दूर्गा पूजन 2024 (Durga Pujan 2024)
मां दुर्गा का आठंवा रुप महागौरी के नाम से जाना जाता है. अष्टमी के दिन महागौरी की पूजा का विधान है. माता महागौरी की उपासना करने से भक्तों का कल्याण होता है. उनके सभी कलेश धूल जाते है. माता की शक्ति को अमोघ फल देने वाली कहा गया है. हम सभी दूर्गा पूजा तो करते है, परन्तु यह पूजा किस प्रकार की जाती है. यह जानने की जिज्ञासा भी हमारे मन में बनी रहती है.
कई बार हम पूजा करते है. पर पूजा की विधि की पूरी जानकारी न होने के कारण, पूजा करते समय कुछ गलतियां भी कर देते है, आईये दुर्गा पूजा विधि विधान को जानने का प्रयास करते है. कैसे की जायें, यह जानने का प्रयास करते है.
माता के रुप की व्याख्या (Description of Different Forms of Mata)
माता दुर्गा के रुप के विषय में कहा गया है. माता सिंह पर सवार है, उनके मस्तक पर चन्द्र का मुकुट है. जो कान्तिवाली है, जिसकी चार भुजाएं है. चार भुजाओं में शंख, चक्र, धनुष ओर बाण धारण किये हुए है. वह तीन नेत्रों वाली है. उसे बाजूबंद, हार, कंगन, करघनी, नुपूर आदि से सजी होती है. कानों में रत्न जडित कुण्डल होते है. माता दुर्गा दुष्टों का संहार करने वाली है.
पूजा प्रारम्भ करना (Beginning of Puja)
देवी की पूजा प्रारम्भ करते समय अगर माता की मूर्ति प्रतिष्ठित है, तो माता पर पुष्प चढाये जाते है. मूर्ति की प्रतिष्ठा न हुई हों, तो दुर्गाजी का आवाहन किया जाता है.
दुर्गा पूजा विधि (Method of Durga Puja)
आवाहन करने के लिये दोनों हाथों में फूल लेकर प्रतिमा पर चढायें. साथ ही नारियल की मुख्य पृ्ष्ठ को नीचे की और रखते हुए प्रतिमा पर चढायें. आवाहन के बाद माता को आसन दिया जाता है. सजा हुआ आसन या प्रतिमा पर फूल चढाकर आसन पर स्थापित होने की प्रार्थना की जाती है. लोटे से प्रतिमा या नारियल रुपी देवी के पैरों में जल चढाया जाता है.
इसके बाद अर्ध्य दिया जाता है. अर्ध्य देने के लिये पानी में लाल चन्दन घिसकर मिलायें, फूल डाले और चावल मिलाकर देवी के हाथों में लगाई जाती है. इस क्रिया को अर्ध्य के नाम से जाना जाता है.
अर्ध्य के बाद आचमन कराया जाता है, आचमन में कोर्रे घडे से निकला हुआ ठंडा चल, कपूर मिलाकर देवी से प्रार्थना करते हुए आचमन के लिये चढाया जाता है. फिर गंगाजल या किसी पवित्र नदी के जल लेकर प्रतिमा अथवा नारियल को स्नान कराया जाता है, इस कार्य को स्नान कहा जाता है. देवी को स्नान कराने के बाद फिर से आचमन के लिये कपूर युक्त, शुद्ध जल अर्पित किया जाता है.
जल स्नान के बाद गाय के दूध से स्नान कराया जाता है, इसके बाद गाय के दूध से बनी दही से स्नान कराया जाता है. तत्पश्चात गाय के घी से स्नान, और फिर शहद से स्नान कराया जाता है. शहद के बाद शक्कर से स्नान कराया जाता है.
माता को स्नान कराने के बाद पंचामृ्त तैयार किया जाता है. पंचामृ्त तैयार करने के लिये किसी दूसरे बर्तन में दूध, दहीं, घी, शहद, शक्कर मिलाकर पंचामृ्त बनाया जाता है. पंचामृ्त के लिये कांसे व चांदी के बर्तन को प्रयोग किया जा सकता है.
माता को शक्कर का स्नान कराने के बाद गंध उत्पादों से स्नान कराया जाता है, इस स्नान के लिये सफेद चंदन घिसकर पानी में मिलाकर माता को स्नान के लिये अर्पित किया जाता है. इसके बाद शुद्ध जल से स्नान कराया जाता है. और स्नान करवाने के बाद फिर से कपूर मिला जल आचमन के लिये दिया जाता है.
स्नानादि समाप्त होने के बाद माता को वस्त्र पहनाये जाते है. जिसमें लाल रंग की साडी पहनाने के बाद ऊपर से अलग से चुनरी पहनाई जाती है. हाथों में लाल रंग की मौली बांधी जाती है. वस्त्र पहनाने के बाद एक बार फिर से कपूर युक्त जल आचमन के लिये दिया जाता है.
वस्त्र पहनाने के बाद माता के गले में मंगल सूत्र के रुप में लाल या पीले रंग के मोतियों से युक्त या स्वर्ण से बने मोतियों से युक्त देवी के गले में पहनाया जाता है. मंगल सूत्र पहनाने के बाद लकडी वाला लाल चंदन, पानी सहित माता के माथे पर तिलक स्थान पर लगाया जाता है. इसके बाद इसी चंदन से कानों पर, बाजूओं पर, हथेलियों पर लगाया जाता है.
चन्दन तिलक के बाद माता को हल्दी का लेप लगाया जाता है. इसके लिये सब से पहले हल्दी को पहले से घिसकर लेप बनाकर सुखा लें, फिर उसका चूर्ण पूजा के लिये सावधानी से रख् लिया जाता है. और माता के सभी अंगों पर लगाया जाता है. बाजार से पीसी हुई हल्दी को इसके लिये कभी प्रयोग नहीं किया जाता है.
यह सब करने के बाद माता के हाथों व पैरों में कुमकुम लगाया जाता है. इसके बाद मात के माथे पर सिन्दूर की बिन्दी लगाईं जाती है. और बालों के अन्दर सिन्दूर भरा जाता है. कपूर को जलाकर उसकी लौ के ऊपर कांसे का बर्तन रख कर काजल एकत्रित किया जाता है. इस काजल को माता की आंखों में नीचे की तरफ सावधानी से दाहिने हाथ की अनामिका अंगूई में लगाया जाता है.
किसी नदी या साफ स्थान से लाई गई दूब 108 या कम से कम 18 दुब रोजना चढायें. शक्ति क्योकि शिव का रुप है, शक्ति के बिना शिव का कोई रुप नहीं है. इसलिए बिल्व पत्र की तीन पत्तियों वाली हरी कोमल शाखायें माता के तीन नेत्रों की प्रतीक है. बिल्बपत्र की शाखाओं को नौ से अधिक कभी नहीं चढाना चाहिए. सबसे अपहेल माता की आंखों के ऊपर लगायें, बाद में कान, नाक, मुंह, हाथ, नाभि, कटि, गुहा, पैरों में लगाना चाहिए.
अब बारी आती है, माता को आभूषण पहनाने की, दूर्गापूजा से पहले माता को सोने या चांदी के आभूषण पहनाये जाते है. जिसमें हार, कंगन, बाजूबंद, कुण्डल, पाजेब, बिछिया आदि बनवा लेने चाही. और पूजा करने समय पहनाने चाहिए. मूर्ति को विसर्जित करते समय इन गहनों को किसी कन्या को दान कर देना चाहिए.
माता को आभूषण पहनाने के बाद अपने हाथ से लाल फूलों की माला लाल रंग के धागे में अपने हाथों से पिरोना चाहिए. फूल सौ से अधिक या कम नहीं होने चाहिए. इसके बाद हल्दी का चूर्ण, सिन्दुर, हरी चूडियां श्रंगार का अन्य सामान सहित श्रंगारदान माता को दिया जाता है. माता को धूप देनी चाहिए.
इसके बाद माता को दीप दिखाया जाता है. नैवैद्ध के रुप में शक्कर, दही और खीर में घी मिलाक्र नैवेद्ध, माता को आहार के रुप में अर्पित किया जाता है. नैवेद्ध अर्पित करने के बाद आचमन के लिये कपूर मिला जल अर्पित किया जाता है. ऋतुफल चढायें जाते है. यह सब करने के बद इलायची, लौंग, सुपारी और पान माता को अर्पित किया जाता है. दक्षिणा के रुप में माता को सिक्के दें, सिक्के न होने पर अक्षत ही अर्पित करें.
जलते हुए दीपक से माता की सात बार आरती उतारें, आरती के बाद तांबे के लोटे में जल भर कर सात बार आरती उतारें. और 108 बार दूर्गा सप्तशती मंत्र का पाठ करें.