सती अनुसूया जयंती 2024| Sati Anusuiya Jayanti | Anusuiya Jayanti 2024

28 अप्रैल 2024 को सती अनुसूया जयंती मनाई जाएगी. अनुसूया जी का स्थान पतिव्रता स्त्रियों श्रेणी में सर्वोपरी रहा है. दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी अनुसूया जो मन से पवित्र एवं निश्छल प्रेम की परिभाषा थीं इन्हें सती साध्वी रूप में तथा एक आदर्श नारी के रूप में जाना जाता है. अत्यन्त उच्च कुल में जन्म होने पर भी इनके मन में कोई अंह का भाव नहीं था.

इनका संपूर्ण जीवन ही एक आदर्श रहा है. पौराणिक तथ्यों के आधार की यदि बात की जाए तो माता सीता जी भी इनके तेज से बहुत प्रभावित हुई थी तथा उनसे प्राप्त भेंट को सहर्ष स्वीकार करते हुए नमन किया. अनुसूया जी का विवाह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र परम तपस्वी महर्षि अत्रि जी के साथ हुआ था. अपने सेवा तथा समर्पित प्रेम से इन्होंने अपने पति धर्म का सदैव पालन किया.

सती अनुसूया पौराणिक कथा | Sati Anusuiya Legends

सती अनसूइया के संबंध कुछ पौराणिक मान्यताओं को देखा जा सकता है जिसके अनुसार कहा जाता है कि देवी अनसुया बहुत पतिव्रता थी जिस कारण उनकी ख्याती तीनों लोकों में फैल गई थी. उनके इस सती धर्म को देखकर देवी पार्वती, लक्ष्मी जी और देवी सरस्वती जी के मन में द्वेष का भाव जागृत हो गया था. जिस कारण उन्होंने अनसूइया कि सच्चाई एवं पतीव्रता के धर्म की परिक्षा लेने की ठानी तथा अपने पतियों शिव, विष्णु और ब्रह्मा जी को अनसूया के पास परीक्षा लेने के लिए भेजना चाहा.

भगवानों ने देवीयों को समझाने का पूर्ण प्रयास किया किंतु जब देवियां नहीं मानी तो विवश होकर तीनो देवता ऋषि के आश्रम पहुँचे. वहां जाकर देवों ने सधुओं का वेश धारण कर लिया और आश्रम के द्वार पर भोजन की मांग करने लगे. जब देवी अनसूया उन्हें भोजन देने लगी तो उन्होंने देवी के सामने एक शर्त रखी की वह तीनों तभी यह भोजन स्वीकार करेंगे जब देवी निर्वस्त्र होकर उन्हें भोजन परोसेंगी. इस पर देवी चिंता में डूब गई वह ऎसा कैसे कर सकती हैं. अत: देवी ने आंखे मूंद कर पति को याद किया इस पर उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई तथा साधुओं के वेश में उपस्थित देवों को उन्होंने पहचान लिया. तब देवी अनसूया ने कहा की जो वह साधु चाहते हैं वह ज़रूर पूरा होगा किंतु इसके लिए साधुओं को शिशु रूप लेकर उनके पुत्र बनना होगा.

इस बात को सुनकर त्रिदेव शिशु रूप में बदल गए जिसके फलस्वरूप माता अनसूइया ने देवों को भोजन करवाया. इस तरह तीनों देव माता के पुत्र बन कर रहने लगे. इस पर अधिक समय बीत जाने के पश्चात भी त्रिदेव देवलोक नहीं पहुँचे तो पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती जी चिंतित एवं दुखी हो गई इस पर तीनों देवियों ने सती अनसूइया के समक्ष क्षमा मांगी एवं अपने पतियों को बाल रूप से मूल रूप में लाने की प्रार्थना की ऐस पर माता अनसूया ने त्रिदेवों को उनका रूप प्रदान किया और तभी से वह मां सती अनसूइया के नाम से प्रसिद्ध हुई.

सती अनसूइया जयंती महत्व | Sati Anusuiya Jayanti Importance

माँ अनुसूया के दर्शन पाकर सभी लोग धन्य हो जाते हैं इसकी पवित्रता सभी के मन में समा जाती हैं सभी स्त्रियां मां सती अनसूया से पतिव्रता होने का आशिर्वाद पाने की कामना करती हैं. प्रति वर्ष सती अनसूइया जी जयंती का आयोजन किया जाता है. इस उत्सव के समय मेलों का भी आयोजन होता है. रामायण में इनके जीवन के विषय में बताया गया है जिसके अनुसार वनवास काल में जब राम, सीता और लक्ष्मण जब महर्षि अत्रि के आश्रम में जाते हैं तो अनुसूया जी ने सीता जी को पतिव्रत धर्म की शिक्षा दी थी. सती अनसूइया जी भारतीय सभ्यता का उज्जवल स्वरूप भी है.

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संकटनाशनस्त्रोतम् | Sankatnashan Strotram | Sankatnashan Stotra

गणेश जी की महिमा अपने आप में अनूठी है.  हाथी के मस्तक वाले अपने वाहन मूषक पर सवार विघ्नहर्ता श्री गणेश  ऋद्धि-सिद्धि के दाता हैं. किसी भी कार्य को आरंभ करने से पूर्व इनकी अराधना कार्य को निर्विघ्न संपन्न होने का आशिर्वाद देती है.

नारद उवाच | Naarad Uvacha

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु: कामार्थसिद्धये।।

प्रतमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्।
तृतीयं कृष्णपिगडांक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम् ।।

लम्बोदरं पत्रचमं च षष्ठं विकटमेव च ।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूमवर्णं तथाष्टमम्।।

नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम्।।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम्।।

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं य: पठेन्नर: ।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम्।।

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान् मोक्षार्थी लभते गतिम्।।

जपेद्नणपतिस्त्रोतं षड्भिर्मासै: फलं लभेत्।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशय:।।

अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा य: समर्पयेत्।
तस्य विद्या भवेत् सर्वा गणेशस्य प्रसादत:।।

अर्थात :- नारदजी कहते हैं सर्वप्रथम मस्तक झुकाकर गौरीपुत्र विनायकदेवको प्रणाम करके प्रतिदिन आयु अभिष्ट मनोरथ और धन आदि प्रयोजनोंकी सिद्धिके लिये भक्तावास गणेशजी का स्मरण करें. पहलानाम वक्रतुण्ड है दूसरा एकदन्त है, तीसरा कृष्णपिडगांक्ष है, चौथा गजवक्त्र है, पंचम लम्बोदर, छठा विकट, सातवां विघ्नराजेन्द्र, आठवां धूम्रवण, नवम भालचंद्र, दसवां विनायक, गयारहवां गणपति और बारहवां नाम गजानन है. जो व्यक्ति प्रात:काल, दोपहर तथा संध्यासमय प्रतिदिन इन बारह नामों का पाठ करता है उसे विघ्नका भय नही रहता. इन नामों का स्मरण करने से व्यक्ति को सिद्धियों की प्राप्ति होती है. इन नामों के जप से विद्या, धन, संतान एवं मोक्ष जैसे फलों की प्राप्ति होती है. इस गणपतिस्त्रोत का नित्य पाठ करने से भक्त को अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है. एक वर्ष तक जप करने से भक्त को सिद्धि की प्राप्ति होती है.

समस्त विघ्नों के विनाशक देवाधिदेव मांगल्य कार्यों में प्रधान प्रथम पूज्य गणपति जी का पूजन एवं स्त्रोत पाठ करने से समस्त कष्टों से का निवारण होता है. गजानन, गौरी पुत्र, महेश पुत्र, एकदंत, वक्रतुंड, विनायक, लंबोदर, भालचंद्र अनेक नामों से पूजनीय श्री गणेश की आराधना देवों को भी प्रसन्न करने वाली होती है. प्रतिदिन सूर्य उपासना उपरांत श्री गणेश जी का पूजन सिद्धि दायक होता है.

साधक जन्म-जन्मांतर के चक्र से मुक्ति की कामना को पूर्ण करने में सहायक होता है. पुराणों के अनुसार  नवग्रह तथा नक्षत्र एवं राशियों में इन्हीं का अंश विद्यमान है. इन्हें पूजने वाला सुख-संपदा, ऋद्धि, राज्य सुख एवं समस्त सुखों को पाता है. मानसिक रोगों, काम, क्रोध, मोह, मद, प्रमाद, दुराग्रह राग-द्वेष, छल, कपट इत्यादि रजोगुण और तमोगुण से मुक्ति मिलती है  बुद्धि, धैर्य और आत्मज्ञान ही गणेश जी से प्राप्त होते हैं. लंबी आयु एवं आरोग्य की प्राप्ति में सहायक होता है.

गणेश जी को निश्छल भक्त की भक्ति अतिशयप्रिय हैं. गणेश जी के जन्म से जुड़ी अनेक कहानियां मिलती हैं, जिनमें श्री गणेश जी के अनेक महान कार्यों एवं कृपा दृष्टी का उल्लेख प्राप्त होता है. हाथी के मस्तक वाले, ज्ञानी और विघ्नहर्ता श्री गणेश का वाहन मूषक पर सवार ऋद्धि-सिद्धि के दाता हैं. ऊँ गं गणपतये नमः का जाप तथा उक्त स्त्रोत का पाठ आरंभ करने से पूर्व संकल्प और विधि विधान के साथ स्वच्छतापूर्वक एवं शांत शुद्ध मन से आसन ग्रहण करते हुए आरंभ करना चाहिए ऎसा करने से श्री गणेश जी प्रसन्न होते हैं.

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शीतला अष्टमी व्रत 2024 | Sheetla Ashtami Fast 2024 | Sheetla Ashtami Festival 2024 | Sheetala Ashtami Vrat

शीतलाष्टमी का पर्व होली के सम्पन्न होने के कुछ दिन पश्चात मनाया जाता है. देवी शीतला की पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि से आरंभ होती है. शीतला अष्टमी पर्व 01 अप्रैल 2024 दिन मनाई जाएगी. शीतला अष्टमी पर्व के दिन शीतला माता का व्रत एवं पूजन किया जाता है. शीतला अष्टमी के दिन शीतला माँ की पूजा अर्चना में बासी ठंडा खाना ही माता को भोग लगया जाता है जिसे बसौडा़ कहा जाता हैं और यही बासा भोजन प्रसाद रूप में खाया जाता है तथा यही नैवेद्य के रूप में समर्पित सभी भक्तों के बीच प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है.

रोगों से मुक्ति दिलाता शीतलाष्टमी व्रत | Sheetla Ashtami Fast Eliminates Diseases

स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना स्तोत्र को शीतलाष्टक के नाम से व्यक्त किया गया है. मान्यता है कि शीतलाष्टक स्तोत्र की रचना स्वयं भगवान शिव जी ने लोक कल्याण हेतु की थी. शीतला माता एक प्रमुख हिन्दू देवी के रूप में पूजी जाती है. अनेक धर्म ग्रंथों में शीतला देवी के संदर्भ में वर्णित है, स्कंद पुराण में शीतला माता के विषय में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार देवी शीतला चेचक जैसे रोग कि देवी हैं, यह हाथों में कलश, सूप, मार्जन(झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण किए होती हैं तथा गर्दभ की सवारी किए यह अभय मुद्रा में विराजमान हैं.

शीतला अष्टमी पूजन | Sheetla Ashtami Worship

शीतलाष्टमी के एक दिन पूर्व देवी को भोग लगाने के लिए बासी खाने का भोग ‘बसौड़ा’ उपयोग में लाया जाता है. अष्टमी के दिन बासी वस्तुओं का नैवेद्य शीतला माता को अर्पित किया जाता है. इस दिन व्रत-उपवास किया जाता है तथा माता की कथा का श्रवण होता है. कथा समाप्त होने पर मां की पूजा अर्चना होती है तथा शीतलाष्टक को पढा़ जाता है, शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा को दर्शाता है, साथ ही साथ शीतला माता की वंदना उपरांत उनके मंत्र का उच्चारण किया जाता है.

पूजा को विधि विधान के साथ पूर्ण करने पर सभी भक्तों के बीच मां के प्रसाद बसौडा़ को बांटा जाता है, संपूर्ण उत्तर भारत में शीतलाष्टमी त्यौहार, बसौड़ा के नाम से भी विख्यात है. मान्यता के अनुसार इस व्रत को करने से देवी प्रसन्‍न होती हैं और व्रती के कुल में समस्त शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं, ज्वर, चेचक, नेत्र विकार आदी रोग दूर होते हैं.

शीतला अष्टमी महत्व | Importance of Sheetla Ashtami

शीतला माता की पूजा के दिन घर में चूल्हा नहीं जलाया जाता. चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ के कृष्ण पक्ष की अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होती है। इसलिए यह दिन शीतलाष्टमी के नाम से विख्यात है. आज के समय में शीतला माता की पूजा स्वच्छता की प्रेरणा देने के कारण महत्वपूर्ण है.

देवी शीतला की पूजा से पर्यावरण को स्वच्छ व सुरक्षित रखने की प्रेरणा प्राप्त होती है तथा ऋतु परिवर्तन होने के संकेत मौसम में कई प्रकार के बदलाव लाते हैं और इन बदलावों से बचने के लिए साफ सफाई का पूर्ण ध्यान रखना होता है और इसी संदर्भ में शीतला माता की पूजा से हमें स्वच्छता की प्रेरणा मिलती है. अत: शीतला माता की पूजा का विधान पूर्णत: महत्वपूर्ण एवं सामयिक है.

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श्री लक्ष्मी पंचमी 2024 | Sri Laxmi Panchami | Lakshmi Panchami Vrat | Lakshmi Panchami Festival

श्री लक्ष्मी पंचमी व्रत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को किया जाता है. वर्ष 2024 में यह व्रत 12 अप्रैल के दिन किया जाएगा. इस दिन माँ लक्ष्मी जी की आराधना से मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है तथा साधक को श्री का आशिर्वाद मिलता है. इस दिन धन की अधिष्ठाती देवी महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए भक्तों को व्रत रखकर रात्रि में माता लक्ष्मी का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए।

शास्त्रों में देवी लक्ष्मी जी के स्वरुप को अत्यंत सुंदर और प्रभावि रुप से दर्शाया गया है. देवी लक्ष्मी की पूजा, दरिद्रता को दूर करने में सहायक होती है. देवी लक्ष्मी को वैभव की अधिष्ठात्री देवी कहा जाता है. जीवन में धन की दिक्कत,  नौकरी या व्यवसाय में असफलता या खर्चों से आर्थिक तंगी से परेशान होने पर देवी लक्ष्मी की विशेष मंत्र से उपासना द्वारा माता लक्ष्मी की कृपा को प्राप्त किया जा सकता है.

श्री पंचमी के दिन देवी के अनेक स्त्रोतों जैसे कनकधारा स्त्रोत, लक्ष्मी स्तोत्र, लक्ष्मी सुक्त का पाठ करना चाहिए. मान्यता है कि लक्ष्मी पंचमी पर की गई आराधना द्वारा लक्ष्मी का स्थाईत्व प्राप्त होता है तथा आराधना कभी निष्फल नहीं होती. भक्तों की सच्ची श्रद्धा एवं निष्ठा भाव से की गई भक्ति श्रद्घालुओं को लाभ प्रदान करने वाली होती है.

श्री लक्ष्मी पंचमी पूजन | Sri Laxmi Panchami Worship

धन-संपदा व समृद्घि की प्राप्ति के लिए श्री लक्ष्मी पंचमी का पूजन किया जाता है. लक्ष्मी जी को धन-सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूजा जाता है. लक्ष्मी जी जिस पर भी अपनी कृपा दृष्टि डालती हैं वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, के रूपों से मुक्त हो जाता है, समस्त देवी शक्तियों के मूल में लक्ष्मी ही हैं जो सर्वोत्कृष्ट पराशक्ति हैं.

श्री लक्ष्मी उपासना विधि | Sri Laxmi Worship Procedure

श्री लक्ष्मी पंचमी व्रत को विधि को आरंभ करने से पूर्व सर्वप्रथम प्रात:काल में स्नान आदि कार्यो से निवृत होकर, व्रत का संकल्प लिया जाता है. व्रत का संकल्प लेते समय मंत्र का उच्चारण किया जाता है.

पूजा के दौरान माता का विग्रह सजाकर उसमें माता की प्रतिमा की स्थापना की जाती है. श्री लक्ष्मी को पंचामृत से स्नान कराया जाता है तत्पश्चात उनका विभिन्न प्रकार से पूजन किया जाता है.

पूजन सामग्री में चन्दन, ताल, पत्र, पुष्प माला, अक्षत, दूर्वा, लाल सूत, सुपारी, नारियल तथा नाना प्रकार के भोग रखे जाते है. इसके बाद व्रत करने वाले उपवासक को ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है और दान- दक्षिणा दी जाती है व इस प्रकार यह व्रत पूरा होता है. जो इस व्रत को करता है, उसे अष्ट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है. इस व्रत को लगातार करने से विशेष शुभ फल प्राप्त होते है. इस व्रत में अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए. केवल फल, दूध, मिठाई का सेवन किया जा सकता है.

समस्त धन संपदा की अधिष्ठात्री देवी कोमलता की प्रतीक हैं, लक्ष्मी परमात्मा की एक शक्ति हैं वह सत, रज और तम रूपा तीन शक्तियों में से एक हैं. महालक्ष्मी प्रवर्तक शक्ति हैं जीवों में लोभ, आकर्षण, आसक्ति उत्पन्न करती हैं धन, सम्पत्ति लक्ष्मी का भौतिक रूप है. लक्ष्मी जी का नित्य पूजन, आरती कष्टों से मुक्ति प्रदान करती है.

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पापमोचनी एकादशी का महत्व | Importance of Paapmochani Ekadasi | Paap Mochini Ekadashi 2024

पाप मोचनी एकादशी व्रत चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को किया जाता है. वर्ष 2024 में पापमोचनी एकादशी व्रत 05 अप्रैल के दिन किया जायेगा. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी पापों को नष्ट करने वाली होती है. स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने इसके फल एवं प्रभाव को अर्जुन के समक्ष प्रस्तुत किया था.

पापमोचनी एकादशी व्रत साधक को उसके सभी पापों से मुक्त कर उसके लिये मोक्ष के मार्ग खोलती है. इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु जी का पूजन करना चाहिए. अगर कोई व्यक्ति इस पूजा को षोडशोपचार के रुप में करने पर व्रत के शुभ फलों में वृद्धि होती है.

पापमोचनी एकादशी पौराणिक महत्व | Methodological Importance of Paap Mochini Ekadashi

कथा के अनुसार भगवान अर्जुन से कहते हैं, राजा मान्धाता ने एक समय में लोमश ऋषि से जब पूछा कि प्रभु यह बताएं कि मनुष्य जो जाने अनजाने पाप कर्म करता है उससे कैसे मुक्त हो सकता है. राजा मान्धाता के इस प्रश्न के जवाब में लोमश ऋषि ने राजा को एक कहानी सुनाई कि चैत्ररथ नामक सुन्दर वन में च्यवन ऋषि के पुत्र मेधावी ऋषि तपस्या में लीन थे.

इस वन में एक दिन मंजुघोषा नामक अप्सरा की नज़र ऋषि पर पड़ी तो वह उन पर मोहित हो गयी और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने हेतु यत्न करने लगी. कामदेव भी उस समय उधर से गुजर रहे थे कि उनकी नज़र अप्सरा पर गयी और वह उसकी मनोभावना को समझते हुए उसकी सहायता करने लगे. अप्सरा अपने यत्न में सफल हुई और ऋषि कामपीड़ित हो गये.

काम के वश में होकर ऋषि शिव की तपस्या का व्रत भूल गये और अप्सरा के साथ रमण करने लगे. कई वर्षों के बाद जब उनकी चेतना जगी तो उन्हें एहसास हुआ कि वह शिव की तपस्या से विरत हो चुके हैं उन्हें तब उस अप्सरा पर बहुत क्रोध हुआ और तपस्या भंग करने का दोषी जानकर ऋषि ने अप्सरा को पिशाचनी होने का श्राप दे दिया. श्राप से दु:खी होकर वह ऋषि के पैरों पर गिर पड़ी और श्राप से मुक्ति के लिए अनुनय करने लगी.

अप्सरा की याचना से द्रवित हो मेधावी ऋषि ने उसे विधि सहित चैत्र कृष्ण एकादशी का व्रत करने के लिए कहा भोग में निमग्न रहने के कारण ऋषि का तेज भी लोप हो गया था अत: ऋषि ने भी इस एकादशी का व्रत किया जिससे उनका पाप नष्ट हो गया. उधर अप्सरा भी इस व्रत के प्रभाव से पिशाच योनि से मुक्त हो गयी और उसे सुन्दर रूप प्राप्त हुआ व स्वर्ग के लिए प्रस्थान कर गयी.

पाप मोचनी एकादशी व्रत विधि | Paap Mochini Ekadashi Fast Procedure

पाप मोचनी एकादशी के विषय में भविष्योत्तर पुराण में विस्तार से वर्णन किया गया है. इस व्रत में भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा की जाती है, व्रती दशमी तिथि को एक बार सात्विक भोजन करे और मन से भोग विलास की भावना को निकालकर भगवान विष्णु की पूजा अर्चना करनी चाहिए. एकादशी के दिन सूर्योदय काल में स्नान करके व्रत का संकल्प करना चाहिए संकल्प के उपरान्त षोड्षोपचार सहित श्री विष्णु की पूजा करें.

पूजा के पश्चात भगवान के समक्ष बैठकर भग्वद् कथा का पाठ अथवा श्रवण करना चाहिए. एकादशी तिथि को जागरण करने से कई गुणा पुण्य मिलता है अत: रात्रि में भी निराहार रहकर भजन कीर्तन करते हुए जागरण करें. द्वादशी के दिन प्रात: स्नान करके विष्णु भगवान की पूजा करें फिर ब्रह्मणों को भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करें पश्चात स्वयं भोजन ग्रहण करना चाहिए.

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विजया एकादशी पर करें विजय की प्राप्ति | Attain Victory on the Festivals of Vijaya Ekadashi

फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को विजया एकादशी के रूप में मनाया जाता है. यह एकादशी विजय की प्राप्ति को सशक्त करने में सहायक बनती है। तभी तो प्रभु राम जी ने भी इस व्रत को धारण करके अपने विजय को पूर्ण रूप से प्राप्त किया था. एकादशी व्रत करने से व्यक्ति के शुभ फलों में वृद्धि होती है तथा अशुभता का नाश होता है. विजया एकादशी व्रत 06 मार्च 2024 को किया जाएगा. विजया एकादशी व्रत करने से साधक को व्रत से संबन्धित मनोवांछित फल की प्राप्ति करता है. सभी एकादशी अपने नाम के अनुरुप फल देती है.

विजया एकादशी पौराणिक महत्व | Historical Significance of Vijaya Ekadashi

विजया एकादशी का पौराणिक महत्व श्री राम जी से जुडा़ हुआ है जिसके अनुसार विजया एकादशी के दिन भगवान श्री राम लंका पर चढाई करने के लिये समुद्र तट पर पहुंचे. समुद्र तट पर पहुंच कर भगवान श्री राम ने देखा की सामने विशाल समुद्र है और उनकी पत्नी देवी सीता रावण कैद में है. इस पर भगवान श्री राम ने समुद्र देवता से मार्ग देने की प्रार्थना की. परन्तु समुद्र ने जब श्री राम को लंका जाने का मार्ग नहीं दिया तो भगवान श्री राम ने ऋषि गणों से इसका उपाय पूछा.

ऋषियों में भगवान राम को बताया की प्रत्येक शुभ कार्य को शुरु करने से पहले व्रत और अनुष्ठान कार्य किये जाते है. व्रत और अनुष्ठान कार्य करने से कार्यसिद्धि की प्राप्ति होती है. और सभी कार्य सफल होते है. हे भगवान आप भी फाल्गुण मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत विधिपूर्वक किजिए. भगवान श्री राम ने ऋषियों के कहे अनुसार व्रत किया, व्रत के प्रभाव से समुद्र ने प्रभु राम को मार्ग प्रदान किया और यह व्रत रावण पर विजय प्रदान कराने में मददगार बना. तभी से इस व्रत की महिमा का गुणगान आज भी सर्वमान्य रहा है और विजय प्राप्ति के लिये जन साधारण द्वारा किया जाता है.

विजया एकादशी पूजा विधि | Rituals to Perform Vijaya Ekadashi Puja

विजया एकादशी व्रत के विषय में यह मान्यता है, कि एकादशी व्रत करने से स्वर्ण दान, भूमि दान, अन्नदान और गौदान से अधिक पुण्य फलों की प्राप्ति होती है. एकादशी व्रत के दिन भगवान नारायण की पूजा की जाती है. व्रत पूजन में धूप, दीप, नैवेध, नारियल का प्रयोग किया जाता है. विजया एकादशी व्रत में सात धान्य घट स्थापना की जाती है. सात धान्यों में गेंहूं, उड्द, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर है. इसके ऊपर श्री विष्णु जी की मूर्ति रखी जाती है. इस व्रत को करने वाले व्यक्ति को पूरे दिन व्रत करने के बाद रात्रि में विष्णु पाठ करते हुए जागरण करना चाहिए.

व्रत से पहले की रात्रि में सात्विक भोजन करना चाहिए और रात्रि भोजन के बाद कुछ नहीं लेना चाहिए. एकादशी व्रत 24 घंटों के लिये किया जाता है. व्रत का समापन द्वादशी तिथि के प्रात:काल में अन्न से भरा घडा ब्राह्माण को दिया जाता है. यह व्रत करने से दु:ख दूरे होते है. और अपने नाम के अनुसार विजया एकादशी व्यक्ति को जीवन के कठिन परिस्थितियों में विजय दिलाती है. समग्र कार्यो में विजय दिलाने वाली विजया एकादशी की कथा इस प्रकार है.

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आंवला एकादशी पर करें आंवला के वृक्ष की पूजा 2024| Worship Amla Tree on the day of Amla Ekadashi 2024

विष्णु पुराण के अनुसार एक बार भगवान विष्णु के मुख से चन्दमा के समान प्रकाशिए बिन्दू प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा. उसी बिन्दू से आमलक अर्थात आंवले के महान पेड की उत्पति हुई. भगवान विष्णु के मुख से प्रकट होने वाले आंवले के वृक्ष को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है. इस फल के महत्व के विषय में कहा गया है, कि इस फल के स्मरणमात्र से रोग एवं ताप का नाश होता है तथा शुभ फलों की प्राप्ति होती है. यह फल भगवान विष्णु जी को अत्यधिक प्रिय है. इस फल को खाने से तीन गुना शुभ फलों की प्राप्ति होती है.

आंवला एकादशी पूजा | Amla Ekadashi Worship

आंवला एकादशी अर्थात आमलकी एकादशी इसी नाम से जाना जाता है यह एकादशी व्रत. फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाने वाला यह व्रत व्यक्ति को रोगों से मुक्ति दिलाने वाला होता है. इस व्रत में आंवले के वृक्ष की पूजा करने का विधि-विधान है. आंवला एकादशी का व्रत 20 मार्च 2024 को रखा जाना है.

इस व्रत के विषय में कहा जाता है, कि यह एकादशी समस्त पापों का नाश करने वाली है. इस व्रत में आंवले के पेड का पूजन किया जाता है. आंवले के वृक्ष के विषय में यह मत है, कि इसकी उत्पति भगवान श्री विष्णु के मुख से हुई है.

आंवला एकादशी कथा | Amla Ekadashi Story

प्राचीन काल में एक नगर था उस राज्य में सभी सुखी थे और भक्ति भाव से श्री विष्णु जी की पूजा एवं आराधना किया करते थे. राजा और प्रजा दोनों मिलकर एकादशी व्रत करते थे. एक बार एकादशी व्रत करने के समय सभी जन मंदिर में जागरण कर रहे थे. रात्रि के समय एक शिकारी आया जो भूखा था, वह लगभग सभी पापों का भागी था. मंदिर में अधिक लोग होने के कारण शिकारी को भोजन चुराने का अवसर न मिल सका और उस शिकारी को वह रात्रि जागरण करते हुए बितानी पडी. प्रात:काल होने पर सब जन अपने घर चले गए और शिकारी भी अपने घर चला गया.

कुछ समय बीतने के बाद शिकारी कि किसी कारणवश मृत्यु हो गई. उस शिकारी ने अनजाने में ही सही आमलकी एकादशी व्रत किया था, इस वजह से उसे कर्मों में शुभ फल प्राप्त हुआ और उसका जन्म एक राजा के यहां हुआ. वह एक बार वह शिकार को गया और डाकूओं के चंगुल में फंस गया. डाकू उसे मारने के लिए शस्त्र का प्रहार करने लगे. किंतु डाकूओं के शस्त्र स्वंय डाकूओं पर ही वार करने लगे. सभी डाकूओं को मृत्यु प्राप्त हुई जब राजा ने पूछा की इस प्रकार मेरी रक्षा करने वाला कौन है.

इसके जवाब में भविष्यवाणी हुई की तेरी रक्षा श्री विष्णु जी कर रहे है. यह कृपा आपके आमलकी एकादशी व्रत करने के प्रभावस्वरुप हुई है. यह सुनकर राजा ने नमन करते हुए स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया और उन्हीं की भक्ति करते हुए मोक्ष को प्राप्त किया. इस प्रकार जो भी जन प्रभु नारायण जी की उपासना करते हुए एकादशी व्रत का पालन करते हैं उनके समस्त पापों का नाश होता है तथा परमपद की प्राप्ति होती है.

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होलिका दहन समय 24 मार्च 2024 | Holika Dahan 24 March, 2024 | Holika Dahan 2024

होलिका दहन प्रदोष व्यापिनी फाल्गुन पूर्णिमा के दिन भ्रद्रारहित काल में होलिका दहन किया जाता हैं ऎसा धर्म सिंधु में निहित है. यदि प्रदोष के समय भद्रा व्याप्त हो और भद्रा निशीथकाल अर्थात अर्ध रात्रि से पूर्व ही समाप्त हो रही हो तो भद्रा के पश्चात तथा आधी रात से पूर्व ही होलिका दहन किया जाना चाहिए ऎसा शास्त्रों में बताया गया है. लेकिन यदि भद्रा आधी रात से पहले समाप्त न हो और अगले दिन की सुबह तक व्याप्त हो और अगले दिन पुर्णिमा प्रदोषव्यापिनी भी नहीं हो तो ऎसी स्थिति में पहले दिन ही भद्रा का मुख छोड़कर प्रदोषकल में होलिका दहन कर लेना उचित होता है.

इस वर्ष 24 मार्च, 2024 को होलिका दहन किया जा सकेगा. भद्रा के मुख का त्याग करके निशा मुख में होली का पूजन करना शुभफलदायक सिद्ध होता है, ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी पर्व-त्योहारों को मुहूर्त शुद्धि के अनुसार मनाना शुभ एवं कल्याणकारी है.विधिवत रुप से होलिका का पूजन करने के बाद होलिका का दहन किया जाता है. होलिका दहन सदैव भद्रा समय के बाद ही किया जाता है. इसलिये दहन करने से भद्रा का विचार कर लेना चाहिए.

ऎसा माना जाता है कि भद्रा समय में होलिका का दहन करने से क्षेत्र विशेष में अशुभ घटनाएं होने की सम्भावना बढ जाती है. इसके अलावा चतुर्दशी तिथि, प्रतिपदा में भी होलिका का दहन नहीं किया जाता है. तथा सूर्यास्त से पहले कभी भी होलिका दहन नहीं करना चाहिए. होलिका दहन करने समय मुहूर्त आदि का ध्यान रखना शुभ माना जाता है

होलिका पूजन करने के लिये होली से आठ  दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकडी, सूखी घास को इकट्ठा कर लेते हैं जिस दिन यह कार्य किया जाता है, उस दिन को होलाष्टक प्रारम्भ का दिन भी कहा जाता है. जिस गांव, क्षेत्र या मौहल्ले के चौराहे पर पर यह होली का डंडा स्थापित किया जाता है. होली का डंडा स्थापित होने के बाद संबन्धित क्षेत्र में होलिका दहन होने तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता है.

होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन इसमें कुछ लकडियां डाली जाती है. इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकडियों का बडा ढेर बन जाता है व इस दिन से होली के रंग फिजाओं में बिखरने लगते है. अर्थात होली की शुरुआत हो जाती है. बच्चे और बडे इस दिन से हल्की फुलकी होली खेलनी प्रारम्भ कर देते है.

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महाशिवरात्रि व्रत 2024 | Maha Shivaratri Fast 2024 | Mahashivratri Vrat | Mahashivratri Festival 2024

महाशिव रात्रि अर्थात कल्याणकारी रात्रि. फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि को किया जाने वाला महाशिवरात्रि का पर्व इसी को दर्शाता है. इस शिवरात्रि का शास्त्रों में बहुत माहात्म्य माना है. मान्यता है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को भगवान शिव ज्योतिर्मय लिंग स्वरूप में प्रकट हुए थे इसलिए इसे महाशिवरात्रि कहा जाता है. शिवरात्रि के व्रत के बारे में भिन्न-भिन्न मत हैं.

फाल्गुन महाशिवरात्रि उत्सव | Phalgun Maha Shivratri Festival

फाल्गुन का महीना वसंत के आगमन को दर्शाता है, फाल्गुन माह का स्वागत प्रकृति भी करने लगती हैं और देवताओं के रथ सजने लगते हैं. वैसे तो यह पर्व संपूर्ण भारत में मनाया जाता है किंतु हिमाचल के मंडी में मनाया जाने वाला महा शिवरात्रि का त्यौहार लोकोत्सव एवं दर्शनिय होता है है. फाल्गुन मास में प्रारंभ होने वाले इस उत्सव में देवी-देताओं का दर्शन करने हेतु दूर दूर से लोग आकर एकाकार होते हैं. इस समय का प्रमुख आकर्षण मेले और उनमें शामिल होने वाली शोभायात्राएं होती हैं.

महाशिवरात्रि व्रत-पूजन नियम | Rituals to Worship On Maha Shivratri

सर्वसाधारण मान्यता के अनुसार जब प्रदोष काल रात्रि का आंरभ एवं अर्द्धरात्रि के समय चतुर्दशी तिथि रहे तो उसी दिन शिव रात्रि का व्रत किया जाना चाहिए. कुछ के अनुसार यह व्रत प्रातः काल से चतुर्दशी तिथि रहते रात्रि पर्यंत तक करना चाहिए व रात्रि के चारों प्रहरों में भगवान शिव की पूजा अर्चना करनी चाहिए. इस विधि से किए गए व्रत द्वारा पुण्य कर्मों का अनुमोदन हो जाता है और भगवान शिव की अनुकंपा प्राप्त होती है.

जीवन पर्यंत इस विधि से श्रद्धा-विश्वास पूर्वक व्रत का आचरण करने से भगवान शिव की कृपा से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है. जो लोग इस विधि से व्रत करने में असमर्थ हों वे रात्रि के आरंभ में तथा अर्द्धरात्रि में भगवान शिव का पूजन करके व्रत पूर्ण कर सकते हैं तथा इस विधि से व्रत करने में असमर्थ हों तो पूरे दिन व्रत करके सायंकाल में भगवान शंकर की यथाशक्ति पूजा अर्चना करके व्रत पूर्ण कर सकते हैं.

महाशिवरात्रि पूजन | Maha Shivratri Pujan

महाशिवरात्रि की रात्रि महा सिद्धिदायी होती है. इस समय में किए गए दान पुण्य, शिवलिंग की पूजा, स्थापना का विशेष फल प्राप्त होता है. पारद अथवा स्फटिक शिवलिंग की पूजा एवं स्थापना सिद्धिदायक मानी गई है इसके नित्य पूजन और दर्शन से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. पारद शिव लिंग की पूजा अर्चना करने से आरोग्य की प्राप्ति होती है और स्फटिक शिवलिंग द्वारा धन, यश मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है.

महाशिवरात्रि में शिवलिंग पूजा | Maha Shivratri – Worshipping the Shivalinga

सर्वप्रथम गंगाजल जल से शिवलिंग को स्नान कराएं तथा दूध, दही, घी, मधु, शक्कर से स्नान कराकर उन पर चंदन लगाना चाहिए फिर फूल, बिल्वपत्र अर्पित करें, धूप और दीप से पूजन करते हुए शिव मंत्रों से जप प्रारंभ करके नित्य एक माला जप करनी चाहिए. नमः शिवाय तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्। त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।

नित्य काम्य रुप में पूर्ण होता है, फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को, अर्धरात्रि के समय शिव लिंग का प्रादुर्भाव हुआ था. इस कारण यह महाशिव रात्रि मानी जाती है. सिद्धांत रूप में सूर्योदय से सूर्योदय पर्यंत रहने वाली चतुर्दशी अर्धरात्रि व्यापिनी ग्राह्य होती है. यदि यह शिव रात्रि त्रयोदशी चतुर्दशी अमावस्या के स्पर्श की हो, तो और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. इस विधि से व्रत करने से भी भगवान शिव की कृपा से जीवन में सुख, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है.

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सीता जयंती 2024 | Sita Jayanti, Janki Jayanti

सीता जयंती का उत्सव संपूर्ण भारत में उत्साह व श्राद्धा के साथ मनाया जाएगा. यह पर्व माँ सीता के जन्म दिवस के रुप में जाना जाता है. वैशाख मास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को भी जानकी-जयंती के रूप में मनाया जाता है, परंतु भारत के कुछ क्षेत्रों में फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को सीता-जयंती के रूप में भी मनाने की परंपरा रही है.

इस तथ्य का उदघाटन निर्णयसिंधु से भी प्राप्त होता है जिसके अनुसार फाल्गुन माह की कृष्ण पक्ष के दिन सीता जी का जन्म हुआ था इसीलिए इस तिथि को सीताष्टमी के नाम से भी संबोद्धित किया जाता है. सीता शक्ति, इच्छा-शक्ति तथा ज्ञान-शक्ति तीनों रूपों में प्रकट होती हैं वह परमात्मा की शक्ति स्वरूपा हैं.

सीता जयंती का पौराणिक संदर्भ | Historical Significance of Sita Jayanti

सीता माँ का चरित्र सभी के लिये मार्गदर्शक रहा है और आज भी प्रासंगिक है. सीता उपनिषद जो कि अथर्ववेदीय शाखा से संबंधित उपनिषद है जिसमें सीता जी की महिमा एवं उनके स्वरूप को व्यक्त किया गया है. इसमें सीता को शाश्वत शक्ति का आधार बताया गया है तथा उन्हें ही प्रकृति में परिलक्षित होते हुए देखा गया है. सीता जी को प्रकृति का स्वरूप कहा गया है तथा योगमाया रूप में स्थापित किया गया है.

सीता जी ही प्रकृति हैं वही प्रणव और उसका कारक भी हैं. शब्द का अर्थ अक्षरब्रह्म की शक्ति के रूप में हुआ है यह नाम साक्षात ‘योगमाया’ का है. देवी सीता जी को भगवान श्रीराम का साथ प्राप्त है, जिस कारण वह विश्वकल्याणकारी हैं. सीता जी जग माता हैं और श्री राम को जगत-पिता बताया गया है एकमात्र सत्य यही है कि श्रीराम ही बहुरूपिणीमाया को स्वीकार कर विश्वरूप में भासित हो रहे हैं और सीता जी ही वही योगमाया है.

वाल्मीकि रामायण में तथा वेद-उपनिषदों में सीता के स्वरूप का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है. ऋग्वेद में एक स्तुति के अनुसार कह अगया है कि असुरों का नाश करने वाली सीता जी आप हमारा कल्याण करें. गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में सीताजी को संसार की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाली माता कहते हुए नमस्कार करते हैं, एक पुत्री, पुत्रवधू, पत्‍‌नी और मां के रूप में उनका आदर्श रूप सभी के लिए पूजनीय रहा है.

सीता जयंती पूजन | Sita Jayanti Puja

सीता जयंती के उपलक्ष्य पर भक्तगण माता की उपासना करते हैं. परम्परागत ढंग से श्रद्धा पूर्वक पूजन अर्चन किया जाता है. सीता जी की विधि-विधान पूर्वक आराधना की जाती है. इस दिन व्रत का भी नियम बताया गया है जिसे करने हेतु व्रतधारी को व्रत से जुडे सभी नियमों का पालन करना चाहिए. सुबह स्नान आदि से निवृत होकर माता सीता व श्री राम जी की पूजा उपासना करनी चाहिए. पूजन में चावल, जौ, तिल आदि का प्रयोग करना चाहिए.

इस व्रत को करने से सौभाग्य सुख व संतान की प्राप्त होती है, माँ सीता लक्ष्मी का हैं इसकारण इनके निमित्त किया गया व्रत परिवर में सुख-समृ्द्धि और धन कि वृद्धि करने वाला होता है. एक अन्य मत के अनुसार माता का जन्म क्योंकि भूमि से हुआ था, इसलिए वे अन्नपूर्णा कहलाती है. माता जानकी का व्रत करने से उपावसक में त्याग, शील, ममता और समर्पण जैसे गुण आते है.

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