कालरात्रि सातवां नवरात्रा 2024

दुर्गा-पूजा के सातवें दिन माँ काल रात्रि की उपासना का विधान है. इस वर्ष 15 अप्रैल 2024 को माँ कालरात्री जी की पूजा की जाएगी. माँ कालरात्रि अपने भक्तों को सदैव शुभ फल प्रदान करने वाली होती हैं इस कारण इन्हें शुभंकरी भी कहा जाता है.

मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, इनका वर्ण अंधकार की भाँति काला है, केश बिखरे हुए हैं, कंठ में विद्युत की चमक वाली माला है, माँ कालरात्रि के तीन नेत्र ब्रह्माण्ड की तरह विशाल व गोल हैं, जिनमें से बिजली की भाँति किरणें निकलती रहती हैं, इनकी नासिका से श्वास तथा निःश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं. माँ का यह भय उत्पन्न करने वाला स्वरूप केवल पापियों का नाश करने के लिए.

कालरात्रि पौराणिक महत्व | Historical Significance of Goddess Kalratri

देवी काल-रात्रि का वर्ण काजल के समान काले रंग का है जो अमावस की रात्रि से भी अधिक काला है. मां कालरात्रि के तीन बड़े बड़े उभरे हुए नेत्र हैं जिनसे मां अपने भक्तों पर अनुकम्पा की दृष्टि रखती हैं. देवी की चार भुजाएं हैं दायीं ओर की उपरी भुजा से महामाया भक्तों को वरदान दे रही हैं और नीचे की भुजा से अभय का आशीर्वाद प्रदान कर रही हैं. बायीं भुजा में क्रमश: तलवार और खड्ग धारण किया है. देवी कालरात्रि के बाल खुले हुए हैं और हवाओं में लहरा रहे हैं.  देवी काल रात्रि गर्दभ पर सवार हैं. मां का वर्ण काला होने पर भी कांतिमय और अद्भुत दिखाई देता है. देवी कालरात्रि का यह विचित्र रूप भक्तों के लिए अत्यंत शुभ है अत: देवी को शुभंकरी भी कहा गया है.

कालरात्रि पूजन | Kalratri Pujan

दुर्गा पूजा का सातवां दिन तांत्रिक क्रिया की साधना करने वाले भक्तों के लिए अति महत्वपूर्ण होता है. तंत्र साधना करने वाले साधक मध्य रात्रि में देवी की तांत्रिक विधि से पूजा करते हैं. इस दिन मां की आंखें खुलती हैं. षष्ठी पूजा के दिन जिस विल्व को आमंत्रित किया जाता है उसे आज तोड़कर लाया जाता है और उससे मां की आँखें बनती हैं. दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि का काफी महत्व बताया गया है. इस दिन से भक्त जनों के लिए देवी मां का दरवाज़ा खुल जाता है और भक्तगण पूजा स्थलों पर देवी के दर्शन हेतु पूजा स्थल पर जुटने लगते हैं.

सप्तमी की पूजा सुबह में अन्य दिनों की तरह ही होती परंतु रात्रि में विशेष विधान के साथ देवी की पूजा की जाती है. इस दिन अनेक प्रकार के मिष्टान एवं कहीं कहीं तांत्रिक विधि से पूजा होने पर मदिरा भी देवी को अर्पित कि जाती है. सप्तमी की रात्रि ‘सिद्धियों’ की रात भी कही जाती है. कुण्डलिनी जागरण हेतु जो साधक साधना में लगे होते हैं आज सहस्त्रसार चक्र का भेदन करते हैं.

पूजा विधान में शास्त्रों में जैसा वर्णित हैं उसके अनुसार पहले कलश की पूजा करनी चाहिए फिर नवग्रह, दशदिक्पाल, देवी के परिवार में उपस्थित देवी देवता की पूजा करनी चाहिए फिर मां कालरात्रि की पूजा करनी चाहिए. देवी की पूजा से पहले उनका ध्यान करना चाहिए, देवी की पूजा के बाद शिव और ब्रह्मा जी की पूजा भी अवश्य करनी चाहिए.

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कात्यायनी छठा नवरात्रा 2024

नवरात्रा के छठे दिन माँ कात्यायनी की पूजा की जाती है. इस वर्ष 14 अप्रैल 2024 को कात्यायनी पूजा की जाएगी. इस उपलक्ष पर माता की आराधना एवं भंडारों का आयोजन किया जाता है. देवी कात्यायनी शत्रुओं का नाश करने वाली होती है. देवी कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है, माँ कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं. महर्षि कात्यायन की संतान के रूप में जन्म लेने के करण इन्हें कात्यायनी नाम प्राप्त हुआ.

महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं.

देवी कात्यायनी जी के पूजन से भक्त के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार होता है. इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा चक्र’ में स्थित रहता है. योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होने पर उसे सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं. साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है.

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कात्यायनी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

कात्यायनी पौराणिक महत्व | Historical Significance of Goddess Katyayani

देवी कात्यायनी जी के संदर्भ में एक पौराणिक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक समय कत नाम के प्रसिद्ध ॠषि हुए तथा उनके पुत्र ॠषि कात्य हुए, उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध कात्य गोत्र से ॠषि कात्यायन उत्पन्न हुए थे. महर्षि कात्यायन जी की इच्छा थी कि भगवती उनके घर में पुत्री के रूप में जन्म लें. देवी ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार की तथा अश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेने के पश्चात शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी, तीन दिनों तक कात्यायन ॠषि ने इनकी पूजा की, दशमी को देवी ने महिषासुर का वध किया ओर देवों को महिषासुर के अत्याचारों से मुक्त किया.

देवी कात्यायनी जी देवताओं, ऋषियों के संकटों को दूर करने लिए महर्षि कात्यायन के आश्रम में उत्पन्न होती हैं. महर्षि कात्यायन जी ने देवी पालन पोषण किया था. जब महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब उसका विनाश करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अपने अपने तेज़ और प्रताप का अंश देकर देवी को उत्पन्न किया था और ॠषि कात्यायन ने भगवती जी कि कठिन तपस्या, पूजा की इसी कारण से यह देवी कात्यायनी कहलायीं.

माँ कात्यायनी पूजन | Maa Katyayani Pujan

दुर्गा पूजा के छठे दिन माँ कात्यायनी जी की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए, मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए. इस प्रकार जो साधक प्रयास करते हैं उन्हें भगवती कात्यायनी सभी प्रकार के भय से मुक्त करती हैं. माँ कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को अर्थ, कर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है.

माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है. यह अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं.  इनकी चार भुजायें भक्तों को वरदान देती हैं, इनका एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है अन्य हाथों में  तलवार तथा कमल का फूल है.

पूजन के दिन सर्वप्रथम कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करें फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं. इनकी पूजा के पश्चात देवी कात्यायनी जी की पूजा कि जाती है. पूजा की विधि शुरू करने पर हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर देवी के मंत्र का ध्यान किया जाता है

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स्कंदमाता पांचवां नवरात्रा 2024

दुर्गा जी के इस पांचवे स्वरूप को स्कंद माता नाम प्राप्त हुआ है. माँ दुर्गा का पंचम रूप स्कन्दमाता के रूप में जाना जाता है. इस वर्ष 13 अप्रैल 2024 को पांचवां नवरात्रा संपन्न होगा. स्कंद माता का रूप सौंदर्य अद्वितिय आभा लिए शुभ्र वर्ण का होता है. वात्सल्य की मूर्ति हैं स्कंद माता. संतान प्राप्ति हेतु इनकी पूजा फलदायी होती है.

स्कंद माता सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं. इनकी उपासना करने से साधक अलौकिक तेज पाता है. यह अलौकिक प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता है. एकाग्रभाव से मन को पवित्र करके माँ की स्तुति करने से दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है. माँ कमल के पुष्प पर विराजित अभय मुद्रा में होती हैं, स्कंदमाता को पद्मासना देवी तथा विद्यावाहिनी दुर्गा भी कहा जाता है.

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

स्कन्द माता पौराणिक महत्व | Historical Significance Of Goddess Skandmata

देवी स्कन्द माता ही हिमालय की पुत्री पार्वती हैं इन्हें ही माहेश्वरी और गौरी के नाम से जाना जाता है. यह पर्वत राज की पुत्री होने से पार्वती कहलाती हैं, महादेव की वामिनी यानी पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती हैं और अपने गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजी जाती हैं. माता को अपने पुत्र से अधिक प्रेम है अत: मां को अपने पुत्र के नाम के साथ संबोधित किया जाना अच्छा लगता है. जो भक्त माता के इस स्वरूप की पूजा करते है मां उस पर अपने पुत्र के समान स्नेह लुटाती हैं.

भगवान स्कन्द की माता होने के कारण देवी स्कन्द माता के नाम से जानी जाती हैं. दुर्गा पूजा के पांचवे दिन देवताओं के सेनापति कुमार कार्तिकेय की माता की पूजा होती है. कुमार कार्तिकेय को ग्रंथों में सनत-कुमार, स्कन्द कुमार के नाम से पुकारा गया है. माता इस रूप में पूर्णत: ममता लुटाती हुई नज़र आती हैं. माता का पांचवा रूप शुभ्र अर्थात श्वेत है. माता की चार भुजाएं हैं और ये कमल आसन पर विराजमान हैं.

जब अत्याचारी दानवों का अत्याचार बढ़ता है तब माता संत जनों की रक्षा के लिए सिंह पर सवार होकर दुष्टों का अंत करती हैं. देवी स्कन्दमाता की चार भुजाएं हैं, माता अपने दो हाथों में कमल का फूल धारण करती हैं और एक भुजा में भगवान स्कन्द या कुमार कार्तिकेय को सहारा देकर अपनी गोद में लिये बैठी हैं. मां का चौथा हाथ भक्तो को आशीर्वाद देने की मुद्रा मे है.

स्कन्दमाता पूजन | Skandmata Pujan

दुर्गा पूजा के लिए साधक को पहले मां की विधि सहित पूजा करनी चाहिए. पूजा के लिए कुश अथवा कम्बल के पवित्र आसन पर बैठकर पूजा प्रक्रिया को उसी प्रकार से शुरू करना चाहिए जैसे आपने अब तक के चार दिनों में किया है फिर इस मंत्र से देवी की प्रार्थना करनी चाहिए. अब पंचोपचार विधि से देवी स्कन्दमाता की पूजा कीजिए. देवी की पूजा के पश्चात शिव शंकर और ब्रह्मा जी की पूजा करनी चाहिए यही शास्त्रोक्त नियम है.

जो भक्त देवी स्कन्द माता की भक्ति-भाव सहित पूजन करते हैं उसे देवी की कृपा प्राप्त होती है. देवी की कृपा से भक्त की मुराद पूरी होती है और घर में सुख, शांति एवं समृद्धि रहती है.वात, पित्त, कफ जैसी बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति को स्कंदमाता की पूजा करनी चाहिए और माता को अलसी चढ़ाकर प्रसाद में रूप में ग्रहण करना चाहिए.

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कूष्माण्डा चौथा नवरात्रा 2024

दुर्गा पूजा के चौथे दिन देवी कूष्माण्डा जी की पूजा का विधान है. इस वर्ष 12 अप्रैल 2024 को यह पूजा की जानी है.  देवी कूष्माण्डा अपनी मन्द मुस्कान से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है.

इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और शांत मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा करनी चाहिए. संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है.

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

कुष्मांडा पौराणिक महत्व | Historical Significance of Goddess Kushmanda

देवी कुष्मांडा जिनका मुखमंड सैकड़ों सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है. जिस प्रकार फूल में अण्ड का जन्म होता है उसी प्रकार कुसुम अर्थात फूल के समान मां की हंसी से सृष्टि में ब्रह्मण्ड का जन्म हुआ अत: यह देवी कूष्माण्डा के रूप में विख्यात हुई. इस देवी का निवास सूर्यमण्डल के मध्य में है और यह सूर्य मंडल को अपने संकेत से नियंत्रित रखती हैं.

दुर्गा सप्तशती के कवच में लिखा है कुत्सित: कूष्मा कूष्मा-त्रिविधतापयुत: संसार:, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्या: सा कूष्मांडा. इसका अर्थ है वह देवी जिनके  उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है वह कूष्माण्डा हैं. देवी कूष्माण्डा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री हैं.

देवी कूष्मांडा अष्टभुजा से युक्त हैं अत: इन्हें देवी अष्टभुजा के नाम से भी जाना जाता है. देवी अपने इन हाथों में क्रमश: कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल का फूल, अमृत से भरा कलश, चक्र तथा गदा है. देवी के आठवें हाथ में बिजरंके की माला है, यह माला भक्तों को सभी प्रकार की ऋद्धि सिद्धि देने वाला है. देवी अपने प्रिय वाहन सिंह पर सवार हैं. जो भक्त श्रद्धा पूर्वक इस देवी की उपासना दुर्गा पूजा के चौथे दिन करता है उसके सभी प्रकार के कष्ट रोग, शोक का अंत होता है और आयु एवं यश की प्राप्ति होती है.

कुष्मांडा पूजन | Kushmanda Pujan

दुर्गा पूजा के चौथे दिन देवी कूष्माण्डा की पूजा का विधान उसी प्रकार है जिस प्रकार देवी ब्रह्मचारिणी और चन्द्रघंटा की पूजा की जाती है. इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करें फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं. इनकी पूजा के पश्चात देवी कूष्माण्डा की पूजा करे: पूजा की विधि शुरू करने से पहले हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर इस मंत्र का ध्यान करें “सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च. दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे..देवी की पूजा के पश्चात महादेव और श्री हरि की पूजा देवी लक्ष्मी के साथ ही करनी चाहिए.

दुर्गा पूजा के चौथे दिन माता कूष्माण्डा की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए फिर मन को माता के चरणों में स्थापित करके माता का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए. इस प्रकार जो साधक प्रयास करते हैं उन्हें भगवती कूष्माण्डा सफलता प्रदान करती हैं जिससे व्यक्ति सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है और मां का अनुग्रह प्राप्त करता है.

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देवी चंद्रघंटा तीसरा नवरात्रा 2024

दुर्गा पूजा के तीसरे दिन आदि-शक्ति दुर्गा के तृतीय स्वरूप माँ  चंद्रघंटा की पूजा होती है. माँ दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है. इस वर्ष 11 अप्रैल 2024 को देवी चंद्रघंटा की पूजा की जाएगी.

चन्द्रघंटा देवी का स्वरूप तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमय है. चेहरा शांत एवं सौम्य है और मुख पर सूर्यमंडल की आभा छिटक रही होती है. माता के सिर पर अर्ध चंद्रमा मंदिर के घंटे के आकार में सुशोभित हो रहा जिसके कारण देवी का नाम चन्द्रघंटा हो गया है.

माता देवगण, संतों एवं भक्त जन के मन को संतोष एवं प्रसन्न प्रदान करती हैं.  माँ चन्द्रघण्टा भक्त को सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं. इस दिन का दुर्गा पूजा में विशेष महत्व बताया गया है तथा इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है. माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक एवं दिव्य सुगंधित वस्तुओं के दर्शन तथा अनुभव होते हैं.

मां चन्द्रघंटा अपने प्रिय वाहन सिंह पर आरूढ़ होकर अपने दस हाथों में खड्ग, तलवार, ढाल, गदा, पाश, त्रिशूल, चक्र,धनुष, भरे हुए तरकश लिए मंद मंद मुस्कुरा रही होती हैं. माता का ऐसा अदभुत रूप देखकर ऋषिगण मुग्ध होते हैं और वेद मंत्रों द्वारा देवी चन्द्रघंटा की स्तुति करते हैं. स्तुति एवं प्रार्थना करने से देवी चन्द्रघंटा का आशिर्वाद प्राप्त होता है.

माँ चन्द्रघंटा की कृपा से समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं. देवी चंद्रघंटा की मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती हैं, इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है इनकी अराधना सद्य: फलदायी है,

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते महयं चन्द्रघण्टेति विश्रुता।।

चंद्रघंटा पूजन | Chandraghanta Pujan

देवी चन्द्रघंटा की भक्ति से आध्यात्मिक और आत्मिक शक्ति प्राप्त होती है. जो व्यक्ति  माँ चंद्रघंटा की श्रद्धा एवं भक्ति भाव सहित पूजा करता है उसे मां की कृपा प्राप्त होती है जिससे वह संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान प्राप्त करता है. मां के भक्त के शरीर से अदृश्य उर्जा का विकिरण होता रहता है जिससे वह जहां भी होते हैं वहां का वातावरण पवित्र और शुद्ध हो जाता है, इनके घंटे की ध्वनि सदैव भक्तों की प्रेत-बाधा आदि से रक्षा करती है तथा उस स्थान से भूत, प्रेत एवं अन्य प्रकार की सभी बाधाएं दूर हो जाती है.

देवी की पंचोपचार सहित पूजा करने के बाद उनका आशीर्वाद प्राप्त कर योग का अभ्यास करने से साधक को अपने प्रयास में आसानी से सफलता मिलती है.

तीसरे दिन की पूजा का विधान भी लगभग उसी प्रकार है जो दूसरे दिन की पूजा का है. इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी-देवता, तीर्थों, योगिनियों, नवग्रहों, दशदिक्पालों, ग्रम एवं नगर देवता की पूजा अराधना करें फिर देवी चन्द्रघंटा की पूजा अर्चना करें. देवी की पूजा के पश्चात भगवान शंकर और ब्रह्मा की पूजा करें.देवी की आराधना से साधक में वीरता सौम्यता और विनम्रता का आगमन होता है.मन, वचन और कर्म के साथ विधि-विधान के साथ शुद्ध मन से चंद्रघंटा की उपासना-आराधना करना चाहिए, इससे सारे कष्टों से मुक्त होकर भक्त परम पद का अधिकारी बनता है.

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ब्रह्मचारिणी दूसरा नवरात्रा 2024

नवरात्र के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है. ब्रह्मचारिणी जी की पूजा इस वर्ष 10 अप्रैल 2024 को की जानी है. देवी ब्रह्मचारिणी का रूप तपस्विनी जैसा है. माँ ब्रह्मचारिणी की कृपा से मनुष्य को सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है तथा जीवन की अनेक समस्याओं एवं परेशानियों का नाश होता है. देवी दुर्गा का यह रूप भक्तों एवं सिद्धों को अमोघ फल देने वाला है. देवी ब्रह्मचारिणी की उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है.

ब्रह्मचारिणी पूजन | Brahmacharini Pujan

देवी ब्रह्मचारिणी जी की पूजा का विधान इस प्रकार है, सर्वप्रथम आपने जिन देवी-देवताओ एवं गणों व योगिनियों को कलश में आमत्रित किया है उनकी फूल, अक्षत, रोली, चंदन, से पूजा करें उन्हें दूध, दही, शर्करा, घृत, व मधु से स्नान करायें व देवी को जो कुछ भी प्रसाद अर्पित कर रहे हैं उसमें से एक अंश इन्हें भी अर्पण करें. प्रसाद के पश्चात आचमन और फिर पान, सुपारी भेंट कर इनकी प्रदक्षिणा करें. कलश देवता की पूजा के पश्चात इसी प्रकार नवग्रह, दशदिक्पाल, नगर देवता, ग्राम देवता, की पूजा करें. इनकी पूजा के पश्चात मॉ ब्रह्मचारिणी की पूजा करें.

देवी की पूजा करते समय सबसे पहले हाथों में एक फूल लेकर प्रार्थना करें “दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू. देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा”.. इसके पश्चात् देवी को पंचामृत स्नान करायें और फिर भांति भांति से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें देवी को अरूहूल का फूल, कमल काफी पसंद है उनकी माला पहनायें. प्रसाद और आचमन के पश्चात् पान सुपारी भेंट कर प्रदक्षिणा करें और घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करें.

इस प्रकार देवी की प्रतिमा की पंचोपचार सहित पूजा करते हैं उनकी साधना सफल हो जाती है. दुर्गा पूजा में नवरात्रे के नौ दिनों तक देवी धरती पर रहती हैं अत: यह साधना का अत्यंत सुन्दर और उत्तम समय होता है. इस समय जो व्यक्ति भक्ति भाव एवं श्रद्धा से दुर्गा पूजा के दूसरे दिन मॉ ब्रह्मचारिणी की पूजा करते हैं उन्हें सुख, आरोग्य की प्राप्ति होती है. देवी ब्रह्मचारिणी का भक्त जीवन में सदा शांत-चित्त और प्रसन्न रहता है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं सताता है.

ब्रह्मचारिणी पूजन महत्व | Significance of Worshipping Goddess Brahmacharini

देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप पूर्ण ज्योर्तिमय है. मां दुर्गा की नौ शक्तियों में से द्वितीय शक्ति देवी ब्रह्मचारिणी का है. ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली अर्थात तप का आचरण करने वाली मां ब्रह्मचारिणी. यह देवी शांत और निमग्न होकर तप में लीन हैं. मुख पर कठोर तपस्या के कारण अद्भुत तेज और कांति का ऐसा अनूठा संगम है जो तीनों लोको को उजागर कर रहा है.

देवी ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में अक्ष माला है और बायें हाथ में कमण्डल होता है. देवी ब्रह्मचारिणी साक्षात ब्रह्म का स्वरूप हैं अर्थात तपस्या का मूर्तिमान रूप हैं. देवी को कई अन्य नामों जैसे तपश्चारिणी, अपर्णा और उमा  से भी पुकारा जाता है. इस दिन साधक का मन एकाग्रता की ओर अग्रसर होता है. अपने मन को इस ओर उन्मुख करके भक्त मां ब्रह्मचारिणी जी की कृपा और भक्ति को प्राप्त करता है.

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शैलपुत्री पूजन 2024

दुर्गा-पूजा के पहले दिन माँ शैलपुत्री की उपासना का विधान है. इस वर्ष 09 अप्रैल 2024 के दिन माँ शैलपुत्री जी की पूजा की जाएगी.  दुर्गा पूजा का त्यौहार वर्ष में दो बार आता है, एक चैत्र मास में और दूसरा आश्विन मास में. दोनों मासों में दुर्गा पूजा का विधान एक जैसा ही है, दोनों ही प्रतिपदा से दशमी तिथि तक मनायी जाती है. नवरात्र पूजन के प्रथम दिन मां शैलपुत्री जी का पूजन होता है. माँ शैलपुत्री दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल का पुष्प लिए अपने वाहन वृषभ पर विराजमान होतीं हैं.  शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण इन्हें शैलपुत्री कहा गया है,

शारदीय नवरात्रा का प्रारम्भ आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को कलश स्थापना के साथ होता है. कलश को हिन्दु विधानों में मंगलमूर्ति गणेश का स्वरूप माना जाता है अत: सबसे पहले कलश की स्थान की जाती है. कलश स्थापना के लिए भूमि को सिक्त यानी शुद्ध किया जाता है. गोबर और गंगा-जल से भूमि को लिपा जाता है. विधि- विधान के अनुसार इस स्थान पर अक्षत डाले जाते हैं तथा कुमकुम मिलाकर डाला जाता है तत्पश्चात  इस पर कलश स्थापित किया जाता है.

शैलपुत्री पूजन विधि | Shailputri Puja Vidhi

दुर्गा को मातृ शक्ति यानी स्नेह, करूणा और ममता का स्वरूप मानकर हम पूजते हैं, अत: इनकी पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों, दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता, ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों को भी आमंत्रित किया जाता और और कलश में उन्हें विराजने हेतु प्रार्थना सहित उनका आहवान किया जाता है. शारदीय नवरात्र पर कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है. पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है. कलश में सप्तमृतिका यानी सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेट किया जाता है और पंच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित किया जाता है.

इस कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बोये जाते हैं जिन्हें दशमी तिथि को काटा जाता है और इससे सभी देवी-देवता की पूजा होती है. इसे जयन्ती कहते हैं जिसे इस मंत्र के साथ अर्पित किया जाता है “जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते”. इसी मंत्र से पुरोहित यजमान के परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जयंती डालकर सुख, सम्पत्ति एवं आरोग्य का आर्शीवाद देते हैं.

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्द्वकृतशेखराम्।
वृषारूढ़ा शूलधरां यशस्विनीम्॥

शैलपुत्री पूजन महत्व | Significance of Worshipping Shailputri

देवी दुर्गा की प्रतिमा पूजा स्थल पर बीच में स्थापित की जाती है और उनके दोनों तरफ यानी दायीं ओर देवी महालक्ष्मी, गणेश और विजया नामक योगिनी की प्रतिमा रहती है और बायीं ओर कार्तिकेय, देवी महासरस्वती और जया नामक योगिनी रहती है तथा भगवान भोले नाथ की भी पूजा की जाती है. प्रथम पूजन के दिन “शैलपुत्री” के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती है

कलश स्थापना के पश्चात देवी दु्र्गा जिन्होंने दुर्गम नामक प्रलयंकारी असुर का संहार कर अपने भक्तों को उसके त्रास से यानी पीड़ा से मुक्त कराया उस देवी का आह्वान किया जाता है. प्रतिदिन संध्या काल में देवी की आरती होती है. आरती में “जग जननी जय जय” और “जय अम्बे गौरी” के गीत भक्त जन गाते हैं.

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इस दिन से शुरु होंगे चैत्र नवरात्र 2024

चैत्र शुक्ल पक्ष के नवरात्रों का आरंभ वर्ष 09 अप्रैल 2024 के दिन से होगा. इसी दिन से हिंदु नवसंवत्सर का आरंभ भी होता है. चैत्र मास के नवरात्र को ‘वार्षिक नवरात्र’ कहा जाता है. इन दिनों नवरात्र में शास्त्रों के अनुसार कन्या या कुमारी पूजन किया जाता है. कुमारी पूजन में दस वर्ष तक की कन्याओं का विधान है. नवरात्रि के पावन अवसर पर अष्टमी तथा नवमी के दिन कुमारी कन्याओं का पूजन किया जाता है.

नौ दिनों तक चलने नवरात्र पर्व में माँ दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धदात्री देवी की पूजा का विधान है. नवरात्र के इन प्रमुख नौ दिनों में लोग नियमित रूप से पूजा पाठ और व्रत का पालन करते हैं. दुर्गा पूजा के नौ दिन तक देवी दुर्गा का पूजन, दुर्गा सप्तशती का पाठ  इत्यादि धार्मिक किर्या पौराणिक कथाओं में शक्ति की अराधना का महत्व व्यक्त किया गया है. इसी आधार पर आज भी माँ दुर्गा जी की पूजा संपूर्ण भारत वर्ष में बहुत हर्षोउल्लास के साथ की जाती है. वर्ष में दो बार की जाने वाली दुर्गा पूजा एक चैत्र माह में और दूसरा आश्विन माह में की जाती है.

घट स्थापना मुहूर्त समय

चैत्र नवरात्र पूजन का आरंभ घट स्थापना से शुरू हो जाता है. शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन प्रात: स्नानादि से निवृत हो कर संकल्प किया जाता है. व्रत का संकल्प लेने के पश्चात मिटटी की वेदी बनाकर जौ बौया जाता है. इसी वेदी पर घट स्थापित किया जाता है. घट के ऊपर कुल देवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन किया जाता है. तथा “दुर्गा सप्तशती” का पाठ किया जाता है. पाठ पूजन के समय दीप अखंड जलता रहना चाहिए. इस वर्ष घट स्थापना 06 बजकर 23 मिनट से लेकर 07 बजकर 32 मिनट तक रहेगा.

दुर्गा पूजा के साथ इन दिनों में तंत्र और मंत्र के कार्य भी किये जाते है. बिना मंत्र के कोई भी साधाना अपूर्ण मानी जाती है. शास्त्रों के अनुसार हर व्यक्ति को सुख -शान्ति पाने के लिये किसी न किसी ग्रह की उपासना करनी ही चाहिए. माता के इन नौ दिनों में ग्रहों की शान्ति करना विशेष लाभ देता है. इन दिनों में मंत्र जाप करने से मनोकामना शीघ्र पूरी होती है. नवरात्रे के पहले दिन माता दुर्गा के कलश की स्थापना कर पूजा प्रारम्भ की जाती है. 

तंत्र-मंत्र में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह समय ओर भी अधिक उपयुक्त रहता है. गृहस्थ व्यक्ति भी इन दिनों में माता की पूजा आराधना कर अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करते है. इन दिनों में साधकों के साधन का फल व्यर्थ नहीं जाता है. मां अपने भक्तों को उनकी साधना के अनुसार फल देती है. इन दिनों में दान पुण्य का भी बहुत महत्व कहा गया है.

चैत्र नवरात्र तिथि | Chaitra Navratri Dates

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गणगौर तृतीया पर्व 2024

गणगौर तृतीया पर्व का आयोजन शिव एवं शक्ति स्वरूपा पार्वती की असीम कृपा प्राप्त करने हेतु किया जाता है. यह व्रत चैत्र शुक्ल तृतीया को किया जाता है. इस वर्ष 11 अप्रैल 2024 को बृहस्पतिवार के दिन किया जाएगा.

गणगौरी उत्सव स्त्रियों के द्वारा किया जाता है. धर्मशास्त्रों में इसे गौरी उत्सव, गौरी तृतीया, ईश्वर गौरी, दोलनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है. चैत्रशुक्लतृतीयायां गौरीमीश्वरसंयुताम् |  सम्पूज्य दोलोत्सवं कुर्यात् ||

गणगौरी पूजन विधि | Rituals to Perform Gangauri Puja

सामान्यत: इस पर्व को तीज के दिन मनाया जाता है, इस व्रत को करने के लिए प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व प्रतिदिन की नित्यक्रियाओं से निवृत होने के बाद, साफ-सुन्दर वस्त्र धारण करने चाहिए. इसके बाद पूजा स्थल में गंगा जल छिडकर शुद्ध करना चाहिए. घर के एक शुद्ध और एकान्त स्थान में पवित्र मिट्टी से 24 अंगूल चौडी और 24 अंगूल लम्बी अर्थात चौकोर वेदी बनाकर, केसर चन्दन तथा कपूर से उस पर चौक पूरा जाता है और बीच में देवी तथा शिव मूर्ति की स्थापना करके उसे फूलों से, फलों से, दूब से और रोली आदि से उसका पूजन किया जाता है. पूजन में मां गौरी के दस रुपों की पूजा की जाती है. मां गौरी के दस रूपों में गौरी, उमा, लतिका, सुभागा, भगमालिनी, मनोकामना, भवानी, कामदा, भोग वर्द्विनी और अम्बिका हैं.

शक्ति के सभी रुपों की पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से पूजा करनी चाहिए. इस व्रत को करने वाली स्त्रियों को दिन में केवल एक बार ही दूध पीकर इस व्रत को करना चाहिए. इस व्रत को करने से उपवासक के घर में संतान, सुख और समृद्धि की वृद्धि होती है. इस व्रत में लकडी की बनी हुई अथवा किसी धातु की बनी हुई शिव-पार्वती की मूर्तियों को स्नान कराने का विधान है. प्रतिमाओं को सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से सजाया जाता है. इसके पश्चात उनका श्रद्वा भक्ति से गंध पुष्पादि से पूजन किया जाता है. देवी-देवताओं को झूले में अथवा सिंहासन में झुलाने का भी विधि-विधान है.

गणगौर व्रत महत्व | Significance of Gangauri Fast

एक बार महादेव पार्वती वन में गए चलते-चलते गहरे वन में पहुंच गए तो पार्वती जी ने कहा-भगवान, मुझे प्यास लगी है. महादेव ने कहा, देवी देखो उस तरफ पक्षी उड रहे है. वहां जरूर ही पानी होगा. पार्वती वहां गई. वहां एक नदी बह रही थी. पार्वती ने पानी की अंजली भरी तो दुब का गुच्छा आया, और दूसरी बार अंजली भरी तो टेसू के फूल, तीसरी बार अंजली भरने पर ढोकला नामक फल आया. इस बात से पार्वती जी के मन में कई तरह के विचार उठे पर उनकी समझ में कुछ नहीं आया. महादेव जी ने बताया कि, आज चैत्र माह की तीज है. सारी महिलायें, अपने सुहाग के लिये ” गौरी उत्सव” करती हैं. गौरी जौ को चढाए हुए दूब, फूल और अन्य सामग्री नदी में बहकर आ रहे है.

पार्वती जी ने महादेव जी से विनती की, कि हे स्वामी, दो दिन के लिये, आप मेरे माता-पिता का नगर बनवा दें, जिससे सारी स्त्रियां यहीं आकर गणगौरी के व्रत उत्सव को करें, और मैं खुद ही उनको सुहाग बढाने वाला आशिर्वाद दूं महादेव जी ने अपनी शक्ति से ऎसा ही किया. थोडी देर में स्त्रियों का झुण्ड आया तो पार्वती जी को चिन्ता हुई, और महादेव जी के पास जाकर कहने लगी. प्रभु, में तो पहले ही वरदान दे चुकी, अब आप दया करके इन स्त्रियों को अपनी तरफ से सौभाग्य का वरदान दें, पार्वती के कहने से महादेव जी ने उन्हें, सौभाग्य का वरदान दिया.

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गजेन्द्र मोक्ष स्त्रोत | Gajendra Moksha Stotra | Gajendra Stotra

श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कंध के तीसरे अध्याय में गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र दिया गया है. इसमें कुल तैतीस श्लोक हैं इस स्त्रोत में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन किया गया है, जिसमें गजेन्द्र ने ग्राह के मुख से छूटने के लिए श्री हरि की स्तुति की थी और प्रभ श्री हरि ने गजेन्द्र की पुकार सुनकर उसे ग्राह से मुक्त करवाया. गजेन्द्र मोक्ष का माहात्म्य बतलाते हुए कहा गया है कि इसको समस्त पापों का नाशक, साधक कहा गया है.

इसका प्रतिदिन स्मरण करने से व्यक्ति के संकट दूर होते हैं तथा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है. यह एक ऎसा स्त्रोत है जो व्यक्ति को घोर संकट से भी उबारदेता है. इस स्त्रोत पाठ को करने से पूर्व अपनी समस्या का स्मरण करते हुए उससे मुक्ति की कामना हेतु गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र का पाठ आरंभ करना चाहिए भगवान विष्णु जी के सम्मुख दिप प्रज्जवलित करके इस स्त्रोत का जाप आरंभ करें. सच्चे मन एवं श्रद्धा से किया गजेन्द्र मोक्ष का पाठ सभी संकटों को दूर करने वाला होता है.

श्री शुक उवाच | Sri Shukra Uvach

एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो ह्रदि।

जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥1॥

गजेन्द्र उवाच | Gajendra Uvach

ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् ।

पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥2॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्|

योऽस्मातपरस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्।।३।।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्।

अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः।।४।।

कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।

तमस्तदाऽसीद् गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।५।।

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।

यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु।।६।।

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलं विमुक्तसंगा मुनयः सुसाधवः।

चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भुतात्मभूताः सुह्रदः स मे गतिः।।७।।

न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरुपे गुणदोष एव वा।

तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया यः तान्यनुकालमृच्छति।।८।।

तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।

अरुपायोरुरुपाय नम आश्चर्यकर्मणे।।९।।

नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।

नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि।।१०।।

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्विता

नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे।।११।।

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे।

निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च।।१२।।

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।

पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः।।१३।।

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।

असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः।।१४।।

नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय।

सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय।।१५।।

गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय।

नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागमस्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि।।१६।।

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।

स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते।।१७।।

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।

मुक्तात्मभिः स्वह्रदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय।।१८।।

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।

किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम्।।१९।।

एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।

अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः।।२०।।

तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्।

अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे।।२१।।

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।

नामरुपविभेदेन फलव्या च कलया कृताः।।२२।।

यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः।

तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः।।२३।।

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः।

नायं गुणः कर्म न सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेषः।।२४।।

जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।

इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्।।२५।।

सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्।

विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम्।।२६।।

योगरन्धितकर्माणो ह्रदि योगविभाविते।

योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम्।।२७।।

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।

प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने।।२८।।

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्।

तं दुरत्ययामाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम्।।२९।।

श्री शुक उवाच | Shri Shuk Uvach

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।

नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात् तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत्।।३०।।

तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः।

छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः।।३१।।

सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम्।

उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते।।३२।।

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।

ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिमूमुचदुस्त्रियाणाम्।।३३।।

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