वैदिक ज्योतिष में किसी भी ग्रह की शुभता या अशुभता जन्म कुंडली के लग्न पर निर्भर करती है क्योकि हर लग्न के लिए सभी ग्रहों का फल भिन्न होता है. यदि एक ग्रह किसी के लिए शुभ है तब यह जरुरी नहीं कि वह दूसरे के लिए भी शुभ ही हो. इसलिए शुभता व अशुभता का विश्लेषण ध्यान से करना चाहिए. ग्रहों की यह शुभता-अशुभता दशा के समय दिखाई देती है. ग्रह प्रभावशाली रुप में अपनी दशा/अन्तर्दशा में फल प्रदान करते हैं और यह फल कुंडली की बहुत सी अन्य बातों पर निर्भर करते हैं. आइए ग्रहों की दशा/अन्तर्दशा के विभिन्न घटकों पर विचार करते हैं कि यह कब शुभ होगी और कब अशुभ हो सकती है.

जब भी कुंडली की विवेचना की जाती है तब सबसे पहले नैसर्गिक शुभ तथा नैसर्गिक अशुभ ग्रहों के स्वाभाविक गुण, जिन भावों का स्वामी है वह, जहाँ स्थित है वह, लग्न से क्या संबंध है वह, अन्य ग्रहों से तथा भावों से संबंध आदि बातों का आंकलन ग्रह की दशा के समय किया जाना जरुरी है. उसी के आधार पर दशा के फलों के बारे में बताया जा सकता है.

  • यदि एक नैसर्गिक शुभ ग्रह केन्द्राधिपति दोष होने पर यदि बली अवस्था में स्थित है तब अपनी दशा/अन्तर्दशा में वह शुभ फल देने में सफल नहीं होता है.
  • यदि कुंडली में चंद्रमा स्वराशि, मित्रराशि, उच्च राशि का है और दशानाथ से त्रिकोण भाव मे, सातवें भाव या उपचय भाव में हो तब इसकी दशा शुभ होती है.
  • यदि एक नैसर्गिक शुभ ग्रह केन्द्राधिपति होने के साथ-साथ तीसरे, छठे या ग्यारहवें भाव का स्वामी हो तब भी शुभ परिणाम नहीं देते हैं और ऎसा ग्रह नैसर्गिक अशुभ ग्रह से भी अधिक बुरे परिणाम प्रदान कर सकता हैं.
  • एक नैसर्गिक शुभ ग्रह केन्द्राधिपति होकर यदि अपने केन्द्र भाव से तीसरे अथवा ग्यारहवें भाव में होता है तब वह श्रेष्ठ फल प्रदान करता है क्योकि तब उस ग्रह के केन्द्राधिपति दोष का निवारण हो जाता है.
  • एक नैसर्गिक शुभ ग्रह केन्द्राधिपति होकर यदि दूसरे या सातवें का भी स्वामी होता है या इन भावों में स्थित होता है तब यह ग्रह अपनी दशा/अन्तर्दशा में घातक फल दे सकता है.
  • यदि एक योगकारक ग्रह की दशा/अन्तर्दशा चल रही हो तब वह अपनी दशा में अतिशुभ फलों को देने में सक्षम होता है.
  • यदि त्रिकोणेश, त्रिक भाव में स्थित है तब वह अपनी दशा/अन्तर्दशा में शुभ फल ही देगा लेकिन यह शुभ फल संघर्षो, प्रयासों तथा परिश्रम के बाद ही मिलते हैं.
  • यदि कुंडली में कोई ग्रह त्रिकोण भाव के साथ तीसरे, छठे या ग्यारहवें भाव का स्वामी होता है तब उस ग्रह की आरंभ की दशा कठिनाईयों से भरी हो सकती है, लेकिन विफलताओ के बाद ही व्यक्ति के सौभाग्य में वृद्धि होती है.
  • यदि जन्म कुंडली में नैसर्गिक अशुभ ग्रह त्रिकोणेश होता है तो उसकी बजाय नैसर्गिक शुभ ग्रह के त्रिकोणेश होने पर ज्यादा शुभ फल मिलने की संभावना बनती है.
  • जिस ग्रह की दशा जन्म कुंडली में चल रही हो तो वह ग्रह उस भाव के भी फल देता है जिसमें वह स्थित होता है और उनका भी फल देता है जिनका वह कारक होता है.
  • यदि जन्म कुंडली में कोई ग्रह किन्ही दो अशुभ भावों का स्वामी हो जाता है तब वह अतिपापी बन जाता है. तीसरा, छठा तथा ग्यारहवाँ भाव शुभ नहीं माने जाते हैं. यदि इन तीनो भावों में से किन्ही दो भावों का स्वामी एक ही ग्रह बन जाता है तब वह अति अशुभ बन जाता है. जैसे तुला लग्न के लिए बृहस्पति तीसरे व छठे भाव के स्वामी होकर अति अशुभ बन जाते हैं और अपनी दशा में अशुभ परिणाम देते हैं.
  • जन्म कुंडली के आठवें भाव के स्वामी को सदा ही अशुभ माना गया है लेकिन द्वादशेश का फल उसकी युति पर निर्भर करता है. अष्टमेश जिस भाव में बैठता है उस भाव को खराब करता है और जिस ग्रह के साथ स्थित होता है उसे बिगाड़ता है.
  • द्वादशेश के फल कुंडली में उसकी स्थिति पर निर्भर करते हैं. यह ग्रह कहां स्थित है और किन ग्रहों के साथ संबंध बना रहा है, तब जाकर दशा में इसके फल दिखाई देते हैं.
  • बाधकस्थान में बैठा दशानाथ अपनी दशा में रोग तथा तनाव देता है और यदि यह ग्रह बाधकस्थान से केन्द्र में स्थित है तब जातक को विदेश गमन देता है. जातक इस दशा में अधिकतर समय परेशान तथा अप्रसन्न ही रहता है.
  • यदि कोई भी दो कट्टर विरोधी ग्रह एक-दूसरे को देख रहे हो तब उनकी दशा में अशुभ परिणाम मिलने की संभावना अधिक होती है.
  • जन्म कुंडली में जब भी कोई दो ग्रह आपस में राशि परिवर्तन करते हैं तब उनके गुणों व विशेषताओं का भी आपस में परिवर्तन होता है.