूजा का भी विधान है. इस दिन गाय की पूजा की जाती है तथा फूल माला, धूप, चंदन आदि से इनका पूजन किया जाता है.

यह पर्व उत्तर भारत में विशेषकर मथुरा क्षेत्र में बहुत ही धूम-धाम और उल्लास के साथ मनाया जाता है. गोवर्धन पूजन में गाय के गोबर से गोवर्धन नाथ बनाकर उनका पूजन किया जाता है तथा अन्नकूट का भोग लगाया जाता है. श्रीमद्भागवत में इस बारे में कई स्थानों पर उल्लेख प्राप्त होते हैं जिसके अनुसार भगवान कृष्ण ने इसी दिन इन्द्र का अहंकार धवस्त करके पर्वतराज गोवर्धन जी का पूजन करने का आहवान किया था. इसलिए आज भी दीपावली के दूसरे दिन संध्या समय में गोवर्धन पूजा का विशेष आयोजन होता है.

भैया दूज | Bhai Dooj

23 अक्टूबर 2025 के दिन भैया दूज का पर्व मनाया जाएगा. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भाई दूज एवं यम द्वितीया के रूप में मनाते हैं. भाई दूज पर्व भाईयों के प्रति बहनों के अगाध प्रेम व विश्वास का पर्व है. इस पर्व के दिन बहनें अपने भाईयों के माथे पर तिलक लगा कर मनाती हैं तथा भगवान से अपने भाइ-बंधुओं की लम्बी आयु की कामना करती हैं.

पौराणिक महत्व द्वारा यह त्यौहार यम और यमुना के भाई-बहन के प्रेम भाव एवं सम्मान का प्रतीक होकर आज के आधुनिक समय में भी सभी लोगों के हृदय में बसा हुआ है. जिसे पूजकर समस्त बहनें अपने भाईयों के सुखद जीवन की कामना करती हैं तथा अपने स्नेह को उनके समक्ष प्रस्तुत कर पाती हैं. यह पर्व दीपावली दो दिन बाद मनाया जाता है. यह दिन यम द्वितीया भी कहलाता है. इसलिये इस पर्व पर यम देव की पूजा भी की जाती है. एक मान्यता के अनुसार इस दिन जो यम देव की उपासना करता है, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं सताता.

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2024 में कब होगा दिवाली का शुभ मुहूर्त पूजा समय, जानिए विस्तार से

हर वर्ष भारतवर्ष में दिवाली का त्यौहार बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है. प्रतिवर्ष यह कार्तिक माह की अमावस्या को मनाई जाती है. रावण से दस दिन के युद्ध के बाद श्रीराम जी जब अयोध्या वापिस आते हैं तब उस दिन कार्तिक माह की अमावस्या थी, उस दिन घर-घर में दिए जलाए गए थे तब से इस त्योहार को दीवाली के रुप में मनाया जाने लगा और समय के साथ और भी बहुत सी बातें इस त्यौहार के साथ जुड़ती चली गई.

दिवाली पूजा का मुहूर्त | Diwali Pooja Muhurt

इस वर्ष कार्तिक अमावस्या का संयोग दो दिन हो रहा है. 01 नवंबर को शुक्रवार के दिन शाम को  अमावस्या का समय होगा. इसलिए 01 नवंबर 2024 को ही दीपावली पूजन किया जाना संपन्न होगा.

दिवाली के दिन लक्ष्मी का पूजा का विशेष महत्व माना गया है, इसलिए यदि इस दिन शुभ मुहूर्त में पूजा की जाए तब लक्ष्मी व्यक्ति के पास ही निवास करती है. “ब्रह्मपुराण” के अनुसार आधी रात तक रहने वाली अमावस्या तिथि ही महालक्ष्मी पूजन के लिए श्रेष्ठ होती है. यदि अमावस्या आधी रात तक नहीं होती है तब प्रदोष व्यापिनी तिथि लेनी चाहिए. लक्ष्मी पूजा व दीप दानादि के लिए प्रदोषकाल ही विशेष शुभ माने गए हैं.

प्रदोष काल | Pradosh Kaal

01 नवम्बर 2024, शुक्रवार के दिन दिल्ली तथा आसपास के इलाकों में 17:27 से 20:09 तक प्रदोष काल रहेगा. इसे प्रदोष काल का समय कहा जाता है. प्रदोष काल समय को दिपावली पूजन के लिये शुभ मुहूर्त के रुप में प्रयोग किया जाता है. प्रदोष काल में भी स्थिर लग्न समय सबसे उतम रहता है. इस दिन मेष लग्न होगा उसके पश्चात वृष लग्न रहेगा. प्रदोष काल व स्थिर लग्न दोनों रहने से मुहुर्त शुभ रहेगा.

इस वर्ष अमावस्या तिथि शुक्रवार के दिन व्याप्त रहेगी और शाम 18:17 तक व्याप्त होगी.  .

निशीथ काल | Nishith Kaal

निशिथ काल में स्थानीय प्रदेश समय के अनुसार इस समय में कुछ मिनट का अन्तर हो सकता है. 01 नवंबर 2024 में निशिथ काल के लिए 20:09 से 22:51 तक का समय होगा. ऎसे में व्यापारियों वर्ग के लिये लक्ष्मी पूजन के लिये इस समय की अनुकूलता रहेगी.

महानिशीथ काल | Maha Nishith Kaal

धन लक्ष्मी का आहवाहन एवं पूजन, गल्ले की पूजा तथा हवन इत्यादि कार्य सम्पूर्ण कर लेना चाहिए. इसके अतिरिक्त समय का प्रयोग श्री महालक्ष्मी पूजन, महाकाली पूजन, लेखनी, कुबेर पूजन, अन्य मंन्त्रों का जपानुष्ठान करना चाहिए.

रात में 22:51 से 25:33 तक महानिशीथ काल रहेगा. इस समय पूजा के लिए कर्क लग्न और सिंह लग्न होना शुभस्थ होता है. इसलिए चौघडियों को भुलाकर यदि कोई कार्य प्रदोष काल अथवा निशिथकल में शुरु करके इस महानिशीथ काल में संपन्न हो रहा हो तो भी वह अनुकूल ही माना जाता है. महानिशिथ काल में पूजा समय चर लग्न में कर्क लग्न उसके बाद स्थिर लग्न सिंह लग्न भी हों, तो विशेष शुभ माना जाता है. महानिशीथ काल में कर्क लग्न और सिंह लग्न होने के कारण यह समय शुभ हो गया है. जो शास्त्रों के अनुसार दिपावली पूजन करना चाहते हो, वह इस समयावधि को पूजा के लिये प्रयोग कर सकते हैं.

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शारदीय नवरात्र तिथि 2025 | Sharad Navratri Dates 2025 | Ashwin Navratri Dates in 2025

शारदीय नवरात्रों का विशेष महत्व रहता है, यह भक्तों की आस्था और विश्वास का प्रतीक है. देवी दुर्गा जी की पूजा प्राचीन काल से ही चली आ रही है, भगवान श्री राम जी ने भी विजय की प्राप्ति के लिए माँ दुर्गा जी की उपासना कि थी. ऐसे अनेक पौराणिक कथाओं में शक्ति की अराधना का महत्व व्यक्त किया गया है. इसी आधार पर आज भी माँ दुर्गा जी की पूजा संपूर्ण भारत वर्ष में बहुत हर्षोउल्लास के साथ की जाती है.

नौ दिनों तक चलने नवरात्र पर्व में माँ दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धदात्री देवी की पूजा का विधान है. आश्विन माह में आने वाले इन नवरात्रों को ‘शारदीय नवरात्र’ कहा जाता है. नवरात्र के इन प्रमुख नौ दिनों में लोग नियमित रूप से पूजा पाठ और व्रत का पालन करते हैं. दुर्गा पूजा के नौ दिन तक देवी दुर्गा का पूजन, दुर्गा सप्तशती का पाठ इत्यादि धार्मिक किर्या कलाप संपन्न किए जाते हैं.

घट स्थापना | Ghat Establishment

इस वर्ष 2025 को शारदीय नवरात्रों का आरंभ 22 सितंबर , आश्चिन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारम्भ होगा. दुर्गा पूजा का आरंभ घट स्थापना से शुरू हो जाता है. घट स्थापना मुहूर्त का समय सोमवार 22 सितंबर 2025 को प्रात:काल 06:21  से 10:12 तक है. घटस्थापना के लिए अभिजित मुहूर्त प्रात:काल 11:44 से 12:30  तक रहेगा.

आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत हो कर संकल्प किया जाता है. व्रत का संकल्प लेने के पश्चात ब्राह्मण द्वारा या स्वयं ही मिटटी की वेदी बनाकर जौ बौया जाता है. इसी वेदी पर घट स्थापित किया जाता है. घट के ऊपर कुल देवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन किया जाता है. तथा “दुर्गा सप्तशती” का पाठ किया जाता है. पाठ पूजन के समय दीप अखंड जलता रहना चाहिए.

नवरात्र तिथि | Dates of Navratra

  • पहला नवरात्र – प्रथमा तिथि, 22 सितंबर  2025, दिन सोमवार.
  • दूसरा नवरात्र – द्वितीया तिथि, 23 सितंबर 2025, दिन मंगलवार.
  • तीसरा नवरात्र – तृतीया तिथि, 24 सितंबर 2025, दिन बुधवार.
  • चौथा नवरात्र – चतुर्थी तिथि, 25 सितंबर 2025, दिन बृहस्पतिवार. 
  • पांचवां नवरात्र – पंचमी तिथि , 26 सितंबर 2025, दिन शुक्रवार . 
  • छठा नवरात्र – षष्ठी तिथि, 27 सितंबर 2025, दिन  शनिवार
  • सातवां नवरात्र – सप्तमी तिथि, 28  सितंबर 2025, दिन रविवार . 
  • आठवां नवरात्र – अष्टमी तिथि, 29 सितंबर 2025, दिन सोमवार .
  • नौवां नवरात्र – नवमी तिथि, 30 सितंबर 2025, दिन मंगलवार.
  • दशहरा – दशमी तिथि, 01 अक्तूबर 2025, दिन बुधवार .

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आश्विन कृष्ण पक्ष श्राद्ध 2025 | Ashwin Krishna Paksha Shraddha 2025| Pitru Paksha Dates 2025

हिन्दू धर्म अनुसार आश्विन माह के कृष्ण पक्ष को श्राद्ध पक्ष के रूप में मनाया जाता है. श्राद्ध संस्कार का वर्णन हिंदु धर्म के अनेक धार्मिक ग्रंथों में किया गया है. श्राद्ध पक्ष को महालय और पितृ पक्ष के नाम से भी जाना जाता है. श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों, परिवार, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है. प्रतिवर्ष श्राद्ध को भाद्रपद माह की पूर्णिमा से लेकर आश्विन माह की अमावस्या तक मनाया जाता है. पूर्णिमा का श्राद्ध पहला और अमावस्या का श्राद्ध अंतिम होता है. जिस हिन्दु माह की तिथि के अनुसार व्यक्ति मृत्यु पाता है उसी तिथि के दिन उसका श्राद्ध मनाया जाता है. आश्विन कृष्ण पक्ष के 15 दिन श्राद्ध के दिन रहते हैं. जिस व्यक्ति की तिथि याद ना रहे तब उसके लिए अमावस्या के दिन उसका श्राद्ध करने का विधान होता है.

हिंदू धर्म में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले जाते हैं. वह चाहे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, श्राद्ध पक्ष के समय पृथ्वी पर आते हैं तथा उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है अत: मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम से तर्पण करते हैं उसे हमारे पितर सूक्ष्म रूप में आकर अवश्य ग्रहण करते हैं.

2025 में श्राद्ध की तिथियाँ | 2025 Dates of Sharaddh

श्राद्ध दिनाँक दिन
पूर्णिमा 07 सितंबर रविवार 
प्रतिपदा 08 सितंबर सोमवार  
द्वितीया 09 सितंबर मंगलवार  
तृतीया 10 सितंबर बुधवार   
चतुर्थी 10 सितंबर बुधवार   
पंचमी 11 सितंबर बृहस्पतिवार
षष्ठी 12 सितंबर शुक्रवार
सप्तमी 13 सितंबर  शनिवार
अष्टमी 14 सितंबर रविवार 
नवमी 15सितंबर सोमवार
दशमी 16 सितंबर मंगलवार  
एकादशी 17 सितंबर बुधवार   
द्वादशी 18 सितंबर बृहस्पतिवार
त्रयोदशी 19 सितंबर शुक्रवार
चतुर्दशी 20 सितंबर शनिवार
अमावस्या 21 सितंबर रविवार 
     

श्राद्ध का महत्व | Significance Of Shraddh

हिन्दु धर्म में श्राद्ध का अत्यधिक महत्व माना गया है. ऎसी मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष में पितर पृथ्वी लोक पर आते हैं और अपने हिस्से का भाग अवश्य किसी ना किसी रुप में ग्रहण करते हैं. सभी पितर इस समय अपने वंशजों के द्वार पर आकर अपने हिस्से का भोजन सूक्ष्म रुप में ग्रहण करते हैं. भोजन में जो भी खिलाया जाता है वह पितरों तक पहुंच ही जाता है. यहाँ पितरों से अभिप्राय ऎसे सभी पूर्वजों से है जो अब हमारे साथ नहीं है लेकिन श्राद्ध के समय वह हमारे साथ जुड़ जाते हैं और हम उनकी आत्मा की शांति के लिए अपनी सामर्थ्यानुसार उनका श्राद्ध कर के अपनी श्रद्धा को उनके प्रति प्रकट करते हैं.

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ओम का महत्व | Importance of Om

ॐ की सार्थकता को व्यक्त करने से पूर्व इसके अर्थ का बोध होना अत्यंत आवश्यक है. ॐ की ध्वनि संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है जो जीवन की शक्ति है जिसके होने से शब्द को शक्ति प्राप्त होती है यही ‘ॐ का रूप है.

ॐ का उच्चारण तीन ध्वनियों से मिलकर बना यह है इन ध्वनियों का अर्थ वेदों में व्यक्त किया गया है जिसके अनुसार इसका उच्चारण किया जाता है. ध्यान साधना करने के लिए इस शब्द को उपयोग में लाया जाता है.

सर्वत्र व्याप्त इस ध्वनि को ईश्वर के समानार्थ माना गया है यही उस निराकार अंतहीन में व्याप्त है. ॐ को जानने का अर्थ है ईश्वर को जान लेना. समस्त वेद ॐ के महत्व की व्याख्या करते हैं. अनेक विचारधाराओं में ॐ की प्रतिष्ठा को सिद्ध किया गया है.

परमात्मा की स्तुति सृष्टि, स्थिति और प्रलय का संपादन इसी ॐ में निहीत है. सत्‌ चित्‌ आनंद की अनुभूति भी इसी के द्वारा संभव है. समस्त वैदिक मंत्रों का उच्चारण ॐ द्वारा ही संपन्न होता है. वेदों की ऋचाएं, श्रुतियां ॐ के उच्चारण के बिना अधूरी हैं.  भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक शांति का सूचक मंत्र है यह ॐ. ‘

प्राण तत्व का उल्लेख करते हुए ॐ की ध्वनियों के साथ प्राण के सम्बन्ध को दर्शाया जाता है.

ॐ को अपनाकर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है. साधना तपस्या के द्वारा ॐ का चिन्तन करके व्यक्ति अपने सहस्त्रो पापों से मुक्त हो जाता है तथा मोक्ष को प्राप्त करता है. इसे प्रणव मंत्र भी कहा जाता है. यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है और संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है इसका न आरंभ है न अंत. तपस्वी और साधक सभी इसी को अपनाते हुए प्रभु की भक्ति में स्वयं को मग्न कर पाते हैं. जो भी ॐ का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है. ऊँ शब्द अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों से मिलकर बना है जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी कहा जाता है.

ॐकार बारह कलाओं से युक्त माना गया है इसकी सभी मात्राएं महत्वपूर्ण अर्थों को व्यक्त करती हैं. इसकी बारह कलाओं की मात्राओं में पहली मात्रा घोषिणी है, दूसरी मात्रा विद्युन्मात्रा, तीसरी पातंगी, चौथी वायुवेगिनी, पांचवीं नामधेया, छठी को ऐन्द्री, सातवीं वैष्णवी, आठवीं शांकरी, नौवीं महती, दसवीं धृति, ग्यारहवीं मात्रा नारी और बारहवीं मात्रा को ब्राह्मी नाम दिया गया है. ॐ को अनुभूति से युक्त करने के लिए साधक अ एवं म अक्षर को पाकर ॐ को अपने भीतर आत्मसात करता है. प्रारम्भिक अवस्था में विभिन्न ॐ स्वरों में सुनाई पड़ती है परंतु धीरे-धीरे अभ्यास द्वारा इसके भेद को समझा जा सकता है. आरंभ में यह ध्वनि समुद्र, बादलों तथा झरनों से उत्पन्न ध्वनियों जैसी सुनाई पड़ती है लेकिन बाद में यह ध्वनि नगाड़े व मृदंग के शोर की ध्वनि सुनाई पड़ती है. और अन्त में यह यह मधुर तान जैसे बांसुरी एवं वीणा जैसी सुनाई पड़ती है.

ॐ के चिन्तन मनन द्वारा समस्त परेशानियों से मुक्त हो चित को एकाग्र करके साधक भाव में समाने लगता है. इसमें लीन व्यक्ति विषय वासनाओं से दूर रहता है और परमतत्त्व का अनुभव करता है. अनेक धार्मिक क्रिया कलापों में ‘ॐ’ शब्द का उच्चारण होता है, जो इसके महत्व को प्रदर्शित करता है. प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार ब्रह्मांड के सृजन के पहले यह मंत्र ही संपूर्ण दिशाओं में व्याप्त रहा है सर्वप्रथम इसकी ध्वनि को सृष्टि का प्रारंभ माना गया है. ॐ के महत्व को अन्य धर्मों ने भी माना है. ॐ से के उच्चारण से मन, मस्तिष्क में शांति का संचार होता है

ॐ के विविध अंगों का पूर्ण रूप से विवेचन एवं विश्लेषण किया गया है. जिसमें ॐ की मात्राएं इसकी सार्थकता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है यह एक रहस्यात्मक ज्ञान है  जिसे जो सहज भाव द्वारा ग्रहण कर सकता है वही परम सत्य को जान सकता है.

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