पोंगल पर्व, 15 जनवरी - 2024 (Pongal Festival, 15th Jan - 2024)

pongal पोंगल का त्योहार दक्षिण भारत में मनाया जाता है. इस त्योहार का संबंध फसल से जुडा़ है. पोंगल का अर्थ है - खिचडी़. इस दिन दक्षिण भारत में नई फसल आने के उपलक्ष्य में खिचडी़ बनाई जाती है. पारम्परिक रुप से यह त्योहार हर घर में मनाया जाता है. यह फसल कटाई का उत्सव है. यह त्योहार सम्पन्नता का सूचक है. इस त्योहार का संबंध फसल से जुडा़ है इसलिए तीन दिन तक वर्षा, धूप तथा खेती में काम आने वाले मवेशियों(पशुओं) की पूजा की जाती है. इन तीनों के बिना खेती करना किसान के लिए असंभव कार्य है. पोंगल के त्योहार का इतिहास में प्राचीन काल से महत्व चला आ रहा है.


यह त्योहार दक्षिण भारत में तीन दिन तक मनाया जाता है. दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में इस त्योहार को चार दिन तक मनाया जाता है. लेकिन मुख्य रुप से इस त्योहार को तीन दिन तक ही मनाने की परम्परा है. तीन तक चलने वाले इस त्योहार में पोंगल के तीन अलग नाम होते हैं :- भोगी पोंगल, सूर्य पोंगल और मात्तुपोंगल. कुछ भागों में चौथे दिन मनाने वाले पोंगल को कन्नु पोंगल के नाम से जाना जाता है.


भोगी पोंगल (Bhogi Pongal)

पोंगल का पहला दिन भोगी पोंगल के नाम से जाना जाता है. इस दिन बारिश के देवता इन्द्र की पूजा की जाती है. एक अच्छी फसल के लिए पानी की आवश्यकता पड़ती है. बिना पानी के किसान अपनी फसल को लहलहाते हुए नहीं देख सकता. इसलिए पोंगल के पहले दिन को भोगी पोंगल के नाम से जाना जाता है और इन्द्रदेव को प्रसन्न रखने के लिए उनकी पूजा की जाती है ताकि आने वाले समय में भगवान इन्द्र उन्हें आशीर्वाद दें और उनकी फसल की पैदावार पहले से अधिक हो.


इस दिन से दक्षिण भारत के नए कैलेण्डर की शुरुआत भी होती है. इस दिन सूर्योदय से पहले रात भर तक बहुत बडी़ आग जलाई जाती है, जिसमें घर का फालतू सामान जला दिया जाता है. उसके बाद सुबह के समय घर की सारी साफ-सफाई करने के पश्चात घर के बाहर चावल के आटे से रंगोली बनाई जाती है, जिसे कोलम कहते हैं. इस रंगोली के मध्य में गाय के गोबर के गोले बनाकर रखे जाते हैं और गोबर के गोलों के बीच में पीले या लाल रंग के फूल सजाये जाते हैं.


सूर्य पोंगल (Surya Pongal)

पोंगल के दूसरे दिन को सूर्य पोंगल कहा जाता है. इस दिन भगवान सूर्य की पूजा की जाती है. एक अच्छी फसल के लिए धूप की आवश्यकता होती है, इसलिए सूर्य देव की आराधना इस दिन की जाती है. इस दिन सूर्य मकर संक्रान्ति में प्रवेश करता है और उत्तरायण होता है. इस दिन किसान अपने आँगन में एक हाँडी या पीतल के बर्तन में खिचडी़ पकाते हैं. हाँडी को आग पर चढा़ने का भी एक मुहूर्त होता है. उस मुहूर्त के अनुसार ही खिचडी़ बनाई जाती है. उस बर्तन में एक हल्दी की जड़ की गाँठ को बर्तन में डालकर उसका एक सिरा बर्तन की गर्दन से बाँध देते हैं. बर्तन में चावल और मूँग की दाल की खिचडी़ पकाई जाती है. जब खिचडी़ में उफान आता है और वह बर्तन से बाहर आने लगती है तब उसमें घी तथा दूध डाला जाता है. उफान आने पर घर के सभी सद्स्य बहुत खुश होते हैं. खिचडी़ में उफान का संबंध घर के सुख तथा समृद्धि से जोडा़ गया है. बर्तन या हाँडी से खिचडी़ का दूध बाहर गिरता है तब इसे समृद्धशाली खेती का प्रतीक माना जाता है.


जिस बर्तन में पोंगल अर्थात खिचडी़ पकाई जाती है उसे " पोंगल पलाई" कहते हैं. खिचडी़ में काजू, किशमिश, नमक, काली मिर्च आदि डाली जाती है. इसे वेन पोंगल अर्थात श्वेत पोंगल कहा जाता है. कोई-कोई खिचडी़ में नमक के स्थान पर गुड़ का प्रयोग करते हैं. इस पोंगल को शर्करा पोंगल कहा जाता है. इस दिन भगवान सूर्य की पूजा सुबह के समय की जाती है. जब पोंगल बनकर तैयार हो जाता है तब अन्य पकवानों के साथ भगवान सूर्य भगवान को पोंगल, गन्ने तथा गुड़ का भोग लगाया जाता है और घर के सभी सदस्य और अन्य संबंधी इसे प्रसाद के रुप में ग्रहण करते हैं. इस प्रकार पोंगल त्योहार एक महाभोज के जैसा मनाया जाता है. साथ ही इस दिन गन्ने की पूजा की जाती है. गन्ने की फसल पक कर तैयार हो चुकी होती है. इस दिन सभी बाजारों में मेला सा लगा रहता है. जगह-जगह लोग गन्ने बेचते तथा गन्ने खरीदते दिखाई देते हैं. बच्चे और बडे़ सभी इस दिन गन्ना चूसते हैं.


मात्तु पोंगल (Mattu Pongal)

जिस दिन पोंगल का त्योहार मनाया जाता है उससे अगला दिन मात्तु पोंगल के नाम से जाना जाता है. इस दिन खेती में काम आने वाले पशुओं की पूजा की जाती है. जैसे गाय, बैल, साँड आदि. वर्तमान समय में अत्याधुनिक उपकरण होने के बाद भी अधिकतर किसान परम्परागत तरीके से ही खेती कर रहें हैं क्योंकि उनके पास धनाभाव है. इसलिए इन किसानों के लिए अपने खेतिहर पशुओं का बहुत महत्व होता है. इन पशुओं के बिना किसानों के लिए खेती करना असंभव कार्य है. इसलिए पशुओं का महत्व समझते हुए किसान इनकी पूजा करता है.


पशुओं की पूजा के साथ-साथ इस दिन साँडो़ अथवा बैलों की लडा़ई और बैलों की दौड़ का भी आयोजन किया जाता है. दक्षिण भारत में ऎसी मान्यता प्राचीन काल से चली आ रही है कि जिस घर में एक आक्रामक साँड होता है उस घर में मान प्रतिष्ठा बनी रहती है. आक्रामक साँड ना होने पर वह घर अपनी मान प्रतिष्ठा खो देता है. इसलिए अधिकतर व्यक्ति अपने घर में एक साँड को वर्ष भर पालते पोसते हैं और उसे आक्रामक बनाते हैं. मात्तु पोंगल के दिन किसान अपने-अपने साँडों और बैलों को लडा़ई और दौड़ के मैदान में लेकर आते हैं. इस दिन साँडों के गले में एक कपडा़ बाँध दिया जाता है और वह किसान अपने साँड के लिए अन्य लोगों को चुनौती देता है कि जो इसे काबू में कर लेगा उसे इनाम की रकम दी जाएगी. बहुत से व्यक्ति इस प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेते हैं, साँड को काबू में करने के लिए. साँड को अन्य किसानों द्वारा उकसाया जाता है ताकि प्रतिस्पर्धा में जीतने वाले आसानी से ना जीत पाएं. प्रतिस्पर्धा जीतने वाला किसान अन्य सभी प्रतियोगियों को दावत के लिए आमंत्रित करता है.


इस दिन बैलों को बैलगाडि़यों में जोतकर दौड़ का आयोजन किया जाता है. जीतने वाले किसान को इनाम की रकम प्राप्त होती है. इसके अतिरिक्त बहुत से बैलों को एक साथ दौडा़या जाता है और प्रथम आने वाले बैल के मालिक को इनाम मिलता है. इन सब प्रतिस्पर्धाओं के लिए किसान अपने बैलों तथा साँडों को साल भर प्रशिक्षण देते हैं.


कन्नु पोंगल (Kaanum Pongal)

पोंगल का त्योहार दक्षिण भारत के कुछ भागों में चौथे दिन भी मनाया जाता है. इस दिन इसे कन्नु पोंगल का नाम दिया गया है. इस दिन परिवार के सदस्य तथा सगे संबंधी एक-दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं. घर के बडे़ सदस्य छोटे बच्चों को उपहार देते हैं. इस दिन मुख्य रुप से पक्षियों को भोजन डाला जाता है. कई लोग केले के पत्तों पर खिचडी़ बनाकर बाहर पक्षियों के खाने के लिए रख देते हैं.